आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो
दिनांक 08-फरवरी, सन्
1981,
ओशो आश्रम, पूना।
प्रवचन-आठवां-(सितारों के आगे जहां और भी
हैं)
प्रश्न-सार
* मैं गुजरात का एक माननीय
कथाकार हूं। मैंने अपने वाकचातुर्य से अपने आस-पास एक
समूह खड़ा किया है। उसमें से
पचास व्यक्ति तो ऐसे ही आए कि जिन्होंने मुझे ही भगवान
माना और कहा कि गुरु-मंत्र
दें। लेकिन उनको धोखा देने की मुझमें हिम्मत नहीं। और मेरे
द्वारा जब कोई सत्य को
उपलब्ध होने की इच्छा रखते हैं, तब मुझे लगता है कि मैं क्या करूं!
मुझे चाहने वाले आपके विचारों
का सत्कार कर रहे हैं, संन्यास का नहीं। तो क्या बिना
संन्यास लिए सत्य की उपलब्धि
संभव है?
मुझे क्या करना चाहिए?
प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।
* आप क्या कर रहे हैं? आपका इस कलियुग में विशिष्ट कार्य क्या है?
पहला प्रश्न: भगवान, मैं गुजरात का एक माननीय कथाकार हूं।
मैंने अपने वाकचातुर्य से अपने आस-पास एक समूह खड़ा किया है। समाज का मुझे बहुत
प्रेम मिलता रहा है। यहां तक कि अब उस प्रेम को झेलने की मुझमें शक्ति भी नहीं रही
है। मुझे सुनने वाले पांच हजार में से पचास व्यक्ति तो ऐसे ही आए कि जिन्होंने
मुझे ही भगवान माना और कहा कि गुरु-मंत्र दें। लेकिन उनको धोखा देने की मुझमें
हिम्मत नहीं। और मेरे द्वारा जब कोई सत्य को उपलब्ध होने की इच्छा रखते हैं,
तब मुझे लगता है कि मैं क्या करूं! मुझे भगवान मानने वालों को मैं
कहता हूं कि मैं सत्य को जानने के बाद समय आने पर आपको समझाऊंगा। तो वे राह देख
रहे हैं। आपके प्रवचन सुन कर और आपके ही विचारों को प्रस्तुत करने से करीब-करीब
बहुत से संतों के साथ विरोध खड़ा हुआ है। मुझे चाहने वाले आपके विचारों का सत्कार
कर रहे हैं, संन्यास का नहीं। तो क्या बिना संन्यास लिए सत्य
की उपलब्धि संभव है? संन्यास लेने में मुझे इस बात का डर
लगता है कि मुझे चाहने वालों का दिल मैं नहीं तोड़ पाऊंगा। मैं समाज को चाहता हूं।
मेरा प्रेम ही मेरा गला घोंट रहा है। मुझे क्या करना चाहिए? प्रकाश
डालने की अनुकंपा करें।
शास्त्री बालकृष्ण--छोटे मुरारी।
पुनश्च: आपको प्रश्न
पूछने के लिए डेढ़ साल से सोच रहा था, लेकिन आज हिम्मत जुटा ली।
छोटे मुरारी,
मैं
इस बात से आनंदित हूं कि कम से कम सत्य को तुमने वैसा ही कहने का साहस तो किया
जैसा है। तुमने पाखंड नहीं ओढ़ा। तुमने अपनी कमजोरी भी बताई, अपना भय
भी बताया, अपने संकोच का निवेदन भी किया। यह अच्छी शुरुआत
है। यह यात्रा का पहला कदम बन सकता है--बनेगा।
सबसे
पहले तो यह समझने की आवश्यकता है कि संन्यास का क्या अर्थ है। तुमने पूछा कि क्या
बिना संन्यास के सत्य की उपलब्धि नहीं हो सकती है? हो सकती है, लेकिन कभी करोड़ में एकाध व्यक्ति को। वह अपवाद है। अपवाद को नियम मत
मानना। अपवाद नियम नहीं होता। उलटे, अपवाद से नियम सिद्ध
होता है। करोड़ में एकाध व्यक्ति सत्य को बिना किसी गुरु के उपलब्ध होता है। ऐसा
व्यक्ति स्वयं अपने जीवन में परम गुरु सिद्ध होता है। उलटबांसी लगेगी। सच में
जिसने किसी को कभी गुरु नहीं बनाया, वही जानता है--केवल वही
जानता है--कि बिना गुरु के तलाश कैसी दुर्गम है, कैसी कठिन
है, करीब-करीब असंभव है।
मैंने
कभी किसी को गुरु नहीं बनाया। इसलिए मैं जानता हूं कि छोटे मुरारी, असंभव
होगा तुम्हें पाना बिना गुरु के। कृष्णमूर्ति कहते हैं कि बिना गुरु के पाया जा
सकता है। लेकिन जरा मजे की बात समझना, विडंबना समझना। मैंने
कभी गुरु नहीं माना किसी को, गुरु बनाया नहीं किसी को,
किसी से दीक्षा नहीं ली और मैं कहता हूं कि बिना गुरु के पहुंचना
करीब-करीब असंभव है। और कृष्णमूर्ति को जितने गुरु मिले, शायद
ही किसी और व्यक्ति को मिले हों! और जितनी दीक्षाएं कृष्णमूर्ति को मिलीं, शायद ही मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी को मिली हों!
नौ
वर्ष की उम्र से लेकर पच्चीस वर्ष की उम्र तक सतत गुरुओं के चरणों में बैठ कर
कृष्णमूर्ति ने शिक्षा पाई,
दीक्षा पाई। उस समय की लिखी हुई कृष्णमूर्ति की किताब आज भी
महत्वपूर्ण है। सच तो यह है, उतनी महत्वपूर्ण किताब फिर बाद
में वे नहीं लिख सके। हालांकि अब तो वे यह कहते हैं कि उस किताब को मैंने कब लिखा,
मुझे याद भी नहीं। क्योंकि वह किताब और उनके आज के वक्तव्यों में
विरोध है, भारी विरोध है। इतनी हिम्मत तो नहीं उनकी कि
विरोधों को अंगीकार कर लें, कि कह सकें कि मैं इतना विराट
हूं कि विरोध मुझमें समा जाते हैं। तो एक ही उपाय है कि कह दें कि मुझे याद ही
नहीं कि कब मैंने वह किताब लिखी; मैंने लिखी भी या किसी और
ने लिखी, यह भी मुझे पता नहीं; मैंने
लिखी या मुझसे लिखवा ली गई, यह भी मुझे पता नहीं। किताब का
नाम है: ऐट दि फीट ऑफ दि मास्टर। श्री गुरु के चरणों में। और उसका एक-एक वचन
महत्वपूर्ण है। मनुष्य-जाति के इतिहास में जो थोड़ी सी महत्वपूर्ण किताबें लिखी गई
हैं, उनमें से वह किताब एक है।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं। और उन्हें जितने गुरु मिले, किसी और को नहीं मिले। और मैं तुमसे कहता हूं, बिना
गुरु के पाना करीब-करीब असंभव है। और मुझे कोई गुरु नहीं मिला। मैंने बिना गुरु के
पाया है और कृष्णमूर्ति ने बहुत से गुरुओं की सहायता से पाया है।
मगर
ऊपर से उलटी दिखने वाली बात भीतर से इतनी उलटी नहीं है। कृष्णमूर्ति को सस्ते में
गुरु मिले, इसलिए गुरु की महत्ता कभी समझ में न आई। मुफ्त जो मिल जाए उसकी महत्ता समझ
में नहीं आती। कृष्णमूर्ति ने गुरु नहीं चुने थे, गुरुओं ने
कृष्णमूर्ति को चुन लिया था। नौ वर्ष का बच्चा नदी में नहा रहा था और लीडबीटर नाम
के एक बड़े महत्वपूर्ण थियोसोफिस्ट यूं ही घूमने को निकले थे। और अदियार नदी में
स्नान करते हुए कृष्णमूर्ति को देखा और लीडबीटर ने उन्हें चुन लिया। एनीबीसेंट को
खबर दी, जो कि थियोसोफिकल आंदोलन की प्रमुख थी, कि यह जो बच्चा है, विश्व गुरु हो सकता है, जगतगुरु हो सकता है।
