एस धम्मो सनंतनो-(भाग-06)
प्रवचन-056
(अत्ताहि अत्तनो नाथो)
अत्तानं चे पियं अग्भ रक्खेय्य तं सुरक्खितं।
तिण्णमंग्भ्तरं यामं पटिजग्गेय्य पण्डितो।।१३६।।
अत्तानेमेव पठमं पतिरूपे निवेसये।
अथग्भ्मनुसासेय्य न किलिस्सेय्य पण्डितो।।१३७।।
अत्तानग्चे तथा कयिरा यथग्भ्मनुसासति।
सुदन्तो वत दम्मेथ अत्ताहि किर दुद्दमो।।१३८।।
अत्ताहि अत्तनो नाथो कोहि नाथो परो सिया।
अत्तना' व सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं।।१३९।।
पहला सूत्र--
अत्तानं चे पियं अग्भ रक्खेय्य तं सुरक्खितं।
'यदि अपने को प्रिय समझे तो अपने को सुरक्षित रखे।
पंडित को तीन पहरों में से किसी एक में अवश्य जागना चाहिए।'
महत्वपूर्ण सूत्र है। हीरे की भांति सम्हालकर रखना। जीवन की बहुत सी
गुत्थियां सुलझ सकती हैं, इस एक छोटे से सूत्र से।
'यदि अपने को प्रिय समझे।'
साधारणतः हम समझते हैं, हम सभी अपने को प्रेम
करते हैं। इससे बड़ी दूसरी भ्रांति नहीं। इसे सुनकर तुम चौंकोगे। क्योंकि तुम्हारे
धर्मगुरु भी यही कहते हैं, तुम्हारे पंडित भी यही कहते हैं,
दूसरों को प्रेम करो। पड़ोसी को प्रेम करो। परमात्मा को प्रेम करो।
एक बात उन्होंने मान ही रखी है कि तुम अपने को प्रेम करते हो। अब दूसरों को करो।
वहीं चूक हो रही है। तुमने अभी अपने को ही प्रेम नहीं किया।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है, पड़ोसी को अपने जैसा
प्रेम करो।
अपने जैसा! इसका अर्थ हुआ कि पड़ोसी को प्रेम करो, उसके पहले अपने को प्रेम करना होगा। और तुम्हें तो उलटा ही समझाया गया है।
तुम्हें तो कहा गया है, अपने को प्रेम करना स्वार्थ है। अपने
को प्रेम करना जैसे पाप है। लेकिन जिसने स्वयं को प्रेम नहीं किया, वह दूसरे को प्रेम कर ही न पाएगा। जिसके स्वयं के जीवन में प्रेम की
ज्योति न जली, उसका प्रकाश पड़ोसी तक कैसे पहुंच जाएगा?
जो तुममें नहीं है, वह तुम दूसरे को न दे
पाओगे।
हम वही देते हैं, जो हममें है। हम लाख कुछ और कहें,
हम कहें कि प्रेम देते हैं, लेकिन हम देंगे
घृणा। अगर वही है, तो तुम क्या करोगे? नाम
बदल देने से थोड़े ही कुछ होता है। लेबिल चिपका देने से थोड़े ही प्रेम हो जाता है।
तुम लाख कहो कि हम प्रेम देते हैं, लेकिन तुम दोगे क्रोध।
क्रोध है, तो क्रोध ही दोगे।
बुद्ध का यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है। जीसस के सूत्र ने जैसे मान ही
लिया कि तुम अपने को प्रेम करते हो--अपने जैसा पड़ोसी को प्रेम करो। लेकिन बुद्ध
एक-एक शब्द सोचकर कहते हैं।
वे कहते हैं, 'यदि अपने को प्रिय समझे।'
यह बात अभी पक्की नहीं है, यदि की है। ऐसा है
नहीं, हो सकता है। लेकिन तब सारा जीवन-दृष्टिकोण बदलना
पड़ेगा। अपने को प्रेम करो, स्वार्थी बनो, तो ही तुम आत्मा को उपलब्ध हो सकोगे। और मजा यह है, विरोधाभास
यह है कि अगर तुमने अपने को प्रेम किया, तो तुम दूसरे को
प्रेम करोगे ही, अन्यथा तुम कर न पाओगे। जो है, वही बांटोगे।
राबिया के जीवन में प्रसिद्ध उल्लेख है। कुरान में वचन है कहीं--शैतान
को घृणा कर। उसने काट दिया। उसके घर मेहमान था एक फकीर, हसन। सुबह-सुबह उठाकर कुरान पढ़ रहा था। कुरान में संशोधन देखकर वह घबड़ा
गया। मुसलमान सोच ही नहीं सकते। कुरान में, और संशोधन! वह
आखिरी किताब है। जैसे हिंदुओं की जिद्द है कि हमारी पहली किताब है। उससे पहले किसी
की किताब नहीं। ऐसे मुसलमानों की जिद्द है कि हमारी आखिरी किताब है। उसके बाद फिर
कोई किताब नहीं। मोहम्मद आखिरी पैगंबर हैं। परमात्मा ने अपना आखिरी संदेश भेज दिया,
अब इसमें कोई तरमीम और संशोधन की जरूरत नहीं, न
सुविधा है।
हसन तो घबड़ा गया। यह तो कुफ्र है! यह किसने लकीर काटी? यह किसने संशोधन किया? वह भागा, उसने राबिया को कहा, देख! तेरी किताब किसी ने
अपवित्र कर दी। राबिया ने कहा, किसी ने नहीं, मैंने ही की है। और अपवित्र नहीं; अपवित्र थी,
पवित्र की है। यह वचन मेरे बरदाश्त के बाहर हो गया। जब मैंने प्रेम
जाना, तो अब घृणा शैतान को भी देनी हो तो कहां से दूं?
यह बात मुझसे मेल नहीं खाती। प्रेम को जानकर, प्रेम
में जीकर, प्रेम में पग गयी; अब तो
मेरे पास प्रेम ही है। अब शैतान खड़ा हो कि भगवान खड़ा हो, मजबूरी
है, प्रेम ही दे सकती हूं। अब तो मैं पहचान भी न कर पाऊंगी
कि कौन शैतान है, कौन भगवान है। क्योंकि प्रेम की आंख ने कब
भेद किया? प्रेम की आंख ने कब द्वंद्व जाना, कब द्वैत जाना? तुम भी अपनी किताब में सुधार कर
लेना।
यदि तुमने अपने को प्रेम किया, तो यह शुरुआत तो
स्वार्थ की है, लेकिन परार्थ के फूल इसमें खिल जाएंगे। इसलिए
मैं तुम्हें सिखाता हूं स्वार्थ; परार्थ तो अपने से आता है।
भूल वहीं हो गयी, स्वार्थ ही तुम न सीखे और परार्थ की बातें
करने लगे। परार्थ ने संसार को बुरी तरह सताया। तुम खुद न बदले, दूसरे को बदलने चले गए। अभी इस योग्य न थे, अभी जीवन
की कोई सुगंध न पायी थी और बांटने लगे। तुमने जगत को दुर्गंध से भर दिया। तुमने
सोचा होगा सुगंध है, सुगंध से तो तुम परिचित ही नहीं हो। जो
तुम्हारे भीतर था उसी को तुमने सुगंध मान लिया।
जगत में देखो चारों तरफ! लोग शांति की बातें करते हैं और युद्ध पैदा
होते हैं। प्रेम की बातें करते हैं और घृणा का जहर फैलता है। सौंदर्य की बातें
करते हैं और कुरूप होते जाते हैं। दया, करुणा और अहिंसा की
चर्चा चलती है मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में और पृथ्वी पर घृणा और अहिंसा फैलती चली जाती है। और वही
हैं फैलाने वाले लोग।
तुम जरा देखो तो, जरा आदमी की तरफ गौर तो करो!
जिनके मुंह से शांति की बातें चल रही हैं, उन्हीं के हाथ में
तलवार है। हालांकि वे बड़े कुशल हैं, वे कहते हैं, शांति की रक्षा के लिए। अब अगर शांति को भी रक्षा के लिए तलवार की जरूरत
है, अगर शांति की रक्षा के लिए युद्ध की जरूरत है, तो छोड़ो बकवास शांति की। फिर युद्ध ही सत्य है। फिर छोड़ो ये सपने। फिर कम
से कम जानकर चाहो कि युद्ध ही चाहते हैं। युद्ध की ही बात करो, युद्ध ही जीवन में हो। कम से कम एकरसता तो होगी। शायद उससे तुम कभी जाग
जाओ।
यह धोखा जागने भी नहीं देता। इस धोखे में तुम पड़े रहते हो। हाथ तलवार
चलाती रहती है, गरदनें काटती रहती है, जबान
प्रेम और शांति की बातें करती रहती है। एक हाथ से कबूतर उड़ाते हो शांति के और एक
हाथ से आदमी की गरदनें काटते जाते हो। जिस हाथ से कबूतर उड़ाए जा रहे हैं, उसी हाथ से बम बनाए जा रहे हैं। इस विरोधाभास को तो देखो!
हम सब कहते हैं, समझाते हैं--शुरू से ही जहर के
बीज बोते हैं। घर में बच्चा पैदा हुआ, मां कहती है, मुझे प्रेम कर, मैं तेरी मां हूं। पहले नासमझ,
उस बच्चे को यह तो समझा कि तू अपने को प्रेम कर। फिर मां से भी कर
लेगा। मां तो दूर है। अत्तानं चे पियं--पहले तो अपने को कर।
कोई बच्चे को सिखाता ही नहीं कि अपने को प्रेम करो। सभी सिखा रहे
हैं--मां सिखा रही है, मुझे प्रेम कर, मैं मां हूं;
बाप सिखा रहा है, मुझे प्रेम कर, मैं बाप हूं; भाई सिखा रहा है, मुझे प्रेम कर, मैं भाई हूं; गुरु
सिखा रहा है, मुझे कर--सारी दुनिया उससे प्रेम मांग रही है।
पहले कदम पर चूक हुई जा रही है। किसी ने यह देखा ही नहीं कि इसने अभी अपने को ही
प्रेम नहीं किया; अभी यह घर अंधेरा है, दीया जला नहीं; इससे तुम रोशनी मांगने लगे! अभी फूल
खिला नहीं और तुम सुगंध का आग्रह करने लगे। खिलने तो दो।
अच्छी दुनिया होगी तो हम पहले बच्चे को सिखाएंगे, अपने को प्रेम कर। भूल सबको। पहले अपने पैर तो मजबूत कर ले, प्रेम की भूमि में जड़ें तो फैला ले, खिल तो जाने दे
प्रेम के फूल, फिर तो तू बांटेगा; बोझिल
हो जाएगा, बांटना ही पड़ेगा।
ध्यान रखना, प्रेम किसी पर हम दया करके नहीं करते। हम प्रेम से
बोझिल होते हैं, तब करते हैं। जैसे मेघ घिर जाते हैं अषाढ़
में, वर्षा से भरे और बोझिल हो जाते हैं। तुम यह मत सोचना कि
जमीन में पड़ी दरारें और जमीन में आ रही प्यास के कारण बरसते हैं। नहीं, रुक नहीं सकते, इसलिए बरसते हैं। इतने भरे हैं,
इसलिए बरसते हैं। बिना बांटे न चलेगा। बांटेंगे न, तो बोझ रह जाएगा। बांटना ही होगा।
सूरज से किरणें बंट रही हैं, इसलिए नहीं कि तुम्हारी
अंधेरी रात मिट जाए। क्या लेना-देना तुम्हारी अंधेरी रात से सूरज को? अंधेरे से सूरज की पहचान ही कहां, मिलना ही कब हुआ?
अंधेरे को सूरज ने जाना कब? उसे कोई खबर भी
नहीं है अंधेरे की। तुमसे क्या लेना-देना? तुमसे क्या संबंध?
