पहला प्रश्न:
आप बुद्धिवाद से बचने को क्यों कहते हैं?
ताकि तुम बुद्धिमान हो
सको। ताकि कभी तुम बुद्ध भी हो सको।
बुद्धिवाद
झूठी बुद्धिमत्ता है। बुद्धिवाद वस्तुत: तुम्हारे भीतर छिपे हुए चैतन्य का जागरण
नही, सिर्फ उधार है। बुद्धिवाद
है दूसरों के विचारों को अपना मान लेना। बुद्धिवाद है, जो
तुम नहीं जानते हो, उसके संबंध में कुछ धारणाएं केवल विचार करके
तय कर लेना। जैसे अंधा आदमी प्रकाश के संबंध के कोई धारणा बना ले। वह धारणा होगी
बुद्धिवाद। सोचे, सुने, दूसरों ने जो
गीत गाए प्रकाश के उनका ,संग्रह करे, अनेकों
से पूछे और प्रकाश के संबंध में जो भी पता चल सके उस सबके आधार पर कोई धारणा बना
ले, अनुभव तो अंधे को प्रकाश का नहीं है, आंख तो [सके पास नहीं है, तो प्रकाश की वह जो भी धारणा
बनाएगा वह बुद्धिवाद होगी। वह केवल बुद्धि का ही खेल है। वह वाद मात्र है।
अगर वह
आदमी सच में प्रकाश में उत्सुक है तो इस धोखे में पड़ेगा नहीं। बजाय प्रकाश के
संबंध में शास्त्र पढ्ने के, आंखों
की चिकित्सा करवाएगा। आंखों की चिकित्सा हो जाए तो प्रकाश का अनुभव होगा। वह अनुभव
बुद्धिवाद नहीं है, वह अनुभव बुद्धत्व है।
बुद्धि
उधार, तो बुद्धिवाद। बुद्धि
अपनी, निज की, अपने अनुभव में जड़ें
जमाए हुए, तो बुद्धत्व। बुद्धि शब्द बड़ा अदभुत है। बुद्धि
गिरती है तो बुद्धिवाद। बुद्धि उठती है तो बुद्धत्व। बुद्धि जब झूठ के जाल में पड़
जाती है तो बुद्धिवाद। और बुद्धि में जब सत्य का आविर्भाव होता है तो बुद्धत्व।
दोनों ही बुद्धि के काम हैं।
मै
बुद्धि का विरोधी नहीं हूं? बुद्धिवाद का निश्चित
विरोधी हूं। मैं कहता हूं, स्वाद लो, पाकशास्त्र
पढ्ने से कुछ भी न होगा; न भूख मिटेगी, न पोषण उपलब्ध होगा। भोजन करो, भोजन तैयार करो।
रूखी—सूखी रोटी भी बेहतर है पाकशास्त्र में लिखी हुई विधियों के मुकाबले, चाहे वे विधियां कितने ही स्वादिष्ट भोजनों के संबंध में क्यों न हों। मगर
वे विधिया विधियां हैं, उन्हें तुम न खा सकते, न तुम पी सकते। उनको ही तुम जीवन की संपदा मत मान लेना। इसलिए मैं कहता
हूं कि बुद्धिवाद से सावधान होना जरूरी है।
और तुम
कितना ही प्रकाश का विचार कर—करके धारणा बना लो, भीतर तुम्हारे कोई कहता ही रहेगा, यह धारणा मात्र है,
तुमने जाना कहा? अभी तुमने जाना कहां? अभी तुमने जीया कहौ? अभी आंख तो है ही नहीं, अंधेरे में टटोल रहे हो।
बुद्धिवाद
ऐसा ही है, जैसे हमारी कहावत है—अंधे
को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी। एक तो अंधा, फिर ऊपर से
अंधेरा, और फिर दूर की सूझी। पास का भी दिखायी नहीं पड़ता!
जिंदगी
जैसे बने जीना हकीकत है
और बाकी
सब किताबों की नसीहत है
रास्ते
जितने बने जिद ने बनाए
लीक तो
आखिर बुजुर्गों की वसीयत है
ओढ़ना
बेहद जरूरी है नकाबों को
आदमी की
चाह नंगी है मुसीबत है
एक अदना
आदमी भी बहुत कर लेता
ऐन मौके
पर अड़ी अफसोस इज्जत है
तर्क ने
कितना बदल डाला सचाई को
पर नहीं
एहसास मर पाया गनीमत है
तर्क तो
बहुत झूठे दिखावे, धारणाएं,
मान्यताएं, खड़ी कर देता है।
तर्क ने
कितना बदल डाला सचाई को
पर नहीं
एहसास मर पाया गनीमत है
पर एक ही
बात अच्छी है कि लाख तुम बुद्धिवादी हो जाओ, तुम्हारे भीतर कोई कहता ही रहेगा—ये सब बातचीत, ये
सब विचारजाल, ये सब तर्कजाल; अनुभव कहा
है? वह एहसास मरेगा नहीं। उसी अहसास के आधार पर आशा की जा
सकती है कि तुम कभी जागोगे।
बुद्धि
चलती दूसरों की बनायी हुई लकीर पर। और सत्य पर पहुंचने का यह कोई मार्ग ही नहीं।
सत्य पर तो कभी तुम लीक पर चलकर पहुंच ही नहीं सकते। लीक का अर्थ ही होता है, मुर्दा रास्ता। जो रास्ता ही मर गया, उससे जीवित सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता।
जिंदा
रास्ता कैसा होता है? जिंदा रास्ता होता,
अपने ही पैर से चलकर बनाना पड़ता है। जितना चलते हो, उतना ही बनता है। जितना अनुभव करते हो, उतना ही करीब
पहुंचते हो। दूसरों के पीछे चलते रहे, तो बुद्धिवाद। हिंदू
हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, जैन हो, तो बुद्धिवाद। धार्मिक हो अगर, तब कुछ बात होनी शुरू हुई। और धर्म का क्या लेना—देना जैन से, हिंदू से, बौद्ध से ईसाई से। धर्म का कोई संबंध
नहीं। धर्म अनुभव है। जैसे प्रकाश आंख का अनुभव है, वैसा
धर्म भीतर की आंख का अनुभव है।
तो भीतर
की आंख को खोलने में लगो। बैठे—बैठे विचार ही करके जीवन को।।त गंवाते रहना। न
मालूम कितने जन्मों से तुम विचार कर रहे हो, न मालूम कितने जीवन तुमने विचार में गंवा दिए। बैठना अब तुम्हारी आदत हो
गयी, अब तुम चलते ही नहीं। अब तुम सोचते ही रहते हो। उठो और
चलो 1 वादों की राख को झq। दो, ताकि
तुम्हारे भीतर का अंगारा प्रगट हो सके। और सत्य का अंगारा तुम्हारे भीतर पड़ा है,
राख तुमने बाहर से इकट्ठी कर ली है—शास्त्रों की, सिद्धातों की राख तुम बाहर से इकट्ठा कर लिए हो। इसमें मत परेशान होओ।
दूसरा प्रश्न:
कर्ताभाव के जाने के बाद भी कर्म बचता है, ऐसा आपने कहा। आपके संन्यासी के लिए आप कौन सा कर्म
नियत करना चाहेंगे?
तुमने कुछ तय कर रखा
है कि तुम कभी अपने व्यक्तित्व की घोषणा न करोगे। तुमने तय ही कर रखा है कि तुम
सदा कार्बन कापी रहोगे, कभी असली आदमी न बनोगे।
तुम सदा चाहते हो, कोई नियत कर दे कि तुम क्या करो। कोई बता
दे कि ऐसे उठो, ऐसे बैठो, यह खाओ,
यह पीओ। तुम अपने मालिक नहीं होना चाहते। गुलामी तुम्हारे खून में
उतर गयी है।
मैंने
कहा कि कर्ताभाव के जाने के बाद भी कर्म बचता है, तुम्हे उसी में सहारा। मिल गया। वहां कोई जगह नहीं सहारे की! तुमने वहीं
रास्ता खोज लिया गुलामी का। तुम पूछने लगे तो फिर आप बता दें कि फिर संन्यासी क्या
करे? जब कर्म तो बचेगा कर्ताभाव के जाने के बाद भी, तो फिर कर्म कौन सा करे यह आप बता दें।
मैं कह
रहा था कि कर्ताभाव चला जाए, और
साक्षीभाव जगे। जिसका साक्षीभाव जग गया, उसे कर्म नियत करने
की जरूरत ही नहीं है। कर्म रहेगा, लेकिन अब साक्षीभाव से
कर्म होगा, अब कर्ताभाव से कर्म नहीं होगा। और जिसके भीतर
साक्षी का दीया जला है, उसे दिखायी पड़ेगा कि क्या करना उचित
है। उसे कोई अंधी धारणाओं के अनुसार थोड़े ही चलना पड़ेगा। अंधा आदमी पूछता है,
कहां है द्वार? आंख वाला पूछता है? आंख वाले के पास आंख है, आंख में सब आ गए द्वार,
सब आ गए मार्ग। आंख वाला उठता है और द्वार से निकल जाता है। न तो
किसी से पूछता, सोचता भी नहीं कि द्वार कहा है, जब निकलना है चारों तरफ देखता है, जहां द्वार है
निकल जाता है। अंधा आदमी कहेगा, पहले पूछो तो कि जाना किस
दिशा से है, द्वार कहां है, कहीं दीवाल
से न टकरा जाएं।
साक्षीभाव!
जहां कर्ताभाव गया, मैं कर्ता हूं ऐसा जहां
भाव गिर गया, वहां मैं द्रष्टा हूं ऐसे भाव का जन्म होता है।
जो ऊर्जा कर्ताभाव में बंधी है, वही ऊर्जा कर्ताभाव से मुक्त
होकर साक्षी बन जाती है। मैं सिर्फ देखने वाला हूं। उस देखने में दर्शन है,
दृष्टि है, आंख है। उस दृष्टि से फिर तुम्हारे
जीवन के सारे कृत्य संचालित होने लगेंगे। फिर तुम्हें पूछने की जरूरत न रह जाएगी।
लेकिन
तुम कर्ताभाव गिराने में उतने उत्सुक नहीं हो। कर्ताभाव जब गिरेगा, तब भी कर्म तो बचेगा, तुम पूछते
हो, तो फिर उस कर्म को हम कैसे करेंगे, वह आप बता दें।
यह ऐसा
ही है जैसे अंधे आदमी का इलाज कराने हम ले जाएं, और वह पूछे कि जब मेरी आंख ठीक हो जाएगी तो मैं किस—किस से पूछूंगा,
कैसे पूछूंगा, कैसे टटोलूंगा कि मेरा रास्ता
कहौ है? हम उससे कहेंगे, पागल, तू चुप रह, पहले आंख ठीक हो जाने दे, फिर ये बातें नहीं उठेंगी।
ऐसा हुआ
कि जीसस के जीवन में एक उल्लेख है। एक आदमी आया, लंगड़ा थो, बैसाखियों के सहारे टेकते—टेकते जीसस के
पास पहुंचा। उन्होंने उसे छुआ और वह सर्वांग सुंदर हो गया, सर्वांग
स्वस्थ हो गया, उसका लंगड़ापन चला गया। उसने जीसस को
बहुत—बहुत धन्यवाद दिया, बैसाखिया बगल में दबायी और जाने
लगा। जीसस ने कहा, अरे पागल, बैसाखिया
फेंक। अब ये बैसाखिया क्यों ले जा रहा है? उसने कहा, ठीक याद दिलायी, क्योंकि मुझे तो यह बात ही भूल गयी
थी कि बैसाखियों के बिना चला जा सकता है।
पुरानी
आदत! अब लंगड़ा नहीं है, लेकिन बैसाखी के बिना तो
कैसे जीएगा— जन्मभर, जीवनभर बैसाखी के ही सहारे चला है,
आदत हो गयी है।
तुम्हारी
भी आदत हो गयी है पूछने की। कोई न कोई बताने वाला चाहिए। तुम
अपने ढंग से कब जीओगे? संन्यास का अर्थ ही होता है कि तुमने अब घोषणा की कि
अब मैं उधार न जीयूंगा, नगद जीयूंगा। तुमने घोषणा की कि अब
मैं अपने ढंग से जीयूंगा, चाहे जो परिणाम हो। स्वतंत्रता अब
नहीं खोऊंगा, अब गुलामी के और सूत्र नहीं खोका।
मैं यहां तुम्हें स्वतंत्रता देने को हूं? तुम्हारा कर्म नियत करने को नहीं। मैं कौन हूं
तम्हारा कर्म नियत करूं! और कर्म नियत किया कैसे जा सकता है। परिस्थिति तय करेगी
कि क्या कर्म उचित है। कोई कर्म अपने आप में उचित नहीं होता। जो कर्म आज उचित है,
कल दूसरी परिस्थिति में अनुचित हो सकता है। जो दवा एक मरीज के काम
की है, दूसरे मरीज के काम की न हो।
तुमने
कहानी सुनी न! एक सूफी कहानी है। एक वैद्य का हो गया। तो उसने अपने बेटे से कहा कि
अब मैं का हो गया हूं अब तू मेरी कला सीख ले, अब मैं ज्यादा दिन का मेहमान नहीं हूं; खूब गुलछर्रे
कर लिए, अब मैं मर जाऊंगा तो तू 'भूखा मरेगा। अब तू चल
मेरे साथ, मरीजों को देख और समझने की कोशिश कर; इस शास्त्र को समझ ले। दों—चार साल जीयूंगा, उस बीच
तू कम से कम इस योग्य हो जा कि अपनी रोटी—रोजी कमा सके। तो बेटा बाप के साथ गया।
अब तक तो तभी उसने फिकर न की थी, यह बात उसको भी खयाल में
आयी कि बाप कब तक साथ देगा, उसके हाथ—पैर कंपने लगे हैं,
बाप का हो गया है, तो वह गया। बाप ने कहा कि
तू ठीक से देख, जो—जो मैं करता हूं उस पर ध्यान रख।
एक मरीज
को देखा, नब्ज पकड़ी उसकी, नब्ज देखी, उसकी जीभ देखी और फिर कहा कि मालूम होता
है तुमने ज्यादा आम खाए हैं। उसी की वजह से तुम्हारे पेट में तकलीफ है। बेटा तो
बड़ा चकित हुआ कि चमत्कार! नब्ज देखकर कैसे पता गला कि ज्यादा आम खाए हैं? रास्ते में पूछने लगा कि पिताजी, और तो सब ठीक,
नब्ज देखकर कैसे पता चला? अब आप मुझे समझा दें,
क्योंकि आपने कहा, सब गीखना है। उसने कहा,
नब्ज देखकर पता नहीं चला, और भी चीजें देखनी
पड़ती। मैंने झांककर देखा, उसकी पलंग के नीचे आम की गुठलियां
पड़ी हैं, ढेर लगा।।'। सिर्फ इतने ही से
थोड़े काम चलता है, नब्ज तो देखनी पड़ती है, मगर और चीजें 'गी देखनी पड़ती हैं। उसने कहा, अब समझ गया।
बाप
दूसरे दिन किसी मरीज को देखने गया था। कोई आदमी बुलाने आया तो उसने कहा, मैं आता हूं। पिता तो बाहर गए हैं, लेकिन अब मैं भी काफी समझ गया हूं। वह गया।
उसने
नब्ज पर हाथ रखा, नब्ज तो उसे कुछ मालूम भी
नहीं थी कैसे देखी जाती।?ए?, नब्ज पर
हाथ पड़ा भी कि नहीं यह भी उसे पक्का नहीं समझ में आया, ज्यादा नजर तो बिस्तर के नीचे लगी थी उसकी कि कहां
क्या पड़ा है? बिस्तर के नीचे उसने देखा; समझ गया। उसने कहा कि देखो जी, तुम अपना घोड़ा खा
गए—क्योंकि
बिस्तर के नीचे घोड़े की जीन इत्यादि पड़ी
थी—और घोड़ा खाओगे तो पेट में दर्द होगा। वह आदमी तो बहुत हैरान हुआ कि वैद्य तो
बहुत देखे, मगर आप बड़े अदभुत वैद्य
हैं, घोड़ा खा गया!
