जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)
ओशो
प्रवचन-आठवां-(योग: कर्म की कुशलता)
प्रश्न: क्या ध्यान का परिणाम केवल धर्म-जीवन के लिए ही उपयोगी
है अथवा उसका परिणाम रोज के व्यावहारिक जीवन में भी उपयोगी है? कृपया यह
समझाएं।
मूलतः
तो धर्म के लिए ही उपयोगी है। लेकिन धर्म व्यक्ति की आत्मा है। और उस आत्मा में
परिवर्तन हो,
तो व्यवहार अपने आप बदलता ही है। भीतर बदले, तो
बाहर बदलाहट आती है। वह बदलाहट लेकिन छाया की भांति है, परिणाम
की भांति है। वह पीछे चलती है। जैसे हम किसी से पूछें कि कोई आदमी दौड़े, तो आदमी ही दौड़ेगा या उसकी छाया भी दौड़ेगी? ऐसा ही
यह सवाल है। आदमी दौड़ेगा तो छाया तो दौड़ेगी ही। हां, इससे
उलटा नहीं हो सकता कि छाया दौड़े तो आदमी दौड़ेगा क्या? पहली
तो बात छाया दौड़ नहीं सकती। और अगर दौड़े भी, तो भी आदमी के
उसके पीछे दौड़ने का उपाय नहीं है।
तो
व्यक्ति का व्यावहारिक जीवन बदल जाए, तब जरूरी नहीं है कि उसका धार्मिक
जीवन बदले। हो सकता है व्यवहार में वह बहुत अच्छा आदमी हो, और
अंतस में बिलकुल ही उतना अच्छा आदमी न हो। दूसरों के साथ बहुत अच्छा हो और अपने
साथ बहुत बुरा हो। जो उससे प्रकट होता है वह बहुत अच्छा हो और जो अप्रकट भीतर दबा
रह जाता हो वह बहुत बुरा हो। लेकिन इससे उलटा नहीं हो सकता। अगर उसका भीतर बदल जाए,
तो ऐसा नहीं हो सकता कि वह भीतर अच्छा हो जाए और बाहर बुरा हो। यह
असंभव है। क्योंकि बाहर जो भी है व्यक्तित्व, वह
शैडो-पर्सनैलिटी है, वह छाया-व्यक्तित्व है। भीतर आत्मा है।
तो
ध्यान का मौलिक परिणाम तो आत्मा पर होगा, लेकिन गौण परिणाम समस्त जीवन पर हो
जाएगा। और ऐसे व्यक्ति की भीतरी समृद्धि तो बढ़ेगी ही, ऐसे
व्यक्ति की बाह्य समृद्धि के बढ़ने के भी मार्ग बड़े खुल जाएंगे। क्योंकि जैसे ही
व्यक्ति भीतर समृद्ध होता है, वैसे ही उसमें हीनता का भाव
चला जाता है। तो जिन-जिन बाहर के कामों में उसकी हीनता की वजह से बाधा पड?ती थी, अब नहीं पड़ेगी। जैसे ही भीतर समृद्ध होता है,
वैसे ही अपने प्रति बड़ा आश्वस्त हो जाता है। जिसको हम कहें, अपने पर ऐसा भरोसा आ जाता है जैसा उसे कभी भी न था। तो स्वयं पर गैर-भरोसे
के कारण जीवन में जितने नुकसान उसने उठाए, वे अब नहीं उठाने
पड़ेंगे। भीतर समृद्धि हो, तो जीवन ऐसा रससिक्त, भरा-पूरा, फुलफिल्ड होता है कि उस जीवन से क्रोध और
वैमनस्य, और उस जीवन से क्षुद्रता उठनी बंद हो जाती है। तो
क्षुद्रताओं औरर् ईष्याओं से जितनी बाधाएं उसने अपने ही हाथ से अपने बाहर के जगत
में खड़ी कर ली थीं, वे तत्काल सब गिर जाती हैं।
भीतर
से जीवन समृद्ध हो,
तो अपने आप वैसा व्यक्ति आस्तिक हो जाता है। आस्तिकता का और कोई
मतलब ही नहीं है। असल में भीतर इतना मिल गया है कि जो परमात्मा ज्ञात भी नहीं है
उसे भी धन्यवाद देना पड़ेगा। भीतर इतना मिल गया है जिसके लिए हमने कुछ भी तो प्रयास
नहीं किया था, कि उसे प्रसाद मानना ही पड़ेगा। और भीतर जब भी
आनंद होता है, तब "नहीं' चित्त
में नहीं उठता, तब "हां', तब
चीजों के प्रति स्वीकार उठता है। और जिस व्यक्ति के मन में भीतर गहरे में सब तरफ
परमात्मा की स्वीकृति आ जाती है, उसे सारे जगत की सारी
शक्तियां सहयोगी हो जाती हैं। क्योंकि जब तक मैं जगत से लड़ रहा हूं, तब तक जगत मुझसे भी लड़ता रहेगा। जिस दिन मैं ही लड़ना बंद कर देता हूं जगत
से, उस दिन जगत भी मुझसे लड़ना बंद कर देता है। और तब जीत सुनिश्चित
है, सब दिशाओं में, बाहर की दिशाओं में
भी। क्योंकि हार का कोई उपाय नहीं रहा।
तो
ध्यान भीतर चित्त को बदलेगा ही, और धार्मिक ही उसकी प्रक्रिया है। लेकिन तब
सारा व्यक्ति बदलेगा, संबंध बदलेंगे। उस व्यक्ति का
बाह्य-आचरण ही नहीं बदलेगा, उस व्यक्ति की बाह्य-उपलब्धियां
भी बदल जाएंगी। वह अच्छा पिता नहीं हो जाएगा सिर्फ, अच्छा
पति, अच्छी पत्नी नहीं हो जाएगी, अच्छी
मां नहीं हो जाएगी, वह अच्छा दुकानदार भी हो जाएगा, वह अच्छा व्यापारी भी हो जाएगा। कुशलता उसके जीवन में बाहर अपने आप व्यापक
हो जाएगी। इसीलिए कृष्ण कह सके कि योग जो है, वह कर्म की
कुशलता है। वह कर्म की जो कुशलता है, वह जो एफिशिएंसी इन
वर्क है, वही खबर देगी कि अब भीतर भी कोई बड़ा कुशल हो गया
है।
तो
बाहर सब बदलेगा। लेकिन बदलाहट की शुरुआत होगी भीतर से। बाहर होंगे परिणाम। बाहर को
बदलने से बाहर कुछ नहीं बदलता, सिर्फ कलह ही पैदा होती है अपने साथ। भीतर
बदलने से भीतर तो बदलता ही है, बाहर भी सब बदल जाता है।
तो
ध्यान के सांसारिक अर्थ भी हैं। और ध्यान के सांसारिक प्रयोजन और फायदे भी हैं, पर वे गौण
हैं। और उनकी बात शुरू नहीं करनी चाहिए। और उनकी तरफ से कोई ध्यान करने जाएगा,
तो ध्यान नहीं कर सकता। कोई सोचता हो कि धन ज्यादा मिल जाएगा,
कोई सोचता हो कि यश ज्यादा मिल जाएगा, तो
ध्यान नहीं कर सकता। हालांकि ध्यान आ जाने पर धन बहुत बार चला आया है। और ध्यान आ
जाने पर बहुत बार यश चला आया है। पर यश और धन के लिए ध्यान नहीं किया जा सकता।
क्योंकि जो यश और धन के लिए कर रहा है, वह ध्यान कर ही नहीं
सकता, वह बेसिकली अनक्वालिफाइड हो गया। वह ध्यान का उसका कोई
अर्थ ही नहीं रहा। हां, पर ध्यान हो जाने पर यह सब भी चला
आता है। और नहीं भी आता, नहीं भी आए, तो
भेद नहीं पड़ता है। तब दरिद्रता ही बड़ी समृद्ध हो जाती है। और तब अपयश भी यश मालूम
पड़ता है। और तब हार भी जीत होती है। इसलिए आया या नहीं आया, यह
बाहर के लोगों को ही पता चलता है। भीतर जो आदमी खड़ा है, उसे
तो आए या न आए, अब पता ही नहीं चलता है।
प्रश्न: आप जो ध्यान सिखाते हैं, वह क्या
पतंजलि के राजयोग का है या दूसरा? यदि दूसरा है, तो उसका स्रोत क्या है? तथा पतंजलि चर्चित, उनके द्वारा आयोजित जो ध्यान है, उनके प्रकार से
आपका किस प्रकार भिन्न है?
जैसे
मैं पतंजलि से भिन्न हूं,
ऐसे ही। और जब पतंजलि को किसी और स्रोत की जरूरत नहीं है, तो मुझे भी किसी स्रोत की जरूरत नहीं है। और जब पतंजलि प्रामाणिक हो सकते
हैं, तो मेरे प्रामाणिक होने में कोई बाधा नहीं है। और बड़े
मजे की बात यह है कि पांच हजार साल पहले हुआ कोई आदमी, उसका
प्रमाण दें, इससे तो बेहतर है कि मैं जो मौजूद हूं मैं ही
प्रमाण बनूं। मुझसे बात भी हो सकेगी, सवाल भी हो सकेंगे।
पतंजलि से बात भी नहीं हो सकेगी, सवाल भी नहीं हो सकेंगे।
जिस
ध्यान की मैं बात कर रहा हूं, कहना चाहिए, वह मेरा ही
है। लेकिन मेरे का "मैं' से कोई लेना-देना नहीं है।
मेरा सिर्फ इस अर्थ में कि मैं किसी दूसरे को प्रमाण बना कर कुछ भी कहूं, तो वह भरोसे की बात नहीं। मेरा इसी अर्थ में कि जो भी मैं कह रहा हूं वह
अनुभव है, विचार नहीं है। जो भी मैं कह रहा हूं वह किसी
शास्त्र से संगृहीत नहीं है, स्वयं से जाना हुआ है। लेकिन
मेरे का अर्थ "मैं' नहीं है। वह भूल निरंतर हो जाती है।
क्योंकि जब तक "मैं' है तब तक तो ध्यान का अनुभव नहीं
हो सकता। जब तक "मैं' है तब तक ध्यान का अनुभव नहीं हो
सकता। इसलिए "मेरा' बड़ा कामचलाऊ शब्द है, और उसे ब्रेकेट्स में रख लेना। यानी उसका वही अर्थ नहीं है, जो मेरी कुर्सी का होता और मेरे मकान का होता।
मेरे
का कुल मतलब इतना है कि जो भी मैं कह रहा हूं वह अनुभव से कह रहा हूं। और अनुभव के
लिए किसी पतंजलि के पास जाने की मुझे जरूरत नहीं, क्योंकि किसी पतंजलि को
मेरे पास आने की कभी कोई जरूरत नहीं रही। इसलिए न तो किसी शास्त्र में उसका स्रोत
है, न किसी व्यक्ति में उसका स्रोत है।
लेकिन
इसका यह भी मतलब नहीं है कि जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं, वह पतंजलि
ने नहीं जाना या बुद्ध ने नहीं जाना। उन्होंने जाना होगा। लेकिन जो मैंने जाना है,
वह मैं ही जान कर कह रहा हूं, उनके जानने से
लिया गया नहीं है। जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं, अगर उससे कोई
यात्रा करे, तो भी वहीं पहुंच जाएगा जहां पतंजलि ध्यान करके
पहुंचे होंगे। पतंजलि को पढ़ कर कोई पहुंचा होगा, उसकी बात
नहीं करता हूं। पतंजलि जहां पहुंचे होंगे, वह इस ध्यान से भी
वहां पहुंच जाएगा। बुद्ध जहां पहुंचे होंगे, इस ध्यान से भी
वहां पहुंच जाएगा।
इस
अर्थ में मेरा भी नहीं है,
क्योंकि वह शाश्वत है, सदा है।
लेकिन
धर्म का एक राज है। और वह यह है कि उसे सदा ही, जब भी पाना होता है, तब स्वयं से ही पुनः पाना होता है। धर्म जो है, वह
सिर्फ डिसकवरी नहीं है, वह हमेशा रि-डिसकवरी है। विज्ञान में
कोई चीज रि-डिसकवर नहीं करनी पड़ती, सिर्फ डिसकवर करनी पड़ती
है, वह सिर्फ आविष्कार है। न्यूटन ने कर लिया, अब दूसरे को करने की कोई जरूरत नहीं है। अब हो गया। अब वह सबकी थाती हो
गई। अब वह सबकी संपत्ति हो गई। अब जिसको भी आगे काम करना हो, वह न्यूटन से आगे करेगा। अब न्यूटन के ही आविष्कार को पुनः आविष्कृत करने
की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
लेकिन
धर्म का मामला यहां विज्ञान से भिन्न है। यहां पतंजलि ने जो खोज लिया, इसको जब
भी कोई फिर खोजने जाएगा, तो वह रि-डिसकवरी है। वही खोजेगा जो
पतंजलि ने खोजा था, लेकिन पुनः खोजेगा। क्योंकि धर्म में खोज
भी, जो चीज हम खोजते हैं, उसका
अनिवार्य हिस्सा है। खोजने की जो प्रक्रिया है, वह भी पाने
में अनिवार्य हिस्सा है। इसलिए खोजने की प्रक्रिया से पुनः-पुनः प्रत्येक को
गुजरना ही पड़ता है।
और
मेरी दृष्टि शास्त्रीय नहीं है। और मैं समझ ही नहीं पाता कि कोई व्यक्ति शास्त्रीय