नहीं, सूरज प्रकाश से भरा है, बांटता
है। न बांटेगा तो दब मरेगा, अपने ही बोझ से। मेघ न बरसेगा,
तो क्या करेगा? गहन पीड़ा होगी, संताप होगा, चिंता होगी। पागल हो जाएगा। मेघ को
बरसना ही पड़ेगा अगर स्वस्थ रहना है।
अगर तुम प्रेम से भरे हो, तो प्रेम देना ही
पड़ेगा अगर स्वस्थ रहना है। यह किसी पर दया नहीं है। यह अपने पर ही दया है। यह समझ
है। इसका करुणा से कुछ लेना-देना नहीं है। इसलिए बुद्ध ने कहा है, जहां प्रज्ञा है वहां करुणा चली आती है छाया की तरह। जहां समझ है वहां
करुणा चली आती है छाया की तरह। समझ असली बात है। करुणा वगैरह तो सजावट-शृंगार है।
हो ही जाता है।
'यदि अपने को प्रिय समझे।'
लेकिन कौन अपने को प्रिय समझता है? यह यदि बहुत बड़ा है।
यह तुम्हारी छाती पर पत्थर जैसा रखा है। हजारों लोगों को गौर से देखने के बाद,
निरीक्षण करने के बाद, उनके जीवन की समस्याओं
को सुलझाने की चेष्टा करने के बाद मुझे यह दिखायी पड़ा कि लोग अपने को घृणा करते
हैं, प्रेम तो बड़ी दूर है। लोग सख्त नफरत करते हैं। लोग अपने
से बेजार हैं, परेशान हैं। लोग अपने से छुटकारा चाहते हैं।
इस छुटकारे को बहुत ढंग से तुम देख सकते हो, अगर तुम्हें
खयाल में आ जाए बात।
समझो। जब भी तुम दर्पण के सामने खड़े होते हो, तो क्या तुमने नहीं चाहा कि नाक जरा लंबी होती! कि आंख जरा और मछली जैसी
होती! कि ओंठ जरा और रंगीन होते! कि चेहरे पर जरा और सुर्खी होती! क्या चेहरा दिया
है भगवान ने! शिकायत नहीं उठी? सुंदर से सुंदर आदमी को भी
शिकायत उठती है। सुंदर से सुंदर आदमी भी स्वीकार नहीं कर पाता कि बस, यही होने की मेरी योग्यता थी, यही मेरी पात्रता थी।
यह तुमने क्या बना दिया? कुछ न कुछ भूल मिल ही जाती है।
और मन की आदत है भूलों में उत्सुकता लेने की। एक दांत टूट जाए, तब देखो, जीभ वहीं-वहीं जाती है। लाख उपाय करो,
समझाओ कि क्या फायदा! और दांत जब था तब कभी भी न गयी थी! अब दांत
नहीं है, खाली जगह है, जीभ वहीं-वहीं
जाती है। अभाव में मन को बड़ा रस है।
तो जो नहीं है, उसको मन देखता है; जो है,
उसे नहीं देखता। तुम यह नहीं देखते कि तुम्हारे पास दो आंखें हैं।
अंधे भी हो सकते थे। तुम अहोभाव से नहीं भरते कि हे प्रभु, तूने
आंखें दीं! हमने कुछ किया तो न था, ऐसा कुछ पुण्य तो न कमाया
था कि तू आंखें देता। न देता तो क्या करते? न देता तो किससे
शिकायत करते? न देता तो कहां सिर पीटते? जिनको नहीं दी हैं, वे क्या कर रहे हैं? क्या कर लेंगे? कौन है वहां खाली आकाश में सुनने
बैठा? तूने आंखें दीं!
लेकिन नहीं, उसका अहोभाव पैदा नहीं होता। मछली का आकार न दिया आंख
में, और कवि तो मछलियों के आकार की चर्चा कर रहे हैं! दांत
तूने दिए ऊबड़-खाबड़। मोतियों का हार न दिया। मोतियों जैसे चमक जाते अंधेरे में!
कविताओं में तो ऐसा ही लिखा है। ये कहां के गंदे, पीले,
ऊबड़-खाबड़ दांत दे दिए कि हंसने तक में जी सकुचाता है? डरते हैं कि कहीं दांत दिखायी न पड़ जाएं। लोग हंसने को दांत निपोरना कहते
हैं। लेकिन दांत दिए, इसके लिए धन्यवाद नहीं है। तुम्हारी
कल्पना के न दिए, इसलिए शिकायत है।
यह दर्पण के सामने ही नहीं, यह तुम्हारी पूरी
जिंदगी की कहानी है। कोई लंबा दिखायी पड़ गया, तुम अचानक छोटे
हो गए। सिकुड़ गए। यह क्या किया? केवल पांच फीट? पांच फीट छह इंच? और दुनिया में छह-छह फीट के लोग
घूम रहे हैं! यह कैसा छोटा बना दिया? कुछ भी है तुम्हारे पास,
वह तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता।
मैंने सुना है, एक ठिगना सा आदमी एक सर्कस के दफ्तर में पहुंचा।
मैनेजर से मिलना चाहा, मिलने की सुविधा मिल गयी, क्योंकि ऐसे लोगों में सर्कस को उत्सुकता होती है। और उसने जो चिट्ठी
लिखकर भेजी, उसमें उसने लिखा था, मैं
दुनिया का सबसे बड़ा छोटा आदमी हूं। वह मैनेजर भी हैरान हुआ--सबसे बड़ा छोटा आदमी!
बुलाओ। देखा तो एक ठिगना आदमी खड़ा है। होगा मुश्किल से चार फीट। उसने कहा, तेरे को किसने खयाल दिया सबसे बड़े होने का? उसने कहा,
गौर से पढ़ो, छोटे आदमियों में सबसे बड़ा हूं।
सबसे बड़ा छोटा आदमी। ठिगने और भी हैं, मुझसे भी ज्यादा। सभी
ठिगनों को अगर तुम इकट्ठा कर लो, तो मैं उनमें सबसे बड़ा हूं।
यह आदमी बड़ा धार्मिक रहा होगा। इसकी दृष्टि देखो। इससे कुछ सीखो। इसने
अपने छोटेपन में भी बड़प्पन खोज लिया। यह अपने को प्रेम कर सकेगा। तुमने अपने
बड़प्पन में भी छोटापन ही खोजा है, तो तुम घृणा करोगे। आखिर प्रेम
की पात्रता तो होनी चाहिए। प्रेम तुम करोगे कैसे? तुमने अपनी
निंदा ही की है। शरीर की ही नहीं, मन की भी, बुद्धि की भी। हर चीज की। और तुम्हें चारों तरफ से निंदा ही मिली है।
मां ने कहा, यह मत करना, यह करना गलत है।
बाप ने कहा, वहां मत जाना, वहां जाना
गलत है। वहां जाने का तुम्हारे भीतर मन था। अब तुम क्या करोगे? अगर जाते हो, तो उनके साथ दोस्ती टूटती है जिन पर
जीवन निर्भर है। इतना महंगा सौदा करने योग्य नहीं मालूम होता। माना कि सिनेमा जाने
की तबीयत थी और मंदिर जाने की कोई इच्छा न थी। लेकिन सिनेमा जाना इतना बहुमूल्य
नहीं मालूम पड़ता है कि उनसे संबंध तोड़ लो जिन पर जीवन निर्भर है, जिनके ऊपर तुम निर्भर हो। सांसें जिनके सहारे चल रही हैं; पेट जिनके सहारे भर रहा है, छप्पर जिनके सहारे मिला
है, उनको नाराज करना महंगा सौदा है। जाना तो सिनेमा था,
गए मंदिर।
अब तुम अपने को दोष दोगे, भीतर-भीतर तड़फोगे कि
मुझमें भी कैसी गंदी वासनाएं उठती हैं--सिनेमा जाने की। अब जब मुझमें गंदी वासनाएं
उठती हैं और मंदिर जाने की तो उठती ही नहीं--जाता हूं तो भी नहीं उठतीं, जाता हूं तो भी भागने का मन रहता है कि कहां फंस गए--तुम निंदा न करोगे तो
क्या करोगे!
तुम्हारे भीतर निंदा उठेगी। तुम कहोगे, मैं बुरा हूं। सारी
दुनिया भली मालूम पड़ती है। देखो, मंदिरों में लोग बैठे हैं,
प्रार्थना कर रहे हैं। एक मैं, पापी, सिनेमा जाना चाहता था।
तुम्हें पता नहीं, मंदिर में बैठे अधिक लोगों की
यही हालत है। वे भी जाना चाहते थे। मगर उनके भी मां-बाप थे और सिखा गए। और अभी तक
तड़फ रहे हैं। जाना कहीं और था, पहुंच कहीं और गए।
अब कठिनाई यह है कि अगर तुम मंदिर जाओ और सिनेमा जाना था, तो तुम्हारे मन में अपराध-भाव पैदा होगा। तुम्हारे मन में निंदा आएगी कि
मेरे भीतर कुछ बुरा स्वर है, कुछ शैतान की आवाज है, भगवान की कोई पुकार नहीं, मैं कुछ पापी हूं। अगर तुम
सिनेमा चले जाओ, तो भी तुम शांति से सिनेमा न देख सकोगे।
वहां बैठकर भी निंदा चलती रहेगी, यह मैंने क्या किया?
यह मेरा कैसा भाव है? मंदिर क्यों न गया?
यह मैंने जरा बड़ा महंगा सौदा कर लिया।
जीवन का सारा शिक्षण ऐसा है कि उससे आत्मनिंदा पैदा होती है। प्रेम तो
पैदा होना मुश्किल है। प्रेम की तो तभी संभावना है, जब तुम जैसे हो वैसे
ही स्वीकार किए जाओ। जब तुम जैसे हो उसके लिए ही स्वीकार किए जाओ। जब तुम्हारा
परिवार तुम्हें सिर-आंखों ले ले, जैसे हो वैसे ही। कोई
तुममें रूपांतरण करने की बात नहीं। तुममें बदलाहट का कोई सवाल नहीं। तुम अन्यथा
होते, ऐसी कोई आकांक्षा नहीं।
लेकिन ऐसी दुनिया तो अभी पैदा नहीं हुई। ऐसा परिवार तो अभी जन्मा
नहीं। अभी तो दूसरों की आकांक्षाएं तुम्हें चलाती हैं। फिर जिंदगीभर यही होता है।
पत्नी पति को चलाती है, पति पत्नी को चलाता है। जब तक तुम बेटे थे, बाप तुम्हें चलाता था। फिर जब तुम बाप हो जाओगे, तो
तुमने तरकीबें सीख लीं तब तक, तुम बेटे को चलाने लगोगे। लोग
पुनरुक्ति करते हैं। लकीरें दोहराते हैं।
कभी-कभी गौर से देखना, जब तुम अपने बेटे को
डांट रहे हो, जरा गौर से देखना, तुम्हारा
बाप तुम्हारे भीतर से तो नहीं बोल रहा है! तुम पाओगे उसे बोलता हुआ। तुम सिर्फ
कंप्यूटर हो। यह बाप तुम्हारे दिमाग में डाल गया यह शब्द, वही
तुम बोल रहे हो। तुम वही दोहराए जा रहे हो--यंत्रवत। न तुमने अपने को प्रेम किया,
न तुम दूसरे को स्वयं को प्रेम करने दोगे।
इस जगत की बीमारी सामूहिक है। यहां कोई एकाध आदमी बीमार होता, तो ठीक था। यहां सारे लोग बीमार हैं। यहां चमत्कार तो यह है कि कोई एकाध
स्वस्थ हो जाए। इसलिए बुद्ध कहते हैं, यदि। यदि बड़ा है,
छोटा नहीं है। भाषा का नहीं है, अस्तित्व का
है।
'यदि अपने को प्रिय समझे।'
अगर तुम अपने को प्रेम करते हो, तो तुम्हारी जिंदगी
बदल जाएगी। तुम्हारे जीवन में धर्म का सूत्रपात, धर्म का
प्रारंभ होगा। तुम क्रांति से गुजर जाओगे। बड़ी से बड़ी क्रांति स्वयं से प्रेम है।
क्योंकि तब तुम और ढंग से चलोगे, और ढंग से बैठोगे। तब तुम
एक-एक छोटी-छोटी बात में जागे रहोगे।
जो अपने को प्रेम करता है, वह अपनी हिफाजत करता
है। जो अपने को प्रेम करता है, वह अपनी सुरक्षा करता है। जो
अपने को प्रेम करता है, वह अपने ऊपर ध्यान रखता है।
तुम्हारा ध्यान तो कहीं और है। लोगों को देखता हूं, धन पर उनका ध्यान है, अपने पर नहीं। धन को प्रेम
करते होंगे। धन के लिए मर मिटेंगे, जान दे देंगे।
कहते हैं, मुल्ला नसरुद्दीन को चोरों ने पकड़ लिया था और
उन्होंने कहा कि तू धर दे जो तेरे पास हो। चाबी भी, बैंक का
एकाउंट भी, और नहीं तो तेरी जान ले लेंगे। बोल क्या करता है?
उसने कहा, जरा सोचने भी तो दो भाई! अब विकल्प
दो ही हैं। वे कह रहे हैं, समझा कि नहीं तूने? दो ही विकल्प हैं। या तो धन दे दे, या तेरे प्राण ले
लेंगे। उसने कहा, जरा सोचने दो। वह जरा देर लगाने लगा सोचने
में। चोरों ने कहा, जल्दी करो, सोचना
क्या है? उसने कहा, तो तुम जान ही ले
लो, क्योंकि धन तो बड़ी मुश्किल से कमाया है, और फिर बुढ़ापे में काम भी आएगा। जान ले लो, मुफ्त
मिली है। कमाई भी नहीं। और धन गया और जान बच गयी, तो क्या
करेंगे? जान गयी, धन बच गया, सब ठीक है।
इस पर तुम हंसना मत। यही तुम्हारी हालत है। जान बेचते हो, पैसे इकट्ठे करते हो। प्राण काट-काटकर बेचते हो बाजार में, आत्मा बेचते हो, दो-दो पैसे के लिए। फिर पैसे इकट्ठे
करके मर जाते हो। आखिर तुम्हारी पूरी जिंदगी में करते क्या हो? कुछ इकट्ठा करते हो। खुद तो खोते चले जाते हो। वस्तुएं इकट्ठी कर लेते हो,
बड़ा मकान बना लेते हो, तिजोड़ी भर लेते हो,
नाम पर बड़ी जमीन का पट्टा लिखवा लेते हो। इस सबको तुम प्रेम कहते हो?
तुम हत्यारे हो, तुम आत्मघाती हो।
जो लोग जहर खाकर मर जाते हैं, उनमें और तुममें कोई
बुनियादी अंतर नहीं है। तुम धन खाकर मरते हो, वे जहर खाकर
मरते हैं। तुम मकान खाकर मरते हो, वे जहर खाकर मरते हैं।
फर्क अगर होगा तो इतना ही होगा कि वे थोड़े हिम्मतवर हैं, तुम
कायर हो। तुम धीरे-धीरे मरते हो, वे इकट्ठा मर जाते हैं। तुम
चिल्लर मरते हो--इकन्नी मरे, दुअन्नी मरे, चौअन्नी मरे--ऐसे मरते हो। सोलह आना पूरा करने में तुम सत्तर-अस्सी साल
लगाते हो। वे रुपया का रुपया मर जाते हैं। सीधा का सीधा मर जाते हैं। उनमें और
तुममें जो फर्क होगा, वह कायरता का होगा, साहस का होगा; लेकिन मात्रा का ही होगा, गुण का नहीं हो सकता। मरते तो तुम भी हो।
ध्यान रखना, अगर तुमने अपने को प्रेम किया होता, तो तुम चाहे धन खोने का मौका आता तो खोते, लेकिन
अपने को बचाते। वही बुद्ध कह रहे हैं। अत्तानं चे पियं--जिसने अपने को प्रेम किया।
तो वह अपने को सुरक्षित रखेगा।
अपनी जिंदगी पर फिर से तुम एक पुनर्विचार करना कि तुम अब तक क्या करते
रहे हो? यह तुम्हारा किस ढंग का सौदा चल रहा है?
जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाएगा, वह खो देगा।
उलटा लगेगा सूत्र बुद्ध से, उलटा नहीं है। एक ही
मतलब है। कहने के ढंग अलग हैं। जीसस कहते हैं, जो अपने को
बचाएगा।
तुम धन किसलिए इकट्ठा करते हो? तुम्हारा तर्क यही है
कि अपने को बचाने के लिए इकट्ठा करते हैं। मकान किसलिए बड़ा बनाते हो? इसीलिए कि अपने को बचाने के लिए। तिजोड़ी में अपने जीवन को नष्ट कर देने
वाला भी यही तर्क जो सोचकर चलता है। उसकी तर्क-सरणी भी यही है कि यह सुरक्षा का
इंतजाम कर रहा है।
जीसस कहते हैं, जो अपने को बचाएगा, वह खो देगा।
यह बचाने का ढंग न हुआ, यह तो खोने का ढंग
हुआ। यह सुरक्षा झूठी है। असली सुरक्षा क्या है? तुम जिसे
सुरक्षा कहते हो वह भी सुरक्षा नहीं है, क्योंकि वह
आत्मा-घृणा पर खड़ी है। और बुद्ध जिसे सुरक्षा कहते हैं, वह
बड़ी दूसरी सुरक्षा है।
जिस दिन घर से जाते थे, और सारथी ने कहा,
यह क्या पागलपन करते हैं? इतना घर-द्वार,
धन-संपत्ति, पत्नी, पिता,
मां, सब भरे-पूरे परिवार को...कहां भाग जाते
हैं? और इस सबके मालिक आप हैं! अकेले बेटे थे, इकलौते बेटे थे बाप के। यह संपत्ति को छोड़कर कहां जाते हो? पागल हो गए हो? बुद्ध ने कहा, संपत्ति
की तलाश में जाता हूं। यह सुरक्षा छोड़कर कहां जाते हो? बुद्ध
ने कहा, सुरक्षा की तलाश में जाता हूं।
वह बूढ़ा समझा होगा, लगता नहीं। उसने सोचा होगा,
निश्चित पागल हो गया है। इससे ज्यादा सुरक्षित और कौन है? इन महलों में, इस सारे साम्राज्य में इससे ज्यादा
सुरक्षित और कौन है? राजा का इकलौता बेटा। फूल इसके रास्ते
पर बिछे रहते हैं। चारों तरफ वैभव है। चारों तरफ सुख-सुविधा है। कांटे इसने कभी
जाने नहीं, यह पागल जा कहां रहा है? लेकिन
बुद्ध कहते हैं, सुरक्षा की तलाश में। वहां पीछे, जिसको तुम महल कहते हो, बुद्ध ने कहा, वहां आग की लपटों के सिवा कुछ भी नहीं है। वहां आखिर में चिता ही बनेगी।
वहां चिता की तैयारी चल रही है, भाग जाओ! जितने जल्दी हो,
निकल जाओ!
तो जिसे तुम सुरक्षा कहते हो, बुद्ध उसे नासमझी
कहते हैं। जिसे बुद्ध सुरक्षा कहते हैं, उसे तुम्हें समझना
होगा, वह क्या है!
'यदि अपने को प्रिय समझे तो अपने को सुरक्षित रखे।'
यह सुरक्षा बैंक-बैलेंस की नहीं है। यह सुरक्षा आत्मधन की है। आत्मवान
बने। अपना मालिक बने। दूसरे की मालकियत झूठी है, क्योंकि मौत उसे छीन
लेगी। मौत से बचने के उपाय व्यर्थ हैं, क्योंकि मौत तुम्हारे
सब उपाय तोड़ देगी।
मैंने सुना है, एक सम्राट ने मौत के डर के कारण एक महल बनाया। उसने
ऐसा महल बनाया कि उसमें एक खिड़की भी न रखी। एक ही दरवाजा रखा बाहर-भीतर आने-जाने
को। दरवाजे पर पहरे पर पहरे लगा दिए। पहरे पर पहरे लगाने पड़े, क्योंकि एक पहरेदार हो, उसका क्या भरोसा! धोखा दे
जाए, दुश्मन से मिल जाए। पहरे पर पहरेदार, उस पर भी पहरेदार, ऐसे पंक्तिबद्ध पहरेदार रखे।
फिर वह अपने पड़ोसी सम्राट को महल दिखाने ले गया। वह बड़ा चकित हुआ
पड़ोसी सम्राट। उसने कहा, सुरक्षा खूब की है। ऐसा ही महल मैं भी बनवा लूंगा।
तुम्हारे कारीगर पहुंचा दो। जब वे महल के द्वार पर खड़े होकर बात कर रहे थे,
एक भिखारी सामने बैठा था, वह हंसने लगा उनकी
बातें सुनकर। जब पड़ोसी सम्राट ने कहा कि खूब सुरक्षा का इंतजाम कर लिया है,
कोई खतरा नहीं है अब इस महल में--कोई भीतर जा नहीं सकता, खतरे का सवाल ही नहीं--वह भिखारी हंसने लगा। दोनों ने उसकी तरफ चौंककर
देखा और कहा कि तुम हंसे क्यों? यह अभद्रता है। उस भिखारी ने
कहा, हो अभद्रता, लेकिन हंसे बिना न रह
सका, और कुछ कहे बिना भी न रह सकूंगा। क्या तुम कहना चाहते
हो? उसने कहा कि मैं यहां बैठा रोज देखता हूं--यहीं भीख
मांगता हूं--इसी महल के बनने को मैं देखता रहा हूं, बस मुझे
एक इसमें खतरा दिखता है कि दरवाजा इसमें एक है, इससे मौत घुस
जाएगी। और कोई घुसे न घुसे। तुम ऐसा करो, भीतर हो जाओ,
यह दरवाजा भी बंद करवा लो। फिर कोई भीतर न आ सकेगा।
उस राजा ने कहा, तू पागल हुआ है! अगर मैं भीतर हो
जाऊं और यह दरवाजा भी बंद करवा लूं, तब तो मैं जीते-जी मर
गया। यह तो कब्र हो गयी। तो उसने कहा, अब तुम मेरे हंसने का
कारण समझ लो। कब्र तो यह हो ही गयी, एक दरवाजे वाली है,
बस।
तुम कितनी ही सुरक्षा करो, मौत से कहां भाग
पाओगे? अगर बहुत सुरक्षा की, तो यही
मौत हो जाएगी। तुमने जिसे सुरक्षा समझा है अब तक, वह सिवाय
मौत के और क्या है? तुमने उस सुरक्षा के नाम पर जीवन को
बचाया कहां, गंवाया।
बुद्ध किसे सुरक्षा कहते हैं? वे कहते हैं, भीतर के सत्य को जान लेने में सुरक्षा है। तुम कौन हो, इसे पहचान लेने में सुरक्षा है। तुम्हारा स्वरूप क्या है, उसके प्रति बोधपूर्ण हो जाने में सुरक्षा है, जाग
जाने में सुरक्षा है। क्योंकि जो उसके प्रति जागा, फिर उसकी
कोई मौत नहीं। मौत तुम्हारी मूर्च्छा के कारण है। तुम्हें लगता है कि तुम मरते हो।
'पंडित को तीन पहरों में से किसी एक में अवश्य जागना
चाहिए।'
बुद्ध पंडित की परिभाषा यही करते हैं--प्रज्ञावान। जो जागा हुआ है।
पंडित की परिभाषा बुद्ध यह नहीं करते कि जो शास्त्र को जानता है, वेदज्ञ है। पंडित की परिभाषा है बुद्ध की कि जो जागा हुआ है।
कम से कम तीन पहरों में एक पहर तो जागो। कौन से तीन पहर हैं? मनुष्य की चेतना तीन हिस्सों में बंटी है। जाग्रत, स्वप्न,
सुषुप्ति। आठ घंटे तुम जागे हो, और आठ घंटे
तुम सपने देखते हो, और आठ घंटे तुम सोते हो। जरूरी नहीं कि
तुम जब जागे हो तब तुम जागे हो। ऐसा होना चाहिए था। ऐसा हुआ नहीं है। अभी तो तुम
जिसको जागरण कहते हो वह जागरण न के बराबर है, भीतर तो सपने
चलते ही रहते हैं, नींद पकड़े ही रहती है।
तुम बैठे हो, कोई अचानक आकर पूछ लेता है, क्या
कर रहे हो? तुम कहते हो, कुछ नहीं। मगर
यह उत्तर तुम्हारा सही है? तुम सपना देख रहे थे। तुम्हें
कहना चाहिए, मैं सो गया था, सपना देखता
था। या जागा-जागा सपना देखता था। दिवास्वप्न देखता था। तुम कहते हो, कुछ नहीं। कुछ नहीं, तुम आत्मरक्षा करते हो। तुम
कहते हो, सपने की बात कहना बेहूदी मालूम पड़ेगी। तुम कहते हो,
कुछ नहीं। लेकिन तुम्हारे कुछ नहीं में तुम क्या छिपा रहे हो?
तुम जब भी खाली हो, तुमने कभी अपने को खाली पाया?
जब भी तुम खाली हो, सपने घिर जाते हैं,
भीड़ लग जाती है, बाजार भर जाता है। तुमने
कितनी बार नहीं अपने को राष्ट्रपति बनते देखा सपनों में! कितनी बार नहीं तुम
सम्राट बन गए! कितनी बार नहीं तुम साम्राज्ञियों से विवाह रचा लिए! कितनी बार क्या
से क्या नहीं हो गए हो! जागते-जागते। सोए-सोए की तो बात छोड़ो, सोए-सोए का तो हिसाब ही अभी रखना मुश्किल है। अभी तो तुम जागे-जागे भी
सोए-सोए ही हो।
तो बुद्ध कहते हैं, कम से कम जागृति को तो जागृति
बनाओ, फिर आगे का आगे सोचेंगे। इतनी तो बुद्धि प्रदर्शित करो
कि आठ घंटे जब तुम जागे रहते हो, तब कम से कम जागे रहो। एक
पहर तो जागो। जागरण अगर जागरण हो जाए, आठ घंटे अगर तुम बिना
स्वप्न के, एक पहर अगर तुम बिना स्वप्न के जाग लो--कोई मन
में विचार न हो, कोई मन में धारणा न हो, कोई तरंगें न उठती हों--सिर्फ होश हो। चलो, तो जागे;
बैठो, तो जागे; भोजन करो,
तो जागे; भीतर स्वच्छ प्रकाश हो, जरा भी धुआं न हो, तो तुम अचानक हैरान हो जाओगे,
तब तुम सपना रात में भी न देख सकोगे। रात और दिन से सपने का कुछ
लेना-देना नहीं है। तुम्हारी मूर्च्छा से लेना-देना है। तब तुम रात सोए भी रहोगे
और जागे भी रहोगे। अभी तुम दिन में जागे भी हो और सोए हो।
कृष्ण का प्रसिद्ध वचन तुम्हें याद है, उसका विपरीत वचन भी
खयाल रखना, वह गीता में है नहीं। या निशा सर्वभूतानाम तस्याम
जागर्ति संयमी। जब सब सो जाते हैं तब भी संयमी पुरुष जागा हुआ है। रात में भी। ऊपर
से तुम पाओगे कि वह सोया हुआ है। लेकिन शरीर ही सोता है संयमी का, चैतन्य नहीं सोता। चैतन्य का दीया जलता ही रहता है। ध्यान का दीया जलता ही
रहता है। शरीर ही विश्राम करता है, शरीर को ही विश्राम की
जरूरत भी है, क्योंकि शरीर ही थकता है।
ऐसा समझो, जब तुम्हें भूख लगती है तो शरीर को ही भूख लगती है,
चेतना को थोड़े ही भूख लगती है। जब तुम भोजन करते हो, तो शरीर को ही भोजन मिलता है, चेतना को थोड़े ही भोजन
मिलता है। शरीर भूखा होता है, भोजन चाहिए। शरीर श्रम करता है,
थकता है, विश्राम चाहिए। यह शरीर का ही हिसाब
है। शरीर बीमार होता है, औषधि चाहिए। औषधि तुम्हारे चैतन्य
में थोड़े ही जाती है।
चैतन्य तो पार खड़ा है। श्रम में, विश्राम में; स्वास्थ्य में, बीमारी में; भूख
में, प्यास में, भोजन में, सब तरफ पार खड़ा है। चैतन्य तो वह है जो देख रहा है। जब तुम्हें भूख लगती
है, तो जिसको पता चलता है कि भूख लगी, वह
चैतन्य है। जिसको भूख लगती है, वह शरीर है। जिसको पता चलता
है कि भूख लगी है, वह चैतन्य है। जब पेट भर गया, तृप्ति हुई, तो जिसको पता चलता है तृप्ति हुई,
वह चैतन्य है। और जिसकी तृप्ति होती है वह शरीर है। प्यास लगी,
कंठ जलने लगा, जो जल रहा है वह शरीर है। जिसको
पता चल रहा है, वह चैतन्य है। फिर प्यास को बुझा लिया,
मिल गया झरना शीतल जल का, पी लिया दिल भरके,
कंठ शांत हुआ, शीतल हुआ। जो तृप्त हुआ वह शरीर
है, जिसने जाना वह चैतन्य है।
इसीलिए तो मुर्दे को भूख न लगेगी, कितने ही दिन रखे
रहो। भूखा पड़ा रहेगा, लेकिन पता चलने वाला मौजूद न रहा।
बेहोश आदमी पड़ा हो, प्यास लगी रहे, पता
न चलेगा। प्यास तो लगी रहेगी, कंठ तो जलता रहेगा, लेकिन जिसको पता चल सकता है, वह मौजूद नहीं है,
बेहोश है। शराब पीकर पड़ा है, चेतना और शरीर का
संबंध टूट गया है--बीच में शराब आ गयी है--शराब ने अंधेरा कर दिया है। जो सेतु
चेतना को शरीर से बांधते हैं, वे शिथिल हो गए हैं। वे खबर
नहीं दे पाते हैं, वे असमर्थ हो गए हैं। जैसे टेलिफोन की
लाइन बिगड़ गयी हो। इधर तुम बैठे हो फोन लिए, उधर तुम्हारा
मित्र बैठा है फोन लिए, लेकिन कोई उपाय न रहा। शराब जैसे बीच
के सेतु को बिगाड़ देती है।
इसीलिए तो जब किसी का आपरेशन करना हो तो बेहोश करना पड़ता है। बेहोश का
मतलब कुल इतना है कि बीच के सेतु को बेहोश कर देते हैं। चेतना चेतना बनी रहती है, शरीर शरीर बना रहता है, दोनों जुड़े नहीं रह जाते।
फिर तुम शरीर को काट डालो--नहीं कि पीड़ा नहीं होती, पीड़ा तो
होगी ही, लेकिन पता जिसको चल सकता था, वह
मौजूद नहीं है।
योगी रात की गहरी निद्रा में भी जागा है। इससे उलटा सूत्र भी खयाल
रखना चाहिए। तुम दिन की भरी दोपहरी में जागे हुए भी सोए हो।
तुम अपने को सोया-सोया पकड़ो। बार-बार झकझोरो। बार-बार याद दिलाओ--यह
क्या कर रहे हो? तुम पाओगे, बार-बार झपकी लग
जाती है।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था, घड़ी को अपने सामने रख
लो, सेकेंड के कांटे पर नजर रखो। और इतना ही करो कि सेकेंड
का कांटा भूले न एक मिनट तक--साठ सेकेंड तक। जब एक वर्तुल पूरा हो जाए, फिर कोई फिकर नहीं। लेकिन साठ सेकेंड भूले न, तुम
देखते रहो, जागते रहो, जागते रहो,
एक क्षण को भी बीच में अंतराल न पड़े। और शिष्य आकर कहते, बड़ा मुश्किल है।
तुम भी करना, तो पाओगे कि बड़ा मुश्किल है। दो-चार सेकेंड तक लगता
है कि होश, फिर खो गए, पहुंच गए बाजार,
खरीदने लगे सामान, तब अचानक खयाल आया, अरे! दो-चार सेकेंड तब तक गुजर गए। फिर किसी तरह बांध-बूंधकर अपने को ले
आए, दो-चार सेकेंड चले, फिर गए।
रुकते ही नहीं घर में तुम। यहां तो तुम रुकते ही नहीं, सदा कहीं और सदा कहीं और। तुम यात्रा पर ही हो। घर कभी आते ही नहीं। एक
मिनट भी पूरे तुम होश से नहीं रह सकते हो। एक पहर जो रह जाए, उसको बुद्ध कहते हैं, वह पंडित।
महावीर ने कहा है, अड़तालीस मिनट जो होश से रह जाए,
वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएगा। अड़तालीस मिनट, लगता है बड़ी सरल बात है। अड़तालीस सेकेंड करोगे तब पता चलेगा। अड़तालीस
मिनट! इतनी छोटी सी बात महावीर ने कही कि अड़तालीस मिनट जो जागा रह जाए, फिर उसके जिनत्व में कोई बाधा न रही। उसके मोक्ष में फिर कोई बाधा नहीं
है। लेकिन जागने का मतलब है सतत। एक क्षण को भी चूके न, गिरे
न, भूले न, भटके न। अड़तालीस मिनट अड?तालीस जन्मों जैसे लगेंगे तुमको। तुम अड़तालीस मिनट में अड़तालीस से ज्यादा
बार सो जाओगे। फिर झपकी खा जाओगे, फिर चौंकोगे, अरे!
लेकिन गुरजिएफ यह प्रयोग करवाता था लोगों को बताने के लिए--तुम अपनी
भ्रांति छोड़ो कि तुम जागे हुए हो। इतना सा काम नहीं कर सकते। हम सोचते हैं, हम इतना काम कर रहे हैं, तो जागे हुए ही होंगे,
यह हमारा तार्किक निष्कर्ष है। कार चलाकर घर आ गए, दुकान चला आए दिन भर, दफ्तर में सब काम किया,
तो सोए-सोए कर रहे हैं? इतना काम कर रहे हैं
तो जागे ही होंगे।
नहीं, यह निष्पत्ति गलत है। इतना काम तुम कर रहे हो रोबोट
की तरह, यंत्र-मानव की तरह। तुम सीख गए हो करना, अब तुम्हें इसमें जागने की जरूरत नहीं। जब तुम ड्राइव कर रहे हो, तुम हजार बातें सोच रहे हो, ड्राइव थोड़े ही कर रहे
हो। ड्राइव तो तुम्हारा यंत्रवत शरीर कर रहा है। वह तुम सीख गए, उसमें तुम कुशल हो गए। तो लोग सिगरेट पी रहे हैं, गाना
गा रहे हैं, रेडियो सुन रहे हैं कार में और ड्राइव भी कर रहे
हैं। तुमने कभी खयाल किया, शरीर बिलकुल यंत्र की तरह जहां
मुड़ना है मोड़ लेता है, जहां बाएं जाना है बाएं चला जाता है,
जहां दाएं जाना है दाएं चला जाता है। तुम अपने घर आ जाते हो। इस वजह
से तुम सोचते हो, हम जागे हुए होंगे, अपने
घर आ जाते हैं रोज-रोज।
नहीं, इसको तुम बहुत होश मत समझना, यह
सिर्फ कुशलता है। कुशलता होश नहीं है। इसलिए तो वैज्ञानिक कहते हैं, आज नहीं कल, हवाई जहाज से वे पाइलट को अलग कर लेंगे।
यंत्र ही चला लेगा।
मैंने सुना है, पहला प्रयोग किया गया बिना पाइलट के हवाई जहाज चलाने
का। जो यात्री सवार होने को थे, उनमें से एक यात्री जरा डरा
हुआ था। पाइलट के साथ ही घबड़ाहट रहती है, बिना पाइलट के जा
रहे हैं, पता नहीं उतरे कि नहीं उतरे। वह जरा डरा था। उसने
जाकर एयरपोर्ट के अधिकारी को पूछा कि मुझे जरा आश्वस्त कर दो। जब बेल्ट बांधने हैं,
तब कोई कहेगा कि बांध लो? जब खोलने हैं,
तब कोई कहेगा कि खोल लो? कब सिगरेट पीना शुरू
करनी है, कब बंद कर देनी, कोई कहेगा?
उसने कहा, जरूर कहेगा, घबड़ाओ
मत। लेकिन गौर से सुनना, क्योंकि अगर वहां से आवाज आयी,
बेल्ट खोल दो और तुमने न सुना; तुमने पूछा,
क्या? तो तुम समझ लेना तुम अपने ही से बात कर
रहे हो। वहां कोई भी नहीं है, टेप है। वह यंत्रवत सब दोहरा
देगा।
कहते हैं, जिस दिन यंत्र-मानव से हवाई जहाज चलने लगेगा, दुर्घटनाएं कम हो जाएंगी। तुम हैरान होओगे। जहां-जहां यंत्र आ जाता है,
वहां कुशलता बढ़ जाती है, यह तो तुम्हें भी पता
होगा। आदमी से भूलें होती हैं, यंत्र से भूलें नहीं होतीं।
इसलिए भूलें तुम से न होती हों, इस कारण तुम यह मत सोचना कि
तुम बड़े जागे हुए पुरुष हो। यंत्र से तो भूलें होती ही नहीं। यंत्र तो पुनरुक्त
किए जाता है। जो जानता है, उसको दोहराए चला जाता है।
इसलिए तो जब तुम पहले-पहले कार को चलाना सीखते हो तब मुश्किल आती है।
असली मुश्किल कार के कारण नहीं आती। असली मुश्किल होश के कारण आती है। सीखना है तो
थोड़ा सा होश रखना पड़ता है। नहीं तो सीखोगे कैसे?
