प्रश्न सार:
1—क्या यह आरोप सही है कि महावीर और बुद्ध यह कह कर कि जीवन दुःख—ही—दुख है, भारत और एशिया के जीवन को विपन्न बना गया?
2—प्रतिक्रमण इतना असहज—सा लगता है?
3—प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से, मालूम नहीं....ओर अयाचित और असमय। उसकी वर्षा हो रही है....... ?
4—श्रवण और पठन—पाठन में क्या भेद है?
पहला प्रश्न:
क्या यह आरोप सही है कि महावीर और बुद्ध, यह कहकर कि जीवन दुख ही दुख है, भारत और एशिया के जीवन को सदियों-सदियों के लिए विपन्न और दुखी बना गए? और क्या यह जीवन अस्वीकार की दृष्टि स्वस्थ अध्यात्म कही जा सकती है?
पहली बात, न तो कोई तुम्हें आनंदित कर सकता है, न कोई तुम्हें विपन्न कर सकता है। जो भी तुम होते हो, तुम्हारा ही निर्णय है। बहाने तुम कोई भी खोज लो।
महावीर ने कहा, जीवन व्यर्थ है। कहा, ताकि तुम महाजीवन में जाग सको। तुमने अगर गलत पकड़ा और तुमने इस जीवन को भी छोड़ दिया--और नीचे गिर गए, महाजीवन में न उठे। एक जगह तुम खड़े थे सीढ़ी पर और महावीर ने कहा, छोड़ो इसे, आगे बढ़ो। छोड़ा तो तुमने जरूर, लेकिन पीछे हट गए। कसूर तुम्हारी समझ का है।
जीवन में सदा ही उत्तरदायित्व हमारा है। दूसरों पर टालने की आदत छोड़ो। महावीर ने कहा था, ताकि तुम महाजीवन की तरफ उठो। जीवन की निंदा की थी, किसी परम जीवन की प्रशंसा के लिए।
इस जीवन को जिसे तुम जीवन कहते हो, जीवन कहने जैसा क्या है? इसमें संपन्न होकर भी क्या मिलेगा? यह मिल भी जाए तो कुछ मिलता नहीं; खो भी जाए तो कुछ खोता नहीं। स्वप्नवत है। स्वप्न से जागने को कहा था। तुम स्वप्न से जागे तो नहीं, और महातंद्रा में खो गए। तुम्हारे दृष्टिकोण में, तुम्हारी व्याख्या में कहीं भूल हो गई। तुम्हारा भाष्य भ्रांत है।
महावीर को तो देखो, विपन्न दिखाई पड़ते हैं? और संपन्नता क्या होगी? महावीर से ज्यादा सुंदर महिमा-मंडित परमात्मा की कोई और छवि देखी है? महावीर से ज्यादा आलोकित, विभामय और कोई विभूति देखी? कहीं और देखा है ऐसा ऐश्वर्य, जैसा महावीर में प्रगट हुआ? जैसी मस्ती और जैसा आनंद, और जैसा संगीत इस आदमी के पास बजा, कहीं और सुना है? कृष्ण को तो बांसुरी लेनी पड़ती है तब बजता है संगीत; महावीर के पास बिना बांसुरी के बजा है। मीरा को तो नाचना पड़ता है, तब बजता है संगीत; महावीर के पास बिना नाचे नचा है। कोई सहारा न लिया--वीणा का भी नहीं, नृत्य का भी नहीं, बांसुरी का भी नहीं। कृष्ण तो सुंदर लगते हैं--मोर-मुकुट बांधे हैं। महावीर के पास तो सौंदर्य के लिए कोई भी सहारा नहीं--बेसहारे, निरालंब! लेकिन कहीं और देखा है परमात्मा का ऐसा आविष्कार--जीवन की ऐसी प्रगाढ़ता, ऐसा घना आनंद! तो महावीर जीवन के विपरीत तो नहीं हो सकते। नहीं तो सूख जाते, जैसे जैन मुनि सूखे हैं। जीवन के विपरीत तो नहीं हो सकते; नहीं तो कुरूप हो जाते, जैसे जैन मुनि हो गए हैं। सिकुड़ जाते। जीवन को छोड़ा है, लेकिन सिकुड़े नहीं हैं। मृत्यु को वरण किया है, महामृत्यु को वरण किया है--लेकिन मरे नहीं हैं। मृत्यु उन्हें और निखार दे गई। मृत्यु को स्वीकार करके उनका जीवन और भी संपन्न हुआ है, और भी गहन धन की वर्षा हुई है।
तुम मृत्यु से डरे-डरे जीते हो। महावीर को वह डर भी न रहा, उनका जीवन अभय हुआ है। तुम घबड़ाए हो, धन छिन न जाए! तो धन भी हो, धन से ज्यादा तो घबड़ाहट आ जाती है कि छिन न जाए! महावीर ने धन छोड़ा, इतना ही मत देखो; साथ ही घबड़ाहट भी तिरोहित हो गई है। जब धन ही न रहा तो छिनने की बात ही कहां उठती है! महावीर ने वह सब छोड़ दिया जिसके साथ भय आता हो; वह सब छोड़ दिया जिसके साथ चिंता आती हो।
लेकिन ध्यान रखना, छोड़ने पर जोर नहीं है। पाया! चिंतामुक्त जीवन-दशा पायी। अपूर्व शांति पायी। अभय पाया। सत्य प्रगट हुआ महावीर से। ऐसा बहुत कम हुआ है।
महावीर को अगर गौर से समझो तो पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि महावीर के पास कोई भी कारण नहीं है। जीसस का सम्मान है--सूली कारण है। जीसस अगर सूली पर न चढ़े होते, न चढ़ाए गए होते, ईसाइयत पैदा न होती। इसलिए क्रास प्रतीक बन गया। जीसस के दुख ने करोड़ों लोगों की सहानुभूति को आकर्षित कर लिया। दुख सदा सहानुभूति आकर्षित करता है।
कृष्ण की बांसुरी के स्वर हैं। पशु भी नाच उठे, पक्षी भी आनंदित हुए, दौड़ पड़े स्त्री-पुरुष! महावीर के पास क्या है? न बांसुरी है, न सूली है। महावीर निपट खड़े हैं नग्न, वस्त्र भी नहीं। कुछ भी नहीं है, जिस कारण लोग महावीर के पास जाएं। फिर भी लोग गए। फिर भी उन चरणों में लोग झुके हैं।
कृष्ण ने तो कहा: "सर्वधर्मान परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज। सब छोड़, मेरी शरण आ!' तो भी अर्जुन झिझका-झिझका शरण आया। उसकी झिझक से ही तो गीता पैदा हुई। संदेह करता ही चला गया।
महावीर ने कहा: "किसी की शरण जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरी शरण मत आओ, अपनी शरण जाओ!' फिर भी लोग महावीर के चरणों में आए, जरूर कुछ महिमापूर्ण घटित हुआ है! कुछ अनूठा लोगों को दिखा है!
जैन धर्म से खो गई वह अनूठी बात--वह दूसरी बात है। उससे महावीर को मत जोड़ो। जैन धर्म तुम्हारा है। जैन धर्म तुम्हारी व्याख्या है महावीर के संबंध में। जैन धर्म वह नहीं है जो महावीर ने दिया है। जैन धर्म वह है जो तुमने लिया है। महावीर ने जो कहा है, वह तो कुछ और है। तुमने जो पकड़ा है, समझा है, वह कुछ और है। तुम्हारी समझ के संग्रह का नाम तुम्हारा शास्त्र, तुम्हारा धर्म, तुम्हारी सभ्यता, संस्कृति है।
निश्चित ही, कल ही मैं आपसे कहता था कि चौबीसों तीर्थंकर जैनों के क्षत्रिय हैं। युद्ध के मैदान से आए। युद्ध की पीड़ा और युद्ध की हिंसा और युद्ध की व्यर्थता देखकर आए। उनकी अहिंसा भय की अहिंसा नहीं है, कायर की अहिंसा नहीं है--महावीरों की अहिंसा है। देखकर कि हिंसा में तो कायरता ही है, उन्होंने हिंसा का त्याग किया। लेकिन फिर क्या हुआ? जैन धर्म बना तो वणिकों से, वैश्यों से। जैनियों में तुम्हें क्षत्रिय न मिलेगा। सब दुकानदार हैं। कैसी दुर्घटना घटी। जिनके सब तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, उनके सब अनुयायी दुकानदार हैं! नहीं, जिन्होंने पकड़ा है उन्होंने कुछ और अर्थ से पकड़ा है। उन्होंने कहा, न किसी को मारेंगे, न कोई हमें मारेगा; न झगड़ा-झांसा करेंगे, न पिटेंगे। उन्होंने "अहिंसा परमोधर्मः' का उदघोष किया। उन्होंने कहा, यह बात बड़ी अच्छी है। यह तो ढाल की तरह है कि हम मरने-मारने में विश्वास ही नहीं रखते।
मगर जरा जैनियों की तरफ देखो, इनकी अहिंसा में अभय है? भय ही भय को तिलमिलाता पाओगे। ये भय के कारण अहिंसक हैं।
ये डरे हैं कि कोई मारे न, कोई लूटे न, कोई खसोटे न, कोई झंझट न करे, तो स्वाभाविक है कि अहिंसा की चर्चा करो।
महावीर की अहिंसा मृत्यु के पार जो अनुभव है उससे आती है। जैनों की जो अहिंसा है, जीवन का ही अनुभव नहीं, मृत्यु के अनुभव की तो बात दूर!
एक जैन ने प्रश्न पूछा है कि "आप कहते हैं कि वह परम अवस्था तो शून्य की है, तो ऐसे शून्य को पाकर क्या करेंगे? इससे तो यही जीवन ठीक है। कम से कम सुख-दुख का अनुभव तो होता है!'
