पहला प्रश्न:
इस देश में बुद्धपुरुषों के उपासक के घर में भोजनोपरात सदा से ही
बुद्धपुरुष कुछ न कुछ उपदेश अवश्य करते रहे हैं। क्या इस परंपरा के पीछे कोई सूत्र
है? कृपा करके समझाएं।
सूत्र सीधा और साफ है।
तुम वही दे सकते हो, जो तुम्हारे पास है। तुम
शरीर का भोजन दे सकते हो। बुद्धपुरुष वही दे सकते हैं, जो
उनके पास है। वे आत्मा का भोजन दे सकते हैं। तुम जो देते हो, वह तो न कुछ है। बुद्धपुरुष जो देते हैं, वह सब कुछ
है। जो समझदार हैं, वे यह सौदा कर ही लेंगे। यह सौदा बड़ा
सस्ता है। बुद्ध को, महावीर को लोग भोजन देते, तो भोजन के बाद वे दो वचन उपदेश के कहते थे। तुमने कुछ दिया, उससे बहुत ज्यादा तुम्हें देते थे। तुमने जो दिया, उसका
क्या मूल्य है? कितना मूल्य है? उन्होंने
जो दिया, वह अमूल्य है। वे दो पंक्तिया कभी किसी के जीवन के
अंधेरे मार्ग पर रोशनी बन जातीं। वे दो पंक्तियां कभी किसी के सूखे मरुस्थल जैसे
हृदय में फूल बनकर खिल जातीं। वे दो पंक्तिटग़ं जहां गीतों का पैदा होना बंद हो गया
था, वहां गीतों को जन्म देने लगतीं। उन थोड़े— थोड़े उपदेशों
ने लोगों का आमूल जीवन बदल डाला है।
फिर भोजन
प्रतीकात्मक है। भोजन प्रेम का सबूत है।
इसे
समझना चाहिए। जब पहली दफा बच्चा पैदा होता है तो वह मां से प्रेम और भोजन साथ—साथ
पाता है। उसी स्तन से प्रेम पाता है, उसी स्तन से भोजन पाता है। इसलिए भोजन और प्रेम का एक गहरा नाता है,
गहरा एसोसिएशन है। तभी तो जब तुम्हें किसी से प्रेम होता है,
तुम उसे घर भोजन के लिए बुला लाते हो। जब कोई स्त्री तुम्हें प्रेम
करेगी तो तुम्हारे लिए भोजन बनाने को आतुर हो उठेगी। वह सूचक है। वह खबर देता है।
वह प्रेम का प्रतीक है।
बुद्ध को
तुम अपने घर भोजन के लिए बुला लाए, वह तुम्हारे प्रेम का प्रतीक है। तुम्हारे पास जो है, वह तुम भेंट कर रहे हो—वह न कुछ है, उसका कोई मूल्य
नहीं, लेकिन तुम्हारे प्रेम का बड़ा मूल्य है। और जहां भी
प्रेम हो, वहां पुरस्कार मिलता ही है। जहां भी प्रेम दिया
जाए, वहा प्रेम हजारगुना होकर लौटता ही है। वह जीवन का
शाश्वत नियम है। तुम जो दोगे, हजारगुना होकर तुम्हें मिलेगा।
गाली दोगे, तो हजार गालियां लौट आएंगी। प्रेम' दोगे तो प्रेमंहजारगुना होकर लौट आएगा। और यह जीवन का शाश्वत नियम कहीं और
काम करे या न करे, बुद्धपुरुषों के सान्निध्य में तो काम
करेगा ही। तुमने भोजन दिया, तुमने बुद्ध को घर बुलाया तुम तो
चकित होओगे, बुद्ध का जिस भोजन के कारण अंत हुआ, उनके जीवन का अंत हुआ, उस दिन भी वे उपदेश करना नहीं
भूले।
आखिरी
भोजन जो उन्होंने किया, वह विषाक्त था। जिसने
बुलाया था, वह बहुत गरीब आदमी था। इतना गरीब आदमी था कि
बाजार से हरी सब्जियां भी खरीद नहीं सकता था। तो बिहार में गरीब आदमी कुकुरमुत्ते
सुखाकर रख लेते हैं, उनको फिर गीला करके सब्जी बना लेते हैं।
कुकुरमुत्ता ऐसे ही ऊग आता है, कहीं भी ऊग आता है। लकड़ी पर,
गंदगी पर, कहीं भी ऊग आता है। इसलिए उसका नाम
कुकुरमुत्ता है, जहां—जहां कुत्ते पेशाब करते हैं, वहीं ऊग आता है। कुकुरमुत्ते इकट्ठे कर लेते हैं गरीब और उनको सुखाकर रख
लेते हैं, फिर सालभर उनसे भोजन का काम चला लेते हैं। कभी—कभी
कुकुरमुत्ते विषाक्त होते हैं, अगर विषाक्त भूमि में,
या किसी विष के करीब पैदा हो गए।
इस गरीब
आदमी ने बुद्ध को निमंत्रण दिया। उसके पास कुछ भी न था। कुकुरमुत्ते की ही सब्जी
बनायी थी। बुद्ध ने चखी तो वह कड्वी थी। बात तो साफ हो गयी कि वह विषाक्त है।
लेकिन वह सामने ही पंखा झल रहा है और उसकी आंखों से आनंद के अश्रु बह रहे हैं और
उसके पास कुछ और है भी नहीं, और
उसे यह कहना कि तेरा भोजन विषाक्त है, उसके हृदय को बुरी तरह
तोड़ देना होगा। इसलिए बुद्ध चुपचाप, बिना कुछ कहे वह विषाक्त
भोजन कर लिए। भोजन के करते ही विष फैलने लगा, लेकिन उस दिन,
उस आखिरी दिन भी वे उपदेश देना नहीं भूले। और पता है, उन्होंने उपदेश क्या दिया?
उन्होंने
अपने भिक्षुओं को इकट्ठा कर लिया, गाव
के लोगों को इकट्ठा कर लिया और कहा, सुनो, दुनिया में दो व्यक्ति महाधन्यशाली हैं—वह मा, जो
पहली बार बुद्ध को भोजन कराती, और वह व्यक्ति, जो बुद्ध को अंतिम बार भोजन कराता है। यह बहुत धन्यशाली व्यक्ति है जो
सामने बैठा है। इसने इतना पुण्य अर्जन किया है, तुम कल्पना न
कर सकोगे।
और जब
भिक्षुओं को पता चला बाद में, जब
वैद्य आया और उसने बताया कि यह तो विषाक्त भोजन था, बचना
मुश्किल है। तो आनंद ने बुद्ध को कहा कि आपने यह किस तरह की बात कही कि यह अत्यंत
धन्यभागी है? इसने जहर दे दिया! भला अनजाने दिया हो, मगर इसकी मूढ़ता का परिणाम भारी है।
बुद्ध ने
कहा, इसीलिए मैंने कहा,
अन्यथा मेरे मर जाने के बाद तुम पागल हो जाते और उसे मार डालते।
उसकी पूजा करना, क्योंकि अंतिम जिससे भोजन ग्रहण किया बुद्ध
ने, वह उतना ही धन्यभागी है जितना जिससे प्रथम किया। ये दो
भोजन—पहला और अंतिम। तुम उसकी पूजा करना, आनंद। उसने तो
प्रेम से दिया है। प्रेम से दिया गया जहर भी अमृत है। और अप्रेम से दिया गया अमृत
भी जहर है। प्रेम से मौत भी आ जाए तो महाजीवन के द्वार खुलते हैं, और अप्रेम से जीवन भी बढ़ता चला जाए तो राख ही राख हाथ लगती है। तुम उसका
प्रेम देखो, जो हुआ है वह बात तो गौण है।
और फिर
कौन यहां सदा जीने को आया है! किसी दिन तो मरता। मरना तो निश्चित था। मरना तो होने
ही वाला था। इस आदमी का कोई कसूर नहीं, यह तो निमित्त मात्र है। फिर मैं देखो का भी हो गया, बुद्ध ने कहा। अच्छा ही है कि अब विदा हो जाऊं, अब
इस देह को और खींचना कठिन भी होता जाता है।
अंतिम
दिन भी, मरने के पहले भी, भोजन जो दिया गया था, उसके धन्यवाद में उन्होंने
उपदेश दिया था।
सूत्र
सीधा—साफ है। तुम इतने प्रेम से बुलाकर भोजन दिए हो बुद्ध को, वे तुम्हारे भीतर अगर अपना सारा प्रेम उंडेल दें तो
कुछ आश्चर्य नहीं। और उनका प्रेम एक ही अर्थ रखता है कि सोया जाग जाए, कि अंधेरे में दीया जले, कि जहा अनंत—अनंत जन्मों की
दुर्गंध है, वहा थोड़ी सी सुवास आत्मा की फैल जाए। उपदेश का
यही अर्थ होता है।
उपदेश का अर्थ भी समझना। उपदेश का अर्थ आदेश
नहीं होता। बुद्ध ऐसा नहीं कहते कि ऐसा करो। बुद्ध इतना ही कहते हैं, ऐसा—ऐसा करने से मुझे ऐसा—ऐसा हुआ। बुद्ध यह नहीं
कहते हैं कि तुम भी ऐसा करो; करोगे तो पुण्य पाओगे, नहीं करोगे तो पापी, नरक में सडोगे। बुद्ध कोई
कमांडमेंट नहीं देते।
बाइबिल
में टेन कमांडमेंट हैं, दस आदेश। वे उपदेश नहीं
हैं, उनमें आज्ञा है। जहां आज्ञा है, वहां
राजनीति झलक आती है। और जहा आशा है, वहां दूसरे पर मालकियत
की घोषणा हो जाती है—तुम ऐसा करो ही; करना ही पड़ेगा; किया तो ठीक, नहीं किया तो खतरा है।
बुद्धपुरुष
उपदेश देते हैं। उपदेश और आदेश में फर्क है।
आदेश में
आज्ञा है, उपदेश में मनुहार। उपदेश
में सिर्फ फुसलावा है। उपदेश में सिर्फ इस बात की खबर है कि ऐसा करने से मुझे कुछ
हुआ है, अगर तुम्हें भी करना हो, तुम
कर सकते हो, तुम मालिक हो। तुम अगर दुखी हो, तो इसलिए दुखी हो कि तुम कुछ कर रहे हो जिससे दुख पैदा हो रहा है। यह लो
कुंजी, इससे मेरे आनंद के मंदिर का द्वार खुला है। अगर खोलना
चाहो, तो तुम यह न कह सकोगे कि कुंजी किसी ने तुम्हें बतायी
न थी।
फिर
उपदेश का यह भी अर्थ होता है, जो
अत्यंत पास बैठकर ग्रहण किया जाए। उपदेश का अर्थ होता है, पास
बैठना, निकट होना। उपदेश का अर्थ होता है, जिसके साथ तुम्हारे भीतरी देश का मेल हो जाए। जो अरतर—आकाश है, वह अंतर—आकाश एक हो जाएं। देश यानी आकाश, स्थान;
उप यानी पास। दो व्यक्तियों के अंतर—आकाश जब इतने पास हो जाते हैं
कि उनकी सीमा गिर जाती है, वहां उपदेश है।
तो उपदेश
केवल शिष्य के लिए हो सकता है। उसके लिए हो सकता है जो इतना झुककर करीब आ गया है
कि अब अपने को अलग मानता ही नहीं। जो इतने निकट आ गया है कि तुम अगर न भी बोलो तो
सुन लेगा। तुम्हारा मौन भी सुनायी पड़ेगा जिसे, उसे ही उपदेश दिया जा सकता है।
फिर
छोटी—छोटी बातें क्रांति कर जाती हैं। ये जो बुद्ध की हम गाथाएं पढ़ रहे हैं, छोटी—छोटी बातें हैं—कभी दो वचन कहे, कभी चार वचन कहे। इन छोटे—छोटे वचनों ने लोगों के जीवन में निर्वाण का
स्वाद दे दिया है।
तुम चकित
होओगे कि हम तो सुनते हैं, हमें तो वैसा निर्वाण का
स्वाद नहीं होता, धम्मपद पढ़ लेने से हमें तो कुछ भी नहीं
होता। और धम्मपद में कथा आती है कि यह मरता हुआ आदमी बुद्ध के दो शब्द सुनकर
स्रोतापन्न हो गया, या अनागामी हो गया, अब दुबारा कभी लौटेगा नहीं संसार में। यह कैसे हुआ होगा! ये छोटे से दो
शब्द! यह सुनने के ढंग पर निर्भर है।
तुम्हारे
लिए धम्मपद एक किताब है। पढ़ ली, जैसे
और किताबें पढ़ लीं। धम्मपद के शब्द तुम्हारे लिए शब्द हैं, जैसे
और शब्द हैं। जिस व्यक्ति के जीवन में इसको सुनकर क्रांति घटी थी, उसने इसे उपदेश की तरह स्वीकार किया था; यह बुद्ध के
पास, निकट, निकट बैठ—बैठकर उनके रंग
में रंग गया था। फिर यह तो बहाना बन गया। इसने अपने हृदय के सारे द्वार खोल दिए थे,
इसने बुद्ध को भीतर आने दिया था।
बुद्ध के
पास और कुछ देने को है भी नहीं। उनके पास देने को है वह प्रेम, जो
तुम्हें शाश्वत से जोड़ दे। वह हवा का झोंका, जो तुम्हारी जन्मों—जन्मों की जमी हुई धूल को झाडू ले
जाए। जो तुम्हारे दर्पण को निर्मल कर दे। ऐसा निर्मल कि उस दर्पण में सत्य का
प्रतिबिंब बनने लगे!
