ध्यान योग शिविर,
माउंट आबू, राजस्थान।
सूत्र :
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणम्
अस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी पीरभू स्वयंभू—
र्याथातथ्यतोर्ध्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।। 8।।
वह आत्मा सर्वगत, शुद्ध, अशरीरी, अक्षत, स्नायु से रहित, निर्मल,
अपापहत, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट, और स्वयंभू है।
उसी ने नित्यसिद्ध संवत्सर नामक प्रजापतियों के लिए यथायोग्य रीति से
अर्थों का विभाग किया है।। 8।।
उस आत्मतत्व के लिए, उस आत्मतत्व के स्वभाव के लिए कुछ सूचनाएं इस सूत्र में हैं। सबसे पहली — वह आत्मतत्व स्वयंभू है। इस जगत में अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ भी स्वयंभू नहीं है। स्वयंभू का अर्थ है, सेल्फ ओरिजिनेटेड। स्वयंभू का अर्थ है, जो किसी और के द्वारा पैदा नहीं किया गया। स्वयंभू का अर्थ है, जो किसी और के द्वारा सृजा नहीं गया। जो स्वयं ही हुआ है।
जिसका होना स्वयं से ही निकला है। जिसका अस्तित्व किसी और के हाथ में नहीं। जिसका अस्तित्व स्वयं में ही निर्भर है। आत्मतत्व स्वयंभू है, यह पहली बात खयाल में ले लेनी चाहिए।
हम जिन चीजों को देखते हैं, वे निर्मित हो सकती हैं। जो—जो निर्मित हो सकता है, जो भी बनाया जा सकता है, वह आत्मतत्व नहीं होगा। एक मकान हम बनाते हैं। मकान स्वयंभू नहीं है, निर्मित है। एक यंत्र हम बनाते हैं, स्वयंभू नहीं है, निर्मित है। हमने बनाया। उस तत्व को खोजें, जो हमने नहीं बनाया है, जो किसी ने भी नहीं बनाया है। जो अनबना है, अनक्रिएटेड है। उस तत्व का नाम ही आत्मतत्व है। यदि हम जगत के अस्तित्व में खोजते हुए वहां तक पहुंच जाएं, उस आधार को पकड़ लें, जिसे किसी ने भी नहीं बनाया, जो है सदा से, अनबना, स्वयं ही, तो हम परमात्मा को पा लेंगे। और अगर हम अपने भीतर प्रवेश करें और खोजते चले जाएं और वहां पहुंच जाएं, जो अनबना है, स्वयं है, तो हम आत्मा को पा लेंगे।
आत्मा और परमात्मा दो बातें नहीं हैं। एक ही वस्तु को दो दिशाओं से दिए गए नाम हैं। अगर आपने स्वयं में खोजा तो उस अनिर्मित, असृष्ट, स्वयंभू तत्व का नाम आत्मा है। और अगर आपने पर में खोजा और पाया, तो उस तत्व का नाम परमात्मतत्व है। आत्मा परमात्मा ही है — भीतर की तरफ से पकड़ी गई। परमात्मा आत्मा ही है — बाहर की तरफ से खोजा गया।
स्वयं में यदि हम प्रवेश करें, तो यह शरीर सृष्ट है। यह आपके मां और पिता के सहयोग के बिना निर्मित नहीं होता। या कल टेस्टटचूब में भी निर्मित हो सके, तो भी सृष्ट ही होगा। इसलिए पश्चिम के वैज्ञानिक, जीवशास्त्री आज नहीं कल अपने दावे को पूरा कर लेंगे। वे शरीर को निर्मित कर लेंगे। शरीर को निर्मित करने से उन्हें लगता है कि शायद वे आत्मवादियो को आखिरी पराजय दे देंगे।
वे भूल में हैं, क्योंकि आत्मवादी ने कभी आग्रह किया नहीं कि यह शरीर आत्मा है। आत्मवादी कहता है, जो असृष्ट है, वही आत्मा है। शरीर का सृजन करके वे इतना ही सिद्ध करेंगे कि शरीर आत्मा नहीं है। शरीर किसी दिन निर्मित हो जाएगा। मैं इसमें कोई कारण नहीं देखता हूं कि निर्मित क्यों नहीं हो जाएगा। बहुत से आत्मवादी भी डरे हुए होते हैं कि जिस दिन टेस्टटयूब में, लेबोरेटरी में, प्रयोगशाला में शरीर निर्मित हो जाएगा, उस दिन आत्मा का क्या होगा? जिस दिन हम बच्चे को बिना मां—बाप की सहायता के, केमिकल, रासायनिक व्यवस्था से निर्मित कर लेंगे और वह ठीक मनुष्य जैसा खड़ा हो जाएगा, फिर उस दिन तो आत्मा नहीं है, सिद्ध हो गया!
उन आत्मवादियो को भी पता नहीं है कि आत्मवाद ने कभी शरीर को आत्मा कहा नहीं। किसी दिन वैज्ञानिक अगर यह कर सके, तो उससे सिर्फ उपनिषद का यह सूत्र ही सिद्ध होगा कि देखो, यह शरीर भी आत्मा नहीं है। इतना ही सिद्ध होगा, और कुछ भी सिद्ध नहीं होगा।
अभी भी हम जानते हैं कि शरीर आत्मा नहीं है। अभी भी प्राकृतिक व्यवस्था से वह निर्मित होता है। कल कृत्रिम और वैज्ञानिक व्यवस्था से निर्मित हो सकेगा। आज भी जब मां और पिता के रासायनिक तत्व मिलकर उस अणु का निर्माण करते हैं जो शरीर का पहला घटक है, तो आत्मा उसमें प्रवेश करती है। कल अगर विज्ञान की प्रयोगशाला में वह घटक, वह सेल निर्मित हो गया, वह जैनेटिक सिचुएशन, वह स्थिति पैदा हो गई, जो मां—बाप के द्वारा पैदा होती रही है अब तक, तो वहां आत्मा प्रवेश कर जाएगी। लेकिन वह कोष्ठ, रासायनिक कोष्ठ, जो शरीर का पहला घटक है, वह आत्मा नहीं है। वह निर्मित है। स्वयंभू नहीं है। किसी के द्वारा बना है। किसी के ऊपर उसका होना निर्भर है। इसलिए उसे आत्मतत्व कहने को आत्मज्ञानी तैयार नहीं होंगे। वह आत्मतत्व नहीं है। और पीछे चलना पड़ेगा, और गहरे उतरना पड़ेगा।
तो मैं तो खुश होता हूं कि विज्ञान जितने जल्दी शरीर को निर्मित कर ले उतना अच्छा है। जितने जल्दी विज्ञान शरीर को निर्मित कर ले उतना अच्छा है। क्योंकि तब हमें जो शरीर के साथ तादात्म्य है, उसे तोड़ने में सहायता मिलेगी। तब हम ठीक ही जान पाएंगे कि शरीर एक यंत्र है, अब शरीर को स्वयं मानना नासमझी है। अभी भी नासमझी है, लेकिन अभी हमें पता नहीं चलता है कि शरीर यंत्र है। अभी भी यंत्र है। यह प्रकृति से उत्पन्न है। फिर हम प्रकृति के राज को समझकर स्वयं निर्माण कर लेंगे। तब शरीर के साथ तादात्म्य तोड़ने में सहयोग मिलेगा। स्वयं के भीतर प्रवेश करके उस जगह तक पहुंचना है, जिसे निर्मित न किया जा सके। और जहां तक निर्मित किया जा सके, वहां तक जानना कि आत्मतत्व नहीं है।
इसलिए विज्ञान जितने गहरे तक निर्माण कर ले, उतना धर्म के पक्ष में है। क्योंकि उतने दूर तक तय हो गया कि आत्मतत्व नहीं है, आत्मतत्व और आगे है। आत्मतत्व सदा ही, जहां तक निर्माण होगा, उसके बियांड, उसके पार, उसके अतीत है।
तो विज्ञान की बड़ी कृपा है कि वह निर्माण करता चला जाए। जहा तक निर्माण हो जाएगा वहां तक सीमा निर्धारित हो जाएगी कि अब यहां तक तो आत्मतत्व नहीं है। क्योंकि आत्मतत्व हम कहते ही स्वयंभू को हैं, जो अनिर्मित है, जो निर्मित नहीं हो सकता।
इस स्वयंभू का अर्थ, मूल में जो है। निश्चित ही, इस अस्तित्व के होने के लिए कहीं कोई आधारभूत, अल्टीमेट, आत्यंतिक तत्व तो चाहिए, जो अनिर्मित हो। अगर हर चीज को निर्मित होने की जरूरत पड़े, तो निर्माण असंभव हो जाएगा। कहें कि जगत को बनाने के लिए परमात्मा की जरूरत है। फिर कहें कि परमात्मा को बनाने के लिए फिर किसी और परमात्मा की जरूरत है। फिर इस जरूरत का कोई अंत नहीं होगा। कहीं वह जगह न आएगी, जहां हम कह सकें कि बस ठीक है, यहां वह जगह आ गई, जिसके निर्माण की किसी को जरूरत नहीं है।