जो एक
परिस्थिति में सही होगा, दूसरी परिस्थिति में सही
नहीं रह जाएगा। जो एक क्षण में उचित होगा, दूसरे क्षण में
अनुचित हो सकता है। बोध चाहिए! ताकि उस क्षण में तुम तय कर सको, तय करने की भी जरूरत न पड़े, उस क्षण में तुम देख सको
कि क्या ठीक है और वही तुम्हारे जीवन से हो।
तो मैं
तुम्हें नियत कर्म नहीं बताता, सिर्फ
एक ही बात पर मेरा जोर है कि तुम थोड़ा जागरण सीखो। वह हर जगह काम आएगा, हर परिस्थिति में काम आएगा। बजाय इसके कि मैं तुम्हें एक—एक परिस्थिति के
लिए कर्म समझाऊं, यह ज्यादा उचित है कि तुम्हें ऐसा बोध मिल
जाए कि हर परिस्थिति में तुम अपना कर्म खोज लो। क्योंकि परिस्थितिया अनंत हैं।
जीसस ने
कहा है, अगर दुश्मन तुम्हारे एक
गाल' परचांटा मारे तो दूसरा उसके सामने कर देना। अब यह एक
नियत बात हो गयी।
एक ईसाई
फकीर को एक आदमी ने चांटा मार दिया। स्वभावत: उसने तत्कण सोचा कि क्या करने योग्य
है? जीसस ने कहा है कि दूसरा गाल
सामने कर देना, उसने दूसरा गाल सामने कर दिया। वह आदमी भी
अदभुत रहा होगा, वह आदमी भी कोई साधारण आदमी नहीं था,
वह आदमी भी कोई मैक्यावेली या चाणक्य का शिष्य रहा होगा, उसने दूसरे गाल पर और दुगुनी ताकत से चाट। जड़ दिया। फकीर ने तो सोचा था कि
जीसस ने कहा है कि जब तुम एक गाल पर कोई मारेगा और दूसरा उसके सामने करोगे,
तो उसे अपनी भूल समझ में आएगी कि किस साधु पुरुष को मार दिया! लेकिन
इसके लिए साधु पुरुष चाहिए, समझने के लिए। अब यह आदमी ऐसा था,
इसने कहा यह तो और ही अच्छा रहा, उसने एक
दूसरा भी जोर से जड़ दिया।
बस जैसे
ही दूसरा चांटा जड़ा कि वह फकीर छलता लगाकर उसके ऊपर टूट पड़ा, उसकी छाती पर बैठ गया और लगा उसे मारने। वह आदमी भी
थोड़ा चौंका। उसने कहा, भाई यह क्या करते हो, ईसाई होकर। और जीसस ने कहा है कि एक गाल पर जो; चांटा
मारे, दूसरा सामने कर देना, तुम यह
क्या करते हो! तो उसने कहा कि एक गाल था, तुमने उस पर 'चांटा मार लिया, जीसस का वचन है कि दूसरा सामने कर देना,
अब तीसरा तो कोई गाल है नहीं! इसके आगे वचन समाप्त हो जाता है,
अब मै अपने हिसाब से चलूंगा।
कोई वचन
सदा साथ नहीं चल सकता। एक सीमा आएगी जहां वचन समाप्त हो जाएगा। मैं तुम्हें
प्रतिपल के लिए नियत कर्म कैसे दे सकता हूं? चौबीस घंटे में हजारों स्थितियां हैं।
जीसस का
एक शिष्य उनसे पूछता है कि कोई आदमी हमारी हानि करे, आप कहते हैं, क्षमा कर दो, कितनी
बार? ठीक बात पूछी। कितनी बार क्षमा कर दो? तो जीसस ने सोचा, इसके पहले कि जीसस कुछ कहें उस
आदमी ने कहा, सात बार करना ठीक होगा? जीसस
ने कहा कि नही, सात से काम नहीं चलेगा। तो उस आदमी ने कहा,
सतहत्तर बार करना ठीक होगा क्या? जीसस ने कहा,
नहीं, यह भी कम पड़ेगा। तो उस आदमी ने कहा,
आपका क्या मतलब, सात सौ सत्तर बार? तब जीसस को भी खयाल में आया होगा कि सात सौ सत्तर बार भी क्षमा करने के
बाद स्थिति तो बच रहती है! फिर सात सौ इकहत्तरवीं बार क्या होगा?
तुम
कितनी ही व्यवस्था तय कर दो, व्यवस्था
चुक जाएगी। एक सीमा आएगी जहां व्यवस्था चुक जाएगी; फिर तुम
क्या करोगे?
दूसरों
की मानकर चलोगे तो सदा झंझट में पड़ोगे। तुम्हें चाहिए अपनी आंख, तुम्हें चाहिए अपना बोध। यह जो आदमी पूछ रहा है,
कितनी बार क्षमा करें, यह क्षमा का सूत्र ही
नहीं समझा। क्योंकि क्षमा का अर्थ अगर समझ गया हो, तो कितनी
बार पूछने की बात ही गलत है। कितनी बार का तो मतलब यह हुआ कि एक सीमा के बाद
अक्षमा आ जाएगी। सात बार क्षमा कर दिया तो आठवीं बार फिर बदला लेगा। और हो सकता है
आठवीं बार सातों बार का इकट्ठा बदला ले, क्योंकि यह आदमी
क्षमा करने का सूत्र समझा ही नहीं। यह पूछ रहा है, कितनी बार?
आखिर हर चीज की सीमा होती है! क्षमा की कोई सीमा नहीं हो सकती। जीसस
ने कहा है कि ठीक, सात सौ सत्तर बार। लेकिन मैं तुमसे कहूंगा,
सात सौ सत्तर बार से भी हल न होगा। तुम बहुत बेईमान हो। तुम सात सौ
इकहत्तरवीं बार में सारा बदला ले लोगे।
जीसस ने
सोचा होगा कि सात सौ सत्तर बहुत हो गया, अब और इसके आगे क्या ले जाना! लेकिन आदमी की बेईमानी बहुत बड़ी है। आदमी की
बेईमानी अनंत है। तुम्हारा क्रोध अनंत है, तुम्हारी घृणा
अनंत है। तुम्हारे रोगों की कोई सीमा नहीं शै। इसलिए मैं नियतकर्म में उत्सुक नहीं
हूं। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि ऐसा करो। कि पांच बजे सुबह उठो। मैं तुमसे कहता
हूं कि नींद जब पूरी हो जाए और तुम स्वस्थ हो गए और नींद का काम पूरा हो गया तो
उठो! अगर पांच बजे पूरा हो गया तो पांच बजे, और अगर चार बजे
पूरा हो गया हो तो चार बजे, और कभी किसी दिन अगर देर से सोए
हो और छह बजे पूरा हो, तो छह बजे।
मैं मेरे
गांव के पास एक रईस को जानता था। एक छोटे से इलाके के राजा थे वह। खूबी के आदमी
थे। रातभर तो वह नाच—गाने में रहते थे—शराब पीना, नाच—गाना—और दिनभर सोते थे। तो उनके डाक्टर ने, बीमार
पड़े तो डाक्टर ने कहा—अंग्रेज डाक्टर—उसने कहा कि आप ऐसा करिए कि अब आपको थोड़ा
जल्दी सुबह उठना पड़ेगा, यह रात का राग—रंग बंद करिए। सुबह
ठीक छह बजे तो रठना ही है, नहीं तो आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं
हो सकता। यह दिनभर पड़े रहना बिस्तर में, इससे ही आपका जीवन
नष्ट हुआ जा रहा है। रात सोने के लिए है, दिन जागने के लिए
है, दिन श्रम करने के लिए है, आप छह
बजे उठें।
उस रईस
ने क्या किया, पता है? उसने कहा, ठीक, इसमें कौन सी
अड़चन है! और उसकी जिंदगी में उसने कोई फर्क न किया, उसने सिर्फ
अपने नौकरों को कह दिया कि जब भी मैं उठूं? घड़ी में छह बजा
देना। बात खतम हो गयी। नियम पूरा हो गया। जब भी मैं उठुं घड़ी में छह बजा देना।
नियम के
साथ तो रास्ता है। नियम के साथ तो बेईमानी की जा सकती है, सिर्फ बोध के साथ बेईमानी नहीं हो सकती। नियम से तो
तरकीब निकल आती है। तुम जानते हो सरकार कितने नियम बनाती है, और तुम्हारा वकील उसमें से रास्ता निकाल देता है। तुम भी रास्ता निकाल
लेते हो। दुनिया की कोई सरकार अभी तक इस तरह के नियम नहीं बना सकी जिनमें से
रास्ता न निकाला जा सकता हो। कितनी व्यवस्था करती है, एक—एक बात
को कहने में पूरा—पूरा पेज लगा देते हैं कानूनविद, सब तरह की
शर्तबंदी करते हैं, सब तरह के छेद रोकने कीं कोशिश करते हैं,
कहीं से कोई तरकीब न निकाल ले, फिर भी तरकीब
निकल आती है।
धर्म
नियम नहीं है, धर्म बोध है। क्योंकि बोध
से ही सिर्फ—फिर तुम तरकीब न निकाल पाओगे। निकालने की जरूरत ही न रह जाएगी। अब
मैंने जो कहा था वह कुछ और था, तुमने जो समझा वह कुछ और है।
'कर्ताभाव के जाने के बाद
भी कर्म बचता है।
निश्चित।
मैंने इसलिए ऐसा कहा कि कर्ताभाव के जाने के बाद तुम यह मत समझ लेना कि अब चादर
ओढ़कर पड़ रहना है, क्योंकि अब तो कर्ताभाव
चला गया तो अब हम क्यों करें!
ऐसे बहुत
से आलसी इस देश में हैं जो सोचते हैं कि अब कर्ता ही भाव नहीं रहा तो अब हम क्यों
करें, हम तो परमहंस हो गए। अब
वे बैठे हैं, अब वे कहते हैं, परमात्मा
करेगा। जब परमात्मा ही करने वाला है तो हम क्यों करें! उन्होंने बात में से कुछ और
ही बात निकाल ली। उन्होंने कर्ताभाव नहीं छोड़ा, कर्म छोड़
दिया। कर्ताभाव छोड़ा हो तो कर्म छोड़ने की जरूरत नहीं, तुम
परमात्मा के उपकरण हो गए। परमात्मा करेगा तो तुमसे ही। उसके पास अपने तो कोई हाथ
नहीं हैं, तुम्हारे ही हाथ है। परमात्मा जो कुछ करेगा,
करेगा तो तुमसे ही।
तो अगर
तुम कर्म छोडकर बैठ गए तो तुमने कर्ताभाव नहीं छोड़ा। कर्ताभाव छोड़ा होता तो तुम
उपकरण बन जाते, निमित्तमात्र बन जाते;
तुम कहते, अब जो तुझे करवाना हो, तू करवा। जहा ले जाना हो, ले जा। जो तेरी मर्जी,
हम तेरे साथ चलेंगे। हम तेरी री में बहेंगे, तेरी
धारा हमारी धारा होगी, अब हम लड़ेंगे नहीं। अब हमारा अपना
निजी न कोई लक्ष्य है, न कोई गंतव्य है। तू डुबा दे, तो वही किनारा। तू उबार ले तो ठीक, तू डुबा दे तो
ठीक। हम हर हाल राजी होंगे। मगर इसका यह मतलब नहीं कि हम चादर ओढ़कर सो जाएंगे।
इसलिए
मैंने कहा, कर्ताभाव के चले जाने के
बाद भी कर्म बचता है। लेकिन अब कर्म तुम्हारा नहीं होता, अब
परमात्मा का होता है। अब सफलता मिलती है तो तुम उसके चरणों में चढ़ा देते हो,
असफलता मिलती है तो उसके चरणों में चढ़ा देते हो। सुख या दुख जो
तुम्हें मिलता है, तुम उसके चरणों में चढ़ा देते हो। तुम कहते
हो, अब मैं तो हूं नहीं, तू ही है।
अच्छा करवाना हो अच्छा करवा, बुरा करवाना हो बुरा करवा। यही
तो सारा संदेश है कृष्ण की गीता का। वह अर्जुन को इतना ही तो समझाए कि तू
निमित्तमात्र हो जा। फिर परमात्मा युद्ध करवाए तो युद्ध कर, और
परमात्मा अगर संन्यास दिलवा दे और जंगल में ले जाए तो जंगल में चला जा। मगर तू
अपनी तरफ से मत जा, उस पर छोड़ दे।
अर्जुन
कह रहा था कि मैं चला जाऊं छोड़कर । वह कर्ता बनना चाहता था। कृष्ण ने कहा, तू कर्ताभाव छोड़, कर्ता तो वही
है। अर्जुन कह रहा था, मैं इन्हें काटू मारूं, पाप लगेगा। पाप का भाव ही कर्ताभाव का हिस्सा है। मैं करूंगा, तो मुझे फल भोगना पड़ेगा। कृष्ण ने कहा, तू उसकी फिकर
ही छोड़, जिनको मारना है वह मार ही चुका है। वे मरे हुए खड़े
हैं, धक्का देने की बात है, तू निमित्त
हो जा। तू नहीं होगा तो कोई और निमित्त हो जाएगा, मरेंगे तो
ये। ये जो मरने को आए हैं, मरेंगे। इनकी मृत्यु तो तय हो
चुकी, मैं इन्हें मरा हुआ देख रहा हूं। इसमें अनेक तो लाशें
खड़ी हैं। न तुझे पाप लगने वाला है, न पुण्य। तू सिर्फ
कर्ताभाव छोड़ दे। कर्ताभाव को ही पाप लगता, कर्ताभाव को ही
पुण्य लगता।
इसलिए
ज्ञानियों ने कहा है, पाप भी बांधता है और
पुण्य भी बांधता है। शायद पाप लोहे की जंजीर जैसा है और पुण्य सोने की जंजीर जैसा
है, लेकिन जंजीर तो 'जंजीर है, सोने की हो कि लोहे की हो, बांधती तो है ही। और सचाई तो ऐसी है कि सोने की जंजीर और भी जोर से बांधती
है, क्योंकि उसे छोड़ने का मन भी नहीं होता। तुम खुद ही पकड़
लेते हो। लोहे की जंजीर तो तुम छोड़ना भी चाहते हो, सोने की
जंजीर कौन छोड़ना चाहता है! सोने की जंजीर को तो लोग आभूषण कहते हैं, गहना कहते हैं, संपदा कहते हैं।
पुण्य भी
बांधता है, पाप भी बांधता है,
क्योंकि मूलत: कर्ताभाव बांधता है। अगर तुम मुझसे पूछो तो मैं
कहूंगा, कर्ताभाव ही एकमात्र बंधन है। कर्ताभाव संसार है।
अकर्ताभाव से, साक्षीभाव से जीना संन्यास है। कर्म तो
रहेगा—उठोगे, बैठोगे, भूख भी लगेगी,
पानी भी पीओगे, दिन में चलोगे भी, रात सोओगे भी, सब होगा; व्यर्थ
रुक जाएगा, जो तुम्हारे कर्ताभाव के कारण हो रहा था वह रुक
जाएगा, लेकिन जो सार्थक है, वह चलता
रहेगा। वह जो पागलपन था, वह रुक जाएगा।
बुद्ध को
शान हुआ, या महावीर को जान हुआ,
तो जान के बाद बैठ तो नहीं गए, गोबर—गणेश होकर
बैठ तो नहीं गए। चालीस साल तक निरंतर चलते रहे, बिस्तर में,
इससे ही आपका जीवन नष्ट हुआ जा रहा है। रात सोने के लिए है, दिन जागने के लिए है, दिन श्रम करने के लिए है,
आप छह बजे उठें।
उस रईस
ने क्या किया, पता है? उसने कहा, ठीक, इसमें कौन सी
अड़चन है! और उसकी जिंदगी में उसने कोई फर्क न किया, उसने
सिर्फ अपने नौकरों को कह दिया कि जब भी मैं उठूं? घड़ी में छह
बजा देना। बात खतम हो गयी। नियम पूरा हो गया। जब भी मैं उठुं घड़ी में छह बजा देना।
नियम के
साथ तो रास्ता है। नियम के साथ तो बेईमानी की जा सकती है, सिर्फ बोध के साथ बेईमानी नहीं हो सकती। नियम से तो
तरकीब निकल आती है। तुम जानते हो सरकार कितने नियम बनाती है, और तुम्हारा वकील उसमें से रास्ता निकाल देता है। तुम भी रास्ता निकाल
लेते हो। दुनिया की कोई सरकार अभी तक इस तरह के नियम नहीं बना सकी जिनमें से
रास्ता न निकाला जा सकता हो। कितनी व्यवस्था करती है, एक—एक
बात को कहने में पूरा—पूरा पेज लगा देते हैं कानूनविद, सब
तरह की शर्तबंदी करते हैं, सब तरह के छेद रोकने कीं 'कोशिश करते हैं, कहीं से कोई तरकीब न निकाल ले,
फिर भी तरकीब निकल आती है।
धर्म
नियम नहीं है, धर्म बोध है। क्योंकि बोध
से ही सिर्फ—फिर तुम तरकीब न निकाल पाओगे। निकालने की जरूरत ही न रह जाएगी। अब
मैंने जो कहा था वह कुछ और था, तुमने जो समझा वह कुछ और है।
'कर्ताभाव के जाने के बाद भी कर्म बचता है।
निश्चित।
मैंने इसलिए ऐसा कहा कि कर्ताभाव के जाने के बाद तुम यह मत समझ लेना कि अब चादर
ओढ़कर पड़ रहना है, क्योंकि अब तो कर्ताभाव
चला गया तो अब हम क्यों करें!
