पहला प्रश्न :
श्रेय और प्रेय के भेद को हमें फिर से समझाने की कृपा करें।
ऐसे तो भेद साफ है। और साफ नहीं भी।
क्योंकि भेद दो बड़ी सूक्ष्म बातों में है। जिसे श्रेय कहते हैं, अंतिम अर्थों में वही प्रेय सिद्ध होता है। और जिसे
प्रेय कहते हैं, वह तो श्रेय है ही नहीं। इसलिए भेद सूक्ष्म
भी है। लेकिन शब्द की तरफ से न पकड़े, चैतन्य की तरफ से पकड़े।
मूच्छित
आदमी जिसे करने योग्य मानता है, उसे
बुद्ध ने प्रेय कहा है। सोया लुआ आदमी जिसे करने योग्य मानता है, उसे प्रेय कहा है। जागा हुआ आदमी जिसे करने योग्य मानता है, उसे श्रेय कहा है। असली सवाल निद्रा को जागरण में बदलने का है। तभी प्रेय
से मुक्ति और श्रेय में गति होगी।
छोटा
बच्चा है, वह तो आग से भी खेलना चाहे,
वह तो सौप से भी खेलना चाहे, रोको तो रोए भी,
रोको तो नाराज भी हो, उसे अभी श्रेय और प्रेय
का कुछ भी पता नही। अभी तो इस अबोध अवस्था में जो उसे प्रिय लगता है, वह प्रिय भी कहां है! आग से खेलेगा तो जलेगा; सांप
से खेलेगा तो मरेगा। यह प्रीतिकर भी नहीं है। लेकिन अबोध अवस्था में निर्णय भी
कैसे करे?
जितना रोका जाता है, उतना ही
आकर्षण प्रबल होता है। जितना तुम कहोगे, मत जाओ आग के पास,
उतना आग में बुलावा मालूम होता है। बच्चे को ऐसा लगने लगता है,
जरूर कुछ होगा वहां, अन्यथा सारे लोग रोकने के
पीछे क्यों पड़े हैं! कुछ भी न होता तो इतने लोग रोकते क्यों?
ऐसी ही
मनुष्य की दशा है। हजारों—हजारों वर्षों से जाग्रत पुरुषों ने बार—बार कहा है, वहा मत जाओ वहां कुछ भी नहीं है। उनके निरंतर कहने का
परिणाम यह हुआ है कि हमारा मन कहता है कि समस्त जाग्रत पुरुष जब कहते हैं कि वहा
मत जाओ, जरूर कुछ होगा। कहीं ऐसा न हो कि कुछ हो ही। इतने
लोग रोकते हैं तो कुछ होना ही चाहिए। तो हम काम में जाते क्रोध में जाते, लोभ में जाते, मोह मे जाते और इनको हम प्रिय कहते
हैं! हम कहते हैं, ये हमें प्यारे लगते हैं।
और मजा
यह है कि छोटा बच्चा अगर आग में जल जाए तो एक ही अनुभव काफी होगा, दुबारा फिर आग की तरफ न जाएगा। हमारी मूर्च्छा और भी
घनी है। कितनी बार क्रोध किया है! और कितनी बार क्रोध की आगमें जले हैं! फिर भी जब
होगा तो करना प्रिय लगता है। लोभ कितनी बार किया है! और लोभ से क्या पाया है '
नींद खो दी, नींद हराम हुई, चिंता जगी, बेचैनी हुई, उद्विग्न
हुए, विक्षिप्तता पैदा हुई, लोभ से
पाया क्या है ' यहौ पाने को क्या है जो लोभ से कोई पा लेगा!
लेकिन फिर जब लोभ जगेगा तो प्रिय मालूम पड़ेगा।
श्रेय का
अर्थ है, जो अंततः प्रिय है,
जो अंततः प्रेय सिद्ध हो। जागकर भी प्रेय सिद्ध हो। सोए—सोए ही
प्रेय न मालूम पड़े, जागकर भी प्रेय सिद्ध हो। अनुभव के बाद
भी प्रिय सिद्ध हो। आग में हाथ डालने के बाद भी हाथ न जले और हाथ और भी स्वस्थ
होकर, और भी सुंदर होकर निकल आए, तो
फिर आग भी प्रिय हो गयी। दूर से तो लगे कि बड़ी सुंदर है, खेलने
जैसी है, लपट पकड़ने जैसी है, आकर्षण
मालूम हो, पास जाकर सिर्फ जलना हो, घाव
बने, नासूर बने।
तो बुद्ध
ने जिसे प्रेय कहा है उसका अर्थ हुआ—तुम्हारी मूर्च्छा में जो सुंदर लगता, लेकिन अनुभव से सुंदर सिद्ध नहीं होता। तुम्हारी
मूर्च्छा में जो आकर्षक लगता, लेकिन अनुभव से आकर्षक सिद्ध
नहीं होता। मूर्च्छा में जो सत्य लगता, अनुभव से स्वम्न जैसा
सिद्ध होता। जो दूर—दूर से तो सुंदर मनमोहक मालूम होता, पास
जैसे—जैसे आते, सारा सौंदर्य तिरोहित हो जाता। इंद्रधनुष
जैसा है जो। दूर आकाश में खिंचा, कितना सुंदर, पास जाकर मुट्ठी बाधोगे तो कुछ भी हाथ में न आएगा। धुआ भी हाथ में न आएगा,
धूल भी हाथ में न आएगी, वहां कुछ है नहीं।
इंद्रधनुष दूरी में है, निकटता में नहीं।
जो पास
आकर भी सत्य सिद्ध हो, जो परिपूर्ण अनुभव से
गुजरकर भी सुंदर सिद्ध हो, भोग—भोगकर भी जिसमें पीड़ा न हो,
आनंद का रस बढ़ता चला जाए, उसे बुद्ध ने श्रेय
कहा है। उसे श्रेय इसलिए कहा है, ताकि तुम जिसे अभी प्रेय
समझते हो, उससे भिन्न का तुम स्मरण रखो। लेकिन अगर गहरी बात
पूछो, तो जिसे बुद्ध ने श्रेय कहा है, वही
प्रेय है। वही वस्तुत: प्रेय है। और जिसे तुम प्रेय समझ रहे हो, वह प्रेय नहीं है। उसी प्रेय के कारण तो भटक रहे हो, कष्ट पा रहे हो। और आश्चर्य तो यही है कि आदमी अनुभव के बाद अनुभव,
अनुभव के बाद अनुभव, फिर भी कुछ सीखता नहीं।
महाभारत
की प्रसिद्ध कथा है, तुमने सुनी होगी। पांडव
वनवास के दिनों में एक जंगल में भटक गए हैं। प्यासे हैं और एक भाई पानी लेने,
खोजने गया। एक झील पर पहुंच गया। स्फटिक मणि जैसा स्वच्छ उस झील का
जल है। वह तो बड़ा प्रसन्न हुआ। सब भाई प्रतीक्षा करते होंगे, वह जल्दी से पानी भरने की तैयारी करने लगा। लेकिन जैसे ही पानी भरने को
झुका झील में, एक आवाज आयी एक वृक्ष के पास से कि रुक,
पहले मेरी बात का जवाब दे दे। अगर बिना जवाब दिए पानी भरने की कोशिश
की तो जीवित न लौट सकेगा। और अगर जवाब न दे सका तो भी जीवित न लौट सकेगा। कोई
दिखायी नहीं पड़ता है। कथा कहती है, एक यक्ष, एक आत्मा उस वृक्ष पर वास करती है और वह आत्मा तभी मुक्त होगी जब उसके
प्रश्नों का उसे उत्तर मिल जाए। इसलिए उस झील पर जो भी आता है, वह आत्मा इस तरह के प्रश्न पूछती है, जिनके जान लेने
से वह मुक्त हो जाएगी।
हम भी सब
ऐसे ही आत्माएं हैं, जो किन्ही प्रश्नों की
तलाश में भटक रहे हैं। हम सब भी यक्ष हैं। हमारे भी प्रश्नों का उत्तर कहां मिला
है! प्रश्नों का उत्तर मिल जाए तो हम मुक्त हो जाएं। इसलिए कथा बड़ी प्यारी है,
मीठी है।
यक्ष कैद
है वृक्ष पर। उसकी आत्मा बंदी है। वह किसी प्रश्न की तलाश कर रहा है। उसे उत्तर
मिल जाए तो वह मुक्त हो जाए। यही अभिशाप है उसका कि जब तक उत्तर न पा लेगा, तब तक मुक्त न हो सकेगा। तो जो भी झील पर आता है,
उसी से पूछता है कि मेरा उत्तर पहले दे दो।
उसने जो प्रश्न पूछे, वे बड़े कठिन मालूम पड़े। उत्तर नहीं दिए जा सके। तो एक
पांडव बेहोश होकर गिर पड़ा। फिर दूसरा खोजता हुआ आया—अपने भाई को खोजते और पानी को
खोजते। उसके साथ भी यही हुआ। चार भाई इस तरह—लाशें झील के किनारे गिर गयीं। और तब
युधिष्ठिर का आगमन हुआ।
उसके
प्रश्न बड़े प्यारे हैं, बड़े महत्वपूर्ण हैं।
उनमें एक प्रश्न जो आज के काम का है, वह प्रश्न यह है कि
मनुष्य के संबंध में सबसे अजूबी बात कौन सी है? मनुष्य के
संबंध में सबसे ज्यादा अविश्वसनीय बात कौन सी है? तो
युधिष्ठिर ने कहा, यही कि वह अनुभव से सीखता नहीं। यह सबसे
ज्यादा आश्चर्यजनक बात है। और यक्ष ने उत्तर स्वीकार कर लिया। उसके बंधन खुल गए।
ठीक
उत्तर मिल जाए तो बंधन खुलते हैं।
सबसे
अजूबी बात यही है कि आदमी सीखता नहीं। तुम अपने संबंध में सोचो,
तुम अपने जीवन का जरा विश्लेषण करो। कितनी
बार तुमने क्रोध किया है, और हर बार क्रोध के बाद
पछताए हो; हर बार, बिना नागा पछताए हो,
निरपवाद पश्चात्ताप हुआ है। और हर बार निर्णय किया है कि अब नहीं,
अब नहीं करूंगा क्रोध, इससे कुछ सार नहीं है।
कितनी बार कामवासना में उतरे हो, हर बार विषाद ने घेरा है।
हर बार थके—मांदे, पराजित विचार में पड़ गए हो कि पाया क्या,
मिला क्या? कितनी आतुरता से गए थे, कितनी कामना थी, कितने सपने संजोए थे, सब धूल—धूसरित पड़े हैं। अब नहीं, अब नहीं, बहुत बार निर्णय किया है। और घंटे 'भी नहीं बीत पाते,
दिनों की तो बात दूर, और फिर वासना प्रबल हो
उठती है।
तो तुम
सीखते हो? नहीं, सबसे आश्चर्यजनक बात यही कि आदमी अनुभव से सीखता नहीं।
जो आदमी
अनुभव से सीखने लगता है, वह धीरे—धीरे श्रेय की
तरफ जाने लगता है। क्रोध प्रेय है, अक्रोध श्रेय है। काम
प्रेय है, अकाम श्रेय है। लोभ प्रेय है, दान श्रेय है। ऐसे धीरे—धीरे अनुभव से सीखकर तुम पाओगे, जिनको बुद्ध ने प्रेय कहा है, वे छूटते चले जाते
हैं। और जिनको श्रेय कहा शै, वे तुम्हारे जीवन में धीरे—धीरे,
धीरे—धीरे जड़ें जमाने लगते हैं। और जब श्रेय की जड़ें जम जाती हैं
तुम्हारी चेतना में, तुम्हारी आत्मा जब उनकी भूमि बन जाती है,
तो जीवन में जो फूल खिलते हैं, वे ही वस्तुत:
प्रेय हैं।
तो जिसे हम श्रेय की तरह शुरू करते हैं, शुभ की तरह शुरू करते हैं, अंततः
पाते हैं, वही प्रिय है। और जिसे हम प्रेय की तरह शुरू करते
हैं, उसका श्रेय होना तो दूर, आखिर में
पाते हैं कि वह प्रेय भी नहीं है। इसलिए प्रेय की दिशा में जाने वाले आदमी का नाम
है संसारी, और श्रेय की दिशा में जाने वाले आदमी का नाम है
संन्यासी।
तुम
चैतन्य की भाषा में समझो—सोया हुआ आदमी प्रेय की तरफ भागता है, जागा हुआ आदमी श्रेय की तरफ उठने लगता है।
दूसरा प्रश्न :
भगवान बुद्ध को उस
विधवा पर भी दया नहीं आयी जिसका इकलौता नन्हा मृत्यु ने छीन लिया था। और उन्होंने
मृत्यु—शथ्या पर पड़े स्वर्णकार को मृत्यु की तैयारी करने का उपदेश दिया। दूसरी तरफ
जीसस क्राइस्ट ने अंधे को आंख, रोगी को आरोग्य और मृत को जीवनदान किया। फिर भी आश्चर्य है कि बुद्ध
महाकारुणिक कहलाते हैं। किनकी करुणा अधिक है, बुद्ध की या
क्राहस्ट की?