लीडबीटर
में ऐसी क्षमता थी कि दूसरे के अंतरतम में प्रवेश कर सके, दूसरे के
भावों को समझ सके, दूसरे की संभावनाओं को देख सके। बीज में
छिपे हुए फूलों को देखने की क्षमता लीडबीटर की क्षमता थी। और लीडबीटर ने जितने
लोगों में क्षमता देखी, वे सारे लोग बड़े महत्वपूर्ण सिद्ध
हुए। लीडबीटर ने ही जर्मनी के प्रसिद्ध विचारक, तत्वविद,
स्टाइनर को चुना था--छोटे बच्चे की तरह। उसी ने एनीबीसेंट को खबर दी
थी कि यह बच्चा बड़ा अदभुत भविष्य लिए हुए है। यह कली हजार पंखुरियों वाला कमल
बनेगी।
और
यही हुआ। स्टाइनर,
पिछले सौ वर्षों में जर्मनी में जो सर्वाधिक प्रतिभाशाली लोग पैदा
हुए हैं, उनमें अग्रगण्य है। लीडबीटर ने इस तरह और लोग भी
चुने--छोटे-छोटे बच्चे, जिनको कोई देख कर कह भी न सकता था कि
इनके भीतर ऐसी क्षमता होगी।
एनीबीसेंट
ने लीडबीटर की बात मान ली,
कृष्णमूर्ति के पिता को संपर्क किया। पिता थे गरीब, मां की मृत्यु हो चुकी थी कृष्णमूर्ति की। पिता को वैसे ही कठिनाई थी
बच्चों को बड़ा करने की। एक साधारण क्लर्क थे। उन्होंने सोचा यह तो सौभाग्य हुआ।
अगर एनीबीसेंट गोद ले ले, तो इससे अच्छा और क्या। इस तरह
कृष्णमूर्ति एनीबीसेंट की गोद चले गए। और एनीबीसेंट उनकी पहली गुरु। लीडबीटर उनके
दूसरे गुरु। और फिर थियोसोफिस्टों में जितने भी महत्वपूर्ण, ध्यान
को उपलब्ध व्यक्ति थे, उन सभी ने कृष्णमूर्ति को दीक्षा दी,
उन सभी के संपर्क में कृष्णमूर्ति को बड़ा किया गया।
इसलिए
कृष्णमूर्ति को जो मुफ्त में मिला, उसका मूल्य मालूम नहीं होता। कुछ
आश्चर्य नहीं कि वे कहते हैं, बिना गुरु के भी पाया जा सकता
है। और मैं कहता हूं, बिना गुरु के पाना करीब-करीब असंभव है।
करीब-करीब कहता हूं, क्योंकि यह तो नहीं कह सकता कि बिलकुल
ही असंभव है। मुझे खुद ही बिना गुरु के मिला। लेकिन मुझे कठिनाई पता है कि बिना
गुरु के कठिनाई कैसी है। कठिनाइयां बहुत हैं।
एक
तो अनंत मार्ग हैं;
किस मार्ग से जाओ, किस आधार से चुनो, कोई तुम्हारे पास कसौटी नहीं है। और एक रास्ता पहुंचाने वाला है, एक हजार एक रास्ते भटकाने वाले हैं। उन एक हजार एक रास्तों को काटना और एक
को चुन लेना, संयोग से ही कभी हो जाए तो हो जाए; अन्यथा लंबी भटकन है, जन्मों-जन्मों की भटकन है।
फिर
ठीक रास्ता भी मिल जाए संयोग से--करोड़ में एक मौका--तो भी ठीक रास्ते से भी भटकने
के हर कदम पर उपाय हैं। अगर न भी भटको, तो ठीक रास्ते पर भी हर पड़ाव ऐसा
लगता है कि मंजिल आ गई, हर पड़ाव पर ऐसा लगता है कि पहुंच गए।
क्योंकि हर पड़ाव पर ऐसी शांति, ऐसा आनंद, ऐसी सुगंध, ऐसी ज्योति, ऐसा
उत्सव, ऐसा वसंत आ जाता है, हर पड़ाव पर
मधुमास ऐसा गहरा जाता है, ऐसे गीतों का फूटना, ऐसे घूंघर का बजना, ऐसे वीणा का छिड़ जाना, कि लगता है कि अब और इससे ज्यादा क्या होगा! भरोसा नहीं आता कि इससे
ज्यादा भी कुछ हो सकता है! कि इससे भी पूर्णतर की कोई संभावना है!
कौन
कहेगा कि रुक मत जाना,
चरैवेति-चरैवेति! चले चलो, चले चलो! अभी और
मंजिल है! अभी आगे और मंजिल है! कौन कहेगा? सितारों से आगे
जहां और भी हैं--कौन कहेगा? कौन धक्का देगा कि नहीं, रुको मत! माना कि बड़ा प्यारा है यह पड़ाव, माना कि
बड़ी घनी छाया है अमराई की, माना कि कोयल की कुहू-कुहू है,
पपीहे की पुकार है, माना कि मोर का यह नृत्य,
माना पक्षियों का यह कलरव, झरने का यह गीत,
यह सुंदर सुबह, यह प्यारा मौसम, मगर नहीं, रुक मत जाना, अभी और
है--कौन कहेगा?
सितारों
से आगे जहां और भी हैं
अभी
इश्क के इम्तिहां और भी हैं
तही
जिंदगी से नहीं ये फिजाएं
यहां
सैकड़ों कारवां और भी हैं
कनाअत
न कर आलमे-रंगो-बू पर
चमन
और भी, आशियां और भी हैं
अगर
खो गया एक नशेमन तो क्या गम
मुकामाते
आहो-फुगां और भी हैं
तू
शाहीं है, परवाज है काम तेरा
तेरे
सामने आस्मां और भी हैं
इसी
रोज-ओ-शब में उलझ कर न रह जा
कि
तेरे जमां-ओ-मकां और भी हैं
गए
दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में
यहां
अब मेरे राजदां और भी हैं
सितारों
से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क
के इम्तिहां और
भी हैं
कौन
कहेगा? हर पड़ाव पर कोई कहने वाला चाहिए कि मत रुक जाना, अभी
और, अभी और, अभी बहुत बाकी है। सदगुरु
के बिना हर पड़ाव मंजिल मालूम होगा। और बहुत हैं जो पड़ावों पर रुक गए हैं और भटक गए
हैं। बहुत हैं जिन्होंने छोटी सी छाया को सब कुछ समझ लिया। बहुत हैं जिन्होंने
रंगीन कंकड़-पत्थरों को हीरे-जवाहरात समझ लिए।
संन्यास
का क्या अर्थ है?
छोटे
मुरारी, संन्यास का इतना ही अर्थ है कि जो दीया जला हो उसका हाथ पकड़ लेना। बुझा
दीया भी जले हुए दीये के पास आ जाए तो जल उठता है। संन्यास यानी सत्संग।
तुम
कहते हो कि मुझे चाहने वाले आपके विचारों से करीब-करीब राजी हैं। आपके विचारों का
सत्कार कर रहे हैं,
लेकिन संन्यास का नहीं।
और
संन्यास मेरा विचार है--मेरा मूल विचार है। किस भांति वे मेरे विचारों का सत्कार
कर रहे हैं? विचारों का सत्कार करना तो आसान है, सवाल तो विचारों
को जीने का है। अच्छी-अच्छी बातें, प्यारी-प्यारी बातें,
सुभाषित दोहराने में क्या लगता है? हल्दी लगे
न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए! उधार सुंदर-सुंदर फूलों को,
दूसरों की बगियाओं से तोड़ कर ले आए हो और अपना घर सजा लोगे, लेकिन बगिया लगाना मुश्किल काम है। फूल चुरा लाना किसी की बगिया से तो
बहुत आसान है, लेकिन गुलाब उगाना बहुत कठिन है।
तुम
कहते हो कि आपके विचारों का सत्कार कर रहे हैं।
छोटे
मुरारी, मेरे विचारों का सत्कार करने में तो कोई अड़चन नहीं है। अड़चन तो तब शुरू
होती है जब तुम उन्हें जीना शुरू करो। जीओ तो कदम-कदम पर अड़चन है। तुमको खुद ही लग
रही है अड़चन। तुम्हारे सुनने वालों को तो जाने दो दूर, तुम
खुद भी मेरे विचारों से राजी हो लेकिन संन्यास की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। जब
तुम्हीं नहीं जुटा पा रहे तो तुम्हारे सुनने वाले क्या खाक जुटा पाएंगे!