शून्य का डर! इससे वे स्वर्ग-नर्क, सुख-दुख, कुछ भी हो झेलने को तैयार हैं; मिटने को तैयार नहीं हैं। शून्य यानी मिटना! न तुम यहां मिटने को तैयार हो, न तुम वहां मिटने को तैयार हो। बचना चाहते हो। बचाव भय की अभिव्यक्ति है। अब जिन मित्र ने पूछा है, दुख को भी पकड़ने को तैयार हैं, कम से कम रहेंगे तो! बचेंगे तो! दुख ही सही, नर्क ही सही--मगर मिटने को तैयार नहीं हैं।
और जीवन का परम सत्य यही है कि जब तक तुम अपने को पकड़े हो तब तक मिटते रहोगे। और जिस दिन तुम अपने को छोड़ दोगे और जिस दिन तुम शून्य होने को तैयार हो जाओगे, उसी क्षण पूर्ण घटित होता है--तत्क्षण घटित होता है। उस क्रांति में फिर एक क्षण भी प्रतीक्षा नहीं करनी होती। तुम इधर शून्य होने को तैयार हुए कि तुम पूर्ण हुए। फिर कोई बाधा न रही। कोई भय न रहा तो बाधा कैसी? तुम जब मिटने तक को तत्पर हो गए तो तुम्हारी कोई पकड़ न रही। जो शून्य होने को राजी है वह धन को थोड़े ही पकड़ेगा! जिसने अपने को ही न पकड़ा वह धन को क्या पकड़ेगा! सारी पकड़ के भीतर पहली पकड़ तो अपनी पकड़ है। तुम धन को किसलिए पकड़ते हो? धन के लिए ही थोड़ी कोई धन को पकड़ता है--अपने को पकड़ता है, इसलिए धन को पकड़ता है। क्योंकि धन सुरक्षा देता है, भविष्य में व्यवस्था देता है। कल घबड़ाहट न होगी, तिजोरी है, बैंक में बैलेंस है। बीमारी आए, बुढ़ापा आए, कुछ भी हो, तो धन सुरक्षा का आश्वासन देता है।
तुम अपने को पकड़ते हो, इसलिए धन को पकड़ते हो। तुम अपने को पकड़ते हो, इसलिए पत्नी को, बच्चे को पकड़ते हो।
उपनिषद कहते हैं, कोई पत्नी को थोड़े ही प्रेम करता है; लोग अपने को प्रेम करते हैं, इसलिए पत्नी को प्रेम करते हैं। पत्नी तो बहाना है।
तुम कहते हो कि तुमसे मुझे प्रेम है। लेकिन तुम्हारे प्रेम का अर्थ कितना है? क्या है अर्थ? इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे होने के कारण मैं प्रफुल्लित होता हूं; तुम हो तो मैं सुख पाता हूं--लेकिन तुम साधन हो, साध्य तो मैं ही हूं। तुम अपने बच्चों को प्रेम करते हो, उनको पकड़ते हो--किसलिए? बुढ़ापे के सहारे हैं। तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं के लिए कंधा देंगे। भविष्य में तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करेंगे। तुम तो पूरा न कर पाओगे, यह तुम्हें पता है। महत्वाकांक्षाएं अनंत हैं। वासनाएं दुष्पूर हैं--बहुत हैं। जीवन बड़ा छोटा है: गया-गया, हाथ से बहा-बहा है! तुम तो पूरा न कर पाओगे, तुम्हारे बच्चे तुम्हारी याद पूरी करेंगे; परंपरा को जारी रखेंगे; बाप का नाम बचाएंगे। तुम तो जा चुके होओगे, लेकिन बच्चों के सहारे किसी तरह तुम अपनी शाश्वतता खोजते हो। तुम सोचते हो, चलो और तरह का अमरत्व तो संभव नहीं है, इसी बहाने बच्चों में जीते रहेंगे; मेरा ही तो खून है; मेरे ही तो जीवाणु हैं! चलो यह देह न रहेगी, बच्चों में जीएंगे।
बाप बेटे में जीता है। मां बेटे में जीती है। ऐसी परंपरा बनती है। "हम न रहेंगे, हमारा तो कोई रहेगा!' इसलिए तुम "हमारे' को पकड़ते हो। पर सारी पकड़ भीतर "मैं' की है। जिसने समझने की कोशिश की, वह धन को नहीं छोड़ेगा। धन छोड़ने से क्या लेना-देना है! क्योंकि धन तो गौण है; असली बात तो "मैं' की पकड़ छोड़ने की है। तुम्हें राजी होना है, ऐसी घड़ी के लिए कि जहां मैं भी न रह जाऊं, तो भी क्या हर्ज है! क्या हर्ज है? क्या मिटेगा? क्या खो जाएगा? तुम्हारे हाथ में क्या है? तुम मुट्ठी खोलने से डरते हो, क्योंकि मैं कहता हूं मुट्ठी खाली है। तुम कहते हो, इससे तो मुट्ठी बंधी ही रहे, चाहे तकलीफ होती है बांधे रखने में, होती रहे--कम से कम बंधी तो है! लोग कहते हैं, बंधी लाख की! खाली है, मगर कहते हैं, बंधी लाख की! क्योंकि जो दिखाई ही नहीं पड़ता तो मान लो लाख हैं, करोड़ हैं, जो भी मानना है मान लो। खोलो, लाख गए! मुट्ठी खाली है! लेकिन तुम बांधो कि खोलो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मुट्ठी खाली है!
तुम कहते हो, इससे तो दुख ही बेहतर; सुख का आभास ही बेहतर--कम से कम हैं तो! यह अनुयायी की आवाज है। जिसने पूछा है वह जैन है। यह महावीर की आवाज नहीं है। महावीर तो कहते ही यही हैं कि छोड़ो परिग्रह, छोड़ो संसार, छोड़ो वासना; ताकि इस सब छोड़ने में, जो इन सब के पीछे छिपा है और अपने को बचा रहा है, वह तुम्हें प्रगट हो जाए कि मूल में तो तुम अहंकार को बचा रहे हो, अपने को बचा रहे हो। सब बहाने छोड़ो तो साफ दिखाई पड़ जाएगा कि अपने को बचाने में लगे हो! लेकिन बचाने में सार क्या है? और बचा-बचाकर तुम बचाओगे कैसे? या तो तुम बचोगे ही, अगर वह तुम्हारा स्वभाव है; और अगर स्वभाव में ही अमरत्व नहीं है तो तुम लाख बचाओ, बच न सकोगे!
इसलिए महावीर कहते हैं: छोड़ो यह आपा-धापी! छोड़ो यह बचने की आकांक्षा! यह जीवेषणा छोड़ो। जीवेषणा सभी पापों का आधार है। मैं जीना चाहता हूं, चाहे फिर दूसरों को मारकर भी जीना पड़े, तो भी जीऊंगा! मैं जीना चाहता हूं, मुझे क्या फिक्र है कि कौन मरता है!
तो महावीर की सारी अहिंसा का सूत्र यही है, कि तुम्हारे जैसे ही सभी जीना चाहते हैं। तुम वही करो उनके साथ जो तुम अपने साथ करना चाहते हो। तो तुम किसी को मारो मत! लेकिन जो किसीको न मारेगा, वह मरना शुरू हो जाएगा।
यह जीवन तो बड़ा संघर्ष है। यहां तो तुम दूसरे की गर्दन न दबाओ तो कोई तुम्हारी गर्दन दबाएगा। यहां तो सुरक्षा का सबसे श्रेष्ठ उपाय आक्रमण है। मैक्यावली से पूछो! महावीर से अहिंसा समझ लो, मैक्यावली से हिंसा समझ लो। मैक्यावली कहता है कि इसके पहले कि कोई हमला करे, हमला करो; इसके पहले कि कोई तुम पर हमला करे, हमला कर दो। मौका मत दो पहल का, अन्यथा तुम पिछड़ ही गए संघर्ष में। मार लो, मार डालो, इसके पहले कि कोई तुम्हें मारे। यही सूत्र है--जीवन में संघर्ष का, अपने को बचाने का। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। तुम शक्तिशाली बनो और दूसरों को पीते चले जाओ। उसी में तुम्हारा जीवन है।
महावीर कहते हैं, ऐसे जीवन को क्या करोगे? इस जीवन का सार भी क्या है, अर्थ भी क्या है? बच भी जाएगा तो क्या बचेगा, हाथ क्या लगेगा? हाथ-लाई क्या होगी?
महावीर कहते हैं, सब देखा! सारा जीवन झूठा है, भ्रांत है। यह दूसरे को मारने योग्य तो है ही नहीं। अगर दूसरे को बचाने में अपने को मिटा भी देना पड़े तो मिटा दो--इसमें कुछ हर्जा नहीं है, कुछ जा नहीं रहा है। और महावीर इतने आश्वस्त होकर यह कहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं; जो तुम्हारे भीतर अंतर्तम में छिपा है उसकी कोई मृत्यु नहीं है। जिसे तुम बचा रहे हो, वह तुम्हारी झूठी प्रतिमा है; वह तुम्हारा स्वयं के प्रति झूठा भाव है। जिसे तुम बचा रहे हो, अहंकार, वह तो मरेगा। वह तो समाज का दिया हुआ है; मौत के साथ समाप्त हो जाएगा। तुम जैसे आए थे, कोरे, कुंआरे, जन्म के साथ, ऐसे ही कुंआरे-कुंआरे तुम मृत्यु के साथ जाओगे। तुम्हारा नाम-धाम, पता-ठिकाना, सब यहीं छूट जाएगा। और वह जो मृत्यु के पीछे भी चला जाता है तुम्हारे साथ और जन्म के पहले भी तुम्हारे पास था, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। तुम दौड़ छोड़ो बचने की, तो तुम्हें उसका पता चलेगा जो सदा ही बचा हुआ है। तुम अपनी सुरक्षा न करो, तो तुम्हें उसका पता चल जाएगा जो सदा सुरक्षित है।
जब मैं कहता हूं शून्य होने की बात, तो उसका कुल इतना ही अर्थ है कि पूर्ण तुम हो। इधर तुम शून्य होने को राजी हुए तो तुम्हारी दौड़-धूप मिटी। दौड़-धूप मिटी तो सारी चेतना मुक्त हुई दौड़-धूप से, चेतना घर लौटी। बाहर नहीं जाओगे तो कहां जाओगे? घर आओगे! घर आने का कोई रास्ता थोड़े ही है--बस बाहर जाना छोड़ देना है कि घर आ गए। घर तो तुम हो ही, तुम्हारी वासना ही भटकती है दूर-दूर।
यहां तुम बैठे मुझे सुन रहे हो: हो सकता है, तुम यहां सिर्फ बैठे हो शरीर की भांति, तुम्हारी वासना कहीं और भटकती है--कलकत्ते में होओ, दिल्ली में होओ, बंबई में होओ। तो जितना तुम्हारा मन बंबई में चला गया मुझे सुनते वक्त, उतने तुम यहां नहीं हो। अगर तुम्हारा पूरा मन ही बंबई में चला गया, तो तुम यहां बिलकुल नहीं हो। यहां तुम्हारा होना न होना बराबर है। तुम होते न होते कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ एक प्रतिमा बैठी है, जिसमें कोई प्राण नहीं है। क्योंकि प्राण तो वासना में भटक गए। तुम कहीं जाते थोड़े ही हो बाहर; वासना में मन उलझा कि तुम बाहर गए! वासना बहिर्गमन का मार्ग है। वासना बाहर जाना है। क्षणभर को भी अगर तुम बाहर न जाओ तो तुम जाओगे कहां फिर? जब बाहर जाने के सब सेतु टूट गए, सब द्वार-दरवाजे बंद हो गए, सब मार्ग व्यर्थ हो गए, न तुम धन में गए, न तुम पद में गए, न तुम प्रेम में गए, तुम कहीं बाहर गए ही नहीं, तो तुम अचानक अपने को घर में बैठा हुआ पाओगे--जहां तुम सदा से बैठे हुए हो; जहां से तुम क्षणभर को भी हटे नहीं, तिलभर को भी हटे नहीं; जहां से हटने का कोई उपाय नहीं। उसी को महावीर स्वभाव कहते हैं। उसी को महावीर धर्म कहते हैं, जिससे हटा न जा सके, जिसे खोकर भी खोया न जा सके, जिसे मिटाकर भी मिटाया न जा सके। जिसे तुम लाखों जन्मों में चेष्टा कर-कर के, भटक-भटककर भी नहीं अपने से छुड़ा पाए हो, वही तुम्हारा स्वभाव है। जो छूट जाए, वह पर-भाव है।
तुम्हारे वस्त्र छीने जा सकते हैं; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं। तुम्हारा शरीर छिन जाता है; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं। तुम्हारा मन भी छिन जाता है, वह भी तुम्हारा स्वभाव नहीं। देह और मन के पार कुछ है--अनिर्वचनीय, जिसे न कभी छीना जा सका है, न छीना जा सकता है।