जिस छोटी सी कथा की ओर
संकेत है, वह तुम्हें स्मरण दिला
देनी उचित है। एक स्त्री का इकलौता बेटा मर गया। वही उसका सहारा था। उस पर ही उसने
सारा जीवन निछावर किया था। उसके दुख का कोई पारावर न था। वह छाती पीटती और लोटती
और बाल नोचती। मोहल्ले—पड़ोस के लोग समझा—समझाकर हार गए, लेकिन
वह सुनती ही न। वह अपने बेटे की लाश भी देने को राजी नहीं। वह उसको छाती से लगाए
है। उसे आशा है कि कोई चमत्कार हो जाएगा। उसे आशा है कि उसकी पीड़ा, उसका दर्द, उसके आंसू भगवान समझेगा। उसकी पुकार कहीं
तो सुनायी पड़ेगी। कहीं तो न्याय होगा। उसने सुन रखा है कि उसके दरबार में देर है,
अंधेर नहीं! तो वह छोड़ने को राजी नहीं है। वह उस बेटे की लाश को
लेकर घूमती है। वह एक क्षण को छोड़ती नहीं। रात सोती नहीं कि कोई उसकी लाश को जला न
दे। तब तो लोगों ने समझा कि वह पागल हो गयी।
कोई उपाय
न था। गांव में बुद्ध का आगमन हुआ था, तो लोगों ने कहा, ऐसा कर, अगर
तू सोचती है कि चमत्कार हो सकता है तो इस बेटे को लेकर बुद्ध के पास चली जा। इससे
बड़ा और क्या सौभाग्य होगा! जाकर बुद्ध के चरणों में इस बेटे को रख दे। अगर हो सकता
है जीवन पुन: तो हो जाएगा। गांव के लोग तो जानते थे यह होगा नहीं, यह कभी हुआ नहीं है, लेकिन शायद बुद्ध के पास जाने
से इसे कुछ समझ आ जाए।
वह गयी, उसने बुद्ध के चरणों में लाश रख दी। और उसने कहा,
करुणा करें; आप तो महाकारुणिक हैं। मेरे बेटे
को जिला दें। बुद्ध ने कहा, ठीक, तू एक
काम कर। गांव में चली जा और ऐसे घर से सरसों के बीज मांग ला, जिस घर में कोई कभी मरा न हो। वैसे बीज मिल जाएं तो यह बेटा अभी जी जाएगा।
उस
स्त्री के तो आसू सब तिरोहित हो गए, वह तो नाच उठी। उसने कहा, यह मै अभी लाती हूं, यह कोई बड़ी बात नहीं है। सरसों की ही तो खेती होती है हमारे। ग़ंव में,
घर—घर सरसों है, अभी लाती हूं। उसे होश भी
नहीं है कि ये बीज मिल न सकेंगे। उसे शर्त की बात खयाल में नहीं है—कि बुद्ध ने
कहा, उस घर से जिसमें कोई कभी मरा न हो। वह गयी एक घर,
दो घर, तीन घर, गांव के
एक—एक द्वार पर उसने दस्तक दी, गरीब से गरीब और राजा तक गयी।
लेकिन सभी ने कहा, पागल, ऐसा घर कहं।.
मिलेगा जहां कोई कभी न मरा हो! ऐसा घर तो हो ही नहीं सकता! किसी का पिता मरा है,
किसी की मां मरी है, किसी का बेटा मरा है,
किसी का भाई मरा है, ऐसा घर तो हो ही नहीं
सकता! जितने लोग घर में रह रहे हैं, इससे ,।नंतगुना लोग घर में मर चुके हैं। बाप के बाप मरे, उनके
बाप मरे, कितने लोग गर चुके हैं! ऐसा तो कोई घर हो नहीं सकता
जहां कोई मरा न हो।
सांझ
होते—होते उसे बोध आया, कि मृत्यु अनिवार्य है।
वह लौटी। नाचती गयी थी खुशी में कि ले आएगी सरसों के बीज, खाली
हाथ लौटी, लेकिन नाचती ही लौटी। अब बेटे के जगने की तो कोई
उम्मीद न थी, अब कौन सी खुशी थी? अब वह
इस खुशी में लौटी कि उसके हाथ एक सत्य लग गया है कि मृत्यु अनिवार्य है। रोना
व्यर्थ है। और जो थोड़े से जीवन के क्षण बचे हैं, इनका ऐसा
उपयोग कर लेना जरूरी है कि आदमी अमृत को उपलब्ध हो जाए। इस देह में तो मृत्यु
घटेगी, उसको खोज लेना जरूरी है जहां मृत्यु न घटती हो।
उसने
बुद्ध के चरणों में आकर सिर रख दिया। बुद्ध ने कहा, ले आयी सरसों के बीज? वह हंसने लगी, उसने कहा, आपने भी खूब मजाक किया, लेकिन बात काम कर गयी। सरसों के बीज तो नहीं मिले—और लाश को हटा दिया उसने
बेटे की वहां से और लोगों से कहा, ले जाओ और दफना दों—और
बुद्ध से कहा, मुझे दीक्षा दें। मुझे संन्यस्त करें। आज हूं
कल का पता नहीं, कल हो सकता है मैं भी मर जाऊं। जब सभी मर
जाते हैं, तो मैं भी ज्यादा देर टिकने वाली नहीं हूं,
इसलिए अब एक क्षण भी खोना उचित नहीं है। कौन बेटा है! कौन मां है!
अब मुझे उसकी तलाश करनी है जो शाश्वत है, चिरंतन है। मुझे
दीक्षा दें। देर न करें।
वह
दीक्षित हुई। वह बुद्ध के बडे भिक्षुओं में एक भिक्षुणी सिद्ध हुई। जो स्त्रियां
बुद्ध के सान्निध्य में परम सत्य को उपलब्ध हुईं, उनमें एक स्त्री वह भी थी।
तुमने पूछा है कि 'बुद्ध को महाकारुणिक कहा जाता है, और क्राइस्ट तो मुर्दों को जिला देते, अंधों को आखें
देते, बीमार को स्वस्थ कर देते, कोढ़ी
को चंगा कर देते, बहरा सुनने लगता, लंगड़ा
चलने लगता, रता बोलने लगता, तो जीसस
करुणावान हैं या बुद्ध?'
जीसस करुणावान हैं, बुद्ध महाकरुणावान। जीसस की करुणा बहुत दूर तक काम
नहीं आएगी, इसलिए करुणावान। बुद्ध महाकरुणावान, उनकी करुणा अंत तक काम आएगी, अनंत तक काम आएगी।
अगर किसी
मुर्दे को भी जिला दिया तो भी वह मरेगा। जीसस ने लजारस को जगा दिया था—मर गया था
लजारस—फिर अब लजारस कहां है? फिर
मर गया। एक ही बार मरा था, अब दुबारा मरा। तो करुणा का कुल
परिणाम यह हुआ कि लजारस को दुबारा मरना पड़ा।
जीसस ने
लोगों की आखें ठीक कर दी थीं, कहां
हैं वे लोग? आखें भी गयीं, वे भी गए।
गाड़ी को चला दिया था, कहां हैं वे लोग? कब्रों में सड़ गए होंगे। जीसस करुणावान हैं, इसमें
कोई संदेह नहीं। लेकिन जीसस की करुणा कितने दूर तक काम आती है! जीसस ने जो किया है,
वह तो अब डाक्टर करने लगा। अगर अभी मुर्दे को नहीं जिला पा रहा है
तो वह भी इस सदी के पूरे होते—होते जिला लेगा, वह कुछ अड़चन
की बात नहीं है। तो जीसस चिकित्सक हैं ज्यादा सै ज्यादा, बुद्ध
महाचिकित्सक, महाकरुणावान।
इसलिए
हमने बुद्ध को करुणावान नहीं कहा है, महाकरुणावान कहा है। बुद्ध कुछ ऐसा जीवन दे देते हैं जो फिर कभी छुड़ाए न
छूटेगा। कुछ ऐसी आंख दे देते हैं जो फिर कभी न फूटेगी। कुछ ऐसे कान दे देते हैं,
कुछ ऐसे श्रवण की क्षमता दे देते हैं कि जो सुनने योग्य है, सुन लिया जाएगा। कुछ ऐसे पैर दे देते हैं जो कि अगम्य में गति हो जाती है,
अज्ञात में प्रवेश हो जाता है। बुद्ध भी देते हैं, देह पर नहीं, आत्मा पर; बाहर
नहीं, भीतर।
भारत ने
इस बात को बहुत मूल्य कभी दिया नहीं कि अंधे को आंख मिल जाए, कि बहरे को कान मिल जाएं, इससे
क्या होगा? इतने तो लोग हैं जिनके पास आंख है—आंख वालों के
पास भी आंख कहां! एक और अंधे को आंख मिल गयी, इससे क्या होगा?
इतने तो लोग हैं कान वाले, इन्हें कुछ भी तो
सुनायी नहीं पड़ा अब तक। कौन सा संगीत सुना इन्होंने? कौन सा
सत्य सुना इन्होंने? और जीसस को खुद ही तो बार—बार अपने
शिष्यों से कहना पड़ता है—आंखें हों तो देख लो, कान हों तो
सुन लो। उनके पास आंखें भी थीं, कान भी थे, लेकिन जीसस को बार—बार कहना पड़ता है—सुनो, कान खोलकर
सुनो; आंखों का उपयोग करो।
बुद्ध भी
आंख देते हैं, महावीर भी आंख देते हैं,
कृष्ण भी आंख देते हैं—सूक्ष्म की आंख, अंतर्दृष्टि।
ऐसी आंख जो एक बार खुल जाए तो फिर कभी बंद नहीं होती। बुद्ध भी जगाते हैं, मृत्यु से नहीं, जीवन से जगाते हैं। इसलिए महाकरुणा।
मृत्यु से जगाया हुआ तो फिर मरेगा, फिर पैदा होगा—जीवन से
जगा देते हैं कि फिर न कोई जन्म हो और न कोई मृत्यु हो। महाजीवन में जगा देते हैं।
लेकिन
साधारणत: तुम्हें भी जीसस की बात ज्यादा अर्थपूर्ण मालूम पड़ेगी। इसलिए तो दुनिया
में ईसाई बढ़ते गए। ईसाई के बढ़ते जाने का कारण है। हर आदमी को बात जंचती है।
तुम्हारी भाषा में है। तुम्हें फिकर भी कहां अंतर्दृष्टि की। तुम कहते हो, छोड़ो भी, अंतर्दृष्टि चाहिए
किसको! इधर हमारी आंख पर चश्मा चढ़ा है, आप अंतर्दृष्टि की बातें
कर रहे हैं! पहले चश्मा तो उतर जाए। इधर हमें सुनायी नहीं पड़ रहा है, आप कहो की सत्य की बातें कर रहे हैं, पहले कान ठीक
हो जाए। इधर मेरा औाएर लंगड़ा है और आप कहते हैं परमात्मा में यात्रा करो, पहले संसार में यात्रा करने योग्य तो बना दें। तुम्हारी आकांक्षा के
अनुकूल है जीसस की करुणा। जीसस की करुणा तुम्हारे हिसाब से करुणा है, बुद्ध की महाकरुणा बुद्ध के हिसाब से।
फर्क को
समझ लेना। जीसस तुम्हें वही देते हैं जो तुम मांग रहे हो। जीसस तुम्हें प्रेय देते
हैं। बुद्ध तुम्हें श्रेय देते हैं। श्रेय तुमने मांगा नहीं है। इसलिए तुम बुद्ध
को शायद धन्यवाद भी नहीं दोगे। क्योंकि जो तुमने मांगा ही नहीं है, उसको तुम धन्यवाद क्यों दोगे? जो
बात तुमने मांगी ही नहीं थी, शायद तुम नाराज ही होओगे कि हम
ग्हुछ मांगने आए, आप कुछ दे रहे हैं। हम कहते हैं आखें ठीक
कर दो, आप कहते हैं कि ध्यान करो, अंतर्दृष्टि
खुल जाएगी। सम्हालो अपनी अंतर्दृष्टि, तुम कहना चाहते हो,
हमें आंख चाहिए, चमत्कार चाहिए।
इसलिए तो
तुम चमत्कारी के पीछे इकट्ठे हो जाते हो। वहां तुम्हें आशा दिखती है। तुम्हारा
जीवन से मोह नहीं छूटा है। तो जीवन को जो सम्हाल देता है, संवार देता है, तुम उसकी पूजा
करते हो।
बुद्ध तो
कहते हैं, इसमें कुछ भी सार नहीं
है। यह देह ही चली जाएगी। यह जाकर ही रहेगी। और दो—चार—दस साल जी लोगे, फिर क्या होगा? मरना तो सुनिश्चित है। जब मरना
सुनिश्चित है, तो कुछ ऐसा करो कि मरने की प्रक्रिया सदा के
लिए छूट जाए। तो कुछ ऐसे अंतलोंक में जागो, जहां मृत्यु घटती
नहीं।
इसलिए
अगर तुम मुझसे पूछते हो तो मैं कहूंगा, बुद्ध महाकरुणावान हैं। क्राइस्ट करुणावान। क्राइस्ट तुम्हें समझ में
आएंगे, बुद्ध तुम्हें समझ में न आएंगे। जो तुम्हें समझ में आ
जाता है, वह तुम्हें रूपांतरित न कर पाएगा। जो तुम्हें समझ
में नहीं आता। उसी के साथ तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित होगी।
एक जीसस
के जीवन की बड़ी प्यारी कहानी है, मुझे
बहुत प्रिय है। ईसाइयों ने तो उसे लिखा भी नहीं। बाइबिल में संगृहीत भी नहीं किया।
लेकिन सूफियों ने उसे बचा रखा है। सूफियों ने जीसस की कई कहानियां बचा रखी हैं जो
ऐसी अदभुत हैं कि उनके बिना बाइबिल अधूरी है। लेकिन शायद बाइबिल लिखने वालों ने
सोचकर छोड़ दिया होगा, क्योंकि वे खतरनाक कहानियां हैं।
जीसस एक
गांव में आए और उन्होंने एक आदमी को देखा, जो शराब में धुत्त, सड़क के किनारे गटर में पड़ा गाली—गलौज
बक रहा था। जीसस ने उसे हिलाया और कहा कि मेरे भाई, क्या
जीवन शराब पीने को मिला है? उस आदमी ने आखें खोलीं, थोड़ा होश उसे आया, उसने जल्दी से जीसस के पैर पकड़
लिए। उसने कहा, महाप्रभु, मैं तो मर
गया था, तुमने ही तो मुझे जिलाया था, अब
तुम्हीं जवाब दो कि मैं जिंदगी का क्या करूं? मैं तो मर गया
था, तुमने मुझे जिला दिया, अब मैं क्या
करूं इस जिंदगी के साथ? और अब तुम आ गए हो मुझे समझाने कि
शराब मत पीओ! मैं जिंदगी के साथ करूं क्या? यह जिंदगी बहुत
बोझिल है और बड़ा दुख मुझे मिल रहा है। शराब मैं पीकर किसी तरह अपने को भुला रहा
हूं। अब अपनी समझदारी अपने पास रखो। तुम्हीं जिम्मेवार हो! मैं तो मर गया था,
तुमने जिलाया क्यों, इसका जवाब दो।
जीसस तो
बहुत घबड़ा गए होंगे कि यह आदमी कोई मुकदमा चलाएगा या क्या करेगा? लेकिन बड़े उदास भी हो गए। क्योंकि उन्होंने तो इसे
जीवन दिया था, यह सोचा भी न था कि जीवन के बाद भी तो जीवन
में अर्थ चाहिए न, जीवन से क्या होगा! जीवन में अर्थ न होगा
तो जीवन का करोगे क्या? जीवन में अगर दिशा न होगी तो जीवन का
करोगे क्या? जीवन ही मिल जाने से थोड़े ही कुछ मिलता है, जीवन तो' तुम सबको मिला है। तुमने क्या किया इस जीवन
का?
