ध्यान योग शिविर,
माउंट आबू, राजस्थान।
सूत्र :
अन्यदेवाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।। 10।।
विद्या से और ही फल बतलाया गया है तथा अविद्या से और ही
फल बतलाया है। ऐसा हमने बुद्धिमान पुरुषों से सुना है, जिन्होंने
हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी।। १०।।
उपनिषद अविद्या का अर्थ मात्र अज्ञान नहीं करते हैं। और विद्या का अर्थ मात्र ज्ञान नहीं करते हैं। अविद्या से उपनिषद का अभिप्रेत भौतिक ज्ञान है। अविद्या से अर्थ है वैसी विद्या, जिससे स्वयं नहीं जाना जाता, लेकिन और सब जान लिया जाता है। अविद्या, पदार्थ विद्या का नाम है।
साधारणत: भाषा कोश में खोजने जाएंगे तो अविद्या का अर्थ होगा अज्ञान। लेकिन उपनिषद अविद्या का अर्थ करते हैं ऐसा ज्ञान, जो ज्ञान जैसा प्रतीत होता है, फिर भी स्वयं व्यक्ति अज्ञानी रह जाता है। ऐसा ज्ञान, जिससे हम और सब जान लेते हैं, लेकिन स्वयं से अपरिचित रह जाते हैं। धोखा देता है जो ज्ञान का, ऐसी विद्या को उपनिषद अविद्या कहते हैं।
अगर ठीक से अनुवाद करें, तो अविद्या का अर्थ होगा साइंस। बहुत अजीब लगेगी यह बात। अविद्या का अर्थ होगा पदार्थज्ञान, परज्ञान। और विद्या का अर्थ होता है आत्मज्ञान। विद्या से सिर्फ ज्ञान अभिप्रेत नहीं है। विद्या से ट्रांसफामेंशन, रूपांतरण अभिप्रेत है। जो ज्ञान स्वयं को बिना बदले ही छोड़ जाए, उसे उपनिषद ज्ञान नहीं कहेंगे, उसे विद्या नहीं कहेंगे। मैंने कुछ जाना और जानकर भी मैं वैसा ही रह गया, जैसा न जानने पर था, तो ऐसे जानने को उपनिषद विद्या न कहेंगे। विद्या कहेंगे तभी, जब जानते ही मैं रूपांतरित हो जाऊं। मैंने जाना कि मैं बदला। मैंने जाना कि मैं दूसरा हुआ। जानकर मैं वही न रह जाऊं, जो मैं न जानकर था। अगर मैं वही रह गया, तो वह अविद्या है। अगर मैं रूपांतरित हो गया, तो वह विद्या है। ऐसा ज्ञान जो सिर्फ एडीशन नहीं है, जो आपमें कुछ जानकारी नहीं जोड़ जाता, वरन ट्रासफामेंशन है, रूपांतरण है, आपको बदल जाता है, आपको और ही कर जाता है, आपको नया जन्म दे जाता है, उसे उपनिषद विद्या कहते हैं।
सुकरात ने ठीक इसी अर्थों में, उपनिषद के अर्थों में, एक छोटा सा सूत्र कहा है। और कहा है, नालेज इज वर्चू। ज्ञान ही सदगुण है। यूनान में सैकड़ों वर्ष तक इस पर विवाद चला। क्योंकि साधारणत: हम सोचते हैं, अकेले ज्ञान से सदगुण का क्या संबंध है? एक आदमी जान लेता है, क्रोध बुरा है। फिर भी क्रोध तो नहीं जाता। एक आदमी जान लेता है, चोरी बुरी है। फिर भी चोरी तो बंद नहीं होती। एक आदमी जान लेता है, लोभ बुरा है। फिर भी लोभ तो जारी रहता है।
लेकिन सुकरात कहता है कि जिसने जान लिया कि लोभ बुरा है, उसका लोभ चला ही जाएगा। जिसने जाना कि लोभ बुरा है और लोभ न गया, तो अविद्या है, तो जानने का धोखा है। फाल्स नालेज है। भ्रम पैदा हुआ। ज्ञान की कसौटी यही है कि वह आचरण बन जाए तत्क्षण, बनाना भी न पड़े। अगर कोई सोचता हो कि पहले हम जानेंगे और फिर आचरण में ढालेंगे, तो फिर वह विद्या नहीं है, अविद्या है। जानते ही — जैसे कि आपके सामने रखी है कोई चीज और आपको पता चला कि जहर है, आपने जाना कि जहर है, कि हाथ उठता था प्याली को लिए ओंठों की तरफ, और रुक गया। जाना कि जहर है और हाथ से प्याली छूट गई। जानना ही आचरण बन गया तो विद्या है। और अगर जानने के बाद चेष्टा करनी पड़े, कोशिश करनी पड़े, एफर्ट करना पड़े और आचरण को बदलना पड़े, तो फिर आचरण थोपा हुआ है, जबर्दस्ती लादा गया है। ज्ञान से निर्मित नहीं है, आरोपित है।
और ऐसा जान जिसको आचरण बनाने के लिए आरोपित करना पड़े, जो अपने आप आचरण न बने, उसे उपनिषद अविद्या कहते हैं। उपनिषद उसे विद्या कहते हैं, जिसे जाना नहीं कि जीवन बदला नहीं। इधर जला दीया, उधर अंधेरा खो गया। अगर ऐसा हम कोई दीया बना सकें कि दीया तो जल जाए और अंधेरा न खोए! अगर हम ऐसा कोई दीया बना सकें कि दीया जल जाए और अंधेरा न खोए और फिर दीया जलाकर हमको अंधेरे को मिटाने की भी चेष्टा करनी पड़े, अगर ऐसा कोई दीया हम बना सकें, तो वह अविद्या का प्रतीक होगा। दीया जला और अंधेरा नहीं रह जाता है। दीए का जलना अंधेरे का मिट जाना बन जाता है। तो ऐसा दीया, ऐसी विद्या उपनिषद को अभिप्रेत है।
इसमें दो बातें और खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।
ऐसा क्यों होता है कि हम जान तो लेते हैं, लेकिन रूपांतरण नहीं होता! न मालूम कितने लोग मुझे आकर कहते हैं कि हमें पता है, क्रोध बुरा है, जहर है, जलाता है, आग है, नर्क है। फिर भी क्रोध छूटता तो नहीं, जानते तो हम हैं। तो उनसे मैं कहता हूं कि तुम जानते हो, यहीं तुम्हारी भूल हो रही है। तुम सोचते हो, जानते तो हम हैं, अब हम क्या करें जिससे कि क्रोध बंद हो जाए। यहीं तुम्हारी भूल हो रही है। तुम जानते नहीं हो। तुम्हें पता नहीं है कि सच में ही क्रोध नर्क है। क्या यह संभव है कि किसी को पता हो कि क्रोध नर्क है और वह क्रोध के बाहर छलांग न लगा जाए?
बुद्ध ने एक जगह कहा है कि एक व्यक्ति को मैंने समझाया। दुख था उसका जीवन, पीड़ा से भरा था, चारों ओर सिवाए चिंताओं के उसके जीवन में कुछ भी न था। मैंने उससे कहा कि तू इन सारी चिंताओं को छोड्कर बाहर आ जा। मैं तुझे मार्ग बता देता हूं। उस आदमी ने कहा, मार्ग आप अभी बता दें, फिर बाद में मैं कोशिश करूंगा बाहर आने की — आहिस्ता, क्रमश:। तो बुद्ध ने कहा कि तू उस आदमी जैसा है, जिसके घर में आग लगी हो, हम उससे कहें कि तेरे घर में आग लगी है; और वह कहे कि आपने बताया तो बड़ी कृपा है, अब मैं क्रमश:, आहिस्ता, धीरे— धीरे बाहर निकलने की कोशिश करूंगा। बुद्ध ने कहा, अच्छा होता, वह आदमी कह देता कि तुम झूठ कहते हो, मुझे कोई आग दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन वह यह नहीं कहता। वह यह कहता है कि माना, तुम ठीक कहते हो, आग लगी है, लेकिन मैं धीरे— धीरे निकलूंगा।
आग अगर सच में ही दिखाई पड़ जाए, तो कोई धीरे— धीरे निकलता है? छलांग लगाकर बाहर हो जाता है। बताने वाला भले पीछे रह जाए। जिसे पता चल गया कि आग लगी है, वह तो पहले बाहर हो जाएगा। धन्यवाद भी बाहर ही देगा घर के।
तो बुद्ध ने कहा कि तुम कहते हो कि माना कि आग लगी है, लेकिन तुम्हें आग दिखाई नहीं पड़ती है। तुम व्यर्थ ही हां भर रहे हो। तुम खोजने का कष्ट भी नहीं उठाना चाहते। तुम मेरी बात को कसौटी पर कसने की चेष्टा भी नहीं करना चाहते। तुमने आंख खोलकर भी नहीं देखा चारों तरफ कि आग लगी है? तुम मान लिए और इसलिए तुम्हारे मन में अब यह सवाल उठता है कि आग तो लगी है, अब मैं धीरे— धीरे निकलूंगा। मुझे कोई विधि, कोई मैथड बता दें कि मैं कैसे बाहर हो जाऊं।
जब मुझसे कोई कहता है कि मैं जानता हूं कि क्रोध बुरा है और फिर भी क्रोध से छुटकारा नहीं होता, तो उससे मैं कहता हूं कि अच्छा हो कि तुम जानो कि तुम नहीं जानते हो कि क्रोध बुरा है। जानते तो तुम यही हो कि क्रोध अच्छा है। हम अच्छे को ही किए चले जाते हैं। लेकिन लोगों से हमने सुन लिया है कि क्रोध बुरा है। सुने हुए को ज्ञान मान लिया है। तो वह अविद्या है। वह विद्या नहीं है।
फिर, फिर विद्या कैसी होगी?