बादल घिरते हैं आकाश में, इससे कुछ आकाश नष्ट नहीं हो जाता। क्षणभर को दिखाई नहीं पड़ता। खो जाता है। ओझल हो जाता है। पर मिटता थोड़े ही है! फिर बादल चले जाते हैं, वर्षा समाप्त हुई, बादल विदा हो गए--आकाश अपनी जगह खड़ा है! ऐसी ही वासनाएं आती हैं तुम्हारे अंतर-आकाश में, क्षणभर को घिरती हैं, शोरगुल मचता है, गड़गड़ाहट होती है, बिजलियां चमकती हैं--क्रोध है, लोभ है, मोह है, माया है--हजार तरह के बादल घिरते हैं, गड़गड़ाहट होती है, वासना बरसती है। फिर जिस दिन भी बोध सम्हलेगा--गए बादल! इससे तुम खराब थोड़े ही हो गए। तुम्हारा कुंआरापन कुछ ऐसा है कि खराब हो ही नहीं सकता। बादल सदा आएगा-जाएगा, आकाश तो कुंआरा बना रहता है। आकाश व्यभिचारित थोड़े ही होता है! रेखा भी तो नहीं छूट जाती बादल की। छाया भी तो नहीं छूट जाती बादल की। पद-चिह्न खोजकर भी तो न खोज पाओगे। कोई हस्ताक्षर तो बादल कर नहीं जाता कि यहां मैं आया था। कोई नाम-ठिकाना भी नहीं छूट जाता। ऐसे ही तो तुम्हारी देह खो जाती है।
कितनी देहें इस पृथ्वी पर रही हैं तुमसे पहले! तुम कुछ नये हो? वैज्ञानिक कहते हैं, जहां तुम बैठे हो वहां कम से कम दस लाशें गड़ी हैं। जितनी जगह तुम बैठने के लिए लेते हो, वहां कम से कम दस आदमी मर चुके, गड़ चुके, खो चुके। वहीं तुम भी खो जाओगे। यह तो आदमियों की बात हुई। अब जानवरों का हिसाब करो, कीड़े-मकोड़ों का हिसाब करो, मक्खी-मच्छरों का हिसाब करो, वृक्ष-पौधों का हिसाब करो, तो तुम जहां बैठे हो वहां अनंत जीवन हुए और खो गए। वहीं तुम भी खो जाओगे। खोते ही चले जा रहे हो। प्रतिक्षण खिसकते जा रहे हो गङ्ढे में। मौत पास आती चली जाती है। एक-एक क्षण जीवन रिक्त होता चला जाता है। बूंद-बूंद कर के घड़ा खाली हो जाएगा। लेकिन फिर भी तुम हो--जो कभी खाली नहीं होगा।
जो संसार से मिला है, संसार वापिस ले लेता है। लेकिन कुछ तुम्हारे पास है जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला--जो बस तुम्हारा है! वही तुम्हारी संपदा है। वही तुम्हारी आत्मा है।
जब कहते हैं, शून्य हो जाओ तो उसका कुल इतना ही अर्थ है: बादलों से शून्य हो जाओ, ताकि आकाश से पूर्ण हो जाओ। उसका इतना ही अर्थ है: व्यर्थ से शून्य हो जाओ, ताकि सार्थक का आविर्भाव होने लगे। बाहर से शून्य हो जाओ, ताकि भीतर की धुन बजने लगे। बाजार में खड़े हो। भीतर तो धुन बजती ही रहती है, सुनाई नहीं पड़ती; बाजार का शोरगुल भारी है। भीतर आओ! थोड़े आंख-कान बंद करो! छोड़ो बाजार को! भूलो बाजार को! तो भीतर की धुन सुनाई पड़ने लगे, अनाहत का नाद सुनाई पड़ने लगे।
अहर्निश बज रही है वह वीणा। क्षणभर को भी उस कलकल-नाद में बाधा नहीं पड़ती। पर बड़ा सूक्ष्म है नाद! जब तुम सुनने में सजग होओगे, जब तुम्हारा श्रवण सधेगा, जब तुम्हारे कान भीतर की तरफ मुड़ेंगे और जब तुम धीरे-धीरे बारीक को, बारीकतम को पकड़ने में कुशल हो जाओगे--तब, तब तुम्हें उस वीणा का नाद सुनाई पड़ेगा, जिसको योगी अनाहत कहते हैं।
और सब नाद तो आहत हैं, दो चीजों की टक्कर से पैदा होते हैं। मैं ताली बजाऊं तो दो हाथ टकराते हैं। एक हाथ से तो ताली बजती नहीं। लेकिन एक नाद है तुम्हारे भीतर, जो अहर्निश चल रहा है। वह आहत-नाद नहीं है। वह दो हाथ की ताली नहीं है, एक हाथ की ताली है। वह किन्हीं दो चीजों की टकराहट से पैदा नहीं हुआ, अन्यथा किसी न किसी दिन बंद हो जाएगा। जब दो चीजें न टकराएंगी तो बंद हो जाएगा। वह तुम्हरा स्वभाव है। ओंकार! प्रणव! वह तुम्हारा स्वभाव है।
यह तुमने कभी सोचा? हिंदू हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, भारत में ये तीन महाधर्म पैदा हुए। तीनों के विचारों में बड़ा भेद है, जमीन-आसमान का भेद है। तीनों की सैद्धांतिक धारणाएं भिन्न हैं। तीनों के ढांचे अलग हैं, मार्ग अलग हैं, पथ अलग हैं। कोई समर्पण का मार्ग है, कोई संकल्प का। कोई संघर्ष का मार्ग है, कोई शरणागति का--कोई पूजा-प्रार्थना, भक्ति का, कोई ध्यान-समाधि का। लेकिन एक बात इन तीनों धर्मों ने स्वीकार की है--वह है ओंकार। वह है ओऽम् का नाद। उसे इनकार करने का उपाय नहीं। क्योंकि जब भी कोई भीतर गया है, तो उस नाद को सुना है। जब भी कोई भीतर गया है तो ऐसा कभी हुआ ही नहीं, कोई अपवाद नहीं कि वह नाद न सुना हो। वह जीवन-नाद है, ब्रह्म-नाद है।
तो जब हम कहते हैं, शून्य हो जाओ, तो अर्थ इतना ही है कि बाहर के शोरगुल से शून्य हो जाओ। और अभी तो तुम जो भी जानते हो, सब बाहर का शोरगुल है। इसलिए कहते हैं, तुम जो हो उससे बिलकुल शून्य हो जाओ! अभी तो तुमने व्यर्थ को ही जोड़-जोड़कर अपनी प्रतिमा बनायी है। अभी तो तुमने कागज-पत्तर को जोड़-जोड़कर अपनी प्रतिमा बनायी है। अभी तो शाश्वत का तुम्हारी प्रतिमा से कोई भी संबंध नहीं है। अभी तो तुम कहते हो, यह मेरा नाम है, यह मेरी जाति है, यह मेरा धर्म है, यह मेरा घर है; यह मेरा कुल है, यह मेरा देश है, यह मैं हिंदू हूं कि जैन हूं, कि मुसलमान हूं कि ईसाई हूं, कि मैं गरीब हूं कि अमीर हूं, कि शिक्षित कि अशिक्षित, कि गोरा कि काला, कि सम्मानित कि अपमानित, कि साधु कि असाधु--अभी तो तुमने जो भी जोड़ा है, बाहर से जोड़ा है। यह तो दूसरों ने जो कहा है, उसको ही तुमने इकट्ठा कर लिया है।
इसलिए कहते हैं, तुम अपने से खाली हो जाओ। यह सब कूड़ा-कर्कट हटाओ। और घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं। तुम बेफिक्र कूड़ा-कर्कट हटाओ, क्योंकि जो कूड़ा-कर्कट नहीं है, उसे तुम हटाओ भी, तो भी हटा न सकोगे। इसलिए भय की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए डर-डरकर हटाने की जरूरत नहीं कि कहीं ऐसा न हो कि हीरे खो जाएं। वे हीरे कुछ ऐसे हैं कि खो ही नहीं सकते। इसलिए तुम आग भी लगा दो इस मकान में, तो भी कुछ बिगड़ेगा नहीं। तुम खालिस, साबित निकल आओगे; क्योंकि तुम्हारा स्वभाव जलता नहीं।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः!
न आग उसे जलाती, न शस्त्र उसे छेदते हैं। अमरत्व तुम्हारा स्वभाव है।
लेकिन अनुयायी की भाषा है, वह घबड़ाता है। वह कहता है, इससे तो संसार में बने ही रहे; चलो झूठे ही सही, कुछ तो हैं सुख! मान्यता ही सही, मिलते नहीं, आशा ही बंधाते हैं, कुछ तो हैं! दुख हैं, चलो कोई हर्जा नहीं, हम तो हैं! कांटे भी चुभते हैं, चलो सह लेंगे, जूते पहन लेंगे, दवा खोज लेंगे, मलहम कर लेंगे, ऐसे रास्तों पर न जाएंगे जहां कांटे हैं--लेकिन कम से कम हम तो हैं! लेकिन इस "हम' को करोगे क्या? इस अहं को करोगे क्या?
मुश्किल नहीं है मौत, आजमाओ तो सही
मर जाने से पहले क्यों मरे जाते हो?
महावीर का सारा शिक्षण मृत्यु का शिक्षण है--शून्य होने की कला है। पर शून्य होने की कला ही पूर्ण होने की कला है। चाहे दोनों में से कुछ भी शब्द चुन लो; लेकिन मैं कहूंगा, तुम शून्य ही चुनना। पूर्ण को चुना कि तुम चूके। क्योंकि पूर्ण के साथ लोभ आया। तुमने कहा, "अरे! तो हम पूर्ण हो जाएंगे! गजब!' पकड़ा अहंकार ने रस! वही अहंकार जिसको छुड़ाना है, छूटना है जिससे, पूर्ण होने की आकांक्षा से भर गया! फिर तुम्हारे गुब्बारे में और हवा भरने लगेगी। फिर अहंकार और बड़ा होने लगेगा। पूर्ण होने का नशा छा गया! इसलिए ज्ञानियों ने शून्य की भाषा कही है--जानते हुए कि अंतिमतः पूर्ण घटता है लेकिन तुमसे कहना उचित नहीं। तुमसे कहना खतरनाक है।
महावीर ने जो कहा, उसको तुमने वैसा ही नहीं सुना है जैसा उन्होंने कहा था। अन्यथा ये दुर्दिन, यह दुर्दशा, यह दारिद्रय, यह दीनता न घटती। इसलिए जो लोग ऐसा लांछन लगाते हैं, ऐसा विवाद खड़ा करते हैं, उनके विवाद में तथ्य तो है; लेकिन तथ्य का इशारा तुम्हारी तरफ है, उन्हीं की तरफ है। तथ्य का इशारा महावीर की तरफ नहीं है। काश! तुम महावीर को समझते तो इस देश में जैसा धन्यभाग फलता, इस देश में जैसे महिमावान फूलों का जमघट जुड़ जाता, वैसा कहीं भी नहीं हो पाता। अगर महावीर को समझे होते तो तुम्हारे भीतर जो अपरिसीम है, वह प्रगट होता। तुम्हारे चारों तरफ प्रकाश-मंडल निर्मित होता। न भी कुछ तुम्हारे पास होता तो भी तुम समृद्ध होते। और अभी तो हालत ऐसी है कि सब कुछ भी तुम्हारे पास हो, तो भी दरिद्रता कहां मिटती है?
तुमने धनी आदमियों की दरिद्रता नहीं देखी, तो फिर तुमने कुछ भी नहीं देखा! तुमने शक्तिशालियों की शक्तिहीनता नहीं देखी! तुमने पदधारियों की नपुंसकता नहीं देखी! अकड़ के झंडों के पीछे कमजोरी के सिवाय और क्या है? जितने बड़े झंडे हाथ में हैं, जितने ऊंचे डंडे हाथ में हैं, उतनी ही हीनता भीतर छिपी है। हीनता न हो तो कौन डंडे और झंडे लेकर यात्राएं करता है! क्या जरूरत है? किसको दिखाना है? जिसको अपना स्वरूप दिख गया, उसको दिखाने को अब कुछ भी न बचा।
फिर तुम जिसे जिंदगी कहते हो, और कहते हो जीवन का स्वीकार, उसमें जिंदगी जैसा क्या है?
था ख्वाब में खयाल को तुझसे मुआमला
जब आंख खुल गई न जियां था न सूद था।
मेरात्तेरा संयोग सपने की कल्पना थी, क्योंकि जब आंख खुल गई तो--बकौल तुलसीदास "हानि-लाभ न कछु!' बड़ा हिसाब था! बड़ा धंधा किया था सपने में! सुबह उठकर पाते हैं, "हानि-लाभ न कछु!'
जिसे तुम जीवन कहते हो वह स्वप्न है। अच्छा हो, तुम उसे सपना कहो। जीवन को अभी तुमने जाना नहीं। और जिसे तुमने जाना है वह जीवन नहीं है।
कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो
कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से!