और
तुम्हारे सुनने वाले भी मेरे विचारों से सीधे राजी नहीं हो रहे होंगे। मेरे
विचारों को तो देश में बहुत से लोग दोहरा रहे हैं, लेकिन दोहराते हैं तरकीब से,
दोहराते हैं किसी आड़ में। गीता का श्लोक करेंगे, अर्थ करेंगे, अर्थ में मेरे विचार डाल देंगे। गीता
के श्लोक पर मेरे विचारों को सवार करा देंगे। और लोगों को तो कृष्ण का वचन है,
गीता का श्लोक है, तो उसके साथ मेरे विचारों
को भी गटक जाने में कोई अड़चन नहीं होती।
छोटे
मुरारी, मेरा नाम लेना जरा। संन्यास की तो बात दूर, मेरा नाम
ही लोगे और अड़चन शुरू हो जाएगी। मेरा नाम लोगे और कठिनाई खड़ी हो जाएगी। और संन्यास
से वही तो तुम्हें डर है कि संन्यास घोषणा हो जाएगी, फिर तुम
छिपा न सकोगे कि ये विचार किसके हैं।
अभी
तो तुम इस तरह कह रहे होओगे जैसे तुम्हारे हैं। अभी तो तुम इस तरह कह रहे होओगे
जैसे कृष्ण के हैं,
जैसे कि रामायण के हैं, जैसे कि वेदों के हैं।
लेकिन अगर तुमने संन्यास लिया तो तुम मेरे हुए। और जब तुम मेरे हुए तभी पता चलेगा
कि कितने लोग तुम्हें प्रेम करते हैं। अभी तो वे किसी और को प्रेम कर रहे हैं,
तुम तो सिर्फ बहाना हो। तुम अच्छी राम की कथा कह रहे होओगे, प्यारे राम की कथा कह रहे होओगे। राम का उनके मन में सम्मान है सदियों
पुराना, साख है; उसी साख पर तुम्हारी
भी साख है; उसी इज्जत पर तुम्हारी भी इज्जत है। नाम बिकते
हैं यहां। विचारों से किसको पड़ी है? घर जाते वक्त लोग
विचारों को झाड़ कर चले जाते हैं, वहीं के वहीं झाड़ कर चले
जाते हैं।
संन्यास
से यह भी पक्का तुम्हें पता चल जाएगा कि कितने लोग तुम्हें प्रेम करते हैं। जो
तुम्हें प्रेम करते हैं वे फिर भी प्रेम करेंगे, क्योंकि प्रेम बेशर्त होता
है। लेकिन तुम्हें भी पता है कि पांच हजार की तो बात छोड़ दो, पांच हजार में जो पचास व्यक्ति तुम्हें भगवान भी मानने को तैयार हैं,
उनमें से अगर पांच भी टिक गए तो बहुत।
और
यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। और तुम तो केवल मेरे संन्यासी होओगे, तुम मेरी
तरफ देखो। पांच नहीं, मुझे पचास हजार सुनने वाले लोग थे।
लेकिन आड़ चाहिए थी। मैं तो वही कहता था जो मैं आज कह रहा हूं, तब भी वही कहता था। लेकिन अगर महावीर के कंधे पर रख कर बंदूक चला देता था
तो जैन खुश होता था। कृष्ण के कंधे पर रख कर बंदूक चला देता था--बंदूक हमेशा मेरी
थी--हिंदू खुश होता था। मुसलमान आकर प्रार्थना करते थे कि मोहम्मद के कंधे पर
बंदूक रखिए। सिक्ख कहते थे, नानक के कंधे का कब विचार करिएगा?
जरूरी
था तब। मेरे लिए एकदम आवश्यक था। लेकिन मैं कृष्ण का या राम का या बुद्ध का या
महावीर का या नानक का उपयोग यूं ही कर रहा था जैसे मछली को फांसने के लिए लोग
कांटे पर आटा लगा देते हैं। मछली कांटा तो निगलने को राजी होती नहीं। और मेरी बात
तो कांटा है,
क्योंकि क्रांति है, आग है, अंगारा है! अंगारे को निगलने को कौन राजी होगा? थोड़े
से हिम्मतवर, थोड़े से छाती वाले लोग। लेकिन मछली आटे को
निगलने को राजी हो जाती है। और जब तक कांटे का पता चलता है तब तक बहुत देर हो जाती
है।
जब
मैंने कुछ मछलियां पकड़ लीं तो मैंने सोचा कि अब क्यों किसी के कंधे पर बंदूक रखनी!
अब क्यों आटा लगाना! अब सीधा कांटा ही पिलाता हूं। अब जिनको कांटा पीने का मजा आ
गया उनको आटे से नफरत भी हो गई। अब मेरे पास अपने लोग हैं।
तुम
देख सकते हो,
पिछले बीस वर्षों में कितने लोग मेरे पास आए और गए! फिर वही बच रहे
जिनका सच में मुझसे प्रेम था; जिनका मुझसे प्रेम था वही बच
रहे। जिनका महावीर से प्रेम था वे गए। जिनका कृष्ण से प्रेम था वे गए। सच तो यह है,
मैंने उन्हें खुद छांटना शुरू कर दिया। क्योंकि जिनका मुझसे प्रेम
नहीं उनके साथ व्यर्थ समय क्यों खराब करना? समूह इकट्ठा कर
लेना तो बहुत आसान है, उसमें तो कोई कठिनाई नहीं है।
तुम
कहते हो: "मैंने अपने वाकचातुर्य से अपने आस-पास एक समूह खड़ा किया है।'
अच्छी
बात है यह कि तुम समझते हो कि यह वाकचातुर्य ही है, कहीं कोई सत्य नहीं है
इसमें; केवल शब्द हैं, कहीं कोई
निःशब्द का संगीत नहीं है। यह अच्छा लक्षण है। यह प्यारा लक्षण है। यह शुभ संकेत
है। लेकिन कुछ बातों में तुम्हें भ्रांतियां हैं।
तुम
कहते हो कि मैंने वाकचातुर्य से अपने पास एक समूह खड़ा किया है और समाज का मुझे
बहुत प्रेम मिलता रहा है।
वह
प्रेम नहीं है। वह तुम्हारे वाकचातुर्य को दिया गया आदर है। और वाकचातुर्य को भी
क्यों आदर दिया गया है?
वह भी इसीलिए कि तुम्हारा वाकचातुर्य या तो कृष्ण के पैरों में फूल
चढ़ा रहा है या राम के चरणों पर सिर झुका रहा है या वेद की प्रशंसा है, स्तुति है। वह प्रेम तुम्हारे लिए नहीं है। तुम इस गलती में मत पड़ जाना।
और कहीं न कहीं तुम्हें भी शक है कि वह प्रेम तुम्हारे लिए नहीं है। क्योंकि अगर
तुम्हें शक न होता तो तुम्हें यह भी भरोसा होता कि अगर मैं संन्यास भी ले लूंगा तो
जिन्होंने मुझे प्रेम किया है वे प्रेम करेंगे। सच तो यह है कि और ज्यादा प्रेम
करेंगे, क्योंकि तुम प्रकट हुए, तुम और
स्पष्ट हुए, तुमने अपने को और उघाड़ा, तुमने
आड़ छोड़ी, तुमने घूंघट उठाया। तुम भी कहीं जान तो रहे हो कि
वह प्रेम किसी और को मिल रहा है, तुम केवल माध्यम हो।
क्योंकि तुम्हारे द्वारा स्तुति की जा रही है शास्त्रों की, पुराणों
की। तुम कथा कह रहे हो प्यारी-प्यारी। लेकिन आदर कथा को मिल रहा है।
यह
ऐसा ही है जैसे गांव में रामलीला होती है, तो जो आदमी राम बनता है उसके चरणों
में भी लोग सिर झुकाते हैं। हालांकि भलीभांति जानते हैं कि यह कौन है। गांव का ही
आदमी है। लुच्चा-लफंगा भी हो सकता है। और अक्सर रामलीला वगैरह कौन करेंगे? कोई भलेमानुस करेंगे? ऐसे ही गांव के आवारा, जिन्हें और कोई काम नहीं। बरसात में आल्हा-ऊदल पढ़ेंगे। फिर रामलीला
खेलेंगे। यूं ही फिजूल के लोग। सबको पता है कौन सज्जन हैं ये। यूं तो घर में भी निमंत्रण
न दें इनको। लेकिन अभी इनकी शोभायात्रा निकल रही है। अभी बारात जा रही है जनकपुरी।
तो लोग उनके चरणों में फूल चढ़ा रहे हैं, पैसे चढ़ा रहे हैं,
आरती उतार रहे हैं। दो दिन बाद इन्हीं को कोई पूछेगा नहीं। रामलीला
खतम कि ये भी खतम।
अभी
गांव की स्त्रियां इनके पैर दबा रही हैं। और दो दिन बाद अगर यह आदमी किसी स्त्री
की तरफ गौर से देख लेगा--उन्हीं स्त्रियों की तरफ; अभी भी देख रहा है, मगर अभी रामचंद्र जी हैं; अभी तो बड़ी इनकी कृपा है,
कृपा-कटाक्ष! अभी अगर मुस्कुरा दें तो क्या कहना! अभी तो राम का
वाहन है। दो दिन बाद जब रामलीला खतम हो जाएगी, ये ही उन्हीं
स्त्रियों में से किसी को गौर से देख लेगा, तो लोग कहेंगे कि
लुच्चा है, उचक्का है।
लुच्चा
का मतलब समझते हो?
