आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो
दिनांक 06-फरवरी, सन्
1981,
ओशो आश्रम, पूना।
प्रवचन-छठ्टवां-(बांस की पोंगरी का संगीत)
प्रश्न-सार
* किं भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं
तीर्थं परं किं स्वमनो विशुद्धम्।
किमत्र हेयं कनकं च कांता
श्राव्यं सदा किं गुरुवेदवाक्यम्।।
क्या आपको आद्य शंकराचार्य के
इन उत्तरों पर भी कोई आपत्ति है?
आप क्या कहेंगे, बताने की कृपा करें।
* मैं एक छोटा-मोटा कवि हूं।
आपके पास बड़ी आशा लेकर आया हूं।
आशीष दें कि मैं काव्य-जगत
में खूब ख्याति पाऊं।
पहला प्रश्न: भगवान,
किं भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं
तीर्थं परं किं स्वमनो
विशुद्धम्।
किमत्र हेयं कनकं च कांता
श्राव्यं सदा किं
गुरुवेदवाक्यम्।।
आभूषणों में श्रेष्ठ आभूषण क्या है? शील। सबसे
श्रेष्ठ तीर्थ क्या है? विशुद्ध किया हुआ अपना मन। इस संसार
में कौन सी वस्तुएं त्याज्य हैं? कांचन और कांता। सदा सुनने
योग्य क्या है? गुरु और वेद का वचन!
भगवान, क्या आपको आद्य शंकराचार्य के इन उत्तरों पर भी
कोई आपत्ति है? आप क्या कहेंगे, बताने
की कृपा करें।
पूर्णानंद,
सहजानंद
बड़ी मुश्किल से शांत हुए तो उनका कार्य पूर्णानंद ने उठा लिया। अब बस गोबरपुरी के
गणेश मुक्तानंद के आने भर की देर है।
देर
लगी आने में तुमको,
शुक्र है
फिर भी आए तो!
दिल
ने फिर भी आस न छोड़ी,
ऐसे हम
घबड़ाए तो!
भला
किया, आ गए। कोई न कोई शंकराचार्य के पीछे पड़े ही रहना। यह जरूरी है। इस देश के
दुर्भाग्य में शंकराचार्य का बहुत बड़ा हाथ है। इस देश को भटकाने में, भरमाने में, इस देश की जीवन-ऊर्जा को विनष्ट करने
में जितना महान कार्य शंकराचार्य ने किया है, किसी और ने
नहीं। एक पलवे पर सब संत-महात्मा रख दो और दूसरे पलवे पर अकेले शंकराचार्य,
तो भी वजनी पड़ेंगे। जैसे इस देश में जो भी सड़ा-गला था, सबका निचोड़ शंकराचार्य हैं। इस देश में जो भी गंदा था, व्यर्थ था, कूड़ा-करकट था, उस
सबको सजा कर, रंग-रोगन देकर, नये
वस्त्रों और नये आभूषणों में ढांक कर शंकराचार्य ने प्रस्तुत कर दिया है। जीवन की
नकारात्मकता इस देश के प्राणों में छाया हुआ सनातन कैंसर है। और शंकराचार्य में
आकर उस नकार भाव ने अपनी पूर्णता पा ली। यूं तो हम समझते हैं कि शंकराचार्य आस्तिक
हैं, लेकिन मेरे लेखे नहीं।
मेरे
लेखे, आस्तिक की परिभाषा से ईश्वर को मानने न मानने का कोई संबंध नहीं है।
आस्तिक वह है जो जीवन को स्वीकार करे, जीवन में आस्था रखे;
जो जीवन का समग्र अंगीकार करे, आलिंगन करे;
जो जीवन को कह सके--हां। जिसके भीतर "नहीं' न हो, वही आस्तिक है।
इसलिए
मैं बुद्ध को भी आस्तिक कहता हूं। उन्होंने ईश्वर को नहीं माना, आत्मा को
भी नहीं माना, लेकिन फिर भी वे आस्तिक हैं। महावीर को आस्तिक
कहता हूं। यद्यपि उन्होंने ईश्वर को नहीं माना। ईश्वर से आस्तिकता और नास्तिकता का
संबंध छोड़ दो। यूं तो दुनिया में कितने लोग ईश्वर को मानने वाले हैं, लेकिन आस्तिक कहां? अब हमें आस्तिक की कुछ नई गहराई
खोजनी होगी।
आस्तिक
वह है, जिसे इस जीवन में, जीवन के कण-कण में, रंग-रंग में, श्वास-श्वास में भगवत्ता का बोध होता
है। नहीं जाता मंदिर, नहीं जाता मस्जिद। जाए क्यों? क्योंकि सब जगह मंदिर है और सब जगह मस्जिद है। नहीं झुकता पत्थरों की
मूर्तियों के सामने। झुके क्यों? क्योंकि सभी जगह उसी
परमात्मा की जीवंत मूर्तियां मौजूद हैं। फूलों के सामने झुक लेता है। हरे वृक्षों
के पास झुक लेता है। चांदत्तारों के साथ नाच लेता है। इंद्रधनुषों के साथ गुनगुना
लेता है।
जीवन
अपने समस्त रूपों में परम सत्य की अभिव्यक्ति है। इसके अतिरिक्त और कोई परमात्मा
नहीं है। लेकिन सदियों से यह जहर कूट-कूट कर तुम्हारे रग-रेशे में भरा गया है कि
ईश्वर है जीवन-विरोधी;
अगर ईश्वर को पाना है तो जीवन को इनकार कर देना होगा, जीवन से पीठ फेर लेनी होगी, जीवन के युद्ध से हट
जाना होगा। और सबसे सुगम उपाय है जीवन से पीठ फेर लेने का--यह कह देना कि जीवन
भ्रम है, माया है, झूठ है, है ही नहीं। जब है ही नहीं तो पीठ तो करनी ही होगी।
और
मैं तुमसे कहता हूं: जीवन है। और जीवन से जिसने पीठ की, उसके
सामने सिवाय नकार के और कुछ भी नहीं बचता। न फूलों के रंग बचते हैं, न कोयलों की कूक बचती है, न मोरों का नृत्य बचता है,
न सौंदर्य, न सत्य, न
प्रेम। उससे जीवन की सारी रसधार विदा हो जाती है। वह तो सूख रहता है। और ऐसे ही
सूख गए, जीवन की रसधार से सब तरह से टूट गए लोगों को तुमने
संत और महात्मा कहा है।
शंकराचार्य
में यह नकार अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया।
पराकाष्ठा
यह है कि संसार है ही नहीं;
यह जो दिखाई पड़ रहा है, यह झूठ है। और जो नहीं
दिखाई पड़ रहा है, ब्रह्म, वह सत्य है।
यह जो तुम्हारे अनुभव में आ रहा है, झूठ है; और जो तुम्हारे अनुभव में नहीं आ रहा है, वह सत्य
है।
अनुभव
को नकारना, निश्चित ही, जीवन के नीचे से जमीन खींच लेनी है।
भारत की दरिद्रता, दीनता, दासता,
इसमें शंकराचार्य जैसे लोगों का हाथ है। जब जीवन है ही नहीं,
तो कौन चिंता करे? कौन फिकर ले? कौन उपजाए धन? जब कांचन छोड़ना है, तो फिर पैदा क्यों करना? भारत अपने हाथों कुरूप हो
गया। जब कामिनी छोड़नी है, कांता छोड़नी है, तो फिर कांति की कौन चिंता करे? फिर रूप की और सौंदर्य
की कौन साधना करे? धन त्याज्य है, इसलिए
धन पैदा करने का सवाल नहीं उठता। कोई जहर के बीज तो बोता नहीं। और कांता त्याज्य
है, स्त्री त्याज्य है।
और
जिस देश में स्त्री अपमानित हो जाती है, जिस देश में स्त्री सम्मान खो देती
है, उस देश में सभी का सम्मान खो जाता है; पुरुषों का भी, स्मरण रहे। क्योंकि अंततः तो स्त्री
ही बेटों को भी बड़ा करेगी और बेटियों को भी बड़ा करेगी। आखिर बेटे भी तो स्त्री की
ही कोख से जन्मेंगे। और जब स्त्री ही अपमानित हो गई हो तो उसकी कोख से जन्मे हुए
पुरुषों का क्या सम्मान हो सकता है? और अपमानित, पददलित, शोषित, सब तरह से
तिरस्कृत, निंदित स्त्री कैसे उन बच्चों को आत्म-गौरव दे
सकेगी? कैसे बल दे सकेगी अपने पैरों पर खड़ा होने का? यह असंभव है!