ऐसे बहुत
से आलसी इस देश में हैं जो सोचते हैं कि अब कर्ता ही भाव नहीं रहा तो अब हम क्यों
करें, हम तो परमहंस हो गए। अब
वे बैठे हैं, अब वे कहते हैं, परमात्मा
करेगा। जब परमात्मा ही करने वाला है तो हम क्यों करें! उन्होंने बात में से कुछ और
ही बात निकाल ली। उन्होंने कर्ताभाव नहीं छोड़ा, कर्म छोड़
दिया। कर्ताभाव छोड़ा हो तो कर्म छोड़ने की जरूरत नहीं, तुम
परमात्मा के उपकरण हो गए। परमात्मा करेगा तो तुमसे ही। उसके पास अपने तो कोई हाथ
नहीं हैं, तुम्हारे ही हाथ हैं। परमात्मा जो कुछ करेगा,
करेगा तो तुमसे ही।
तो अगर
तुम कर्म छोड़कर बैठ गए तो तुमने कर्ताभाव
नहीं छोड़ा। कर्ताभाव छोड़ा होता तो तुम उपकरण बन जाते, निमित्तमात्र बन जाते; तुम कहते,
अब जो तुझे करवाना हो, तू करवा। जहां ले जाना
हो, ले जा। जो तेरी मर्जी, हम तेरे साथ
चलेंगे। हम तेरी रौ में बहेगे, तेरी धारा हमारी धारा होगी,
अब हम लड़ेंगे नहीं। अब हमारा अपना निजी न कोई लक्ष्य है, न कोई गंतव्य है। तू डुबा दे, तो वही किनारा। तू
उबार ले तो ठीक, तू डुबा दे तो ठीक। हम हर हाल राजी होंगे।
मगर इसका यह मतलब नहीं कि हम चादर ओढ़कर सो जाएंगे।
इसलिए
मैंने कहा, कर्ताभाव के चले जाने के
बाद भी कर्म बचता है। लेकिन अब कर्म तुम्हारा नहीं होता, अब
परमात्मा का होता है। अब सफलता मिलती है तो तुम उसके चरणों में चढ़ा देते हो,
असफलता मिलती है तो उसके चरणों में चढ़ा देते हो। सुख या दुख जो
तुम्हें मिलता है, तुम उसके चरणों में चढ़ा देते हो। तुम कहते
हो, अब मैं तो हूं नहीं, तू ही है।
अच्छा करवाना हो अच्छा करवा, बुरा करवाना हो बुरा करवा। यही
तो सारा संदेश है कृष्ण की गीता का। वह अर्जुन को इतना ही तो समझाए कि तू
निमित्तमात्र हो जा। फिर परमात्मा युद्ध करवाए तो युद्ध कर, और
परमात्मा अगर संन्यास दिलवा दे और जंगल में ले जाए तो जंगल में चला जा। मगर तू
अपनी तरफ से मत जा, उस पर छोड़ दे।
अर्जुन
कह रहा था कि मैं चला जाऊं छोड़कर । वह कर्ता बनना चाहता था। कृष्ण ने कहा, तू कर्ताभाव छोड़, कर्ता तो वही
है। अर्जुन कह रहा था, मैं इन्हें काटू मारूं, पाप लगेगा। पाप का भाव ही कर्ताभाव का हिस्सा है। मैं करूंगा, तो मुझे फल भोगना पड़ेगा। कृष्ण ने कहा, तू उसकी फिकर
ही छोड़, जिनको मारना है वह मार ही चुका है। वे मरे हुए खड़े
हैं, धक्का देने की बात है, तू निमित्त
हो जा। तू नहीं होगा तो कोई और निमित्त हो जाएगा, मरेंगे तो
ये। ये जो मरने को आए हैं, मरेंगे। इनकी मृत्यु तो तय हो
चुकी, मैं इन्हें मरा हुआ देख रहा हूं। इसमें अनेक तो लाशें
खड़ी हैं। न तुझे पाप लगने वाला है, न पुण्य। तू सिर्फ
कर्ताभाव छोड़ दे। कर्ताभाव को ही पाप लगता, कर्ताभाव को ही
पुण्य लगता।
इसलिए
ज्ञानियों ने कहा है, पाप भी बांधता है और
पुण्य भी बांधता है। शायद पाप लोहे की जंजीर जैसा है और पुण्य सोने की जंजीर जैसा
है, लेकिन जंजीर तो जंजीर है, सोने की
हो कि लोहे की हो, बाधती तो है ही। और सचाई तो ऐसी है कि
सोने की जंजीर और भी जोर से बांधती है, क्योंकि उसे छोड़ने का
मन भी नहीं होता। तुम खुद ही पकड़ लेते हो। लोहे की जंजीर तो तुम छोड़ना भी चाहते हो,
सोने की जंजीर कौन छोड़ना चाहता है! सोने की जंजीर कौ तो लोग आभूषण
कहते हैं, गहना कहते हैं, संपदा कहते
हैं।
पुण्य भी
बांधता है, पाप भी बाधता है, क्योंकि मूलत: कर्ताभाव बांधता है। अगर तुम मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा,
कर्ताभाव ही एकमात्र बंधन है। कर्ताभाव संसार है। अकर्ताभाव से,
साक्षीभाव से जीना संन्यास है। कर्म तो रहेगा—उठोगे, बैठोगे, भूख भी लगेगी, पानी भी
पीओगे, दिन में चलोगे भी, रात सोओगे भी,
सब होगा; व्यर्थ रुक जाएगा, जो तुम्हारे कर्ताभाव के कारण हो रहा था वह रुक जाएगा, लेकिन जो सार्थक है, वह चलता रहेगा। वह जो पागलपन था,
वह रुक जाएगा।
बुद्ध को
जान हुआ, या महावीर को ज्ञान हुआ,
तो शान के बाद बैठ तो नहीं गए, गोबर—गणेश होकर
बैठ तो नहीं गए। चालीस साल तक निरंतर चलते रहे, बोलते रहे,
समझाते रहे। प्रभु ने जो करवाया, वह किया। जो
हुआ, उसे होने दिया। विराट कर्म हुआ, लेकिन
कर्ता का कोई भाव नहीं था। जिस दिन मौत आयी उस दिन रोने नहीं लगे बैठकर कि अब मैं
जा रहा हूं तो मेरे किए हुए काम का क्या होगा, अधूरा छूट
गया।
हमेशा ही
अधूरा छूटता है। जब भी तुम जाओगे, काम
अधूरा छूटेगा। तुम रोओगे अगर कर्ताभाव रहा। अगर कर्ताभाव न रहा, तो जिसका काम है वह जाने। अधूरा तो अधूरा, पूरा तो
पूरा, जितना करवाना था उतना ले लिया—अब किसी और से लेगा। कोई
मैंने ही तो सारा ठेका नहीं लिया है, कोई और होगा जिससे यह
काम आगे चलेगा। मेरे जाने के बाद भी संसार तो चलता रहेगा। तो जो अधूरा है वह पूरा
होता रहेगा। फिर पूरा कब क्या होता है! सब चलता ही रहता है। यह धारा बहती ही रहती
है। यह अनंत श्रृंखला है, न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है।
ऐसी जो
स्थिति है साक्षीभाव की, उसमें मैंने कहा, कर्म तो शेष रहता है। कर्म शेष रहता है, इसलिए कहा
कि तुम कहीं अकर्मण्य न हो जाओ। ऐसा हुआ है। मलूकदास की प्रसिद्ध पंक्ति है न,
तो कई नासमझ उसको पकड़कर बैठ गए हैं— अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास
मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
अब यह
मलूकदास की बड़ी ऊंची बात है।
अजगर करै
न चाकरी
सच है कि
सांप कोई नौकरी नहीं करता और पंछी कोई काम नहीं करते—कहीं दफ्तर में नहीं जाते, क्लर्क नहीं, स्टेशन मास्टर
नहीं, प्रोफेसर नहीं, कोई कामधाम नहीं
है, फिर भी सब मस्ती से जी रहे हैं। भोजन भी मिलता है,
विश्राम भी मिलता है! कहां कमी है।
दास
मलूका कह गए सबके दाता राम।
मगर इसका
मतलब यह तो नहीं है, पक्षियों को तुमने कभी
सुस्त बैठे देखा २ कि बैठे हों तुम्हारे साधुओं जैसे, कि
मंदिरों में बैठे हैं, कि पूजा—स्थलों में बैठे हैं कि दास
मलूका कह गए—पंछी सुन लें और बैठ जाएं, काम में लगे हैं।
नौकरी नहीं करते हैं, यह बात सच है, मगर
काम में नहीं लगे हैं, यह बात गलत है। कितना विराट कर्म चल
रहा है।. सुनते हो? पक्षी अभी काम में लगे हुए हैं—बातचीत चल
रही, संवाद चल रहा, चीजें लायी जा रही
हैं, ले जायी जा रही हैं। हा, एक बात
है, कर्ताभाव नहीं है। इसलिए चिंता नहीं है।
अजगर भी
सरकता है, अजगर भी फुफकारता है।
लेकिन काम में नहीं लगा है। यह सब सहज हो रहा है, इसको करना
नहीं पड़ता; यह स्वाभाविक है। जैसे नदी बह रही है, तो तुम यह थोड़े ही कहोगे कि नदी अपने को बहा रही है। वृक्ष बड़ा हो रहा है,
तो तुम यह थोड़े ही कहोगे कि वृक्ष अपने को बड़ा कर रहा है। हो रहा है।
यह सब हो रहा है। वृक्ष बड़े हो रहे हैं, नदियां बह रही हैं,
पहाड़ के हो रहे, आकाश में बादल घुमड़ रहे,
बिजलिया चमक रहीं, यह सब हो रहा है।
साक्षीभाव
को उपलब्ध व्यक्ति के जीवन में घटनाएं होती हैं, जैसे नदियां बहती हैं, वृक्ष बड़े होते हैं, पक्षी गीत गुनगुनाते हैं। कर्ताभाव नहीं होता। इसलिए मैंने कहा, कर्म बचता है। शुद्ध कर्म बचता है। बड़ा अनूठा कर्म बचता है, जिसमें स्वाद ही स्वाद होता है, जिसमें रस ही रस
होता है। लेकिन निकलता है तुम्हारे भीतर के आनंद से। तो तुमने इससे फिर वही बात
निकाल ली जो दास मलूका से लोगों ने निकाल ली है।
तुम
पूछने लगे, 'ऐसा आपने कहा, आपके संन्यासी के लिए आप कौन सा कर्म नियत करना चाहेंगे?'
तुम खुद
फसोगे, मुझको भी फसाओगे। मैं
क्यों करूं कोई कर्म नियत? परिस्थिति, समय
जो अनुकूल होगा, तुम्हारे भीतर जगाएगी। परमात्मा—परिस्थिति,
समय, इन सब के इकट्ठे जोड़ का नाम परमात्मा है।
तुम्हारे भीतर से प्रतिसंवाद होगा। तुम्हारी चेतना से उत्तर निकलेगा। और तुम्हारा
उत्तर तब कभी भी असंगत न होगा, संगत होगा।
अगर मैं
तुम्हें कोई उत्तर दे दूं तो तुम्हारा जीवन पूरा असंगत हो जाएगा। क्योंकि हम अपना
उत्तर बांधकर चलोगे और जिंदगी किसी उत्तर से बंधी है? जिंदगी रोज बदलती जाती है। जिंदगी विराट परिवर्तन है।
यह तुम्हारे हिसाब से थोड़े ही चलती है कि तुम्हारा उत्तर देखकर चलती है कि
तुम्हारे पास जो उत्तर है वही प्रश्न पूछूं। यह पो ऐसे प्रश्न पूछेगी जिनका उत्तर
कभी तुमने सोचा भी नहीं, विचारा भी नहीं, किसी शास्त्र में नहीं है। फिर तुम क्या करोगे? फिर
तुम वही उत्तर दोगे जो तुम्हारे पास है।
मैं
वर्षों तक विश्वविद्यालय में शिक्षक था। मैं बहुत हैरान हुआ यह बात जानकर कि
विद्यार्थी ऐसे प्रश्नों के उत्तर देते हैं जो कि पूछे नहीं गए। पूछा कुछ गया है, जवाब कुछ देते हैं। फिर मैंने उन विद्यार्थियों को
बुला—बुलाकर पूछना शुरू किया कि मामला क्या है? उन्होंने कहा,
मामला यह है कि हमें जो मालूम है वही तो हम जवाब १ सकते हैं। आप कुछ
इस ढंग से पूछते हैं कि वह हमारी पकड़ के बाहर हो जाता ओं। तो जो हमें मालूम है,
जो हमारी कुंजी में दिया हुआ है, वह हम दे
सकते हैं दवाब। अगर तुम वही प्रश्न पूछो जो उनकी कुंजी में दिया हुआ है तो वे
दोहरा देंगे तोते की तरह। अगर प्रश्न में जरा सा फर्क कर दिया, बस वे मुश्किल में पड़ गए। प्रपना कोई बोध तो नहीं है, कुंजियां हैं, उधार कुंजियां हैं।
तुम किसी
तरह की कुंजी मुझसे पाने की आशा मत करो। मैं तुम्हें उधार आदमी बनाना नहीं चाहता।
मैं चाहता हूं तुम जागो, तुम्हारे पास अपनी ज्योति
हो, उस ज्योति गे तुम देखो, उस देखने
में जो तुम्हारे जीवन में घटना घटे, उसे घटने दो। इतना ही
हहता हूं र अंधेरे में मत टटोलते रहो, रोशनी हो सकती है,
और आखें खुल सकती हैं। अंधे तुम नहीं हो, तुमने
आखें बंद कर रखी हैं, या आंखों पर पर्दा डाल रखा है। इसलिए
मैं कोई कर्म नियत नहीं करना चाहता हूं। और तुम इस दिशा में इस भाति सोचो ही मत।
मैं तुम्हें मुक्ति देता हूं। तुम सिर्फ सारी शक्ति बोध पर लगा दो, ध्यान पर लगा दो।
इसलिए न
तुमसे कहता हूं शराब छोड़ो, न तुमसे कहता हूं
धूम्रपान छोड़ो, न तुमसे कहता हूं यह छोड़ो, वह छोड़ो, ऐसे उठो, वैसे बैठो,
यह योग करो, कुछ भी नहीं कहता हूं। कहता हूं
सारी शक्ति ध्यान पर लगा दो। क्योंकि ध्यान की चिनगारी पैदा हो जाए, तो शेष सब अपने से हो जाएगा। उस चिनगारी के बाद यह बात निश्चित है कि तुम
ऐसे ही न रहोगे जैसे हो। धूम्रपान जा सकता है, मदिरापान जा
सकता है, कामवासना जा सकती है, धन,
लोभ, पद, सब जा सकते हैं,
तुम ऐसे न रहोगे जैसे हो, यह बात पक्की है।
लेकिन मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम इन्हें बदलो। मैं तुमसे कहता हूं तुम सिर्फ जागो,
तुम्हारे जागरण के पीछे बदलाहट आती है। और तब बदलाहट में बड़ा
सौंदर्य होता है। प्रयास सें 'जो किया जाता है, कुरूप हो जाता है। क्योंकि प्रयास में जबर्दस्ती है, स्वभाव नहीं है।
तीसरा प्रश्न :
आप हमेशा कहते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम और परमात्मा का
क्या संबंध है?
