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बुधवार, 4 अप्रैल 2018

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--06


तुम मिटो तो मिलन हो—प्रवचन—छठवां

प्रश्‍नसार:

1—श्‍याम—श्‍याम रटते जीवन की सांझ हो गयी है, अभी तक मेरा श्‍याम नहीं आया। मुझे उसके दर्शन कराना है।

2—नककटे साधु की कहानी.......क्‍या आपके संन्‍यासियों की यही स्‍थिति नहीं है?

3—भीतर विचारों की भीड़ है और अहंकार से विक्षुब्‍ध हूं..... ?

4—बेमुरोबत बेवफा बेगाना—ए—दिल आप है।.......?

5—बहुत शुक्रिया बहुत मेहेरबानी
   मेरी जिंदगी में हुजूर आप आए।।.....


पहला प्रश्न:

शाम शाम कूकदी नूं जिंदगी दी शाम होई।
आया नहीं शाम मेरा, ओसनूं मिलायो जी।।
"श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी है, अभी तक मेरा श्याम नहीं आया। मुझे उसके दर्शन कराना।' आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो! कहीं चूक न जाऊं!

रमात्मा को पाना मात्र रटन की बात नहीं है। रटने से ही होता होता तो बड़ा आसान होता। रट तो तोते भी लेते हैं। बोध चाहिए! अकेली रटन काम न देगी। रटन ठीक है, उपयोगी है, बहुमूल्य है--लेकिन बोध से संयुक्त हो तभी; अन्यथा रटन यांत्रिक हो जाती है। कोई रटता रहता है श्याम-श्याम-श्याम, लेकिन इस रटन के पीछे और हजार विचार चलते रहते हैं। यह रटन धीरे-धीरे अभ्यास हो जाती है। इसे करने के लिए, रटने के लिए, किसी बोध की जरूरत ही नहीं रह जाती; यंत्रवत सरकती रहती है। तुम न भी चाहो तो होती रहती है। और भीतर गहरे तलों पर हजार-हजार विचार चलते रहते हैं, हजार वासनाएं चलती रहती हैं। जब तक वे भीतर के तल पर विचार और वासनाएं खो न जायें, जब तक रटन अकेली न रह जाये, श्याम के लिए पुकार उठे तो बस पुकार हो, भीतर कुछ और न हो--तब तो पुकारने की भी जरूरत न पड़ेगी, बिन पुकारे परमात्मा पास आ जाता है।
परमात्मा कभी दूर गया नहीं। जो दूर चला जाये वह परमात्मा नहीं। वह सदा तुम्हारे पास है। सब तरफ से उसने ही तुम्हें घेरा है--बाहर भी वही, भीतर भी वही।
जिसे तुम रट रहे हो, वह तो परमात्मा है ही; जो रट रहा है, वह भी परमात्मा है। तो रटन में ज्यादा मत उलझ जाना। पुनरुक्ति कहीं मन को बहुत ज्यादा ग्रसित न कर ले! रटन पर बहुत ज्यादा भरोसा मत कर लेना। उपयोगी है, लेकिन कुछ और भी चाहिए। वह है बोध। वह है ध्यान।
"श्याम-श्याम रटते ही जीवन की सांझ हो गई। अभी तक मेरा श्याम नहीं आया।'
नहीं, पहचान तुम्हारे पास नहीं, श्याम तो बहुत बार आया। श्याम तो आता ही रहा। श्याम तो आता ही रहता है। उसके सिवाय और कोई है ही नहीं जो आये। जो भी आया है उसमें श्याम ही आया है। कोई और तो आयेगा कैसे? सभी उसके रूप हैं। सभी उसके ढंग हैं। सभी उसके रंग हैं। फूल में भी वही। पत्तों में भी वही। पहाड़ों-पत्थरों में भी वही। पशु-पक्षियों में वही। स्त्री-पुरुषों में वही! जहां "कुछ' है, वही है; और जहां कुछ भी नहीं है, वहां भी वही है। इसलिए आने-जाने की भाषा तो हमारे मन की भाषा है।
परमात्मा है: न आता न जाता। जो "है' उसका ही नाम परमात्मा है--जो सदा है, जिसमें कोई गति नहीं है, जिसमें कोई प्रक्रिया-क्रिया नहीं है, जो "मात्र होना' है! इस क्षण भी तुम्हें उसी ने घेरा है। तुम राह किसकी देखते हो? कहीं राह देखने में ही तो नहीं चूक रहे हो? क्योंकि जब आंखें किसी की राह देखती हैं, तो और सब चूक जाता है। तुम अगर अपनी प्रेयसी की राह देख रहे हो द्वार पर बैठकर, तो फिर और कोई नहीं दिखायी पड़ता। राह चलती रहती है। लोग गुजरते रहते हैं। तुम और सबके प्रति अंधे हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारा मन एकाग्र है--किसी वासना में, किसी कामना में, किसी आकांक्षा में, अभीप्सा में, तुम एकजुट एकाग्र हो। तुम राह देखते हो किसी चेहरे की।
तो श्याम तो तुमने पुकारा होगा, लेकिन तुम किसी चेहरे की राह देख रहे हो--बांसुरी धरे हुए आयेगा, मोर-मुकुट लगाकर आयेगा। तो तुम चूके! तुम्हारी इस आकांक्षा में ही, तुम्हारी इस धारणा में ही पर्दा है। तुम्हारी कोई निश्चित मनोदशा है, जिसमें तुम मांग कर रहे हो, ऐसा होना चाहिए।
कहते हैं, तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले गये, तो वे झुके नहीं। तुलसीदास जैसा समझदार आदमी भी नासमझी कर गया। झुके नहीं, क्योंकि वे राम के भक्त थे, कृष्ण की मूर्ति के सामने झुकें कैसे! खड़े रहे, अड़े रहे। वे तो एक को ही पहचानते थे--धनुर्धारी राम को। यह मुरली-मुरारि को, यह मुरलीधारी को, वे पहचानते न थे, मानते भी न थे। कैसे झुकें!
कहानी बड़ी मधुर है। कहानी यह है कि उन्होंने कहा कि तुम जब धनुष-बाण हाथ लोगे, तभी मैं झुकूंगा, नहीं तो मैं न झुकूंगा। मैं तो एक का ही भक्त हूं।
कहानी कहती है कि तुलसीदास के लिए कृष्ण ने हाथ में धनुष-बाण लिया, मूर्ति बदली। मुरली खो गई, मोर-मुकुट खो गया, धुनर्धारी राम प्रगट हुए--तब, तब तुलसीदास झुके। मैं नहीं मानता हूं कि मूर्ति बदली होगी। तुलसीदास ने ही कोई सपना देखा होगा।
कहीं परमात्मा तुम्हारे पक्षपातों के अनुसार ढलता है? तुम परमात्मा को आज्ञा दे रहे हो? तुम परमात्मा को कह रहे हो कि अगर मेरी स्तुति चाहिए हो तो इस ढंग से आ जाओ! ऐसे पीत वस्त्र पहनकर, पीतांबर होकर खड़े होना; ऐसा नील वर्ण हो तुम्हारा, ऐसी तुम्हारी आंखें हों, इस तरह से खड़े होना। तुम मुद्रा, ढंग, रूप-रंग, सब तय किये बैठे हो, इसलिए परमात्मा से चूक रहे हो। लोग धार्मिक होने के कारण धर्म से चूक रहे हैं। क्योंकि धार्मिक होने में वे सांप्रदायिक हो गये हैं और उन्होंने एक रुख पकड़ लिया है।
मेरी सारी चेष्टा यहां यही है कि तुम्हारे पक्षपात विसर्जित हो जायें। तुम मांग न करो। तुम कहो, तू जिस रूप में आयेगा, हम पहचानेंगे। तू हमें धोखा न दे पायेगा! तू धनुष-बाण लेकर आयेगा, कोई हर्ज नहीं, तो भी पहचानेंगे। तू मुरली हाथ में लेकर आयेगा तो भी पहचानेंगे। तू महावीर की तरह नग्न खड़ा हो जायेगा, न धनुष-बाण होंगे न मुरली होगी, तो भी हम पहचानेंगे। तू जीसस की तरह सूली पर लटक जायेगा, तो भी हमें धोखा न दे पायेगा!
धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं, जिसने परमात्मा को चुनौती दे दी कि अब तू हमें धोखा न दे पायेगा, हम पहचान ही लेंगे! तू जिस रूप में आये, आ जाना; क्योंकि हमने अब एक बात समझ ली है कि सभी रूप तेरे हैं।
फिर तुम कैसे चूकोगे? फिर जिंदगी की शाम कभी न होगी। फिर जिंदगी सदा सुबह ही बनी रहेगी।
शंकराचार्य के जीवन में एक उल्लेख है।
कल ही मैं सांझ उनकी कहानी कह रहा था। शिष्यों को समझा रहे हैं। कुछ ऐसा उलझा हुआ प्रश्न खड़ा हो गया है। तो उन्होंने दीवाल पर कलम उठाकर एक चित्र बनाया--समझाने के लिए। चित्र में बनाया एक वृक्ष--बोधिवृक्ष। उसके नीचे बैठाया एक युवा संन्यासी को--गुरु की तरह। और फिर उस चित्र के आसपास, युवा संन्यासी के आसपास, बिठाये बड़े बूढ़े शिष्य, जीर्ण-जर्जर, बड़े प्राचीन! एक शिष्य ने खड़े होकर कहा, "यह आप क्या कर रहे हैं? शायद आप चूक गये। इस युवक संन्यासी को गुरु और इन बूढ़े वृद्ध ऋषि-मुनियों को शिष्य! आपसे कुछ गलती हो गई है।'
शंकर ने कहा, गलती नहीं हुई, जानकर बना रहा हूं। क्योंकि शिष्य सदा बूढ़ा है। क्योंकि शिष्य का अर्थ है: मन। मन बड़ा प्राचीन है। मन बड़ा पुराना है। मन यानी पुराना। मन यानी अतीत। मन यानी जो हो चुका, उसकी धूल-धवांस; जो जा चुका उसके रेखा-चिह्न; जो बीत चुका उसके पद-चिह्न।
मन का अर्थ ही है: जो बीत चुका, उसकी लकीरें। बड़ा पुराना है मन!
शिष्य के पास मन है। गुरु का मन खो गया है, तो अतीत खो गया। तो शंकर ने कहा, "गुरु तो सदा नित-नवीन है, युवा है, किशोर है।' इसलिए तुमने देखा! राम की तुमने कोई बूढ़ी प्रतिमा देखी? बूढ़े कभी तो हुए होंगे! कोई जगत नियम तो नहीं बदलता--किसी के लिए नहीं बदलता। कृष्ण की तुमने बूढ़ी प्रतिमा देखी? निश्चित बूढ़े हुए थे, अस्सी वर्ष के हो गये थे, तब तीर लगा और मरे। बुद्ध की तुमने बूढ़ी प्रतिमा देखी? महावीर की तुमने बूढ़ी प्रतिमा देखी? नहीं, हमने कोई बूढ़ी उनकी प्रतिमा नहीं बनायी। इसलिए नहीं कि वे बूढ़े नहीं हुए थे; बूढ़े तो हुए थे, लेकिन हम पहचान गये कि उनके भीतर जो घटा था वह नित नवीन था। सद्यःस्नात! अभी-अभी नहाया हुआ! इसी क्षण जन्मा!
मन तो पुराना है। मन की धारणाएं पुरानी हैं। परमात्मा प्रतिपल नया है--नयी फूटती कोंपल की भांति! नयी खिलती कली की भांति!
छोड़ो धारणाएं मन की, तो तुम उसे सब तरफ से आते पाओगे। हर पगध्वनि में उसी की पगध्वनि सुनायी पड़ेगी। कोयल के मधुर कंठ में ही नहीं, कौवे की कांव-कांव में भी वही है। और जब तक तुम कौवे में न पहचान पाओगे, तब तक तुम जानना, पहचान पक्की न हुई। राम में ही नहीं, रावण में भी वही है। और जब तक तुमने कहा कि रावण में नहीं है, तब तक तुम राम में भी न पहचान पाओगे।
तुलसीदास ने तो हद्द कर दी नासमझी की! कृष्ण में भी न पहचान पाये राम को, तो रावण में तो कैसे पहचान पायेंगे! महाकवि रहे होंगे, जाग्रत पुरुष नहीं। काव्य की महिमा है उनकी। बड़े सुंदर उनके वचन हैं। लेकिन कहीं कुछ चूका-चूका है, कहीं कुछ खोया हुआ है--अनुभव खोया हुआ है।
फिर जीवन की कभी शाम न होगी, अगर परमात्मा से पहचान हो गयी। जीवन की सांझ होती है, सुबह होती है, परिवर्तन होता है, जन्म और मौत होती है; क्योंकि उससे हमारी पहचान नहीं हो पाती, जो सनातन है, शाश्वत है।
"शाम शाम कूकदी नूं जिंदगी दी शाम होई।
आया नहीं शाम मेरा, ओस नूं मिलायो जी।।'
श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी, अब तो जागो! रटन से कुछ भी न होगा। देखो! दर्शन चाहिए! आंख चाहिए! तुम्हारी रटन के कारण ही श्याम बहुत बार आया और लौट गया। उसने कहा, अरे! यह तो अभी भी रट रही है! अभी भी खाली नहीं है! अभी भी मन इसका मुक्त नहीं है, शांत नहीं है! अभी भी किसी श्याम-श्याम, को रट रही है!
तुम्हारी रटन के कारण ही तो पर्दा खड़ा हो गया है। तुम अपनी रटन में इतने लीन हो कि तुम्हें फुर्सत कहां कि तुम जरा आंख खोलो और देखो कि कौन आया है! रटन जब वस्तुतः हार्दिक होती है तो रटन होती ही नहीं। आवाज कहां उठती है! बोल कहां उठते हैं! सब खो जाता है, सन्नाटा हो जाता है।
परमात्मा की खोज में निकले खोजी, परमात्मा को पाने के पहले खुद खो जाते हैं।
वे ही उसे पाते हैं जो अपने को खो देते हैं।
रटन का हिसाब छोड़ो। माला कितनी जपी, यह फिक्र छोड़ो। कितनी बार उसका नाम लिया, यह फिक्र छोड़ो
मैं एक घर में मेहमान था। तो पूरा घर शास्त्रों से भरा पड़ा था। तो मैंने कहा, "बड़े शास्त्र हैं, क्या मामला है? कौन-कौन से शास्त्र हैं।' उन्होंने कहा, "कुछ नहीं, सब शास्त्रों में राम-राम लिखा है।' वे जिनके घर मैं ठहरा था, वे राम-भक्त थे। तो उनका काम ही है यह चौबीस घंटे, वे और कोई काम नहीं करते, वे किताब लिये बैठे रहते हैं: राम-राम-राम-राम...। हजारों किताबें उन्होंने खराब कर दी हैं। मैंने उनसे कहा, बच्चों को दे देते, पढ़ने के काम आ जातीं, स्कूल में बांट देते--ये तुमने खराब क्यों कर दीं? अपना भी समय खराब किया। और मैंने उनसे कहा, देखो तुम ऐसे लिखते रहते हो चश्मा चढ़ाये, क्योंकि आंखें धुंधली हो गई हैं, बूढ़े हो गये--राम कई दफे आता है, लौट जाता है। तुम्हें कभी फुर्सत में नहीं पाता। तुम्हें राम-राम लिखने से फुर्सत मिले, तब न! राम हटे तो राम मिले! श्याम हटे तो श्याम मिले! तुम मिटो तो मिलन हो!
थक थक के हर मुकाम पे दो-चार रह गये
तेरा पता न पाएं तो नाचार क्या करें!
यह तसव्वुफ की भाषा है, प्रेम की, सूफियों की!
थक थक के हर मुकाम पे दो-चार रह गये।
परमात्मा की खोज में जो निकलता है, एक घड़ी आती है थक जाता है, खो जाता है।
थक थक के हर मुकाम पे दो-चार रह गये।
तेरा पता न पाएं तो नाचार क्या करें।
हम असहाय करें भी क्या, तेरा पता तो मिलता नहीं। खोजते-खोजते खुद ही खो जाते हैं, अपना ही पता खो जाता है।
लेकिन जिस क्षण अपना पता खो जाता है, उसी क्षण सब दिशाओं से उसकी मंगल वर्षा होने लगती है। मंगल वर्षा तो पहले भी हो रही थी, लेकिन हम भरे थे, हम किन्हीं खयालों से दबे थे।
ईश्वर की सभी धारणाएं छोड़ दो अगर ईश्वर को चाहते हो। अगर सत्य को पहचानना है तो शास्त्र को हटाओ। अगर उसे देखना है जो अभी खड़ा है तुम्हारे सामने; जो हवा के झोंके में तुम्हें सहला गया है; जो पक्षियों के कलरव में तुम्हें बुला रहा है; सूरज की किरण में जिसने अपना हाथ फैलाया है और तुम्हारा स्पर्श किया है--अगर उसे देखना है, उस सहस्रबाहु को, उस अनंत को, तो तुम सारी धारणाओं को हटाओ। तुम नग्न हो जाओ, निर्वस्त्र--धारणाओं से बिलकुल निर्वस्त्र। यही तो महावीर होने का अर्थ है--निर्ग्रंथ, नग्न, दिगंबर!
जैनों ने बड़ी उलटी बात पकड़ ली। वे समझे कि बस वस्त्र छोड़कर नग्न खड़े हो जाने पर महावीर की नग्नता पूरी हो जाती है। महावीर की नग्नता तब पूरी होती है जब चित्त के सारे वस्त्र उतर जाते हैं।
तुमने कृष्ण की कहानी पढ़ी है? गोपियां स्नान कर रही हैं, वे उनके वस्त्र चुराकर वृक्ष पर बैठ गये हैं। अश्लील मालूम होती है। आज करें तो पुलिस पकड़ेगी। चल गई उन दिनों, अब न चलेगी। और स्त्रियां ही मुश्किल में डाल देंगी। लेकिन कहानी का अर्थ बड़ा गहरा है। कृष्ण यह कह रहे हैं, जो मेरे प्रेम में पड़ेगा उसके मैं वस्त्र छीन लूंगा। गोपी यानी जो उनके प्रेम में है। कृष्ण कह रहे हैं कि तुम्हारे वस्त्र छीन लूंगा, तुम्हें निर्वस्त्र करूंगा। कृष्ण कह रहे हैं कि जब तक तुम्हारे पास कुछ भी है तुम्हारा, जिसमें तुम अपने को छिपा लो, तब तक मुझसे मिलन न हो सकेगा।
वस्त्र का अर्थ होता है; जिसमें तुम अपने को छिपा लो, ढांक लो। निर्वस्त्र होने का अर्थ है: छिपाने को कुछ भी न रहा, ढांकने को कुछ भी न रहा; हमने खोला अपना हृदय, सारे शब्द, सारे सिद्धांत हटा डाले। तुम जब कहते हो, मैं हिंदू हूं, तो तुम मन पर कुछ वस्त्र पहने हुए हो। तुम्हारा मन नग्न नहीं। तुम्हारी चेतना का कुछ आवरण है। जब तुम कहते हो, मैं जैन हूं, तब तुम सत्य के लिए खुले नहीं। तुम कहते हो, सत्य के प्रति मेरी कुछ धारणा है; जब सत्य उस धारणा को पूरा करेगा तो ही मैं मानूंगा कि सत्य है: तुम भटकोगे फिर। एक सांझ नहीं, हजारों सांझ होंगी रटते-रटते, पहुंचना न होगा।
खोने की तैयारी करो! मिटने की तैयारी करो! एक-एक इंच अपने को गलाओ
खोजनेवाला खो जाये, यही शर्त है उसे पाने की।
और फिर से तुम्हें दोहरा दूं, परमात्मा आता-जाता नहीं। आने-जाने की क्रिया संसार है। सदा होने की स्थिति परमात्मा है। जो आता है जाता है, उसी को तो हम मन कहते हैं। जो न आता न जाता, जो सदा है, वही तो चैतन्य है। बादल आते हैं, घिरते हैं, घुमड़ते हैं, नाचते हैं, बिजलियां चमकती हैं, फिर विदा हो जाते हैं! अब आषाढ़ आता है जल्दी; घिरेंगे बादल, घुमड़ेंगे, घड़ी भर को बड़ा रौरव मचायेंगे, बड़ा शोरगुल करेंगे--फिर जा चुके होंगे। जो बचा रहता है वही आकाश है। कितनी बार बादल घिरे और कितनी बार गये! आये और गये--वही संसार है। जो बचा रहा है पीछे, अछूता, अस्पर्शित, पोखर के कमल के पत्तों जैसा, जिस पर कोई बादल की छाया भी न छूटी और जिसे बादल मलिन भी न कर पाये, जिस पर बादलों की स्मृति भी नहीं है...!
आज आकाश को देखो, तो क्या तुम सोचोगे इस पर अरबों-खरबों वर्षों से बादल घिरते रहे हैं? निष्कलुष! निर्मल! कुंआरा! कुंआरा का कुंआरा! इसका कुंआरापन कभी भी खंडित नहीं हुआ। बादल आये और गये, इसके पास उनकी कोई स्मृति भी नहीं है।
ऐसा ही है परमात्मा। हम आते हैं जाते हैं--परमात्मा है।
हम बहुत बार आये हैं, बहुत बार गये हैं--आषाढ़ के बादल--कभी बहुत शोरगुल मचाया--नेपोलियन, चंगेज, तैमूर! कभी चुपचाप भी आकर चले गये--कपसीले बादल--कोई शोरगुल भी न मचाया, वर्षा भी न की, साधारण! कभी बिजलियां कौंधी, बड़ा रौरव किया, बड़ा रौद्र रूप दिखाया; कभी चुपचाप सपनों जैसे तैर गये, न कोई रौरव नाद किया, न कोई शोरगुल मचाया, किसी को पता भी  न चला! कभी इतिहास बनाया उपद्रव का, कभी चुपचाप गुजर गये, कानों-कान किसी को खबर भी न मिली आने-जाने की। पर हर हालत में हम आये और गये।
उसे जानना है, जो न आया और न गया।
झेन फकीर हुआ: तोझान ओसो! वह बड़ा बहुमूल्य फकीर था! कहते हैं जब तोझान ओसो समाधि को उपलब्ध हुआ, परमज्ञान को उपलब्ध हुआ, निर्वाण पा लिया उसने, खो गया सब भांति, बचा वही जो सदा है--तो कहते हैं, देवलोक में देवता आतुर हुए तोझान को देखने को--होना ही चाहिए। क्योंकि देवता कितने ही सुंदर हों, अभी बादल ही हैं; कितने ही स्वर्णमंडित हों, अभी बादल ही हैं; कितने ही सुखमय हों, अभी सपने में ही हैं। उत्सुक हुए तोझान का चेहरा देखने को। जब भी कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो देवता उत्सुक होते हैं। उनको भी आकांक्षा जगती है। क्योंकि यह परम घटना घटी। तो देवता आये तोझान के आश्रम में। उन्होंने सब तरफ से चेष्टा की तोझान को देखने की, पहचानने की; लेकिन कोई चेहरा दिखायी न पड़े। आकाश का कहीं कोई चेहरा है! बादल हो तो रूप-रंग, रेखा, आकृति...। आकाश तो निराकार है। तोझान तो आकाश हो गया। उन्होंने सब तरफ से...उसके भीतर गये, बाहर गये, सब तरफ से खोजा, कुछ भी न पाया।  सन्नाटा है, अनंत सन्नाटा है, शून्य है! वे बड़े चिंतित हुए कि क्या हमें दर्शन न होंगे। उसी में से गुजरते थे और उसके दर्शन न हो रहे थे। उसी के आसपास परिक्रमा कर रहे थे और उससे पहचान न हो रही थी! भीतर-बाहर आ जा रहे थे, लेकिन सब सूना सन्नाटा था। मंदिर ही बचा था, प्रतिमा तो खो गई थी--दर्शन किसके हों! राम बचा था, धनुष-बाण खो गये थे, प्रतिमा खो गई थी। कृष्ण बचा था, बांसुरी न बची थी, गीता न बची थी। गीता पर रखी बांसुरी खो गई थी।