मैं
न तो धन का विरोधी हूं,
न रूप का, न सौंदर्य का, न संगीत का। मैं तो विरोध इन मूढ़तापूर्ण बातों का कर रहा हूं, जिनके कारण हमारे जीवन की नींव ही गिर गई।
हम
इस पृथ्वी पर पुरानी से पुरानी जाति हैं। और सारी सभ्यताएं नई हैं, हमारी
सभ्यता प्रागैतिहासिक है; इतिहास की जहां तक खोज जाती है,
उससे बहुत दूर, बहुत आगे तक हमारा फैलाव है।
इस बीच दुनिया में बहुत सी संस्कृतियां पैदा हुईं। बेबीलोन! लेकिन अब कहां?
खंडहर भी न बचे। असीरिया! लेकिन अब कहां? कोई
नामलेवा भी न बचा। मिस्र ने अपने गौरव के शिखर देखे। लेकिन अब कहां? बातें पुरानी पड़ गईं। सिर्फ मरुस्थलों में खड़े पिरामिड उनकी याददाश्त रह
गए। यूनान, जहां सुकरात और पाइथागोरस और हेराक्लाइटस और
डायोजनीज जैसे लोग रहे। अब कहां? अब कहां वह हिम्मत? अब कहां वह शान? अब फूल नहीं आते, वृक्ष कभी का सूख गया। रोम उठा और यूं उठा कि कहावत बन गई कि सभी रास्ते
रोम तक जाते हैं; कहीं से भी चलो, रोम
ही पहुंचना होगा। यूं सारे जगत का केंद्र बन गया। लेकिन अब क्या? अब रोम की क्या हैसियत?
एक
यह देश है, जिसका जाना हुआ इतिहास कम से कम दस हजार साल पुराना है और न जाना इतिहास
और भी कई हजार साल पुराना है। मगर क्या हुआ? इतने दिन से हम
जमीन पर हैं, हम अपने पैर भी न जमा पाए। क्या हुआ? हम जीवन के मंदिर की बुनियाद भी न रख पाए। कहीं कोई बहुत गहरी और बुनियादी
भूल हो गई। कहीं कोई ऐसी भूल हो गई है और इतनी पुरानी भूल है कि हम भूल ही गए कि
वह भूल है; हमने उसे स्वीकार ही कर लिया है कि वह सत्य है।
और
इस भूल में शंकराचार्य का सबसे बड़ा अनुदान है। अगर भारत के दुश्मनों की मैं फेहरिस्त
बनाऊं तो शंकराचार्य का नाम नंबर एक रखूंगा। जगत माया है और ब्रह्म सत्य है!
शीर्षासन करवा दिया! जगत,
जो कि परम सत्य है, ठोस है, सामने है, उसे असत्य कह दिया। और ब्रह्म, जिसका तुम्हें कोई पता नहीं, जिससे तुम्हारी कोई
पहचान नहीं, मुलाकात नहीं, उसको सत्य कह
दिया। उस सत्य ब्रह्म के लिए इस जगत को छोड़ना जरूरी है। और इस जगत को छोड़ने का
प्रारंभ कैसे होगा? कामिनी को छोड़ो! कांचन को छोड़ो! और यही
उनके हिसाब में चरित्र है, शील है। मेरे हिसाब में यह शील
नहीं, चरित्र नहीं।
पूर्णानंद, शंकराचार्य
के ये उत्तर यूं ऊपर-ऊपर से तो प्यारे लगेंगे, क्योंकि हमने
इतनी बार सुने हैं कि हमें कंठस्थ हो गए हैं। अब कौन इन पर इनकार करेगा?
इसलिए
तुमने पूछा कि क्या आपको आद्य शंकराचार्य के इन उत्तरों पर भी कोई आपत्ति है?
तुमने
सोचा होगा, इन पर तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। अब कैसा प्यारा वचन लगता है!
किं
भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं
तीर्थं परं किं स्वमनो
विशुद्धम्।
"आभूषणों में श्रेष्ठ आभूषण क्या है? शील।'
लेकिन
शील से अर्थ क्या है शंकराचार्य का? चरित्र से उनका क्या प्रयोजन है?
इसको ही वे चरित्र कहते हैं--जगत से भाग जाने को, भगोड़ेपन को, पलायनवाद को। इस नास्तिकता को ही वे
चरित्र कहते हैं। मैं नहीं कहूंगा। शील की बजाय तो तुम अगर मुझसे पूछो तो मैं
कहूंगा शीला बेहतर, कम से कम मेरे शोफर का काम तो करती है।
शील को क्या करोगे? ओढ़ोगे, पहनोगे,
खाओगे, पीयोगे, क्या
करोगे? किसी काम का नहीं। शोफर भी नहीं बन सकता।
और
शील को मूल्य देना आधारभूत भ्रांति है। अगर तुमने बुद्ध से पूछा होता यही, तो बुद्ध
कहते: सम्मासति! सम्यक स्मृति!
मूर्च्छा
हमारी बीमारी है। मूर्च्छित व्यक्ति को लाख चरित्रवान बनाने की कोशिश करो, चरित्र
ऊपर ही ऊपर रहेगा, भीतर तो मूर्च्छा ही भरी रहेगी। यूं समझो
कि कोई काला है, उसको रंग दिया, गोरा
कर दिया। इससे वह कुछ गोरा नहीं हो जाएगा। भीतर तो वह जैसा है वैसा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन बूढ़ा हो गया था। सफेद बाल, सफेद दाढ़ी। लगता था जैसे ओल्ड
टेस्टामेंट का कोई पैगंबर। लखनऊ की नुमाइश देखने गया था। नुमाइश और फिर उसमें दिल
न आ जाए! और फिर लखनऊ की नुमाइश! सुंदर स्त्रियां! धक्का-मुक्की करने लगा।
भारतीयता प्रकट हुई। सोचा--यहां भीड़-भाड़ में कौन देखता है! शील वगैरह तो बातचीत
करने के लिए हैं। भीड़-भाड़ में कौन देखता है!
लेकिन
एक जवान स्त्री ने कहा कि शर्म नहीं आती। बाल सफेद हो गए और इस तरह की बेहूदगी
करते हो, चिकोटी काटते हो!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा,
बाई, अब तुझसे क्या छिपाना! अरे बाल सफेद हो
गए तो मैं क्या करूं? दिल तो अभी भी काला है! सवाल दिल का है,
सवाल बालों का नहीं है।
अभी
स्वीडन में एक मनोवैज्ञानिक पर बड़ी मुसीबत आई है। मुसीबत यह आई है कि उसने एक इस
तरह का शोधकार्य किया है कि उसको मारे जाने तक की धमकी दी जा रही है। पत्र आ रहे
हैं उसके पास रोज,
फोन-कॉल आते हैं कि तुम अपने शोधकार्य को छापो मत। अखबारों में
सिर्फ संक्षिप्त विवरण छपा है; उससे ही बहुत तहलका मच गया
है।
उसका
शोधकार्य यह है...स्वीडन जैसे मुल्कों में उम्र तो बहुत बढ़ गई है। औसत उम्र सत्तर
साल हो गई है। तो सौ साल,
एक सौ दस साल, एक सौ बीस साल के बूढ़े मिल जाने
आसान हो गए हैं।...उसने एक शोधकार्य किया है कि बूढ़ों के जीवन में कामवासना की
क्या स्थिति है?
तो
उसने सत्तर साल से लेकर पंचानबे साल तक के लोगों के जीवन में खोजबीन की। उसने एक
हजार बूढ़ों से अंतरंग भेंटवार्ताएं लीं और उनसे कहा कि तुम्हारे नाम प्रकट नहीं
किए जाएंगे। उन्होंने कहा कि हमारा नाम भर प्रकट नहीं होना चाहिए, नहीं तो
हम बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे। क्योंकि कोई नब्बे साल का बूढ़ा, उसके
बेटे हैं, बेटों के बेटे हैं, उनके भी
बेटे हैं। अब इस उम्र में क्या सच्ची बातें कहो! मगर चूंकि नाम छिपाए रखने की बात
तय हो गई थी, जो उत्तर मिले वे हैरान करने वाले हैं।
उत्तर
ये हैं कि पंचानबे साल की उम्र में भी कामवासना नहीं जाती। बूढ़ा सिर्फ दिखाता है, यूं
दिखाता है कि जैसे यह सब तो फिजूल ही है, ये तो बचपन की
बातें हैं, ये तो जवानी के खिलौने हैं। यूं समझाता है अपने
मन को कि अरे यह सब तो माया, यह सब संसार! अब हम तो इसके पार
हुए, हम तो वृद्ध हुए!