इसे ऐसा समझें तो और भी अच्छा और वैज्ञानिक होगा। आत्मतत्व स्वयंभू है, ऐसा न कहकर, ज्यादा वैज्ञानिक होगा कहना कि हम कहें, जो स्वयंभू है वह आत्मतत्व है। ऐसा न कहकर कि परमात्मा को किसी ने नहीं बनाया, यह कहना ज्यादा वैज्ञानिक होगा कि जिसे किसी ने नहीं बनाया है, जो अनबना है, हम उसे ही परमात्मा कहते हैं।
विज्ञान को भी अनुभव होता है। जगह—जगह सीमा आ जाती है और लगता है कि इसके पार जो है, वह निर्माण के बाहर है। जैसे अभी, वितान निरंतर सोचता था, खोजता था तत्वों को, एलिमेंट्स को, तो पुराने वैज्ञानिक कहते थे, पांच तत्व हैं। पुराने धार्मिक नहीं, क्योंकि धार्मिक को तत्वों से प्रयोजन ही नहीं है। धार्मिक को तो सिर्फ एक से ही प्रयोजन है, स्वयंभू तत्व से। पुराने ढब के, पुराने ढंग के, चार या पांच हजार साल का पुराना जो वैज्ञानिक चिंतन था, वह कहता था, पंचतत्व से निर्मित है सब। गलती यह हो गई कि उन दिनों में कोई विज्ञान की किताबें अलग नहीं होती थीं, धर्म की किताबों में ही सब कुछ लिखा जाता था। धर्म की किताबें उस समय के ज्ञान का समुच्चय हैं। इसलिए यह बात भी कि पंचतत्वों से सब निर्मित है, धर्म की किताबों में उपलब्ध है। लेकिन यह बात वैज्ञानिक है, यह बात धार्मिक नहीं है। धर्म को तो एक ही तत्व की खोज है — स्वयंभू तत्व की।
फिर विज्ञान खोज करता चला गया। उसने पाया कि पांच तत्वों का सिद्धांत गलत है। जब विज्ञान ने यह पाया कि पंचतत्व का सिद्धांत गलत है, तो नासमझ धार्मिक बड़े परेशान हुए। उन्होंने समझा कि सब गड़बड़ हो गई। क्योंकि हम तो मानते थे, पंचतत्व हैं। वितान धीरे— धीरे नए तत्व खोजता चला गया और एक सौ आठ तक संख्या पहुंच गई।
लेकिन विज्ञान की नई खोज सिर्फ पुराने विज्ञान को गलत करती है। विज्ञान की कोई खोज धर्म को गलत नहीं कर सकती। उसका कारण है कि दोनों के आयाम अलग हैं। कोई कितनी ही अच्छी कविता निर्मित कर ले, किसी गणित के सिद्धांत को गलत नहीं कर सकता। कविता और गणित की कोई संगति नहीं है। कोई कितना ही गणित का गहरा सिद्धांत खोज ले, उससे कोई कविता गलत नहीं होने वाली है। क्योंकि काव्य का आयाम अलग है। वे कहीं कटते नहीं। वे कहीं एक—दूसरे को आर—पार नहीं करते। वे छूते भी नहीं। ये सब आयाम पैरेलल, रेल की पटरियों की तरह दौड़ते हैं समानांतर। कहीं अगर मिलते हुए मालूम पड़ते हैं, तो वह आपकी भ्रांति है। जब आप वहां जाएंगे तो पाएंगे, वे कहीं नहीं मिलते, वे समानांतर दौड़ते ही चले जाते हैं। रेल की पटरियों की तरह मिलने का भ्रम हो सकता है।
विज्ञान जब भी किसी चीज को गलत करता है, तो वह पुराने विज्ञान को गलत करता है। अगर विज्ञान ने कहा कि जमीन चपटी नहीं है, जमीन गोल है, तो ईसाइयत बहुत घबरा गई। क्योंकि बाइबिल में लिखा है कि जमीन चपटी है। लेकिन बाइबिल में जो लिखा है, जमीन चपटी है, यह बाइबिल के जमाने के वैज्ञानिकों की घोषणा है। यह कोई धार्मिक घोषणा नहीं है। इसलिए अगर वितान ने खोज कर ली कि जमीन गोल है, तो ठीक है, पुरानी बात गलत हो गई। लेकिन पुराना विज्ञान गलत हुआ।
विज्ञान कभी भी धर्म को गलत नहीं कर सकता और न धर्म कभी विज्ञान को गलत कर सकता है। उनका कोई संबंध नहीं है। उनका कोई लेन—देन नहीं है। उनके बीच कोई कम्युनिकेशन भी नहीं है, वह आयाम ही भिन्न है। वे दिशाएं बिलकुल अलग हैं।
यह पांच तत्वों की खोज एक सौ आठ तत्वों तक चली गई थी और विज्ञान ने पाया कि पुराने पांच तत्व गलत ही थे। गलत ही थे। असल में जिनको पहले तत्व कहा था, वे तत्व नहीं थे, कंपाउंड्स थे, एलीमेंट्स नहीं थे। जैसे मिट्टी, अब मिट्टी में हजार तत्व हैं। कोई मिट्टी में एक तत्व नहीं है। जैसे पानी, तो पानी में, अब विज्ञान कहता है, दो तत्व हैं, हाइड्रोजन और आक्सीजन। एक तत्व नहीं है पानी। पानी दो तत्वों का जोड़ है। जोड़ को विज्ञान तत्व नहीं कहता, संयोग कहता है, जोड़ कहता है। तो पानी तो कोई तत्व नहीं रहा। आक्सीजन और हाइड्रोजन तत्व हो गए। इस तरह एक सौ आठ तत्व वितान ने खोज लिए।
लेकिन फिर विज्ञान को भी धीरे— धीरे, जैसे—जैसे गहरी खोज हुई, एक बात खयाल में आने लगी कि इन सब तत्वों के, एक सौ आठ तत्वों के घटक समान हैं। हाइड्रोजन हो कि आक्सीजन हो, उन दोनों का निर्माण विद्युत से ही होता है। तो फिर तो, फिर तो इसका मतलब हुआ कि हाइड्रोजन और आक्सीजन भी तत्व नहीं रह गए। तत्व तो विद्युत हो गई, इलेक्ट्रिसिटी हो गई। विद्युत के ही कुछ कणों का जोड़ हाइड्रोजन बनता है और कुछ कणों का जोड़ आक्सीजन बनता है। और ये एक सौ आठ तत्व विद्युत के ही कणों के जोड़ हैं। अगर तीन कण होते हैं, तो एक तत्व बन जाता है। दो कण होते हैं, तो एक तत्व बन जाता है। चार होते हैं, तो एक तत्व बन जाता है। लेकिन वे तीन हों कि चार हों कि दो हों, वे सभी इलेक्ट्रान्स हैं, बिजली के कण हैं। तो फिर विज्ञान को एक नई अनुभूति हुई और वह यह हुई कि तत्व तो सिर्फ विद्युत है, एक। बाकी ये एक सौ आठ तत्व भी गहरे में कंपाउंड हैं। ये भी जोड़ हैं। ये भी तत्व नहीं हैं। ये भी मूल नहीं हैं।
आज जो वितान की स्थिति है उसमें वह यह मानने को तैयार हो गया है कि विद्युत अनिर्मित है — स्वयंभू है। और विद्युत एकमात्र तत्व है, जिससे सारा फैलाव है। विद्युत, चूंकि कंपाउंड नहीं है, मिला हुआ नहीं है दो तत्वों से, इसलिए अनिर्मित है। तत्व कहता विज्ञान उसे है, जो स्वयंभू है। तो अब विज्ञान कहता है कि विद्युत स्वयंभू तत्व है। वह नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि जो चीज जोड़कर बन सकती है, वह बनाई जा सकती है। दो चीजों को आप जोड़ देंगे, तीसरी चीज बन जाएगी। तीन चीजों को जोड़ देंगे, चौथी चीज बन जाएगी।
लेकिन मौलिक तत्व, जो ओरिजिनल एलीमेंट है, जो बिना जोड़ का है, उसको आप कैसे बनाएंगे? उसको बना भी नहीं सकते, मिटा भी नहीं सकते। अगर हमें पानी को मिटाना हो, हम मिटा सकते हैं। हाइड्रोजन और आक्सीजन को अलग कर देंगे, पानी मिट जाएगा, क्योंकि वह जोड़ है। अगर हमें हाइड्रोजन को मिटाना है, तो हम उसे भी मिटा देंगे। अगर हमने उसके विद्युत के कणों को अलग कर दिया — जिसको हम एटामिक एनर्जी कहते हैं, वह सिर्फ विद्युत के कणों को अलग करना है — तो हाइड्रोजन मिट जाएगी, हाइड्रोजन नहीं बचेगी। सिर्फ विद्युत ऊर्जा रह जाएगी। सिर्फ शक्ति रह जाएगी। लेकिन उस शक्ति को हम नहीं मिटा सकते, क्योंकि उसमें दो का जोड़ नहीं है, जिनको हम अलग कर सकें। हम सिर्फ इतना ही कर सकते हैं, या तो चीजों को जोड़ सकते हैं या तोड़ सकते हैं। सृजन नहीं कर सकते। तो तत्व वह है, जो असृजित है, जिसका हम सृजन नहीं कर सकते।