गौर से देखना! लुच्चा यानी लोचन। आंख गड़ा कर देखना! और उचक्का यानी
ऊंचे हो-हो कर देखना। पैर के बल, अंगुलियों के बल खड़े हो-हो
कर देखना। बड़े प्यारे शब्द हैं--लुच्चा, उचक्का, उठंगा! उठ-उठ कर देखना। मतलब बैठ कर देखने में अड़चन हो रही है तो घुटने
टेक-टेक कर देख रहा है।
यही
आदमी अभी अगर देख दे उन्हीं देवियों को तो कृपा की वर्षा हो गई, प्रसाद
बरसा। और अभी भी इसके देखने का ढंग वही है। आदमी यह वही है। लेकिन दो दिन बाद सब
बात बदल जाएगी। अभी यह शायद सोचता होगा कि अहा, मुझे कितना
स्वागत मिल रहा है! कितना सम्मान मिल रहा है! दो दिन बाद जो मिलेगा वही इसका है;
अभी तो जो इसको मिल रहा है वह राम को मिल रहा होगा। किसी और को मिल
रहा है, यह तो केवल प्रतीक मात्र है। इसका काम तो पोस्टमैन
से ज्यादा नहीं है।
यूं
तो पोस्टमैन भी अच्छा सा पत्र ले आता है, शुभ-संवाद ले आता है, तो तुम उसे भी मिठाई खिला देते हो, शरबत पिला देते
हो, बिठा कर दो प्रेम-भरी बातें कर लेते हो। लेकिन इसका यह
मतलब मत समझ लेना, पोस्टमैन इस भ्रांति में न पड़ जाए कि यह
स्वागत उसे मिल रहा है।
तुम
यह गलती छोड़ दो,
छोटे मुरारी, कि लोगों से तुम्हें बहुत प्रेम
मिला है। वह तुम्हें नहीं मिला है, तुम्हारी कथाओं के कारण
मिला है, कथाओं को मिला है।
हां, मेरे जैसे
आदमी को जब कोई प्रेम करता है तो उसे मुझे ही करना पड़ता है। क्योंकि कथाओं का तो
मैं जिस तरह से सत्यानाश करता हूं, कथा को तो जैसा काटता हूं,
जहां तक मेरा वश चले चिंदी-चिंदी निकाल देता हूं, कथा से तो मुझे कोई आदर मिलने वाला नहीं है। लेकिन मुझे अगर कोई प्रेम
करेगा तो ही, तो ही बरदाश्त कर पाएगा जो मैं कह रहा हूं उसे।
तुम जो कह रहे हो उसके कारण तुम्हें प्रेम मिल रहा है।
अगर
सच में ही तुम्हें परीक्षा करनी है कि कितने लोग तुम्हें प्रेम करते हैं, तो
संन्यास कसौटी बन जाएगी। पता चल जाएगा कि पांच हजार तो गए ही, वे जो पचास तुम्हें भगवान मानते थे वे भी गए। इतना ही नहीं कि चले ही गए,
वही जो तुम्हें प्रेम करते थे वही गालियां देने लगेंगे। वही लट्ठ
उठा लेंगे जो फूलमालाएं पहनाते थे।
और
तुम कहते हो कि मुझे अब उस प्रेम को झेलने की शक्ति नहीं रही है।
पहली
तो बात, वह प्रेम ही नहीं है। क्योंकि प्रेम होता तो प्रेम को झेलना नहीं पड़ता।
प्रेम होता है तो बोझ नहीं होता। प्रेम तो मुक्तिदायी है। प्रेम तो निर्भार करता
है, निर्बोझ करता है। जो बोझ बन जाए वह कुछ और है; वह प्रेम के नाम पर कुछ और ही है। इसे ठीक-ठीक समझ लो। अचेतन में तो
तुम्हारे यह बात साफ है, लेकिन मैं इसे चेतन बना देना चाहता
हूं। अंधेरे-अंधेरे में तो तुम्हें भी यह बात, टटोलते हो तो
समझ में आ रही है। लेकिन मैं दीया जला देना चाहता हूं, ताकि
तुम ठीक से देख लो।
तुम
कहते हो कि उस प्रेम को झेलने की अब मुझमें शक्ति नहीं रही।
जाहिर
है कि वह प्रेम नहीं है। क्योंकि प्रेम तो कितना ही हो, झेलने का
सवाल ही नहीं उठता। प्रेम तो आनंद है। पूरा आकाश भी प्रेम बन कर टूट पड़े तो भी
उसका बोझ नहीं होगा।
तुम
कहते हो कि मुझसे लोग पूछते हैं सत्य को पाने का मार्ग, सत्य को
उपलब्ध होने की इच्छा करते हैं, तो मुझे लगता है मैं क्या
करूं? मुझे भगवान मानने वालों को मैं कहता हूं कि मैं सत्य
को जानने के बाद समय आने पर आपको समझाऊंगा।
वे
जो तुमसे सत्य जानने की आकांक्षा कर रहे हैं, वे सत्य नहीं जानना चाहते हैं। ऐसे
आकांक्षियों को मैं बहुत जानता हूं। जिस गुजरात में, छोटे
मुरारी, तुम्हें लोग कथा सुन रहे हैं, उस
गुजरात से मैं भलीभांति परिचित हूं। जितने लोगों ने मुझे गुजरात में सुना है,
तुम्हें क्या सुनेंगे! लाखों लोगों ने सुना है। अधिकतर तो वही लोग
होंगे जो मुझे सुनते थे, वही तुम्हें सुन रहे होंगे। सुनने
वाले तो वही होते हैं। कुछ लोगों का काम ही सुनना होता है।
अभी
बंबई में कुछ दिन पहले भारतीय जनता पार्टी का अधिवेशन हुआ, पचास हजार
आदमी सुनने इकट्ठे हुए। और फिर बहुगुणा ने लोकतांत्रिक समाजवादी दल की स्थापना की,
उनको भी सुनने पचास हजार आदमी इकट्ठे हुए। मैं थोड़ा हैरान हुआ कि
पचास हजार, पचास हजार! ये कहीं वही पचास हजार तो नहीं हैं!
यह पचास हजार का आंकड़ा...।
मैं
ऐसे लोगों को जानता हूं। मैं जबलपुर में कोई बीस वर्ष रहा। मेरे एक संबंधी, जब
शुरू-शुरू में मैंने उनको देखा तो मैं बड़ा हैरान हुआ; कम्युनिस्ट
पार्टी का जुलूस निकले, उसमें भी सम्मिलित; सोशलिस्ट पार्टी का जुलूस निकले, उसमें भी सम्मिलित;
कांग्रेस का जुलूस, तो उसमें भी सबसे आगे झंडा
लिए; जनसंघ का जुलूस, तो उसमें भी।
मैंने
उनसे पूछा कि माजरा क्या है? आपकी राजनीति क्या है?
अरे, उन्होंने
कहा, राजनीति से क्या लेना-देना! हमको नारे लगाने में मजा
आता है। अपने को क्या करना किसके नारे लग रहे हैं! धक्कम-धुक्की करना, नारे लगाना! कवायद भी हो जाती है, तफरीह भी हो गई,
जान-पहचान भी हो जाती है कई लोगों से, वक्त पर
काम भी पड़ जाते हैं।
उन्हें
कोई प्रयोजन ही नहीं है। फिर तो उन्होंने मुझे बाद में बताया जब उनसे और संबंध
मेरे गहरे हो गए। मैंने कहा कि यह बात तो बड़ी ऊंची तुमने कही। यह बात तो जंचती है।
अरे, उन्होंने
कहा, अब मैं तुमसे क्या कहूं! मैं सभी पार्टियों का सदस्य भी
हूं। अरे एक रुपया दो, चवन्नी दो, सदस्य
हो जाओ! साल भर सदस्यता चलती है। तो सभी अपने को अपना मानते हैं। और अपने को क्या
लेना-देना राजनीति वगैरह से?
और
जब वे लगाते थे नारा तो जी खोल कर लगाते थे। किसी की भी जय बुलवा लो, जिंदाबाद
करवाओ कि मुर्दाबाद करवाओ, हर हालत में वे राजी हैं। उसी
आदमी को जिंदाबाद कर दें, उसी को मुर्दाबाद कर दें। उनको
सवाल है अपनी खराश निकालने का।
कुछ
लोग हैं जिनको सुनना है,
जिनको धार्मिक सभा में होना ही चाहिए। तुम उनको हमेशा पाओगे। गुजरात
से मैं परिचित हूं। वे सब तुम्हें छोड़ भागेंगे। मगर तुम्हारा भार भी कट जाएगा। तुम
भ्रांतियों से भी मुक्त हो जाओगे। और तुम्हें एक बात भी पता चल जाएगी कि जितने
तुमसे मांगने आए थे कि सत्य हमें कैसे मिले, वे कोई सत्य को
नहीं जानना चाहते हैं। तुम्हारा संन्यास तक स्वीकार नहीं होगा, तुम्हारा सत्य क्या स्वीकार होगा! सत्य तो बड़ी कठिन बात है--तलवार की धार
है! वे सब अपने पक्षपात सही सिद्ध करवाना चाहते हैं। कोई चाहता है कि सिद्ध कर दो
कि कृष्ण भगवान हैं। कोई चाहता है कि सिद्ध कर दो कि महावीर भगवान हैं। कोई चाहता
है कि वेद सही, कोई चाहता है कुरान सही, कोई चाहता है गुरु-ग्रंथ सही--सिद्ध कर दो। सत्य से किसी को प्रयोजन नहीं
है। सत्य से क्या लेना-देना है! कोई हिंदू है, कोई मुसलमान
है, कोई ईसाई है, कोई बौद्ध है। सत्य
का आकांक्षी कौन है?