इसलिए कृष्णमूर्ति कहते हैं, जिसको होश में रहना
है, उसे सदा सीखते रहना चाहिए। लघनग! सीखते ही रहना चाहिए।
उसे एक क्षण को भी ऐसा नहीं सोचना चाहिए, सीख लिया। जहां
तुमने कहा, सीख लिया, वहीं होश गया।
सीख लिए का मतलब, अब होश की जरूरत न रही, शरीर ही कर लेगा। टाइपिंग सीख ली, बात खतम हो गयी।
ड्राइविंग सीख ली, बात खतम हो गयी। एक भाषा सीख ली, बात खतम हो गयी। अब तुम्हें कोई जरूरत नहीं हिसाब रखने की।
नींद में भी लोग बड़बड़ाते हैं। बिलकुल व्याकरणयुक्त वाक्य भी बोल देते
हैं। नींद में! इसका मतलब यह थोड़े ही कि वे जागे हुए हैं। नींद में भी तुम अपनी ही
भाषा बोलते हो, दूसरे की थोड़े ही बोलने लगते हो। बेहोशी में भूल थोड़े
ही करते हो कि सोए हैं, इसलिए किसी की भी बोलने लगे। अपनी ही
बोलते हो।
मेरे एक मित्र जर्मनी में थे। वे वहां बीस साल थे। फिर बीमार पड़े।
जर्मन भाषा उन्हें ऐसी हो गयी जैसे मातृभाषा हो। अपनी भाषा तो भूल ही गए। फिर
बीमार पड़े। तो बड़ी मुश्किल खड़ी हुई। क्योंकि जब वे बीमारी में बेहोशी में बड़बड़ाते, तो वे जर्मन न बोलते। तो डाक्टर मुश्किल में पड़े कि वे क्या कहते हैं! तो
किसी हिंदुस्तानी को खोजना पड़ा। बीस साल पहले की भाषा भी यंत्र में सुरक्षित है।
बेहोशी में वापस सक्रिय हो गयी।
इसलिए तो तुम भूल नहीं पाते; एक दफा तैरना सीख
लिया, सीख लिया; एक दफा कार चलाना सीख
लिया, सीख लिया। वह हो गयी तुम्हारी, वह
शरीर में उतर गयी। शरीर में जाकर शरीर के यंत्र में समाविष्ट हो गयी।
वही व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है जो कभी ज्ञानी नहीं होता, सीखता ही रहता है। वही व्यक्ति गुरु होने के योग्य है जिसका शिष्यत्व
आत्यंतिक है। जो सीखता ही चला जाता है। जो मरते दम तक सीखता रहता है। जो आखिरी
क्षण तक सीखता रहता है। क्योंकि सीखते रहो, तो ही तुम जागे
रह सकते हो। इसलिए नालेज, ज्ञान, कीमत
का नहीं है। लघनग, सीखना, कीमत का है।
'यदि अपने को प्रिय समझे तो अपने को सुरक्षित रखे।
पंडित को तीन पहरों में से किसी एक में अवश्य जागना चाहिए।'
तो ही पंडित है। सुरक्षा का अर्थ समझना। सुरक्षा है स्वयं के जागने
में। सुरक्षा है स्वयं के पहरेदार को जगा लेने में। सुरक्षा है भीतर के अंधेरे को
भीतर के दीए से बुझा देने में, मिटा देने में। सुरक्षा है होश
में, स्मृति में, ध्यान में। लेकिन यह
सब संभव है तभी जब तुम अपने को प्रेम करो। और तुम्हें चारों तरफ से लोग खींच रहे
हैं कि तुम अपने को प्रेम मत करो।
पत्नी कह रही है, मुझे प्रेम करो, मैं तुम्हारी पत्नी हूं। सात फेरे लगाकर ले आए थे, भूल
गए? पत्नी कहती है कि अब तुम उतना प्रेम करते नहीं मालूम
पड़ते जितना पहले करते मालूम पड़ते थे। याद करो वे पुराने दिन! पति कह रहा है,
मुझे प्रेम करो, मैं पति हूं; और पति तो परमात्मा है। सब एक-दूसरे से कह रहे हैं प्रेम करो। कोई किसी की
तरफ यह नहीं देख रहा है कि वहां प्रेम घटा भी है या नहीं। अगर वहां घटा ही नहीं है,
तो कोई लाख उपाय करे, कैसे करेगा? ज्यादा से ज्यादा दिखावा कर सकता है।
इसीलिए तो संसार में प्रेम का दिखावा है, प्रेम नहीं। प्रेम का काफी प्रचार है, विज्ञापन है,
प्रेम नहीं। जो नहीं है, उसको छिपाने के लिए
खूब विज्ञापन भी करना पड़ता है। तो लोग एकदम प्रेम ही प्रेम की बातें करते हैं।
होता तो इतनी जरूरत न थी बात करने की। फूल तो कुछ कहते नहीं कि सुगंध है। सुगंध ही
बता देती है। तुम वही तो जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर अपने चारों तरफ कहते रहते हो,
जो नहीं है। इस तरह तुम दूसरों को भी धोखा दे देते हो और डर है कि
कहीं अपने को भी धोखा न दे लो। क्योंकि बार-बार दोहरायी गयी बातें सत्य जैसी मालूम
होने लगती हैं। सब तरफ से आकांक्षा है तुम्हारी--प्रेम दो! और कोई तुमसे नहीं कहता
कि प्रेम बनो। मैं तुमसे यही कह रहा हूं, प्रेम बनो। देना
वगैरह पीछे हो जाएगा, अपने से हो जाएगा।
कोई नासेह कोई दोस्त है कोई गमख्वार
सबने मिल के मुझे दीवाना बना रखा है
कोई धर्मगुरु है, वह कह रहा है, ऐसा करो। कोई दोस्त है, वह कहता है, ऐसा करो। कोई सहानुभूति रखता है, हमदर्द है, वह कहता है, ऐसा करो। सब तरफ तुम खींचे जा रहे
हो--ऐसा करो, ऐसा करो, ऐसा करो। कोई
नहीं कहता कि कैसे हो जाओ। वे जो तुमसे कह रहे हैं, ऐसा करो,
उसमें उनका स्वार्थ होगा। तुम्हारे हित की कोई दृष्टि नहीं है।
कोई नासेह कोई दोस्त है कोई गमख्वार
सबने मिल के मुझे दीवाना बना रखा है
आदमी पागल हुआ जा रहा है। सभी आदमी करीब-करीब पागल हैं। खींचातानी
इतनी है। एंचातानी इतनी है। कोई हाथ खींच रहा है, कोई पैर खींच रहा है।
टुकड़े-टुकड़े आदमी हो गया है।
सम्हलो। अपने को प्रेम करो। छुड़ाओ यह हाथ। कहो कि पहले मुझे अपनी जड़ें
जमा लेने दो। दूंगा तुम्हें छाया, लेकिन पहले जड़ें तो जमा लेने दो।
मेरे पत्तों को तो खिलने दो, मेरे फूल तो आने दो, मेरी शाखाएं तो फैलने दो आकाश में। दूंगा जरूर तुम्हें छाया; रुकना, ठहरना, विश्राम करना,
फल पकें तो खाना, लेकिन पहले मुझे जड़ तो जमाने
दो।
तुम हो बीज को भांति, और कोई कह रहा है, छाया दो। तुम हो बीज की भांति, कोई कहता है, फल दो। तुम हो बीज की भांति, कोई कहता है, फूल कहां है, फूल लाओ। और उनकी बकवास में, उनकी बातचीत में तुम भी कोशिश में लग गए हो कि फूल कहां से लाऊं, चलो बाजार से ही खरीद लाऊं। उधार ही सही। प्लास्टिक के ही लगा लें। चलो
धोखा दें छाया का। बातें करें कि देखो कैसी घनी छाया है, आओ
विश्राम करो।
इस प्रवंचना से जागो। इसलिए बुद्ध कहते हैं--
अत्तानं चे पियं...।
'यदि अपने को प्रिय समझो तो अपनी सुरक्षा करो।'
अक्सर तो ऐसा होता है, बीज बीज ही मर जाते
हैं, खिल ही नहीं पाते।
आह उन तारों की खूंगस्ता तमन्नाए-नमूद
जो उभरते ही उफक से झिलमिला के रह गए
बहुत से तारे तो बस झिलमिलाते ही हैं और गिर जाते हैं। खून में डूबी
हुई उनकी उभरने की आकांक्षाएं बस झिलमिलाकर ही समाप्त हो जाती हैं।
ऐसी ही दशा है आदमी की। सभी बड़ी अभीप्सा लेकर आते हैं--खिलेंगे, फूलेंगे, बिखरेंगे, सुगंध
फैलाएंगे आकाश में, पंख फैलाएंगे, उड़ेंगे,
मगर यह कुछ हो नहीं पाता। कभी-कभी हो पाता है। जिसको हो जाता है उसी
को हम बुद्धपुरुष कहते हैं।
सभी को हो सकता था। लेकिन तुमने अपनी सुरक्षा न की। तुम सावचेत न हुए।
तुम जागे नहीं। और करीब-करीब यह होश ऐसा नहीं है कि न आता हो, जिंदगी में बहुत बार तुम्हें लगता है कि कुछ करें। यह क्या हो रहा है?
कहां गंवाए जा रहे हैं? यह किस अंधेरे में,
किस स्याह रास्ते पर भटके चले जा रहे हैं! यह जिंदगी, क्यों हाथ से बिखरी चली जाती है? यह क्यों सब टूटा
चला जा रहा है? ऐसा भी नहीं है कि तुम्हें होश न आता हो।
कभी-कभी यह होश भी आता है, लेकिन फिर-फिर तुम पुरानी आदत में
संलग्न हो जाते हो।
मन आदत से जीता है। और होश आदत के विपरीत जीता है। होश को जगाना हो, तो आदत से ऊपर उठो। वहीं कठिनाई है, वहीं तपश्चर्या
है। अन्यथा मरते वक्त तुम पाओगे, रोओगे! मरते वक्त अक्सर ही
लोग रोते हैं। इसलिए रोते हैं, उनकी आंखें इसलिए गीली हो
जाती हैं कि जिस जिंदगी में बहुत कुछ पा सकते थे, वहां
कूड़ा-करकट इकट्ठा किया। और अब अगर छोड़ना भी चाहें उस कूड़े-करकट को, तो भी कोई सार नहीं। अब तो जिंदगी ही हाथ से जाती है।
हुआ एहसास पैदा मेरे दिल में तर्के-दुनिया का
मगर कब जब कि दुनिया को जरूरत ही न थी मेरी
मरते वक्त कौन संन्यस्त नहीं होना चाहता? मरते वक्त तो सभी संन्यस्त होना चाहते हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी को फांसी की सजा लगने वाली थी। उसको फांसी के
तख्ते पर ले जाया जा रहा था। तख्ते पर खड़ा कर दिया गया था और सिपाहियों ने पूछा,
तुम्हारी कोई आखिरी इच्छा? सिगरेट पीना चाहोगे?