होकर और ध्यानी कैसे हो सकेगा! शास्त्रीय होकर ध्यानी होना कठिन है। असल में ध्यान
बड़ी ही अशास्त्रीय यात्रा है। वह स्कॉलरशिप नहीं है, वह पांडित्य नहीं है।
पतंजलि को जाना जा सकता है--उनके शास्त्र से, उनके सूत्रों
से। लेकिन उस तरह जो शास्त्र और सूत्र से जानता है, वह आदमी
चिंतन और विचार में पड़ेगा। वह पतंजलि को ठीक भी समझेगा, तो
भी चिंतन से; गलत भी समझेगा, तो भी
चिंतन से। पतंजलि के सूत्रों का प्रयोग भी करने जाएगा, तो भी
यह प्रयोग शब्द-निर्भर और विचार-निर्भर प्रयोग होगा।
और
ध्यान में एक मौलिक कठिनाई है। और वह कठिनाई यह है कि जब भी कोई आदमी विचार करके
ध्यान करने जाता है,
तो उस विचार के बीज उसके ध्यान में रह जाते हैं। और जब वह ध्यान में
उतरता है, तो वे जो विचार के बीज उसने पकड़े हैं, वे प्रोजेक्ट होने लगते हैं। उसने जो सोचा है, उसका
मन उसको वही करवा देता है। उसने जो माना है, जो मान कर वह
खोज पर निकल गया, उसका मन उसी को प्रोजेक्ट कर देता है। वह
कहता है: यह देखो, यह काली खड़ी है! ये कृष्ण खड़े हैं! ये
क्राइस्ट खड़े हैं! यह देखो, चक्र जगे! यह देखो, कुंडलिनी उठी! जो वह मान कर चल पड़ा है, उसका मन उसे
उन सबका दर्शन करा देगा। यह दर्शन बिलकुल झूठा होगा। इसका यह मतलब नहीं कि
कुंडलिनी नहीं है। यह जो अनुभव में कुंडलिनी आई, यह झूठी
होगी। यह इसके मन की ही भ्रमणा है, यह मन का ही खेल है।
एक
और कुंडलिनी भी है,
जो मान कर नहीं जागती है। जो सब शब्दों को, सब
ज्ञान को, सब शास्त्रों को, सब
विचार-बीजों को छोड़ कर, सिर्फ शून्य होने से उठती है। उसका
वर्णन किसी शास्त्र में नहीं है। हो भी नहीं सकता। क्योंकि वह प्रत्येक व्यक्ति
में अलग ही ढंग से उठती है। इसलिए अगर शास्त्र से आपकी कुंडलिनी बिलकुल मेल खा रही
हो, तब तो पक्का ही समझ लेना कि वह झूठी है। क्योंकि आप
पतंजलि नहीं हैं। तो पतंजलि को जैसा अनुभव हुआ वैसा आपको हो नहीं सकता। यानी ध्यान
की अनुभूति में शास्त्र से बिलकुल मेल खा जाना बड़ी खतरनाक लक्षणा है, यह हो नहीं सकता। अगर अनुभव से आप गुजरें, तो आपको
पच्चीस जगह ऐसा लगेगा मेल भी खाता है, पच्चीस जगह ऐसा भी
लगेगा मेल नहीं भी खाता है। तब समझना कि जो आपके भीतर जगा है, वह आपका ही जगा है, मन का खेल नहीं है।
तो
इसलिए मेरी मनःस्थिति निरंतर यह है कि किसी को भी शास्त्र का सहारा न हो। शास्त्र
छीन लिए जाएं। और मैं भी जो कह रहा हूं, उसे भी मान कर कोई ध्यान में न चला
जाए। क्योंकि ध्यान का मतलब ही यह है कि हम सब मानना छोड़ रहे हैं। उसमें मैं भी
सम्मिलित हूं। क्योंकि तुम्हारे लिए तो मैं भी शास्त्र हूं। अगर पतंजलि मेरे लिए
शास्त्र हैं, तो तुम्हारे लिए मैं भी शास्त्र हूं। मुझे भी
मान कर चलने पर, और ऐसा पक्का कर लेने पर कि जो मैं कहता हूं
वह होगा, हम उसी की खोज पर निकलते हैं, वह हो जाएगा। हो जाएगा जरूर। क्योंकि मन की लीला बड़ी अदभुत है। और बड़ा जो
उसका रहस्य है वह यह है कि मन प्रत्येक चीज का फाल्स कॉइन गढ़ लेता है, वह प्रत्येक चीज के लिए काउंटर कॉइन गढ़ लेता है। जो भी चीज हो सकती है,
मन उसका चकमा दे सकता है कि यह हो रहा है। वह मन के सपने की शक्ति
ही है जिसका वह उपयोग करता है।
रात
रोज हम वह सब देख लेते हैं जो नहीं है। तथाकथित ध्यानों में भी वह देख लिया जाता
है जो नहीं है। ऐसे सब ध्यान सबीज ध्यान हैं, जिनमें विचार का बीज मौजूद है। और
वह बीज ही खिल जाएगा, विचार का बीज, और
फैल जाएगा मन पर, और जो चाहा था वह देख लिया जाएगा, जो पाना था वह पा लिया जाएगा। और कुछ भी नहीं मिलेगा, सिर्फ मन का ही खेल होगा, और आप वहीं खड़े रहेंगे
जहां थे।
तो
इसलिए भी मैं जान कर बात नहीं करना चाहता कि यह पतंजलि है, कि राजयोग
है, कि बुद्धयोग है, कि क्या है कि
क्या नहीं है। इतना ही कहना चाहता हूं कि जो भी मैं कह रहा हूं वैसा मैंने जाना।
लेकिन वह मेरे लिए जानना है, तुम्हारे लिए मानना हो जाएगा।
और यही भूल हुई है सदा। किसी के लिए जो जानना था, किसी के
लिए मानना था। लेकिन मानने वाले ने भी समझा कि उसका भी जानना है। बस तभी, तभी सब उपद्रव हो जाता है।
मुझे
भी मानने की जरूरत नहीं है। क्योंकि ध्यान की पहली शर्त है: बिना बीज के जाना।
सीड्स नहीं होने चाहिए वहां, नहीं तो वे खिल जाएंगे; सीडलेस
जाना। कोई विचार लेकर मत जाना; विचार को खाली करना, शून्य करना। और जिस दिन ऐसी स्थिति आ जाए कि तुम कह सको कि अब तुम्हारे मन
में कुछ भी तो नहीं है, अब कोई बीज ही नहीं रहा जो फूट सकता
है, अब कोई कल्पना नहीं रही जो प्रकट हो सकती है, अब कोई विचार नहीं रहा जो दिखाई पड़ सकता है। जब तुम परम शून्य में खड़े हो
जाओ, तब वहीं पहुंच जाओगे जहां पतंजलि पहुंचते हैं, कि बुद्ध पहुंचते हैं, कि कोई और पहुंचता है।
लेकिन
पहले से मैं किसी शास्त्र को सहारा नहीं दूंगा, क्योंकि वह शास्त्र को पकड़ने की
आकांक्षा से ही ये सब सवाल उठते हैं। कि अगर पतंजलि ठीक हों तो चलो पतंजलि को पकड़
लें, कि बुद्ध ठीक हों तो बुद्ध को पकड़ लें, जो ठीक हो उसे हम पकड़ लें। लेकिन ठीक का तो तुम्हें तब तक पता चलेगा ही
नहीं जब तक तुम न जान लो। तो जानने के पहले कोई भी ठीक नहीं है जानना और जानने के
बाद पता चलेगा सभी ठीक थे। लेकिन वह जानने के बाद की बात है, वह जानने के पहले की बात नहीं है।
प्रश्न: आचार्य श्री, गाइडेंस तो अनिवार्य है न!
असल
में गाइडेंस शब्द जो है उससे कुछ पता नहीं चलता। उससे कुछ पता नहीं चलता। दो बातें
हैं। मार्गदर्शन अनिवार्य है, ऐसा हमें लगता है। लेकिन मार्गदर्शन सबीज हो
सकता है और मार्गदर्शन निर्बीज हो सकता है। मार्गदर्शन ऐसा हो सकता है कि उससे
सिर्फ तुम्हारे मन में विचार और कल्पनाएं और धारणाएं पकड़ जाएं। और मार्गदर्शन ऐसा
हो सकता है कि तुम्हारे सब विचार और तुम्हारी सब धारणाएं तुमसे छिन जाएं और अलग हो
जाएं।
तो
जो व्यक्ति कहता है,
मैं मार्गदर्शन दूंगा, उससे बहुत डर है कि वह
तुम्हें विचार पकड़ा दे। जो व्यक्ति कहता है, मैं कोई
मार्गदर्शक नहीं हूं, उससे संभावना है कि वह तुम्हारे सब
विचार छीन ले। जो कहता है, मैं तुम्हारा गुरु हूं, उसकी बहुत संभावना है कि वह तुम्हारे चित्त में बैठ जाए। जो कहता है,
मैं गुरु नहीं हूं। राह चलते रास्ते पर हम मिल गए हैं। तुमने पूछा
है कि यह रास्ता कहां जाता है? मैं जानता हूं, मैं कहता हूं कि यहां जाता है। बस इससे ज्यादा कोई संबंध नहीं है। तुम कभी
लौट कर मुझे धन्यवाद भी देना, इसका भी सवाल नहीं है। बस बात
यहीं खतम हो गई है।
मार्गदर्शन
अगर निर्बीज हो,
तो मार्गदर्शक नहीं होगा वहां। और मार्गदर्शन अगर सबीज हो, तो मार्गदर्शक बड़ा प्रबल होगा। बल्कि मार्गदर्शक कहेगा कि पहले मार्गदर्शक
को मानो, फिर मार्गदर्शन है। कहेगा, पहले
गुरु बनाओ, फिर दीक्षा है। कहेगा, पहले
मुझे स्वीकार करो, तब ज्ञान। लेकिन जहां दूसरा जो निर्बीज
मार्गदर्शन है--शब्द की तकलीफ है इसलिए ऐसा उपयोग करता हूं, जो
निर्बीज मार्गदर्शन है--जो सीडलेस टीचर है, वह कहेगा,
पहली तो बात यह रही कि अब मैं गुरु नहीं हूं। यानी पहले तो यह तय कर
लो कि गुरु-शिष्य का संबंध न बनाओगे। पहले यह तय कर लो कि मेरी बात तुम्हारे लिए
बीज नहीं बनेगी। पहले तो यह तय कर लो कि मुझे पकड़ नहीं लोगे, मेरे साथ क्लिंगिंग नहीं बना लोगे। पहले तो यह तय कर लो कि तुम्हारे मन
में मेरे लिए कोई जगह न होगी। तब फिर आगे बात चल सकती है।
इन
दोनों में फर्क पड़ेगा।
इसलिए
कठिनाई होती है। जब मेरे जैसा व्यक्ति कहता है, कोई मार्गदर्शक नहीं, कोई मार्गदर्शन नहीं, कोई गुरु नहीं। तो तुम्हें
कठिनाई होती है कि मार्गदर्शन तो चाहिए ही न! पर यह कह कर भी मार्गदर्शन होता है।
और तब मार्गदर्शन के सब खतरे कट जाते हैं। और जो कहता है कि गुरु बिन तो ज्ञान
नहीं होगा, तब मार्गदर्शन के सब खतरे पाजिटिवली मौजूद हो
जाते हैं।
तो
जो गुरु अपनी गुरुडम को इनकार करने को राजी नहीं है, वह गुरु होने की योग्यता खो
देता है। जो गुरु अपने गुरुत्व को सबसे पहले काट डालता है, वह
अपने गुरु होने की योग्यता देता है। अब यह बड़ा उलटा है। लेकिन ऐसा है। ऐसा है। ऐसा
है कि इस कमरे में जो आदमी अपनी श्रेष्ठता की बार-बार खबर देता है, जानना कि उसका चित्त हीन है। स्वभावतः, नहीं तो वह
खबर नहीं देगा। और जो आदमी एक कोने में चुपचाप बैठ जाता है, कि
पता ही नहीं चलता कि वह है भी या नहीं है, जानना कि
श्रेष्ठता इतनी सुनिश्चित है कि उसकी घोषणा व्यर्थ है। यह जो सारी कठिनाई है जीवन
की वह यह है कि यहां उलटा हो जाता है रोज।
इसलिए
जो आदमी कहेगा,
मैं गुरु हूं, जानना कि वह गुरु होने के योग्य
नहीं। और जो आदमी कहे, गुरु-वुरु सब व्यर्थ है! कौन गुरु,
क्या जरूरत! तो जानना कि इस आदमी से कुछ मिल सकता है। क्योंकि
गुरुता ही इतनी गहरी है कि वह घोषणा व्यर्थ है।
मगर
यह नहीं समझ में आता। और तब रोज कठिनाई होती चली जाती है, तब फिर
रोज अड़चन बढ़ती चली जाती है। तब हम दोहरी भूल में पड़ते हैं। जो आदमी कहता है,
मैं गुरु हूं, उसे गुरु मान लेते हैं; और जो आदमी कहता है, मैं गुरु नहीं हूं, उसे हम गुरु नहीं मान लेते हैं। तब ये दोहरी दिक्कतें हो जाती हैं। तब जो
कहता है, मैं गुरु हूं, उससे हम सीखने
जाते हैं; जो कहता है, मैं गुरु नहीं,
तो हम कहते हैं, ठीक है। वह खुद ही कह रहा है
कि मैं गुरु नहीं हूं, तो बात खतम हो गई। अब सीखने को भी
क्या है!