आखिर देवताओं में जो सब से ज्यादा कुशल था, उसने कहा, "ठहरो! कुछ उपाय करना पड़ेगा। ऐसे तो दर्शन न होंगे।'
तोझान घूमने निकला था। सुबह की बेला! नया-नया ऊगा सूरज! पक्षियों के गीत! तोझान लौट रहा था आश्रम की तरफ। उस चालाक देवता ने आश्रम के चौके से कुछ चावल मुट्ठियों में भर लिये, कुछ गेहूं मुट्ठी में भर लिये और आकर तोझान के रास्ते पर उन्हें फेंक दिया।
अब...झेन आश्रम में बड़ी सावधानी बरती जाती है। क्योंकि प्रत्येक चीज का अपरिसीम सम्मान है। अन्न तो ब्रह्म है। इसलिए कोई झेन साधु, कोई झेन साधक ऐसे चावल और गेहूं को फेंक नहीं सकता रास्ते पर। इसमें कोई अर्थशास्त्र का सवाल नहीं है। यह कोई गांधीवादी बचायत और किफायत नहीं है। यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि प्रत्येक चीज का समादर है। यह कोई कंजूसी नहीं है। अर्थशास्त्र से इसका कोई लेना-देना नहीं है। इसका संबंध तो बड़े अध्यात्म से है। प्रत्येक चीज का सम्मान! तो भोजन करते वक्त भोजन को भी नमस्कार कर के ही भोजन शुरू करना है। भोजन करते वक्त पहले परमात्मा को भोग लगा देना है, तब भोजन शुरू करना है। आज फिर उसने अवसर दिया! आज फिर घड़ी आई भोजन की! एक दिन और मिला! उसकी अनुकंपा अपार है--ऐसे भाव से।
तो किसने फेंके ये चावल के दाने? आश्रम में ऐसा कभी भी न हुआ था। तो तोझान के मन में विचार उठा देखकर, किसने फेंके ये चावल के दाने, किसने फेंके ये गेहूं। कहते हैं, उसी वक्त देवताओं ने उसके दर्शन कर लिये। क्योंकि जब विचार उठा तो बादल घिरा। जब बादल घिरा तो आकृति आ गई। उस वक्त पकड़ लिया देवताओं ने तोझान को। एक क्षण को ही उठी लहर, पर उठ गई। एक क्षण को कुछ सघन हो गया, भीतर एक तनाव आ गया: किसने, क्यों फेंके ये? यह कैसी गैर-सावधानी है? यह कौन है जो असावधानी से जी रहा है? एक प्रश्न उठ गया। एक समस्या आ गई। एक चिंता आ गई। बादल घिरे। क्षणभर को सब अंधेरा हो गया। उस क्षण में देवताओं ने दर्शन कर लिये। फिर खुल गये बादल।
तोझान हंसा। उसने कहा, "तो अच्छा, यह शरारत है!' उसने देवताओं से कहा, "अच्छा तो यह शरारत है!' क्योंकि जब तोझान का चेहरा आया और देवताओं ने तोझान को देखा, तो तोझान ने भी देवताओं को देख लिया। उसने कहा, "अच्छा, तो यह तुम्हारी शरारत है!'
जरा-सा विचार, और तनाव पैदा हो जाता है। निर्विचार, कि आकाश पैदा हो जाता है।
तो श्याम-श्याम रटने से कुछ भी न होगा। रटन ही तनाव बनेगी, बादल बनेगी। राम चदरिया ओढ़ लेने से कुछ भी न होगा। सब चादर उतार देनी है।
जिस क्षण तुम्हें पता भी न रहेगा कि परमात्मा की प्रतिमा कैसी, नाम भी याद न रहेगा कि उसका नाम क्या है, उसका धाम क्या है, पता-ठिकाना क्या है; जिस क्षण तुम अबूझ, आश्चर्यचकित, अवाक, मौन, निराकार में खड़े हो जाओगे--फिर कोई सांझ न होगी; फिर सुबह ही सुबह है।
परमात्मा के जगत में सुबह ही सुबह है; आदमी के जगत में सांझ ही सांझ है। आदमी के जगत में सुबह होती है सिर्फ सांझ को लाने के लिए। आदमी के जगत में जन्म होता है केवल मृत्यु की तरफ जाने के लिए। यहां जन्म भी मौत की तरफ एक कदम है। यहां सुख भी केवल दुख को पाने की व्यवस्था है। परमात्मा के जगत में फिर कोई सांझ नहीं है, वह तो सदा ही मौजूद है।
उलटा उधर नकाब तो परदे इधर पड़े
आंखों को बंद जलवए-दीदार ने किया।
तुम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? उसका ही जलवा है। उसके ही दर्शन की रोशनी है सब तरफ। तुम किसे खोजते हो? कहीं उसकी रोशनी के कारण तुम आंखें बंद किये तो नहीं बैठे?
उलटा उधर नकाब तो परदे इधर पड़े।
परमात्मा जैसे ही अपना घूंघट उठाता है, तुम्हारी आंखें बंद हो जाती हैं।
उलटा उधर नकाब तो परदे इधर पड़े
आंखों को बंद जलवए-दीदार ने किया।
उसकी रोशनी तुम झेल नहीं पाते, आंख बंद कर लेते हो। जिस दिन तुम उसकी रोशनी झेल पाओगे, कंकड़-पत्थर में भी उसे छिपा पाओगे। कंकड़-पत्थर मानकर तुमने अपनी आंखें बंद कर ली हैं। फिर से खोलो। आंख खोलो! दर्शन को उपलब्ध होओ!
जिन्होंने उसे पाया है, वे कहते हैं: दो दुख हैं जीवन में। एक, उसे पाने के पहले; एक, उसे पाने के बाद। पाने के पहले का दुख नकारात्मक है। पाने के बाद का दुख बड़ा विधायक है। पाने के बाद के दुख में बड़ा रस है। उस पीड़ा में बड़ी मधुरता है, मधुरिमा है। इसलिए तो नारद कहते हैं, भक्त भगवान से प्रार्थना करता है: "मेरे विरह को मत मिटा देना।' यह पाने के बाद की पीड़ा है। तब एक खेल शुरू होता है। वह खो-खोकर फिर-फिर पाता है; आंख बंद-बंद करके फिर खोलता है।
तुमने कभी खयाल किया! कोई बहुत चमत्कारी अनुभव होता हो, बड़ी गहन सुबह हुई हो, सूरज निकला हो, बड़ा प्रीतिकर हो वातावरण--तुम देखते हो, फिर तुम आंख बंद करके, फिर खोलकर देखते हो। एक क्षण को आंख बंद कर लेते हो ताकि खो जाये, ताकि आंख ताजी हो जाये। फिर देखते हो।
परमात्मा को जिन्होंने पाया है, वे कहते हैं: दो दुख हैं। एक तो उसे पाने के पहले का दुख। वह कुछ भी नहीं है। वह तो सिर्फ उजाड़ रेगिस्तान जैसा था। एक उसे पाने के बाद का दुख। क्योंकि पाने के बाद, और पाने की अदम्य लालसा जगती है। यह कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि पूरी हो जाती है कभी। परमात्मा कुछ ऐसा थोड़े ही है कि पा लिया, पा लिया। इधर तो पाया कि और भी पाने की आकांक्षा जगती है। यह तो सागर अंतहीन है। इसका कोई कूल-किनारा नहीं है।
जाहिरा दुनिया जिसे महसूस कर सकती नहीं
हो गई है मुझमें इक ऐसी कमी तेरे बगैर।
मगर यह तो जानने के बाद की बात है। जानने के पहले तो हमें पता ही नहीं कि हम क्या खो रहे हैं। जानने के पहले तो हमें पता ही नहीं है कि हम सम्राट हैं और भिखारी की तरह भटक रहे हैं। जानने के बाद--
जाहिरा दुनिया जिसे महसूस कर सकती नहीं
हो गई है मुझमें इक ऐसी कमी तेरे बगैर
तुझसे छुटकर कितना फीका पड़ गया है रंगेगुल
हो गई बेले की कलियां सांवली तेरे बगैर
कल जहां जर्रा-जर्रा तूरदर आगोश था
आज इस घर में नहीं है रोशनी तेरे बगैर
दिल नहीं झुकता है पहले की तरह सजदों के साथ
नामुकम्मिल है मजाके-बंदगी तेरे बगैर।
और तो और, प्रार्थना में भी मन नहीं लगता अब। जिसने परमात्मा की एक झलक पा ली, फिर प्रार्थना में भी मन नहीं लगता; क्योंकि प्रार्थना में भी उसकी कमी ही खलती है।
दिल नहीं झुकता है पहले की तरह सजदों के साथ
नामुकम्मिल है मजाके-बंदगी तेरे बगैर।
किसी को दिखाई भी न पड़ेगा बाहर से। परमात्मा को पाना, संसार में कुछ पा लेने जैसी बात नहीं है। एक मकान बना लिया, बना लिया--बात खतम हो गई। एक पत्नी से विवाह करना था, रचा लिया--बात खतम हो गई। परमात्मा से तो सिर्फ बात शुरू होती है, खतम कभी नहीं होती। इसलिए तो कहता हूं: सुबह ही सुबह है, सांझ नहीं आती। यात्रा का प्रारंभ तो है, फिर अंत नहीं है। सागर में उतरते तो हैं, लेकिन फिर किनारा नहीं मिलता। लेकिन तब एक तरफ तो पीड़ा भी सालती है कि और मिल जाये, गहन अतृप्ति जगती है, एक दिव्य असंतोष पैदा होता है; और दूसरी तरफ हर तरफ से उसकी झलक भी आने लगती है। रह-रहकर उसके झोंके आ जाते हैं हवा के। रह रहकर उसकी गंध तैर जाती है।
बहार जब भी चमन में दीये जलाती है
हुजूमे-गुल से मुझे तेरी आंच आती है।
बहार जब भी चमन में दीये जलाती है--जब बसंत आ जाता है और बगीचों में दीये जलते हैं, फूलों के दीये जलते हैं...हुजूमे-गुल से मुझे तेरी आंच आती है। तब फूलों के गुच्छों से मुझे तेरी आंच आती है। हर तरफ जीवन उसी की आंच देने लगता है। हर श्वास उसी की श्वास है। हृदय में दौड़ते हुए रक्त-कण उसी के हैं। तो एक तरफ तो सब तरफ से उसकी खबर मिलने लगती है; और दूसरी तरफ, और चाहिए, और चाहिए, और चाहिए, क्योंकि दूसरा किनारा नहीं मिलता।
भक्त भगवान को पाकर और भी विरह में पड़ जाता है। यह भक्ति का विरोधाभास है। जिन्होंने नहीं पाया है, वे तो कभी-कभी रोते हैं उसके लिए, कभी-कभी श्याम-श्याम की रटन करते हैं; जिन्होंने पाया है, उनके रोने का तुम्हें कुछ पता ही नहीं। वे रोते ही रहते हैं। कभी रोते हैं, कभी नहीं रोते--ऐसा नहीं; रोते ही रहते हैं। रटन करते हैं, ऐसा भी नहीं है; लेकिन फिर भी रटन होती रहती है। दूर गहन गहरे हृदय में पुकार चलती ही रहती है।
