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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-प्रवचन-03



आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो


दिनांक 03-फरवरी, सन् 1981,
ओशो आश्रम, पूना।
प्रवचन-तीसरा-(सत्संग अर्थात आग से गुजरना)

     प्रश्न-सार
आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले भगवान बुद्ध के एक श्रावक बिना भिक्षु हुए बुद्ध से जुड़े थे,
      और बुद्ध उन्हें भिक्षुओं से अधिक स्वस्थ और निकट मानते थे।
      जो लोग आपसे बिना संन्यास लिए शिष्यत्व स्वीकार करके आपसे जुड़ना चाहते हैं,
      आप उन्हें अपने साथ जोड़ कर उनका शिष्यत्व क्यों स्वीकार नहीं करते हैं?
      ऐसे लोगों में से एक मैं भी हूं। जरा मुझ पर भी दया करें।



पहला प्रश्न: भगवान,
आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले भगवान बुद्ध के एक श्रावक बिना भिक्षु हुए बुद्ध से जुड़े थे, और बुद्ध उन्हें भिक्षुओं से अधिक स्वस्थ और निकट मानते थे। आज का युग पहले से ज्यादा वैज्ञानिक और परिष्कृत है और आपके वचनों को ज्यादा ठीक समझ सकने वाले लोग भी मौजूद हैं, जो आपसे बिना संन्यास लिए शिष्यत्व स्वीकार करके आपसे जुड़ना चाहते हैं; फिर आप भी उन्हें अपने साथ जोड़ कर उनका शिष्यत्व क्यों स्वीकार नहीं करते हैं? और ऐसे लोगों में से एक मैं भी हूं।
भगवान, जरा मुझ पर भी दया करें।

श्रीचंद सखरानी,

गौतम बुद्ध और विमलकीर्ति के बीच जो घटा, वह तुम्हारे और मेरे बीच नहीं घट सकेगा। बुनियादी आधार ही नहीं है।
पहली बात: विमलकीर्ति ने कभी भी बुद्ध से प्रार्थना नहीं की कि मुझे बिना भिक्षु बनाए शिष्य की भांति स्वीकार कर लें। शिष्यत्व स्वीकार करने का अर्थ ही यह होता है कि फिर गुरु जो कहे वह करना होगा। शिष्यत्व में शिष्य की ओर से शर्त नहीं हो सकती। शर्त होगी तो समर्पण कैसा? तुम तो पहले ही शर्त रख रहे हो कि संन्यास बिना दिए मुझे शिष्य की भांति स्वीकार कर लें। चलो, पहले न दूंगा, पीछे दूंगा। पहले शिष्य हो जाओ, फिर संन्यासी बना लूंगा। मगर शिष्य हो जाने के बाद इनकार कैसे कर सकोगे? और अगर इनकार कर सकोगे तो शिष्य कैसे?
शिष्य का अर्थ ही क्या है? विद्यार्थी तो नहीं। और विद्यार्थी होने से तुम्हें कौन रोक रहा है? तुम यहां आते हो, सुनते हो, जो सुन सकते हो सुनते हो, जो समझ सकते हो समझते हो, कौन तुम्हें रोकता है? लेकिन शिष्य होना तो गहरा नाता है, समर्पण का नाता है। और शर्त अगर पहले से ही मौजूद है तो एक शर्त के पीछे और शर्तें आएंगी। शर्त अकेली नहीं आती, जैसे बीमारी अकेली नहीं आती। और मैं तो एक भी शर्त स्वीकार नहीं कर सकता हूं।
फिर शिष्य होने से तुम्हें प्रयोजन क्या है? किसलिए शिष्य होना चाहते हो? अगर संन्यास से भय है तो शिष्य होकर भी क्या करोगे? क्योंकि मेरी सारी शिक्षा यही है कि कैसे जल में कमलवत जीना। उसे ही मैं संन्यास कहता हूं--संसार में रह कर और संसार के न होना। जीना संसार में, लेकिन संसार को स्वयं में न जीने देना। अगर उस बात के लिए ही राजी नहीं हो तो विद्यार्थी होने को स्वीकार करो, उससे ज्यादा तुम्हारी सामर्थ्य नहीं। मैं तो तैयार हूं।
तुम कहते हो: "भगवान, जरा मुझ पर भी दया करें।'
लेकिन विमलकीर्ति ने कभी गौतम बुद्ध से दया की भीख नहीं मांगी थी। वहीं फर्क हो गया। तुम कहते हो कि मैं भी उन लोगों में से एक हूं। तुम्हारे कहने से मानूंगा? अगर तुम उनमें से एक हो तो यह प्रश्न ही नहीं पूछा होता। और दूसरी बात भी तुमसे कह दूं: अगर विमलकीर्ति ने पूछा होता तो बुद्ध ने कहा होता कि भिक्षु हो। और इतना निश्चित है कि विमलकीर्ति इनकार न करता। पूछता तो इनकार न करता। पूछता तो स्वीकार करता। पूछने का अर्थ ही है कि तुमने आज्ञा चाही, कि तुमने आदेश मांगा, कि तुम इशारे की तलाश कर रहे हो। फिर अंगुली बताई जाए और न देखो, तो प्रयोजन क्या था पूछने का?
तुम अपने अहंकार को भी बचाना चाहते हो। और जो अहंकार को छोड़ कर मेरे पास आने के लिए पात्रता जुटाते हैं, उतने ही पास भी आना चाहते हो। जो मेरे पास आना चाहते हैं उन्हें कुछ खोने को भी तैयार होना होगा। और ज्यादा कुछ खोने को नहीं कहता हूं--सिर्फ अहंकार। और अहंकार, जो कि है ही नहीं। यूं समझो कि जो तुम्हारे पास नहीं है उसे ही खो देने का नाम संन्यास है। और जो तुम्हारे पास है उसे जीने की कला को सीख लेने का नाम संन्यास है। गुरु वही है जो तुमसे छीन ले वह, जो तुम्हारे पास नहीं है, लेकिन जिसकी तुम्हें भ्रांति है; और दे दे वह, जो तुम्हारे पास है, लेकिन जिसका तुम्हें पता नहीं है।
एक युवक ने मुझसे पूछा था कि मैं विवाह करूं या न करूं?
मैंने उससे कहा, तू कर ही ले।
उसने कहा, यह कैसी बात हुई? मैं तो सोचता था कि आपने विवाह नहीं किया तो आप मुझे सलाह देंगे कि तू मत कर। फिर आपने क्यों नहीं किया, अगर मुझे सलाह देते हैं विवाह करने की?