तुम भी
उस आदमी से राजी होओगे कि अगर परमात्मा तुम्हें मिल जाए तो तुम भी उसकी गर्दन
पकड़कर कहोगे कि तू जिम्मेवार है, तूने
जीवन दिया क्यों? तुमने हमें पैदा क्यों किया? अब हम क्या करें? इधर पैदा कर दिया हमें, अब कहता है शराब भी मत पीओ, वेश्याघर भी मत जाओ,
बेईमानी भी मत करो, झूठ भी मत बोलो, ताश भी मत खेलो, सिगरेट भी मत पीओ—एक तो जन्म दे
दिया और अब कुछ करो भी मत, तू हमारी फासी लगा रहा है। तो फिर
हम जीएं किसलिए?
जीसस
उदास गांव में अंदर गए, देखा एक आदमी एक सुंदर
स्त्री के पीछे भागा जा रहा है, उसकी आंखों में बड़ी लोलुपता
है, बड़ी वासना है। उसे पकड़ा और कहा कि तू यह क्या कर रहा है?
ये आंखें, ये आंखें परमात्मा को देखने के लिए
हैं। उस आदमी ने जीसस के पैर छुए और कहा, महाप्रभु, क्षमा करो। लेकिन यह मुझे कहना ही पड़ेगा कि मैं अंधा था और तुम्हीं ने
मेरी आंखें ठीक कीं। अब तुम मुझे यह भी तो बताओ, इन आंखों का
करूं क्या? रूप न देखूं र सौंदर्य न देखूं तो फिर अंधा ही
क्या बुरा था? आखिर आंख का तो मतलब ही यह होता है कि आदमी
रूप देखे, सौदर्य देखे, नहीं तो अंधा
होने में क्या बुराई थी? मुझे आंखें क्यों दीं? मैं तो अंधा ही भला था। न दिखता था, न पीड़ा थी। जब
से ये आंखें मिल गयी हैं, रूप दिखता है, रूप बुलाता है, अदम्य है उसकी पुकार! और अब इधर आप आ
गए! तो मुझे फिर से अंधा बना दो।
जीसस तो
बहुत हैरान हो गए। वह उदास गांव के बाहर निकल आए। उन्हें तो बड़ी चोट लगी होगी कि
यह क्या हुआ? मैंने तो लोगों की सेवा
की, करुणा की, और ये लोग क्या कह रहे
हैं?
एक आदमी
को गांव के बाहर देखा कि फांसी लगाने का इंतजाम कर रहा है एक झाडू के साथ। उससे
पूछा कि भई, यह तू क्या कर रहा है?
उसने कहा कि अब दूर रहो, और ध्यान रखना,
अगर मैं मर जाऊं तो मुझे जिला मत देना। क्योंकि मैं बुरी तरह ऊब गया
हूं। और आप अपना रास्ता लो! इस जीवन में रखा क्या है? यही तो
ज्या पाल सार्त्र पूछता है कि इस जीवन में रखा क्या है? अर्थ
कहां है? नही तो दुनिया के सारे विचारशील लोग पूछते हैं कि
इस जीवन में प्रयोजन क्या है? ' टेल
टोल्ड बाइ एन ईडियट। किसी मूर्ख के द्वारा कही हुई कथा मालूम होती है। जिसमें कुछ
भी अर्थ नहीं मालूम होता। इसे समाप्त क्यों न कर दें।
दोस्तोवस्की
का एक पात्र दोस्तोवस्की के प्रसिद्ध उपन्यास ब्रदर्स कर्माझोव में। चल्लाकर ईश्वर
से कहता है कि यह टिकिट जो तूने मुझे जीवन में प्रवेश के लिए दी थी, अब वापस ले ले। तू है कहां? तू
है भी? अगर है तो प्रमाण दे, यह मेरे
जीवन के प्रवेश की जो तूने आशा दी थी, इसे वापस ले ले।
क्योंकि इस जीवन में कुछ भी नहीं है।
धन्यवाद
देना तो दूर, आदमी ईश्वर को गुनाहगार
मानता है। तुमने जीवन दिया क्यों? यहा है क्या सिवाय दुख और
पीड़ा के?
लेकिन
जीसस की भाषा तुम्हें समझ में आती है, क्योंकि तुम्हारी वासना के करीब पड़ती है। तुम्हारी कामना के करीब पड़ती है।
तुम चाहते हो सुंदर रूप हो, लंबा जीवन हो, बड़ी उम्र हो, धन हो, पद हो,
प्रतिष्ठा हो। जीसस की चमत्कारी जीवन—व्यवस्था तुम्हें आकर्षित करती
है। बुद्ध के पास तो सिर्फ वे ही लोग जाएंगे जो इस जीवन से ऊब गए है।
ये जो
तीन आदमी जिनकी मैंने तुमसे कहानी कही, जिन्होंने जीसस को कहा कि क्षमा करो महाराज, तुम्हीं
ने झंझट में डाल दिया, ये तीनों आदमी अगर बुद्ध के पास जाते
तो इन्हें मार्ग मिलता। तो बुद्ध कहते, ठीक ही है, तुम ठीक ही कहते हो, जीवन में रखा क्या है! जीवन दुख
है। जन्म दुख है, जीवन दुख है, जरा दुख
है, मृत्यु दुख है, सब दुख है; तुम ठीक कहते हो।
अगर
बुद्ध को जीसस मिलते तो जीसस से बुद्ध कहते ऐसा करो ही मत। लोगों को जगाओ। यह तुम
जो करुणा कर रहे हो, यह करुणा महंगी है,
घातक है।
मुझे
जीसस मिलें तो मैं भी उनसे यही कहूंगा कि यह करुणा घातक है। यह करुणा माना कि
लोगों को जंचती है, क्योंकि लोगों की यह मांग
है, लेकिन लोगों को जो जंचता है अगर वही ठीक होता, तो तुम्हारी जरूरत क्या है? लोगों के जंचने के ढंग
को बदलना है, लोगों का प्रेय बदलना है, लोगों को श्रेय देना है। लोगों को बताना है कि असली आंख और है, असली कान और है, असली जीवन और है। देह का जीवन नहीं,
मन का जीवन नहीं।
तुम्हारा
प्रश्न सार्थक है। मैं तो बुद्ध के साथ राजी हूं। बुद्ध महाकरुणावान हैं। लेकिन जीसस
के साथ ज्यादती हो जाएगी अगर मैं इतनी बात तुम्हें याद न दिला दूं कि बुद्ध जिस
देश में पैदा हुए, उसमें हजारों वर्ष के
बुद्धत्व का इतिहास था, इसलिए इतनी ऊंची महाकरुणा की बात
समझने वाले लोग भी मिल सकते थे, मिल गए थे। जीसस ने जो काम
शुरू किया, वह एक ऐसी जगह शुरू किया जहां कोई बुद्धत्व का
इतिहास न था। यहूदी जिनको पैगंबर कहते हैं, वे भी आधे
राजनीतिज्ञ। यहूदियों के पैगंबरों में एक भी आदमी बुद्ध और महावीर और कृष्ण की
कोटि का नहीं है। इसीलिए तो जीसस को सूली लगा दी उन्होंने। हमने सूली नहीं लगायी
बुद्ध को। कुछ ऐसा थोड़े ही था कि बुद्ध ने कोई क्रांति की बातें नहीं कहीं! बुद्ध
ने महाक्रांति की बातें कही हैं। जड़—मूल से उखाड़ दिया इस देश की धारा को, परंपरा को, फिर भी हमने फांसी नहीं लगायी। हम नाराज
भी हुए तो भी हमने फासी नहीं लगायी। हमें अगर बुद्ध की बात नहीं भी पसंद पड़ी तो भी
हमने फासी नहीं लगायी।
बुद्ध
बयासी साल की लंबी उम्र तक जीए, जीसस
को तैंतीस साल की उम्र में मर जाना पड़ा। जीसस ने केवल तीन साल काम किया यहूदियों
के बीच; तीन साल में बर्दाश्त के बाहर हो गए। तो जिन लोगों
के बीच काम कर रहे थे, वे लोग इतनी ऊंचाई की बात समझ नहीं
सकते थे। जीसस की करुणा नहीं समझ सके तो बुद्ध की करुणा तो कैसे समझते!
ऐसा ही
समझो कि जीसस को जो क्लास मिली थी, वह पहली कक्षा थी। अब पहली कक्षा को अगर तुम आइंस्टीन की गणित समझाने लगो
तो तुम पागल हो। बुद्ध को जो क्लास मिली थी, वह
विश्वविद्यालय की आखिरी कक्षा थी। वहां अगर तुम बाराखडी सिखाओगे और वर्णमाला
सिखाने लगोगे और कहोगे, एक और एक मिलकर दो होते हैं, और दो और दो मिलकर चार होते हैं, तो विद्यार्थी
तुम्हें निकालकर बाहर कर देंगे कि आप अपने घर जाएं। अलग तल पर बात थी।
बुद्धपुरुषों
को समझने में सदा खयाल रखना, किनसे
वह बात कर रहे थे? बात करने वाले से भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह
समझना है कि वह किससे बात कर रहे थे। क्योंकि बुद्धपुरुष को यह तो दिखायी पड़ता है
कि जिससे बात कर रहे हैं उसकी समझ के बहुत दूर न हो जाए। थोड़ी दूर हो, जरा सी दूर हो कि थोड़ा सरके, आगे बड़े, लेकिन बहुत दूर न हो जाए, नहीं तो वह सुनेगा ही नहीं,
उसकी समझ में ही न आएगा। देखते हो न कि एक—एक सीढ़ी चढ़कर आदमी पहाड़
चढ़ जाता है, लेकिन सीधी खाई से और पहाड़ पर छलांग तो नहीं
लगती। एक—एक सीढ़ी। सीढ़ी करीब है, एक पैर उठाया, फिर दूसरी सीढ़ी करीब आ गयी, फिर दूसरा पैर उठाया,
एक—एक कदम रखकर आदमी हजारों मील की यात्रा कर लेता है।
बुद्ध
जिनसे बात कर रहे थे, वे बड़े और तरह के लोग थे।
जीसस जिनसे बात कर रहे थे, वे और तरह के लौंग थे। मोहम्मद
जिनसे बात कर रहे थे, वे और तरह के लोग थे।
इस
अर्थों में बुद्ध सौभाग्यशाली हैं। इस अर्थों में मोहम्मद और जीसस सौभाग्यशाली
नहीं हैं। वे प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे। प्राइमरी स्कूल की भाषा बोलनी पड़ती
है।
उपनिषदों
का मजा, या धम्मपद का मजा और है।
कुरान पढ़ो तो ऐसा लगता है जैसे कि बहुत नासमझों के लिए लिखी गयी है। ऊंचाइयां नहीं
हैं, कभी—कभी सचाई आती है, मगर आमतौर
से ऊंचाइयां नहीं हैं। क्षुद्र बातों का भी ब्यौरा है। शादी—विवाह का भी ब्यौरा
है। समाज—व्यवस्था का भी ब्यौरा है। कैसा आदमी उठे, चले,
व्यवहार करे, इसका भी ब्यौरा है। वैसी ही
स्थिति बाइबिल की है।
धम्मपद, या उपनिषद, या जिन—सूत्र बड़ी
आकाश की बातों में हैं, बड़ी दूर संचाइया है उनकी, बादलों के पार। जब पहली दफे उपनिषदों का अनुवाद हुआ। पश्चिम की भाषाओं में,
तो उनको समझ में ही न पड़े कि ये धर्मग्रंथ कैसे हैं? क्योंकि इनमें धर्म की तो कोई बात ही नहीं। जिसको ईसाई धर्म समझते हैं,
उसकी बात है भी नहीं। चोरी मत करो, एक दफे
नहीं कहता उपनिषद कि चोरी मत करो। यह बात ही समझ में नहीं आती। यह कैसा धर्म हुआ
कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो लिखा ही नहीं है! झूठ मत
बोलो लिखा ही नहीं है! दस आशाएं मोजिज की, उनका तो कहीं
उल्लेख नहीं है—पर—स्त्रीगमन मत करो। जब पश्चिम में पहली दफे अनुवाद हुआ तो यह
विचार उठना स्वाभाविक था कि इनको धर्मग्रंथ कहें! क्योंकि जो उनकी धर्मग्रंथ की
धारणा थी, उसमें तो नैतिक नियम होने चाहिए—क्या करो, क्या न करो।
मेरे पास
लोग आते हैं, वे पूछते हैं कि आप हमें
ठीक—ठीक बता क्यों नहीं देते कि क्या करें और क्या न करें?