अगर गुरु
के पास होने की कला तुम्हें आ गयी, तो क्रांति सुनिश्चित है।
दूसरा प्रश्न:
आदमी चलता ही रहता है—हार में, जीत में; सफलता में, असफलता
में; प्रेम में, विरह में। वह क्या है
जो उसे चलाए रखता है?
दो चीजें—अहंकार और
आशा। एक तो अहंकार चलाए रखता है। क्योंकि अहंकार कहता है, टूट जाना मगर झुकना मत, मिट
जाना मगर रुकना मत। एक तो अहंकार चलाए रखता है। कुछ भी हो जाए, अहंकार कहता है, चले चले जाओ। लड़ते रहो, जूझते रहो। 'अगर हार ही बदी है किस्मत में, तो भी लड़ते—लड़ते ही हारना। हार स्वीकार मत करना। अहंकार हार को स्वीकार
नहीं करने देता। और उसी कारण हम बुरी तरह हार जाते हैं।
जो हार
को स्वीकार कर लेता है, उसकी तो जीत शुरू हो गयी।
कहते हैं न—हारे को हरिनाम। जिसने हार को अंगीकार कर लिया, उसके
जीवन में तो हरि उतरना शुरू हो जाता है। संसार में जीत तो होती ही नहीं, हार ही होती है। जीत हो ही नहीं सकती। जीत संसार का स्वभाव नहीं है। वह
छोटी—मोटी जीत, जो तुम्हें दिखायी पड़ती है, बड़ी हारों की तैयारी है और कुछ भी नहीं। वह वैसे ही है जैसे जुआरी जुआ
खेलने जाता है। कभी—कभी जीत भी जाता है। वह जीत सिर्फ बड़ी हार के लिए आकर्षण है।
एक आदमी
के संबंध में मैं पढ़ रहा था। उसे दस हजार डालर वसीयत में मिल गए। उसने सोचा कि एक
बार जुआ खेलकर जितने बढ़ सकें ये डालर उतना बढ़ा लेना उचित है, ताकि जिंदगीभर के लिए फिर झंझट ही काम करने की मिट
जाए। वह अपनी पत्नी को लेकर जुआघर गया। वह सब हार गया, सिर्फ
दो डालर बचे। वह भी इसलिए बचा लिए थे कि होटल में लौटकर जाने के लिए रास्ते में
टैक्सी का किराया भी तो चुकाना पड़ेगा।
वह बाहर
आया, बाहर उसने पत्नी से कहा
कि सुन, आज पैदल ही चल लेंगे, यह दो और
लगा लेने दे। नहीं तो मन में एक बात खटकती रह जाएगी कि कौन जाने, यह दो के लगाने से जीत हो जाती! पत्नी ने कहा, अब
तुम जाओ, मैं तो चली।
वह आदमी
भीतर। उसने दो डालर दाव पर लगाए और जीत गया। और चला गया। हजार डालर तो दूर, उसके पास एक लाख डालर थे आधी रात—होते-होते। फिर उसने
सोचा, अब आखिरी दाव लगा लूं। उसने वह एक लाख डालर भी दाव पर
लगा दिए—अगर जीत जाता तो बीस लाख हो जाते—मगर वह हार गया।
आधी रात पैदल ही होटल वापस लौटा, दरवाजा खटखटाया, पत्नी ने पूछा,
क्या हुआ? उसने कहा, वह
दो डालर हार गया। वह दो डालर हार गया। उसने सोचा, अब एक लाख
की बात कहने का कोई मतलब ही नहीं। इतनी देर कहां रहे फिर? उसने
कहा, वह पूछ ही मत! अब वह दुख छेड़ ही मत! इतना तू जान लिए दो
डालर जो थे, वह भी हार गया हूं।
जुए का
खेल जैसा है जगत। यहां कभी—कभी जीत भी होती है—ऐसा नहीं है कि नहीं होती, जीत होती—मगर हर जीत किसी और बड़ी हार की सेवा में
नियुक्त है। हर जीत किसी बड़ी हार की नौकरी में लगी है। यहां कभौ—कभी सुख भी मिलता
है, नहीं कि नहीं मिलता, लेकिन हर सुख
किसी बड़े दुख का चाकर है। हर सुख तुम्हें किसी बड़े दुख पर ले आएगा। सुख भरमाता है।
सुख कहता है, सुख हो सकता है, घबड़ाओ मत,
भागो मत। तो आशा बनी रहती है कि शायद अभी हुआ, कल फिर होगा, परसों फिर होगा।
तो एक तो
आशा चलाती, एक अहंकार चलाता।
निराश्रित
भी चलेंगे,
पर कहा
तक?
कह नहीं
सकते।
कहां तक?
कह नहीं
सकते।
फिर वही
मधुकण झरेंगे
निशि—दिवस
पुलकित करेंगे
फिर सरस
ऋतुपति धरा को
फूल से
फल से भरेंगे
पर न अब
तुम दुख हरोगे
मन सुमन
पुलकित करोगे,
ध्वंस
में भी पलेंगे,
पर कहौ
तक?
कह नहीं
सकते।
फिर वही
सरगम सजेंगे
राग में
नूपुर बजेंगे
फिर सजग
हृद्तत्रियों के
गीत में
सप्तक मंजेंगे
पर न अब
तुम फिर बजोगे
श्लोक
बन—बनकर सजोगे
मौन में
भी ढलेंगे,
पर कहा
तक?
कह नहीं
सकते।
फिर वही
दीपक जयेगे
ज्योति
के मेले लगेंगे
फिर
सजीली घाटियों को
किरण
कंचन से भरेंगे
पर न तुम
अब फिर जगोगे
ज्योति
बन जीवन लोगे
धूम्र
में भी जलेंगे,
पर कहां
तक?
कह नहीं
सकते।
आदमी
बहुत बार जागने—जागने के करीब आ जाता है। तुम्हारा कोई प्रियजन मर गया। बड़े करीब
होते हो तुम बुद्धत्व के उस घड़ी में। जब तुम मौत के दुख में होते हो, बुद्धत्व बहुत करीब होता है। अगर पकड़ लो सूत्र तो
छलांग लग जाए। लेकिन तुम सूत्र पकड़ नहीं पाते, तुम दुख को
झुठला लेते हो। तुम अपने को समझा लेते हो, मना लेते हो। तुम
फिर नयी—नयी आशाओं के सपनों पर सवार हो जाते हो। दुख झकझोरता है, लेकिन तुम उस झकोरे को भी समा लेते हो अपने में। सात्वना बांध लेते हो,
सोचते हो, फिर सब ठीक हो जाएगा, फिर वसंत आएगा, फिर फूल लगेंगे।
यह भी सच
है कि जो चल बसा है, अब दुबारा तुम्हें न मिल
सकेगा, लेकिन इस पर ही कोई जीवन थोड़े ही समाप्त हो जाता है।
और भी लोग हैं, और भी प्रियजन हैं, और
जो आज प्रिय नहीं हैं कल प्रिय हो सकते हैं। जो हो गया, भूलो,
बिसारो— आशा कहती है—छोड़ो उसे, अभी बहुत कुछ
हो सकता है, भविष्य को देखो, अतीत पर
अटके मत रहो। और अहंकार कहता है, क्या इतनी जल्दी हार मान
लोगे? क्या इतने कमजोर हो?
अहंकारी
व्यक्ति धार्मिक व्यक्ति को बड़ी दया से देखता है। उसकी दया यही होती है कि बेचारे
ने हार मान ली। संन्यस्त हो गया! तो छोड़ दिया संघर्ष। समर्पण कर दिया! हथियार डाल
दिए! अहंकारी मान ही नहीं पाता यह बात कि कोई आदमी क्यों समर्पण करेगा! अहंकारी तो
कहता है, आखिरी दम तक लड़ते रहना।
अहंकारी तो लड़ने में जीवन मानता है। जब कि लड़ने में जीवन नहीं है, सिर्फ पीड़ा है। जीवन तो इस विराट के साथ एक हो रहने में है लड़ने में तो हम
विभाजित हो जाते हैं, अलग हो जाते हैं, टूट जाते हैं। लड़ने में तो ' एक द्वीप बन जाते हैं,
अलग—थलग। लड़ने में तो छोटा सा टुकड़ा इस विराट? खिलाफ खड़ा हो जाता है। धारा के विपरीत बहने की चेष्टा है लड़ना।
समर्पण
का अर्थ है, धारा के साथ जाना। हारे
को हरिनाम। स्वीकार कर लेते हैं कि मैं तो जीत ही नहीं सकताय यह मैं की बात ही जीत
नहीं सकती, यह मैं का श्नव ही जीत नहीं सकता। यह मैं ही हार
लिए हुए है। मैं असत्य है, इसलिए मैं जीत कैसे सकता है?
न—मैं जीतता है। लेकिन न—मैं का मतलब यह होता है, हार को परिपूर्णरूप से स्वीकार कर लेना। इसलिए हार में हार नहीं है,
हार में जीत है और जीत में हार है। जब तक तुम जीतते रहोगे, हारते रहोगे। जिस दिन तुमने हार स्वीकार कर ली, फिर
कैसी हार? फिर तुम जीत गए। यहां जो झुक गए, उन्होंने पा लिया, जो अकड़े रहे, वे वंचित रह गए।
पूछते हो, 'क्या चलाए रखता है?
तो एक तो
आशा, कि जो आज नहीं हुआ,
कल शायद हो जाए। शायद! क्यों न हो, औरों को
हुआ है, मुझे क्यों न होगा?
न औरों
को हुआ है, न तुम्हें होगा। किसको
हुआ है? इस संसार में कोई कभी जीता है!
सिकंदर
जब मरा, तो उसने कहा, मेरे हाथों को अर्थी के बाहर लटके रहने देना। उसके वजीरों ने पूछा कि आपका
मन—मस्तिष्क तो ठीक है? ऐसा कभी हुआ नहीं। यह तो कोई परंपरा
भी नहीं है कि अर्थी के बाहर हाथ लटके रहें, क्या मतलब है?