परमात्मा एक अनंत यात्रा है; ऐसा तीर्थ है जिसकी तरफ हम चलते तो हैं, लेकिन कभी पहुंच नहीं पाते। परमात्मा गंतव्य नहीं है। हम उसकी तरफ गति करते हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि हम कह दें, बस अब आगे और नहीं। अगर ऐसा होता तो परमात्मा को अनंत कहने का कोई भी अर्थ न था। अगर आगे और नहीं तो परमात्मा भी शांत है, पूरा हो गया। नहीं, सदा शेष है। यही दुविधा भी है, यही सौभाग्य भी। नहीं तो सोचो, जिसने पा लिया वह क्या करता? ऊबकर, थककर बैठ जाता: "अब क्या करूं? अब कहां जाऊं? अब क्या बनूं? अब क्या हो जाऊं? अब किसको खोजूं?'
अनंत है। रोज-रोज नये-नये शिखर उसके पुकारते हैं। रोज नयी चुनौती आ जाती है। वह बुलाता ही चला जाता है। तुम पास भी आते चले जाते हो और फिर भी उसे छू नहीं पाते।
"आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो! कहीं चूक न जाऊं...!'
चूकने का उपाय नहीं है।  हां, तुम मानना चाहो तो माने रह सकते हो कि चूके हो। चूकना तुम्हारी भ्रांति है। जिस दिन जानोगे उस दिन हंसोगे--हंसोगे इस मूढ़ता पर कि अब तक कैसे मैंने माने रखा कि चूक गये थे, परमात्मा को चूक गये थे, भूल गये थे! यह कैसे संभव हुआ था कि अब तक मैं समझ न पाया था कि वह हमेशा मौजूद है, सब तरफ मौजूद है!
कबीर कहते हैं कि मुझे देख-देखकर बड़ी हंसी आती है कि मछली सागर में प्यासी है। मछली सागर में प्यासी है! और सागर को मछली खोज रही है, कहां है।
ईश्वर की सारी खोज ऐसे ही है जैसे मछली सागर को खोजती हो, कहां है। इतने निकट है कि खोजने का अवकाश भी कहां है! मछली सागर से ही बनती है, सागर में ही पैदा होती है। सागर ही मछली के भीतर भी लहरें लेता है, बाहर भी लहरें लेता है। फिर सागर में ही लीन हो जाती है एक दिन, खो जाती है। सागर की ही एक लहर है मछली--थोड़ी ज्यादा ठोस, थोड़ी ज्यादा देर टिक जानेवाली--थोड़े ज्यादा दिन उछल-कूद कर लेती है और लहरों की बजाय; लेकिन लहर सागर की है।
इसलिए घबड़ाओ मत। चूकने का उपाय नहीं है। मैं तुम्हें जो समझा रहा हूं, वह पाने का उपाय नहीं बता रहा हूं; तुम्हें सिर्फ यह समझा रहा हूं कि तुमने चूकने के लिए जो उपाय बना रखे हैं, वे छोड़ दो। साधारणतः लोग कहते हैं कि हमें विधि बताओ कि कैसे हम परमात्मा को पा लें। मैं तुमसे कहता हूं, मैं तुम्हें जो विधि बतला रहा हूं, वह परमात्मा को पाने की नहीं है; क्योंकि उसको तो कभी खोया नहीं, वह तो बात ही छोड़ दो, वह बकवास तो मेरे सामने उठाओ ही मत। कोई मछली मुझसे पूछे सागर कहां है, मैं जवाब देनेवाला नहीं हूं; क्योंकि मैं क्यों फिजूल पंचायत में पडूं। वह तो नासमझ है ही और मुझको भी नासमझ बनाने की तैयारी है। तो मैं तो यही समझने की कोशिश करूंगा कि यह मछली कैसे भूल गई है, यह मछली कैसे अपरिचित रह गई है! इसके अपरिचय को तोड़ देना है।
परमात्मा से परिचय थोड़े ही बनाना है; अपने अपरिचय के जो ढंग हैं, वे तोड़ देने हैं। पर्दे उठा लेने हैं, जो हमने डाले हैं--परमात्मा तो सामने ही है। उसके चेहरे पर कोई घूंघट नहीं है, हमारी ही आंखों पर पर्दा है। फिर पर्दा डाले तुम कहीं भी घूमते रहो, काशी कि काबा, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी आंख पर पर्दा है, तुम जहां जाओगे--तुम्हारी आंख का पर्दा... तुम्हारी आंख का पर्दा जन्मों-जन्मों तक तुम्हें घेरे रहेगा।
इसलिए यह तो पूछो ही मत कि कहीं चूक न जाऊं। कोई उपाय नहीं चूकने का। अब तक कोई चूक ही नहीं पाया है। हां, लेकिन तुम अगर मानना चाहो कि चूक गये हैं तो क्या करे, सागर भी क्या करे? मछली को कैसे समझाये कि मैं यहां हूं? मछली की अगर यही मौज है कि चूकना चाहती है, चूकती रहे।
और कहा है, आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो। अस्वीकार कर सकता होता तो स्वीकार करता। मुझसे लोग पूछते हैं कि आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं! करूं क्या? अस्वीकार करने का उपाय नहीं है। किसको अस्वीकार करूं? मैं तो उनको भी देना चाहता हूं, जो लेने नहीं आये हैं, मगर क्या करूं! जो आ जाता है उसको इनकार करने का तो सवाल कैसे उठे? तुम्हारे आने के पहले भी तुम्हें स्वीकार किया हुआ है। ऐसा नहीं है कि तुम्हारे बाबत सोचता था कि तुम्हें स्वीकार करना है। स्वीकार मेरी भाव-दशा है। ऐसे एक-एक आदमी के बाबत तो सोचूंगा भी कैसे कि किस-किसको स्वीकार करूं? स्वीकार मेरी भाव-दशा है। अस्वीकार करने का मेरे पास उपाय नहीं है। निर्णय तुम्हारा है, इकतरफा है। मुझे स्वीकार कर लो या मुझे अस्वीकार कर दो, यह तुम्हारी बात है। मेरी तरफ से तुम स्वीकृत हो, स्वीकार करो तो, अस्वीकार करो तो।
और घबड़ाओ मत। प्यास आ गयी है तो पानी भी आयेगा। जाननेवाले तो कहते हैं, पानी पहले आ गया होगा, तभी प्यास आयी है। क्योंकि जाननेवाले कहते हैं, परमात्मा बच्चे को पैदा करता है, उसके पहले मां के स्तन में दूध भर देता है। देखा है चमत्कार! रोज घटता है, लेकिन देखते नहीं! इधर मां गर्भवती हुई, उधर बच्चा बढ़ने लगा। अभी बच्चा आया भी नहीं है बाहर, अभी दूध पीनेवाला तैयार ही हो रहा है, अभी रास्ते पर है--लेकिन दूध तैयार हो गया! मां के स्तन दूध से भर जाते हैं। बच्चा जब आयेगा तब आयेगा, लेकिन परमात्मा तैयारी पहले से कर लेता है।
ऐसा ही सारे जीवन में है। तुम नाहक ही दौड़-धूप करते हो। यह बात अलग है, तुम नाहक शोरगुल मचाते हो। वह तो बच्चे को भी थोड़ी बुद्धि हो तो वह भी बड़ी चिंता करेगा गर्भ में पड़ा-पड़ा कि पता नहीं, अब जन्म के बाद क्या होता है, देखें! न तो कोई बैंक-बैलेंस है, न कोई जान-पहचान है, अपरिचित दुनिया में जाते हैं, भाषा भी पता नहीं कि क्या भाषा बोलनी पड़ेगी! किस तरह के लोगों से मिलना होगा, कुछ पता नहीं है। तो बच्चा भी अगर समझदार हो जाये, जैसा कि कुछ लोग समझदार हैं, तो रुक जाये वहीं कि जाना नहीं। यहां सब मजे से चल रही है, ठीक से चल रही है, कहां की झंझट उठानी! भूख लगेगी तो कौन दूध देगा! प्यास लगेगी तो कौन पानी देगा!
मां के पेट में तो श्वास भी मां ही लेती है, उसी से बच्चे को आक्सीजन मिलती है। श्वास भी वह खुद नहीं लेता। मां के ही भोजन पर पलता है।
लेकिन उसे पता नहीं कि जिसने उसे बनाया है, उसने इंतजाम कर रखा है। वह आये, उसके पहले दूध तैयार है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुषों को इतनी ज्यादा रस की, आकर्षण की बात स्त्री के स्तन में क्यों है? पुरुष के मन में स्त्री के स्तन का बड़ा आकर्षण है! काव्य-शास्त्र भरे पड़े हैं। कविताएं उरोजों के, स्तनों के आसपास घूमती हैं। कहानियां...! क्या कारण है? वह भी परमात्मा की व्यवस्था है। क्योंकि जो पिता बनने जा रहा है, इसके पहले कि पिता बने, वह अपने बेटे के लिए ठीक उरोज, भरे उरोजों का इंतजाम कर ले रहा है। वह भी परमात्मा का आयोजन है। पुरुष के मन में स्त्री के स्तन का इतना आकर्षण है--वह आकर्षण इसीलिए है। वह प्रकृति की व्यवस्था है, क्योंकि अगर स्त्री के स्तन ठीक न हों, सुडौल न हों, भरे न हों, भरे-पूरे न हों, तो बच्चा भूखा मरेगा। तो पुरुष उस स्त्री को खोजेगा, जिसके स्तन भरे-पूरे हैं। वह उसे सुंदर मालूम होगी। सुंदर वगैरह मालूम होना तो ठीक है, मगर पीछे प्रकृति बड़ा आयोजन कर रही है; वह यह कह रही है कि यह स्त्री है जो तेरे बच्चे की मां बन सकेगी। यह बच्चे को बचाने का आयोजन चल रहा है, तुम धोखे में पड़ रहे हो--तुम समझ रहे हो, तुम सौंदर्य का इंतजाम कर रहे हो।
इसलिए जिन स्त्रियों के स्तन ठीक नहीं हैं, वे धीरे-धीरे खो जायेंगी, उनको पति न मिलेंगे, उनकी संतान न होगी। वे धीरे-धीरे खो जायेंगी
जीवन के रहस्य को अगर तुम समझो तो यहां प्यास के पहले पानी तैयार है; श्वास के पहले हवा तैयार है। और इसकी समझ जिसको आ गई, उसी के जीवन में श्रद्धा का आविर्भाव होता है।
हो नहीं सकता कि शीशा आए और सहबा न आए
मय भी आएगी "अदम' जब आबगीना आ गया।
--जब प्यालियां आ गईं, जब मधुपात्र आ गये, तो शराब भी आती ही होगी।
हो नहीं सकता कि शीशा आए और सहबा न आए
मय भी आएगी "अदम' जब आबगीना आ गया।
--जब प्यालियों की खनक आने लगी, तो शराब भी आती ही होगी। तो जिसके जीवन में परमात्मा को खोजने की आकांक्षा आ गई, प्यास आ गई--अब घबड़ाओ मत, राह पर हो। ठीक दिशा में उन्मुख हो गये हो। अब डरो मत, अब प्यास को पकड़ने दो कि तुम्हें पकड़ ले झंझावात की तरह, आंधी-अंधड़ की तरह। अब उड़ाने दो प्यास को कि बन जाये तुम्हारे पंख। अब मथने दो प्यास को कि बन जाये आग और जला दे तुम्हारे अहंकार को।
हो नहीं सकता कि शीशा आए और सहबा न आए
मय भी आएगी "अदम' जब आबगीना आ गया।