हिंदू
होकर कोई सत्य की अभीप्सा कैसे कर सकता है? हिंदू होने का क्या अर्थ होता है?
हिंदू होने का अर्थ होता है: मैंने मान लिया कि सत्य क्या है। जाना
तो नहीं, मान लिया।
बिना
जाने जिसने मान लिया,
यह आदमी बेईमान है, यह पाखंडी है। सत्य का
जिज्ञासु हिंदू नहीं हो सकता, मुसलमान नहीं हो सकता, ईसाई नहीं हो सकता, सिक्ख नहीं हो सकता। सत्य का
जिज्ञासु तो कहेगा कि मुझे पता ही नहीं, तो मैं कैसे कहूं कि
गीता सही कि कुरान सही कि बाइबिल सही? सत्य का पता चले तो
फिर मेरे पास कसौटी होगी, तो मैं तौल सकूंगा--कौन सही?
तुम
जो कथाएं कह रहे हो,
उन कथाओं को ही ये लोग सत्य मान कर चल रहे हैं। और उन्हीं कथाओं के
आधार पर ये तुमसे पूछते हैं कि सत्य हमें कैसे उपलब्ध हो जाए? मतलब यह कि यह कथा सही कैसे हो जाए? यह हमारे अनुभव
में भी कैसे आ जाए? जैसे किसी पापी का उद्धार किया कृष्ण ने,
ऐसा हमारा उद्धार कैसे होगा? कि अजामिल ने
पुकारा मरते वक्त अपने बेटे को और आकाश में बैठे भगवान ने समझ लिया कि वह मुझे
पुकार रहा है। क्योंकि बेटे का नाम भी वही था। रहा होगा--गोविंद या हरि। वह बुला
रहा था अपने बेटे को। अजामिल पापी था, हत्यारा था, डाकू था, चोर था। बेटे को बुला रहा था। जिंदगी भर
जिसने चोरी की, हत्या की, डकैती की,
वह कोई मरते वक्त बेटे को कोई गुरु-मंत्र देने के लिए नहीं बुला रहा
होगा। बुला रहा होगा कि देख कहां धन गड़ाया है! कि देख अगर किसी को मारे तो इस तरह
से मारना! अपने धंधे का कुछ राज बताना चाहता होगा। मरते वक्त आदमी वही कहना चाहता
है तो जिंदगी भर का निचोड़ है। बुलाया होगा कि ऐ गोविंद, कहां
है? लेकिन ऊपर बैठे गोविंद ने समझा कि मुझे बुला रहा है। हद
हो गई! आदमी धोखा खा जाए तो भी ठीक है, लेकिन भगवान भी धोखा खा
गया। और उन्होंने अजामिल को मुक्त कर दिया और स्वर्ग पहुंचा दिया।
अब
तुम यह कथा लोगों को सुनाते होओगे, छोटे मुरारी, कि अजामिल जैसे पापी का भी उद्धार कर दिया! हे प्रभु, मेरा उद्धार कब करोगे? और उसने तो भूल से अपने बेटे
को बुलाया था, और मैं तो कितने प्रेम से और कितने भाव से
तुम्हें पुकार रहा हूं, रोज-रोज पुकार रहा हूं, सुबह पुकारता, सांझ पुकारता, मुझे
कब छुटकारा दिलाओगे? मुझे कब स्वर्ग में बुलाओगे? मेनका और उर्वशी मेरे आस-पास कब नाचेंगी? कल्पवृक्ष
के नीचे मैं कब बैठूंगा? हे प्रभु, तुमने
बड़े-बड़े पापियों का उद्धार किया! मैं तो कोई इतना बड़ा पापी भी नहीं, अरे मेरा भी उद्धार करो!
ये
जो तुम्हारे पास मंत्र लेने आते हैं, गुरु-मंत्र, ये
क्या कह रहे हैं? यही कह रहे हैं, कोई
ऐसी बात बता दो कि हम जैसे हैं वैसे ही रहें, मंत्र को दोहरा
लेंगे सोते वक्त या सुबह उठ कर, और बस पार पा जाएंगे। यह
भवसागर से पार होना है, कोई मंत्र बता दो! कोई सत्य बता दो!
मगर
इनमें सत्य की जिज्ञासा किसी की भी नहीं है। अभी सत्य की जिज्ञासा का अर्थ भी
इन्हें पता नहीं है। सत्य की जिज्ञासा का तो अर्थ ही यह होता है कि मेरे कोई
विश्वास नहीं,
कोई अविश्वास नहीं, कोई पक्षपात नहीं, कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं। अभी तो मैं
कोरे कागज की तरह हूं, अभी मैंने कुछ लिखा नहीं; खोजने चला हूं, जब मिल जाएगा तो लिखूंगा। अभी तो
दर्पण हूं। अभी तो दर्पण को साफ कर रहा हूं। फिर जो तस्वीर बनेगी, दर्पण पर जो प्रतिफलन होगा, उसको पहचानूंगा। तब
कहूंगा कि मैं कौन हूं।
और
मैं तुमसे कहता हूं: जिसने सत्य जाना वह क्या हिंदू होगा फिर? वह क्या
वेद के ऊपर सिर पटकेगा? उसके भीतर वेद होगा। उसकी वाणी में
वेद होगा। उसके मौन में उपनिषद होंगे। उसके उठने-बैठने में गीता होगी। वह क्यों
किसी कृष्ण के मंदिर या राम के मंदिर जाएगा? वह जहां बैठेगा
वहां मंदिर होगा। वह क्यों काबा और काशी जाएगा? वह जहां
चलेगा वहां काबा बन जाएंगे। जिस पत्थर को छू देगा वह पत्थर काबा का पत्थर हो
जाएगा। सत्य को जानने वाला तो किसी धर्म का हिस्सा हो ही नहीं सकता। और जिसने सत्य
को जाना नहीं है वह कैसे हो सकता है?
इसलिए
मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि दुनिया में सत्य को जाना नहीं तब तक तो कोई व्यक्ति
हिंदू, मुसलमान, ईसाई हो ही नहीं सकता। और अगर जान लिया,
तब होने का सवाल ही नहीं उठता। इसलिए खुद को और दूसरों को धोखा देने
वाले लोग धर्मों में विभाजित हैं। और जब ये तुम्हारे पास आकर कहते हैं कि हमें
सत्य जानना है, तो इनको सत्य नहीं जानना है, इनको अपनी मान्यता को सत्य सिद्ध करवाना है।
और
ये चाहते हैं कोई सस्ती तरकीब। गुरु-मंत्र का मतलब होता है: कोई सस्ती तरकीब, कोई
ताबीज--कि राम-राम जपने से होगा, कि हरि-हरि जपने से होगा,
कि हरे कृष्ण जपने से होगा। कितनी बार--एक सौ आठ बार, कि एक हजार आठ बार। किस मुहूर्त में--सुबह कि सांझ, भोजन
के पहले कि बाद। ये तुमसे पूछ रहे हैं इस तरह की बातें।
लेकिन
अच्छा है कि तुम इनको बता नहीं रहे। तुम इनसे कह रहे हो कि जब मैं सत्य को जान
लूंगा...लेकिन सत्य जानने में तुम्हारी भी बड़ी घबराहट है। तुम अभी संन्यास तक
जानने को राजी नहीं,
सत्य जानने को तुम कैसे राजी हो सकोगे?
तुम
पूछ रहे हो: "क्या संन्यास को बिना पाए सत्य नहीं पाया जा सकता?'
तुम
ऐसा क्यों नहीं पूछते कि क्या बिना सत्य को पाए सत्य नहीं पाया जा सकता? सत्य पाने
की भी झंझट क्यों लेते हो? क्योंकि सत्य पाते ही से ये
तुम्हारे प्रेम करने वाले लोग छूट जाएंगे। तुमने सत्य कहा और तुम मुश्किल में पड़े।
सुकरात ने कहा और जहर मिला। ये तुमको छोड़ देंगे? जीसस ने कहा
और सूली मिली। और तुम सोचते हो कि ये तुमको सिंहासन देंगे सत्य के बाद? रामलीला करो तो सिंहासन मिलेगा। सत्य की बात उठाई कि सूली के अतिरिक्त और
कुछ बचता नहीं। सूली पर चढ़ने की तैयारी हो तो सत्य को कहना।
मगर
सत्य को अभी तो कहोगे कैसे?
अभी तो जानना पड़ेगा। लेकिन एक बात अच्छी है कि तुम उनसे कह रहे हो
कि जब जान लूंगा तब तुम्हें समझाऊंगा।
और
तुम कहते हो: "वे राह देख रहे हैं।'
कब
तक उनको राह दिखलाओगे?