तो उसने कहा कि नहीं। शराब पीना चाहोगे? उसने
कहा कि नहीं। उसने कहा कि बड़े पाक, बड़े पवित्र आदमी मालूम
पड़ते हो! उसने कहा कि भूल में मत पड़ना, मैं शराब और सिगरेट
छोड़ने की आखिरी कोशिश कर रहा हूं। अब तक सफल नहीं हो पाया, अब
तो बस क्षणभर की देरी है और फांसी लगने को है। कहने को रह जाएगा। परमात्मा के
सामने मौजूद होऊंगा, कह दूंगा कि सब छोड़कर आया हूं।
ऐसे धोखा न दे पाओगे। जिसे जिंदगी में पकड़ा, उसे तुम मौत में छोड़ने की बात मत करना, क्योंकि तब
तो छुड़ा ही लिया जाएगा। जब छुड़ाया न जा रहा था, तब जिसने
छोड़ा उसी ने छोड़ा। जब छुड़ा ही लिया गया, तब तुमने कहा कि चलो
छोड़ देते हैं। तो तुमने अपने मन को समझाया। समझा लिया अंगूर खट्टे हैं।
'पहले अपने को ही उचित में लगाए और बाद में दूसरों को
उपदेश दे। इस तरह पंडित क्लेश को प्राप्त नहीं होगा।'
अत्तानेमेव पठमं पतिरूपे निवेसये।
'पहले अपने को ही उचित में लगाए, बाद
में दूसरों को उपदेश दे।'
क्योंकि जिंदगी स्वयं उपदेश न हो, तो सब उपदेश व्यर्थ
हैं। जो मैं तुमसे कहूं, अगर वह मेरे भीतर न खिला हो,
तो तुम्हारे भीतर खिलने की कोई संभावना नहीं है। जो मैं तुमसे कहूं,
वह मैंने न जाना हो, तो मैंने तुम्हारा भी समय
खराब किया, अपना भी समय खराब किया। और अक्सर अहंकार दूसरों
को सुधारने की यात्रा पर निकल जाता है। अहंकार को गुरु होने की बड?ी आकांक्षा है।
मैंने सुना है, एक आश्रम में एक युवक आया। उसने कहा कि मुझे शिष्य
बना लें, स्वीकार करें--गुरु को। गुरु ने कहा, बड़ा कठिन है। तपश्चर्या करनी होगी। अनुशासन में जीना होगा। उसने पूछा,
क्या करना होगा? काम क्या है? तो गुरु ने कहा, पहले तो लकड़ियां काटनी होंगी जंगल
से, सर्दी करीब आ रही है। फिर लकड़ियों का काम पूरा हो जाएगा
तो चौके में बहुत काम है। वहां लगना होगा। फिर बगीचे को बोना है। खेत में काम लगा
है, वहां सब लगना होगा। उसने कहा, अच्छा
ठीक है, यह तो मैं समझ गया, गुरु का
क्या काम है यहां? यह तो शिष्य का काम है। उसने कहा, गुरु का काम है कि बैठा रहे और लोगों को आदेश दे। तो उसने कहा, फिर ऐसा करो, मुझे भी गुरु ही बना लो।
गुरु होने की आकांक्षा स्वाभाविक है। इसीलिए तो हर आदमी सलाह दिए जाता
है। ऐसी सलाहें हैं, जो अपने काम भी न आयीं। ऐसी सलाहें हैं, जो मुसीबत आएगी तो उसे याद भी न आएंगी। तुमने कभी अपने को पकड़ा है ऐसी
सलाहें लोगों को देते, जिनका तुमने कभी खुद उपयोग नहीं किया?
कोई क्रोधित हो जाता है, तुम कहते हो अरे,
क्यों अपने जीवन को जहर में डाल रहे हो? मगर
तुम जब क्रोधित होते हो, तब तुमने याद रखा? अक्सर तो ऐसा होता है कि जिनको तुम सलाह देते हो, वही
तुम्हें सलाह देते हैं।
एक घर में कोई मर गया था। मैं गया। लोग रो रहे थे, कुछ लोग समझा रहे थे। जो समझा रहे थे, उन्होंने मुझे
बड़ा चौंकाया, क्योंकि जिन्होंने मौत को समझ लिया वही समझा
सकते हैं। मैंने बड़े गौर से उनकी बातें सुनीं। वे कह रहे थे, आत्मा तो अमर है, क्या रोते हो! अरे, यह तो चोला बदल गया। यह तो शरीर है, जराजीर्ण वस्त्र
की भांति। गीता का उल्लेख कर रहे थे। उपनिषदों के वचन दोहरा रहे थे। मैंने कहा
निश्चित ही ये लोग ज्ञानी हैं।
फिर कुछ महीने बाद उनके घर में कोई मर गया। तो मैं वहां गया, वे रो रहे थे। और चकित तो मैं तब हुआ कि वे जिनके घर में समझाने गए थे,
वे उनको समझा रहे थे और वही बातें समझा रहे थे कि आत्मा तो अमर है,
अरे क्या रोते हो!
ऐसे हम एक-दूसरे को दे रहे हैं, वह जो हमारे पास नहीं
है। इससे थोड़ा सावधान रहना।
'पहले अपने को उचित में लगाए, बाद
में दूसरों को उपदेश दे। इस तरह पंडित क्लेश को प्राप्त नहीं होगा।'
कहीं ऐसा न हो कि दूसरों को समझाने में ही समय व्यतीत हो जाए। तुम
बिना समझे ही विदा हो जाओ। तो बहुत क्लेश को उपलब्ध होओगे।
और मजा यह है कि दूसरों ने तुम्हारी सलाह से कोई सलाह न ली। संसार में
जो चीज सबसे ज्यादा दी जाती है, वह सलाह है। और जो सबसे कम ली
जाती है, वह भी सलाह है। कोई लेता किसी की सलाह! देने वाले
को देने का मजा आता है, लेने वाला सकुचाता है कि कहां फंस गए,
कब छुटकारा हो। कोई किसी की सलाह लेता है? सुन
लेते हैं लोग शिष्टाचारवश। लिहाज से। अन्यथा कौन किसकी सलाह लेता है! मत दो। कोई
जरूरत नहीं। समय खराब मत करो।
तुझे क्यों फिक्र है ऐ गुल दिले-सदचाके-बुलबुल की
तू अपने पैरहन के चाक तो पहले रफू कर ले
अपने कपड़े तो पहले सुधार लो। अपने फटे-पुराने कपड़ों को तो पहले रफू कर
लो। फिर तुम दूसरों को समझाने जाना। शायद तुम्हारे रफू किए हुए कपड़े ही दूसरों के
लिए भी समझ और संदेश बन जाएं। जिंदगी से बड़ा और कोई संदेश नहीं। जिसने जीया, उसके जीवन से ही सलाह मिलनी शुरू हो जाती है। और उसी से लोग लेते भी हैं।
कोई उससे नहीं लेता जो खुद जीने से वंचित रह गया है।
'मनुष्य अपने को वैसा बनावे, जैसा
वह दूसरों को अनुशासन करता है। अपना भलीभांति दमन करे। अपना दमन ही कठिन है।'
वैसा अपने को बनाओ, जैसा तुम चाहते हो दूसरे हों।
तुम चाहते हो दूसरे सत्यवादी हों, सत्यवादी हो जाओ। क्योंकि
दूसरे भी यही चाहते हैं। तुम चाहते हो दूसरे क्रोध न करें, तुम
क्रोध न करो। तुम चाहते हो दूसरे प्रेमवान हों, तुम प्रेमवान
हो जाओ। इसे तुम सूत्र समझ लो। बड़ा बहुमूल्य सूत्र है। इससे तुम धर्म की कसौटी कर
लोगे। तुम जो चाहते हो कि दूसरे करें, दूसरे हों, वैसे ही तुम होने लगो, वही तुम्हारे जीवन का शास्त्र
है। कहीं और खोजना नहीं है। अपने भीतर इतना ही देखो कि मेरी क्या आकांक्षा
है--कैसे लोग हों? तुम नहीं चाहते पड़ोसी तुम्हारे घर में
कचरा फेंके, तुम न फेंको।
कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था। एक सज्जन--लखनवी--लखनऊ जा रहे हैं ट्रेन
में। बैठे हैं सीट पर, सामने की सीट पर पैर फैलाए। और पूरे समय पान चबा रहे
हैं और फर्श पर पीक डालते जा रहे हैं। दो-चार लोगों ने कहा भी उनको कि भई, यह क्या कर रहे हो? मगर वे कुछ जिद्दी, झगड़ैलू स्वभाव के। उन्होंने कहा, क्या कर रहे हैं!
किसी के बाप का डब्बा है? तुम करो, तुम्हें
करना है। नहीं करना है, मत करो। टिकिट दी है, मुफ्त में नहीं बैठे हैं! झगड़ा-फसाद न हो, लोग चुप
रहे।
फिर स्टेशन आ गयी लखनऊ की तो वे उतरे। कुली को अपना सामान लेने भेजा।
कुली को क्या पता! उसने उनका बिस्तर नया का नया फर्श पर से घसीट दिया, तो वह ऐसा रंगीन हो गया जैसे किसी ने आधुनिक चित्रकला की हो। बड़े नाराज
हुए। कहा कि बड़ा नालायक है तू! तो एक आदमी ने डिब्बे से झांककर कहा कि बड़ा यह नहीं
है, बड़ा तो वह था जो नीचे पीक फैला गया। यह तो छोटा नालायक
है। अब कुछ कहते न बना!
खयाल रखो, जो तुम चाहते हो दूसरे तुम्हारे साथ करें, वही उनके साथ करो। बस इतना सा सार-सूत्र है। और जो तुम चाहते हो कि दूसरे
हों और तुम प्रसन्न होओगे, वैसे ही हो जाओ, ताकि दूसरे प्रसन्न हो सकें। इतना सरल है। कहीं वेद में, कुरान में, बाइबिल में खोजने की जरूरत नहीं है। इस
छोटी सी लकीर को हृदयस्थ कर लो और इसी के अनुसार चलने लगो। तुम भटक न पाओगे। मोक्ष
तुमसे बच न पाएगा। और परमात्मा कहीं भी छिपा हो, उसे अपना
घूंघट उठाना ही पड़ेगा।
'मनुष्य अपने को वैसा बनावे जैसा वह दूसरों को अनुशासन
करता है। अपना भलीभांति दमन करे।'
दमन शब्द बुद्ध के समय में बड़ा समादृत शब्द था। फ्रायड के बाद उस शब्द
के अर्थ बदल गए हैं। दमन का वह अर्थ नहीं था जो अंग्रेजी में रिप्रेशन या सप्रेशन
का है। दम का अर्थ था शांत। जो अपने भीतर की वासनाओं को शांत कर ले--दबा न दे। अब
तो दमन का अर्थ होता है, दबा दे। बुद्ध का अर्थ था, दम
को उपलब्ध हो जाए। दम का अर्थ है, शांत हो जाए।
दोनों में बड़ा फर्क है। तुम्हारे भीतर क्रोध उठा, तुम उसे दबा दो। शांत तुम नहीं हो गए, अशांति तुमने
प्रगट न की। दबा ली। जहर का घूंट पीकर रह गए। छाती में समा ली। किसी को पता भी न
चलने दी। कानों-कान खबर न होगी, किसी को पता न चलेगा,
ऊपर-ऊपर तुम मुस्कुराते रहे--लिपी-पुती झूठी हंसी--भीतर क्रोध को
दबा लिया। लेकिन यह निकलेगा। यह निकलेगा। यह कहीं न कहीं निकलेगा। यह प्रतीक्षा
करेगा किसी कमजोर क्षण की। किसी ऐसे पर निकल पड़ेगा जहां निकालने में तुम्हें कुछ
महंगा सौदा न मालूम पड़ेगा। मालिक पर दबा लिया था, नौकर पर
निकल जाएगा। बड़े पर दबा लिया था, छोटे पर निकल जाएगा। तगड़े
से दबा लिया था, कमजोर पर निकल जाएगा।
मगर यह बुद्ध का दमन न हुआ। बुद्ध कहते हैं, समझो, जागो। जब क्रोध उठे तब होश को सम्हालो। दबाओ
मत क्रोध को, झूठी हंसी भी मत लाओ, लेकिन
होश को सम्हालो। जैसे यह होश सम्हलता है, क्रोध तिरोहित हो
जाता है। दबाना नहीं पड़ता। दबाने को कुछ पाया ही नहीं जाता।
जिसने जागकर देखा, उसकी हालत ऐसी होती है, जैसे मैं तुमसे कहूं, घर में अंधेरा है, यह दीया ले जाओ और जरा टटोलकर घर में देख आओ, अंधेरा
कहां है। तुमने अगर मेरी मान ली, तो तुम खाली के खाली हाथ
लौटोगे। क्योंकि दीया लेकर अगर अंधेरे को देखने गए, तो
अंधेरा मिलेगा ही नहीं। अंधेरा मिलता है अगर अंधेरे में जाओ। दीया लेकर गए तो
अंधेरा कहां है?
बुद्ध के दमन का अर्थ है, होश लेकर अगर गए तो
दमन करने को कुछ बचता ही नहीं। शांत हो जाता है। कभी जागकर क्रोध करो। होशपूर्वक
क्रोध करो। तय करके कि क्रोध करेंगे, करो और उस वक्त होश में
रहो कि देखो कर रहे क्रोध--यह रहा क्रोध! तुम अचानक पाओगे, सब
जान निकल गयी, क्रोध नपुंसक हो गया। पैर टूट गए, वहीं गिर पड़ा चारों खाने चित्त। उठ नहीं सकता। उठा नहीं सकते। क्रोध के
प्राण तुम्हारी मूर्च्छा में हैं।
इसलिए बुद्ध के दमन को तुम फ्रायड का दमन मत समझना। पच्चीस सौ साल
पुरानी भाषा है। अर्थ भाषा के रोज बदलते रहते हैं। शब्द बड़ी यात्रा करते हैं।
शब्दों की बड़ी कथाएं हैं। शब्द भी ऐसे ही बदलते रहते हैं जैसे कपड़े बदलते रहते हैं, फैशन बदलता रहता है।
पिछले किसी दिन मैंने मजाक में कहा--किसी सिंधी गुरु की चर्चा कर रहा
था--तो मैंने कहा, एक तो सिंधी, और गुरु! किसी
सिंधी को नाराजगी आ गयी होगी। उसने चिट्ठी लिखकर भेजी कि आप क्या सिंधियों के
खिलाफ हैं? मैंने कहा, मैं खुद ही
सिंधी हूं। यहां सभी सिंधी हैं।
वे बहुत चौंके। उनको पता नहीं शब्द का इतिहास। हिंद शब्द सिंध शब्द से
बना। जब पहली दफे परसियन हिंदुस्तान आए तो सिंध शब्द का उच्चारण न कर सके। उनकी
भाषा में स का ह उच्चारण है। तो उन्होंने सिंध नदी को हिंद नदी कहा। और सिंध नदी
के आसपास बसे सिंधियों को हिंदी कहा। उसी से हिंदुस्तान बना। और जब परसियन इस शब्द
को परसिया ले गए और वहां से यूनान पहुंचा, तो यूनान में वह ह का
उच्चारण न कर सके। उनकी भाषा में ह के लिए जगह न थी। उन्होंने उसका उच्चार इंद
किया, इंद से इंडिया बना। मगर सबका जन्म सिंधी से।
तो मैंने कहा, यहां सभी सिंधी हैं, तुम इतने
नाराज क्यों हुए? और मैं तो प्रशंसा किया। मेरा मतलब यह था
कि एक तो सिंधी, और गुरु! सिंधी होने से काफी गुरु है,
अब और गुरु होने की क्या जरूरत है? यह तो डबल
गुरु हो गया, महागुरु हो गया, गुरु-घंटाल
जिसको कहते हैं!
शब्द बड़ी यात्रा करते हैं। अगर शब्दों की कहानी में तुम जाओ तो बड़ी
रोचक है उनकी कथा। समय के साथ बदलते जाते हैं। आदमियों के साथ बदलते जाते हैं। कभी
जो अच्छे थे वे बाद में बुरे भी हो जाते हैं। बड़ा चमत्कार होता है। कभी जो अच्छे
थे बुरे हो जाते हैं, जो बुरे थे वे अच्छे हो जाते हैं।
अंग्रेजी का शब्द है डेविल। वह कभी बड़ा अच्छा शब्द था। वह संस्कृत के
दिव धातु से बना है, जिससे देवता बनता है। लेकिन कथा है कि वे जिसको डेविल
कहते हैं--वह बिलजेबब--वह भी देवता था कभी। फिर ईश्वर के खिलाफ बगावत की तो उसे
दुनिया में फेंक दिया। था तो वह देवता ही, इसलिए डेविल। मगर
अब किसी को डेविल कह दो तो वह नाराज हो जाए। और किसी को देवता कहो तो बड़ा प्रसन्न
हो। दोनों एक ही अर्थ रखते हैं। दोनों दिव से आए हैं। जिससे डेविल आया, उसी से डिवाइन। कोई फर्क नहीं है। मगर बड़ा फर्क हो गया। ऐसा रोज होता रहा
है। सदा होता रहा है। समय की धारा बदलती है, शब्द बदल जाते
हैं।
बुद्ध, महावीर, पतंजलि जब दमन का उपयोग
करते हैं, उस समय में बड़ा आदृत शब्द था। बड़ा आदृत शब्द था।
बड़ा बहुमूल्य शब्द था। उसका अर्थ था, जिसकी सब वासनाएं शांत
हो गयीं। जिसकी सब वासनाएं सो गयीं, क्योंकि वह जाग गया। जब
तुम जागते हो, वासनाएं सो जाती हैं। जब वासनाएं जागती हैं,
तुम सो जाते हो। दोनों साथ-साथ नहीं जाग सकते। दोनों एक साथ घर में
नहीं हो सकते।
फ्रायड ने दमन का जो अर्थ लिया वह बड़ा और था। उसका संबंध ईसाइयत से
है। ईसाइयत ने दमन सीख लिया। जीसस जिन सूत्रों की बात किए, ईसाइयत उनको समझ न सकी। जीसस तो उन सूत्रों को ले गए भारत से। उनके रोपे
उन्होंने लगाए, लेकिन वे रोपे लग न पाए। बड़ा कठिन होता है।
एक जीवन की धारा होती है, उसमें तुम कहीं से कुछ ले आओ।
जैसे भारत से आम का पौधा ले जाओ, इंग्लैंड में लगाओ,
लग नहीं पाता। किसी तरह लग भी जाए, तो फल न आ
पाएंगे। किसी तरह फल भी आ जाएं, तो उन आमों में वही स्वाद न
होगा जो यहां होता है। सूरज चाहिए, गर्मी चाहिए, तब आम पकते हैं। फिर कोयल भी चाहिए। न कोई कुहू-कुहू करे तो भी आम नहीं
पकता। फिर एक खास हवा चाहिए, खास माहौल चाहिए। सभी चीजें
जुड़ी हैं, संयुक्त हैं।
तो जीसस ले तो गए, लेकिन जो बुद्ध के लिए दमन था,
वह जब ईसाइयत में पहुंचा तो वह फ्रायड का दमन हो गया। क्रोध शांत हो
जाए यह तो भूल गए लोग, क्रोध को शांत कर लें यह याद रह गया।
दबा लो, शांत कर लो, सीधी बात हो गयी।
जगाना तो कठिन था स्वयं को, दबाना बड़ा आसान मालूम पड़ा।
तो फिर फ्रायड का जन्म होना निश्चित हो गया। क्योंकि यह इस दमन ने
सारी मनुष्यता को ज्वालामुखी पर बिठा दिया। जो-जो दबाया वही-वही आदमी के
रक्त-मांस-मज्जा में समा गया। ईसाइयत ने कामवासना इतनी दबायी, इतनी दबायी कि फ्रायड को ऐसा लगने लगा कि आदमी सिर्फ कामवासना है।
यह थोड़ा सोचने जैसा है। इसमें फ्रायड का कसूर कम, इसमें ईसाइयत का कसूर ज्यादा है। यह तो ऐसा ही हुआ कि तुम मवाद को इतना
दबाते गए, इतना दबाते गए, कि वह पूरे
शरीर में फैल गयी। फिर कोई चिकित्सक आया, उसने जगह-जगह से
तुम्हारे शरीर को जांचा, हर जगह मवाद पायी। तो उसने कहा,
आदमी में खून तो है ही नहीं, मवाद ही मवाद है।
ऐसा ही ठीक फ्रायड को अनुभव में आया। जहां से आदमी को टटोला, वहीं कामवासना पायी, वहीं देवता, कामदेवता को बिराजे पाया। वह बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, सब जगह कामवासना है। सारा जीवन कामवासना है।
कल मैं एक मजाक पढ़ रहा था। एक यहूदी मजाक है कि मनुष्य-जाति के इतिहास
को पांच यहूदियों ने प्रभावित किया है। छा गए हैं यहूदी। हैं बड़े बुद्धिमान लोग।
बड़े प्रतिभाशाली लोग। तो पहला यहूदी--मोजिज। उसने कहा कि सब खेल, सब बात आदमी की खोपड़ी में है, मस्तिष्क में है,
सिर में है। आल इज इन द हेड। फिर आया जीसस। जीसस भी यहूदी है। उसने
कहा, आल इज इन द हार्ट। सब आदमी के हृदय में है। फिर आया
कार्ल माक्र्स। उसने कहा, आल इज इन द स्टमक। सब आदमी के पेट
में है। और फिर आया फ्रायड। उसने कहा, आल इज जस्ट ए लिटिल
लोअर दैन स्टमक। जरा और नीचे। क्योंकि सब आदमी की कामवासना में है। और फिर आया
पांचवां यहूदी--अलबर्ट आइंस्टीन। उसने कहा, आल इज रिलेटिव।
सब सापेक्ष।
फ्रायड ने जो पाया कि पेट से जरा नीचे, बस कामेंद्रिय में सब
है, उसका कारण फ्रायड की भूल नहीं। फ्रायड को जो लोग उपलब्ध
थे, उनके जीवन में कामवासना दबते-दबते खून में मिल गयी,
इकट्ठी फैल गयी। उसने ईसाइयों का परीक्षण किया। वही बीमार होकर उसके
पास आ रहे थे। उसने रुग्ण लोगों को देखा। और जब भी कोई मानसिक-रूप से रुग्ण होता
है, तो कामवासना से भरा होता है। उसने स्वस्थ आदमी देखा ही
नहीं। उसका कसूर नहीं, स्वस्थ आदमी पाना मुश्किल हो गया है।
काश, उसने कोई बुद्ध जैसा पुरुष देखा होता। तो वह पाता कि
खून में, रग-रग, रेशे-रेशे में राम ही
राम है। काम मिलता ही नहीं। वह चकित होता। यहां तो काम का कुछ पता ही नहीं चलता।
यहां तो काम रूपांतरित हो गया। वहां उसे क्रोध मिलता ही नहीं। करुणा मिलती। वहां
कुछ उलटा ही मिलता। वहां आदमी अपने चरम-शिखर पर मिलता। आदमी के चरम स्वास्थ्य की
दशा मिलती। आदमी न मिलता, भगवान मिलता। भगवत्ता मिलती।
बुद्ध का अर्थ है, शांति, गहन
शांति। तुम जागो, सब वासनाएं सो जाती हैं।
'मनुष्य अपने को वैसा ही बनावे जैसा वह दूसरों को
अनुशासन करता है। और अपना भलीभांति दमन करे। अपना दमन ही कठिन है।'
कठिन है, बहुत कठिन है। क्यों? क्योंकि
आदतें बड़ी प्रबल हैं। जन्मों-जन्मों की हैं। और मन कहता है, आदत
से चलो। क्योंकि आदत सुगम है। जो सदा किया है, वह करना सुगम
है। क्रोध कितनी बार किया तुमने? करुणा कभी की थी, यह तो तुम भूल ही गए।
एक भिखारी एक दरवाजे पर खड़ा था। और उसने जोर से आवाज दी कि कुछ मिल
जाए; कुछ न हो तो रोटी ही मिल जाए, कितने
जमाने हो गए रोटी नहीं खायी, स्वाद ही भूल गया है। वह घर था
मुल्ला नसरुद्दीन का। वह बाहर आया, उसने कहा, रोटी का वही स्वाद है जो पहले हुआ करता था। तू फिकर मत कर। मगर रोटी दी
वगैरह नहीं। वही स्वाद है, उसने कहा, जो
पहले हुआ करता था, तू घबड़ा मत। भिखारी कह रहा था, रोटी का स्वाद भी भूल गए हैं, इतने दिन से भूखे हैं।
तुम जरा गौर करो। तुम्हें करुणा का स्वाद याद है? कब से नहीं की? कभी की थी, यह
भी याद नहीं रही। तुम्हें प्रेम का स्वाद याद है? काम का
होगा। कब से नहीं किया प्रेम? लौटोगे पीछे तो कहीं हाथ रखने
की जगह न मिलेगी। अंधेरा-अंधेरा दिखता है। कहीं कोई दीया जलता नहीं मालूम होता।
किया भी कभी? कुछ याद नहीं आती।
तो स्वभावतः मन कहता है, जो करते रहे हो,
वही करो। अनजान, अपरिचित रास्तों पर मत चल पड़ो,
भटक जाओगे। सुगम है कोल्हू के बैल की तरह बंधी हुई लकीर में चलते
रहना। जाना हुआ परिचित रास्ता है। मन की आदत है--न्यूनतम प्रतिरोध। लीस्ट
रेसिस्टेंस। नए में जाओगे तो संघर्षपूर्ण होगा।
अगर पहाड़ से उतर गए, राजपथ से उतर गए, पहाड़ी रास्ते पर झाड़-झंखाड़ होंगे, कांटे की झाड़ियां
होंगी, रास्ता बनाना होगा, सीमेंट का