विज्ञान अभी कहता है कि इलेक्ट्रिसिटी, विद्युत ऊर्जा स्वयंभू तत्व है। लेकिन धर्म कहता है, आत्मतत्व स्वयंभू है। कोई हैरानी न होगी कि आज नहीं कल विज्ञान की और खोज विद्युत को भी तोड़ ले। और हम पाएं कि विद्युत भी स्वयंभू नहीं है। क्योंकि पहले हम पाते थे कि पानी तत्व है, फिर हमने तोड़ा तो पाया कि हाइड्रोजन और आक्सीजन तत्व है, पानी तत्व नहीं है। फिर हमने हाइड्रोजन को भी तोड़ लिया तो पाया कि हाइड्रोजन भी तत्व नहीं है, विद्युत तत्व है। अभी विद्युत या तो आत्मतत्व और विद्युत एक ही चीज सिद्ध हों, और या फिर विद्युत भी टूट जाए और हमें पता चले कि वह भी तत्व नहीं है। जहां तक मेरी समझ है, विद्युत भी टूट सकेगी। और जिस दिन विद्युत टूटेगी उस दिन हम पाएंगे कि चेतना, कांशसनेस, विद्युत के टूटते ही...।
अब यह बहुत मजे की बात है कि पत्थर को कोई भी नहीं कह पाएगा कि एनर्जी है, शक्ति है। पत्थर पदार्थ है। पुराना भेद हमारा है मैटर और एनर्जी का, पदार्थ और शक्ति का। पदार्थ — पत्थर है पदार्थ। लेकिन जब पत्थर को तोड़ा गया, तोड़ा गया, और एनालिसिस, और विश्लेषण, और जब अंतिम जाकर अणु का विस्फोट हुआ, तो पदार्थ खो गया, बची ऊर्जा। और विज्ञान को एक पुराना जो निरंतर का द्वैत था, वह समाप्त कर देना पड़ा। मैटर ओर एनर्जी का जो पुराना द्वैत था कि एक है पदार्थ और एक है शक्ति, वह समाप्त कर देना पड़ा। पदार्थ के टूटने पर पता चला कि पदार्थ नहीं है, सिर्फ शक्ति ही है। मैटर इज एनर्जी। कहना पड़ा कि पदार्थ ही ऊर्जा है। अब पदार्थ जैसी कोई चीज नहीं है।
आज विज्ञान की जो नवीनतम शोध है, उसमें पदार्थ जैसी कोई भी चीज नहीं है। पदार्थवादी को बहुत सचेत हो जाना चाहिए। अब पदार्थ जैसी कोई चीज ही नहीं, सिर्फ ऊर्जा है। जब तक पदार्थ के नीचे हम नहीं उतरे थे, तब तक दो चीजें थीं। पदार्थ था और ऊर्जा थी। निश्चित ही, एक पत्थर को उठाएं हाथ में और फिर बिजली के तार को छुए, तो फर्क पता चलेगा। पत्थर को हाथ में उठाएं और बिजली के तार को छुए, तो पत्थर पदार्थ मालूम होता है और बिजली के तार से जो बहती है वह ऊर्जा है। दोनों में बड़ा भेद है।
लेकिन अब विज्ञान कहता है कि पत्थर को भी तोड़ दें हम, तो आखिर में वही ऊर्जा मिल जाती है, जो बिजली के तार से बहती है। उसी को तोड़कर तो हिरोशिमा में हमने एक लाख आदमी मारे। वह बिजली का धक्का है। पदार्थ के विखंडन से, एक छोटे से अणु के विस्फोट से इतनी ऊर्जा पैदा हुई कि हिरोशिमा में एक लाख और नागासाकी में एक लाख बीस हजार आदमी मरे। बड़ी से बड़ी बिजली को भी छूकर इतने आदमी नहीं मर सकते। एक छोटे से कण से इतनी बिजली पैदा हुई। लेकिन वह कण खो गया बिजली होकर। तो अब विज्ञान कहता है कि हमारा पुराना जो द्वैत था — पदार्थ और ऊर्जा का — वह नष्ट हो गया। अब तो ऊर्जा है।
अब मैं आपसे कहता हूं कि एक और अभी भेद रह गया है, ऊर्जा और चेतना का। एनर्जी और कांशसनेस का। बिजली को हम छूते हैं, तो पता लगता है, शक्ति है। लेकिन जब एक आदमी से हम बात करते हैं, तो सिर्फ इतना ही नहीं लगता कि यह शक्ति है — चेतना भी मालूम पड़ती है। बिजली दौड़ रही है, यह टेपरिकार्डर बोलेगा, तो टेपरिकार्डर वही बोलेगा जो मैं बोल रहा हूं। लेकिन जब टेपरिकार्डर बोलेगा तो सिर्फ ऊर्जा है। लेकिन जब मैं बोल रहा हूं तो सिर्फ ऊर्जा नहीं है, चेतना भी है। इसलिए टेपरिकार्डर अदल—बदल नहीं कर सकेगा। जो मैंने बोला है, वही बोलेगा। और मैं चाहूं भी तो कल यह नहीं बोल सकूंगा जो आज बोल रहा हूं। क्योंकि मैं कोई यंत्र नहीं हूं। मुझे खुद भी पता नहीं है कि इस वचन के बाद कोन सा वचन निकलेगा। जब आप सुनेंगे तभी मैं भी सुनूंगा।
चेतना और ऊर्जा का फासला अभी कायम है। कहना चाहिए कि पुराना जो था जगत, वह द्वैत नहीं था, द्वैत था — पदार्थ, ऊर्जा, चेतना; मैटर, एनर्जी, कांशसनेस — वह त्रैत था। उसमें से एक तो गिर गया। पदार्थ गिर गया। अब द्वैत रह गया — ऊर्जा और चेतना। पदार्थ को गहरे में खोजने से पदार्थ नष्ट हो गया और हमने पाया कि ऊर्जा है। और मै आपसे कहता हूं कि ऊर्जा को गहरे में खोजने से ऊर्जा भी गिर जाएगी, और हम पाएंगे कि चेतना है। उस चेतना का नाम आत्मतत्व है। जहां सब गिर जाएगा, न पदार्थ होगा, न ऊर्जा होगी, सिर्फ कांशसनेस।
इसलिए हमने उस परम तत्व को सच्चिदानंद कहा है। तीन शब्दों का उपयोग किया है उस आत्मतत्व के लिए। सत — सत का अर्थ होता है एक्सिस्टेंट, जो है। और जो कभी नहीं नहीं होता, जो सदा है। सत का अर्थ है, जो सदा है। जो कभी भी ऐसी स्थिति में नहीं होता कि आप कह सकें, नहीं है। है ही। सब कुछ बदलता चला जाए, वह है ही। चित का अर्थ होता है — चैतन्य, कांशसनेस। वह अकेला है ही, ऐसा ही नहीं, उसे पता भी है कि मैं हूं। एक चीज हो सकती है, एक पत्थर पड़ा है, वह है। तब वह सिर्फ एक्सिस्टेंट है। लेकिन इस पत्थर को यह भी पता है कि मैं हूं तब वह चित भी है। तब वह कांशसनेस भी है। और तीसरा शब्द हम कहते हैं, आनंद। इतना ही नहीं कि वह आत्मतत्व है, इतना ही नहीं कि वह चैतन्य है, इतना ही नहीं कि वह है और उसे पता है कि मैं हूं। इतना भी कि जैसे ही उसे पता चलता है कि हूं मैं हूं उसे यह भी पता चलता है कि मैं आनंद हूं।
इस आत्मतत्व को स्वयंभू कहा है इस सूत्र में। उसे किसी ने बनाया नहीं है। उसे कोई मिटा नहीं सकेगा। इसीलिए — ध्यान रहे — स्वयंभू है, इसीलिए अमृत है। जो चीज बनेगी, वह मिटेगी। जो चीज निर्मित होगी, वह नष्ट होगी। कोई निर्माण शाश्वत नहीं हो सकता। कोई निर्माण नित्य नहीं हो सकता।
सब निर्मितिया समय में बनती हैं और समय में मिट जाती हैं। असल में जिस चीज का भी जन्म होगा, वह मरेगी। कितना ही मजबूत बनाएं, थोड़ी देर लगेगी मिटने में, लेकिन मिटेगी। महल चाहे कागज के पत्तों के बनाए जाएं — गिर जाते हैं। और चाहे सख्त पत्थर के बनाए जाएं — गिर जाते हैं। और चाहे फौलाद के बनाए जाएं — तो गिर जाते हैं। हां, देर लगती है, समय लगता है। ताश के पत्तों के घर को हवा का एक झोंका गिरा देता है। पत्थर की दीवारों के महलों को हवा के लाखों झोंके गिरा पाते हैं, लेकिन गिरा देते हैं। मात्रा का फर्क पड़ता है।
ताश के पत्तों के घर में और पत्थर के महलों में जो फर्क है, वह मात्रा का फर्क है कि कितने हवा के झौंके गिरा पाएंगे। बुनियादी अंतर नहीं है। क्योंकि ताश का घर भी बनाया गया है इसलिए गिरेगा, और महल भी बनाए गए हैं इसलिए गिरेंगे। जहां एक छोर पर निर्माण होगा, वहां दूसरे छोर पर विध्वंस होगा।
स्वयंभू है, इसलिए आत्मतत्व अमृत है। क्योंकि एक छोर पर कभी बना नहीं इसलिए दूसरे छोर पर कभी मिटेगा नहीं। तो स्वयंभू में एक बात तो है कि अनिर्मित है और दूसरी बात है कि अमृत है, इम्मार्टल है, नष्ट नहीं हो सकता।
