अमृत द्वार-(विविध)
ओशो
प्रवचन-तीसरा-(नाचो जीवन है नाच)
बिड़ला क्रीड़ा केंद्र बंबई
दिनांक ७ मई, १९६७ सुबह
मेरे प्रिय आत्मन,
एक छोटी सी घटा से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहता हूं,
एक महानगरी में, सौ मंजिल एक मकान के ऊपर,
सौवीं मंजिल से एक युवक कूद पड़ने की धमकी दे रहा था। उसने अपने
द्वार, अपने कमरे के सब द्वार बंद कर रखे थे। बालकनी में खड़ा
था। सौवीं मंजिल से कूदने के लिए तैयार, आत्महत्या करने को।
उसने नीचे की मंजिल पर खड़े होकर लोग उससे प्रार्थना कर रहे थे कि आत्महत्या मत करो,
रुक जाओ, यह क्या पागलपन कर रहे हो? लेकिन वह किसी की सुनने को राजी नहीं। तब एक बूढ़े आदमी ने उससे कहा,
हमारी बात मत सुनो, लेकिन अपने मां बाप का
खयाल करो कि उन पर क्या गुजरेगी! उस युवक ने कहा, न मेरा
पिता है, न मेरी मां है।
वे दोनों मुझसे पहले ही चल बसे।
बूढ़े ने देखा कि बात तो व्यर्थ हो गयी। तो उसने कहा, कम से
कम अपनी पत्नी का स्मरण करो, उस पर क्या बीतेगी! उस युवक ने
कहा, मेरी कोई पत्नी नहीं, मैं
अविवाहित हूं। उस बूढ़े ने कहा, कम से कम अपनी प्रेयसी का
खयाल करो। किसी को प्रेम करते होगे, उस पर क्या गुजरेगी?
उस युवक ने कहा, प्रेयसी! मुझे प्रेम से घृणा
है। स्त्री को मैं नर्क का द्वार समझता हूं। मैं कोई स्त्री को प्रेम करता नहीं।
मुझे कूद जाने दें।
अंतिम बात रह गयी थी कहने को। उस बूढ़े ने कहा, कूदने के पहले एक बात यह सोच लो, किसी की फिकर मत
करो, लेकिन, अपनी तो फिकर करो! अपना
जीवन नष्ट कर रहे हो? उस युवक ने कहा, काश!
मुझे पता होता कि मैं कौन हूं तो शायद नष्ट करने की बात ही न आती। लेकिन मुझे यह
भी पता नहीं कि मैं कौन हूं।
पता नहीं वह युवक कूद गया नहीं कुछ गया लेकिन उस युवक ने यह कहा कि
मुझे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं। बचकर क्या करूंगा, जीवित रहकर भी क्या करूंगा? जिस जीवन में यह भी पता
न हो कि हम कौन है, उस जीवन का मूल्य और अर्थ क्या रह जाता
है।
इस घटना से इसलिए अपनी बात शुरू करना चाहता हूं कि हम सब जीवन में
करीब-करीब ऐसी ही हालत में खड़े हैं जहां हमें कोई भी पता हनीं कि हम कौन हैं। अपने
होने का ही कोई बोध नहीं है। जीते हैं, लेकिन जीवन से कोई
साक्षात्कार नहीं हुआ। श्वास लेते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, फिर एक
दिन समाप्त हो जाते हैं। लेकिन ज्ञान नहीं हो पाता कि कौन था जो जन्म, कौन था जो जीया, कौन था जो समाप्त हो गया।
इतने अज्ञान से भरे हुए जीवन में कोई आनंद हो सकता है? इतने अज्ञान से भरे हुए जीवन में कोई प्रेम हो सकता है? इतना अज्ञान से भरे जीवन में कोई उपलब्धि हो सकती है? इतने अज्ञान से भरे जीवन में कोई अर्थ, कोई प्रयोजन,
कोई सार्थकता हो सकती है? नहीं हो सकती है,
नहीं है। इसीलिए मनुष्य जाति इतनी उदास, इतनी
चिंतित, इतनी भयभीत, इतनी दुखी,
इतनी विपन्न मालूम पड़ता है। जैसे कोई वृक्ष की जड़ें हिला दी गयी हों,
जैसे किसी वृक्ष को जड़ों से उखाड़ दिया गया हो, ऐसी मनुष्य जाति अपरूटेड, जैसे सारी जड़ें हिल गयी
हों, ऐसी मालूम पड़ती है।
ये जड़े किस चीज से हिल गयी हैं? मनुष्य का यह भी पता
न रह जाए कि मैं कौन हूं तो उसकी जड़ें जीवन से हिल जाती हैं। जीवन का--शुभ जीवन का,
सुंदर जीवन का, आनंदपूर्ण जीवन का अगर कोई
आधार हो सकता है तो एक ही हो सकता है कि व्यक्ति कम से कम इतना तो जान ले कि वह
कौन है, और क्या है और इसलिए है?
मनुष्य के सामने हमेशा से खड़ा हुआ प्रश्न एक ही है, और हम अपने को कितना ही भुलाने की कोशिश करें, कितना
ही उलझाने की कोशिश करें, वह प्रश्न हमारे सामने से हटता
नहीं, जब तक कि हल न हो जाए। हम कितना ही धन इकट्ठा कर लें
और कितने ही महल इकट्ठे कर लें और कितना ही यश अर्जित कर लें, लेकिन एक प्रश्न बीच-बीच में बार-बार खड़ा हो जाता है--मैं कौन? मैं किसलिए हूं? इस जीवन का अर्थ है? फिर हम काम में लग जाते हैं कि भूल रहें, भूले रहें।
लेकिन यह प्रश्न पीछा नहीं दौड़ेगा। यह जीवन का पहला प्रश्न है, और पहले प्रश्न को जो हल नहीं कर पाता वह भी हल नहीं कर पाएगा। जीवन भर यह
प्रश्न उसका पीछा करेगा, और जिस आदमी का यह प्रश्न पीछा करता
है कि मैं कौन हूं, वह आदमी कभी भी निश्चित नहीं हो सकता।
उसके जीवन में चिंता बनी ही रहेगी।
हमारी स्थिति वैसी ही है जैसी कोई आदमी यात्रा पर निकला हो, और उसे यह भी पता न हो कि मैं कहा जा रहा हूं। वह ट्रेन में बैठ गया हो और
उसे यह भी पता न हो कि मुझे किस स्टेशन पर पहुंच जाना है। वह पच्चीस तरह से अपने
को भुलाने की कोशिश करता हो, अखबार पढ़ता हो, रेडियो खोलता हो, पड़ोस में बात करता हो, लेकिन थोड़ी बहुत देर से फिर उसे यह खयाल आ जाता है कि मैं जा कहा रहा हूं! यह ट्रेन मुझे कहा
ले जाएगी? मुझे किस स्टेशन पर उत्तर जाना है? वह प्रश्न उसका पीछा करेगा, करेगा। स्वाभाविक है कि
पीछा करे। जिस यात्री को यात्रा के लक्ष्य का ही कोई पता न हो--और हम तो ऐसे
यात्री हैं जिन्हें यात्रा के लक्ष्य का कुछ पता नहीं, जिन्हें
यह भी पता नहीं कि यात्री कौन है? मैं कौन हूं? हम न केवल यह नहीं जानते हैं कि हमें कहां पहुंचना है, न केवल हम यह नहीं जानते हैं, हम कहां उतरना है। न
हम यह जानते हैं, हम किस दिशा में यात्रा करनी है। हमें यह
भी पता नहीं है कि मैं कौन हूं जो यात्रा करने वाला हूं।
तो यदि मनुष्य मालूम पड़ता हो, भयातुर, घबड़ाया हुआ तो आश्चर्य है? स्वाभाविक है। जब तक मनुष्य जीवन के इस प्राथमिक प्रश्न का उत्तर न खोज ले
तब तक उसके जीवन में आनंद की कोई वर्षा नहीं हो सकती है। न वह आत्मविश्वस्त हो
सकता है न वह निश्चित हो सकता, न उसके तनाव समाप्त हो सकते,
न उसकी अशांति समाप्त हो सकती, न उसकी पीड़ा
बंद हो सकती, न उसे दुख से छुटकारा हो सकता। फिर वह कितने
उपाय करता रहे, वे सब उपाय अपने वास्तविक प्रश्न और जीवन की
वास्तविक समस्या को भुलाने के उपाय हैं। भुलाने से कोई बात भूलती नहीं। जितना हम
भुलाने की कोशिश करते हैं वह उतनी ही प्रबल होकर सामने खड़ी हो जाती है। आदमी के
जन्म से लेकर मृत्यु तक यह प्रश्न पीछा करता है, मैं कौन हूं
और किसलिए हूं।
और अगर इसका कोई पता नहीं
चलेगा तो फिर शास्त्र ने जैसा कहा है, मैंने इज ए यूजलेस
पैशन। शास्त्र कहता है, आदमी एक व्यर्थ वासना है जिसमें कोई
अर्थ नहीं। तो फिर अंत में यही दिखायी पड़ेगा कि आदमी एक व्यर्थ की दौड़-धूप है,
एक अर्थहीन कथा जिसका न कोई प्रारंभ, न कोई
अंत, न जिसका कोई उद्देश्य। तो ऐसे व्यर्थ जीवन में शांति हो
सकती है? ऐसे मीनिंगलेस एक्जिस्टेंस में, ऐसे अर्थहीन अस्तित्व में प्राण निश्चित हो सकते हैं? इतनी व्यर्थता के बीच प्रेम का जन्म हो सकता है? इतनी
व्यर्थता के बीच, कोई सत्य, कोई शिव,
किसी सुंदर का अवतरण हो सकता है? इसलिए इसी
संबंध में थोड़ी बात मुझे आपसे कहनी है।
मैं कहना चाहता हूं, मनुष्य एक व्यर्थ वासना नहीं है,
यूजलेस पैशन नहीं है। मैं कहना चाहता हूं, जीवन
एक अर्थहीन कथा नहीं है। मैं कहना चाहता हूं, जीवन एक सार्थक
आनंद है, लेकिन केवल उन्हीं के लिए जो जीवन की पहली को
सुलझाने की हिम्मत दिखाते हैं। हम सब तो एस्केपिस्ट हैं। इस सब तो जीवन की तरफ पीठ
करने भागने वाले लोग है। जो जीवन में भागते हैं, अगर जीवन
उन्हें आनंद न हो सके, तो इसमें दोष किसका, कसूर किसका? जीवन को आमने-सामने लेना है, जीवन का एक एनकाउंटर करना है। जीवन से मुठभेड़ लेनी है, जीवन का सामना करना है तो जीवन का अर्थ खुलना शुरू हो जाता है। जो जीवन को
आमने-सामने खड़े होकर देखने की हिम्मत जुटाता है वही व्यक्ति इस समस्या को सुलझाने
में समर्थ हो पाता है कि मैं कौन हूं।
लेकिन आदमी ने इस समस्या से बचने के बहुत उपाय खोज लिए हैं--हल हरने
के नहीं, बचने के लिए। इस समस्या को सुलझा लेने के नहीं।
समस्या से भागने के। हमारी शायद आदत यह हो गई है कि हम हर प्रश्न समस्या से भागने
के लिए कोई रास्ता खोज लेते हैं। अगर घर में कोई बीमार पड़ा है, अगर दिवाला निकल गया है, अगर धन की तंगी आ गयी है,
अगर चिंतित हो उठा है तो कोई आदमी संगीत सुनकर अपने को भुला लेता
है। कोई सिनेमा में बैठकर अपने को भुला लेता है। कोई शराब पीकर अपने को भुला लेता
है। लेकिन भुलाने से कोई समस्या हल होती है? भुलाने से सिर्फ
समस्या को हल करने की हमारी क्षमता और शक्ति क्षीण होती है। समस्या तो वही की वही
खड़ी रहती है। हम और कमजोर वापस लौटते हैं। जितनी देर हम किसी समस्या को भुलाने की
कोशिश करते हैं उतनी देर में हम और कमजोर हो जाते हैं। समस्या का सामना करने का
हमारी सार्मथ्य शक्ति कम हो जाती है। जीवन की पूरी समस्या के साथ हम यही व्यवहार
कर रहे हैं जो हम छोटी समस्याओं के साथ करते हैं। आदमी ने स्वयं को भूल जाने के
लिए सब तरह के विकास कर लिए हैं। सारी शराबें, सारे सादक
द्रव्य, सारी वे खोजें, जिन्हें आदमी
मनोरंजन कहता है, वे सारी खोजें जीवन की वास्तविक समस्या को
भुलाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करती।
किस बात को आप मनोरंजन कहते हैं? जहां आप घड़ी दो घड़ी
अपने को भूल जाते हैं। संगीत में, सिनेमा में, शराब में, मित्रों में मंडल में, भजन कीर्तन में, मंदिर में, प्रार्थना
में, जहां भी आप थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं आप कहते हैं,
बड़ा अच्छा लगा। लेकिन अपने को भूलना आत्मघाती है, स्वासाइडल है। अपने को जानना है, भूलना नहीं है।
भूलकर क्या हल होगा? कौन-सी समस्या सुलझ जाएगी? नींद में पड़ जाने से कौन-सी समस्या का अंत आ जाएगा? लेकिन
आदमी ने आज तक अपने को भुलाने की कोशिश की है, उन लोगों ने
दो कोशिश ही की है जिन्हें हम सांसारिक कहते हैं, जिन्हें हम
धार्मिक कहते हैं। तथाकथित धार्मिक लोगों ने भी स्वयं को भुलाने की कोशिश की है।
प्रश्न है कि मैं हूं। और इसके हमने कुछ रेडिमेड उत्तर तैयार कर रखे
हैं जो कि भुलाने के लिए तरकीब का काम करते हैं। जब प्रश्न उठता है कि कौन हूं? हम में खोजते हैं, वहां उत्तर मिल जाते है कि तुम तो
परमात्मा हो, तुम ब्रह्मा हो, तुम तो
आत्मा हो। फिर उन उत्तरों को हम पकड़ लेते हैं और दोहराने लगते हैं मैं आत्मा हूं,
मैं ब्रह्म हूं, मैं परमात्मा हूं। रोज सुबह
शाम हम इसे दोहराने मग लग जाते हैं। शायद हम सोचते होंगे कि दोहराने से समस्या हल
हो जाएगी? शायद हम सोचते होंगे इस भांति किसी विचार को,
शब्द को पकड़कर बार-बार स्मरण करने से जीवन का प्रश्न समाप्त हो
जाएगा। शब्द असत्य और कुछ भी नहीं है। शब्द बिलकुल ताश के पत्तों जैसा है। ताश के
पत्ते दे दिए जाएं तो हम तरकीब के घर बना सकते हैं ताश के पत्तों से, लेकिन ताश के पत्तों का घर हवा का जरा सा झोंका, और
गिर जाते हैं शब्दों से जो हम घर बनाते हैं, शब्दों से भी जो
हम अपने भीतर समस्याओं को हल करने की कोशिश करते हैं वह ताश के पत्तों से भी कमजोर
चीज शब्द का कोई प्राण ही नहीं शब्द का कोई अस्तित्व ही नहीं। शब्द में कोई ठोसपन
नहीं शब्द तो बिलकुल हवा में खींची गयी लकीर की तरह है। और हमने सारी समस्याओं को
शब्दों से हल करने की कोशिश की है। इसलिए समस्याएं तो वहीं की वहीं है, आदमी शब्दों में उलझकर नष्ट हुआ जा रहा है आदमी के ऊपर जो सबसे बड़ा
दुर्भाग्य है वह शब्दों के ऊपर विश्वास सबसे बड़ा दुर्भाग्य है जिसके कारण जीवन की
कोई समस्या हल नहीं हो पाती।
हमारे पास क्या है? ज्ञान के नाम पर हमारे पास
शब्दों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। किन्हीं के पास हिंदुओं के शब्द हैं, किन्हीं के पास मुसलमानों के शब्द हैं, किन्हीं के
पास जैनों के शब्द हैं, किन्हीं के पास ईसाइयों के शब्द हैं।
के अतिरिक्त हमारे पास संपत्ति क्या है? अगर हम भीतर खोजने
जाए तो शब्दों के अतिरिक्त हमारे पास क्या है? और शब्द का
क्या मूल्य हो सकता है?
एक सम्राट के द्वार पर एक कवि ने एक दिन सुबह आकर सम्राट की प्रशंसा
में कुछ गीत कहे, कुछ कविताएं कहीं। फिर कवि तो रुकते नहीं शब्दों का
महल बनाने में। वे तो कुशल होते हैं। उन्होंने, उस कवि ने
सम्राट को सूरज बना दिया, सारे जगत का प्रकाश बना दिया। उस
कवि ने सम्राट को जमीन से उठाकर आसमान पर बिठा दिया उसने अपनी कविता में जितनी
प्रशंसा कर सकता था, की। सम्राट ने उससे कहा, धन्य हुआ तुम्हारे गीत सुनकर। बहुत प्रभावित हुआ। एक लाख स्वर्ण मुद्राएं
कल तुम्हें भेंट कर दी जाएंगी। कवि तो दीवाना हो गया। सोचा भी न था कि एक लाख
स्वर्ण मुद्राएं मिल जाएगी। आनंद विभोर घर लौटा, रात भर सो
नहीं सका। बार-बार खयाल आने लगा, एक लाख स्वर्ण मुद्राएं।
क्या करूंगा। न मालूम कितनी योजनाएं बना लीं। कवि था, शब्दों
का मालिक था। बहुत शब्द जोड़ लिए। सारी भविष्य स्वर्णमय हो गया सारा भविष्य एक सपना
हो गया। जीवन एक धन्यता मालूम होने लगी। सुबह जल्दी ही, सूरज
अभी निकल ही नहीं पाया कि द्वार पर पहुंच गया राजा ने सम्राट ने बिठाया और थोड़ी
देर बाद पूछा, कैसे आए हैं? उस कवि ने
पूछा, कहीं भूल तो नहीं गया सम्राट! पूछता है कैसे आए हैं
उसने कहा कि पूछते हैं कैसे आया हूं? रात भर नहीं सो सका,
क्या पूछते हैं आप? कल कहा था आपने की एक लाख
स्वर्ण मुद्राएं भेंट करेंगे सम्राट हंसने लगा, कहा, बड़े नासमझ हैं आप। आपने शब्दों से मुझे प्रसन्न किया था, मैंने भी शब्दों से आपको प्रसन्न किया था इसमें लेने-देने का कहां सवाल
आता है? कैसी एक लाख स्वर्ण मुद्राएं? आपने
कुछ शब्द कहे थे, कुछ शब्द मैंने कहे थे। शब्द के उत्तर में
शब्द ही मिल सकते हैं। स्वर्ण मुद्राएं? कैसे? तब कवि को पता चला कि अपने शब्द में थोथे हैं। उनके भीतर कोई कंटेंट नहीं हैं। शब्द अपने
आपमें पानी पर खींची गयी लकीरों से ज्यादा नहीं हैं। लेकिन हमारे पास क्या है?
शब्दों के अतिरिक्त कुछ और है।
शब्दों पर हम जीते और लड़ते भी हैं। मैं कहता हूं, मैं हिंदू हूं। मैं कहता हूं, मैं मुसलमान हूं। कोई
कैसे मुसलमान हो गया, कोई कैसे हिंदू हो गया? कुछ शब्द हैं जो कुरान से लिए गए हैं, कुछ शब्द हैं
जो गीता से लिए गए हैं। कुछ शब्द हैं जो इस मुल्क में पैदा हुए है, कुछ शब्द है जो उस मुल्क में पैदा हुए हैं। और शब्दों को हमने इकट्ठा कर
लिया तो एक तरफ के शब्द मुसलमान बना लेते हैं, दूसरे तरह के
शब्द हिंदू बना लेते हैं, तीसरे तरह के शब्द जैन बना देते
हैं। क्योंकि किसी के भीतर कुरान है, किसी के भीतर बाइबिल है,
किसी के भीतर गीता है। शब्दों के अतिरिक्त हमारी संपदा क्या है?
और इन कोरे शब्द पर हम लड़ते भी है और जीवित आदमी की छाती में तलवार
भी भौंक सकते है। मंदिर भी जला सकते हैं, मस्जिद में आग भी
लगा सकते हैं। क्योंकि मेरे शब्द अलग है आपके शब्द अलग है।
आदमी शब्दों पर जी रहा है हजार वर्षों से और सोच रहा है कि शब्दों में
कोई बल है, कोई संपदा है, कोई संपत्ति है।
शब्द एकदम बोझ हैं, लेकिन शब्दों से भ्रम जरूर पैदा होता है।
जैसे उस कवि को भ्रम पैदा हुआ एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का। रात भर उसे उसने गिनती
की। हाथ में स्वर्ण मुद्राएं पड़ी। रात भर उसने सपने बनाए कि अब क्या करूं और क्या
न करूं? कितना बड़ा भवन बनाऊं, कितना
बड़ा रथ खरीदूं, कितना बड़ा बगीचा लगाऊं, क्या करूं, क्या न करूं? लेकिन
हाथ में कुछ भी न था। एक लाख स्वर्ण मुद्रा का शब्द था। शब्द से उसने फैलाव कर
लिया।
हमारे हाथ में क्या है? आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, जन्म,
जीवन, प्रेम, आनंद हमारे
पास शब्दों के अतिरिक्त और क्या है? लेकिन शब्द से जरूर भ्रम
पैदा होता है। छोटा-सा बच्चा स्कूल में पढ़ता है, सी ए टी कैट,
कैट यानि बिल्ली। बार-बार पढ़ता है, सी ए टी
कैट, कैट यानि बिल्ली। सी ए टी कैट, कैट
यानी बिल्ली। सीख जाता है, फिर वह कहता है कि मैं जान गया।
कैट यानि बिल्ली। लेकिन उसने जाना क्या है? उसने दो शब्द
जाने कैट भी एक शब्द है, बिल्ली भी एक शब्द है। बिल्ली को
जाना उसने? लेकिन वह कहता है कि मैंने जान लिया। कैट यानि
बिल्ली। उसने दो शब्द जान लिए, दोनों का अर्थ जान लिया। शब्द
भी शब्द हैं, अर्थ भी शब्द। और बिल्ली पीछे छूट गयी, वह जो जीवित प्राण है बिल्ली का। उसे उसने बिलकुल नहीं जाना, लेकिन वह कहेगा कि मैं जानता हूं कैट यानि बिल्ली। लेकिन बिल्ली को पता भी
नहीं होगा कि मैं कैट हूं या बिल्ली हूं। बिल्ली के पता भी नहीं होगा कि आदमी ने
मुझे क्या शब्द दे रखे हैं।
और आदमी जमीन पर न हो, तो बिल्ली का क्या
नाम होगा? कोई भी नाम होगा। लेकिन बिल्ली फिर भी होगी। शब्द
कोई भी न होगा, बिल्ली फिर भी होगी। आकाश में तारे होंगे,
शब्द कोई न होगा। आदमी नहीं होगा तो। सूरज उगेगा लेकिन शब्द को नहीं
होगा। वृक्षों में फूल खिलेंगे लेकिन कोई फूल गुलाब का नहीं होगा। कोई चमेली का
नहीं होगा।
शब्द आदमी का इनवेंशन है, आदमी की ईजाद है।
लेकिन शब्द से एक भ्रम पैदा होता है। मैंने सीख लिया कि इस फूल का नाम गुलाब है तो
मैं समझता हूं, मैं गुलाब को समझ गया? मैंने
शब्द सीख लिया कि इस फूल का नाम गुलाब है तो मैं समझता हूं, मैं
गुलाब को समझ गया? शब्द सीख लेने से गुलाब को समझने का क्या
संबंध है? लेकिन जो आदमी गुलाबों की जितनी जातियों का नाम
जानता है, समझता हूं मैं गुलाबों का उतरा ही बड़ा जानकार हूं।
जितने प्रकार के गुलाबों का नाम बता सकता है, कहेगा कि मैं
उतना जानकार हूं। जानकार वह किस चीज का है--गुलाब का या शब्दों का, नामों का? हो सकता है, गुलाब
से उसकी कोई पहचान ही नहीं हुई हो। गुलाब को उसने जाना ही न हो कभी? गुलाब से सौंदर्य ने उसे कभी पकड़ा ही न हो, गुलाब
कभी उसकी आत्मा पर चित्र न बना हो, गुलाब कभी उसके भीतर
प्रविष्ट न हुआ हो। कभी वह गुलाब के भीतर प्रविष्ट न हुआ हो। उसे गुलाब का कोई पता
ही न हो, लेकिन वह कहता है, मैं जानता
हूं क्योंकि इस फूल का नाम गुलाब है।
हमने शब्द सीख रहे हैं, और शब्दों को ज्ञान
समझ रखा है। आदमी को अज्ञान में बनाए रखने का सबसे बड़ा कारण है कि आदमी ने शब्दों
को ज्ञान मान लिया है। जब तक शब्दों को ज्ञान समझा जाएगा तब तक मनुष्य जाति के
जीवन में ज्ञान का कोई जन्म नहीं हो सकता है। शब्द ज्ञान नहीं है। सत्य शब्द के
पीछे है, सत्य शब्द के पहले है। सत्य शब्द मिट जाते हैं तब
भी शेष रह जाता है। सत्य को हम शब्द देते हैं लेकिन सत्य शब्द नहीं है। लेकिन यह
भूल पैदा हो जाती है।
कोई मुझे मिलता है, मैं पूछता हूं, आपका परिचय? वह बता देता, मेरा
नाम राम है। फिर मैं दूसरे लोगों को कहता हूं, मैं राम को
जानता हूं, मैं जानता क्या हूं? मैं एक
शब्द जानता हूं राम, और इस आदमी का नाम राम है, इतना जानने को मैं कहता हूं, मैं जानता हूं, मैं परिचित हूं, मैं भली-भांति जानता हूं। लेकिन उस
राम के पीछे क्या छिपा है उस व्यक्ति में क्या छिपा है? उस
शब्द में क्या छिपा है? उस शब्द के पार वह जो असली आदमी है
वह क्या है? शब्द तो हैं कि सिंबल है, प्रतीक
है। वह असली आदमी, सब्स्टेंस क्या है? उसका
मुझे कोई पता नहीं है, लेकिन हम नाम जानकर कहने लगते कि मैं
परिचित हूं। हमने सब नाम सीख रखे हैं। हमने अपने बाबत भी नाम सीख रखे हैं--शरीर
आत्मा, परमात्मा, सब हमने सीख रखे हैं।
कोई पूछे कौन हैं आप? तो सीखा हुआ आदमी कहेगा मैं आत्मा हूं।
आत्मा अमर है। लेकिन सब शब्द हैं, कोरे शब्द हैं क्योंकि
किताब में पढ़ लिए गए हैं। जाना कुछ भी नहीं गया है।
हम सब शब्दों की मालकियत कर बैठे हैं। शब्दों को पकड़कर बैठ गए हैं। और
जो आदमी शब्दों का जितना कुशल कारीगर होता है वह उतना ज्ञानी मालूम पड?ता
है। शब्दों से ज्ञान को कोई संबंध हनीं है। इसलिए हम पंडितों को ज्ञानी समझ लेते
हैं। पंडित भूलकर भी ज्ञानी नहीं होता। होना भी चाहे तो नहीं हो सकता है जब तक कि
पंडित होना मिट न जाए। दुनिया में अज्ञानियों को ज्ञान मिल सकता है लेकिन पंडितों
को कभी नहीं मिलता है। क्योंकि शब्द पर उनकी इतनी पकड़ है गीता उन्हें कंठस्थ है
बाइबिल उन्हें पूरी याद है, उपनिषद उन्हें पूरे रटे हैं। वे
कहीं बच्चों वाला काम कर रहे हैं सी ए टी कैट यानि बिल्ली। वह उपनिषद कंठस्थ कर
लिए हैं, गीता कंठस्थ कर ली है। जब भी पूछिए तो गीता बोलना
शुरू हो जाती है, उपनिषद निकलनी शुरू हो जाती है। हमें लगता
है, आदमी बहुत ज्ञानी है। लेकिन क्या निकल रहा है बाहर?
सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं। शब्द के कारण मनुष्य अपने को जानने
से वंचित है।
फिर क्या रास्ता हो सकता है? शब्दों से कोई ऊपर
उठे तो स्वयं को जान कसता है? सत्य के पार उठे, शब्द को छोड़े, शब्द के पीछे जाए, फूल को छोड़ दे, शब्द को और जो फूल है उस तक पहुंच।
गुलाब को छोड़ दे शब्द को, और जो गुलाब का फूल है वस्तुतः उस
तक जाए, तो शायद जान भी सकता है।
चीन में एक सम्राट था। उसने सारे राज्य में खबर की कि मैं एक राज महल
बनाना चाहता हूं। एक मुर्गे का चित्र बनाना चाहता हूं। सारे राज्य के बड़े-बड़े कुशल
कलाकार, चित्रकार, पेंटर मुर्गे का
चित्र बनाकर राजदरबार में उपस्थित हुए। बड़ी पुरस्कार के मिलने की संभावना थी। फिर
जो आदमी जीत जाएगा उस प्रतियोगिता में वह राज्य का कला गुरु भी नियुक्त हो जाएगा।
वह शाही चित्रकार हो जाएगा। हजारों चित्र आए, एक से एक सुंदर
चित्र था। राजा दंग रह गया। चित्र ऐसे मालूम पड़ते थे जैसे जिंदा मुर्गे हों,
इतने जीवंत थे। बड़ी मुश्किल हो गई। कैसे तय करें कि कौन चित्र सुंदर
है? भिन्न भिन्न चित्र थे, सुंदर सुंदर
चित्र थे। एक बूढ़ा चित्रकार था राजधानी में। राजा ने उसे स्मरण किया और उसे बुलाया
और कहा कि कोई चित्र चुनो। कौन सा चित्र सत्य है? कौन सा
चित्र सुर्वाग सुंदर है, उसी को हम राज्य की मुहर बना देंगे।
उसे बूढ़े चित्रकार ने द्वार बंद कर लिया। सुबह से सांझ तक वह कमरे के
भीतर था। शाम को बाहर आया, उदास। राजा को उसने कहा, कोई भी
चित्र ठीक नहीं, कोई भी चित्र मुर्गे नहीं है। राजा तो दंग
रह गया सब चित्र मुर्गों के थे। उसकी तो कठिनाई यह हो रही थी कि कौन चित्र सबसे
सुंदर है? और उस चित्रकार ने आकर कहा कि चित्र मुर्गे के
नहीं हैं। राजा ने कहा, क्या कहते हैं आप? क्या कसौटी है आपके जांच ने की? क्या क्राइटेरियन है,
कैसे आपने पहचाना? उसने कहा, मेरा एक ही क्राइटेरियन हो सकता था, एक ही मापदंड हो
सकता था। मैं एक जानदार, जवान मुर्गे को लेकर कमरे के भीतर
गया और मैंने देखा मुर्गा पहचानता है किसी मुर्गे को कि नहीं! लेकिन मुर्गे ने
ध्यान ही नहीं दिया इन चित्रों पर। हजार चित्र रखे थे वहां, वहां
हजार मुर्गे थे। अगर मुर्गा एक भी मुर्गे को पहचानता तो बांग देता, चिल्लाकर खड़ा हो जाता, लड़ने की स्थिति में आ जाता या
पास चला जाता, दोस्ती के लिए हाथ बढ़ाता, कुछ करना। लेकिन मुर्गा दिन भर रहा। सोया रहा, बैठा
रहा, लेकिन एक चित्र को उसने नहीं देखा। राजा ने कहा,
यह तो बड़ी मुश्किल हो गयी। मैंने तो सोचा भी नहीं था कि मुर्गों से
पहचान करवायी जाएगी। अब क्या होगा?
उस बूढ़े ने कहा, मेरी उम्र ज्यादा हुई अन्यथा मैं
कोशिश करता। लेकिन कौन जाने, बच जाऊं। कम से कम तीन साल लग
जाएंगे। तो मैं कोशिश करूं, राजा ने कहा, तीन साल! सत्तर साल का बूढ़ा था, सारे देश में
प्रसिद्ध चित्रकार था। राजा ने कहा एक साधारण से मुर्गे का चित्र बनने में तीन
साल! उस बूढ़े ने कहा चित्र बनाना तो बहुत आसान है, मुर्गे को
जानना बहुत कठिन है। मुर्गे को जानना बहुत कठिन है। मुर्गे की आत्मा को इंबाइब
करना बहुत कठिन है। मुर्गे के साथ एक हो जाना बहुत कठिन है। और जब तक मैं मुर्गे
से साथ एक न हो जाऊं, आत्मैक्य न हो जाए, जब तक मेरा उससे मिलन न हो जाए, तब तक मैं कैसे
जानूं कि मुर्गा भीतर से क्या है? बाहर से जो दिखाई है,
रंग रेखा उनसे कोई मुर्गे को नहीं पहचान सकता। मुर्गा भीतर क्या है।
सब है बात। अगर गांधी को आप ऊपर से देखें तो पहचान सकते हैं कि भीतर
क्या है? ऊपर से तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। आपको बंबई के रास्तों
पर मिल जाए तो क्या पहचान लेंगे कि भीतर क्या है? जीसस
क्राइस्ट आपको मिल जाए, पहचान लेंगे भीतर क्या है? आदमी ऊपर से दिखायी पड़ेगा, रूप दिखायी पड़ेगा,
रंग दिखायी पड़ेगा, शक्ल दिखायी पड़ेगी? और क्या दिखाई पड़ेगा? ये तो प्रतीक हुए, लेकिन भीतर यह आदमी क्या है? कैसे दिखाई पड़ेगा?
उस बूढ़े ने कहा, बहुत मुश्किल है, आदमी का चित्र भी बनाना होता तो भी आसान था क्योंकि मैं भी एक आदमी हूं,
भीतर से जान सकता हूं कि आदमी क्या होता है? लेकिन
मुर्गा? मैं मुर्गा नहीं हूं। मुर्गा भीतर से कैसा अनुभव
करता है, उसकी आत्मा क्या है, यह मैं
कैसे जानूं? राजा ने कहा, कोशिश करें,
चित्र तो जल्दी चाहिए। वह बूढ़ा जंगल में चला गया। छह महीने बीत गए
तो राजा ने आदमी भेजे कि पता लगाओ, वह बूढ़ा जिंदा है या मर
गया। छह महीने हो गए, कोई खबर नहीं आयी। आदमी गए तो देखा,
जंगली मुर्गों के बीच में वह बूढ़ा बैठा हुआ था चुपचाप छह महीने बीत
गए। वह जंगली मुर्गों की भीड़ में बैठा था चुपचाप। निरीक्षण करता था, आब्जर्व करता था, शायद आत्मैक्य के लिए कोई उपाय
करता था। उसने लोगों को हटा दिया और कहा, जाओ, बीच में बार-बार बत आना। तुम्हारे आने से बाधा पड़ती है। मुझे याद आ जाता
है कि मैं आदमी हूं। और जैसे मुझे याद आता है, मुर्गा मेरे
हाथ से छूट जाता है। तुम यहां बार बार मत आना। तीन साल बाद मैं आ जाऊंगा। तुम्हें
बीच बीच में देखता हूं तो मुझे फिर याद आ जाता है कि मैं आदमी हूं। छह महीने में
मैंने कोशिश की थी कि मैं मुर्गा हूं। वह भूल जाता है, वह
हाथ से छूट जाता है। तीन साल बाद लोग गए। उस बूढ़े को तो पहचानना मुश्किल हो गया।
वह तो एक पहाड़ी किनारे खड़े होकर मुर्गे की आवाज, उससे निकल
रही थी। उन्होंने उसे जाकर हिलाया और कहा, यह क्या हो गया?
आपसे मुर्गे की आवाज निकल रही है? उस बूढ़े ने
कहा, आ गया पकड़ में मुर्गा। इन तीन सालों में सब शब्द छोड़
दिए थे। इन तीन सालों में मुर्गे को मैं जानता हूं, यह खयाल
छोड़ दिया। डूब गया उसके साथ, एक हो गया। अब चलता हूं। राजा
के दरबार में जाकर खड़ा हुआ और उसने मुर्गे की आवाज में बाग दी। राजा ने कहा,
पागल हो गए हो मालूम होता है। हमने बुलाया था चित्र, तुम मुर्गा बन जाओ नहीं कहा था। चित्र कहां है?
उस कलाकार ने कहा, चित्र तो अब एक क्षण की बात है।
सामान बुला लें, मैं चित्र यहीं बना दूंगा। लेकिन अब मैं
जानकर लौटा हूं कि मुर्गा भीतर से क्या है, कैसा है। मैं
उसके साथ एक होकर लौटा हूं। क्षण भर भी नहीं लगा। सामान और उसने चित्र, बनाकर सामने रख दिया। हाथ उठा कर लकीर खींच देनी थी। और राजा ने कहा,
एक मुर्गा ले आओ। मुर्गा आया, दरवाजे पर ही
उसने देख कि चित्र है। उसने खड़े होकर...युद्ध के भास से खड़ा हो गया। मुर्गे ने
पहचान लिया कि सामने एक मुर्गा है। राजा
ने कहा, जी गए तुम। माप दंड पूरा हो गया। मैं तो सोचता था कि
मुर्गा क्या पहचानेगा कि चित्र मुर्गे का है!
ये जो हमारे शब्द हैं--गुलाब का फूल, जूही का फूल, सूरज पत्नी बेटा, मां, बाप ये
शब्द बीच में खड़े हो जाते हैं और फिर किसी से भी एक नहीं होने देते। दूसरों की बात
तो अलग, यह आत्मा हूं मैं, परमात्मा
हूं मैं, ब्रह्मा हूं, अहं ब्रह्मास्मि,
ये शब्द बीच में खड़े हो जाते हैं। स्वयं से भी एक नहीं होने देते।
जिससे हम एक हैं, उससे भी बीच में दीवार खड़ी कर देते हैं।
विचारक शब्दों का धनी होता है, और इसलिए विचारक सत्य को कभी
हनीं जान पाता। सत्य को वे जान पाते हैं--स्वयं के सत्य को--मैं कौन हूं, इस जीवन की प्राथमिक समस्या को वे लोग जाने पाते हैं जो सारे शब्दों को
छोड़कर निःशब्द में प्रवेश करते हैं।
शब्द को कैसे छोड़ा जा सकता है? बड़ी कठिनाई है। चौबीस
घंटे हम शब्दों में जीते हैं, सोते हैं तो शब्दों में,
जागते हैं तो शब्दों में एक छोटा सा शब्द, और
हमारा हृदय खिलकर एक फूल बन जाता है। और एक छोटा सा शब्द, और
हमारा क्रोध का जागरण हो जाता है। हृदय एक अंगार बन जाता है। एक छोटा सा शब्द और
हम दुखी हो जाते हैं। एक छोटा सा शब्द, और हम आकाश में मरने
लगते हैं। हमारा सारा जीवन शब्दों का हैं, सारा जीवन शब्दों
का है। जागते हैं तो शब्दों से, सोते हैं तो शब्दों से। रात
भर शब्द फिर शुरू हो जाता है। जैसे किसी झील के ऊपर छा गयी हो, पत्ते ही पत्ते फैल गए हों, पूरी झील ढक गयी हो,
कुछ दिखायी न पड़ता हो ऐसे ही शब्दों ही शब्दों में हमारी पूरी चेतना
ढक गयी है, और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है, सिवाय शब्दों के कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है। आप भीतर जाइए और शब्द ही शब्द
मिलेंगे। इन शब्दों के छूटे बिना कोई स्वयं का नहीं जान सकता है। लेकिन हमारी सारी
शिक्षा शब्दों की शिक्षा है। सारा समाज शब्दों पर जीता है। सारा जीवन शब्दों की
संपदा का व्यापार करता है। निःशब्द की तो कोई संभावना नहीं, कोई
मौका नहीं। शून्य हो जाने को, शब्द से मुक्त हो जाने का कोई
अवसर नहीं है। जब तक यह अवसर हम न जुटा लें, तब तक हमें पता
नहीं चल सकता कि मैं कौन हूं? जीवन क्या है?
यह कैसे होगा? दो बातें समझ लेनी जरूरी है। पहली बात--शब्द को हम
किसी भांति सीखते हैं? इस सूत्र को समझ लेना जरूरी है,
तो हम यह भी सीख सकते हैं कि शब्द को कैसे भुला जा सकता है।
एक सुबह बुद्ध अपने भिक्षुओं के बीच बोलने गए लोगों ने देखा वे अपने
हाथ में एक रेशमी रूमाल लिए हुए हैं। वे जाकर बैठ गए। बैठकर उन्होंने रूमाल खोला, उसमें एक गांठ लगायी, फिर दूसरी गांठ लगाई, फिर तीसरी गांठ लगाई, फिर और गांठें लगायी। पूरा
रूमाल गांवों से भर गया। भिक्षु चुपचाप देखते रहे कि वे क्या कर रहे हैं। फिर
उन्होंने कहा, भिक्षुओं मैं रूमाल लेकर आया था, और उसमें कोई गांठ न थी। अब रूमाल में गांठें ही गांठें लग गयी है। मैं
तुमसे पूछता हूं, यह वही रूमाल है, या
दूसरा रूमाल है? एक भिक्षु ने कहा कि एक अर्थ में तो वही
रूमाल है क्योंकि गांठ लगने से रूमाल में कोई खास फर्क नहीं पड़ गया है।
और एक अर्थ में रूमाल में बदलाहट हो गयी है। पहला रूमाल सीधा साफ था, इसमें गांठें पड़ गयी हैं।
बुद्ध ने कहा, मनुष्य की चेतना भी ऐसी ही है। शब्दों की गांठें पड़
जाती है चेतना पर, लेकिन वही है, फिर
भी फर्क हो गया। रूमाल में गांठें लगी हैं, तो रूमाल व्यर्थ
हो गया। उपयोग नहीं किया जा सकता, उसे खोला नहीं जा सकता।
रूमाल वही है, गांठों लगा रूमाल व्यर्थ हो गया। उसे खोला
नहीं जा सकता, उसका उपयोग नहीं किया जा सकता। इसलिए फर्क भी
पड़ गया और फर्क नहीं भी पड़ा। मूलतः तो रूमाल वैसा का वैसा है, लेकिन उपयोगिता भिन्न हो गयी। फिर बुद्ध ने पूछा, मैं
यह पूछता हूं, इन गांठों को कैसे खोला जाए? क्या मैं इस रुमाल को खींचूं? उन्होंने रूमाल खींचा,
गांठें ओर छोटी हो गई, और मजबूत हो गयीं,
एक भिक्षु ने कहा, अगर आप रुमाल खींचते ही गए
तो गांठें और मजबूत हो जाएंगी, खुलेंगी नहीं।
हम जीवन भर शब्दों की गांठें और खींचते चले जाते हैं, वह और मजबूत होती चली जाती है। बुद्ध ने कहा, तो मैं
कैसे खोलूं? तब एक भिक्षु ने कहा, इसके
पहले कि मैं कुछ कहूं कि रूमाल कैसे खुलेगा, मैं यह देखना
चाहूंगा कि गांठें बांधी कैसे गयी हैं, क्योंकि जिस भांति
बांधी गयी हों, उल्टे रास्ते से चलने से खुल जाएंगी। बुद्ध
ने कहा, यह भिक्षु ठीक कहता है। गांठ कैसे बांधी गयी है,
जब तक यह न जान लिया जाए तब तक गांठ खोली नहीं जा सकती। यह भी हो
सकता है, खोलने की कोशिश में गांठ और मजबूती से बंध जाए।
मनुष्य के मन पर शब्दों की
गांठ कैसे बंधु गयी है यह जानना जरूरी हो तो खोलने का रास्ता साफ हो जाता है। जिस
रास्ते से चल कर आप इस भवन तक आए हैं, उल्टे चलेंगे तो आप
अपने घर पहुंच जाएंगे। जिस रास्ते से गांठ बंधती है, उल्टे
जाएंगे तो गांठ खुल जाएगी। यह शब्दों ने मनुष्य के मन को ऐसा जकड़ रखा है...।
कैसे जकड़ रखा है? क्या है प्रक्रिया की? लघनग की प्रक्रिया क्या है? तो अनलघनग की प्रक्रिया
उल्टी प्रक्रिया होगी। तो मैंने कहा, छोटा बच्चा सीखता है।
कैसे सीखता है? वह कहता है, सी ए टी
कैट, कैट यानी बिल्ली, दोहराता है
दोहराता है दोहराता है। रिपीट करता है, रिपीट करता है,
पुनरिक्त करता है। पुनरुक्ति माध्यम है शब्द की गांठ बांधने का।
जितना किसी चीज को दोहराए, दोहराए, उतना
शब्द की गांठ मन पर बैठती चली जाती है। पुनरुक्ति द्वार है, रास्ता
है, मैथड है लघनग का, शब्दों को सीखने
का रास्ता है पुनरिक्त, रिपीटीशन। स्मृति खड़ी होती हैं
पुनरिक्त से। तो अनुपरुक्ति से गांठ खुल सकती है, अनलघनग से
शब्द भूल जा सकते हैं।
हम पुनरुक्ति तो सीख गए, बचपन में लेकिन
अपुनरुक्ति हम नहीं जानते हैं कि क्या करें, क्या करें,
क्या करें। एक छोटा-सा खयाल
समझ में आ जाए तो अपुनरुक्ति का रास्ता समझ में आ सकता है। अनलघनग का मैथड समझ में
आ सकता है। और जीवन के सत्य को जानने के लिए उसके अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है।
श्री रमण से आकर किसी ने पूछा, एक जर्मन विचारक ने
कि मैं क्या करूं, मैं क्या सत्य को कैसे सीखूं? हाऊ टु लर्न टी टूथ? श्री रमण ने कहा, बात ही गलत पूछते हो। सत्य को सीखा नहीं जाता। इसलिए यह मत पूछो, हाऊ टू लर्न दी टूथ। यह पूछो, हाऊ टू अनलर्न दी
अनटूथ? यह मत पूछो कि सत्य को कैसे सीखें, इतना ही पूछो की असत्य को कैसे भूलें? असत्य अनलर्न
हो जाए तो सत्य प्रकट हो जाता है। झील के पत्ते अलग कर दिए जाएं तो झील प्रकट हो
जाती है। पर्दा अलग कर दिया जाए तो प्रकाश सामने आ जाता है। द्वार खोल दिया जाए तो
हवाएं भीतर प्रविष्ट हो जाती हैं। यह मत पूछो कि हवाओं को कैसे भीतर लाएं, यही पूछो कि द्वार कैसे खोले? यह मत पूछो कि प्रकाश
कहां खोजें, यही पूछो कि आंख कैसे खोलें। श्री रमण ने कहा,
पूछो कि अनलर्न कैसे करें? जो सीख लिया है,
उसे भूलें कैसे? चेतना को वापस सरल और शुद्ध
कैसे करें? यही प्रश्न सबके सामने है।
हम सीख कर बैठ गए हैं। एक शब्द को भी भुलाना चाहे तो भुलाना कठिन है
और असंभव है। बल्कि जिस शब्द को आप भुलाना चाहें वह और भी स्मरण में वापस लौटने
लगेगा। की होगी आपने भी कभी कोशिश। किसी चेहरे को आप भुला देना चाहते है। किसी
स्मृति को भुला देना चाहते हैं और परेशान में पड़ जाते हैं। जितना भुलाना चाहते
हैं। उतना स्मृति वापस आने लगती है। आपको खयाल नहीं है कि भुलाने की कोशिश
रिपीटीशन है। भुलाने की चेष्टा में पुनरुक्ति शुरू हो गयी। आप बार-बार भुलाना
चाहते हैं किसी चीज को, उसका बार-बार आपको स्मरण करना पड़ता है और बार-बार
स्मरण करने से वह और मजबूत होती चली जाती है।
एक फकीर के पास एक युवक गया था और उसने कहा, मुझे कोई मंत्र दे दें मैं सिद्ध करना चाहता हूं। फकीर ने बहुत समझाया कि
मेरे पास कोई मंत्र नहीं, कोई सिद्धि नहीं, लेकिन युवक माना नहीं। पैर पकड़ लिए। जितना इंकार किया फकीर ने, उतने ही पैर पकड़े। आदमी की आदत ऐसी है, जहां इंकार
हो, वहां उसका आकर्षण बढ़ता है। जहां कोई बुलाए, वहां समझता है, बेकार है, कोई
सार नहीं है। जिस दरवाजे पर लिखा है, यहां मत झांको, वहां उसका मन झांकने का होता है। जहां लिखा है, यहां
झांकते हुए जरूर जाना वहां सोचता है, कुछ व्यर्थ होगा।
झांकने की कोई जरूरत नहीं है।
फकीर इंकार करने लगा। जितना इंकार करने लगा उतना उसका आकर्षण बढ़ने लगा
कि जरूर कोई बात है, जरूर कोई बात है, जरूर कोई बात
है; आखिर फकीर परेशान हो गया, उसने एक
कागज पर लिख कर मंत्र दे दिया और कहा, इसे ले जाओ, रात के अंधेरे में स्नान करके एकांत में बैठ जाना। पांच बार इस मंत्र को
पढ़ लेना। तुम जो चाहोगे, वह सभी तुम्हें मिल जाएगी। वह युवक
तो भागा। वह भूल भी गया कि धन्यवाद देना भी कम से कम जरूरी था। वह सीढ़ियां उतर ही
रहा था तब उससे फकीर ने कहा, जरा ठहरो, एक शब्द बताना भूल गया। बढ़ना तो मंत्र, लेकिन बंदर
का स्मरण मत करना उस समय, अन्यथा सब गड़बड़ हो जाएगा।
उस युवक ने कहा, बेफिकर रहो, जिंदगी बीत गयी, आज तक मैंने बंदर का स्मरण नहीं
किया क्यों करूंगा? लेकिन पूरी सीढ़ियां भी उतर नहीं पाया था
कि बंदर दिखायी पड़ने शुरू हो गए। उसने आंख मिची, कोशिश की,
लेकिन आंख खोलता है तो उसे बंदर का खयाल, आंख
बंद करता है तो बंद का खयाल। घर पहुंचा तो वह घबड़ा गया। अब कोई स्मरण ही नहीं है,
सिर्फ बंदर का स्मरण रह गया। बहुत नहाता है, बहुत
धोता है, भगवान की याद करता है, लेकिन
हाथ जोड़ता है भगवान नहीं दिखायी पड़ता है, वहां बंदर ही बंदर
दिखाई पड़ते हैं। रात हो गई और बढ़ने लगे। मंत्र पढ़ने का समय करीब आने लगा और बंदरों
की भीड़ इकट्ठा हो गयी। आंख बंद करता है तो कतारबद्ध बंदर खड़े हैं, वे दांत चिढ़ा रहे हैं, वे झपटने को तैयार है। वह तो
पागल होने लगा। उसने कहा, हे भगवान यह क्या हुआ? आज तक बंदर मुझे कभी याद नहीं आए, उनकी याद कैसे आने
लगी? रात बीत गयी, कई बार स्नान किया
कई बार कागज हाथ में उठाया, लेकिन बंदर पीछा नहीं छोड़ते हैं।
सुबह तक घबड़ा गया। सुबह तो मस्तिष्क घूमने लगा चक्कर खाने लगा। भागा हुआ गया फकीर
के पास और कहा, आप अपना मंत्र सम्हलो, अब
अगले जन्म में यह साधना हो सकेगी, इस जन्म में नहीं। और बड़
नासमझ मालूम पड़ते हो। अगर यह कंडीशन थी कि बंदर के स्मरण से मंत्र खराब हो जाता है
तो कम से कम कल न बताते, आज बता देते तो पार हो जाती बात।
रात दुनिया का कोई जानवर याद न आया। रात कोई धन याद न आया, कोई
स्त्री यान न आयी, कोई मित्र याद न आया, कोई शत्रु याद न आए, बस एक स्मृति रह गयी--बंदर,
बंदर, बंदर। उस फकीर ने कहा, मैं नया करूं, इस मंत्र की शर्त ही यही है। यह शर्त
कोई पूरी करे तो मंत्र सिद्ध होता है।
क्या हुआ होगा उस व्यक्ति को? जिन चीज को निकालना
चाहता था, बार-बार निकालना चाहता था वह चीज पुनरुक्त होती चली
गयी, वह रिपीट होती चली गयी, उसकी
स्मृति गहरी होती चली गयी, वह मन में बैठती चली गयी।
शब्द को निकालने की कोशिश से कभी आप शब्द के बाहर नहीं हो सकते।
विचारा को निकालने के प्रयास से कभी आप निर्विचार नहीं हो सकते। शांत होने की
कोशिश कभी आप शांत नहीं हो सकते, सोने की कोशिश से कभी आप सो नहीं
सकते। कभी देखा, आपको नींद न आ रही हो और आप कोशिश कर रहे
हैं कि मैं सो जाऊं। जितनी आप कोशिश करते हैं, नींद उतनी दूर
होती चली जाती है। जितनी आप कोशिश करेंगे, उतने ही शब्द गहरे
होते चले जाएंगे। इसलिए दुकान पर एक आदमी ज्यादा शांत होता है, मंदिर में जाता है तो और अशांत हो जाता है। पूजा करने आता है तो पाता है,
न मालूम क्या-क्या आने लगा! जो कभी नहीं आता वह भी पूजा में क्यों
आता है? पूजा करने को बैठने का संकल्प उसका यह है कि मन शांत
रहे, विचार न आए, बुरे विचार न आए। तो
फिर वही आने शुरू हो जाते हैं जिनको वह कहता है, मत आओ,
क्योंकि जिसको वह कहता है, उसी के प्रति वह
आकर्षण जाहिर कर देता है। यह निमंत्रण हो जाता है।
तो हम आमतौर से, न कभी शांत होता है, न कभी निर्विचार होते हैं। तो कैसे निःशब्द होंगे? साइलेंस
कैसे आएगा। और उसके बिना कोई शब्द का, उसके बिना कोई सत्य का
अनुभव न कभी हुआ है, न कभी हो सकता है। रास्ता है, और बड़ा सरल है। विचार को पुनरुक्त न करें। लेकिन पुनरुक्त न करने की विधि
है, विचार को आब्जर्व करें, निरीक्षण
करें। शब्द का निरीक्षण करें और आप हैरान रह जाएंगे, जिस
शब्द का आप निरीक्षण करने का आप तय कर लेंगे। वही शब्द आपकी आंखों से विलीन हो
जाएगा। आपको खयाल भी नहीं होगा। आपकी पत्नी है। तीस साल से आपके पास है। उसको आपने
इतना प्रेम किया है, लेकिन कभी एकांत में बैठकर उसकी शक्ल
आपने स्मरण की है? कभी एकांत में आपने खयाल किया है कि आपकी
पत्नी का चेहरा कैसा है? आप कहेंगे, मैं
जानता हूं,बिलकुल मुझे याद आ जाएगा। मैं आपसे कहता हूं,
आज ही आप जाकर कोशिश करना, और जितना आप
निरीक्षण करने की कोशिश करेंगे उतना आप पाएंगे कि सब धीरे-धीरे फीका होता जाता है।
पत्नी का चेहरा भी पकड़ा जा सकता। पति का चेहरा भी आबर्जवेशन के सामने नहीं टिकेगा।
बाप का, मां का, जिनसे आप इतने परिचित
हैं, जिनको आपने जीवन भर देखा है, कभी
आंख बंद करके कोशिश करें कि मैं अपनी पत्नी, अपने पिता,
अपने पति, अपने बेटे का पूरा चित्र अपनी आंख
के सामने ले आऊं। आब्जर्व करें, निरीक्षण करें, आप आएंगे कि रेखाएं धुंधली हो गयी। चेहरा पकड़ में नहीं आता कि मेरे पिता
का चेहरा ऐसा है। थोड़ी देर में आप पाएंगे, चेहरा विलीन हो
गया, वहां खाली जगह रह गयी, यहां कोई
चेहरा नहीं है।
मन की एक खूबी है कि चेतना जिस को भी निरीक्षण करना चाहे, आब्जर्व करना चाहे, वही शब्द तिरोहित हो जाता है। और
जिस शब्द को भुलाना चाहे वही शब्द वापस लौट आता है। शब्द को भुलाने की कोशिश नहीं,
शब्द का निरीक्षण, आर्ब्जवेशन, चित्त में जो भी शब्द उठते हैं, उनका निरीक्षण,
मात्र देखना, जस्ट सीइंग--और आप हैरान रह
जाएंगे कि आपके निरीक्षण के प्रकाश में शब्द कैसे ही हवा हो जाते हैं जैसे सूरज के
निकलने पर वृक्षों के ऊपर पड़े हुए ओस के बिंदु उड़ने लगते हैं। सूरज निकला और ओस के
बिंदु उड़ने लगे, तिरोहित होने लगे, भागने
लगे समाप्त होने लगे। जैसे ही आपकी चेतना पूरे ध्यान से शब्दों को देखने की कोशिश
करती है, शब्द उड़ने लगते हैं, हवा होने
लगते हैं। और एक बार आपको यह सीक्रेट खयाल में आ जाए, यह
रहस्य खयाल में आ जाए कि शब्द को देखने से शब्द की मृत्यु हो जाती है। उस दिन आपने
अनलघनग का, भूल जाने का राज, रहस्य
अनुभव कर लिया। और जिस आदमी को यह रहस्य मिल जाता है। वह ध्यान को उपलब्ध हो जाता
है। ध्यान का और कोई अर्थ नहीं है। मेडीटेशन का और कोई अर्थ नहीं है। ध्यान है
शब्दों की मृत्यु और शब्दों की मृत्यु प्रक्रिया है। आबजर्वेशन, अवेयरनेस, कांसेसनेस। किसी भी शब्द के प्रति पूरे
सचेतन हो जाए, शब्द विलीन हो जाएगा।
एक गुलाब गुलाब के फूल के पास आप खड़े हैं। आपको खयाल आता है, यह गुलाब का फूल है। बस बाधा पड़ गयी। फूल उन तरह रह गया, बीच में शब्द आ गया। अब जरूरी है कि शब्द को हटा दें बीच से ताकि फूल से
संबंध हो सके। आंख बंद कर लें और यह गुलाब का फूल है, इस
शब्द पर ध्यान ले जाए, पूरा निरीक्षण ले जाए, और इस शब्द को पकड़ने की कोशिश करें कि रुक जाओ। यह गुलाब का फूल है। इस
शब्द को मैं पूरी तरह देख लेना चाहता हूं। रुक जाओ, भागो मत।
आप थोड़ी देर में पाएंगे कि वह रुका हुआ शब्द इवेपोरेट होने लगा, उड़ने लगा, भागने लगा। वह शब्द भाग जाए, फिर आंख खोलकर गुलाब के फूल को देखें। और फिर खयाल आ जाए कि यह गुलाब का
फूल है, फिर आंख बंद कर लें, फिर उस
शब्द को निरीक्षण करें। जब तक कि आप बिना शब्द के फूल को देखने में समर्थन हो जाए
तब तक इस प्रक्रिया को जारी रखें। आप थोड़े ही दिन के प्रयोग में उस जगह पर पहुंच
जाएंगे जहां आपकी आंख गुलाब के फूल को देखेगी लेकिन आपकी स्मृति नहीं कहेगी कि यह
गुलाब का फूल है। सिर्फ देखते हुए आप रह जाएंगे। बीच में कोई शब्द नहीं उठेगा। और
जिस दिन निःशब्द दर्शन हो जाता है उस दिन गुलाब के फूल से आपकी आत्मा एक हो गयी।
उस दिन आप जानेंगे कि क्या है गुलाब का फूल। उस दिन आप जानेंगे कि उस चित्रकार ने
क्या जाना होगा कि मुर्गा होना क्या है। उस दिन आप जानेंगे, सूरज
क्या है। उस दिन आप जानेंगे, चांदनी क्या है। उस दिन आप
जानेंगे पत्नी क्या है, पिता क्या है, मित्र
क्या है।
और जिस दिन आपको निःशब्द दर्शन की यह संभावना स्पष्ट होने लगेगी, उस दिन इसका अंतिम प्रयोग स्वयं पर किया जाता है। तब निःशब्द होकर अपने को
देखा जा सकता है। और उस दिन आप जानेंगे कि मैं कौन हूं? उस
दिन जीवन की पहली और बुनियादी समस्या हल होती है कि मैं कौन हूं? और जिसके समक्ष यह समस्या हल हो जाता है उसका जीवन व एक बिलकुल अभिनव,
एक बिलकुल नया जीवन हो जाता है। उसके जीवन में आमूल क्रांति हो जाती
है। उसके जीवन में क्रोध की जगह क्षमा का जन्म हो जाता है। उसके जीवन में घृणा की
जगह प्रेम का जन्म हो जाता है। उसके जीवन में भय की जगह अभय का जन्म हो जाता है।
उसके जीवन में कांटे विलीन हो जाते और फूल खिल जाते हैं। उसके जीवन में अर्थहीनता
हो जाती है, सार्थकता पैदा हो जाती है। फिर उसे मनोरंजन की
तलाश नहीं होती। फिर वह चौबीस घंटे तक आनंद की थिरक में नाचता रह जाता है। फिर
श्वास-श्वास, फिर कण-कण, फिर उठना और
बैठना सभी प्रभु का कृत्य हो जाता है। फिर सब कुछ ए आनंद में बदल जाता है। फिर ऐसा
जैसे जीवन के आनंद-सागर में कोई बह जाता हो। सब तरफ फिर रोशनी दिखायी पड़ने लगती है
और बस तरफ फिर सुगंध का अनुभव होने लगता है। और सब तरफ प्रभु भी छवि दिखायी पड़ने
लगती है। फिर एक पत्ते में भी सारे विराट विश्व के दर्शन हो जाते हैं। फिर वैसा
व्यक्ति जब एक फूल को देखता है--गुलाब के फूल को देखता है, तो
उसे गुलाब का फूल नहीं दिखायी पड़ता, फूल के पीछे की शाखाएं
फिर शाखाओं के नीचे की जड़ें, और जड़ों से जुड़ी हुई पृथ्वी।
फिर फूल पर आयी हुई सूरज की किरणें, और सूरज जब संयुक्त
दिखायी पड़ने लगता है फिर वह प्रविष्ट हो जाता है विराट में और सारे जीवन का दर्शन
उसे शुरू हो जाता है।
लेकिन हम तो अपने को नहीं जानते, विराट जीवन को कैसे
जान सकेंगे? और जब हम अपने को नहीं जानते तो हम और क्या जान
सकेंगे। जब हम अपने से भी अज्ञान हैं, अपने से भी अजनबी
स्ट्रेंजर हैं तो हम और किससे परिचित हो सकेंगे? यह सारा
जीवन हमारा अपरिचित छूट जाता है क्योंकि हम अपने से ही अपरिचित है, और जो विराट संपदा मिल जाता है क्योंकि हम अपने से ही अपरिचित है, और जो विराट संपदा मिल सकती थी, सौंदर्य की, सत्य की, आनंद की, उस सबसे हम
वंचित रह जाते है। यह वंचित रह जाने के लिए और कोई जिम्मेवार नहीं है। अगर मैं
वंचित रह जाता हूं तो मैं ही जिम्मेवार हूं। यह दोष किसी और पर नहीं दिया जा सकता।
यह कहना फिजूल है कि आदमी एक व्यर्थ वासना है। अगर आदमी व्यर्थ वासना है तो यह उस आदमी
की भूल है। यह मैं आपसे कहना चाहता हूं, आदमी एक सार्थक
उपलब्धि है। आदमी एक सार्थक अनुभूति है। आदमी का जीवन अपरिसीम अमृत को अपने भीतर
छिपाए हुए है।
जैसे एक वीणा पड़ी हो किसी घर में और कोई बजाना न जानता हो और घर के
लोग कहते हों, फेंको इस सामान को, यहां घर में
फिजूल जगह घेरे हुए हैं। ठीक हमारे पास जीवन की वीणा पड़ी है, लेकिन हम उसके तारों से परिचित नहीं है, हमें उसके
राज मालूम नहीं हैं। हमें उसका बजाना पता नहीं हैं तो घर में एक बोझ मालूम होता
है। कई बार सोचते हैं, फेंक दो इसे। कई बार चूहे कूद जाते
हैं, बच्चे कूद जाते हैं। वीणा में खन-खन की आवाज हो जाती
हैं। घर में डिसटर्बेस मालूम होता है, नींद टूट जाती है। हम
कहते हैं हटाओ इसको व्यर्थ का सामान घर में पड़ा है, शोर-गुल
होता है। लेकिन कभी कोई वीणा को बजाने वाला कुशल वहां आ जाए और वीणा पर हाथ रख दे
तो सोए तार जाग उठेंगे। निष्प्राण तारों में प्राण पैदा हो जाएगा। घर एक संगीत से
गूंज उठेगा। हम कल्पना भी कर सकते थे कि
इन तारों में इतना छिपा है।
घर में बीज पड़े हों, कंकड़ पत्थरों जैसे मालूम होते
हों बीज। सोचते हैं, फेंक दें इन्हें, क्या
अर्थ है, क्या प्रयोजन है? लेकिन हमें
पता नहीं, इन बीजों में वृक्ष छिपे हैं। हमें पता नहीं,
इन बीजों में फूल छिपे हैं। हमें पता नहीं, इन
बीजों में सुगंध छिपी है। काश, कोई माली आ जाए और उन बीजों
को बो दे बगिया में, तो हम हैरान रह जाएंगे कि हमने कई बार
सोचा था कि फेंक दें इन बीजों को। हमें पता भी नहीं था कि इन ठोस कंकड़ जैसे दिखते
बीजों में इतने रहस्य छिपे होंगे, इतने सुनहले फूल उठेंगे,
इतनी सुगंध बरेगी, हमें कभी कल्पना भी न थी।
जीवन भी एक वीणा की तरह, जीवन भी एक बीज की
तरह है। लेकिन जो उसके राज को खोलने में समर्थ हो जाता है, वह
आनंद को उपलब्ध हो जाता है। जो उसके राज को नहीं खोल पाता है वह दुख में जीता है
में मरता है। मैं आपसे पूछना चाहता हूं आप दुख में जी रहे हैं, पीड़ा में जी रहे हैं, चिंता में, उदासी में, अंधेर में? तो कोई
बौर जिम्मेवार नहीं है सिवाय आपके। और आप चाहें तो आज जिंदगी को फूलों से भर
सकते हैं। चाहे तो आज उस वीणा से संगीत
पैदा हो सकता है। उस वीणा से कैसे संगीत पैदा हो सकता है, उस
संबंध में एक छोटा सूत्र मैंने आपसे कहा है। लेकिन मेरे कहने से कुछ भी नहीं हो
सकता उस सूत्र पर आप एक कदम आगे बढ़ जाए तो कुछ हो सकता है।
जीवन एक साधना है। जीवन अन्य के साथ नहीं मिलता जन्म के साथ तो केवल
पोटेंशिल, बीज रूप से संभावना मिलती है। जीवन तो अपने हाथ से
निर्मित करना होता है। परमात्मा ने एक मौका दिया है आदमी को। जन्म देता है
परमात्मा, जीवन नहीं देता। जन्म सिर्फ अपवर्चुनिटी है,
अवसर है। जीवन खुद को पैदा करना होता है। और जो खुद के जीवन पैदा
करने समर्थ होता है वह आनंद को उपलब्ध होता है। आनंद हमेशा आत्म-सृजन की छाया है,
सिर्फ क्रिएशन की छाया है । जब को व्यक्ति अपने जीवन का निर्मित कर
लेता है तो आनंद से भर जाता है।
यह मौका है, लेकिन यह मौका खोया भी जा सकता है और हमसे अधिक लोग
इस मौके को खोते हैं। आज तक मनुष्य जाति के अधिकतम बीज व्यर्थ ही नष्ट हो गए हैं।
मुश्किल से मनुष्य जाति के इतिहास में दस पचास आदमी पैदा हुए हैं। जिनके बीजों में
फूल आए, लेकिन वीणा में संगीत पैदा हुआ है। बाकी लोग ऐसे
नष्ट हो गए हैं। एक छोटी-सी कहानी, और अपनी बात मैं पूरी
करूं।
एक सम्राट मरने के करीब था। उसके तीन बेटे थे। उसने उन बेटों की
परीक्षा लेनी चाही कि किसको वह दे दे सारा राज्य। कौन संभाल सकेगा, कौन मालिक बन सकेगा? उसने कहा, मैं तीर्थ यात्रा पर जाता हूं। मुझे वर्ष दो वर्ष, तीन
वर्ष लग सकते हैं। मैं तुम्हारी परीक्षा के लिए एक प्रयोग करना चाहता हूं। उसने
एक-एक बोरा फूलों के बीज तीनों बेटों को दे दिए और कहा जब मैं लौटूं तो मैंने जो
तुम्हें दिया है वह अमानत रही, वह मुझे वापस कर देना। देखो,
वह नष्ट न हो जाए। बड़े बेटे ने सोचा कि ठीक है। कैसी परीक्षा है,
क्या पागलपन है! उसने एक तिजोड़ी में ताला लगाकर वह बोरे भर बीज
फूलों के बंद कर दिए। उसने कहा, जब वापस लौटेगा तो निकालकर
सारा वापस लौटा देंगे। तीन सालों में उन बीजों का वही हुआ जो होना था। सड़ गए और
राख हो गए।
दूसरे बेटे ने सोचा, इन बीजों को कहां रखे रहूंगा! कम
बढ़ हो जाए, कुछ गड़बड़ हो जाए, इन्हें
बेच दूं। जब बाप लौटेगा। फिर खरीदकर एक बोरा बीज दे देंगे। कौन पहचानेगा कि वही
बीज है? बीजों में कोई नाम लिखा है, कोई
सील लगी है? कौन झंझट सम्हालने की करेगा! उसने बाजार में बीज
बेच दिए और रुपए लाकर तिजोड़ी में रख दिए। जब बाप आएगा, बीज
खरीदकर वापस लौट दूंगा।
तीसरे लड़के ने कहा, बीज सम्हालने को बाप ने दिए हैं।
बीज के सम्हालने का एक ही रास्ता हो सकता है कि बीज को बो दिया जाए। इनमें फूल आ
जाएंगे। फिर नए बीज आ जाएंगे। उसने बीज बो दिए। सम्हालकर रखने का पागलपन क्या! इनका
फायदा भी ले लो, इनके फूलों की सुगंध भी ले लो! उसने बीज बो
दिए, मौसमी बीज थे। चार महीने भी नहीं बीत पाए, बगिया फूलों से भर गयी। सारा गांव प्रशंसा करने लगा। जब बाप तीन साल बाद
लौटा तो कोसों तक, मीलों तक महल के आसपास की भूमि फूलों से
भरी थी।
बाप ने आकर पूछा अपने बेटों को--बड़े को कि बीज कहां है? उसने तिजोड़ी खोली, वहां से राख और बदबू क्योंकि सब
बीज सड़ गए। उसने कहा, यह रखे हैं जो आप दे गए थे। बाप ने कहा,
पागल, ये फूलों के बीज थे और इनसे बदबू आ रही
है। कौन है जिम्मेवार इस बात के लिए? पहला बेटा हार गया।
दूसरे बेटे से कहा, बीज? उसने कहा,
मैं अभी जाता हूं। रुपए? निकाले, बाजार से खरीद लाता हूं। बाप ने कहा था, बीज मैंने
तुझे सम्हालने को दिए थे, बेचने को नहीं। बेचने को नहीं दिए
थे बीज, सम्हालने को दिए थे? दूसरा
लड़का हार गया। क्योंकि उसे सम्हालने को दिया गया उसे हम बेच दें।
कुछ लोग पहले लड़के की तरह हैं जिन्होंने जिंदगी के बीज को तिजोड़ियों
में बंद कर रखा है। जिंदगी सड़ जाती है और बदबू निकलती है। कुछ लोग दूसरे लड़के जैसे
है। जो जिंदगी को बाजार मग बेच रहे हैं--न मालूम कितने-कितने रूपों में। और जिस
दिन मौत सामने आएगी वह कहेंगे, हमने जिंदगी बेंच दी। किसी ने धन
में बेच दी, किसी ने यश में बेच दी। वे कहेंगे अपन पिता के
सामने कि यह धन है, हमने जिंदगी बेच दी। ये तिजोड़ियां हैं,
यह देखो। यह देखो हमारे पद। यह देखो कि मैं मंत्री था, मैं महामंत्री था, वह मैं प्रधान मंत्री था फलां
मुल्क का। हमने जिंदगी बेच दी है और यह पद और धन खरीद लिया है। यह सर्टिफिकेट देखो,
यह प्रमाण पत्र देखो। यह पदमश्री, राज्यश्री
की उपाधियां देखो। हमने बेच दी जिंदगी और यह खरीदकर ले आए। लेकिन उस बाप ने कहा जो
कि मैंने सम्हालने को दिया था वह बेचने को नहीं दिया था। और बेचना होता तो खुद बेच
देता, तुझे सम्हाल कर देने की जरूरत क्या थी? बीज कहा हैं जो मैंने दिए थे। उसके हाथ में नोटों के रुपए हैं। कागज के
रुपए हैं। अब कहां बीज जो फूल बन सकते थे, कहां कागज के नोट
जो कुछ भी नहीं बन सकते।
वह तीसरे लड़के के पास पहुंचा कि बीज कहां है मेरे? उसने कहा, बाहर आ जाए। बीज तिजोरियों में बंद नहीं
किया जा सकते और न नोटों में बंद किए जा सकते। वह खेतों में फैल गए हैं। बाहर आ
गए। मीलों बीजों के फूल गए हैं। फूल हवा में लहरा रहे हैं सूरज की रोशनी में।
तितलियां उन पर उड़ रही है और पक्षी गीत गा रहे हैं। और बाप ने कहा, तू अकेला मालिक होने के योग्य है।
परमात्मा भी सबको बीज देता है, जीवन भी। लेकिन कुछ
लोग पहले लड़के की तरह हैं, कुछ लोग दूसरे लड़के की तरह। और
बहुत थोड़े लोग तीसरे लड़के की तरह बीजों के साथ व्यवहार करते हैं। मैं आपसे
प्रार्थना करता हूं, तीसरे लड़के पर ध्यान रखना। कहीं आप पहले
दो लड़कों के जैसे सिद्ध न हों। वह तीसरे लड़के अगर आप हो जाएं तो आपके जीवन की
बगिया में भी इतने ही फूल, इतनी ही सुगंध इतने ही गीत गाते
पक्षी निश्चित ही पैदा हो सकते हैं। परमात्मा करे आपका जीवन फूलों की एक बगिया
बने।
वह कैसे बन सकता है, थोड़ी-सी बात मैंने आपसे कही।
आपने मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए
बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं,मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
ओशो
बिड़ला क्रीड़ा केंद्र बंबई
दिनांक ७ मई, १९६७ सुबह
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