दूसरा प्रश्न:

कल के प्रवचन में आपने नककटे साधु की कहानी सुनायी, जिसके चक्कर में पड़कर पूरा गांव नाक गंवा बैठा था। क्या करीब-करीब यही स्थिति आपके संन्यासियों की नहीं है?

देखो, मेरी नाक तुम्हें साबित दिखाई पड़ती है या नहीं! क्योंकि कहानी के होने के लिए पहले तो मैं नककटा होना चाहिए! न तो गेरुआ वस्त्र पहने हूं, न माला लटकाई है। अपनी ही नाक नहीं कटी, तुम्हारी क्यों काटूंगा?
इसलिए कहानी यहां लागू हो नहीं सकती।
हां, जिन मित्र ने पूछा है, उनको जरा अपनी नाक टटोलकर देख लेनी चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं है कि है ही नहीं अब कटाने को! कहीं पहले कटा तो नहीं बैठे! क्योंकि मैं मुश्किल से ऐसे आदमी के करीब आता हूं जो नककटा न हो। अगर तुम हिंदू हो तो नाक कटा चुके! हिंदुओं के हाथ कटा ली। अगर मुसलमान हो तो कटा चुके--तो मस्जिद में कटायी, मंदिर में न कटायी। अगर जैन हो तो कटा बैठे।
यह प्रश्न किसी नककटे का होना चाहिए, जो कहीं कटा बैठा है और जिसे बड़ी बेचैनी हो रही है।
और या फिर किसी ऐसे आदमी का होना चाहिए, जिसका अहंकार उसकी नाक पर बैठा है।
अहंकारी की नाक देखी! अहंकारी नाक की भाषा में बोलता है। उसका सारा अहंकार नाक पर होता है। अगर नाक पर अहंकार बैठा हो, इससे बेचैनी मालूम हो रही है, तो कटा ही लो। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! नाक ही न रहेगी तो अहंकार को बैठने की जगह न रह जाएगी। कटा ही लो प्यारे!
कहीं कोई गहरी अड़चन होगी प्रश्नकर्ता को। मैं जानता हूं, अड़चन होती है। यहां इतने लोग गैरिक वस्त्रों में हैं। यहां इतने लोग संन्यासी के वेश में हैं--तुम जब गैर-संन्यासी की तरह आते हो, तुम हीन-भाव अनुभव करते हो। लक्ष्मी कल ही मुझे कहती थी कि दफ्तर में लोग उससे आकर कहते हैं कि सफेद कपड़ों में हम यहां ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे अजनबी हैं, पराये हैं, बाहर-बाहर हैं। स्वाभाविक है। यह एक परिवार है। यह मेरा परिवार है। वस्त्रों का ही थोड़े ही सवाल है; वस्त्र तो केवल इंगित हैं, इशारे हैं। जिन्होंने गैरिक वस्त्र स्वीकार किये हैं, उन्होंने तो केवल इतना कहा है कि इस इशारे से हम कहते हैं कि अब हम तुमसे राजी हैं। यह तो सिर्फ एक भाव-भंगिमा है। उन्होंने यह कहा है कि अब हम हमारा तर्क छोड़ते, विवाद छोड़ते--अब तुम जहां ले चलोगे, चलेंगे; चलो, गङ्ढे में ले चलोगे तो गङ्ढे में चलेंगे; भटकाओगे तो भटकेंगे, लेकिन तुम्हारे साथ भटकेंगे। जिन्होंने मुझे चुना है उन्होंने यह मानकर चुना है--इसलिए नहीं कि मैं उन्हें ठीक जगह ही पहुंचा दूंगा। इसका तो पता कैसे होगा जब तक पहुंचोगे न! इसका तो कोई उपाय नहीं है, पहले से जान लेने का। जिन्होंने मुझे चुना है उन्होंने यह मानकर चुना है कि चलो, अब ठीक जगह भी पहुंचना अगर इस आदमी के बिना होता हो तो भी इस आदमी के बिना नहीं चलना है। अगर यह गङ्ढे में ले जायेगा तो इसके साथ गङ्ढे में सही। उन्होंने अपने विचार करने की, अपना निजी विचार करने की, जो अस्मिता थी, वह छोड़ी है। कपड़े तो गौण हैं। कपड़ों में क्या रखा था? कपड़ों से कहीं कोई संन्यासी हुआ है! लेकिन वह तो इंगित है और इंगित समझने चाहिए।
ऐसा हुआ कि रामकृष्ण की एक रात बैठक चलती थी। कुछ बैठे थे लोग। कोई इसी तरह के सज्जन, जिन्होंने यह प्रश्न पूछा है, वहां पहुंच गये। सभी जगह पहुंच जाते हैं। इस तरह के लोग क्यों भटकते रहते हैं, यह भी बड़े आश्चर्य की बात है! अपने घर ही रहें! अपनी नाक बचानी है, अपने घर ही रहो; यहां-वहां जाने में कहीं कट ही जाये! कोई रौ आ जाये, कोई सनक चढ़ जाये, किसी भावावेश में कटवा बैठो, फिर पछताओगे!
रामकृष्ण की बैठक में कोई पहुंच गये ज्ञानी। पंडित थे, जानकार थे शास्त्रों के। रामकृष्ण कह रहे थे कि ओंकार के नाद से बड़ी उपलब्धि होती है। ज्ञानी को अड़चन पड़ी। उसने कहा, ठहरें! ...क्योंकि ज्ञानी जानता है कि रामकृष्ण गैर पढ़े-लिखे हैं, शास्त्र का तो कुछ पता नहीं है, हांक रहे हैं; संस्कृत तो आती नहीं, कुछ भी कहे चल जा रहे हैं! वह अपना ज्ञान दिखाना चाहता था। उसने कहा कि शब्दों में क्या रखा है! ओंकार तो केवल एक शब्द है, इसमें रखा क्या है? इससे कैसे आत्मज्ञान हो जायेगा?
बात तो पते की ही कह रहा था, लेकिन खुद आदमी पते का नहीं था। रामकृष्ण ने उसकी तरफ देखा, चुप बैठे रहे। वह और जोर-जोर से शास्त्रों के उल्लेख करने लगा और उद्धरण देने लगा। कोई आधा घंटा बीत गया, तब रामकृष्ण एकदम से चिल्लाये: "चुप, उल्लू के पट्ठे! बिलकुल चुप! अगर एक शब्द बोला आगे तो ठीक नहीं होगा।'
"उल्लू के पट्ठे' तो मैं कह रहा हूं, रामकृष्ण ने ज्यादा वजनी गाली दी। तो रामकृष्ण कोई छोटी-मोटी बकवास नहीं मानते थे; वे जब गाली देते थे तो बिलकुल नगद! वह आदमी घबड़ा गया, तमतमा गया एकदम! क्रोध भर गया आंख में! जोश आ गया। सांझ थी ठंडी, शीत के दिन थे, पसीना-पसीना हो गया। पर हिम्मत भी न पड़ी, क्योंकि अब रामकृष्ण ने इतने जोर से कहा है, और अगर कुछ गड़बड़ की तो मारपीट हो जायेगी; वहां सब रामकृष्ण के भक्त थे। फिर, रामकृष्ण फिर अपना समझाने लगे कि ओंकार...। कोई पांच-सात मिनट बाद उस आदमी की तरफ देखा और कहा, महानुभाव! माफ करना। वह तो मैंने सिर्फ इसलिए कहा था कि देखें शब्द का असर होता है कि नहीं! तुम तो बिलकुल तमतमा...। "उल्लू के पट्ठे' का इतना असर, तो जरा सोचो तो ओंकार का! पसीना-पसीना हुए जा रहे हो, मरने-मारने पर उतारू हो। वह तो यह कहो कि लोग मौजूद हैं, नहीं तो तुम मेरी गर्दन पर सवार हो जाते। हाथ-पैर तुम्हारे कंप रहे हैं। जरा-सा शब्द "उल्लू के पट्ठे' मंत्र का काम कर गया। जरा सोचो तो! शास्त्र काम न आये। इतना तो याद रखते कि "शब्दों में क्या रखा है!'
 वस्त्रों में क्या रखा है, पूछते हो? माला में क्या रखा है, पूछते हो? उल्लू के पट्ठे! थोड़ा सोचना, थोड़ा विचार करना!
आदमी जैसा है, छोटी-छोटी बातों से जीता है। क्षुद्र-क्षुद्र बातों से बनकर, मिलकर तुम्हारा व्यक्तित्व बना है। वह जिसने गैरिक वस्त्र स्वीकार किये हैं, वह भी जानता है, तुमसे ज्यादा भलीभांति जानता है कि वस्त्रों से कुछ भी होनेवाला नहीं है; लेकिन उसने एक कदम उठाया है; होने की दिशा में थोड़ी हिम्मत की है; पागल होने की हिम्मत की है। मेरे साथ चलने की हिम्मत पागल होने की हिम्मत है। क्योंकि मेरे साथ चलने का मतलब है समाज में अड़चन होगी, परिवार में अड़चन होगी। अगर पति हो तो पत्नी झंझट देगी। अगर पत्नी हो तो पति झंझट देगा। अगर बाप हो तो बच्चे झंझट देंगे।
संन्यासी मेरे पास आकर कहते हैं कि बेटे कहते हैं, "पिता जी! आप घर में ही पहनो ये वस्त्र तो ठीक है, क्योंकि स्कूल में दूसरे बच्चे हम पर हंसते हैं कि तुम्हारे पिताजी को क्या हो गया! भले-चंगे थे, यह क्या इनको धुन सवार हुई!' पत्नियां मेरे पास आती हैं। कहती हैं कि जरा समाज में जीना है, कम से कम इतना तो कर दो कि विवाह इत्यादि के अवसर पर पतिदेव गेरुआ पहनकर न पहुंचें, नहीं तो दूल्हा तो एक तरफ रह जाता है, ये दूल्हा मालूम पड़ते हैं। और स्त्रियां देखकर हंसती हैं कि इनको क्या हो गया!
कोई मेरे साथ खड़े होकर तुम्हें कुछ राहत थोड़े ही मिल जायेगी! अड़चन में डालूंगा। यह तो अड़चन में डालने की शुरुआत है। जैसे-जैसे पाऊंगा कि तुम्हारी अंगुली हाथ में आ गई, पहुंचा पकडूंगा। यह तो शुरुआत है। आगे-आगे देखिए होता है क्या!