यह भी आपसे कह दूं कि इससे विज्ञान भी राजी होता है कि जो तत्व दो से मिलकर बना है, वह मिटेगा। जो तत्व एक से बना है, वह नहीं मिट सकता। उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि उसके बनने का कोई उपाय नहीं है। बनाना हो तो चीजें मिलानी पड़ती हैं। मिटाना हो तो अलग कर देनी पड़ती हैं। बनाना जोड़ना है, मिटाना बिखराना है। लेकिन जो तत्व इकहरा है, जिसमें कोई दूसरा तत्व नहीं है, उसको मिटाया नहीं जा सकता है। उसको मिटाएंगे कैसे? उसे तोड़ा नहीं जा सकता। वह दो होता तो टूट जाता। वह एक ही है। वह सदा रहेगा।
तत्व स्वयंभू होगा और तत्व अमृत —होगा। उस तत्व को उपनिषद आत्मतत्व कहते हैं। फिर कुछ और बातें भी गिनाई हैं जो इसके बाद अनिवार्य हैं।
कहा है कि वह स्वयंभू आत्मतत्व सर्वज्ञ है।
सर्वज्ञ का क्या अर्थ होगा? सर्वश के दो अर्थ हो सकते हैं। और आमतोर से जो गलत ''पर्थ होगा दो में, वही प्रचलित है। अक्सर ऐसा होता है कि जो चीज प्रचलित होती है अक्सर गलत होती है। ज्ञान इतना गढ़ है कि बहुत प्रचलित नहीं होता। अज्ञान सबकी समझ में आ जाता है, सहज प्रचलित हो जाता है।
सर्वज्ञ का एक अर्थ तो होता है, आल नोइंग — सब कुछ जानता है। यही अर्थ प्रचलित है। इसलिए जैसे उदाहरण के लिए जैनों ने महावीर को सर्वज्ञ कहा है। कहा था इसीलिए कि जब आत्मतत्व जान लिया गया तो आदमी सर्वज्ञ हो गया। क्योंकि आत्मतत्व का लक्षण है सर्वज्ञ होना — सब जान लिया। महावीर ने खुद कहा है, जिसने एक को जाना उसने सब जान लिया। तो फिर ठीक है, महावीर ने सब जान लिया। तो फिर पीछे अनुयायी जो है, वह सोचता है कि महावीर को यह भी पता होगा कि साइकिल का पंक्चर कैसे जोड़ा जाता है। लेकिन महावीर को साइकिल का भी कोई पता नहीं। तो फिर महावीर को पता होना चाहिए कि हवाई जहाज कैसे बनाया जाता है।
सर्वत का अगर यह अर्थ लिया, तो बड़ी भ्रांति होती है और इससे बड़ी तकलीफें हुईं। महावीर को जिस दिन इस तरह सर्वज्ञ माना जैनों ने, उसी दिन तकलीफ में पड़ गए। फिर उनकी इस बात की बुद्ध ने बहुत मजाक उड़ाई। बुद्ध ने बहुत जगह बहुत मजाक उड़ाई है। और महावीर के सर्वज्ञता की मजाक अनुयायियों की मजाक है। क्योंकि अनुयायियों ने जो दावा करना शुरू किया वह यह है कि महावीर सब जानते हैं। तो बुद्ध ने बहुत जगह मजाक में कहा है कि मैंने सुना है कि किसी के संबंध में कुछ लोग दावा करते हैं कि वे सर्वज्ञ हैं। लेकिन उन्हें मैंने ऐसे घर के सामने भीख मांगते देखा है जिस घर में कोई था ही नहीं। पीछे पता चला कि घर खाली है। उन्हें मैंने सुबह के धुंधले अंधेरे में चलते हुए देखा है और सुना डे कि कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ गया तब उन्हें पता चला कि कुत्ता रास्ते में सोया हुआ है। यह बुद्ध ने मजाक उड़ाई है सर्वज्ञता के उस अर्थ की। सर्वज्ञता का वह अर्थ नहीं है। बुद्ध ने कहा है कि जिन्हें लोग सर्वज्ञ कहते हैं उनके संबंध में मैंने सुना है कि वह भी गांव के बाहर आकर लोगों से पूछते हैं कि यह रास्ता कहां जाता है! तो यह ठीक है, महावीर को भी पूछना पड़ता है कि रास्ता कहां जाता है। लेकिन यह मजाक महावीर की नहीं है। महावीर का ऐसा कोई दावा नहीं है। दावेदार अनुयायी हैं, जो कहते हैं कि उनके महावीर सब जानते हैं। कोन सा रास्ता कहां जाता है, यह भी जानते हैं।
नहीं, सर्वज्ञ का दूसरा ही अर्थ है, बहुत निगेटिव। यह बहुत पाजिटिव अर्थ गलत है। यह बहुत विधायक — सब जानते हैं। नहीं, सर्वज्ञ का निषेधात्मक अर्थ है कि जानने को ० शेष नहीं रहता। सर्वज्ञ का अर्थ है कि जानने को कुछ शेष नहीं रहता। ऐसा कुछ नहीं बचता जो जानने योग्य है। रास्ता कहां जाता है, यह भी कोई जानने योग्य बात है? घर में है या नहीं, यह भी कोई जानने योग्य बात है? न जाना तो हर्ज क्या है! रास्ते पर कुत्ता सोया है या नहीं सोया है, यह भी कोई जानने योग्य बात है? न जाना तो हर्ज क्या है!
सर्वज्ञ का मेरी दृष्टि में जो अर्थ है वह यह कि ऐसा कुछ भी नहीं बचता आत्मतत्व में, जो जानने योग्य है और न जान लिया गया हो। जो भी जानने योग्य है वह जान लिया गया, आत्मा को जानते ही — आल दैट इज वर्थ नोइग। कामचलाऊ जगत में बहुत सी बातें मालूम पड़ती हैं कि जानने योग्य हैं, लेकिन क्या फर्क पड़ता है। सर्वज्ञ का मेरे लिए जो पर्थ है वह है, ऐसा कुछ भी नहीं बचा जो जानने योग्य है। ऐसा कुछ भी नहीं बचा, जिसके कारण जीवन के आनंद मै रत्तीभर भी फर्क पड़ता हो। ऐसा कुछ भी जानने को नहीं बचा, जिससे सच्चिदानंद होने में कोई भी भेद पड़ता है। रास्ता यह बाएं जाता है, तो पहुंचता होगा कहीं। यह रास्ता दाएं जाता है, तो पहुंचता होगा कहीं। लेकिन इससे सच्चिदानंद स्वरूप में कोई फर्क नहीं पड़ता है। और महावीर भटक भी जाएं और गलत गांव पहुंच जाएं, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि ठीक मंजिल पर पहुंचा हुआ आदमी कहीं भी भटके, क्या फर्क पड़ता है! और हम जो कि ठीक मंजिल पर नहीं पहुंचे, बिलकुल ठीक गांव भी पहुंच जाए, तो क्या होने को है? और हमें सब रास्ते बिलकुल ठीक—ठीक पता हैं, हम बिलकुल पी. डब्लू डी. नक्शा हैं, तो भी क्या फर्क पड़ता है?
तो सर्वज्ञ का मैं अर्थ करता हूं और मैं जानता हूं कि सर्वज्ञ का ऐसा अर्थ न किया 'जाए तो मखौल हो जाता है, मजाक हो जाती है। तो महावीर को बहुत मखौल व्यर्थ झेलनी पड़ी उनके पीछे चलने वाले लोगों की वजह से। क्योंकि उन्होंने जो दावे किए, वे बेमानी शे। वह. इसलिए अब बड़ी तकलीफ है उनको।
अभी जैसे कि पहली दफा अंतरिक्ष यात्री चांद पर उतरे, तो जैन साधुओं को बड़ा कष्ट हुआ। कष्ट हुआ, क्योंकि वे कहते हैं कि उनके शास्त्र में लिखा है कि चांद कैसा है। चांद वैसा नहीं पाया गया। और शास्त्र को वे मानते हैं, उन्होंने कहा है जो सर्वश थे, तो उनकी बात गलत हो ही नहीं सकती! तो जैन साधुओं ने यहां तक कहा कि ये भ्रांति में हैं लोग कि चांद पर उतर गए हैं। ये चांद पर नहीं उतरे, बल्कि चांद के इस तरफ देवताओं के जो वाहन ठहरे रहते हैं, बैलगाड़ियां, रथ, ये उन पर उतर गए हैं। और वहीं से लौट आए हैं, ये चांद पर नहीं उतरे हैं।
एक जैन मुनि ने तो पैसा इकट्ठा करना शुरू कर दिया — और नासमझ मिल गए जिन्होंने लाखों रुपया भी दिया — यह सिद्ध करने के लिए कि वह सिद्ध करेंगे एक प्रयोगशाला में कि ये किसी देवता के वाहन पर उतरकर लौट आए वापस, चांद तक नहीं पहुंचे। चांद पर पहुंचेंगे तो चांद वैसा ही होगा जैसा हमारे शास्त्र में लिखा है, क्योंकि वह शास्त्र सर्वज्ञ का कहा हुआ है।
अगर ऐसा दावा किया तो वह शास्त्र दो कोड़ी का हो जाएगा। तुम्हारी नासमझी की वजह से वह शास्त्र दो कोड़ी का हो जाएगा। अगर तुम्हारे शास्त्र में कहीं भी कहा हुआ है कि चांद कैसा है और गलत होता है, तो वह शास्त्र का वक्तव्य उस जमाने के वैज्ञानिक का वक्तव्य है, आत्मज्ञानी का नहीं। और आत्मज्ञानी' को क्या मतलब है कि वह वक्तव्य दे कि चांद पर किस तरह के पत्थर हैं और नहीं हैं। और अगर देता भी हो ऐसा वक्तव्य, तो वह आत्मज्ञानी की हैसियत से दिया गया नहीं है। पर इससे बड़ी मुश्किल होती है।