मैं तैयार हूं तुम्हें सत्य जनवा देने को। मैं नहीं कहता राह देखो।
मैं नहीं कहता कल की राह देखो। कल का क्या पता है! मौत हमेशा द्वार पर खड़ी है।
तुमने डेढ़ साल सोच-सोच कर तो यह प्रश्न पूछा। संन्यास लेने में क्या डेढ़ जन्म
लगाओगे, क्या करोगे? डेढ़ साल तुम विचार
करते रहे यह प्रश्न ही पूछने को! तो सत्य को जानने के लिए कितना समय लगाना है?
और जिंदगी का भरोसा नहीं है--आज है, कल न हो।
करीब
मौत खड़ी है, जरा ठहर जाओ
कजा
से आंख लड़ी है,
जरा ठहर जाओ
करीब
मौत खड़ी है...
थकी-थकी
सी फिजाएं बुझे-बुझे तारे
बड़ी
उदास घड़ी है,
जरा ठहर जाओ
फिर
इसके बाद कभी हम न तुमको रोकेंगे
लबों
पे सांस अड़ी है,
जरा ठहर जाओ
अभी
न जाओ कि तारों का दिल धड़कता है
तमाम
रात पड़ी है, जरा ठहर जाओ
नहीं
उम्मीद कि हम आज की सहर देखें
ये
रात हम पे कड़ी है,
जरा ठहर जाओ
गमे-फिराक
में जी भर के तुम को देख तो लें
ये
फैसले की घड़ी है,
जरा ठहर जाओ
करीब
मौत खड़ी है, जरा ठहर जाओ
कजा से
आंख लड़ी है, जरा ठहर
जाओ
मौत
तो बहुत करीब खड़ी है। हर क्षण द्वार पर खड़ी है। कब दस्तक दे देगी, कुछ पता
नहीं। डेढ़ साल, छोटे मुरारी, तुमने
प्रश्न पूछने में लगा दिया! तो संन्यास के लिए क्या करोगे? नहीं,
इतने आहिस्ता-आहिस्ता चलने से यह यात्रा नहीं होगी।
और
तुम कहते हो कि आपकी बातों को, आपके विचारों को प्रस्तुत करने से करीब-करीब
बहुत से संतों के साथ विरोध खड़ा हो गया है।
जिससे
मेरी बातों के कारण विरोध खड़ा हो जाए, समझ लेना कि वह संत नहीं है;
संत का आभास होगा, ढकोसला होगा।
खेत
में तुमने देखे हैं न,
आदमी खड़े कर दिए जाते हैं! डंडा लगा देते हैं, कुरता पहना देते हैं। चूड़ीदार पाजामा हो तो चूड़ीदार पाजामा पहना दो। हंडी
ऊपर रख कर गांधी टोपी लगा दो। खड़िया मिट्टी से आंख-नाक बना दो। चाहो तो लिख दो कि
मोरारजी भाई देसाई, भूतपूर्व प्रधानमंत्री! वह जो खेत में
झूठा आदमी खड़ा होता है, उसी तरह के तुम्हारे संत हैं--टीका
इत्यादि लगाए हुए, सिर इत्यादि घुटाए हुए, माला वगैरह फेरते हुए। सब ढोंग-धतूरा पूरा कर रहे हैं। सारा क्रियाकांड
पूरा कर रहे हैं। मगर संतत्व कहां? अगर संतत्व हो तो सत्य के
साथ सदा राजी होने की हिम्मत होगी। चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। जिनसे तुम्हारा
विरोध खड़ा हो गया है, उसको कसौटी समझ लेना कि वे संत नहीं
हैं।
और
कहते हो: "मेरे चाहने वाले आपके विचारों का सत्कार कर रहे हैं।'
मत
इस भ्रांति में पड़ो। पक्का तो तभी होगा जब तुम संन्यास लो और फिर भी तुम्हारे साथ
खड़े रहें। तभी कसौटी है।
तुम
कहते हो: "संन्यास लेने में मुझे इस बात का डर लगता है कि मुझे चाहने वालों
का दिल मैं नहीं तोड़ पाऊंगा।'
दिल
वगैरह है कहां?
छोटे मुरारी, कैसी बातों में पड़े हो! कहां दिल,
किसका टूटता दिल! होना भी तो चाहिए टूटने के पहले। सभी दिल लेकर
पैदा थोड़े ही होते हैं। ये फुफ्फस-फेफड़े को तुम दिल मत समझ लेना। सांस वगैरह चलती
है, इसको दिल मत समझ लेना। दिल तो बड़ी मुश्किल से मिलता है।
और सभी को नहीं मिलता। मिल सकता है, लेकिन श्रम से मिलता है।
प्रेम और प्रार्थना से मिलता है। ध्यान और समाधि से मिलता है। मत चिंता करो,
किसी का दिल नहीं टूटेगा। बल्कि खुश होंगे इसमें से बहुत से लोग--कि
अरे चलो ठीक, जाहिर हो गया।
तुम
सोचते हो मेरे साथ जो लाखों लोग थे, मुझे छोड़ कर चले गए, उनका किसी का भी दिल टूटा? नहीं, एक का भी नहीं टूटा। किसी का हार्टफेल वगैरह हुआ ही नहीं। बल्कि वे खुश
हुए कि चलो इस आदमी ने सच्ची-सच्ची बात कह दी, जाहिर कर दिया
अपने हृदय को पूरा, नहीं तो हम इसके चक्कर में न मालूम कब तक
पड़े रहते! उन्होंने कोई और किसी को खोज लिया।
कोई
कमी है? तुम्हारी कथा सुनते हैं, छोटे मुरारी, किसी और की सुन लेंगे। तुम्हारे वाकचातुर्य से प्रसन्न हैं, किसी और के वाकचातुर्य से प्रसन्न हो जाएंगे। हां, ग्राहक
कुछ खो जाएंगे। दिल वगैरह कुछ भी नहीं टूटेगा। और जिनका दिल है वे तुम्हें छोड़ कर
जाएंगे नहीं; दिलदार ही बचेंगे।
और
तुम कहते हो: "मैं समाज को चाहता हूं।'
इस
सड़े समाज को?
इस लाश को? इसको दफनाना है कि चाहना है?
इसको मरघट ले जाना है। इसकी अंतिम क्रिया करनी है। इसको विदा करना
है। एक नये जीवन को जन्माना है।
और
तुम कहते हो: "मेरा प्रेम मेरा गला घोंट रहा है।'
प्रेम
कभी गला नहीं घोंटता है। कहीं न कहीं भीतर, यह हजारों लोगों की भीड़ जो
तुम्हारी कथा सुनने इकट्ठी होती है, तुम्हारे अहंकार को
तृप्ति दे रही होगी। तुम्हें कष्ट तो होगा, मगर मेरी आदत ही
कष्ट देना है, मैं क्या करूं? मैं दिल
वगैरह तोड़ने से नहीं डरता, जी भर कर तोड़ता हूं। हां, जो टूटने पर भी न टूटे, मेरी सब चेष्टाओं से भी न
टूटे, उसको ही मैं स्वीकार करता हूं कि हां था दिल, नहीं टूटा। नहीं तो दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई इधर
गिरा, कोई उधर गिरा! तो गिर जाने दो, झंझट
मिटी। ऐसे दिल को रख कर भी क्या करोगे?
छोटे
मुरारी, तुम कहते हो: "प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।'
प्रकाश
तो डाल दिया,
अब तुम लेने की अनुकंपा करो! तुम जरा आंख खोलो, संन्यास का निमंत्रण मैंने दे दिया है, तुम हिम्मत
करो। कम से कम तुम तो दिल दिखलाओ। फिर तुम्हारे पीछे जिनके पास दिल होगा वे भी चले
आएंगे। नहीं हजारों में रह जाएंगे, थोड़े से लोग बचेंगे।
लेकिन वे थोड़े से लोग ही कीमती हैं, वे थोड़े से लोग ही
प्राणवान हैं।
वच
वच वच
दूसरा
प्रश्न: भगवान,
आप
क्या कर रहे हैं?
आपका इस कलियुग में विशिष्ट कार्य क्या है?
शिव
प्रसाद अग्रवाल,
पहली
तो बात, यह कलियुग नहीं है। कलियुग पहले था, यह सतयुग है।
मेरी समय की अपनी धारणा है।
तुम्हारी
परंपरागत धारणा है कि पहले सतयुग हुआ। सतयुग था, तब समय के चार पैर थे। फिर
त्रेता आया, एक टांग टूट गई। चार पैर की जगह तीन ही पैर बचे,
तिपाई हो गई। किसी तरह तीन पैरों पर भी टिका रह सकता है। समय टिका
रहा। त्रेता भी इतना बुरा नहीं था; सतयुग जैसा तो नहीं था,
कुछ भ्रष्ट हुआ, एक टांग टूट गई, लंगड़ाया थोड़ा, मगर तिपाई फिर भी टिकी रही।
फिर
द्वापर आया। दो ही पैर रह गए। फिर जरा मुश्किल मामला हो गया। फिर जरा कठिनाई हो
गई। फिर सत्य यूं चलने लगा जैसे साइकिल चलती है। दुई-चक्र। मारे जाओ पैडल तो चलती
है, जरा ही पैडल रोका कि धड़ाम से गिरे। मतलब गिरना हर हालत में कहीं भी हो
जाता है, देर नहीं लगती। जरा ही रुके कि गिरे। जरा ही चूके
कि गिरे। द्वापर आया।
फिर
द्वापर भी गया। अब कलियुग चल रहा है--तुम्हारे हिसाब से, परंपरागत
हिसाब से। कलियुग का मतलब होता है, एक ही टांग बची। यह बड़ा
कठिन काम, सर्कस वगैरह में होता है। यह एक ही चक्के की
साइकिल चलाने वाले लोग।
मेरा
एक संन्यासी है। वह सारी दुनिया की यात्रा कर रहा है, एक ही
साइकिल का चक्का लेकर। अभी कुछ दिन पहले यहां था। जापान से लेकर भारत तक की यात्रा
करके एक ही चक्के पर आया। यह है पक्का कलियुगी--महात्मा कलियुगानंद!
और
अब आगे कुछ बचा ही नहीं। अब एक टांग की टूटने की और जरूरत है। और एक टांग कभी भी
टूट जाएगी। एक टांग से कितने उछलोगे-कूदोगे? आज टूटी, कल
टूटी। एक टांग का क्या भरोसा? अब तो लंगड़ी दौड़ चल रही है।
कभी भी गिर जाएगा।
यह
तुम्हारी समय की धारणा है। इस समय की धारणा के पीछे मनोविज्ञान है। हम सबको खयाल
है कि बचपन प्यारा था,
सुंदर था। फिर जवानी आई; वह उतनी प्यारी नहीं
जैसा बचपन था। बचपन तो स्वर्ग था। फिर बुढ़ापा आता है, और फिर
मौत। जन्म से शुरू होती है बात और मौत पर खत्म होती है। यह हमारे सामान्य जीवन का
अनुभव है। इसी अनुभव को हमने पूरे समय पर व्याप्त कर दिया है। तो पहले जन्म--सतयुग;
बचपन भोला-भाला; सब सच्चे लोग; कहीं कोई बेईमानी नहीं; घरों में ताला नहीं लगाना
पड़ता; कोई चोरी ही नहीं करता। यह बचपन की धारणा है हमारी।
फिर जवानी आई, थोड़ा तिरछापन आया। तीन टांगें रह गईं। थोड़ी
धोखाधड़ी प्रविष्ट हुई, थोड़ी बेईमानी, थोड़ा
पाखंड, थोड़ी प्रतियोगिता। वह भोलापन न रहा जो बचपन का था।
फिर बुढ़ापा आया। बुढ़ापे में आदमी और भी चालबाज हो जाता है, और
बेईमान हो जाता है। क्योंकि जीवन भर का अनुभव। सब तरह के दंद-फंद कर चुका। सब तरह
के दंद-फंद झेल चुका। और फिर तो मौत ही बचती है।
इस
तरह हमने चार हिस्सों में समय को बांट दिया, आदमी के हिसाब से। मगर यह धारणा
उचित नहीं है। यह सामान्य आदमी के जीवन को देख कर तो ठीक है, लेकिन अगर बुद्धों का जीवन देखो तो बात बदल जाएगी। बुद्ध का तो जो
सर्वाधिक स्वर्ण-शिखर है, वह मृत्यु का क्षण है, क्योंकि उसी क्षण महापरिनिर्वाण होता है। हम जिसे मृत्यु की तरह जानते हैं,
बुद्धपुरुषों ने उसे महामिलन जाना है। वह परमात्म सत्ता से मिल जाना
है। वह बूंद का सागर में खो जाना है। वह सीमित का असीमित में मिल जाना है। वह मिलन
है, महामिलन है। वह सुहागरात की घड़ी आई। वही प्रणय का क्षण
है, प्रेम का क्षण है--अपनी पराकाष्ठा पर।
बुद्धों
के जीवन में विकास होता है। बुद्धुओं के जीवन में ह्रास होता है। मैं नहीं मानता
कि मेरा बचपन ज्यादा सुंदर था। मैं तो रोज-रोज ज्यादा सौंदर्य को, ज्यादा
आनंद को, ज्यादा रस को उपलब्ध होता रहा हूं। घटा कुछ भी नहीं
है, बढ़ा है। बढ़ता ही जा रहा है। मेरी मृत्यु का क्षण परम
आनंद का क्षण होगा। वही असली जन्म होगा। यह पहला जन्म जो था यह तो देह में बंध
जाना था। यह तो कारागृह में पड़ जाना था। वह जो जन्म होगा मृत्यु के क्षण में,
वह महाजन्म होगा। वह देह से मुक्त होना, कारागृह
से मुक्त होना; और महान विराट में एक हो जाना, उसके साथ तत्सम हो जाना। वह दुर्भाग्य नहीं है। लेकिन बोध बढ़े तो।
मेरे
हिसाब से आदमी विकासमान है,
ह्रासमान नहीं। और विज्ञान मुझसे राजी है। तुम्हारी धारणा, जो तुम्हारे पुराण तुम्हें दे गए हैं, विज्ञान के
हिसाब से गलत है। विज्ञान विकासवादी है। विज्ञान मानता है: आदमी विकसित हो रहा है।
तुम सोचते हो: स्वर्णयुग पहले थे, और अब कलियुग। विज्ञान
कहता है: कलियुग पहले था, स्वर्णयुग अब; और-और स्वर्णयुग आएंगे। और मैं मानता हूं कि इस तरह की धारणा जीवन के
विकास में सहयोगी है।
भारत
के पतन में कलियुग की धारणा ने भी बहुत सहारा दिया है। धारणाएं महंगी साबित होती
हैं अगर गलत हो जाएं तो। क्योंकि लोग मानते हैं कि बुरा तो होना ही है, आगे तो और
बुरा होना है, अच्छा तो हो ही नहीं सकता। जब हो ही नहीं सकता
तो प्रयास क्या करना! जब मरीज ठीक ही नहीं हो सकता तो दवा क्या पिलानी, अस्पताल क्या ले जाना, चिकित्सक को क्या बुलाना! एक
उदासी, एक हताशा। जब रोज-रोज नीचे ही गिरते जाना है तो उठने
की आकांक्षा, अभीप्सा ही समाप्त हो गई। यूं भारत के मन में
एक बड़ी विषाद, अंधकारपूर्ण अमावस छा गई। इसमें सुबह की आशा
ही नहीं है। इसमें रात गहरी ही होती जानी है, सुबह होनी ही
नहीं है।
इसलिए
तुम इतना दुख भोग रहे हो,
इतने दरिद्रता में सड़ रहे हो, इतनी दीनता में
हो। कोई और जिम्मेवार नहीं। तुमने गलत मनोविज्ञान खड़ा कर लिया है। तुमने एक गलत
आधार पर अपने मनोविज्ञान को विकसित किया है। इसको बदल देना जरूरी है। इसको आमूल
रूप से बदल देना जरूरी है।
अय्याम
बदलने हैं, तकदीर बदलनी है
टूटे
हुए ख्वाबों की ताबीर बदलनी है
अश्कों
से जो लिखी है,
तहरीर बदलनी है
हालात
के मारों की तकदीर बदलनी है
मुश्किल
से न घबरा के,
हालात से टकरा के
इस
गर्दिशे-दौरां की तस्वीर बदलनी है
नादारिओ-मुफलिस
की इंसाने-मुकद्दस के
पांवों
में पड़ी है जो,
जंजीर बदलनी है
हैं
जिनके मुकद्दर में नाकामिओ-महरूमी
उन
अपनी दुआओं की तासीर बदलनी है
तामीर
के जज्बे से दुनिया की हमें "ताहीर'
तख्रीब-शिआरों
की तदबीर बदलनी है
अय्याम
बदलने हैं, तकदीर बदलनी है
टूटे हुए
ख्वाबों की ताबीर
बदलनी है
तो
मैं तो यह नहीं कहूंगा कि यह कलियुग है। शिव प्रसाद अग्रवाल, कलियुग
पहले था, अब सतयुग है। और आगे-आगे और सत्यतर युग होगा। आदमी
विकासमान है। आदमी को और-और ऊंचाइयां छूनी हैं। आदमी को और-और नये-नये आयाम छूने
हैं।
सितारों
से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क
के इम्तिहां और
भी हैं
इसे
नहीं भूलना है। सितारों तक जाना है। मत कलियुग की इस धारणा को और ढोओ। काफी ढो