इस फिजूल की जिंदगी से मिलता क्या है! कोई मुझे सुझा दो कि इसमें क्या अर्थपूर्ण है! कोई मुझे राह बता दो कि कैसे इस व्यर्थ के कारागृह से मैं बाहर हो जाऊं!
कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो
कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से!
इस व्यर्थ की दौड़-धूप से क्या हासिल है?
कोई पुकारो कि उम्र होने आई है
फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए।
कोई पुकारो, कहो आकाश को कि रोक, अब यह काफिला सुबह और शाम का, समय के पार होने की यात्रा होने दे! समय में बहुत जी लिये!
सुबह होती शाम होती, उम्र तमाम होती!
फिर वही सुबह, फिर वही सांझ, फिर वही दोहरावा--कोल्हू के बैल की तरह घूमते हैं! आंख पर पट्टियां, अंधे की तरह! लगता है, यात्रा हो रही है, पहुंचते कहीं भी नहीं। अगर यात्रा होती होती तो कहीं तो पहुंचते। कभी यह तो सोचो, पहुंचे कहां? चलते बहुत हैं, थक गए हैं बहुत, पहुंचते कभी भी नहीं, खड़े वहीं के वहीं हैं! कैसी पागल यह दौड़ है, जहां रत्तीभर यात्रा नहीं होती और जीवन पर जीवन चुकते चले जाते हैं!
कोई पुकारो कि उम्र होने आई है
फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए।
मगर यह सुबह और शाम का काफिला आकाश नहीं ठहराता--तुम्हीं को ठहराना पड़ेगा! यह किसी के पुकारने की बात नहीं। कोई दूसरा तुम्हारे सुबह-शाम के काफिले को नहीं ठहरा सकता। यह तो सुबह-शाम की धारा चलती ही रहेगी, तुम ही धारा के बाहर हो जाओ। यह संसार तो चलता ही रहेगा, चलता ही रहा है। तुम्हीं छलांग लगा लो। तुम्हीं किनारे खड़े हो जाओ। बस इतना ही हो सकता है कि तुम अलग हो जाओ इस उपद्रव से, तुम सपने से जाग जाओ।
जिंदगी किसे कहते हो तुम? जन्म और मृत्यु के बीच जो है, उसे तुम जिंदगी कहते हो? महावीर कहते हैं उसे जिंदगी, जो जन्म और मृत्यु के पार है। जन्म और मृत्यु के बीच जो है, वह जिंदगी नहीं, एक लंबा सपना है। जन्म के समय तुम सो जाते हो, मृत्यु के समय जागते हो--तब पता चलता है कि यह जिंदगी एक सपना थी।
खत्म न होगा जिंदगी का सफर
मौत बस रास्ता बदलती है।
मौत रास्ता बदलती जाती है। मौत बस रास्ता बदलती है। एक जिंदगी खत्म हुई, दूसरी जिंदगी शुरू; दूसरी जिंदगी खत्म हुई, तीसरी जिंदगी शुरू। मौत सिर्फ रास्ता बदलती है। जब तक कि तुम जागकर अलग न हो जाओ इस धारा से, इस मूर्च्छा और तंद्रा से...।
नहीं, महावीर ने इस देश को न तो दीनता दी है न दरिद्रता दी है। हां, यह हो सकता है कि महावीर को सुनकर तुमने जो समझा, उससे तुमने दीनता-दरिद्रता में अपने को आरोपित कर लिया हो। महावीर ने तो तुम्हें महाजीवन का सूत्र दिया था। महावीर का जो जीवन-अस्वीकार है, उसे इतना ही कहना चाहिए कि वह भ्रामक जीवन का अस्वीकार है। और भ्रामक जीवन का अस्वीकार वास्तविक जीवन की बुनियाद है। भ्रामक जीवन का अस्वीकार, अध्यात्म की शुरुआत है। और सत्य-जीवन की उपलब्धि अध्यात्म की पूर्णता है।
दूसरा प्रश्न:
प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना, हमें असहज, कठिन और असंभव सा क्यों लगता है?
स्वाभाविक है, क्योंकि अब तक घर से दूर आने को ही जीवन समझा। उसी की आदत बनी। उसी में रंगे, पगे, बड़े हुए। वही हमारे मन का शिक्षण है। वही हमारा संस्कार है। वही हमारे कर्मों की थाती है। वही हमारे सारे जीवनों का निचोड़ है।...बाहर जाने को ही जाना है। कभी भीतर तो गए ही नहीं, एक कदम न उठाया।
तो जहां कदम कभी न डाले हों, जिस तरफ कभी आंख न उठाई हो, उस तरफ जाने में मन अगर डरे, भयभीत हो--अपरिचित, अनजान रास्ता, पता नहीं कैसा हो कैसा न हो--स्वाभाविक है। इसलिए तो अध्यात्म की लोग बातें करते हैं, लेकिन जाते नहीं; चर्चा करके समझा लेते हैं, उतरते नहीं।
चर्चा में कुछ हर्जा नहीं है; मन बहलाव है; मनोरंजन है। सुन लेते, समझ लेते, पढ़ लेते, शास्त्र को पकड़ लेते, मंदिर हो आते, मस्जिद हो आते--भीतर नहीं जाते।
इसीलिए तो लोगों ने बाहर मंदिर और मस्जिद बनाए हैं कि अगर मंदिर-मस्जिद जाने की भी धुन पकड़ जाए तो बाहर ही जाएं; कहीं ऐसा न हो कि किसी धुन में भीतर की तरफ कदम उठा लें और मुश्किल में पड़ जाएं।
रास्ता अपरिचित है, बीहड़ है। फिर, बाहर के रास्ते पर भीड़ है। तुम अकेले नहीं, और सब साथ हैं। भीतर के रास्ते पर तुम अकेले हो जाओगे, वह भी डर है। वहां कोई साथ न जा सकेगा--न मित्र, न संगी, न साथी, न पति, न पत्नी, न बेटे, न मां, न पिता--कोई साथ न जा सकेगा वहां। वहां तो तुम्हें निपट अकेले जाना होगा। जैसे मौत में तुम अकेले जाओगे, वैसे ही स्वयं में भी अकेले जाना होगा। न कोई दूसरा तुम्हारे लिए मर सकता और न कोई दूसरा तुम्हारे लिए भीतर जा सकता। तो जैसे लोग मौत से डरते हैं, वैसे ही लोग ध्यान से डरते हैं। हां, ध्यान की चर्चा वगैरह करनी हो, कर लेते हैं। इस देश में से जिससे पूछ लो, जिससे-जिससे पूछ लो, ध्यान क्या है--जवाब दे देगा; प्रार्थना क्या है, पूजा क्या है--प्रवचन दे देगा। ऐसी कोई बात ही नहीं जिसको इस देश में लोग न जानते हों। ब्रह्म की बात उठाओ, हर कोई, राह चलता ब्रह्मज्ञान बघार देगा। आसान है, उसमें कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन भीतर जाने की बात मत करो। पांव डगमगाते हैं! घबड़ाहट होती है!
पहली तो घबड़ाहट यह कि रास्ता नया! दूसरी और गहरी घबड़ाहट यह कि अकेले हैं! अकेले तो कभी कहीं गए नहीं, जब भी गए किसी के साथ गए। कोई यात्रा अकेले न की, तो अकेले की आदत ही छूट गई है। इसीलिए तो संन्यासी अकेले के अभ्यास के लिए एकांत में चला जाता है। वह सिर्फ बाहर से अकेलेपन का अभ्यास कर रहा है, ताकि धीरे-धीरे भीतर भी अकेले होने की हिम्मत आ जाए, कुशलता आ जाए। बाहर एकांत के अभ्यास का इतना ही प्रयोजन है कि थोड़ा अकेले होने की हिम्मत आ जाए। बैठता है अंधेरी गुफा में, कोई नहीं, अकेला, अंधकार घिरता है, रात आ जाती है, जंगली जानवर सब तरफ, अकेला! धीरे-धीरे रमता है। धीरे-धीरे भूलने लगता है कि दूसरे की जरूरत है। धीरे-धीरे साहस आता, आत्म-विश्वास बढ़ता है कि नहीं, अकेला भी हो सकता हूं। ऐसे बाहर का एकांत फिर भीतर ले जाने में सीढ़ी बन जाता है।
बाहर का एकांत अंत नहीं है--साधन है। इसलिए जिसने यह समझ लिया कि गुफा में बैठना आ गया तो अंतरज्ञान हो गया, वह भटक गया। गुफा में बैठे रहो लाखों वर्षों तक, कुछ भी न होगा। गुफा में बैठना तो सिर्फ एक कदम था। ऐसे ही जैसे कोई तैरना चाहता है, तैरना सीखना चाहता है, तो एकदम से गहरे में नहीं जाता; किनारे पर, जहां गहराई नहीं है, गले-गले पानी है, कमर-कमर पानी है, वहीं तड़फड़ाता है, वहीं सीखता है। सीख ले एक दफा तो फिर गहरे में जाता है। पर सीखकर भी वहीं तड़फड़ाता रहे किनारे पर ही, तो तैरना सीखा न सीखा बराबर। उस किनारे पर तो बिना ही सीखे खड़े हो जाते; गले-गले पानी था, सुरक्षित थे।
तो जो लोग गुफाओं में बैठकर बंद हो गए हैं और सोचते हैं, पा लिया है, वे भी भ्रांति में हैं।
कुछ संसार में खोए हैं, कुछ संन्यास में खो गए हैं।
संन्यास तो केवल साधन है, ताकि तुम्हें थोड़ा भीड़ से बाहर निकाल ले; थोड़ी झलक दे, और इस बात का भरोसा दे कि अकेले में भी मजा है, कि अकेले में और ज्यादा मजा है, कि अकेले की भी धुन है, कि अकेले का भी नशा है, कि मस्ती है, कि ऐसी मस्ती तो कभी न पायी थी जो अकेले में मिली! थोड़ा गुफा में बैठकर, बाजार से दूर, भीड़ से दूर, अपनों से दूर, संसार की चिंताओं और फिक्रों से दूर, एक बार स्वाद आ जाए कि अरे! बाहर के अकेलेपन में इतना स्वाद है तो कितना न होगा भीतर के अकेलेपन में! फिर तो भीतर की भी पुकार उठने लगती है। निश्चित ही कोई गुफा इतनी अकेली नहीं है जितनी अकेली भीतर की गुफा है। क्योंकि गुफा में भी वृक्ष हिलते हैं बाहर, आवाज होती है, हवा गुजरती है, कोयल गीत गाती है, सिंह दहाड़ता है। कोई है! आकाश में चांदत्तारे हैं! हिमालय की गुफा में भी बैठे हो तो हवाई जहाज निकल जाता है। कोई है! कोई इतने अकेले नहीं हो, कहीं भी इतने अकेले नहीं हो। संसार किसी न किसी रूप में अपनी खबर भेजता ही रहता है। एक चींटी काट जाती है, एक बिच्छू आ जाता है--उचककर खड़े हो जाते हो! कोई है! एकदम अकेले नहीं हो!
भीतर की गुफा में कोई भी नहीं है। न कोई हवाई जहाज गुजरता, न कोई चींटी चढ़ती, न कोई बिच्छू आता, न कोई सिंह दहाड़ता, न वृक्षों में हवा की सरसराहट होती, न पानी का कलकल-नाद है--कोई भी नहीं है, कोई भी नहीं है! वहां बस विराट, विराट, निस्तब्ध, निबिड़ तुम हो! बड़ा गहन, परम गहन शून्य है वहां! वहां ऐसी शांति है जैसी तब थी जब परमात्मा ने सोचा भी न था, "अकेला हूं, संसार को बनाऊं', वैसी शांति!