अब आइंस्टीन जैसा विचारक है, गणितज्ञ है। पर गणितज्ञ होने पर ही पूरा समाप्त थोड़े ही है, उसकी जिंदगी में और भी बहुत कुछ है। जब वह ताश खेलता है, तब गणित नहीं है। और जब किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है, तब गणित का क्या लेना—देना है। तब अगर वह स्त्री से कह दे कि तुझसे सुंदर कोई भी नहीं, तो यह कोई मैथमेटिकल स्टेटमेंट नहीं है, कि इसको कोई कल दावा करे कि आइंस्टीन ने कहा, कि इतना बड़ा गणितज्ञ, तो उसने सारी दुनिया की स्त्रियों के सौंदर्य को नापकर, जोखकर कहा होगा कि यह स्त्री सबसे ज्यादा सुंदर है। यह तो कोई भी कहता रहा है। हर स्त्री को कहने वाले मिल जाते हैं। इसके लिए किसी के गणितज्ञ होने की जरूरत नहीं है। पर यह गणितज्ञ की हैसियत से नहीं कहा गया है। यह हैसियत एक प्रेमी की है। और प्रेम जिससे हो जाता है उससे सुंदर कोई भी दिखाई नहीं पड़ता। ऐसा नहीं है कि प्रेम उससे हो जाता है जो सबसे ज्यादा सुंदर है। प्रेम जिससे हो जाता है वह सबसे ज्यादा सुंदर दिखाई पड़ता है। वह प्रेम के द्वारा पैदा हुआ इल्यूजन है।
तो अगर किसी आत्मज्ञानी ने कोई वैज्ञानिक वक्तव्य भी दिए हों तो वे वक्तव्य वैज्ञानिक हैं, उनका कोई आत्मज्ञान से लेना—देना नहीं है।
आत्मज्ञानी सर्वज्ञ है इस अर्थ में कि अब ऐसा कुछ भी नहीं बचा है जिसे जानने से उसके आनंद में कोई बढ़ती होगी। बस, उसका आनंद पूरा है। ऐसा कोई भी अज्ञान नहीं बचा है जो उसके आनंद में बाधा डालता हो। उसका सब अज्ञान नष्ट हो गया। उसका क्रोध, उसका मोह, उसका लोभ नष्ट हो गया। वह परम आनंदित है।
सर्वज्ञ का अर्थ है, परम आनंद में प्रतिष्ठित। ऐसे ज्ञान को जान लिया जिसने, जिससे आनंद प्रतिष्ठित हो जाता है और दुख की संभावना विदा हो जाती है।
तो आत्मतत्व सर्वज्ञ है, इस अर्थ में। त्रिकालज्ञ के अर्थ में नहीं कि तीनों काल का उसे पता है कि कल क्या होगा और परसों क्या होगा, कि इलेक्यान में कोन जीतेगा और कोन नहीं जीतेगा। ऐसा उसे कुछ भी पता नहीं है। ऐसा पता होने का कोई कारण भी नहीं है, कोई जरूरत भी नहीं है। यह सारा समय के भीतर में होने वाला खेल उसके लिए पानी पर खींची गई रेखाओं जैसा हो गया है। वह इसका कोई हिसाब नहीं रखता है। यह उसके लिए स्वभवत हो गया है कि कोन जीतता है और कोन हारता है। यह बच्चों की दुनिया की बात हो गई। वह प्रौढ़ हो गया। उसे इस सबसे कोई लेना—देना नहीं है।
सर्वज्ञ, उस तत्व को जानकर सर्वज्ञता आ जाती है। अर्थात अज्ञान गिर जाता है। अर्थात लोभ, मोह, क्रोध, जो अज्ञान से पैदा होते हैं, वे गिर जाते हैं। अर्थात आनंद, जो ज्ञान से जन्मता है, वह उपलब्ध हो जाता है। वह दीया जल जाता है जो ज्ञान का है और जिसकी रोशनी में परम आनंद की प्रतिष्ठा है; शाश्वत, नित्य आनंद की प्रतिष्ठा है।
ऐसा जो आत्मतत्व है उसका तीसरा लक्षण कहा है, शुद्ध — सदा शुद्ध, सदा पवित्र, सदा निर्दोष। जब हम अशुद्ध हुए मालूम पड़ते हैं तब भी वह अशुद्ध नहीं हुआ। हमारी सारी अशुद्धि हमारी भ्रांति है। जैसा कल मैं रात कह रहा था कि सूर्य का प्रतिबिंब गंदे डबरे में भी उतना ही शुद्ध है, ऐसा ही वह आत्मतत्व रावण के भीतर भी उतना ही शुद्ध है जितना राम के भीतर। जरा भी फर्क नहीं है उसकी शुद्धि में। असल में शुद्ध होना उसका कोई सांयोगिक लक्षण नहीं है। उसका स्वभाव लक्षण है। इसलिए सांयोगिक लक्षण और स्वभाव लक्षण के भेद को समझ लें तो यह बात खयाल में आ जाएगी।
दो तरह के लक्षण होते हैं। एक्सीडेंटल, सांयोगिक। सांयोगिक लक्षण वह है, जो फारेन है, विजातीय है। आपसे जुड़ता है, आपके भी तर से नहीं आता। जैसे एक आदमी बेईमान है। बेईमानी एक्सीडेंटल है, सांयोगिक है, स्वरूपगत नहीं है; सीखी गई है, अर्जित है। इसीलिए तो कोई आदमी चौबीस घंटे बेईमान नहीं रह सकता। बेईमान से बेईमान भी चौबीस घंटे बेईमान नहीं रह सकता। क्योंकि जो भी अर्जित है वह बोझ रूप है, उसे उतारकर रखना पड़ता है, विश्राम करना पड़ता है। वह स्वभाव नहीं है। इसलिए बेईमान से बेईमान आदमी किन्हीं के साथ ईमानदार होता है। और कई बार तो ऐसा होता है कि बेईमान आदमी आपस में जितने ईमानदार होते हैं, उतने ईमानदार आदमी भी आपस में ईमानदार नहीं होते। उसका कारण है कि जिसको हम ईमानदारी कहते हैं, वह भी अर्जित है। उससे भी छुटकारा लेना पड़ता है। जो भी चीज अर्जित है, एक्सीडेंटल है, उसके साथ आप सदा नहीं हो सकते। आपको बीच—बीच में छुट्टी देनी पड़ेगी। आपको थोड़ी छुट्टी लेनी पड़ेगी, नहीं तो बोझ हो जाएगा, तनाव बढ़ जाएगा।
इसलिए गंभीर आदमी को मनोरंजन करना पड़ता है। क्योंकि गंभीरता बोझ हो जाती है। महावीर को या बुद्ध को मनोरंजन की कोई जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि कोई गंभीरता का बोझ ही नहीं है। यह आप ध्यान में लें। हम आमतोर से समझते हैं कि वे इतने गंभीर हैं, इसलिए सिनेमागृह में नहीं बैठते, नाटक देखने नहीं जाते। नहीं, अगर इतने गंभीर हैं तो उनको नाटक देखने जाना ही पड़ेगा। नहीं, वे गंभीर हैं ही नहीं। इसका यह मतलब भी नहीं है कि वे गैर—गंभीर हैं। गंभीरता और गैर—गंभीरता बेईमानी हैं। वे तो वही हैं, जो निजता है, जो स्वभाव है। वे कुछ अर्जित नहीं करते ऊपर से, इसलिए किसी चीज से छुट्टी नहीं लेनी पड़ती। अगर किसी आदमी ने संतत्व को भी आदत बना ली, तो उसको हाली डे पर जाना पड़ेगा। उसको दो—चार—आठ दिन में, महीने पंद्रह दिन में संतत्व से छुट्टी लेनी पड़ेगी। और जब तक घंटे दो घंटे वह गैर—संत की दुनिया में प्रवेश न कर जाए, तब तक वापस फिर संत होना नहीं हो पाएगा। मुश्किल पड़ेगा।
एक्सीडेंटल क्यालिटीज़, सांयोगिक गुण हैं, जो हम सीखते हैं, अर्जित करते हैं, बाहर से हम पर आते हैं; भीतर से नहीं आते। सब कुछ हमारा सीखा हुआ है। जैसे समझें भाषा — भाषा सांयोगिक है, सीखी हुई है। तो कोई हिंदी सीख सकता है, कोई मराठी सीख सकता है, कोई अंग्रेजी, कोई जर्मन। हजार भाषाएं हैं। और हजार और हो सकती हैं, कोई अड़चन नहीं है। कोई अड़चन नहीं है। एक—एक आदमी एक—एक भाषा बोल सकता है, कोई अड़चन नहीं है। कोई अंत नहीं है, इतनी भाषाएं हम बना सकते हैं, सांयोगिक है।
लेकिन मौन? मौन सांयोगिक नहीं है। इसलिए दो आदमी बोलते हों तो बोलने में भेद हो सकता है, लेकिन दो आदमी पूरी तरह मौन हो जाएं तो उनमें कोई भेद नहीं हो सकता है। भाषा में विवाद हो सकता है, मौन में कोई विवाद नहीं हो सकता। और जब दो आदमी बिलकुल मौन होते हैं तो उनकी भीतरी क्वालिटी में कोई फर्क नहीं रह जाता। दो साइलेंस में क्या फर्क होगा? दो मौन में क्या भेद होगा?
