ध्यान योग शिविर,
माउंट आबू, राजस्थान।
सूत्र :
अन्ध तम: प्रविशन्ति ये sसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रता:।। 12।।
जो असंभूति की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश करते
हैं। और जो संभूति में रत हैं, वे मानो उनसे भी अधिक अंधकार में
प्रवेश करते हैं।। 12।।
अस्तित्व का प्रगट रूप है प्रकृति — जो दिखाई पड़ता है आंखों से, हाथों से स्पर्श में आता है, इंद्रियां जिसे पहचान पाती हैं, इंद्रियों को जिसकी प्रत्यभिज्ञा होती है। कहें कि जो दृश्यमान परमात्मा है, वह प्रकृति है। लेकिन यह तो उनका अनुभव है, जिन्होंने परमात्मा को जाना। वे कहेंगे कि परमात्मा की देह प्रकृति है। लेकिन हम तो केवल देह को ही जानते हैं। वह परमात्मा की है देह, ऐसा हमारा जानना नहीं है।
वह जो अप्रगट चैतन्य है, उसकी ही आकृति है प्रकृति, उसका ही प्रगट रूप है — ऐसा तो वे जानते हैं, जो उस अप्रगट को भी जानते हैं। हमारा जानना तो इतना ही है कि जो यह प्रगट है, यही सब कुछ है।
उपनिषद कहते हैं कि जो इस प्रगट प्रकृति की ही उपासना में रत हैं, वे अंधकार में प्रवेश करते हैं।
हम सभी रत हैं। उपासना में वे ही लोग रत नहीं हैं, जो मंदिरों में प्रार्थना और पूजा कर रहे हैं। उपासना में वे लोग भी रत हैं, जो इंद्रियों के मंदिर में पूजा और प्रार्थना कर रहे हैं। उपासना शब्द का अर्थ होता है : पास बैठना। उप आसन — निकट बैठना।
जब आप स्वाद में रस लेते हैं तब आप स्वाद की इंद्रिय के पास बैठ गए हैं। तब आप उससे अभिभूत हैं। तब स्वाद की उपासना चल रही है। जब आप कामवासना में रस लेते हैं तब आप काम—इंद्रिय के निकट बैठ गए हैं। काम—इंद्रिय की उपासना चल रही है। वे जो स्वयं को नास्तिक कहते हैं, वे भी उपासना में रत हैं। ईश्वर की उपासना में नहीं, प्रकृति की उपासना में रत हैं। उपासना से तो बचना कठिन है, किसी न किसी के पास तो बैठ ही जाना होगा। अगर परमात्मा के पास न बैठेंगे तो प्रकृति के पास बैठ जाएंगे। अगर आत्मा के पास न बैठेंगे तो शरीर के पास बैठ जाएंगे। अगर अलौकिक के पास न बैठेंगे तो लौकिक के पास बैठ जाएंगे। पास तो बैठ ही जाएंगे। सिर्फ एक संभावना को छोड्कर हर हालत में उपासना जारी रहेगी — सिर्फ एक संभावना को छोड्कर। उसकी मैं पीछे बात करूंगा।
उपनिषद का यह सूत्र कहता है कि जो प्रकृति की उपासना में रत हैं, वे अंधकार में प्रवेश करते हैं।
अंधकार में इसलिए प्रवेश करते हैं कि प्रकृति की उपासना से प्रकाश का कोई भी संबंध नहीं जुड़ पाता। असल में प्रकृति की उपासना का मूलभूत आधार, शर्त एक है, और वह है अंधेरा। किसी भी वासना को पूरा करना हो तो चित्त जितने अंधेरे से भरा हो उतनी आसानी पड़ेगी। अगर चित्त में प्रकाश हो तो वासना को पूरा करना मुश्किल हो जाएगा। चित्त जितना मूर्च्छा में हो, वासना की दौड़ उतनी सुगम हो जाएगी। चित्त जितना सोया हो, जितनी तंद्रा में हो।
समस्त इंद्रियों के रस किसी गहन मूर्च्छा में लिए जाते हैं। जागेंगे तो इंद्रियों के पार जाने लगेंगे। सोएंगे तो इद्रियों के पास आने लगेंगे। जितनी होगी निद्रा, उतनी होगी निकटता। इसलिए प्रकृति के उपासक को मूर्च्छित होना ही होगा। इंद्रियों के उपासक को किसी न किसी तरह की बेहोशी खोजनी ही पड़ेगी। इसलिए अगर इंद्रियों के उपासक धीरे— धीरे मूर्च्छा के अनेक—अनेक उपायों को खोज लेते हैं, इंटाक्सिकेंट्स को खोज लेते हैं, शराब को खोज लेते हैं, तो आश्चर्य नहीं। असल में इंद्रियों का भक्त बहुत दिन तक शराब से दूर नहीं रह सकता। इसलिए जहां जितना इंद्रियों का उपासक बढ़ेगा वहां उतनी ही शराब और बेहोशी के नए—नए उपाय बढ़ते चले जाएंगे।
इंद्रियों की साधना के लिए, उपासना के लिए चित्त जितना अजागरूक हो, जितना विवेकशून्य हो, उतना अच्छा है। क्रोध करना हो, कि लोभ करना हो, कि काम से भरना हो तो चित्त का मूर्च्छित होना जरूरी है, बेहोश होना जरूरी है। इस बेहोशी की स्थिति में ही हम प्रकृति की उपासना कर पाते हैं।
तो उपनिषद का यह सूत्र अर्थपूर्ण है। कहता है कि अंधकार में प्रवेश कर जाते हैं वे लोग, जो प्रगट, दिखाई पड़ रहा है, प्रत्यक्ष है जो, उसकी उपासना में रत हो जाते हैं। प्रकृति की उपासना में जो रत हैं, वे अंधकार में प्रवेश करते हैं। लेकिन और भी एक बात कही है कि और महा अंधकार में प्रवेश करते हैं वे, जो कर्म प्रकृति की उपासना में रत हैं।
एक तो इंद्रियों की सहज उपासना है, जो पशु भी करते हैं। एक पशु है, वह भी इंद्रियों की उपासना में रहता है। लेकिन कोई पशु कर्म प्रकृति की उपासना में रत नहीं रहता। अब इसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। यह आदमी की विशेष दिशा है — कर्म प्रकृति की उपासना। एक आदमी पद के लिए दौड़ रहा है। किसी भी पद पर होने से किसी विशेष इंद्रिय के तृप्त होने की सीधी कोई संभावना नहीं है। परोक्ष संभावना है कि किसी पद पर होने से वह किन्हीं इंद्रियों को परोक्ष रूप से तृप्त करने के लिए ज्यादा सुविधा पा जाए। लेकिन प्रत्यक्ष, सीधी कोई संभावना नहीं है। पद पर होने से इंद्रियों का कोई सीधा लेना—देना नहीं है। पद की दौड़ का जो रस है, वह इंद्रियों को नहीं अहंकार को मिलता है — मैं कुछ हूं। हां, मैं कुछ हूं तो जो कुछ भी नहीं हैं, उनसे ज्यादा इंद्रियों को तृप्त कर लेने में मुझे सुविधा मिल जाएगी। लेकिन मैं कुछ —हूं इसका अपना ही रस है। तो कर्म की उपासना में जो रस हम लेते हैं, वह अहंकार की तृप्ति का रस है।
उपनिषद कहते हैं कि ऐसा आदमी महा अंधकार में चला जाता है। पशुओं से भी गहन अंधकार में चला जाता है।
क्योंकि पशु जो रस ले रहे हैं वह प्राकृतिक ही है। एक आदमी खाने में रस ले रहा है। एक अर्थ में पाशविक है। एक अर्थ में पशुओं जैसा है। लेकिन एक आदमी राजनीति में रस ले रहा है और पदों पर खड़ा होता चला जा रहा है, यह पशु से भी गया—बीता है। यह स्वाभाविक भी नहीं है। यह जो ले रहा है रस, यह परवटेंड है, यह नेचुरल भी नहीं है। किसी पद पर होने में जो रस है, वह किसी इंद्रिय को, प्राकृतिक इंद्रिय को तृप्ति नहीं देता है। एक बहुत अप्राकृतिक ग्रोथ, ग्रंथि एक हमारे भीतर अहंकार की बढ़ती है, उसको रस देता है कि दूसरा कुछ भी नहीं है और मैं कुछ हूं। डामिनेशन का रस है, दूसरे के ऊपर मालकियत करने का रस है। दूसरे को मुट्ठी में दबा देने का रस है। दूसरे की गर्दन को कस लेने का रस है।