जानना पड़ेगा स्वयं ही कि क्रोध बुरा है। क्रोध से गुजरना पड़ेगा। क्रोध की आग में तपना पड़ेगा, क्रोध की पीड़ा और कष्ट झेलना पड़ेगा। क्रोध की अग्नि में जब सब अंग जलेंगे और प्राण उत्तप्त होंगे और जीवन धुआ— धुआ हो जाएगा, तब, तब किसी से पूछने नहीं जाना पड़ेगा कि क्रोध बुरा है। तब किसी से समझने नहीं जाना पड़ेगा कि क्रोध बुरा है। और तब क्रोध से बाहर कैसे हो जाएं, इसकी कोई विधि, कोई उपाय, कोई साधना नहीं खोजनी पड़ेगी। यह जानना ही कि क्रोध आग है, क्रोध से छुटकारा हो जाता है। ऐसे ज्ञान का नाम विद्या है।
उस ज्ञान को उपनिषद विद्या कहते हैं, जो अपने में ही मुक्ति है। जो ज्ञान स्वयं में मुक्ति नहीं है, वह विद्या नहीं है।
हम सबके पास बहुत विद्या है। हम सभी कुछ न कुछ जानते हैं। कहना चाहिए, बहुत कुछ जानते हैं। उपनिषद से पूछें, तो हमारा जानना क्या है? हमारे जानने को उपनिषद अविद्या कहेगा। हमारे जानने को विद्या नहीं कहेगा। क्योंकि हमारा जानना हमें छूता ही नहीं है। हमें बदलता ही नहीं है। हमें स्पर्श ही नहीं करता। हम वही के वही रह आते हैं, जानना बढ़ता चला जाता है। जानना एक संग्रह की भांति है, हम दूर ही रह जाते हैं। जानने की तिजोरी में संग्रह बढ़ता चला जाता है, हम वही के वही रह जाते हैं। तिजोरी बड़ी होती चली जाती है, संग्रह बड़ा होता चला जाता है। एक्युमुलेशन है, जिसे हम अभी ज्ञान कह रहे हैं। इसे ज्ञान जिसने समझा, वह बुरी तरह भटक जाएगा। इसे अविद्या समझना।
विद्या तो सिर्फ उसे ही समझना जो आप में जुड़ती न हो, आपको बदलती हो। जो आपके साथ संगृहीत न होती हो, आपको रूपांतरित कर जाती हो। विद्या तो वही है, जिसे याद न रखना पड़े, जो आपका जीवन बन जाती हो। विद्या तो वही है, जो स्मृति न बने, जो आपका प्राण बन जाए। ऐसा नहीं कि आप स्मृति से समझें कि क्रोध बुरा है। ऐसा कि आपका आचरण कहे कि क्रोध बुरा है। ऐसा नहीं कि आप घर की दीवारों पर लिख दें कि लोभ पाप है, वरना आपकी आंखें कहें, आपके हाथ कहें, आपका चेहरा कहे कि लोभ पाप है। आपका समग्र व्यक्तित्व कहे कि लोभ पाप है, तब विद्या है।
उपनिषद ने विद्या को बड़ा आदर दिया है। उस शब्द को बड़ी कीमत दी है। वह जीवन को बदलने की कीमिया है। हम जिसे विद्या समझते हैं वह केवल आजीविका चलाने की व्यवस्था है। आजीविका चलाने की व्यवस्था। एक आदमी डाक्टर है, एक आदमी इंजीनियर है, एक आदमी दुकानदार है। उन सबके पास विद्याएं हैं, लेकिन उनसे जीवन नहीं बदलता है, सिर्फ जीवन चलता है। उनसे जीवन नया नहीं होता, सिर्फ सुरक्षित होता है। उनसे जीवन में कोई नए फूल नहीं खिलते सिर्फ जीवन की जड़ें नहीं सूख पातीं। उनसे जीवन में कोई आनंद नहीं आता, लेकिन दुख के लिए सुरक्षा, आयोजन, व्यवस्था निर्मित हो जाती है। हम जिसे विद्या कहते हैं, वह सिर्फ आजीविका को कुशलता से चलाए रखने की सुविधा है। उपनिषद उसे अविद्या कहते हैं। विद्या कहते हैं उसे, जिससे जीवन चलता नहीं, बदलता है। जिससे जीवन आगे की तरफ खिंचता नहीं, ऊपर की तरफ उठता है।
ध्यान रहे, अविद्या हारिजेंटल है — क्षितिज की रेखा में चलती है। विद्या वर्टिकल है — आकाश की तरफ उठती है। बैलगाड़ी की तरह है अविद्या, जमीन पर चलती है। हवाई जहाज की तरह टेकआफ नहीं है उसमें। जमीन को छोड्कर वह ऊपर नहीं उठ जाती। जमीन पर चलती चली जाती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक यात्रा पूरी हो जाती है, लेकिन तल नहीं बदलता, तल वही होता है। जहां हम जन्मते हैं, जिस तल पर, उसी तल पर हम मरते हैं। अक्सर झूला ही कब्र होता है। कोई बहुत फर्क नहीं होता है, तल वही होता है, वहीं के वहीं होते हैं। हारिजेंटल, क्षितिज की रेखा में चलते चले जाते हैं। सभी अपनी—अपनी कब खोज लेते हैं। लेकिन झूलों से बहुत दूर नहीं होती। और दूर हो, तो भी तल— भेद नहीं होता। तल वही होता है, स्तर वही होता है।
विद्या है वर्टिकल, आकाश की तरफ उठती, ऊर्ध्वगामी। ऊपर की तरफ जाती है। तल बदलता है। आप वही नहीं रहते। जाना कि आप दूसरे हुए। बुद्ध या महावीर या कृष्ण हमारे पास खड़े होते हैं, लेकिन हमारे पास होते नहीं। हमारे बिलकुल पड़ोस में खड़े होते हैं, हमारे शरीर से शरीर लगकर खड़ा होता है, फिर भी हमारे पास होते नहीं हैं। वे किन्हीं और ही शिखरों पर होते हैं। शरीर ही हमारे पास मालूम होता है। उनका अस्तित्व हमारे पास नहीं होता। विद्या से गुजरे हैं वे। शानी हैं।
उपनिषद का यह सूत्र कहता है, अविद्या के अपने गुण हैं, विद्या के अपने गुण हैं। अविद्या के अपने गुण हैं, अविद्या का अपना उपयोग है, युटिलिटी है। उपनिषद यह नहीं कहते कि अविद्या को नष्ट कर दो। उपनिषद कहते हैं, अविद्या को विद्या मत मानना — बस, इतना। ऐसा नहीं है कि आकाश की तरफ बढ़ते चले जाओ और जमीन पर जीयो मत। सच तो यह है कि जिन्हें भी आकाश में ऊपर उठना है, उन्हें भी अपने पैर जमीन पर ही टिकाए रखने पड़ते हैं।
नीत्से ने कहीं कहा है कि जिस वृक्ष को आकाश छूना हो, उसकी जड़ों को पाताल छूना पड़ता है। जितना ऊंचा जाता है वृक्ष, उतना ही नीचे भी जाता है। जो वृक्ष आकाश के तारों को छूने की चेष्टा करता है, अभीप्सा करता है, उसकी जड़ों को नीचे, और नीचे उतरते जाना होता है। जितनी गहरी जड़ें, उतना ही ऊपर उठ पाता है।
अविद्या के इनकार में नहीं हैं उपनिषद। यह भी बड़ी भ्रांति हुई। इसे आपसे कहना चाहूंगा। क्योंकि इस भांति के कारण पूरब ने इतना सहा दुख, इतनी पीड़ा उठाई है, जिसका कोई हिसाब नहीं है।
उपनिषद को ठीक समझा नहीं जा सका। या तो हम यह भूल करते हैं कि अविद्या को विद्या मान लेते हैं। उपनिषद इसके विरोध में हैं। वे कहते हैं, अविद्या विद्या नहीं है — यह डिसटिंक्यान, यह भेद—रेखा ठीक से समझ लेना — तो हम दूसरी भूल करते हैं। हम भूल करने की जिद में हैं। या तो हम यह भूल करेंगे या हम विपरीत भूल करेंगे। या तो हम भूल करते हैं कि अविद्या को विद्या मान लेते हैं। अभी हमारे जितने विद्यालय हैं, उन सबको अविद्यालय कहा जाना चाहिए उपनिषद के हिसाब से। क्योंकि वहां विद्या का कोई भी संबंध नहीं है। हमारे जो विद्यापीठ हैं, वे अविद्यापीठ हैं। और हमारे जो विद्यापीठों के कुलपति हैं, वे अविद्याओ के कुलपति हैं। वहां से सिर्फ अविद्या...।
लेकिन उपनिषद अविद्या के विरोध में नहीं हैं। उपनिषद कहते हैं, उन्हें विद्या मत समझ लेना, इस भूल में मत पड़ जाना। भेद को साफ समझ लेना। वह अविद्या है और अविद्या का अपना गुण है, अपनी युटिलिटी है। ऐसा नहीं है कि डाक्टर की जरूरत नहीं है। ऐसा नहीं है कि इंजीनियर बेमानी है। ऐसा भी नहीं है कि दुकानदार न हो तो अच्छा है। नहीं, दुकानदार भी जरूरी है, डाक्टर भी, इंजीनियर भी, सड़क साफ करने वाला भी, मकान बनाने वाला राजगीर भी, सब जरूरी हैं। सबकी उपयोगिता है। लेकिन उस आजीविका की विद्या को अगर किसी ने जीवन की कला समझ लिया, तो भूल हो गई। तो फिर वह सिर्फ रोटी—रोजी कमाएगा और मर जाएगा।
जीसस का वचन है, यू कैन नाट लिव बाई बेड अलोन — सिर्फ रोटी से नहीं जी सकोगे तुम। यद्यपि इसका यह मतलब नहीं है कि रोटी के बिना जी सकोगे तुम। अकेली रोटी से नहीं जी सकोगे तुम। अकेली रोटी भी कोई जीवन होगी? जीवन की जरूरत है रोटी, जीवन नहीं है। रोटी के बिना जीवन नहीं विकसित हो सकेगा, नहीं खड़ा रह सकेगा, लेकिन फिर भी रोटी जीवन नहीं है।
नींव में हम पत्थर भरते हैं मकान के। नींव में भरे हुए पत्थर के बिना मकान खड़ा नहीं होगा। लेकिन ध्यान रखना, नींव में भरे हुए पत्थर मकान नहीं हैं। और अगर सिर्फ नींव भरकर आप बैठ गए, तो आप इस भांति में मत रहना कि मकान बन गया। इसका यह मतलब भी नहीं है कि नींव नहीं भरी तो मकान बन जाएगा। नींव तो भरनी ही पड़ेगी। वह नेसेसरी ईविल है। वह जरूरी बुराई है, जो करनी पड़ेगी।
उपनिषद कहते हैं कि अविद्या का अपना गुण है। वह गुण है, आजीविका। वह गुण है, जीवन का जो बाह्य रूप है, जो शरीरगत जीवन है, उसको चलाए रखने की व्यवस्था। पर उसे ही सब कुछ मत समझ लेना। वह जरूरी है, लेकिन काफी नहीं है। इट इज नेसेसरी, बट नाट इनफ — आवश्यक तो है, पर्याप्त नहीं है। उतने से सब नहीं हो जाएगा।
पूरब के मुल्कों ने, विशेषकर भारत ने दूसरी भूल की। कहा कि जब उपनिषद के ऋषि कहते हैं, इतनी कहते हैं कि अविद्या है यह, तो छोड़ो अविद्या। हम विद्या ही पकड़े। इसलिए पूरब में विज्ञान विकसित न हो पाया। जिसे हमने मान लिया कि अविद्या है, उसे छोड़ दिया। इसलिए पूरब गरीब, दीन और दरिद्र और गुलाम हो गया। अविद्या को या तो हम इतना पकड़ने को राजी थे कि आत्महीन हो जाते या हम अविद्या को इतना छोड़ने को उत्सुक हो गए कि शरीर से, बाह्य जीवन से दीन—हीन हो गए।
उपनिषद कहते हैं, दोनों की उपादेयता है। दोनों अलग आयाम में, अलग डायमेंशन में जरूरी हैं। अविद्या की अपनी जगह है। अविद्या छोड़ देने की नहीं, अविद्या को सब कुछ नहीं मान लेना है। विद्या का अपना गुण है।
और इस सूत्र में एक बात और ऋषि ने कही है कि ऐसा हमने उनसे सुना, जो जानते हैं।
इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। कहते हैं, ऐसा हमने उनसे सुना है, जो जानते हैं।
क्या उपनिषद का यह ऋषि, जिसने यह वचन कहा, स्वयं नहीं जानता है? क्या इसने सुना है जो, वही कह रहा है? इसे स्वयं पता नहीं है? सुनी हुई बात कही जा रही है?
नहीं, इस बात को भी थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि इससे बड़ी भ्रांति हुई है। पुराने दिनों में, जब ये उपनिषद के वचन रचे गए, तब अभिव्यक्ति का जो रूप था, उसे समझ लेना चाहिए। कोई भी व्यक्ति कभी ऐसा नहीं कहता था कि मैं जानता हूं। कारण थे उसके। कारण यह नहीं था कि वह नहीं जानता था। कारण यह था कि जानने के बाद मैं नहीं बचता। इसलिए अगर यह उपनिषद का ऋषि कहे कि ऐसा मैं जानकर कह रहा हूं तो उस जमाने के लोग हैसे होते और कहते कि अभी तुम मत कहो, क्योंकि अभी तुम जान न सकोगे, क्योंकि अभी मैं मौजूद हूं। तो उपनिषद का वह ऋषि जानता है भलीभांति, पर वह कहता है, ऐसा हमने उनसे सुना है, जो जानते हैं। और मजा यह है, जिनसे उसने सुना है, उन्होंने भी ऐसा ही कहा है कि यह हमने उनसे सुना है, जो जानते हैं। और जिनके संबंध में वे कह रहे हैं, उन्होंने भी ऐसा ही कहा है कि हमने उनसे सुना है, जो जानते हैं।
इसके पीछे राज है। इसके पीछे व्यक्तिगत दावा नहीं है। इसके पीछे कोई इगोइस्टिक क्लेम नहीं है। इसके पीछे ऐसा नहीं है कि मैं जानता हूं। क्योंकि जानने वाले का मैं कहां बचता है। इसलिए कहते हैं, जो जानते हैं। और, और मजे की बात आपसे कहना चाहूं कि जो जानते हैं, उनसे हमने सुना है; इसमें वह व्यक्ति स्वयं भी सम्मिलित है, जो जानते हैं उनमें। यह थोड़ा कठिन पड़ेगा। यह थोड़ा कठिन पड़ेगा।
जैसा मैंने सुबह आपसे कहा कि जब मैं आपसे कुछ कह रहा हूं तो जैसा आप सुन रहे हैं, ऐसा मैं भी सुन रहा हूं। जो बोलने वाला सुनने वाला भी नहीं है, उस बोलने वाले को कुछ भी पता नहीं है। सत्य रेडीमेड नहीं होते, पूर्व—निर्मित नहीं होते। आविर्भूत होते हैं, सहज—जात होते हैं, स्पाटेनियस होते हैं। ऐसे ही निकलते हैं, जैसे वृक्षों से फूल निकलते हैं और सुगंध निकलती है। तो अगर मैं कुछ आपसे कह रहा हूं तो दो तरह से कहा जा सकता है। एक तो कि मैंने उसे पहले तय किया हो, तैयार किया हो, फिर आपसे कहूं। तब वह बासा होगा। तब वह ताजा नहीं रहा। तब वह जीवंत भी नहीं रहा। तब वह मुर्दा हो गया। तब वह मरा हुआ हो गया। लेकिन जो आ रहा है वह आपसे कहता हूं तो जिस भांति आप उसे सुन रहे हैं पहली बार, उसी तरह मैं भी सुन रहा हू। तो मैं भी एक श्रोता हूं। आप ही श्रोता हैं, ऐसा नहीं; मैं भी फिर श्रोता हूं। तो जो उपनिषद का ऋषि कहता है कि जो जानते हैं, उनसे हमने सुना है, इसमें जिन्होंने जाना है, उनसे तो सुना ही है, अगर खुद भी जाना है तो वह भी सुना है। उसके लिए भी ऋषि अपने को श्रोता ही कह रहा है, सुनने वाला ही कह रहा है।
और भी एक कारण है। जब भी कोई व्यक्ति परम सत्य को उपलब्ध होता है, तो परम सत्य ऐसा मालूम नहीं पड़ता कि मैंने बना लिया है। परम सत्य ऐसा मालूम पड़ता है कि मुझ पर उतरा है, अवतरित हुआ है। परम सत्य ऐसा मालूम नहीं पड़ता कि मेरा क्रिएशन, मेरा निर्माण है। बल्कि ऐसा मालूम पड़ता है कि मेरे समक्ष एक रिविलेशन, एक उदघाटन, एक इलहाम।
अगर कोई मोहम्मद से पूछे कि कुरान तुमने लिखी है? तो मोहम्मद कहेंगे कि क्षमा करना, ऐसे पाप की बात मुझसे मत कहना। मैंने कुरान सुनी है। मैंने कुरान देखी है। मैंने कुरान लिखी है — सुनकर, देखकर। मैंने नहीं लिखी है।
इसलिए मोहम्मद पैगंबर हैं। पैगंबर का अर्थ है मैसेजर — वन हू हैज डिलीवर्ड दि मैसेज, जिसने सिर्फ खबर पहुंचा दी। उसे खबर दी गई थी, सत्य उसके सामने प्रगट हुआ था, उसने आकर आपको कह दिया कि सत्य ऐसा है। यह सत्य उसका निर्मित नहीं है। इसलिए हमने ऋषियों को द्रष्टा कहा। स्रष्टा नहीं कहा, द्रष्टा कहा। क्रिएटर्स नहीं, सीअर्स। नहीं कहा कि उन्होंने सत्य का सृजन किया, कहा कि उन्होंने सत्य को देखा। इसलिए हमने, जो उन्होंने देखा, उसको दर्शन कहा। चाहे दर्शन हम कहें, चाहे श्रवण हम कहें। यह ऋषि कहता है, सुना है हमने उनसे, जो जानते हैं।
वह यह कह रहा है कि सत्य हमसे मुक्त और पृथक है। हम उसे बनाते नहीं हैं। हम उसे निर्माण नहीं करते। हम केवल सुनते हैं, जानते हैं, देखते हैं। हम साक्षी भर हैं। साक्षी कहें, द्रष्टा कहें, श्रोता कहें — पैसेविटी पर ध्यान रखें।
ऋषि कह रहा है कि हम पैसिव हैं, एक्टिव नहीं। एक तो आप जब कुछ निर्मित करते हैं, तो आप एक्टिव होते हैं, सक्रिय होते हैं। जब आप कुछ ग्रहण करते हैं...। एक चित्रकार एक फूल बना रहा है, तब वह एक्टिव एजेंट है, तब वह सक्रिय काम कर रहा है। पर एक चित्रकार एक गुलाब के फूल के पास खड़े होकर उसका दर्शन कर रहा है, तब वह पैसिव एजेंट है। तब वह कुछ कर नहीं रहा है, सिर्फ ग्राहक है, रिसेप्टिव है। सिर्फ अपने दरवाजे खुले छोड़ दिए हैं। खिड़कियां, द्वार मन के खुले छोड़ दिए। फूल को कहा, आ जा! निमंत्रण दे दिया। हृदय पर लटका दिया — स्वागत है, और चुप खड़ा हो गया। तब वह रिसेप्टिव है। तब फूल भीतर जाएगा, हृदय पर उसकी पखुडियां स्पर्श करेंगी, प्राणों में उसकी सुगंध गूंजेगी। तो जो ग्राहक की भांति फूल को अपने भीतर ले गया है, उसके प्राण के कोने—कोने तक फूल समा जाएगा। लेकिन यहां वह जो ग्राहक है, वह पैसिव है। वह सिर्फ ग्रहण कर रहा है।
उपनिषद का यह ऋषि कहता है, ऐसा सुना हमने। इसमें वह खबर दे रहा है कि सत्य केवल उन्हें ही उपलब्ध होता है, जो पैसिव हैं। पैसिविटी इज दि डोर — ग्रहणशीलता द्वार है। जैसे कि सूरज निकला है दरवाजे के बाहर। हम सूरज को भीतर ला नहीं सकते, द्वार खोलकर बैठ सकते हैं लेकिन। और द्वार खुला है तो सूरज भीतर आ जाएगा। उसकी किरणें धीरे— धीरे नाचते—नाचते घर के भीतर के कोने तक पहुंचने लगेंगी। तो हम यह नहीं कह सकते कि हम सूरज को घर के भीतर ले आए। ले आना, जरा ज्यादा कहना होगा। हम इतना ही कह सकते हैं कि हमने सूरज को आने में बाधा न दी। हमने द्वार बंद न रखा। हम द्वार खुला करके बैठे। जरूरी नहीं था कि हमारा द्वार खुला होता तो भी सूरज आता। हालांकि यह जरूरी है कि हमारा द्वार बंद होता तो कभी न आता। जरूरी नहीं है कि द्वार खुला हो तो सूरज आए ही। द्वार खुला हो और सूरज न आए, तो हम कुछ कर न सकेंगे। लेकिन द्वार न खुला हो, तो फिर सूरज नहीं आ सकता है। मेरा मतलब समझ रहे हैं आप? द्वार खुला हो तो सूरज का आना जरूरी नहीं है। आए उसकी मर्जी, न आए उसकी मर्जी। लेकिन द्वार बंद हो तो सूरज का न आना सुनिश्चित है। अब उसकी मर्जी भी हो आने की तो भी नहीं आ सकता। इसका मतलब यह है कि हम अगर चाहें तो सत्य के प्रति अंधे हो सकते हैं। फिर सत्य कुछ भी न कर सकेगा। चाहें तो सत्य के प्रति आंख वाले हो सकते हैं। लेकिन तब सत्य को हम निर्मित नहीं करते हैं, सिर्फ दर्शन होता है।
जीवन में जो भी मूल्यवान है, जो भी सुंदर है, जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सत्य है, जो भी शिव है, वह सभी ग्राहक मन को उपलब्ध होते हैं। द्वार देने वाला मन उन्हें पाता है। इसलिए ऋषि नहीं कहते ऐसा कि हमने, मैंने...! नहीं, वे कहते हैं, जिन्होंने जाना, उनसे हमने सुना। जहां ज्ञान है, वहां से हमने सुना। जहा ज्ञान है, वहां से हमने पाया। इसमें मैं को पूरी तरह पोंछ डालने की आकांक्षा है। इसीलिए तो किसी उपनिषद पर कोई हस्ताक्षर नहीं है। नहीं जानते, कोन बोल रहा है, कोन कह रहा है, किसका वचन है! कोई हस्ताक्षर नहीं है। कुछ पता नहीं है कि कोन आदमी है जिसने यह कहा! इतने महासत्य बिना हस्ताक्षर के कोई कह गया! असल में महासत्य बिना हस्ताक्षर के ही कहे जा सकते हैं। क्योंकि महासत्य के जन्म के पहले ही वह मिट जाता है।
यह ऋषियों का अपने को बिलकुल हटा देना बीच से! कुछ पता नहीं चलता कि कोन इन वचनों को कहा है। यह भी पक्का नहीं है कि ये वचन एक ही आदमी के हों। इसमें एक वचन एक का हो सकता है, दूसरा दूसरे का, तीसरा तीसरे का हो सकता है। लेकिन फिर भी एक मजा है। ये विभिन्न लोगों के वचन हैं, फिर भी इनमें एक संगति है, एक हार्मनी है, एक संगीत है। ये कितने ही भिन्न रहे होंगे लोग, ये एक—एक वचन को अलग—अलग लोगों ने कहा होगा, लेकिन फिर भी भीतर कहीं गहरे में बिलकुल एक जैसे हो गए होंगे।
कभी जाएं किसी जैन मंदिर में, तो वहां चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं। एक मूर्ति में दूसरी मूर्ति में कोई भी भेद नहीं है। तो नीचे थोड़ा सा चिह्न होता है, जिसमें फर्क है। वह हमने अपने हिसाब के लिए निशान लगा रखे हैं। नहीं तो पहचानना मुश्किल होगा, कोन महावीर हैं? कोन पार्श्वनाथ हैं? कोन नेमिनाथ हैं? हमने अपनी पहचान के लिए नीचे निशान लगा रखे हैं। नीचे के निशान पोंछ दें, फिर मूर्तियां बिलकुल एक जैसी हो जाएंगी। चेहरे भी बिलकुल एक जैसे।
यह बात ऐतिहासिक तो नहीं हो सकती। महावीर का चेहरा पार्श्वनाथ से एक जैसा नहीं हो सकता। और फिर चौबीस तीर्थंकर बिलकुल एक ही शकल—सूरत के हो गए हों, यह जरा मुश्किल मालूम पड़ता है। दो आदमी नहीं होते एक शकल—सूरत के, तो चौबीस आदमी एक ही शकल—सूरत के खोज लेना तो मिरेकल है! पर क्या जिन्होंने बनाई थीं मूर्तियां, उनको इतनी समझ न आई कि किसी दिन कोई हंसेगा और कहेगा कि ये ऐतिहासिक नहीं हैं? नहीं, उनको पूरी समझ थी। लेकिन हमने किन्हीं और भीतरी चेहरों की मूर्तियां बनाई हैं, बाहर के चेहरों को छोड्कर। वह एक भीतर एक सिमिलेरिटी है। महावीर के ऊपर के चेहरे में तो निश्चित ही फर्क रहा होगा पार्श्वनाथ से — लंबाई, नाक—नक्श, आंख, चेहरा सब अलग रहा होगा — लेकिन फिर भी एक जगह आती है जिंदगी में जहां मैं खो जाता है। फिर वहां भीतर तो कोई फासला नहीं रह जाता, फिर एक फेसलेसनेस — चेहरे से छुटकारा हो जाता है। फिर ऊपर के चेहरे बेमानी हैं।
इसलिए हमने ऊपर की मुर्तियां नहीं बनाई हैं। वह मूर्तियां भीतर की सिमिलेरिटी, वह भीतर की जो समता है, वह भीतर का जो एक जैसा पन है, उसकी फिकर की है। इसलिए एक जैसी मूर्तियां हैं।
ये उपनिषद के वचन अलग—अलग लोगों के हैं। और कुछ आश्चर्य न होगा कि यह भी हो सकता है कि दो कड़ी का जो पद है, उसमें एक कड़ी एक की हो और दूसरी दूसरे की हो।
ऐसा हुआ। अंग्रेजी का महाकवि कूलरिज मरा तो उसके घर में चालीस हजार कविताएं अधूरी मिलीं। मरने के पहले उसके मित्रों ने बहुत बार कूलरिज को कहा कि इतनी अद्भुत कविताएं अधूरी क्यों छोड़ रखी हैं! ये तुम पूरी कर दो। तुमसे बड़ा महाकवि दुनिया में नहीं होगा। चालीस हजार कविताएं अधूरी! इनको तुम पूरा कर दो। किसी में तीन पंक्तियां हैं, चौथी नहीं है। किसी में सात पंक्तियां हैं, आठवीं नहीं है। किसी में ग्यारह पंक्तियां हैं, बारहवीं नहीं है। एक पंक्ति के पीछे अटकी है। तुम पूरी क्यों नहीं कर देते?