उस घड़ी में तुम फिर पहुंच जाते हो जहां परमात्मा रहा होगा, संसार को बनाने के पहले। तुम प्रथम को छू लेते हो। तुम उस सूर्योदय के क्षण में पहुंच जाते हो, जहां संसार शुरू न हुआ था; जहां अभी संसार प्रगट न हुआ था, बीज में छिपा था; जहां ब्रह्मांड अभी अंड में खोया था; जहां अभी सपना परमात्मा का फैलना शुरू न हुआ था। तुम सृष्टि के प्रथम चरण में पहुंच जाते हो। वैसी गहन शांति है। अनंत शांति है। शाश्वत शांति है।
स्वाभाविक, घबड़ाहट होती है। वह शांति वैसी ही है, जैसी मृत्यु में है। सब खो जाता है, तो डर लगता है। इसलिए भीतर जाने की लोग बातें सुनते हैं, विचार भी करते हैं कि कभी जाएंगे।
दो व्यक्ति बात कर रहे थे। एक-दूसरे के ऊपर अपने-अपने जीवन की छाप डालने की चेष्टा कर रहे थे। बड़ी हांक रहे थे। एक ने कहा कि मैं रोज सुबह पांच बजे उठता हूं। दूसरे ने कहा, यह कुछ भी नहीं, मैं तीन बजे उठता हूं। ऋषि-मुनि सदा तीन बजे ही उठते रहे। पांच बजे भी कोई उठना है! आलसी हो! मैं तीन बजे उठता हूं--स्नान, ध्यान, पूजा-पाठ, फिर घूमने जाता हूं सूर्योदय के समय; फिर आकर शास्त्र-अध्ययन, मनन; फिर दफ्तर जाता हूं; फिर दफ्तर से लौटता हूं; फिर खेलने जाता हूं; फिर सांझ घर आता हूं--बच्चों के पास बैठना, चर्चा, संगीत; फिर ठीक समय पर, नौ बजे सो जाता हूं।
दूसरा सुनकर बड़ा चकित हुआ। उसने कहा, "कब से ऐसा कर रहे हो?' वह व्यक्ति बोला, "यह मत पूछो। कल से शुरू करने का इरादा है।'
बस लोग इरादे बांधते हैं। ध्यान-करेंगे! जिसने कहा, करेंगे, चूका। करो! इस क्षण है क्षण। उतरो, योजना मत बनाओ। योजना मन का धोखा है। मन बड़ा चालाक है। वह कहता है, कल करेंगे!
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, संन्यास में उतरना है। मैं कहता हूं, "उतर जाओ, उतरना है तो! कौन रोक रहा है? मैं तो नहीं रोक रहा!' वे कहते हैं, "नहीं, उतरेंगे!' फिर तुम्हारी मर्जी। कल पर तुम्हारा भरोसा है? कल होगा? ऐसा आश्वस्त हो? बीच में मौत आ जाएगी तो क्या करोगे? कहोगे कि संन्यास लेना है, जरा ठहर?
संन्यासिनी है हमारी: गीता। उसके पिता संन्यास लेना चाहते थे। कोई सालभर से मुझसे कहते थे। सुनते हैं मुझे कोई दस वर्षों से। अभी कोई दो महीने पहले आए थे। महीनेभर यहां रहे। दो तीन बार मिलने आए। मैंने उनसे कहा, "अब किसलिए देर कर रहे हो?' वे कहते हैं, "कुछ देर नहीं है बस...! अब आप तो समझते हैं। लेना है, और लेकर रहूंगा!' आखिरी बार मुझे मिलने आए थे, मैंने उनसे कहा कि "पक्का है, कल होगा?' उन्होंने कहा, "अभी तो कोई बूढ़ा नहीं हो गया हूं।' लेकिन गए! वह आखिरी मिलना हुआ। उस दिन यहां से उठकर गए, अस्पताल में ही गए सीधे। रात हार्ट-अटैक हो गया। फिर बचे नहीं।
कल पर टालते हैं, कल कर लेंगे। जिसने कल पर टाला, वह असल में करना नहीं चाहता। अच्छा हो कि कहो, करना नहीं है। तो भी कम से कम ईमानदारी तो होगी, सत्य तो होगा, प्रामाणिकता तो होगी। लेकिन बेईमानी बड़ी है, तुम कहते हो, करेंगे! इससे तुम छिपाते हो। करना भी नहीं चाहते और यह भी अपने को आश्वासन दिला लेते हो कि कोई बुरा आदमी थोड़े ही हूं, धार्मिक आदमी हूं, करना तो है ही।
लोग बहाने खोजते हैं--न मालूम कितने-कितने! पति कहता है कि पत्नी रोकती है। कौन किसको रोक सका है: कौन किसको रोक सका है, कब रोक सका है! मौत जब आएगी तो पत्नी रोकेगी? और किसी चीज में पत्नी नहीं रोक पाती। पत्नी जिंदगीभर से रोक रही है कि दूसरी औरतों को मत देखो, नहीं रोक पायी। तुम कहते हो, क्या करें, मजबूरी है! मगर जब कहती है, ध्यान मत करो--तत्क्षण राजी हो जाते हो, बिलकुल ठीक है। पत्नी रोकती है, क्या करें!
तुम जिसमें रुकना चाहते हो, किसी का भी बहाना खोज लेते हो। जिसमें तुम रुकना नहीं चाहते, तुम कोई बहाना मानने को राजी नहीं होते। तुम कहते हो, विवशता है। वासना पकड़ लेती है, क्या करें? चिकित्सक रोक रहा है कि ज्यादा खाना मत खाओ। पत्नी रोक रही है, बच्चे समझा रहे हैं, पड़ोसी मित्र समझाते हैं।
एक मेरे मित्र हैं, खाए चले जाते हैं। बहुत भारी हो गई देह, सम्हाले नहीं सम्हलती। चिकित्सक समझा-समझाकर परेशान हो गया है। अभी आखिरी बार चिकित्सक के पास गए थे तो कहने लगे कि बड़ी अजीब-सी बात है! रात सोता हूं तो आंख खुली की खुली रह जाती है। चिकित्सक ने कहा कि रहेगी, चमड़ी इतनी तन गई है कि जब मुंह बंद करते हो तो आंख खुल जाती है; जब मुंह खोले रहते हो तो थोड़ी चमड़ी शिथिल रहती है, तो आंख बंद रहती है। होगा! सारी दुनिया रोक रही है। खुद भी कहते हैं, रोकना चाहते हैं, मगर क्या करें, विवशता है!
ऐसी विवशता कभी ध्यान के लिए पकड़ती है? ऐसी विवशता कभी संन्यास के लिए पकड़ती है? ऐसी विवशता कभी आत्मखोज के लिए पकड़ती है? नहीं, तब तुम बहाने खोज लेते हो। तुम कोई न कोई रास्ता खोज लेते हो--बच्चे छोटे हैं, विवाह करना है; जैसे कि बच्चे तुम्हें उठा-उठाकर बड़े करने हैं। वे अपने से बड़े हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी बड़े हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी विवाह कर लेंगे। तुम जरा उनको विवाह से रोककर तो देखना! तब तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारे रोके नहीं रुकते, करने का तो सवाल ही दूर है। तुम्हें कौन रोक सका? तुम बच्चों को कैसे रोक सकोगे?
कोई किसी को रोकता नहीं, लेकिन आदमी बेईमान है। आदमी रास्ते खोज लेता है। जो तुम नहीं करना चाहते उसके लिए तुम दूसरों पर बहाना डाल देते हो। जो तुम करना चाहते हो, तुम करते ही हो। इसे ईमानदारी से समझना उचित है।
लोग ध्यान की बात करते हैं। लोग आत्मा की बात करते हैं, परमात्मा की बात करते हैं। वे कहते हैं, किसी दिन यात्रा करनी है, तैयारी कर लें! यात्रा कभी होती दिखाई नहीं पड़ती। वे टाइम-टेबल ही पढ़ते रहते हैं। कुछ लोग हैं जो टाइम-टेबल पढ़ते हैं।
जाओ भी! कभी यात्रा पर भी निकलो! डर स्वाभाविक है। डर के रहते भी जाना होगा। डर के रहते ही जाना होगा। अगर तुमने सोचा कि जब डर मिट जाएगा तब जाएंगे, तो तुम कभी जाओगे न।
कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब
शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया।
--बस परवाना शमा तक जाता हुआ दिखाई पड़ता है, फिर थोड़े ही दिखाई पड़ता है। फिर तो एक झपट और एक लपट--और गया!
कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब
शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया।
बस परवाने को लोग शमा तक ही देख पाते हैं। जब शमा छू गई, एक लपट--और समाप्त!
लोगों ने ध्यान के पास जाते लोगों को देखा है। बस, फिर खो जाते देखा है। इसलिए घबड़ाहट है। लोगों ने देखा वर्द्धमान को जाते हुए ध्यान की तरफ; फिर एक लपट--वर्द्धमान खो गया! जो आदमी लौटा, वह कोई और ही था। महावीर कुछ और ही हैं, वर्द्धमान से क्या लेना-देना! वर्द्धमान तो राख हो गया, जल गया ध्यान में! सिद्धार्थ को जाते देखा; जो लौटा--बुद्ध। वह कोई और ही।
इसलिए घबड़ाहट होती है कि तुम कहीं मिट गए! मिटोगे निश्चित! लेकिन यह भी तो देखो कि मिटकर जो लौटता है, वह कैसा शुभ है, कैसा सुंदर है!
परवाने को जाते देखा है तुमने, लपट के सौंदर्य को भी तो देखो! परवाना, जब खो जाता है प्रकाश में, उस प्रकाश को भी तो देखो! तो घबड़ाहट कम होगी। इसलिए सदगुरु का अर्थ है: किसी ऐसे व्यक्ति के पास होना, जो खो गया; ताकि तुम्हें भी थोड़ी हिम्मत बढ़े, खो जाने में थोड़ा रस आए। तुम कहो कि चलो, देखें, चलो एक कदम हम भी उठाएं।
मिटना तो होता है, लेकिन मिटने के पार कोई जागरण भी है। सूली तो लगती है, लेकिन सूली के पीछे कोई पुनरुज्जीवन भी है। शास्त्र ही पढ़ोगे तो अड़चन होगी। शास्त्र में कहानी ही वहां तक है, जहां तक परवाना शमा तक जाता है। उसके आगे की कहानी शास्त्र में हो नहीं सकती। कोई महावीर खोजो! कोई बुद्ध खोजो! किसी ऐसे आदमी को खोजो, जो वहां तक गया हो; परवाना मिट भी गया हो और फिर भी उस मिटे से उठती हो धूप, उठती हो गंध, उठती हो सुवास; कोई जो "न' हो गया हो और फिर भी जिसमें होने की परम वर्षा हो रही हो! कोई ऐसा व्यक्ति खोजो!
सदगुरु न मिले तो शास्त्र। जब तक सदगुरु मिले, तब तक सदगुरु। शास्त्र तो मजबूरी है। वह तो दुर्भाग्य है। वह तो अंधेरे में टटोलना है। शास्त्र पढ़-पढ़कर घबड़ाहट होगी। और घबड़ाहट को आश्वासन शास्त्र से न मिलेगा; लाख शास्त्र कहे, मगर किताब का क्या भरोसा! जीवंत कोई चाहिए!
इसलिए जगत में जब भी धर्म की लपट आती है, वह किसी जीवंत व्यक्ति के कारण आती है। महावीर जब हुए, लाखों लोग संन्यस्त हुए! एक आग लग गई सारे जंगल में! वृक्ष-वृक्षों पर आग के फूल खिले! जिनने कभी सपने में भी न सोचा होगा, वे भी संन्यस्त हुए!
तुमने कभी जंगल देखा है, पलाश-वन देखा है? जब पलाश के फूल खिलते हैं तो पूरा जंगल गैरिक हो उठता है, लपटों से भर जाता है! ऐसा जब महावीर चले इस जमीन पर थोड़े दिन, वे दिन परम सौभाग्य के थे। वैसे चरण इस पृथ्वी पर बहुत कम पड़ते हैं। तो जिनको भी उनकी गंध लग गई, जिनको भी थोड़ी-सी उनकी हवा लग गई, उन्हीं को पर लग गए! वही परवाने हो गए! फिर उन्होंने फिक्र न की। इस आदमी को देखकर भरोसा आ गया। उन्होंने कहा कि ठीक है, तो हम भी छलांग लेते हैं! एक श्रद्धा जन्मी। श्रद्धा शास्त्र से कभी पैदा नहीं होती; शास्त्र से ज्यादा से ज्यादा विश्वास पैदा होता है। श्रद्धा के लिए कोई जीवंत चाहिए, कोई प्रमाण चाहिए, कोई प्रत्यक्ष चाहिए--जिसमें वेद खड़े हों! कोई शास्ता चाहिए, जिसमें शास्त्र जीवंत हों! फिर जब महावीर खो जाते हैं तो लोग शास्त्रों में उनकी वाणी इकट्ठी कर लेते हैं, फिर पूजा चलती है, पाठ चलता है, पंडित इकट्ठे होते हैं, सब मुर्दा हो जाता है, फिर सब मरघट है। महावीर जीवित थे तब जिन-धर्म जीवित था; फिर तो सब मरघट है।
और ध्यान रखना, हताश मत होना; ऐसा कभी भी नहीं होता कि पृथ्वी पर कोई चरण न हों जिनकी वजह से पृथ्वी धन्यभागी न हो। ऐसा कभी नहीं होता। इसलिए यह मत सोचना कि क्या करें, अभागे हैं हम, महावीर के समय में न हुए! महावीर के समय में भी तुम्हारे जैसे बहुत अभागे थे, जो महावीर को न देख पाए। महावीर उनके गांव से गुजरे और उन्होंने न देखा। उन्होंने महावीर में कुछ और देखा। किसी ने देखा: "यह आदमी नंगा खड़ा है, अनैतिक है। अश्लीलता है यह तो। परम साधु हो चुके हैं; मगर नग्न खड़ा होना, यह तो समाज के विपरीत व्यवहार है।' खदेड़ा महावीर को गांव के बाहर, पत्थर मारे। जिसके चरणों में मिट जाना था, उसका विरोध किया। और यह मत सोचना कि वे नासमझ लोग थे--वे तुम्हीं हो। वे तुम जैसे ही लोग थे। इसमें कुछ फिर फर्क नहीं है, जरा भी फर्क नहीं है। और जब उन्होंने ऐसे तर्क खोजे थे तो उनका भी कारण था, कि यह आदमी वेद-विरोधी है--और वेद तो परम ज्ञान है! अब शास्ता सदा ही शास्त्र-विरोधी होगा। उसका कारण है, विरोधी होने का; क्योंकि जब जीवंत घटना घट रही हो धर्म की तो तुम बासी बातें मत उठाओ। बासी बातों से क्या लेना-देना? जब ताजा भोजन तैयार हो तो ताजा भोजन बासी भोजन के विपरीत होगा ही, क्योंकि तुम बासे को फेंक दोगे। तुम कहोगे, जब ताजा मिल रहा है तो बासे को कौन खाए! बासे को तो तभी तक खाते हो जब ताजा नहीं मिलता; मजबूरी में खाते हो।
जब शास्ता पैदा होता है तो शास्त्रों को लोग हटा देते हैं। वे कहते हैं, "रखो भी, फिर पीछे देख लेंगे! यह घड़ी पता नहीं कब विदा हो जाए! अभी तो जो सामने मौजूद हुआ है, अभी तो जो प्रगट हुआ है, अवतरित हुआ है, अभी तो जो लपट जीवंत खड़ी है--इसके साथ थोड़ा रास रचा लें, थोड़ा खेल खेल लें; इसके साथ तो थोड़े पास हो लें। यह तो थोड़ा सत्संग का अवसर मिला है, शास्त्र तो फिर देख लेंगे। कोई जल्दी नहीं है, जन्म पड़े हैं, जीवन पड़े हैं।'
तो जब भी कोई शास्ता पैदा होता है, पुराने शास्त्रों को माननेवाले लोग उसके विपरीत हो जाते हैं, क्योंकि उस आदमी के कारण शास्त्रों को लोग हटाने लगते हैं। शास्त्रों को हटाते हैं तो पंडितों को हटाते हैं, तो सारा व्यवसाय हटाते हैं। कठिन हो जाता है। पंडित दुश्मन हो जाते हैं। फिर जब यह शास्ता मर जाता है, वही पंडित जो इसके दुश्मन थे, मरघट पर इकट्ठे हो जाते हैं--श्रद्धांजलि चढ़ाने को। फिर वे ही शास्त्र बना लेते हैं। उनकी दुश्मनी जीवंत से थी, शास्त्र से थोड़े ही थी। फिर वे ही शास्त्र बना लेते हैं।
यह बड़े मजे की बात है। महावीर तो क्षत्रिय, लेकिन महावीर के जितने गणधर, सब ब्राह्मण! तो बड़ी हैरानी की बात है। क्या, मामला क्या है? महावीर के मरते ही ब्राह्मण झपटे, उन्होंने कहा, यह तो अच्छा अवसर मिला, फिर शास्त्र बना लो। उन्होंने तत्क्षण शास्त्र खड़े कर दिए। जैन धर्म निर्मित हो गया। अब अगर कोई पुनः जीवंत धर्म को लाए, तो फिर शास्त्री, पंडित, शास्त्र का पूजक, फिर कठिनाई में पड़ जाता है, फिर मुश्किल में पड़ जाता है। वह कहता है, यह फिर गड़बड़ हुई। फिर उसके व्यवसाय में व्याघात हुआ।
ध्यान रखना, भीतर अगर तुम जाना चाहते हो तो कोई न कोई द्वार कहीं न कहीं पृथ्वी पर सदा खुला है। तुम जरा आंखें खुली रखना, शास्त्रों से भरी मत रखना; तुम जरा मन ताजा रखना, शब्दों से बोझिल मत रखना; सिद्धांतों से दबे मत रहना, जरा सिद्धांतों के पत्तों को हटाकर तुम जीवंत धारा को देखने की क्षमता बनाए रखना। तो कहीं न कहीं तुम्हें कोई सदगुरु मिल जाएगा। उसके पास ही तुम्हारा भय मिटेगा भीतर जाने का। अभी तो तुम शास्त्र पढ़ते रहो, मंदिर में घंटियां बजाते रहो, पूजा करते रहो, अर्चना के थाल सजाते रहो--सब धोखा है।
दिल को महवे-गमे-दिलदार किए बैठे हैं
रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं।
लोग बनते हैं कि मद्यप हैं, कि शराब पिए हैं, कि मस्ती में हैं।
रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं! खयाल ही देते हैं कि बड़ी मस्ती में हैं; लेकिन गौर से भीतर देखो तो हृदय में सिवाय घावों के और कुछ भी नहीं, जहर पिए बैठे हैं।
मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में, जो तुम्हें लोग पूजा और प्रार्थना में डोलते हुए मालूम पड़ते हैं, धोखे में मत पड़ जाना, जरा उनके भीतर देखना; कुछ भी नहीं डोल रहा है! वे नाहक का व्यायाम कर रहे हैं। जब भीतर कोई डोलता है तो फिर क्या मंदिर और क्या मस्जिद! फिर पूजा के थाल क्या सजाना। फिर तो जहां भी वे होते हैं, वहीं डोलते हैं। कबीर ने कहा है: "जहां-जहां डोलूं सो-सो परिक्रमा, खाऊं-पिऊं सो सेवा।' परमात्मा की सेवा हो गई, खा-पी लिया, मजे से खा-पी लिया, चढ़ गया भोग। और कहां जाना है?
जिस दिन तुम्हारे जीवन में मधु का अवतरण होता है, जिस दिन तुम्हारे जीवन में अंतरात्मा की झलक भी मिलने लगती है, उस दिन तुम जहां हो वहीं मंदिर है। अंतर्यात्रा! तुम्हारी ही देह मंदिर बन जाती है।
"प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना, हमें असहज, कठिन, असंभव-सा क्यों लगता है?'
स्वाभाविक है। कभी गए नहीं उस द्वार, कभी चखा नहीं उसे, कोई संबंध न बना, अजनबी हो--इसलिए। थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करो। बैठो उन लोगों के पास जो पहले से पीये हों। थोड़ी उनकी मस्ती को संक्रामक होने दो। थोड़े उनके साथ डोलो, उठो, बैठो, परिक्रमा करो, सेवा करो। थोड़ा झुको उनके पास, जो लबालब हैं और ऊपर से बहे जा रहे हैं। थोड़े न बहुत छींटे तुम तक भी पहुंच ही जाएंगे।
बस इतनी ही चेष्टा है यहां कि थोड़े छींटे तुम तक पहुंच जाएं। एक बार भी तुम्हें भीतर की धुन का जरा-सा नशा आ जाए, फिर तुम न रुकोगे, फिर तुम्हें कोई भी न रोक पाएगा। फिर कोई कभी किसी को रोक ही नहीं पाया।
तीसरा प्रश्न:
मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से, पर मिला, और मिल रहा है, और अकारण, और अयाचित, और असमय, और भरपूर--वर्षा की भांति!?
अब इससे प्रश्न मत उठाओ। डूबो! अब चिंता मत करो: कहां से मिल रहा है, क्यों मिल रहा है! परमात्मा जब मिलता है तो ऐसे ही बेबूझ मिलता है। तुम्हारे हिसाब-किताब से थोड़े ही मिलता है! तुमने कुछ किया, इसलिए थोड़े ही मिलता है। तुम ने चाहा...!
अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर
अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे।
बस प्यास पूरी हो, तो प्याले भर जाएंगे।
अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर!
प्यास हो तो परमात्मा तुम्हें खोजता है। फिर गिड़गिड़ाना थोड़े ही पड़ता है! फिर भिखारी की तरह रोना थोड़े ही पड़ता है, झोली थोड़ी फैलानी पड़ती है!
अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर!
कहीं भी बैठे होओ, अलग कि भीड़ में, क्या फर्क पड़ता है! जहां प्यास है, वहां साकी की नजर पहुंच ही जाती है। प्यास ही उसके लिए निमंत्रण है। प्यास ही प्रार्थना है। जो प्यास नहीं जानते, वे और शब्द दोहराते हैं। जिनको प्यास की समझ आ गई, वे सिर्फ प्यास ही प्यास में डूब जाते हैं। वे इतने प्यासे हो जाते हैं कि भीतर कोई प्यासा भी नहीं होता, बस प्यास ही प्यास होती है--इस पार से उस पार, रोएं-रोएं में, धड़कन-धड़कन में, श्वास-श्वास में!
अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर
अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे।
अगर प्यास पूरी है तो तुमने प्याला तो तैयार कर दिया। अब, अब तुम फिक्र छोड़ो! अब शराब भी आ जाएगी। अब कोई भर भी देगा प्याले को, तुम प्याला तो बनाओ!
सदा ही परमात्मा अकारण घटित होता है। इससे तुम गलत मत समझ लेना मुझे। तुम यह मत समझ लेना कि फिर क्या करना। जब मैं कहता हूं कि अकारण घटित होता है, तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम जो भी करते हो, वह तो ना-कुछ है। जब परमात्मा घटित होगा तो तुम जानोगे, अरे! मैंने कुछ भी तो नहीं किया था! यद्यपि तुमने बहुत किया था, लेकिन अब तुम जानोगे कि कुछ भी तो न किया था। जो मिला है, वह इतना ज्यादा है कि जो किया था अब उसकी बात भी करनी फिजूल है। मिला है खजाना अकूत, जो तुमने किया था वह कौड़ी-कौड़ी था। अब उसकी बात भी उठाने में शर्म लगेगी। फिर तुम यह थोड़े ही कहोगे परमात्मा से कि "सुनो जी! कितने उपवास किए, याद है? कि कितने ध्यान में बैठता था, भूल तो नहीं गए? कितना दान-पुण्य किया था!'
सुना है मैंने, एक कंजूस मरा। स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। द्वारपाल ने पूछा कि "कुछ पुण्य वगैरह किए हैं?' ध्यान रखना, ठीक से कहानी सुन लेना, पूछेगा, तुम भी जब जाओगे! और वही गलती मत कर देना जो इस आदमी ने की। उसने कहा, "हां किये हैं।' बस यही तो पापी का लक्षण है। अगर वह कह देता "कहां! क्या पुण्य! सामर्थ्य कहां! करने को मेरे पास क्या था!' द्वार खुल जाते, लेकिन चूक गया। उसने कहा, "किए हैं।' तो द्वारपाल ने कहा, "फिर ठहरो। फिर खाते-बही देखने पड़ेंगे। हिसाबी-किताबी आदमी हो।' खाते-बही देखे तो पता चला, एक भिखारी को चार पैसे उसने दान दिए थे।
तुम कहोगे "बस इतना?' लेकिन "बस इतना' ही सिद्ध होता है जो तुमने किया है। क्या किया है? कभी एक पैसा किसी भिखारी को दे दिया है। और उसी की जेब काटी थी पहले; नहीं तो भिखारी ही कैसे होता, यह भी तो सोचो। फिर उसी को समझाने लिए एक पैसा भी दे दिया है कि उपद्रव न कर, हड़ताल वगैरह पर मत जा, शांत रह। क्या किया है तुमने? चार पैसे भिखारी को दिए थे!
द्वारपाल चिंतित हो गया। उसने अपने सहयोगी से पूछा, बोल भाई, क्या करें? उसने कहा, "करना क्या है! चार पैसे वापस दो और कहो कि नर्क जा, नर्क जा, खत्म कर मामला, हिसाब साफ कर!'
तुम्हारा किया कितना हो सकेगा? चम्मच-चम्मच से सागर के किनारे हम बैठे हैं। चम्मचें भर रहे हैं, इससे कहीं सागर उलिचता है! इससे कहीं कुछ होता नहीं।
लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि चलो, झंझट मिटी, चार पैसे भी अब देने की कोई जरूरत नहीं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे कहता हूं, देना! दिल खोलकर देना! लेकिन आखिर में याद रखना कि वे चार पैसे ही दिये। कितना ही दिया हो, सब दे दिया हो, सब लुटा दिया हो, तो भी चार पैसे ही तुम्हारे पास थे, ज्यादा तो तुम्हारे पास ही न था, ज्यादा तुम देते भी कैसे!
इसलिए जिन्होंने पाया है, उनको हमेशा लगा: कुछ भी तो नहीं किया, प्रसाद-स्वरूप है। यहीं भूल पैदा होती है। सुननेवाला समझ लेता है, चलो तब अब यह भी झंझट नहीं। अब कुछ करना ही नहीं; जब मिलना है प्रसाद रूप तो जब मिलेगा, मिलेगा। लेकिन प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो अपनी समग्र चेष्टा करते हैं। मिलता प्रसाद रूप है लेकिन प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो समग्र चेष्टा करते हैं।
इसलिए चिंता मत करो। संकल्प से मिला या समर्पण से, यह भी छोड़ो। कैसे मिला, इसकी क्या फिक्र! मिला! अब तो थोड़ा नाचो! अब विचार छोड़ो, अब तो थोड़ा समारोह करो! अब तो कुछ उत्सव करो!
जमीं पे जाम को रख दे, जरा ठहर साकी
मैं इस पे हो लूं तसद्दुक तो फिर उठा के पिऊं।
अब तो जरा बलिहारी हो जाओ। कहो कि जरा रख जमीन पर, पहले मैं नाच लूं, थोड़ा बलिहारी हो जाऊं इस पर, फिर उठाकर पीऊं। अब तो थोड़ा नाचो!
ध्यान रखना, प्रसाद जब क्षणभर को भी मिलता हो, कणभर को भी मिलता हो--तुम नाचना! तुम्हारे नाचने से प्रसाद बढ़ेगा। उत्सव में ही बढ़ता है। तुम्हारी प्रसन्नता में ही बढ़ता है। तुम्हारे अनुग्रह के भाव में बढ़ता है। सिकुड़ मत जाना। सोचने मत लगना कि कैसे मिला, कहां से मिला, क्यों मिला, मैंने क्या किया था, अब मैं क्या करूं कि और ज्यादा मिले! इसमें तो खो जाएगा; जो मिला है वह भी खो जाएगा; जो द्वार खुला था क्षणभर को वह भी बंद हो जाएगा--तुम्हारे सोच-विचार में! सोच-विचार से तो पर्दे पड़ जाते हैं। नाचना! गाना! गुनगुनाना! जो मिला है, उस पर बलिहारी जाना। कहना: जमीं पर जाम को रख दे, जरा ठहर साकी! परमात्मा से भी कहना, "जल्दी मत कर, रख! जरा मैं नाच तो लूं! मैं इस पे हो लूं तसद्दुक तो फिर उठाके पिऊं। पहले बलिहारी जाऊं, पहले नाचूं, पहले थोड़ा उत्सव मना लूं, तेरा स्वागत कर लूं! अकारण मिला है! बिना मेरे कुछ किए मिला है। तो ऐसे ही उठाकर पी लेना तो अशोभन होगा। शोभा न होगी। ऐसे ही उठाकर पी लेना असंस्कृत होगा। थोड़ा नाचकर, गुनगुनाकर, थोड़ी गहन कृतज्ञता में डूबकर!
"मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से!'
भाड़ में जाने दो! मालूम करने की फिक्र ही मत करो। मिल गया! कैसे मिलती है कोई चीज, यह तो तब सोचना चाहिए जब न मिली हो। तब आदमी साधन खोजता है। तब कहता है, कहां से जाऊं! चलो मंजिल ही तुम्हें खोजती आ गई, अब तुम फिक्र छोड़ो; कहीं ऐसा न हो कि तुम उधेड़-बुन में पड़ जाओ, और मंजिल हट जाए! क्योंकि जो आ गई है अपने से तुम्हारे पास, अपने से हट भी जा सकती है।
"...पर मिला और मिल रहा है--और अकारण!'
सदा ही अकारण मिलता है। अकारण का बोध बनाए रखना! क्योंकि मन की वृत्ति है कि वह सोचने लगता है जल्दी कि जो मिल रहा है वह कारण से मिल रहा है।
अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति हुआ: मार्गन। वह एक भिखारी को हर महीने सौ डालर देता था। भिखारी पर प्रसन्न था। कुछ भिखारी की आवाज में बड़ी जान थी। जब भिखारी गीत गाता तो...। तो उसने कहा कि अब तुझे बार-बार आने की जरूरत नहीं, एक तारीख को सौ डालर तू ले ही जाया कर। तो वह नियम से सौ डालर एक तारीख को ले आता था। ऐसा वर्षों चला। एक दिन एक तारीख को...वह एक तारीख को एक दिन भी नहीं चूकता था...वह आकर एक तारीख को खड़ा हुआ दफ्तर में और मैनेजर ने कहा कि भई सुनो, अब से पचास डालर! उसने कहा, "क्या? पचास डालर? क्या मतलब?' उसने कहा कि ऐसा है कि मालिक की लड़की की शादी हो रही है, पैसे की उन्हें खुद ही तंगी है। धंधा भी घाटे में जा रहा है। थोड़ी मुसीबत में हैं। इसलिए पचास! उसने कहा, "हद्द हो गई! मेरे रुपयों पर लड़की की शादी की जा रही है? और घाटा तुम्हें लगे, भोगूं मैं? समझा क्या है? बुलाओ मालिक को!'
मन की वृत्ति है कि अगर तुम्हें मिलता चला जाए तो तुम सोचते हो, तुम्हारी पात्रता है। जो तुम्हें मुफ्त मिलता है, तुम धीरे-धीरे सोचने लगते हो, यह भी मेरी पात्रता है। तुम न केवल यह सोचने लगते हो बल्कि तुम प्रतीक्षा करते हो कि मिलना ही चाहिए। अगर न मिले तो शिकायत शुरू हो जाती है।
सोचो! कहां धन्यवाद और कहां शिकायत! कहां आभार और कहां शिकवे! लेकिन मन की यह आदत है। और इस आदत के कारण बहुत-से लोग परमात्मा के द्वार से लौट जाते हैं। सत्य आ ही रहा था, करीब आ ही रहा था कि उनकी अकड़ आने लगी। अकड़ आई कि अरे, जब आ रहा है तो निश्चित ही हमने अर्जित किया होगा! जब आ रहा है तो कोई कारण होगा! कुछ हममें होगी खूबी, तभी आ रहा है!
सदा याद रखना, तुम जब भी पात्रता के बोध से भर जाओगे, तभी अपात्र हो जाओगे। जब तक अपात्र होने का तुम्हें स्मरण रहेगा, तुम्हारी पात्रता बढ़ती रहेगी। इस विरोधाभास को महामंत्र की तरह स्मरण रखना।
और, जिन्होंने भी उसको पीया है, उनमें से कोई भी नहीं बता सका कि क्यों और क्या! पीने के पहले की सब बातें हैं। पीने के पहले के लिए सब रास्ते और साधन हैं। पी लेने के बाद तो फिर राज है, फिर तो रहस्य है।
क्या हमने छलकते हुए पैमाने में देखा
ये राज है मैखाने का इफ्शां न करेंगे।
क्या देखा है लोगों ने परमात्मा में छलकते हुए? उसे कहा नहीं जा सकता।
ये राज है मैखाने का इफ्शां न करेंगे।
क्या हमने छलकते हुए पैमाने में देखा
वहां जाकर लोग चुप हो गए हैं।
वाणी की एक सीमा है। बुद्धि की एक सीमा है। जहां तक साधन है वहां तक बुद्धि की सीमा है। जहां साध्य आया, बुद्धि की सीमा गई। क्योंकि बुद्धि स्वयं साधन है। बुद्धि खोज का उपाय है। जब पहुंच गए, तो बुद्धि की कोई जरूरत न रही।
तो इस सौभाग्य को बढ़ाना! और बढ़ाने की कला यह है कि उसे अकारण ही रहने देना। कोई कारण मत खोजना, समझ में न आए, नासमझी में रस लेना। समझने की जरूरत कहां है! समझ कहीं खराब न कर दे, कहीं विश्लेषण खंडित न कर दे! उसे राज ही रहने देना। और तब धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जो तुम्हें मिला है, वह मिला ही नहीं, वह तुम्हारे भीतर आवास कर लिया है। वह तुम्हारी आंखों में समा गया। वह तुम्हारी आंखों का नूर हो गया! वह तुम्हारे हृदय की धड़कन बन गया। और ऐसा ही नहीं कि तुम्हें मिला है; अगर तुमने उसे ठीक से पीया तो तुम्हारे द्वारा दूसरों पर भी छलकने लगेगा।
हम लिए फिरते हैं आंखों में चमन ऐ बागवां
जिस तरफ उठी निगाहे-शौक गुलशन हो गया।
और जहां आंख उठ जाती है ऐसे आदमी की, वहीं बगीचे हो जाते हैं, वहीं बगीचे खिल जाते हैं।
जिस तरफ देख लोगे, वहीं परमात्मा का फैलाव हो जाएगा। जिस पर तुम्हारी नजर पड़ जाएगी, वह भी चौंक जाएगा। जिसके हृदय में तुम गौर से देख लोगे, वहां भी कोई बीज तड़फकर टूट पड़ेगा और अंकुर हो जाएगा।
पर सम्हालना, मन की आदतें बड़ी पुरानी हैं! मन कर्ता बनना चाहता है। वह कहता है, मैंने किया; मेरे कर्मों का फल है, देखो! बस वहीं चूक हो जाएगी। जल्दी ही तुम पाओगे, आई थी जो झलक, खो गई; दिखा था जो प्रकाश अब दिखाई नहीं पड़ता; खुला था जो द्वार, बंद हो गया!