तीसरा प्रश्न:

भीतर विचारों की ऐसी भीड़ है कि भगवान का भी...भगवान जैसा गुरु पाकर भी इस जन्म में पहुंचने की आशा नहीं बंधती। बिना कारण आंसू बहाता हूं, रोता हूं, चीखता-चिल्लाता हूं, फिर भी मौका आने पर न अहंकार से बच पाता हूं और न भीतर की बड़बड़ाहट से। प्रभु श्री, यदि इस जन्म में भी नहीं पहुंच पाया, तो फिर क्या अगला पथ वैसा ही कोरा रह जायेगा? आप भी सहायता न कर पायेंगे क्या?

हीं, चिंता का कोई भी कारण नहीं है। विचारों की भीड़ है। छुटकारा आसान भी नहीं। लेकिन छुटकारा आसान नहीं है, इससे यह मत समझना कि विचारों की भीड़ बड़ी बलशाली है। नहीं! छुटकारा इसीलिए कठिन मालूम पड़ रहा है कि तुमने विचारों की भीड़ से लड़ना शुरू कर दिया है, वहां भूल हो गई है। ताकत विचारों की नहीं है--तुम्हारे गलत आयोजन की है। जैसे अंधेरा कमरे में भरा हो और तुम धक्के देकर उसे बाहर निकालना चाहो और अंधेरा तो नहीं निकलेगा ऐसे, तो तुम्हारे मन में लगेगा, अंधेरा बड़ा प्रबल है, बड़ा बलशाली है। जन्म-जन्म भी धक्के मारो अंधेरे को तो न निकलेगा, यह सच है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अंधेरा बलशाली है। इससे केवल इतना ही पता चलता है कि धक्का मारना सम्यक उपाय नहीं है। जितनी ताकत धक्का मारने में लगा रहे हो उतनी ताकत दीये को जलाने में लगाओ। दीया खोजो। जरा-सा, छोटा-सा दीया, जरा-सी दीये की बाती, और अंधेरा बाहर हो जायेगा। धक्के मारने से अंधेरा बाहर नहीं होता, क्योंकि अंधेरा है ही नहीं, धक्का मारोगे कैसे उसे? जो नहीं है उसे धकाया नहीं जा सकता। उसकी ताकत नहीं है कुछ भी। उसका बल इसी में है कि वह नहीं है। कुर्सी होती, फर्नीचर होता, निकाल बाहर कर देते। पति-पत्नी होते, उन्हें भी धक्का देकर बाहर कर देते! अंधेरे को कैसे करोगे? दीया जलाओ! सम्यक आयोजन करो! ठीक साधन खोजो!
विचार अंधेरे की भांति हैं। तुम उन्हें धक्के देकर बाहर न कर पाओगे। जितना धक्का दोगे उतना ही पाओगे कि वे बलशाली होते जा रहे हैं। उतने ही तुम कमजोर मालूम पड़ोगे। हर बार हारोगे, हर बार हारोगे; आत्मविश्वास खो जायेगा। फिर रोओगे, चीखोगे, चिल्लाओगे। उससे भी क्या होगा? कुछ भी न होगा। क्योंकि न तो अंधेरा सुनेगा रोने को, न चीखने को, न चिल्लाने को। अंधेरा तो मानता है एक ही भाषा--वह है प्रकाश की भाषा। और विचार भी मानते हैं एक ही भाषा--वह है साक्षी-भाव की भाषा।
साक्षी बनो! जितनी बार कहा जाये उतना ही थोड़ा है: साक्षी बनो! इसमें अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। साक्षी एकमात्र सूत्र है। विचारों से लड़ो मत--देखो! चलने दो, क्या बिगाड़ते हैं! चलने दो जैसे राह चलती है, कारें गुजरती हैं, बसें गुजरती हैं, बैलगाड़ियां गुजरती हैं, अच्छे-बुरे-भले लोग गुजरते हैं, शैतान-साधु गुजरते हैं--राह चलती है, तुम राह के किनारे बैठे रहो; देखते रहो चलती राह को। जैसे राह बाहर चल रही है, ऐसे ही विचारों का कारवां भी भीतर चल रहा है; लेकिन वह भी तुमसे बाहर है। शरीर के भीतर है, तुमसे बाहर है। तुम तो वह चैतन्य हो जो देखता है कि ये विचार चल रहे हैं।
तादात्म्य छोड़ो! दूर खड़े होकर देखते रहो, देखते रहो, देखते रहो--इतना भी रस मत लो कि इन्हें अलग करना है। इतना भी रस लिया कि अड़चन शुरू हुई, संबंध बने।
मित्र से ही संबंध नहीं बनते, शत्रु से भी बन जाते हैं। जिसके तुम पक्ष में हो उससे भी संबंध बनता है। जिसके तुम विपक्ष में हो उससे भी संबंध बनता है--विपक्ष का सही। संबंध मत बनाओ। साक्षी का इतना ही अर्थ है: असंबंध, असंग। दूर खड़े देखते रहो। जैसे तुम किसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हो और नीचे घाटियों में काफिले गुजर रहे हैं लोगों के; गुजरने दो, तुम्हारा क्या लेना-देना है! बाहर कोयल बोल रही है, कभी कोई कुत्ता भौंकेगा, कभी कोई कौवा कांव-कांव करेगा--इससे तुम अड़चन में नहीं पड़ते। तुम सिर नहीं धुन लेते कि अब क्या करें, यह कुत्ता भौंक रहा है! तुम सिर नहीं धुन लेते कि यह कौवा कांव-कांव कर रहा है! यह तुम्हारा मन भी कांव-कांव कर रहा है, भौंक रहा है--भौंकने दो! तुम इससे भी थोड़े दूर हट जाओ। तुम इससे भी थोड़े पीछे हट जाओ। और हटने में अड़चन नहीं है, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव मन के पार है।
तो इसी क्षण पहुंचना हो सकता है, पूरे जन्म की बातें क्या करनी, आगे जन्म की चिंता क्या करनी! और ध्यान रखो, मेरी सहायता तुम्हें पूरी उपलब्ध है, उसमें रंचमात्र कमी नहीं है। लेकिन अकेली मेरी सहायता से क्या होगा? मैं इशारा कर सकता हूं, चलना तो तुम्हें ही पड़ेगा। मैं औषधि बता सकता हूं, लेकिन पीना तो तुम्हें ही पड़ेगी। मैं निदान कर सकता हूं, लेकिन मेरे निदान से ही तो कुछ न होगा। औषधि भी दे सकता हूं, उससे भी तो कुछ न होगा। औषधि का तुम्हें उपयोग करना पड़ेगा, तो ही बीमारी कटेगी। साक्षी की बात कर रहा हूं; वह औषधि है। उसका उपयोग करो।
और ध्यान रखना--
हर प्रदीप की पृष्ठभूमि में
अंधकार अनिवार्य है।
बिना सघनता क्षुद्र विरलता
कर सकती विस्तार नहीं
मिले बिना परिवेश शून्य का
सज पाता आकार नहीं।
हर प्रदीप की पृष्ठभूमि में
अंधकार अनिवार्य है।
अंधकार तुम्हारा दुश्मन भी नहीं है। जरा प्रदीप जला लो, फिर तो अंधकार भी सुख देगा। अंधकार की मखमली चादर प्रकाश को और हजार गुना प्रज्वलित कर देती है। इसलिये तो दिन में तारे नहीं दिखाई पड़ते--हैं तो अपनी ही जगह; कहीं चले नहीं गये हैं; दिन में कुछ सो नहीं गये हैं, कहीं खो नहीं गये हैं, अपनी जगह हैं। पूरा आकाश तारों से भरा है, वैसा ही जैसा रात में, लेकिन तारे दिखाई नहीं पड़ते, उनको पृष्ठभूमि चाहिए अंधकार की। जब अंधकार घेर लेता है, तब तारे चमक आते हैं। अमावस की रात जैसे चमकते हैं वैसे कभी नहीं चमकते।
तो जीवन को सृजनात्मक दृष्टि से देखो। यहां कुछ बुरा है, ऐसा कहकर लड़ो मत। जो बुरा है उसे पृष्ठभूमि  बना लो; और जो शुभ है उसका दीया जलाओ--और तब तुम पाओगे, अशुभ ने भी शुभ को साथ दिया, अंधेरे ने भी दीये को ज्योतिर्मय किया।
तब विचार भी ध्यान की पृष्ठभूमि बन जाते हैं। तब पाप भी पुण्य की पृष्ठभूमि बन जाते हैं। और तब संसार भी परमात्मा की खोज का उपाय हो जाता है। तब शरीर भी आत्मा का मंदिर हो जाता है।
मेरा पूरा दृष्टिकोण अनिंदा का है। किसी भी चीज की निंदा का एक ही अर्थ होता है कि तुम उसका उपयोग करना न जान पाये; तुम समझ न पाये कि इसका क्या करें। तुमने जिसे मार्ग का पत्थर समझा, वह प्रतिमा भी बन सकती थी। तुमने जिसे मार्ग का पत्थर समझा, वह मार्ग की सीढ़ी भी बन सकती थी। तुम पत्थर मानकर बैठ गये और रोने लगे। मैं कहता हूं, सीढ़ी समझो, चढ़ो! मैं कहता हूं, अनगढ़ पत्थर देखकर नाराज मत होओ, जरा छैनी उठाओ, गढ़ो!
जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसका उपयोग न हो। पाप का भी उपयोग है, क्योंकि उसी से पुण्य की सुवास उठती है। विचार का भी उपयोग है, अन्यथा निर्विचार कैसे हो पाओगे? संसार की जरूरत है, अन्यथा सत्य को कैसे खोजोगे? भटकना भी जरूरी है, अन्यथा पहुंचोगे कैसे? एक बार तुम्हारे जीवन में सृजनात्मक भाव आ जाये और हर चीज का सृजनात्मक मूल्य आ जाये, तो तुम पाओगे, सब चीज का तुमने उपयोग करना शुरू कर दिया।
कूड़ा-कर्कट भी फेंकने जैसा नहीं है; उसका भी उपयोग हो सकता है। लेकिन तुम्हें सदियों से इस तरह की बातें सिखायी गई हैं--यह गलत, यह गलत, यह गलत; गलत और सही को विपरीत, दुश्मन की तरह खड़ा किया गया है; राम और रावण को लड़ाया गया है; भगवान और शैतान को खंडित करके अलग कर दिया गया है; पाप और पुण्य, दिन और रात दुश्मन--इस दुश्मनी के भाव से तुम्हारी परेशानी हो रही है।
मैं तुमसे कहता हूं, दिन और रात दुश्मन नहीं हैं, एक ही खेल के हिस्से हैं। राम और रावण दुश्मन नहीं हैं; अन्यथा राम-कथा न बनेगी।
तुमने रामलीला में देखा! पर्दे पर धनुष-बाण लिये खड़े हैं, लड़ रहे हैं, और पर्दे के पीछे राम और रावण बैठकर गपशप कर रहे हैं, चाय पी रहे हैं। जिंदगी के पर्दे के पीछे भी मैंने ऐसा ही देखा है। वहां जो सामने नाटक करते दिखायी पड़ रहे थे दुश्मनी का, पीछे गले लगकर बैठे हैं। होना भी ऐसा ही चाहिए; नहीं तो जीवन खंड-खंड होकर छितर जाता।
किसने सम्हाला है? ये जिंदगी की सारी ईंटें किस सीमेंट से जुड़ी हैं? ये शुभ और अशुभ साथ-साथ कैसे खड़े हैं? साधु और असाधु कैसे साथ-साथ जुड़े हैं? संयुक्त हैं। और एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाये तो तनाव कम हो जायेगा। तब तुम पाओगे कि अगर कुछ अड़चन हो रही है, तो मेरी समझ-बूझ में कुछ  कमी है।
मैंने सुना है, एक महिला को सितार सीखने की धुन सवार हुई। तो पहले ही दिन चाहती थी कि मेघ-मल्हार हो जाये। पहले दिन चाहती थी कि पशु-पक्षी आ जायें। बार-बार जाकर खिड़की पर देख आती थी, अभी तक नहीं आये! न कोई भीड़ जुड़ी। उलटे पति जो घर में बैठा था वह निकलकर बाहर चला गया। बच्चे जो ऊधम कर रहे थे घर में, वह भी सन्नाटा हो गया, वे भी कहीं निकल गये। पास-पड़ोसियों ने द्वार-दरवाजे बंद कर लिये। तो उसने समझा कि निश्चित ही सितार में कुछ भूल है। जिस दुकान से सितार खरीद लाई थी, फोन किया कि आदमी भेजो, सितार में कुछ गड़बड़ है। आदमी आया, ठोक-पीटकर सब उसने कहा, बिलकुल ठीक है। आदमी वापस पहुंचा भी नहीं था कि फिर फोन...उसने कहा, "भई इतनी जल्दी कैसे बिगड़ गया?' उसने कहा कि न बजाओ तो सब ठीक रहता है, लेकिन बजाओ कि सब गड़बड़! तब उस आदमी को समझ में आया। उसने कहा कि "देवी! बजाना भी आता है?'
सितार की भूल नहीं है--बजाना आता है कि नहीं!
कहते हैं, परम संगीतज्ञ, जिनको बजाने की कला आ जाती है, अगर बर्तनों को भी बजा दें तो सितार बज उठते हैं; कंकड़-पत्थरों को टकरा दें तो स्वरों का आरोह-अवरोह हो जाता है। सितार की भूल नहीं है। जीवन की कहीं कोई भूल नहीं है। बजाना न आया। थोड़ा बजाने की फिक्र करो। और बजाने का पहला सूत्र है: स्वीकृति। सब, जो परमात्मा ने दिया है, उसका कुछ न कुछ उपयोग है, निरुपयोगी तो हो ही नहीं सकता अस्तित्व में। होगा ही क्यों? फिर तो अस्तित्व न होगा, अराजकता होगी। सब उपयोगी है। और जल्दी मत करना काटने-पीटने की कि यह गलत है, इसे अलग कर दो; यह गलत है, इसे अलग कर दो।
जैसे क्रोध है: अगर तुम क्रोध को काट डालो...अब वैज्ञानिकों के पास उपाय हैं कि शरीर की कुछ ग्रंथियां काट डाली जायें तो आदमी का क्रोध समाप्त हो जाता है। कुछ ग्रंथियां काट डाली जायें तो कामवासना समाप्त हो जाती है। तुम देखते ही हो, सांड कैसे बैल हो जाता है! ग्रंथि काट दी तो बड़ी सरल बात है यह तो। फिर ब्रह्मचर्य के लिए इतना उपद्रव क्यों मचाना। यह इतना सीधा हो जाता है कि सांड देखते-देखते बैल हो जाता है। तो जरा-सी ग्रंथियां काट डालो। क्रोध की भी ग्रंथियां हैं, उसके भी हारमोन हैं--काट डालो! आज नहीं कल, खतरा है कि दुनिया की सरकारें आदमी से क्रोध की, बगावत की ग्रंथियों को काट देंगी। तो फिर कोई शोरगुल न होगा। फिर कोई हड़ताल न होगी। फिर कोई बगावत, विद्रोह न होगा, कोई क्रांति न होगी।
लेकिन तुम जरा सोचो, जिस आदमी के जीवन से क्रोध की ग्रंथि कट जाती है, उसके जीवन में करुणा पैदा नहीं होती, सिर्फ क्रोध का अभाव हो जाता है। उस आदमी का जीवन पहले से बदतर हो जाता है। अब क्रोध भी न रहा। रूखा-रूखा, सूखा-सूखा अब कोई चीज उसे उद्वेलित नहीं करती, लेकिन करुणा का जन्म नहीं होता। क्योंकि करुणा तो तब पैदा होती है जब तुम क्रोध की वीणा को बजाना सीख जाते हो।
वीणा तोड़ दी तुमने क्रोध की, तो क्रोध तो न होगा। जैसे कि अगर तुम वीणा फेंक आये बाहर, तो विसंगीत पैदा न होगा, लेकिन संगीत भी पैदा न होगा। क्रोध अगर तोड़ दो तो क्रोध तो पैदा न होगा, लेकिन करुणा भी पैदा न होगी, क्योंकि करुणा उसी वीणा का संगीत है। सजे हुए हाथ, सधे हुए हाथ उसी वीणा पर करुणा को बजाते हैं--बुद्ध, महावीर--जिस वीणा पर तुम क्रोध बजाते हो। सधे हुए हाथ उसी जीवन-ऊर्जा से निर्विचार बजाते हैं, जिसमें तुम केवल विचारों की उलझन में पड़ जाते हो। सधे हुए हाथ इसी शरीर में अशरीरी को खोज लेते हैं, जिसमें तुम केवल हड्डी-मांस-मज्जा पाते हो। भूल वीणा की नहीं है, इतना स्मरण रखना।
चूकने का कोई कारण नहीं है, जरा साज को सम्हालना है।
"बेदार' वह तो हरदम सौ-सौ करे है जलवे
इस पर भी गर न देखे तो है कसूर तेरा।
परमात्मा तो कितने-कितने ढंग से नाचता है तुम्हारे चारों तरफ!
"बेदार' वह तो हरदम सौ-सौ करे है जलवे।
इस पर भी गर न देखे तो है कसूर तेरा।
और जैसा मैं देखता हूं, यह किसी एक ही व्यक्ति का प्रश्न नहीं है--"ईश्वर बाबू' ने पूछा है--सबका है। जैसा मैं देखता हूं, हर आदमी मंजिल के सामने ही बैठा रो रहा है कि मंजिल कहां, कि किस मार्ग से जायें!
हसरत पे उस मुसाफिरे-बेकस के रोइये
जो थक के बैठ जाता हो मंजिल के सामने।
तुम्हें देखकर हंसी भी आती है, रोना भी आता है। रोना आता है कि तुम बड़े परेशान हो रहे हो। हंसी आती है कि व्यर्थ परेशान हो रहे हो। सामने ही द्वार है। मंजिल के सामने ही थककर बैठे हो। कहीं चलकर जाना नहीं है। कहीं उठकर भी नहीं जाना है। क्योंकि मंजिल तुम्हारे बाहर नहीं है, तुम्हारे भीतर है, तुम्हारा स्वभाव है, तुम्हारा स्वरूप है। थोड़े साक्षी को साधो! वीणा सुमधुर होने लगेगी। तार तालमेल में आने लगेंगे। थोड़े साक्षी को साधो, संगीत उठेगा! जैसे-जैसे साधते जाओगे वैसे-वैसे संगीत मधुर, सूक्ष्म होता जायेगा। और ऐसी भी घड़ी आती है--तब शून्य का भी संगीत उठता है। आ जायेगी घड़ी, क्योंकि मैं देखता हूं मंजिल के सामने ही तुम बैठे हो।

चौथा प्रश्न:

बेमुरौअत बेवफा बेगाना-ए-दिल आप हैं,
आप मानें या न मानें मेरे कातिल आप हैं।
सांस लेती हूं तो यह महसूस होता है मुझे,
जानती हूं दिल में रखने के ही काबिल आप हैं।
गम नहीं है लाख तूफानों से टकराना पड़े
मैं हूं वह किश्ती कि जिस किश्ती के साहिल आप हैं।