जिन
एक हजार लोगों के उसने जीवन में प्रवेश करने की कोशिश की है और अंतरंग उनसे
वार्ताएं ली हैं,
उसके निष्कर्ष बड़े हैरान करने वाले हैं। वह कहता है, नब्बे और पंचानबे साल का बूढ़ा आदमी भी कामवासना से उतना ही पीड़ित होता है
जितना जवान, थोड़ा ज्यादा ही। फर्क इतना ही होता है कि जवान
आदमी कुछ कर सकता है, बूढ़ा आदमी कुछ कर नहीं सकता; उसकी सारी वासना मन ही मन में घूमती है। और डर के कारण कुछ नहीं कर सकता,
क्योंकि बच्चे क्या कहेंगे! बच्चों के बच्चे क्या कहेंगे! उनके भी
बच्चे, वे क्या कहेंगे--कि अरे बुढ़ापे में यह तुम क्या कर
रहे हो! किसी बूढ़ी से दोस्ती कर ले, प्रेम-पत्र लिखे,
फिल्मी गाने गाए--झंझट खड़ी घर में न हो जाए!
इस
आदमी के पास,
इस मनोवैज्ञानिक के पास सैकड़ों पत्र आए हैं, तार
आए हैं, फोन आए हैं कि तुम अपनी रिपोर्ट प्रकाशित मत करना।
क्योंकि तुम्हारी रिपोर्ट, सिर्फ अखबारों में संक्षिप्त
सूत्र आए हैं, लेकिन इससे हमारे घरों में बड़ी उपद्रव की बात
खड़ी हो गई है। बूढ़ों को इससे प्रोत्साहन मिल रहा है। अब हम यह बरदाश्त न कर सकेंगे
कि हमारे बूढ़े फिर स्त्रियों के पीछे भटकें। हमसे न देखा जाएगा। हमारी भी बदनामी
का सवाल है। लोग हमसे क्या कहेंगे कि अरे तुम्हारे परदादा कल फिल्मी गाना गा रहे
थे, सीटी बजा रहे थे! रिपोर्ट प्रकाशित नहीं होनी चाहिए।
और
यह हालत कोई स्वीडन की नहीं है, आदमी सब जगह एक सा आदमी है। ध्यान के बिना
वासना जाती नहीं। चरित्र को ऊपर से थोप लो, इससे कुछ भी नहीं
होता। आदमी शरीर से बूढ़ा हो जाता है, लेकिन मन से तो कोई कभी
बूढ़ा नहीं होता। ध्यान के अतिरिक्त कोई मन से मुक्त नहीं होता। मन तो रहेगा,
मरते दम तक रहेगा। आमतौर से मरते वक्त आदमी के मन में कामना के ही
विचार होते हैं, वासना के ही विचार होते हैं। जिसको जिंदगी
भर दबाया है वही मरते वक्त उभर कर सामने आ जाता है, क्योंकि
दबाने की ताकत भी समाप्त हो गई।
और
इसीलिए तो फिर दूसरा जन्म तत्क्षण हो जाता है। क्योंकि वही वासना, वही कामना
फिर नये जन्म की शुरुआत बन जाती है--वही बीज। इधर हम मरे नहीं, उधर जन्मे नहीं।
अब
जैसे इधर सोहन बैठी हुई है। अगर बुद्ध के ढंग से कहो...बुद्ध का यह ढंग था कहने
का...अगर सोहन बुद्ध के सत्संग में रही होती तो इससे उन्होंने कहा होता--मैं कहे
देता हूं--कि पहले जमाने में, पूर्वकाल में हुए सोहनी-महीवाल। मिलना न हो
सका। सो फिल्मी गीत गाते ही गाते जिंदगी बीती।
फिर
मरे। फिर पूना में हुए सोहन-माणिक। वही सोहनी-महीवाल! जरा सा नाम बदला:
सोहन-माणिक। सौभाग्य से या दुर्भाग्य से पिछले जन्म में तो मिलना नहीं हो पाया था, इसलिए
फिल्मी गाना चला। तुमने सोहनी-महीवाल फिल्म देखी हो, बस समझ
जाना। या हीर-रांझा या लैला-मजनू। सब मौजूद हैं। जाएंगे कहां? मैं कहता हूं सौभाग्य या दुर्भाग्य से--तुम समझ लेना मतलब--तब की बार
मिलना नहीं हुआ, इस बार सौभाग्य या दुर्भाग्य से मिलना हो
गया। सो महीवाल अर्थात माणिक लाल बाफना, वे भवानी पेठ में
गुड़ की दुकान करते हैं। अब कहां फिल्मी गाना! अब गुड़ बेचें कि फिल्मी गाना गाएं!
गुड़ बेचें, मक्खियां उड़ाएं। और सोहन बाल-बच्चों की और
बाल-बच्चों के बाल-बच्चों की चिंता में लगी है। अब रो रहे हैं। तब तो संन्यासी हुए
कि अब छुटकारा चाहिए।
सोहनी-महीवाल
को भी मैंने कहा था कि भैया, छुटकारा पा लो। नहीं माने। मानते कैसे? लेकिन सोहन और माणिक मान गए। माणिक बाबू गुड़ बेच-बेच कर समझ गए कि संसार
व्यर्थ। कुछ नहीं, बस गुड़ और मक्खियां! और सोहन भी समझ गई।
पुरानी कहावत है न: गुरु तो गुड़ रहे, चेला शक्कर हो गए! इसको
यूं कर लो कि गुरु तो गुड़ ही रहे, सोहन शक्कर हो गई। अब
दोबारा जन्म नहीं होगा। अब फल भोग लिया।
बूढ़ा
आदमी भी उसी जाल में है,
जिसमें जवान। वही खिलौने अभी भी उसके मन को आकर्षित करते हैं।
हालांकि अब वह प्रकट नहीं कर सकता, अब कह नहीं सकता, अब बदनामी होगी। ये तुम्हारे साधु-संन्यासी, तुम्हारे
महात्मा, जो शील की साधना कर रहे हैं, ये
कोई साधना नहीं है। यह सिर्फ ढोंग, यह पाखंड। ये ऊपर से राम-नाम
की चदरिया ओढ़ रहे हैं।
मैं
शंकराचार्य से राजी नहीं होऊंगा। मैं बुद्ध से राजी होऊंगा: सम्मासति। सम्यक
स्मृति ही एकमात्र आभूषण है! या मैं कबीर से, नानक से राजी होऊंगा। कबीर और नानक
से पूछोगे कि आभूषणों में श्रेष्ठ आभूषण क्या है? तो वे
कहेंगे: सुरति। वह सम्यक स्मृति, सम्मासति का ही रूप
है--सुरति। अपना स्मरण, आत्मबोध। महावीर से पूछोगे, महावीर कहेंगे: विवेक, अमूर्च्छा, जागृति। इन सबको ही मैं ध्यान कह रहा हूं। ये सब ध्यान के ही अंग-प्रत्यंग
हैं। ध्यान के मंदिर के अलग-अलग द्वार। मगर आभूषणों में एक ही आभूषण है और वह है:
भीतर से मूर्च्छा का टूट जाना और जागरण की ज्योति का जल जाना। इससे कम किसी चीज को
मैं आभूषण मानने को राजी नहीं हूं।
हां, उसके पीछे
शील अपने आप आता है। वह परिणाम है। उसे लाना नहीं पड़ता। जिसके भीतर जागरण है,
उसके जीवन में भी जागरण की छाप होती है। जिसके भीतर जागरण है,
उसके बाहर भी जागरण की किरणें आती हैं। उसके आचरण में, उसके व्यवहार में, उसके उठने-बैठने तक में एक प्रसाद
होता है, एक सौंदर्य होता है। उससे हिंसा नहीं हो सकती। उससे
किसी दूसरे को कष्ट नहीं दिया जा सकता। वह असंभव है।
नागार्जुन
से एक चोर ने कहा था कि तुम ही एक आदमी हो जो शायद मुझे बचा सको। यूं मैं बहुत
महात्माओं के पास गया,
लेकिन मैं जाहिर चोर हूं, मैं बड़ा प्रसिद्ध
चोर हूं। और मेरी प्रसिद्धि यह है कि मैं आज तक पकड़ा नहीं गया। मेरी प्रसिद्धि
इतनी हो गई है कि जिनके घर मैंने चोरी भी नहीं की, वे भी
लोगों से कहते हैं कि उसने हमारे घर चोरी की। क्योंकि मैं उसी के घर चोरी करता हूं
जो सच में ही धन वाला है, हर किसी ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे के घर
चोरी नहीं करता। सम्राटों पर ही मेरी नजर होती है। और कोई मुझे पकड़ नहीं पाया है।
लेकिन तुमसे मैं पूछता हूं। और महात्माओं से पूछता हूं तो वे कहते हैं: पहले चोरी
छोड़ो।
रहे
होंगे शंकराचार्य जैसे लोग। पहले चोरी छोड़ो, पहले अचौर्य व्रत धारण करो,
फिर आगे बात होगी।
और
उस चोर ने कहा,
आप समझ सकते हैं कि यह तो मैं नहीं छोड़ सकता। यह छोड़ सकता तो इन
महात्माओं के पास ही क्यों जाता, खुद ही छोड़ देता। छोड़ने का
ढोंग कर सकता हूं, लेकिन ढोंगी मुझे नहीं होना। कोई ऐसी
तरकीब बता सकते हो कि मुझे छोड़ना न पड़े और छूट जाए? क्योंकि
छोड़ना पड़े तो मुझसे न छूट सकेगा। यह तो मैं कर-कर के देख चुका। बहुत नियम, बहुत संयम, बहुत दफे कसमें खा लीं, व्रत ले लिए। मगर सब व्रत टूट गए, सब कसमें टूट गईं
और हर बार चित्त आत्मग्लानि से भर गया, क्योंकि मैं फिर-फिर
वही कर लेता हूं।
नागार्जुन
ने कहा कि तूने फिर अब तक किसी महात्मा का सत्संग किया ही नहीं। तू भूतपूर्व चोरों
के पास चला गया होगा। यह तो सीधी-सादी बात है। चोरी से क्या लेना-देना है? चोरी जी
भर के कर।
चोर
चौंका। चोर भी चौंका! उसने कहा, क्या कहते हो, चोरी जी भर
के करूं!