मैं जब कहता हूं, प्रेम ही परमात्मा है, तब मैं
यही कह रहा हूं, कि वे दो नहीं हैं। इसलिए संबंध की बात ही
मत पूछो। संबंध तो दो में होता है। प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम कहो या परमात्मा
कहो, एक ही बात कही जाती है। और ज्यादा अच्छा होगा, तुम प्रेम ही कहो। क्योंकि परमात्मा के नाम पर इतनी घृणा फैलायी गयी है,
परमात्मा के नाम पर आदमी ने इतनी हत्या की है, इतना अनाचार किया, अत्याचार किया है, इतना व्यभिचार किया है कि अब अच्छा होगा कि हम प्रेम शब्द को ही परमात्मा
के सिंहासन पर पूरा विराजमान कर दें।
प्रेम ही
परमात्मा है, संबंध की तो पूछो मत—तुम
यह पूछ रहे हो कि दोनों के बीच क्या संबंध है? तुमने दो तो
मान ही लिया।
नहीं, परमात्मा प्रेम से अलग कुछ भी नहीं है। जहां तुम्हारा
प्रेम आया, जहा तुम्हारा प्रेम का प्रकाश पड़ा, वहीं परमात्मा प्रगट हो जाता है। इसीलिए तो तुम जिसको प्रेम करते हो,
उसमें दिव्यता दिखायी पड़ने लगती है। प्रेम दिव्यता को अनावृत करता
है, उघाड़ता है। तुम एक साधारण स्त्री को प्रेम करो, साधारण पुरुष को प्रेम करो, तुम्हारे घर एक बेटे का
जन्म हो उसको प्रेम करो, और अचानक तुम पाओगे कि जिस तरफ
तुम्हारे प्रेम की दृष्टि गयी, वहीं दिव्यता खड़ी हो जाती है।
यही तो
प्रेमियों की अड़चन है। क्योंकि जहां उन्हें दिव्यता दिखायी पड़ जाती है कभी, फिर सिद्ध नहीं होती, तो बड़ी
अड़चन खड़ी होती है। जिस स्त्री में तुमने दैवीय रूप देखा था या जिस पुरुष में तुमने
परमात्मा की झलक पायी थी, फिर जीवन के व्यवहार में वैसी झलक
खो जाती है, नहीं बचती, तो पीड़ा होती
है। लगता है, धोखा दिया गया। कोई धोखा नहीं दे रहा है,
सिर्फ तुम्हारे पास जो प्रेम की आंख है, अभी
इतनी स्थिर नहीं है कि तुम सदा किसी व्यक्ति में परमात्मा देख सको। जब—जब तम्हारी आंख
बंद हो जाती है, परमात्मा दिखायी पड़ना बंद हो जाता है।
तो प्रेम
शुरुआत में तो बड़ा दिव्य होता है—सभी प्रेम दिव्य होते हैं। फिर सभी पतित हो जाते
हैं, क्योंकि आंखों की आदत
नहीं है इतना खुला रहने की। जिस दिन तुम सारे जगत को प्रेम कर पाओगे, उस दिन सारे जगत में परमात्मा प्रगट हो जाएगा।
मैं
तुमसे कहता हूं? प्रेम ही परमात्मा है।
आ गया
नूर जरें—जरें पर
सितारे
भी चमक उठे हैं कुछ और
रोशनी
चांद की भी बढ़ गयी है
महककर
फूल इठलाए हैं कुछ और
प्रेम की
लहर के आते ही! प्रेम का झोंका आ जाए!
आ गया
नूर जरें—जरें पर
तो एक अदभुत प्रकाश कण—कण पर दिखायी पड़ने
लगता है। तुमने प्रेमी को चलते देखा? जैसे जमीन की कशिश उस पर काम नहीं करती, जैसे वह उड़ा
जाता है, जैसे उसे पंख लग गए हैं। तुमने प्रेमी की आखें
देखीं? जैसे उनमें दीए जलने लगे हैं। तुमने प्रेमी का चेहरा
देखा? रोशन। कोई दिव्य आभा प्रगट होने लगती है।
आ गया
नूर जरें—जरें पर
सितारे
भी चमक उठे हैं कुछ और
रोशनी
चांद की भी बढ़ गयी है
महककर
फूल कुछ इठलाए हैं और
तुम्हारी
आंख की एक जुंबिश ने
जिंदगी
ही मेरी बदल डाली
लबों से
तुमने जो इकरार किया
शर्म आंखों
की बढ़ गयी है कुछ और
जब
निगाहें मिली थीं पहली बार
निकलता
सा लगा दिल पहलू से
तुम्हारी
आंखों की गहराई में
हर घड़ी
डूबने लगा था कुछ और
इस खामोश
मुहब्बत ने कभी
सुकून से
हमें जीने न दिया
हंसकर जब
भी कभी देखा तुमने
दिल की
बेचैनी बढ़ गयी कुछ और
बड़ा
एहसान तुमने मुझ पर किया
तड़पते
दिल को सहारा देकर
कबूल
करके यह खामोश सदा
बढ़ाया
प्यार मेरी राहों में कुछ और
आ गया
नूर जरें—जर्रे पर
सितारे
भी चमक उठे हैं कुछ और
रोशनी
चांद की भी बढ़ गयी है
महककर
फूल कुछ इठलाए हैं और
यह तो
साधारण प्रेम की बात। यह तो उस प्रेम की बात जो दो मनुष्यों के बीच घट जाता है। उस
प्रेम की तो बात ही क्या कहें, जो
मनुष्य और समस्त के बीच घटता है। मैं उसी प्रेम की बात कर रहा हूं। दो मनुष्यों के
बीच जो घटता है, यह तो दो बूंदों का मिलन है। और मनुष्य और
अनंत के बीच जो घटता है, वह बूंद का सागर से मिलन है। दो
बूंदें मिलकर भी तो बहुत बड़ी नहीं हो पातीं।
तुमने
देखा, कभी—कभी कमल के पत्ते पर
दो ओस की बूंदें सरककर एक हो जाती हैं, तो भी बूंद तो बूंद
ही रहती है। एक बूंद बन गयी दो की जगह, कोई बड़ा विराट तो
नहीं घट जाता। थोड़ी सीमा बड़ी हो जाती है। तुम थोड़े आधे—आधे थे, प्रेमी से मिलकर तुम थोड़े— थोड़े पूरे हो जाते हो। तुम अकेले—अकेले थे,
प्रेमी से मिलकर तुम अकेले नहीं रह जाते।
प्रेम का
मार्ग प्रार्थना का मार्ग। तुम देखो, हिंदू हैं, तो सीता—राम की साथ—साथ मूर्ति बनायी है,
कि राधा—कृष्ण की, कि शिव—पार्वती की। ये
प्रतीक हैं ये मूर्तियां। प्रतीक हैं इस बात की कि जो प्रेम मनुष्य और मनुष्य के
बीच घटता है, उसी प्रेम को फैलाना है। उसी प्रेम को इतना बड़ा
करना है कि मनुष्य और अनंत के बीच घट जाए। ध्यान के मार्ग पर इसकी जरूरत नहीं
होती। इसलिए महावीर अकेले खड़े हैं, इसलिए बुद्ध अकेले बैठे
हैं।
ध्यान के
मार्ग पर दूसरे की जरूरत नहीं है। प्रेम के मार्ग पर दूसरे की जरूरत है। प्रेम तो
दूसरे के बिना फलित ही न हो सकेगा। इसलिए ध्यान के मार्ग पर परमात्मा की धारणा की
भी जरूरत नहीं है। लेकिन प्रेम के मार्ग पर तो परमात्मा की धारणा अनिवार्य है, अपरिहार्य है।
तो जब
मैं तुमसे कहता हूं, प्रेम परमात्मा है,
तो मैं भक्त की भाषा बोल रहा हूं। तुम्हें जो रुच जाए, तुम्हें जो ठीक पड़ जाए। अगर तुम्हें ऐसा लगता हो कि प्रेम में तुम सरलता
से पिघल पाते हो, तुम्हारी आंखों से आंसुओ की धार बहने लगती
है सुगमता से, तुम्हारा दिल डोलने लगता है, तुम नाचने लगते हो—तुम्हारा मनमयूर नाचने लगता, तुम्हारे
भीतर एक छंद पैदा होता है, एक स्फुरणा होती है, रोआ—रोआ किसी रोमाच से पुलकित हो जाता है, अगर
तुम्हारे भीतर प्रेम का भाव रोमांच लाता हो, तो पहचान लेना
कि तुम्हारे लिए भक्ति ही द्वार है।
अगर
तुम्हें प्रेम का शब्द खाली निकल जाता हो, प्रेम के शब्द से कुछ न होता हो, न आंख में आसू
झलकते हों, न हृदय में कोई धड़कन होती हो, न रोमांच होता हो, अगर प्रेम का शब्द खाली—खाली निकल
जाता हो, कोरा—कोरा, इस शब्द में कोई
प्राण ही न मालूम पड़ते हों, तो तुम इस बात को छोड़ देना,
फिर कोई जरूरत नहीं है।
हमेशा खयाल रखना, जो मार्ग तुम्हारे लिए न हो, उस
पर श्रम मत करना। क्योंकि वह सारा श्रम व्यर्थ जाएगा। जिद्द मत करना। ऐसा मत कहना
कि मैंने तो चुन लिया, इसी पर अटका रहूंगा।
मेरे पास
बहुत से लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम बहुत दिन से प्रार्थना कर रहे हैं, कुछ परिणाम
नहीं हुआ। तो हमने कोई पाप किए हैं? हमने कोई पिछले जन्मों
में बुरे कर्म किए हैं?
जब मैं
देखता हूं गौर से, तो यह पाता हूं कि न तो
कोई पाप किए हैं—क्या ताप करोगे तुम! पाप करने को है क्या बहुत! यह पाप करने की
धारणा भी कर्ता का ही हिस्सा है। करने वाला तो परमात्मा है, तुम
क्या पाप करोगे, क्या पुण्य करोगे! यह कर्म का जो हमारा
सिद्धात है, कि कर्म किए, यह भी कर्ता
का ही हिस्सा है। यह अज्ञान का ही बोध है। न तो तुमने कुछ पाप किए, न पुण्य किए हैं। जो उसने करवाया है, करवाया है। जो
हुआ है, हुआ है। फिर तुम क्यों अटके हो? अटके इसलिए हो कि तुम उस द्वार से प्रवेश करने की कोशिश कर रहे हो जो
तुम्हारा द्वार नहीं है। प्रार्थना तो कर रहे हो वर्षों से, लेकिन
प्रार्थना तुम्हारा द्वार नहीं है। फिर समझाने को तुम सोच लेते हो कि पाप किए
होंगे, इसलिए बाधा पड़ रही है। नहीं कोई बाधा पड़ती। तुम ध्यान
से तलाशो, अगर प्रार्थना से नहीं मिल रहा है तो।
कुछ लोग
हैं जो ध्यान पर लगे हुए हैं, कुछ
नहीं हो रहा है। उनको मैं कहता है', तुम प्रार्थना से तलाशो।
मेरी नजर मार्ग पर नहीं है, मेरी नजर तुम पर है। मेरे लिए यह
बात बहुत अर्थपूर्ण नहीं है कि तुम किस मार्ग से पहुंचते हो, मेरे लिए यही बात अर्थपूर्ण है कि तुम पहुंचते हो। पहुंच जाओ, किसी वाहन पर सवार होकर—घोड़े, कि हाथी पर, कि पैदल, कि बैलगाड़ी में—कैसे भी पहुंच जाओ। वाहन की
बहुत चिंता मत करो, वाहन तुम्हारे लिए है, तुम वाहन के लिए नहीं हो।
अब तक
पृथ्वी पर मार्गों पर बहुत जोर दिया गया। तुम भक्त से पूछो तो वह 'भक्त की ही बात को कहेगा। वह कहेगा, सिर्फ भक्ति से
ही पहुंच सकते हो। वह आधी बात सच कह रहा है। आधे लोग भक्ति से पहुंच सकते हैं। तुम
ध्यानी से पूछो, ज्ञानी से पूछो, वह
कहता है, ध्यान के मार्ग से ही कोई पहुंचता है, भक्ति के मार्ग से कैसे पहुंचोगे! वह सब कपोल कल्पना है। वह भी आधी बात सच
कह रहा है। आधे लोग ध्यान से पहुंचे है, आधे लोग भक्ति से
पहुंचे हैं। और लोग उस मार्ग पर चलने की चेष्टा करते रहे जो उनका नहीं था, जिस मार्ग के साथ उनके हृदय का मेल नहीं बैठता था, वे
कभी नहीं पहुंचते हैं, वे भटकते ही रहे हैं।
तुम अगर
भटक रहे हो तो बहुत संभावना यही है कि तुम ऐसे द्वार से प्रवेश कर रहे हो, जो तुम्हारा द्वार नहीं है।
तो जब
मैं कहता हूं प्रेम परमात्मा है, तो
मेरा अर्थ है उन आधे लोगों के लिए जो प्रेम से ही प्रवेश पा सकेंगे। यह उनके लिए
कह रहा हूं। सबको इसे मान लेने की जरूरत नहीं है। जिनको यह बात न जमती हो, वे इसे छोड़ दें।
मगर हम
बडे परेशान होते हैं। कभी—कभी हम ऐसी बातों के लिए परेशान होते हैं जिनका कोई
प्रयोजन नहीं होता है।
कल एक
मित्र—बुद्धिमान मित्र—रात मिलने आए। प्रश्न पूछा, तो अजीब सा प्रश्न पूछा। प्रश्न यह पूछा कि परशुराम को अवतार क्यों कहा
जाता है। क्योंकि उन्होंने तो सिर्फ हिंसा की, मार—काट की,
पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया, विध्वंस
ही विध्वंस। उनको अवतार क्यों कहा जाता है?
अब पहली
तो बात यह कि क्या लेना—देना परशुराम से! तुम्हें अवतार न जंचते हों, क्षमा करो, उनको जाने दो। कोई
परशुराम तुम पर मुकदमा नहीं चलाएंगे कि तुमने हमें अवतार क्यों नहीं माना। भूलो,
क्या लेना—देना परशुराम से! हुए भी कि नहीं हुए, इसका भी कुछ पक्का नहीं है। तुम क्यों अड़चन ले रहे हो? अब दूर से, दिल्ली से चलकर मुझसे मिलने आए हैं,
और मिलकर पूछा यह!
फिर अगर
ऐसा लगता है कि परशुराम का मामला हल ही करना होगा, तभी तुम आगे बढ़ सकोगे—जो कि मेरी समझ में नहीं आता कि क्यों, परशुराम से क्या प्रयोजन है! बुद्धि की खुजलाहट है। नहीं जंचती बात,
नहीं जंचती। अब उन पर अहिंसा का प्रभाव होगा, महावीर
और बुद्ध का प्रभाव होगा, उनके मन में यह बात जंचती होगी कि
अवतारी पुरुष तो अहिंसक होना चाहिए। कुछ कल्याण का काम करे। विध्वंस! इसको अवतार
क्यों कहना?
तो
तुम्हें अगर महावीर और बुद्ध की बात ठीक जमती है, तो महावीर और बुद्ध के मार्ग वाले परशुराम को अवतार कहते भी नहीं, तुम फिकर छोड़ो। लेकिन अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारी गांठ परशुराम
से बंधी है, और तुम्हारा मन मानने का करता है कि होने तो
चाहिए अवतार और फिर ये और दूसरी धारणाएं बाधा डालती हैं, तो
दूसरी धारणाओं को छोड़ो, फिर समझने की कोशिश करो।
हिंदू
विचार तो समस्त जगत को दैवीय मानता है, दिव्य मानता है—हिंसा भी और अहिंसा भी, सृजन भी और
विध्वंस भी। वह भक्त की धारणा है। भक्त कहता है, भगवान हजार
रूप में प्रगट होता है, सब रूप उसके। कभी वह विध्वंसक के रूप
में भी प्रगट होता है। क्योंकि विध्वंस किसका? उसका ही। वही
कर्ता है, हम तो कोई कर्ता नहीं हैं। कभी वह बुद्ध की तरह
प्रगट होता है—करुणा का सागर। और कभी वह परशुराम की तरह प्रगट होता है—फरसे को हाथ
में लिए हुए अति कठोर। कभी वह चट्टान की तरह प्रगट होता है और कभी फूल की तरह भी।
चट्टान भी वही है और फूल भी वही है। दोनों वही है।
फिर, उसका प्रयोजन वही जाने। अगर हमारी समझ में नहीं पड़ता,
क्योंकि हमें लगता है, हमारे मूल्य के विपरीत
जाती है यह बात कि कोई आदमी हिंसा कर रहा है, तो इस हिंसा का
क्या प्रयोजन! कभी—कभी हिंसा का भी प्रयोजन है। कभी—कभी बुराई से भी लड़ना होता है।
और कभी—कभी हिंसा से लड़ने का एक ही उपाय होता है—हिंसा। क्षत्रिय तो हिंसा का
प्रतीक है। जब हम कहते हैं, परशुराम ने सारी दुनिया को
क्षत्रियों से खाली कर दिया, तो हम इतना ही कह रहे हैं कि
परशुराम ने सारी दुनिया को हिंसा से खाली कर दिया। मगर क्षत्रियों से जूझना हो तो
क्षत्रिय होकर ही जूझा जा सकता है, और कोई उपाय नहीं है। वे
तो तलवार की भाषा ही समझते हैं। अब तुमको ऊपर से तो देखने में लगेगा कि परशुराम
हिंसक हैं, अगर भीतर गौर से इस प्रतीक में झांकोगे तो पता
लगेगा कि परशुराम ने दुनिया से हिंसा को मिटाने का जैसा वृहत आयोजन किया, वैसा न बुद्ध ने किया, न महावीर ने। बुद्ध और महावीर
तो समझाते रहे कि भई, हिंसा मत करो। परशुराम तो लेकर फरसा और
जूझ पड़े, कि मिटा ही डालेंगे, हिंसा की
जड़ों को काट डालेंगे।
मगर एक मजे की बात देखते हो, न बुद्ध के और महावीर के समझाने से हिंसा जाती है,
न परशुराम के अठारह बार क्षत्रियों को काट डालने से हिंसा जाती है।
तो इसमें एक और गहरा सत्य छिपा है कि इस जगत से द्वंद्व कभी नष्ट होता ही नहीं।
बुराई और भलाई साथ—साथ हैं। हिंसा—अहिंसा साथ—साथ हैं। करुणा—कठोरता साथ—साथ हैं।
ऐसा कभी भी नहीं होगा कि तुम एक को काटकर गिरा दोगे। बुद्ध महावीर समझाकर न गिरा
सके, और परशुराम ने तो बड़ी चेष्टा की, भयंकर
चेष्टा की, बड़ा श्रम लिया कि सारे क्षत्रिय काटते गए,
कि न रहेगा बांस न बजेगी बासुरी, मगर फिर—फिर
हिंसा उभर आयी। इस जगत से द्वंद्व नष्ट नहीं होने वाला। यह कथा का गहरा अर्थ है।
तो फिर
क्या करें? तुम द्वंद्व के बाहर हो
सकते हो, जगत से द्वंद्व नहीं मिटने वाला। तुम द्वंद्व के
बाहर हो सकते हो, जगत से द्वंद्व कभी नहीं मिटेगा। ही,
तुम जब चाहो तब द्वंद्व से बाहर सरक जाओ। और उस सरक जाने की कला ही
है साक्षीभाव। तम साक्षी हो जाओ; न अहिंसक, न हिंसक; न इधर, न उधर;
तुम मध्य में खड़े होकर बीच से निकल जाओ। तुम कह दो कि अब मैं कर्ता
नहीं हूं। लेकिन व्यर्थ के प्रश्नों में मत उलझो, व्यर्थ के
बौद्धिक प्रश्नों में मत उलझों।
अगर
ध्यान में रुचि है तो ध्यान में डूब जाओ, फिर प्रेम के संबंध में प्रश्न ही मत पूछो। समय कहां है! व्यर्थ क्यो समय
गंवाते हो? कल का पक्का नहीं है। एक क्षण बाद का पक्का नहीं
है। अगर प्रेम की बात जंचती है तो ध्यान की बात भूलो और प्रेम में डुबकी ले लो।
समय नहीं है ज्यादा। लेकिन मैं अक्सर देखता हूं कि लोग इस तरह की बातों में बड़ा
श्रम लगाते हैं।
अब जिन
मित्र ने यह पूछा, वह निश्चित ही चिंतित
हैं। चिंता जरा व्यर्थ मालूम होती है, लेकिन वह चिंतित हैं,
इसमें कोई शक नहीं है। और प्रामाणिक उनकी परेशानी मालूम होती है।
उनके चेहरे पर बड़े बल पड़ गए हैं। परशुराम को अवतार क्यों कहा जाता है? मुझसे बात करने के बाद भी, मेरे समझाने के बाद भी,
उन्होंने कहा कि अभी तो ज्यादा समय नहीं है आपके पास, फिर कभी आऊंगा।
मगर उनको
अभी बात जंची नहीं है। यह बात नहीं जंची कि यह व्यर्थ है, इसे छोड़े, इससे क्या लेना—देना!
मतलब अभी वह सोच—विचार जारी रखेंगे। परशुराम न हुए रोग हो गए!
और परशुराम ने हिंसा की या नहीं की, तुम परशुराम को पकड़कर अपने जीवन के साथ जो हिंसा कर
रहे हो, वह तुम्हारी समझ में नहीं आती। जिससे प्रयोजन न हो,
उसके संबंध में विचार करने की भी जरूरत नहीं। इतना भी क्यों अपनी
शक्ति, अपनी ऊर्जा को व्यय करो।
तो यदि
तुम्हारे जीवन में प्रेम है, और
तुम्हें लगता है कि प्रेम में तुम्हें सुविधा मिलेगी, सुगम
मालूम होता है, उतरो। फिर तुम पाओगे कि प्रेम में जैसे—जैसे
उतरे, परमात्मा में उतरे। एक दिन तुम पाओगे कि प्रेम की
पराकाष्ठा ही परमात्मा है। न हो रस प्रेम में, तो इस तरह के
प्रश्नों में मत उलझो। तुम ध्यान में उतरों।
और दो के
अतिरिक्त तीसरा कोई मार्ग नहीं है। इसलिए निर्णय करना बहुत कठिन नहीं है। अच्छा ही
है कि दो ही मार्ग हैं। दो ही मार्ग के रहते भी तुम निर्णय नहीं कर पा रहे, अगर और बहुत ज्यादा मार्ग होते तो बड़ी अड़चन हो जाती,
फिर तो निर्णय कभी न हो पाता। दोनों पर प्रयोग करके देख लो।
कभी—कभी
ऐसा भी होता है कि अनिर्णय की स्थिति होती है। ऐसा भी लगता है कि प्रेम ठीक, ऐसा भी लगता है ध्यान ठीक। तो दोनों पर प्रयोग करके
देख लो। एक वर्ष पूरा का पूरा भक्ति में डुबा दो। मिल गया तो ठीक, फिर दूसरे पर प्रयोग करने की जरूरत न रह जाएगी। लेकिन पूरा लगा दो। न मिला
तो भी एक बात तय हो जाएगी कि यह मेरा मार्ग नहीं है।
अधूरे—अधूरे
कुनकुने लोगों को बड़ी तकलीफ है। न तो कभी हृदयपूर्वक किया है, इसलिए—तय ही नहीं हो पाता कि मेरा मार्ग है या नहीं
है।
मैं
तुमसे कहता हूं, जो भी तुम पूरे रूप से कर
लोगे, उसमें से निर्णय बाहर आ जाएगा। पूर्ण कृत्य निर्णायक
होता है। या तो दिखेगा यह मेरा मार्ग है, फिर तो चल पड़े,
फिर तो लौटने की कोई जरूरत न रही। या दिख जाएगा कि यह मेरा मार्ग
नहीं है, तो भी झंझट मिट गयी, दूसरा
फिर तुम्हारा मार्ग है। फिर कोई अड़चन न रही। हर हालत में निर्णय आ जाएगा।
चौथा प्रश्न :
मनुष्य आनंद कब मनाए? उत्सव कब उचित है?
हद की कंजूसी है! आनंद भी प्रतीक्षा करोगे
कि कब मनाएं! दुख के संबंध में कंजूसी करो तो ठीक है कि आदमी दुखी कब हो? ऐसा पूछो तो ठीक है। आनंद के संबंध में पूछते हो!
आनंद तो स्वभाव है। चौबीस घंटे आदमी सुखी हो। प्रतिपल आदमी आनंदित हो। उत्सव तो
जीवन का ढंग है। उत्सव तो चल रहा है चारों तरफ। यह जो विराट है, उत्सवलीन है। तुम्हारी मर्जी, चाहो तो बाहर खड़े रहो,
मत डूबो इस उत्सव में, चाहो तो डुबकी ले लो।
तुम
पूछते हो, 'मनुष्य आनंद कब मनाए?'
प्रश्न
की अर्थवत्ता मैं समझा। अधिक लोगों का यह प्रश्न है। लोग दुखी होने में जरा भी
कृपणता नहीं करते, न वक्त देखते, न बेवक्त देखते, समय—असमय कुछ नहीं देखते, ऋतु—बेऋतु कुछ नहीं देखते, दुखी होने के लिए तो
चौबीस घंटे तत्पर हैं, मौका भर मिल जाए। कभी तो मौका भी नहीं
मिलता तो भी हो जाते हैं। कभी तो कारण भी नहीं मिलता तो भी हो जाते हैं। लेकिन सुख
के संबंध में बड़े कृपण है। लाख उपाय जुटाओ, तब मुश्किल से
थोड़ा मुस्कुराते हैं। वह भी बड़े रुके—रुके, जैसे कि बड़ी
ज्यादती हो रही है उन पर। हंसना कठिन मालूम होता है, नाचना
कठिन मालूम होता है, गीत गुनगुनाना कठिन मालूम होता है। हमने
दुख के साथ बड़ी गांठ बाध ली है। दुख को हमने जीवन की चर्या बना ली है।
इसलिए तुम
पूछते हो, 'मनुष्य आनंद कब मनाए?
उत्सव कब मनाए?'
एक रूसी
कथा मैंने सुनी है। किन्हीं सज्जन ने सड़क पर एक भिक्षुक को एक रूबल दे दिया। यह उस
बीते सुनहरे जमाने की बात है जब एक रुपए की तरह एक रूबल से भी बहुत कुछ खरीदा जा
सकता था। रूबल रूसी सिक्का है। थोड़ी देर बाद वे सज्जन जब उसी राह से लौट रहे थे तो
देखा कि वही भिक्षुक एक होटल में बैठा हुआ तंदूरी चिकन पर हाथ साफ कर रहा है। उनसे
न रहा गया और वे होटल में जाकर उसे डांटने लगे। उससे बोले कि तुम सड्कों पर भीख
मांगते हो और तंदूरी चिकन खाते हो? भिक्षुक भी गजब का आदमी था। बजाय झेंपने के, उलटे वह
उस दाता को ही डाटने लगा। उससे बोला, उल्ल के पट्टे! पहले जब
मेरे पास रूबल नहीं था तो मैं तंदूरी चिकन खा नहीं सकता था। अब जब मेरे पास रूबल
है, तो आप कहते हैं, मुझे तंदूरी चिकन
नहीं खाना चाहिए। तो फिर मैं तंदूरी चिकन खाऊं कब? रूबल नहीं
था तो खा नहीं सकता था, रूबल है तो तुम कहते, खाओ मत, क्योंकि तुम भिखारी हो, यह क्या कर रहे हो? तो मैं तंदूरी चिकन खाऊंगा कब?
मैं तुमसे कहता हूं रूबल हो या न हो, तंदूरी
चिकन खाओ। क्योंकि मैं जिस तंदूरी चिकन की बात कर रहा हूं उसके लिए रूबल की जरूरत
ही नहीं है। तुम यह पूछो ही मत कि कब? मैं जिस उत्सव की बात
कर रहा हूं, उस उत्सव के लिए सब समय ठीक समय है और सब ऋतुएं
ठीक ऋतुएं हैं। मैं जिस बसंत की बात कर रहा हूं, वह बारह महीने फैल सकता है। वह बारहमासी हो सकता
है। मैं जिन फूलों की बात कर रहा हूं र वे हर जगह खिल सकते हैं, हर देश में खिल सकते हैं, हर परिस्थिति में खिल सकते
हैं—सफलता में, असफलता में, जवानी में,
बुढ़ापे में, धन में, निर्धनता
में। मैं जिन फूलों की बात कर रहा हूं वे हर जगह खिल सकते हैं, हर परिस्थिति में खिल सकते हैं। मैं शाश्वत के फूलों की बात कर रहा हूं।
अब तुम
पूछते हो, 'मनुष्य आनंद कब मनाए?'
तुम्हारा
क्या इरादा है! कोई दिन तय करके मनाओगे—कि रविवार को मनाए, कि छुट्टी का दिन ठीक। छह दिन दुखी रहोगे, सातवें दिन अचानक आनंदित कैसे हो पाओगे? छह दिन का
अभ्यास पीछा करेगा।
तुमने
देखा या नहीं, छुट्टी के दिन लोग क्या
करते हैं? छुट्टी के दिन लोग रोजमर्रा के काम से ज्यादा काम
करते हैं। छुट्टी के दिन पत्नियां परेशान हो जाती हैं, क्योंकि
पति काफी खटर—पटर मचाता घर में आकर। कहीं कार खोलकर सफाई शुरू कर देता है, कहीं रेडियो खोल लेता है, कहीं घड़ी खोल लेता
है—ज्यादा खटर—पटर करता है। क्योंकि छह दिन काम का अभ्यास, अचानक
बेकाम कैसे रहोगे? छह दिन सोचता है कि छुट्टी का दिन आ रहा
है, विश्राम करेंगे, और जब छुट्टी का
दिन आता है, तो विश्राम करना कोई इतनी आसान बात तो नहीं!