ये
दोहरी भूलें निरंतर होती हैं। और दोनों ही भूलें हैं। दोनों ही भूलें हैं। जिसने
पा लिया है वह मार्गदर्शक हो सकता है। लेकिन जिसने परमात्मा को पा लिया है, वह
तुम्हारा मार्गदर्शक होने में भी कुछ रस लेगा, इसकी भ्रांति
में मत पड़ना। उसको क्या रस हो सकता है! यानी परमात्मा को पाकर अब चार शिष्य पाने
में कोई रस हो सकता है, तो फिर परमात्मा जरा कमजोर ही पाया
होगा। लेकिन जिसको चार शिष्य पाने में रस है, और चार के
चालीस हों तो रस है, तो जानना कि अभी और कुछ बड?ी बात नहीं मिल गई है।
इसलिए
यह एक बहुत बड़ा विरोधी वक्तव्य है। बुद्ध जैसा व्यक्ति, जो गुरु
होने के योग्य है, निरंतर कहता रहेगा कि कैसा गुरु! निरंतर
कहता रहेगा कि गुरु से बचना! क्यों कह रहा है? क्योंकि
चौराहों पर लोग खड़े हैं जो गुरु होने को बहुत उत्सुक हैं। और हम भी शिष्य बनने को
बहुत उत्सुक हैं। शिष्य बनने को, चलने को नहीं। मार्गदर्शन
लेने को, मार्गदर्शन मानने को नहीं।
तो
झूठे गुरु भी उपलब्ध हैं,
झूठा शिष्य भी उपलब्ध है। और उनके बीच संबंध भी बनते हैं। सच्चा
गुरु न तो गुरु होता और सच्चा शिष्य न तो शिष्य होता। तो यह सवाल ही नहीं उठता,
यह सवाल नहीं है। ये बेमानी और इररेलेवेंट बातें हैं। इनका कोई
प्रयोजन नहीं है। ऐसा खयाल में आ जाए तो...
प्रश्न:
आचार्य श्री,
आपके सान्निध्य में व्यक्ति आंतरिक अनुभव करे, मगर बाद में न करे, बाद में न कर पाए, यह क्या बात है? इसको आप मुक्ति की दिशा कहेंगे या
परावलंबन कहेंगे?
प्रश्न: व्यक्तियों को एक साथ कोई अनुभव हो, बाद में
घर जाकर भी ऐसे ही अनुभव हो या अन्य कोई अनुभव हो और घबड़ा भी जाए, तो आप कैसे मार्गदर्शन दें सकेंगे?
एक-एक करके लें। हां, क्या तुम बोले?
प्रश्न: आपके सान्निध्य में व्यक्ति आंतरिक अनुभव करे, मगर बाद
में न कर पाए, यह क्या बात है? इसको आप
मुक्ति की दिशा कहेंगे या परावलंबन कहेंगे?
इसके
दोहरे कारण हो सकते हैं। ऐसे तो बहुत हो सकते हैं, लेकिन मोटा दो का विभाजन
अच्छा होगा। या तो यह हो सकता है कि वह सिर्फ कल्पना कर रहा है, अनुभव नहीं कर रहा। तो कल्पना करने में भी मेरी मौजूदगी में उसको सहारा
मिलेगा। अकेले में मुश्किल पड़ेगी कल्पना करने में। कल्पना भी सहारे मांगती है। तो
मेरी मौजूदगी में वह जल्दी कल्पना कर पाएगा। और कल्पना को अनुभव समझने में बड़ी
आसानी मेरी मौजूदगी में हो जाएगी। घर वैसा अनुभव हो तो शायद सोचे कि कल्पना ही हो
रही है।
तो
एक तो संभावना,
बहुत संभावना यही है कि जो अनुभव मेरी मौजूदगी में होता है, खयाल में आता है, और पीछे नहीं होता, उसमें निन्यानबे मौके पर यह है कि वह कल्पना की गई थी, कल्पना कर ली गई थी। लेकिन एक संभावना यह भी है कि तुमने कल्पना नहीं की
थी, सच में ही तुमने एक छलांग लगाई थी, तुम जमीन से दो फीट ऊंचे कूद गए थे। एक क्षण को तुमने अपनी गर्दन उठा कर
कुछ ऊंचाई पर देख लिया था। लेकिन फिर वापस तुम जमीन पर खड़े हो गए हो। इसकी भी
संभावना है।
दोनों
का फायदा हो सकता है। असल में कल्पना भी तुमने की तो वह भी तो सूचक है कि तुम
कल्पना करना चाहते हो। असल में तुम तो अनुभव ही करना चाहते हो, इसीलिए
कल्पना भी कर ली है। सूचक तो है ही। सभी को कल्पना भी न हो जाएगी। यानी यह मत सोच
लेना कि सभी पास आ जाएंगे तो उनको कल्पना भी हो जाएगी। सभी को कल्पना भी न हो
जाएगी। तुम्हें कल्पना भी हुई तो भी तुम्हारे भीतर कुछ कल्पना होने की संभावना तो
है ही। अनुभव की आकांक्षा तो है ही। सबीज है आकांक्षा, इसलिए
कल्पना हो गई। कल निर्बीज हो सके, तो अनुभव भी हो जाएगा।
इसलिए
ऐसे व्यक्ति को जिसे कल्पना हो गई, उसे मैं कहूंगा कि वह इस सत्य को
समझे कि कल्पना हो गई। हालांकि वह बहुत जोर देगा कि नहीं, अनुभव
हो गया। उसका जोर भी अर्थपूर्ण है। यानी वह बेचारा यह कह रहा है कि अनुभव करना
चाहता हूं, इसलिए कैसे आप कह रहे हैं कि कल्पना हो गई,
मुझे अनुभव हो गया। पर वह समझ नहीं पा रहा है कि अगर इस कल्पना को
अनुभव समझा गया, तो फिर अनुभव कभी न हो सकेगा।
अगर
यह कल्पना ही है,
अगर यह कल्पना ही है, तो मेरे निकट घटी,
इसकी कैसे जांच कर सकोगे कि कल्पना है या सच में ही मेरे करीब तुमने
एक क्षण ऊंचे होकर देख लिया?
दोनों
ही पीछे खो सकते हैं। लेकिन अगर कल्पना ही रही होगी, तो तुम्हारा व्यक्तित्व ठीक
वैसा ही बना रहेगा जैसा इसके पहले था। लेकिन अगर तुमने एक कदम ऊंचा उठ कर देख लिया
होगा और फिर खो गया, तो भी तुम्हारे व्यक्तित्व में परिवर्तन
हो जाएगा। तुम्हारा व्यक्तित्व वही नहीं रह सकेगा पीछे जैसा था। यही कसौटी होगी।
मेरा
मतलब समझ रहे हो न तुम?
भला तुम्हें वह अनुभव घर जाकर न मिल सके, लेकिन
तुम अब वही आदमी न हो सकोगे जो तुम उस अनुभव के पहले थे। अगर तुम वही आदमी फिर हो
जाते हो और अनुभव भी नहीं मिलता, तो जानना कि कल्पना थी।
क्योंकि कल्पना व्यक्तित्व को नहीं छू पाती। बस वही कसौटी का आधार है। अनुभव
व्यक्तित्व को छूता है, चाहे क्षण भर को ही हो। इससे क्या
फर्क पड़ता है!
मैं
एक अंधेरी रात में हूं और बिजली कौंध जाए, एक क्षण को मुझे दिखाई पड़ जाए। तो
अभी अंधेरे में मैं समझ रहा था कि भूत-प्रेत हैं, एक क्षण को
मैंने देख लिया--सब खुला आकाश है, नहीं कोई भूत-प्रेत हैं;
वृक्ष हैं, फूल खिले हैं, रास्ता है। अब बिजली कौंधी और खतम हो गई, क्या मैं
वही आदमी हो सकता हूं जो क्षण भर पहले था इस बिजली कौंधने के? माना कि प्रकाश स्थिर नहीं है, हाथ में अब दीया नहीं
है, बिजली साथ नहीं है, बैटरी पास नहीं
है, अंधेरा फिर घुप्प है, फिर पहले ही
जैसा, बल्कि शायद पहले से भी ज्यादा है। क्योंकि प्रकाश के
अनुभव के बाद अंधेरे का अनुभव गहरा हो जाएगा। शायद इतना अंधेरा पहले नहीं था,
जितना अब बिजली के कौंधने के बाद है। लेकिन अब तुम वही नहीं हो सकते
जो तुम थे। अब भूत-प्रेत नहीं हैं चारों तरफ, चोर-डाकू नहीं,
जंगली जानवर नहीं। अब तुम निर्भय हो इसी अंधेरे में। अब तुम उसी
रास्ते पर ज्यादा मजबूती से कदम रखते हो, ज्यादा आश्वस्त हो,
पहुंचने का अब पक्का भरोसा है, भटकने का अब डर
नहीं है, रास्ता है, वह तुमने देखा है,
अब तुमने जाना, अब तुम वही नहीं हो।
लेकिन
कल्पना अगर तुमने की हो बिजली के कौंधने की, तो तुम्हें भूत-प्रेत नहीं मिट
जाएंगे, तो तुम्हें वृक्ष नहीं दिखाई पड़ जाएंगे, तुम्हें रास्ता नहीं दिखाई पड़ जाएगा। बल्कि खतरा यही है कि कल्पना में
तुमने जो रास्ता देखा हो, कहीं तुम उस रास्ते पर असली में
चलो, तो गङ्ढे में ही गिरो। इससे तो बेहतर था कि टटोल कर ही
चलते और जानते कि रास्ते का मुझे पता नहीं है। क्योंकि टटोल कर चलने वाला भी
रास्ते पर चल सकता है अंधेरे में, लेकिन अंधेरे में झूठा
आश्वस्त हो गया आदमी, कि रास्ता तो दिखाई पड़ गया, निश्चित ही गङ्ढे में गिर जाता है।
तो
कल्पना थी या अनुभव था,
यह तो जांच तुम्हें करनी पड़ेगी। यह तुम्हारी तरफ से कह रहा हूं।
मेरी तरफ से तो सदा पक्का होता है। तुम मेरे सामने बैठ कर क्या कर रहे हो, इसे मेरे लिए तो सदा पक्का होता है, उसकी जांच करने
की मुझे कोई जरूरत नहीं पड़ती। तुम्हारे लिए कह रहा हूं कि कसौटी कसनी पड़ेगी। मेरे
लिए तो पक्का होता है कि तुम कल्पना कर रहे हो कि तुम अनुभव कर रहे हो। क्योंकि जब
तुम कल्पना कर रहे होते हो तब और जब तुम अनुभव कर रहे हो तब, तब तुम्हारे व्यक्तित्व का पूरा ऑरा ही बदल जाता है, तुम्हारे व्यक्तित्व की पूरी आभा-किरणें बदल जाती हैं। जब तुम कल्पना में
होते हो, तब तुम्हारे चेहरे के चारों ओर तंद्रा की छाया पड़
जाती है। तब तुम्हारे बाहर चेहरे पर वही सब रूपरेखा हो जाती है जो तुम्हारे स्वप्न
में होने पर होती है। जब तुम अनुभव में होते हो, तब तुम्हारे
चेहरे पर वही रूपरेखा होती है जो एक जागे हुए व्यक्ति की नींद से पहले क्षण में
जाग कर जो होती है। उन दोनों के बुनियादी रंगों में, प्रकाश
में, चेहरे की रूपरेखा में, पुलक में,
रोएं में, सब में फर्क है।
ये
तो बहुत ऊपरी फर्क बता रहा हूं। भीतरी फर्क तो और गहरे हैं। पर उनकी बात करने से
कोई अर्थ नहीं है। भीतरी फर्क तो बहुत साफ हैं, तुम्हारे आर-पार देखा जा सकता है
कि तुम्हें क्या हो रहा है। पर तुम्हारे लिए कसौटी के लिए कहता हूं कि तुम्हारा
अनुभव वापस न लौटे, तो तुम यह देखना कि तुम्हारा व्यक्तित्व
उससे अगर प्रभावित होकर बदला हो, तुम अगर फिर वही न हो पाते
होओ जो थे, तो तुम समझना कि तुमने कहीं छलांग लगाई थी,
हालांकि वापस लौट आए हो, लेकिन कुछ जाना था,
कोई झलक तुमने पाई थी। अगर वही हो जाते हो, तो
जानना कि कल्पना थी।
तो
कल्पना तुम जिंदगी भर करते रहो। हजार बार मेरे पास आओगे, हजार बार
अनुभव लेकर जाओगे, फिर वही आदमी होओगे। आश्रमों में लोग भटक
रहे हैं, गुरुओं के पास लोग जा रहे हैं, साधना कर रहे हैं, ध्यान कर रहे हैं और फिर लौट कर
वही के वही आदमी हैं, वहां कहीं कोई फर्क पड़ता नहीं। तो
उन्होंने कल्पना की है।
और तू क्या पूछती है?