नागार्जुन
ने कहा, चोरी जी भर के कर। चोरी से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। सिर्फ एक बात का ध्यान
रख कि चोरी करते वक्त होश सम्हाले रखना। जान कर चोरी करना कि चोरी कर रहा हूं,
कि यह देखो ताला खोला, यह देखो तिजोड़ी खोली,
यह देखो हीरे निकाले, ये हीरे मेरे नहीं हैं,
दूसरे के हैं। बस होश रहे। रोकना मत। चोरी करने को मैं कहता नहीं कि
मत कर। जी भर के कर, दिल खोल के कर। होशपूर्वक करना।
पंद्रह
दिन बाद वह चोर आया और उसने कहा कि तुमने मुझे फांसा, तुमने
मुझे मुश्किल में डाल दिया। कोई महात्मा मुझे मुश्किल में न डाल सका था। कसमें ले
लेता था, तोड़ देता था। फिर कसमें लेना और तोड़ना ही मेरा ढंग
हो गया, मेरे जीवन की शैली हो गई। वही मेरी आदत हो गई। लेते
वक्त भी जानता था कि तोडूंगा। और तोड़ते वक्त जानता था कि फिर ले लूंगा, ऐसा क्या है! लेकिन तुमने मुझे उलझा दिया। यह तुमने क्या बात कही! अगर होश
रखता हूं तो तिजोड़ी खुली रह जाती है। हीरे सामने होते हैं, हाथ
नहीं बढ़ता। और अगर हाथ बढ़ता है तो होश खोता है। दोनों बातें साथ नहीं सधतीं। या तो
चोरी करूं तो होश खोता है और या होश सम्हालूं तो चोरी खोती है।
नागार्जुन
ने कहा, अब यह तू जान। अब यह तेरी झंझट। हमारा काम खतम हो गया। अब तुझे जो बचाना
हो! होश बचाना हो, होश बचा लो; चोरी
बचाना हो, चोरी बचा ले। हमें क्या लेना-देना है? तेरी जिंदगी, तू जान।
चोर
ने कहा, और मुश्किल खड़ी कर दी। क्योंकि दो बार होश को बचा कर बिना चोरी किए हुए घर
लौट आया। और जीवन में जो आनंद और जो शांति मैंने पाई उन रातों में, ऐसी कभी न पाई थी। अगर हीरे भी ले आता तो किसी काम के न थे। हीरे छोड़ कर
आया, हाथ में आ गए हीरे छोड़ कर आया--तिजोड़ी खोल ली थी,
सामने हीरे दमदमा रहे थे, उनको छोड़ कर आया--और
घर आकर ऐसी तृप्ति पाई, ऐसा संतोष पाया, ऐसा आनंद पाया, ऐसी प्रफुल्लता, जैसी मैंने कभी अनुभव न की थी। तो मूर्च्छा तो अब फिर वापस नहीं ले सकता।
जागृति तो बचानी ही होगी।
तो
नागार्जुन ने कहा,
फिर तू समझ। जागृति बचानी है तो चोरी जाएगी। दोनों साथ नहीं चल
सकतीं।
शील, चरित्र,
आचरण ऊपरी बात है। समाधि, ध्यान भीतरी बात है।
मैं तो आभूषण कहूंगा सुरति को, समाधि को, ध्यान को, जागरण को। शील तो उसकी साधारण सी
अभिव्यक्ति है। अपने आप जैसे तुम्हारे पीछे छाया चलती है, ऐसे
ही समाधि के पीछे सम्यक आचरण चलता है। सम्यक बोध हो तो उसके पीछे सम्यक आचरण चलता
है। और अगर तुम मूर्च्छित हो तो लाख उपाय करो, तुम्हारे सब
उपाय व्यर्थ जाएंगे, तुम मूर्च्छित ही रहोगे। तुम जहां रहोगे
वहां मूर्च्छित रहोगे।
शंकराचार्य
कहते हैं: "सबसे श्रेष्ठ तीर्थ क्या है? विशुद्ध किया हुआ अपना मन ही।'
अब
इससे भी गलत कोई और बात हो सकती है, पूर्णानंद? मन
कभी विशुद्ध होता है?
या
तो मन होता है या नहीं होता है। मन और विशुद्ध! यह तो यूं हुआ जैसे जहर और शुद्ध!
कितना ही शुद्ध हो,
जहर तो जहर ही रहेगा, और जहर हो जाएगा। यह तो
यूं हुआ जैसे बीमारी और स्वस्थ। यह तो यूं हुआ कि जैसे तूफान और शांत! भाषा में
चलती हैं बातें। भाषा में तो क्या नहीं चलता!
मुल्ला
नसरुद्दीन के घर एक मेहमान आया। और उसने कहा, भई, बहुत
प्यास लगी है। एक पानी का गिलास!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा,
असंभव! यह नहीं हो सकता।
उस
आदमी ने कहा,
हद हो गई! एक पानी का गिलास नहीं दे सकते मेहमान को! इसमें ऐसी क्या
असंभावना है?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा,
पानी का गिलास हो ही नहीं सकता। गिलास में पानी कहो तो दे दूं।
अब
कुछ लोग होते हैं जो भाषा को पकड़ने वाले होते हैं। उसने भाषा पकड़ ली--पानी का
गिलास कहीं होता है?
कैसे पानी का गिलास बनाओगे?
मगर
भाषा में चलता है। जैसे तूफान आया और शांत हो गया, तो हम कहते हैं--तूफान शांत
हो गया। हमें कहना चाहिए--तूफान न हो गया। तूफान शांत होने का कोई मतलब ही नहीं
होता। तूफान यानी अशांति। अशांति कैसे शांत हो सकती है? अभाव
हो सकता है।
इसलिए
जिन्होंने जाना उन्होंने मन को विशुद्ध करने को नहीं कहा है। उन्होंने मन को अमन
करने को कहा है। नानक ने जगह-जगह कहा है: अ-मनी अवस्था। शुद्ध मन की अवस्था नहीं, अ-मनी
अवस्था। झेन फकीर कहते हैं: नो माइंड। प्योर माइंड नहीं, शुद्ध
मन नहीं--मन से मुक्ति। जब तक मन है तब तक अशुद्धि है। मन और अशुद्धि पर्यायवाची
हैं, इनमें कुछ भेद नहीं।
हर
घर अपना घर, पर बंजारा मन।
गली-गली
भटके, यह आवारा मन।।
एक
से हजार हुआ,
यह सारा मन।
गिर
कर न सिमटे फिर,
यह पारा मन।
खुद
को ही जीत-जीत,
है हारा मन।
कितना
बेबाक, कितना बेचारा मन।
हर
घर अपना घर, पर बंजारा मन।
गली-गली
भटके, यह आवारा मन।।
शूल-सा
चुभे, यह फूल-सा प्यारा मन।
अंधा, पर सबकी
आंखों का तारा मन।
खुद
के न पांव, पर सबका सहारा मन।
हर
गले का हार, यह गले की कारा मन।
हर
घर अपना घर, पर बंजारा मन।
गली-गली
भटके, यह आवारा मन।।
हर
कहीं दिल दे बैठे,
यह क्वांरा मन।
कोठे
का किवारा, मंदिर का भी द्वारा मन।
हर
बर्तन की हो ले,
ऐसी जलधारा मन।
कितना
भोला है और कितना हुशियारा मन!
हर
घर अपना घर, पर बंजारा मन।
गली-गली
भटके, यह आवारा मन।।
नये-नये
रूप धरे, फिर वही दुबारा मन।
बेनकाब
कैसे हो, यह सजा-संवारा मन।
छुप-छुप
कर बदले ले, यह इनकारा मन।
जाने
कब डस ले, यह फन मारा मन।
श्वान-सा
हो संग, फिर-फिर दुतकारा मन।
हर
घर अपना घर, पर बंजारा मन।
गली-गली
भटके, यह आवारा मन।।
पीकर
न प्यास बुझे,
सागर-सा खारा मन।
कस्तूरी
मृग-सा फिरे,
वन-वन यह मारा मन।
होश
से मिले तो हरदम करे किनारा मन।
देखते
ही छार हो, यह अनंग-अंगारा मन।
शव
से शिव-रूप हुआ,
यह मन से मारा मन।
हर
घर अपना घर, पर बंजारा मन।
गली-गली
भटके, यह आवारा मन।।
एक
अबूझ पहेली, एक जादुई पिटारा मन।
अभी
लहर, अभी भंवर, अभी किनारा मन।
हमसे
ही दगा करे, बेवफा हमारा मन।
दुश्मन
से भी जालिम,
दोस्त से भी प्यारा मन।
हर
घर अपना घर, पर बंजारा मन।
गली-गली भटके, यह आवारा मन।।
इस
मन को शुद्ध करने का कोई उपाय न कभी था, न हो सकता है। मन से मुक्त होने का
उपाय है। मन के पार होने का उपाय है। मन के अतिक्रमण का उपाय है।
इसलिए
मैं न कहूंगा कि सबसे श्रेष्ठ तीर्थ क्या है?
शंकराचार्य
कहते हैं: "विशुद्ध किया हुआ अपना मन ही। तीर्थं परं किं स्वमनो विशुद्धम्।'
मन
विशुद्ध भी हो जाए तो अपना है। अभी भी मैं-भाव बना रहेगा। अहंकार बना रहेगा। शुद्ध
हो जाएगा अहंकार,
पवित्र अहंकार हो जाएगा, पायस ईगो! और भी
भयंकर बात।
शून्यता
लानी है, शुद्धता नहीं।
मुझसे
पूछो तो मैं कहूंगा: शून्यता ही एकमात्र शुद्धता है। और जहां तक मन है वहां तक
किसी न किसी रूप में अशुद्धता रहेगी। मन यानी भरा हुआ। मन है क्या? विचार,
वासना, कल्पना, स्मृति,
अतीत, भविष्य, आपाधापी,
बेचैनी, विडंबना, कुतूहल,
प्रश्नों का ढेर, बेबूझ पहेलियां। मन है क्या?
सब तरह के जंजालों का नाम मन है। इसको कैसे विशुद्ध करोगे? हां, इसका अतिक्रमण हो सकता है। इसके पार जाया जा
सकता है। और उस पार जाने का नाम ही तीर्थ है। और जो पार चला गया, उसे मैं तीर्थंकर कहता हूं।
शून्यता
की एक शराब है,
एक मस्ती है। जो मन को शुद्ध करने में लगेगा, उसमें
मस्ती नहीं हो सकती। वह हमेशा अकड़ा-अकड़ा रहेगा, सम्हला-सम्हला
रहेगा। क्योंकि पारे सा है मन, जरा में छिटक जाए, जरा में भटक जाए। अभी सब ठीक था, अभी सब खराब हो
जाए। देर नहीं लगती उसके बिगड़ने में। वह तो बिगड़ने को आतुर ही बैठा है, अवसर चाहिए।
तो
जो आदमी मन को शुद्ध करने में लगेगा, वह भगोड़ा हो ही जाने वाला है। वह
छिपेगा जंगल में, पहाड़ पर, गुफाओं में,
मंदिरों में। वह भागेगा दुनिया से, क्योंकि
यहां दुनिया में हजार अवसर हैं, हजार चुनौतियां हैं। और मन
हर चुनौती को पकड़ लेता है। और वह कहता है, जरा इसका मजा तो
ले लो। और तो कोई मजा तुमने जाना नहीं है।
एक
बात तुमसे कहूं,
बुनियादी बात, जो मेरे प्रत्येक संन्यासी को
स्मरण रखनी चाहिए: छोटे मजे छोड़े जा सकते हैं तभी, जब बड़ा
मजा मिले; छोटा धन छोड़ा जा सकता है तभी, जब बड़ा धन मिले; छोटे घर छोड़े जा सकते हैं तभी,
जब बड़ा महल मिले। जिस दिन तुम्हारे जीवन में आनंद की पुलक होगी,
शून्य का संगीत होगा, यूं जैसे कि शून्य ने
तुम्हारे भीतर शराब बहा दी, फिर मन तुम्हें नहीं भटका सकेगा।
क्या खाक भटकाएगा? जिसने हीरों को पा लिया वह कोई कंकड़-पत्थर
बीनेगा? और जब तक कंकड़-पत्थर बीनता है, तब तक उसे बचाने का एक ही उपाय है कि जहां-जहां कंकड़-पत्थर हों वहां मत
जाने देना, नहीं तो बीन लेगा। उसे दूर ही रखना कंकड़-पत्थर
से। उसको ऐसी जगह रखना जहां कंकड़-पत्थर रंगीन मिलते ही न हों। बिठा देना कहीं गुफा
में, किसी रेगिस्तान में, किसी आश्रम
में बंद कर देना कि कंकड़-पत्थर न मिल जाएं, नहीं तो फौरन बीन
लेगा।
यह
मेरा हिसाब नहीं। यह कोई बचाव हुआ? यह कोई क्रांति हुई? मैं तो कहता हूं: हीरे पा लो, फिर कंकड़-पत्थर कितने
ही पड़े रहें, पड़े रहें, तुम्हें कोई
अंतर न पड़ेगा। क्या तुम सोचते हो, हीरे मिल जाएं और तुम्हारे
हाथ और तुम्हारी झोली हीरों से भरी हो तो तुम कंकड़-पत्थर उठाओगे? असंभव!
इसलिए
मैं तो अपने इस मंदिर को मयकदा कहता हूं--इसी कारण। मैं तुमसे शराब छोड़ने को नहीं
कहता, मैं तो तुमसे असली शराब पीने को कहता हूं। फिर नकली शराब छूट जाएगी। आत्मा
में ढली पी लो तो अंगूर की ढली छूट जाएगी।
ये
है मैकदा, यहां रिंद हैं, यहां सबका साकी इमाम है
यह
हरम नहीं अरे शेख जी,
यहां पारसाई हराम है
ये
है मैकदा...
जो
जरा सी पीकर बहक गया,
उसे मैकदे से निकाल दो
यहां
कमनजर का गुजर नहीं,
यहां अहले-जर्फ का काम है
ये
है मैकदा...
कोई
मस्त है, कोई तश्नालब, तो किसी के हाथ में जाम है
मगर
इसका कोई करे भी क्या,
ये तो मैकदे का निजाम है
ये
है मैकदा...
ये
जनाबे शेख का फलसफा,
भी अजब है सारे जहान से
जो
वहां पियो तो हलाल है,
जो यहां पियो तो हराम है
ये
है मैकदा...
इसी
कायनात में ऐ जिगर,
कोई इंकलाब उठेगा फिर
कि
बुलंद हो के भी आदमी यहां ख्वाहिशों का गुलाम है
ये
है मैकदा...
ये
है मैकदा, यहां रिंद हैं, यहां सबका साकी इमाम है
यह हरम
नहीं अरे शेख जी, यहां पारसाई
हराम है
पारसाई
का अर्थ होता है: संयम।
ये है
मैकदा,
यहां रिंद हैं...
यह
मैकदा है, यहां पियक्कड़ हैं।
...यहां सबका साकी
इमाम है
यहां
तो हम एक ही तरह के इमाम को पहचानते हैं--साकी को। साकी सूफियों की भाषा में परमात्मा
का नाम है--जो ऐसी पिलाए,
ऐसी पिलाए कि होश भी आए, बेहोशी भी आए;
जो ऐसी पिलाए, ऐसी पिलाए कि होश भी आए और
बेहोशी भी आए, ऐसी आए कि फिर कभी जाए नहीं। होश और बेहोशी
साथ-साथ आए और सदा के लिए आए।
यह हरम
नहीं अरे शेख
जी...
ऐ
मुल्लाओ, ऐ पंडितो, ऐ अयातुल्लाओ, पोपो-पादरियो-पुरोहितो!
...यहां पारसाई हराम
है
यहां
एक ही चीज पाप है और वह है संयम। तुम कहोगे मैं भी क्या बात कह रहा हूं! मगर मैं
भी क्या करूं?
ये है मैकदा!
ये
है मैकदा, यहां रिंद हैं, यहां सबका साकी इमाम है
यह
हरम नहीं अरे शेख जी,
यहां पारसाई हराम है
जो जरा
सी पीकर बहक
गया, उसे मैकदे से
निकाल दो
जो
जरा सी पीकर बहक जाए,
उसने अभी पीना जाना ही नहीं, पीने की कला नहीं
सीखी। जो जरा सी पीकर बहक जाए, उसने अभी सागर पीने नहीं
सीखे। और यहां हम बूंद-बूंद पीना नहीं सिखाते, सागर ही पीना
सिखाते हैं।
यहां
कमनजर का गुजर नहीं...
यहां
ओछी दृष्टि वालों का कोई गुजर नहीं। वे हिंदू हों कि मुसलमान कि ईसाई कि पारसी कि
सिक्ख कि जैन कि बौद्ध,
जिनकी छोटी नजर है, ओछी नजर है, उनका यहां कोई काम नहीं।
यहां
कमनजर का गुजर नहीं,
यहां अहले-जर्फ का काम है
यहां
तो उनका काम है जिनमें सच में योग्यता हो। अहले-जर्फ! जिनमें पात्रता हो, जो कि
शराब को झेल सकें, जो कि जाम बन सकें।
कोई
मस्त है, कोई तश्नालब, तो किसी के हाथ में जाम है
मगर
इसका कोई करे भी क्या,
ये तो मैकदे का निजाम है
यहां
तो सब तरह के लोग होंगे--कोई मस्त, पीकर मस्त, और
कोई प्यास में भी मस्त!
कोई
मस्त है, कोई तश्नालब...
कोई
पीकर मस्त है,
कोई प्यास में भी मस्त है। किसी के हाथ में जाम है और किसी के हाथ
में जाम भी नहीं। मगर मस्ती है।
मगर
इसका कोई करे भी क्या...
इसका
कुछ किया नहीं जा सकता,
क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजता है। संयम सारे व्यक्तियों
को पोंछ डालता है, उनकी निजता को मिटा देता है, उनके व्यक्तित्व को एक सांचे में ढाल देता है। और जहां सांचा है वहां आदमी
मर जाता है, वहां आत्मा मर जाती है।
ये
जनाबे शेख का फलसफा,
भी अजब है सारे जहान से
मगर
ये तथाकथित धार्मिक लोग,
इनका फलसफा भी बड़ा अजीब है। ये कहते हैं, यहां
तो सुख वर्जित है और वहां परलोक में...जो यहां सुख को छोड़ेगा वहां सुख को पाएगा।
यह कैसा गणित है? यहां तो शंकराचार्य कहते हैं: धन छोड़ो!
कहते हैं: कांचन और कांता छोड़ो! और पाओगे क्या? स्वर्ग में
सोना ही सोना है। सोने के रास्ते, हीरे-जवाहरातों से लदे हुए
वृक्ष। यहां छोड़ो और वहां पाओगे। यहां कांता को छोड़ो और वहां इंद्र महाराज क्या कर
रहे हैं स्वर्ग में बैठे? अप्सराओं को नचा रहे हैं! थके भी
नहीं; अप्सराएं भी थक गई होंगी। छुट्टी भी कभी वहां होती है,
इसका भी किसी पुराण में उल्लेख नहीं। रविवार आता ही नहीं, चलता ही रहता है नाच। इंद्र महाराज का कुल काम इतना है कि मेनका, उर्वशी इत्यादि-इत्यादि महिलाएं नाच रही हैं। देवगणों का काम क्या
है--भोग! यहां जिन्होंने त्याग किया है, संयम किया है,
उनको स्वर्ग में खूब भोगने का अवसर मिलेगा। क्या अजीब फलसफा है!
ये
जनाबे शेख का फलसफा,
भी अजब है सारे जहान से
जो वहां
पियो तो हलाल है, जो यहां
पियो तो हराम
है
और
मुसलमानों ने तो गजब कर दिया! वे तो कहते हैं: बहिश्त में, स्वर्ग
में शराब के चश्मे बह रहे हैं। यहां पीयो तो हराम और वहां पीयो तो हलाल! यहां पीयो
तो पाप और वहां पीयो तो पुण्य! यह कैसा फलसफा? यह कैसा दर्शन?
इसी कायनात
में ऐ जिगर, कोई इंकलाब उठेगा
फिर
आ
गई है जरूरत किसी बड़ी क्रांति की, किसी महाक्रांति की।
इसी
कायनात में ऐ जिगर,
कोई इंकलाब उठेगा फिर
कि
बुलंद हो के भी आदमी यहां ख्वाहिशों का गुलाम है
ये
भी ख्वाहिशें हैं--स्वर्ग की, मोक्ष की। ये भी वासनाएं हैं, इनसे भी आदमी मुक्त हो तो ही आदमी अपनी परम स्वतंत्रता को पा सकता है।
लेकिन
इनसे आदमी तभी मुक्त होगा जब भीतर के आनंद के झरने बह उठें। फिर किसको फिक्र पड़ी
बहिश्त की! कौन फिकर करता है जन्नत की! फिर तो जहां हो वहीं जन्नत है। फिर तो तुम
ही जन्नत हो,
तुम ही स्वर्ग हो। फिर मरने के बाद नहीं है मोक्ष। मोक्ष तो ध्यानी
की श्वास-श्वास में है। मोक्ष तो समाधिस्थ के रोएं-रोएं में है। समाधिस्थ की छाया
भी किसी पर पड़ जाए तो उसे भी थोड़ा मोक्ष का स्वाद आ जाता है।
शंकराचार्य
का यह कहना कि इस संसार में कौन सी वस्तुएं त्याज्य हैं--भारत की पिटी-पिटाई बकवास
है--कांचन और कांता,
स्त्री और धन।
और
मजा यह है कि ये भारतीय सारे तथाकथित ज्ञानी जैसे पुरुषों को ही संबोधन कर रहे हैं; स्त्रियों
से तो कोई प्रयोजन ही नहीं है। और मजा ऐसा है कि इनकी सभाओं में सुनने वाली
स्त्रियां ही ज्यादा। पुरुष तो कुछ आ जाते हैं लफंगे धक्का-मुक्की करने या
अपनी-अपनी पत्नियां की रक्षा करने, कि कहीं महात्मा किसी को
ले न भागें! ब्रह्मचारियों का भरोसा क्या! और बाल-ब्रह्मचारियों का तो बिलकुल
भरोसा नहीं। तो अपनी पत्नियों पर नजर रखने कुछ पुरुष आ जाते हैं और कुछ पुरुष
दूसरों की पत्नियों पर नजर रखने आ जाते हैं। महात्माओं से उन्हें क्या लेना-देना?
और ये महात्मा, स्त्रियों के बीच ही इनका सारा
धंधा चलता है। तुम जाकर देख लो, जहां भी महात्मा बोल रहे हों,
स्त्रियां बैठी हैं, मगन होकर सिर हिला रही
हैं। और ऐसी-ऐसी बातों में सिर हिला रही हैं कि पिटाई कर देनी चाहिए महात्मा की,
कि उठा कर डंडे...। बेलन इत्यादि लेकर ही जाना चाहिए सभा में। इन
महात्माओं के छक्के छुड़ा देना चाहिए।
सिर्फ
स्त्री से ही मुक्त होना है पुरुष को? पुरुष को स्त्री से मुक्त होना है,
यह तो ये बकवास करते हैं; लेकिन स्त्री को भी
पुरुष से मुक्त होना है, यह बिलकुल नहीं कहते।
असल
में, स्त्री की मुक्ति की चिंता किसको पड़ी है? सच तो यह
है कि इन महात्माओं का खयाल है: स्त्रियां मुक्त हो ही नहीं सकतीं। जो हो ही नहीं
सकता, जो असंभव ही है, उसकी झंझट में
क्यों पड़ना?
मैं
इस तरह की बातों से राजी नहीं हो सकता। स्त्री-पुरुष दोनों में कुछ भी भेद नहीं
है। दोनों ही एक ही हड्डी-मांस-मज्जा से बने हैं; और दोनों के भीतर एक सा ही
वासनाओं से भरा मन है; और दोनों के भीतर एक सी ही आत्मा भी
विराजमान है। शरीर में जीओ तो दोनों पागल हैं; मन में जीओ तो
दोनों जाल में उलझे हैं; और आत्मा में पहुंच जाएं तो दोनों
मोक्ष में हैं। और आत्मा न स्त्री होती है, न पुरुष होती है।
और
आखिरी बात, उन्होंने कहा: "सदा सुनने योग्य क्या है? गुरु
और वेद का वचन।'
ये
दो काहे के लिए जोड़ दिए?
गुरु पर्याप्त था। वेद का वचन क्यों जोड़ दिया?
वह
हिंदूपन जाता ही नहीं। अब मुसलमान के लिए उपाय ही नहीं रहा, क्योंकि
वह तो गुरु का और कुरान का वचन! और ईसाई--गुरु का और बाइबिल का वचन! और
बौद्ध--गुरु का और धम्मपद का वचन! और जैन...उनके लिए तो कोई उपाय ही नहीं छोड़ा। इन
सबके लिए वेद तो अनिवार्य हो गया।
गुरु
का वचन ही वेद है,
कुरान है, बाइबिल है। इसको दोहराना क्या?
मगर हिंदू मतांधता शंकराचार्य जैसे लोगों की भी छूटती नहीं।
और
जरा वेद को उलट-पुलट कर तो देखो, सिवाय कचरे के कुछ भी न पाओगे। तुम भी चौंकोगे।
यूं कहीं से भी वेद को खोल लो। मैं यह भी नहीं कहता कि कचरा किसी खास जगह है। उठाओ
वेद को, कहीं से भी खोल लो, पढ़ना शुरू
कर दो, तुम कचरा पाओगे। सौभाग्य की बात होगी कि एकाध वचन तुम्हें
मूल्यवान मिल जाए।
मगर
यह सारे धर्मों का अंधापन,
यह मजहबी, यह सांप्रदायिक वृत्ति, यह तथाकथित ज्ञानियों से भी छूटी नहीं मालूम पड़ती। यह ज्ञान झूठा ही है।
यह बोध सच्चा नहीं है। नहीं तो गुरु का वचन काफी है।
और
गुरु का वचन क्या सुनोगे?
गुरु का मौन सुनना पड़ता है। वचन में तो सत्य आता नहीं। गुरु का मौन!
यूं
समझो, सत्संग का मेरा अर्थ होता है: शिष्य बोल सकता है, लेकिन
बहरा है, सुन नहीं सकता; बोल सकता है,
जानता नहीं। गुरु जानता है, बोल नहीं सकता,
गूंगा है। जहां गूंगा गुरु समझाने की कोशिश करता है और बहरा शिष्य
सुनने की कोशिश करता है, वहां सत्संग फलित होता है। सत्संग
है गूंगे और बहरे के बीच प्रेम का नाता। बस सैन से ही बात हो सकती है, इशारों से ही बात हो सकती है। मौन में ही यह अभूतपूर्व घटना घटती है
वच वच वच
दूसरा प्रश्न: भगवान,
मैं एक छोटा-मोटा कवि हूं। आपके पास बड़ी आशा लेकर आया हूं। आशीष
दें कि मैं काव्य-जगत में खूब ख्याति पाऊं।
गोपालदास,
भैया, गलत जगह आ
गए। एक तो मैं आशीष देता नहीं। क्योंकि मैं आदमी जरा उलटा हूं। अगर मैं आशीष दे
दूं तो तुम समझना कि उससे उलटा ही होगा। कुछ लोग होते हैं न उलटी खोपड़ी के!
मुल्ला
नसरुद्दीन के संबंध में यह बात है कि बचपन से ही वह उलटी खोपड़ी का था। थोड़े दिन तो
घर के लोग परेशान रहे। अगर उससे कहें बाहर न जाओ, तो वह बाहर जरूर जाए;
अगर कहें शांत बैठो, तो बिलकुल शांत न बैठे।
अगर कहें ऊधम मचाओ, तो शांत बैठ जाए। धीरे-धीरे मां-बाप समझ
गए कि यह उलटी खोपड़ी है, इससे जो भी कहेंगे उससे उलटा करेगा।
सो उससे जो करवाना हो उससे उलटा वे कहते थे, कि बेटा ऊधम कर।
बस वह एकदम शांत बैठ जाए, जैसे ध्यान ही करने लगे। मतलब
ध्यान करवाना हो, शांत बिठाना हो, तो
ऊधम का आदेश देना पड़े। जैसे बाहर वर्षा हो रही हो और उसको न जाने देना हो बाहर,
तो उससे कहेंगे, बेटा जा, बाहर खेल आ। वह फिर बिलकुल बाहर नहीं जाएगा। फिर वह भीतर ही भीतर रहेगा।
एक
दिन नसरुद्दीन और उसका बाप दोनों बाजार करके लौट रहे थे। अपने गधे पर शक्कर की
बोरियां लादे हुए थे। बीच में नदी पड़ी। नसरुद्दीन एक गधे को सम्हाल रहा था, एक गधे को
बाप सम्हाल रहा था। देखा बाप ने कि नसरुद्दीन के गधे की बोरी गिरने के करीब है,
बाएं तरफ झुकी जा रही है। अब अगर नसरुद्दीन से कहो कि बाईं तरफ से
जरा हटा, दाईं तरफ झुका, तो और बाईं
तरफ झुका देगा। उलटी खोपड़ी! सो बाप समझता ही था, तो बाप ने
कहा कि बेटा, जरा बोरी को बाईं तरफ झुका दे। मतलब यह था कि
दाईं तरफ झुका दे। मगर गजब हो गया, नसरुद्दीन ने बाईं तरफ ही
झुका दी। बोरी नदी में गिर गई। बाप ने कहा कि तुझे क्या हुआ? यह तूने क्या किया? नसरुद्दीन ने कहा कि अब मैं
वयस्क हो गया हूं और अब तुम्हारी नीयत पहचानने लगा। अब अपनी नीयत पर खयाल रखना। अब
तुम्हारी नीयत के उलटा करूंगा। अभी तक तुम्हारी भाषा से चलता था, अब तुम्हारी नीयत से चलूंगा। ऊपर-ऊपर तो कह रहे थे कि बाईं तरफ झुका और
भीतर-भीतर कह रहे थे कि दाईं तरफ झुका। अब मैं वयस्क हो गया हूं। मैंने नीयत पहचान
ली। मैंने कहा अब हो गया बहुत चकमा, काफी दिन चकमा दे चुके।
अब जरा सोच-समझ कर।
अब
और झंझट खड़ी हो गई। ऐसा ही तुम मुझे समझो। मुझसे तुमने आशीष मांगा तो अभिशाप दे
दूंगा। और ऐसा आशीष कि काव्य-जगत में खूब ख्याति पाऊं!
भैया, कविता ने
तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? किन जन्मों के दिए गए कष्टों का
तुम बदला ले रहे हो? या श्रोताओं से तुम्हारी कोई दुश्मनी है?
क्यों सताना किसी को? कुछ और करने को नहीं है
गोपालदास! अरे गोलोक की खोज करो! कविता वगैरह करने से क्या होगा? प्रार्थना करो प्रभु से कि गोलोक में नंदीबाबा की तरह जन्म हो जाए!
नंदीबाबा का खयाल रखना, भूल मत जाना; कहीं
गोलोक में गऊ होकर पैदा हुए तो बेकाम।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने मनोवैज्ञानिक से कह रहा था कि इस सपने से मैं बहुत परेशान हूं। रोज
रात यह सपना आता है,
चूकता ही नहीं। मेरी रातें खराब हो गईं, चैन
नहीं है। और दिन भर डरा रहता हूं कि फिर यह सपना आएगा। और आता है, जरूर आता है। अब वर्षों हो गए, अब तो मुझे राहत
चाहिए।
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, मैं यह तो सुनूं कि सपना क्या आता है?
उसने
कहा, सपना यह आता है कि एक से एक सुंदर स्त्रियां एकदम रासलीला कर रही हैं मेरे
चारों तरफ।
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, अरे तो इसमें बुराई क्या है? मजा लो!
उसने
कहा कि अरे तुम समझे ही नहीं। सपने में यही तो खराबी होती है कि मैं भी स्त्री, सो मजा भी
नहीं ले पाता। और रांडें बहुत उछल-कूद मचाती हैं। और जब जगता हूं तो पाता हूं,
अरे मजा क्यों नहीं लिया! मैं तो मुल्ला नसरुद्दीन। मगर जब सोता हूं,
सपना देखता हूं, तो हमेशा यही गड़बड़ हो जाती
है--मैं खुद ही स्त्री।
सो
यह तुम जरा खयाल रखना। गोलोक की खोज तो करो, मगर यह प्रार्थना कर देना भगवान से
कि नंदीबाबा बनाना। नहीं तो गोलोक भी चले गए गऊमाता होकर, तो
फिर चूके।
अब
हमारे नंदीबाबा हैं संत महाराज। रंजन ने मुझे लिखा है...अब रंजन समझो कि गऊमाता
हैं...रंजन ने लिखा है कि अपने नंदीबाबा को सम्हालो, क्योंकि वे रिसेप्शनिस्ट
आफिस में बार-बार घुस आते हैं। और रिसेप्शनिस्ट आफिस में गऊमाताओं का ही लोक
है--गोलोक! रंजन ने मुझे लिखा है कि और हमसे कहते हैं आ-आ कर कि हमको भी रिसेप्शन
आफिस में भरती कर लो, कि हमको पहरा नहीं देना, हमको तो रिसेप्शन, यही स्वागत के काम में हमें भी
लगा लो।
मैंने
रंजन को खबर भेज दी कि इनको बिलकुल भीतर मत घुसने देना। नंदीबाबा का वहां क्या काम? तुम
बिलकुल बाहर, नंदीबाबा को बाहर बिठा कर रखो। उनका काम ही
बाहर है। हर शिव जी के मंदिर के सामने बैठे रहते हैं। उनको कोई भीतर घुसने देता है?
और गऊओं के बीच इनकी जरूरत क्या है? अपने बाहर
ही बैठे-बैठे गऊओं का सपना देखो--कि अहा यह गऊ जा रही, वह गऊ
जा रही!
तो
गोपालदास, तुम गोलोक की खोज करो, कहां की बातों में पड़े हो।
क्या कहते हो कि भगवान, मैं एक छोटा-मोटा कवि हूं। एक तो
छोटे और मोटे! पता नहीं इस तरह के मुहावरे क्यों प्रचलित हो गए हैं--छोटा-मोटा!
अरे मोटे होते और लंबे होते तो भी ठीक था। एक तो छोटे और मोटे! यह तो दोहरी मुसीबत
हो गई।
मेरठ में हमको मिले, धमधूसर कव्वाल,
तरबूजे सी खोपड़ी, खरबूजे से गाल।
खरबूजे से गाल, देह हाथी सी पाई
लंबाई से ज्यादा थी उनकी चौड़ाई
बस से उतरे, इक्कों के अड्डे पर आए
दर्शन करके घोड़ों ने आंसू टपकाए।
रिक्शे वाले डर गए, डील-डौल को देख
साहस कर आगे बढ़ा, तांगे वाला एक
तांगे वाला एक, चार रुपये मैं लूंगा,
दो फेरे करके हुजूर को पहुंचा दूंगा
ठेले वाला बोला--क्यों बे तांगे वाले!
मेरे ग्राहक को तू तोड़ रहा है साले?
इतने में ही आ गई संयोजक की कार
"एलीफेंटा' में मिला कमरा नंबर चार।
कमरा नंबर चार, तुरत धोबी बुलवाया
कुरता-पाजामा उसके आगे खिसकाया।
धोबी चौंका! जी यह काम न बस का मेरे
और किसी से धुलवाइए ये तंबू-डेरे।
पहुंचे दिल्ली जंक्शन, तब यह उठा खयाल,
कर लें तौल मशीन पर, दस का सिक्का डाल।
दस का सिक्का डाल, टिकट बाहर को आई,
हमने पूछा--क्या लिखा है इसमें भाई?
कहने लगे कि काका साब, आप ही पढ़िए,
कृपया चार आदमी
एक साथ मत
चढ़िए!
तुम
कहते हो छोटा-मोटा कवि! और कविता नाजुक चीज--स्त्रैण। और तुम छोटे-मोटे कवि। क्यों
भैया किसी के पीछे पड़े?
किसी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? और कविता भी
क्या करोगे? इधर बहुत कविताएं चल रही हैं देश में, एक से एक कविताएं मेरे देखने में आती हैं!
शक्कर
महंगी हो गई,
हो गया महंगा धान।
लीडर की फसलें उगीं, भारत देश महान।।
कुर्सी धड़कन प्राण की, कुर्सी है निःश्वास।
कुर्सी गए न ऊबरे, मंत्री अफसर
बॉस।।
ऐसी-ऐसी कविताएं हो रही हैं!
दिल्ली में सब रम रहे, नेता, चोर, दलाल।
पांच साल तक वह टिके, जिसकी मोटी खाल।।
जी हुजूर,
आपके राज्य में
हमें जीने के लिए सब कुछ मिल गया है
पेट की आग है
मिलों के पिछवाड़े से आता हुआ पानी है
आपके चौड़े मुख की धौंकनी से फूटती
वायदों की गरम-गरम हवा है
और आकाश
अरे सिर के ऊपर तो आकाश ही आकाश है
अब सिर्फ पांव टिकाने के लिए
एक गज जमीन की तलाश है
ऐसी कविताएं हो रही हैं!
सूखाग्रस्त क्षेत्र में
तालाब के निर्माण का मुहूरत
करते हुए बोले मिनिस्टर--
हम इस तालाब को
शीघ्र बनवा देंगे मगर...
मगर...मगर...
एक दर्शक चिल्लाया--
मंत्री जी, मगर मगर
क्या करते हैं
कीजिए तालाब का मुहूरत
जब आप हैं तो मगर की क्या जरूरत?
प्रश्न कर रहे क्लास में, मास्टर व्यंकटराउ,
गुण माता के दूध में, क्या-क्या हैं बतलाउ।
क्या-क्या हैं बतलाउ, तभी बोला एक बच्चा,
बिना उबाले इसको पी सकते हैं कच्चा।
अदर मिल्क से "मदर मिल्क' होता
पावरफुल,
इसमें चीनी नहीं डालनी पड़ती बिलकुल।
आखिर में बोली, छोटी-सी लड़की लिल्ली,
मम्मीजी का दूध
नहीं पी सकती
बिल्ली।
क्या
कविताएं करने का इरादा है?
कविताएं तो हो चुकीं। खूब काव्य रचे जा रहे हैं।
और
ख्याति पाकर क्या करोगे?
मिल भी गई ख्याति तो क्या होगा? सब ख्याति
पानी पर खींची गई लकीरों जैसी है; खिंच भी नहीं पातीं लकीरें
और मिट जाती हैं। कुछ मतलब की बात पूछो। यह ख्याति तो अहंकार का ही रोग है। कोई धन
कमा कर पाता है, कोई पद पर बैठ कर पाता है, कोई त्यागत्तपश्चर्या करके पाता है। जिनसे कुछ नहीं बनता वे कविता करके पा
लेते हैं। कविता में करना क्या पड़ता है? कुछ जोड़त्तोड़। कुछ
शब्दों की तिकड़म। मगर ख्याति की आकांक्षा वही। ख्याति की आकांक्षा ही तो मनुष्य को
भटका रही है, गोपालदास। इसलिए ही तो गोलोक नहीं पहुंच पा
रहे।
छोड़ो
यह अहंकार! क्या होगा,
सारी दुनिया भी जान ले तो क्या होगा? खुद को
जानो तो कुछ हो। अपने को जानो तो कुछ हो। जिसने अपने को जाना उसे कोई भी न जाने तो
चलेगा। और जिसे सारी दुनिया भी जान ले और अपने को ही न जाना उसने, तो व्यर्थ जीवन गंवाया।
मैं
इस तरह का आशीष नहीं दे सकता हूं। मैं तो यही सुझाव दे सकता हूं--आशीष नहीं--कि
अगर थोड़ा भी जीवन में बल है, थोड़ी भी ऊर्जा है, थोड़ी
भी बुद्धिमत्ता है, तो सब कुछ निछावर कर दो स्वयं को जानने
के लिए।
और
जिस दिन तुम अपने को जान लोगे, शायद उस दिन कविता भी पैदा हो। मगर उस कविता का
रंग-रूप और होगा, गंध-गौरव और होगा, प्रसाद-प्रकाश
और होगा। जो स्वयं के जानने से धुन बजेगी, जो स्वयं को जानने
से तुम्हारे हृदय की वीणा के तार झनझना उठेंगे, उनसे कुछ
पैदा हो तो सुंदर है। चित्र बनें, गीत आए, नृत्य उमगे, जो भी हो वह स्वाभाविक होगा, सहज होगा, स्वस्फूर्त होगा। उसके लिए तुकबंदी नहीं
करनी पड़ेगी।
यही
तो कवि और ऋषि में फर्क है।
मैं
तो कहूंगा: ऋषि बनो! क्या कवि बनना? फर्क को खयाल में रख लेना। कवि वह
है जो चेष्टा करके रचता है। और ऋषि वह है जिससे धारा बहती है--सहज बहती है। कवि वह
है जो खुद ही फूंक मार-मार कर किसी तरह बांसुरी बजाता है, थका
अपने को डालता है, फेफड़ों को पसीना आ जाता है। और ऋषि वह है
जो खुद ही बांसुरी हो गया--बांस की पोली पोंगरी। और कह दिया परमात्मा से कि बजाना
हो तो बजा, न बजाना हो तो न बजा। और ऐसा कभी नहीं हुआ कि
परमात्मा ने न बजाई हो ऐसी बांसुरी।
जो
भी अपने भीतर अहंकार से खाली है, वही बांस की पोंगरी हो सकता है। खयाल रखना,
ठोस डंडे नहीं बजाए जाते। हां, किसी की खोपड़ी
पर बजाने हों तो बात अलग। मगर ठोस डंडों से कोई स्वर नहीं उठते, कोई गीत नहीं फूटते। और अहंकार ठोस डंडा है। और ख्याति की आकांक्षा तो ठोस
डंडा बनने की आकांक्षा है।
पोले
बनो। खाली बनो। शून्य बनो। भीतर जगह बनाओ। उसी जगह से परमात्मा निःसृत होता है। और
तब तुम जो भी करोगे,
उसमें ही काव्य है, उसमें ही सौंदर्य है,
उसमें ही नृत्य है, उसमें ही उत्सव है!
आज इतना ही।
वच वच वच
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