कोई पटा हुआ रास्ता तो मिलेगा नहीं। पटे हुए रास्ते पर चलो, जहां
सब चलते हैं वहां चलो, जहां भीड़ चलती है वहां चलो; सुविचारित--राह के किनारे मील के पत्थर लगे हैं, तीर
बता रहे हैं कहां जा रहे हो--जहां सब हिसाब-किताब है, नक्शा
हाथ में है, वहां चलो।
लेकिन वह तो वही है जो तुम चलते रहे हो। वह तो आदतों का रास्ता है। उस
पर तो क्रोध है, काम है, घृणा है, वैमनस्य है,र् ईष्या, लोभ,
मोह-मत्सर सब है, लेकिन वहां भगवत्ता का तो
कहीं कोई पता नहीं है। इसलिए कठिन है। मगर कठिन से घबड़ाना मत, क्योंकि कठिन से ही ऊर्ध्वगमन होता है।
हुआ करती हैं दुश्वारी से ही आसानियां पैदा
बड़े नादान हैं मुश्किल को मुश्किल समझते हैं
नासमझी मत करना। कठिन है माना, पर कठिन को कठिन मत
समझना। कठिन की चुनौती को स्वीकार करना। लाख आदतें तुम्हें उलझाएं, बुलाएं, आमंत्रित करें, सुगम
का निमंत्रण दें, प्रलोभन दें, तुम
चुनौती स्वीकार करना कठिन की। तुम चुनौती स्वीकार करना शिखर की। बहुत दिन रह लिए
घाटियों में, अंधेरों में, अब उठना है
सूर्यमंडित शिखरों की तरफ, स्वर्ण-कलशों की तरफ।
कठिन होगा, खतरनाक होगा, लेकिन वह मनुष्य
ही क्या जिसने कठिन का निमंत्रण स्वीकार न किया! वह मनुष्य ही क्या जिसने शिखरों
की तरफ आंखें न उठायीं, आंखें चुरायीं कि कहीं चढ़ना न पड़े,
और जो नीचे ही देखता रहा! वह धीरे-धीरे जमीन का कीड़ा हो जाएगा,
सरकने लगेगा, चारों हाथ-पैर से चलने लगेगा। वह
खड़े होने का अधिकार खो देगा। खड़े होने का अधिकार उसे ही है जो ऊपर देखे।
मंसूर को सूली लगी। किसी ने पूछा कि तुम इतने प्रसन्न क्यों मालूम हो
रहे हो? वह ऊंचे तख्ते पर लटकाया गया था। उसने कहा, मैं इसलिए प्रसन्न हो रहा हूं कि कम से कम मेरी सूली के बहाने तुमने जरा
ऊपर तो आंख उठाकर देखा। चलो मेरी मौत हुई, कोई हर्जा नहीं,
तुम्हारा जीवन तो जरा ऊपर देखा। तुम तो सदा जमीन में ही सरकते रहे,
नीचे ही आंखें गड़ाकर चलते रहे।
एक बार चुनौती स्वीकार करो, फिर कठिन कठिन नहीं
रह जाता।
रुकते हैं कहीं दीवारों से, थमते हैं कहीं
जंजीरों से
इजहारे-जुनूं पर आमादा जब कैदिए-जिंदां होते हैं
जब एक बार आमादा हो गए, जब स्वतंत्रता की
आकांक्षा ने प्रबलता से पकड़ लिया, जब कारागृह से बाहर होने
की चुनौती स्वीकार कर ली--
रुकते हैं कहीं दीवारों से, थमते हैं कहीं
जंजीरों से
फिर कोई जंजीर रोकती नहीं। तुम रुके हो, क्योंकि तुम रुकना
चाहते हो। जंजीर नहीं रोके है। एक बार तुम जंजीर तोड़ना चाहो, फिर कोई रोक नहीं सकता, तुमने ही ढाली है। अपनी
आदतों की ढाली हुई जंजीर है। अपने ही संस्कारों का ढाला हुआ कारागृह है। घबड़ाओ मत।
शुरू में जो बहुत कठिन मालूम होता है, चल-चलकर सरल हो जाता
है।
और एक बार पगडंडी पर चलने का आनंद आ जाए, अकेले चलने का आनंद आ जाए, फिर भीड़ की दुर्गंध में
कौन चलना चाहता है? फिर भीड़ के पसीने और धूल से लथपथ शरीरों
के पास कौन रुकना चाहता है? एक बार एकांत का रस आ जाए,
एक बार पगडंडी की स्वतंत्रता, खुला आकाश मिले,
फिर तुम हैरान होओगे कि कैसे चल सके इतने दिन तक भीड़ के
धक्कम-धुक्का में? कैसे? कैसे यह संभव
हुआ था? तुम भरोसा न कर सकोगे।
बुद्ध ने कहा है, जब जागा तो यह भरोसा न आ सका,
इतने दिन कैसे सोया रहा? यह हुआ कैसे संभव?
पहले क्यों न जागा? जाग इतनी मधुर है।
इसलिए शुरू-शुरू में जो अंधेरा भी मालूम पड़े, घबड़ाना मत।
ये तीरगी तो आरिजी है मत डरो
यहां से दूर, कुछ परे पे सुबह का मुकाम है
बस पास ही आती होगी सुबह। और ध्यान रखना, जब सुबह पास आती है, तो रात बड़ी गहरी और अंधेरी और
काली होने लगती है। स्याह होने लगती है। जब रात सघनतम घनी काली होती है, तभी सुबह करीब होती है। घनी काली अंधेरी रात से ही सुबह का जन्म है।
अंधेरी रात दुश्मन नहीं है, गर्भ है। कठिनाई, दुश्मन मत मान लेना।
आशियां फूंका है बिजली ने जहां सौ मर्तबा
फिर उन्हीं शाखों पे तरहे-आशियां रखता हूं मैं
आदतें बार-बार गिराएंगी। बिजलियां बार-बार नीड़ को फूंक देंगी। घबड़ाना
मत, फिर-फिर रखना उसी शाख पर। फिर दुबारा रखना अपना नीड़। बिजलियों से हार मत
जाना। कठिनाइयों से डर मत जाना।
बुद्ध तो सिर्फ सूचक-संकेत देते हैं, 'अपना दमन कठिन है।'
वे यह कहते हैं, सरल मत मान लेना पहले से। सरल
मानकर चलोगे तो जल्दी ही लौट आओगे। इसलिए कठिन है, ऐसा पहले
जानकर ही चलना। ताकि लौटने का कोई कारण न रह जाए।
'मनुष्य आप ही अपना स्वामी है...।'
यह बुद्ध का श्रेष्ठतम वचन है।
अत्ताहि अत्तनो नाथो।
परमात्मा को इंकार किया है बुद्ध ने। क्योंकि मनुष्य को इतनी महिमा दी
है बुद्ध ने कि परमात्मा को वे स्वीकार न कर सके। इसे तुम समझने की कोशिश करना।
बुद्ध को सदा ऐसा लगा, मनुष्य अंतिम है।
मनुष्य की महिमा अंतिम है। बुद्ध को ऐसा लगा, अगर मनुष्य अपने
को जान ले तो वह जान लेना ही परमात्मा है। कहीं और परमात्मा नहीं है, जिसके सामने सिर झुकाए। कहीं कोई परमात्मा नहीं है, जिसके
सामने बंदगी करे। कहीं कोई परमात्मा नहीं है, जिसकी स्तुति
करे। बुद्ध ने मनुष्य को चरम गौरव दिया है।
'मनुष्य आप ही अपना स्वामी है...।'
अत्ताहि अत्तनो नाथो कोहि नाथो परो सिया
'...भला कोई दूसरा उसका स्वामी कैसे हो सकता है?'
स्वतंत्रता मनुष्य की परम है। उसके ऊपर कोई मालिक नहीं।
'अपने को ही भलीभांति दमन कर लेने से वह दुर्लभ स्वामी
प्राप्त हो जाता है।'
वह तुम्हारे भीतर ही छुपा है। कहो उसे परमात्मा, कहो उसे आत्मा, या जो चाहे; जो
तुम्हारा सुख हो वही कहो, लेकिन तुम्हारे भीतर छुपा है। तुम
जाग जाओ, इंद्रियां सो जाएं, वासनाएं
सुप्त हो जाएं। तुम उठ जाओ अंधेरे से इंद्रियों के पार, जैसे
सुबह सूरज उगता है क्षितिज के पार। तुम अपने मालिक हो जाते हो।
आदमी ने परमात्मा को गढ़ा है, वह भी आदमी का धोखा
है!
मेआर एक गढ़ा हविशे-इख्तियार ने
अल्लाह कहके उसको लगी खुद पुकारने
मेआर एक गढ़ा हविशे-इख्तियार ने
अल्लाह कहके उसको लगी खुद पुकारने
आदमी संसार को ही नहीं बनाता है, परमात्मा को भी बना
लेता है। लेकिन वह भी आदमी की ही बनायी हुई मूर्ति है। वह मेआर, वह आदर्श आदमी का ही बनाया हुआ है। और उसके पीछे भी कब्जा करने की
आकांक्षा है
हविशे-इख्तियार ने
मालिक होने की आकांक्षा है। परमात्मा पर कब्जा कर लेने की आकांक्षा
है।
बुद्ध कहते हैं, यह दूसरे पर कब्जा करने की
आकांक्षा ही तो संसार है। कभी पत्नी पर करना चाहा, कभी पति
पर, कभी धन पर, कभी पद पर, लेकिन सदा दूसरे पर। अब तुमने परमात्मा गढ़ लिया--
मेआर एक गढ़ा हविशे-इख्तियार ने
अब तुमने परमात्मा गढ़ लिया। सबसे किसी तरह छूटे तब तुमने एक परमात्मा
गढ़ लिया, अब उस पर कब्जा करना है, अब
उसको पाना है। अपने को कब पाओगे? पाने वाले को कब पाओगे?
यह तो दूसरे की ही तलाश चलती रही। धर्म में भी, संसार में भी।
बुद्ध कहते हैं, उसी को पा लो, जो पाने चला है। इस मूलस्रोत को पा लो। परमात्मा को पाकर भी क्या होगा?
आखिर तुम और ही रहोगे। भिन्न ही रहोगे। दो रहेंगे तो द्वंद्व ही
रहेगा।
नहीं, बुद्ध कहते हैं, यह सब पाने की
दौड़ गलत है।
मोती बनने से क्या हासिल जब अपनी हकीकत ही खो दी
कतरे के लिए बेहतर था यही कुल्जुम न सही दरिया होता
बूंद है, सागर न बनती, सरोवर बन जाती।
सागर न बनती, सरिता बन जाती। मोती बनने से क्या हासिल?
मोती बनने से क्या हासिल जब अपनी हकीकत ही खो दी
तुम कुछ और मत बनो। मोती भी बन गए कुछ और बनने में, तो कुछ हासिल नहीं। तुम अपना स्वभाव बनो। तुम अगर बूंद हो पानी की,
न सही सागर, सरोवर बनो, मगर
अपने स्वभाव में ही डूबो। स्वयं में डूबो।
अत्ताहि अत्तनो नाथो कोहि नाथो परो सिया।
कोई और पराया तुम्हारा नाथ नहीं।
अत्तना' व सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं।
वह जो अत्यंत दुर्लभ स्वामित्व है, सम्राट हो जाना है,
अपनी मालकियत है, अगर तुम ठीक-ठीक शांत हो जाओ,
वासनाएं शांत और क्षीण हो जाएं, तो तुम्हारे
भीतर है तुम्हारा साम्राज्य। किसी से मांगने नहीं जाना, किसी
से जीतने नहीं जाना, कोई आक्रमण नहीं करना है। प्रतिक्रमण
करना है। अपनी तरफ लौटना है। रिटघनग टू द सोर्स। वापस आना है स्रोत की तरफ। जहां
से चले थे वहां आना है। प्रारंभ को पा लेना ही अंत को पा लेना है।
मनुष्य के इस सत्य को बुद्ध ने जैसी महिमा दी वैसा कोई कभी न दे सका।
इसलिए बुद्ध अगर मनुष्य-जाति को इतने प्यारे हैं, तो अकारण नहीं। जीसस
के लिए परमात्मा है पाने को। कृष्ण के लिए भी परमात्मा है पाने को, राम के लिए भी परमात्मा है पाने को। बुद्ध ने मनुष्य को ही परमात्म-रूप
दिया। बुद्ध ने कहा, बस तुम ही हो पाने को। खोजी की ही खोज
करनी है। यात्री में ही यात्रा है। मंजिल कहीं और तुमसे अलग नहीं, तुम्हारे भीतर छिपी है।
ऐ दोस्त! मेरी सुस्तरवी का गिला न कर
मेरे लिए तो खुद मेरी मंजिल सफर में है
अगर मैं धीमे भी चल रहा हूं, तो शिकायत मत करो।
मेरे लिए तो खुद मेरी मंजिल सफर में है
यात्रा में ही मेरी मंजिल है। मेरे होने में ही मेरा सत्य है। मेरे
होने में ही मेरी सत्ता है।
अत्ताहि अत्तनो नाथो!
आज इतना ही।
घ
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