क्या चाहते हैं आप? सिकंदर ने कहा, मैं चाहता हूं, ताकि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ
जा रहा हूं? हारा हुआ। और अकेली एक ही अर्थी इस पृथ्वी पर
निकली है, सिकंदर की, जिसमें हाथ अर्थी
के बाहर लटके हुए थे। सभी अर्थिया ऐसी ही निकलनी चाहिए, ताकि
लोग देख लें कि हाथ खाली जा रहे हैं।
मजे की
बात तो यह है कि बच्चा जब आता है तो बंधे हाथ आता है। जब मरते हो, तब और जो लाए थे वह भी लुट गया, हाथ और खाली हो गया—हाथ बिलकुल खुले जाते हैं। शायद बच्चा कुछ लेकर भी आता
है—उस जगत की कोई गंध, उस जगत का कुछ आनंद, अहोभाव!
तुमने एक
बात खयाल की, कोई बच्चा कुरूप नहीं
होता। फिर ये सारे सुंदर बच्चे कहौ खो जाते हैं? यह सौंदर्य
कहां तिरोहित हो जाता है? बाद में तो मुश्किल से कभी कोई
आदमी सुंदर होता है, अधिक लोग कुरूप हो जाते हैं। यह सौंदर्य
उस लोक का है, दूसरे लोक का है, यह
छाया दूसरे लोक की है। ये बच्चे के निर्मल प्रतिबिंब बन रहे हैं, बच्चे के निर्मल मन पर, निर्मल दर्पण पर, अभा धूल नहीं जमी है। इसलिए बच्चे सुंदर हैं, साधु
हैं, प्रीतिकर हैं। धीरे—धीरे धूल जमेगी और सब खो जाएगा।
धीरे—धीरे धूल जमेगी, अहंकार अकको। और हमारे सारे शिक्षालय—स्कूलों
से लेकर विश्वविद्यालयों तक—सिर्फ अहंकार की शिक्षा देते हैं, महत्वाकाक्षा जगाते हैं, एम्बीशन पैदा करते हैं। कुछ
बनो, कुछ करके दिखा दो।
इसी कुछ
बनने और करने की शिक्षा का परिणाम है कि सारी दुनिया कलह और संघर्ष में लगी है। हर
आदमी एक—दूसरे के गले को दबा रहा है, और हर आदमी के हाथ दूसरे के खीसों में पड़े हैं, और
हर आदमी एक—दूसरे के साथ झपटने की कोशिश में लगा है। यहां मित्रता तो हो ही नहीं
सकती, क्योंकि जिनको तुम मित्र कहते हो, वे भी तुम्हारे प्रतियोगी हैं। यहां मित्रता नाममात्र को है, यहां सभी शत्रु हैं। यहां कौन मित्र है! यहां कैसे कोई मित्र हो सकता है!
बुद्ध ने
कहा है, मित्रता तो उसी से हो
सकती है जिसके साथ तुम्हारा कोई प्रतिस्पर्धा का संबंध न हो। मैत्री तो उसी से हो
सकती है जिसने महत्वाकाक्षा गिरा दी हो। इसलिए बुद्ध ने कहा है कि सिर्फ
बुद्धपुरुष ही मित्र हो सकते हैं। उनकी कोई महत्वाकाक्षा नहीं, तुमसे कुछ लेना नहीं, तुमसे कुछ देना नहीं। तुमसे
कोई संघर्ष ही नहीं, उनका संघर्ष ही नहीं रहा है। उन्होंने
हथियार फेंक दिए, और उन्होंने धारा को स्वीकार कर लिया है।
अब वे गंगोत्री की तरफं नहीं बहते, गंगासागर की तरफ जा रहे
हैं। धारा जहां ले जाएगी, वहीं उनका गंतव्य है। ऐसी हार में
ही जीत है।
क्यों? क्योंकि ऐसा हारा हुआ आदमी पूर्ण के साथ एक हो जाता है।
इसे मुझे इस तरह कहने दो, तुम जब तक हो तब तक हार है। जैसे ही तुम मिटे और
परमात्मा हुआ कि फिर जीत ही जीत है।
तीसरा प्रश्न:
क्या कारण है कि विश्व की लगभग सभी संन्यास की परंपराओं ने
भिक्षावृत्ति और अगृही होने को सनातन रूप से महत्व दिया है?
यह धारणा गलत है। ऐसा सच नही है। ऐसा
दिखायी पड़ता है, लेकिन ऐसा सच नहीं है।
विश्व की लगभग सभी संन्यास की परंपराओं ने भिक्षावृत्ति और अगृही होने को सनातन
महत्व नहीं दिया है। जरा भी नहीं दिया है।
हिंदू
अगर तुम उनके मूलभाव को समझो, तो
ऋषि—मुनियों को अगृही होने का उपदेश नहीं देते थे। और ऋषि—मुनि, वशिष्ठ या विश्वामित्र, या उपनिषद के सारे मनीषी
गृहस्थ ही थे। भला जंगल में रहते हों, उनकी पत्नियां थीं,
उनके बच्चे थे, उनका परिवार था। उपनिषद अगृही
भिखारियों ने नहीं लिखे हैं। उपनिषद संन्यस्त पुरुषों ने लिखे हैं, यह बात सच है; लेकिन वे संन्यस्त गृहस्थ ही थे।
तो हिंदू
परंपरा मौलिक रूप से सब छोड़कर भाग जाने
के पक्ष में नहीं है। और यहूदी परंपरा भी सब छोड़कर भाग जाने के पक्ष में नहीं है। यहूदी रबाई, उनका धर्मगुरु, उनका
धमोंपदेष्टा परिवार में रहता है। पत्नी है, बच्चे हैं,
परिवार है।
दुनिया
की दो बड़ी परंपराएं हैं—यहूदी और हिंदू। इन दोनों परंपराओं का जो मूलस्रोत है, वह अगृही संन्यासी के पक्ष में नहीं है। दुनिया के
तीन बड़े धर्म—यहूदी, इस्लाम और ईसाइयत—यहूदी परंपरा से पैदा
हुए हैं। और दूसरे तीन बड़े धर्म—हिंदू जैन और बौद्ध—हिंदू परंपरा से पैदा हुए हैं।
दोनों के स्रोत गृहस्थ को स्वीकार करते छैं, अगृही को नहीं।
गृही को स्वीकार करते हैं। तो न तो यहूदी, न इस्लाम, न ईसाई—ईसाई भी भिक्षावृत्ति पर भरोसा नहीं करता।
फिर
अगृही संन्यास कहां से पैदा हुआ? अगृही
संन्यास पैदा हुआ जैन. और बौद्धों से। और जैन और बौद्धों का अनुकरण करके शकसंचार्य
ने भी हिंदू परंपरा में अगृही संन्यास को प्रवेश करवाया। फिर जब इस्लाम भारत आया,
तो अगृही संन्यासी को देखकर इस्लाम में भी उसका परिणाम हुआ और सूफी
फकीर पैदा हुए। लेकिन, अधिकतम परंपराएं, बहुमत परंपराएं अगृही संन्यास के पक्ष मेँ नहीं हैं। मगर इसका प्रभाव पड़ा।
जैन और बौद्धों का प्रभाव पड़ा। उसका क्रारण भी समझने जैसा है।
अगर
तुम्हारे सामने जैन—मुनि खड़ा हो और हिंदू—मुनि खड़ा, तो तुम जैन—मुनि से प्रभावित होओगे। तुम चाहे हिंदू ही क्यों न होओ। तुम
—मुनि से प्रभावित होओगे, हिंदू—मुनि से नहीं। क्योंकि
हिंदू—मुनि तो तुम्हारे जैसा ही दिखाई पड़ेगा। प्रभाव तो विपरीत का पड़ता है। प्रभाव
तो उसका पड़ता है जो तुमसे थोड़ा भिन्न कर रहा हो। तुम्हारा ही जैसा! हिंदू—मुनि की
पत्नी होगी, बच्चे होंगे, घर—द्वार
होगा। तुम कहोगे, इसमें और मुझमें फर्क क्या है? यह तो हमीं जैसा है। अब इसको शान हुआ है कि नहीं, उसका
तो हमें कुछ भी पता नहीं चल सकता। ज्ञान तो कुछ भीतरी बात है, बाहर तो कुछ उसका हिसाब लगता नहीं। लेकिन. जैन—मुमि को कुछ हुआ है,
यह बप्हर से हिसाब लग जाता है। नग्न खड़ा है, घर—द्वार
छोड़ दिया है, इसको कुछ हुआ है!
फिर भोगी
मन को त्याग का बड़ा प्रभाव पड़ता है। यह तुम समझना। भोगी ही त्याग से प्रभावित होते
हैं। क्योंकि जिसको तुम पकड़ते हो, उसको
इस आदमी ने छोड़ दिया इसी में तो प्रभाव है। तुम धन के दीवाने हो, तुम रुपए गिनते रहते हो, और यह आदमी लात मारकर चला
गया। तुम कहते हो, चमत्कार है! यह आदमी पूज्य है। तुम्हारे
मन में होता है, कभी हमारी भी इतनी हिम्मत हो कि हम भी लात
मारकर चले जाएं, अभी तो नहीं है हिम्मत, लेकिन कम से कम इस आदमी के चरण तो छू सकते हैं। इसको तो कह सकते हैं कि
तुमने मारकर दिखाया।
तुम
स्त्री के पीछे दीवाने हो, कामवासना तुम्हें घेरे
रखती है; और तुमने देखा एक आदमी सारे जाल को छोड़कर अलग— थलग
खड़ा हो गया है ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर, तुम प्रभावित होते
हो। क्योंकि प्रत्येक कामी को कभी न कभी मन में यह बात उठती है कि कामवासना में
परतंत्रता है।
इसीलिए
तो कोई पति पत्नी से प्रसन्न नहीं, कोई पत्नी पति से प्रसन्न नहीं। प्रसन्न हो नहीं सकते। क्योंकि हम उससे
कभी प्रसन्न नहीं हो सकते जिस पर हमें निर्भर रहना पड़ता है। उसी में तो हमारी
गुलामी छिपी है,। पति जानता है कि पत्नी में मेरी गुलामी है,
इसके बिना मैं नहीं रह सकता। यह चार दिन मायके चली जाती है तो मुझे
मुश्किल हो जाती है। इसके बिना मेरा क्या होगा? तो स्वभावत:
इस पर क्रोध भी आता है। क्योंकि मैं इसके बंधन में पड़ा हूं।
इसीलिए
तो तुम्हारे अनेक शास्त्रों में स्त्रियों के प्रति बड़ी भद्दी और अभद्र बातें लिखी
हैं। जिन ने ये लिखी हैं, इनका मन स्त्रियों में
बहुत ज्यादा लगाव से भरा रहा होगा। सीधा—साफ है। गणित बिलकुल सीधा है। इनके मन में
स्त्रियों के प्रति प्रबल आकर्षण रहा होगा, इसीलिए ये नाराज
हैं।
इसलिए
तुम्हारे साधु—संन्यासी दो चीजों के बड़े खिलाफ हैं, कामिनी और काचन। क्योंकि ये दो ही चीजें खींचती हैं। या तो धन, या रूप। तो साधु—संन्यासी समझाते रहते हैं, कामिनी—कांचन
से सावधान! उनको भी घबड़ाहट है। और तुमको भी घबड़ाहट है, तुमको
भी बात तो जंचती है कि बात तो ठीक है, ये ही तो दो झंझट के
कारण हैं। जर, जोरू, जमीन। ये ही तीन
तो उपद्रव के कारण हैं।
फिर कोई
आदमी तुम्हारे बीच से, तुम्हारे जैसा आदमी एक
दिन अचानक छोड़कर चला जाता है। तुम बड़े
चकित हो जाते हो! तुम अवाक रह जाते हो। तुम कहते हो, है,
मर्द हो तो ऐसा! तुम्हारे मन में भी आकांक्षा तो यही है कि कभी ऐसा
मैं भी कर सकूं अभी नहीं कर पा रहा हूं, तो भी कम से कम इस
आदमी के चरण छूकर इसकी पूजा तो कर सकता हूं।
तो जब
जैन और बौद्ध संन्यासी पैदा हुए तो हिंदू संन्यासी एकदम फीका पड़ गया। उसकी कोई पूछ
ही न रही। क्योंकि लोग कहने लगे कि तुम काहे के संन्यासी! किस बात के संन्यासी हो?
तुम चकित
होओगे कि हिंदू—मुनि, उपनिषद का ऋषि—मुनि,
बिलकुल तुम जैसा ही गृहस्थ था। उसके भीतर कुछ हुआ था, लेकिन वह भीतरी था। अब भीतरी की जांच तो उन्हें हो, जिन्हें
भीतरी हो। बाहर से तो वह तुम जैसा था। कभी—कभी तो ऐसा होता था, तुमसे भी ज्यादा अच्छी हालत में था। क्योंकि राजा, सम्राट
उसके चरणों में आते, धन भेजते, धान्य
भेजते; तुमसे अच्छी हालत में था। देशभर के बड़े—बड़े परिवारों
के बेटे उसके पास पढ्ने आते, उनके साथ धन भी आता।
तो
गुरुकुल बड़े संपन्न थे। वहां वर्षा हो रही थी धन की। तो तुम्हें यह बात तो दिखायी
ही पड़ती होगी कि हमारे ही जैसे लोग, बातें भर ऊंची करते हैं, जीवन में कहा ऊंचाई है?
और बातें तो तुम्हारी समझ में भी नहीं आ सकती हैं, लेकिन जीवन तुम्हारी भी समझ में आ सकता है। वह तो अंधे को भी दिखायी पड़ता
है।
तो जब
जैन और बौद्ध भिखारी खड़े हुए, भिक्षु
खड़े हुए, संन्यासी खड़े हुए—अगृही, सब छोड़कर
खड़े हो गए—तों स्वभावत:, उनका प्रभाव पड़ा। तुम ऐसा समझो कि
एक हिंदू—मुनि, तुम्हारे जैसा, पत्नी
के साथ खड़ा है, बच्चों के साथ खड़ा है। फिर एक श्वेतांबर मुनि
सफेद वस्त्रों में अलग—थलग, न कोई पत्नी, न कोई बच्चे, अकेला खड़ा है। फिर एक दिगंबर—मुनि,
नग्न, वस्त्र भी नहीं। तीनों में किसके प्रति
तुम्हारे मन में ज्यादा समादर पैदा होगा? स्वभावत:, दिगंबर के प्रति पैदा होगा। इसलिए दिगंबर नहीं मानते कि श्वेतांबर—मुनि
में कुछ भी रखा है। क्या रखा है! कपड़े तो पहने ही हुए हो! ऊनी कपड़े का भी उपयोग कर
लेते हो सर्दी होती है तो। दिगंबर—मुनि को देखो, कपड़े का
उपयोग ही नहीं करता। सर्दी हो कि गर्मी हो, नग्न रहता है,
नग्न ही जीता है। तो दिगंबर तुम्हें भी प्रभावित करेगा। नंबर दो पर
श्वेतांबर आएगा। नंबर तीन पर हिंदू आएगा।
तो हिंदू
साधु—संन्यासी की प्रतिष्ठा गिर गयी एकदम, बौद्ध और जैनों के प्रभाव में। हिंदू धर्म विलुप्त होने लगा। इसलिए
शकराचार्य ने अनुकरण किया। शंकराचार्य ने हिंदुओं में नयी परंपरा डाली ठीक बौद्धों
और जैनों जैसे संन्यासी की। सब त्यागकर हिंदू—संन्यासी भी खड़ा हो।
जब
मुसलमान हिंदुओं के संपर्क में आए, जैनों के, बौद्धों के संपर्क में आए, तब उनको भी लगा कि संन्यास तो असली यही है। संन्यासी हो तो ऐसा हो।
यह बात
समझने जैसी है कि भोगी के मन में त्याग का बड़ा प्रभाव पड़ता है। यह तुम्हारा भोगी
का मन है जो त्याग से प्रभावित होता है, फिर त्यागी में कुछ हो या न हो। क्योंकि नग्न खड़े हो जाने से कुछ नहीं
होता है। और लोग जीवन के बड़े विरोधी हैं। यह भी एक संघर्ष की प्रक्रिया है। एक
आदमी ठंड में खड़ा है नग्न, तुम्हें प्रभावित करता है। क्यों?
क्योंकि यह भी एक तरह का संघर्ष कर रहा है। सर्दी को नहीं मानता।
जूझ रहा है। यह भी एक तरह के अहंकार की प्रक्रिया है। तुम संसार में लड़ रहे हो,
यह संन्यास में लड़ रहा है। मगर लड़ाई जारी है।
अब एक
आदमी मजे से बैठा है दुशाला ओढ़कर शांति से, यह तुम्हें न जंचेगा कि इसमें क्या संघर्ष है! दुशाला ओढ़कर तो हम भी शांति
से बैठ जाते हैं। एक आदमी छप्पर के नीचे शांति से बैठा है, यह
तुम्हें प्रभावित न करेगा। एक आदमी धूप में खड़ा है, यह
तुम्हें प्रभावित करेगा। एक आदमी अपने पैर पर खड़ा है, यह
तुम्हें प्रभावित न करेगा। एक आदमी सिर के बल खड़ा है, बीच
बाजार में, भीड़ लग जाएगी। उलटे आदमी बहुत प्रभावित करते हैं।
इसलिए
जैनों और बौद्धों का बड़ा प्रभाव पड़ा। मैं यह नही कह रहा हूं कि जैनों और बौद्धों
के संन्यास में कुछ भी नहीं है, मैं
सिर्फ प्रभाव का कारण बता रहा हूं। जैनों और बौद्धों के संन्यास में भी वही घटा जो
हिंदुओं के ऋषि और मुनि को घट रहा था। क्योंकि उसका कोई संबंध नहीं है इस बात से
कि घर में हो कि बाहर हो वहू कहीं भी घट जाता है। परमात्मा ने कोई शर्त नहीं लगा
रखी है कि मैं यहीं घटूगा। कपड़े पहनोगे तो नहीं घटूंगा, कपड़े
नहीं पहनोगे तो घटूगा। कि पत्नी होगी पास तो नहीं घटूगा, कि
पत्नी नहीं होगी पास तो घटूगा। परमात्मा बेशर्त उपलब्ध है।
इसलिए
उनको भी उपलब्ध हुआ है जो परिवार में थे। जनक जैसे व्यक्ति को भी उपलब्ध हो गया है, जो सम्राट था। और उनको भी उपलब्ध हुआ है जो सब छोड़कर
जंगल में चले गए। क्योंकि परमात्मा बाजार
में भी उतना है जितना जंगल में। परमात्मा सब जगह है, उसके
अतिरिक्त कोई है ही नहीं। इसलिए उसे पाने के लिए कोई शर्त नहीं है।
यह मौज
की बात है, किसी को नग्न होने में
मौज आती है, वह नग्न हो जाए। मगर नग्नता को त्याग मत केहना,
मौज कहना। कहना कि इस आदमी को नग्न होने में मजा आता है, यह प्रसन्न होता है। नग्न होने की भी मौज है। वस्त्रों मेँ एक तरह का बंधन
है। एक तरह का अटकाव है।
तु मने
कभी देखा, एकात में जाकर अगर नदी के
किनारे तुम नग्न हो गए हो सूरज की धूप तुम पर पर्र्डा है, हवाओं
ने तुम्हें छुआ है, तो एक तरह की स्वतंत्रता का बोध होगा।
इसलिए सारी दुनिया में जहां—जहां संस्कृति विकसित होती है, वहा—वहां
नग्नता बढ़ने लगती है। नग्न क्लब बनते हैं। नग्न स्नान के लिए मुक्त बीच हो जाते
हैं। बढ़ती जाती है। क्योंकि नग्नता में एक तरह की पुलक है। नग्नता में फिर तुम
छोटे बच्चे के जैसे हो गए। जब वस्त्रों का आवरण भी न था, जब
कुछ भी छिपाते न थे। जब सब सीधा—साफ था। तुम खुले—खुले थे, निष्कपट
थे।
तो मैं
नग्नता को त्याग नहीं कहता। मैं तो नग्नता को मौज कहता हूं। वह भी भोग का एक ढंग
है। बहुत सामान तुम्हारे घर में हो, इससे तुम्हारी स्वतंत्रता कम '
होती है। क्योंकि जितना सामान हो उतनी चिंता होती है। सामान जितना
कम हो उतनी स्वतंत्रता होती है। जिसके पास सिर्फ जरूरत का है, उसकी स्वतंत्रता बड़ी होती है। तो त्याग नहीं कहता मैं त्याग को, मैं समझदारी कहता हूं। वह बुद्धिमानी है। त्याग कहने से गड़बड़ पैदा होती
है। त्याग कहने से भोगी प्रभावित होता है। मैं उसे परमभोग कहता हूं। वह तुमसे
ज्यादा समझदारी की बात है। क्यों झंझट पालो? क्यों बहुत तरह
की झंझट में रहो? अगर झंझट के बिना रह सकते हो, तो खूब मजे की बात है। अगर झंझट में कोई नहीं है, तब
तो फिर कोई बात ही नहीं है।
इसलिए
मैं नहीं कहता जनक को कि तुम छोड़कर जाओ।
और मैं नहीं कहता महावीर को कि तुम छोड़कर मत जाओ। मैं कहता हूं, महावीर की यह मौज हैं कि वह छोड़कर जाएं और नग्न होकर
आनंद लें, यह उनका ढंग। भेजे से लें,
उन पर किसी का कोई बंधन नहीं होना चाहिए। और यह जनक की मौज कि उसे कोई अड़चन ही
नहीं आ रही है राजमहल में, तो वह जाए क्यों ' वह राजमहल में भी उसी परमदशा को उपलब्ध हो रहा है। तो ठीक है, वहीं उपलब्ध हो जाए।
अलग—अलग
ढंग के लोग हैं। दुनिया में एक जैसे लोग नहीं हैं। अब तुम समझो इस बात को। एक सूफी
कहानी है।
दो फकीर
साथ—साथ रहते हैं। दोनों में बड़ा विवाद होता है। विवाद इस बात का था कि एक आदमी
पैसा पास रखने में मानता था। वह कहता था, कुछ पैसे तो पास होने ही चाहिए। वक्त—बेवक्त जरूरत पड़ जाती है। उसकी बात
भी गलत तो नहीं थी। दूसरा कहता है कि पैसे पास रखने से झंझट रहती है, रात ठीक से सो भी नहीं सकते, खयाल बना रहता है,
कोई चुरा न ले! कोई गठरी न ले जाए! और फिर पैसे पास रहते हैं तो यह
खयाल बना रहता है कि खर्च न हो जाएं। तो बचाए रखो, बचाए रखो।
ये सब फिजूल की चिंताएं हैं। और फिर परमात्मा पक्षियों को दे रहा है, पौधों को दे रहा है, तो हमारी फिक्र न करेगा?