प्रश्न:
आप बहुत बड़े समूह को ध्यान करवाते हैं, और इसमें सबको हो सकता है कि शांति
भी मिले, गति भी हो। घर जाकर लोग प्रयोग करते हैं, तो आप तो वहां तक मदद नहीं पहुंचाते हैं। और ध्यान में आगे बढ़ने के बाद
अनूठे अनुभव भी हों, कुंडलिनी जागरण के भी कुछ अनुभव हों,
तो उनको आप कैसे मदद पहुंचा सकते हैं? और
लाखों लोगों को आप तो ध्यान करवा रहे हैं। कहीं सख्ती, कोई
तकलीफ तो नहीं हो जाएगी?
इसमें
दोत्तीन बातें हैं। एक बात तो यह कि ध्यान की प्रक्रिया कोई खतरे कभी नहीं लाती।
ध्यान की प्रक्रिया कोई खतरे कभी नहीं लाती। हां, हमें खतरे मालूम हो सकते
हैं, यह दूसरी बात है। यह एक ही बात नहीं है। हमें खतरे
मालूम हो सकते हैं। लेकिन ध्यान की प्रक्रिया कभी कोई खतरे नहीं लाती। ऐसा हो सकता
है कि ध्यान में एक क्षण ऐसा लगे कि अब मैं मर जाऊंगा। तो हमें तो खतरा हो ही गया,
हम तो घबड़ा ही गए। लेकिन ध्यान की प्रक्रिया कोई खतरा नहीं लाती। यह
मरने का अनुभव भी बड़ा सौभाग्यशाली अनुभव है। इससे गुजर जाएं, तो पुनर्जीवन मिलेगा। और ऐसा जीवन मिलेगा जिसमें फिर मृत्यु का भय नहीं
है। इससे न गुजरें, वापस लौट आएं, तो
जहां थे वहीं खड़े रह जाएंगे। तो खतरे तो आते हुए मालूम पड़ेंगे। लेकिन खतरे कभी
होते नहीं हैं। सिर्फ खयाल ही हैं खतरों के। तो इतना ही साधक को मैं खयाल दिला
देता हूं कि खयाल तो बहुत दफे खतरे के आएंगे, बाकी तुम चलते
चले जाना।
अब
मैं मदद कितने लोगों को पहुंचा सकता हूं? तो मैं अपनी बात भी साफ कर दूं।
ऐसे गुरु हैं, जो कहेंगे कि हम मदद पहुंचाएंगे पीछे भी,
यानी जब सामने नहीं हो तब भी मदद पहुंचाएंगे। मैं तो उनमें से हूं,
जो कहते हैं कि जब मैं सामने हूं, तब भी मदद
नहीं पहुंचाता। मैं मदद तो पहुंचाता ही नहीं। क्योंकि मेरी हर तरह की मदद तुम्हारे
लिए नुकसानदायक है। और एक बार मेरी मदद से तुम्हें कुछ हो गया, तो तुम्हारा संकल्प सदा के लिए कमजोर हो जाता है।
तुम्हें
भी अच्छा लगेगा कि मैं तुम्हारी कुंडलिनी जगा दूं। और मुझे भी तुम्हें समझाने से
ज्यादा आसान काम यह है कि मैं तुम्हारी कुंडलिनी जगा दूं। क्योंकि कुंडलिनी जगाना
बहुत आसान मामला है,
तुम्हें समझाना बहुत मुश्किल मामला है। लेकिन तुम्हारी कुंडलिनी मैं
जगा दूं, तो मैं तुम्हें सदा के लिए अपंग कर रहा हूं,
तुम्हारा संकल्प सदा के लिए तोड़ रहा हूं। तुम्हारे विल पावर को जो
मैं चोट पहुंचा रहा हूं, वैसी चोट कोई दुश्मन तुम्हारी छाती
में छुरा भोंक कर भी नहीं पहुंचा सकता। अब तुम कभी भी अपने पैर पर खड़े न हो सकोगे।
और यह एक जन्म नहीं, अनेक जन्म तक पीछा करेगी यह घटना। जब भी
तुम्हारे मन में आकांक्षा जगेगी, तब तुम्हारे मन में यह भी
खयाल जगेगा कि कोई जगा दे।
और
दूसरे की जगाई हुई कुंडलिनी कुंडलिनी नहीं है, वह फिर कल्पना ही है जो दूसरे ने
तुममें जगाई। तुमने नहीं जगाई इसलिए तुम्हें सत्य मालूम पड़ेगी। तुमने कल्पना नहीं
की। लेकिन तुम्हारे भीतर दूसरा कल्पना जगा सकता है, सत्य
नहीं जगा सकता। पर तुम्हें सत्य का कोई पता नहीं है, इसलिए
तुम जान भी न पाओगे कि जो जगा है वह सत्य है कि कल्पना है। हमने तो कल्पनाएं ही
जानी हैं, उस कल्पना में कुंडलिनी भी एक जुड़ जाएगी। और दूसरे
ने जगाई तो झूठी होगी--एक। और दूसरे ने जगाई तो तुम्हारी अपनी संकल्प की शक्ति,
जो सच्ची को जगा सकती थी, वह सदा के लिए पंगु
हो जाती है। तो मैं तो सामने भी मदद नहीं कर सकता। मैं मदद करता ही नहीं। उसका मैं
सख्त दुश्मन हूं कि कोई मदद करे।
प्रश्न: मगर मिल जाए तो?
मिल
जाए तो बात दूसरी है। मिल जाए तो बात दूसरी है। मैं अगर अपने संकल्प से तुम्हारे
भीतर कुछ भी करूं तो तुम्हारे संकल्प को नुकसान पहुंचाऊंगा। लेकिन मैं एक
कैटेलेटिक एजेंट की तरह हूं, सिर्फ मेरी मौजूदगी में तुम कुछ कर लो अपने
भीतर...मेरी मौजूदगी में! मैं कुछ नहीं करता हूं। मैं बिलकुल सूना और कोरा और खाली
तुम्हारे बीच बैठा हूं एक शून्य की भांति, जो है ही नहीं।
जिसे तुम मान सकते थे कि जो नहीं था, तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
सिर्फ तुम्हें मानने में तकलीफ पड़ेगी। तुम्हें शरीर दिखाई पड़ता है तो तुम्हें लगता
है कि हूं। शरीर नहीं होगा तो तुम्हें मानना मुश्किल पड़ेगा। मैं तुम्हारे सामने
इतना खाली और इतना शून्य हूं कि तुम मुझसे हजार मील दूर चले जाओ तो भी फर्क नहीं
पड़ता। क्योंकि मैं यहां, जब तुम पांच फीट मेरे पास थे तब भी
मैं इतना ही नहीं था, जितना तुम्हारे हजार मील दूर होने पर
नहीं हूं।
इसलिए
जो घटना घटी है उसमें मेरा कोई हाथ नहीं है। चूंकि मेरा हाथ नहीं है इसलिए तुम
हजार मील दूर हो कि हजार फीट दूर हो कि पांच इंच दूर हो, इससे कोई
भी फर्क नहीं पड़ रहा है। जो भी खतरे हैं वे हैं ही, जो
तुम्हें होंगे। लेकिन खतरे कुछ होते नहीं।
और
फिर, अगर मेरी शून्यता से तुम्हारे भीतर इतना घट सकता है, तो परमात्मा की जो शून्य उपस्थिति है, वह तुम्हारे
लिए सदा सब जगह है, वही तुम्हें साथी बने। मुझ पर भरोसा नहीं
किया जा सकता है। आज हूं, कल नहीं हूं। इसलिए जिन-जिन लोगों
ने व्यक्तियों पर भरोसा किया, उनके और परमात्मा के बीच
व्यक्ति बाधा की कड़ी बने।
अब
आज भी, परमात्मा अभी मौजूद है, लेकिन बुद्ध को मानने वाला
नमोबुद्धाय कर रहा है। अब वह वाया पच्चीस सौ साल पीछे लौट रहा है। वाया बुद्ध,
पच्चीस सौ साल पीछे लौट कर, पच्चीस सौ साल
वापस लौटता है परमात्मा तक। और परमात्मा यहां था, जिससे कि
सीधा संबंध हो सकता था। यह आदमी पांच हजार साल की यात्रा अकारण चित्त में
करता-करवाता है। और बुद्ध जिस दिन मौजूद थे, उस दिन भी इतने
ही नहीं थे जितने आज नहीं हैं। यानी इस आदमी से कुछ लेना-देना होने वाला नहीं।
उनकी गैर-मौजूदगी से जितना फायदा उस दिन उठा सकते थे, आज भी
उठा सकते हो।
मेरा
मतलब समझे न?
मौजूदगी के फायदे में फर्क पड़ता है। गैर-मौजूदगी के फायदे में क्या
फर्क पड़ेगा? गैर-मौजूदगी के फायदे में कोई फर्क नहीं पड़ने
वाला। तो अब नमोबुद्धाय कहने वाला व्यर्थ दिक्कत में पड़ रहा है। वह एक इतनी लंबी
समय की यात्रा में उलझ रहा है जिसका कोई भी प्रयोजन नहीं है। मगर वह बंधा है। वह
अपने बेटे को भी कह जाएगा कि बुद्ध का स्मरण करना; वह भी
अपने बेटे को कह जाएगा कि बुद्ध का स्मरण करना। बुद्ध, जो
कभी थे ही नहीं! यानी जिनकी मौजूदगी से कभी किसी को कुछ हुआ ही नहीं था, जिनकी गैर-मौजूदगी से तुमने फायदे उठाए थे। लेकिन अब तुम उनके नाम से
नुकसान उठाते फिरोगे।
अच्छा
है कि जो मौजूद है...वह परमात्मा मौजूद है। लेकिन परमात्मा से हम फायदा नहीं उठा
पाते, क्योंकि उसका कोई शरीर नहीं है। उसकी मौजूदगी हम अहसास नहीं कर पाते,
क्योंकि उसकी मौजूदगी और गैर-मौजूदगी बराबर है। उसकी प्रेजेंस और
एब्सेंस में फर्क नहीं है। उसकी प्रेजेंस ही एब्सेंस है, उसकी
एब्सेंस ही प्रेजेंस है। उसका न होना उसका होना है और उसका होना उसका न होना है।
इसलिए उससे हम कोई संबंध नहीं जोड़ पाते। तो हम छोटे-छोटे गुरु खोज लेते हैं,
जो हमें दिखाई पड़ते हैं। और उनमें से कुछ मदारी भी हैं, जो कहेंगे कि हम जगा देंगे, हम करवा देंगे। और हम
इतने डरे हुए और कमजोर लोग हैं कि सोचेंगे कि कोई जगा देगा तो बहुत अच्छा होगा। पर
वह हमें कितना नुकसान पहुंचा जाएगा...और तुम्हें तो पहुंचाएगा ही, खुद को भी पहुंचाएगा। क्योंकि नुकसान कभी एकतरफा नहीं होते। फायदे भी कभी
एकतरफा नहीं होते। नुकसान भी हमेशा डबल एरोड होता है, नुकसान
के भी दोहरे तीर होते हैं, जब मैं तुम्हें पहुंचाता हूं तब
अपने को भी पहुंचा लेता हूं। फायदा भी डबल एरोड है, जब मैं
तुम्हें पहुंचाता हूं तब अपने को भी पहुंचा लेता हूं।
इसलिए
जो तुम्हें किसी भी तरह से नुकसान पहुंचा रहा है जाने-अनजाने, वह अपने
को भी नुकसान पहुंचा रहा है। क्योंकि जो व्यक्ति तुम्हारी कुंडलिनी को जगाता है
काल्पनिक, वह व्यक्ति भी तुम्हारी काल्पनिक कुंडलिनी को तभी
जगा सकता है जब वह उसको वास्तविक समझता हो। नहीं तो काहे के लिए पागलपन करेगा!
क्योंकि वह काफी श्रम उठा रहा है, शक्ति लगा रहा है। असल में
उसकी भी काल्पनिक कुंडलिनी ही जगी होगी। वह भी किसी से जगाई गई होगी। वह भी किसी
से जगाई गई होगी। और वह यह सारा समय जाया कर रहा है, सारा
समय खराब कर रहा है।
तो
यह अगर स्पष्ट हो जाए,
तो न तो मैं मौजूदगी में तुम्हें कोई मदद करता हूं, मैं मदद करता ही नहीं हूं। इसलिए मेरी गैर-मौजूदगी में तुम्हें कोई नुकसान
नहीं होने वाला। क्योंकि अपना कोई हिसाब न था मौजूदगी का, इसलिए
गैर-मौजूदगी का कोई संबंध नहीं है। और चूंकि मैं तुम्हें यह स्पष्ट कहता हूं कि
मैं कोई मदद नहीं करता, इसलिए तुम्हें मेरे वाया परमात्मा से
जुड़ने का मैं कभी भी मौका नहीं देना चाहता। उससे कोई संबंध नहीं है। परमात्मा सब
जगह मौजूद है। तुम उससे सीधे ही जुड़ जाना। और ध्यान तुम कर रहे हो, उसका मतलब ही यह है कि तुम सीधे उससे जुड़ रहे हो। खतरे भी होंगे तो उस पर
समर्पण करना और जो हो तो उसे होने देना। परमात्मा पर छोड़ देना, वह जो करे सो होने देना।
और
बड़ा मजा यह है कि हम परमात्मा पर छोड़ने में डरते हैं और एक व्यक्ति पर छोड़ने में
बड़े आश्वस्त होते हैं। हमारी कमजोरियों की सीमाएं नहीं हैं। हमारे पागलपनों का कोई
अंत नहीं है। अगर मैं कहूं कि मैं लेता हूं तुम्हारा जिम्मा, तो तुम
ज्यादा आश्वस्त लौटते हो। मैं कहता हूं कि छोड़ो परमात्मा पर अपना जिम्मा, तो तुम कहते हो कि बेसहारा छोड़े दे रहे हैं। यानी मामला यह है कि तुम एक
कुएं पर भरोसा करते हो और सागर पर भरोसा नहीं कर पाते। लेकिन जिस कुएं को यह पता
चल गया है कि मैं भी सागर से ही जुड़ा हूं, वह तुम्हें कुएं
से नहीं बांधेगा। क्योंकि कुआं सिवाय सागर के जमीन के एक छेद में से झांकने के और
कुछ भी नहीं है। कुआं एक होल है, जिसमें से सागर झांक रहा
है। लेकिन जिस कुएं को यह पता नहीं चला है कि वह सागर से जुड़ा है और समझता है कि
मैं ही सागर हूं, वह तो तुमसे कहेगा कि कहीं भटक मत जाना,
इसी कुएं पर बार-बार लौट आना, पानी मिलेगा तो
यहीं मिलेगा।
मैं
जानता हूं कि सागर बहुत जगह झांक रहा है। कहीं छोटे कुओं में, कहीं बड़े
सरोवरों में, कहीं सरिताओं में, कहीं
कुछ सागर भी मौजूद है सीमाहीन, सब जगह वह मौजूद है, तुम उसी पर अपने को समर्पित कर देना। इसलिए समर्पण और धन्यवाद की जो
प्रक्रिया मैं ध्यान के पीछे तुमसे करने को कहता हूं वह इसीलिए कि तुम्हारा संबंध
मुझसे न जुड़ जाए। अच्छा तो यही हो कि मैं धन्यवाद लूं। तुम्हें भी सुविधा होगी।
लेकिन मैं कहता हूं, परमात्मा को धन्यवाद दे दो। चाहता यही
हूं कि तुम्हें कल कुछ भी मिले, कल तुम्हें कुछ भी हो,
तो तुम्हारा परमात्मा से सीधा लेन-देन हो। मैं उसमें कहीं बीच में न
होऊं। इसलिए उसकी तो कोई चिंता नहीं है, कोई खतरा नहीं है,
कोई खतरे का कारण नहीं है।
प्रश्न: इस सवाल के अंत में यह बता दूं कि यह सवाल सीधा मेरा
नहीं था,
आपकी पद्धति के खिलाफ बोलने वाले लोगों का था, तो जवाब निकलवा लिया आपसे।
हां, हां,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
प्रश्न: आधुनिक लोगों को डेसमंड मॉरिस "दि नेकेड एप' कहते हैं।
आप भी ध्यानार्थी को ध्यान के प्रयोग में कहते हैं कि जैसा हो रहा है वैसा हो जाए।
ध्यानार्थियों में कई हंसते हैं, रोते हैं, नग्न हो जाते हैं। इस स्थिति को आप रिग्रेशन कहेंगे या नहीं? और दूसरा, ऐसा प्राकृतिक वर्तन व्यक्ति को हानि नहीं
पहुंचाता है, ऐसा आप कैसे मानेंगे?
वह
जो डेसमंड मॉरिस है,
वह जब आदमी को दि नेकेड एप कह रहा है, नंगा
बंदर कह रहा है, उसके प्रयोजन बहुत दूसरे हैं। वह इतना ही कह
रहा है कि बंदर के पास तो चमड़ी पर बाल हैं, आदमी के पास वे
बाल भी नहीं हैं, आदमी नेकेड है, इस
अर्थों में। आदमी के पास अपने शरीर को छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है। इसीलिए तो
नेकेड एप को कपड़े खोजना पड़े। जो बंदरों के, रीछों के,
भालुओं के पास है, वह आदमी के पास नहीं है। तो
उसे अपने शरीर को ढांकने के लिए कुछ और खोजना पड़ा है।
जब
मैं व्यक्तियों को कह रहा हूं कि ध्यान में जो भी हो, चाहे
नग्नता ही क्यों न हो जाए, तो देखने वाले को तो यही दिखाई
पड़ेगा कि यह आदमी कपड़े छोड़ कर वापस जंगली हो गया। लेकिन जंगली से जंगली आदमी भी,
जंगली से जंगली आदमी भी अपने शरीर को छिपाने के उपाय कर रहा है। कम
कर रहा है, ज्यादा कर रहा है, वह दूसरी
बात। जंगली से जंगली आदमी भी--मात्राओं के फर्क हैं--जंगली आदमी भी अपने शरीर को
छिपाने के उपाय कर रहा है। यह जो आदमी ध्यान में नग्न खड़ा हो गया है, यह रिग्रेशन नहीं है, यह आगे जाना है। यह आदमी जो
ध्यान में नग्न खड़ा हो गया है, यह कपड़े पहनने वाले आदमी से
आगे जा रहा है। घटना तो एक सी मालूम पड़ती है कि नंगा आदमी है जंगल का, और यह भी नंगा है।
एक
बच्चा है, भोला है; तुम उसके हाथ से रुपया छीन लो तो वह दे
देगा। एक जवान है, जिसने जिंदगी भर पैसा इकट्ठा किया है;
कभी छोड़ नहीं सकता। फिर यही बूढ़ा हो गया; और
यह बूढ़ा, फिर तुम इससे रुपया छीनता हो, और हंसता है। तो यह दिखाई तो पड़ रहा है कि ठीक बच्चे जैसी ही घटना है।
लेकिन यह रिग्रेशन नहीं है। यह बूढ़ा जवानी के पैसा कमाने की यात्रा को पार कर आया।
जब यह बच्चा था तब इसके भीतर सब छिपा था, जो जवानी में प्रकट
हुआ। अब यह बूढ़ा है, अब यह सब निकल चुका, अब इसके भीतर छिपा नहीं है।
तो
बच्चे बहुत गहरे में निर्दोष कभी नहीं हो सकते, सिर्फ बूढ़े ही हो सकते हैं,
गहरे में। क्योंकि बच्चा पोटेंशियली सभी चालाकियां अपने में लिए
बैठा है जो कल प्रकट होंगी। तो बच्चा बहुत गहरे में कभी भी इनोसेंट नहीं हो सकता।
हो ही नहीं सकता। क्योंकि अभी उसमें सब छिपा है, जिसको मौका
मिल-मिल कर विकास मिलेगा और मेनिफेस्टेशन होगा। अभी उसमें सेक्स आएगा। अगर वह नग्न
खड़ा है तो इसलिए नहीं कि सेक्स से मुक्त हो गया है, बल्कि
इसलिए कि अभी वह अनअवेयर है, अभी सेक्स का उसे पता नहीं है।
अभी सेक्स की लहर आएगी, वह अपने शरीर को ढांकेगा।
तो
बच्चा कभी भी गहरे में निर्दोष नहीं है, सिर्फ ऊपर से निर्दोष है। कहना
चाहिए, बच्चा सिर्फ इग्नोरेंट है। और इग्नोरेंस ही इनोसेंस
मालूम पड़ती है। बच्चा सिर्फ अज्ञानी है। और अज्ञान में निर्दोषता मालूम पड़ती है,
होती नहीं है।
लेकिन
फिर यही बच्चा जवान हुआ,
और सब दोष प्रकट हुए, सब वृत्तियां जागीं,
वही सब जो बचपन में नहीं दिखाई पड़ता था, आया।
क्रोध आया, मत्सर आया, काम आया,
लोभ आया, हिंसा आई, सब
आया; चालाकियां, बेईमानियां, पाखंड, सब आया। और फिर यह बूढ़ा हुआ। और अब यह हंसता
है। अब न लोभ है, अब न बेईमानी है, अब
न चालाकी है, बल्कि अब इसकी आंख में फिर बच्चे को खोजा जा
सकता है। लेकिन अब यह बच्चा ही नहीं हो गया है। अब यह सब जान कर पार हुआ है। यह एक
ट्रांसेनडेंस है। बूढ़ा एक नॉलेज है, एक ज्ञान है। और ज्ञान
से आई हुई निर्दोषता में और अज्ञान से आई हुई निर्दोषता में ऊपरी तालमेल मालूम
पड़ता है, भीतरी तालमेल नहीं है।
तो
जब एक आदमी ध्यान में नग्न होता है तो यह जंगल की नग्नता नहीं है। जंगल की नग्नता
अज्ञान है। ध्यान की नग्नता एक उपलब्धि है। यह एक बहुत और बात है। इसका जंगल से
कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन ऊपर से एक सा दिखाई पड़ सकता है। एक सा दिखाई पड़ सकता
है, वह हमारी भ्रांति है एक सा दिखाई पड़ने की। और यह भी कि इस नग्नता से क्या
फायदा हो जाएगा?
इस
नग्नता से बहुत से फायदे हो जाते हैं। सभी को हो जाएंगे, ऐसा नहीं
है। जिनको वस्त्रों से कोई नुकसान नहीं पहुंचा है, उन्हें कोई
फायदा नहीं होगा, स्वभावतः। लेकिन ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है
जिसको वस्त्रों से नुकसान नहीं पहुंचा है।
तो
जिनको जिस मात्रा में नुकसान पहुंचा है उसी मात्रा में फायदा हो जाएगा। और बड़ा मजा
यह है कि जिनको कम नुकसान पहुंचा है वे जल्दी वस्त्र फेंक पाते हैं और जिनको
ज्यादा नुकसान पहुंचा है वे देर में वस्त्र फेंक पाते हैं। उसके कारण हैं। क्योंकि
जिनको जितना ज्यादा नुकसान पहुंचा है वस्त्रों से, वे उतने ही डरे हुए हैं,
भयभीत हैं और उनको पकड़े हुए हैं। क्योंकि उनको डर है कि वह सारा का
सारा प्रकट न हो जाए जो वस्त्रों में छिपा है। इसलिए वस्त्र को जल्दी फेंक वह पाता
है जिसको बहुत नुकसान नहीं हुआ है। जिसे वस्त्र को फेंकने से कोई बहुत बड़ा भय नहीं
मालूम होता, वही जल्दी फेंक पाता है। तो जिसको कम नुकसान हुआ
है वह जल्दी फेंक पाता है और नुकसान को मिटा पाता है। और जिनको ज्यादा नुकसान हुए
हैं वे देर तक नहीं फेंक पाते और नुकसान को बचाते चले जाते हैं।
वही
लोग पूछेंगे भी कि फायदा क्या हो जाएगा? जिनको फायदा हो सकता है, बहुत हो सकता है, वही पूछेंगे: फायदा क्या हो जाएगा?
असल में वे फायदा इसीलिए पूछ रहे हैं ताकि वस्त्र फेंकने की हिम्मत
जुटा सकें। अगर फायदा पलड़े पर वजनी मालूम पड़े, नुकसान से
फायदा ज्यादा मालूम पड़े, तौल पक्की बैठ जाए, तो वे विचार करें। समझे न, उनके विचार करने का कारण!
वे यह पूछ रहे हैं कि नुकसान तो भारी हो जाएगा--जो उनको लग रहा है भीतर--अब उस
नुकसान के ठीक समतुल अगर पलड़ा भारी हो लाभ का, तो वे बेचारे
हिम्मत भी कर सकते हैं।
लेकिन
जो लाभ के लिए वस्त्र फेंकेगा, उसको कोई लाभ नहीं हो सकता है। ये सारी
इंट्रिकेसीज हैं, ये सारी कांप्लेक्सिटीज हैं। इन जटिलताओं
को समझ लेना चाहिए। जो लाभ के लिए वस्त्र फेंकेगा उसे लाभ नहीं हो सकता है। क्योंकि
लाभ वाला चित्त इनोसेंट नहीं है। लाभ की आकांक्षा वाला चित्त चालाक है, दुकानदार है, बारगेनिंग है। कपड़ा ही फेंक रहा है,
कोई बड़ा भारी काम नहीं कर रहा है। कपड़ा ही फेंक रहा है। तुमने कमीज
उतार दी, तो तुम चाहते हो कि परमात्मा मिल जाए? यानी तुम कभी यह भी नहीं सोचते कि तुमने किया क्या है! कि तुमने वस्त्र
फेंक दिए, तुम नग्न खड़े हो गए, तो तुम
सोचते हो--मोक्ष कहां है? क्योंकि मैं नग्न खड़ा हूं! तुमने
छोड़ा क्या है?
नहीं
लेकिन, तुम लाभ को पूछ रहे हो, कारण और है। नुकसान बड़े
दिखते हैं। "लोग क्या कहेंगे?' बड़ा नुकसान तो वह दिखता
है। हमारे चित्त में पब्लिक ओपीनियन से ज्यादा बड़ा भय और किसी बात का नहीं है।
मृत्यु का भी इतना भय नहीं है। एक आदमी दिवालिया हो रहा हो, तो
आत्महत्या पसंद करेगा बजाय दिवालिया होने के। क्योंकि वह जो पब्लिक ओपीनियन
है--लोग क्या कहेंगे? एक आदमी गलत काम करता हुआ पकड़ा जाए,
तो बजाय इसके कि लोगों को पता चले, वह मर जाना
पसंद करेगा। जिंदगी से भी ज्यादा कीमत "लोग क्या कहते हैं?' हमारे मन में उसकी है। इसलिए तुम कपड़े नहीं पहने हुए हो, लोग तुम्हें कपड़े पहनाए हुए हैं। ये कपड़े कपड़े ही नहीं हैं। और सब कुछ भी
हम जो सम्हाले हुए हैं, वह हम सम्हाले हुए हैं, इस भ्रांति में मत रहना, सब दूसरों के हाथ उनको
सम्हाले हुए हैं।
बाथरूम
में तुम नग्न हो जाते हो,
क्योंकि दूसरा वहां मौजूद नहीं। वह कोई रास्ता, जनपथ नहीं है, वह कोई चौराहा नहीं है। बाथरूम में
तुम नग्न हो जाते हो। क्यों? वस्त्र तो उतारने में तुम पूछते
थे कि फायदा होना चाहिए, तब उतारेंगे। बाथरूम में क्यों उतार
रहे हो? बाथरूम में तुम ही हो, पब्लिक
ओपीनियन नहीं है। वहां कोई और नहीं है जो तुम्हारे लिए कुछ कहे। तुम्हीं हो।
तो
बड़ा भय तो जो है वह यह है कि लोग क्या कहेंगे? और मेरा मानना है कि ध्यान की
गहराई में इससे बड़ा लाभ होता है, जिस दिन तुम छोड़ देते हो यह
खयाल कि लोग क्या कहेंगे। क्योंकि जब तक तुम इसे पकड़े हुए हो कि लोग क्या कहेंगे,
तब तक तुम कभी भी अपने निजी सत्य को नहीं उपलब्ध हो सकते। तुम हमेशा
पब्लिक ट्रुथ, जो सार्वजनिक मान्यता है सत्य की, उसके आस-पास ही जीओगे।
तो
वस्त्र फेंकने वाले को फायदा क्या होता है? बड़ा फायदा तो यह हो जाता है फेंकते
ही--फायदे के लिए फेंके तो नहीं, ध्यान में सहज फेंक दे
वस्त्र तो बड़ा फायदा तो यह हो जाता है--कि पहली दफे वह खड़ा होता है अकेला, और लोग क्या कहते हैं इसकी चिंता के बाहर। यह छोटी घटना नहीं है। यह बहुत
बड़ी घटना है।
हमारी
सारी चिंता यही है कि लोग क्या कहते हैं--पति पत्नी को क्या कहता है, पत्नी पति
को क्या कहती है, बाप बेटे को क्या कहता है, बेटा बाप को क्या कहता है, गुरु शिष्य को क्या कहता
है, शिष्य गुरु को क्या कहता है--कौन किसको क्या कहता है?
लेकिन तुम अपने लिए क्या कहते हो, बस यह भर एक
सवाल हम नहीं पूछते।
तो
जिस क्षण तुम कपड़े फेंक रहे हो, उस क्षण तुम एक डिसीजन ले रहे हो, एक बड़ा निर्णायक क्षण है, एक बहुत डिसीसिव मोमेंट
है। उस क्षण में तुम कपड़े ही नहीं फेंक रहे, तुम पब्लिक
ओपीनियन का भय फेंक रहे हो। और क्या है! तुम यह फेंक रहे हो कि ठीक है, अब आप आप, मैं मैं! और कपड़े के फेंकने के साथ ही--वह
सिर्फ सूचक है--तुम्हारे बहुत से भय जो भीतर घिरे हैं कि लोग क्या कहेंगे, वे सब गिर जाते हैं, तुम तत्काल हलके हो जाते हो।
तुम तत्काल हलके हो जाते हो।
कपड़े
फेंकने के साथ दूसरा जो फायदा है वह यह है कि हमने कभी अपने को, जैसे हम
हैं, वैसा देखने की हिम्मत नहीं जुटाई है। हमने अपने को मान
रखा है--वैसे जैसे हम नहीं हैं। हमारी एक इमेज है, एक
प्रतिमा है, जो हम चलते हैं कि यह हूं मैं। जिस दिन तुम नग्न
खड़े हो जाते हो, यह तो बाहरी घटना है, लेकिन
यह भीतरी घटना के बिना नहीं घटती। इसलिए मैं नहीं कहता कि नग्न खड़े होकर ध्यान
करो। मैं कहता हूं, ध्यान में नग्नता आ जाए तो आ जाने दो।
मैं तुमसे यह भी कह सकता हूं कि पहले कपड़े निकालो और नग्न हो जाओ, फिर ध्यान करो। तब यह फायदा नहीं होगा।
मैं
तुमसे कहता हूं,
जब भीतर तुम्हें घटना घटे तब तुम नग्न हो जाओ। नग्न का मतलब यह है
कि जिस क्षण वह घटना घटे जब तुम जानना चाहो कि मैं जैसा हूं वैसा ही अपने को जानना
चाहता हूं, और मैं जैसा हूं वैसा ही लोग मुझे जानें, अन्यथा की आकांक्षा नहीं है अब। तब तुमने सत्य की तरफ बड़े से बड़ा कदम
उठाया। और पहले तो तुम्हें अपनी नग्नता को पूरी तरह जानना पड़ेगा--शरीर की, मन की, गहरी से गहरी। और तभी तुम उस विस्फोट को
उपलब्ध होओगे जहां कि परम प्रकट होता है। लेकिन उसके पहले तुम तो अपने सामने प्रकट
हो जाओ। तो तुम्हारी सारी इमेजेज, जो तुमने दूसरों के खयाल
से बना कर रखी हैं, थोप कर रखी हैं, वे
सब गिर जाएंगी। चेहरे पर जब किसी ने पाउडर लगा रखा है, तो वह
अपने लिए नहीं लगाया होता, वह किसी और के लिए है। इसलिए आदमी
बदलने के साथ पाउडर बदलता है। अगर आदमी से मतलब न हो तो नहीं लगाए भी चल जाता है।
मतलब हो तो बिना लगाए नहीं चलता है।
तुम
सब जो अपने शरीर के साथ कर रहे हो, वह असल में तुम दूसरों के साथ कर
रहे हो। जिस क्षण तुम अपने शरीर के साथ बदलाहट लेते हो, उसी
क्षण तुमने दूसरों और अपने बीच के संबंध में बदलाहट ली।
और
यह तो बाहरी घटना है,
लेकिन भीतरी उसका छोर है, जहां से तुम नग्न
सत्य को जानने की हिम्मत जुटा पाओगे। और जीवन में बड़ी नग्नताएं हैं जो जाननी ही
चाहिए। नहीं तो धोखे में हम जीते हैं। कपड़े पहन कर हम भूल ही जाते हैं कि हम नग्न
हैं। घर में रह कर हम भूल ही जाते हैं कि कब्र पास है, कि
मरघट नजदीक है। स्वस्थ होकर हम भूल ही जाते हैं कि बीमारी पीछे पल रही है। सुखी
होकर हम भूल ही जाते हैं कि दरवाजे पर दुख खट-खट कर रहा है। अगर हम चीजों को उनकी
पूरी नग्नता में देखें, तो हर सुख अपने पीछे दुख को लाता हुआ
दिखाई पड़ेगा। हर जन्म अपने साथ मौत को बुलाता प्रतीत पड़ेगा।
शरीर
का भी जो बोध है हमारा,
तीसरी बात, वह भी बहुत क्षीण हो गया है। शरीर
की जगह हमें कपड़ों का बोध है। जब मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारे शरीर का बोध,
तब तुम्हें अपने कपड़ों का ही बोध होता है। अभी नग्न तुम नहीं खड़े हो,
कपड़े पहने खड़े हो। हवा का झोंका आता है, तुम्हारी
कमीज को छूता है, कमीज तुम्हें छूती है, हवा का झोंका तुम्हें कभी नहीं छूता। इसलिए हवा के झोंके का तुम्हारा जो
अनुभव है वह कमीज के स्पर्श का है, हवा के झोंके का अनुभव
तुम्हें नहीं है। और जब सूरज की किरणें तुम्हारे ऊपर पड़ती हैं, तो तुम्हारी कमीज उनकी गर्मी को पीती है और फिर तुम्हारे शरीर को गरमाहट
देती है। तुम्हें सूरज की किरणों का जो अनुभव है वह कमीज की गरमाहट का है, सूरज की किरणों का नहीं है।
जैसे
ही वस्त्र तुम्हारे शरीर से अलग हैं, जीवन और तुम सीधे-सीधे सामने होते
हो। सूरज की किरण पड़ती है तो तुम्हारी चमड़ी को छूती है, तुम्हें
छूती है, बीच में एक दर्जी नहीं होता है। हवा का झोंका लगता
है तो तुम्हें लगता है। और पहली दफे तुम्हारे शरीर में हजार स्फुरणाएं होती हैं,
जिनसे तुम अपरिचित हो, जिनका तुम्हें पता ही
नहीं है। तुम पहली दफा, और जब तुम नग्न खड़े हो, और चारों तरफ की आंखें तुम्हारी नग्नता पर हो गई हैं, तो तुम्हारी भीतरी आंख भी...क्योंकि बाहर से तो तुम अपने शरीर को नग्न
नहीं देख सकते, लेकिन जैसे ही तुम नग्न खड़े हो, तुम पहली दफे फ्रॉम दि इनसाइड अपने शरीर के प्रति कांशस होते हो कि यह
मेरा शरीर है। और यह कांशसनेस बहुत अलग है। यह कांशसनेस बहुत अलग है।
अपने
इस हाथ को बाहर से देखना एक बात है और इस हाथ को भीतर से अनुभव करना बिलकुल दूसरी
बात है। जब पहली दफा कोई ध्यान में नग्न खड़ा होता है और सारा जगत पहली दफे शरीर को
स्पर्श करता है,
और शरीर की संवेदना पहली दफे जगती है और स्पष्ट और सीधी होती है,
तब तुम भीतर से अनुभव कर पाते हो कि हवाएं मुझे कहां छूती हैं,
वह मेरा शरीर है; किरणें मुझे कहां उत्तप्त
करती हैं, वह मेरा शरीर है; लोगों की
आंखें कहां मुझे नग्न देख रही हैं, वह मेरा शरीर है। और भीतर
से तुम्हारी जो चेतना है शरीर के प्रति, जो सेंसिटिविटी है,
जो संवेदना है, वह एक गहरे से गहरा अनुभव है,
जो तुम्हारे आत्म-ज्ञान के लिए सहयोगी बनता है। फिर और हजार लाभ
हैं। लेकिन लाभ के लिए कभी कोई नग्न हो, तो कोई भी लाभ नहीं
होता है।
प्रश्न: ऐसे प्रयोग समाज के बीच में करने से कोई अनैतिकता तो
नहीं पैदा होती है?
और देखने वालों को इससे कोई लाभ-हानि है?
देखने
वालों को भी बहुत से लाभ हो सकते हैं। और जिन्हें हानियां हो सकती हैं, उन्हें
आपको बिना नग्न देखे ही हानियां हो रही हैं। क्योंकि वे नग्न तस्वीरें देख लेते
हैं, वे नग्न फिल्में देख लेते हैं। वे बच नहीं जाते,
वे छोड़ नहीं देते। और मजा यह है कि नग्न तस्वीर जितना नुकसान करती
है, नग्न आदमी का शरीर कभी नहीं करता। क्योंकि नग्न आदमी का
शरीर जो है, वह बिलकुल ही आकर्षक नहीं है। और नग्न तस्वीर जो
है, वह बहुत साइंटिफिक ढंग से निर्मित की जाती है और आकर्षक
है। वह मैनिपुलेटेड है। नग्न आदमी का शरीर अनमैनिपुलेटेड है। वह जैसा है है। नग्न
तस्वीर, इस भ्रांति में मत पड़ना कि वह वैसी है जैसी है। नग्न
तस्वीर आपके चित्त की कामवासनाओं के समस्त आकर्षण-बिंदुओं को ध्यान में रख कर
निर्मित की जाती है।
एक
नग्न आदमी जब सीधा खड़ा है ध्यान में, तब तुम ज्यादा देर उसकी नग्नता में
रस नहीं ले सकते हो। ज्यादा देर क्या, ले ही नहीं सकते हो।
तुम अचानक पाते हो कि नग्न है और बात खतम हो गई है, अब और
कोई रस नहीं है। नग्न आदमी का शरीर थोड़ी ही देर में विरस हो जाएगा। लेकिन नग्न
तस्वीर तुम पन्ने उलट-उलट कर बार-बार देखना चाहोगे। क्योंकि नग्न तस्वीर जो है,
वह बहुत साइकोलाजिकल व्यवस्था से बनाई गई है। उसमें तुम्हारे चित्त
का ध्यान रख कर बनाया गया है कि तुम्हारा चित्त क्या देखना चाहता है नग्नता में,
उसे उभारा गया है। तुम्हारा चित्त क्या नहीं देखना चाहता, उसे हटाया गया है। तुम्हारा चित्त क्या देखना चाहता है, उसे सामने रखा गया है; जो नहीं देखना चाहता है,
उसे अंधेरे में डाला गया है। वह तो पूरा का पूरा मैनिपुलेटेड है,
वह व्यवस्थित है। इसलिए नग्न आदमी कभी भी ज्यादा रसपूर्ण नहीं है।
नग्न तस्वीर बहुत रसपूर्ण है। उसका रस लौट-लौट कर आ जाएगा।
और
भी दूसरी बात है,
कि अगर नग्न आदमी को देख कर तुम्हारा रस गिर जाए, जो कि गिरता ही है। ध्यान में नग्न आदमी को देख कर तो फौरन रस गिरेगा,
क्योंकि ध्यान में खड़ा हुआ नग्न आदमी कामुक नहीं है। और शरीर वही हो
जाता है जो चित्त होता है। हमारा शरीर हजार मौसम और ऋतुएं लेता है। जब काम से भरा
हुआ शरीर नग्न होता है, तब शरीर और होता है, तब उसके वाइब्रेशंस और होते हैं। और जब ध्यान में खड़ा आदमी नग्न होता है,
तब शरीर और होता है, उसके वाइब्रेशंस और होते
हैं। ध्यान में खड़े नग्न आदमी को देख कर तुम्हारे भीतर ध्यान के ही जगने की
संभावना है। काम में डूबे नग्न आदमी को देख कर तुम्हारे भीतर काम के ही जगने की
संभावना है। क्योंकि वाइब्रेशंस हैं वे। इसलिए ध्यान में खड़ा हुआ नग्न आदमी साधारण
नग्न नहीं है। और दूसरा व्यक्ति जैसे ही उसे देखेगा, पहला तो
उसे यह पता चलेगा कि नग्नता में ऐसा क्या है जिसके लिए मैं देखने को आतुर रहा हूं!
अभी
ऐसा आजोल में ही हुआ। एक मित्र, जिनकी कामुकता की तीव्र पीड़ा है। जो मुझे
निरंतर कहते रहे हैं कि वही मेरा मसला है, उसे कैसे हल करूं?
जो इस उम्र में, दो-चार बच्चों के बाप होकर भी
कहते हैं कि रास्ते पर जाऊं और अगर स्त्री दिख जाए तो किसी न किसी तरह धक्का मारे
बिना मैं नहीं रह सकता हूं।
इस
कैंप में जब एक महिला नग्न हो गई, वे उसके पीछे ही थे। उन्होंने उसी सांझ मुझे
आकर कहा कि मुझे पता नहीं उस महिला को कुछ लाभ हुआ कि नहीं, लेकिन
मुझे जो लाभ हो गया उसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। मैं उसे नग्न देख कर पहली
दफे रोया--कि मैंने हर स्त्री को नग्न देखना चाहा! और है तो कुछ भी नहीं! है तो यह
सामने!
उनकी
काम की वृत्ति को तीव्र शॉक लगा। और पहली दफे उन्हें लगा कि उनकी कामनाएं और
इच्छाएं बड़ी व्यर्थ थीं। उन्होंने मुझे आकर कहा कि मैं पहली दफा आज अनुभव कर रहा
हूं कि स्त्री से मुक्त हूं। अब वैसी दौड़ नहीं है, अब मैं बिना धक्का मारे
निकल सकता हूं।
तो
वह तो लाभ तो होंगे। और रह गया नुकसान, जिनको नुकसान हो सकते हैं...किसी
को हो सकते हैं...जिनको नुकसान हो सकते हैं, वे ध्यान के
कैंप के लिए नुकसान करवाने के लिए रुकेंगे नहीं। उन्होंने नुकसान कर लिए होंगे।
ध्यान के कैंप में आने की वे प्रतीक्षा न करेंगे नुकसानों के लिए। वे नुकसान कहीं
भी कर लेंगे। उनके नुकसान के लिए बहुत सुविधा है। उनके नुकसान के लिए ध्यान में
आना बिलकुल अनावश्यक है। ध्यान के शिविर में आकर वे नुकसान के लिए तैयारी करेंगे,
इसकी कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि बहुत
व्यवस्था है समाज में। हां, जिन्हें लाभ हो सकता है, उनके लिए समाज में कहीं भी कोई व्यवस्था नहीं है।
नग्नता
का वेश्या भी उपयोग कर रही है, नर्तकी भी उपयोग कर रही है, अभिनेत्री भी उपयोग कर रही है, विज्ञापक भी, एडवरटाइजमेंट करने वाला भी उपयोग कर रहा है। लेकिन वे सब आपकी कामवासना का
अपशोषण कर रहे हैं। कहीं भी ऐसा नहीं है जहां नग्नता आपकी कामवासना के तिरोहित
होने के लिए उपयोग की जा रही हो। सब जगह उसका उपयोग शोषण के लिए किया जा रहा है।
एक
कार भी बेचनी है,
तो उसके पास एक अर्द्धनग्न स्त्री खड़ी करनी पड़ेगी। अब कार से
अर्द्धनग्न स्त्री का कोई लेना-देना नहीं है। कार की क्वालिटी में इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता। और कार की मैकेनिज्म में इससे कोई मजबूती नहीं आती। और कार अच्छी है,
इससे कुछ सिद्ध नहीं होता। लेकिन कार बिकती है। क्योंकि वह नग्न खड़ी
स्त्री और वह कार, मनुष्य के मन में कार जो है वह सेक्स
ऑब्जेक्ट हो जाती है। वह एसोसिएट हो जाती है। इसलिए कारें धीरे-धीरे जो रंग-रूप और
शक्ल ले रही हैं, वह स्त्री के शरीर का है। उनके जो घुमाव
हैं, जो मोड़ हैं, वे स्त्री के शरीर के
हैं। इसलिए कार जो रोज-रोज घुमाव लेती जा रही है, वह
सेक्सुअलिटी का प्रतीक बनती जा रही है।
तो
उसके पास एक नग्न सुंदर स्त्री को खड़ा कर देना। वह पहले नजर कार पर नहीं जाएगी
खरीदने वाले की,
पहले नजर जाएगी स्त्री पर, फिर जाएगी कार पर।
और स्त्री के साथ ही उसमें यस मूड पैदा हो जाता है, उसमें
स्वीकृति आ गई। अब वह कार के लिए भी हां भर सकता है।
इसलिए
पश्चिम में तो सारा व्यापार और दुकान जो है, और सेल्समैनशिप है, स्त्री के हाथ में चली गई। दुनिया में पुरुष अब बहुत ज्यादा देर दुकानों
पर खड़ा नहीं रह सकेगा। क्योंकि मनोवैज्ञानिक ने कह दिया है साफ, और बात समझ में आ गई है--कि जूता तो आपको बेचना है, जरूरी
बेचो, लेकिन एक सुंदर स्त्री का हाथ भी जूते पर हो तो जूता
बेचना आसान है। और एक सुंदर स्त्री जब आपके पैर में जूता पहना देती है, तो इनकार करना मुश्किल है। उसकी सेक्स अपील हो गई। और जब वह कह देती है
जूता पहना कर कि आप बहुत सुंदर मालूम पड़ रहे हैं, तब जूता
नहीं बिकता, वह स्त्री बिक गई। तब इस जूते को छोड़ना बहुत
मुश्किल हो गया। यही तो यह आदमी चाहता था कि कोई स्त्री कभी कह दे कि बहुत सुंदर
दिखाई पड़ रहे हैं। अब इस जूते को नहीं लेना बहुत कठिन है। इसको लेना ही पड़ेगा। यह
जूता साधारण नहीं रहा, यह फेटिश हो गया, यह जो है स्त्री का प्रतीक बन गया, उसके शब्द इसमें
जुड़ गए। तो यह सारा का सारा सारे जगत में उपयोग हो रहा है।
लेकिन
बड़ा मजा यह है कि इनसे कोई पूछने नहीं जाता कि इससे कोई नुकसान तो नहीं हो जाएगा? लेकिन
ध्यान में एक आदमी, एक स्त्री नग्न हो जाए, तो मुझे लोग पूछने आते हैं कि इससे नुकसान तो नहीं हो जाएगा? ये वे ही लोग हैं जो टुथपेस्ट भी नंगी स्त्री के हाथ से खरीदते हैं,
साइकिल भी, कार भी, मकान
भी। ये वे ही लोग हैं जो कहते हैं कि ध्यान में कोई स्त्री नग्न हो जाएगी तो
नुकसान तो नहीं हो जाएगा?
अगर
नुकसान होना होगा तो काफी हो चुका है, अब और नहीं पहुंचाया जा सकता।
लेकिन मैं पहली दफे जो ध्यान में प्रयोग कर रहा हूं वह बिलकुल एंटीडोट है। ध्यान
में हुआ नग्न शरीर आपके चित्त में कामुकता को पैदा नहीं करता, तिरोहित करता है। तंत्र ने उसके हजार-हजार प्रयोग किए हैं। और लाखों लोग
तंत्र के मार्ग से काम से मुक्त हुए हैं। और नीति के मार्ग से कभी मुक्त नहीं हुए।
लेकिन वह दूसरी बात।
प्रश्न: इन्हीबीशंस का आप क्या अर्थ करते हैं? और क्या
आपके ध्यान के प्रयोग से व्यक्ति रिप्रेशंस या इन्हीबीशंस से मुक्त होता है?
होता है तो कैसे?
होता
है, निश्चित होता है। क्योंकि जो-जो हमने दबाया है, अगर
उसे प्रकट करने की हमारी पूरी स्वतंत्रता हो, अकारण
स्वतंत्रता हो, तो जो भी हमारे भीतर दबा है वह बाहर रेचन हो
जाता है। क्रोध है, हिंसा है, काम है।
चिल्ला रहे हैं, नाच रहे हैं, रो रहे
हैं, कूद रहे हैं--इस सबमें आपकी ऊर्जा जो दबी है, वह बिखरती है, नष्ट होती है, बाहर
जाती है। और जो वेग दबे हैं उनकी निर्जरा होती है।
तो
ध्यान इन्हीबीशंस को तोड़ता है। सिर्फ ध्यान ही तोड़ता है, और कोई
उपाय नहीं है। और सभ्यता ऐसी है कि इन्हीबीशंस पैदा हो ही जाते हैं। और अभी ऐसी
आशा भी नहीं है कि कभी हम ऐसी सभ्यता बना सकें जो इन्हीबीशंस पैदा न करती हो,
जो दमन पैदा न करती हो। क्योंकि मेरे जैसे आदमियों की बात कभी आदमी
पूरी तरह समझ सकेगा, सुन सकेगा, राजी
हो सकेगा, कठिन दिखाई पड़ती है।
अगर
मेरे जैसे आदमी की बात पर कभी सभ्यता निर्मित हुई, तो इन्हीबीशंस की कोई जरूरत
न होगी। और अगर इन्हीबीशंस हों ही न, तब तो कोई रेचन की बात
नहीं है। लेकिन अभी रेचन तो करना ही पड़ेगा, वे हैं, और बड़ी बुरी तरह हैं। हर आदमी दबा हुआ आदमी है। ऐसा आदमी ही नहीं है जिसके
भीतर खाली हो, कुछ दबा न हो।
तो
हर आदमी में अलग-अलग दबा है, इसलिए अलग-अलग एक्सप्रेशन होगा। अब इसके लिए
हमें कोई उपाय खोजने ही चाहिए जहां यह प्रकट हो सके। या तो हम लोगों पर प्रकट
करेंगे, तब उपद्रव में पड़ेंगे, वह संभव
नहीं है। या तो हम अनाचार करेंगे तब प्रकट होगा, लेकिन उससे
जाल गहरे हो जाएंगे। या हम अपराध करेंगे तब प्रकट होगा, लेकिन
उससे कारागृह भरेंगे, कानून बढ़ेंगे, अदालत,
पुलिस, और नियम, और सब
उपद्रव होंगे। और जिनके साथ हम करेंगे, उनको अकारण हम दुख
पहुंचाएंगे। वे हमारे इन्हीबीशंस के लिए जिम्मेवार न थे। तुम्हारे इन्हीबीशंस के
लिए वह जिम्मेवार न था।
और
मजा यह है कि तुम करोगे क्या? क्योंकि तुम्हारी पूरी सभ्यता, पूरा समाज का जो ढांचा और व्यवस्था है वह तुम्हें इन्हीबीटरी बनाती ही है।
अब एक ही उपाय है, वह उपाय यह है कि तुम अकारण शून्य में
अपने वेगों का विसर्जन कर दो। ध्यान में उसकी ही व्यवस्था है। इनके विसर्जन के बाद
तुम हलके हो जाओगे। और उस हलकेपन में तुम अंतर्यात्रा पर निकल सकते हो, अन्यथा नहीं निकल सकते हो।
प्रश्न: ऑटो-सजेशंस और हिप्नोसिस से आपका ध्यान क्या अलग है? और अलग है
तो कैसे? इसे स्पष्ट करें।
ऑटो-हिप्नोसिस
और सम्मोहन से अलग नहीं है,
ज्यादा है। जहां तक ऑटो-हिप्नोसिस जाती है, वहां
तक तो यह ध्यान का मार्ग भी साथ ही साथ जाता है, उसी मार्ग
पर। लेकिन जहां ऑटो-हिप्नोसिस रुक जाती है, यह मार्ग उससे
आगे भी चला जाता है। और वह जो आगे जाने वाला सूत्र है, उसकी
वजह से जहां तक हिप्नोसिस के साथ जाता है उसमें भी बुनियादी भिन्नता रहती है।
सम्मोहन का मूल आधार तुम्हारे चेतन मन का सो जाना है। मूर्च्छित हो जाना ही
सम्मोहन है। तो सम्मोहन के सुझाव की प्रक्रिया तुम्हें तंद्रा में ले जाती है। तुम
जितने तंद्रिल हो जाते हो, जितने सुषुप्त हो जाते हो,
उतना ही तुम सम्मोहित हो जाते हो। फिर उस सम्मोहन की स्थिति में
तुमसे कुछ भी करवाया जा सकता है, क्योंकि तुम्हारा विवेक
सोया हुआ है।
ध्यान
की इस प्रक्रिया में तुम्हें तंद्रा में नहीं जाना है। तंद्रा में जा भी नहीं सकते
हो। क्योंकि ध्यान की पूरी प्रक्रिया एक्टिव है। इसलिए सम्मोहन करने वाला तुम्हें
बिस्तर पर लिटाएगा,
आरामकुर्सी पर बिठाएगा। सम्मोहन करने वाला इस बात की जांच करेगा कि
तुम तंद्रा में जाने की स्थिति में लाए जाओ। सम्मोहित हो जाने के बाद तुम गहरी
निद्रा में चले जाओगे। यह निद्रा और तुम्हारी साधारण निद्रा में थोड़ा ही फर्क है।
यह इनडयूस्ड है, बस इतना ही फर्क है। यह चेष्टित है। इसलिए
जिसने चेष्टा करके तुम्हें सुलाया है, उससे तुम्हारा संबंध
जारी रहेगा, सिर्फ उससे, बाकी सब संबंध
टूट जाएंगे।
ध्यान
की जो प्रक्रिया है,
एक्टिव है। तुम दस मिनट गहरी श्वास ले रहे हो। इतनी गहरी श्वास में
सोना असंभव है। अगर तुम सो जाओगे, फौरन श्वास शिथिल हो
जाएगी। तुम्हें श्वास लेने के लिए जागा हुआ होना पड़ेगा। जो मैं सुझाव दे रहा हूं,
वे ठीक उसी प्रकार के हैं जैसे सम्मोहन के हैं, लेकिन ठीक वही नहीं हैं।
सम्मोहन
में ले जाने वाला तुमसे कह रहा है कि तुम सो रहे हो, तुम अपने को छोड़ दो और सो
जाओ। मैं तुमसे कह रहा हूं कि तुम गहरी श्वास को और गहरा करते चले जाओ। श्वास
जितनी गहरी होगी, निद्रा में जाना उतना असंभव हो जाएगा,
क्योंकि ब्लड सर्कुलेशन ज्यादा होगा। निद्रा का तो नियम है कि ब्लड
सर्कुलेशन कम हो जाना चाहिए। असल में नींद का तो सूत्र ही यही है कि तुम्हारे सिर
में खून की गति जितनी कम होगी उतनी तुम गहरी नींद में चले जाओगे।
इसलिए
तकिया रख कर सोते हो। क्योंकि सिर ऊंचा रहेगा और बाकी शरीर नीचा रहेगा, तो सिर
में खून कम पहुंचेगा। और कोई तकिए में अर्थ नहीं है। इसलिए जितनी सभ्यता बढ़ती
जाएगी, तकिए बढ़ते जाएंगे। क्योंकि सिर में दिन भर इतना खून
चलेगा कि उसको रात और कम करना पड़े, और कम करना पड़े, और कम करना पड़े।
ध्यान
में इतनी तीव्र श्वास तुम्हारे खून की गति को तीव्र कर रही है। वह इतना तीव्र कर
रही है कि खून ही नहीं चल रहा, तुम्हारी बॉडी इलेक्ट्रिसिटी जग जाएगी। जिसके
होते हुए तुम सो ही नहीं सकते। असंभव है सोना।
फिर
दूसरे चरण में तुम्हें बड़ी जोर से अपनी सारी अभिव्यक्ति देनी है, जो भी हो
रहा है उसको। नाच रहे हो, कूद रहे हो, रो
रहे हो, हंस रहे हो।
इसीलिए
मैं सुझाव नहीं देता कि तुम सब हंसो। क्योंकि अगर मैं सुझाव दूं कि तुम सब हंसो, तो वह
सम्मोहन के बहुत करीब हो जाएगा। नहीं, मैं यह कहता हूं कि
तुम्हें जो ठीक लगे, उसे तुम पूरी तरह करो। मैं तुमसे कहता
हूं कि तुम्हें जो ठीक लगे, उसे तुम पूरी तरह करो। मैं
तुम्हें पूरे वक्त होश में रखना चाहता हूं। क्योंकि तुम्हीं ध्यान में काम पड़ोगे।
तुम सो गए तो ध्यान में कौन जाएगा? तुम्हें जगाए ही रखना है।
सम्मोहक
जो है वह तुम्हें सुलाने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि अगर तुम न सोए, तो वह
तुम्हारे साथ कुछ भी न कर सकेगा। तुम सो जाओ तो ही कुछ कर सकेगा।
यह
बिलकुल उलटा है,
बिलकुल भिन्न है--एक सा दिखता हुआ भी, एक
रास्ते पर चलते हुए भी, पैरेलल होते हुए भी।
फिर
तीसरे चरण में तुम पूछ रहे हो--मैं कौन हूं? वह भी तुम्हें इतनी तेजी से पूछना
है कि तुम्हें एक क्षण को मन के तल पर भी तंद्रा न आ जाए।
ये
तीनों प्रयोग इतने तीव्र हैं कि इनमें तुम सो नहीं सकते। इसलिए तुम हिप्नोटाइज
नहीं हो सकते हो।
यहां
तक हम साथ चलते हैं हिप्नोसिस के। हम प्रयोग कर रहे हैं सुझाव का तुम्हें जगाने के
लिए और वह प्रयोग कर रहा है तुम्हें सुलाने के लिए। प्रयोग दोनों कर रहे हैं सुझाव
का, सजेशन का, सजेस्टिबिलिटी का। लेकिन दोनों की इच्छा,
यात्रा, लक्ष्य बिलकुल अलग है। फिर सम्मोहन
सुला कर समाप्त हो जाता है।
इन
तीस मिनट की तीव्र प्रक्रिया के बाद तुम्हें मैं छोड़ रहा हूं परमात्मा में। अब तुम
एक ऊर्जा के पिंड हो गए। अब तुम सिर्फ एक नाचती-कूदती ऊर्जा रह गए, शक्ति रह
गए। अब तुम छलांग ले सकते हो। इतनी ऊर्जा, इतनी वाइटेलिटी
में तुम कूद सकते हो सागर में। अब तुम हिम्मत जुटा सकते हो, जो
तुम पहले न जुटा पाते। अब तुम्हारी पूरी शक्ति सक्रिय है। इससे सम्मोहन का कोई
लेना-देना ही नहीं है। अब तुम एक नई यात्रा पर जा रहे हो, जो
सुझाव के बाहर है। अब यह यात्रा तुम्हें ही करनी है। यह चुपचाप तुम्हें इसमें ही
डूब जाना है।
तो
सम्मोहन से कुछ तालमेल है,
क्योंकि सुझाव का मैं उपयोग कर रहा हूं। कुछ समानता है। लेकिन बहुत
गहरे में बुनियादी भेद है। और वही भेद ज्यादा है। वही फिर आगे काम पड़ेगा। बाकी तो
सब पीछे छूट जाएगा।
समाप्त
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें