साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)
ओशो
चौथा-प्रवचन
मनुष्य के जीवन में...और जीवन के आनंद का कोई अनुभव नहीं होता, उस संबंध में थोड़ी सी बात मैंने आपसे कही थी। आज सुबह अंधेपन का कौन सा
मौलिक आधार है, उस पर हम बात करेंगे।
कई सौ वर्ष पहले, यूनान की सड़कों पर एक आदमी देखा
गया था। भरी दोपहरी में सूरज के प्रकाश में भी वह हाथ में एक कंदील लिए हुए था।
लोगों ने उससे पूछा कि यह क्या पागलपन है, इस कंदील को लेकर
इस भरी दोपहरी में किसे खोज रहे हो? उस आदमी ने कहा: एक ऐसे
आदमी की खोज करता हूं, जिसके पास आंखें हों। वह आदमी था उस
समय का एक बहुत अदभुत फकीर डायोजनीज। डायोजनीज को मरे हुए बहुत वर्ष हो गए और
डायोजनीज जीवन भर वह लालटेन लिए हुए खोजता रहा उस आदमी को, जिसके
पास आंखें हों। लेकिन उसे वह आदमी नहीं मिला।
पीछे अमरीका में एक अफवाह उड़ी कि डायोजनीज फिर लौट आया है और अमरीका
में अब फिर लालटेन लिए हुए खोज रहा है। किसी ने उससे पूछा कि क्या हजार, डेढ़ हजार साल हो गए तुम्हें खोजते, अब तक वह आदमी
नहीं मिला, जिसके पास आंखें हों? डायोजनीज
ने कहा: वह आदमी तो नहीं मिला, एक ही संतोष मुझे है कि मेरी
लालटेन अब भी मेरे पास है और कोई उसे चुरा नहीं लेता है! और अब तो मैंने आशा भी
छोड़ दी है कि वह आदमी मिलेगा!
लेकिन हम सबके पास आंखें हैं। और कोई यह कहे कि हम आंख वाले आदमी को
खोजते हैं और वह नहीं मिलता, तो हमें हैरानी होगी। लेकिन जो
भी जानते हैं, वे कहेंगे कि हमारे पास आंखें हैं--केवल
वस्तुओं को और पदार्थ को देख पाती हैं, उसे नहीं जो परमात्मा
है। हमारी आंखें अत्यंत पार्थिव को देख पाती हैं, उसे नहीं
जो अपार्थिव है। और हमारी आंखें दूसरों को देख पाती हैं, स्वयं
को नहीं। ऐसी आंखों से जीवन का काम तो चल जाता है, लेकिन
जीवन का अर्थ उपलब्ध नहीं होता। ऐसी आंखों से हम टटोल-टटोल कर किसी भांति
गिरते-गिरते मृत्यु के दरवाजे तक तो पहुंच जाते हैं, लेकिन
जीवन के द्वार तक नहीं पहुंच पाते हैं।
इन आंखों के आधार पर चलने वाला और कहीं नहीं पहुंचता, सिवाय मृत्यु के। वह कहीं भी दौड़े, कुछ भी कोशिश करे,
कैसे भी प्रयास करे, लेकिन अंत में पाया जाता
है कि वह मौत के दरवाजे पर पहुंच गया। ये आंखें, जीवन के,
परम जीवन के द्वार तक नहीं ले जाती मालूम होती हैं। जन्म के बाद हम
रोज-रोज मौत की तरफ सरकते जाते हैं। और फिर हम चाहे कोई भी उपाय करें, और कोई भी सुरक्षा और सिक्योरिटी की व्यवस्था करें, मौत
से बचना नहीं हो पाता। हमारी सारी व्यवस्था शायद उसी से बचने के लिए है--धन इकट्ठा
करते हैं, यश इकट्ठा करते हैं, शक्ति
इकट्ठी करते हैं कि शायद शक्ति से, पद से और धन से हम एक
दीवाल बना लेंगे और अपने को मौत से बचा लेंगे। लेकिन हमारा कोई भी उपाय सार्थक
नहीं होता, वरन हम जो उपाय मौत से बचने के करते हैं, वे ही उपाय हमें और भी गति से मौत की तरफ ले जाते हैं। और यह कोई एक आदमी
की कथा नहीं है, सभी की कथा है--जो हुए उनकी, जो हैं उनकी और जो होंगे उनकी। लेकिन थोड़े से लोग इस कथा से भिन्न भी हैं,
कुछ लोग अपवाद भी सिद्ध हुए हैं।
क्राइस्ट को जिस रात पकड़ा गया और सुबह उनको सूली दी जाने को थी, उनके एक मित्र ने, ल्यूक ने उनसे पूछा कि क्या आप
घबड़ाए हुए नहीं हैं? कल मौत आ जाएगी, क्या
आपके चित्त में परेशानी और बेचैनी नहीं है? क्राइस्ट ने कहा:
जिस दिन से भीतर देखा, उस दिन से मौत मिट गई, अब मुझे मारने वाले इस भ्रम में होंगे कि उन्होंने मुझे मारा, और मैं नहीं मरूंगा।
मंसूर नाम के एक फकीर को सूली पर लटकाया गया और उसके हाथों में
कीलियां ठोंकी गईं। और जब लोगों ने उससे कहा कि तुम्हें अंतिम कोई बात कहनी है? तो मंसूर ने कहा: यही कि तुम जिस भ्रम में हो, परमात्मा
करे, वह भ्रम तुम्हारा टूटे। उन लोगों ने कहा: कौन सा भ्रम?
मंसूर ने कहा: यही कि तुम मरते हो या मार सकते हो, जो है प्राणों के प्राण में, वह अमृत है।
लेकिन हम तो ऐसे अमृत को जानते नहीं। हम तो जानते हैं, रोज चारों तरफ घटती हुई मृत्यु को और खुद भी निरंतर मृत्यु की तरफ सरकते
हैं, इसे भी जानते हैं। एक श्वास हम लेते हैं और एक आदमी
जमीन पर कहीं मर जाता है। एक श्वास भीतर जाती है और एक आदमी मर जाता है, और एक श्वास बाहर निकलती है और एक आदमी मर जाता है। प्रतिक्षण चारों तरफ
मौत घटित हो रही है और हम उसके बीच खड़े हैं, और हम कुछ भी
करें और कहीं भी भागें।
एक बादशाह हुआ, उसने रात एक स्वप्न देखा। स्वप्न में उसने देखा कि
कोई काली छाया उसके कंधे पर हाथ रखे है और उससे कह रही है कि कल ठीक समय और ठीक
स्थान पर मुझे मिल जाना, मैं मृत्यु हूं और कल तुम्हें लेने
आ रही हूं। कल सूरज डूबने के पहले ठीक जगह उपस्थित हो जाना। उसकी घबड़ाहट में नींद
टूट गई।
उसने अपने राज्य के बड़े ज्योतिषियों को बुलाया और पूछा कि मैंने ऐसा
स्वप्न देखा और स्वप्न विश्लेषकों को बुलवाया, उस समय के जो फ्रायड
होंगे और होंगे, उनको बुलवाया और उनसे पूछा कि इस स्वप्न का
क्या अर्थ है? और उन ज्योतिषियों से पूछा कि इस स्वप्न का
क्या अर्थ है? और मैं क्या उपाय करूं? क्योंकि
मुझे एक खबर मिली स्वप्न में कि आज संध्या होने के पूर्व मौत मुझे पकड़ ले जाएगी।
उन सारे लोगों ने बहुत सोचा और उन्होंने कहा कि सोचने में समय खोना
गलती होगी, आपके पास जो तेज से तेज घोड़ा हो उसे लेकर आप भागने की
कोशिश करें। जिस राजधानी में वह था दमिश्क में, उसके मित्रों
ने और उसके ज्ञानियों ने सलाह दी कि तेज से तेज घोड़ा लें और भागें और सूरज डूबने
के पहले जितनी दूर निकल सकें निकल जाएं। और इसके सिवाय अब हम कुछ भी सोचने में समय
गवांना ठीक नहीं समझते। हम सोचते रहें और विश्लेषण करते रहें और व्याख्या और
शास्त्रों में खोजते रहें और सांझ हो जाए और मौत आ जाए, फिर
कौन जिम्मेवार होगा?
उस राजा ने फिर एक क्षण भी न खोया, उसने अपने अस्तबल से
एक तेज से तेज घोड़ा बुलाया, उस पर वह बैठा और वह भागा। अपने
मित्रों और अपनी पत्नी और अपने बच्चों को विदा के दो शब्द भी कहने की उसे फुर्सत न
थी। रोते हुए लोगों ने विदा दी, लेकिन फिर भी उसे एक खयाल था
कि बहुत तेज घोड़ा उसके पास है और सांझ होने के पहले वह सैकड़ों मील दूर निकल जाएगा।
सच में ही वह सैकड़ों मील दूर निकल गया। उस दिन उसने न खाना लिया, न पानी पीया, न वह एक क्षण को विश्राम के लिए रुका,
वह घोड़े को भगाता ही रहा, भगाता ही रहा,
आखिर में सूरज डूबने के पहले वह सैकड़ों मील दूर एक बगीचे में जाकर
झाड़ के नीचे रुका, वह घोड़े को बांध ही रहा था कि मौत पीछे
आकर खड़ी हो गई और उसने कहा: मित्र, हम हैरानी में थे,
इतनी दूर तुम्हारी मौत होने को थी, तुम पता
नहीं आ भी पाओगे या नहीं आ पाओगे, ठीक जगह तुम आ पहुंचे और
ठीक समय पर, घोड़ा तुम्हारा लाजवाब है।
जिंदगी भर हम भागते हैं, भागते हैं और आखिर
में वहां पहुंच जाते हैं, जिससे हम भागते थे और जिससे हम
बचते थे और जिसके लिए हमने घोड़े दौड़ाए--यश के, और धन के,
और शक्ति के, और पद के, उसी
जगह हम पहुंच जाते हैं। और तब मौत हमें धन्यवाद देगी कि तुम्हारी दौड़ बहुत अच्छी
थी, तुम्हारे पास घोड़े बहुत तेज थे और तुम ठीक जगह और ठीक
समय पर आ पहुंचे हो।
यह जो जिंदगी है, जो अंततः हमें मृत्यु के दरवाजे
पर ले जाती है, जरूर कहीं गलत और भूलभरी है। अगर जीवन ठीक हो,
तो परम जीवन के द्वार पर पहुंच जाना चाहिए। लेकिन बहुत कम
सौभाग्यशाली लोग हैं, जो वहां पहुंचते हों। और नहीं पहुंचते
तो एक ही कारण है, हम किसी भांति आंतरिक जीवन के प्रति,
वास्तविक जीवन के प्रति अंधे हैं। हमें पदार्थ ही दिखाई पड़ता है,
परमात्मा नहीं। और जब तक परमात्मा दिखाई न पड़े, पदार्थ के ऊपर चेतना के जब तक दर्शन न हों, आकार से
भिन्न निराकार अनुभूतियों का द्वार न खुले, तब तक जानना
चाहिए आंखें बंद हैं। जो आंखें आकार ही देखती हैं, वे आंखें
देखती ही नहीं, और जो आंखें केवल ठोस वस्तुओं को ही देख पाती
हैं, वे आंखें देख ही नहीं पाती हैं। इस सारे आकार के साथ
कुछ निराकार व्याप्त है, और इस सारी देह के साथ कुछ अदेही भी,
और इस सारे पदार्थ के भीतर कोई और भी मौजूद है, उसे देखने वाली आंखों के लिए जरूरी है कि वे अंधी न हों।
मैंने कहा रात, श्रद्धा और विश्वास। बात थोड़ी उलटी लगेगी, क्योंकि हजारों वर्षों से यही सिखाया गया है कि जो श्रद्धा नहीं करता और
विश्वास नहीं करता, वह तो परमात्मा को जान ही नहीं सकेगा।
मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जो श्रद्धा करता है और विश्वास, उसके लिए परमात्मा को जानने का कोई भी उपाय नहीं है। किसी कारण से यह मैं
कहना चाहता हूं। इस कारण से यह कहना चाहता हूं, क्योंकि
श्रद्धा करने वाला मन, विश्वास करने वाला मन, अंधा हो जाता है। श्रद्धा का अर्थ है: जो हम नहीं जानते, उसे मान लें; जो हमने नहीं देखा, उसे स्वीकार कर लें; जो हमने नहीं सुना, उस पर आस्था कर लें; जो हमारा अनुभव नहीं है,
वह हमारी मान्यता बन जाए, श्रद्धा का यही अर्थ
है। मैं कहूं कि परमात्मा है और आप विश्वास कर लें, यह
श्रद्धा होगी? हो सकता है, मेरे लिए वह
ज्ञान हो, लेकिन मेरा ज्ञान आपका ज्ञान बन जाए, तो श्रद्धा है आपके लिए। हो सकता है मैंने जाना हो, मैं
आपसे कुछ कहूं और उसे आप स्वीकार कर लें, वह आपका जाना हुआ
नहीं है। आप अंधेपन में गिर रहे हैं, आप अंधे हो रहे हैं,
आप अपने भीतर की अंधी शक्तियों को बल दे रहे हैं। श्रद्धा अंधा करती
है। और जो भी अंधा...उसके लिए भी बहुत सचेत आंखें चाहिए, उसके
लिए तो बहुत, बहुत उन्मुक्त प्रकाश से, आलोक से भरी हुई आंखें चाहिए। उसके लिए श्रद्धा का अंधकार और अंधापन,
नहीं उसका मार्ग है। लेकिन सिखाया हमें यह गया है कि हम श्रद्धा
करें, और हम श्रद्धा करते रहे हैं। ऐसी कौमें हैं जमीन पर,
सभी तरह के लोग पूरी जमीन पर श्रद्धाएं करते रहे हैं। पूरी जमीन पर।
लेकिन एक बात में हम सब सहमत हैं, अंधश्रद्धा की दिशा में।
मुश्किल से कभी कोई व्यक्ति पैदा होता है, जो इनकार करता है श्रद्धा से। जो इनकार करता है श्रद्धा से, उसकी खोज शुरू होती है, उसकी इंक्वायरी शुरू होती
है। जो श्रद्धा के घेरे में आबद्ध हो जाता है, उसकी खोज बंद
हो जाती है। खोज तो हम तभी करते हैं, जब हम किसी दूसरे को
मानने के लिए राजी नहीं होते। तभी हमारे प्राण अपनी खोज पर निकलते हैं, तभी हमारे प्राणों की शक्ति जागती है और हम, हम खोज
के लिए आगे बढ़ते हैं, हमारी खोज की यात्रा शुरू होती है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अश्रद्धा करें, अश्रद्धा भी श्रद्धा का ही एक रूप है। मैं यह कह रहा हूं कि अंधे न बनें,
श्रद्धा में या अश्रद्धा में। एक आदमी मानता है, ईश्वर है; हम कहते हैं, यह
श्रद्धालु है। एक आदमी मानता है, ईश्वर नहीं है; हम कहते हैं, यह अश्रद्धालु है। मेरे लिए दोनों अंधे
हैं। क्योंकि जो कहता है, ईश्वर है, उसने
भी नहीं जाना और जो कहता है, ईश्वर नहीं है, उसने भी नहीं जाना। वे दोनों बिना जाने कुछ बात को स्वीकार कर रहे हैं। जो
बिना जाने स्वीकार करता है, चाहे आस्तिक हो, चाहे नास्तिक, वह श्रद्धालु है, और श्रद्धालु अंधा हो जाता है। आस्तिक भी अंधे हैं और नास्तिक भी। आपका
आस्तिक या नास्तिक होना इस बात पर निर्भर है कि आप किस प्रोपेगेंडा और किस प्रचार
के घेरे में पैदा हुए हैं। अगर आप हिंदू घर में पैदा हुए हैं, तो आपकी एक तरह की श्रद्धाएं बन जाएंगी। अगर आप मुसलमान घर में पैदा हुए
हैं, तो दूसरी तरह की। अगर आप सोवियत रूस में पैदा हुए हैं,
तो नास्तिक की, तीसरी तरह की। ये सारी की सारी
श्रद्धाएं आस-पास के वातावरण, प्रचार, सिद्धांतों
की हवाओं में पैदा होती हैं, यह आपका ज्ञान नहीं है। और जो
व्यक्ति इनको पकड़ लेता है, उसे फिर ज्ञान के खोज की जरूरत ही
समाप्त हो जाती है। फिर वह खोज ही नहीं करता।
खोज तो तब शुरू होती है जब एक व्यक्ति बाहर से आए हुए किन्हीं सिद्धांतों
को भी स्वीकार नहीं करता है--मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह अस्वीकार करता है, इस थोड़े से बारीक भेद को समझ लेना जरूरी है--अस्वीकार भी नहीं करता,
स्वीकार भी नहीं करता, वह यह कहता है कि जो भी
बाहर है, जो भी दूसरों का कहा हुआ है, वह
मेरा जाना हुआ नहीं है। इसलिए मैं कैसे कहूं कि वह सच है? या
मैं कैसे कहूं कि वह झूठ है? वह अपने को मुक्त रखता है। वह
कोई आग्रह में अपने को आबद्ध नहीं करता। वह किसी जंजीर को पकड़ता नहीं। वह यह कहता
है कि मैं नहीं जानता हूं, मुझे पता नहीं कि ईश्वर है या
नहीं है। मुझे पता नहीं कि हिंदू ठीक कहते हैं कि मुसलमान, कि
ईसाई, कि जैन। मुझे पता नहीं है। मैं निपट अज्ञानी हूं,
और इस अज्ञान में मैं कोई भी आग्रह करूंगा, तो
वह आग्रह खतरनाक होगा।
अज्ञानियों के आग्रह बहुत खतरनाक सिद्ध हुए हैं। सारी दुनिया में धर्म
लड़ते हैं अज्ञानियों के आग्रह के कारण, जिन्हें कुछ भी पता
नहीं है। जिन बातों का उन्हें पता नहीं है, उन बातों के लिए
मस्जिद और मंदिरों को जलाने को तैयार हैं। जिन बातों का उन्हें पता नहीं है,
उनके लिए वे शास्त्रों को नष्ट करने को या नये शास्त्र निर्मित करने
को तैयार हैं। जिन बातों का उन्हें कोई पता नहीं है, उनके
लिए वे लाखों लोगों की हत्या करने को या मर जाने को तैयार हैं।
अज्ञान में पकड़ी गई श्रद्धाएं बहुत स्युसाइडल सिद्ध हुई हैं, बहुत आत्मघाती सिद्ध हुई हैं। सारी दुनिया में धार्मिक लोग लड़ते रहे हैं।
कहीं धार्मिक व्यक्ति भी लड़ सकता है? धार्मिक लोग हत्याएं
करते रहे हैं। धार्मिक व्यक्ति भी हत्याएं कर सकता है? धार्मिक
लोग मंदिरों की मूर्तियां तोड़ते रहे हैं, मस्जिदों को जलाते
रहे हैं। धार्मिक व्यक्ति भी यह कर सकता है? और अगर धार्मिक
यह करेगा, तो फिर अधार्मिक के लिए क्या शेष रह जाता है?
फिर अधार्मिक क्या करेगा? नहीं, यह धार्मिक व्यक्ति ने नहीं किया है, यह किया है
अज्ञान में पकड़ी हुई श्रद्धा वाले लोगों ने। अज्ञान और श्रद्धा दोनों मिल कर बहुत
खतरनाक चीज बन जाती है।
लेकिन मैं आपको स्मरण दिला दूं कि अज्ञान के ही कारण हम श्रद्धा कर
लेते हैं। हम नहीं जानते, इस सत्य को स्वीकार करने का साहस बहुत कम लोगों में
होता है। मैं फिर से दोहराऊं, हम नहीं जानते हैं इस सत्य को
स्वीकार करने का साहस बहुत कम लोगों में होता है। और जिस व्यक्ति में यह साहस ही
नहीं है, वह समझ ले कि सत्य की खोज उसका, उसका जीवन नहीं बन सकती। यह तो प्राथमिक साहस है, यह
तो पहला चरण है--कि मैं इस बात को जान लूं कि मैं नहीं जानता हूं। और जो अपने
अज्ञान को स्वीकार कर लेता है, वह सभी तरह की श्रद्धाओं से
मुक्त हो जाता है। जो अपने अज्ञान को स्वीकार करने से बचना चाहता है और जो यह
दिखाना चाहता है कि नहीं मैं जानता हूं, इस थोथे अहंकार की
पूर्ति करना चाहता है, वह किसी न किसी तरह की श्रद्धा को पकड़
लेता है और कहने लगता है कि ईश्वर है या ईश्वर नहीं है; आत्मा
है या आत्मा नहीं है; पुनर्जन्म है या पुनर्जन्म नहीं है,
और इस तरह की बहुत सी बकवासें हैं, उनमें से
वह किसी को पकड़ लेता है और उसको दोहराने लगता है। और चूंकि वह खुद जानता नहीं है,
बहुत कमजोर है, इसलिए अगर आप उसकी बात न मानें,
तो वह तलवार लेकर खड़ा हो जाता है। क्योंकि उसके पास मनाने का और कोई
उपाय भी नहीं है। वह खुद तो जानता नहीं है, तो मनाने का एक
ही उपाय है कि वह तलवार उठा ले। मनाने का एक ही उपाय है कि वह भीड़ खड़ी कर ले।
मनाने का एक ही उपाय है कि वह अपनी संख्या बढ़ाता जाए। इसलिए तो हिंदू फिकर करता है,
संख्या कम न हो जाए; मुसलमान फिकर करता है,
संख्या बढ़ जाए; ईसाई फिकर करता है, और लोगों को पी जाओ; और सारे धर्म फिकर करते हैं,
हमारी संख्या बढ़े और कम न हो जाए। क्योंकि संख्या बल है, तलवार का बल, शक्ति का बल, भीड़
का बल। उस बल के आधार पर ही हम अपने अज्ञान में पकड़ी गई श्रद्धाओं के लिए समर्थन
दे सकते हैं। और हमारे पास कोई भी समर्थन नहीं है।
ज्ञान का जहां समर्थन है, वहां शक्ति का और
हिंसा का कोई समर्थन कभी नहीं पकड़ा जाता है। जहां अज्ञान है, वहां समर्थन में यही बात होती है। कमजोर क्रोधी हो जाता है, कमजोर लड़ने को तैयार हो जाता है। दुनिया के धार्मिक लोग लड़ते रहे हैं,
इस बात की सूचना है कि अज्ञानी और कमजोर लोगों ने दूसरों के ज्ञान
को जबरदस्ती अपना ज्ञान बना लिया है। और तब कितने खतरे हुए हैं, उनका कोई हिसाब नहीं है। कितने लाखों लोग काटे गए हैं, उसका कोई हिसाब नहीं है। कितने लाखों लोग जलाए गए हैं, उसका कोई हिसाब नहीं है। और जिन्होंने ये जलाए हैं, उनके
बुनियाद में है, अज्ञानपूर्ण श्रद्धा।
पहली बात जानने की जरूरी है कि किसी भी तरह की श्रद्धा, जो मैं अपने अज्ञान में पकडूंगा, मेरे लिए परतंत्रता
बन जाएगी। मैं फिर उस श्रद्धा के ऊपर नहीं उठ सकूंगा। उस श्रद्धा के ऊपर उठने में
मेरे प्राण कंपने लगेंगे, मुझे भय मालूम होने लगेगा, मुझे डर लगने लगेगा। क्यों? डर लगेगा इस बात का,
और वह तो टूटना बिलकुल स्वाभाविक है, जो
व्यक्ति खोजने के लिए चला है, वह अगर किसी भी श्रद्धा को
पकड़ेगा, उसकी श्रद्धा टूटनी स्वाभाविक है, खोज के पहले ही टूट जानी स्वाभाविक है, नहीं तो खोज
कैसे शुरू होगी?
खोज तो तभी शुरू हो सकती है, जब मैं निष्पक्ष हूं।
जब मेरा माइंड, मेरा मन अनप्रिज्युडिस्ड है, बिना किसी पक्षपात के। लेकिन हम सब तो पक्षपात से भरे हैं। और फिर हम कहते
हैं, हम सत्य को खोजना चाहते हैं और जीवन को जानना चाहते हैं,
लेकिन अपने पक्षपात को छोड़ने को हम राजी नहीं हैं। और हमारे पक्षपात
बहुत गहरे हमारे प्राणों को जकड़े हुए हैं। पक्षपात मनुष्य के चित्त की सबसे बड़ी
परतंत्रता है। और पक्षपात खड़े होते हैं--श्रद्धाओं से, विश्वासों
से, बिलीफ से। इसके पहले कि कोई आदमी सच में खोजने निकले कि
क्या है, उसे सब पक्षपातों से मुक्त हो जाना होगा, उसे सारे विश्वासों से मुक्त हो जाना होगा, उसे सारी
श्रद्धाओं से मुक्त हो जाना होगा। उसे ये सारी जंजीरें तोड़ देनी होंगी। ये जंजीरें
कोई दूसरा हमारे ऊपर नहीं लादता है, हम खुद बांधते हैं।
इसलिए तोड़ने के लिए भी हम हमेशा स्वतंत्र हैं। कोई दूसरा हम पर बांधता नहीं,
यह खुद हम स्वीकार करते हैं। हम खुद इनको अंगीकार करते हैं। सुरक्षा
के लिए हम इनको अंगीकार कर लेते हैं। अज्ञान में असुरक्षा है, इग्नोरेंस में इनसिक्योरिटी है। अज्ञान में कुछ रास्ता नहीं मिलता,
कोई किनारा नहीं मिलता, तो हम किसी ज्ञान के
किनारे को पकड़ लेते हैं, ताकि एक सहारा मिल जाए, सुरक्षा मिल जाए, मुझे भी लगे कि मैं भी जानता हूं।
लेकिन अज्ञान में पकड़ा गया कोई भी ज्ञान ज्ञान कैसे हो सकता है? पकड़ने वाला जब अज्ञान में है, तो वह जो भी पकड़ेगा,
वही अज्ञान हो जाएगा। अज्ञान की स्थिति में कोई ज्ञान ज्ञान नहीं बन
सकता। अज्ञानी गीता को पकड़ेगा, गीता खतरनाक हो जाएगी।
अज्ञानी महावीर को पकड़ेगा, महावीर खतरनाक हो जाएंगे। अज्ञानी
मोहम्मद को पकड़ेगा, मोहम्मद खतरनाक हो जाएंगे। वह अज्ञानी का
जो जहर है, वह जो भी पकड़ेगा, वही जहर
वहां व्याप्त हो जाएगा। अज्ञानी ने जो भी पकड़ा है, वह खतरनाक
हो गया है। पहली बात जानने की है, अज्ञानी को अपने भीतर
अज्ञान को नष्ट करना है, ज्ञान को पकड़ना नहीं। अज्ञान नष्ट
हो जाए, तो ज्ञान का जन्म उसके भीतर होगा। और अगर वह ज्ञान
को पकड़ ले, अज्ञान भीतर होगा, ऊपर
ज्ञान की बातें होंगी। पंडित में और क्या होता है? भीतर
अज्ञान होता है, ऊपर ज्ञान की बातें होती हैं। भीतर घना
अंधकार होता है, ऊपर शास्त्र होते हैं। भीतर निपट अंधकार
होता है, ऊपर मंत्र और शब्द और शास्त्रों का जाल होता है। उस
जाल के भीतर जाने पर निपट अज्ञानी आदमी खड़ा हुआ है।
एक पंडित से तो एक सीधा-सादा अज्ञानी भी बेहतर है, इसलिए कि उसे अपने अज्ञान का बोध होता है। जिसे अपने अज्ञान का बोध होता
है, उसे पीड़ा होती है, दुख होता है।
उसे लगता है कि इस अज्ञान को मैं कैसे मिटाऊं? लेकिन जिसको
अज्ञान का बोध ही मिट जाए और थोथे ज्ञान को पकड़ कर वह बैठ जाए और सोचे कि मैंने
जान लिया, वह तो डूब गया। अज्ञान भीतर रहेगा, थोथा ज्ञान बाहर होगा। आज तक शायद ही कभी कोई पंडित ने सत्य जाना हो,
वह जान नहीं सकता। शब्द उस पर इतने भारी होते हैं, दूसरों के सिद्धांत उसके प्राणों पर पत्थर की तरह सवार होते हैं। वह बातें
जानता है, सिद्धांत जानता है, तर्क
जानता है, उनके लिए आर्ग्यू कर सकता है, लड़ सकता है, विवाद कर सकता है, पच्चीस तरह की बातें और व्याख्याएं कर सकता है, लेकिन
जान नहीं सकता।
जानने की पहली शर्त तो यह है कि वह दूसरे के ज्ञान को
स्वीकार-अस्वीकार न करे। कैसी होगी वह स्थिति, जब हम दूसरों के
ज्ञान को स्वीकार और अस्वीकार नहीं करेंगे? बड़ी सरल होगी,
बड़ी ह्यूमिलिटी की होगी, बड़ी विनम्रता की होगी;
क्योंकि हम जानेंगे, हम नहीं जानते हैं।
साक्रेटीज से किसी ने कहा कि लोग कहते हैं कि तुम सबसे बड़े ज्ञानी हो।
साक्रेटीज ने कहा: उनसे कहना कि वे भ्रम में हैं, क्योंकि जैसे-जैसे
मैं जानने लगा, वैसे-वैसे मुझे पता चला कि मैं तो बड़ा
अज्ञानी हूं। जैसे-जैसे मैं जानता गया, वैसे-वैसे मेरा
अज्ञान स्पष्ट होता गया। और अब तो मैं एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं
जानता हूं। यह जो स्थिति है चित्त की, अगर पैदा हो जाए,
तो एक क्रांति घटित हो जाती है।
क्या हमारे मन की इतनी तैयारी है कि हम अज्ञानी होने को राजी हो जाएं? अज्ञानी हम हैं, होना नहीं है, सिर्फ इस तथ्य को स्वीकार करना जरूरी है कि हम अज्ञानी हैं। क्या सच में
आपको पता है कि ईश्वर है? क्या सच में आपको पता है कि आपके
शरीर के भीतर कोई आत्मा है? कभी कोई झलक आपको आत्मा की मिली?
कभी कोई स्पर्श हुआ है? कभी ईश्वर से कोई
मुठभेड़ हुई है? कोई मुलाकात हुई है? कोई
एनकाउंटर हुआ है? कभी पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ देखा और
जाना है? मृत्यु के घेरे के बाहर अमृत की कोई भी झलक कभी
मिली है? नहीं, सुनी हैं बातें,
शास्त्रों में पढ़ी हैं, गुरुओं के मुंह से
सुनी हैं और उनको हम पकड़े बैठे हैं। और उनको हम पकड़े रहे हैं, तो हम उन्हें पकड़े-पकड़े समाप्त हो जाएंगे। समाप्त हो जाएंगे बिना उसको
जाने जो जाना जा सकता था और निरंतर निकट था।
इसके पहले कि जीवन समाप्त हो जाए, यह चित्त की परतंत्र
स्थिति समाप्त होनी चाहिए। इस तथ्य को बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाना चाहिए
हमारे मन के समक्ष कि मेरे जानने का कुछ भी आधार नहीं है।
क्या होगा उससे? क्यों मैं इतना जोर दे रहा हूं
इस बात पर कि अज्ञान स्पष्ट हो जाना चाहिए? इसलिए जोर दे रहा
हूं कि जैसे ही अज्ञान स्पष्ट हुआ आपके जीवन में एक क्रांति की संभावना शुरू हो
गई।
जैसे हम यहां बैठे हैं और चारों तरफ आग लग जाए, तो जिसको यह दिखाई पड़े कि चारों तरफ आग लगी है, वह
फिर यहां आराम से और शांति से बैठा नहीं रहेगा। लेकिन उसे दिखाई पड़े कि नहीं,
कोई आग वगैरह नहीं लगी है, वह यहां आराम से
बैठा रहेगा और शांति से बैठा रहेगा।
यह तथ्य दिखाई पड़ जाए कि मेरे भीतर गहन अंधकार और अज्ञान है, तो वह अज्ञान और वह अंधकार आपको फिर शांति से बैठने नहीं देगा। उसकी पीड़ा,
उससे मुक्त होने के लिए द्वार बनेगी, मार्ग
बनेगी। बीमारी का पता चल जाए, तो हमारे भीतर स्वास्थ्य की
सहज आकांक्षा है। लेकिन बीमारी का पता न चले, तो स्वास्थ्य
की सहज आकांक्षा सक्रिय नहीं हो पाती है। अज्ञान का पता चल जाए, तो हमारे भीतर ज्ञान की गहन अभीप्सा है। लेकिन अज्ञान का पता न चले,
तो ज्ञान की खोज प्रारंभ भी नहीं हो पाती। अज्ञान का बोध मनुष्य को
ज्ञान की प्यास से भर देता है। अज्ञान का बोध ही ज्ञान की प्यास से भरता है। लेकिन
जो लोग झूठे ज्ञान को पकड़ लेते हैं, उनके भीतर ज्ञान की
प्यास मंदी होती जाती है, धीमी होती जाती है। धीरे-धीरे-धीरे
बुझ ही जाती है।
ज्ञान की प्यास जगे, उसके लिए अज्ञान का तीव्रतम बोध
आवश्यक है। और मजा यह है कि अज्ञान मौजूद है, उसको कहीं से
लाना नहीं है, केवल बोध मौजूद नहीं है। अज्ञान मौजूद है,
बोध मौजूद नहीं है। अज्ञान से अगर हमारा बोध संयुक्त हो जाए,
वह तभी होगा, जब हम इस झूठे ज्ञान के जाले और
ताने-बाने को तोड़ दें। इसे तोड़ने में कोई वर्षों के अभ्यास करने की जरूरत नहीं है
कि हम ज्ञान को तोड़ने जाएं।
एक फकीर उठा और सुबह उठते ही उसने अपने एक शिष्य को पास बुलाया और
उसने कहा कि रात मैंने एक सपना देखा। क्या तुम मेरे सपने की व्याख्या कर सकोगे? उस युवक ने यह भी न पूछा कि वह सपना कैसा है? उसने
कहा: आप रुकें, मैं पानी ले आता हूं, हाथ-मुंह
धो डालें। वह युवक पानी लेने चला गया, वह पानी लेकर आया,
वह फकीर अपना हाथ-मुंह धोता था, तभी दूसरा
शिष्य भी करीब से निकला, उसने उसे भी बुलाया और उसने कहा कि
सुनो, रात मैंने एक सपना देखा, क्या
तुम उसकी व्याख्या कर सकोगे? उसने कहा: अगर आप हाथ-मुंह धो
चुके हों, तो मैं चाय ले आऊं। उस फकीर ने कहा कि तुम दोनों
अदभुत हो, तुमने दोनों ने मेरे सपने की व्याख्या कर दी। अगर
तुमने आज मेरे सपने की व्याख्या की होती, मैं तुम्हें आश्रम
से निकाल कर बाहर कर देता। क्योंकि सपनों की जो व्याख्या करता है, वह नासमझ है। सपना आया और एक आदमी पानी ले आया हाथ-मुंह धोने के लिए,
यह समझ वाली बात है कि आप जाग जाएं ठीक से, ताकि
फिर न आ जाए सपना। और दूसरा आदमी चाय ले आया, कि अब आप चाय
पी लें, ताकि वापस लौटने की कोई गुंजाइश न रह जाए।
सपने की व्याख्या और तोड़ने की कोशिश और मिटाने की कोशिश इस बात का
सबूत है कि सपने को हमने स्वीकार कर लिया है। ऐसे ही श्रद्धाओं को तोड़ने का सवाल
नहीं है, सपने की भांति हैं, आप उनको
पकड़े हैं, इसलिए वे हैं। आपको यह स्पष्ट हो जाए कि कोई
श्रद्धा ज्ञान नहीं बन सकती, वे विलीन हो जाएंगी हवा में उसी
तरह, जिस तरह सपने जागने पर विलीन हो जाते हैं।
सिर्फ यह तथ्य स्मरण में आ जाए कि मैं अज्ञानी हूं और मेरा कोई भी
ज्ञान अपना नहीं है, यह मैंने दूसरों से स्वीकार कर लिया और पकड़ लिया।
लेकिन सिखाया तो हमें यह जाता है कि रोज सुबह गीता पढ़ना और रोज-रोज पढ़ना और जीवन
भर पढ़ना। और सिखाया तो हमें यह जाता है कि कुरान जब तुम्हें पूरी याद हो जाए,
तो तुम ज्ञानी हो जाओगे। और सिखाया तो हमें यह जाता है कि जो बाइबिल
को पूरी दोहरा दे वह ज्ञानी हो जाता है। चाहे वे उसे कितने ही कंठस्थ हो जाएं,
चाहे नींद में भी वह उनको बकने लगे, बोलने लगे,
तो भी ये शब्द हैं और मात्र स्मृति है, लेकिन
ज्ञान नहीं है।
ज्ञान, मेमोरी और नालेज में बुनियादी फर्क है। स्मृति तो एक
यांत्रिक व्यवस्था है। ज्ञान यांत्रिक व्यवस्था नहीं है, स्मृति
पार। जो भी हमें स्मरण है, वह बाहर से आता है। और जो भी हम
जानते हैं, वह भीतर से आता है। सारी दुनिया में स्मृति
को...आदमी अज्ञानी होता जाता है और सिर्फ...
अजीब मुश्किल में फंस गई है सारी दुनिया। प्रति सप्ताह पांच हजार
किताबें नई छप जाती हैं सारी दुनिया में। एक वक्त ऐसा आएगा आदमी को रहने की जगह न
बचेगी, किताबें इतनी हो जाएंगी कि आदमी को दफनाना हो,
तो किताबों में दफनाना पड़ेगा। मकान बनाना हो, तो
किताबों का बनाना पड़ेगा। क्या करिएगा? या फिर आदमी को कुछ और
तरकीबें सिखानी पड़ेंगी कि आप अपनी पैदाइश कम करो, क्योंकि
किताबों को रखने के लिए जगह नहीं है। अगर पांच हजार ग्रंथ प्रति सप्ताह तैयार
होंगे, तो यह तो होना स्वाभाविक है, आज
नहीं कल यह स्थिति आ जाएगी।
किताबें बढ़ती जाती हैं और आदमी का ज्ञान क्षीण होता जाता है। किताबें
और सारी शिक्षा स्मृति पर बल देती है, ज्ञान पर नहीं।
विश्वविद्यालय से स्मृति का प्रशिक्षण होता है, हम बाहर निकल
आते हैं। कुछ बातें हम स्मरण करते हैं और उन्हीं को जीवन भर दोहराते रहते हैं।
ज्ञान बड़ी और बात है। बड़ी गहरी बात तो यह है कि जो व्यक्ति जितनी
ज्यादा स्मृति को पकड़ेगा, उतना ही अज्ञानी रह जाएगा।
वही व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है, जो पहले तो यह जान ले कि स्मृति ज्ञान नहीं है। स्मृति केवल सूचना संग्रह
है। सूचना है, ज्ञान नहीं है। गीता को पढ़ लेना सूचनात्मक है,
ज्ञान नहीं है। कुरान को याद कर लेना सूचना है, ज्ञान नहीं है। सूचनाएं ज्ञान नहीं हैं।
एक आदमी प्रेम के संबंध में प्रेम की बातें जान ले, तो भी प्रेम को नहीं जान सकेगा। और एक आदमी तैरने के संबंध में शास्त्र पढ़
ले और व्याख्यान दे और किताबें लिखे, तो भी तैर नहीं सकेगा।
और यह भी हो सकता है कि एक आदमी कोई बात न बता सके कि तैरना क्या है--न बता सके,
न व्याख्यान दे सके, क्योंकि तैरना जानता है।
तैरना जानना एक बात है, तैरने के संबंध में जानना बिलकुल
दूसरी बात है।
बहुत पुरानी भारतीय कथा है। एक व्यक्ति सवार हुआ है नाव में और नदी
पार कर रहा है और अपने साथ बड़े शास्त्र लिए हुए है। बीच मझधार में उसने उस नाविक
से पूछा, तुमने कभी शास्त्र पढ़े हैं? उसने
कहा: कौन से शास्त्र? उसने कहा: क्या तुमने धर्मशास्त्र नहीं
पढ़े? नाविक ने कहा: मौका नहीं आया। तो उस पंडित ने कहा:
तुम्हारा चार आना जीवन बेकार गया। थोड़ी सी दूर और आगे बढ़े और उसने पूछा कि न पढ़ा
हो धर्मशास्त्र, ठीक है, साहित्य पढ़ा?
काव्य पढ़ा? नाविक ने कहा कि नहीं, मैंने तो नहीं पढ़ा। उस पंडित ने कहा: और चार आना गया। और थोड़ी ही देर में
तूफान आया और नाव डूबने लगी, फुहारें पड़ने लगीं और पानी भीतर
आने लगा। उस नाविक ने पूछा, पंडितजी, तैरना
जानते हो? उस पंडित ने कहा कि नहीं, तैरना
तो आता नहीं। तो आपका सोलह आना जीवन गया। अब कोई उपाय नहीं है, मेरा तो आठ आना ही गया, आपका सोलह आना गया। और उस
दिन सोलह आना जीवन गया पंडितजी का और नाविक तैर कर निकल गया और पंडित वहीं डूब
गया।
जिंदगी में भी यही होता है। जिंदगी के सागर में भी रोज ही, ये जो स्मृति के बल पर बैठे हुए लोग हैं जिंदगी के सागर में डूबते हैं।
जिंदगी स्मृति को नहीं जानती है, जिंदगी ज्ञान को जानती है।
जिंदगी ज्ञान को मानती है, स्मृति को नहीं। लेकिन हम स्मृति
को ज्ञान समझे हुए हैं और भरे हुए हैं, और न मालूम क्या-क्या
भरे हुए हैं।
यह तथ्य स्पष्ट रूप से खयाल में आ जाए कि स्मृति ज्ञान नहीं है, तो आपको अज्ञान स्पष्ट हो जाएगा। यह बात स्पष्ट हो जाए कि कोई श्रद्धा
मेरा ज्ञान नहीं बन सकती, तो श्रद्धा को तोड़ने के लिए कोई
तलवारें नहीं उठानी पड़ेंगी। टूट गई, बात हो गई। जीवन बहुत
अदभुत है, कुछ बातें जानते ही से नष्ट हो जाती हैं। जैसे
दीया जला कर अंधेरे को खोज-खोज कर भगाना नहीं पड़ता--दीया जलाया और खोज रहे हैं कि
अंधेरा कहां है? दीया जला कि अंधेरा गया। अंधेरा था ही नहीं,
दीये की गैर-मौजूदगी थी, अनुपस्थिति थी। किंतु
अंधेरे की कोई...
ऐसे ही श्रद्धाओं, विश्वासों की कोई उपस्थिति नहीं
होती। केवल इस बोध की अनुपस्थिति का नाम, इस बोध का कि मैं
अज्ञान में हूं और किसी दूसरे का ज्ञान मेरा ज्ञान नहीं हो सकता। महावीर आपको मिल
जाएं या बुद्ध या क्राइस्ट--ज्ञान को तो खुद के ही प्राणों की निरंतर खोज और अनुसंधान
से उपलब्ध करना होता है। उसे न तो चुराया जा सकता है, न किसी
से मुफ्त पाया जा सकता है, न भेंट में पाया जा सकता है। कोई
रास्ता नहीं है उसे और तरह से पाने का। उसे तो खुद ही जीना पड़ता और खोजना पड़ता है।
अज्ञान हमारा है, तो हमारा ज्ञान उसे मिटा सकेगा।
अज्ञान हमारा है, ज्ञान दूसरे का है, इन
दोनों का कहीं मिलना ही नहीं होगा। ये दूसरे को काट ही नहीं पाएंगे, इनका कोई संबंध ही नहीं है। अज्ञान बचा रहेगा और ज्ञान स्मृति में इकट्ठा
होता चला जाएगा। प्राण अज्ञान में रहेंगे, बुद्धि ज्ञान से
भर जाएगी। दूसरे का ज्ञान स्मृति से ज्यादा गहरा नहीं जाता। खुद का ज्ञान ही आत्मा
की केंद्रीय चेतना को जगाता और प्रकट करता है। इसीलिए तो यह देखा जाता है कि हम
ऊपर से जो भी थोप लें, वह हममें बहुत गहरा नहीं होता,
स्किन डीप भी नहीं होता, चमड़ी के बराबर भी
गहरा नहीं होता, जरा सी खरोंच उसे मिटा देती है।
एक व्यक्ति थे और वे बहुत क्रोधी थे और बहुत, बहुत अशांत। तो उनके मित्रों ने उन्हें सलाह दी, उनके
क्रोध ने उन्हें बहुत कष्ट दिया, बहुत पीड़ा दी। आखिर वे
परेशान हो गए। उन्होंने किताबें पढ़ीं और गुरुओं से पूछा, उन्होंने
कहा कि जब तक संसार में रहोगे तब तक तो अशांति रहेगी ही। संसार छोड़ो, तो शांत हो सकते हो। वे पक्के क्रोधी थे, उनको यह भी
चोट लग गई; पक्के जिद्दी थे, बड़े हठी
थे, उनको यह भी चोट लग गई। तो उन्होंने एक दिन गुस्से में
आकर संसार भी छोड़ दिया, साधु हो गए। जिस व्यक्ति से उन्होंने
दीक्षा ली, उसने उन्हें शांतिनाथ का नाम दे दिया, क्योंकि वे बड़े अशांत और क्रोधी थे और शांति की साधना के लिए साधु हुए थे।
वे एक बड़े नगर में गए और उनके पुराने बचपन के एक मित्र उनसे मिलने गए।
वे शांतिनाथ तो मित्रों को भूल चुके थे, क्योंकि संसार छोड़
चुके थे। लेकिन मित्र अभी संसार में थे और शांतिनाथ को याद रखते थे। उन मित्र ने
उनसे पूछा, महानुभाव, आपका नाम?
उन्होंने कहा: शांतिनाथ! कोई दो मिनट कुछ बात चली होगी, फिर उस मित्र ने पूछा, क्षमा करिए, आपका नाम? उन्होंने कहा: शांतिनाथ! फिर कोई दो मिनट
बात चली होगी, उस मित्र ने पूछा, क्षमा
करिए, आपका नाम? उन्होंने अपना डंडा
उठा लिया, उन्होंने कहा: कहा नहीं तुझसे कि शांतिनाथ!
उन्होंने कहा: मैं समझ गया कि आप बिलकुल शांति को उपलब्ध हो चुके हैं। मैं जाता
हूं। मैं पुराना मित्र हूं, और देखने आया था कि शांति कितनी
गहरी गई? वह स्किन डीप भी नहीं है, वह
चमड़े से ज्यादा गहरी भी नहीं है।
जो दीक्षाएं दूसरों से ली जाएं, जो संन्यास दूसरों से
लिया जाए, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। जो ज्ञान दूसरों से
मिले, वह गहरा नहीं जाता। जो शांति दूसरों से मिल जाए,
वह उससे ज्यादा गहरी नहीं हो सकती। प्राण तो आपके ही होंगे, चाहे वस्त्र बदल लें और घर छोड़ दें, फर्क नहीं
पड़ेगा।
भागें दुनिया के कोने-कोने में, अपने आप से भागना
असंभव है, आप अपने साथ होंगे। और सबको छोड़ कर भाग जाएंगे,
आप अपने साथ होंगे।
इसलिए एक बात आज की सुबह मैं आपसे कहना चाहता हूं, वह यह कि जो आपका है वही बस आपका है, और जो आपका है
वही आपमें क्रांति और परिवर्तन ला सकता है। जो ज्ञान कहीं और से आता हो, जो नैतिकता, जो चरित्र बाहर से आता हो, वह गहरा नहीं होता, उसे जरा ही खरोंच दें, असली आदमी बाहर आ जाएगा, नकली आदमी फट जाएगा। वह हमेशा
असली आदमी भीतर मौजूद है। दुनिया में सबको धोखा दिया जा सकता है, खुद को नहीं। लेकिन हम खुद को भी धोखा देते हैं। और कम से कम सत्य की खोज
में तो हम निरंतर धोखा देते हैं। और हम बड़े होशियार हैं, धोखा
ही नहीं देते, धोखा देने में सफल हो जाते हैं। मैं फिर से दोहराता
हूं, हम बहुत होशियार हैं, धोखा ही
नहीं देते, धोखा देने में सफल हो जाते हैं। धन्य हैं वे लोग
जो धोखा देने में असफल रह जाते हैं। क्योंकि तब उन्हें यह खयाल आता है कि धोखा
देना व्यर्थ है। दूसरों का ज्ञान लिए बैठे हैं और ज्ञानी बन गए, इससे बड़ा धोखा हो सकता है? गीता और रामायण दोहराते
हैं और ज्ञानी बन गए, इससे बड़ा धोखा हो सकता है? ज्ञान के मामले में अदभुत धोखे हमने दिए हैं।
मेरे एक मित्र मुझसे कह रहे थे कि वे दूसरे महायुद्ध में थे। एक जहाज
पर थे। एक आदमी सामने बैठा हुआ दिन-रात अकेला ही ताश का खेल खेलता रहता था--दोनों
तरफ से; दूसरी पार्टी की तरफ से भी चलता था, अपनी तरफ से भी। अकेले ही खेलता रहता था। अब वह अकेला था, कोई उपाय न था। ये भी उसके साथ, उसी केबिन में
यात्री थे, तो दिन-रात देखते रहते थे, उन्होंने
देखा कि वह आदमी चालों में धोखे करता है। अकेले ही खेल रहा है, कोई दूसरा है नहीं, दूसरी तरफ से भी खुद चलता है,
अपनी तरफ से भी, लेकिन चाल में धोखा करता है।
वह दूसरे आदमी को धोखा देता है, जो मौजूद ही नहीं है। जब
उन्होंने बार-बार देखा कि यह धोखा करता है, तो बहुत हैरानी
हुई। एक तो अकेला ताश खेलता था, यही पागलपन था, फिर वह जो मौजूद नहीं है उसको धोखा देता था, वह तो
है नहीं, तो धोखा तो अपने को ही देता था, और तो वहां कोई था नहीं।
जब उनकी बरदाश्त के बाहर हो गया देखते-देखते, तो उन्होंने कहा कि ठहरिए! आप तो हद्द किए दे रहे हैं, धोखा दिए दे रहे हैं। उसने कहा: मुझे सब मालूम है। क्या मुझे मालूम नहीं
कि मैं धोखा दे रहा हूं? लेकिन मैं इतना होशियार आदमी हूं कि
पकड़ नहीं पाता, पकड़ा नहीं जाता हूं, इतना
होशियार आदमी हूं। क्या मुझे पता नहीं कि मैं धोखा दे रहा हूं? मुझे पता है। लेकिन इतना होशियार हूं कि आज तक पकड़ा नहीं गया। पकड़ा कैसे जाएगा?
दूसरों को आप धोखा देंगे, तो पकड़े भी जा सकते
हैं। अदालतें हैं, पुलिस हैं, और जमाने
भर का जाल है, कानून है, दूसरे लोग हैं
वे भी आंखें गड़ाए हुए हैं। अपने को धोखा देंगे, कोई नहीं
पड़ेगा। कोई पकड़ने का कारण नहीं है। इसीलिए तो दुनिया में सब तरह के धोखे पकड़ जाते
हैं, लेकिन आत्मज्ञान का धोखा पकड़ में नहीं आता। यह सबसे
गहरा डिसेप्शन है, यह पकड़ में नहीं आता, क्योंकि उसके खिलाफ कोई भी नहीं है। आप बने रहो आत्मज्ञानी, आप जानते रहो परमात्मा को, न पुलिस पकड़ती है,
न अदालत में मुकदमा चलता है। और कुछ मूढ़ आपको मिल जाएंगे जो आपके इस
धोखे में सहयोगी हो जाएंगे। इस जमीन पर ऐसे मूढ़ खोजना कठिन नहीं, जिनके शिष्य न मिल जाएं। शिष्य हमेशा उपलब्ध हो जाएंगे, क्योंकि बड़े मूर्ख हमेशा मौजूद हैं। वे आपको सहयोगी हो जाएंगे आपके ज्ञान
में और ताली बजाएंगे और सिर हिलाएंगे। आप खुद अपने को धोखा देंगे और उनसे धोखा
खाएंगे। लेकिन जो आदमी जानता है, थोड़ी भी जिसकी ईमानदारी की
खोज है जीवन के प्रति, वह एक बात जरूर समझ लेगा कि अपने को
धोखा देने से कोई भी अर्थ नहीं है। सिर्फ जीवन नष्ट होता है और व्यय होता है।
दूसरे के ज्ञान को अपना ज्ञान मानना बहुत सूक्ष्म धोखा है। लेकिन हम
सब माने हुए हैं, न केवल माने हुए, बल्कि लड़ सकते
हैं उस ज्ञान पर, लोग विवाद में आ जाते हैं और लड़ते हैं,
मेरा विचार! तलवारें निकल आती हैं विचार पर। और बड़े मजे की बात है,
आपका कोई भी विचार नहीं है, सब विचार पराए हैं
और दूसरों के हैं। मेरा विचार बिलकुल झूठी बात है। कौन सा विचार आपका है? एकाध
विचार है, जो आप कह सकें मेरा है? अगर
खोज करेंगे, तो ऐसा एक भी विचार नहीं पाएंगे। और जब ऐसे पराए
विचारों का हम पर बोझ हो, तो स्वयं का अनुभव पैदा नहीं हो
सकता।
इसलिए मैं पहली जो स्वतंत्रता चाहिए सत्य की खोज के लिए, वह श्रद्धा से स्वतंत्रता, अश्रद्धा से स्वतंत्रता।
उन्मुक्त अपने अज्ञान को स्वीकार करता हुआ चित्त पहली स्वतंत्रता है, वह फर्स्ट फ्रीडम है, इसके बिना कोई रास्ता आगे बन
नहीं सकता।
तो आज की सुबह तो मैं यही प्रार्थना करूंगा कि श्रद्धा से स्वतंत्र हो
जाइए, अश्रद्धा से स्वतंत्र हो जाइए, विश्वास
से स्वतंत्र हो जाइए। मान्यता, परंपरा, संप्रदाय से मुक्त और स्वतंत्र हो जाइए। चित्त से इन जालों को तोड़ दीजिए।
और आपके जानते और समझते ही ये जाल टूट जाते हैं, इनके लिए
जाकर कमरे पर लड़ने की जरूरत नहीं है, अंडरस्टैंडिंग, इस बात की समझ, जाल टूट गया।
चित्त अगर इस भांति श्रद्धा, अश्रद्धा से, बिलीफ से, डिसबिलीफ से मुक्त हो जाए, बहुत निर्मल हो जाता है, बहुत सरल हो जाता है,
बहुत सहज हो जाता है। खोज की तैयारी हो जाती है, पहला चरण पूरा हो जाता है।
यह तो पहली बात है जो आज की सुबह मैंने आपसे कही। हां, कल मैं विवेक के जागरण की बात सुबह आपसे करूंगा। श्रद्धा से मुक्त हो जाएं
तो फिर विवेक जग सकता है। श्रद्धा से चित्त मुक्त हो, विवेक
जाग्रत हो। विवेक की बात कल करूंगा। विवेक जाग्रत हो, श्रद्धा
से मुक्ति हो। और फिर तीसरी बात परसों करूंगा कि जब चित्त श्रद्धा से मुक्त हो
जाता है और विवेक जाग्रत हो जाता है।
एक और छोटी सी बात है वह भी अगर उसके जीवन में हो जाए, जिसको हम समाधि कहते हैं, अत्यंत निर्विकार और
निराकार चित्त की स्थिति कहते हैं, ऑब्जेक्टलेसनेस कहते हैं।
श्रद्धा से मुक्त हो चित्त, विवेक जाग्रत हो और चित्त के
समक्ष सभी ऑब्जेक्ट, सभी विषय, सभी
विचार, सभी कल्पनाएं विलीन हो जाएं, चित्त
के समक्ष फिर कुछ भी न रह जाए। श्रद्धा से मुक्ति हो, विवेक
जाग्रत हो और चित्त के समक्ष कुछ भी न रह जाए। चित्त के समक्ष रह जाए अनंत शून्य,
सन्नाटा और शांति, साइलेंस। बस ये तीन बातें
पूरी हो जाएं, तो मनुष्य वहां खड़ा हो जाता है जहां परमात्मा
है। वहां उसकी आंखें खुल जाती हैं जहां सत्य है। वहां उसके प्राण आंदोलित होने
लगते हैं, वहां उसके प्राणों में लहरें उठने लगती हैं,
जहां व्यक्ति मिट जाता है और समस्त, वह जो टोटेलिटी
है, वह जो सबकी सत्ता है, उससे मेल हो
जाता है।
समाधि की बात अंतिम दिन करूंगा। आज मैंने श्रद्धा से मुक्त होने की
बात कही। कल, विवेक को जाग्रत कैसे करें, उसकी
बात करूंगा। और परसों, समाधि कैसे अवतरित हो, कैसे आ जाए हमारे जीवन में। इन तीन चरणों में चर्चा करूंगा। इस संबंध में
जो भी प्रश्न होंगे, वे आप संध्या को पूछ लेंगे, ताकि इनके कुछ पहले छूट गए होंगे वह आपके प्रश्नों में आ जाएंगे और उनकी
बात हो सकेगी।
अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।
इसके पहले कि हम ध्यान के लिए बैठें, मैं दो थोड़ी सी बातें
ध्यान के संबंध में कह दूं।
ध्यान बड़ी अत्यंत सरल सी बात है। और जो कोई भी कहता हो, ध्यान बहुत कठिन है, वह झूठ कहता होगा। ध्यान से
ज्यादा सरल और कोई बात नहीं है। क्योंकि ध्यान हमारा स्वरूप है। जो हमारा स्वरूप
होता है, वह एकदम सरल होता है। जैसे गुलाब के पौधे में गुलाब
के फूल लग जाना एकदम सरल बात है। इसमें कोई कठिन बात नहीं है। सिर्फ हम पूरी
परिस्थितियां जुटा दें, तो फूल लग जाएंगे। फूल लगने में कोई
कठिनाई नहीं है। फूल तो बड़ी सहजता से निकल आते हैं। कली बन जाती है और पंखुड़ियां
खिल जाती हैं। इतने स्पांटेनियस, इतनी सहजता से हो जाता है
फूल का खिलना कि हमें पता भी नहीं चलता। न कोई बैंडबाजे बजते हैं, न कोई अखबार में खबर छपती है, न कोई रेडियो से,
दिल्ली से एलाउंस होता है, कुछ भी नहीं,
फूल लगते हैं, खिल जाते हैं। कहीं पता नहीं
चलता, कहीं कोई आवाज भी नहीं होती, कोई
शोरगुल नहीं मचता, कलियां लगती हैं और फूल खिल जाते हैं।
जैसे गुलाब के फूल में गुलाब का फूल खिल जाना सहज सी बात है, वैसे ही मनुष्य के चित्त में ध्यान का फूल खिल जाना भी उतनी ही सहज बात
है।
और ध्यान कोई जबरदस्ती लाई गई चीज नहीं है, बड़ी सहज बात है। ध्यान तो बहुत सहज है, लेकिन हम
बहुत उलटे-सीधे हैं। इसलिए गड़बड़ होती है, इसलिए देर होती है।
ध्यान तो बहुत सरल है, हम बहुत कठिन हैं। ध्यान तो बहुत सरल
है, हम बहुत जटिल हैं। हमारी जटिलता उपद्रव कर रही है,
ध्यान के आने में कोई बाधा नहीं है। गुलाब के फूल में तो अब भी फूल
आ जाए, लेकिन हमने जड़ें ही काट डालीं। या हम पूरे पौधे को
उखाड़ कर जमीन के बाहर रखे हुए हैं, या हमने पानी न देने की
कसम खाली, व्रत ले लिया कि हम पानी नहीं देंगे, या हम खाद नहीं देते या खाद की जगह जहर देते।
गुलाब के फूल में तो फूल आ जाना बहुत सरल बात है, इसमें तो शक का कोई सवाल नहीं है। लेकिन उसकी अगर सारी परिस्थितियों को हम
उलटा-सीधा कर दें और गुलाब के फूल को कहें कि शीर्षासन करो, जड़ें
ऊपर करो और सिर नीचा करो, तो फिर बहुत कठिन हो जाएगा,
फिर फूल नहीं आएंगे। और हम सब शीर्षासन कर रहे हैं, जिंदगी सब उलटी किए हुए हैं, इसलिए ध्यान का फूल
हममें नहीं खिल पाता। एक बात स्मरण रख लें, हम कठिन होंगे,
ध्यान कठिन नहीं है। तो काम बन सकता है, अपनी
कठिनाई छोड़नी पड़ती है, कोई बड़ी बात नहीं है। अगर ध्यान कठिन
होता, तो हमको कठिन बात सीखनी पड़ती। कठिन बात सीखनी कठिन
होती है, कठिन बात छोड़नी कठिन नहीं होती। किसी चीज को मिटा
देना कठिन नहीं होता, बनाना बहुत कठिन होता है। अगर ध्यान ही
कठिन होता, तो हमें कठिनाई के लिए तैयारी करनी पड़ती है।
लेकिन हम कठिन हैं, और हम कठिन इसलिए हैं कि...ये हमारी जो
गलत आदतें हैं...
पहली बात: ध्यान। दूसरी बात: ध्यान से मेरा अर्थ एकाग्रता नहीं है।
जैसे आपने सुना हो...एकाग्र चित्त तो तना हुआ चित्त है...लगाएंगे तो मन खींच जाएगा, तन जाएगा। तनाव के बाद एक तरह की उदासी, थकान आएगी।
स्वाभाविक, जब भी कोई आप तना हुआ काम करेंगे, तो पीछे से खिंचाव आएगा। खिंचाव आने से चित्त अशांत होगा। इसलिए जो लोग भी
कनसनट्रेशन या एकाग्रता करते हैं, वे बहुत तने हुए और खिंचे
हुए लोग हो जाते हैं। वे सरल लोग नहीं रह जाते, और
कांप्लेक्स और जटिल हो जाते हैं। देखा ही होगा आपने, कोई
आदमी अगर माला फेरने लगे या राम-राम जपने लगे, तो ज्यादा
क्रोधी हो जाता है। कोई आदमी मंदिर जाने लगे, भगवान की
मूर्ति के पास बैठ कर एकाग्रता करने लगे, तो ज्यादा क्रोधी
हो जाता है, ज्यादा वायलेंट हो जाता है, ज्यादा हिंसक, ज्यादा दंभी हो जाता है, अहंकार उसका और घना हो जाता है। स्वाभाविक है यह होगा। ये सब कनसनट्रेशन
के, एकाग्रता के परिणाम हैं। और अगर एकाग्रता बहुत बढ़ जाए,
तो आदमी पागल भी हो सकता है। अगर चित्त को इतना खींचा जाए, तो उसकी...टूटने लगे तो आदमी पागल भी हो जाता है। हजारों पागलों...
यह कोई ईश्वर का उन्माद नहीं है। ईश्वर का उन्माद नहीं होता, ईश्वर की शांति होती है। ईश्वर का कोई पागलपन नहीं होता, ईश्वर की शांति होती है, आनंद होता है, प्रफुल्लता होती है, उन्माद नहीं होता। ये सब पागल
हैं। कनसनट्रेशन से यह परिणाम पैदा हुआ है। और आप समझ लें, जिस
कौम में बहुत ज्यादा कनसनट्रेशन का बल रहा हो, उस कौम का
मस्तिष्क धीरे-धीरे डल हो जाता है। धीरे-धीरे उस कौम के मस्तिष्क की जो ऊर्जा और
प्रतिभा चाहिए, वह क्षीण हो जाती है। भारत जैसे मुल्कों की
प्रतिभा के क्षीण होने का बुनियादी कारण यह है।
यहां हमने मस्तिष्क को विश्रांति नहीं दी। खींचने की कोशिश की, तनाव देने की कोशिश की। तनाव के दुष्परिणाम हुए हैं। भारत ने आज तक कुछ भी
इनवेंट नहीं किया, कुछ खोजा नहीं, कुछ
नया बनाया नहीं, कुछ क्रिएट नहीं किया। तीन हजार साल के इतने
नपुंसक और बांझ दिन बीते हैं हमारे, जिसका कोई हिसाब नहीं
है। इतना बैरन, कुछ हमने तीन हजार साल में सृजन नहीं किया,
कोई नई खोज नहीं की, कोई नई दिशाएं नहीं खोजीं,
कोई नया विज्ञान, कोई नई कला, कोई हमने जीवन के प्राणों में कोई छिपे हुए कोने नहीं खोजे, किसी अज्ञात का हमने उदघाटन नहीं किया। हम बैठे हुए दोहराते हैं शास्त्रों
को, और दोहराए चले जाते हैं। और हम बड़ी एकाग्रता की बातें
करते हैं।
एकाग्रता ध्यान नहीं है। ध्यान है चित्त की परम विश्रांति की अवस्था
और एकाग्रता है चित्त की तनाव की स्थिति। एकाग्रता होती है किसी चीज के विरोध में, ध्यान किसी चीज के विरोध में नहीं है।
अगर समझ लें, आपको मैं कहूं कि यहां बैठ कर एकाग्रता करिए, राम के नाम पर एकाग्रता करिए या ओम पर एकाग्रता करिए या किसी और पर,
कोई भी चीज काम दे सकती है। तो जब आप एकाग्रता करेंगे, तो शेष जो दुनिया है उससे आपका मन लड़ेगा। क्योंकि एक कुत्ता यहां से
भौंकता हुआ निकल जाए, तो आप कहेंगे, इसने
सब गड़बड़ कर दिया, तो एकाग्रता खंडित हो गई। तो कुत्ते के
भौंकने से लड़िए कि यह आपको सुनाई न पड़े, आपका नाम तो वही
चलता रहे, ओम-ओम आप कहते रहिए, यह
भौंकना कुत्ते का सुनाई न पड़े। एक बच्चा रोने लगे, यह सुनाई
न पड़े। तो आप लड़िए, चारों तरफ जो घटनाएं घट रही हैं, जो दुनिया खड़ी है उससे लड़िए और अपने चित्त को एक तरफ लगाइए। आप थक जाएंगे,
परेशान हो जाएंगे। तब आप कहेंगे, यह अपने बस
की बात नहीं। नहीं, यह किसी के बस की बात नहीं, सिवाय पागलों को छोड़ कर। पागल यह कर सकते हैं। सिर्फ पागलों को छोड़ कर यह
किसी के बस की बात नहीं है। और होनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि
अगर हो जाए, तो परिणाम घातक होंगे।
ध्यान का अर्थ किसी एक चीज पर सबके विरोध में चित्त को रोकना नहीं है।
ध्यान का मेरा अर्थ है: सब चीजें बही जाएं और चित्त शांत हो, चित्त अनुत्तेजित हो और चीजें बही जाएं। एक कुत्ता भौंके, तो आप कोई मुर्दा थोड़े ही हैं कि आपको सुनाई नहीं पड़ेगा। आप जीवित हैं,
जो जितना ज्यादा जीवित है, उसे उतना स्पष्ट
सुनाई पड़ेगा। जिसका चित्त जितना सेंसिटिव है, जितना
संवेदनशील है, जितना रिसेप्टिव है, जितना
ग्राहक है, उसे उतना तीव्रता से सुनाई पड़ेगा। जिसका चित्त
जितना अनुत्तेजित, शांत है, उसे उतना
स्पष्ट सुनाई पड़ेगा, एक सुई भी गिरेगी, तो उसे सुनाई पड़ेगा। शांति में तो छोटी सी ध्वनि भी सुनाई पड़ेगी। अशांति
में नहीं सुनाई पड़ सकती। एक आदमी के घर में आग लग गई हो और वह सड़क से अपने घर की
तरफ भागा जाए और आप उससे कहें, जयरामजी, उसे सुनाई नहीं पड़ेगा। इसलिए नहीं कि वह कोई परम स्थिति को उपलब्ध हो गए
हैं, बल्कि इसलिए कि मस्तिष्क कनसनट्रेटिड है, एक चीज पर लगा है। उनके घर में आग लगी है, आप
जयरामजी कर रहे हैं। या कल उनसे मिलिए कि कल हम आपको रास्ते में मिले थे, खयाल है? वे कहेंगे, मुझे कुछ
खयाल नहीं, कौन दिखा, कौन नहीं दिखा,
मुझे कुछ पता नहीं। चित्त एकाग्रता था। लेकिन चित्त की एकाग्रता
चित्त पर तनाव है, बोझ है, भार है।
चित्त होना चाहिए शांत और अनुत्तेजित।
कैसे होगा?
मैं एक छोटे से रेस्ट हाउस में एक गांव में रुका था। एक मित्र भी मेरे
साथ थे। वह रेस्ट हाउस अजीब था। सारे गांव के कुत्ते शायद वहीं विश्राम करते थे
रात को। करते होंगे, अच्छी जगह थी, वहां वे भी ठहरते
थे। तो रात को इतने जोर से शोरगुल करते, और जब एक
करे--कुत्तों की आदत करीब-करीब वैसी होती है, जैसे नेताओं की
होती है--दूसरा उसके विरोध में करे, तीसरा उसको जवाब दे,
चौथा उसको जवाब दे, वहां करीब-करीब वही हालत
थी जो चुनाव के वक्त हो जाती है। तो वे मेरे मित्र, सोना
उनको मुश्किल हो गया, उन्होंने मुझसे कहा: यह तो बड़ी मुसीबत
हो गई, यह तो यहां सोना असंभव है। मैंने उनसे कहा कि कुत्तों
को पता भी नहीं कि आप यहां ठहरे हुए हैं। और आपसे उनकी कोई दुश्मनी नहीं, पिछले जन्म का कोई संबंध हो तो मुझे पता नहीं। उनको पता भी नहीं, वे आपको डिस्टर्ब भी नहीं कर रहे हैं, परेशान भी
नहीं कर रहे हैं, आप क्यों उनसे हैरान हो रहे हैं? आप सो जाइए। उन्होंने कहा: कैसे सो जाएं? ये भौंकते
हैं तो सब नींद खराब हो जाती है।
मैंने उनसे कहा: उनके भौंकने से नींद खराब नहीं होती। उनके भौंकने के
प्रति आप रेसिस्टेंस मन में लिए हुए हैं कि नहीं भौंकने चाहिए। आपके मन में विरोध
है उनके भौंकने के प्रति, इसलिए नींद नष्ट हो जाती है। डिस्टर्बेंस उनके भौंकने
से पैदा नहीं होता, आपके मन का यह आग्रह है कि उन्हें भौंकना
नहीं चाहिए, उन्हें यहां नहीं होना चाहिए। यह आग्रह पीड़ा दे
रहा है और नींद तोड़ रहा है। मैंने उनसे कहा: आग्रह छोड़ दीजिए, रेसिस्टेंस छोड़ दीजिए। अपने मन में सोचिए कि तुम कुत्ते हो तुम्हारा
भौंकने का वक्त है, मेरे सोने का वक्त है, मैं सोता हूं। उनको भौंकने दीजिए, उनकी आवाज को
गूंजने दीजिए बराबर, जब तक आप जागे होंगे तब तक वह आवाज
सुनाई पड़ेगी, लेकिन आपके भीतर विरोध मत रखिए उसके प्रति,
आए गूंज जाने दीजिए। मैंने उनसे कहा: ठीक उलटा परिणाम होगा, यही आवाज सुलाने का काम करने लगेगी।
वे मान गए, समझदार थे, इतने समझदार कम लोग
होते हैं, और सो गए, सो जाना स्वाभाविक
था। सुबह उठे और मुझसे बोले कि मैं हैरान हूं, यह मेरे खयाल
में कभी नहीं आया कि मेरा जो प्रतिरोध था कुत्तों के प्रति वही बाधा दे रहा था।
कुत्ते कैसे बाधा देंगे? हमारा जो प्रतिरोध है वह बाधा देता
है।
अप्रतिरोध का नाम ध्यान है। नॉन-रेसिस्टेंट माइंड, अप्रतिरोधी मन, जो रेसिस्ट नहीं करता, चीजों को आने-जाने देता है। इतनी बड़ी दुनिया है, चीजें
आएंगी-जाएंगी, कोई आपका ठेका है कि आप शांत होकर बैठें तो
कुत्ते न भौंके, मक्खियां न उड़ें, मच्छर
न आएं, कोई बच्चा न रोएं, कोई औरत बात
न करे। यह कोई नियम तो है नहीं। यह किसी का कोई ठेका नहीं है। दरख्त हिलेंगे,
हवाएं आएंगी, पत्ते गिरेंगे, उड़ेंगे, आवाजें होंगी, लेकिन
इस पर आपका कोई जोर नहीं है। और ये जोर देने वाले बेचारे जंगलों में भागते हैं,
पहाड़ों पर जाते हैं, फिर इस खयाल से कि यहां गड़बड़
होती है तो वहां जाएं--हिमालय पर जाएं या तिब्बत जाएं या कहां जाएं। वे कहीं भी
चले जाएं, कुछ भी नहीं होगा, वह
रेसिस्टेंस माइंड साथ होगा। एक पक्षी वहां चिल्ला देगा, वे
कहेंगे, सब ध्यान गड़बड़ हो गया हमारा।
ऐसा ध्यान जो किसी की वजह से गड़बड़ हो जाता है, वह ध्यान ही नहीं है, वह एकाग्रता है। एकाग्रता गड़बड़
होती है, क्योंकि एकाग्रता का मतलब है एक चीज को पकड़ कर रह
जाना और बाकी सब चीज के लिए दरवाजा बंद कर देना, वे सब चीजें
धक्के देने लगती हैं। बल्कि सच्चाई यह है कि जब आप एकाग्र होने की कोशिश नहीं करते,
तब वे चीजें उतना धक्का नहीं देतीं। स्वाभाविक, जब आप एकाग्र होने की कोशिश करते हैं, तो वे चीजें
ज्यादा धक्का देने लगती हैं।
मन एक प्रवाह की भांति है, बहा जाए। चारों तरफ
घटनाएं हो रही हैं, उनके प्रति बेहोश होने की, मर्ूच्छित होने की, या उनके लिए दरवाजा बंद करने की
कोई जरूरत नहीं है। कुछ नहीं है, बच्चों से विरोध नहीं है,
कुत्तों से, बिल्लियों से, किसी से कोई विरोध नहीं है, उसका संसार से कोई विरोध
नहीं। और जिसका किसी से कोई विरोध नहीं है और हर चीज को जो इस तरह गुजर जाने देता
है, जैसे...