कूलरिज ने कहा कि ग्यारह ही आईं, बारहवीं की मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं दस वर्ष हो गए। अभी बारहवीं पंक्ति आई नहीं, तो मैं कैसे जोडू? कभी किसी को आ जाएगी तो जोड देगा। आती नहीं है। मैं चाहूं तो बना सकता हूं लेकिन वह झूठी होगी। वह लकड़ी की टांग हो जाएगी। असली आदमी में लकड़ी की टांग हो जाएगी। ये ग्यारह पंक्तियां तो जिंदा हैं, ये उतरी हैं। ये मैंने बनाई नहीं। किसी रिसेप्टिव मोमेंट में, किसी ग्राहक क्षण में मुझ पर आ गईं। मैंने उनको नीचे लिख दिया। बारहवीं अभी तक नहीं आई। अब मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। अगर इस जिंदगी में आ गई तो जोड़ दूंगा, अन्यथा इनको छोड़ जाऊंगा। कभी किसी और की जिंदगी में आ सकती है। कोई और किसी दिन द्वार बन जाए, बारहवीं पंक्ति वह जोड़ देगा।
जरूरी नहीं है कि इसमें दो पंक्तियां एक ही व्यक्ति की हों। ये उन व्यक्तियों की पंक्तियां हैं, जिन्होंने अपनी तरफ से कुछ नहीं लिखा। जो उन पर उतर आया है, उसे कह दिया। इसलिए निश्चित रूप से यह कहना ऋषि का कि सुना हमने, जो जानते हैं वे ऐसा कहते हैं — संपूर्ण रूप से निरहंकार मनोदशा की स्वीकृति है, सूचना है, खबर है। मैं नहीं हूं सिर्फ एक द्वार है — इसकी घोषणा है।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्यु तीर्त्वा विद्ययाध्मृतमश्नुते।। 11।।
जो विद्या और अविद्या—इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह
अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व प्राप्त कर लेता है।। 11।।
दोनों को जानता है जो, अविद्या को भी और विद्या को भी, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृत को जान लेता है।
बड़ी अनूठी कड़ी है। कहा मैंने कि उपनिषद अविद्या के विरोधी नहीं हैं। विद्या के पक्षपाती हैं, अविद्या के विरोधी जरा भी नहीं हैं।
कहा है, अविद्या को जानता है जो, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर लेता है।
अविद्या की सारी लड़ाई मृत्यु से है। एक डाक्टर लड़ रहा है मृत्यु से, एक इंजीनियर लड़ रहा है मृत्यु से। हमारी सारी साइंस लड़ रही है मृत्यु से। हमारा सारा व्यवसाय जीवन का लड़ रहा है मृत्यु से, बीमारी से, असुरक्षा से, खतरे से। जीवन मिट न जाए, उसके बचाने में लगी है सारी अविद्या। सारी अविद्या का संघर्ष मृत्यु से है। तो जो अविद्या को जानता है, वह मृत्यु को पार कर लेता है। वह जी लेता है ठीक से।
तो अविद्या से मृत्यु को पार कर लेना। लेकिन अविद्या से अमृत न मिलेगा। सिर्फ मृत्यु पार होती रहेगी। अविद्या से सिर्फ हम जी लेंगे। लेकिन जीवन का सार नहीं मिलेगा, मात्र जी लेंगे। कहना चाहिए — वेजीटेशन। गुजर जाएंगे जिंदगी के रास्ते से। भोजन मिल जाएगा, मकान मिल जाएगा, दवा मिल जाएगी, औषधि मिल जाएगी, सब मिल जाएगा। जिंदगी ठीक से गुजर जाएगी, सुविधा से गुजर जाएगी, लेकिन अमृत न मिलेगा। अगर किसी दिन अविद्या मृत्यु को बिलकुल रोक दे, तो भी अमृत नहीं मिलेगा।
अभी विज्ञान इस चेष्टा में संलग्न है। असल में विज्ञान का सारा संघर्ष ही मृत्यु से बचाव के लिए है। इसलिए विज्ञान सदा ही उत्सुक है कि किस भांति मृत्यु को टाला जाए। अंतहीन टाला जा सके। और किसी दिन ऐसी स्थिति आ जाए कि हम मृत्यु को चाहें तो सदा के लिए टाल सकें। अगर पिछले तीन हजार साल के अविद्या के, वितान के विकास को हम समझें, तो सारा संघर्ष मृत्यु से है। और विज्ञान उसमें बहुत दूर तक सफल भी हुआ है। आज से हजार साल पहले दस बच्चे पैदा होते थे तो नौ मर जाते थे।
आज जिन मुल्कों में विज्ञान प्रभावी हो गया है, वहां दस बच्चे पैदा होते हैं तो एक मरता है, नौ बचते हैं। दस हजार साल पुरानी हड्डियां जो मिली हैं, तो एक भी हड्डी ऐसी नहीं मिली, जिसकी उम्र पच्चीस साल से ज्यादा रही हो। यानी जिसकी वह हड्डी है, वह आदमी पच्चीस साल से ज्यादा उम्र का नहीं था। दस हजार साल पुरानी एक भी हड्डी नहीं मिली पूरी पृथ्वी पर कि दस हजार साल पहले कोई आदमी की हड्डी बची हो जो पच्चीस साल से ज्यादा जीया हो।
आज सोवियत रूस में एक हजार आदमियों से ऊपर लोग डेढ़ सौ वर्ष के ऊपर हैं। सौ वर्ष सामान्य बात हुई चली जाती है। इसलिए आपको कभी—कभी हैरानी होती है कि अखबार में खबर आ जाती है कि रूस में किसी नब्बे वर्ष के बूढ़े ने विवाह किया, तो हमें बड़ा ऐसा लगता है कि का बड़ा नासमझ है। आपको पता होना चाहिए कि का अभी बूढ़ा नहीं है, और कोई बात नहीं है। नब्बे वर्ष का बूढ़ा जब शादी करता है तो आप अपने बूढ़े से हिसाब मत लगाना, आपका बूढ़ा तो बीस साल पहले मर चुका होगा। वह नब्बे साल का बूढ़ा उस कोम में है, जहां डेढ़ सौ वर्ष तक उम्र खींची जा सकती है। तो जब डेढ़ सौ वर्ष तक उम्र खिंच जाए, तो आप जवानी का वक्त कब तक रखिएगा? कम से कम सौ साल तो मानिएगा!
तो जहां—जहां वितान सफल हुआ है वहां मौत को धक्के दिए गए हैं। और अभी सफलता, और बढ़ती चली जाती है। अब इसमें कुछ बहुत असंभावना नहीं दिखती कि हम आदमी के शरीर को, बहुत शीघ्र, इस सदी के पूरे होते—होते इस स्थिति में आ जाएंगे कि अगर जिलाए रखना चाहें, तो कोई कारण नहीं होगा कि हम न जिला सकें। अंतहीन भी जिलाया जा सकता है।
इसलिए भी पश्चिम, विशेषकर अमरीका के कुछ विचारकों में एक बात चलनी शुरू हुई है, विचार तीव्र हुआ है, और वह यह कि इसके पहले कि वैज्ञानिक सफल हो जाएं आदमी की उम्र को लंबा करने में, हमें प्रत्येक आदमी को मरने का जन्मसिद्ध अधिकार है, यह कांस्टीटचूशन में जोड़ लेना चाहिए। नहीं तो बहुत मुश्किल होगी। क्योंकि अगर कोई सरकार किसी आदमी को न मरने देना चाहे, तो उस आदमी का कोई हक नहीं होगा। अभी तक हमने दुनिया में कानून बनाए थे कि किसी आदमी को मारने का हक नहीं है। लेकिन अभी सारी दुनिया के विशेष मुल्कों में, जहां विज्ञान सफल हो रहा है जीवन को लंबा करने में — जैसा कि स्विट्जरलैंड में या स्वीडन में या नावें में — जहां उम्र बहुत ऊपर चली गई, तो वहां अथनासिया के लिए आदोलन चलता है। वहां के विचारशील लोग जोर से एक आदोलन चला रहे हैं कि जो आदमी मरना चाहता है, उसे कोई डाक्टर बचाने के लिए हकदार नहीं है। और अगर कोई डाक्टर बचाता है तो वह उस व्यक्ति के मौलिक सिद्धात पर, जीवन के अधिकार पर हमला करता है।
क्योंकि खतरनाक है। एक आदमी डेढ़ सौ साल का है, अब डेढ़ सौ साल का आदमी शायद ही और जीना चाहे। अगर बिलकुल ही बुद्धिहीन हो तो बात अलग है। नहीं तो डेढ़ सौ साल का आदमी अब चाहेगा कि विश्राम करे, विदा हो जाए। लेकिन डाक्टर उसको चाहें तो अस्पतालों में उसे लटकाए रख सकते हैं। उसे जिंदा रख सकते हैं। और डाक्टरों को भी अभी हक नहीं है किसी को मरने में सहायता देने का। इसलिए डाक्टर भी यह नहीं कह सकते कि हम मरने में सहायता दें। हम तो पूरी कोशिश करेंगे तुम्हें बचाने की, तुम मर जाओ वह बात अलग है। इसलिए आंदोलन चलता है कि हम आदमी को मरने का हक दे दें, कि कोई आदमी अगर तय कर ले कि मुझे मरना है तो उसे कोई रोक नहीं सकेगा।
यह बहुत जल्दी अर्थपूर्ण बात हो जाएगी। क्योंकि आदमी के शरीर में अब तक ऐसी कोई बात नहीं पाई जा सकी है, जिसके कारण मृत्यु अनिवार्य हो। अगर मृत्यु घटित होती है तो उसका कुल कारण इतना है कि आदमी के शरीर के हिस्से अभी रिप्लेसेबिल नहीं हो सके हैं। हम उसके कुछ पार्ट्स को अभी बदल नहीं पाते हैं इसलिए तकलीफ है। जैसे—जैसे हम उसके शरीर के हिस्सों को बदलने में समर्थ होते चले जाएंगे, वैसे—वैसे आदमी को मरना अनिवार्यता नहीं रह जाएगी, स्वेच्छा का कृत्य हो जाएगा। ध्यान रखिए, बहुत शीघ्र दुनिया में कोई आदमी सिवाय दुर्घटना के अतिरिक्त अपने आप नहीं मरेगा। तो दुनिया में मृत्यु कम और आत्मघात — वह आत्मघात होगा जब आदमी डाक्टर को कहेगा, मुझे मार डालो — आत्मघात सामान्य प्रक्रिया मृत्यु की हो जाएगी।
उपनिषद बहुत प्राचीन समय में यह कहते हैं कि अविद्या से मृत्यु के पार...। मृत्यु को जीता भी जा सकता है अविद्या से। अभी जो पश्चिम का चिकित्सा—शास्त्र कर रहा है, वह उपनिषद घोषणा करते हैं। वे कहते हैं, अविद्या से मृत्यु को जीता भी जा सकता है। इतने दूर हटाई जा सकती है मौत, क्योंकि मौत... भीतर हमारे जो तत्व है उसकी तो कोई मौत होती नहीं। मौत होती है हमारे शरीर की। फिर हमारे भीतर के तत्व को नया शरीर ग्रहण करना पड़ता है। अगर हम पुराने शरीर को ही काम योग्य बनाए रख सकें, तो नए शरीर को ग्रहण करने की कोई जरूरत नहीं है। और नया शरीर ग्रहण करना बहुत नान—इकनामिकल है, बहुत गैर— आर्थिक है।
क्योंकि एक का आदमी मरता है। आप सोचें कि प्रकृति को इकनामी नहीं आती। असल में प्रकृति को कोई अर्थशास्त्र का अनुभव नहीं है। बच्चों को पैदा करती है, बूढ़ा को मार देती है। के हमारे सब सीखे—सिखाए, सारी मेहनत किए हुए, और बच्चे पैदा कर देती है बिलकुल बिना सीखे हुए, बिलकुल बेकाम। जिनके साथ हमने सत्तर साल मेहनत की, जिनमें किसी तरह थोड़ी—बहुत बुद्धि की मात्रा आई, उनको समाप्त कर देती है और फिर निर्बुद्धियों को पैदा कर देती है। उनको फिर हम बड़ा करें। बहुत नान—इकनामिकल है! इकनामिकल तो यही होगा कि सत्तर साल का आदमी मरने न दिया जाए, क्योंकि सत्तर साल का अनुभव खोता है व्यर्थ। और सत्तर साल का आदमी मरेगा, फिर नया जन्म लेगा — फिर बीस साल शिक्षा, पच्चीस साल शिक्षा पे व्यतीत होंगे, तब कहीं वह फिर उस स्थिति में आ पाएगा मुश्किल से, जिस स्थिति में मरा था। यह व्यर्थ है। तो विज्ञान, अविद्या, इस दिशा में संलग्न रही है। और वह इस चेष्टा में है कि हम, यह जो अपव्यय होता है, इसे रोकें।
अगर हम आइंस्टीन को बचा सकें, तो बड़ा अपव्यय बचेगा। और आइंस्टीन अगर तीन सौ साल जिंदा रह सके, तो दुनिया के ज्ञान में जो वृद्धि होगी, वह आइंस्टीन तीन दफे जन्म ले तो नहीं होगी। क्योंकि यह तीन सौ साल की कंटीन्युअस प्रौढ़ता होगी। और बार—बार इसमें बीच में डिस्कंटीन्यूटी नहीं होगी। बीस—बीस, पच्चीस—पच्चीस, तीस—तीस साल का गैप बीच में आकर नष्ट नहीं करेगा। तो अगर आइंस्टीन को हम तीन सौ साल जिंदा रख लें, तो आइंस्टीन ज्ञान में इतनी वृद्धि कर जाएगा, जिसका कि कोई हिसाब नहीं है।
और ज्ञान का कोई अंत नहीं है। मनुष्य का एक छोटा सा मस्तिष्क, इस छोटे से मस्तिष्क में कोई पचास करोड़ सेल हैं, और एक—एक सेल की इतने ज्ञान को संरक्षित करने की क्षमता है कि वैज्ञानिक कहते हैं कि अभी पृथ्वी पर जितने पुस्तकालय हैं, एक व्यक्ति के मस्तिष्क में सब समाए जा सकते हैं। पचास करोड़ कोष्ठ इतनी बड़ी शक्ति है कि सारी पृथ्वी पर जितना ज्ञान है अभी, वह एक व्यक्ति उसका मालिक हो सकता है। यह दूसरी बात है कि हमारे पास अभी इतना ज्ञान उस व्यक्ति के भीतर डालने की व्यवस्था नहीं है। हमारे डालने की व्यवस्था बहुत आदम है।
एक बच्चे को सिखाते हैं, बीस साल लग जाते हैं, तब कहीं उसको बीए. करवा पाते हैं। कुछ हल नहीं होता। बीस साल शिक्षा देने के बाद इतना ही हो पाता है कि हम कह सकते हैं कि यह आदमी अशिक्षित नहीं है। बस, इतना ही हो पाता है। कुछ खास हो नहीं पाता। सत्तर साल भी शिक्षा दें, तो भी कुछ बहुत विशेष नहीं होने वाला है। ज्ञान इतना है और उस ज्ञान को व्यक्ति के मस्तिष्क में डालने की सुविधा और व्यवस्था अभी इतनी नहीं है। इसलिए बड़ी नई व्यवस्थाएं खोजी जा रही हैं कि शिक्षण के नए प्रयोग खोज लिए जाएं।
तो रूस में स्लीप टीचिंग पर भारी काम चलता है कि बच्चे को दिन में पढ़ाना और रातभर वह बेकार सोया रहता है, तो रात के बारह घंटे खराब चले जाते हैं, तो रात टेप लगाकर उसके कान में, रातभर वह सोया रहे और टेप रातभर उसको शिक्षा भी देता रहे। नींद को भी शिक्षा के लिए माध्यम बनाने के बड़े उपाय चलते हैं, और दूर तक सफलता मिली है। और बहुत जल्दी जो शिक्षा अभी हम पंद्रह वर्ष में दे पाते हैं, वह हम सात वर्ष में दे पाएंगे। क्योंकि रात का भी उपयोग कर लेंगे। और भी सुविधा की बात है कि शिक्षक जब जागते में बच्चे को शिक्षा देता है तो बच्चे और शिक्षक के अहंकार में संघर्ष खड़ा हो जाता है, जिसकी वजह से बहुत बाधा पड़ती है। नींद में कोई संघर्ष खड़ा नहीं होता, शिक्षा सीधी आत्मसात हो जाती है। शिक्षक होता ही नहीं। विद्यार्थी भी नहीं होता। विद्यार्थी सोया होता है, शिक्षक मौजूद नहीं होता। सिर्फ टेप—रिकार्डर होता है। वह धीरे— धीरे रातभर में बच्चे में शिक्षा डाल देता है। बच्चा उसको सीधा स्वीकार कर लेता है।
अविद्या के द्वारा मृत्यु को जीता जा सकता है, यह उपनिषद की घोषणा समस्त विज्ञानपीठो के ऊपर लिख दी जानी चाहिए। और उपनिषद का ऋषि ऐसा कहता है कि अविद्या से मृत्यु को जीता जा सकता है, क्योंकि मृत्यु सिर्फ शारीरिक दुर्घटना है। शरीर को अगर हम थोड़ी व्यवस्था दे सकें तो मृत्यु लंबाई जा सकती है, दूर तक ढकेली जा सकती है। कोई अड़चन नहीं है।
अभी अमरीका में एक आदमी मरा है पंद्रह वर्ष पहले। लेकिन अभी तक कोई आदमी मर जाए तो उसे वापस पुनरुज्जीवित करने के विज्ञान के पास उपाय नहीं हैं। लेकिन वैशानिकों का खयाल है कि 198० के पूरे होते—होते हमारे पास उपाय होंगे कि कोई व्यक्ति मर जाए तो हम उसे रिवाइव कर लें। तो वह आदमी दस करोड़ डालर की वसीयत करके गया है कि मेरी लाश को कम से कम 198० तक पूरी तरह सुरक्षित रखा जाए, क्योंकि 198० में रिवाइव मैं हो सकूं। तो रोज कोई एक लाख रुपया खर्च उसकी लाश को बिलकुल वैसा ही सुरक्षित रखने में किया जा रहा है कि उसमें रत्तीभर फर्क न पड़े। जैसा वह मरने के क्षण में था, वैसा ही 198० तक उसकी लाश को ले जाया जा सके — ठीक वैसा ही। ताकि 198० में, जब कि विज्ञान हमारे हाथ में आ जाए, हम उसके शरीर को वापस पुनरुज्जीवन दे सकें।
इससे अध्यात्मवादी बहुत घबराते हैं। वे कहते हैं, अगर ऐसा हो गया तो इसका मतलब हुआ फिर, फिर आत्मा का क्या हुआ? अगर 198० में यह आदमी जिंदा हो जाए, तो फिर आत्मा का क्या हुआ?
लेकिन यह आदमी एक ही शर्त पर जिंदा हो सकेगा। विज्ञान शरीर को रिवाइव कर ले, इतना जरूरी है हिस्सा, लेकिन पर्याप्त नहीं। अगर उसकी आत्मा भटकती हो अभी तक और नए शरीर को ग्रहण न किया हो, तो प्रवेश कर जाएगी। और मुझे लगता है, इस आदमी की भटकेगी। इतनी बड़ी वसीयत करके गया है। दस करोड़ डालर का मामला है, कोई छोटा मामला नहीं है। आदमी भटकेगा। वह बीस साल प्रतीक्षा करेगा। और अगर शरीर उसका पुनरुज्जीवित हो सकता है तो वह वापस पुनर्प्रवेश कर जाएगा। ऐसे ही जैसे मकान गिर जाए, फिर बन जाए, हम घर में वापस आ जाते हैं।
अविद्या से मृत्यु को जीता जा सकता है, लेकिन अमृत को नहीं पाया जा सकता। यह दूसरा सूत्र और भी जरूरी है। मृत्यु को भी जीत ले किसी दिन विज्ञान और हम आदमी को इस हालत में कर दें कि वह करीब—करीब इम्मार्टल हो जाए, न मरे, तो भी क्या हुआ? तो भी अमृत का कोई अनुभव नहीं हुआ। तो भी हमने उसे नहीं जाना, जो अमृत है। तब भी हम उसी को जान रहे हैं, जो सत्तर साल जीता था, अब सात सौ साल जीता है। तब सत्तर साल जीता था, अब सात हजार साल जीता है। लेकिन जो जीने के भी पहले था, जन्म के भी पहले था और जो मरने के बाद भी बच जाता है, उसका हमें कोई अनुभव नहीं है। अमृत को तो जानना हो तो विद्या से ही जाना जा सकता है।
इसलिए उपनिषद अविद्या को बड़ी कीमत देते हैं। मृत्यु से संघर्ष में वही उपाय है। लेकिन अमृत की उपलब्धि में वह उपाय नहीं है। मृत्यु से संघर्ष एक निगेटिव, एक नकारात्मक प्रक्रिया है। अमृत की उपलब्धि एक विधायक, एक पाजिटिव अचीवमेंट है, एक विधायक उपलब्धि है। अमृत की उपल्ब्धि उसे जानने की चेष्टा है, जो जन्म के पहले भी था और जो मैं मर जाऊं तो भी रहेगा। जो अभी भी है, कल भी था, परसों भी था। जब यह देह नहीं थी तब भी था और जब यह देह नहीं रहेगी तब भी होगा। उसे जानना अमृत की उपलब्धि है। और इस शरीर को खींचे चले जाना मृत्यु से संघर्ष है। इस शरीर को लंबाए चले जाना, जन्म और मृत्यु की सीमा को बड़ा किए चले जाना मृत्यु से संघर्ष है। और जन्म और मृत्यु के जो पार है, उसकी अनुभूति में उतर जाना अमृत की उपलब्धि है।
अमृत की उपलब्धि, उपनिषद कहते हैं, विद्या से होगी।
इस विद्या के दो—चार सूत्र भी समझ लेने चाहिए। इस अमृत की उपलब्धि की विद्या का सूत्र क्या होगा?
पहली बात, जो व्यक्ति भी सोचता है कि मैं शरीर हूं वह कभी अमृत की दिशा में गति नहीं कर पाएगा। इसलिए विद्या का पहला सूत्र है, शरीर से तादात्म्य छिन्न—भिन्न कर लेना। जानते रहना निरंतर, स्मरण करना निरंतर, बार—बार होश रखना, पुनः—पुन: खयाल में लाना — मैं शरीर नहीं हूं। यह जितना गहरा बैठ जाए कि मैं शरीर नहीं हूं उतना ही अमृत की दिशा में गति हो पाएगी ' और जितना यह गहरा बैठ जाए कि मैं शरीर हूं उतनी ही अविद्या, उतनी ही मृत्यु से संघर्ष की सूँत्रा चलेगी।
और जैसा जीवन है, उसमें मैं शरीर हूँ यह चौबीस घंटे स्मरण आता है। पैर में जरा चोट लगी, स्मरण आता है, मैं शरीर हूं। पेट में जरा भूख लगी, स्मरण आता है, मैं शरीर हूं। सिर में जरा दर्द हुआ, स्मरण आता है, मैं शरीर हूं। बुखार आ गया, स्मरण आता है, मैं शरीर हूं। बुढ़ापा उतरने लगा, स्मरण आता है, मैं शरीर हूं। जवानी उठने लगी, स्मरण आता है, मैं शरीर हूं। सब तरफ जीवन में, सब तरफ से इशारा मिलता है कि मैं शरीर हूं। इसका तो कोई इशारा नहीं मिलता कहीं से कि मैं शरीर नहीं हूं। और मजा यह है कि वही सत्य है, जिसका कोई इशारा नहीं मिलता, और वही असत्य है, जिसके लिए रोज इशारे मिलते हैं।
लेकिन इशारे मिलते हैं इसलिए कि हमारे इशारे समझने में, इशारों को डी—कोड करने में बड़ी बुनियादी भूल हो रही है। कुछ कहा जाता है, कुछ हम समझते हैं। बड़ी मिसअंडरस्टैंडिंग है। पूरीजिंदगी एक बड़ी मिसअंडरस्टैंडिग है। इशारे कुछ और कहते हैं, हम कुछ और समझते हैं। कहा कुछ और जाता है, हम अर्थ कुछ और निकालते हैं। पेट में लगती है भूख, तब मैं कहता हूं मुझे भूख लगी है। गलत। हमने, जो सूचना मिली, उसका गलत अर्थ लिया। सूचना केवल इतनी थी कि मुझे पता चल रहा है कि पेट में भूख लगी है। मुझे पता चल रहा है कि पेट में भूख लगी है, सूचना कुल इतनी है। लेकिन हम कहते हैं, मुझे भूख लगी है। हम कैसे इस नतीजे पर पहुंचते हैं, आज तक कोई नहीं बता पाया। यह बीच का हिस्सा कैसे गिर जाता है! मुझे पता चलता है कि पेट में भूख लगी है। मुझे भूख कभी नहीं लगती। लेकिन मैं कहता हूं मुझे भूख लगी है। सिर में दर्द होता है, तब मुझे पता चलता है — पता चलता है मुझे — कि सिर में दर्द हो रहा है। लेकिन मैं कहता हूं मेरे सिर में दर्द हो रहा है। ऐसा भी मैं बाहर कहता हूं कि मेरे सिर में दर्द हो रहा है, भीतर तो मैं ऐसा कहता हूं मुझमें दर्द हो रहा है।
शरीर की सूचनाओं में भूल नहीं है। शरीर की सूचनाओं को जब हम डी—कोड करते हैं। जब उसकी सूचनाओं को हम समझने की चेष्टा में व्याख्या करते हैं, तब भूल हो जाती है। व्याख्या में भूल है।
स्वामी राम निरंतर ठीक—ठीक बोलते थे। तो लोग उन्हें पागल समझने लगे। पागलों की दुनिया है। वहां कोई ठीक—ठीक आदमी हो तो पागल समझ लिया जाए, अड़चन नहीं है। राम कभी नहीं कहते थे कि मुझे भूख लगी है। कभी वह कहते कि सुनो भाई, इधर भूख लगी है। थोड़ी सी हैरानी हो जाती कि दिमाग खराब हो गया! आपका दिमाग तो ठीक है? तो ठीक कह रहा है बेचारा, तो दिमाग ठीक है, यह सवाल उठता है। कभी आकर घर कहते कि आज बड़ा मजा आया। रास्ते से गुजरते थे, कुछ लोग राम को गाली देने लगे। राम को — यह नहीं कहते कि मुझको। यह नहीं कि मैं निकलता था, मुझे लोग गाली देने लगे। कहते कि कुछ लोग मिल गए, बड़ा मजा आया, राम को गाली देने लगे। हम भी सुनते थे। हमने कहा, देखो राम! मिला मजा!
पहली बार जब स्वामी राम अमरीका गए और जब ऐसा बोलने लगे थर्ड पर्सन में, तो बड़ी कठिनाई हुई। यहां तो उनके मित्र उनको जानते थे कि ठीक है, इनका दिमाग थोड़ा...! लेकिन वहां बड़ी मुश्किल हुई, लोग बिलकुल समझ ही न पाएं कि वे क्या कह रहे हैं। लेकिन वही ठीक कहते हैं। वह बिलकुल ही ठीक कहते हैं। पेट को ही भूख लगती है, आपको कभी भूख नहीं लगी। आज तक नहीं लगी। लग नहीं सकती। क्योंकि आत्मतत्व में भूख का कोई उपाय नहीं है। आत्मतत्व के पास भूख का कोई यंत्र नहीं है। आत्मतत्व के पास भूख की कोई सुविधा नहीं है। आत्मतत्व में न कुछ कम होता, न ज्यादा होता। आत्मतत्व के लिए कोई कमी नहीं होती जिसको पूरा करने के लिए भूख लगे। शरीर में रोज कमी होती है। क्योंकि शरीर रोज मरता है। असल में मरने की वजह से भूख लगती है।
अब आपको यह बहुत हैरानी लगेगी कि आप चूंकि रोज मर जाते हैं, इसलिए जितना हिस्सा मर जाता है उसको रिप्लेस करना पड़ता है भोजन से। और कुछ नहीं है। आपके भीतर कुछ हिस्सा मर जाता है। उस मरे हुए हिस्से को आपको वापस जीवित हिस्से से पूरा करना पड़ता है, तब आप जिंदा रह पाते हैं।
इसीलिए तो एक दिन उपवास कर लें, तो एक पौंड वजन कम हो जाता है। क्या हुआ? वह एक पौंड हिस्सा आपका मर गया। उसको आपने रिप्लेस नहीं किया। उसको फिर से स्थापित करना पड़ेगा। इसलिए वैज्ञानिक कहते हैं कि एक आदमी नब्बे दिन तक भूखा रह सकता है। इससे ज्यादा मुश्किल पड़ जाएगा। क्योंकि नब्बे दिन तक उसके भीतर अर्जित, इकट्ठी चर्बी होती है, जितने से वह अपना काम चला सकता है। मरता जाएगा और पूरा करता रहेगा भीतर। कमजोर होता जाएगा, वजन कम होता जाएगा, जीर्ण— क्षीण होता चला जाएगा, लेकिन जिंदा रह लेगा।
भोजन से हम अपने मरे हुए तत्व की कमी पूरी कर देते हैं। जो कमी हो गई है, उसको पूरा कर देते हैं। लेकिन आत्मा तो मरती नहीं, उसका कोई तत्व कम नहीं होता, इसलिए आत्मा को भूख का कोई कारण नहीं। पर एक और मजे की बात है। आत्मा को भूख नहीं लगती, शरीर को भूख पता नहीं चलती। शरीर को भूख लगती है, आत्मा को भूख पता चलती है।
यह करीब—करीब मामला वैसा ही है जैसा एक बार आपको पत' ही होगा, एक जंगल में आग लग गई थी। और एक अंधे और लंगड़े को जंगल के बाहर निकलना पड़ा था। अंधा देख नहीं पाता था। आग थी भयंकर। चल तो सकता था, पैर मजबूत थे, लेकिन चलना खतरनाक था। जहां खड़ा था, कम से कम वहां अभी आग नहीं थी। अंधा आदमी भागे, बचने का उपाय करे, और जल जाए! पास में लंगड़ा भी था, वह चल नहीं सकता था। बेशक उसको दिखाई पड़ता था कि आग आ रही है।
वह अंधे और लंगड़े समझदार रहे होंगे, जैसा कि सामान्य रूप से अंधे और लंगड़े रहते नहीं। समझदार इतने होते नहीं। आंख वाले नहीं होते, अंधे कैसे होंगे! पैर वाले नहीं होते, तो लंगड़े कैसे होंगे!
उन दोनों ने एक समझौता कर लिया। लंगड़े ने कहा कि अगर बचना है हमें तो एक ही रास्ता है कि मैं तुम्हारे कंधों पर आ जाऊं। तुम्हारे पैर का उपयोग करो, मेरी आंख का। मैं देखूंगा, तुम चलो, तो हम बच सकते हैं। बच गए वे। आग के बाहर निकल आए।
जीवन के बाहर, आत्मा और शरीर की जो यात्रा है जीवन के भीतर और बाहर, वह अंधे—लंगड़े की यात्रा है। वह एक गहरा समझौता है। आत्मा को अनुभव होता है, घटना कोई नहीं घटती। शरीर में घटनाएं घटती हैं, अनुभव कोई नहीं होता। अनुभव सब आत्मा को होते हैं, घटनाएं सब शरीर में घटती हैं। इसीलिए तो उपद्रव हो जाता है। इसलिए उपद्रव ऐसे ही हो जाता है। उस दिन भी शायद हुआ होगा। कहानी में ईसप ने लिखा नहीं है। जिसने यह कहानी लिखी है अंधे—लंगड़े की, उसने लिखा नहीं है, लेकिन हुआ जरूर होगा। जब अंधा तेजी से दौड़ा होगा और लंगड़े ने तेजी से देखा होगा — दोनों को तेजी की जरूरत थी, आग थी जंगल में — तो यह पूरी संभावना है कि अंधे को ऐसा लगा हो कि मैं देख रहा हूं और लंगड़े को ऐसा लगा हो कि मैं भाग रहा हूं। इसकी बहुत संभावना है।
बस, वैसा ही हमारे भीतर घट जाता है। इसको तोड़ना पड़ेगा। इसको अलग—अलग करना पड़ेगा। ये उलझे तार हैं। शरीर में सब घटनाएं घटती हैं, आत्मा सब अनुभव करती है। इन दोनों को अलग—अलग कर लें, तो विद्या का सूत्र पकड़ में आने लगे। अमृत की यात्रा शुरू हो जाए।
बस, आज के लिए इतना ही। फिर कल सुबह।
अब अमृत की यात्रा पर निकलें।
दो—तीन बातें आपसे कह दूं। आज चूंकि हाल है, इसलिए परिणाम बहुत ज्यादा होंगे। बंद है जगह, तो इतने लोगों के प्राणों की आकांक्षा और संकल्प के वाइब्रेशंस, इतनी तरंगें बहुत व्यापक परिणाम लाएंगी। कोई भी बच नहीं सकेगा। फिर तीन दिन भी हो गए हैं, तो गहराई बढ़ेगी। जो पीछे रह गए हों, आज अगर खुद न भी चल पाते हों, तो दूसरों की तरंगों पर सवारी कर जाएं। लेकिन आज कोई खड़ा न रह जाए।
जो मित्र देखने ही आ गए हों, वे कृपा करके बाहर निकल जाएं। कोई व्यक्ति देखने वाला भीतर न रहे, उसे नुकसान हो सकता है। जो देखने आ गया हो, वह चुपचाप बाहर निकल जाए। भीतर तो वही लोग रहेंगे जो करेंगे।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें