आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो
दिनांक 04-फरवरी, सन्
1981,
ओशो आश्रम, पूना।
प्रवचन-तीसरा-(फिकर गया सईयो
मेरियो नी)
प्रश्न-सार
1 आद्य
शंकराचार्य की एक और प्रश्नोत्तरी उपस्थित करने के लिए क्षमा चाहता हूं--
आपसे और
शंकराचार्य से भी।
उपस्थिते
प्राणहरे कृतान्ते
किमाशु कार्यं सुधिया प्रयत्नात्।
वाक्कायचित्तेः
सुधिया यमघ्नं
मुरारिपादांबुजचिंतनं च।।
इस प्रश्न
का उत्तर देने की अनुकंपा करें।
2 दुख का मूल
आधार क्या है? आनंद इतना दुर्लभ क्यों है?
अनुकंपा
करें और मुझे दुख-निरोध का उपाय समझाएं।
पहला प्रश्न: भगवान,
आपके सामने आद्य शंकराचार्य की एक और
प्रश्नोत्तरी उपस्थित करने के लिए क्षमा चाहता हूं--आपसे और शंकराचार्य से भी।
उपस्थिते प्राणहरे कृतान्ते
किमाशु
कार्यं सुधिया प्रयत्नात्।
वाक्कायचित्तेः सुधिया यमघ्नं
मुरारिपादांबुजचिंतनं
च।।
प्राण हरण करने वाले काल के उपस्थित होने पर
सदबुद्धि वालों को यत्नपूर्वक तुरंत क्या करना चाहिए? सुखदायक और मृत्यु का नाश करने वाले भगवान कृष्ण के चरण-कमलों का मन,
वचन और शरीर से ध्यान।
भगवान, इस प्रश्न का उत्तर
देने की अनुकंपा करें।
सहजानंद,
शंकराचार्य से क्षमा मांगो, वह तो ठीक; मुझसे क्षमा मांगने की कोई भी जरूरत नहीं। शंकराचार्य से क्षमा मांग लेना
जरूरी है, क्योंकि तुमने आद्य शंकराचार्य को करीब-करीब खाद्य
शंकराचार्य बना दिया है।
यह प्रश्न, और यह उत्तर! प्रश्न तो सुंदर है। प्रत्येक व्यक्ति
का आंतरिक, प्रत्येक व्यक्ति का आत्यंतिक, जीवंत प्रश्न है। लेकिन उत्तर दो कौड़ी का है। लेकिन दो कौड़ी के उत्तर भी
हमें मूल्यवान मालूम होते हैं--अगर परंपरागत हों, बार-बार
सुने हुए हों। असत्य भी बार-बार सुनने पर सत्य जैसा प्रतीत होने लगता है। असत्य की
पुनरुक्ति भी उसे सत्य होने का आभास दे देती है। इसलिए साधारणतः शंकराचार्य का
उत्तर भी सार्थक मालूम पड़ेगा, यूं बिलकुल व्यर्थ है। और मेरी
दृष्टि के कारण ही व्यर्थ नहीं है, शंकराचार्य की स्वयं की
जीवन-दृष्टि का अगर हम विचार करें तो भी व्यर्थ है। उस संदर्भ में भी व्यर्थ है।
एक ओर तो शंकराचार्य कहते हैं: जगत माया है, असत्य है, स्वप्नवत है। और दूसरी तरफ: कृष्ण के
चरण-कमल! अगर जगत माया है, तो जो भी बाहर है सब माया हो गया।
कृष्ण के चरण-कमल भी बाहर हैं, भीतर तो नहीं। वे भी झूठ हो
गए, असत्य हो गए।
लेकिन धर्म के नाम पर इस तरह की मूढ़ताएं और इस तरह के अंधे विश्वास, इस तरह की अबुद्धिपूर्ण धारणाएं प्रचलित रही हैं कि हमने धीरे-धीरे उन पर
विचार करना ही छोड़ दिया।
अगर जगत माया है, तो शंकराचार्य तीर्थयात्रा कैसे
करते हैं? क्योंकि सब तीर्थ तो जगत में हैं। जगत माया है,
और गंगा में स्नान करने जाते हैं--पवित्र होने के लिए। गंगा माया
नहीं है, काशी माया नहीं है! जगत माया है, लेकिन वेद माया नहीं है। यह कैसा असंगत दृष्टिकोण है?
इससे तो बेहतर झेन फकीर रिंझाई, जिसने रात ठंडी पाकर
जापान के एक मंदिर में बुद्ध की काष्ठ-प्रतिमा को जला कर आंच ताप ली। मंदिर का
पुजारी जागा, आग जली देख कर घबड़ाया। देखा तो भरोसा न आया।
पूछा रिंझाई से कि क्या तुम पागल हो? तुमने भगवान बुद्ध की
प्रतिमा को जला लिया--आंच तापने के लिए! होश है, तुमने क्या
किया, कैसा पाप किया?
रिंझाई हंसा। अपने पास ही पड़े डंडे को उठा कर उसने राख हो गई बुद्ध की
प्रतिमा में कुछ खोजना शुरू कर दिया। पूछा मंदिर के पुजारी ने, क्या खोजते हो?
रिंझाई ने कहा, भगवान की अस्थियां खोजता हूं।
फिर तो पुजारी को भी हंसी आ गई। उसने कहा, तुम पागल सुनिश्चित हो। अरे लकड़ी की प्रतिमा में कहीं अस्थियां होती हैं?
रिंझाई ने कहा, फिर तुम उतने नासमझ नहीं जितना मैंने सोचा था। अभी
रात बहुत बाकी है और सर्दी बहुत है। और मंदिर में दो प्रतिमाएं और हैं, उनको भी उठा लाओ। मैं भी तापूं, तुम भी तापो। क्यों
सर्दी में ठिठुर रहे हो? लकड़ी ही है, प्रतिमा
बना लेने से कोई प्रतिमा नहीं बन जाएगी।
यह रिंझाई कहीं ज्यादा समाधि को उपलब्ध मालूम होता है, बजाय शंकराचार्य के। एक ओर कहते हैं जगत माया, और
दूसरी ओर कहते हैं कि जब मृत्यु द्वार पर खड़ी हो जाए तो भगवान कृष्ण के चरण-कमलों
का मन, वचन और शरीर से ध्यान।
पहली तो बात यह कि जो व्यक्ति जानता हो कि आत्मा अमर है वह मान ही
नहीं सकता कि मृत्यु कभी द्वार पर खड़ी होती है। जिसने जाना आत्मा की अमरता को, उसने जान लिया साथ ही मृत्यु की असत्यता को। दोनों बात एक साथ तो नहीं हो
सकतीं। मैं अगर अमृत हूं तो मृत्यु कैसी? मृत्यु तो इस जगत
में सबसे बड़ा झूठ है।
शंकराचार्य इस जगत को तो झूठ कहते हैं, जो कि भलीभांति सत्य
है, पूरी तरह सत्य है। प्यास लगती है तो इसी जगत के पानी को
पीते हैं। और भूख लगती है तो इसी जगत में भिक्षा मांगने निकलते हैं। और विवाद करना
होता है तो इसी जगत की यात्रा पर दिग्विजय करने को निकलते हैं, दूर-दूर पंडितों को हराने जाते हैं। अगर यह सब सपना है, तो केरल से चल कर मंडला तक आना मंडन मिश्र से विवाद करने, पागलपन नहीं तो और क्या है? कैसा मंडला! कैसे मंडन
मिश्र! जब जगत ही असार है तो क्या इस जगत में मंडला सार है? और
मंडला में बसे मंडन मिश्र सार हैं? और उनको हराने में कोई
अर्थ है? और उन पर जीत पा लेने में कोई मूल्य है? जो है ही नहीं उसको जीत लिया तो क्या खाक जीता! जो था ही नहीं उसे अगर हरा
दिया तो दिग्विजय क्या हो गई?
फिर सिकंदर में और शंकराचार्य में भेद क्या है? माना कि यात्राएं अलग, मगर दोनों की यात्राएं विजय
यात्राएं हैं। सिकंदर तलवार लेकर चला है, शंकर तर्क लेकर चले
हैं। मगर तर्क हो कि तलवार, आकांक्षा तो एक है--विजय पानी है,
दूसरे को हराना है।
लेकिन दूसरा होना चाहिए न!