लेकिन मौन अगर ऊपर से थोपा हुआ हो तो भेद होगा, क्योंकि भीतर भाषा चलती रहेगी। सिर्फ चुप हैं दो आदमी तो भेद होगा। मैं चुप बैठा हूं आप मेरे बा में चुप बैठे हैं। तो मैं अपना सोचता रहूंगा, आप अपना सोचते रहेंगे। सोचना जारी रहेगा। ओंठ बंद रहेंगे। ओंठ तो लगेंगे, बिलकुल एक से हैं, भीतर सब भेद चलता रहेगा। हम भीतर हजारों मील के फासले पर होंगे। पता नहीं आप कहां हों, और मैं कहा हूं। लेकिन अगर सच में मौन आ गया — ऊपर से अर्जित नहीं, भीतर से खिला हुआ; ऊपर से थोपा गया नहीं, भीतर से आविर्भूत — हम बिलकुल ही चुप हो गए; भीतर भी शब्द खो गए, भाषा खो गई, तो मुझमें और आपमें कोन सा भेद होगा? कोन सा फासला होगा? हम एक ही जगह हो जाएंगे। हम एक जैसे हो जाएंगे। हमारी दो ज्योतियां धीरे— धीरे मौन होते—होते एक ज्योति बन जाएंगी। दो भी नहीं रह जाएंगी। क्योंकि दो को फासला करने वाली बीच की कोई बाउंड्री लाइन नहीं बचेगी। भेद से बनती है सीमा, अभेद में गिर जाती है।
तो मौन तो — चिर मौन, अंतर मौन तो स्वभाव है। भाषा सांयोगिक है। जो—जो सांयोगिक है वह सदा रहने वाला नहीं है। इसलिए मजे की बात है, आप चौबीस घंटे क्रोध नहीं कर सकते, लेकिन चौबीस घंटे क्षमा में हो सकते हैं। सोचें इसे! चौबीस घंटे क्रोध में नहीं हो सकते। क्रोध में चढ़ेंगे, उतरेंगे। चौबीस घंटे क्रोध में नहीं हो सकते। लेकिन क्षमा में चौबीस घंटे होने में कोई बाधा नहीं है। चौबीस घंटे हो सकते हैं। घृणा में अगर जीना हो तो चौबीस घंटे नहीं जी सकते, नर्क हो जाएगी खुद के लिए। लेकिन अगर प्रेम में जीना हो तो चौबीस घंटे जी सकते हैं।
लेकिन जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें भी हम चौबीस घंटे नहीं जी सकते। उसमें भी हम चौबीस घंटे नहीं जी सकते। जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह भी पीरियाडिकल है, वह भी अवधि का है। चौबीस घंटे में दस—पांच मिनट प्रेमपूर्ण हो सकते हैं, बाकी नहीं हो सकते। और अगर कोई ज्यादा आग्रह करे कि और प्रेमपूर्ण हों, तो दस—पांच मिनट भी होना मुश्किल हो जाता है।
क्यों? क्योंकि जो स्वभाव है उसी में हम सदा हो सकते हैं। जो भी विभाव है और बाहर से लिया गया है उसमें हम सदा नहीं हो सकते। उसे उतारना ही पड़ेगा। उस बोझ से हटना ही पड़ेगा।
आत्मा शुद्ध है, इसका यह अर्थ नहीं है कि वह कभी अशुद्ध हो जातो है और फिर हमें शुद्ध करनी पड़ती है। अगर आत्मा अशुद्ध हो सके, तो फिर हम शुद्ध न कर पाएंगे। फिर कोन शुद्ध करेगा? हम ही अशुद्ध हो गए। शुद्ध करने वाला भी नहीं बचेगा। कोन करेगा शुद्ध? जो शुद्ध कर सकता था, वह खुद ही अशुद्ध हो गया है। अब तो वह अशुद्ध आत्मा जो भी करेगी वह सभी अशुद्ध होगा।
नहीं, आत्मा अशुद्ध हो जाती है और हमें शुद्ध करनी पड़ती है, ऐसा नहीं है। आत्मा शुद्ध है। सिर्फ हम अशुद्ध गुणों को अपने चारों तरफ इकट्ठा कर लेते हैं। जैसे कि एक दीए के चारों तरफ हम काला पर्दा लटका दें। दीया इससे अंधेरा नहीं हो जाता। दीया अब भी अपनी रोशनी में ही जलता रहता है। लेकिन चारों तरफ का काला पर्दा, चारों तरफ रोशनी को पहुंचने से रोक देता है। और अगर दीया हमारे जैसा पागल हो और धीरे— धीरे भूल जाए कि मैं दीया हूं और समझने लगे कि मैं काला पर्दा हू तो कठिनाई जो पैदा हो जाएगी वही कठिनाई हमारे साथ है।
हमारा स्वयं के निज स्वभाव से तो संबंध टूट जाता है और शरीर और मन और विचार और वृत्ति और वासना का जो हमारे चारों तरफ जाल है, उससे हमारा तादात्म्य हो जाता है। हम कहने लगते हैं, यह हूं मैं, यह हूं मैं। वह जो भीतर है, वह किसी चीज के साथ अपना तादात्म्य कर लेता है और कहने लगता है, यह हूं मैं। और इतना शुद्ध है वह भीतर का तत्व, इतना निर्मल है कि किसी भी चीज की जब छाया उसमें बनती है तो पूरी बन जाती है। और उस छाया को हम पकड़ लेते हैं। कहने लगते हैं, यह हूं मैं। शुद्धि के कारण ही यह दुर्घटना भी घटती है। अगर दर्पण होश में आ जाए और आप दर्पण के सामने खड़े हों और दर्पण अपने भीतर झांककर देखे और पाए कि आपकी तस्वीर बनी और आपको सामने खड़ा देखे, और दर्पण कहे कि यह हूं मैं, वही भूल हो जाती है।
शुद्ध है आत्मा। उसकी शुद्धि के कारण इतनी निर्मल झील की तरह है कि जो भी उसके आसपास आता है, वह उसमें दर्पण की तरह झलकता है। जो भी! शरीर पास आता है तो दर्पण की तरह झलकता है, तो आत्मा कहती है, मैं हूं शरीर। और कितना शरीर बदलता जाता है, फिर भी आपको खयाल नहीं आता कि कितने शरीरों से आप अपना तादात्म्य कर लेते हैं!
अगर मां के पेट में जो पहला अणु बनता है, वह निकालकर आपके सामने रख दिया जाए और कहा जाए कि यह थे आप एक दिन, तो आप बिलकुल इनकार करेंगे कि यह मैं! कभी नहीं। अगर आपके बचपन से लेकर बुढ़ापे तक के रोज दस—पांच चित्र लिए जाएं तो एक लंबी सीरीज, श्रृंखला चित्रों की हो जाए। और हर चित्र से आपने एक दिन कहा है कि यह हूं मैं। कहां बचपन का चित्र और कहां बुढ़ापे का चित्र! कहां जन्म लेता हुआ बच्चा और कहां कब्र में उतरता ताबूत! इन सबसे आप एक रहे हैं।
जो जब दर्पण में आपके झलका है, आपने कहा है, यह हूं मैं, दिस इज मी — यही हूं मैं। कल फिर दर्पण पर दूसरी झलक आई और आपने कहा, यही हूं। कभी अपने बचपन के चित्र को उठाकर और फिर अपनी जवानी के चित्र को उठाकर देखें, कोई भी ताल—मेल है उनमें न: कोई भी संबंध है? यह आप हैं? नहीं, एक दिन दावा किया था यह। फिर स्मृति में दावा बैठ गया, अभी भी हां कि एक दिन मैं यह था। अब यह हूं।
रोज शरीर बदल रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं, सात वर्षों में शरीर का कण—क्या बदल जाता है, एक कण भी नहीं बचता पुराना। लेकिन आइडेंटिटी जारी रहती है। तादात्म्य जारी रहता है। हड्डी बदल जाती है, मांस बदल जाता है, सब खून बदल जाता है, सब सेल्स बदल जाते हैं, सब बदल जाता है सात साल में। सत्तर साल एक आदमी जीता है, तो दस बार टोटल शरीर बदल चुका होता है, पूरा शरीर दस बार बदल चुका होता है। शरीर प्रतिपल बदल रहा है। लेकिन नहीं, वह शुद्ध दर्पण है भीतर। जो भी झलक बनती है, जो भी तस्वीर बनती है, वह कह देती है, यह हूं।
यही तादात्म्य टूट जाए, यही नासमझी टूट जाए, यह हम कहना छोड़ दें कि यह हूं मैं, और कहने लगें कि इस सबको जानने वाला हूं मैं, इस सबका साक्षी हूं मैं, विटनेस हूं, मैं। मैंने बचपन को भी जाना था, वह मैं नहीं था। मैंने जवानी भी जानी, वह भी मैं नहीं था। मैं बुढ़ापा भी जानूंगा, वह भी मैं नहीं हूं। मैंने जन्म भी जाना, वह भी मैं नहीं हूं। मैं मृत्यु भी जानूंगा, वह भी मैं नहीं हूं। मैं तो वह हूं जिसने यह सब कुछ जाना। यह लंबी सीरीज, यह फिल्मों का लंबा काफिला, यह सब जाना जिसने — वह हूं मैं। जानने वाला हूं मैं, जो जाना जाता है वह नहीं हूं मैं। जो प्रतिफलित होता है, प्रतिबिंबित होता वह नहीं हूं मैं। जिसमें प्रतिबिंबित होता है, वह हूं मैं। तब, तब आत्मा परम शुद्ध है। तब वह निर्मल दर्पण है। तब वह बिलकुल निर्दोष झील है, जहां कोई लहर अशुद्धि की भी नहीं उठी।
जब उपनिषद कहते हैं कि शुद्ध—बुद्ध है वह, शुद्ध है पूरा, लेशमात्र भी कोई अशुद्धि कभी आत्मा में प्रवेश नहीं की है, तो इस तादात्म्य को तोड़कर कहते हैं। हम भी उतने ही शुद्ध — हैं। कोई कभी अशुद्ध हुआ नहीं, हो नहीं सकता है, उपाय नहीं है। लेकिन तादात्म्य अशुद्ध कर जाता है, तादात्म्य पापी बना देता है, पुण्यात्मा बना देता है।
ध्यान रहे, पुण्यात्मा भी शुद्ध नहीं है। क्योंकि पुण्य से तादात्म्य है उसका। कोई कहता है कि लोहे की जंजीर हूं मैं, और कोई कहता है, सोने की जंजीर हूं मैं, इससे क्या फर्क पड़ता है? बाजार में कीमत अलग होगी सोने और लोहे की, लेकिन तादात्म्य जारी है। कोई है, पापी हूं मैं; कोई कहता है, पुण्यात्मा हूं मैं। जब तक हम कहते हैं, यह हूं मैं, तब तक हम अशुद्ध अपने को नाहक किए चले जाते हैं। होते नहीं और फिर भी किए चले जाते है। जिस दिन हम कह देते हैं कि यह भी नहीं हूं मैं, यह भी नहीं हूं मैं — नेति—नेति जिस दि हम कह देते हैं — नाट दिस, नाट दैट। यह भी नहीं हूं वह भी नहीं; मैं तो वह हूं जिसमें सब प्रतिबिंबित होता है। मैं तो वह दर्पण हूं जिसमें सब छायाएं बनती हैं और खो जाती हैं। मैं वह शून्य हूं जिसमें सब झलकता है और विदा हो जाता है।
न मालूम कितने जन्म झलके। न मालूम कितने शरीर झलके। न मालूम कितने रूप, न मालूम कितनी आकृतियां, न मालूम कितने अर्जित गुण, न मालूम कितनी योग्यताएं, कितने पद, कितनी उपाधियां। अनंत— अनंत यात्रा है, लेकिन झलक एक ही है। और झील सदा निर्मल है। झील के किनारे पर से यात्री गुजरते जाते हैं, झील में नए—नए प्रतिबिंब बनते जाते हैं; और झील सोचती चली जाती है, यह हूं मैं। कभी राह से गुजरता है कोई चोर और झील कहती है, चोर हूं मैं। और कभी राह से गुजरता है कोई साधु और झील कहती है, साधु हूं मैं। और कभी राह से गुजरता है कोई पुण्यात्मा और झील कहती है, पुण्यात्मा हूं मैं। और कभी गुजरता है कोई पापी और झील कहती है, पापी हूं मैं। और झील कहे चली जाती है और राह के किनारे से काफिले गुजरते चले जाते हैं प्रतिबिंबों के — कैरावान्स आफ रिफ्लेक्शंन, कारवां प्रतिबिंबों के। और इतनी तेजी से गुजरते हैं वे कि एक प्रतिबिंब मिट नहीं पाता है कि दूसरा बन जाता है। बीच में क्षण नहीं मिलता कि हम देख लें उस झील को, जिसमें कोई प्रतिबिंब नहीं है।
ध्यान की प्रक्रिया उस बीच के गैप को देने की है — अंतराल, इंटरवल — जब कोई प्रतिबिंब नहीं बनता और बीच में हम झांककर देख लेते हैं कि मैं तो झील हूं काफिला नहीं हूं। वह जो गुजरता है किनारे से, वह नहीं; वह जो चित्र मुझ पर बनते हैं, वह नहीं; मैं तो वह हूं जिस पर सब बनता है और फिर भी अन—बना है। मैं अन—बना छूट जाता हूं — असृष्ट, अनिर्मित।
ये तीन बातें खयाल में ले लें। बाकी और जो बातें गिनाई हैं, वे इनके ही भिन्न—भिन्न रूप हैं।
एक सूत्र और ले लें।
अन्धं तम: प्रविशंति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:।। 9।।
जो अविद्या की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश करते
हैं। और जो विद्या में ही रत हैं, वे मानों उससे भी अधिक अंधकार में प्रवेश करते हैं।। 9।।
बहुत गहन और बहुत गहरे तल से कही गई है बात। बड़े साहस की उदघोषणा थी। ऋषि ही कह सकते हैं।
कहा है कि जो अविद्या के मार्ग पर चलते हैं वे तो अंधकार में भटकते ही हैं, जो विद्या के मार्ग पर चलते हैं वे महा अंधकार में भटक जाते हैं।
मनुष्य जाति के इतिहास में ऐसे साहस की उदघोषणा दूसरी खोजनी मुश्किल है। दूसरा समानांतर सूत्र पूरे मनुष्य जाति के इतिहास में खोजना मुश्किल है इतने साहस का, जिसमें कहा है, अज्ञानी तो भटकता ही है अंधकार में, तानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। जिसने कहा है, उसने बड़े गहरे जानकर कहा है।
अज्ञानी भटकते हैं, यह हमारी समझ में आ जाएगा, इसमें कोई अड़चन नहीं है। बात सीधी और साफ है। निश्चित ही अज्ञानी भटकते हैं।
लेकिन ऋषि कहता है, अंधकार में — बहुत गहन अंधकार में नहीं, महा अंधकार में नहीं — अज्ञानी अंधकार में ही भटकते हैं। फिर ज्ञानी महा अंधकार में क्यों भटक जाते हैं? और अगर अज्ञानी अंधकार में भटकते हैं और जानी महा अंधकार में भटक जाते हैं, तो फिर भटकने से छूटने का उपाय कहां बचा? अज्ञानी क्यों अंधकार में भटकता है, बहुत गहन में नहीं। क्योंकि अज्ञान कितना ही भटकाए, ज्यादा नहीं भटका सकता। ज्यादा भटकाने वाला तत्व अज्ञान नहीं, अहंकार है। ज्यादा भटकाने वाला तत्व अज्ञान नहीं, अहंकार है। अज्ञान में भूलें हो सकती हैं, लेकिन अज्ञान सदा भूलों को सुधारने को तत्पर होता है। इसलिए बहुत नहीं भटकता। अज्ञान भूलें करने को सदा ही तैयार है, लेकिन सुधारने को भी सदा तैयार है। अज्ञान की अपनी विनम्रता है। ध्यान रखें, अज्ञान की अपनी ह्युमिलिटी है। इसीलिए बच्चे जल्दी सीख जाते हैं, के जल्दी नहीं सीख पाते। क्योंकि बच्चे अज्ञानी हैं, वे सुधारने को तत्पर हैं। भूल बताई कि वे सुधार लेंगे। लेकिन बूढ़ों को अगर भूल बताई तो वे नाराज हो जाएंगे, सुधारेंगे नहीं। पहले तो सिद्ध करने की कोशिश करेंगे कि यह भूल. ही नहीं है। बच्चे को भूल बताई तो वह राजी हो जाएगा कि भूल है। वह सुधार लेगा।
इसीलिए बच्चे इतने जल्दी सीख पाते हैं। बच्चे दिन में जो सीख लेते हैं, के वर्ष में नहीं सीख पाते। सीखने की क्षमता क्षीण हो जाती है। क्या बात है?— बूढ़े के सीखने की क्षमता बढ़नी चाहिए। नहीं, लेकिन बूढ़ा ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। बच्चा सिर्फ अज्ञानी है, बूढ़ा और एक गहन अंधकार में गिरता है। उसको भ्रम पैदा होता है कि मैं कुछ जानता भी हूं। बच्चा जानता है कि मैं कुछ नहीं जानता हूं इसलिए सीखने को तैयार है। जो भी आप बताएं, मैं राजी हूं। तो बच्चे अंधकार में ही भटक सकते हैं। के महा अंधकार में भटक जाते हैं।
अज्ञानी विनम्र है और अज्ञान का बोध आ जाए तो महा विनम्र हो जाता है। अज्ञान का स्मरण आ जाए, याद आ जाए कि मैं अज्ञानी हूं नहीं जानता हूं तो अहंकार के खड़े होने के लिए जगह. नहीं रह जाती। अहंकार कहां निर्माण करे अपने भवन को, कोई स्थान नहीं मिलता। यह भी मजे की बात है कि अज्ञान अगर बोधपूर्ण हो जाए कि मैं अज्ञानी हूं तो भटकाव टूटने लगता है, बंद होने लगता है, भूल—चूक बंद होने लगती है। राह पर आने लगता है आदमी। और ज्ञानी अगर खयाल से भर जाए कि मैं ज्ञानी हूं तो महा अंधकार में उतरना शुरू हो जाता है।
अज्ञानी को खयाल आ जाए कि मैं अज्ञानी हूं तो प्रकाश की तरफ यात्रा शुरू हो जाती है। और तानी को खयाल आ जाए कि मैं ज्ञानी हूं तो महा अंधकार की तरफ कदम उठने शुरू हो जाते हैं। क्योंकि अज्ञान की स्मृति विनम्रता में ले जाती है और ज्ञान का दंभ, ज्ञान का दावा अहंकार में ले जाता है। असली भटकाव अहंकार है।
अज्ञान गहन अंधकार नहीं है, संध्या की भांति है। नहीं, सूरज नहीं है, ज्ञान का प्रकाश अभी नहीं है। लेकिन अभी अहंकार की अंधेरी रात भी नहीं है। संध्या की तरह है। अज्ञान द्वार पर खड़ा है, जहां से प्रकाश में भी जा सकता है। लेकिन ज्ञानी का जैसे—जैसे दंभ मजबूत होता है और खयाल आता है कि मैं जानता हूं मैं जानता हूं मैं जानता हूं — जितना यह मजबूत होता चला जाता है उतनी अंधेरी रात शुरू होने लगी, संध्या खो गई। अब वह गहरी रात में उतर रहा है। और जितना मजबूत होता चला जाएगा, उतनी रात अमावस की होती चली जाएगी।
अहंकार महा अंधकार में ले जाता है, इसलिए बहुत मजे की घटना इस जगत में घटती है कि ज्ञानी अपने को कहने लगते हैं कि हम अज्ञानी हैं, नहीं जानते। और अज्ञानी दावे करते चले जाते हैं कि हम जानते हैं, हम ज्ञानी हैं। फिर उपाय क्या है? फिर मार्ग क्या है?
अज्ञान भी भटका देता है, ज्ञान भी भटका देता है। फिर हम जाएं कहां? हम करें क्या? कहां से है मार्ग?
दो बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। एक तो सदा अपने अज्ञान के स्मरण को बढ़ाते चले जाएं। अज्ञान का स्मरण अज्ञान की हत्या है। टु बिकम अवेयर आफ वन्स इग्नोरेंस — बस अज्ञान कटने लगा। वह बोध कि मैं अज्ञानी हूं ऐसा ही है, जैसे किसी ने दीया जला लिया हो और कमरे के भीतर अंधेरे को खोजने चला गया। और कहा कि मैं दीया जलाकर देखूं तो, अंधेरा कहां है! दीया जलाया और अंधेरे को खोजने निकल पड़े। अंधेरा फिर कहीं नहीं मिलेगा। बोध घना हुआ भीतर कि मैं जानूं कि कहां—कहां अज्ञान है! और अज्ञान जहां—जहां है, वहां जाऊं और जागै कि यहां—यहां अज्ञान है। जहां—जहां गए बोध के दीए को लेकर, वहां—वहां अज्ञान नहीं है।
तो पहली बात, अज्ञान की स्मृति, रिमेंबरेंस, स्मरण कि मैं अज्ञानी हूं। अगर कभी भी ज्ञान के जगत में प्रवेश करना हो तो अज्ञान के प्रति होश से भर जाना। और दिन—रात खोज में लगे रहना कि कहा—कहा मेरा अज्ञान है। और जहां अज्ञान दिखाई पड़े वहां तत्काल स्वीकार करना, क्षणभर की देर मत करना। और जो दर्शा दे कि यह अज्ञान है, उसके चरणों पर सिर रख देना, वह गुरु हो गया। और अपने अज्ञान को सिद्ध करने की कोशिश मत करना कि यह नहीं है, क्योंकि मन कोशिश करेगा। अहंकार कहेगा कि मानो मत। मैं और अज्ञानी! कभी नहीं।
इसलिए हम सब अपने अज्ञान की जिद किए चले जाते हैं। हम सब कहे चले जाते हैं कि यही ठीक है। जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, वे ठीक के बड़े दावे करते चले जाते हैं। जिन्हें राह के किनारे पड़े पत्थर का भी कोई पता नहीं है, वे भी परमात्मा के संबंध में दावे किए चले जाते हैं कि मेरा ही परमात्मा ठीक है। जिन्हें कुछ भी पता नहीं है! लेकिन दावों का कोई अंत नहीं है।
अज्ञान बड़ा दावेदार है। वह दावे करता है। दावे से बचना। और अगर दावा ही करना हो तो सिर्फ अज्ञानी होने का करना। कहना कि नहीं जानता हूं। और जितने अवसर मिलें, जितनी सुविधाएं मिलें, जितनी स्थितियां मिलें, जहां आपका अज्ञान प्रगट होता हो, वहां जरूर रुक जाना और जान लेना कि अज्ञानी हूं। जो आपके अज्ञान की तरफ इशारा करे, उसे गुरु बना लेना।
लेकिन हम गुरु उसे बनाते हैं, जो हमारे ज्ञान को बढ़ाते हैं। जिसके पास जाकर हम थोड़ी जान की बातें सीखकर और दंभ से भरकर लौट आएं और कहें कि अब हम भी जानते हैं। जो हमारे ज्ञान के दंभ को घना करे, उसे हम गुरु कहते हैं। और गुरु असल में वही है, जिसके पास जाकर हमें पता लगे कि हमसे अज्ञानी और कोई भी नहीं है। जो हमारे ज्ञान को छीन ले, जो हमारे ज्ञान के दावों को तहस—नहस कर दे, जो हमारे अहंकार के भवन को भूमिसात कर दे, जो हमें गिरा दे जमीन पर और कह दे कि कुछ भी तो नहीं, कहीं तो नहीं, कुछ भी तो नहीं जाना है — वही है गुरु। जिससे ज्ञान मिलता है, वह नहीं — जिससे हमें अज्ञान का स्मरण मिलता है। और ध्यान रहे, अज्ञान का स्मरण ज्ञान में ले जाता है। और ज्ञान का संग्रह महा अंधकार में ले जाता है।
तो पहली तो बात — अज्ञान के प्रति जागना, होश से भरना, अज्ञान को पहचानना, खोजना, अपने को जानना कि महा अज्ञानी हूं।
दूसरी बात, जहां—जहां खयाल आए कि मैं जानता हूं वहां एक बार रिकंसीडर करना, पुनर्विचार करना। जहां—जहां खयाल आए कि मैं जानता हूं फिर से सोचना — सच में जानता हूं? और एक ही बार सोचना काफी हो जाएगा। ईमानदार होना और एक बार फिर से सोच लेना कहने के पहले कि मैं जानता हूं? अज्ञान के प्रति भी होश से भरना और ज्ञान के प्रति भी सचेत रहना कि सच में मैं जानता हूं? वस्तुत: मुझे पता है? और जब इसकी जांच करने बैठेंगे तो पता चलेगा — शब्दों का पता है, सिद्धातों का पता है, शास्त्रों का पता है, सत्यों का कोई भी पता नहीं। जिनके मन में भरे हैं शास्त्र, भरे हैं शब्द, बोझ लिए हैं जो शब्दों का, वे शानी ही ऋषि के लिए इस सूत्र में मजाक का कारण बने हैं। कहा है, महा अंधकार में भटक जाएंगे। मगर दावा नहीं छूटता।
सुना है मैंने, एक ईसाई पादरी एक सांझ अपने चर्च में बोलता है रविवार को। ज्ञानी है, लेकिन उस दिन ऐसा हो गया कि चश्मा लाना भूल गया। आधा ज्ञान मुश्किल में पड़ गया। क्योंकि सब लिखकर लाया था। चश्मे के बिना आधा ज्ञान मुश्किल में पड़ गया। पर अब बताना भी कठिन था कि चश्मा घर भूल आया हूं। लोग मौजूद थे, सुनने को तैयार थे। तो उसने सोचा कि बिना इसके ही आज काम चला लूं। कागज में से कुछ देख—देखकर, पढ़कर बोलना शुरू किया। भूलें होनी निश्चित थीं। क्योंकि जो भी कहा जा रहा था वह स्मृति से कहा जा रहा था। और आज स्मृति का बड़ा सहारा घर छूट गया था। ज्ञान से तो कुछ कहा नहीं जा रहा था, नहीं तो बिना आंखों के भी कहा जा सकता है, चश्मे की तो जरूरत ही क्या है! जानकर तो कुछ कहा नहीं जा रहा था। स्मरण, स्मृति से, मेमोसे से कुछ कहा जा रहा था। सहारा छूट गया था।
तो बीच में बोल रहा था जीसस के चमत्कारों के संबंध में, तो गलती हो गई। कहा कि जीसस जंगल में थे अपने शिष्यों के साथ। तो जीसस के चमत्कारों में एक चमत्कार है कि चौबीस हजार शिष्य साथ थे और केवल छह रोटियां थीं। तो जीसस ने सबको खिला दिया खाना, फिर भी रोटियां बच गईं। चौबीस हजार शिष्य थे — भूल हो गई उस दिन — उसने कहा कि छह शिष्य थे और चौबीस हजार रोटियां थीं और जीसस ने सबको खाना खिला दिया और देखो चमत्कार कि रोटियां फिर भी बच गईं।
अधिक लोग तो सोए थे, जैसा कि मंदिर और मस्जिद और चर्च में होता है। तो उन्होंने कुछ खयाल न दिया। कुछ जो जाग रहे थे, उन्होंने सुना। लेकिन मंदिर और मस्जिद में जाने वाले लोग बुद्धि तो घर रख आते हैं। सुना जरूर, लेकिन समझे नहीं। सिर्फ एक आदमी थोड़ा बेचैन हुआ कि मामला क्या है? यह कैसा चमत्कार! छह आदमी, चौबीस हजार रोटियां! उसने खड़े होकर कहा, महाशय, यह कोई चमत्कार नहीं। यह कोई भी कर सकता है। पादरी गुस्से से भर गया। उसे पता भी नहीं था कि भूल हो गई है। वह समझ रहा था कि उसने यही कहा है कि छह रोटियां थीं और चौबीस हजार शिष्य थे। उसने कहा, कोई भी कर सकता है? तुम जीसस का अपमान कर रहे हो! उसने कहा कि महाशय, कोई भी क्या, मैं खुद ही कर सकता हूं।
पादरी की कुछ समझ में न आया। बाद में उसने लोगों से पूछा। किसी ने कहा कि आपसे भूल हो गई। आप उलटा बोल गए। चौबीस हजार रोटियां बोल दीं आपने और छह शिष्य बोल दिए, तो यह तो कोई भी कर सकता है। इसमें कोई चमत्कार ही न...।
पादरी ने कहा, यह तो बहुत दुखद हो गया। ज्ञानी को भारी धक्का पहुंचा। उसने कहा अगली बार उस आदमी को ठीक रास्ते पर लगाना जरूरी है। वह दूसरी बार पूरी तैयारी करके आया। फिर उसने चर्चा के दौरान चमत्कार की बात निकाली। और कहा कि जीसस गए जंगल में। चौबीस हजार शिष्य थे — ठीक से सुन लेना — और छह रोटियां थीं और जीसस ने लोगों को खाना खिला दिया। सबके पेट भर गए, फिर भी रोटियां बच गईं। फिर उसने उस आदमी की तरफ देखा, जिसने पिछली बार उसे दिक्कत में डाल दिया था। और कहा, क्यों भाई, अब भी कर सकते हो चमत्कार? उस आदमी ने खड़े होकर कहा कि हां, अब भी कर सकता हूं। तब तो वह पादरी बहुत घबरा गया। उसने कहा कि अब तुम कैसे कर सकते हो? उसने कहा कि पिछली दफे की जो रोटियां बची हैं उनके द्वारा! उसने कहा, और बच गईं।
शब्दों का जाल, कंठस्थ शब्द और शास्त्र मखौल ही हैं, मजाक ही हैं। कुछ अर्थ नहीं है बहुत उनमें। और दूसरे को ठीक करने की कोशिश बड़ी अज्ञानपूर्ण है। और अपनी भूल कभी स्वीकार न करने की कोशिश बड़ी अहंकारपूर्ण है। वह गरीब पादरी इतना भी न कह सका कि मुझसे भूल हो गई। छोटी सी बात थी, उसी दिन कह देता कि क्षमा करें। लेकिन अहंकार भूल मानने को कभी राजी नहीं। दूसरे से भूल मनवाने को राजी है।
तो दूसरी बात स्मरण रखना कि जहां भी खयाल लगे कि मैं जानता हूं वहां थोड़ा रिकंसीडरेट — फिर से एक बार सोचना। फिर से एक बार पूछना, सच, मैं जानता हूं कि शब्द, शास्त्र, सिद्धांत, स्मृति..? ध्यान है कुछ, जाना मैंने कुछ? जीया मैंने कुछ? कहीं मेरे प्राय अनुभव किए कुछ? नाचा हूं मैं उस परमात्मा के अनुभव में? जीया हू? उसकी धड़कनें मैंने अपनी धड़कनों के निकट अनुभव की हैं? या कि सिर्फ रात दीए जलाए और शास्त्रों के शब्द कंठस्थ किए हैं? शास्त्र जिनको कंठस्थ हो जाते हैं, उनकी बुद्धि से केरोसिन की बास आने लगती है, मिट्टी का तेल — काफी धुआ इकट्ठा हो जाता है। पंडितों से ज्यादा अज्ञानी खोजना बहुत मुश्किल है।
इसलिए यह सूत्र कहता है, अज्ञानी तो भटकते ही हैं, पडितजन महा अंधकार में भटक जाते हैं। पंडित बनने से तो अज्ञानी बन जाना अच्छा है। उससे रास्ता है द्वार है। महा अंधकार में मत जाना, अंधकार में ही रहना बेहतर है। उससे प्रकाश में आने में सुविधा पड़ेगी। महा अंधकार से बड़ी यात्रा करनी पड़ेगी।
आज के लिए इतना।
अब हम ध्यान में लगें। अंधकार से प्रकाश की तरफ दो—चार कदम उठाएं।
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