तो कर्म प्रकृति की उपासना का अर्थ है, अहंकार को तृप्त करने की जो—जो दिशाएं — चाहे यश, चाहे पद, चाहे धन। माना कि धन हो पास तो आदमी अपनी इंद्रियों की वासनाओं को तृप्त करने में ज्यादा सहूलियत पाता है। धन पास न हो तो मुसीबत होती है। लेकिन कुछ लोग धन को धन के लिए ही उपासना करते हैं। इसलिए नहीं कि धन पास में होगा तो वे एक सुंदर स्त्री को खरीद सकेंगे। इसलिए भी नहीं कि धन पास में होगा तो वे अच्छा भोजन खरीद सकेंगे। इसीलिए कि धन पास में होगा तो वे समबडी, वे कुछ हो जाएंगे। कुछ खरीदने का सवाल नहीं है बड़ा। और अक्सर ऐसा होता है कि धन इकट्ठा करते—करते इंद्रियों तक को भोगने की क्षमता खो जाती है। फिर तो धन की ही गिनती है कि आंकड़े कितने हैं बैंक बैलेंस में, उसका ही रस रह जाता है। वैसा आदमी बड़े कर्म में रत होता है सुबह से सांझ। न रात सोता है, न दिन ठीक से जागता है। दौड़ता रहता है, धन इकट्ठा करता चला जाता है, ढेर लगाता जाता है।
एक आदमी यश इकट्ठा करता चला जाता है। एक आदमी शान इकट्ठा करता चला जाता है। जहां से भी, मैं कुछ हूं इस रस को पोषण मिलता हो, वहीं से हमारे कर्मों का विराट जाल शुरू होता है।
ध्यान रखें, पशुओं के जगत में इतना उपद्रव नहीं है, जितना मनुष्य के जगत में है। यद्यपि सब पशु प्रकृति के उपासक हैं, पक्के उपासक हैं, वे कोई और दूसरी उपासना नहीं करते। भोजन चाहिए, सुरक्षा चाहिए, काम—तृप्ति चाहिए, निद्रा चाहिए, यात्रा पूरी हो जाती है। एक पशु इससे ज्यादा नहीं मांगता। एक अर्थ में पशु की मांग बड़ी सीमित है। एक अर्थ में पशु बड़ा संयमी है। उसकी मांग बहुत ज्यादा नहीं है। बहुत थोड़ी सी मांग है। अल्प मांग है। उसकी इंद्रियां जो मांगती हैं वह पूरा हो जाए, फिर उसे कोई फिक्र नहीं है। वह राष्ट्रपति होने को उत्सुक नहीं होता। उसे भोजन मिला तो वह विश्राम में चला जाता है। कामवासना की भी पशुओं की मांग बड़ी संयमित है। मनुष्य को छोड्कर, पशुओं के पूरे विराट जगत में कामवासना सावधिक है, पीरिआडिकल है। एक समय होता है, जब पशु काम की मांग करता है। वैसे वर्षभर के लिए वह शेष समय के लिए काम के बाहर होता है, वह काम की मांग नहीं करता।
सिर्फ मनुष्य अकेला पशु है पृथ्वी पर, जिसकी कामवासना सतत है, चौबीस घंटे है, तीन सौ पैंसठ दिन। कोई सुनिश्चित अवधि नहीं है जब वह कामातुर होता हो। वह पूरे समय कामातुर होता है। कामातुरता उसके पूरे जीवन पर फैल जाती है।
कोई पशु इतना कामातुर नहीं है। पशु को भोजन मिल गया तो बात समाप्त हो गई। कल के लिए, परसों के लिए, वर्ष के लिए, दो वर्ष के लिए भोजन को इकट्ठा करने की भी बहुत आकांक्षा पशु में नहीं है। अगर पशु दूर से दूर की भी फिक्र करता है तो वह शायद एकाध वर्ष की — कोई पशु। लेकिन आदमी अकेला पशु है, जो पूरे जीवन के संग्रह के लिए ही कोशिश नहीं करता, जीवन के बाद, मृत्यु के बाद भी अगर कोई अस्तित्व है तो उसके लिए भी संग्रह करता है।
इजिप्त की ममीज में, कब्रों में, आदमी मर जाए तो सारा साज—सामान उसके साथ रख देते थे। जितना बड़ा आदमी हो उतना सामान रखना पड़ता था। सम्राट मरता था तो उसकी सारी पत्नियों को भी जिंदा उसके साथ दफना देते थे, क्योंकि उसको उस पार जरूरत पड़ सकती है। सारा धन, भोजन, बड़ा इंतजाम है। ये जो पिरामिड्स खड़े हैं, ये मुर्दा लोगों के लिए किए गए इंतजाम हैं इजिप्त में। जीवित स्त्रियों को पति के साथ दफना दिया जाएगा, क्योंकि मरने के बाद...।
मरने के बाद की तो कोई पशु फिक्र नहीं करता। मरने तक की भी फिक्र नहीं करता। समय की उसकी आकांक्षा भी बड़ी सीमित है। अनेक—अनेक रूपों में आदमी परलोक का भी इंतजाम करता है। मंदिर बना देता है, दान दे देता है, इस आशा में कि परलोक में भंजा लेगा। परलोक में दिखा देगा कि मैंने इतना दान किया था। उसका उत्तर मुझे, उसका प्रत्युत्तर मिल जाए।
इंद्रियों की उपासना इतनी जटिल नहीं है। और इसीलिए जितना पुराना समाज है — आदिवासी हैं, प्रिमिटिब्स हैं — बहुत जाल नहीं है जीवन में, इसलिए बहुत तनाव नहीं है। क्योंकि बहुत अर्थों में पशुओं के जैसी ही सिर्फ इंद्रियों की उपासना है। यह कर्म प्रकृति की उपासना नहीं है।
जैसे—जैसे मनुष्य सभ्य होता है, वैसे—वैसे इंद्रियों के ऊपर भी अहंकार की प्रतिष्ठा होनी शुरू हो जाती है। और अगर कोई आदमी अपने अहंकार के लिए अपनी इंद्रियों की बलि दे देता है तो हम उसका बड़ा सम्मान करते हैं, हम बड़ा सम्मान करते हैं। अगर एक आदमी पद की दौड़ में भोजन की फिक्र छोड़ देता है, पत्नी की फिक्र छोड़ देता है, बच्चों की फिक्र छोड़ देता है, तो हम कहते हैं, महात्यागी है। पद की दौड़ में! प्रतिष्ठा की दौड़ में! हम कहते हैं — देखो, न भोजन की फिक्र है उसे, न वस्त्रों की चिंता है, न घर—द्वार की चिंता है। लेकिन खयाल करें पीछे कि वह अपनी पशु प्रकृति को अहंकार के लिए समर्पित कर रहा है।
उपनिषद कहते हैं, वैसा व्यक्ति तो महा अंधकार में चला जाता है। उससे तो बेहतर वही है, जो सिर्फ इंद्रियों की उपासना में रत है। उसका जाल गहन नहीं है। और इंद्रियों की मांग बहुत ज्यादा नहीं है, अहंकार की मांग अनंत है। इंद्रियों के साथ एक और खूबी है कि सभी इंद्रियों की मांग अल्प, अत्यल्प और सीमित है। पुनरुक्त होती है, लेकिन असीम नहीं है। इस फर्क को समझ लें।
इंद्रियों की मांग पुनरुक्त होती है, रिपीट होती है, लेकिन असीम नहीं है। आज आपको भूख लगी है, खाना दे दिया, भूख चली गई। कल फिर लगेगी भूख। रिपीट होगी, पुनरुक्त होगी। लेकिन किसी की भी भूख असीम नहीं है। ऐसा नहीं है कि आप खाते ही चले जाएं और भूख न मिटे। कामवासना आज पकड़ेगी, फिर चौबीस घंटे बाद लौट आएगी। लेकिन आज जब कामवासना तृप्त हो जाएगी तो आप अचानक पाएंगे कि काम के बिलकुल बाहर हो गए हैं। कामवासना भी असीम नहीं है। पुनरुक्त होती है, लेकिन सीमित है।
लेकिन अहंकार असीम है। पुनरुक्त होने की जरूरत ही नहीं पड़ती, चलता ही चला जाता है। कितना ही भरों, वह नहीं भरता। अहंकार दुष्पूर है। उसको भरा नहीं जा सकता। एक पद दो, वह दूसरे पद की मांग तत्काल शुरू कर देता है। मिला भी नहीं पहला पद कि वह दूसरे की तैयारी शुरू कर देता है। एक आदमी को कहो कि मिनिस्टर बनाएं, तो उसी रात वह चीफ मिनिस्टर का सपना देखने लगता है — उसी रात। क्योंकि ठीक है, जो हो गया वह हो गया। अब आगे की यात्रा अहंकार तत्काल शुरू कर देता है।
अहंकार पुनरुक्त नहीं होता, ध्यान रखना, वासनाएं पुनरुक्त होती हैं। और पुनरुक्त इसीलिए होती हैं कि हरेक वासना की सीमित मांग है, वह पूरी हो जाती है तो वह शांत हो जाती है। फिर जब जगती है दोबारा तब फिर मांग करती है।
इसलिए पशु चिंतित नहीं हैं बहुत। इसलिए पशु पागल नहीं होते, न्यूरोटिक नहीं हैं। पशु आत्महत्या नहीं करते। पशुओं को मानसिक चिकित्सा की और साइकोएनालिसिस की कोई जरूरत नहीं पड़ती। पशुओं के लिए किसी फ्रायड का, किसी कं का, किसी एडलर का कोई प्रयोजन नहीं है, कोई अर्थ नहीं है।
अगर पशु को गौर से देखें तो पशु बहुत शांत है। बहुत भयंकर पशु भी बहुत शांत है। अगर शेर को आपने भोजन के बाद देखा हो तो बिलकुल शांत पाएंगे। जरा भी अशांति नहीं होगी। एकदम हिंसक, लेकिन हिंसा उसकी उसी समय तक, जब तक उसे भोजन नहीं मिला। भोजन मिला कि वह बिलकुल ही अहिंसक हो जाता है, एकदम गांधीवादी हो जाता है! उसे कोई.. फिर भोजन उसके पास में भी पड़ा रहे तो भी देखता नहीं। अक्सर सिंह जब भोजन करता है, उसके बाद विश्राम करता है, तब छोटे—मोटे जानवर — जो उसके भोजन बन सकते हैं — उसके बचे हुए भोजन को उसके पास ही बैठकर करते रहते हैं। नहीं, कल जब भूख वापस लौटेगी तब वह फिर उत्सुक हो जाएगा हिंसा के लिए, लेकिन तब तक बात समाप्त हो गई, तब तक कोई बात नहीं। लेकिन आदमी के अहंकार की भूख समाप्त ही नहीं होती। जितना भरो उतना बढ़ती है।
फर्क समझ लेना आप इंद्रिय और अहंकार का। इंद्रिय को भरों, भर जाती है। फिर खाली होगी, फिर रिक्त होगी, फिर भरना पड़ेगी। लेकिन अहंकार भरता ही नहीं। भरते चले जाओ, जितना भरो उतना बढ़ता है। वह आग में जैसे घी डाला हो बुझाने के लिए, ऐसा अहंकार में पड़ी हुई सारी पूर्तियां घी बन जाती हैं आग में पड़ी हुई। और भभकता है, और बड़ा होता है। जितना आपने बड़ा किया, वह उससे और बड़े होने की मांग करता है। जो भी आप अहंकार को देते हैं, वह केवल उसको और बढ़ने की ही सुविधा बनता है। इसलिए अहंकार जिस क्षण से मनुष्य को पकड़ता है, उसी क्षण से पशुओं से भी ज्यादा अशांति, तनाव, चिंता, बेचैनी आदमी को पकड़नी शुरू हो जाती है।
आज पश्चिम में वापस इंद्रियों पर लौट जाने का विराट आंदोलन है। वापस इंद्रियों पर लौट जाने का। जिनको आप हिप्पी कहते हैं, या बीटनिक कहते हैं, या प्रवोस कहते हैं। आज पश्चिम में जो युवक और युवतियां बड़ा आंदोलन चला रहे हैं, वह आंदोलन है वापस इंद्रियों पर लौट जाने का। वे कहते हैं, तुम्हारी यह शिक्षा, तुम्हारी ये डिग्रियां, तुम्हारे ये पद, तुम्हारा यह धन, तुम्हारी ये कारें, तुम्हारे ये महल कुछ भी हमें नहीं चाहिए। हमें खाना मिल जाए, हमें प्रेम मिल जाए, हमें सेक्स मिल जाए, पर्याप्त है। हमें तुम्हारा ये नहीं चाहिए।
और मैं मानता हूं कि यह बड़ी भारी घटना है। ऐसा अभी मनुष्य जाति के इतिहास में कभी नहीं हुआ कि इतने व्यापक आंदोलन पर लोगों ने कहा हो कि हम कर्म प्रकृति को छोड्कर सिर्फ इंद्रियजन्य, वह जो प्रगट प्रकृति है इंद्रियों की, वासनाओं की, उसके लिए ही राजी हैं। पर्याप्त है उतना, हमें ज्यादा नहीं चाहिए।
यह इस बात की खबर है कि कर्म और अहंकार का जाल इतना भयंकर हो गया है कि आदमी पशु होने को राजी है, लेकिन अब अहंकार से छूटना चाहता है। यद्यपि पशु होने से आदमी अहंकार से छूट नहीं सकेगा। अहंकार से तो आदमी सिर्फ परमात्मा होकर ही छूटता है। इंद्रियों में गिरकर थोड़ी राहत मिलेगी, लेकिन कल फिर कर्म का जाल शुरू हो जाएगा। क्योंकि आज से दो हजार साल पहले इंद्रियों के साथ ही आदमी जी रहा था, लेकिन उसमें से अहंकार निकल आया। आज हम फिर वापस रिग्रेस कर जाएं, कल फिर अहंकार निकल आएगा। कोई उपाय नहीं है पीछे लौटने का। आदमी को आगे ही जाना होगा।
इस सूत्र में उपनिषद ने कहा है कि प्रकृति की उपासना में रत तो अंधकार में भटकते हैं। अहंकार की उपासना में रत महा अंधकार में भटक जाते हैं।
फिर कौन अंधकार के पार होता है? कौन?
दो ही तरह की उपासनाएं दिखाई पड़ती हैं। या तो इंद्रियों के उपासक हैं, या अहंकार के उपासक हैं। और अक्सर अहंकार के उपासक इंद्रियों की उपासना के विरोधी होते हैं। एक आदमी त्याग किए चला जा रहा है। अगर हम त्यागी की मनोदशा को चीर—फाड़ करके देख सकें, उसका आपरेशन कर सकें, तो आप हैरान होंगे कि त्यागी का रहस्य और राज अहंकार की तृप्ति है, सम्मान है। उसने तीस दिन का उपवास कर लिया है, गांव में बैंड— बाजे बज रहे हैं, स्वागत हो रहा है। तीस दिन का उपवास उसने झेल लिया है। हम कहेंगे कि महात्याग किया है, तीस दिन भूखा रहना साधारण बात तो नहीं! बिलकुल साधारण बात नहीं है। लेकिन बिलकुल साधारण है, अगर अहंकार को तृप्ति मिलती हो। तीस दिन क्या आदमी तीस साल भूखा रह जाए, अगर अहंकार को तृप्ति मिलता हो। अहंकार किसी भी इंद्रिय का त्याग करवाने को सदा तैयार है, सदा तैयार है।
और इस राज को हम बहुत पहले समझ गए, इसलिए जिससे भी त्याग करवाना हो उसके अहंकार की हम तृप्ति करना शुरू करते हैं। मनुष्य जाति इस राज को ठीक से समझ गई है। इसलिए आप त्यागी का सम्मान करते हैं। सम्मान के बिना कोई त्याग करने को राजी नहीं होगा। यद्यपि त्यागी वही है, जो सम्मान के बिना त्याग कर सकता हो। आप अपने सम्मान को खींच लें त्यागियों से, सौ में से निन्यानबे त्यागी कल आपको कहीं नहीं मिलेंगे, खो जाएंगे। सम्मान को खींचकर आप देखें, तो आपको पता चलेगा।
हमें खयाल में नहीं है कि गांव में एक आदमी अगर एक ही बार भोजन करता है और पूरा गांव उसके पैर छू लेता है, तो आपने उसको इतना भोजन दे दिया, जो कि जीवनभर नलने के लिए काफी है। अहंकार को दे दिया। शरीर को काटेगा वह आदमी, अहंकार को भरता चला जाएगा। और इसलिए अहंकार की इस पूजा के लिए कुछ भी करवाया जा सकता है। और करीब—करीब सब कुछ करवा लिया गया है। पूरे मनुष्य जाति के इतिहास में हजार—हजार रूपों में, आदमी से कुछ भी करवाया जा सकता है।
यूरोप में कोड़ा मारने वाले साधुओं का एक बड़ा व्यापक आंदोलन था मध्ययुग में। जो साधु जितने कोड़े अपने को मारे, उतना सम्मान मिलता था। क्योंकि वह शरीर पर उतनी तितिक्षा कर रहा है। तो बड़े अदभुत साधु पैदा हुए मध्ययुग में। जिनका कुल गुण इतना था कि वे सुबह से उठकर अपने मांस को कोड़ों से चीर—फाड़ डालते, लहूलुहान कर लेते। और गांव में प्रसिद्धि होती कि फलां आदमी पचास कोड़े मारता है, फलां आदमी सौ कोड़े मारता है। बस, इतना गुण था, और कोई गुण न था। लेकिन इसके लिए बड़ा आदर मिलता था। तो कोड़े मारने में लोग निष्णात हो गए।
आपको हैरानी लगेगी कि यह क्या पागलपन है! जिस आदमी में और कुछ नहीं था, सिर्फ कोड़े मार सकता था, उसको आदर देने का क्या कारण?
आप जरा अपने साधुओं को सोचेंगे तो पता चलेगा कि उनमें क्या गुण हैं? किसी साधु में यही गुण है कि वह पैदल चलता है। किसी साधु में यही गुण है कि वह एक बार 'भोजन करता है। किसी साधु में यही गुण है कि वह स्त्री को नहीं छूता। किसी साधु में यही गुण है कि वह नंगा रहता है। ये गुण हैं! इनमें कुछ भी तो नहीं है। सार क्या है? कितने ही चलो पैदल! सारे जानवर पैदल चल रहे हैं।
नहीं, लेकिन सार एक है कि वे जो पैदल नहीं चल पाते, पैदल चलने में कठिनाई अनुभव करते हैं, जो कि स्वाभाविक है, वे इनको आदर देते हैं। कार में चलने वाला पैदल चलने वाले के पैर छूता है। पैदल चलने वाले ने कार को दो कौड़ी का कर दिया। तुम्हारे कार का अहंकार मिट्टी में रख दिया। चलते होओगे कार में, लेकिन पैर तो छूना पड़ता है उसका, जो पैदल चलता है!
पैदल चलने वाला शायद कार अर्जित न कर पाता। वह जरा कठिन मामला था। लेकिन पैदल तो चल पा सकता है। आपके अहंकार को तोड़ने के दो उपाय थे। या तो आपसे बड़ी कार ले आता वह, जो कि जरा कठिन है। और या फिर पैदल चल जाता, जो कि बिलकुल सरल है। वह पैदल चलकर आपके अहंकार को मिट्टी में मिला देगा। उसने अकड़ कायम कर ली है। लेकिन गुण क्या है? गुणवत्ता क्या है? कौन सी क्यालिटेटिव, कौन सी गुणात्मक क्रांति हो गई उस आदमी में, जो पैदल चल रहा है? लेकिन हम उसको सम्मान देंगे।
सम्मान हम इसलिए देंगे कि जो हम नहीं कर पा रहे हैं, हमें लगता है कि तकलीफदेह है, वह कर रहा है। तो हमें लगता है कि बड़ा त्याग कर रहा है। और उस आदमी को सम्मान मिलता है, तो सम्मान के लिए कोई आदमी सारी पृथ्वी का चक्कर लगा सकता है। पैदल क्या, जमीन पर घसिटते हुए लगा सकता है। जमीन पर घसिटते हुए भी लोग लगाते हैं। काशी तक की यात्रा कर लेते हैं जमीन पर घसिटते हुए। और उनके पीछे सौ दो सौ आदमी चलने लगते हैं, क्योंकि वह जमीन पर घसिटकर काशी जा रहे हैं। और भी कोई गुण हैं इसके अलावा? नहीं, उसकी कोई जरूरत नहीं है। त्यागी अक्सर इंद्रियों के खिलाफ अहंकार की पूर्ति करते चले जाते हैं।
मैं तो उसे त्यागी कहता हूं जो इंद्रियों से तो मुक्त होता है और अहंकार को तृप्त नहीं करता। तभी त्याग है, अन्यथा कोई अर्थ नहीं। जो इन दोनों से मुक्त होता है, जिसकी उपनिषद चर्चा कर रहे हैं। जो न तो प्रकृति की उपासना में रत है और न अहंकार की उपासना में रत है। जो इन दोनों उपासनाओं में रत नहीं है, वह प्रकाश में प्रवेश करता है।
और ध्यान रखना, इंद्रियों की उपासना बहुत प्रगट उपासना है। और अहंकार की उपासना बहुत सूक्ष्म। इसलिए अहंकार की उपासना को पहचानना अक्सर कठिन होता है। प्रकृति की उपासना तो प्रगट दिखाई पड़ती है।
एक आदमी भोजन में ज्यादा रस लेता है, तो प्रगट दिखाई पड़ता है। एक आदमी सुंदर कपड़े पहनता है, तो प्रगट दिखाई पड़ता है। लेकिन जो आदमी सुंदर कपड़े पहनकर गांव में निकलता है, उसकी आकांक्षा क्या होती है? यही आकांक्षा होती है न कि लोग देखें! यही आकांक्षा होती है न कि लोग जानें, लोग मानें कि वह कुछ है! आखिर लाख या दो लाख रुपए का मिंक कोट पहनकर कोई स्त्री निकलती है तो किसलिए? कोई दो लाख रुपए के कोट का कोई कोट जैसा उपयोग नहीं होता। मतलब कोट से कोई दो लाख का लेना—देना नहीं है। दो—चार सौ रुपए का कोट काफी कोट है। लेकिन दो लाख रुपए के कोट का क्या अर्थ होता होगा? निश्चित ही कोट का कोई प्रयोजन नहीं है, लेकिन दूसरी स्त्रियों की आंखों में जो जलन जग जाती होगी, उसका रस है। जो दूसरी स्त्रियों की दीनता प्रगट हो जाती होगी उस कोट के सामने, उसमें रस है।
लेकिन यह दिखाई पड़ता है, इसमें बहुत अड़चन नहीं है। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है कि एक आदमी दो लाख रुपए का कोट पहन ले, तो हमें समझ में आता है कि क्या है, क्या। लेकिन एक आदमी नग्न खड़ा हो जाए बाजार में? कहीं उसका भी रस तो यही नहीं है कि लोग देखें कि वह कुछ है! अगर है, तो मिंक कोट में और दिगंबरत्व में कोई फर्क न रहा। फर्क इतना ही रहा कि मिंक कोट खरीदना हो तो लंबे उपद्रव में पड़ना पड़ेगा, दो लाख कमाने पड़ेंगे। और नग्न खड़ा होना हो और मिंक कोट का ही मजा मिल जाता हो, तो सरल अभ्यास है।
इंद्रियों की उपासना बहुत साफ है, आबियस है, साफ दिखाई पड़ती है। अहंकार की उपासना सूक्ष्म और सूक्ष्म और सूक्ष्म होता चली जाती है।
नहीं, ध्यान अपने पर रखना, दूसरे की फिक्र मत करना आप कि दूसरा क्या कर रहा है? कोई दूसरा नग्न खड़ा है, तो वह किसलिए खड़ा है, आप नहीं जान सकेंगे। बात इतनी सूक्ष्म है कि वह खुद भी जान ले तो पर्याप्त है। आप नहीं जान सकेंगे। हो सकता है, उसकी नग्नता सिर्फ निर्दोषता हो, सिर्फ इनोसेंस हो।
एक महावीर नग्न खड़े होते हैं, तो निश्चित ही नग्नता का उपयोग महावीर मिंक कोट की तरह नहीं कर सकते, क्योंकि मिंक कोट उनके पास बहुत थे। महावीर के पास बहुत कीमती कोट थे। वह समबडी होने का रस तो उनके लिए बहुत था। तो महावीर जैसा आदमी जब नग्न खड़ा हो जाता है, तो किसी अहंकार की उपासना में जा रहा होगा, इसकी संभावना न के बराबर है। बिलकुल न के बराबर है। लेकिन वह भी हम बाहर से नहीं जान सकते, वह महावीर पर ही छोड़ देना चाहिए कि वह भीतर से जाने। आपके पड़ोस में कोई खड़ा है नग्न, आप नहीं जान सकते कि वह क्यों खड़ा है! यह उस पर ही छोड़ दें कि वह जाने। यह उसे ही पहचानने दें। यह बात सूक्ष्म और भीतरी है।
इंद्रियों की तृप्ति करनी हो तो हमें बाहर जाना पड़ता है। अहंकार की तृप्ति करनी हो तो बाहर जाने की भी जरूरत नहीं है, सिर्फ भीतर भी पूरा हो सकता है।
मैंने सुना है कि एक संन्यासी एक जंगल में अकेला रहता है, दूर। उसने कोई शिष्य नहीं बनाया। फिर कोई यात्री साधु वहा से निकलता है और उससे कहता है कि आप बड़े विनम्र हैं, आपने एक भी शिष्य नहीं बनाया। इतने बड़े ज्ञानी, फिर भी आप किसी के गुरु नहीं बने। मैं अभी एक दूसरे संन्यासी के पास से आ रहा हूं उनके हजारों शिष्य हैं।
वह साधु मुस्कुराता है, सिर्फ मुस्कुराता है। और वह कहता है कि उनकी मुझसे तुम क्या तुलना कर रहे हो! मेरी उनसे तुम क्या तुलना कर रहे हो! मैं तो नितांत, नितांत एकांतजीवी हूं। मैं किसी तरह का मोह नहीं बनाता। मैंने एक शिष्य का भी मोह नहीं बनाया। मैं किसी तरह का अहंकार निर्मित नहीं करता। मैं गुरु होने का भी अहंकार निर्मित नहीं करता हूं। मैं बिलकुल निरहंकारी हूं। उस आदमी ने कहा कि आप ही जैसा एक निरहंकारी साधु मैंने और देखा था। उस साधु का चेहरा बदल गया, मुस्कुराहट खो गई। प्रतियोगी सामने खड़ा हो गया तो अहंकार पीड़ा पाता है। पहले वह प्रसन्न हो रहा था, क्योंकि वह जिस साधु की बात कर रहा था, उसमें उसके अहंकार को चोट नहीं लगती थी, भरता था। अब उसने कहा कि ऐसा ही एक साधु मैंने और देखा था, इससे बड़ी पीड़ा होती है। मेरे ही जैसा कोई और? इससे चित्त को बड़ा दुख होता है।
तो वह नितांत एकातजीवी व्यक्ति भी उस निर्जन एकांत में भी अहंकार को भर रहा है। वह इससे ही भर रहा है कि मैं अकेला रहता हूं। वह इससे ही भर रहा है कि मैंने शिष्य नहीं बनाए। कोई इससे भर सकता है कि मैंने शिष्य बनाए, कोई इससे भर सकता है कि मैंने शिष्य नहीं बनाए। कोई कह सकता है, मुझसे बड़ा कोई भी नहीं। और कोई कह सकता है कि मैं तो दीन—हीन हूं आपके पैर की धूल हूं लेकिन मुझसे बड़ी धूल कोई भी नहीं है। मुझसे आगे की धूल की बात मत करना, मैं आखिरी हूं। तब कोई फर्क नहीं पड़ता है। तब कोई फर्क नहीं पड़ता है। पर इसे पहचानने को स्वयं के भीतर ही जाना पड़ेगा। दोनों उपासनाओं से जो मुक्त हो जाता है, वह प्रकाश में प्रवेश करता है। इंद्रियों की उपासना से, अहंकार की उपासना से। प्रगट प्रकृति की उपासना से और सूक्ष्म अस्मिता की उपासना से।
पर उपनिषद एक बात बड़ी गहरी कहते हैं कि पहली उपासना इतने गहरे अंधकार में नहीं ले जाती, क्योंकि इंद्रियां अंततः आपको दी गई हैं, प्रकृति से। आपने उन्हें निर्माण नहीं किया। अहंकार आपका निर्मित है। अहंकार अर्जन है। इंद्रियां तो गिवेन हैं।
आप पैदा हुए तो भूख साथ लेकर आए। स्वाद से आप भला किसी दिन मुक्त हो जाएं, भूख से आप किसी दिन मुक्त नहीं हो सकेंगे। भूख तो मरते दम तक साथ रहेगी। भूख जरूरत है। इंद्रियां तो आप लेकर आए और इंद्रियों से कितने ही मुक्त हो जाएं, तो भी इंद्रियों की जरूरत से मुक्त नहीं होंगे। इंद्रियों की वासना से मुक्त हो सकते हैं, लेकिन इंद्रियों से मुक्त नहीं हो सकते। इंद्रियों की विक्षिप्तता से मुक्त हो सकते हैं, लेकिन इंद्रियों की आवश्यकता से मुक्त नहीं हो सकते। वह तो महावीर भी नहीं हो सकते, बुद्ध भी नहीं हो सकते, कोई भी नहीं हो सकता। वह तो जीवन का अनिवार्य अंग है कि भोजन आपको चाहिए पड़ेगा।
हां, इतना हो सकता है — और वही इंद्रियों की उपासना से जो मुक्त होता है, उसको हो जाता है — इतना हो जाता है, वह पागल नहीं रह जाता। इतना हो जाता है कि वह इंद्रियों की वासना को विकासमान नहीं करता, वर्धमान नहीं करता। न्यूनतम — जो आवश्यक है — वहां ठहर जाता है। दो रोटी से काम चल जाता है उसके शरीर का, तो दो रोटी पर रुक जाता है। पचास रोटी की उसकी मांग नहीं होती। एक कपड़े से तन ढंक जाता है, तो एक कपड़े से तन ढंक लेता है। लेकिन कपड़ों के ढेर लगाने की उसकी आकांक्षा नहीं होती। एक झोपड़े के नीचे उसको छाया मिल जाती है, तो ठीक है। बहुत बड़े महल की वह मांग नहीं करता।
यह भी प्रत्येक को स्वयं ही निर्णय करना पड़ता है कि कितनी उसकी आवश्यकता है, क्योंकि हमारी आवश्यकताएं भी भिन्न—भिन्न हैं। उसमें इमीटेशन नहीं हो सकता। किसी की दो रोटी की आवश्यकता न्यूनतम हो सकती है और किसी की पांच रोटी की आवश्यकता न्यूनतम हो सकती है। और किसी के लिए पांच रोटी न्यूनतम आवश्यकता है और किसी दूसरे के लिए पांच रोटी बहुत बड़ा विलास हो सकती है। इसलिए इसे कोई दूसरे से कभी इमीटेट, कभी दूसरे के अनुकरण से तय न करे। अपने ही भीतर खोजे।
और खोज का एक सरल मापदंड है। इंद्रिय की न्यूनतम आवश्यकता कभी भी चिंता से नहीं भरती। इंद्रिय जैसे ही न्यूनतम आवश्यकता से, अनिवार्य के बाहर जाती है और गैर—अनिवार्य की मांग करती है, तभी चिंता, एंग्जायटी शुरू होती है। तो चिंता को मापदंड समझ लेना। जैसे ही आपको चिंता होनी शुरू हो, तो आप समझना कि आप कुछ ज्यादा की मांग कर रहे हैं, जो गैर—जरूरी है। क्योंकि गैर—जरूरी से ही चिंता पैदा होती है, जरूरी से चिंता पैदा होती ही नहीं। दि अननेसेसरी, वह जो गैर—जरूरी है, जिसके बिना भी चल सकता था, लेकिन आप चलाने को राजी नहीं हैं, उसी से चिंता पैदा होती है।
तो अगर चित्त में चिंता आती हो, तो समझ लेना कि इंद्रियों की जरूरत से ज्यादा में आप पड़े हैं। चिंता सूचक है। जैसे कि भूख लगी है और आपने भोजन लिया। कब आपको पता चलेगा कि भोजन जरूरत से ज्यादा हो रहा है? जैसे ही पेट पर बोझ पड़ना शुरू हो जाए, जैसे ही पेट पर भार पड़ना शुरू हो जाए, जैसे ही पेट के भरने से तृप्ति तो न मिले, पीड़ा शुरू हो जाए, तो आप समझ लेना कि जरूरत से ज्यादा है। पेट चिंतित हो गया।
यह मैंने उदाहरण के लिए कहा। ऐसे ही हर इंद्रिय चिंतित हो जाती है, अगर आपने जरूरत से ज्यादा भोजन किया। जितनी उसकी जरूरत थी, वहां तक वह स्वस्थ होती है, शांत होती है, तृप्त होती है। जैसे ही जरूरत से ज्यादा बोझ पड़ा, अस्वस्थ होती है, बीमार होती है, रुग्ण होती है, परेशान होती है। भूख की तृप्ति तो बड़ी तृप्तिदाई है। लेकिन भूख से ज्यादा का बोझ बहुत ही रुग्णदाई है, बहुत रोगकारक है।
एक बहुत सोच—समझ के आदमी लुईकोन ने एक छोटा सा वक्तव्य दिया है। और कहा है कि जो भोजन हम करते हैं, उसमें से आधे से हमारा पेट भरता है और आधे से डाक्टर का। क्योंकि आधा हमारे लिए जरूरी है और आधा बीमारी के लिए।
भूख से इतने लोग नहीं मरते पृथ्वी पर, जितने ज्यादा खाने से मरते हैं। और भूख में एक तेजस्विता है। लेकिन ज्यादा खाने में एक तामस है, एक अंधेरा उतर जाता है।
प्रत्येक को अपना ही निर्णय करना पड़ेगा। क्योंकि प्रत्येक की जरूरतें और इंद्रियों की मांगें और व्यवस्थाएं भिन्न हैं। पर जैसे ही चिंता पैदा होती हो, जैसे ही रोग पैदा होता हो...। इंद्रियां बहुत शीघ्र सूचना देती हैं। इंद्रियां बहुत सेंसिटिव हैं, बहुत संवेदनशील हैं। शीघ्र सूचना देती हैं कि जरूरत से ज्यादा हो गया। यह जरूरी नहीं है। यह जो किया जा रहा है, गैर—जरूरी है। तो गैर—जरूरी को हटा दें।
इंद्रियां तो रहेंगी अंत तक, क्योंकि जीवन इंद्रियों के पहियों पर चल रहा है। लेकिन अहंकार अनिवार्य नहीं है। अहंकार हमारा अर्जन है। वह हमने निर्मित किया है। और हम जीते—जी बिलकुल निरहंकार में प्रवेश कर सकते हैं। इसलिए अहंकार महा अंधकार में ले जाता है, क्योंकि वह मनुष्य के द्वारा निर्मित है। वह बिलकुल ही गैर—जरूरी है।
इंद्रियों में कुछ जरूरी है, कुछ गैर—जरूरी हम जोड़ते हैं। जो हम जोड़ते हैं, वही उपद्रव है। अहंकार पूरा का पूरा गैर—जरूरी है। वह पूरा का पूरा हम ही निर्मित करते हैं। इसलिए वह महा अंधकार में ले जाता है। इंद्रियां अंधकार में ले जाती हैं, गैर—जरूरी के जोड़ से। अहंकार महा अंधकार में ले जाता है, क्योंकि पूरा ही गैर—जरूरी है।
जीते—जी बिलकुल बिना अहंकार के जीया जा सकता है। सच तो यह है कि जो जितने बिना अहंकार के जीता है, उतना ही गहन जीता है। और जो जितने अहंकार से जीता है, उतना ही क्षुद्र और सतह पर जीता है। क्योंकि अहंकार गहरे जाने ही नहीं देता। अहंकार सरफेस पर, सतह पर अटकाए रखता है। क्यों? इसे भी थोड़ा खयाल में ले लेना चाहिए।
असल में अहंकार का मजा तो दूसरे की आंख में है। आपको अगर जंगल में अकेला छोड़ दें तो अहंकार का कोई मजा नहीं रह जाता। फिर हीरे का हार पहनने का कोई अर्थ नहीं होगा। और पहनेंगे तो जानवर हंसेंगे। हीरे का हार होगा, तो भी सिर्फ गले पर भार मालूम पड़ेगा। तबीयत होगी, उतारकर रख दो, बोझ है। जंगल में अहंकार को क्या करिएगा?
नहीं, अहंकार का तो सारा रस ही दूसरे की आंख में जो प्रतिबिंब बनता है, उसमें है। निश्चित ही, दूसरे की आंख में जो प्रतिबिंब बनते हैं, वे सतह पर होंगे। हमारे बाहर चारों तरफ होंगे। घर के बाहर जैसे फेंसिंग लगाते हैं हम, बस अहंकार फेंसिंग की तरह है। चाहे कितनी ही रंगीन हो और कितनी ही खूबसूरत हो, लेकिन दूसरे की आंख से निर्मित होती है। और अहंकार बिना दूसरे के निर्मित नहीं होता है, इसलिए पर—निर्भर है। इसलिए दूसरे से सदा भयभीत रहना पड़ता है। क्योंकि दूसरे के हाथ में है उसकी तृप्ति, वह कभी भी खींच ले। आज सुबह नमस्कार की थी और कल न करे, तो गिर गई, ईंट खिसक गई। चित्त बेचैन हो जाएगा कि अब क्या करना? गांव के लोग तय कर लें कि इस आदमी को भूल जाओ। निकले तो सोचो ही मत कि निकल रहा है। कोई खयाल ही मत करो कि है। तो वर्चुअल डेथ हो जाएगी, मर गए जैसे।
दूसरे की आंख में रस है अहंकार का। और दूसरे की आंख बाहर है। उसमें जो रस ले रहा है, वह भीतर गहरे नहीं जा सकता। वह गहरे जी नहीं सकता। वह सिर्फ आवरण और वस्त्रों में जीएगा।
गहरे जीवन में तो वही उतर सकता है, जो आत्मा में उतरे। और आत्मा में वही उतरता है, जो अहंकार को भूले। दूसरे की आंख को भूले, अपनी आंख के भीतर चले। अपने को देखे। दूसरा अपने को कैसा देखते हैं, इसकी फिक्र छोड़ दे। दूसरों के ओपीनियन का खयाल छोड़ दे कि दूसरे क्या कहते हैं। इसका ही खयाल रखे कि मैं क्या हूं। यह सवाल बिलकुल बेकार है कि दूसरे क्या कहते हैं। दूसरों से लेना—देना क्या है? दूसरों की गवाही काम नहीं पड़ेगी। जीवन में कोई दूसरों की गवाही का उपयोग नहीं है। जीवन में तो पूछा जाएगा मैं। सुना है मैंने, एक यहूदी फकीर हुआ। मर रहा था। आखिरी क्षण था। पुरोहित गांव का आया था अंतिम विदाई का मंत्र पढ़ने। तो उसने यहूदी फकीर से कहा कि स्मरण करो मूसा का, मोज़ेज़ का! परमात्मा के निकट जाने के करीब हो। उस मरते फकीर ने आंख खोलीं और उसने कहा कि मूसा का नाम मत लो। क्योंकि जब मैं परमात्मा के सामने होऊंगा — उस फकीर का नाम था मौनीज — तो उसने कहा, जब मैं ईश्वर के सामने होऊंगा तो वह मुझसे यह नहीं पूछेगा कि तू मूसा क्यों नहीं हुआ। वह मुझसे पूछेगा कि मौनीज क्यों नहीं हुआ? मुझसे मूसा का तो पूछेगा नहीं। अभी मैं वहां जा रहा हूं वह मुझसे पूछेगा कि जो मैंने तुझे भेजा था, तू मौनीज हो पाया कि नहीं? तू जो पोटेंशियल बीज लेकर गया था, वह फूल बना कि नहीं न: अभी मूसा का नाम मत लो। अभी तो मेरा सवाल है।
उस पुरोहित ने झुककर उससे कहा कि मरते वक्त अपनी प्रतिष्ठा पर पानी मत फेर, क्योंकि चारों तरफ लोग खड़े हैं, वे सुन लेंगे कि मूसा के लिए उसने ऐसा वचन कहा कि मूसा की बात छोड़ो। मूसा तो यहूदियों के लिए भगवान हैं। पुरोहित ने झुककर कहा, मरते वक्त जीवनभर की प्रतिष्ठा पर पानी मत फेर। उस फकीर ने फिर से आंख खोलीं और उसने कहा कि जीवनभर उस पागलपन में पड़ा रहा, अब मरते वक्त तो मुझे मुक्त होने दो। वह प्रतिष्ठा को छोड़ता हूं अब। मरते वक्त तो मुझे प्रतिष्ठा से मुक्त हो जाने दो। अब इनकी फिक्र छोडूं मैं, ये जो चारों तरफ मेरे खड़े हैं लोग। क्षणभर में मैं इनसे छूट जाऊंगा। ये मेरे गवाह नहीं होने वाले हैं। ईश्वर इनसे पूछेगा नहीं कि मेरे संबंध में क्या कहते हो। ईश्वर तो मुझे देखेगा कि मैं क्या हूं। मुझे मेरी फिक्र करने दो।
असल में अहंकार सदा, दूसरे मेरे संबंध में क्या कहते हैं, इसका लेखा—जोखा है। और आत्मा सदा इस बात की प्रतीति है कि मैं क्या हूं? दूसरे क्या कहते हैं, इससे कोई भी तो संबंध नहीं है। दूसरे गलत भी कह सकते हैं। दूसरे सही भी कह सकते हैं। यह दूसरे जानें।
इंद्रियों की उपासना को कम करने का अर्थ है, इंद्रियां जरूरत पर ठहर जाएं। और अहंकार की उपासना को कम करने का अर्थ है, अहंकार शून्य पर आ जाए। ये दो संभावनाएं पूरी हो जाएं तो व्यक्ति इंद्रियों के पास भी नहीं बैठता, अहंकार के पास भी नहीं बैठता। आत्मा के पास बैठ जाता है। तब एक नई उपासना शुरू होती है — प्रभु के निकट होने की।
और प्रभु के निकट होना कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रभु के निकट होने का अर्थ प्रभु से एक हो जाना ही होता है। उसके पास हम दूर नहीं बच सकते। जब तक हम ये. दो उपासनाओं में रत हैं, तब तक हम दूर रह सकते हैं। उसके पास होने का अर्थ, एक हो जाना है। ऐसे ही जैसे कोई आदमी छत पर से छलांग लगाए और छलांग लगाने के पहले पूछे कि मैं छलांग लगा रहा हूं छलांग लगाने के बाद जमीन तक पहुंचने के लिए मैं क्या करूं? तो हम उससे कहेंगे, तुम. छलांग लगाओ, बाकी काम जमीन कर लेगी। तुम्हें फिर कुछ और करना नहीं है। तुम छत छोड़ो। छत भर से तुम एक कदम उठा लो बाहर। फिर बाकी तुम्हें कुछ न करना पड़ेगा। बाकी जमीन कर लेगी।
इंद्रियां और अहंकार की उपासना की छत से कोई छलांग भर लगा जाए, फिर बाकी काम परमात्मा कर लेता है। फिर ऐसा नहीं कि हम उसके पास पहुंचते हैं, हम उसमें ही पहुंच जाते हैं। उसका ग्रेविटेशन, उसकी कशिश भारी है। जमीन में तो कोई कशिश नहीं है। खींच लिए जाते हैं।
हमने इस देश में जिस व्यक्ति को पूर्ण अवतार कहा है — कृष्ण को — उसके नाम का मतलब ग्रेविटेशन होता है, कृष्ण का मतलब। कृष्ण का मतलब है, जो खींच लेता है, आकृष्ट कर लेता है, आकर्षित कर लेता है। जिसमें कर्षण है, कशिश है, ग्रेविटेशन है, जो खींच ले।
बड़ी ताकत है पृथ्वी के खींचने की। लेकिन आप रोक सकते हैं अपने को, न आएं पृथ्वी तक। एक छोटा सा तिनका भी रोक सकता है पृथ्वी की इतनी बड़ी ताकत को। कहा भी क्लिगिंग अगर है, कहीं भी अगर कोई चीज आपने पकड़ रखी है, तो यह पृथ्वी की कशिश काम नहीं करेगी। अनक्लिगिग — कहीं से भी आपने कुछ भी छोड़ दिया, आपके हाथ खाली हो गए, कुछ नहीं पकड़ा — पृथ्वी फौरन खींच लेगी। कितने ही दूर हों, खींच लिए जाएंगे। और कितने ही पास हों, अगर कुछ भी पकड़ रखा है, तो नहीं खींचे जा सकेंगे। परमात्मा खींच लेता है उसे, जिसकी दो कशिश से मुक्ति हो जाती है। इधर इंद्रियों की कशिश से, और उधर अहंकार की कशिश से। प्रकाश में प्रवेश हो जाता है।
अन्यदेवाहु: सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।। 13।।
कार्यब्रह्म (संभूति) की उपासना से और ही फल बतलाया गया है;
तथा अव्यक्त ब्रह्म (असंभूति) की उपासना से और ही फल बतलाया है।
ऐसा हमने बुद्धिमानों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी।। 13।।
उपनिषद ब्रह्म के दो रूपों की बात करते हैं। रूप ही दो हैं, तत्व तो एक है। या और भी ठीक होगा कहना कि जानने वाले दो तरह के हैं, तत्व तो एक है। एक तो ब्रह्म का अव्यक्त, अनमेनीफेस्ट, कारण—रूप, दि कॉजल। और एक ब्रह्म का कार्यरूप, दि मेनीफेस्ट, प्रगट, व्यक्त, कार्यरूप। बीज है कारण, वृक्ष है कार्य। बीज में छिपा है सब, वृक्ष में सब प्रगट हो गया है।
तो एक तो बीज ब्रह्म है, जो हमें कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। कहीं भी हमें जो दिखाई पड़ेगा, वह बीज ब्रह्म नहीं है, वह वृक्ष ब्रह्म है। वह व्यक्त ब्रह्म है। जो प्रगट हो गया है, वह हमें दिखाई पड़ता है। जो अप्रगट है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता है। इस प्रगट ब्रह्म की भी प्रार्थना और पूजा हो सकती है। इस प्रगट ब्रह्म की पूजा, इस प्रगट ब्रह्म की उपासना बहुत रूपों में हो सकती है। यहां जो अभिप्राय है, वह दो अर्थों में है।
उपनिषद जब कहे गए, तब देवताओं की भारी उपासना प्रचलित थी। देवता शब्द को ठीक से समझ लेना चाहिए। देवता ब्रह्म के कार्यरूप की शुद्धतम अभिव्यक्ति है — शुद्धतम। पत्थर भी उसी की अभिव्यक्ति है। दिव्य हम उसे कहते हैं, जो प्रगट होते हुए भी जिसमें अप्रगट झलकता हो। जिन्हें हम अवतार कहें, तीर्थंकर कहें, ईश्वर—पुत्र कहें — जीसस हों, मोहम्मद हों, महावीर हों, कृष्ण हों, राम हों — ये व्यक्ति जैसे देहलीज पर खड़े हैं, बीच के द्वार पर। प्रगट हैं, दरवाजे के बाहर से हमें दिखाई पड़ते हैं। सामने का चेहरा उनका साफ है, ठीक हमारे जैसा है। फिर भी ठीक हमारे जैसा नहीं है। कुछ अप्रगट की झाई, कुछ उस बीज ब्रह्म की झाई भी उनमें दिखाई पड़ती है। उनके सारे प्रगट व्यवहार में से कहीं—कहीं अप्रगट भी झलक जाता है और ध्वनि दे जाता है। ऐसी समस्त चेतनाएं दिव्य हैं। दिव्य का अर्थ हुआ, प्रगट हैं और अप्रगट की भी झलक देते हैं।
उपनिषद कहते हैं, इनकी पूजा और प्रार्थना, इनकी अर्चना का भी फल है। क्योंकि एक कदम प्रगट से अतीत उनमें कुछ है। जो उन्हें बहुत गौर से देखेगा उसके लिए प्रगट रूप मिट जाएगा और अप्रगट रूप रह जाएगा। इसलिए एक अड़चन सदा हुई। राम अगर खड़े हैं, तो राम के भक्त को राम आदमी नहीं दिखाई पड़ते। राम का भक्त अप्रगट के साथ इतना तादात्म बांध लेता है कि प्रगट खो जाता है। राम की रूपरेखा खो जाती है। ब्रह्म ही रह जाता है। इसलिए राम का भक्त जब राम—राम कह रहा है तो वह दशरथ के बेटे राम से उसका कोई लेना—देना नहीं है। जब वह राम कह रहा है तो उसका दशरथ के बेटे से कोई प्रयोजन ही नहीं है, कोई संबंध ही नहीं है। वह तो बीज ब्रह्म की ही बात कर रहा है।
लेकिन जो राम का भक्त नहीं है, उसको राम में वह हिस्सा दिखाई नहीं पड़ता है, जो अप्रगट है। वह बीज ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ता। वह जो प्रगट है, शरीर जिसने लिया है, वही दिखाई पड़ता है। दशरथ का बेटा दिखाई पड़ता है। सीता का पति दिखाई पड़ता है। रावण का दुश्मन दिखाई पड़ता है। किसी का मित्र, किसी का.. लेकिन जो दिखाई पड़ता है वह प्रगट। और इसलिए जब राम का भक्त राम की बात कर रहा है और राम का जो भक्त नहीं है वह बात कर रहा है, तो वे दो व्यक्तियों की बात कर रहे हैं। उनमें कहीं ताल—मेल नहीं हो पाता। उनका कहीं कोई संवाद नहीं हो सकता। वे समझ के ही बाहर हैं एक—दूसरे के। क्योंकि वे जो बातें कर रहे हैं, वे ही अजीब हैं। वे अलग ही बातें कर रहे हैं। वे अलग हिस्सों की बातें कर रहे हैं।
उपनिषद का यह सूत्र कहता है कि ब्रह्म का वह जो प्रगट रूप है, कार्यरूप है, जहां उसके कारण—रूप की भी कहीं झलक मिलती है, उसकी उपासना, उसके निकट होने के भी अपने परिणाम हैं, अपने फल हैं। वे फल सुखद होंगे। कहना चाहिए, वे फल स्वर्ग जैसे होंगे। वे बड़े शांतिदायी होंगे। वे बड़े प्रीतिकर होंगे। लेकिन मुक्तिदायी नहीं होंगे।
इसलिए हमने तीन शब्दों का प्रयोग किया है। एक शब्द है नर्क, एक शब्द है स्वर्ग और एक और शब्द है मोक्ष। देवताओं की, दिव्य चेतनाओं की निकटता से ज्यादा से ज्यादा स्वर्ग तक पहुंचा जा सकता है। स्वर्ग की मनोदशा तक, सुख तक — मुक्ति तक नहीं, आनंद तक नहीं। क्या फर्क है?
सुख कितना ही गहरा हो, खो जाएगा। सुख कितना ही लंबा हो, अंत आ जाएगा। और जहां अंत आएगा, वहीं नर्क शुरू हो जाएगा। वहीं नर्क शुरू हो जाएगा। मोक्ष शुरू होता है, अंत नहीं। स्वर्ग शुरू होता है, अंत होता है। नर्क शुरू नहीं होता, सिर्फ अंत होता है। इसे फिर दोहरा दूं तो खयाल में आ जाए। नर्क की कोई बिगनिंग नहीं है, नर्क का कोई प्रारंभ नहीं है। नर्क है प्रारभरहित। दुख है प्रारभरहित। सुख है नहीं, प्रारंभ हो सकता है। नर्क का कोई प्रारंभ नहीं है, अंत हो सकता है। स्वर्ग का प्रारंभ है और अंत भी है। शुरू भी होगा, अंत भी हो जाएगा। मोक्ष का प्रारंभ है, अंत नहीं है। शुरू होगा, फिर अंत नहीं होगा।
कार्यरूप ब्रह्म, प्रगट रूप ब्रह्म, अभिव्यक्त ब्रह्म, जहां—जहा दिव्यता झलकी है, वहां—वहां उसकी पूजा और प्रार्थना से ज्यादा से ज्यादा स्वर्ग तक पहुंचा जा सकता है, सुख तक पहुंचा जा सकता है। इसलिए सुख के कामी देवताओं की पूजा में रत होते हैं। मुक्ति के कामी देवताओं की पूजा में रत नहीं होते। मुक्ति के कामी देवताओं से पीठ फेर लेते हैं। मुक्ति के कामी सुख की मांग नहीं करते। क्योंकि सुख कभी भी मुक्ति नहीं बन सकता। बंधन ही रहेगा, सुखद होगा, पर बंधन ही रहेगा। जो मुक्ति के कामी हैं, जो चाहते हैं कि सर्व अर्थों में परम स्वतंत्रता उपलब्ध हो जाए। परम आनंद मिले, जिसका फिर कोई अंत न हो। अमृत मिले, जिसकी फिर कोई सीमा न हो। जहां से फिर कोई लौटना न हो — प्याइंट आफ नो रिटर्न। जिसके आगे फिर कोई खोजना न हो। जिसके आगे कोई यात्रा न बचे, ऐसी जिनकी अभीप्सा है, उन्हें तो बीज ब्रह्म की खोज करनी पड़ेगी। उन्हें व्यक्त ब्रह्म की नहीं, उन्हें अव्यक्त ब्रह्म की खोज करनी पड़ेगी। और अव्यक्त ब्रह्म की साधना से ही वे मुक्त, परम मोक्ष को उपलब्ध हो पाते हैं। दोनों के परिणाम हैं।
उपनिषद की एक खूबी है, उपनिषद को इनकार किसी बात से नहीं है, स्पष्टीकरण। इनकार नहीं है कि देवताओं की पूजा कोई न करे। उपनिषद कहेंगे, किसी को देवता की पूजा करनी है वह करे, लेकिन जानता हुआ करे कि सुख से आगे यह यात्रा नहीं है।
और पीछे सूत्र में कहा है, ऐसा हमने उनसे सुना है, जिन्होंने जाना है।
इसमें एक बात खयाल में ले लेनी चाहिए। जानने को सदा अनंत है। और मैं कितना ही जान लूं — कितना ही — फिर भी वह पूरा नहीं है। मैं कितना ही जान लूं फिर भी वह पूरा नहीं है।
ऐसा समझें कि सागर है बड़ा, मैं एक किनारे से उतर जाता हूं सागर में। उतर गया पूरा, डूब गया पूरा, फिर भी पूरे सागर को मैंने नहीं जाना। सागर ने भला पूरा मुझे जान लिया हो, मैंने पूरे सागर को नहीं जाना। और भी किनारे हैं अनंत, और अनंत हैं यात्री। और अनंत तीर्थों से उतरेंगे अनंत लोग। वे भी जानेंगे। तो मेरा जानना और उनका जानना जितने बड़े व्यापक पैमाने पर सामूहिक हो जाए, जितना इकट्ठा हो जाए, उतना ही शुभ है।
इसलिए उपनिषद के ऋषि, निरंतर ही, जो उन्होंने जाना है, उसे पूल्ड अप कर देंगे। उसे, वह जो अनंत जाना गया है सदा, उसके साथ इकट्ठा कर देंगे। वे कहेंगे, ऐसा हमने सुना उनसे, जो जानते हैं। अपना भी जो अल्प है, छोटा सा, उसकी क्या बात करनी है! जो जाना गया है, वह अनंत—अनंत लोगों ने अनंत—अनंत जाना है। अपना भी छोटा सा अल्प है, उसे भी उसी में डाल दिया है। उसकी क्या बात करनी! उसकी बात करते भी लजाते हैं। उसकी बात भी नहीं उठाते। ऐसे ही जैसे खुद कुछ भी न 'जाना हो। इसी भाव से कह देते हैं कि सुना है उनसे, जिन्होंने जाना है।
अनंत—अनंत लोग, अनंत—अनंत चेतनाएं जानी हैं परमात्मा को और निश्चित ही अलग— अलग तीर्थों से। तीर्थ का अर्थ होता है घाट। इसलिए जैन अपने जगाने वालों को तीर्थंकर कहते हैं। तीर्थंकर का मतलब होता है, घाट बनाने वाला। जो एक घाट बनाता है और वहां से नावें छोड़ देता है। पर अनंत तीर्थ हैं, क्योंकि यह सागर अनंत है। अनंत तीर्थंकर हैं, क्योंकि यह सागर अनंत है। सबका हमें कभी पता भी नहीं है। अगर हम पीछे लौटते भी हैं, तो वेद के पहले के ऋषियों का हमें कोई भी पता नहीं है। उल्लेख सिर्फ वेद के ऋषियों के बाद का है। ऐसा नहीं है कि वेद के ऋषियों के पहले जाना नहीं गया हो। क्योंकि वेद के ऋषि तो बार—बार कहते हैं कि हमने सुना है उनसे, जिन्होंने जाना है।
उपनिषद हमारे पास पुरानी से पुरानी संपदा है जानने वालों की। लेकिन उपनिषद कहते हैं, हमने सुना है उनसे, जिन्होंने जाना है। वे इस बात की खबर देते हैं कि सत्य सदा अनादि से जाना जाता रहा है। इतने लोगों ने जाना है, इतना ज्यादा जाना है, इतने रूपों में जाना है कि मैं अपने छोटे से रूप की क्या बात करूं! पूल्ड अप कर देता हूं उसी में जोड़ देता हूं। कह देता हूं कि वही जो जानने वालों ने कहा है, मैं कह रहा हूं।
इसमें एक बात और ध्यान रख लेनी जरूरी है कि पुराने सारे जानने वालों को मौलिकता का आग्रह नहीं था। ओरिजनल होने का कोई आग्रह नहीं था। कोई भी यह नहीं कहता कि मैं जो कह रहा हूं वह मौलिक सत्य है। वह मैं ही कह रहा हूं पहली दफा, और किसी ने नहीं कहा। आज के युग में बड़ा फर्क पड़ा है। आज प्रत्येक यह दावा करना चाहता है कि वह जो कह रहा है, वही कह रहा है, किसी ने नहीं कहा र मौलिक है, ओरिजनल है। क्या बात है? क्या यह बात है कि पुराने लोग मौलिक नहीं थे, आज के लोग मौलिक हैं?
नहीं, मामला बिलकुल उलटा है। पुराने लोग अपनी मौलिकता के प्रति इतने असंदिग्ध, आश्वस्त थे कि उसकी घोषणा की कोई जरूरत न थी। नए आदमी अपनी मौलिकता के प्रति इतने संदिग्ध हैं, इतने अनाश्वस्त हैं कि उसकी बिना घोषणा किए नहीं रह सकते। नए आदमी को सदा डर है कि कोई यह न कह दे कि इसे तो पहले भी लोग जान चुके हैं, तुम क्या कुछ नया जान रहे हो! पर यह डर इस बात का सूचक है कि मौलिक का पता नहीं है।
असल में मौलिक का मतलब नया नहीं होता। मौलिक का मतलब होता है, मूल से। ओरिजनल का मतलब माडर्न नहीं होता। ओरिजनल का मतलब होता है, ओरिजनल — फ्राम दि ओरिजिन।
मूल को जिसने जाना है, वही मौलिक है। और मूल को बहुत लोग जान चुके हैं। इसलिए मौलिक का अर्थ नया नहीं होता। मौलिक का अर्थ होता है, जड़ को जिसने जाना, मूल को जिसने जाना।
लेकिन आज नए का बड़ा आग्रह है चारों तरफ, कि जो मैं कह रहा हूं वह नया है। क्योंकि डर इस बात का है कि अगर और सबने भी जाना है, तो फिर मेरी विशेषता न रही। लेकिन मजे की बात यह है कि विशेषता इस जगत में एक ही है — सिर्फ एक।
मुझे याद आता है, एक फकीर जेकब बोहमेन ने एक छोटा सा वचन कहा है — टु बी मोस्ट आर्डिनरी इज दि ओनली एम्माआर्डिनरीनेस। कहा है कि बिलकुल साधारण होने से बड़ी और कोई असाधारणता नहीं है।
ये बड़े असाधारण लोग हैं, जो कहते हैं — यह नहीं कहते कि मैं जानता हूं — कहते हैं कि जिन्होंने जाना, उनसे हमने सुना है। ये बड़े असाधारण लोग हैं, मोस्ट एक्स्राआर्डिनरी। क्योंकि इतने आर्डिनरी होने को राजी हैं। असल में जिसे थोड़ा सा भी खयाल है कि मैं असाधारण हूं वह साधारण आदमी है। क्योंकि सभी साधारण आदमियों को यह खयाल है।
साधारण से साधारण आदमी को यह खयाल है कि मैं असाधारण हूं। सभी को यह खयाल है। यह बहुत कामन है, बहुत साधारण धारणा है। हरेक की यही है कि मैं असाधारण हूं। तो फिर असाधारण किसको हम कहें? उसी को कहेंगे, जिसे पता ही नहीं कि मैं असाधारण हूं। जो इतना साधारण है, असाधारण है।
असाधारण है यह वक्तव्य। जिन्होंने इतना जाना और इतना गहरा जाना, उस तरह के लोग ऐसा कहें कि हमने सुना है। शून्य की भांति रहे होंगे। दावेदार नहीं हैं। कोई दावा नहीं — न सत्य —का न पथ का — कोई दावा नहीं है। दावा ही नहीं है। इतने जो गैर—दावेदार हैं, उनकी बात में वजन है।
इसलिए बार—बार ऐसा भी दोहराते चले जाएंगे, बार—बार इसे जोड़ते चले जाएंगे हर सूत्र में, सुना है उनसे, जो जानते हैं। यह अपने को पोंछ डालने की, मिटा डालने की, अपने को अनुपस्थित कर देने की, स्वयं के बिलकुल न हो जाने की यह जो मनोदशा है, यह गहरी से गहरी है और जीवन के मूल स्रोतों से संबंधित है — मनातीत, भावातीत, ट्रांसेनडेंटल है।
आज के लिए इतना। सांझ फिर हम बात करेंगे।
अभी तो चलें मूल की तरफ, चलें भावातीत की तरफ।
दो—तीन बातें आपको ध्यान के संबंध में कह दूं जो मेरे खयाल में आई हैं। नब्बे प्रतिशत मित्र इतना अच्छा कर रहे हैं कि मैं बहुत प्रसन्न हूं। लेकिन दस प्रतिशत के प्रति दया आती है। आप दयनीय न रहें, दस प्रतिशत में न रहें। दूसरी बात, दोपहर के ध्यान में कुछ लोग कम दिखाई पड़ते हैं। वे शायद यहां—वहां घूमने चले जाते होंगे। सस्ते में कीमती चीजों को मत खोए।
दोपहर के ध्यान के लिए एक बात और। कुछ लोग आंख पर बिना पट्टियां बांधे बैठ जाते हैं। उन्हें कोई लाभ नहीं होगा। एक भी व्यक्ति आंख पर बिना पट्टी बांधे न बैठे। दूसरी बात, जब दोपहर के ध्यान में हों, तब अपनी ही चिंता में लगें, दूसरे की फिक्र न लें। जो लोग कुछ नहीं कर रहे हैं, उन्हें दूसरों की फिक्र शुरू हो जाएगी। क्योंकि वे खाली बैठे हैं, वे बेकार हैं। बेकार न बैठें। आनंदित हों, नाचे, प्रसन्न हों। कल मैं प्रसन्न हुआ। कल बहुत हल्कापन था, जैसे बच्चों जैसे हो गए थे। एक वृद्धजन भी बच्चों जैसी आवाज लगा रहे थे। बहुत भला था, बहुत इनोसेंट था। कह रहे थे — मां, मां, मां! छोटा बच्चा जैसे हल्का हो जाए। प्रसन्नता थी, चियरफुलनेस थी। वह बढ़ती जानी चाहिए। जैसे—जैसे ध्यान गहरा होगा, वह बढ़ेगी। का आदमी बच्चा हो जाए तो ध्यान को उपलब्ध हो गया।
तो दोपहर के ध्यान के लिए यह। सुबह के ध्यान से मैं बिलकुल प्रसन्न हूं। बिलकुल ठीक चल रहा है। रात के ध्यान के लिए एक बात कह दूं आपको। कल दो—तीन मित्र जो व्यवस्था के लिए रहते हैं, वे काफी हैं। बाकी जो व्यवस्था करने ऊपर चढ़ गए, उन्होंने बहुत अव्यवस्था पैदा की। और अपनी तरफ से सेल्फ अपाइंटमेंट कोई न करे। आप यहां ध्यान करने आए हैं, व्यवस्था करने नहीं। असल में जो बेकार बैठे रहते हैं, उनको मौका मिल गया। उन्होंने सोचा, चलो व्यवस्था करें।
नहीं, मंच पर कोई इस तरह नहीं चढ़ सकेगा। जो दो—तीन मित्र व्यवस्था कर रहे हैं, वे कर रहे हैं। बाकी आपको नहीं करनी है। कल पीछे वाले मंच के लोगों के लिए मेरे मन में बड़ी पीड़ा रही। वे ध्यान ठीक से नहीं कर पाए। उनको लोगों ने बाधा दी। कोई फिक्र नहीं है, कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई मेरे ऊपर गिर: भी जाएगा, तो क्या फर्क पड़ता है! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और जो ध्यान कर रहे हैं, वे बेहोश नहीं हैं, वे खुद होश में हैं। वे कोई गिर जाने वाले नहीं हैं। कोई मेरे ऊपर हमला कर देगा, इसका खयाल मत करिए। वे खुद होश में हैं। उनका मुझसे प्रेम उतना ही है, जितना व्यवस्थापकों का है। इसलिए उसकी कोई चिंता मत करिए।
उनको बहुत रोका, उनको मैं दिखाई भी नहीं पड़ा। जब मैं दिखाई नहीं पड़ा तो उपद्रव हो गया। क्योंकि वह तो ध्यान ही पूरा मेरे दिखाई पड़ने का है। तो आज रात के लिए मेरा खयाल है कि नीचे हाल में सारे खड़े हुए साधक रहेंगे। बैठने वाले लोग पीछे बैठ जाएंगे। इससे व्यवस्था नहीं करनी पड़ेगी।
कल एक और गलती हुई कि कल बाहर के लोग फिर रात प्रवेश कर गए। उससे बड़ी बाधा पड़ती है। उससे पूरी की पूरी जो टयूनिंग पैदा हो सकती है, वह नहीं पैदा हो पाती। एक गलत आदमी भी अगर हाल के भीतर है, तो वह गलत तरह की तरंगें पैदा करता है। इसलिए एक भी गलत आदमी को प्रवेश नहीं है। और यहां कैंप में भी ऐसे जो लोग हैं, जिन्हें कि सिर्फ सुनना है और ध्यान नहीं करना है, वे सुनने के बाद फौरन रात हाल के बाहर हो जाएं। उनकी बड़ी कृपा होगी। वे नुकसान न पहुंचाएं। एक आदमी नहीं चाहिए हमें भीतर, जो दर्शक की तरह हो। उससे भारी बाधा पड़ती है, वह गैप बन जाता है। जब इतनी चेतनाएं इतने भाव सै भरती हैं, तो सारा वायुमंडल तरंगित हो जाता है। उसमें अगर एक आदमी बीच में ऐसा खड़ा है, जो तरंगित नहीं है, तो वह डिसकटीन्यूटी पैदा कर देता है। वह उतना हिस्सा तोड़ देता है। उतने हिस्से में वर्षा नहीं हो पा रही है। और उसकी वजह से जो तरंगें आर—पार फैलकर दूसरों तक पहुंचती हैं, वे भी नहीं पहुंच पातीं। इसलिए रात के ध्यान में मैं अभी प्रसन्न नहीं हूं।
रात का ध्यान सर्वाधिक कीमती है। और ये दो ध्यान उसकी तैयारी के लिए हैं कि इन दो ध्यान में आप तैयार हो जाएं और रात को विस्फोट हो सके। तो उस विस्फोट में बाधा पड़ रही है। अभी तक वह ठीक नहीं हो पाया। परसों यहां लोग आ गए, उनकी वजह से ठीक नहीं हो पाया। सिर्फ उसके पहले थोड़ा ठीक हुआ। कल हाल में बहुत परिणाम हो सकते थे, लेकिन कुछ लोग ऊपर चढ़ गए और व्यवस्था करने लगे। जो दो—तीन मित्र व्यवस्था करते हैं, उनको रोका रखा है इसीलिए। वे व्यवस्था करेंगे। आप व्यवस्था के लिए नहीं आए हैं। और मेरी फिक्र छोड़े, अपनी फिक्र करें। मैं तो मेरा शरीर, एक आदमी को भी ध्यान हो जाए और उसमें छूट जाए, तो भी समझता हूं कि पर्याप्त है। उसमें कोई हर्जा नहीं है। इसलिए उसकी चिंता ही छोड़ दें।
'चले अपने ध्यान के लिए!
आज इतना ही।
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