चुके और इसके वजन के तले काफी दब चुके। यह पहाड़ है जो तुम्हारी छाती पर रखा है।
तो
पहली तो बात तुमसे यह कहूं कि यह कोई कलियुग नहीं है।
दूसरी
बात तुमसे यह कहूं,
मैं कोई विशिष्ट कार्य नहीं कर रहा हूं। यह विशिष्ट और साधारण का
भेद ही मिटा देना है। यह भेद ही खतरनाक है। यह भी अहंकार के कारण हमने भेद कर लिया
है--साधारण काम, असाधारण काम; विशिष्ट
और अविशिष्ट; लौकिक-अलौकिक; सांसारिक-आध्यात्मिक।
ये भेद अहंकार के भेद हैं।
मैं
कोई विशिष्ट कार्य नहीं कर रहा हूं। मैं तो अपनी मौज में जी रहा हूं। जो मौज में आ
जाता है कह देता हूं। जो मौज में आ जाता है वैसा करता हूं। न किसी परिणाम की चिंता
है, न किसी सत्कार की अपेक्षा है, न किसी सम्मान की फिकर
है, न किसी अपमान की कोई चिंता है। अपनी मस्ती में, अपने मन का मालिक हूं। इसलिए गालियां मुझे पड़ती हैं, कोई फर्क नहीं होता। सम्मान मुझे मिलता है, कोई फर्क
नहीं होता। सब बराबर है। क्या लेना-देना है! मुझे अपने ढंग से जीना है। इसमें कुछ
विशिष्टता नहीं है।
और
यही मैं अपने संन्यासियों को सिखा रहा हूं कि अपनी मौज से जीओ, अपनी
मस्ती से जीओ। मत किसी और कारण से जीना। क्योंकि जब भी तुम किसी और कारण से जीओगे,
तुम्हें फिर जीने की धारणा को भविष्य पर स्थगित करना होगा। अगर
तुम्हारा कोई हेतु है जीने का, अगर कोई फलाकांक्षा है,
अगर तुम कोई परिणाम लाना चाहते हो, तो
स्वभावतः परिणाम तो भविष्य में आएगा। काम अभी करना होगा, परिणाम
भविष्य में आएगा। कर्म अभी, फल भविष्य में। और उसी से दुख
पैदा होता है। और उसी से विषाद आता है।
अगर
सफल हो गए--जिसकी संभावना बहुत कम है, सौ में एक मौका है कि सफल हो
जाओ--अगर सफल हो गए तो भी विषाद आता है। क्योंकि सफलता पाकर पता चलता है: कुछ भी
तो नहीं पाया! दौड़े इतने, आपाधापी इतनी की, हाथ क्या लगा? कुछ भी तो न लगा। सब आशाएं खो गईं,
पानी के बबूलों की तरह खो गईं। और अगर असफल हुए, तब तो विषाद होना ही है--कि इतने दौड़े, इतने धूपे और
हाथ क्या लगा, कुछ भी न लगा! हर हाल आदमी दुखी होता है जो
भविष्य के लिए जीता है।
मेरी
शिक्षा तो सीधी-साफ है: अभी जीओ। कल न कभी आया है, न आता है। यह क्षण अपने आप
में साधन भी है, साध्य भी।
मैं
तो अपनी बात तुमसे कह देता हूं, अपने ढंग से जी लेता हूं। न मुझे फिकर है कि
इसका क्या परिणाम होगा, न मुझे इसकी चिंता है कि इसका कोई
परिणाम होना चाहिए।
अब
जैसे कि अभी-अभी छोटे मुरारी को मैंने कहा कि ले लो संन्यास! मैंने अपनी मौज में
कह दिया। लें तो ठीक,
न लें तो ठीक। कोई मैं कल इसका विचार करने बैठूंगा नहीं--कि अरे
छोटे मुरारी अभी तक नहीं आए! कि छोटे मुरारी कहां गए! जहां जाना हो जाएं। आना हो
आएं। न आना हो न आएं। मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अभी मैंने मौज में आकर कह दिया। यह
अभी की बात है, अभी खत्म हो गई। इससे आगे मुझे कुछ लेना-देना
नहीं है। इससे आगे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। आ गए तो ठीक; नहीं
आए तो और भी ठीक।
ये
क्या सितम है कि अहसासे-दर्द भी कम है
शबे-फिराक, सितारों
में भी रोशनी कम है
करीबो-दूर
से आती है आपकी आवाज
कभी
बहुत है गमे-जुस्तजू कभी कम है
तमाम
उम्र तेरा इंतजार कर लेंगे
मगर
ये रंज रहेगा कि जिंदगी कम है
उरूजे-माह
को इन्सां समझ गया लेकिन
हनोज, अज्मते-इन्सां
में आग ही कम है
न
साथ देगी ये दम तोड़ती हुई शम्अ
नये चिराग
जलाओ कि रोशनी
कम है
कुछ
लोग हमेशा भविष्य की ही चिंता में लगे रहते हैं।
मगर
ये रंज रहेगा कि जिंदगी कम है
तमाम उम्र
तेरा इंतजार कर
लेंगे
तमाम
उम्र इंतजार के बाद भी यह रंज रहेगा कि जिंदगी कम है, अभी और
इंतजार करना था, अभी और जिंदगी चाहिए थी।
न साथ
देगी ये दम
तोड़ती हुई शम्अ
क्या
पागलपन की बात कर रहे हो?
जब तक शमा जल रही है, इसकी ज्योति के साथ
नाचो!
न
साथ देगी ये दम तोड़ती हुई शम्अ
नये चिराग
जलाओ कि रोशनी
कम है
नये
चिराग जल जाएंगे,
उनके लिए भी तुम यही कहोगे। तब भी यही सवाल रहेगा कि ये नये चिराग
तो जल गए, मगर ये बुझ जाएंगे, और चिराग
जलाओ, रोशनी कम है।
मैं
तो प्रत्येक पल जीने का संदेश देता हूं।
तुम
पूछते हो: "आप क्या कर रहे हैं?'
कुछ
भी नहीं कर रहा हूं। मस्त हूं अपनी मस्ती में। यह कोई काम भी नहीं।
पहले
पीता था तेरी याद में खोने के लिए
अब
तेरी याद भुलाने के लिए पीता हूं
पहले
पीता था जवानी का मजा लेने को
अब
जवानी को मिटाने के लिए पीता हूं
कुछ
तो मेरा खयाल करो,
मैं नशे में हूं
तुम
मेरे आस-पास रहो,
मैं नशे में हूं
डरता
हूं धूप वक्त की झुलसा न दे मुझे
तुम
गेसुओं के साए करो,
मैं नशे में हूं
अब
मुझको कोई शर्ते-अदब याद नहीं है
दुनिया
को मुझसे दूर रखो,
मैं नशे में हूं
मुझको
कहां है होश कि खुद भी सम्हल सकूं
तुम
तो सम्हल-सम्हल के चलो,
मैं नशे में हूं
ये
क्या कि दो ही घूंट पीए और बहक उठे
बदनाम
मयकशी न करो,
मैं नशे में हूं
जब
तक भी होश में था,
बड़ा खाकसार था
अब
मेरा एहतराम करो,
मैं नशे में हूं
कुछ तो
मेरा खयाल करो, मैं नशे में
हूं
तुम
पूछते हो, मेरा काम क्या है। मेरा काम एक ही: तुम्हारा नशा तोड़ना। और तुम्हारा यह
नशा टूट जाए तो तुम्हें उस नशे की तरफ ले चलना, जो पीओ एक
बार तो फिर कभी टूटता नहीं।
अभी
तुम बहुत तरह के नशों में जी रहे हो--धन का, पद का, प्रतिष्ठा
का। ये सब नशे छोड़ देने हैं। और एक नशा पी लेना है--ध्यान का, समाधि का। एक शराब समाधि की। और एक घूंट काफी है। एक घूंट सागर के बराबर
है। एक घूंट पीया कि नशा फिर कभी उतरता ही नहीं। और नशा भी ऐसा नशा कि बेहोशी भी
आती है और होश भी आता है। साथ-साथ आते हैं, युगपत आते हैं।
एक तरफ होश, एक तरफ बेहोशी। और तभी मजा है। जब बेहोशी के बीच
होश का दीया जलता है, जब तुम नाचते भी हो मस्ती में और भीतर
कोई ठहरा भी होता है, जब बाहर तो तुम्हारा नृत्य मीरा का
होता है और भीतर तुम्हारा ठहराव बुद्ध का होता है--तब मजा है। तब जिंदगी आनंद है,
तब जीवन उत्सव है।
मेरी
दृष्टि में, उस क्षण ही अनुभव होता है कि परमात्मा है। उसके पहले लाख मानो, मानने से कुछ भी नहीं होता है। उस क्षण जाना जाता है। और जिसने जाना उसके
जीवन में सौभाग्य की घड़ी आ गई।
जो
मेरे पास इकट्ठे हैं,
उनको पुराने नशे से अलग करना है और नया नशा दे देना है। यह भी कोई
काम नहीं। यह भी मेरी मौज, यह भी मेरा मजा, यह भी मेरी मस्ती। इसलिए किसी का नशा टूट जाए तो ठीक; न टूटे तो मैं नाराज नहीं। टूट जाए तो शुभ; न टूटे
उसकी मर्जी।
आज इतना ही।
वच वच वच
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