तो मैंने उससे कहा, फर्क है। मैंने किसी से पूछा नहीं कि विवाह करूं या न करूं और तू पूछ रहा है। मुझसे न मालूम कितने लोगों ने कहा कि विवाह कर लो। प्रियजन थे, परिवार के लोग थे, सगे-संबंधी थे, हितैषी थे। मैंने सलाह मांगी नहीं; उन्होंने सलाह दी। मैंने पूछा नहीं; उन्होंने उत्तर दिया। और तू पूछने आया है। पूछने में ही सारा राज खुल गया। तेरे मन में दुविधा है, दुई है--करूं या न करूं? और जब भी ऐसी दुविधा हो--करूं या न करूं--तो कर लेना ही अच्छा। क्योंकि अगर नहीं किया तो दुविधा बनी ही रहेगी, बनी ही रहेगी, पीछा करेगी। मन में लगता ही रहेगा कि अगर कर लेते तो शायद आनंद मिलता; कर लेते तो शायद ठीक होता; कर लेते तो पता नहीं क्या होता! जब भी दुविधा हो करने और न करने में तो हमेशा करने को चुनना, क्योंकि न करने से क्या सीखोगे? करने से या तो पता चल जाएगा कि ठीक हुआ या पता चल जाएगा कि गलत हुआ। करने को न करना आसान है। विवाह को तलाक में बदलना बहुत मुश्किल नहीं। लेकिन विवाह किया ही न हो, अनुभव ही न हो विवाह का, तो फिर यह स्वप्न मन में बसा ही रहेगा कि शायद जैसा कि कहानियों में कहते हैं--कि दोनों का विवाह हो गया और फिर दोनों सदा के लिए सुख से रहने लगे--ऐसे होता हो। क्योंकि सभी कहानियां यहीं आकर समाप्त हो जाती हैं, कि फिर दोनों सुख से रहने लगे। इसके बाद कहानियां चलती ही नहीं, क्योंकि इसके बाद कहानी को चलाना खतरनाक है। इसके बाद रुक जाना ठीक है।
तुम मुझसे पूछते हो, श्रीचंद सखरानी, कि मैं भी विमलकीर्ति जैसे लोगों में से एक हूं।
विमलकीर्ति ऐसा नहीं कह सकता था। एक तो कभी उसने बुद्ध से पूछा नहीं कि मैं संन्यास लूं या न लूं। बुद्ध से कभी पूछा नहीं कि जो संन्यासी हैं वे आपके ज्यादा पास हैं, मुझे अपने पास क्यों नहीं बुलाते! बुद्ध से कभी कहा नहीं कि मुझे बिना भिक्षु बनाए शिष्यत्व दे दें। ये बातें ही नहीं उठीं। ये सवाल ही नहीं उठे। अगर ये सवाल उठे होते तो संन्यास तो बात अलग, बुद्ध अगर विमलकीर्ति से कहते कि तू जा और पहाड़ से कूद कर मर जा या आग में जल जा, तो विमलकीर्ति वह भी करने को राजी होता। हिम्मत का आदमी था! छाती वाला आदमी था!
श्रीचंद, तुम्हारी तो छाती बिलकुल नहीं मालूम होती। लेकिन छिपाने की कोशिश कर रहे हो। होशियारी आती है मालूम होता है। कहते हो: "आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले भगवान बुद्ध के एक श्रावक बिना भिक्षु हुए बुद्ध से जुड़े हुए थे।'
मुझसे भी बहुत लोग जुड़े हुए हैं जो संन्यासी नहीं हैं, लेकिन तुम उनमें से नहीं हो। तुम उनमें से नहीं हो सकते हो। और जो मुझसे जुड़े हुए हैं, जिस दिन उनसे कहूंगा उस दिन संन्यास लेंगे, तत्क्षण संन्यास लेंगे। नहीं कहूं, यह मेरी मर्जी। इसीलिए जुड़े हैं कि मेरी आज्ञा की प्रतीक्षा है। और उनमें से बहुतों को मैंने संन्यास दिया; जब कहा, तब उसी क्षण, फिर देर नहीं की। तुम उनमें से नहीं हो।
तुम कहते हो: "आज का युग पहले से ज्यादा वैज्ञानिक...।'
युग होगा वैज्ञानिक। तुम हो वैज्ञानिक, सवाल यह है! युग से क्या लेना-देना? आकाश में हवाई जहाज उड़ते रहें, इससे क्या होगा? तुम तो अपनी बैलगाड़ी ही हांक रहे हो। सवाल तुम्हारा है। तुम्हारे भीतर कितनी वैज्ञानिकता है?
तुम कहते: "आज का युग पहले से ज्यादा वैज्ञानिक, परिष्कृत...।'
सवाल तुम्हारा है। युग से तुम्हारा क्या लेना-देना? सभी लोग समसामयिक नहीं होते हैं। जैसे यह बीसवीं सदी चल रही है, लेकिन इस बीसवीं सदी में सब तरह के लोग चल रहे हैं--कोई पंद्रहवीं सदी का है, कोई चौदहवीं सदी का है, कोई दसवीं सदी का है, कोई पहली सदी का है। ऐसे-ऐसे लोग हैं जो बुद्ध के पहले के हैं; बाबा आदम के जमाने से चले हैं और अब भी चल रहे हैं, जिनमें कोई फर्क नहीं पड़ा।
आखिर पत्थरों की मूर्तियों के सामने पूजा करने वाले लोग वैज्ञानिक हैं, परिष्कृत हैं? इनको तुम सोच-विचार, विवेक, ध्यान, इनसे जुड़ा हुआ अनुभव करते हो? आज भी जो हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं, ये बीसवीं सदी के लोग हैं? जो अभी भी वेद को उलट रहे हैं, पांच हजार साल पुरानी किताब को, और उसी में डुबकियां मार रहे हैं और सोच रहे हैं कि मिल जाएगा हीरा, इनको तुम वैज्ञानिक समझते हो? क्या परिष्कार इनमें तुम देखते हो?
तुम तो नहीं परिष्कृत हो, तुम तो नहीं वैज्ञानिक हो। अगर तुम वैज्ञानिक होते और परिष्कृत होते तो यह प्रश्न न उठा होता। तब तो तुमने समझा होता।
और तुम कहते हो: "और आपके वचनों को ज्यादा ठीक समझने वाले लोग भी मौजूद हैं।'
जरूर मौजूद हैं, लेकिन जो मौजूद हैं वे और हैं, तुम नहीं। तुम तो कुछ का कुछ सुन रहे हो। तुमने तो विमलकीर्ति की कहानी ही सुनी सिर्फ। मैं हजारों कहानियां कह चुका हूं, श्रीचंद सखरानी ने यह पहला सवाल पूछा। आज तक तुमने कुछ न सुना और, क्योंकि उन सबमें खतरा था। विमलकीर्ति की कहानी तुमने सुनी, यह बात जंची। यह तुम्हारे लिए छाता बन गई। तुमने सोचा कि अब इस कहानी के बहाने अपने को बचा लूं। यह कवच बन गया।
लोग वही सुनते हैं जो सुनना चाहते हैं।
सेठ भिखारीदास का बेटा लखमीचंद,
शादी को बेचैन था, एक नेत्र था बंद।
एक नेत्र था बंद, रात-दिन आहें भरता,
शिवशंकर की पूजा नित्य-नियम से करता।
भोले हुए प्रसन्न, कहा--"वर मांगो भइए!'
वह बोला--"वर नहीं मुझे तो कन्या चहिए।'
अपनी-अपनी समझ। तुमने क्या समझ लिया? तुमने विमलकीर्ति में सोचा कि अच्छा बहाना मिला।
तार बाबू श्रीचंद की पत्नी, रज्जो का अपनी जबान पर काबू तो था नहीं, एक बार शुरू हो गई तो उसे रोकना किसी के वश की बात नहीं थी। उस दिन आधा घंटे तक धाराप्रवाह श्रीचंद से शब्द-संघर्ष करती रही। लेकिन जब देखा कि पति के कान पर जूं तक नहीं रेंगी तो झल्ला कर बोली, क्या हो गया है तुम्हें? मैं इतनी देर से बके जा रही हूं, क्या तुम बज्र-बधिर हो? सुनाई नहीं पड़ता है?
श्रीचंद बोले, अरी भागवान, मैं तो हिसाब लगा रहा था कि इस आधा घंटे में जितने शब्द तुम्हारे मुखारबिंद से निकले हैं उन्हें अगर तार से भेजा जाए तो बयासी रुपये तीस पैसे लगेंगे।
देखते श्रीचंद, ये दूसरे श्रीचंद थे! तार बाबू थे। इनका अपना सोचने का ढंग है। ये सुन ही नहीं रहे हैं, ये हिसाब लगा रहे हैं कि तार से अगर ये सब शब्द भेजे जाएं तो कितना पैसा लग जाएगा! तार बाबू तो तार बाबू!
तुम्हें पहली दफा कहानी सुनाई पड़ी। तुमने पहली दफा प्रश्न पूछा, क्योंकि पहली दफा तुम्हें आड़ मिली। पहली दफा तुमने देखा कि अब मौका ठीक है। तुमने देखा कि अब मैं क्या करूंगा! अब तो मुझे स्वीकार करना ही पड़ेगा कि विमलकीर्ति मौजूद हैं यहां, उनका नाम है श्रीचंद सखरानी!
नहीं, इतना आसान मामला नहीं है। मुझे धोखा देना असंभव है। तुम लाख उपाय करो, तुम्हारी समझ तुम्हारी ही होगी।
चंदूलाल बस में बैठे इत्मीनान से सिगरेट के कश ले रहे थे कि अचानक बस के कंडक्टर ने उन्हें टोका, कहा, देखते नहीं महानुभाव, बस में साफ लिखा है कि धूम्रपान वर्जित है! और आप कश पर कश खींचे चले जा रहे हैं!
चंदूलाल अकड़ कर बोले, मैंने इसे पढ़ लिया है। लेकिन लिखने को तो बस में बहुत कुछ लिखा है। अब उधर देखिए, लिखा है--हमेशा हैंडलूम की साड़ियां पहनिए। तो क्या मैं हैंडलूम की साड़ियां पहनने लगूं?
तुमने भी क्या सुना! अपने मतलब की बात सुन ली।
मगर इससे तुम्हारी बेहोशी तो कटेगी नहीं।
सेठ चंदूलाल रोज शराब पीकर बड़ी देर करके घर लौटते थे और रोज ही अपनी पत्नी से डांट खाते थे। एक दिन उन्होंने निश्चय किया कि वे अपनी पत्नी को बिलकुल महसूस नहीं होने देंगे कि आज शराब पीकर आए हैं।
दूसरे दिन चंदूलाल थोड़ा जल्दी ही घर पहुंचे, पी-पा कर ही पहुंचे, और आते ही सीधे बेडरूम में जाकर लेट गए और एक बड़ी सी किताब उठा कर पढ़ने का ढोंग करने लगे। थोड़ी देर बाद उनकी पत्नी भी बेडरूम में पहुंची और कमर पर हाथ रख कर गुस्से से बोली, क्यों जी, तुम आज फिर पीकर आए हो!
चंदूलाल हड़बड़ाते हुए बोले, नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं।
पत्नी गुर्राती हुई बोली, तो फिर यह सूटकेस उठा कर क्या कर रहे हो?
वे समझ रहे थे कि श्रीमद् भागवत गीता पढ़ रहे हैं। मगर होश भी तो होना चाहिए। तुमने तो सोचा कि प्रश्न बड़ा कारगर पूछा है और इस मौके पर जीत पक्की है। मगर जीत इतनी आसान नहीं।
डेढ़ साल अफ्रीका में रहने के बाद चंदूलाल जब भारत वापस लौटे तो मित्र-मंडली उनके संस्मरण सुनने को इकट्ठी हो गई। चंदूलाल ने अपने शिकार के अनुभव सुनाए, फिर जंगली जीवन की जानकारी देने लगे: अफ्रीका में एक ऐसा जानवर पाया जाता है कि जब नर अपनी मादा को बुलाना चाहता है तो एक विशेष प्रकार की आवाज में चिंघाड़ता है। उस आवाज को सुन कर मादा जहां कहीं भी हो फौरन चली आती है।
मित्रों ने आग्रह किया कि जरा हमें आवाज करके तो दिखाइए। ऐसी कौन सी आवाज है?
चंदूलाल ने मुंह खोल कर उसी आवाज में चिंघाड़ निकाली, ताकि मित्र-मंडली उस आवाज से पूरी तरह परिचित हो जाए। इतने में ही पास वाले कमरे का दरवाजा खुला और उनकी पत्नी ने पूछा, कहिए, क्या बात है?
तुम जैसे प्रतीक्षा ही कर रहे थे दरवाजे के पीछे छिपे कि ऐसा कोई अवसर आ जाए जिसमें तुम अपनी कायरता को छिपा सको। संन्यास लेने से घबड़ाते हो! घबड़ाहट क्या है? बदनामी होगी? लोग पागल समझेंगे? दीवाना समझेंगे? समाज में प्रतिष्ठा खो जाएगी? पत्नी-बच्चे हंसेंगे? मंदिर में क्या होगा? मुनि और महात्मा क्या कहेंगे कि बिगड़ गए, तुम भी बिगड़ गए? तुम जैसा बुद्धिमान, वैज्ञानिक और परिष्कृत बुद्धि का आदमी भी बिगड़ गया! सो तुम चाहते हो कि चोरी-छिपे मुझसे नाता बना लो। यूं ऊपर-ऊपर तुम दिखाते रहो दुनिया को कुछ और, और भीतर कुछ और हो जाओ। तुम पाखंड ओढ़ना चाहते हो। और मैं किसी भी पाखंड को समर्थन देने को तैयार नहीं हूं। मेरे साथ हो तो मेरे साथ हो, फिर हिम्मत के साथ मेरे साथ होना चाहिए। फिर क्या डरना? शिष्यत्व की आकांक्षा है तो फिर संन्यास से क्या डरना? और संन्यास है क्या?
तुम कहते हो: "जो आपसे बिना संन्यास लिए, शिष्यत्व स्वीकार करके आपसे जुड़ना चाहते हैं...।'
मगर "बिना संन्यास लिए' यह शर्त तुम लगा रहे हो। तुम मेरी सुनोगे या शर्त अपनी? शिष्यत्व के बाद गुरु मैं रहूंगा कि तुम, यह साफ हो जाना चाहिए।
अगर गुरु मैं ही रहूंगा तो मेरी पहली आज्ञा होगी कि बच्चा, संन्यास ले! और वहीं गाड़ी अटक जाएगी। वहीं से गाड़ी आगे न बढ़ेगी।
कह रहे हो: "फिर आप भी उन्हें अपने साथ जोड़ कर उनका शिष्यत्व क्यों स्वीकार नहीं करते?'
फिर आखिर में राज की बात तुमने कही: "और ऐसे लोगों में से एक मैं भी हूं।'
पहले पूरा हाथी निकाल दिया, फिर सोचा कि अब पीछे से पूंछ भी निकल जाएगी। मगर पूंछ ही पकड़ी जाती है।
प्रेम इतना आसान तो नहीं।
इशक असां नाल केही कीती, लोक मरेंदे ताने।
दिल दी वेदन कोई न जाने, अंदर देश बिगाने।
जिसनूं चोट अमर दी होवे, सोई अमर पछाने।
एस इशक दी ओखी घाटो, जो चढ़िया सो जाने।
अर्थात देखो इश्क ने हमारी क्या स्थिति बना दी! लोग ताने मारते हैं। दिल की पीड़ा को कोई नहीं जानता। हम देश के अंदर ही बेगाने हो गए। जिसे अमृत की चोट लगी हो वही अमृत को पहचान सकता है। इस इश्क की यात्रा बड़ी दुर्गम है, पहाड़ी की चढ़ाई है। जो चढ़ता है बस वही जानता है।
हिम्मत हो तो चुनौती स्वीकार करो। क्या तुम सोचते हो बुद्ध ने विमलकीर्ति से कहा होता कि बन भिक्षु तो विमलकीर्ति इनकार करता? मैं तुमसे कहता हूं, हो जाओ संन्यासी। अगर तुममें भी विमलकीर्ति जैसी हिम्मत और साहस है, कहीं थोड़ी-बहुत भी क्षमता है, तो चुनौती स्वीकार करो। अब तक कैसे छिपे बैठे रहे?
लेकिन लोग पास आना चाहते हैं, कीमत नहीं चुकाना चाहते। लोग निकट होना चाहते हैं, लेकिन निकटता को अर्जित नहीं करना चाहते। शिष्यत्व क्या तुम कोई सस्ती बात समझते हो? सिर कटाओ तो मिलता है, पगड़ी उतार कर रखो तो मिलता है। मुफ्त तो नहीं मिलता। शिष्यत्व का हीरा इस जगत में सबसे ज्यादा कीमती हीरा है।
लेकिन तुमने सोचा होगा कि मुफ्त अगर मिल जाए! यूं ही कहीं राह के किनारे पड़ा मिल जाए! सत्य को भी लोग राह के किनारे पड़ा हुआ पाना चाहते हैं। सत्य को भी चुराना चाहते हैं या मुफ्त पाना चाहते हैं। सत्य के लिए सब कुछ समर्पित करना होता है। सत्य तो केवल जुआरियों के लिए है, शराबियों के लिए है, समझदारों के लिए नहीं है, दुकानदारों के लिए नहीं है।
बुल्लेशाह कहते हैं--
बुल्ला आशक होया रब दा, मलामत होई लाख।
लोग  काफिर  आखदे,  तू  आहो-आहो  आख।।
कहते हैं बुल्लेशाह कि परमात्मा का आशिक हुआ तो लाखों तरह की भर्त्सना होने लगी।
बुल्ला आशक होया रब दा!
शिष्यत्व तो परमात्मा के प्रति प्रेम है। फिर जहां उसकी झलक मिल जाए, फिर जहां से उसकी तरफ नाव छूट जाए, वही तीर्थ, वही तीर्थंकर। फिर जो मांझी मिल जाए, उस पार जाना है। फिर उसी मांझी की नाव पर सवार हो लेना है।
बुल्ला आशक होया रब दा!
बुल्ला कहता है कि मैं तो हो गया प्रेमी परमात्मा का। मैं यह कभी सोचा न था कि ऐसी मलामत होगी।
मलामत होई लाख!
यह कभी सोचा न था कि लोग इतनी गालियां देंगे, इतने पत्थर फेंकेंगे, इतना अपमान करेंगे। ऊपर से कोई तर्क भी नहीं दिखाई पड़ता, कोई संबंध भी नहीं दिखाई पड़ता। कोई परमात्मा की खोज में चला है, इससे लोगों को क्या पड़ी? इससे लोग क्यों गालियां दे रहे हैं?
अब श्रीचंद सखरानी अगर संन्यासी हो जाएं तो लोगों को क्या लेना-देना है? श्रीचंद सखरानी एक दिन मर जाएंगे तब भी लोगों को कुछ लेना-देना नहीं है; तब भी लोग अरथी बांध कर और विदा कर आएंगे। और जल्दी मचाएंगे कि जल्दी करो, जल्दी निपटाओ, दूसरे भी काम करने हैं--दफ्तर भी जाना है, दुकान भी खोलनी है, बच्चों को स्कूल भी पहुंचाना है, पत्नी की साड़ी खरीदनी है, साइकिल का पंक्चर सुधरवाना है, क्या-क्या नहीं करना है! सारा संसार पड़ा है। अब कोई श्रीचंद सखरानी की ही अरथी को लिए बैठे रहें! अरे जल्दी करो! घर के लोग तो रोने-धोने में लग जाते हैं, पड़ोसी जल्दी से अरथी बांधने लगते हैं। पड़ोसी कहते हैं कि अब ये तो रोने-धोने में लगे हैं, हम कब तक उलझे रहें? कोई बांस काटने लगता है, कोई बांस बांधने लगता है। घर के लोग तो रोते ही धोते रहते हैं, पड़ोसी अरथी तैयार कर देते हैं। चली अरथी--राम नाम सत्य है!
लोगों को क्या पड़ी है--तुम जीओ तो, तुम मरो तो! तुम नहीं थे दुनिया में तो भी दुनिया यूं ही चल रही थी। यह मत सोचना कि कुछ कमी थी। यही तमाशा था। यही हो-हल्ला था। यही उपद्रव था। यही समस्याएं थीं। यही मंदिर, यही मस्जिद, यही गुरु, यही पंडित, यही पुरोहित, यही बकवास सब जारी थी। तुम्हारे न होने से कुछ कमी न थी। एक दिन तुम चले जाओगे तो यूं मत सोचना कि जगह खाली हो जाएगी।
ऐसा कहते हैं हरेक के मर जाने पर, वह कहने की बात है कि अपूर्णीय क्षति हो गई। अभी तक मैंने तो नहीं देखा कि किसी के भी मरने से अपूर्णीय क्षति हुई हो। आदमी मर भी नहीं पाता कि पूर्ति हो जाती है। लेकिन औपचारिकता है, शिष्टाचार है। जिंदगी भर तो कभी अच्छे वचन न कहे, अब मर गया, अब तो कम से कम दो शब्द अच्छे कह दो--कि अपूर्णीय क्षति हो गई, कि अब यह क्षति कभी पूरी नहीं हो सकेगी!
बुल्ला आशक होया रब दा, मलामत होई लाख।
सोचा भी न था कि इतनी गालियां पड़ेंगी, इतने पत्थर फेंके जाएंगे। हम तो चले थे परमात्मा के प्रेम की राह पर, और ऐसी मलामत होने लगी! ऐसी भर्त्सना होने लगी।
लोग  काफिर  आखदे!
गजब हो गया! बुल्ला कहता है कि लोग कहते हैं तू काफिर हो गया। हम चले परमात्मा की तलाश में और लोग कहते हैं काफिर हो गया! कि तू कुफ्र कर रहा है!
क्योंकि लोगों ने तो मान रखा है कि अगर परमात्मा को खोजना हो, मुसलमान हो तो मस्जिद में जाओ, अगर मस्जिद न गए तो काफिर; अगर हिंदू हो तो मंदिर में जाओ, अगर मंदिर न गए तो अधार्मिक; अगर जैन हो तो महावीर को पूजो, अगर महावीर को न पूजा तो भ्रष्ट! लोगों की तो बंधी हुई धारणाएं हैं। और जिसको सत्य की खोज करनी है वह किसी बंधी धारणा के अनुसार नहीं चल सकता। सत्य के खोजी को तो सारे पक्षपात तोड़ कर रख देने होंगे, जला कर रख देने होंगे। उसे तो पक्षपातों और धारणाओं का सारा जाल तोड़ कर निकल जाना होगा। वही तो कारागृह है। और तुम जो भी जाल तोड़ोगे, उस जाल के रखवाले, उस जाल का फायदा उठाने वाले मलामत तो करेंगे, गालियां तो देंगे, पत्थर तो फेंकेंगे। फूलों की आशा मत रखना।
और तुम वही कर रहे हो, श्रीचंद। तुम सोच रहे हो: शिष्यत्व भी मिल जाए, सत्य भी मिल जाए, समाज में प्रतिष्ठा भी न खोए, समाज में आदर-सम्मान भी बना रहे। अगर लोग पूछेंगे भी कि वहां क्यों जाते हो? तो कह देंगे कि देखने जाते हैं कि यह आदमी लोगों को किस तरह बिगाड़ रहा है। कोई बहाना खोज लेंगे। जब मुझसे बहाना खोज सकते हो तो औरों से भी बहाना खोज लोगे। क्या कठिनाई आएगी?
लोग  काफिर  आखदे,  तू  आहो-आहो  आख।।
बुल्ला कहते हैं: देख, मजा देख, क्या गजब हो रहा है! लोग काफिर कह रहे हैं। और मैं चला सत्य को खोजने!
मगर सत्य को खोजने वाले सदा काफिर हो जाते हैं। काफिर, लोगों की नजरों में। क्योंकि सत्य को जिसे खोजना है वह किसी भी विश्वास को सहारा नहीं दे सकता। विश्वासी सत्य को नहीं खोज सकता। सत्य को खोजने के लिए विश्वास-मुक्त चित्त चाहिए--न हिंदू, न मुसलमान, न जैन, न ईसाई, न सिक्ख, न पारसी। सत्य की खोज के लिए सारी किताबें आंखों से हट जानी चाहिए। सत्य की खोज के लिए किसी सिद्धांत पर मताग्रह नहीं रह जाना चाहिए। सत्य की खोज के लिए चित्त ऐसा हो जाना चाहिए जैसे कोरी किताब, उस पर कोई लिखावट न बचे।
सब लिखावट दूसरों की है। सब लिखावट उधार है। किसी पर वेद रखा है, किसी पर कुरान रखी है, किसी पर बाइबिल रखी है। औरों ने रख दी है। छाती तुम्हारी है, रखने वाले और हैं। छाती तुम्हारी है, अजायबघर दूसरों ने तुम्हें बना दिया है। इस सबको छोड़ देना होता है। इस सबको हटा कर अलग कर देना होता है। जैसे कोई कूड़ा-करकट को अलग कर दे।
स्वभावतः, जब तुम किसी की किताब को--जिसको वह समझता है धर्मग्रंथ--अलग करोगे, तो गालियां पड़ेंगी। जब तुम किन्हीं के विश्वासों के बाहर जाओगे, तो स्वभावतः तुम बगावती हो। और बगावती का स्वागत मलामत से ही हो सकता है, भर्त्सना से ही हो सकता है। काफिर तो कहेंगे ही लोग, नरक तो भेजेंगे ही लोग, सूली तो देंगे ही लोग।
तो बुल्ले कहते हैं कि अब क्या करूं? सत्य की खोज तो करनी है। लोग काफिर कहते हैं तो कहने दो। मैं भी अपने से कहता हूं: बुल्ला, लोग कहते हैं काफिर, तू भी कह हां, कि हां काफिर हूं, कि बुल्ले तू भी हां में हां कह। तू भी कह कि मैं नास्तिक हूं, तू भी कह कि मैं अधार्मिक हूं। भर दे हां में हां। मगर खोज मत छोड़ देना। खोज तो जारी रहे।
जलना पड़ता है इस खोज में। जैसे परवाना जलता है शमा में, ऐसे ही जलना होता है। तिल-तिल जलना होता है।
श्रीचंद, तुम होशियारी कर रहे हो। होशियारी की तो चूकोगे, बुरी तरह चूकोगे। इस तरह की होशियारी का परिणाम मंहगा पड़ेगा।
हम  ही  में  थी    कोई  बात, याद    तुमको  आ सके
और तुम कहते हो कि तुम विमलकीर्ति हो। और तुम कहते हो कि तुम्हारा वैसा ही सम्मान और स्वागत हो जैसा विमलकीर्ति का हुआ था। विमलकीर्ति हो तो जरूर होगा।
हम ही में थी न कोई बात, याद न तुमको आ सके
तुमने हमें भुला दिया, हम न तुम्हें भुला सके
हम ही में थी न कोई बात...
सोचो। कहीं कुछ कमी होगी स्वयं में। नहीं तो मैं तुम्हें पुकार लूंगा। मैं तुम्हें बुला लूंगा। ये जो इतने लोग दुनिया के कोने-कोने से चले आए हैं, यूं ही नहीं चले आए हैं--पुकारे गए हैं, बुलाए गए हैं। और बहुत कीमत चुका कर आए हैं, सब कुछ छोड़ कर आए हैं।
और तुम तो कहीं दूर से आ भी नहीं रहे हो--यही भवानी पेठ, पुणे! और जहां तक मैं सोचता हूं, तुम अपनी साइकिल पर भी नहीं आते होओगे, किसी की साइकिल के पीछे बैठ कर आते होओगे।
हम ही में थी न कोई बात, याद न तुमको आ सके
तुमने हमें भुला दिया, हम न तुम्हें भुला सके
हम ही में थी न कोई बात...
तुम ही अगर न सुन सके, किस्सा-ए-गम सुनेगा कौन
किसकी जबां खुलेगी फिर, हम न अगर सुना सके
तुमने हमें भुला दिया...
होश में आ चुके थे हम, जोश में आ चुके थे हम
बज्म का रंग देख कर, पर न मगर हिला सके
तुमने हमें भुला दिया...
रौनके बज्म बन गए, लब पर शिकायतें रहीं
दिल में शिकायतें रहीं, लब न मगर हिला सके
तुमने हमें भुला दिया...
ऐसा हो कोई नामाबर, बात पे कान रख सके
सुन के यकीन कर सके, जा के उन्हें सुना सके
हम ही में थी न कोई बात...
हमने भी की थीं कोशिशें, हम न तुम्हें भुला सके
कोई कमी हमीं में थी, याद न तुमको आ सके
हम ही में थी न कोई बात...
शौके विसाल है यहां, लब पे सवाल है यहां
किसकी मजाल है यहां, हमसे नजर मिला सके
हम ही में थी न कोई बात, याद न तुमको आ सके
तुमने हमें भुला दिया, हम न तुम्हें भुला सके
हम ही में थी न कोई बात...
मत कहो कि तुम विमलकीर्ति की कोटि के हो। होओगे तो दिखाई पड़ जाओगे--दूर से दिखाई पड़ जाओगे। दीया जलता हो तो अंधेरे में दूर से चमकता है। और हीरा राह के किनारे पड़ा हो तो भी पत्थरों में दूर से दमकता है। तुम्हें कहने की कोई जरूरत नहीं, मैं पहचान लूंगा।
और तुम भी क्या कहने आए! यह कहने आए कि मुझे करीब तो आने दें, शिष्य तो बनने दें, लेकिन कोई मेरे ऊपर लांछन न लगे, कोई मलामत न हो, कोई गालियां न पड़ें, कोई पत्थर न मारे जाएं, मुझे कोई चोट न लग जाए। सत्य तो चाहता हूं, लेकिन एक कदम उठाना नहीं चाहता इस मार्ग पर। इसलिए संन्यास नहीं।
संन्यास क्या है? सत्य के मार्ग की यात्रा है। और जो भी व्यक्ति भीड़ के रास्तों को छोड़ कर चलेगा, भीड़ उससे बदला लेगी। जिस भीड़ का हिस्सा होगा, वही भीड़ उससे बदला लेगी। जीसस को यहूदियों ने सूली दी, किसी और ने नहीं। क्योंकि यहूदियों की भीड़ ही उनसे नाराज थी। यहूदियों की भीड़ को छोड़ कर जीसस चल पड़े अपने रास्ते पर। भीड़ के पास सत्य है ही नहीं, कभी नहीं रहा। अगर भीड़ के पास सत्य होता तो यह दुनिया स्वर्ग होती। सत्य तो कभी मुश्किल से किसी के हाथ लगा है। और जिसके भी हाथ लगा है, भीड़ उससे नाराज हुई है,र् ईष्या से भर गई है। भीड़ ने उससे हर तरह से प्रतिशोध लिया है। जीसस को सूली यूं ही नहीं लगा दी; यह प्रतिशोध है। यह भीड़ का कहना है कि देख, भीड़ को छोड़ने और भीड़ से विपरीत जाने, भीड़ से अन्यथा जाने का क्या परिणाम होता है! अब फल भोग!
लेकिन जिसको सत्य मिला है, उसे इन कांटों में भी फूल ही दिखाई पड़ते हैं। उसे इन पत्थरों में भी स्वागत और सत्कार ही मालूम होता है। जीसस मरते क्षण भी सूली पर यही कहते हुए मरे कि हे प्रभु, इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं!
सुकरात को किसने जहर पिलाया? एथेंस नगर के निवासियों ने। यूनान में नगर राज्य थे। यूनान पूरा एक राज्य नहीं था। एक-एक नगर अलग-अलग राज्य था। एथेंस का अलग राज्य था। जिस न्यायाधीश ने सुकरात को जहर पिलाने की सजा दी थी, उसने सुकरात को ये विकल्प भी दिए थे। पहला विकल्प यह दिया था कि अगर तू एथेंस छोड़ कर चला जाए तो हमें कोई मतलब नहीं। तू एथेंस की सीमा के बाहर हो जा, फिर तुझे कोई सजा न दी जाएगी।
यह जरा सोचने जैसा है। अगर सुकरात खतरनाक आदमी है तो सजा मिलनी ही चाहिए--एथेंस में रहे कि एथेंस के बाहर रहे। नहीं लेकिन, एथेंस की भीड़ को नाराजगी इस बात की है कि हमारा होकर, हमारा हिस्सा होकर, और हमसे अलग चलने की हिम्मत और जुर्रत! यह हम बरदाश्त न कर सकेंगे। हां, एथेंस छोड़ दे, फिर इसे जो करना हो करे। न हम देखेंगे, न हमें दर्द होगा। न हम सुनेंगे, न हमें चिंता होगी। हट जाए, आंखों से ओझल हो जाए।
लेकिन सुकरात ने इनकार कर दिया। सुकरात ने कहा, क्या फर्क पड़ेगा, थोड़े-बहुत दिन में वहां भी यही झंझट खड़ी हो जाएगी। वहां भी भीड़ है। थोड़े-बहुत दिन राहत रहेगी, लेकिन सत्य तो कहीं भी अड़चन पाएगा। क्योंकि जिंदगी तो असत्य के रंग में रंगी है। यहां तो झूठ का कारोबार चल रहा है। यहां तो झूठ की पूजा है। झूठ आदृत है, सत्य अनादृत है। झूठ सिंहासन पर है, सत्य सूली पर है।
मंसूर को मुसलमानों ने मारा। सरमद को मुसलमानों ने काटा। बुद्ध को हिंदुओं ने मार डालने की कोशिश की। महावीर के कानों में हिंदुओं ने ही खीले ठोंके।
यह आश्चर्य की बात है कि जिस भीड़ में कभी किसी व्यक्ति को सत्य मिल गया, वही भीड़ उससे नाराज हो गई। जरूर कुछ गहरे कारण होंगे।
पहला कारण तो यह है--सबसे बड़ा कारण--कि जब भी कोई व्यक्ति ज्योतिर्मय हो जाता है तो बाकी सारे लोग जो अंधेरे में खड़े हैं, उन्हें अपने अंधेरे की पहली दफा पहचान होती है। और कोई भी अंधेरे में होना नहीं चाहता। कोई नहीं चाहता कि मुझे पता चले कि मैं अंधा हूं, अंधेरे में हूं। आंख वाले के साथ तुम्हें अपने अंधेपन का पता चलता है। और अंधों के साथ रहो तो पता नहीं चलता। वे भी अंधे, तुम भी अंधे; उनकी भी भाषा वही, तुम्हारी भी भाषा वही। दोनों की भाषा में एक तालमेल होता है, एक संगति होती है, एक गणित होता है। आंख वाला आदमी तुम्हें बेचैनी देने लगता है, तुम्हें परेशान करने लगता है। वह प्रकाश की बातें करने लगता है। वह इंद्रधनुषों की बातें करने लगता है। वह चांदत्तारों की चर्चा छेड़ता है। वह ऐसे गीत उठाता है, ऐसे नग्मे गाता है कि जिनसे तुम्हें लगता है कि अरे! तो हमारी जिंदगी में कुछ भी नहीं--न चांद, न तारे, न सूरज, न इंद्रधनुष, न फूलों के रंग! हमारी जिंदगी में कुछ भी नहीं!
तो सबसे पहला जो भाव पैदा होता है वह यह कि इस आदमी को अलग कर दो, रास्ते से हटा दो। इसके कारण ही हमें बेचैनी पैदा हो रही है, असंतोष पैदा हो रहा है। हम तो संतुष्ट थे। हमें तो पता ही न था कि चांद भी होता है, कि तारे भी होते हैं, कि आकाश में इंद्रधनुष भी रंगीनियां फैलाते हैं, कि फूलों में भी रंग होते हैं। हमें तो पता ही न था। इस आदमी ने कहां की बात छेड़ दी! किस लोक की बात छेड़ दी! और यह आदमी जरूर गलत होना चाहिए। गलत इसलिए होना चाहिए कि हमारी भीड़ है, हमारी संख्या ज्यादा है। और हमें खयाल है कि जिसकी संख्या ज्यादा है उसके पास ही सत्य है। सत्य जैसे मतों से तय होता है! सत्य की भी जैसे कोई राजनीति है! सत्य भी जैसे कोई लोकतंत्र है!
अगर लोकतंत्र के हिसाब से सत्य तय होता हो, तो बुद्ध कभी के हार चुके, तो सुकरात कभी का समाप्त हो चुका, तो जीसस को सूली पूर्णरूपेण लग चुकी। अब कोई पुनरुज्जीवित होने का उपाय नहीं है। अच्छा है कि सत्य कोई लोकतांत्रिक ढंग से तय नहीं होता।
मुझे रोज पत्र आते हैं। मेरे खिलाफ रोज अखबारों में लेख निकलते हैं--सारी दुनिया के कोने-कोने में। उन सारे विरोधों में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण विरोध हैं, वे विचारणीय हैं। एक विरोध यह है कि मैंने स्वयं को ही भगवान घोषित किया, मैं स्वयं-घोषित भगवान हूं। यह भारी विरोध है।
अब सवाल यह है कि जीसस को किसने घोषित किया था? ईसाई यह एतराज उठाते हैं। तो मैं उनसे पूछता हूं, कि जीसस को किसने घोषित किया था? हिंदू यह सवाल उठाते हैं। मैं उनसे पूछता हूं कृष्ण को किसने घोषित किया था? कोई कमेटी थी? कोई पंचायत थी? कोई पांच जनों ने मिल कर पंचायत की थी? कोई पंचों ने घोषणा की थी?
महावीर को किसने घोषित किया था कि वे भगवान हैं? जैन सवाल उठाते हैं। उनसे मैं पूछता हूं कि महावीर को किसने घोषित किया था? और आसान भी न था, क्योंकि महावीर के समय में...महावीर जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर हैं, तेईस हो चुके थे, चौबीसवें के लिए बहुत झगड़ा था। क्योंकि चौबीसवां हो गया कि फिर पच्चीसवें का तो उपाय नहीं है जैन शास्त्रों में। तो अकेले महावीर दावेदार नहीं थे, और भी दावेदार थे। मक्खली गोशाल था, संजय वेलट्ठीपुत्त था, अजित केशकंबली था; उन सबकी घोषणा थी कि हम भगवान हैं। कैसे तय हुआ यह? कोई चुनाव हुआ था? कोई मतदान हुआ था? कोई चुनाव अधिकारी नियुक्त हुआ था, जिसने तय किया कि नहीं महावीर ही तीर्थंकर हैं? किसने घोषणा की?
बुद्ध ने स्वयं घोषणा की है कि मैं परम बुद्ध हूं, मैंने परम संबोधि पा ली है! और कौन घोषणा करेगा?
लेकिन बौद्ध, हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, उन सबका मेरे साथ यही सवाल है कि आप स्वयं घोषणा किए हैं। तो क्या मैं दो-चार आदमियों के दस्तखत करवा लूं? करवा सकता हूं, कोई अड़चन नहीं। दो लाख मेरे संन्यासी हैं, तो दो लाख आदमी दस्तखत कर सकते हैं। फिर बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर तुम्हारे कृष्ण का, राम का, बुद्ध का और जीसस का कहां ठिकाना रहेगा? इनके पास तो कोई दस्तखत ही नहीं हैं, ये सब तो गए! गए काम से!
लेकिन यह दस्तखत की बात ही व्यर्थ है। क्या अंधों से पूछना पड़ेगा आंख वाले को कि मैं आंख वाला हूं या नहीं? कि हे अंधे भाइयो एवं बहनो, लाज रखो मेरी! कि प्यारे, दस्तखत कर दो! दस्तखत न बनें तो अंगूठे का निशान ही लगा दो! अरे तुम्हारा क्या बिगड़ता है, तुम तो अंधे हो ही! अगर मैं आंख वाला हुआ जा रहा हूं तुम्हारे दस्तखत से या तुम्हारे अंगूठे की छाप से, तो तुम्हारा क्या बिगड़ता है, हो जाने दो!
एक तो यह आलोचना कि भगवान की स्वयं घोषणा कैसे? इसमें यह बात मान ही ली गई कि भगवान होने की घोषणा किसी दूसरे को करनी पड़ेगी।
दूसरा करेगा तो गलत ही होगी। यह घोषणा तो स्वयं ही हो सकती है। यह घोषणा तो आत्मानुभव की है। मैंने अपने को जाना, अब मैं कैसे कहूं कि नहीं जाना? क्या झूठ बोलूं? मैंने अपने को पहचाना, मैं आनंदित हूं अपने भीतर, अब कैसे कहूं कि दुखी हूं? मैं स्वर्ग में हूं, क्या तुम्हें सिर्फ तृप्त करने को कहूं कि नरक में हूं? मैं समाधि के रस में डूब रहा हूं, क्या तुमसे कहूं कुछ और, जिससे तुम राजी हो सको? क्या तुम्हारे लिए झूठ बोलूं? एक यह आलोचना।
दूसरी आलोचना यह है कि कोई जीवित व्यक्ति भगवान कैसे हो सकता है?
यह भी बड़े मजे की बात है! मुर्दा भगवान हो सकता है, जिंदा भगवान नहीं हो सकता। इसलिए जो मर गए हैं, उनके संबंध में अगर एतराज उठाओ तो लोगों की भावनाओं को बड़ी ठेस पहुंचती है। अब यह बड़े आश्चर्य की बात है। मुझे गालियां दो और मेरे संन्यासियों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचती! मैं जिंदा हूं, इसलिए मुझे गालियां दी जा सकती हैं और मेरे किसी संन्यासी को हक नहीं है कि कहे कि उसकी भावना को ठेस पहुंचती है! लेकिन अगर मैं किसी की आलोचना कर दूं जो कि मर चुका--और आलोचना के लिए पूरा तर्क देने को राजी हूं, पूरा विश्लेषण करने को राजी हूं--तो भी भावना को ठेस पहुंच जाती है। तर्क का सवाल ही नहीं, भावना को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए! सत्य मत बोलो; अगर झूठ से लोगों की भावनाओं को खूब रस मिलता है तो झूठ बोलो।
अब मैं लाख उपाय करूं तो भी कुछ लोगों को तो मैं ज्ञानी स्वीकार नहीं कर सकता। उनके वक्तव्य, उनका जीवन, उनकी सारी चर्या, उनका सारा बोध कुछ और गवाही दे रहे हैं, कैसे स्वीकार कर लूं? लेकिन किसी की भावना को ठेस न पहुंच जाए! तो भावना की फिक्र की जाए या सत्य की फिक्र की जाए? और अगर सत्य से तुम्हारी भावना को ठेस पहुंचती है तो अपनी भावना बदल लो। भावना तुम्हारी है। मैंने कोई ठेका नहीं लिया कि तुम्हारी भावना को ठेस नहीं पहुंचाऊंगा। मैं तो जो है वैसा कहूंगा।
अब अंधे आदमी को मत कहो अंधा, सूरदास जी कहो, मगर क्या फर्क पड़ता है? किसी को कहो सूरदास जी, वह फौरन समझ जाएगा अंधा कह रहे हो। कह कर देखो कि सूरदास जी, कहां जा रहे? वह फौरन लकड़ी लेकर खड़ा हो जाएगा कि किससे कहा तुमने! अगर आंख वाला होगा तो कहेगा, तुमने मुझे अंधा कहा? अंधा भी जानता तो है कि सूरदास का मतलब क्या, लेकिन बेचारा करे क्या, क्या झगड़ा खड़ा करे!
मगर अच्छे शब्दों से भी क्या होगा? मेरे पास पत्र आते हैं कि आप सभी धर्मों की प्रशंसा करें तो अच्छा हो।
क्यों? झूठ की प्रशंसा करवाना चाहते हो! मुझे अगर कुछ गलत दिखाई पड़ेगा तो मैं गलत कहूंगा। और मेरे साथ जिन्हें खड़ा होना है उनको तैयारी दिखानी पड़ेगी कि मुझे गालियां पड़ेंगी तो उनको भी गालियां पड़ेंगी। मेरे साथ खड़े होने का मतलब है: एक आग से गुजरना।
श्रीचंद सखरानी, शिष्य होना है तो आग से गुजरने की तैयारी दिखाओ।
और यह मत समझना कि संन्यास का केवल इतना ही मतलब है कि तुमने गैरिक वस्त्र पहन लिए और माला पहन ली, इतने से संन्यास पूरा हो गया। यह तो केवल तुम्हारी तरफ से एक प्रतीक है कि अब मैं राजी हूं पागल होने को। यह तो सिर्फ पागलपन का प्रतीक है, और कुछ भी नहीं। यह तो इस बात का प्रतीक है कि तुम्हारे साथ चलने में अगर पागल भी होना पड़े तो मैं राजी हूं। अगर तुम वस्त्र भी बदलने को राजी नहीं हो तो आत्मा को बदलने को क्या खाक राजी होओगे! अगर तुम माला भी अपने गले में नहीं डाल सकते मेरी तस्वीर वाली, तो कल जब लोग तुम्हें मेरे नाम से पुकारेंगे और गालियां देंगे, तब तुम कैसे सह पाओगे? यह तो सब आयोजन है, यह सब तो व्यवस्था है, एक उपाय है--इस बात की सूचना करवाने का तुमसे कि तुमने बगावत स्वीकार कर ली है, कि तुम मेरे साथ खड़े हो, कि अब जो भी इसका परिणाम हो तुम भोगने को राजी हो।
और जो परिणाम भोगने को राजी है वही मेरे पास आ सकता है। पास आने की कीमत तो चुकानी ही होगी। निंदा सहनी होगी, बदनामी सहनी होगी, झंझटें उठानी पड़ेंगी। और तुम देखते हो, जो मेरे पास आए हैं कितनी झंझटें उठा कर आए हैं!
कल एक युवक आया, अपनी पत्नी का पत्र लेकर आया है हालैंड से। उसकी पत्नी ने लिखा है कि मैं दो में से एक ही बात स्वीकार कर सकती हूं: अगर इस व्यक्ति को मेरा पति रहना है तो आपका संन्यास छोड़ना पड़ेगा; और अगर इसको संन्यासी रहना है तो मुझे छोड़ना पड़ेगा।
उस युवक से मैंने पूछा, क्या तेरे इरादे हैं?
उसने कहा, इरादे का सवाल ही नहीं है, मैं तो पत्नी को छोड़ कर ही आ गया हूं। क्योंकि जो मेरे संन्यास को स्वीकार न कर सके वह क्या खाक मुझे स्वीकार करेगी! जो मेरी जीवन-शैली को स्वीकार न कर सके, सम्मान न दे सके...मैं उससे नहीं कह रहा हूं कि तू संन्यासी हो जा, मैं उसके बिना संन्यासी हुए उसे स्वीकार कर रहा हूं, तो उसे क्या अड़चन है मेरे संन्यास से?
और जहां प्रेम में शर्त आ जाती है वहां प्रेम नहीं है। उस युवक की आंखों में आंसू थे। उसके हृदय में उस स्त्री के लिए प्रेम है। उसने चाहा होता कि वह उसकी होती। उसने चाहा होता कि वह उसकी ही होती। लेकिन यह बात नहीं बन सकी। क्योंकि युवती की शर्त है। शायद ईसाइयत में मजबूती से रंगी होगी; शायद पुरानी धारणाएं भारी होंगी। शायद सोचा होगा कि प्रेम के बहाने इस आदमी पर पूरा कब्जा कर लो।
इतना तो साफ है, इस युवक को अपनी पत्नी से प्रेम है। लेकिन इससे भी बड़ी बातें हैं। जीवन में प्रेम से भी बड़ी बातें हैं। स्वतंत्रता प्रेम से भी बड़ी बात है। इसलिए हमने परम अवस्था को मोक्ष कहा है। मोक्ष यानी परम स्वतंत्रता, परम मुक्ति।
संन्यास तो सिर्फ पहला कदम है। और पहले कदम पर ही अगर तुम डगमगा गए तो आगे की यात्रा कैसे करोगे? तुम कहते हो कि मुझे उस पार तो ले चलो, लेकिन नाव में मैं नहीं बैठूंगा; मुझे उस पार तो ले चलो, लेकिन मैं इस तट को नहीं छोडूंगा; मुझे उस पार तो ले चलो, लेकिन ये जंजीरें--जिन्हें तुम जंजीरें कहते हो, मैं जंजीरें नहीं मानता, ये तो मेरे आभूषण हैं--मैं इनको कैसे छोड़ सकता हूं?
श्रीचंद सखरानी, थोड़ा सोचो--तुमने क्या पूछा है? इस पर पुनर्विचार करना।
शिष्यत्व का अर्थ ही होता है: अब मैं सीखने को झुका, राजी हुआ। और जो झुका, जिसने सिर झुकाया, अब शर्त नहीं रख सकता है, अब सौदा नहीं कर सकता है।
और इतना तुम पक्का समझ लेना कि विमलकीर्ति तुम नहीं हो। वैसा साहस तुममें कहां? वैसी छाती तुममें कहां? और विमलकीर्ति तुम होते तो पहली तो बात, पूछते नहीं; पूछने की जरूरत ही न पड़ती, मैं तुम्हें पहचान ही लेता। तुम लाख छिपने की कोशिश करते तो भी पहचान लिए जाते। विमलकीर्ति जैसी क्षमता के लोग छिपते नहीं हैं।
तुम्हें यह भी कहानी स्मरण दिला दूं, शायद तुम्हें पता न हो, क्योंकि विमलकीर्ति की जो मैंने कहानी कही वह तो एक कहानी है, और भी बहुत कहानियां विमलकीर्ति के साथ जुड़ी हुई हैं। दूसरी कहानी यह है कि विमलकीर्ति एक वृक्ष के नीचे बैठा है। मंजुश्री उस वृक्ष के पास से गुजरते हैं। दूसरे भिक्षु तो दूर से ही देख कर कि विमलकीर्ति बैठा हुआ है, बच जाते हैं, कन्नी काट जाते हैं, यहां-वहां से निकल जाते हैं। क्योंकि विमलकीर्ति की आदत कुछ ऐसी थी कि किसी भी बात में से बात निकाल लेता था और अड़चन खड़ी कर देता था। लेकिन मंजुश्री भी हिम्मतवर आदमी था। थोड़ा तो डरा, लेकिन बचना ठीक नहीं मालूम पड़ा, कायरता मालूम पड़ी, इसलिए निकला।
विमलकीर्ति ने उसे देखा और पूछा, मंजुश्री, कहां जा रहे हो?
मंजुश्री ने कहा, भगवान के दर्शन को जा रहा हूं।
और विमलकीर्ति ने कहा, भगवान भीतर है। आंख बंद कर और बैठ यहीं! अगर भगवान के दर्शन को जा रहा है तो आंख बंद कर और बैठ यहीं! अब हिलना नहीं, डुलना नहीं; कहीं जाना नहीं, आना नहीं। आना-जाना क्या! अरे क्या आवागमन लगा रखा है!
मंजुश्री बैठा, मगर कब तक बैठे! उसको जाना है भगवान के दर्शन को। उसके कहा, अब आज्ञा दें। और उसने कहा कि अब बैठा ही हूं आपके पास तो एक प्रश्न बहुत दिन से मेरे मन में है वह पूछ लूं--कि आप भगवान से संन्यस्त क्यों नहीं होते? दीक्षा क्यों नहीं लेते?
विमलकीर्ति ने जो कहा, याद रखना उसे। श्रीचंद, खासकर तुम उसे याद रखना।
विमलकीर्ति ने कहा, वे जिस दिन योग्य समझेंगे, बुला लेंगे। मैं खुद अपनी योग्यता का किस मुंह से जाकर निवेदन करूं? मैं कैसे कहूं कि मैं इस योग्य हूं कि मुझे शिष्य की तरह स्वीकार कर लें? वे जानते हैं। जरूरत होगी, योग्यता होगी, पात्रता होगी, निश्चित ही पुकार लेंगे।
कहते हैं विमलकीर्ति की आंखों में आंसू आए। मंजुश्री ने कहा, आपकी आंख में और आंसू! विमलकीर्ति ने कहा, प्रतीक्षा करता हूं उस दिन की जिस दिन वे बुलाएंगे और मुझे दीक्षा देंगे।
लेकिन बुद्ध ने कभी विमलकीर्ति को बुलाया नहीं, दीक्षा दी नहीं। जरूरत थी नहीं। विमलकीर्ति दूर था ही नहीं। इसलिए न विमलकीर्ति ने प्रार्थना की, न बुद्ध ने उसे दीक्षा दी। मगर बात हो गई। विमलकीर्ति मुक्त होकर विदा हुआ, परम मुक्त होकर विदा हुआ।
स्वामी विजय भारती ने एक प्रश्न पूछा था कि यह कैसी अजीब बात है, ये फकीरों के क्या ढंग कि मंजुश्री तो गया था स्वास्थ्य पूछने, कुशल-क्षेम पूछने विमलकीर्ति से। उसने इतना ही पूछा था कि आपका स्वास्थ्य कैसा है? सीधी-सादी बात थी, सीधा-सादा उत्तर दे देना था--कि ठीक हूं या ठीक नहीं हूं। लेकिन यह क्या बात में से बात निकाल दी! स्वास्थ्य का क्या से क्या अर्थ कर दिया! विमलकीर्ति बोला, स्वास्थ्य कैसा! अरे मैं तो सदा स्वयं में स्थित हूं। स्वास्थ्य यानी स्वयं में स्थित होना। और आत्मा कभी अस्वस्थ होती है? मंजुश्री, तू भी कैसी मूर्खतापूर्ण बातें करता है!
विजय भारती ने पूछा है कि यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि सीधा-सादा सवाल था कि आपकी तबीयत कैसी है? इसमें से यह प्रसंग क्यों उठा दिया?
इस प्रसंग के उठाने में राज है। इस तरह विमलकीर्ति ने मंजुश्री को एक अवसर दिया, एक मौका दिया--समझने का। मंजुश्री तो शरीर की ही बात पूछ रहा था और विमलकीर्ति शरीर का ही उत्तर देकर टाल भी सकता था। मगर फकीरों के अपने ढंग हैं, अपने राज हैं। वे कोई भी अवसर चूकते नहीं। जिस अवसर से भी तुम्हारे जीवन में क्रांति आ सके, थोड़ा तुम्हें धक्का दिया जा सके, थोड़ी एक किरण तुम्हारे अंधेरे में उतर सके, उस अवसर को चूकना उचित नहीं। मंजुश्री ने तो कुछ और पूछा था, विमलकीर्ति ने कुछ और कहा। लेकिन मंजुश्री चरण छूकर लौटा, धन्यवाद देकर लौटा। क्योंकि उसे पहली दफा यह खयाल आया कि सच ही बीमार होता है शरीर, जन्म होता है शरीर का, मृत्यु होती है शरीर की। आत्मा तो सदा स्वस्थ है; उसकी वैसी बीमारी, कैसा बुढ़ापा, कैसी मृत्यु?
और विजय भारती, बुद्ध ने भेजा ही इसलिए था, ताकि मंजुश्री की यह जो थोड़ी-बहुत शरीर से, मन से, आसक्ति रह गई है, वह भी टूट जाए। उसके लिए विमलकीर्ति जैसा व्यक्ति चाहिए था, जो उठाए तलवार और इस तादात्म्य को दो टूक कर दे। नहीं तो बुद्ध को भेजने की कोई जरूरत भी न थी। क्या बुद्ध को पता नहीं था कि शरीर ही मरता है, शरीर ही बीमार होता है? बुद्ध ने मंजुश्री को एक अवसर दिया और विमलकीर्ति ने उस अवसर का ठीक-ठीक उपयोग किया। मंजुश्री आया तो उसने बुद्ध को धन्यवाद दिया कि आपने मुझे भेजा। और मैं चला गया हिम्मत करके, अच्छा हुआ। विमलकीर्ति आदमी अदभुत है। उसने छोटी सी बात में से भी बड़ा इशारा किया।
पारखियों के हाथ में कंकड़-पत्थर भी हीरे हो जाते हैं और बुद्धुओं के हाथ में हीरे भी कंकड़-पत्थर रह जाते हैं।
श्रीचंद, जरा सोचना। कहीं हीरे कंकड़-पत्थर ही न रह जाएं! यह अवसर है कि चाहो तो कंकड़-पत्थरों को हीरे बना सकते हो। मैं अवसर दे रहा हूं; चूकना या न चूकना तुम्हारे हाथ है।

आज इतना ही।

वच वच वच


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