शंकर का पूरा जीवन तो सिद्ध करता है कि जगत सत्य है; सिर्फ सिद्धांत में असत्य है। और मृत्यु जैसी असत्य चीज को सत्य मान लिया
उन्होंने। संसार, जो कि बहुत सत्य है, उसे
असत्य कहते रहे। और मृत्यु जो कि है ही नहीं...क्योंकि कोई कभी मरा ही नहीं,
न कभी कोई मर सकता है। शरीर में तुम मेहमान हो। बहुत शरीरों में
मेहमान रहे हो, बहुत सरायों में ठहरे हो, लेकिन सराय तुम नहीं हो। जब तुम एक सराय छोड़ कर दूसरी सराय की तरफ जाते हो,
तो क्या रोते हो, चिल्लाते हो? कि भगवान कृष्ण के चरण-कमलों को याद करते हो--कि हे प्रभु, बचाओ! अब मैं एक सराय छोड़ कर दूसरी सराय में जा रहा हूं। अब अगर तुमने न
बचाया तो मैं डूबा। अब तो तुम्हीं सहारे हो, तुम्हीं
बचावनहार हो।
शरीर तो तुम नहीं हो। और मजा यह है कि शरीर भी नहीं मरता। क्योंकि
शरीर तो मिट्टी है। न शरीर मरता है, न आत्मा मरती है। फिर
मरता क्या है? मरता कोई भी नहीं, सिर्फ
संबंध टूटता है। शरीर और आत्मा का संबंध टूटता है।
शंकराचार्य से तो कहीं ज्यादा समझदारी की बात मुसलमान फकीर शेख फरीद
ने की। शेख फरीद के पास लोग आते थे और नारियल चढ़ा जाते थे। एक पंडित ने आकर फरीद
को पूछा, बाबा फरीद, ज्ञानी और अज्ञानी
में क्या भेद है?
फरीद तो सीधे-सादे आदमी थे। कहो कि गांव के गंवार। पंडित होते तो
वेदांत की और ब्रह्मचर्चा करते, कि कुछ सूफियाना बातें करते।
सीधी-सादे आदमी थे। उठाया एक नारियल और उस पंडित को दिया और कहा, इसे फोड़!
पंडित ने फोड़ दिया नारियल। थोड़ा हैरान भी हुआ कि मैं क्या पूछ रहा हूं
और यह पागल क्या दे रहा है! यह कोई जवाब हुआ, यह कोई मेरे प्रश्न
का समाधान हुआ?
लेकिन जैसे ही नारियल फूटा, फरीद ने कहा कि देख,
गिरी को साबित नहीं बचा सका तू, गिरी साबित
बचानी थी।
वह पंडित हंसने लगा। और उसने कहा, गिरी कैसे साबित बच
सकती है? नारियल कच्चा है। अभी खोल और गिरी जुड़े हैं। अगर
नारियल को फोडूंगा, अगर खोल तोडूंगा, तो
गिरी भी टूटेगी। कैसी बातें करते हो?
शेख फरीद ने कहा, ठीक। तो यह सूखा नारियल ले।
लेकिन देख, गिरी को बचाना।
सूखा नारियल था। आहिस्ता से उसने फोड़ा। नारियल तो टूट गया, लेकिन गिरी साबित बच आई। फरीद ने कहा, समझा कुछ?
उस पंडित ने कहा, क्या खाक समझूं! अरे नारियल से
मेरे प्रश्न का क्या संबंध?
फरीद ने कहा, फिर तू न समझ सकेगा। इतना ही फर्क है अज्ञानी में और
ज्ञानी में। अज्ञानी है कच्चा नारियल। अभी शरीर और आत्मा जुड़े-जुड़े मालूम होते
हैं। इसलिए चोट पहुंचती है। इसलिए मृत्यु मृत्यु जैसी मालूम होती है। ज्ञानी है
पका नारियल। खोल और गिरी अलग हो गए। तादात्म्य टूट गया। इसलिए मृत्यु भी मृत्यु
नहीं मालूम होती।
यह प्रश्न तो ठीक है सहजानंद।
उपस्थिते प्राणहरे कृतान्ते।
"जब मृत्यु आकर उपस्थित हो जाए...।'
जिसने पूछा वह तो अज्ञानी है। वह तो कच्चा नारियल है। उसे तो हमें
स्वीकार करना होगा कि उसका प्रश्न सार्थक है। उसके संदर्भ में प्रश्न अर्थपूर्ण
है।
उपस्थिते प्राणहरे कृतान्ते।
किमाशु
कार्यं सुधिया प्रयत्नात्।
"प्राण हरण करने वाले काल के उपस्थित होने पर
सदबुद्धि वालों को यत्नपूर्वक तुरंत क्या करना चाहिए?'
मृत्यु से घबड़ाया हुआ आदमी ऐसा पूछे, कुछ आश्चर्य नहीं।
लेकिन शंकराचार्य, जिनको कि लोग सोचते हैं ज्ञाता हैं,
सुधी हैं, प्रबुद्ध हैं, उनका उत्तर बड़ा साधारण। साधारण ही नहीं, गलत भी।
कहते हैं: "सुखदायक और मृत्यु का नाश करने वाले भगवान कृष्ण के
चरण-कमलों का मन, वचन और शरीर से ध्यान।'
वाक्कायचित्तेः सुधिया यमघ्नं
मुरारिपादांबुजचिंतनं
च।।
वे मान ही लेते हैं कि मृत्यु है। इनकार ही नहीं करते कि मृत्यु नहीं
है। स्वीकार ही कर लेते हैं कि मृत्यु है। और अगर मृत्यु है तो कृष्ण भी नहीं बचा
सकते, कोई भी नहीं बचा सकता। और अगर मृत्यु नहीं है तो
कृष्ण को बुलाने की क्या जरूरत है? खुद ही जागने की जरूरत है,
खुद ही होश से भरने की जरूरत है। खुद ही शांत और मौन इस तथ्य को
देखने की जरूरत है कि मैं देह नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं। और
बात पूरी हो जाएगी। मृत्यु ऐसे तिरोहित हो जाएगी, जैसे कोई
दीये को जला ले और अंधेरा तिरोहित हो जाए। भ्रांति थी, तादात्म्य
से पैदा हुई थी, तादात्म्य की छाया थी।
इसमें कृष्ण को बुलाने की क्या जरूरत है? और कृष्ण क्या करेंगे? कृष्ण कुछ भी नहीं कर सकते
हैं। सवाल है स्वयं कुछ करने का। मृत्यु तुम्हारी है, अमृत
का अनुभव भी तुम्हारा ही होना चाहिए। सवाल है निजता का। और तुम कृष्ण को बुलाओगे
भी तो किस कृष्ण को बुलाओगे? तुम्हारी कल्पना के ही कृष्ण
होंगे। तुम्हारी कृष्ण से मुलाकात क्या है? पहचान क्या है?
हुए भी हैं कि नहीं भी हुए हैं, यह भी पक्का
नहीं है। थे तो कैसे थे? क्या रंग-रूप था? सब रंग-रूप तुमने ही अपनी तूलिका से भरे हैं। तुम्हारी ही कल्पना का जाल
है। और तुम्हारी ही कल्पना का जाल कैसे तुम्हारी मृत्यु को तोड़ देगा? मृत्यु भी तुम्हारी कल्पना का जाल और कृष्ण भी तुम्हारी कल्पना के जाल,
एक कल्पना से दूसरी कल्पना को कैसे काटोगे? मिट्टी
से मिट्टी को धोने चले हो? कीचड़ से कीचड़ को धोने की आकांक्षा
रखते हो? पागल हो गए हो।
लेकिन क्या बात शंकराचार्य कहते हैं!
"सुखदायक और मृत्यु का नाश करने वाले...।'
मृत्यु है ही नहीं तो नाश कोई कैसे करेगा? और सुखदायक! जीवन में सुख और दुख का द्वंद्व ही तो संसार है। दुख न मिले
मुझे, सुख मिले मुझे--यही आकांक्षा तो हमारा रोग है। और इसी
आकांक्षा को लेकर लोग मंदिरों और मस्जिदों में भी जा रहे हैं, गिरजों और गुरुद्वारों में भी प्रार्थनाएं कर रहे हैं--दुख नहीं, सुख। मगर जब तक तुम सुख चाहते हो, दुख पाओगे,
क्योंकि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम असंभव को संभव
हुआ देखना चाहते हो? तुम चाहते हो रातें तो विदा हो जाएं और
दिन बच जाए, बस दिन ही बचे! जीवन तो बच जाए, मृत्यु विदा हो जाए। गुलाब के फूल ही बचें, कांटे न
रहें। जीत ही जीत हो, हार न हो।
अगर जीत बचानी है तो हार भी बचेगी। अगर सम्मान बचाना है तो अपमान भी
बचेगा। अगर स्वागत-समारंभ में रस है तो गालियां भी पड़ेंगी। हां, अगर दोनों को छोड़ सको तो इसी क्षण छुटकारा है। और किसी कृष्ण को बीच में
लाने की आवश्यकता नहीं है। न कृष्ण की, न क्राइस्ट की,
न महावीर की, न बुद्ध की, किसी की कोई जरूरत नहीं है। तुम समर्थ हो, तुम
पर्याप्त हो।
और क्या हैरानी की बात कही है। ऐसा लगता है, ध्यान की भी कोई अनुभूति नहीं है। कहा है कि--"चरण-कमलों का मन,
वचन और शरीर से ध्यान करो।'
ध्यान का अर्थ ही होता है: मन, वचन, शरीर के पार जाना। अगर शरीर, मन, वचन से ध्यान करोगे तो पार कैसे जाओगे? ध्यान का
अर्थ ही डगमगा गया। सारी बात ही गलत हो गई। यह ध्यान हुआ? शंकराचार्य
किस चीज को ध्यान कह रहे हैं? शरीर से कैसे ध्यान किया जाता
है? क्या पद्मासन में बैठ गए तो शरीर से ध्यान हो गया?