विश्राम तो जीवन की शैली हो तो ही कर सकते हो। वह तनाव, आदत
भाग—दौड़ की, उसको बेचैनी लगती है—अब क्या करें?
तो लेकर
पत्नी—बच्चों को चला, हिल स्टेशन चलो। तो कम से
कम ड्राइव ही करेगा। छुट्टी के दिन जितने एक्सीडेंट होते हैं दुनिया में उतने किसी
और दिन नहीं होते। और छुट्टी के दिन लोग ऐसे थके—मांदे लौटते हैं कि कम से कम दो—तीन
दिन लग जाते हैं दफ्तर में उनको, जब कहीं वह फिर स्वस्थ हो
पाते हैं। छुट्टी का दिन महंगा पड़ जाता है। छुट्टी मनानी कोई आसान बात तो नहीं! जब
तक कि छुट्टी तुम्हारे जीवन की कला ही न हो गयी हो।
तो तुम पूछते हो, 'कब आनंद मनाएं?'
अगर
तुमने शर्त रखी कि ये शर्तें पूरी हों तब मैं आनंद मनाऊंगा—ऐसी शर्तें लोगों ने
रखी हैं, इसीलिए तो दुखी हैं। वे
कहते हैं, जब मेरे पास बड़ा महल होगा, तब।
कि जब बैंक में मेरे पास बड़ा बैलेंस होगा, तब। कि जब दुनिया
की सबसे सुंदरतम स्त्री मुझे उपलब्ध हो जाएगी, तब। कि बड़े पद
पर पहुंचूंगा, तब। अभी क्या आनंद मनाऊं! शर्तें उन्होंने
इतनी बांध रखी है कि न वे शर्तें कभी पूरी होती हैं, न वे
कभी आनंद मना पाते हैं। और ऐसा भी नहीं कि शर्तें पूरी होतीं ही नहीं, कभी—कभी शर्तें पूरी भी हो जाती हैं, लेकिन जीवनभर
की दुख की आदत!
उमर
खथ्याम ने एक बड़ी मीठी बात कही है। उमर खथ्याम ने कहा है कि हे उपदेशको, हे मंदिर के पुजारियो, मौलवी—पंडितो,
तुम कहते हो, स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे
हैं, और यहां तुम शराब पीने नहीं देते। अभ्यास न होगा तो चश्मों का क्या करेंगे ?यह बात बड़ी अर्थ की है। यहां अभ्यास तो कर लेने दो। यहां तो प्याले—कुल्हड़
से ही पीने को मिलती है, अभ्यास तो हो जाए। नहीं तो अचानक,
जरा सोचो तुम, जिंदगीभर तो यहां कभी शराबखाने
न गए, और फिर एकदम स्वर्ग पहुंचे, और
वहां शराब के झरने बह रहे हैं! तुम पीओगे? तुम न पी सकोगे।
तुम निंदा से भर जाओगे। तुम कहोगे, यह पाप है।
यह बात
अर्थपूर्ण है। यह बात शराब के संबंध में नहीं है। यह बात जीवन के आनंद के संबंध
में है। उमर खथ्याम एक सूफी फकीर है। शराब से उसे क्या लेना—देना! उसने कभी जीवन
में शराब पी भी नहीं है। वह नाहक बदनाम हो गया है, क्योंकि शराब की उसने बड़ी चर्चा की है। तो लोग समझे, शराब की ही चर्चा कर रहा है। शराब तो सिर्फ प्रतीक है मस्ती का। वह ठीक कह
रहा है। अगर मस्त यहां न हुए, तो वहां कैसे मस्ती करोगे?
यहां न नाचे, तो अचानक स्वर्ग में पहुंचकर
नाचोगे? जंचेगा ही नहीं। बेहूदे लगोगे! इधर कभी गाए नहीं,
वहां एकदम गाओगे तो बड़ी बेसुरी आवाज निकलेगी, और
लोग कहेंगे, भई शात रहो! स्वर्ग की शांति में विप्न न डालो।
तुम तो अपना पुराना अभ्यास यहां भी जारी रखो, बना लो वही
लंबी उदास सूरत, बैठ जाओ किसी झाड़ के नीचे, योगासन साधो।
तुम
पूछते हो, 'मनुष्य आनंद कब मनाए?'
मनुष्य
आनंद ही आनंद मनाए। चलते, उठते, बैठते, सोते, खाते—पीते,
सुख में और दुख में भी आनंद मनाए। सुख में तो मनाए ही, दुख में भी मनाए। जब घर में किसी का जन्म हो तब तो मनाए ही, जब घर से कोई विदा हो तब भी मनाए। जन्म में भी और मृत्यु में भी। उत्सव के
लिए कोई मौका छोड़े ही न। किसी न किसी बहाने कोई न कोई उपाय खोज ले।
च्वांग्तसू
चीन का अदभुत संत हुआ। उसकी पत्नी मर गयी। तो खुद सम्राट संवेदना प्रगट करने आया।
लेकिन सम्राट सोच—सोचकर आया होगा कि च्वांग्तसू जैसा विचारक, अदभुत आदमी, उससे क्या कहूंगा?
तो सब तैयार करके आया होगा कि यह—यह कहूंगा कि तेरी पत्नी मर गयी,
बड़ा बुरा हुआ, अब दुख न करो, सब ठीक हो जाएगा, आत्मा तो मरती नहीं—कुछ ऐसी बातें
सोचकर आया होगा। इधर देखा तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया, उसको
तो बड़ी बेचैनी हुई। वह सज्जन तो एक खंजड़ी बजा रहे हैं एक झाडू के नीचे बैठकर और
गाना गा रहे हैं। और सुबह पत्नी को दफनाया है! और यह सांझ—अभी पूरा दिन भी नहीं
बीता है, जिस सूरज ने सुबह पत्नी को कब में रखे जाते देखा वह
सूरज भी अभी नहीं डूबा है, अभी देर नहीं हुई है, अभी तो घाव इतना हरा है—और यह अपना पैर फैलाए एक झाडू के नीचे खंजड़ी बजा
रहे हैं!
अब
सम्राट आ ही गया था, कुछ कहना भी जरूर था,
उसे बेचैनी भी हुई। उसने कहा कि महाशय, दुखी न
हों, इतना ही काफी है, लेकिन सुखी हों,
यह जरा जरूरत से ज्यादा हो गया। दुखी न हों, ठीक।
वह तो मैं भी कहने आया था कि दुखी न हों, लेकिन अब तो कोई
कहने की आवश्यकता ही नहीं रही, जो मैं सोचकर आया था सब बेकार
ही हो गया, लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूं कि दुखी न हों,
इतना पर्याप्त; लेकिन सुखी हों और खंजड़ी बजाएं
और गाना गाएं!
च्वांग्तसू
ने कहा, क्यों नहीं? जो भी आनंद का अवसर मिले, उसे चूकना क्यों? अपनी पत्नी को भी मैं गाना गाकर विदा नहीं दे सकता! तो फिर किसको विदा
दूंगा गाना गाकर? और जिस स्त्री के साथ जीवनभर रहा, क्या इतना भी नहीं कर सकता कि जाते समय खंजड़ी बजाकर उसे कह सकूं कि
अलविदा! तुम कौन हो मेरे उत्सव में बाधा डालने वाले?
सम्राट
को तो समझ में ही नहीं आया कि अब वह क्या करे? बात तो च्वांग्तसू ने बड़े गजब की कही कि जिसके साथ जीवन का बहुत राग—रंग
देखा; सुख—दुख, उतार—चढ़ाव देखे;
जो हर घड़ी छाया की तरह मेरे पीछे रही; उसको भी
विदा न दे सकूं एक गीत गाकर! यह तो जरा अकृतशता हो जाएगी। यह तो मेरा कृतज्ञभाव!
यह तो मैं सिर्फ अहोभाव प्रगट कर रहा हूं।
अगर अवसर
खोजे तुम आनंद के लिए तो कभी न मिलेगा। और अगर तुम आनंदित होना जानते हो, तो हर अवसर अवसर है। हर मौसम मौसम है। हर बड़ी तुम कोई
न कोई तरकीब खोज ही ले सकते हो। क्या गजब का आदमी रहा होगा च्चांग्तसू! कैसी घड़ी
में खंजड़ी बजाने की बात खोज ली! ऐसा ही मनुष्य होना चाहिए। तो मैं तो तुमसे कहूंगा,
हर घड़ी आनंद मनाओ।
'उत्सव कब उचित है?'
हर घड़ी
उत्सव उचित है। क्योंकि जब तुम उत्सव में हो, तभी तुम परमात्मा के निकट हो। और जब तुम उत्सव में सम्मिलित नहीं हो,
तुम परमात्मा के बाहर हो, उत्सव मे होना
परमात्मा में होना है, उत्सव में न होना परमात्मा के बाहर
होना है। तुम्हारी मर्जी! तुम्हें अगर परमात्मा के बाहर—बाहर जीना हो, तो तुम जीओ। फिर संताप होगा, विषाद होगा, दुख होगा, पीड़ा होगी, चिंता
होगी, वह तुम्हारा चुनाव है। उत्सव बन सकती थी जो ऊर्जा,
वही बनेगी चिंता, वही बनेगी विषाद। फूल बन
सकती थी जो ऊर्जा, वही कांटे और शूल बनकर चुभेगी छाती में।
मगर
चुनाव तुम्हारा है। तुम चाहते तो सारा जीवन उत्सव हो सकता था। होना चाहिए। उत्सव
के लिए प्रतीक्षा मत करो कि कब? छोड़ो
ही मत कोई अवसर। हर क्षण को उत्सव में बदल लो।
पांचव प्रश्न:
संसार को दुखमय बनाने के पीछे राज क्या है?
पूछने से लगता है, जैसे किसी ने तुम्हारे लिए संसार को दुखमय बना दिया
है! किसी ने। तुमने बना लिया है, किसी ने बना नहीं दिया है।
तुम्हारे हाथ में है। तुम इस ढंग से जी सकते हो कि संसार निर्वाण हो जाए और तुम इस
ढंग सै जी सकते हो कि निर्वाण संसार हो जाए। संसार और निर्वाण दो नहीं।
इस
क्रांतिकारी उदघोष को सुनो—संसार और निर्वाण दो नहीं हैं, देखने के दो ढंग हैं। सत्य तो एक ही है। जब तुम गलत
ढंग से देखते हो, तो संसार—और दुखी होते हो; जब ठीक ढंग से देखते हो, तो निर्वाण—और सुखी होते
हो। देखने की बात है, देखने—देखने की बात है। बस दृष्टि की
ही बात है। दृष्टि ही सृष्टि है।
तो तुम अपनी आंख पर खयाल करो। तुम्हारा प्रश्न
ऐसा लगता है—कि संसार को दुखमय बनाने के पीछे राज क्या है—जैसे किसी ने दुखमय बना
दिया है, और जरूर इसके पीछे कुछ
राज होगा। संसार को दुखमय तुमने बना लिया है। और राज कुल इतना ही है कि तुम सुखी
नहीं होना चाहते।
अब तुम
कहोगे कि यह बात तो जंचती नहीं, क्योंकि
हम सब सुखी होना चाहते है। तुम इस ढंग से सुखी होना चाहते हो कि उसका परिणाम दुख
होता है। तुम्हारे सुखी होने की मांग में कहीं कुछ भ्रांति है। तुम्हारे सुखी होने
की चेष्टा में ही दुख औाएदा हो रहा है। तुम्हारे सुखी होने की दिशा ही तुमने गलत
चुन ली है। सुखी होने का तुम्हारा ढंग इतना गलत है कि तुम सुखी नहीं हो पाते। और
तुम्हें ढंग दिया जाता रहा है—बुद्धपुरुष आते रहे, जाते रहे,
कहते रहे, उनकी तुम सुनते नहीं। तुम कहते हो,
महाराज, अगर आप ज्यादा सताओगे तो हम आपकी पूजा
कर लेंगे, मगर सुनेंगे नहीं। अगर आप ज्यादा शोरगुल मचाओगे तो
हम मंदिर में आपकी प्रतिमा विराजमान कर देंगे, धूप—दीप
जलाएंगे, मगर सुनेंगे नहीं।
क्यों? तुम्हारा दुख के साथ बहुत गठबंधन हो गया है। तुम दुख
के साथ बहुत जुड़ गए हो, वह तुम्हारी आदत हो गयी है। तुम डरते
हो कि अगर दुख से छूट गए तो फिर क्या होगा ' तुम डरते हो कि
अगर दुख न रहा तो तुम बिलकुल अकेले—अकेले रह जाओगे।
यहां रोज
मेरे पास ऐसी घटना घटती है। कोई व्यक्ति अगर दो—चार—छह महीने सतत ठीक से ध्यान कर
लेता है, तो घड़ी आनी शुरू हो जाती
है जब चिंता पैदा नहीं होती, जब तनाव नहीं पैदा होता,
जब धीरे—धीरे विचार खोने लगते हैं।
कल ही एक
युवक आया और उसने कहा कि मैं पागल तो नहीं हो जाऊंगा? क्योंकि मुझे ऐसा डर लग रहा है। अब कोई चिंता नहीं
आती, दिन गुजर जाते हैं और कोई तनाव पैदा नहीं होता, तो मैं घबड़ा रहा हूं, कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मैं
पागल हो जाऊं! तनाव पुरानी आदत थी, चिंता पुरानी आदत थी,
उससे तुम परिचित थे, जाना—माना था, अब अचानक वह खो रहा है, तो ऐसा लगता है, तुम्हारे पैर के नीचे की भूमि खिसक रही है।
मनस्विद
कहते हैं कि आदमी दुख को चलाए रखना चाहता है। उसको पानी सींचता रहता है। ऊपर—ऊपर
से कहता भी रहता है कि मैं दुखी नहीं होना चाहता, लेकिन पानी सींचता रहता है। जब भी तुम उसे तरकीब बताओ दुख के बाहर होने की,
वह कहता है, यह कैसे होगा?
एक
स्त्री मुझे आकर कहती है कि मेरे पति किसी और स्त्री में उत्सुक हो गए हैं, मैं बहुत दुखी हो रही हूं मुझे दुख से बचाएं। मैं
उससे कहता हूं ईर्ष्या दुख का कारण है, तू ईर्ष्या छोड़ दे।
तो वह कहती है, यह कैसे होगा? दुख से
छुड़ा लें, ईर्ष्या छोड़नी नहीं है! और ईर्ष्या दुख का कारण
है। अब जब यह बात बिलकुल साफ हो जाए—साफ है, सारे बुद्धों के
वचनों का सार इतना है कि ईर्ष्या दुख देती है। अब वह स्त्री मुझसे कहने
लगी—संन्यासिनी है, पति भी संन्यासी है—स्त्री मुझे कहने लगी
कि यह तो नहीं हो सकता। मैं मर जाऊंगी, मैं आत्महत्या कर
लूंगी।
आत्महत्या
करने को राजी है, ईर्ष्या छोड़ने को राजी
नहीं है। जरा सोचो! ईर्ष्या का मूल्य आत्महत्या! जीवन के मूल्य से भी ज्यादा मालूम
पड़ता है। वह कहने लगी, यह तो हो ही नहीं सकता है, यह तो मैं बर्दाश्त ही नहीं कर सकती हूं यह तो मैं सोच भी नहीं सकती हूं
कि मेरे पति और किसी स्त्री में उत्सुक हैं। और अभी सिर्फ उत्सुक हैं! अभी कुछ और
नही हुआ है। लेकिन उत्सुकता! कि उसके साथ बैठकर कभी—कभी हंस—बोल लेते हैं।
यह
स्त्री पहले तो आयी तब मुझसे उसने कहा कि ध्यान भी कर रही हूं दो साल से, कोई छह महीने पहले ध्यान में एक स्त्री दिखायी पड़ने
लगी। मैंने पूछा, ध्यान में स्त्री! तू भी खूब नया अनुभव
लायी! अभी कुंडलिनी और चक्र इत्यादि के लोग लाते हैं, मगर
ध्यान में स्त्री! तभी मुझे शक हुआ कि मामला तो कुछ गड़बड़ है। फिर मैंने पूछा,
फिर क्या हुआ? उसने कहा, फिर धीरे—धीरे उसका चेहरा साफ होने लगा और एक दिन मैंने ध्यान में देखा कि
वह अपने बाल संवार रही है। और तब मैं पहचान गयी कि वह कौन है। वह मेरे पड़ोस में ही
रहने वाले की स्त्री है। यह ध्यान से हुआ। और तब से ही मैं पीछे लग गयी कि मामला
क्या है? यह स्त्री मुझे दिखायी क्यों पड़ती है? तब धीरे—धीरे वह खोजबीन करने से पता चला कि मेरा पति उसमें उत्सुक है।
अब यह बड़े मजे की बात हो गयी, यह सब ध्यान से हुआ!
ईर्ष्या
इतनी भरी है हृदय में कि तुम्हारे ध्यान में भी ईर्ष्या के ही बिंब बनेंगे।
तुम्हारे ध्यान में भी परमात्मा तो नहीं आएगा, तुम्हारे ध्यान में प्रकाश तो नहीं आएगा, एक स्त्री
बाल संवार रही है! और फिर इसने खोजबीन करनी शुरू की। खोजबीन करके इसने पा भी लिया
कि पति इसमें उत्सुक हैं। उत्सुक ही हैं अभी, मगर वह जली जा
रही है। वह कहती है, मैं आत्महत्या कर लूंगी, यह तो मैं सोच ही नहीं सकती। दुखी होने के लिए राजी है, मरने को भी राजी है, मगर ईर्ष्या छोड़ने को राजी
नहीं। अब क्या कहोगे?
मैंने
उससे कहा कि मरकर तू भूत हो जाएगी। जब तुझे ध्यान में यह स्त्री बाल संवारते दिखती
है तो बड़ा खतरा है, तू मरकर भूत हो जाएगी,
तू पति को भी सताएगी, इस स्त्री को भी सताएगी।
उसने कहा, चाहे भूत हो जाऊं, मगर अब जी
नहीं सकती। भूत होने को राजी है। मैंने उससे कहा कि भूत को मालूम है कैसी तकलीफें
झेलनी पड़ती हैं? उसने कहा, कुछ भी हो।
आप मुझे दुख के बाहर निकाल लें।
थोड़ा
सोचो! तुम सोचते हो कोई दुख पैदा कर रहा है, एक। फिर तुम सोचते हो, कोई तुम्हें दुख के बाहर
निकाल ले। और तुम यह बुनियादी बात नहीं देखते कि दुख तुम पैदा करते हो और दुख के
बाहर भी तुम ही निकल सकते हो। न तो कोई पैदा कर रहा है और न कोई निकाल सकता है।
तुम मालिक हो और यह गरिमा है तुम्हारी कि तुम अपने मालिक हो। यह बात बड़ी बेहूदी
होती कि कोई तुम्हारे।rलए दुख पैदा कर देता और तुमको दुखी
होना पड़ता। और यह बात भी बड़ी तापमानजनक होती कि कोई तुम्हें दुख के बाहर निकाल
लेता। क्योंकि जो तुम्हें दुख के बाहर निकालेगा, वह कभी भी
तुम्हें फिर डुबकी लगवा दे सकता है।
नहीं, तुम अपने मालिक हो। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है। मगर
तुम देखो कि सच।?ाएं तुम दुख के बाहर होना चाहते हो? और तुम्हें दिखायी पड़ जाए कि दुख के बाहर होना है, तो
ईर्ष्या में छोड़ने न छोड़ने जैसा क्या है! क्या पड़ा है ईर्ष्या में! तुम छोड़
रग्रागे। पति में क्या पड़ा है, उस स्त्री में क्या पड़ा है,
और पति किसी स्त्री में उत्सुक हैं, इससे
लेना—देना क्या है! इससे क्या फर्क पड़ता है! सिर्फ थोड़ी सी समझ की।करण और ईर्ष्या
ऐसे गिर जाती है, जैसे किसी ने पुराने वस्त्र उतारकर रख दिए,
'गैर तुम दुख के बाहर हो।
और शायद
दुख के बाहर होकर तुम्हें पता चले कि पति शायद उत्सुक भी नहीं हैं, क्योंकि यह हो सकता है, यह
सिर्फ ईर्ष्या का ही पूरा का पूरा फैलाव हो। क्योंकि ईर्ष्या के कारण तुम वैसी
बातें देख सकते हो जो हों ही न। और मुझे लगता है संभावना यही है। क्योंकि इसको
ध्यान में स्त्री का चेहरा दिखायी पड़ना, बाल संवारते दिखायी
पड़ना, फिर उसका पता लगा लेना कि वह जो दिखायी पड़ती है स्त्री
यही स्त्री है, फिर इसका पता लगा लेना।
तुझे, मैंने पूछा, पता कैसे चला?
वह कहती है, वह आपका टेप चलाते हैं, उसमें वह भी सुनने आती है। और भी लोग आते हैँ? उसने
कहा, और भी लोग आते हैं। मैंने पूछा, तुझे
यहौ भेजा किसने? उसने कहा कि मेरे पति ने ही भेजा, उन्होंने कहा कि तू वहीं जा, मेरी समझ के बाहर है।
मैं समझा—समझाकर हार गया तुझे कि कुछ नहीं है! लेकिन वह मानने को राजी नहीं है,
वह प्रमाण जुटा रही है कि कुछ है।
और तुम
खयाल रखना, अगर तुम किसी आदमी के
पीछे पड़ जाओ कि कुछ है, कुछ है, शायद
तुम पैदा करवा दो। क्योंकि आदमीं आदमी जैसे आदमी हैं। उत्सुकता पैदा करवा दो। शायद
यह पत्नी इतना परेशान करने लगे चौबीस घंटे उनको घर में कि इससे ही बचने के लिए वह
उस स्त्री में उत्सुक होने लगें।
ईर्ष्या
टूट जाए, तो शायद इसे दिखायी पड़े
कि वह मेरा प्रक्षेपण था। और न भी हो प्रक्षेपण, सच भी हो,
तो क्या फर्क पड़ता है! क्या लेना—देना है! वह पति की झंझट है। वह
पति अपनी तकलीफ झेलेंगे। अगर उनकी उत्सुकता है तो वह खुद उस उत्सुकता का जो परिणाम
होगा, भोगेंगे। मुझे क्या लेना—देना है!
दुख के
बाहर आदमी होना चाहे, तो कोई रोक नहीं रहा है।
दुख के बाहर होना हो, तो हम हर चीज से दुख के बाहर होने का
संकेत निकाल लेते हैं।
यह मैंने
तुमसे इस स्त्री की बात कही, ठीक
इसके मुकाबले स्टिकलैंड गिलीलान की एक कहानी तुम्हें कहता हूं।
एक आदमी
की एक नन्हीं बिटिया थी—इकलौती, अत्यंत
लाडली। वह उसी के लिए जीता था, वही उक्का जीवन थी। सो जब वह
बीमार पड़ी और अच्छे से अच्छे वैद्य—हकीम भी उसे अच्छा न कर सके, तो वह करीब—करीब बावला सा हौ गया और उसे अच्छा करने के लिए उसने
आकाश—पाताल एक कर दिया। मगर सारे प्रयत्न व्यर्थ गए, बच्ची
अंतत: मर गयी।
पिता की
मानसिक स्वस्थता नष्ट हो गयी। उसके मन में तीव्र कटुता भर गयी। उसने स्वजन, मित्र, सबसे काटकर अपने को अलग
कर लिया। उसने द्वार—दरवाजे बंद कर दिए। जिन—जिन बातों में उसे रस था, उसने सब बातें छोड़ दीं। जीवन का सारा क्रम अस्तव्यस्त हो गया। मित्रों से
मिलना बंद कर दिया, कामधाम बंद कर दिया, वह अपने घर में करीब—करीब कब की तरह घर को बना लिया, उसी में पड़ा रह गया।
एक रात
उसे सपना आया। वह स्वर्ग में पहुंच गया था। वहां उसे छोटे—छोटे बाल देवदूतों का एक
जुलूस दिखायी दिया। एक श्वेत सिंहासन के पास से उनकी अंतहीन पंक्ति चलती जा रही
थी। सफेद चोला पहने हुए हर एक बाल देवदूत के पास जलती हुई मोमबत्ती थी। परंतु उसने
देखा कि एक बच्चे के हाथ की मोमबत्ती बिना जलायी हुई है—हर एक बाल देवदूत एक
मोमबत्ती को हाथ में लिए चल रहा है, सफेद वस्त्र पहने एक अंतहीन पंक्ति गुजर रही है—लेकिन एक देवदूत के हाथ
में बत्ती बुझी हुई है। फिर उसने देखा कि प्रकाशहीन मोमबत्ती वाली वह बालिका तो
उसी की बिटिया है। वह उसकी ओर लपका। जुलूस थम गया, उसने
बालिका को बाहों में भर लिया, प्यार से उसको सहलाया और पूछा,
बेटी, सिर्फ तुम्हारी ही मोमबत्ती क्यों बुझी
हुई है? पिताजी ये लोग तो इसे बार—बार जलाते हैं, पर आपके आसू इसे बार—बार बुझा देते हैं।
और तभी
आदमी की नींद टूट गयी। संदेश स्पष्ट था, उसका उस पर गहरा प्रभाव पड़ा। उस दिन से वह स्वात की कैद से निकलकर,
फिर से आनंदपूर्वक पहले की तरह अपने पुराने मित्रों, संबंधियों से मिलने—जुलने लगा। अब उसकी लाडली बिटिया की मोमबत्ती उसके
व्यर्थ आसुओ से बुझती नहीं थी।
सपना है।
सपना तुम्हारा है। सपना इशारा देता है। सपना तुम्हारे अचेतन से उठता है। इस आदमी
ने यह सपना देखा। ऐसा नहीं है कि यह कहीं कोई सच में स्वर्ग पहुंच गया, कि वहां इसकी बिटिया इसको दिखायी पड़ गयी बुझी
मोमबत्ती ले जाती' हुई। लेकिन इसके अचेतन ने इसे खबर दी कि
तुम मूढ़ता कर रहे हो, तुम व्यर्थ की मूढ़ता कर रहे हो,
इसमें कुछ सार नही है। ये आसू अब कब तक रोते रहोगे? इसके अचेतन ने एक संकेत भेजा। यह सपना इसी का संकेत है कि तुम्हारे आसू
गिर रहे तुम्हारी लड़की की मोमबत्ती पर, उसकी रोशनी बुझ—बुझ
जाती है, अब यह बंद करो। क्योंकि तुम दुखी हो, तो तुमने जिससे प्रेम किया है वह दुखी होगा। तुम दुखी हो तो तुम सारे जगत
को दुख में उतार रहे हो। तुम दुख की सीढ़ी बन रहे हो।
इसको बात
खयाल में आ गयी। फिर जीना उसने शुरू किया, फिर अपने को फैलाया, फिर रोशनी में आया, फिर फूल देखे, फिर चांद—तारे देखे, फिर नाचा होगा, फिर गीत गाया होगा, फिर मित्रों से मिला, फिर संबंध—सेतु बनाए, फिर जीने प्नगा। वह जो कब्र थी, उसके बाहर आ गया।
इशारा काम कर गया। तुम्हारे स्वप्न पम्हारे अचेतन में चलती हुई उधेड़बुन की खबरें
हैं।
अब इस
स्त्री ने सपना देखा कि एक स्त्री दिखायी पड़ती है—सपना ही है वह, कगेंकि ध्यान में इस तरह की बातें कैसे दिखायी पड़
सकती हैं! झपकी खा रही होगी ध्यान में बैठकर। ध्यान में कहीं स्त्रियां दिखायी
पड़ेगी। मगर उसने सोचा कि उसने बड़ी भारी बात खोज ली है। अगर थोड़ी समझदारी से समझे
तो उसका मतलब यह है कि मन ने उसे कहा कि तेरे भीतर बहुत ईर्ष्या पडी है। वही
ईर्ष्या ही स्त्री का प्रतिबिंब बनकर खड़ी हो गयी।
सच तो यह
है कि इस स्त्री ने इस घटना को देखने के पहले ही उस पड़ोसी स्त्री पर शक करना शुरू
कर दिया होगा। चाहे वह शक स्पष्ट न रहा हो, धुंधला—धुंधला रहा हो, क्योंकि उस शक के बिना यह
सपना नहीं आ सकता था। अब यह कहती उलटी बात है। यह कहती है कि सपने से मुझे पता
चला। लेकिन बात ऐसी हो नहीं सकती। सपने के पहले इसके मन में शक रहा होगा। हो सकता
है स्त्री पर शक न रहा हो, तो पति पर शक रहा होगा। शक रहा
होगा। उस शक ने ही सपने का रूप लिया है। एक संदेह रहा होगा, वही
संदेह मूर्तिमान होकर खड़ा हो गया है।
अब
ईर्ष्या में जल रही है। अभी इसे भी पक्का नहीं है कि सच में कोई संबंध है पति का।
संबंध हो तो भी ईर्ष्या का क्या कारण है! कौन किसका पति है और किसकी पत्नी है! और
ईर्ष्या के कारण तुम जलते हो, तुम
दुख पाते हो। दुख पाने का तय कर लिया हो तो ठीक। ईर्ष्या को खूब पानी दो, सींचो, संवारों।
यह तो
मैंने एक उदाहरण की बात कही। लोग हैं, प्रंतिस्पर्धा के कारण दुख पा रहे हैं। कोई अहंकार के कारण दुख पा रहा है।
कोई निर्धनता के कारण दुख पा रहा है। लेकिन इन सबके दुख के कारण तुम्हारे भीतर
हैं। तुम धन चाहते हो, इसलिए निर्धनता में दुख है। तुम
सम्मान चाहते हो, सम्मान नहीं मिलता, इसलिए
दुख है। तुम अहंकार को फैलाकर दुनिया में कुछ सिद्ध करना चाहते हो, दुनिया सिद्ध नहीं करने देती है, तो दुख है। दुख कोई
दूसरा पैदा नहीं कर रहा है। दुख तुम्हारे स्वनिर्मित हैं। और यह अच्छा है कि
स्वनिर्मित है, क्योंकि इसी में वह राज छिपा है—तुम चाहो तो
इनके बाहर अभी आ सकते हो। और मैं कहता हूं, अभी! मैं यह भी
नहीं कहता कि कल या कभी। इसी क्षण तुम सारे दुख के बाहर आ सकते हो। अगर तुम एक
क्षण की भी देर कर रहे हो तो उसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि तुम्हारा दुखों से
लगाव हो गया है, तुम उन्हें छोड़ना नहीं चाहते।
ऐसे ही
जैसे एक आदमी अंगारा हाथ में रखे हो और चिल्लाता हो कि मैं इस अंगारे को कैसे
छोडूं? ऐसी तुम्हारी दशा है। तुम
उससे क्या कहोगे कि पागल, अगर अंगारा जला रहा है तो छोड़ने
में देर क्या है? अंगारा तुझे नहीं पकड़ सकता, तूने ही अंगारे को पकड़ा है। तो तू एक तरफ जल भी रहा है, इसलिए दुख भी हो रहा है, तू बचना भी चाहता है;
और अंगारे में कुछ लगाव भी है, तो तू छोड़ता भी
नहीं। ऐसा द्वंद्व है।
दुख में
हमारा कुछ रस है। उसे हम छोड़ते भी नहीं। और दुख दुख दे रहा है, इस कारण छोड़ना भी चाहते हैं। इसलिए जाते भी हैं और
पूछते भी हैं कि दुख से छुटकारा कैसे हो?
भगवान ने
सोने के प्याले
में
आनंद
भरकर मनुष्य को दिया
और कहा, इसे पीओ
और मस्ती
में भूल जाओ।
केवल आज
का दिन ही सही है,
अतीत और
भविष्य
दोनों को
भूल जाओ।
भगवान ने
मिट्टी
के प्याले में
शोक भरकर
मनुष्य को दिया
और कहा, इसे पीओ
और आनंद
का अर्थ समझो।
अंत में
सबकी किस्मत में
आंसू लिखा
है,
दुनिया
में जो भी चाक—चिक है
उसे
व्यर्थ समझो।
सुख भी
है संसार में, दुख भी है संसार में। सुख
सोने के प्याले में दिया भगवान ने कि पीओ और मस्ती में भूल जाओ। और फिर दुख मिट्टी
के प्याले में दिया और कहा, इसे पीओ और आनंद का अर्थ समझो।
अंत में
सबकी किस्मत में
आंसू
लिखा है,
दुनिया
में जो भी चाक—चिक है
उसे
व्यर्थ समझो।
सुख दे
रहा है संसार, साथ में दुख। क्योंकि दुख
के स्वाद के साथ ही सुख का स्वाद समझ में आएगा। और जब तुम समझने में कुशल हो जाओगे
तो तुम देखोगे—हर सुख के साथ दुख जुड़ा है। और हर सोने की प्याली के पीछे मिट्टी की
प्याली आ रही है। और हर दिन के साथ रात बंधी है। और हर जन्म के साथ मौत 'र्हा गांठ पड़ी है। जिस दिन तुम्हें यह दिखायी पड़ेगा कि यहां हर सुख दुख को
छिपाए हुए आ रहा है, उस दिन तुम दोनों के बाहर हो जाओगे।
दोनों के बाहर होने का उपाय साक्षीभाव है।
दुख हो, उसे भी देख लो; सुख हो उसे भी
देख लो; और यह जानते रहो कि मैं दोनों में कोई भी नहीं हूं।
मैं पार हूं, मैं अलग हूं मैं भिन्न हूं। इस भिन्न के बोध
में ह। तुम्हारे जीवन में आनंद उतरेगा। आनंद सुख—दुख के पार है। और इस भिन्नता के
पास में ही तुम्हारे जीवन में उत्सव आएगा।
उत्सव अभी हो रहा है। ऐसा नहीं है कि कोई
साज सजना है, संगीतज्ञ आने हैं,
नर्तक इकट्ठे होने हैं, सब मौजूद हैं। यह जगत
लीला है। यह जगत बड़ा उत्सव है।
आखिरी प्रश्न :
प्राय:
रोज ही मैत्रेय जी हमें सचेत करते हैं कि प्रवचन के बीच खांसने से भगवान को बाधा
पहुंचती है, लेकिन कल के प्रवचन के
दरम्यान कई गौरैए चिडिएं चीं—चीं करती हुई आपके इर्द—गिर्द मंडराती रहीं और फिर
उनमें से एक आपके बाएं हाथ पर और दूसरी माइक पर बैठ गयी, और
आश्चर्य कि उससे आपकी मुद्रा या प्रवचन—प्रवाह में रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ा। और
गौरैए भी ऐसे आयीं—गयीं जैसे किसी शाख पर आती—जाती हों और ऐसा लगा कि—सब कुछ अपनी
जगह स्वाभाविक रूप में स्थित है, यद्यपि हम श्रोतागण अवश्य
चकित रह गए! इस पर थोड़ा प्रकाश डालने की अनुकंपा करे।
मैत्रेय जी को तुम्हें
कहना पड़ता है, न खांसो—और तुमने एक मजे
की बात देखी, तुम उनकी मान भी लेते हो और खांसते भी नहीं। तो
खांसना करीब—करीब झूठ है। और तुमने यह देखा, एक आदमी खांसे,
तो दूसरा खासेगा, तीसरा खांसेगा, चौथा खांसेगा, एक श्रृंखला पैदा होती है।
और
खांसने के पीछे कुछ कारण हैं। खांसने के पीछे खांसी शायद ही कारण होती है—सौ में
एक मौके पर। तब तो तुम रोक ही नहीं सकते, चाहे मैत्रेय जी लाख सिर मारें। तुम क्या करोगे! कोई भी क्या करेगा! लेकिन
निन्यानबे मौकों पर तुम रोक पाते हो। जो तुम रोक पाते हो वह झूठी है।
पर झूठी
खांसी क्यों आती है? झूठी खासी इसलिए आती है
कि तुम खाली बैठे हो। खाली बैठे तुम्हें बड़ी बेचैनी होती है। आदमी, देखा, खाली बैठे—बैठे सिगरेट पीने लगता है। खाली
बैठे—बैठे उसी अखकर को दुबारा पढ्ने लगता है। खाली बैठे—बैठे भूख लग आती है,
जाकर फ्रिज खोलकर कुछ खाने लगता है। खाली नहीं बैठ सकते। खाली बैठना
बड़ा कठिन है। कुछ न कुछ तुम करोगे।
जब तुम
कभी ध्यान के लिए बैठोगे थोड़ी देर को, तो तुम कहोगे, कहीं चींटी चढ़ने लगी—कहीं कोई चींटी
नहीं है, देखो, चींटी नहीं चढ़ रही
है—फिर कहीं पैर में खुजलाहट आ गयी, कहीं हाथ सुन्न हो गया,
कहीं कान में कुछ चढ़ने लगा, कहीं भीतर कुछ
होने लगा, हजार चीजें होने लगीं। ऐसे कुछ भी नहीं होता। ये
हजार चीजें तुम्हारे मन की जो बेचैनी की आदत है, उसके कारण
होती हैं।
अब तुम
यहां बैठे हो, डेढ़ घंटा! तुम कुछ न कर
सकोगे, तो खासोगे। और [ाक् खांसा तो दूसरे को अचानक लगेगा कि
उसको भी खांसी आ रही है।
मनुष्य
करीब—करीब अनुकरण से जीता है। डार्विन गलत नहीं है, आदमी बंदर की औलाद है।
तुमने
कभी देखा, रास्ते पर तुम चले जा रहे
हो और एक आदमी पेशाबघर में चला गया, अचानक तुम्हें खयाल आया
कि अरे, तुम्हें भी पेशाब लगी है। अभी देखो, मैंने अभी पेशाब शब्द कहा, तुममें से कई को लग गयी
होगी। एकदम खयाल आ जाएगा। तुमने देखा, अगर कोई नीबू का नाम
ले दे तो जीभ पर लार आने लगती ज्ञै। नाम से! आदमी ऐसा अनुकरण से भरा हुआ है।
तो
मैत्रेय जी तुम्हें रोकते हैं। मुझे कोई बाधा पड़ेगी, ऐसा नहीं है। लेकिन तुम शात बैठे हो तब भी तुम मुझे नहीं सुन पाते,
और अगर तुम खासा—खासी में उलझ गए तब तो तुम बिलकुल ही नहीं समझ
पाओगे। मुझे क्या बाधा पड़ेगी? लेकिन राग जिस प्रयोजन से यहां
बैठे हो, उसमें खलल पड़ जाएगा। तुम्हारा मन तो बड़े जल्दी ही
डावाडोल हो जाता है। तुम्हें तो बड़ी छोटी—छोटी बातों में विम्न पड़ जाता तै।
तुम्हें तो निर्विम्न रहना इतना कठिन है। इसलिए तुमसे कहते हैं।
रह गयी
गौरैए चिड़ियों की बात, तो वह कोई मैत्रेय जी की
तो सुनेंगी नहीं! उनसे वह कितना ही कहें, उनकी जो मौज होगी
वैसा करेंगी। लेकिन चिड़िया माफ 'को जा सकती हैं। उनका यहा आ
जाना भी सुखद है। उनका आना इसी बात की।बबर देता है कि तुम शात बैठे हो। उनका आना
इसी बात की खबर देता है कि उन्हें रास्तारी चिंता नहीं। मूर्तिवत, वह तुम्हें यही समझती हैं कि बैठे हैं—संगमरमर की,
मुर्तियां कोई अड़चन नहीं, वे यहां खेलकूद करके, शोरगुल मचाकर अपना चली जाती हैं। उनका यह कभी—कभी आ जाना तुम्हारी शांति का
प्रतीक है। सुंदर है।
फिर तुम
पूछते हो कि 'हम चकित हुए!'
चकित
होने का इसमें कुछ भी नहीं है। मेरे बोलने से गौरैया चिड़िया परेशान नहीं हो रही है, तो गौरैया चिड़िया के चीं—ची करने से मुझे क्यों
परेशान होना चाहिए! कम से कम इतना तो गौरव मुझे दोगे, जितना
गौरैया चिड़िया को देते हो! मेरे हाथ पर बैठने में उसे कुछ अड़चन नहीं हो रही है,
तो मुझे क्यों अड़चन होनी चाहिए? वह बैठ भी
इसीलिए सकी कि उसे प्रतीत हो रहा है कि अड़चन नहीं होगी।
धीरे—धीरे, जैसे—जैसे तुम शांत होने लगोगे, तुम पाओगे, वे तुम्हारे सिर पर भी नगकर बैठने लगीं,
हाथ पर आकर बैठने लगीं, जैसे—जैसे उन्हें यह
भरोसा आ शएगा कि यहौ भलेमानुस बैठे हैं, इनसे कुछ भय का कारण
नहीं है। तुमसे भय है, हर है कि तुम उन्हें नुकसान पहुंचा
सकते हो, उस भय के कारण वे दूर—दूर हैं। यै से —जैसे
तुम्हारी तरफ से निर्भय की तरंग उठने लगेगी, फिर दूर रहने का
कोई धरण नहीं रह जाता।
आदमी ने
पशुओं को भयभीत करके दूर कर दिया है, और पशुओं को दूर करके एक बड़ी महत्वपूर्ण बात खो दी, प्रकृति
से संबंध खो दिया है। तुमसे तो वृक्ष भी डरते जब तुम वृक्षों के पास जाते हो।
अभी
वैज्ञानिक इस पर काफी परिशोध करते हैं। उन्होंने यंत्र भी बना लिए हैं, वृक्षों में लगा देते हैं, और
वृक्ष से खबर आने लगती है। जैसे कि तुमने कभी कार्डियोग्राम लिया हो, तो कागज पर ग्राफ बन जाता है कि हृदय की धड़कन कैसी है? ऐसे ही वृक्ष के भीतर कैसी तरंग चल रही है, उसका
ग्राफ बन जाता है। जैसे ही वृक्ष देखता है कि कोई आदमी आ रहा है, उसकी तरंग बदल जाती है। फिर आदमी—आदमी से बदलती है। अगर वह देखता है कि
लकड़ी काटने वाला कुल्हाड़ी लिए चला आ रहा है—अभी उसने काटी नहीं, अभी दूर ही है—तत्कण उसकी बेचैनी बढ़ जाती है। तरंगें बड़ी जोर की बनने लगती
हैं, वह बहुत घबड़ाया हुआ हो जाता है। उसने देखा, माली आ रहा है पानी लिए हुए, उसकी तरंगें बड़ी शात हो
जाती हैं।
कुछ
आश्चर्य नहीं है कि संत फ्रांसिस की कहानिया सच ही रही हों। कुछ आश्चर्य नहीं है
कि महावीर और बुद्ध के जीवन के उल्लेख सही ही रहे हों। अर्थ तो उनका स्पष्ट है कि
महावीर के पास पशु—पक्षी आकर बैठ जाते, सिंह भी आकर बैठ जाता। इतनी शात है दशा कि सिंह को भी तरंग पकड़ लेती होगी।
कि बुद्ध जिस जंगल से निकलते हैं, वहा सूखे वृक्ष हरे हो
जाते हैं। इतने तरंगित हो जाते होंगे बुद्ध के आगमन से।
तो कुछ
भी चकित होने का कारण नहीं है। धीरे—धीरे तुम्हारी तरंग जब ठहरती जाएगी और जब हम
यहा एक वातावरण बनाने में सफल हो जाएंगे, जहां एक भी आदमी से उन्हें भय न हो, तो तुम देखोगे,
चकित होकर देखोगे कि जैसे तुम यहा बैठे हो, ऐसे
ही बहुत सी चिड़िया भी, पक्षी भी आकर बैठ गए हैं। तुम्हारे
कारण भय बना रहता, घबड़ाहट बनी रहती। हिंसा तुम्हारे भीतर है,
तो उसकी तरंग है चारों तरफ। उस तरंग के हट जाने पर एक संबंध जुड़ता
है प्रकृति से।
कहते हैं, संत फ्रांसिस से एक आदमी पूछने आया। नदी के किनारे
फ्रासिस खड़े थे। उस आदमी ने पूछा कि हमने सुना है कि पशु—पक्षी भी आपकी बातें
सुनने आते हैं, आपको इस संबंध में क्या कहना है? फ्रासिस ने कहा, मैं क्या कहूं यहौ कोई पशु—पक्षी है?
कोई है भाई यहां? उन्होंने जोर से आवाज मारी।
वहां कोई पशु—पक्षी नहीं था, लेकिन मछलियों ने सिर ऊपर
निकाला—पूरी नदी पर मछलियों ने सिर ऊपर कर लिया। उन्होंने कहा, इनसे पूछ लो। अब मैं क्या प्रमाण दूं र उन्होंने कहा, इनसे पूछ लो।
यह हो
सकता है, क्योंकि सारा अस्तित्व एक
ही प्राण से आदोलित है। पशु—पक्षी के भीतर भी हमारे जैसी ही आत्मा है। वृक्ष के
भीतर भी हमारे जैसे ही आत्मा है। शरीर का भेद है, आत्मा का
तो कोई भेद नहीं। वृक्ष ने वृक्ष का शरीर लिया है, पक्षी ने
पक्षी का शरीर लिया है, तुमने आदमी का शरीर लिया है। यह फर्क
सपर—ऊपर है। यह वस्त्रों का भेद है—किसी ने लाल रंग के कपड़े पहने हैं, किसी ने नीले रंग के कपड़े पहने हैं, किसी ने सफेद
कपड़े पहन रखे हैं, या कोई नग्न खड़ा प्तै। किसी ने पूर्वीय
ढंग के कपड़े पहने हैं, किसी ने पाश्चात्य ढंग के कपड़े पहने
हैं, मगर यह कपड़ों का फर्क है, भीतर जो
छिपा है, वह तो एक ही है।
बिजली के
खंभे पर बैठी चिड़िया
ठिनक—ठिनक
गाती है
किस दिल
से भरकर रखी है
कितनी
करुणा भर लाती है
पंख
फुदकते, चोंच मटकती
कूद—कूद
बल खाती है वह
जीने के
जंतर—मंतर पागलनी—सी समझाती है वह
ऊपर है
आकाश उघाड़ा
नीचे
धरती बिना ढंकी
और मध्य
में तेरी महिमा
तारों से
हर ओर टंकी
किसके
महल झोपड़ी किसकी
किसकी
फूलन काटे किसके
आंख मूंद
लेने पर यह
चलते
दिखते सन्नाटे किसके
यह
गिरधारी की कमरी—सी
यह राधा
के वलय बंद—सी
यह
प्रतिभा की सूझों वाले
रस भर आए
अमर छंद—सी
ऊंची—नीची
मैली—उजली
यमुना की
पागल हिलोर—सी
गगन तलक
उठ रही पवन के
बिना
बंधे उन्मत्त जोर—सी
चहक—चहककर
बहक—बहककर बोलों में झरते प्रणाम—सी
गांवों
में अधनंगे शिशु के
दो हाथों
के राम—राम—सी
पल-पल पर
वह खेल रही है
कितनी
मस्ती भर लाती है
बिजली के
खंभे पर बैठी चिड़िया
ठिनक-ठिनक
कर गाती है।
सूनना
सीखो, कान थोड़े साफ करो, आंखों के पर्दें हटाओ, तो तुम्हें हर जगह से प्रभु
का संदेश ही सुनाई पड़ेगा। हर स्थिति में उसके ही इशारे है।
आज इतना ही।
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