रु ने पूछा है। बिलकुल ठीक है: बेमुरौअत, बेवफा!
मुरौअत की नहीं जा सकती। करूं तो तुम्हें रास्ते पर न ला सकूंगा। कई बार सख्त होना पड़ता है। कई बार तुम्हें गहरी चोट भी करनी पड़ती है।
झेन फकीर डंडा लिये रहते हैं। वे अपने शिष्यों के सिर पर डंडे मारते हैं।
डंडा मेरे पास भी है--सूक्ष्म है, उतना स्थूल नहीं है। जब लगता है, जरूरत है कि तुम नींद में खोये जा रहे हो, तो डंडा भी मारना पड़ता है। तो बेमुरौअत बिलकुल ठीक है, क्योंकि प्रेम है तुमसे, इसलिए बेमुरौअत होना ही पड़ेगा। क्योंकि प्रेम है, इसलिए तुम्हें जगाना ही पड़ेगा। और माना कि कई बार जब तुम्हें जगा रहा हूं, तब तुम कोई मीठा सपना देख रहे हो, तो तुम नाराज भी होते हो।
"बेवफा बेगाना-ए-दिल'--ठीक है। तुम जितने मेरे करीब आओगे, उतना मैं पीछे दूर हटता जाऊंगा, क्योंकि तुम्हें और आगे ले जाना है। इसलिए बहुत बार बेवफा मालूम पडूंगा। बुलाऊंगा पास और खुद दूर हट जाऊंगा पुकारूंगा और जब तुम चल पड़ोगे तो तुम पाओगे कि मैं वहां नहीं खड़ा हूं जहां से पुकारा था।
इसलिए बहुत-से मित्र मेरे साथ परेशानी में रहते हैं। वे कहते हैं कि हम जब तक राजी हो पाते हैं एक बात करने को, तब तक आप जा चुके, आप कुछ और कहने लगे!
मुझे रोज ही ऐसा करना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हें वहां ले जाना है--उस ला-मंजिल--उस जगह जिसके आगे फिर कोई और मंजिल नहीं है। और अंत समय में भी तुम्हारे बीच से मुझे हट जाना पड़ेगा, क्योंकि मैं तुम्हारा द्वार हूं, दरवाजा हूं; तुम्हारी मंजिल नहीं।
गुरु यानी गुरुद्वारा। गुरु का केवल इतना ही अर्थ है कि वह तुम्हें इशारा कर दे परमात्मा की तरफ और हट जाए। आखिरी घड़ी में मैं भी हट जाऊंगा। जब तुम पहुंचने-पहुंचने के करीब होओगे, तब मुझे हट ही जाना पड़ेगा। अन्यथा मैं तुम्हारे लिए दीवाल हो जाऊंगा, दरवाजा नहीं। फिर मैं तुम्हें रोकूंगा परमात्मा से। तो मुझे बेवफा होना ही पड़ेगा।
"आप मानें या न मानें मेरे कातिल आप हैं'--मानता हूं। यह धंधा ही कातिल होने का धंधा है।
ठहरा गया है ला के जो मंज़िल में इश्क की
क्या जाने रहनुमा था कि रहजन था, कौन था!
प्रेम की मंजिल पर जो तुम्हें ले आता है, तय करना मुश्किल होता है कि वह पथ-प्रदर्शक था कि लुटेरा था।
ठहरा गया है ला के जो मंज़िल में इश्क की
क्या जाने रहनुमा था कि रहजन था, कौन था!
तय करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि प्रेम की मंजिल पर वही ला सकता है जो तुम्हें लूटता भी हो। वहां मार्गदर्शक और लुटेरे एक ही हैं, रहनुमा और रहजन एक ही हैं।
पूरा प्रयास यही तो है कि तुम्हें मिटा दूं, ताकि तुम "हो' सको! तुम्हारे अहंकार को तोड़ दूं, ताकि तुम्हारा निरहंकार मुक्त हो सके, उठ सके! तुम्हारे अहंकार की जंजीर टूटे, तो ही तुम्हारे निरहंकार की स्वतंत्रता का आविर्भाव हो। लेकिन अगर तुम जन्मों-जन्मों तक जंजीरों में रहे हो, तो जंजीरों को तुमने आभूषण मान लिया है। तो जब मैं तुम्हारे आभूषण तोडूंगा--मैं समझता हूं जंजीरें, तुम समझते हो आभूषण--तो तुम्हें लगेगा कि यह तो...आए थे गुरु के पास, यह आदमी कातिल सिद्ध हुआ। हम खोजते थे, कोई जो सांत्वना देगा, इसने और सारी सांत्वनाएं छीन लीं। हम खोजते थे, कोई जो हमारे शृंगार को और थोड़ा बढ़ावा देगा, जो हमारे आभूषणों को और थोड़ी सजावट देगा। लेकिन तुम जिसे आभूषण कहते हो, वह आभूषण नहीं। और तुमने जिसे अभी समझा है तुम हो, वह तुम नहीं--उसकी तो हत्या ही करनी पड़ेगी--बेमुरौअत! उस पर कोई दया नहीं की जा सकती! उसे तो मिटाना होगा। वही तो तुम्हारे पावों को जकड़े है।
"सांस लेती हूं तो यह महसूस होता है मुझे,
जानती हूं दिल में रखने के ही काबिल आप हैं।
गम नहीं है लाख तूफानों से टकराना पड़े
मैं हूं वह किश्ती कि जिस किश्ती के साहिल आप हैं।'
तूफान से टकराने में गम कैसा? क्योंकि तूफान से टकराकर ही कोई किनारे को उपलब्ध होता है। किनारे के आसपास ही तूफान है, तूफानों के आसपास ही किनारा है। और अगर ठीक से कहें तो तूफान में ही छिपा किनारा है।
मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो
किनारे से टकरा गया था सफीना।
नाव किनारे से टकराकर डूब गई, यह कारण है डूब जाने का!
मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो!
किनारे से टकरा गया था सफीना!
वह किनारा ही क्या जो तुम्हारी नाव को न तोड़ दे! वह किनारा ही क्या जो तुम्हें तुम्हारी नाव से मुक्त न कर दे! नाव नदी के लिए है। किनारा तो तुम्हें नाव से छुड़ा ही देगा, नाव को तोड़ ही देगा। वह मंजिल ही क्या जिसको पाकर रास्ता खो न जाए, मिट न जाए! जिससे चल चुके वह मिट जाना चाहिए, अन्यथा उस पर लौट जाने की संभावना बनी रहती है।
तो जितना-जितना तुम बढ़ते जाओगे उतना-उतना मैं तुम्हारी नाव को तोड़ता जाऊंगा। जब देखूंगा किनारा करीब है तो नाव बिलकुल तोड़ देनी चाहिए। नहीं तो डर है कि तुम फिर वासनाओं की नाव में सवार हो जाओ।
और ध्यान रखना, जो नाव उस किनारे से इस किनारे तक ले आयी है, वही नाव इस किनारे से उस किनारे ले जा सकती है। नाव तो वही होगी, सिर्फ दिशा बदलती है। जो सीढ़ी तुम्हें ऊपर ले जाती है, वही सीढ़ी तुम्हें नीचे भी ले जा सकती है। इसलिए समझदार ऊपर पहुंचकर सीढ़ी तोड़ देते हैं।
"सांस लेती हूं तो यह महसूस होता है मुझे
जानती हूं दिल में रखने के ही काबिल आप हैं।
कब तक जानती रहोगी "तरु'? रखो!
जानने-जानने में कब तक समय गंवाओगी? कहीं ऐसा न हो कि जानने की बात जानने की ही रह जाए! होने की बनाओ! जब कोई बात ऐसी लगती हो कि दिल में रख लेने की है, तो सोचो मत। सोचने में क्षण न खोओ, रख ही लो!
एक बारी धक से होकर दिल की फिर निकली न सांस
किस शिकार अन्दाज का यह तीरे-बेआवाज है!
फिर जब कोई चीज हृदय में जाती हो, तो जाने दो तीर की तरह। सोचो मत! सोचने में ही तीर इधर-उधर हो जाएगा। और हर बात के पकने का क्षण होता है, ऋतु होती है। जो अभी हो सकता है, अभी हो सकता है; कल न हो पाए। और जो अभी न हो सका, ताजात्ताजा न हो सका, वह कल कैसे हो पाएगा? बासा हो जाएगा। तो जो दिल में रख लेने जैसा लगे उसे रखो! अगर जगह न हो तो दिल को बाहर करो! जगह बनाओ!
मेरे पास होने का एक ही अर्थ है, कि तुम मिटने की कला सीखो। नहीं कि तुम्हारे दिल में रहने का मेरा कोई इरादा है; यह तो केवल बीच का उपाय है। यह तो केवल बहाना है। यह तो मैं तुम्हें फुसला रहा हूं। यह तो मैं यह कह रहा हूं कि चलो इस बहाने से सही, इस निमित्त सही, तुम अपना दिल तो छोड़ो, अपना दिल तो तोड़ो! मेरे लिए ही सही, जगह तो बनाओ! जगह बनते ही मैं वहां नहीं बैठूंगा। जगह हो जाए तो उसी जगह में तो परमात्मा विराजमान होता है। कबीर ने कहा है:
गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागूं पांव।
किसके पैर पकडूं! दोनों साथ ही खड़े हैं, किसके पहले चरण छुऊं। कहीं कोई अपमान न हो जाए, कोई अनादर न हो जाए। कहीं शिष्टाचार का कोई भंग न हो जाए।
गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागूं पांव।
बड़ी मुश्किल में पड़ गए होंगे। ऐसा होता नहीं। जब गुरु होता है तो गोविंद नहीं होता; जब गोविंद होता है तो गुरु नहीं होता। कभी ऐसा भी होता है, जब दोनों साथ खड़े होते हैं। एक बार होता है ऐसा। पहले गुरु को जगह देते हैं। धीरे-धीरे गुरु हृदय में बैठता जाता है, बैठता जाता है, फिर एक दिन गुरु हट जाता है--उस दिन गोविंद। इधर गुरु जाने को होता है, उधर गोविंद आने को होता है। एक घड़ी में ऐसी बात होती है जब गुरु जा रहा होता है, गोविंद आ रहा होता है--तब दोनों साथ खड़े होते हैं।
गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागूं पांव।
फिर कबीर कहते हैं, गुरु के ही पैर लगे।
"बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए।'
इसके दो अर्थ हो सकते हैं, दोनों महत्वपूर्ण हैं। एक अर्थ तो यह हो सकता है कि जब कबीर बिगूचन में पड़ गए तो गुरु ने गोविंद की तरफ इशारा कर दिया कि गोविंद के ही पैर लगो।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताये...वह मुक्त कर दिया चिंता से। कहा कि फिक्र न कर मेरी, गोविंद के पैर लग।
एक अर्थ तो यह हो सकता है, जो कि सीधा-साधा है। इससे भी महत्वपूर्ण अर्थ  है दूसरा, वह यह है कि...बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताये...कबीर कहते हैं, पैर तुम्हारे ही लगूंगा, क्योंकि तुम्हारी ही बलिहारी है कि तुमने गोविंद को बताया। फिर गोविंद के तो पैर अब लगते ही रहेंगे, लगते ही रहेंगे, अब तो पैरों में ही पड़े रहेंगे; लेकिन तुम्हारे पैर अब दोबारा न मिलेंगे।
गुरु जा रहा है, गोविंद आ रहा है। गुरु विदा हो रहा है।
सदगुरु वही है जो तुम्हें मिटाए, तुम्हारे हृदय के सिंहासन पर बैठ जाए--बस उस क्षण तक जब तक तुम तैयार नहीं हो, सिंहासन तैयार नहीं है, फिर हट जाए। असदगुरु वही है जो तुम्हें हटाए, तुम्हारे सिंहासन पर बैठ जाए और फिर हटे न। फिर कहे, छोड़ो भी अब परमात्मा-अरमात्मा की बातचीत! तो यह तो एक झंझट से छूटे, दूसरी में पड़ गए। यह तो अपनी झंझट से छूटे तो दूसरे की झंझट में पड़ गए। इससे तो पहली ही झंझट ठीक थी, कम से कम अपनी तो थी।
"गम नहीं है लाख तूफानों से टकराना पड़े
मैं हूं वह किश्ती कि जिस किश्ती के साहिल आप हैं।'
एक ही तूफान है--और वह तूफान है मूर्च्छा का! एक ही अंधड़ है, आंधी है--और वह अंधड़, आंधी है मूर्च्छा का, प्रमाद का, सोए-सोए होने का। उससे ठीक से टकराओ! निद्रा से टकराकर ही जागरण पैदा होता है। निद्रा से टकराकर ही--उसी टकराहट में, उसी घर्षण में--जागरण पैदा होता है। वही जागरण किनारा है।

आखिरी प्रश्न:

आप कहते हैं कि तुम्हारे पास जो है उसे बांटो। मगर ऐसा हो रहा है कि संगीत, नृत्य, मस्ती सब अस्तित्व में लीन हो रहा है और एक गहन चुप्पी घेरती जा रही है। बस अब तो एक कोने में बैठकर अस्तित्व की लीला निहारती रहूं और वक्त आए तो उसमें लीन हो जाऊं। पास में क्या बचा है!
बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी
मेरी जिंदगी में हुजूर आप आए,
कदम चूम लूं या आंखें बिछा दूं
करूं क्या, यह मेरी समझ में न आए।