अभी-अभी कुछ दिन पहले दिगंबर जैनों के एक बड़े महात्मा, तथाकथित महात्मा, कानजी स्वामी मरे। उनकी तस्वीर
मरने के बाद अखबारों में छपी। बड़ी प्यारी तस्वीर थी। बड़ी खूबी की तस्वीर थी।
तस्वीर थी कि वे तो मर गए, अब उनकी लाश को लोग जबरदस्ती
तोड़-मरोड़ कर पद्मासन में बिठा रहे हैं। आठ-दस आदमी मेहनत कर रहे हैं। कोई टांग मोड़
रहा है, कोई हाथ मोड़ रहा है। मरे हुए देर हो गई, क्योंकि मरे वे बंबई में, फिर ले जाए गए सोनगढ़। इस
बीच शरीर अकड़ गया होगा। अब इस अकड़े शरीर को, अब चाहे
हड्डियां टूट जाएं, फ्रैक्चर हो जाए, कोई
फिक्र नहीं, मगर पद्मासन में बिठालना है। क्योंकि बिना
पद्मासन में बैठे अगर मर गए तो मोक्ष नहीं!
यह है शरीर का ध्यान! ये मर ही चुके बेचारे। ये जा ही चुके, नरक या मोक्ष, जहां भी गए हों। जहां इन्हें जाना है
जा चुके। मगर शिष्य अपना आखिरी कृत्य पूरा कर रहे हैं। वे शरीर से ध्यान करवा रहे
हैं। उन्होंने बिठा दिया। अब मार-पीट करोगे तो मुर्दा आदमी क्या करे! जिंदा हो तो
इनकार भी करे कि भई, क्या मेरी टांग तोड़े डाल रहे हो?
क्यों मेरी गर्दन मरोड़ रहे हो?
अब उनकी हालत मैंने देखी, बड़ी बुरी हालत थी।
मुंह लटक गया था। एक तरफ से मुंह खुला था, एक तरफ से बंद था।
लार बह रही थी। लेकिन जबरदस्ती उनकी गर्दन सीधी की जा रही थी। हाथ मोड़े जा रहे थे।
ठीक पद्मासन में बिठालना जरूरी है। और नंगा भी कर दिया था। क्योंकि जीवन भर...वे
यूं तो पैदा हुए श्वेतांबर, स्थानकवासी, लेकिन बातें करने लगे वे, एक जैन विचारक हुए
कुंदकुंद, उनकी। कुंदकुंद की बात श्वेतांबर धारणा के लोगों
को बिलकुल नहीं जमती। उन्होंने निकाल कानजी स्वामी को बाहर किया। तब से वे दिगंबर
हो गए। और दिगंबरों में उनकी खूब पूजा हुई! यह नियम है।
अगर ईसाई हिंदू हो जाए, तो ईसाई था तब तक दो
कौड़ी का था, हिंदू होते ही एकदम हीरा हो जाएगा। हिंदू ईसाई
हो जाए, जब तक हिंदू था, किसी को
पूछताछ नहीं थी उसकी, ईसाई होते ही से महात्मा हो जाएगा।
क्यों? क्योंकि जो हिंदू ईसाई हो गया उसने ईसाई होकर यह
सिद्ध कर दिया कि ईसाई धर्म हिंदू धर्म से श्रेष्ठ है, नहीं
तो क्यों चुना? जो ईसाई ईसाई से हिंदू हो गया, उसने सिद्ध कर दिया कि बाइबिल से गीता महत्वपूर्ण है। इसलिए सम्मान मिलेगा
हिंदुओं के द्वारा उसे। पैदाइशी हिंदू को जो सम्मान नहीं मिलता वह इस तरह से
बने-बनाए हिंदू को मिलता है, बने-बनाए ईसाई को मिलता है,
बने-बनाए मुसलमान को मिलता है।
कानजी स्वामी को अपमान मिला स्थानकवासी श्वेतांबरियों से, लेकिन दिगंबरियों ने उनको सिर पर उठा लिया। हालांकि एक अड़चन उनको सदा रही;
वह अड़चन यह थी कि वे नग्न नहीं थे। इसलिए उनको मुनि नहीं कह सकते
थे। तो उनके लिए नये-नये नाम खोज लिए थे--सदगुरुदेव, स्वामी
जी। मुनि नहीं कह सकते, क्योंकि मुनि तो नग्न होना चाहिए। और
उतनी हिम्मत वे भी नहीं जुटा सके कि नग्न हो जाएं। कुंदकुंद की बात तो वे करने लगे,
लेकिन वह सफेद वस्त्र का जो मोह था स्थानकवासी का, वह भी शेष रहा। संस्कार बड़े अदभुत रूप से जकड़े रहते हैं। तो पतला कर लिया
कपड़ा, बिलकुल मलमल पहनते थे, मगर फिर
भी झीनी बात रही।
असल में, श्वेतांबर धारणा यह है कि महावीर नग्न नहीं थे। उनको
इंद्रदेव ने ऐसा झीना कपड़ा पहनाया था कि दिखाई नहीं पड़ता था, अदृश्य था, पारदर्शी था। इसलिए लोग समझे कि नग्न। वे
नग्न थे नहीं, दैवीय वस्त्र पहने हुए थे। वह दैवीय वस्त्र
केवल श्वेतांबरियों को दिखाई पड़ता था। जिनको नहीं दिखाई पड़ता था वे अंधे दिगंबरी।
वे समझे कि नंगे खड़े हैं।
तो कानजी स्वामी ने वस्त्र तो नहीं छोड़ा, लेकिन झीना कर लिया।
अब इंद्र देवता का वस्त्र आजकल मिलता कहां? ढाका की मलमल भी नहीं मिलती--कि हाथी को ओढ़ा दो इतनी मलमल को, और छल्ले में से निकाल दो--वह भी नहीं मिलती। मगर जो भी हो सकता था,
जितनी पतली मलमल मिल सकती थी, पहनते थे
बेचारे।
लेकिन मर कर, दिगंबरियों को अड़चन थी कि अब क्या होगा? मोक्ष तो जा नहीं सकते। मलमल भी बाधा हो जाएगी, ध्यान
रखना। भला हाथी को ओढ़ाने वाली मलमल छल्ले में से निकल जाए, लेकिन
कानजी स्वामी उसको ओढ़ कर मोक्ष के द्वार में से नहीं निकल सकते। वहीं पकड़े
जाएंगे--कि खड़े रहो, ठहरो! मलमल बाहर छोड़ो! यह मल इत्यादि
लेकर भीतर कहां जा रहे हो? भीतर तो निर्मल हो जाओ, तब जा पाओगे। मलमल कैसी?
वे तो बेचारे मर गए। जिंदा रहे, तब तक तो छोड़ने की
बहुत कोशिश की। दिगंबर उनको समझाते रहे कि आप छोड़ दो वस्त्र। मगर वे भी न छोड़ पाए।
वे भी न छुड़ा पाए। अब मर ही गए तो उन्होंने छुड़ा लिए। उनको नग्न कर दिया। जिंदगी
भर जो मुनि नहीं थे, मर कर मुनि हो गए। और बिठा दिया पद्मासन
में। हो गया ध्यान--मन, वचन, काया से!
चले मोक्ष की तरफ!
शंकराचार्य की यह बात तो बड़ी ही बेढंगी है--कि मन, वचन और शरीर से ध्यान!
ध्यान का अर्थ ही होता है--मैं शरीर नहीं। फिर शरीर पद्मासन में बैठा
हो कि शवासन में लेटा हो, हर हालत में मैं शरीर नहीं। यह ध्यान का पहला कदम।
ध्यान का दूसरा कदम कि मैं विचार नहीं, मन नहीं, कल्पना नहीं, वासना नहीं। फिर चाहे मन में कोई भी
वासना चल रही हो, मोक्ष की भी वासना हो तो भी मैं वह वासना
नहीं। यह ध्यान का दूसरा कदम। और ध्यान का तीसरा कदम कि मैं भावना नहीं, भाव नहीं। फिर ये कृष्ण के चरण-कमल, यह तो भावना की
ही बात है। यह तो शुद्ध, मन का जो अंतिम गहरा से गहरा रूप
है--भाव; सूक्ष्म से सूक्ष्म--वही है। इन तीनों के पार हो
जाना है--शरीर के, मन के, हृदय के--तब
तुरीय अवस्था पैदा होती है, तब चौथी अवस्था पैदा होती है।
वही चौथी अवस्था ध्यान है।
प्रश्न बड़ा सुंदर था। सहजानंद, तुमने अनुवाद में भी
थोड़ा खराब कर दिया।
उपस्थिते प्राणहरे कृतान्ते।
पूछा था कि "जब प्राण हरण करने वाली मृत्यु उपस्थित हो जाए...'
किमाशु कार्यं सुधिया प्रयत्नात्।
"सुधिया--तब सुधीजन क्या करे?'
मगर सुधीजन को तो कुछ करने की जरूरत ही नहीं। जिसको सुध आ गई वह
सुधिया। लेकिन सहजानंद, तुमने अनुवाद कर दिया--सदबुद्धि वालों को।
यहां बुद्धि का सवाल ही नहीं है। सुधिया! इसमें बुद्धि की कोई गुंजाइश
नहीं। बुद्धि के अतिक्रमण का नाम सुधिया। जिसको कबीर ने, नानक ने सुरति कहा है, सुधि कहा है; जिसको बुद्ध ने स्मृति कहा है, सम्मासति कहा है।
सदबुद्धि नहीं। यहां कहां सदबुद्धि और कहां असदबुद्धि? अच्छे
और बुरे का भेद ही बुद्धि का है। यहां तो बुद्धि रही ही नहीं, सिर्फ सुधि रह गई, सिर्फ आत्म-स्मरण रह गया, अपनी प्रतीति रह गई, होने का भाव मात्र रह गया। अब
तो यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं। अब तो यह भी पता नहीं कि मैं क्या हूं। अब तो
जिसको पता हो सकता है, वह भी नहीं। सुधि तो समाधि की अवस्था
है।
बुल्लेशाह का यह वक्तव्य सुनो।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
न मैं मोमिन विच मसीतां, न मैं विच कुफर दीयां रीतां।
न मैं पाकां विच पलीतां, न मैं मूसा न फरऔन।।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
न मैं अंदर बेद कताबां, न विच भंग न शराबां।
न विच रहिंदा मस्त खवाबां, न विच जागन न विच
सौन।।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
न विच शादी न गमनाकी, न मैं विच पलीती पाकी।
न मैं आबी न मैं खाकी, न मैं आतश न मैं
पौन।।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
न मैं अरबी न लाहोरी, न हिंदी न शहर नगौरी।
न मैं हिंदू तुर्क पशौरी, न मैं रहिंदा विच
नदौन।।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
अव्वल आखर आप नू जाना, न कोई दूजा होर
पछाना।
मैथों होर न कोई सयाना, बुल्ला शाह किहड़ा है
कौन।।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
अर्थात, बुल्लेशाह कहते हैं कि मैं क्या जानूं कि मैं कौन
हूं!
बुल्ला की जाना मैं कौण!
ऐसा सन्नाटा है, ऐसी समाधि है, ऐसा शून्य है--कौन जाने, किसको जाने! जानने में
द्वैत होता है--जानने वाला और जो जाना जाए; ज्ञाता और ज्ञेय।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
बुल्लेशाह कहते हैं: "मैं क्या जानूं कि मैं कौन हूं!'
न जानने वाला है कोई, न जानने को है कोई। सब सन्नाटा
है, सब शून्य है, निराकार है। यह
अवस्था ध्यान की है।
"न मैं मस्जिद में मोमिन हूं।'
मत कहो कि मैं मुसलमान हूं। मेरा क्या लेना-देना मस्जिद से और मुसलमान
से!
"न मैं कुफ्र की रीतियों में हूं।'
और यह मत सोचना कि मैं मुसलमान नहीं हूं तो मैं मुसलमान विरोधी हूं।
वह भी मैं नहीं हूं।
"न मैं पापियों में पवित्र हूं, और न ही मैं मूसा हूं, न फरऔन हूं। बुल्ला कहता है,
मैं क्या जानूं मैं कौन हूं।'
मत पूछो! मुसलमान हूं, हिंदू हूं, ईसाई हूं, यहूदी हूं--मत पूछो।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
न मैं मोमिन विच मसीतां, न मैं विच कुफर दीयां
रीतां।
न मैं पाकां विच पलीतां, न मैं मूसा न फरऔन।।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
"न मैं वेद-किताबों में हूं और न भांग व शराब में।
न मैं सपनों में मस्त हूं, न सोने में और न जागने में।'
गजब की बात कही कि न मैं सपनों में मस्त हूं, न सोने में और न जागने में। मैं तो वह हूं जो जागने को भी देखता है,
जो जागने के भी पार है।
"बुल्ला कहता है, मैं क्या
जानूं मैं कौन हूं!'
न मैं अंदर बेद कताबां, न विच भंग न शराबां।
न विच रहिंदा मस्त खवाबां, न विच जागन न विच
सौन।।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
"न मैं खुशी में हूं और न गम में हूं, न पाप में हूं, न पुण्य में हूं; और न मैं पानी हूं या राख में हूं, न मैं आग में हूं
और न मैं पवन में हूं। बुल्ला कहता है, मैं क्या जानूं मैं
कौन हूं!'
"न मैं अरबी हूं, न लाहौरी
हूं, न हिंदी और न नागरी हूं; न मैं
हिंदू हूं या पेशावर का तुर्क हूं; और न मैं नदौन में रहता
हूं। बुल्ला कहता है, मैं क्या जानूं मैं कौन हूं!'
"आदि और अंत में मैं अपने को ही जानता हूं।'
बहुत प्यारा वचन है यह!
अव्वल आखर आप नू जाना, न कोई दूजा होर
पछाना।
पहले भी मैं अपने को ही जानता था, अब भी मैं अपने को
जानता हूं, अंत में भी मैं अपने को जानूंगा। मैं जानने वाला
मात्र हूं, जानने को कोई भी नहीं। ज्ञेय कोई भी नहीं;
मैं ज्ञान मात्र हूं--चिन्मात्र।
"आदि और अंत में मैं अपने को ही जानता हूं,
किसी दूसरे को नहीं।'
दूसरे को तो पहचानता ही नहीं।
"बुल्ला कहता है कि मुझसे ज्यादा सयाना और कौन है?'
सुधिया अर्थात सयाना। जिसको सुध आ गई।
"मुझसे ज्यादा सयाना और कौन है? इसलिए परमात्मा कौन है?'
गहरी बात बुल्ले ने कही: मुझसे सयाना कौन है? परमात्मा कौन है? परमात्मा कौन है? क्योंकि जब मैं ही सबसे ज्यादा सयाना हूं तो मुझसे पार और कुछ भी नहीं।
जिसने शरीर, मन और वचन, कामना, वासना और भावना का अतिक्रमण किया, वहां कहां कृष्ण
और कहां भक्त! वहां भक्त ही भगवान है। वहां कैसा भगवान?
"बुल्ला कहता है, मैं क्या
जानूं मैं कौन हूं!'
अव्वल आखर आप नू जाना, न कोई दूजा होर
पछाना।
मैथों होर न कोई सयाना, बुल्ला शाह किहड़ा है
कौन।।
बुल्ला की जाना मैं कौण!
शंकराचार्य का यह वचन: "प्राण हरण करने वाले काल के उपस्थित होने
पर सदबुद्धि वालों को यत्नपूर्वक तुरंत क्या करना चाहिए?'
पहली तो बात यह कि कोई जीवन को समाप्त करने वाली घड़ी नहीं आती।
तुम मुझसे पूछते हो सहजानंद कि आप इस प्रश्न का उत्तर देने की अनुकंपा
करें।
अगर मुझसे तुम पूछोगे तो मैं कहूंगा, प्राण हरण करने वाली
कोई घड़ी कभी आती नहीं। मृत्यु हुई ही नहीं--कभी नहीं हुई। मृत्यु इस जगत में सबसे
बड़ा असत्य है, भ्रांति है। और भ्रांति इसलिए पैदा हो जाती है
कि जैसे रस्सी में कोई सांप को देख ले और फिर दीया जलाए और सांप को न पाए, तो क्या हम कहेंगे कि सांप मर गया?
सांप था ही नहीं तो मरेगा कैसे? एक भ्रांति थी,
भ्रांति की कोई मृत्यु होती है? तुमने अपने को
शरीर मान लिया, इसलिए एक भ्रांति पैदा हो गई, रस्सी में सांप दिखाई पड़ने लगा। फिर मौत जिसको तुम कहते हो--संबंध टूटा,
शरीर से तुम अलग हुए--फिर तुम रोने-चिल्लाने लगे कि अब मैं मरा,
अब मैं मरा।
सिर्फ तादात्म्य टूट रहा है; न कोई मर रहा है,
न कोई मर सकता है। मुझसे अगर पूछो तो मैं कहूंगा, प्राण हरण करने वाला काल कभी उपस्थित ही नहीं होता।
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया
वो उन्हें याद करें जिसने भुलाया हो कभी
हमने उनको न
भुलाया न कभी
याद किया
परमात्मा को याद करने में भी भूल है। यह कृष्ण को याद करने की बात ही
भूल भरी है।
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया
वो उन्हें याद करें जिसने भुलाया हो कभी
हमने उनको न भुलाया न कभी याद किया
कोई समझाए ये क्या रंग है मैखाने का
आंख साकी की उठे, नाम हो पैमाने का
गर्मिए-शम्मा का अफसाना सुनाने वालो
रक्स देखा नहीं तुमने अभी परवाने का
किसको मालूम थी पहले से खिरद की कीमत
आलमे-होश पे एहसान है दीवाने का
चश्मे-साकी मुझे हर गाम पे याद आती है
रास्ता भूल न जाऊं कहीं मैखाने का
अब तो हर शाम गुजरती है उसी कूचे में
ये नतीजा हुआ नासेह तेरे समझाने का
मंजिले-गम से गुजरना तो है आसां इक बार
इश्क है नाम खुद अपने से गुजर जाने का
कोई समझाए ये क्या रंग है मैखाने का
आंख साकी की उठे, नाम हो
पैमाने का
याद करो परमात्मा को, यह बात ही गलत। भूलो मत परमात्मा
को, यह बात जरूर सही है। तुम थोड़ी दुविधा में पड़ोगे। तुम
कहोगे मैंने फिर पहेली कही। दोहरा दूं: याद करो परमात्मा को, यह बात ही गलत। याद किया हुआ परमात्मा दो कौड़ी का। क्योंकि याद तुम क्या
करोगे? तुम्हें याद नहीं है इसीलिए तो याद कर रहे हो। तो तुम
जो याद करोगे, वह कल्पना ही होगी, कोई
धारणा ही होगी। हिंदू हुए तो कृष्ण।
ये शंकराचार्य अगर ईसाई होते तो कभी भूल कर न कहते कि कृष्ण को याद
करो; कहते क्राइस्ट को याद करो। अगर ये बौद्ध होते तो कहते
बुद्ध को याद करो। अगर ये जैन होते तो कहते महावीर को याद करो। किसको याद करोगे?
याद करोगे तो कल्पना ही होगी। याद नहीं है इसीलिए तो याद करते हो।
और जब याद नहीं है तो जाहिर है कि तुम कल्पना ही कर सकते हो, और क्या करोगे?
मैं नहीं कहता कि परमात्मा को याद करो। मैं कहता हूं, बात कुछ ऐसी बनानी है कि परमात्मा भूले नहीं। यह बात बिलकुल और है,
अन्यथा है। परमात्मा भूले नहीं। याद नहीं करना है। शरीर से
तादात्म्य तोड़ना है, मन से नाता मुक्त करना है, हृदय के पार उठना है, पंख फैलाने हैं। और जैसे ही
तुम शरीर, मन और हृदय के पार उठे, जैसे
ही तुमने पंख फैलाए और आकाश खुला, कि फिर जो दिखाई पड़ेगा वही
परमात्मा की याद है। फिर वह कृष्ण की याद नहीं है, न
क्राइस्ट की, न मोहम्मद की, न मूसा की।
फिर उसका कोई रूप नहीं, रंग नहीं, गुण
नहीं। फिर तो एक निराकार बोध है, सुधिया, समाधि है।
क्या भला मुझको परखने का नतीजा निकला
जख्मे-दिल आपकी नजरों से भी गहरा निकला
क्या भला मुझको परखने का नतीजा निकला
तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के
सिवा और बता
क्या निकला
याद करने की बात ही नहीं। याद कभी भूल कर न करना। ऐसे शून्य में अपने
को ले जाना है जहां लाख कोई खोजे तो परमात्मा के सिवा और कुछ निकले ही नहीं।
यह जो कृष्ण को याद कर रहा है, जरा कुरेदोगे तो कुछ
और निकल आएगा। यह कृष्ण को याद करने वाला तो अंधा आदमी है जो रोशनी को याद कर रहा
है। जरा कुरेदोगे कि अंधापन निकल आएगा। जरा खोजबीन करोगे कि पता चल जाएगा अंधा है।
क्या भला मुझको परखने का नतीजा निकला
जख्मे-दिल आपकी नजरों से भी गहरा निकला
क्या भला मुझको परखने का नतीजा निकला
तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला
क्या भला मुझको परखने का नतीजा निकला
जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी फूल से, तस्वीर से साया निकला
क्या भला मुझको परखने का नतीजा निकला
तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह ओंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला
क्या भला मुझको परखने का नतीजा निकला
जख्मे-दिल आपकी नजरों से भी गहरा निकला
बात तब बनती है जब परमात्मा भूले नहीं। तब नहीं बनती बात जब परमात्मा
को याद करना पड़े। इसलिए मैं न कहूंगा कि मृत्यु के क्षण में परमात्मा को याद करना।
मैं तो कहूंगा, मृत्यु के क्षण की प्रतीक्षा क्या करनी? जीओ परमात्मा को! मौत तो कल होगी, जीना आज है।
खयाल रखना, मौत हमेशा कल होती है और जीना आज होता है। आज अगर
परमात्मा को न जान सकोगे तो कल कैसे जान लोगे? कल आज से ही
तो निकलेगा, आज से ही तो जन्मेगा, आज
की ही कोख से तो पैदा होगा। कल आएगा कहां से?
मैं कल की बात ही नहीं करता। मैं तो कहता हूं: आज जीओ! परमात्मा को
जीना है, पीना है; उठना है, बैठना है; चलना है, फिरना है।
परमात्मा तुम्हारे जीवन की शैली और व्यवस्था होना चाहिए। परमात्मा सिर्फ याददाश्त
नहीं; किसी मंदिर में बैठ कर बजाई गई घंटों की आवाज नहीं;
किसी मजार पर चढ़ाया गया दीया नहीं। परमात्मा तुम्हारे उठने-बैठने,
खाने-पीने, सोने-जागने की पूरी शैली का नाम है,
पूरी व्यवस्था का नाम है। परमात्मा एक जीने का ढंग है--जीने की एक
कविता; जीने का एक संगीत।
जीओ परमात्मा को। और तब तुम पाओगे मौत आती ही नहीं, होती ही नहीं। फिर कृष्ण इत्यादि के चरण-कमलों को याद करने की जरूरत न
पड़ेगी। और जीया नहीं अगर परमात्मा को, तो तुम लाख चरण-कमलों
को याद करो, कुछ काम न आएंगे।
यह मरते वक्त की बेईमानी काम नहीं पड़ सकती है। जिंदगी भर तो धन के
पीछे दौड़ो, और मरते वक्त मन, वचन और शरीर
से ध्यान करोगे? कैसे करोगे? जिंदगी भर
तो कुछ और, और जब अरथी उठे तो राम-नाम सत्य! यह कैसे होगा?
हां, दूसरे कहेंगे राम-नाम सत्य! मगर तुम तो
जा चुके। तुम तो अब वहां नहीं हो। और ये दूसरे भी जल्दी राम-नाम सत्य करके
अपने-अपने घर जाना है इनको। दूसरे काम सत्य हैं। "राम-नाम सत्य है' तो दूसरे के लिए बोल रहे हैं, अपने लिए नहीं बोल रहे
हैं। ये तो इसलिए दूसरे के लिए बोल रहे हैं कि जब ये मरें तो दूसरे इनके लिए बोल
दें। यह एक औपचारिकता है। यह लेन-देन है, दुनिया का
हिसाब-किताब है, व्यवहार है।
नहीं, मैं न कहूंगा कि मृत्यु की प्रतीक्षा करो तब परमात्मा
का बोध जगाना। अभी, यहीं, इसी क्षण
क्यों न परमात्मा के बोध को जगाओ? कल पर क्यों टालो? जो मूल्यवान है उसे हम अभी करते हैं; जो मूल्यहीन है
उसे कल पर टालते हैं।
और याद नहीं करना है परमात्मा को। इसलिए मैं यहां प्रार्थना पर जोर
नहीं देता, मेरा जोर ध्यान पर है। प्रार्थना है परमात्मा को याद
करना और ध्यान है उस अवस्था में पहुंच जाना जहां भुलाना भी चाहो परमात्मा को तो
भुला नहीं सकते हो। लाख भुलाने का उपाय करो, नहीं भुला सकते
हो। क्योंकि वही है, एकमात्र वही है।
यह जो तुम कृष्ण को याद कर लोगे या क्राइस्ट को याद कर लोगे, इस याददाश्त में यह हो सकता है कि भूल जाओ मृत्यु की पीड़ा को थोड़ी देर के
लिए। लेकिन यह बस भांग और गांजा और शराब या कहो सोमरस...अगर वैदिक धर्म का सार
निकालना हो तो भावातीत ध्यान नहीं है, जैसा महर्षि महेश योगी
कहते हैं, बल्कि सोमरस। सोमरस वैदिक धर्म का सार है। नशा!
नशा चढ़ सकता है। और अगर जोर से बकवास करो तो यह भी हो सकता है, यमदूत आ गए हों, भाग खड़े हों। ऐसा मैंने सुना--
कवि लक्कड़ जी हो गए अकस्मात बीमार,
बिगड़ गई हालत, मचा घर में हाहाकार।
घर में हाहाकार, डाक्टर ने बतलाया,
दो घंटे में छूट जाएगी इनकी काया।
पत्नी रोई--ऐसी कोई सुई लगा दो,
मेरा बेटा आए, तब तक इन्हें बचा दो।
मना कर गए डाक्टर, हालत हुई विचित्र,
फक्कड़ बाबा आ गए, लक्कड़ जी के मित्र।
लक्कड़ जी के मित्र, करो मत कोई चिंता,
दो घंटे क्या, दस घंटे तक रख लूं जिंदा।
सब को बाहर किया, हो गया कमरा खाली,
बाबाजी ने अंदर से चटखनी लगा ली।
फक्कड़ जी कहने लगे--"अहो काव्य के ढेर!
हमें छोड़ तुम जा रहे, यह कैसा अंधेर?
यह कैसा अंधेर, तरस मित्रों पर खाओ,
श्रीमुख से कविता दो-चार सुनाते जाओ।'
यह सुन कर लक्कड़ जी पर छाई खुशहाली,
तकिये के नीचे से काव्य-किताब निकाली।
कविता पढ़ने लग गए, भाग गए यमदूत,
सुबह पांच की टे्रन से आए कवि के पूत।
आए कवि के पूत, न थी जीवन की आशा,
पहुंचे कमरे में तो देखा अजब तमाशा।
कविता-पाठ कर रहे थे कविवर लक्कड़ जी,
होकर "बोर' मर गए
थे बाबा फक्कड़
जी।
अब तुम अगर ज्यादा बकवास मचा दो--हरे कृष्णा, हरे रामा; हरे कृष्णा, हरे रामा--हो
सकता है यमदूत घबड़ा जाएं, इधर-उधर खिसक जाएं। मगर फिर लौट
आएंगे। कितनी देर तक शोरगुल मचाओगे? यूं नहीं चलेगा, यूं नहीं चल सकता है। जीवन रूपांतरित होना चाहिए। धर्म श्वास-श्वास में
होना चाहिए, हृदय की धड़कन-धड़कन में। और तब पाया जाता है अमृत
का स्रोत अपने ही भीतर। शाश्वत स्रोत। उसकी एक बूंद भी पड़ जाए, फिर कोई मृत्यु नहीं है। अमृतस्य पुत्रः! तुम सब अमृत पुत्र हो। याद नहीं,
सुध नहीं। सुध लानी है।
सुध लाने की प्रक्रिया ध्यान है। और ध्यान शंकराचार्य वाला नहीं कि तन
से, मन से, वचन से ध्यान कर रहे हो। ध्यान से मेरा अर्थ
है--निर्विचार चित्त की दशा; शून्य, निराकार,
निर्विकल्प, जहां सिर्फ होना मात्र रह जाए;
न कुछ जानने को बचे, न जानने वाला बचे;
जहां सब दुई मिट जाए। और जहां दो मिट गए, एक
रहा, वही है परमात्मा का सच्चा अनुभव। वही अनुभव मोक्षदायी
है, वही अनुभव मोक्ष है।
वच वच वच
दूसरा प्रश्न: भगवान,
दुख मेरी नियति हो गया है; आनंद--एक स्वप्न आकाश का। दुख का मूल आधार क्या है? आनंद
इतना दुर्लभ क्यों है?
भगवान, अनुकंपा करें और मुझे
दुख-निरोध का उपाय समझाएं।
अरविंद मोहन,
आनंद हमारा स्वभाव है और दुख हमारा अर्जन। दुख हमारी चेष्टा है, नियति नहीं। आनंद हमारी नियति है; दुख हमारा आयोजन।
चौंकोगे तुम। कहोगे तुम कि क्या हम पागल हैं जो दुख का नियोजन करें? स्वभाव को छोड़ें और स्वभाव के विपरीत कष्ट पाएं? स्वर्ग
को त्यागें और नरक में भटकें और भरमें?
लगे बात तुम्हें कितनी ही उलटी, मगर ऐसा ही है। चूंकि
आनंद हमारा स्वभाव है, इसीलिए हम उसे भूल जाते हैं। जो पास
होता है उसे हम भूल जाते हैं; जो दूर होता है उसकी हमें याद
आती है। इसलिए तो प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को भूल गया है। दूसरों के नाम याद हैं,
पते याद हैं, टेलीफोन नंबर याद हैं, क्या-क्या याद नहीं! अरे भूगोल, इतिहास, गणित, विज्ञान, क्या-क्या याद
नहीं! सिर्फ एक चीज याद नहीं, मैं कौन हूं--इसका कुछ पता
नहीं। सारी दुनिया का इतिहास मालूम है, सारे विश्व का
विस्तार मालूम है। लोग आकाश में तारे बता देते हैं--किस तारे का क्या नाम है! खुद
तारों को पता नहीं, इनको पता है। अपना कुछ पता नहीं। चांद पर
जाने की उत्सुकता है, मंगल पर पहुंचने की आकांक्षा है;
खुद अपना कुछ पता नहीं।
अरविंद मोहन, दुख किसी की भी नियति नहीं है, लेकिन
प्रत्येक ने दुख को नियति बना लिया है। कुछ कारण हैं।
पहला कारण कि स्वभाव से हम आनंद हैं। और जो हम स्वभाव से हैं उसको हम
विस्मरण कर जाते हैं, याद करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अगर तुम्हें आईने
में अपनी तस्वीर देखनी हो तो जरा दूर खड़े होना होता है। अगर बिलकुल आईने से नाक
लगा कर खड़े हो जाओ तो अपनी तस्वीर भी दिखाई न पड़ेगी। और अगर आंख भी आईने से लगा दो,
तब तो बिलकुल कुछ भी दिखाई न पड़ेगा, आईना
दीवाल हो जाएगा। थोड़ा फासला चाहिए। देखने के लिए थोड़ा फासला चाहिए। और हमारा अपने
से कोई फासला नहीं। इसलिए हम अपने को ही जानने से वंचित रह जाते हैं।
प्रत्येक बच्चा आनंद की तरह ही पैदा होता है।
तो पहला तो यह मूलभूत कारण है कि स्वयं को जानने के लिए जो थोड़ी सी
दूरी चाहिए, वह नहीं है। मछली जैसे सागर में पैदा होती है तो जान
ही नहीं पाती कि सागर कहां है, जब तक कि कोई मछुआ उसे पकड़ कर
सागर के बाहर न खींच ले। बाहर खींचते ही पता चलता है कि अरे जो खो गया वह सागर था!
फिर तड़फती है सागर में जाने को।
मगर मछली को तो सागर के बाहर निकाला जा सकता है, हमें आनंद के बाहर नहीं निकाला जा सकता। कोई मछुआ नहीं निकाल सकता हमें
आनंद के बाहर। हम जब दुखी भी हो रहे होते हैं तब भी भीतर आनंद का झरना सतत बहता
रहता है। दुख ऊपर ही ऊपर रहता है, ओढ़ा हुआ रहता है, झूठा रहता है।
मैंने सुना, एक राजनेता चुनाव में हार गए। राजनेता थे, और तो कुछ जानते नहीं थे, न पढ़े-लिखे थे, अंगूठा छाप थे। राजनेता होने के लिए अंगूठा छाप होना एक योग्यता है। सब
तरह से अयोग्य होना योग्यता है। चुनाव क्या हार गए, बड़ी
मुश्किल में पड़ गए। कोई नौकरी न मिले, चपरासी की भी नौकरी न
मिले।
भाग्य की बात गांव में सर्कस आया हुआ था, सो सर्कस के मैनेजर से कहा कि भइया, कोई काम पर लगा
दो। अरे घोड़ों को नहलाता रहूंगा, गधों को नहलाता रहूंगा। यूं
भी जिंदगी घोड़ों और गधों के बीच बीती है। कोई भी काम कर सकता हूं, प्रमाण के लिए इतना काफी है कि दस साल तक संसद का सदस्य रहा हूं। अब इससे
बुरा और क्या काम होगा! तुम जो कहो करूंगा; गोबर, लीद, जो भी कहो, सब सफाई कर
दूंगा।
मैनेजर ने कहा कि भई, गोबर-लीद वगैरह की सफाई करने
वाले आदमी तो हैं; एक काम अगर कर सको। और राजनेता हो,
जरूर कर सकते हो।
राजनेता की बांछें खिल गईं। उसने कहा कि तुम बोलो और हुआ। कहो, क्या काम?
सर्कस का मैनेजर थोड़ा तो झिझका, फिर उसने कहा,
अब आप मानते नहीं तो बताए देता हूं कि हमारा जो सिंह था वह मर गया
है। उसकी खाल हमने निकाल कर रख ली है। उसके भीतर आप घुस जाओ। बस आप टहलते रहना।
चारों तरफ सींखचे लगे हैं। आप बस टहलते रहना। और यह टेप रिकार्डर साथ रखो, अंदर। इसमें आवाज भरी हुई है सिंह की, तो बीच-बीच
में दहाड़ लगा देना। बस टेप रिकार्डर का बटन दबा देना, दहाड़
निकल जाएगी, जनता आनंदित हो जाएगी। बस आपका कुल काम इतना है।
राजनेता ने कहा, इसमें क्या दिक्कत है। अरे यही
तो हम जिंदगी भर करते रहे। तरहत्तरह की खालें ओढ़ीं, क्या-क्या
नाटक नहीं किए, कैसी-कैसी नौटंकी नहीं रची। और हम क्या बोलते
थे, अरे टेप रिकार्डर ही बोलता था! सेक्रेटरी तैयार करता था,
हम भाषण देते थे। यह चलेगा। यह काम तो हमारा अभ्यास का है। यह तो
बिलकुल ठीक है। योग्य हमारे काम मिल गया।
नेता बड़े खुश हुए। घुस गए सिंह की खाल में। आनंद भी बहुत आया। बार-बार
बटन दबाएं और सिंह की गर्जना करें। बच्चे एकदम रोने लगें, स्त्रियां बेहोश हो जाएं, पुरुषों की छाती दहल जाए।
नेता को बड़ा आनंद आए। आनंद ही यह है राजनीति का। और क्या आनंद है, कि लोगों की छाती दहल जाए।
लेकिन तभी देखा कि कठघरे का दरवाजा खुला और एक दूसरा सिंह भीतर घुसा।
उसको देखते से ही नेता भूल गए, चौकड़ी भूल गए, एकदम दो पैर पर खड़े हो गए। जनता तो दंग रह गई। अरे आदमी, स्त्रियों की तो छोड़ो, पुरुष तक बेहोश होने लगे कि
हद हो गई! सिंह, और दो पैर पर खड़ा है! और न केवल दो पैर पर
खड़ा है, चिल्ला रहा है--अरे बचाओ! मारे गए! बचाओ! मुझे नहीं
करना यह काम! यह किस तरह का सिंह है?
तभी दूसरा सिंह बोला, अरे चुप रे बदतमीज! तू क्या
समझता है, तू ही चुनाव हारा है! हम भी चुनाव हारे हैं।
एक तो स्वभाव को भूलना सहज। दूसरा, तुम जिनके बीच पैदा
होते हो वे सब दुख से भरे हुए लोग। वे तरहत्तरह की खालें ओढ़े हुए हैं। क्या-क्या
बने हुए हैं। बच्चा पैदा ही होते से अपने को पाता है नौटंकी में। क्या-क्या खेल
उसे नहीं देखने पड़ते। मां देखो तो दुखी है, बाप देखो तो दुखी
है, भाई देखो तो दुखी है। जो देखो वह दुखी है। हर आदमी जहां
है वहीं दुखी है। चारों तरफ दुख ही दुख दिखाई पड़ता है। एक बात उसे समझ में आ जाती
है कि यहां दुखी होना ही जीने का ढंग है। यही जीवन की प्रणाली है, यही जीवन का दर्शन है।
और भी उसे एक बात समझ में आ जाती है कि सुखी होने को लोग पसंद नहीं
करते। अगर तुम दुखी हो तो सब सहानुभूति बताते हैं; अगर तुम सुखी हो तो
लोगर् ईष्या से भर जाते हैं। सुखी आदमी बरदाश्त नहीं किया जाता। दुखी आदमी को लोग
खूब आदर देते हैं। दुखी आदमी में एक खूबी है, कि वह हरेक की
सहानुभूति का पात्र होता है। और जब भी किसी को तुम मौका देते हो सहानुभूति दिखलाने
का, तो उसको मजा आता है, उसके अहंकार
को तृप्ति मिलती है--कि हम ऊपर, तुम नीचे; हम देने वाले, तुम लेने वाले।
तो बच्चा बहुत जल्दी यह तरकीब, यह राजनीति, यह कूटनीति सीख लेता है। फिर वह दुख का खेल करने लगता है। भीतर से हंसी भी
आ रही हो तो भी रोकता है। क्योंकि जब भी खिलखिलाता है तभी डांटा जाता है। जब भी
रोता है, तभी प्यार किया जाता है। जब भी हंसता है, तभी दुत्कारा जाता है। जब भी खेलता है, उछलता है,
कूदता है, नाचता है--तभी डांट! कि बंद कर! बैठ
एक जगह! शांति से बैठ! और जब उदास बैठा हो तो मां पुचकारती है, बाप पुचकारता है। कोई मिठाई देता है, कोई खिलौना
पकड़ाता है। मुहल्ले वाले तक, आस-पड़ोस के लोग भी गोबर-गणेश
बच्चों को, बैठे हैं उदास तो थपकी मारते हैं कि बेटा,
क्या हो गया? काहे इतने उदास? कौन सी चिंता तुम्हें सता रही है? और सहानुभूति में
एक रस है। मजा आता है। ऐसा लगता है लोग प्रेम कर रहे हैं। इस तरह धीरे-धीरे दुख
हमारे जीवन की भाषा हो जाती है।
तुम पूछते हो, अरविंद मोहन: "दुख मेरी नियति हो गया है।'
हो नहीं गया है, बना लिया है।
"और आनंद एक स्वप्न--आकाश का।'
दूर नहीं है आनंद। अगर होता स्वप्न आकाश का तो आदमी पहुंच गया होता।
उसने कुछ न कुछ आयोजन कर लिया होता। आनंद है तुम्हारे भीतर अंतर-आकाश में। और तुम
दौड़ रहे हो बाहर। और बाहर दुख ही दुख पाओगे, क्योंकि सुख भीतर है।
सुख तुम हो। लेकिन खुद को तो पाने की कोई आकांक्षा नहीं है।
अभी भी तुम कह रहे हो: "दुख-निरोध का उपाय समझाएं।'
अभी भी तुम यह नहीं कह रहे हो कि मैं स्वयं को कैसे जानूं यह बताएं।
मगर वही दुख-निरोध का उपाय है। एकमात्र दुख-निरोध का उपाय है: स्वयं को जान लो।
जिंदगी के मतलब को हर कोई समझ लेगा
कांच के खिलौनों को तोड़ कर अगर रख दो
मगर कांच के खिलौने हैं--धन, पद, प्रतिष्ठा। उनमें तुम ऐसे उलझे हो कि उनको बचाते हो; तोड़ने की तो बात दूर, सम्हालते हो। खुद टूट जाओ भला,
मगर खिलौने न टूट पाएं। खुद मिट जाओ भला, मगर
खिलौने न मिट पाएं। लोग अपने को कुर्बान कर देते हैं खिलौनों पर। खिलौनों के लिए
आदमी क्या-क्या करने को राजी नहीं हो जाता!
मोरारजी देसाई ने कुछ दिनों पहले कहा, किसी ने पूछा
पत्रकार-संसद में कि आपको अगर फिर से प्रधानमंत्री बनना पड़े तो आप राजी हैं?
उन्होंने कहा कि अगर जनता कहे। अगर जनता कहे तो मैं गधे पर भी बैठने
को राजी हूं।
मगर जनता भी खूब है। जनता यह भी नहीं कह रही कि भइया, गधे पर ही बैठो! जनता बिलकुल चुप ही है। जनता कुछ बोलती ही नहीं। क्योंकि
जनता जानती है कि इनसे कहो गधे पर बैठो, ये बैठ तो जाएंगे,
फिर उतरेंगे नहीं। आखिर गधे का भी तो कुछ विचार करना पड़ता है। चढ़ गए
तो चढ़ गए। बामुश्किल तो उतरे हैं। जनता यह भी नहीं कह रही है कि गधे पर बैठ जाओ।
वे इसके लिए भी राजी हैं।
खिलौनों का मोह देखते हो? बोले कि प्रधानमंत्री
की तो बात छोड़ो, गधे पर बैठने को भी अगर लोग कहें तो मैं मौका
नहीं छोडूंगा। ऐसा खिलौनों का मोह!
लेकिन अगर सच में ही, अरविंद मोहन, तुम चाहते हो कि दुख से मुक्त हो जाओ तो खिलौनों को मोह छोड़ना पड़ेगा। गधे
की तो बात छोड़ो, जनता अगर कहे हाथी पर भी बैठो, तो कहना कि नहीं बैठना। अपनी मौज, जहां बैठना है
वहां बैठेंगे, क्यों बैठें हाथी पर!
मगर अरविंद मोहन ने भी सुना होगा हाथी नाम, तो मन में गुदगुदी आ रही होगी कि हाथी पर तो...गधे पर तो ठीक है कि न
बैठें, मोरारजी भाई को बैठ जाने दो, मगर
हाथी पर, और बैंड-बाजा बज रहा हो, और
फूलमाला तैयार हो, और स्वागत-द्वार बने हों, तो फिर सोचेंगे, दुख-निरोध कल कर लेंगे, ऐसी क्या जल्दी है! हाथी कल आया, नहीं आया। जनता ने
कल कहा, नहीं कहा। अरे लोगों का क्या भरोसा! हवा के रुख बदल
जाते हैं, मौसम बदल जाते हैं। आज संगी-साथी हैं, कल कोई संगी-साथी नहीं।
अगर तुम खिलौनों का मोह छोड़ने को राजी हो तो दुख से अभी छूट सकते हो।
और कोई दुख नहीं है, खिलौनों को पकड़ने में दुख है। क्योंकि खिलौनों से कुछ
निकलता भी नहीं और डर भी लगा रहता है कि कहीं टूट न जाएं। कोई रस भी नहीं मिलता।
जैसे बच्चों को उनकी माताएं झूठे रबर के स्तन थमा देती हैं और बच्चे उनको चचकोरते
रहते हैं--इसी आशा में कि शायद, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कभी न कभी, इस
जन्म में नहीं अगले जन्म में दूध निकलेगा। चचकोरे जाओ, चचकोरे
जाओ। चचकोरते-चचकोरते सो जाते हैं। वह जो झूठा स्तन रबर का मुंह में दे दिया है,
वह भावातीत ध्यान का काम करता है। चचकोरते-चचकोरते एकदम मंत्र ही
मंत्र, और एक ही मंत्र, चचकोरो,
फिर चचकोरो...नमोकार-नमोकार, या राम-राम जपे
जाओ, जपे जाओ...आखिर बच्चा थक जाता है और सो जाता है।
तुम्हारे खिलौने ज्यादा से ज्यादा तुम्हें थोड़ी देर को सुला दें तो
बहुत। मगर वह भी ज्यादा देर नहीं। क्योंकि जल्दी ही तुम्हें समझ में आ जाता है कि
ये खिलौने झूठे हैं। छोड़ते भी नहीं बनता। क्योंकि और क्या पकड़ें? टूटने का भी डर, चिंता। लेकिन जब तक यह हिम्मत न हो
तब तक आनंद का अनुभव नहीं हो सकता। आनंद तुम्हारे भीतर है।
सियाह रात है साया तो हो नहीं सकता
वो कौन है जो मेरे साथ-साथ चलता है
माना कि बहुत अंधेरी रात है, इसलिए एक बात पक्की
है कि साथ में साया तो नहीं हो सकता, छाया तो नहीं बन सकती।
मगर कौन है जो सदा साथ चल रहा है?
तुम्हारे भीतर कौन है जो देख रहा है कि दुख है? जो देखता है कि दुख है, वह दुख नहीं, वह तुम्हारा चैतन्य है। वह देखने वाला, वह द्रष्टा
ही द्वार है, जहां से दुख से मुक्ति हो सकती है।
बुल्लेशाह का वचन सुनो--
फिकर गया सईयो मेरियो नी, मैं तां अपने आप नू
सही कीता।
कूड़ी देह सिओं नेहों चुकाया मैं खाक छान के लाल नू फोल लीता।
देख धुएं धौलरे जग सारा, सुट पाया ही जीआ तो
हार जीता।
बुल्लाशाह आनंद अखंड सदा लख अपने आप आबिहयात पीता।
प्यारा वचन है। कहते हैं: "हे मेरी सखियो, मेरा फिक्र गया। मेरी चिंता गई, मेरा विचार गया।
मैंने तो अपने आप को सही कर लिया। मैंने इस कूड़ी देह में से नेह निकाला। मैंने इस
कूड़ी देह में से नेह निकाला और खाक को छान कर लाल को ढूंढ लिया। इस धुएं से भरे
जगत में मैंने धवल-उज्ज्वल जगत पा लिया।'
और अब आता है बड़ा प्यारा वचन: "जिया छोड़ दिया तो जीया पा लिया।'
यह अपने दिल की बातों को छोड़ दिया, जिया छोड़ दिया,
जी छोड़ दिया।
"जिया छोड़ दिया तो जीया पा लिया।'
तो उसको पा लिया जो परम जीवन है।
"और हार भी फिर जीत हो गई।'
"बुल्ले कहते हैं: अब सदा अखंड आनंद है और मैंने
अपने आपको देख कर आबे-हयात, जीवन-रस पी लिया है।'
अपने आपको देख कर आबे-हयात, जीवन-रस पी लिया है,
अमृत पी लिया है।
रसो वै सः। तुम्हारे भीतर वह रसधार बह रही है--वह जीवन-रस, आबे-हयात। लेकिन तुम जब तक बाहर भटकते रहोगे तब तक भीतर कैसे देखोगे?
जरा बाहर से आंख बंद करो, अरविंद मोहन,
और आंख भीतर खोलो। बहुत दौड़े बाहर; अब थोड़ा
ठहरो। बाहर दौड़ना पड़ता है; भीतर ठहरना पड़ता है। बाहर विचार
काम आते हैं; भीतर निर्विचार काम आता है। बाहर लक्ष्य चाहिए;
भीतर कोई लक्ष्य नहीं--सिर्फ शून्य, सिर्फ
मौन। बाहर तर्क है, विज्ञान है; भीतर
ध्यान है, समाधि है, सुधिया! और तब
जिंदगी बदल जाती है। जरा सी नई नजर की जरूरत है।
मुझे दे दे--
रसीले ओंठ, मासूमाना पेशानी, हसीं आंखें
कि मैं इक बार फिर रंगीनियों में गर्क हो जाऊं
मेरी हस्ती को तेरी इक नजर आगोश में ले ले
हमेशा के लिए इस दाम में महफूज हो जाऊं
जिया-ए-हुस्न से जुल्माते-दुनिया में न फिर आऊं
गुजश्ता हसरतों के दाग मेरे दिल से धुल जाएं
मैं आने वाले गम की फिक्र से आजाद हो जाऊं
मेरे माजी व मुस्तकबिल सरासर मह्व हो जाएं
मुझे वो इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
मुझे दे दे--
मुझे वो इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
बस इतनी सी बात चाहिए--एक अमृत को देखने वाली आंख, एक जाविदानी सी नजर!
मुझे दे दे--
मुझे वो इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
कुछ और नहीं चाहिए--अमृत को देखने वाली आंख। उसे ही मैं ध्यान कह रहा
हूं। ध्यान के अतिरिक्त आनंद से परिचित होने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि ध्यान स्वभाव से परिचय है। और जिसने स्वयं को जाना, सब जाना। जिसने स्वयं को जीता, सब जीता। और जो स्वयं
से वंचित रह गया है, उसके लिए सिवाय दुखों के और कुछ भी नहीं
है।
आज इतना ही।
वच वच वच
Bahut bdhiya
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