उन्हें
पता ही नहीं है कि धर्म का जो शिखर है, वहां करने और न करने की बात नहीं है, वहा होने की
बात है। क्या हो जाएं? करने की बात ही छोटी दुनिया की बात है,
बाजार की बात है। चोरी न करो, यह तो उनसे कहना
चाहिए जो चोर हों। जो लोग बुद्ध के पास आकर बैठे थे, वे तो
धन इत्यादि की दुनिया छोड़कर आकर बैठे थे। वे तो खुद ही समझकर आ गए थे कि व ह सब
बेर्कोर है। चोरी की तो बात दूसरी, अपना धन छोड़कर आ गए थे,
दूसरे का चुराने का तो सवाल क्या था! अब इनसे अगर बुद्ध कहें
समझा—समझाकर कि चोरी मत करो, तो ये भी सिर पीटेंगे कि आप
किससे कह रहे हैं! क्या कह रहे हैं आप! हम अपना देकर आ गए, अब
दूसरे का चुराके! यह बात ही फिजूल है। धन की बात समाप्त हो गयी, वह अध्याय पूरा हुआ।
ये ध्यान
की दुनिया में प्रवेश कर गए हैं। इनसे बुद्ध कुछ और ही बात कहते हैं। बुद्ध कहते
हैं, विचार से कैसे जागो!
विचार के पार कैसे हो जाओ! बाइबिल और कुरान कहते हैं, सदविचार
कैसे करो? बुद्ध कहते हैं, विचार के
पार कैसे हो जाओ। सदविचार के भी पार होना है। बाइबिल और कुरान कहते हैं, पुण्य कैसे करो, और बुद्ध कहते हैं, पुण्य भी बंधन है, इसके पार होना है।
निश्चित
ही बड़ी अलग तल पर बातें हो रही हैं। सीढ़ियां बड़ी भिन्न हैं। उपनिषद तो सिर्फ
ब्रह्म की चर्चा करते हैं, और कोई बात ही नहीं करते।
जिनसे ये बातें कही गयी होंगी—बुद्ध तो फिर भी हजारों लोगों से बोल रहे थे,
उसमें सब तरह के लोग रहे होंगे, समझदार,
नासमझ। उपनिषद तो बड़ी छोटी—छोटी गोष्ठियां थीं, दस—पच्चीस—पचास शिष्य थे। और शिष्य भी ऐसे—वैसे नहीं, कोई दस साल से गुरु के पास था, कोई पंद्रह साल से
गुरु के पास था।
उपनिषद
शब्द का अर्थ होता है, गुरु के पास बैठना। उपनिषद,
उसके पास बैठना। जो उपासना का अर्थ होता है, वही
उपनिषद का अर्थ होता है, उप—आसन। गुरु के पास बैठे थे,
गुरु में रमते थे, गुरु की तरंगों में डोलते
थे, गुरु की दशा का स्वाद लेते थे, रस
लेते थे, गुरु का पान करते थे, गुरु को
पीते थे, ऐसे वर्षों जिनको बीत गए थे गुरु के पास बैठे—बैठे,
जो गुरु का मौन भी समझते थे। ऐसी घड़ी में गुरु चुपचाप बैठा—बैठा एक
दिन कहता है—तत्वमसि। तुम वही हो।
अब
पश्चिम में जब इसका अनुवाद हुआ तो यह बात जरा बेक लगती है कि तुम वही हो! आदमी होश
में है कि पागल है? किससे कह रहे हो, कौन सी बात कर रहे हो? कौन कौन है? तुम वही हो!
यह बड़े
मौन के लंबे प्रयोग के बाद कही गयी बात है, जब शिष्य उस जगह आ गया है जहा संसार समाप्त होता है, ब्रह्म शुरू होता है। वह शुरू होता है। इस घड़ी में गुरु उसे चेताता
है—तत्वमसि। तुम वही हो। वह उससे कहता है, घबड़ा मत, यह जो घट रहा है, यह तू ही है। यह तेरा ही विराट रूप
है। तू भिन्न नहीं है, जा, उतर जा। वह नदी
से कह रहा है, डर मत, यह सागर तेरा ही
है, उतर जा, तत्वमसि। अब यहां अगर वह
कहे कि चोरी मत करो, पर—स्त्रीगमन मत करो, तो वह शिष्य कहेगा, आप किसके साथ सिर भिड़ा रहे हैं!
कहां की पर—स्त्री? यहां अपनी स्त्री नहीं है, तो पर—स्त्री कहा है? पहले तो स्व—स्त्री होनी चाहिए,
तब पर—स्त्री होती है। इससे कहो कि देखो, झूठ
मत बोलना, चोरी मत करना—ये सब बेमानी बातें है, इनका कोई अर्थ नहीं। इस परम शिखर पर तो तत्वमसि का ही उदघोष हो सकता है—कि
अहं ब्रह्मास्मि, कि मैं ब्रह्म हूं।
जब ऐसे
वचनों का अनुवाद होने लगा तो उन्होंने कहा, ये शास्त्र तो धार्मिक नहीं हो सकते! इनमें आदमी को धार्मिक बनाने के लिए
कोई उपदेश ही नहीं हैं! इनमें तो उदघोषणाए हैं। और उदघोषणाओं के लिए भी कोई प्रमाण
नहीं है, तर्क नहीं है। अहं ब्रह्मास्मि कह दिया, बात खतम हो गयी। गुरु ने कह दिया कि मैं ब्रह्म हूं? फिर न तो कोई शिष्य यह पूछता है कि आप ऐसा क्यों कहते? इसका प्रमाण क्या?
मैं कल
एक घटना पढ़ रहा था। एक संत अपने दस—पांच शिष्यों के साथ बैठे हैं। मौन का आनंद चल
रहा है। संत भी चुप हैं, शिष्य भी चुप हैं। एक
अजनबी आकर खड़ा होकर यह सब देख रहा है। वह एक तर्कशास्त्री है। उसको ईश्वर पर भरोसा
नहीं है। वह आया ही इसलिए है कि लोगों ने कहा, यहां एक संत
का वास है, तो वह आया ही इसलिए है पूछने कि ईश्वर के लिए
प्रमाण क्या है? भगवान के लिए प्रमाण क्या है? यहौ चुप्पी चल रही है!
मगर उससे
न रहा गया। थोड़ी देर तो उसने देखा, उसने कहा कि भई, यह मेरे बरदाश्त के बाहर है। कुछ
बातचीत हो, कुछ मतलब की बात हो, यह
क्या गैर—मतलब चुप बैठे हैं! तो उस संत ने उसकी तरफ देखा और पूछा कि तुम अपनी कहो।
तो उसने कहा, कहना कुछ नहीं है, मैं यह
पूछने आया हूं कि भगवान का प्रमाण क्या है? संत ने जो उत्तर
दिया वह अदभुत था। संत ने कहा, भक्तों की आंख मे भगवान का
प्रमाण है, और तो कहीं नहीं। भक्तों की आंख में। इनकी आखें
देख। गौर से जा एक—एक के पास, इनकी आंख में झांक।
उसने कहा, आंखों—वाखों की बातें छोड़ो, मैं
तर्कयुक्त प्रमाण चाहता हूं। उस संत ने कहा, फिर तू कहीं और
जा, क्योंकि तर्कयुक्त तो कोई प्रमाण नहीं है। न प्रेम के
लिए कोई तर्कयुक्त प्रमाण है, न प्रार्थना के लिए कोई
तर्कयुक्त प्रमाण है, न परमात्मा के लिए कोई तर्कयुक्त
प्रमाण है। प्रमाण जरूर है, लेकिन प्रमाण भगवान का भक्त की आंख
में है। भगवान को खोजना हो तो भक्त की आंख में।
उपनिषदों
के ऋषि बैठे हैं छोटे से समूह के पास, बड़ा आत्मीय नाता है। उस आत्मीय नाते में कुछ—कुछ लेन—देन हो जाता है;
कभी—कभी बोल जाते हैं। इसलिए उपनिषदों के सूत्र एक—दूसरे से जुड़े भी
मालूम नहीं होते। क्योंकि बीच—बीच में जो सेतु है, वह मौन का
है। छोटे—छोटे हैं उपनिषद।
आत्म—पूजा
उपनिषद है, एक पोस्टकार्ड पर लिखा जा
सकता है। वर्षों में पैदा हुआ होगा। और कभी—कभी तो ऐसा हुआ है कि एक उपनिषद एक
आदमी से पैदा नहीं हुआ, अनेक ऋषियों से पैदा हुआ। एक गुरु
कुछ कहकर मर गया, फिर उसके शिष्यों में कोई गुरु हो गया,
उसने कुछ कहा, वह भी जुड़ गया। फिर उसके शिष्य
ने कुछ कहा, वह जुड़ गया। ऐसे एक उपनिषद पैदा हुआ। एक आदमी के
हाथ का बनाया चित्र भी नहीं है। लेकिन जिन्होंने बनाया है, एक
ही चैतन्य की दशा में बनाया, इसलिए भिन्न भी नहीं है,
अलग—अलग ने बनाया, यह कहना भी ठीक नहीं है। एक
ने बनाया, यह कहना भी ठीक नहीं है।
ये बड़ी
और तरह की कृतियां हैं। इस देश का सौभाग्य है। जैसे आज पश्चिम विज्ञान के अर्थों
में 'सौभाग्यशाली है, वैसा यह देश धर्म के अर्थों में सौभाग्यशाली रहा है। हजारों साल की हवा के
बाद कहीं ऐसी घड़ियां आती हैं जब हम उन ऊंचाइयों पर आखें उठा सकें, उन शिखरों को देख सकें जो बादलों के पार हैं।
बुद्ध की
महाकरुणा को देखने के लिए तुम्हें समझना पड़ेगा। नहीं तो यह तो बात सीधी—साफ समझ
में आती है कि अगर यह औरत अपने बच्चे के मरने के बाद जीसस के पास गयी होती तो जीसस
ने उसे जिला दिया होता। तुम भी कहते कि यह करुणा हुई। यह बुद्ध ने क्या कहा कि
सरसों के बीज ले आ, कि सरसों ले आ! यह क्या
बात हुई! कुछ कर सकते हो तो कर देते।
बुद्ध ने
भी कुछ किया। बुद्ध का किया बहुत बड़ा है। बेटा जी जाता तो बीस साल बाद मरता, पचास साल बाद मरता कि सौ साल बाद मरता, मरता तो। तो जो घटना घट गयी थी, वह सौ साल के लिए टल
जाती और क्या होता? सौ साल का मूल्य क्या है इस अनंत समय के
प्रवाह में? ऐसे पल जैसे बीत जाते हैं सौ साल। तुममें से कोई
पचास साल का है, कोई तीस साल का है, कोई
चालीस साल का. कोई साठ साल का, कैसे बीत गए? ऐसे बीत गए। ऐसे वे सौ साल भी बीत जाते। फिर बेटा मरता, और बेटे के मरने के पहले यह मां मर जाती; और बुद्ध
जैसे आदमी का साथ मिला और अमृत की कोई खबर न मिलती—तों यह करुणा न होती। बुद्ध ने
बड़ी करुणा की, महाकरुणा की। बुद्ध ने कहा, तू जा, पता लगाकर आ। बुद्ध ने उसे एक बोध का मौका
दिया। एक संबोधि का अवसर जुटा दिया। पूछ—पूछ, घर—घर जा—जाकर
उसे समझ में आने लगा कि मौत तो सुनिश्चित है। तो फिर मेरे ही घर घटी है, ऐसा नहीं है; कुछ मुझ पर ही कोई बड़ी विपदा आ गयी,
ऐसा नहीं; यह विपदा सभी पर आती। और
पूछते—पूछते एक बात भी उसे साफ हो गयी कि बेटा तो मर ही गया, मैं भी मरूंगी। तो अब बुद्ध से बेटे को जिलाने के लिए कहना व्यर्थ है,
अब तो बुद्ध से यही पूछ लेना चाहिए कि कुछ मुझे ऐसा रास्ता बताओ कि
मरकर भी मैं न मरूं।
यही
संन्यास है।
लेकिन
जीसस के साथ ज्यादती मैं न करना चाहूंगा, उनसे मेरा लगाव है। इसलिए जीसस की बात को खयाल में रखना, वे जिन लोगों के बीच काम कर रहे थे, वे छोटे ढंग की
बात ही समझ सकते थे। उनके पास धर्म की कोई ऊंचाइयों का अनुभव नहीं था। हवा नहीं थी,
वातावरण नहीं था। संस्कृति नहीं थी वैसी। बुद्ध भी वहां होते तो
उन्हें वही करना पड़ता। और जीसस अगर भारत में पैदा होते तो उन्होंने वही कहा होता
जो बुद्ध ने कहा है, कोई फर्क न पड़ता। क्योंकि दोनों की
चैतन्य दशा एक सी है। लेकिन परिस्थिति भिन्न—भिन्न है।
तीसरा प्रश्न:
जीवन में दुख है, बहुत दुख है। यह तो हमें कभी—कभी दिखता है, लेकिन यह
हमें कभी नहीं दिखता कि जीवन ही दुख है। कहीं बुद्धपुरुष कुछ अतिशयोक्ति तो नहीं
करते हैं?
अतिशयोक्ति तो मूर्च्छा में ही हो सकती
है। अतिशयोक्ति तो तभी हो सकती है। जब तक मन अति करने में समर्थ है। जो मन के पार
हो गया, वहां अतिशयोक्ति नहीं हो
सकती। वहां तो जैसा है, जो है, वैसा ही
कहा जाता है। तो यह सोचने के बजाय कि बुद्धपुरुष अतिशयोक्ति तो नहीं करते, यही सोचना कि हमारे सोचने—समझने में कहीं भ्रांति होगी।
ठीक पूछा
है, 'जीवन में दुख है और कभी—कभी यह
भी लगता है कि बहुत दुख है, मगर ऐसा कभी नहीं लगता कि जीवन
ही दुख है। '
यह बात
सच है। ऐसा ही लग जाए तो तुम्हारे जीवन में क्रांति घट जाए। उसी लगने से तो अंगारा
पड़ता है, पहली आग लगती। जीवन में
दुख है, बहुत दुख है, लेकिन एक आशा बनी
रहती है कि आज है, कल सब ठीक हो जाएगा। अभी है, सदा थोड़े ही रहेगा। थोड़ी देर और है, गुजार लो,
अच्छी घड़ी आती ही होगी। कभी तो सुख होगा। आशा के कारण, जीवन ही दुख है, ऐसा नहीं लग पाता। आशा बचाए रखती
है।
आशा बड़ा
संरक्षण देती है जीवन को। अनुभव तो कहता है, दुख ही दुख है। आशा कहती है, ठहरो, इतने जल्दी निर्णय मत लो, अभी तो जीवन बाकी है। आज
तक नहीं हुआ तो ऐसा थोड़े ही है कि कल भी नहीं होगा। अब तक असफलता मिली तो कल सफलता
मिलेगी। देखो, मोहम्मद गजनी आया, सत्रह
दफे हार गया, अठारहवीं दफे जीत गया। आदमी हार जाता है;
हिम्मत रखो, धीरज रखो, लड़ते
रहो, जूझते रहो; आज हारे, कल जीतोगे; जीत भी होती है, घबड़ाओ
मत। आशा खींचे लिए जाती है। और आशा हमारी सदा अनुभव पर जीत जाती है। यही हमारा दुख
है, यही हमारी पीड़ा है, यही हमारा
उपद्रव है, यही हमारी मूर्च्छा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन पत्नी से परेशान था। कितनी बार नहीं सोचा कि यह मर जाए। बहुत कम पति
होंगे जो नहीं सोचते। पत्नियां शायद इतना साफ—साफ नहीं भी सोचतीं। सोचती तो वे भी
हैं, उनका सोचना जरा
धुंधला—धुंधला होता है। कौन नहीं सोचता, संग—साथ भारी पड़ने
लगता है। तो मुल्ला कई बार सोच चुका, कई बार तो योजना भी बना
लेता था कि मार ही डालूं। लेकिन फिर डर लगता कि अदालत, यह,
वह, झंझट में पडूगा।
फिर
पत्नी मर भी गयी। संयोग की बात। तो पत्नी के मरने पर उसने मित्रों से घोषणा की कि
अब कभी दुबारा विवाह न करूंगा। लेकिन तीन महीने बाद वह फिर लड़की की तलाश करने लगा।
तो मित्रों ने कहा, पागल हुए हो, भूल गए, तीन महीने पहले क्या कहा था? उसने कहा, छोड़ो जी, जाने भी दो,
आशा अनुभव पर जीत रही है। सभी स्त्रियां थोड़े ही वैसी होंगी। एक से
गड़बड़ हो गयी तो सभी से थोड़े ही गड़बड़ हो जाएगी। बुरी स्त्रिया होती हैं, अच्छी स्त्रियां भी होती हैं। एक बार भूल—चूक में पड़ गए थे, अब दुबारा कदम सम्हालकर रखेंगे।
ऐसे आशा
समझाए चली जाती है। दुबारा भी वही होगा। दूसरी स्त्री से भी वही होगा। दूसरे पति
से भी वही होगा। इस जन्म में जो हुआ, अगले जन्म में भी वही होगा। लेकिन मन कहेगा, कोई तो
रास्ता होगा, कहीं तो उपाय होगा निकल जाने का! अनुभव है अतीत
में और आशा है भविष्य में'। भविष्य की आशा अतीत के अनुभव पर
जीतती चली जाती है और संरक्षित करती रहती है। इसलिए जीवन ही दुख है, ऐसा तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता।
अगर ठीक
से देखोगे, तो बुद्ध ने जो कहा है,
वह अतिशयोक्ति नहीं, सत्य का सीधा—सीधा निरूपण
है।
यों तो
सारा शहर पड़ा है
पर रहने
की जगह नहीं है
नाप रहे
नभ की सीमाएं
किंतु
राह का पता नहीं है
मंसूबे
तो हिमगिरि जैसे
पर कणभर
भी तथा नहीं है
कैसे
मंजिल पाए कोई
सीमांतों
तक जाए कोई
राशि—राशि
किरणें बिखरी पर
दूर—दूर
तक सुबह नहीं है
धुरीहीन
सब घूम रहे हैं
केवल
चलते ही रहना है
काल—सरित
की प्रखर धार में
पराधीन
परवश बहना है
कैसे
पांव टिकाए कोई
उद्धत
जलधि झुकाए कोई
लहरों के
अंबार लगे हैं
पर तिरने
की सतह नहीं है
जीवन के
क्षणभंगुर सपने
सजने के
पहले ही टूटे
जो भी
चले सहारा देने
वे
मनमोहक आचल छूटे
कैसे मन
समझाए कोई
सासों को
सुलझाए कोई
यहां मौत
के लाख बहाने
पर जीने
की वजह नहीं है
यों तो
सारा शहर पड़ा है
पर रहने
की जगह नहीं है
ठीक से
देखोगे, आशा को हटाकर देखोगे,
तो यहां रात ही रात है। दूर—क्रू तक सुबह नहीं है। ठीक से देखोगे तो
पाओगे, यहा डूबने के सिवाय कोई उपाय नहीं है, तिरने को कोई जगह नहीं है।
यहां मौत
के लाख बहाने
पर जीने
की वजह नहीं है।
हम डरते
हैं, ऐसा देखने से भी हमारा
प्राण कंपने लगता है, पैर के नीचे की जमीन खिसकने लगती है।
हम भयभीत होते हैं कि अगर ऐसा दिखायी पड़ गया, तब तो हम ढेर
हो जाएंगे वहीं। फिर तो चलेंगे कैसे, उठेंगे कैसे? आशा का सूत्र टूट जाएगा तो सहारा टूट जाएगा। यह तो अंधे के हाथ की लकड़ी है
यह आशा। यह छूट गयी तो फिर हम चलेंगे कैसे, उठेंगे कैसे?
श्वास कैसे लेंगे, बोलेंगे कैसे? फिर तो मुश्किल हो जाएगी।
इससे हम
डरते हैं। इससे हम समझाए रखते हैं। हम कहते हैं कि नहीं, अभी तक तो नहीं हुआ सच है, मगर
कल होगा। कल के सहारे जिंदगी का तथ्य छिपा रहता है। मरने तक कोई सुख नहीं मिलता।
बहुत बार लगता है, अब मिला, अब मिला और
चूक—चूक जाता है। बहुत बार लगता है, बस अब आ गए करीब,
मंजिल बिलकुल करीब है, यह पड़ा पैर, फिर—फिर चूक जाता है। मंजिल सदा आगे—आगे बनी रहती है, मगर मिलती कभी भी नहीं।
क्षितिज
की भांति है जीवन ऊा सुख। दिखता है—वह रहा, थोड़ी दूर और चल लें, दस मील होगा ज्यादा से ज्यादा,
पहुंच जाएंगे, तुम जितने बढ़ते, उतना ही क्षितिज पीछे हट जाता। क्षितिज कहीं है थोड़े ही। जमीन और आकाश
कहीं मिलते थोड़े ही। जमीन तो गोल है। मिलते मालूम होते हैं। मन और तृप्ति कहीं
नहीं मिलते। मन का स्वभाव अतृप्ति है। तृष्णा और तृष्णा की तृप्ति को कभी कोई मिलन
नहीं होता। तृष्णा में ही अतृप्ति है। तृष्णा का स्वभाव अतृप्ति है।
बुद्ध ने
कहा है, तृष्णा दुयूर है, उसे भरा नहीं जा सकता।
एक फकीर
ने एक सम्राट के द्वार पर भीख मांगी। संयोग की बात, सम्राट भी द्वार पर खड़ा था। उसने फकीर को कहा, क्या
चाहता है? फकीर ने कहा, और कुछ नहीं
चाहता, यह मेरा भिक्षापात्र है, इसे भर
दो। सम्राट ने पूछा, काहे से भरना चाहता है—मजाक में रहा
होगा—किस चीज से भर दूं? उस फकीर ने कहा, चीज कोई भी हो, मगर पूरा भरा हुआ पात्र लेकर जाऊंगा।
अगर सम्राट हो और होने का कुछ दर्प है, चाहे मिट्टी से भर दो,
मगर पूरा भर देना। खाली लेकर न जाऊंगा। छोटा सा पात्र लिए है।
सम्राट हंसा, उसने अपने वजीर को कहा कि जाओ, हीरे—जवाहरातों से भर दो इसका पात्र, यह भी याद
रखेगा किसी सम्राट से भीख मांगी थी!
वह फकीर
खड़ा हंसता रहा। उसकी हंसी थोड़ी चोट भी करने लगी। उसके चेहरे पर बड़ा व्यंग्य था। और
जब वजीर लाए, हीरे—जवाहरातों से उसका
पात्र भरा, तब सम्राट को समझ में आया कि झंझट हो गयी। वे
हीरे—जवाहरात उसके पात्र में गिरे और खो गए, उसका पात्र खाली
का खाली रहा।
एक बड़ी
मीठी सूफी कथा है यह।
सम्राट
तो पागल हो गया, उसने कहा कि चाहे सब लुट
जाए, मगर पात्र भरना ही है। भीड़ लग गयी, सारी राजधानी इकट्ठी हो गयी, भागे लोग चले आ रहे हैं,
गावभर में खबर फैल गयी कि एक फकीर ने चुनौती दी है और सम्राट ने
चुनौती स्वीकार कर ली है और पात्र भरता नहीं। हीरे—जवाहरात डाले गए, सोना—चांदी डाले गए, रुपए डाले गए, पैसे डाले गए, जो कुछ था सम्राट ने सब डाल दिया और
पात्र खाली का खाली रहा। फिर तो हारा; पैरों पर गिर पड़ा और
कहा, मुझे क्षमा करो, लेकिन जाते—जाते
इतना बता दो, इस पात्र का राज क्या है?
उस फकीर
ने कहा, समझे नहीं? यह पात्र साधारण पात्र नहीं है। यह आदमी के मन से बनाया गया है। यह आदमी
के हृदय से निर्मित है। यह आदमी की तृष्णा से बनाया गया है। यह दुघूर है। इसे तुम
भरते जाओ, यह खाली रहेगा।
हंसना मत, क्योंकि कहानी बड़ी वास्तविक नहीं मालूम पड़ती, कहानी बिलकुल झूठी मालूम पड़ती है। मगर मैं तुमसे कहता हूं सच है। और
तुम्हारी कहानी है। तुम भी अपने भीतर के पात्र में कितना भरते चले गए हो, भरा? पहले सोचा दस हजार रुपए होंगे, वह हो गए एक दिन और तुमने पाया कुछ नहीं भरा। फिर सोचा लाख हो जाएं,
वह भी हो गए एक दिन, फिर भी तुमने पाया पात्र
नहीं भरा। दस लाख की सोचते थे, वह भी हो गए एक दिन।
एंड्रू
कारनेगी अमरीका का बड़ा अरबपति मरा, दस अरब रुपए छोड़कर मरा, लेकिन असंतुष्ट मरा। दस अरब! आदमी को तृप्त हो जाना चाहिए, अब और क्या चाहिए? लेकिन मरते वक्त किसी ने उससे
पूछा कि कारनेगी, तुम तो संतुष्ट मर रहे होओगे, क्योंकि तुमने तो इतनी अपार राशि इकट्ठी की—और कारनेगी गरीब घर से आया था,
बाप की तरफ से एक पैसा नहीं मिला था, खुद के
ही बल से दस अरब रुपए छोड़कर गया—कारनेगी
ने आखें खोलीं और कहा, क्या बात कर रहे हो, मैं असंतुष्ट मर रहा हूं क्योंकि मेरी योजना सौ अरब रुपए इकट्ठे करने की
थी। दस अरब, क्या हल होता है! नब्बे अरब से हारकर मर रहा
हूं।
कारनेगी
भी हारा हुआ मरता है और सिकंदर भी हारा हुआ मरता है। और सब हारे हुए मरते हैं। यह
कहानी बिलकुल सच है। यह कहानी बिलकुल झूठी मालूम पड़ती है और इससे सच कहानी खोजनी
मुश्किल है।
यह तुम
अपने भीतर खोजना तो तुम पाओगे। सोचते थे, यह स्त्री मिल जाए, यह पुरुष मिल जाए, सब तृप्ति हो जाएगी। बस, फिर तो एक स्वर्ग बसा
लेंगे। फिर तो इस छोटे से झोपड़े में ही स्वर्ग बस जाएगा। वह स्त्री मिल गयी। अब
फासी लगी है और कुछ भी नहीं हो रहा है। सोचे थे एक बच्चा पैदा हो जाए, एक बेटा होगा तो घर में किलकारी होगी, हंसी—खुशी
होगी, फूल झरेंगे। बेटा हो गया, अब सिर
ठोंक रहे हैं। बूड्रा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल। अब यह कमाल पैदा हो गए! अब इनके
साथ झंझट चल रही है।
तुमने जो
भी चाहा, वह अगर न हुआ, तब तो शायद भ्रम बना रहे कि हो जाता तो सुख मिलता, अगर
हो गया तो भ्रम टूट गया। जो स्त्री तुम्हें नहीं मिली, वह अब
भी सुंदर है; और जो तुम्हें मिल गयी, उसका
सारा सौंदर्य तिरोहित हो गया। धन्यभागी हैं वे प्रेमी जिनको उनकी प्रेयसी मिलती
नही। इसलिए मजनू बड़े मजे में है। अभागे हैं वे प्रेमी जिनको उनकी प्रेयसी मिल जाती
है। मिली नहीं कि सब खतम हुआ नहीं। जो तुमने चाहा, मिलते ही
व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि कुछ भरता नहीं, मन भरता ही नहीं। मन का भरना स्वभाव नहीं है।
जिस दिन
तुम्हें यह दिखायी पड़ेगा, उस दिन तुम ऐसा न कहोगे
कि बहुत दुख
है, उस दिन तुम ऐसा कहोगे—जीवन दुख है।
ओ, हर सुबह जगाने वाले,
ओ हर शाम
सुलाने वाले,
इतना दुख
रचना था जग में
तो फिर
मुझे नैन मत देता।
जिस
दरवाजे गया, मिले
बैठे
अभाव कुछ बने भिखारी
पतझर के
घर गिरवी थी
मन जो भी
मोह गयो फुलवारी,
कोई था
बदहाल धूप में
कोई था
गमगीन छाव में
महलों से
कुटियों तक दुख की
थी हर
सुख से रिश्तेदारी,
यूं चलती
थी हाट कि बिकते फूल,
दाम पाते
थे माली
दीपों से
ज्यादा अमीर थी
उंगली
दीप बुझाने वाली,
और यहीं
तक नहीं, आडू
लेकर
सोने के सिंहासन की
रुप को
बदचलन बताती
थी मावस
की रजनी काली,
क्या
अजीब थी प्यास कि
अपनी उमर
पी रहा था हर प्याला
जीने की
कोशिश में मरता
जाता था
हर जीने वाला,
कहने को
सब थे संबंधी
लेकिन थे
आधी के पत्ते
जब तक
हों परिचित आपस में
मुरझा
जाती थी हर माला,
ओ, हर चित्र बनाने वाले,
ओ, हर रास रचाने वाले,
झूठी थीं
तस्वीरें सब तो
यौवन को दर्पण
मत देता।
ओ, हर सुबह जगाने वाले
ओ, हर शाम सुलाने वाले
इतना दुख
रचना था जग में
तो फिर
मुझे नैन मत देता।
लेकिन मै
तुमसे कहता हूं, नैन हैं कहां? आंख है किसके पास इस दुख को देखने की? अगर ईश्वर ने आंख
दी भी थी दुख को देखने की, तो तुमने उसे बंद कर रखा है। तुम
डर से आंख खोलकर देखते नहीं। तुम उसी तर्क को मानते हो जिसको शुतुरमुर्ग मानता है।
शुतुरमुर्ग का दुश्मन सामने आ जाता है तो वह रेत में सिर गड़ाकर खड़ा हो जाता है।
उसका तर्क सीधा—साफ है, ठीक अरस्तू का तर्क है। वह तर्क यह
है कि जो दिखायी नहीं पड़ता, वह है नहीं।
तुम भी
तो यही तर्क मानकर चलते हो। मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, ईश्वर अगर है तो
दिखलायी क्यों नहीं पड़ता? जो नहीं दिखायी पड़ता, वह नहीं है। वही तर्क शुतुरमुर्ग का है। वह आंख बंद कर लेता है, रेत में सिर गपा लेता है, दुश्मन सामने खड़ा है,
दिखायी नहीं पड़ता उसको, नहीं दिखायी पड़ता तो
सोचता है, है नहीं। निश्चित हो गया।
ऐसे ही
हमने जीवन के सत्यों से आखें छिपा ली हैं। सामने खड़ा है जीवन सारे दुख का अंबार
लिए, हम जीवन को देखते ही नहीं,
हम आगे देखते हैं। हम सपनों में देखते है, हम
कल्पनाएं रचते हैं, हम सपने रचते हैं।
गुरजिएफ
कहा करता था—और ठीक थी उसकी बात——कि जैसे रेल के दो डिब्बों के बीच में बफर लगे
होते हैं, बफर का काम होता है कि
अगर कभी जोर का धक्का लगे तो यात्रियों को धक्का ने लग जाए, बफर
धक्के को पी जाते हैं। या जैसे कौर के नीचे स्टिंग लगे होते हैं, गड्डा भी आ जाए तो स्टिंग कार के धक्के को पी जाते हैं, अंदर बैठे यात्री को थोड़ा—बहुत हलन—चलन होती है, लेकिन
धक्का नहीं लगता। फिर जितनी अच्छी गाड़ी हो, उतने ही अच्छे
स्टिंग होते हैं। जितनी महंगी गाड़ी हो, उतने ही अच्छे स्टिंग
होते हैं। स्टिंग को अर्थ ही यह है कि वह जो चोटें आती हैं, धक्के
आते हैं, उनको पी जाए, तुम तक न पहुचने
दें।
सपने
हमारे बफर हैं। सपनों के कारण जीवन के धक्के हम तक नही पहुंच पाते। सपना पी जाता
है धक्का। हमारे और जीवन के बीच सपनों की एक दीवाल है। उधर जीवन है, वह चोटें करता जाता है और हम सपने देखते चले जाते
हैं। हम सपनों में रहते हैं, हम जीवन में रहते कहां हैं!
इसलिए हमें दिखायी नहीं पड़ता कि जीवन दुख है। और जिसे यह नहीं दिखायी पड़ता कि जीवन
दुख है, वह महाजीवन में प्रवेश न कर सकेगा।
जब यह
तुम्हें रत्ती—रत्ती सौ प्रतिशत सिद्ध हो जाएगा कि जीवन दुख है खालिस
दुख है, दुखमात्र है, दुख और जीवन पर्यायवाची हैं, जिस दिन ऐसा साक्षात्कार हो जाएगा, उसी दिन तुम
कहेगे—उस दिन जगना ही पड़ेगा।
बुद्ध के
पास एक आदमी आया और उसने कहा, आप
कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे कि जीवन दुख है। बुद्ध ने कहा, रुक! मेरे कहने से जीवन दुख नहीं हो सकता। मेरे कहे को तू मान ले तो भी
जीवन दुख नहीं हो सकता। तू कहता है, आप कहते हैं तो ठीक ही
कहते होंगे। तेरे कहने ही से जाहिर है कि तू राजी नहीं है मेरी बात से। नहीं,
उस आदमी ने कहा, जब आप जैसे पुरुष कहते हैं तो
ठीक ही कहते होंगे।
यह सवाल
बुद्ध के कहने का नहीं है, यह सवाल तुम्हारे देखने
का है। तो बुद्ध ने कहा, ठीक, अगर तुझे
लगता है कि हम जो कहते हैं ठीक ही कहते हैं, तो अब छोड़,
दुख को कब तक पकड़े रहेगा ' उसने कहा, अभी नहीं, आऊंगा, जरूर आऊंगा,
आना ही है आपके मार्ग पर, अंततः तो सभी को आना
है, लेकिन अभी नहीं। बुद्ध ने कहा, अगर
तेरे घर में आग लगी हो और तुझे दिखायी पड़ता हो कि लपटें उठने लगी हैं और घर जलने
लगा, तो तू उसी वक्त दौड़कर बाहर निकल जाएगा कि सोचेगा कि
जाऊंगा, जरूर जाना तो है ही; सभी भाग
रहे हैं, मैं भी भाग्ता, मगर अभी नहीं?
उस आदमी ने कहा, आप भी क्या बातें कर रहे हैं!
घर में आग लगी हो तो सोचने की फुरसत कहा, आदमी निकल जाता है
बाहर। बुद्ध ने पूछा, तू किसी से पूछेगा, कहां से निकलूं? दरवाजे से, खिड़की
से, पीछे के दरवाजे, आगे के दरवाजे से,
कि कूद जाऊं छत से, कि छज्जे से, पूछेगा किसी से? वह कहने लगा, आप
भी कैसी बातें कर रहे हैं, घर में आग लगी हो तो कोई पूछता है?
जहां से मिल जाए द्वार वहां से आदमी निकल जाता है।
बुद्ध ने
कहा, ऐसा ही जिस दिन तुझे जीवन
का सत्य दिखायी पड़ेगा, तू एक क्षण भी टाल न सकेगा। निकल
जाएगा। रुका ही नहीं जा सकता!
जिस दिन
बुद्ध ने अपना महल छोड़ा, जो सारथी उन्हें ले गया
गाव के बाहर छोड़ने, वह का सारथी था, बुद्ध
का पुराना सेवक था, बचपन से बुद्ध को देखा था, बुद्ध बेटे की तरह थे उस के के। जब बुद्ध वहां उससे कहे कि तू अब वापस लौट
जा रथ को लेकर, यह मेरे गहने भी तू ले जा, तेरी भेंट, तुझे पुरस्कार; ये
मेरे कपड़े भी तू ले ले, क्योंकि अब इनकी मुझे कोई जरूरत न
होगी; और जब उन्होंने अपने बाल काटने शुरू किए तो उसने कहा,
आप यह क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा, ये बाल भी तू ले जा, क्योंकि अब इनकी क्या जरूरत
होगी—उनके बड़े सुंदर बाल थे—अब मैं फकीर हो रहा हूं। वह का समझाने लगा कि बेटा,
रुक, आखिर मैं भी तेरे पिता की उस का हूं और
मैंने तुझे बचपन से बड़ा किया है, यह तू क्या कर रहा है?
ऐसे सुंदर राजमहल को, ऐसी सुंदर पत्नी को,
ऐसे सुंदर अभी—अभी पैदा हुए बेटे को छोड़कर तू कहां जा रहा है, तू होश
में है? एक बार लौटकर तो देख!
बुद्ध ने
कहा, मैं बहुत बार लौटकर देखता
हूं, लेकिन लपटों के सिवाय मुझे वहां कुछ भी नहीं दिखायी
पड़ता, मेरा भवन जल रहा है। उस के ने कहा, मुझे तो कहीं कोई लपटें नहीं दिखायी पड़ रही हैं।
बुद्ध ने
कहा इस आदमी को कि अगर तुझे लपटें दिखायी पड़ जाएं, तो फिर रुकेगा नहीं, फिर स्थगित न करेगा। स्थगित
करने की तो तभी तक संभावना है जब तक लपटें दिखायी नहीं पड़ी।
तुम्हें
भी जिस दिन दिखायी पड़ जाएगा कि जीवन वस्तुत: दुख है, उस दिन एक क्षण रुक न सकोगे। और बुद्ध अतिशयोक्ति नहीं करते हैं। बुद्धत्व
में कहां अतिशयोक्ति! हमें अतिशयोक्ति लग सकती है, क्योंकि
हमें लगता है कि इतने तक बात ठीक है कि जीवन में दुख हैं, चलो
यह भी कहो कि बहुत हैं, मगर दुख ही दुख हैं! यह हमें बात
घबडाती है, यह हम स्वीकार नहीं करना चाहते कहीं तो सुख होगा,
कुछ तो सुख होगा!
ही, सुख है, आशा में। घटना में कभी भी नहीं। भविष्य में,
वर्तमान में कभी भी नहीं। सुख है, सपने में।
और उसी सपने में लिपटे हम इस दुख को झेल लेते हैं, इस दुख की
चोट नहीं पड़ पाती।
सपना तोड़
दें हम, तो दुख की चोट हमें जगा
देगी। दुख की चोट ही मनुष्य को बुद्धत्व की यात्रा पर ले जाती है।
चौथा प्रश्न :
दुख है। क्या उसे
छिपाएं या प्रगट करें?
तो छिपाने से कुछ होगा
बहुत, न प्रगट करने से कुछ होगा
बहुत। दुख को समझें। छिपाने और प्रगट करने से क्या फर्क पड़ता है? समझें, जागे, देखें, दुख में आंख गड़ाकर देखें, दुख पर ध्यान करें। दुख है
तो दुख क्यों है? दुख का मूल कहौ है? दुख
का कारण क्या है? दुख है, तो तुम किसी
तरह उस दुख के मूल को सींच रहे हो। दुख है, तो तुम किसी तरह
सहारा दे रहे हो दुख को होने के लिए। दुख का विश्लेषण करें। जागकर समझें। और
जैसे—जैसे दिखायी पड़ने लगेगा किस—किस तरह मैं अपने दुख को खुद सम्हाल रहा हूं
वैसे—वैसे तुम्हारे हाथ दुख को सम्हालने से हटने लगेंगे। जिस दिन तुम अपने दुख को
सम्हालना बंद कर दोगे, दुख का घड़ा अपने से गिरता है और फूट
जाता है।
दुख है, क्योंकि तुम दुख को बना रहे हो। दुख ऐसे ही है जैसे
एक आदमी साइकिल चलाता है। वह जब तक पैडल मारता है, तभी तक
साइकिल चलती है, पैडल मारना बंद कर दे, साइकिल रुक जाती है। खैर, थोड़ी—बहुत दूर चली भी जाए
शायद पैडल मारना रोकने के बाद, पुराने गति के आधार से मगर
ज्यादा देर नहीं चल सकती।
क्यों? क्योंकि पैडल मारे बिना साइकिल चलेगी कैसे? दुख का जो चाक है, उसे तुम चला रहे हो। मगर किसी भाति
तुमने यह देखना बंद कर दिया है कि हम उसे चला रहे हैं। तुम सदा एक तरकीब करते हो,
जब भी तुम दुखी होते हो, तुम सोचते हो कोई
तुम्हें दुखी कर रहा है।
पति दुखी
है, वह सोचता है, पत्नी दुखी कर रही है। बाप दुखी है, वह सोचता है,
बेटा दुखी कर रहा है। कोई न कोई, पर तुम दुख
को टाल देते हो कि कोई मुझे दुखी कर रहा है। बस यही तुम्हारी तरकीब है, इससे दुख बचा रहता है। जिस दिन तुम देखोगे गौर से, तुम
पाओगे दुखी मैं कर रहा हूं? कोई मुझे कैसे दुखी कर सकता है!
किसकी सामर्थ्य है तुम्हें दुखी करने की! तुम्हें कोई न् तो दुखी कर सकता, न कोई सुखी कर सकता, तुम्हारी स्वतंत्रता परम है।
समझो
किसी आदमी ने गाली दे दी। अब तो बात साफ है कि न यह गाली देता, न हम दुखी होते। इतनी ऊपर—ऊपर बातें साफ नहीं होतीं।
अगर यह आदमी गाली देता है और तुम दुखी होने को तैयार नहीं हो, तो तुम गाली देने पर भी दुखी न होओगे। तुम हंसकर चले जाओगे। तुम कहोगे,
पागल, इसको क्या हुआ बेचारे को! इसके भीतर
गाली लग रही, तो जरूर इसके भीतर बड़ी पीड़ा होगी, बड़ी तकलीफ होगी। लेकिन इससे तुम परेशान न होओगे।
बुद्ध को
कोई गाली दे जाता है, तो बुद्ध तो परेशान नहीं
होते। परेशान होने का कारण तो तभी बनता है जब तुम्हारे भीतर परेशानी मौजूद हो। जब
तुम्हारे भीतर कोई घाव हो और कोई घाव को छेड़ दे। ऐसे कोई घाव को छेड़ दे और घाव हो
ही नहीं, तो तुम्हें कोई परेशानी नहीं होती।
तुमने
खयाल किया, जब कोई गाली देता है तो
तुम्हें तकलीफ इसीलिए होती है कि तुम्हारे मन में सम्मान की आकांक्षा थी और अपमान
मिला। चाहा था सम्मान और अपमान मिला। सोचा था यह आदमी प्रशंसा करेगा, स्तुति करेगा 'और यह गाली दे गया। तुमने यह भी खयाल
किया कि गाल। का उसी मात्रा में तुम पर असर होता है, जिस
मात्रा में आदमी तुम्हारे करीब होता है। चोट भी उसी की लगती है जो बहुत करीब होता
है। क्योंकि जो बहुत करीब होता है, उससे हमारी अपेक्षा बहुत
होती है। एक अजनबी आदमी गाली दे जाए, हमें उतना दुख नहीं
होता। लेकिन मित्र गाली दे जाए तो ज्यादा दुख होता है।
क्यों? गाली तो एक जैसी है। लेकिन मित्र से हमने अपेक्षा नहीं
की थी कि गाली देगा, मित्र से तो चाहा था कि कभी गाली न
देगा। अपनों से चोट लगती है, खयाल किया? परायों से क्या चोट लगती है! तुम्हारा बेटा कुछ कह दें तो चोट लग जाती है।
दूसरे का बेटा कुछ कह दे तो तुम्हें कोई चोट नहीं लगती, क्या
लेना—देना है! तुमने उससे कभी सोचा ही नहीं था कि कुछ बेहतर मिलने वाला है।
तो
तुम्हारी अपेक्षा में चोट है। भीतर तुम्हारे है कारण। दुख बाहर से नहीं आता, दुख के तुम निर्माता हो। तुम पैडल चलाते हो, तो चाक चलता है। तुम गति देते हो तो गति आती है।
एक बात, दूसरे पर टालना बंद करो, और
कारण में उतरो। सदा कारण तुम अपने में पाओगे। बुद्ध ने यही तो चार आर्यसत्य
कहे—दुख है, दुख का कारण है, दुख से
मुक्त होने की विहिग्यां हैं और दुख—मुक्ति की दशा है। ये चार आर्यसत्य हैं। ये
बड़े से बड़े सत्य हैं।
दुख है
और दुख का कारण है। और कारण बाहर नहीं है, क्योंकि बाहर होता तब तो तुम्हारे वश के बाहर हो जाता। अगर दूसरे तुम्हें
दुखी कर रहे हैं, तो जब तक दूसरे तक न करें कि तुम्हें दुखी—न
करें, तब तक तुम कभी सुखी न हो सकोगे। फिर तो निर्वाण भी
बंधन हो गया। फिर तो मेरा मोक्ष भी तुम पर निर्भर है। फिर तो कोई स्वतंत्रता न
रही। फिर तो आदमी की सारी महिमा गिर गयी।
नहीं, अगर मैं चाहूं सुखी होना, तो
मुझे कोई दुखी नहीं कर सकता। क्योंकि मैं अपने भीतर से दुख के सारे कारण अलग कर
सकता हूं। अपमान से दुख होता है, मैं सम्मान की आकांक्षा छोड़
सकता हूं, फिर कैसे अपमान से दुख होगा? धन छिन जाता है तो दुख होता है, मैं धन का त्याग कर
सकता हूं२ तो फिर कैंसे दुख होगा। अपना किसी को मानते है तो दुख होता है, तो मैं सभी को अपना मानना छोड़ दे सकता हूं, असंग हो
जाता हूं, फिर कैसे दुख होगा?
तुमने
खयाल किया, एक रास्ते से तुम गुजर
रहे हो और एक वृक्ष पर से एक शाखा टूटकर तुम्हारे सिर पर गिर गयी और चोट मार दी,
तो तुम उस शाखा को तो गाली नहीं देते। तुम यह तो नहीं कहते कि यह
मेरी दुश्मन है। पीड़ा तो होगी, क्योंकि चोट लगी, लेकिन दुख नर्हां होता। लेकिन समझो कि इसी शाखा का किसी आदमी ने उपयोग
किया होता और आकर तुम्हारे सिर पर मार दी होती, तो पीड़ा भी
होती और दुख भी होता।
एक झेन
फकीर एक रास्ते से गुजर रहा था, एक
वृक्ष से एक शाखा गिर गयी, उसको चोट लग गयी। उसने खड़े होकर
सारी बात देखी, वह चुपचाप आगे चला गया, उसने कुछ भी न कहा। एक आदमी यह सब देख रहा था। उसने उस शाखा को काटकर एक
डंडा बना लिया और दृस्रे दिन वह फकीर जब निकल रहा था, फिर वह
गया और उसने फकीर के सिर पर डंडा मार दिया। फकीर फिर खड़ा होकर देखा, थोड़ी देर कुछ सोचा, फिर अपने रास्ते पर जाने लगा। उस
आदमी ने कहा कि रुको भई। अब तमसे पूछना पड़ेगा। कल तुम चले गए थे, वह तो मेरी समझ में आ गया कि अब वृक्ष से ऊपर से शाखा गिरी, संयोग की बात है, मगर आज तो मैं तुम्हें चोट मार रहा
हूं।
उस फकीर
ने कहा, एक क्षण को मैं भी चौंका
था कि अब क्या करना! फिर मैंने सोचा, है तो यह भी संयोग की
ही बात कि तुमको ऐसा खयाल आया। वृक्ष से समय पर शाखा टूट गयी, यह भी संयोग की बात थी, तुमको ऐसा खयाल आया, यह भी संयोग की बात है। जब वृक्ष पर नाराज नहीं हुआ तो तुम पर क्या नाराज
होना। वृक्ष से कोई अपेक्षा नहीं थी, तुमसे भी कोई अपेक्षा
नहीं है, ऐसा सोचकर मैं अपनी जगह चल पड़ा। बात खतम हो गयी।
अगर तुम
गौर से अपने दुख के कारण में उतरों, समझो, तो कुछ होगा।
तुमने
पूछा, 'दुख है, क्या उसे छिपाएं या प्रगट करें?
अगर दो
ही उपाय हों, छिपाना और प्रगट करना,
तो मैं तुमसे कहूंगा, प्रगट करो, छिपाओ मत। मगर तीसरा उपाय है, समझो, जागो, देखो। अगर ये ही दो उपाय हों तो मैं इस पक्ष
में हूं कि छिपाना मत, प्रगट करना। क्योंकि छिपाने से तो और
इकट्ठा होता है।
कोई मर
गया घर में—पत्नी मर गयी, कि पति मर गया, कि बेटा मर गया—तो तीन उपाय हैं। या तो समझो, जो कि
बड़े से बड़ा उपाय है। शायद न कर पाओ, कठिन है, कर लोगे तो बुद्धत्व की दिशा में चल पड़ोगे। न कर पाओ शायद, और तब दो ही विकल्प हैं—छिपाएं कि प्रगट करें? तो
मैं कहूंगा, प्रगट करो। तो रो लो। तो छाती पीट लो। तो लोट
जाओ, दो—चार दिन भोजन न करो, मुर्दे की
भांति पड़े रहो, इससे लाभ होगा। बह जाएगा।
रोक लिया
अगर, तो मवाद की तरह भीतर रह
जाएगा। वह ज्यादा देर तक सताएगा। दूर तक साथ जाएगा। दो—चार दिन में निकल जाता,
शायद फिर दो—चार जन्मों में निकले। या निकले ही नहीं, बना ही रहे घाव।
एक
स्त्री मेरे पास लायी गयी थी—प्रोफेसर, पढ़ी—लिखी महिला। उसके पति मर गए, तो वह रोयी भी
नहीं। और गांव के लोगों ने बड़ी प्रशंसा की उसकी, सभी ने कहा
कि ऐसा होना चाहिए आदमी को बुद्धिमान। सबने प्रशंसा की तो उसने और मजबूती से अपने
को रोक लिया। लेकिन तीन महीने बाद उसको हिस्टीरिया शुरू हुआ, फिट आने लगे, मूर्च्छा आने लगी। कोई उसे मेरे पास ले
आया। मैंने उसकी सारी बात पूछी। मैने उसको पूछा, तूने उस
व्यक्ति को प्रेम किया था? उसने कहा, मैंने
बहुत प्रेम किया था, प्रेम—विवाह था, मां—बाप
से लड़कर उस युवक से मैंने विवाह किया था। तो फिर मैंने कहा कि दुख तो हुआ होगा?
उसने कहा, दुख तो हुआ, लेकिन
मैंने प्रगट नहीं किया। सार भी क्या प्रगट करने से!
मैंने
कहा, वही दुख इकट्ठा होकर अब
मूर्च्छा ला रहा है। तू रो ले, दिल खोलकर रो ले। इसे दबा मत।
उसने कहा, उससे क्या होगा? क्या मेरा
पति मुझे वापस मिल जाएगा? मैंने कहा, पति
तेरा वापस नही मिलेगा, सिर्फ यह हिस्टीरिया चला जाएगा। पति
वापस मिलेगा, यह मैं भी नहीं कहता। पति तो तू रो, तो नही मिलने वाला; न रो, तो
नहीं मिलने वाला हंस, तो नहीं मिलने वाला। कुछ फर्क नहीं
पड़ने वाला। पति तो गया सो गया। मगर यह हिस्टीरिया, यह जो
इतना तूने तनाव इकट्ठा कर लिया है, जिसे अब झेलना मुश्किल हो
रहा है, तेरे मस्तिष्क के तंतु झेल नहीं पा रहे, मूर्च्छित हो जाते हैं, यह चला जाएगा।
तीन दिन
तक वह हृदयपूर्वक रोयी। सारी बुद्धिमत्ता छोड़कर रोयी। मूरख बनकर रोयी। और तीन दिन
के बाद सारी बीमारी चली गयी। तीन साल, चार साल हो गए इस बात को घटे, फिर एक बार भी
मूर्च्छा नहीं आयी, न हिस्टीरिया का कोई फिट आया।
सीधी—सीधी
बात है, अगर घाव भर सके तो बहुत
अच्छा, अगर न भर सके तो फिर मवाद को भीतर रखना ठीक नहीं,
बाहर निकाल देना ठीक है। और फिर तुम छिपाओ कितना ही, छिपा न पाओगे, कहीं न कहीं से निकलेगा, हिस्टीरिया में निकलेगा, सपने में निकलेगा, क्रोध में निकलेगा, कहीं न कहीं से निकलेगा।
आदमी गाए
न 'गाए दर्द कैसे चुप रहेगा
आंख से
जो अश्रु छलका वेदना का गीत होगा
मौन
हाहाकार उर का प्राण का संगीत होगा
रुद्ध
स्वर चाहे न चाहे प्राण कैसे चुप रहेगा
स्वर न
जगते हैं सुखों में पीर ही कविता जगाती
कसक कोई
गीत बनती सांस घायल गीत गाती
साज चाहे
रूठ जाए कंठ कैसे चुप रहेगा
अधर सी
दो लाख चाहे पर नयन वाचाल होंगे
अधर सी
दो लाख चाहे पर नयन वाचाल होंगे
मौन ही
भाषा प्रणय की शब्द सब कंगाल होंगे
रूप कुछ
बोले न बोले मौन कैसे चुप रहेगा
आदमी गाए
न गाए दर्द कैसे चुप रहेगा
जो है, उसे प्रगट कर दो। उसे छिपाए मत रखो। उसे दबाए मत रखो।
उसे आ जाने दो, किसी भी रूप में आ जाने दो, चाहे गीत बनकर फूटे, चाहे आसू बनकर फैले, चाहे हाहाकार उठे, उसे आ जाने दो, उसे निकल जाने दो।
मगर मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि यह परमविधि है। इससे सिर्फ तुम सामान्य रूप से स्वस्थ
रहोगे। परमविधि तो है, समझो क्यों दुख है! और तुम
परमविधि का भी उपयोग कर सकते हो और दुख को व्यक्त भी कर सकते हो। दोनों साथ—साथ चल
सकते हैं, दोनों में तालमेल है। अगर तुमने दुख को छिपाया तो
तुम परमविधि का उपयोग भी न कर सकोगे, क्योंकि जो छिपाया है,
उसको तुम देखने में भी डरोगे। क्योंकि कहीं देखने में ही उभर न आए,
निकल न आए। तुम उस बात को ही हटाते रहोगे, तुम
मन के किसी अंधेरे कोने में सरकाते रहोगे।
तो पूछा
है, 'क्या उसे छिपाएं या प्रगट करें?'
प्रगट
करो। और प्रगट करने को ही परमविधि मत मान लेना। इससे तुम स्वस्थ तो रहोगे, लेकिन आत्मवान न हो सकोगे। इस प्रकट करने में साथ—साथ
बोध को भी जोड़ दो। इस प्रगट करने में साथ—साथ ध्यान को भी जोड़ दो। आसुओ को भी बहने
दो और तुम भीतर जागरूक होकर देखो भी—यह दुख हुआ क्यों? निंदा
मत करना। यह मत कहना कि दुख बुरा है। यह मत कहना कि दुख नहीं होना चाहिए था।
निर्णय मत लेना। तुम तो सिर्फ निरीक्षण करना कि दुख क्यों हुआ है?
अगर पति
के मरने से दुख हुआ है, तो उसका अर्थ इतना ही हुआ,
बहुत मोह लगा लिया होगा, बहुत नाता जोड़ लिया
होगा, तो दुख हो रहा है। तो आगे सावधान रहना। नाते जोड़ने में
दुख है। मोह बनाने में दुख है। तो फिर मोह की रचना और मत करना। रहो संसार में,
लेकिन रहो ऐसे जैसे संसार से बिलकुल अलिप्त। रहो कमलवत—पानी में,
पर पानी छुए न। फिर कोई दुख नहीं है।
मैंने
कभी न चाहा जग को दुख का साझीदार बनाऊं
पर
अनजाने ही गीतों में मन का दर्द उभर आता है
नयनों का
हर मोती मेरा पर सुख के पल सदा विराने
अनुभव
सागर में डूबा तो सत्य लगा मुझको अपनाने
विरहाकुल
हो जब भी भटका कण—कण में तुमको ही देखा
पर यदि
पास हुए तुम मेरे परिचित भी सब लगे अजाने
मैंने
कभी न चाहा तुमको पलकों में ही सीमित कर लूं
पर
अनजाने ही अंतर में कोई रूप निखर आता है,
मन का
दर्द उभर आता है।
कुछ कहते
हैं इन गीतों में कोई शाश्वत सार नहीं है
दुख का
ही सरगम है इनमें सुख की मधु मनुहार नहीं है
कण—कण
में पीडा मुस्काती अंबर की पलकें भीगी हैं
धरती रोए
पर मैं गाऊं मुझको यह स्वीकार नहीं है
मैंने
कभी न चाहा जग को इन गीतों से विह्वल कर दूं
पर
अनजाने विकल स्वरों में दर्द स्वयं मुझको गाता है,
मन का
दर्द उभर आता है।
मैंने
कभी न चाहा जग को दुख का साझीदार बनाऊं
पर
अनजाने ही गीतों में मन का दर्द उभर आता है
यह भी एक
अहंकार है कि मैं किसी को अपने दुख में साझीदार न बनाऊं। यह भी अस्मिता है।
अहंकारी आदमी अपने दुख को प्रगट नहीं करता है।
इसे
तुमने देखा, स्त्री और पुरुषों में एक
फर्क। स्त्रियां अपने दुख को सरलता से प्रगट कर देती है—कुछ दुख हुआ, रो लिया। इसलिए स्त्रिया हल्की हैं, पुरुष बहुत भारी
हैं। यह तुम जानकर चकित होओगे कि दोगुने पुरुष पागल होते हैं दुनिया में और दोगुने
पुरुष आत्महत्या करते हैं दुनिया में। और अगर इसमें हम उन सब पुरुषों को भी जोड़
लें जो युद्धों में जाकर कटते हैं और काटते हैं, तब तो
संख्या बहुत हो जाएगी, क्योंकि वे भी पागल हैं। और हर दस साल
के बाद कोई बड़ा महायुद्ध चाहिए, ताकि पुरुषों में से पागल
छंट जाएं।
क्या
कारण होगा? पुरुष रोने की कला भूल
गया है। पुरुष का अहंकार—मर्द कैसे रो सकता है! छोटा बच्चा रोने लगता है तो तुम
कहते हो, अरे, मर्द बच्चे हो, रोते हो! लड़की बन रहे हो, लड़कियाना काम कर रहे हो!
रोओ मत। छोटे—छोटे लड़कों तक को नहीं रोने देते। धीरे—धीरे रोने की कला भूल जाती
है। और रोने की कला बड़ी है। वह मन को सहज हल्का करने की प्राकृतिक विधि है। इसलिए
स्त्रियां ज्यादा स्वस्थ हैं—मानसिक रूप से। स्त्रिया पांच—सात साल ज्यादा जीती
हैं पुरुषों से, उनकी औसत उम्र ज्यादा है। स्त्रियों को
सहनशीलता ज्यादा है।
तुम जरा
सोच लो, किसी पुरुष को अगर नौ
महीना बच्चा पेट में रखना पड़े, तो दुनिया में आदमी पैदा होना
ही बंद हो गए होते, कभी के बंद हो गए होते। या फिर पुरुष को
बच्चे को पालना पड़े, जरा सोचो! तो रोज अदालतों में मुकदमे
होते कि बाप ने बेटे की गर्दन दबा दी। रात में न सोने दे बेटा, कब चीखे कब पुकारे, —कब रोए! एकाध दिन तुम जरा घर
में अपने बच्चे की देखभाल करके सोचना तब तुम्हें पता चलेगा, कि
पागल कर देगा वह तुम्हें।
स्त्री
की क्षमता बड़ी है, सहनशीलता बड़ी है। और उस
सबके पीछे मनोवैज्ञानिक कहते हैं, कारण है—क्योंकि स्त्री
अपने दुख को छिपाती नहीं, प्रगट हो जाने देती है। इसलिए दुख
बह जाता है।
पुरुष
रोकता है। तुमको न मालूम किसने यह पागलपन समझा दिया है कि रोना मत, क्योंकि तुम पुरुष हो! प्रकृति ने तो दोनों की उगखों
में बराबर आसू की ग्रंथिया बनायी हैं, उसमें जरा भी भेद नहीं
है। पुरुष की आंख में उतनी ही आसू की क्षमता है जितनी स्त्री की आंख में। इसलिए
प्रकृति ने तो भेद नहीं किया है। प्रकृति ने तो चाहा है कि तुम भी कभी—कभी रोना।
लेकिन आदमी की सभ्यता ने भेद कर लिया है। आदमी को खूब अकड़ दे दी है, पुरुष को, कि नहीं, यह सब
स्त्रियों का काम है, यह काम तुम करना ही मत। स्त्री रो लेती
है, हल्की हो जाती है, ज्वार निकल जाता
है, ज्वर निकल जाता है। इसलिए स्त्री में एक कोमलता है,
एक सौंदर्य है। पुरुष में एक कठोरता है। यह कठोरता कम हो सकती है,
अगर तुम्हारी आखें थोड़ा आसू बहाने की कला सीख लें।
तो मैं
तो तुमसे कहूंगा, अगर छिपाने और प्रगट करने
में ही चुनाव करना हो, तो प्रगट करना। लेकिन चुनाव तीन के
बीच है : छिपाना, प्रगट करना, जागकर देखना
है। उससे छुटकारा होगा, उससे जड़मूल से क्रांति होगी।
आखिरी प्रश्न:
भगवान
अंतर मम विकसित करो अंतरतर हे!
निर्मल करो
उस्थ्यल करो
सुंदर करो, हे।
जाग्रत करो
स्वत करो
निर्भय करो, हे!
मंगल करो
निर्लस
निःसंशय करो, हे!
अंतर मम विकसित करो
अंतरतर हे!
युक्त करो हे
साबार संगे
मुक्त करो हे बंध
संचार करो सकल कर्म
शांत तोमार छंद
चरण पद में मम चित्त
निष्पदित करो, हे!
नंदित करो
नंदित करो
नंदित करो, हे!
अंतर मम विकसित करो,
अंतरतर हे!
तरू ने
भेजी ये पंक्तियां।
ऐसा भाव, ऐसी प्रार्थना तुम्हें घेरे रहे, तो चाहा है वह होगा। प्रार्थना अपूर्व शक्ति है।और मांगना हो परमात्मा
से कुछ मत मांगना। मांगना हो तो यही मांगना—
अंतर मम
विकसित करो
अंतस्तर
हे!
मांगना हो, तो चैतन्य की कुछ बात मांगना। मांगना हो, तो मुक्ति की कुछ बात मांगना। और यह प्रार्थना तुम्हें घेरे रहे, तुम्हारी श्वास—श्वास में समा जाए, तो इसके परिणाम
होंगे। यह प्रार्थना परमात्मा को बदल देगी, ऐसा नहीं है,
यह प्रार्थना तुम्हें बदल देगी।
इसको
खयाल में रखना, बहुत लोग सोचते हैं कि हम
प्रार्थना करेंगे तो परमात्मा बदल जाएगा और हम जो भागते हैं, वह कर देगा। ऐसा कोई परमात्मा कहीं नहीं है। और तुम्हारी प्रार्थना से
परमात्मा नहीं बदलने वाला, लेकिन प्रार्थना करने से प्रार्थी
बदल जाता है। अगर तुम यह रोज—रोज गुनगुनाते रहे?
अंतर मम
विकसित करो
अंतरतर
हे!
निर्मल
करो
उज्जल
करो
सुंदर
करो, हे!
जाग्रत
करो
उद्धत
करो
निर्भय
करो, हे!
मंगल करो
निर्लस
निसंशय
करो, हे!
अंतर मम
विकसित करो
अंतरतर
हे!'
यह
तुम्हारी श्वास—श्वास में गज पैदा हो जाए, यह तुम्हारी धड़कन—धड़कन में रम जाए, यह तुम्हारे
रोएं—रोएं का कंपन बन जाए, तो ऐसा होने लगेगा। नहीं कि कोई
परमात्मा कर देगा, कहीं कोई करने वाला नहीं है, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना तुम्हें बदलेगी। तुम्हारे भाव तुम्हें बदलेंगे,
तुम्हारी भावना तुम्हें बदलेगी।
'युक्त करो हे साबार संगे
मुक्त करो हे बंध'
इस तरह की प्राणों में निरंतर एक ज्योति
जलती रहे, तो तुम जैसे हो वैसे ही
रह न जाओगे। छोटी—छोटी भाव की तरंग बड़ी क्रांति लाती है।
'युक्त करो हे साबार संगे
मुक्त
करो हे बंध
संचार
करो सकल कर्म
शांत
तोमार छंद
चरण पद
में मम चित्त
निष्पदित
करो, हे!
नंदित
करो
नंदित
करो
नंदित
करो, हे!
अंतर मम
विकसित करो
अंतरतर
हे!'
ऐसा
सोचते—सोचते, विचारते—विचारते, गुनगुनाते—गुनगुनाते तुम नंदित हो उठोगे। तुम आनंदित हो उठोगे। तुम्हारे
भीतर वीणा बजने लगेगी। वीणा तो है ही भीतर, तुम ऐसा
गुनगुनाओगे तो वीणा भी तुम्हारे साथ गुनगुनाने लगेगी। तार तो मौजूद हैं, स्पंदित करना है।
प्रार्थना
प्रार्थी को बदलती है, परमात्मा को नहीं।
प्रार्थना प्रार्थी को एक दिन परमात्मा बना देती है। और तो कोई परमात्मा है भी
नहीं। इसलिए प्रार्थना को तुम यह मत सोच लेना कि हमने प्रार्थना कर दी और बात
समाप्त हो गयी, अब तू जान! ऐसा उत्तरदायित्व नहीं छोड़ देना
है परमात्मा पर। उससे तो आलस्य पैदा होता है; और जीवन
रूपांतरित तो होता नहीं, और—और गड्डों में गिर जाता है। जो
प्रार्थना करो, उस प्रार्थना पर अपने जीवन को रूपातरित करने
की दिशा में भी प्रयास करना। प्रार्थना प्रयास बने तो ही गवाही तुम देते हो कि
तुमने सच में ऐसा मांगा।
तुमने
अगर सच में मांगा है—
'अंतर मम विकसित करो
अंतरतर
हे!
निर्मल
करो
उज्जल
करो
सुंदर
करो, हे!'
—तो फिर जो—जो कुरूप हो, उसे छोड़ते जाना। क्योंकि
परमात्मा से जो मांगा है, वह कम से कम तुम तो अपने को दो,
परमात्मा जब देगा तब देगा। तो जो—जो कुरूप हो, छोड़ते जाना। जो—जो उज्जल न हो, छोड़ते जाना। जो—जो
उज्ज्वल हो, उसे अंगीकार करना। जो—जो निर्मल हो, उसके सामने अपने को गतिमान करना।
'जाग्रत करो
उद्धत
करो
निर्भय
करो, हे!'
तो अपने
को जगाना। प्रार्थना करने पर प्रार्थना समाप्त नहीं होती, प्रार्थना तुमने
सच में की है, इसका प्रम त्या भी देना। और जो प्रमाण भी देता है,
उसकी प्रार्थना पूरी
हो जाती है।
आज इतना ही।
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