मैं कहता हूं, जो हो बांटो। नाच हो तो नाच। गीत हो तो गीत। मस्ती हो तो मस्ती। अगर चुप्पी घनी हो रही है तो चुप्पी बांटो! मौन भी बांटो।
बड़ी संपदा है मौन की। मस्ती से भी बड़ी मस्ती है मौन की! नाच से भी गहन नाच है मौन का। गीत से भी गीत, गीत से भी गहन गीत है गीत मौन का--बांटो उसे!
चुप्पी का अर्थ यह थोड़े ही है कि उसे सम्हालकर बैठो। तो चुप्पी की कंजूसी हो गई।
ध्यान रखना, जीवन में शुभ भी हम इस ढंग से कर सकते हैं कि अशुभ हो जाये और अशुभ भी इस ढंग से कर सकते हैं कि शुभ हो जाये--सारी कला यही है। इसी कला को जिसने जान लिया उसने धर्म को जान लिया।
अब एक तो मौन है जो कंजूसी का मौन है। एक तो मौन है कि जो अपने-आप को बंद कर लेने का मौन है कि हट जाओ दूर सबसे--सबसे तोड़ लेनेवाला मौन है। अपने में बंद हो जाओ मोनोड बन जाओ, लीबनेस के। सब द्वार-दरवाजे बंद कर दो, खिड़कियां बंद कर दो। कोई हवा न आये, कोई रोशनी न आये। न अपनी आवाज किसी तक जाये, न किसी की आवाज अपने तक आये। तो यह मौन तो मरघट का मौन होगा। इसका गुण अलग होगा। यह गुण शुभ नहीं है। यह मौन तो मौत जैसा मौन होगा। इससे सड़ी लाश की बदबू आयेगी।
इसलिए तुम बहुत-से त्यागी, तपस्वी, मौनियों के पास जाकर, मुनियों के पास सिर्फ लाश की सड़न पाओगे। मौन वहां खिल न पाया, फूल न बना। मौन वहां केवल अभाव रहा। मौन का अर्थ वहां इतना ही रहा कि बोलते नहीं हैं। यह भी कोई मौन हुआ जो बोल न सके! मौन तो बोलता है--मौन से भी बोलता है।
तो ध्यान रखना, मौन सिर्फ न बोलना भर न हो; नहीं तो वही होगा: क्रोध काट डाला, काम की ग्रंथि काट डाली। काम की ग्रंथि गई तो ब्रह्मचर्य पैदा होने का उपाय भी गया। क्रोध की ग्रंथि गई तो करुणा भी न आई। ऐसा मौन मत कर लेना कि सिर्फ न बोलने पर आग्रह हो कि बोलते नहीं हैं। तो फिर तुम्हारे भीतर जिंदगी सड़ने लगेगी, प्रवाह बंद हो जाएगा। तुम एक पोखर हो जाओगे, सरिता न रहोगे। जल्दी ही कीचड़ मच जायेगी। जल्दी ही तुम अपनी कुंठा में सड़ोगे। क्योंकि जीवन संबंधों में है।
कोई फिक्र नहीं, हजार ढंग हैं बोलने के। बोलना ही थोड़े ही सब कुछ है! किसी का हाथ ही हाथ में ले लो तो क्या तुम बोले नहीं? किसी की तरफ भरी हुई आंखों से देखा तो क्या तुम बोले नहीं? किसी के पास चुपचाप बैठे रहे, लेकिन बंद नहीं; खुले, बहते तो क्या तुम बोले नहीं? सच तो यह है कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, ऐसे ही बोला जाता है। जब दो प्रेमी गहन प्रेम में होते हैं तो चुप बैठ जाते हैं। जब प्रेमी बातचीत करने लगें तो समझना कि पति-पत्नी हो गये। पति-पत्नी चुप नहीं बैठ सकते, क्योंकि चुप बैठें तो दोनों बंद हो जाते हैं; दोनों बंद हो जाते हैं तो बोझिल हो जाते हैं। तो पत्नी कहने लगती है, "चुप क्यों बैठे हो? क्या मतलब?' तो कुछ भी बोलो! बोल जारी रखो, ताकि कहीं ऐसा न हो कि एक-दूसरे की मुर्दानगी और एक-दूसरे की ऊब प्रगट हो जाये। तो बोलते हैं, चेष्टा करके बोलते हैं। नहीं बोलना हो, बोलते हैं। कुछ भी बात ले आते हैं--खबर, समाचार--उसकी चर्चा चलाने लगते हैं। न पत्नी को उस में रस है, न पति को रस है; न पत्नी सुन रही है, न पति बोल रहा है--लेकिन वाणी चल रही है। दोनों आसपास शब्दों का जाल बुनते हैं, ताकि कहीं धोखा न टूट जाये, कहीं भ्रम न मिट जाये, कहीं ऐसा न हो जाये कि पता चले कि हम टूट गये, अलग-अलग हो गये!
मेरे एक मित्र हैं। हिमालय की यात्रा को जाते थे। तो मुझसे कहा, आप चलें। मैंने कहा कि हिमालय की यात्रा पर जाते हो, अच्छा है। तुम पति-पत्नी जा रहे हो, मुझे क्यों और बीच में लेते हो? मेरे होने से बाधा पड़ेगी। उन्होंने कहा, आप भी क्या बात करते हैं! तीस साल हो गये शादी हुए, अब क्या बाधा खाक पड़ेगी? अब तो हालत ऐसी है कि अगर तीसरा आदमी मौजूद न हो तो हमारी समझ में नहीं आता, क्या करें! इसलिए तो आपसे प्रार्थना कर रहे हैं कि आप चलो, तो थोड़ा रस रहेगा। किसी न किसी को तो ले जाना ही पड़ेगा।
पति-पत्नी सदा किसी एक को और साथ ले लेते हैं। दोनों के बीच जरा बातचीत चलाने को सेतु बन जाता है। यह बोलना कोई बोलना है? लेकिन दो प्रेमी चुपचाप बैठ जाते हैं। देखते हैं चांद को आकाश में। या सुनते हैं हवा की सरसराहट! या देखते हैं चुपचाप तारों को। कुछ बोलते नहीं। लेकिन खुले हैं। बहते हैं एक-दूसरे में, ऊर्जा मिलती है। मिलन होता है। एक गहन तल पर गहन संभोग होता है। पर चुप!
शब्द बाधा डालते हैं। जब कोई प्रेमी किसी प्रेयसी से बहुत कहने लगे, बार-बार कहने लगे कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, तब समझना कि प्रेम जा चुका, अब बातचीत है। अब प्रेम नहीं है, इसलिए बातचीत से परिपूर्ति करनी पड़ती है। नहीं तो प्रेम काफी है, कहने की जरूरत नहीं है।
तो मैं तुमसे कहता हूं, मौन तो आये, लेकिन जीवंत आये, बहता हुआ आये। तुम्हारा प्रवाह न मिटे। तुम बंद न होओ। तुम खुलो। तो फिर मौन भी बंटे।
यह मैं तुमसे जो बोल रहा हूं, क्या तुम सोचते हो, बोल रहा हूं? अपना मौन बांट रहा हूं। क्योंकि तुम मेरे मौन को सीधा न समझ सकोगे, शब्दों की सवारी से बांट रहा हूं। शब्दों के ऊपर सवार होकर जो आ रहा है, वह मौन है। घुड़सवार को देखना, घोड़े को ही मत देखते रहना। शब्दों पर जो सवारी करके आ रहा है, जरा उसे देखो! तुम्हें जो मैं देना चाहता हूं, वह शब्द नहीं है। तुम्हें जो देना चाहता हूं, वह मेरा मौन है।
तो मौन ही बांटो। कहीं छुपता है कुछ! अगर जीवंत मौन हो तो मौन ही दिखाई पड़ने लगता है, सघन हो जाता है। जहां से गुजरोगे, दूसरा आदमी चौंककर सुनने लगेगा मौन को जरा पास से!
"बेदार'! छुपाए से छुपते हैं कहीं तेरे
चेहरे से नुमायां हैं आसार मुहब्बत के।
कहीं प्रेम छुपा! कितना छिपाओ, आंख की झलक, चेहरे का रंग-ढंग, ओंठों की मुस्कुराहट; कितना छिपाओ, चाल की गति, उठने-बैठने का प्रसाद, सब तरफ जैसे प्रेमी के आसपास कुछ सूक्ष्म घुंघरू बजते हैं!
"बेदार'! छुपाए से छुपते हैं कहीं तेरे
चेहरे से नुमायां हैं आसार मुहब्बत के
मौन भी नहीं छुपता। परमात्मा भी नहीं छुपता। तुम चुप भी बैठे रहो तो भी प्रगट होता चला जाता है।
हम तो चुप थे मगर अब मौजे सबा के हाथों
फैली जाती हैं तेरे हुस्न की खुशबू हर सू
जब कोई प्रभु को उपलब्ध होता है, उस परम शांति को, परम निर्विकार को, तो चुप भी बैठा रहे तो भी क्या फर्क पड़ता है!
हम तो चुप थे मगर अब मौजे सबा के हाथों
--हम तो चुप ही बैठे थे, लेकिन सुबह की ठंडी हवायें आ गईं,  हम क्या करें!
फैली जाती है तेरे हुस्न की खुशबू हर सू
--और तेरे सौंदर्य की खुशबू ये हवायें ले चलीं, और ये फैलाने लगीं।
बुद्ध को परम अनुभव हुआ। कहते हैं, सात दिन वे चुप बैठे रहे। पर देवता भागे चले आये स्वर्ग से। पहुंच गई भनक: कुछ घटा है पृथ्वी पर! अस्तित्व ने कोई नया रंग लिया है! अस्तित्व ने कोई नया नाच नाचा है! कोई शिखर बना है अस्तित्व का! कोई गौरीशंकर उठा है! भागे देवता। वे चुप ही बैठे रहे। देवताओं ने नमस्कार किया, चरणों में सिर रखा, और कहा, कुछ बोलें! बुद्ध ने कहा, "लेकिन तुम्हें पता कैसे चला? मैं तो बिलकुल चुप हूं। सात दिन से तो मैं बोला ही नहीं। और मैंने तो यही तय किया है कि बोलूंगा नहीं। क्या सार बोलने से? जिनको समझना है, बिना बोले समझ लेंगे। और जिनको नहीं समझना है, वे कहीं बोलकर भी समझ पायेंगे! मगर यह तो बताओ, तुम्हें खबर कैसे मिली?'
तो देवताओं ने कहा, आप भी कैसी बात करते हैं! यह घटना कुछ ऐसी है, जब घटती है तब खबर मिल ही जाती है। तुम बैठे रहो चुप, जल्दी ही तुम पाओगे कि रास्ते बनने लगे, तुम्हारी तरफ लोग आने लगे। वे तुम्हें बुलवा कर रहेंगे। तुम्हें बोलना ही पड़ेगा, तुम्हारी करुणा को बोलना ही पड़ेगा। तुम इतने कठोर कैसे हो सकोगे? हम ही आ गये, कितनी दूर से--स्वर्ग से! कोई चुप हो गया है! कुछ घटा है!
तुमने कभी चुप्पी को अनुभव किया है? चुप्पी भी एक घना अस्तित्व है। रेलगाड़ी शोरगुल करती निकल जाती है। उसके बाद तुमने देखा है, चुप्पी कैसी घनी हो जाती है! तूफान आता है, बड़ा शोर मचता है, फिर तूफान जा चुका, फिर शांति कैसी घनी हो जाती है! जब बुद्ध जैसा व्यक्ति शांत होगा, सदियों-सदियों का एक तूफान, जन्मों-जन्मों का एक तूफान, एक अंधड़ जो चलता ही रहा और चलता ही रहा, अचानक आज बंद हो गया--देवताओं को खबर न मिलेगी! चुप होने से ही खबर मिल गई।
जो है वही बांटो। अगर चुप्पी बन रही है, शुभ है। बंद मत होना, चुप्पी को भी संबंध बनाये रखना। मित्रों को कभी निमंत्रित कर देना कि आओ, चुपचाप बैठेंगे! जिसको चुपचाप बैठना होगा, आ जायेगा। हाथ में हाथ ले लेना; साथ-साथ रो लेना, या हंस लेना। बोलना मत। और तब तुम पाओगे कि एक नया ही द्वार खुला संबंधों का। तुमने किसी और ढंग से दूसरे मनुष्य की चेतना को छुआ और तुमने मौका दिया, दूसरे को भी कि एक नये ढंग से, शब्दों के अलावा संबंध निर्मित करे।
"गहन चुप्पी घेरती जाती है। एक कोने में बैठकर अस्तित्व की लीला निहारती हूं।'
निहारने को बांटो। जिस ढंग से तुम निहारती हो, उसी ढंग से किसी और को निमंत्रित करो कि आओ, मेरी दृष्टि में सहभागी बनो। इसलिए तो मैंने तुम्हें यहां बुला भेजा है। बुलाये चला जाता हूं; दूर-दूर देशों से, पृथ्वी का कोई कोना नहीं जहां से लोग चले नहीं आते! अपनी दृष्टि में मैं तुम्हें सहभागी बनाना चाहता हूं। चाहता हूं कि तुम भी जरा मेरी आंख से झांककर देखो। जो मैंने देखा है, थोड़ा-सा तुम भी देखो। फिर तुम अपनी आंख खोज लेना। एक दफा स्वाद तो आ जाये।
"और वक्त आये तो उसी में लीन हो जाऊं।'
 आ ही जायेगा वक्त। आ ही गया है। बांटो! बांटना भी लीन होने की प्रक्रिया है।
"पास में क्या बचा है?' जब कुछ नहीं बचता, तभी जो बचा है वही संपदा है। एक झेन फकीर एक रास्ते से गुजर रहा था। वह बड़ा बलिष्ठ आदमी था। बड़ा बलशाली था। दो डाकुओं ने उस पर हमला कर दिया। दुबले-पतले दीनऱ्हीन डाकू थे; नहीं तो डाकू ही क्या होते--दीनऱ्हीन ही डाकू बनते हैं। उसने दोनों की गर्दन पकड़कर उनको उठा लिया और दोनों का सिर टकराने जा रहा था, तो उसे खयाल आया: अरे बेचारे! इनके पास कुछ भी तो नहीं है। दोनों को छोड़ दिया। वे तो बड़े चौंके-से, चौकन्ने-से खड़े रह गये कि अब क्या करना। और जो कुछ उसके पास था उसने दे दिया। वे दोनों भागे लेकर। और वह फकीर जोर-जोर से हंसने लगा, तो वे लौटकर आये। उन्होंने कहा कि महाराज! आप हंस क्यों रहे हैं? आप अजीब आदमी हैं! हम तो समझे कि मरे! आपने जब दोनों के सिर पास लाये, तो हम समझे कि गये! फिर क्या हुआ, आपने दोनों को छोड़ भी दिया? हमने मांगा भी नहीं, हम तो भागने की तैयारी कर रहे थे कि आपके पास जो था आपने दे दिया। अब आप हंस किसलिए रहे हैं?
तो उस फकीर ने कहा कि आज मुझे पहली दफे पता चला उसका जो मेरे पास है, और जिसे कोई भी ले नहीं सकता। जो लेने योग्य था, देने योग्य था वह मैंने तुम्हें दे दिया--आज मैं नग्न खड़ा हूं। आज मेरे पास बस वही बचा है, जिसको न कोई ले सकता है, न कोई दे सकता है। आज शुद्ध अस्तित्व बचा है।
उसी शुद्ध अस्तित्व का नाम महावीर ने आत्मा दिया है।
खोओ! जो खो ही जायेगा उसे अपने हाथ से ही खो दो। जो मौत छीन लेगी तुम उसे स्वयं ही दे दो, ताकि मौत जब आये तो छीनने को उसके पास कुछ भी न हो। तुम्हारे पास कुछ भी न हो जिसे वह छीन सके। मौत के पहले जो छीना जा सकता है, उसे बांट दो।
पकड़ो मत! पकड़ छोड़ो! और तब तुम पाओगे: मौत आयेगी, लेकिन तुम्हें मार न पायेगी। क्योंकि मौत घटती है इसीलिए कि तुम उसे पकड़े हो जो छीना जा सकता है। जब मौत छीनती है, तुम समझे कि मरे। जिसने उसे पहले ही छोड़ दिया--मौत आती है, खाली हाथ चली जाती है। कुछ है ही नहीं छीनने को। वही बचा है जिसे छीना नहीं जा सकता--स्वभाव, धर्म, तुम्हारे भीतर का परमात्मा!

आज इतना ही।


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