ऐसा न हो पाए। अपने को अपात्र, और भी अपात्र, अपने को ना-कुछ, कर्ता नहीं, सिर्फ भोक्ता जानना--परमात्मा का भोक्ता! प्यासा जानना, अधिकारी नहीं। और, और-और वर्षा होगी, और-और घने मेघ घिरेंगे, और-और तुम तृप्त होओगे, महातृप्त होओगे।
आखिरी प्रश्न:
जब आपको सुनता हूं तो आपका प्रत्येक शब्द दिल की गहराई तक उतर जाता है और हलचल पैदा करता है। लेकिन जब आपको पढ़ता हूं तो वह दिमागी खेल बनकर रह जाता है। कृपया बताएं कि ऐसा क्यों होता है?
साफ-साफ है। गणित बिलकुल सीधा है। जब तुम पढ़ते हो तब तुम्हीं होते हो, तब मैं नहीं होता। जो तुम पढ़ते हो, वह तुम ही तुम हो। दिमागी खेल बनकर रह जाता है। जब तुम मुझे सुनते हो तो कभी-कभी तुम्हारे जाने-अनजाने मैं भी तुम में प्रवेश कर जाता हूं। कम ही तुम ऐसा मौका देते हो। लेकिन कभी-कभी चूक तुमसे हो जाती है। कभी-कभी बे-भान, तुम जरा दरवाजा खुला छोड़ देते हो, मैं भीतर आ जाता हूं।
इसलिए तुम जब मुझे सुन रहे हो तो बात और है। इसलिए सत्य सदा कहा गया है, लिखा नहीं गया। लिखा जा नहीं सकता। कहना भी बहुत मुश्किल है, लेकिन फिर भी कहा जा सकता है, थोड़ा-सा कहा जा सकता है। ऐसी थोड़ी-सी खबर दी जा सकती है। क्योंकि कहने में कई बातें सम्मिलित हैं, जो लिखने में खो जाती हैं।
जब तुम किताब पढ़ोगे तो किताब तो मुर्दा होगी। किताब तुम्हारे पास कोई वातावरण तो पैदा न कर सकेगी। किताब का कोई माहौल तो नहीं होता। किताब तुम्हारे पास कोई जीवंत वातावरण निर्मित नहीं कर सकती। वातावरण तुम्हारा होगा; उसमें ही किताब प्रवेश करेगी।
जब तुम मेरे पास हो, जब तुम मुझे सुन रहे हो, यदि सच में सुन रहे हो, तो तुम्हारा वातावरण यहां नहीं है, वातावरण मेरा है, हवा यहां मेरी है। तुम मेहमान की तरह उसमें हो। और जो समझदार हैं वे अपने को वहीं रख आते हैं जहां जूते उतारते हैं; ताकि तुम यहां गड़बड़ी न कर सको; ताकि तुम पूरे मुझ में डूब जाओ; ताकि निर्वस्त्र, नग्न; ताकि पूरे के पूरे, बिना किसी आवरण के, अनावृत्त होकर तुम मुझ में डूब जाओ; यह थोड़ी-सी देर को जो लहरें मैं तुम्हारे आसपास पैदा करता हूं, ये तुम्हें छू लें! बोलना तो बहाना है। बोलना तो बहाना है, ताकि तुम उलझे रहो सुनने में। यह तो ऐसा है, जैसे छोटा बच्चा उपद्रव करता है, खिलौना दे दिया कि खेल, उलझ गया। बिना बोले, तुम मुश्किल में पड़ोगे। मैं न बोलूं तो तुम्हारा मन हजार-हजार जगह जाएगा। बोलता हूं, बोलने में तुम्हारा मन उलझ गया, सुनने में लग गया; पर यह तो ऊपर-ऊपर की बात है, भीतर कुछ और हो रहा है। इधर तुम उलझे कि उधर मैंने तुम्हारे हृदय को टटोला। एक हाथ से तुम्हें खिलौना देता हूं, दूसरे हाथ से तुम्हारे हृदय को टटोल रहा हूं। कभी-कभी...तुम्हारी आदतें पुरानी हैं, मजबूत हैं। आदतें ऐसी हो गई हैं जड़ कि तुम खिलौने में उलझे भी रहते हो और फिर भी हृदय को बांधे रहते हो, बंद रखते हो। कभी-कभी खुल जाता है। उस घड़ी, मैं तुम्हारे भीतर पहुंच जाता हूं। उस घड़ी, मेरा और तुम्हारा होना मिट जाता है। उस घड़ी हम एक ही वातावरण के हिस्से हो जाते हैं। एक सागर की तरंगें! इसलिए स्वाभाविक है कि उस क्षण कुछ हो जाए, जो किताब से न हो सकेगा।
फिर, जब तुम मेरे पास हो तो बोलना तो मेरे पास होने का एक अंश मात्र है। पास होना बड़ी घटना है! सान्निध्य बड़ी घटना है। निकट होना...तो मेरी तरंगें और तुम्हारी तरंगें एक रासलीला में लीन होती हैं। तुम मेरे आसपास नाचते हो, मैं तुम्हारे आसपास नाचता हूं। कुछ घटता है, जो खाली आंखों से नहीं देखा जा सकता! कुछ घटता है, चर्म-चक्षु उसे नहीं देख पाते! कुछ अदृश्य में घटता है!
तुम दृश्य ही तो नहीं हो। मैं जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा हूं, उसी पर तो सीमित नहीं हूं। तुम्हें अपने अदृश्य का पता नहीं है, मुझे मेरे अदृश्य का पता है। इसलिए मैं तुम्हारे अदृश्य को भी पुकारता हूं। तुम्हारा अदृश्य भी बाहर आ जाता है। एक नृत्य शुरू होता है। उस नृत्य में ही तुम्हारे हृदय में कुछ फूल खिलते हैं, कमल खिलते हैं।
यह सवाल बोलने का ही नहीं है। और यह जो मैं बोल रहा हूं, ये कोरे शब्द नहीं हैं; ये किसी गहन अनुभव में डूबकर आए हैं; ये किसी गहन अनुभव से सिक्त हैं, किसी गहन अनुभव में पगे हैं। यह कोई शब्दों का काव्य नहीं है, जीवन का काव्य है। कवि कहते हैं:
दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं
हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं!
ऋषि यह कहते नहीं। आवाज सहज आती है, जो दिल में घर कर जाती है।
दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं! जब तुम्हारे पास कुछ संपदा होती है अनुभव की, तो आवाज अपने-आप उस अंदाज को पा लेती है जो दिल में घर कर जाता है। नहीं कि इसका कोई अभ्यास है; नहीं कि इसकी कोई वक्तृत्व शैली है; नहीं कि इसका कोई विधि-विधान है--नहीं, कुछ भी नहीं है। जब तुम पाते हो सत्य को, तो सत्य का पाना ही इतना विराट है कि तुम्हारे हर शब्द में उसकी धुन, हर शब्द में उसका रस, हर शब्द में उसका संगीत और सुवास फैलने लगती है।
दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं
हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं!
आ जाती है। पहले उसे ले आओ जिसे प्रगट करना है; फिर प्रगट करने की आवाज अपने से आ जाती है। यही तो कवि और ऋषि में फर्क है। कवि आवाज की फिक्र करता है। कवि फिक्र करता है वाहन की। ऋषि फिक्र करता है वाहक की। ऋषि फिक्र करता है विषय-वस्तु की। जब बोलने को कुछ हो तो बोलना आ जाता है। ऐसे बोलना आ जाए तो जरूरी नहीं है कि बोलने को कुछ हो। बोलना तो सभी को आता है। बोलने मात्र से पता नहीं चलता कि कुछ बोलने को तुम्हारे पास है। बोलते तो तुम चौबीस घंटे हो--बिना कुछ हुए। कुछ भी नहीं देने को, फिर भी बोले जाते हो। उसी को तो हम बड़बड़ कहते हैं, बकबक कहते हैं। बड़बड़ का इतना ही अर्थ है कि कुछ है नहीं बोलने को, लेकिन बोले चले जाते हो; क्या करें, चुप होने की आदत नहीं है! क्या करें, चुप होना भारी पड़ता है, बोले चले जाते हैं!
लेकिन फिर एक और बोलना भी है, जब तुम्हारे पास कुछ देने को होता है। वाणी वाहन बनती है। वाणी घोड़ा बनती है।
तो जो शब्द मैं तुम्हारे पास पहुंचा रहा हूं, वे तो घोड़ों की भांति हैं; उन पर बैठा सवार भी कभी-कभी तुम्हें दिखायी पड़ जाता है। वही तुम्हारे हृदय को पकड़ लेता है। वही तुम्हें मंथन में डुबा देता है।
किताब से यह न हो सकेगा; लेकिन किताब से भी हो सकता है, अगर तुम धीरे-धीरे मुझे सुनने में समर्थ हो जाओ। इसलिए मैंने कहा है लोगों को कि मैं जैसा बोलता हूं वैसी ही किताबें रहें, उनमें जरा भी फर्क न किया जाए। उनको बदला न जाए; क्योंकि लिखने का ढंग और होता है, बोलने को ढंग और होता है। बोला हुआ शब्द अलग बात है, लिखा हुआ शब्द अलग बात है। तो मैंने कहा है कि जैसा मैं बोलता हूं, वैसा ही लिखे में हो; ताकि अगर एक बार तुम्हारा मुझसे तारतम्य बंध जाए तो किताब को पढ़ते-पढ़ते भी तुम मुझे सुनने लगोगे। तो जिन्होंने मुझे ठीक से सुना है, वे किताब को पढ़ते वक्त भी किताब को नहीं पढ़ेंगे, मुझे सुनेंगे। किताब उनसे बोलने लगेगी। एक बार तुमने मुझे अपने हृदय में जगह दे दी, तो फिर किताब से भी मैं तुम्हारे पास आ सकूंगा। बिना किताब के भी आ सकूंगा। तुमने जरा मेरी याद की तो भी पास आ जाऊंगा। तुम पर निर्भर है।
और जब मैं कहता हूं "अगर ठीक से सुना', तो मेरा अर्थ है: अगर प्रेम से सुना, सहानुभूति से सुना, सहयोग किया मुझसे, श्रद्धा से सुना, संदेह को हटाकर सुना, अपने मन को हटाकर सुना; कहा अपने मन को कि हट, थोड़ी जगह दे। तो, तो मेरा प्रेम तुम्हें बेहोश भी बनाएगा और मेरा प्रेम तुम्हें होश में भी लाएगा। यह बेहोशी कुछ ऐसी है कि इसमें होश बढ़ता चला जाता है। यह होश कुछ ऐसा है कि इसमें बेहोशी बढ़ती चली जाती है।
हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए
अरे दीवाना हो जाना मुहब्बत में तो आसां है।
प्रेम में पागल हो जाना तो बहुत आसान है। हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए हैं!
मैं तुम्हें जो प्रेम दे रहा हूं, वह एक दर्द है, वह एक पीड़ा है। उस पीड़ा से तुम निखरो! वह एक आग है जो तुम्हें जलाएगी। तुम घबड़ा मत जाना! तुम मेरे साथ चलना, सहयोग करना।
हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए
अरे दीवाना हो जाना मुहब्बत में तो आसां है।
बहुत आसान है पागल हो जाना प्रेम में, लेकिन जागना बड?ा कठिन है! यह प्रेम तुम्हें जगाए तो ही सार्थक हुआ। यह प्रेम तुम्हें उठाए तो ही सार्थक हुआ। यह प्रेम तुम्हें तुम तक पहुंचा दे तो ही सार्थक हुआ। हो सकता है। मेरा हाथ बढ़ा है, तुम भी अपना हाथ बढ़ाओ और उसे पकड़ लो!
आज इतना ही।
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