और वह
दूसरा फकीर कहता कि परमात्मा ने तुम्हारी फिक्र की, तुमको बुद्धि दै दी, अब बुद्धि का मतलब यह है कि
बुद्धि से चलो। बुद्धि कहती है, पैसा सम्हालकर रखो, थोड़ा पैसा पास रखो। पशु—पक्षियों को बुद्धि नहीं दी है, इसलिए उनकी फिक्र सीधी करता है। तुम्हारी सीधी फिक्र की कोई जरूरत नहीं।
छोटा बच्चा है, तो बाप उसका हाथ पकड़कर चलता है। जवान हो गया,
फिर हाथ पकड़कर चले तो बात भद्दी लगती है। आदमी जवान हो गया, आदमी प्रौढ़ हो गया। पशु—पक्षियों की सीधी फिक्र करता है, नहीं तो ये तो मर ही जाएंगे। आदमी की सीधी फिक्र नहीं करता है, क्योंकि आदमी अब अपनी फिक्र करने में खुद समर्थ हो गया। ऐसा उनमें विवाद
चलता रहता।
पहला
फकीर कहता कि यह सब अविश्वास है, परमात्मा
पर तुम्हारी श्रद्धा नहीं है। अगर उस पर भरोसा है, तो जिसने
आज तक फिक्र की, कल भी करेगा। आखिर मुझे देखो न! तुम्हीं तो
नहीं जी रहे, मैं भी जी रहा हूं। बिना पैसे के भी जी रहा
हूं। एक दिन ऐसी घटना घटी कि दोनों यात्रा करके आए, जंगल में
रास्ता भूल गए, एक नदी के किनारे पहुंचे। इस तरफ बड़ा खतरा था,
रात रुकना बहुत मुश्किल था और नाव वाला रुपया मांगता था। एक रुपए से
कम में उतारने को तैयार नहीं था। वह कहता, अब मैं घर जा रहा
हूं, दिनभर से थक गया हूं, अब अगर चलना
हो तो एक रुपया लूंगा। ऐसे तो दो पैसे में उतारता था! और जिसके पास पैसा था,
उसने कहा, कहो, अब क्या
इरादा है! उतरना कि नहीं उतरना? जो पैसे के खिलाफ था,
वह सिर्फ मुस्कुराया, उसने कुछ कहा नहीं।
दोनों
नाव में बैठे, पैसे वाले ने एक रुपया
मांझी को दिया, दोनों उस तरफ उतर गए। तब उस पैसा देने वाले
फकोर ने कहा, आज तो मानोगे कि हार गए! उसने कहा कि नहीं।
उसने कहा, हुद्द 'हो गयी, आज मेरे पास रुगया न होता तो हम मरते, उस तरफ जंगल
खतरनाक था, जंगली जानवर थे रात रुकना खतरे से खाली नहीं था।
रुपया था तो हम पार हुए। उस दूसरे फकीर ने कहा, रुपए के होने
की वजह से पार नहीं हुए, रुपया तुम दे सके इसलिए पार हुए।
रुपया छोड़ सके, इसलिए पार हुए। अगर तुम पकड़े रहते तो हम मरते
उसी तरफ। विवाद अपनी जगह रहा।
दोनों
बातें अर्थपूर्ण हैं। दोनों बातों की गहराइया हैं। अमरीका में लोग सोचते 'हैं कि धन स्वतंत्रता लाता है। उस बात में भी सचाई है।
धन एक तरह की स्वतंत्रता लाता है। धन पास न हो तो एक तरह की परतंत्रता होती है।
तुम एक बड़े मकान में रहना चाहते हो, धन नहीं है तो नहीं रह
सकते, तो परतंत्रता हौ गयी। तुम एक बड़ी कार खरीदना चाहते हो,
धन नहीं है तो नहीं खरीद सकते, तो परतंत्रता
हो गयी। तुम आज इस होटल में जाकर भोजन करना चाहते थे, जेब
खाली है तो नही जा सकते, तो परतंत्रता हो गयी। तो अमरीकन
दलील में भी सार तो है। वह उस दूसरे फकीर की दलील है, जो
कहता था, पैसे पास होने चाहिए, तो आदमी
में बल होता है, स्वतंत्रता होती है। तो अमरीका में एक पकड़
है कि पैसा हो तो स्वतंत्रता होती है।
लेकिन
महावीर और बुद्ध की बात भी गलत नहीं है। वे कहते हैं, पैसा हो तो चिंता होती है। और उनकी बात के लिए अमरीका
में काफी प्रमाण हैं। चालीस सोल की उम्र होते—होते जिस आदमी के पास पैसा है,
या तो उसके पेट मे अल्सर हो जाते हैं, या
मस्तिष्क खराब होने लगता है, या हार्ट अटैक पड़ने लगते,
कुछ न कुछ गडबड शुरू हो जाती। अमरीका में तो कहा जाता है कि चालीस
साल के हो गए और अगर हार्ट अटैक न हुआ तो इसका मतलब है, जिंदगी
बेकार गयी। इसका मतलब है कि तुम असफल आदमी हो। सफल आदमी को तो होता ही है, चालीस—बयालीस साल, मतलब होना ही चाहिए। सफल आदमी का
मतलब यह होता है कि इतना तनाव होगा कि हृदय दुर्बल हो जाएगा। क्या खाक सफलता मिली!
भिखमंगों
को नहीं होता, यह बात सच है।
चालीस—बयालीस साल क्या, उनको अस्सी साल तक भी नहीं होता। वे
इस बीमारी को जानते ही नहीं। हमारे देश में भी यह खयाल तो था, इसलिए हम इस तरह की बीमारियों को जैसे टुबरकोलेसिस को, क्षयरोग को राजरोग कहते थे। वह सिर्फ कभी राजाओं को होता था। फिर राजा तो
रहे नहीं—सभी लोग राजा हो गए—इसलिए अब सभी को होने लगा।
सफलता की
एक तकलीफ तो है, चिंता लाती है। तो महावीर
और बुद्ध की बात में भी बल है। दोनों तर्क सही हैं।
मेरा
खयाल यह है कि दोनों तर्क अलग—अलग लोगों के लिए लागू हैं। अगर जनक को कितना ही धन
दे दो तो भी अल्सर नहीं होगा, यह
पक्का है। और हार्ट अटैक भी नहीं होगा, यह भी पक्का है।
तुम्हें अगर अड़चन हो तो तुम लाकर धन मुझे दे सकते हो और परीक्षा ले सकते हो! लेकिन
महावीर को तकलीफ होगी, बुद्ध को तकलीफ होगी, शंकर को तकलीफ होगी। तकलीफ होती हो तो छोड़ ही देना चाहिए। तकलीफ होती हो
तो धन धन न रहा, मौत हो गयी।
दो तरह
के लोग हैं दुनिया में। एक, जिन्हें वस्तुओं के कारण
अड़चन होती है। तो उन्हें छोड़ ही देना चाहिए। एक, जिन्हें
वस्तुओं के कारण कोई अड़चन नहीं होती। जो वस्तुओं का सरलता से उपयोग कर सकते हैं और
जिससे उन्हें कोई अड़चन नहीं आती। उन्हें मजे से उपयोग करना चाहिए।
हिंदू
यहूदी, ईसाई, इस्लाम अगृही संन्यासी के पक्ष में नहीं हैं, गृही
संन्यासी के पक्ष में हैं। जैन, बौद्ध और शंकर को मानने वाले
हिंदू अगृही संन्यासी के पक्ष में हैं। मैं दोनों के पक्ष में हूं। किसी के विरोध
में नहीं हूं। मैं मानता हूं? जो तुम्हें उचित लगता हो,
उस तरफ से चल पड़ना। जिसमें तुम्हारा तालमेल बैठता हो, तुम्हारा सरगम जुड़ जाता हो, वही कर लेना।
लेकिन यह
प्रश्न ठीक नहीं है पूछना कि 'क्या
कारण है कि विश्व की सभी संन्यास—परंपराओं में भिक्षावृत्ति और अगृही होने को
सनातन रूप से महत्व दिया है?' नहीं। सनातन रूप से तो दो
परंपराएं हैं, यहूदी और हिंदू। ये बड़ी प्राचीन परंपराएं हैं।
इन दोनों ने ही अगृही को कोई मूल्य नहीं दिया है। इन्होंने गृही संन्यासी को मूल्य
दिया है। और मेरी दृष्टि यह है कि दुनिया में बहुत लोग अगृही नहीं हो सकते। व्यवस्थागत
रूप से भी नहीं हो सकते। क्योंकि अगर बहुत लोग अगृही हो जाएं, तो अगृही को निर्भर तो गृही पर होना पड़ता है!
इसलिए
अगर जैनों की बहुत संख्या नहीं बढ़ी तो कोई आश्चर्य नहीं है। बढ़ नहीं सकती। आखिर
जैनों की संख्या ज्यादा कैसे बढ़ सकती है? अगर समझो कि हिंदुस्तान में बीस करोड़ जैन—मुनि हो जाएं, तो क्या करोगे ' तब एक ही उपाय रहेगा कि मुनियों को
मारो। जैसे अभी बर्थ—कंट्रोल के लिए फिक्र करनी पड़ती है, नसबंदी
करते हो, उनकी गलाबंदी करो। फिर उनके गले में फासी लगाओ। क्योंकि
बीस करोड़ अगर चालीस करोड़ के मुल्क में भिक्षावृत्ति करने लगें, तो भिक्षा देगा कौन?
ऐसा हो
रहा है। थाइलैंड में चार करोड़ आबादी है, पचास लाख बौद्ध भिक्षु हैं। चार करोड़ की आबादी में पचास लाख भिक्षु! हर आठ
आदमी में एक आदमी भिक्षु। सरकार को नियम बनाना पड़ रहा है कि अब भिक्षुओं को काम
करना पड़ेगा। काम करना ही पड़ेगा उनको। करना ही चाहिए। नहीं तो यह एक आदमी महंगा पड़
रहा है। और यह संख्या रोज बढ़ती जाती है।
दुनिया में
व्यवस्थागत रूप से भी अगृही संन्यासी योग्य नहीं है। कुछ लोग अगृही हो जाएं, ठीक है। उनको हम चला सकते हैं। जैसे कुछ लोग कवि हो
जाते हैं, ठीक है। ऐसे कुछ लोग संन्यासी हो जाते हैं,
ठीक है। इनसे समाज में सौरभ बढ़ता है। हौ, कभी
एकाध महावीर नग्न खड़े हो जाते हैं, बिलकुल ठीक है। इससे समाज
में कुछ कमी नहीं होती, समाज की गरिमा बढ़ती है। लेकिन अगर
बीस करोड़ आदमी नग्न खड़े हो जाएं, तो समाज ही खो जाएगा,
गरिमा की तो बात ही छोड़ दो।
इसलिए
हिंदू और यहूदियों की पकड़ ज्यादा साफ है। ज्यादा व्यावहारिक है कि संन्यास ऐसा
होना चाहिए जो जीवन की सहजता में फलित हो। जीवन के कोई अतिरिक्त ढाचे उसके लिए
बनाने न पड़े। आदमी घर में, दुकान पर बैठे—बैठे,
काम करते—करते धीरे—धीरे संन्यस्त हो जाए। मरने की घड़ी आते—आते इस
स्थिति में आ जाए कि जीवन को सरलता से छोड़ दे।
भविष्य
में भी जैन और बौद्ध परंपरा का कोई बहुत बड़ा भविष्य नहीं है। भविष्य भी बौद्ध और
जैन परंपरा को पाल नहीं सकेगा, सम्हाल
नहीं सकेगा। यहूदी और हिंदू परंपरा भविष्य में भी सम्हाली जा सकती है। किसी भी
स्थिति में सम्हाली जा सकती है।
लेकिन
फिर भी मै यह कहूंगा कि कुछ लोग सदा ही आनंदित होंगे सब छोड़कर । जो सब छोड़कर आनंदित हों, उनको भी मौका होना चाहिए, लेकिन यह शिक्षण बहुत गहरा
नहीं होना चाहिए कि छोड़े बिना कोई परमात्मा को नहीं पहुंचता। क्योंकि इस कारण बड़ा
उपद्रव होता है। जिनको छोड़कर कोई आनंद
नहीं उपलब्ध होता, वे भी परमात्मा को पाने के लोभ में छोड़ देते
हैं।
तुम देखो, महावीर की प्रतिमा है, कैसी
प्रफुल्लित! कैसी स्वस्थ! कैसी शात! तुम जैन—मुनि की कतार लगाकर देखो, वह बिलकुल उदास, थका—मादा, सुस्त,
जीवन—ऊर्जा क्षीण। ऐसा नहीं लगता कि वह किसी आनंद को उपलब्ध हुआ है,
सौंदर्य को उपलब्ध हुआ है, किसी अहोभाव को उपलब्ध
हुआ है। वह हो भी नहीं सकता अहोभाव को उपलब्ध। भोजन पूरा लेता नहीं।
अभी
वैज्ञानिक खोज करते हैं कि अगर तुम एक दिन भी सुबह का नाश्ता न लो, तो उस दिन तुम्हारी बौद्धिक क्षमता पैंतीस प्रतिशत कम
हो जाती है। अब इस सबके लिए वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि तुम्हारी बौद्धिक क्षमता
तुम्हारे भोजन की पुष्टता पर निर्भर करती है। कितना पौष्टिक भोजन तुम लेते हो!
क्योंकि तुम्हारा मस्तिष्क आत्मा से नहीं चलता है, तुम्हारा
मस्तिष्क शरीर का हिस्सा है। और शरीर से रस बहते रहें तो ही चलता है।
अब अगर
जैन—मुनि की प्रतिभा क्षीण हो जाती है, दुर्बल हो जाती है— प्रतिभाशून्य हो जाता है, थोड़ा
जड़ मालूम होने लगता है, कोई आश्चर्य नहीं है। होगा ही ऐसा,
होना ही चाहिए। यह बिलकुल वैतानिक है। उपवास, एक
बार भोजन, वह भोजन भी बहुत पौष्टिक नही—क्योंकि पौष्टिक भोजन
से घबड़ाहट है। पौष्टिक भोजन का अर्थ है, वह तुम्हारे भीतर
वीर्य—ऊर्जा को बनाएगा। और ब्रह्मचारी उससे घबड़ाता है, कि
जैसे—जैसे वीर्य बनेगा, वैसे—वैसे कामना उठेगी। तो वह ऐसा
भोजन लेता है जिससे वीर्य न बने। मगर यह कोई ब्रह्मचर्य हुआ! यह तो कोई ब्रह्मचर्य
न हुआ। और जब वीर्य—ऊर्जा नहीं बनती, तो जीवन से सारा तेज खो
जाता है। ये भयभीत लोग हैं। इनको संन्यस्त कहो ही मत।
इसलिए
मैं यह बात तुम्हें साफ करना चाहता हूं कि अगर किसी को आनंद आता हो छोड़ देने में
उदासी न आती हो, तो ठीक है, जरूर छोड़े। हम कुछ ऐसे लोग चाहेंगे दुनिया में जो सब छोड़कर जीएं। वे प्यारे लोग हैं। उनकी जगह होनी चाहिए।
उनका सम्मान होना चाहिए। उनकी फिकर होनी चाहिए। लेकिन कोई आदमी अगर सिर्फ इसलिए
छोड़ देता हो कि बिना छोड़े भगवान मिलने वाला नहीं, तो गड़बड़
खड़ी हो गयी। तो यह आदमी उदास होगा, क्षीण होगा, दीन होगा। इसकी प्रतिभा मरेगी। इस पर धूल जम जाएगी।
एक जैन—मुनि
को मेरे पास लाया गया। उनके भक्त कहें कि बड़े तपस्वी हैं, आप तो देखते ही से प्रसन्न हो जाएंगे, स्वर्ण जैसी काया। मैंने कहा कि जरूर लाओ। स्वर्ण—कायाओं में मेरी
उत्सुकता है। तुम जरूर ले जाओ। वे लाए। मैंने कहा, इसको तुम
स्वर्ण—काया कहते हो? इसको पीतल की काया भी कहना ठीक नहीं।
वह सिर्फ बिचारे रुग्ण हो गए हैं, पीले पड़ गए हैं। पीले
पत्ते को स्वर्ण—काया कहते हो! इनको तुम मारे डाल रहे हो, स्वर्ण—काया
कह—कहकर इनकी जान ले रहे हो। क्योंकि जब लोग स्वर्ण—काया कहते हों, तो यह और उसका स्वर्ण—काया बनाए जा रहे हैं। इनको तुम खाने नहीं देते,
सोने नहीं देते, बैठने नहीं देते, उठने नहीं देते। तुम्हारा सारा सम्मान दुखवादी का सम्मान है।
तुम खयाल
रखना, जब तुम किसी को सम्मान
देते हो तो सोचकर देना। कहीं तुम्हारे सम्मान के कारण उसके जीवन में कुछ गलत तो
नहीं हो रहा है? अब अगर तुम उपवास करने वाले को सम्मान देते
हो, तो सोचकर देना। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हारे सम्मान
पाने के लिए उपवास करता चला जाए। तो तुमने उस आदमी को भूखा मारा। उसका जिम्मा
तुम्हारे ऊपर है। तुम हिंसक हो। तुम अगर किसी आदमी को इसलिए सम्मान देते हो कि यह
खड़ा ही रहता है।
एक सज्जन, एक गांव में मैं गया, उनका नाम
खडेश्वरी बाबा! वह खड़े ही हैं दस साल से। बैसाखिया लगा रखी हैं, हाथ ऊपर बांध रखे हैं उनके—पैर तो हाथी—पांव हो गए, सूज
गए हैं—और लोग भीड़ लगाए हैं, रुपए चढ़ा रहे हैं, फूल चढ़ा रहे हैं। वह आदमी बिलकुल ऐसा, ऐसा लटका है,
जैसे कि तुम कभी—कभी कसाई—घर में बकरे इत्यादि को लटके हुए देखो।
हालत उसकी खराब है। सारा शरीर रुग्ण हो गया है। क्योंकि दस साल से बैठा नहीं,
लेटा नहीं, सोया नहीं। बस ऐसा रात में हाथ को
रस्सी पकड़े हुए और शिष्य भी सहारा दिए रहते हैं, वह रात किसी
तरह झपकी ले लेते हैं। पैर सूज गए हैं—अब तो वह बैठ भी नहीं सकते, अब तो पैर मुड़ भी नहीं सकते। और लोग पूजा किए जा रहे हैं।
और उन
पूजा करने वालों को किसी को भी यह खयाल नहीं है कि तुम सब पापी हो। तुम्हारा
जिम्मा है, तुमने इस आदमी को बरबाद
किया है। और यह किसी काम का नहीं है। सिर्फ खडेश्वरी होने से काम क्या है? प्रयोजन क्या है? इस आदमी ने कोई गीत लिखा, कोई चित्र बनाया, कोई मूर्ति खोदी, कोई सत्य खोजा? इस आदमी ने किया क्या है? नहीं, वे कहते हैं, यह सिर्फ
खड़े हैं दस साल से। थोड़ा सृजनात्मक भी हो जीवन। सिर्फ खड़े होने का क्या मूल्य है? झाड खड़े हैं, पहाड़ खड़े है। मैं यह पूछता हूं? इसने किया क्या? वे कहते हैं, नहीं, करने की तो कोई बात ही नहीं है, बस महाराज खड़े हैं।
और तुम
इनकी पूजा कर रहे हो कि महाराज खड़े हैं। थोड़ा सोचकर सम्मान देना। क्योंकि सम्मान
बड़ा घातक हो सकता है। सम्मान अहंकार को भरता है। और जब अहंकार भरने लगे, तो आदमी कुछ भी करने को राजी हो जाता है। तुम किसी का
अहंकार भरो, वह कुछ भी करने को राजी हो जाएगा।
इसलिए
मैं मानता हूं कि कुछ लोग जरूर छोड़कर आनंदित होते हैं, उनको छोड़कर आनंदित होना चाहिए।
कुछ लोग जरूर जंगल में जाकर परम प्रसाद को उपलब्ध होते हैं, उन्हें
जंगल जाना चाहिए।
लेकिन ये
थोड़े से लोग होंगे, इक्के—दुक्के, कभी—कभी। और ये होते रहें, अच्छा है। लेकिन यह
संन्यास की सहज धारणा नहीं बननी चाहिए। बड़े पैमाने पर अधिक लोग तो संन्यस्त तभी हो
सकेंगे जब जीवन की सहजता में संन्यास उतरे। दुकान जाते, घर
काम करते, बेटे—बच्चों को पालते, पत्नी—पति
की फिक्र करते, इस जीवन के घनेपन में संन्यास उतरे।
इसलिए
मैंने संन्यास को एक नया रूप दिया। नया सिर्फ इसलिए कि पुराना खो गया, अन्यथा बहुत पुराना है। मैं जिसको संन्यासी कहता हूं.
मेरे पास हिंदू आ जाते हैं, वे कहते हैं, यह कैसा संन्यास ' मैं उनसे कहता हूं, तुम पागल हो गए हो! तुम अपने ऋषि—मुनियों को बिलकुल भूल ही गए हो! वे घर
में थे। कथाएं उपनिषद में पढ़ो।
जनक ने
एक बहुत बड़ा शास्त्रार्थ का आयोजन करवाया और एक हजार गाएं खड़ी कर दीं महल के द्वार
पर। उनके सींगों पर सोना पढ़ दिया और हीरे—जवाहरात जड़ दिए और कहा, जो शास्त्रार्थ में जीत लेगा, वह
इन एक हजार गायों को ले जाएगा। याशवल्ल अपने विद्यार्थियों को लेकर आया गुरुकुल
से। दोपहरी हो गयी थी और गाएं पसीने में खड़ी थीं, धूप पड़ रही
थी। याज्ञवल्ल ने अपने विद्यार्थियों से कहा, बेटे, गायों को तुम खदेड़कर ले जाओ आश्रम में, विवाद मै
निपटा लूंगा 1 जनक भी थोड़ा घबड़ाया। इतना भरोसा! कि जीत का इतना भरोसा!! किसी ने
कहा भी कि महाराज, पहले विवाद तो आप जीत लें। उसने कहा,
छोड़ो, गाएं धूप में बहुत थकी जा रही हैं! उसने
तो अपने विद्यार्थियों को आज्ञा दे ही दी। और विद्यार्थी गाएं खदेड़कर ले भी गए।
विवाद उसने बाद में जीत लिया।
अब यह जो
आदमी एक हजार गाएं खदेड़कर ले गया आश्रम में, सोने से मढ़े थे उनके सींग, हीरे—जवाहरात लगे थे उनके
सींगों पर, यह आदमी सीधा—सादा आदमी है। यह कोई त्यागी नहीं
है। यह भोगी नहीं है यह बात पक्की है, लेकिन यह त्यागी भी
नहीं है। यह एक और ही दशा है। यह साक्षीभाव की दशा है। यह सिर्फ द्रष्टामात्र है।
यह सिर्फ देख रहा है।
जनक को
यह बात जंची। जनक खुद भी द्रष्टाभाव में ही ठहरे हुए थे।
तो दो
उपाय हैं। या तो छोड़कर भाग जाओ या साक्षी हो जाओ। या तो भागो, या जागो। मेरा जोर जागने पर है। मैं मानता हूं कि कुछ
लोग भागते रहें, उचित है। कुछ फूल अनूठे भी खिलते रहने
चाहिए। लेकिन अनूठे फूलों के लिए सारी बगिया खराब नहीं की जा सकती। गुलाब भी खिले,
ठीक है गेंदा भी खिले ठीक है; चंपा भी खिले,
ठीक है, सब तरह के फूल खिलें। इस पृथ्वी पर सब
तरह की संभावनाएं वास्तविक बनें। धर्म सभी तरह की संभावनाओं के द्वार खोलता है। और
जो धर्म भी एक संभावना का द्वार खोलता है और शेष के बंद कर देता है, वह सभी के हित में नहीं है। उससे सबका हित नहीं हो सकता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान श्री, यह
घटना अत्यंत सच है। कल सुबह छह बजे टेप से आपका आधा प्रवचन सुना। तीन साल से सोचता
था और सुनने के बाद मैंने निश्चय किया कि कल मुझे आपसे एक प्रश्न पूछना है। प्रश्न
नीचे है।
प्रश्न की पहली
पंक्ति थी— ' अभी मैं आयकी नजर के
सामने नहीं हूं? परंतु गत बारह वर्षो से आप निरंतर मेरी नजर
के सामने हैं। आपसे मुझे सिर्फ एक प्रश्न पूछना है..। यह निश्चित कर मैं कल प्रवचन
में उपस्थित हुआ; तीन साल दरम्यान नहीं हुआ, सो हुआ। आपने प्रवचन में मेरा नाम लेकर मुझे आश्चर्य से भर दिया। मेरे
पहले प्रश्न की पहली पंक्ति खंडित हो गयी। घटना अत्यंत छोटी लगती है, परंतु अत्यंत अदभुत है। अब प्रश्न :
1 दिसंबर 1971 को आप हमारे घर मेहमान थे। उस समय आपने
मुझसे कहा था— 'माणिक बाबू? आप इस झंझट
से मुक्त हो जाओ। ' आपका वचन वहीं छूट गया। 72—74 में स्वास्थ्य, वित्त, कुटंब
व समाज के तलों पर अच्छी उपलब्धि रही; यह सब आपके आशीर्वाद
से हुआ, हम यही मानते हैं। 17 जून 1976 को मेरे पचास वर्ष
पूरे हुए और मैंने संन्यास लिया। इसके बाद मैंने सामाजिक व्यवहार बहुत कम कर दिया।
स्वास्थ्य की बात रही, तो 1० फरवरी को मुझे ज्ञात हुआ कि
मुझे हृदय—रोग है। 21 मार्च को मालूम हुआ कि संजय गांधी हार गए जिससे उनको दिया
गया बड़ा धन—पांच लाख रुपए—झंझट में पड़ गया। परसों सुबह अग्निकांड में काफी नुकसान
हुआ। और इन घटनाओं को मैं अपनी संन्यास की आंखों से देखता हूं—और अविचलित चित्त से
देखता हूं। कष्ट तो है, पर क्या चित्त की शांति उससे अलग नहीं
है?
पूछा है
मणिक बाबू ने।
अगर मैं
तुम्हारी आंखों के सामने सदा हूं तो यह असंभव है कि तुम मेरी आंखों के सामने सदा न
होओ। सच तो यह है, तुम मुझे अपनी आंखों के
सामने सदा तभी रख सकते हो, जब मैंने तुम्हें अपनी आंखों के
सामने सदा रखना शुरू कर दिया हो। तुम मेरी याद तभी कर सकते हो, जब मैं तुम्हारी याद कर रहा हूं। लेकिन, बहुत बार
तुम्हें ऐसा लगेगा कि शायद मैं भूल गया हूं। क्योंकि मेरे तुम्हें याद करने के
अपने ढंग हैं। और वे स्थूल नहीं हैं। सच में तो स्थूल में मैं तभी तक याद तुम्हें
दिलाता हूं कि मुझे तुम्हारी याद है, जब तक मैं देखता हूं
अभी सूक्ष्म काम शुरू नहीं हुआ। जैसे ही सूक्ष्म काम शुरू हो जाता है, फिर स्कूल तल पर याद करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जब तुम्हारा मुझसे
मिलना भीतर शुरू हो गया, तो बाहर मिलना, न मिलना गौण हो जाता है। हो ही जाना चाहिए।
तो माणिक
बाबू के मन में यह खयाल उठना कि अभी मैं आपकी नजर के सामने नहीं हूं, परंतु गत बारह वर्षों से आप निरंतर मेरी नजर के सामने
हैं, स्वाभाविक है। लेकिन मैं कहना चाहता हूं, तुंम्हें तो कभी—कभी मेरी याद आती होगी, भूल—भूल भी
जाते होओगे—स्वाभाविक है, और हजार काम हैं तुम्हें—मुझे तो
और कोई काम ही नहीं है। मुझे तो सिर्फ जिनके जीवन में मेरे द्वारा काम शुरू हुआ है,
उनको याद रखने के सिवाय और कोई काम ही नहीं है। मेरे पास और तो कोई
झंझट नहीं है—न कोई दुकान है, न कोई बाजार है, न कोई बच्चे हैं, न कोई पत्नी है—मेरी तो सारी जीवन
ऊर्जा उनको उपलब्ध है जो मेरे साथ चलने को राजी हुए हैं उस अनंत की यात्रा पर।
इसलिए
तुम्हें आश्चर्य हुआ होगा, क्योंकि मैंने नाम लिया
कल। लेकिन नाम लूं या न लूं, याद में फर्क नहीं पड़ता। नाम
लेना पड़ा इसीलिए कि तुम्हारे मन में यह खयाल आ गया था कि शायद मैं तुम्हें भूल—ही
गया हूं। तीन साल से नहीं लिया था नाम, यह बात सच है। इसलिए
इस बात को, जो छोटी लगती है, छोटी मत
समझना। उसमें तुम्हारे लिए बड़ा इशारा है। औरों के लिए भी इशारा है।
प्रश्न
जो है, वह भी महत्वपूर्ण है।
कभी सब
ठीक चला—धन, परिवार, स्वास्थ्य—तो तुमने माना था कि मेरी कृपा से हुआ। फिर संजय गांधी डूबे और
तुम्हारे भी पाच लाख ले डूबे——वह औरों के भी ले डूबे, वह
अपनी माताजी को भी ले डूबे—इसको थी तुम ऐसा ही समझना कि यह भी मेरी कृपा से हुआ।
क्योंकि पांच लाख मिलें तो तुम मुझे धन्यवाद दो और पांच लाख खो जाएं तो तुम मुझे धन्यवाद
न दो, तो फिर संग—साथ—पूरा न हुआ। सुख आए तो तुम समझो मेरी
कृपा से आया और दुख आए तो तूउम मेरी कृपा न समझो, तो बात
अधूरी रह जाएगी, बेईमानी को हो जाएगी।
खयाल
करना कि सुख से भी बड़ी संभावना दुख में है। क्योंकि आदमी सुख में तो सो जाता है, दुख में जागता है। घर बन जाए, तो
स्वभंग्वत: हम कहते हैं, हमारे गुरु की कृपा। घर जल जाए,
तब भी तुम हिग्मत रखना कहने की कि हमारे गुरु की कृपा। जो घर बारै
आपना चलै हमारे संग, कबीर ने कहा है, जो
सब जला—जलूकर तैयार हो जाए वह हमारे साथ चल सकता है।
तो ठीक
ही हुआ, माणिक बाबू! आग भी लग गयी,
अग्निकांड में जल भी गया, संजय गांधी भी डूबे,
पांच लाख भी ले गए, स्वास्थ्य को भी नुकसान
पहुंचा है, हृदय भी दुर्बल हुआ है, यह
सब भी ठीक है। इस सबको भी वरदान में बदला जा सकता है। सिर्फ जागकर इसे देखना,
इससे तादात्म्य मत बनाना।
जो घर जल
गया, वह अपना था ही नहीं। और
जो हृदय दुर्बल हो गया है, वह भी तुम्हारा असली हृदय नहीं
है। और जो शरीर खा होने लगा है, वह भी तुम नहीं हो। और जो
रुपए तुम्हारे डूब गए, उसमें तुम्हारा क्या था! किसका क्या
है! हम ऐसे ही आते बिना कुछ लिए और बिना कुछ लिए जाते।
इसमें
उतर हम साक्षी हो पाएं, जागकर देख पाएं, तो परमप्रसाद उपलब्ध होता है। और ध्यान रखना, दुख
में जागने की संभावना ज्यादा है। सुख में तो आदमी सो जाता है। सुख में जागना ही
कौन चाहता है! जब तुम कोई सुखद सपना देख रहे हो, फिर कोई
जगाने लगे, तो तुम कहते हो, ठहरो भी,
ठहरो भी! अभी पूरा सपना तो हो जाने दो! लेकिन दुखद सपने में कोई
जगाए तो तुम धन्यवाद देते हो।
फिर खयाल
करना, कहते हैं न हम कि दुख में
भगवान की याद आती है। दुख में हमें दिखायी पड़ना शुरू होता है इस जगत का सत्य। सुख
में तो आंखों पर पर्दे पड़ जाते हैं और झूठ सच मालूम होने लगता है। दुख में असलियत
दिखायी पड़ती है। बुद्ध के चार आर्य सत्य—कि दुख है, पहला
आर्य सत्य अनुभव में आना शुरू होता है। बुद्ध के वचन सार्थक होने शुरू होते हैं कि
दुख है, जरूर दुख है।
अब इस
दुख के साथ अपना तादात्म्य मत करना, ऐसा मत सोचना कि मैं दुख हूं—तो सौभास्य की घटना घट जाएगी। दूर खड़े रहना,
देखते रहना, जो हो रहा है, वह दृश्य है, मैं देखने वाला हूं। अगर हम द्रष्टा
होकर खड़े हो जाए, तो फिर कोई विचलित कर नही पाती बात फिर हम
असंग मन, निर्लिप्त मन, अकंप मन अपने
भीतर इतने दूर बने रहते हैं इस जगत में होकर, जितने दूर हुआ
जा सकता है। जगत में होना और जगत में न होना एक साथ घट जाते हैं। और जब दोनों
बातें एक साथ घटती हैं, तभी कुछ घटा, तभी
जानना कुछ घटा, तभी जानना कि मेरा संन्यास फलित हुआ।
तो माणिक बाबू, ठीक ही हुआ है। इस सबको सौभाग्य मानना। इस सबके बीच
शातभाव से देखते रहना। यह भी चला जाएगा।
एक सूफी
कहानी है। एक सम्राट का हुआ। उसने अपने वजीरों को कहा कि मुझे कुछ ऐसा सूत्र चाहिए
जो हर हालत में काम आ जाए। वजीरों ने बहुत सोचा— ऐसा सूत्र जो हर हालत में काम आ
जाए! उनकी कुछ समझ में न पड़ा, वे
एक फकीर के पास गए। उस फकीर ने एक सूत्र लिखा एक कागज पर, एक
अंगूठी में बंद किया और सम्राट को लाकर अंगूठी दे दी औरे कहा, इसे खोलना तभी जब और कोई सहारा न रह जाए। जब सब तुम जो कर सकते हो कर चुके
होओ और कुछ सहारा नं रह जाए, तभी खोलना, जल्दी मत खोलना। यह सूत्र ऐसा है कि कठिनाई की आखिरो घड़ी में ही इसका अर्थ
प्रगट होगा।
सम्राट
ने अंगूठी पहन ली। कई बार उत्सुकता भी जगी, लेकिन वचन दे दिया था तो खोला नहीं। फिर देश पर हमला हुआ कोई दस साल बाद,
सम्राट हार गया, भागा अपने घोड़े पर, जंगल में दुश्मन पीछा कर रहे हैं, दुश्मन करीब आते
जाते हैं, उसकी घबड़ाहट बढ़ती जाती है, तभी
उसे अचानक अपने हाथ में अंगूठी की याद आयी। और तभी वह घड़ी भी आ गयी, लेकिन उसने सोचा कि अभी भी ऐसी घड़ी कहां आयी है, अभी
भी बच सकता हूं र अभी भी कुछ कर सकता हूं। लेकिन वह घड़ी भी आ गयी। आगे जाकर रास्ता
समाप्त हो गया, नीचे खाई थी, पीछे लौट
नहीं सकता था, दुश्मन करीब आता जा रहा है, घोड़ों की टाप और भी करीब आने लगी, और भी करीब आने
लगी। उसने आखिरी क्षण तक धीरज रखा, जब उसे लगा कि बस अब
क्षणभर की देर है कि दुश्मन आ जाएंगे, उसने अंगूठी खोली,
कागज निकाला। कागज में कुछ भी न था, एक छोटा
सा वाक्य लिखा था—दिस टू विल पास, यह भी बीत जाएगा।
एक क्षण
में जैसे बिजली एक कौंध गयी। एक क्षण में उसे दिखायी पड़ा अपना सब जीवन; सब बीत गया, तो स्वभावत: यह भी
बीत जाएगा, रुकता क्या है? बचपन नहीं
रुका, जवानी नहीं रुकी; पिता नहीं रुके,
पत्नी नहीं रुकी, बेटे नहीं रुके; कुछ नहीं रुका। आया और गया; गंगा कितनी बह गयी! जीवन
के इस चित्र को देखते ही वह तो भूल ही गया क्षणभर को कि दुश्मन पास हैं। और जब वह
जागा, इस जीवन की कथा से, तो अचानक
उसने पाया—घोड़ों की टाप सुनायी नहीं पड़ती। वे किसी और दिशा में मुड़ गए थे।
सात दिन
बाद वह पुन: जीत गया। वापस अपने महल में आ गया। जब महल में आया तो बड़ा उसका स्वागत
हुआ। अशर्फिया लुटायी गयीं, फूल फेंके गए, सारे गांव में दीपमालिका जलायी गयी, सारा गांव पागल
होकर नाचा, उत्सव मनाया। जब यह सारे उत्सव में अपने हाथी पर
सवार उसकी शोभायात्रा निकल रही थी, तब एक क्षण को फिर उसने
अंगूठी खोली। ये सुख! उसने फिर वह कागज पढ़ा—यह भी बीत जाएगा। उसने अंगूठी वापस कर
ली, जैसा वह अलिप्त हो गया था दुख की घड़ी में, वैसा ही अलिप्त हो गया सुख की घड़ी में भी।
कहते हैं, वह सम्राट बिना कुछ किए समाधि को उपलब्ध हो गया।
तो माणिक
बाबू इन घड़ियों का उपयोग करना। जो हो, होता है, बीत जाता है। एक ही
चीज है हमारे भीतर जो कभी नहीं बीतती, वहंहमारा साक्षीभाव
है। वही प्हैक्त शाश्ज्वगत? स३न।ातन, सदैव।
उस एक को पकड़कर ही आदमी परमात्मा के द्वार तक पहुंच जाता है।
आखिरी प्रश्न :
आपको सुनकर आंसू ही
आंसू बहते हैं, रोके नहीं रूकते। मैं
क्या करूं?
इससे शुभ और क्या होगा? आंसू बहते हैं अर्थात आंसू कुछ कहते हैं।
आंसू दुःख के ही थोड़े होते है। आंसू आनंद
के भी होते है। और आंसू सदा उदासी का ही थोड़े प्रमाण लाते है। आंसू उत्सव की भी
खबर लाते है। आंसू का तो एक ही अर्थ होता है—कुछ, जो हम शब्दों से नहीं कह पाते, वह आंसुओ से कहना
पड़ता है। आंसू तो बड़ी गहरी अभिव्यक्ति है।
आंसू का
अर्थ पूछते हो?
आंसू के
अर्थ यदि भाषा में समा पाते
तो फिर
मैं रोता क्यों
कविता और
कहानी न लिखता!
जब भाषा
असमर्थ हो जाती है
आंख से
आसू बहते हैं
जो बात
हम किसी भी विधा में नहीं कह पाते
उसे
रो—रोकर कहते हैं।
आंसू कुछ
कहते हैं। कुछ ऐसा कहते हैं जो और किसी विधा में कहा नहीं जा सकता। कुछ ऐसा कहते
है जो शब्दों में अंटता नहीं, बंधता
नहीं। शब्दों की सीमा है, आंसू असीम हैं।
तो आंसू
के संबंध में एक बात समझना, जब भी तुम्हारे मन में
कोई भाव इतना घना हो जाएगा—चाहे दुख, चाहे सुख; चाहे शांति, चाहे अशांति चाहे उदासी, चाहे उत्सव—कोई भी भाव जब इतना घना हो जाएगा कि तुम उसे सम्हाले न सम्हाल
सकोगे, तो वही भाव आसुओ में बहता है। आंसू निर्भार करते हैं।
और इनको
कुछ रोकना मत। कभी—कभी मेरी बात सुनकर आनंद के '' बहेंगे। और कभी—कभी मेरी बात सुनकर तुम्हें अपने सारे जीवन का दुख याद आ
जाएगा, सारे जीवन की व्यर्थता याद जा जाएगी, सारे जीवन का घाव जैसे मैंने छू दिया हो, पीड़ा बहने
लगेगी, तब भी आसू बहेंगे। दोनों हालत में शुभ हैं। आंसू तो
इतना ही कह रहे हैं कि तुमसे मेरे हृदय का नाता हो गया, अब
नाता बुद्धि का न रहा। और बुद्धि का जब तक नाता है, तुम
विद्यार्थी; जिस दिन हृदय का हो गया, उस
दिन शिष्य। जब तक बुद्धि का नाता है, तब तक मैं तुम्हारा
शिक्षक, जिस दिन हृदय का हो गया, उस
दिन गुरु। जिस दिन तुमने आसुओ से सेतु बना लिया, जिस दिन
तुमने आसुओ में पातिया लिखकर मेरी तरफ भेज दीं.......।
दर्द
स्वयं ही मचल गया है
गीतों का
अपराध नहीं है।
जो कुछ
भी मुझको मिल पाया
उतने से
संतोष मुझे था
घिरा
अभावों की सीमा में
फिर भी
तो परितोष मुझे था
पर अब
अकुलाया—सा धीरज
असहयोग
करने को आतुर
अश्रु
स्वयं ही ढलक गए हैं
पलकों का
अपराध नहीं है।
गीतों का
अपराध नहीं है।
बादामी
नयनों से प्रतिपल
दिया
तुम्हीं ने नेह निमंत्रण
समझ—बूझ
आचल उलझाया
फिर
क्यों मुझ पर दोषारोपण
रतनारे
सपनों ने पढ़ ली
मिलनातुर
मंत्रों की भाषा
सोम
स्वयं ही छलक गया है
अधरों का
अपराध नहीं है।
गीतों का
अपराध नहीं है।
प्यार
भरे दो शब्द कहे थे
पर तुमने
रच दिए कथानक
ज्ञात
नहीं था बदनामी के
विहग
उड़ेंगे कभी अचानक
आकर्षण
की विषकन्या से
अनजाने
ही ब्याह रचाया
सुरभि
स्वयं ही बिखर गयी है
भ्रमरों
का अपराध नहीं है।
गीतों का
अपराध नही है।
अश्रु
स्वयं ही ढलक गए हैं
पलकों का
अपराध नहीं है।
गीतों का
अपराध नहीं है।
दर्द
स्वयं ही मचल गया है
गीतों का
अपराध नहीं है।
जो स्वयं
हो, शुभ। जो सहज हो, शुभ। आंसू बहे तो रोकना मत। न बहे तो बहाने की चेष्टा मत करने लगना। जो
सहज हो, शुभ। जो असहज हो, अशुभ। आंसू
बहे तो बह जाने देना, संकोच मत करना। यहां कोई लोकलाज थोड़े
ही करनी है! कहा न मीरा ने—सब लोकलाज खोयी। यहां भी रोके रखोगे आसुओ को तो फिर
कहां रोओगे?
और अगर आंसू
रोक लिए, तो फिर मुस्कुराहट भी रुक
जाएगी। क्योंकि उसी द्वार से मुस्कुराहट भी आती है, जहां से
आसू आते हैं। वहीं से गति भी पैदा होते हैं, जहा से आसू पैदा
होते हैं। वहीं से उत्सव भी झरता है, जहा से उदासी पैदा होती
है। तुम हल्के बनो, तुम सहज बनो। जो आए, उसे आने दो। जैसा आए, वैसा ही आने दो। तुम जरा भी
हेर—फेर न करना।
दोनों
तरह की संभावनाएं हैं। कुछ लोग जो नहीं रो सकते, वे भी चेष्टा कर सकते हैं रोने की, वह गलत हो जाएगी।
अभी अपने से नहीं आए हैं तो प्रतीक्षा करो। और कुछ लोग जो रो सकते हैं, उनको भी भय लगता है कि रोना कि नहीं! कोई क्या कहेगा! पास—पड़ोस के लोग
क्या सोचेंगे! गांव में खबर होगी तो लोग समझेंगे पागल! बुद्धि खराब हो गयी?
तो तुम भी प्रभावित हो गए, सम्मोहित हो गए?
लोग कुछ—कुछ कहेंगे। तो आदमी रोकता है।
नहीं, रोकना मत। क्योंकि यहा अगर हम कुछ भी काम करने इकट्ठे
हुए हैं, तो वह काम सहजता में ही हो सकता है। यहां तो मैं एक
गीत गा रहा हूं। यहां तो मैं तुम्हारे हृदय के तारों को छेड़ने की कोशिश कर रहा
हूं। यहां कुछ सिद्धात थोड़े ही दिए जा रहे है, यहां तो एक
साधना की जा रही है।
मधुर—मधुर
कुछ गा दो मालिक।
प्रणय—प्रलय
की मधुसीमा में
जी का
विश्व बसा दो मालिक।
रहो हैं
लाचारी मेरी
तानें
बान तुम्हारी मेरी
इन रंगीन
मृतक खंडों पर
अमृतरस
ढुलका दो मालिक
मधुर—मधुर
कुछ गा दो मालिक।
संस्कृति
का बोझ न छू
छू मत
इतिहास लोक
छू मत
माया न ब्रह्म
छू मत तू
हर्ष—शोक
सिर पर
मत रख अतीत
एक गीत
एक गीत
मधुर—मधुर
कुछ गा दो मालिक।
प्रणय—प्रलय
की मधु सीमा में
जी का
विश्व बसा दो मालिक।
गीत हो
कि जी का
हो
जी से मत
फीका हो
आंसू के
अक्षर हों
स्वर
अपने ही का हो
प्रलय
हार
प्रलय
गीत
एक गीत
एक गीत
मधुर—मधुर
कुछ गा दो मालिक। प्रणय—प्रलय की मधु सीमा में जी का विश्व बसा दो मालिक। यहां तो
प्रभु का गीत तुम सुन सको, इसका प्रयास चल रहा है।
मैं तुम्हारे हृदय के तार छेड़ सकुं इसके लिए तुम्हें राजी कर रहा हूं। ये सारी
बातें, कि गीता की, कि धम्मपद की,
कि जिन—सूत्रों की, बहाने हैं। इन बहानों से
तुम्हारे हृदय के तार किसी तरह छिड़ जाएं, उनमें झंकार उठे।
तुम सहज होओगे तो ही झंकार उठ सकेगी। मैं चाहता हूं तुम रोमांचित हो जाओ तुम्हारा
रोआ—रोआ कंपने लगे प्रभु के लिए पुकार से, सत्य की आकांक्षा
से, अभीप्सा से। उस यात्रा में सहजता पाथेय है—पुण्य—पाथेय।
वही कलेवा है उस यात्रा में मार्ग का।
तो जिनकी
आखें सक्षम हैं रोने को, रोकना मत। उन्हीं आंखों
से अभी आंसू बहते हैं, उन्हीं आंखों से रोशनी भी बहेगी। आंसू
साफ कर देंगे रास्ते को, ताकि रोशनी बह सके।
और यह जो
घटना घटती है, यह बुद्धि की नहीं है,
हृदय की है। यह जी की है, ही की है। इसे तो वे
ही पा सकते हैं जो पागल होने को तैयार हैं। यह मतवालों की दुनिया है। यहां तुम्हें
मैं थोड़ी शराब पिला सकूं, तो काम पूरा हो गया। यहा से तुम
थोड़े डगमगाते लौटो, तो मैं सफल हुआ। तुम कहीं पैर रखो और
कहीं पड़ने लगें, तो बात हो गयी। एक तरफ तुम बेहोश हो जाओ तो
दूसरी तरफ होश जगता है। इस संसार के प्रति बेहोशी आ जाए तो परमात्मा के प्रति होश
आता है। यहां तुम अगर बहुत ज्यादा होश में जीए, सम्हल—सम्हलकर
जीए, नियंत्रण से जीए, तो परमात्मा में
कभी भी न जाग सकोगे।
और ध्यान रखना, धन्यभागी हैं वे, जो यहा सो
जाएं और वहां जाग जाएं। तो लोकलाज की फिकर छोड़ो।
पूछा है, 'आपको सुनकर आंसू ही आंसू बहते हैं, रोके नहीं रुकते, अब मैं क्या करूं?'
रोओ!
करने को क्या है! कर—करके तो तुमने सब खराब किया है। करने से ही तो कर्म पैदा हुआ
है। करो मत। अब होने में बहो।
आज इतना ही।
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