बहुत निकट है वह, और किसी भी दिन द्वार खुल सकते
हैं।
यहां हम छोटे से प्रयोग करेंगे इन तीन दिनों में अप्रतिरोध के। अभी हम
यहां बैठेंगे, बैठने का मतलब अकड़ कर और रीढ़ को बहुत सीधा करके और
सिर को बहुत खींच कर बैठ जाना नहीं, क्योंकि प्रतिरोध शुरू
हो गया। बहुत सहजता से, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बैठ जाते हैं,
वैसे सहजता से बैठ जाना। सिर झुके झुक जाए, रीढ़
झुके झुक जाए, कोई रीढ़, कोई सिर बाधा
नहीं दे रहा है ध्यान में। ध्यान तो भीतर चित्त की स्थिति है, उसका इस सबसे कोई वास्ता नहीं है। इतने एट इज़, इतनी
सरलता से बैठ जाना है, जैसे आप कोई काम नहीं कर रहे हैं,
खाली वक्त गुजार रहे हैं, खाली वक्त गुजार रहे
हैं।
आंख की पलक धीरे से फिर बंद कर लेनी है। बंद कर लेने का मतलब यह नहीं
कि आप कोशिश करके उसे दबा लें, वह रेसिस्टेंस शुरू हो गया। नहीं,
पलक को गिर जाने देना है, जैसे झपकी आ गई हो
और पलक गिर गया। पलक को बंद नहीं करना है, गिर जाने देना है,
लेट गो, उसे धीरे से गिर जाने दें। उसमें भी
यह न हो कि मैंने बंद किया, उसको भी गिर जाने दें। सारे शरीर
को ढीला छोड़ दें, जैसे हम कुछ बड़ा काम नहीं कर रहे हैं,
खाली बैठे हैं। खाली बैठे हैं, कोई काम नहीं
कर रहे हैं, एक विश्राम कर रहे हैं। आदतें नहीं हैं हमारी
विश्राम करने की। हम तो खाली भी बैठें तो कुछ न कुछ करते हैं, नहीं तो रेडियो खोल लेंगे, अखबार उठा लेंगे, कुछ न कुछ करेंगे। न करने का हमें पता ही नहीं है और न करना बहुत अदभुत
है। न करने का कोई मुकाबला ही नहीं है। न करने की स्थिति का नाम ध्यान है।
यहां हम न करने की स्थिति में दस-पंद्रह मिनट बैठेंगे। आंख को, पलक को ढीला छोड़ देंगे, सारे शरीर को ढीला छोड़ देंगे,
फिर क्या करेंगे? बात तो इतनी है, अगर इतना ही कर लें तो काम हुआ।
कोई भी आवाज सुनाई पड़ रही हो, कोई रुकी तो रहेगी
नहीं, आएगी, गूंजेगी और चली जाएगी। आप
विरोध न करें कि यह आवाज क्यों गूंजी? आप आवाज के प्रति सजग
रहें, आवाज तेजी से गूंजे, तब जानें,
धीमी होने लगेगी, धीमी होने लगेगी, तब जानते रहें, फिर वह विलीन हो जाएगी, तब जानते रहें। जैसे धुआं आया, भर गया...ऐसी आवाजें
होंगी, घटनाएं होंगी चारों तरफ, किसी
से कोई विरोध नहीं है, वे आएंगी और चली जाएंगी। अगर आप शांति
से मात्र साक्षी रहे, प्रतिरोधी नहीं, विरोधी
नहीं, उनके...जो भी आई आई, जो भी गई गई,
अगर इतनी शांति से उनका निरीक्षण किया, तो आप
अभी दो क्षण के भीतर ही पाएंगे कि चित्त तो एकदम शांत हुआ जा रहा है। वह प्रतिरोध
से अशांत है, स्मरण रखें, और कोई
अशांति नहीं है। वह विरोध से अशांत है, लड़ रहा है इसलिए
अशांत है, जब नहीं लड़ रहा, तो कोई
अशांति नहीं है।
लाओत्से एक फकीर हुआ चीन में, उसने लिखा है: धन्य
हैं वे लोग जो लड़ते नहीं, क्योंकि उनको कोई हरा न सकेगा।
धन्य हैं वे लोग जो लड़ते नहीं, क्योंकि उनको कोई हरा न
सकेगा। जो लड़ता ही नहीं उसके हारने का सवाल ही नहीं है। जिसके हारने का सवाल नहीं
उसके दुखी होने का कोई सवाल नहीं। लड़ें न, ध्यान लड़ाई नहीं
है। आमतौर से लड़ाई है, मंदिरों में लोग बैठे हैं मालाएं लिए,
लड़ रहे हैं। पहाड़ों पर लोग बैठे हैं आंख बंद किए हुए, आसन लगाए हुए, लड़ रहे हैं। लड़ाई है, कुछ भी नहीं है। ध्यान तो लड़ाई से बिलकुल उलटी बात है। लड़ें न, बिना लड़े थोड़ी देर को...इसमें कोई फाइट नहीं करनी है। अगर आपके पैर में
दर्द होने लगे, तो उससे लड़िए मत, कि अब
उसको रोके हुए बैठें हैं कि हम तो ध्यान कर रहे हैं, पैर को
बदलेंगे तो बगल वाला क्या कहेगा? नहीं, वह ध्यान ही नहीं है, आप पैर ही से अटके हुए हैं।
पैर में दर्द होता है, आप बिलकुल बदल लीजिए। आपको जिंदगी है,
जान है अभी, इसलिए पता चल रहा है, मर जाएंगे या इंजेक्शन दे दिया, तो पता नहीं चलेगा,
या अफीम खाकर बैठ गए, तो पता नहीं चलेगा,
या किसी चीज पर इतना कनसनट्रेशन किया कि चित्त और सब तरफ से हट गया
और उसी एक चीज में अटक गया, तो पता नहीं चलेगा। या यह हो
सकता है कि निरंतर अभ्यास करिए, तो निरंतर पैर की आदत हो
जाएगी, तो फिर पता नहीं चलेगा, लेकिन
उससे कोई मतलब नहीं है। पैर में दर्द हो रहा है, चुपचाप बदल
लीजिए, एक ही बात का खयाल रखिए, रेसिस्ट
मत करिए, दिल में दुखी मत होइए कि पैर को बदलना पड़ रहा है।
पैर आपका अभी जिंदा है इसलिए खबर देता है, मर जाएगा तो खबर
नहीं देगा।
मार्क ट्वेन का नाम आपने सुना होगा, बहुत हंसोड़ और बढ़िया
आदमी हुआ अमरीका में। वह एक दिन बैठे-बैठे बहुत गपशप कर रहा था, बहुत प्रसन्न था, खूब ऊंची बातें कर रहा था, हंसा रहा था मित्रों को, एकदम गंभीर हो गया और उदास
हो गया, एकदम से। तो उसके एक मित्र ने पूछा, आपको क्या हो गया? उसने कहा: मालूम होता है मेरे पैर
को लकवा लग गया। डाक्टरों ने मुझे दस साल पहले कहा था कि कभी न कभी खतरा है,
आपके पैर को लकवा लग जाएगा। उन्होंने कहा: आपको पता कैसे चला?
उसने कहा: मैं च्यूंटी ले रहा हूं बड़ी देर से, लेकिन कुछ पता ही नहीं चल रहा। बगल की महिला ने कहा: क्षमा करिए, मैं संकोच की वजह से कह नहीं रही, च्युंटियां आप
मुझे लिए जा रहे हैं। वह बेचारा जांच कर रहा था और बगल की महिला की च्युंटियां
लेता रहा, लेता रहा, उसने सोचा कि मेरा
पैर तो गया, पता ही नहीं चल रहा कुछ।
यह जो पैर का पता न चलना है, या शरीर का पता न
चलना है, यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। आपको पता चलना चाहिए।
भीतर होश है, कांशसनेस जितनी ज्यादा होगी, पता चलेगा। उसकी कोई फिकर न करें, चुपचाप पैर को बदल
लीजिए। नॉन-रेसिस्ट, कोई विरोध नहीं, चुपचाप
पैर बदल लीजिए। गर्दन थक गई हो, आगे-पीछे जाती हो, जाने दीजिए। ऐसे जाने दीजिए जैसे आपका कोई विरोध नहीं है, जो हो रहा है शरीर को करने दीजिए। आप इतना ही भर खयाल रखिए कि मैं किसी
चीज का विरोध नहीं करूंगा, चुपचाप बैठा रहूंगा। होने दूंगा
जो हो रहा है, मैं किसी चीज पर पकड़ नहीं रखूंगा कि ऐसा हो,
वह जो हो रहा है होने दूंगा। हवाएं आएंगी तो ठीक, नहीं आएंगी तो ठीक। कोई चिल्लाएगा तो ठीक, नहीं
चिल्लाएगा तो ठीक। मैं सब कुछ स्वीकार करता हूं, टोटल
एक्सेप्टिबिलिटी, और मैं किसी चीज का विरोध नहीं करता हूं।
बस इस भाव में एक दस मिनट हम यहां बैठेंगे।
तो थोड़े-थोड़े फासले पर हो जाएंगे तो अच्छा होगा। क्योंकि हो सकता है
आप इस भाव में हों, लेकिन बगल वाला इस भाव में न हो। थोड़े-थोड़े फासले पर,
ताकि कोई किसी को छूता न हो। थोड़े ऐसे फासले पर बैठे जाएंगे बहुत
आराम से। हां, बाहर भी बैठ सकते हैं।
हूं, आप लोग भी थोड़ा एक-दूसरे से दूर हो जाएं तो अच्छा है,
एक-दूसरे को छूता हुआ कोई न बैठे। और बिलकुल आराम से बैठ जाएं,
जैसा आपके लिए बैठना निरंतर सुखद रहा हो, वैसे
बैठ जाएं। यहां जगह कम है इसलिए बैठने को कह रहे हैं, आप घर
पर करेंगे, सोकर सकते हैं, कोई
सोने-बैठने का सवाल नहीं है। सवाल है भीतर की स्टेट ऑफ माइंड, भीतर जो मन की स्थिति है उसका। कोई चीज का कोई सवाल नहीं है। सोए रहें,
खड़े रहें, बैठे रहें, आराम
कुर्सी पर हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़ी बात है कि
बिलकुल सहजता से, सरलता से, आनंद से
बैठ जाएं।
तो मैं मान लूं कि आप एक-दूसरे को नहीं छू रहे हैं। कुछ लोग तो छू रहे
होंगे, वे सोच रहे होंगे क्या हर्जा है, बैठे रहें।
फिर अब धीरे से आंख की पलकों को छोड़ दें, आंख को बंद हो जाने दें; बंद न करें, बंद हो जाने दें, धीरे से पलक छोड़ दें और आंख बंद हो
जाए। धीरे से पलक को छोड़ दें, ऐसा भाव करेंगे कि पलक छूट गई,
छूट जाएगी और धीमे से बंद हो जाएगी, दबाव भी
नहीं होगा आंख धीरे से बंद हो जाएगी। अगर आंख बिलकुल धीरे से छोड़ दी तो आंख के
छोड़ते से लगेगा भीतर एक हलकापन आ जाएगा। आधे से ज्यादा तनाव तो जीवन में आंख के
तने होने का है।
बिलकुल ढीला छोड़ दें आंख को, आंख बंद हो जाने दें।
बिलकुल शांत बैठ जाएं, किसी चीज से कोई विरोध नहीं है,
कोई विरोध नहीं है। हम कोई बड़ी साधना भी नहीं कर रहे हैं कि उसी
खयाल से कि कुछ हो जाता। कोई साधना नहीं कर रहे हैं, विश्राम
कर रहे हैं। पूरी शांति है।
जैसे ही शांत होने लगेंगे, भीतर की श्वासों का
पता चलने लगेगा। श्वास का आना-जाना भी मालूम होने लगेगा, श्वास
भीतर-बाहर होगी तो पता चलेगा। हवाएं हिलाएंगी, तो पता चलेगा।
दूर कुछ गायन चल रही हैं, उनकी घंटियां बजेंगी, तो पता चलेगा। जो कुछ भी ध्वनियां चारों तरफ हो रही हैं, शांति से उन्हें गूंजने दें और चुपचाप उनका निरीक्षण करते रहें। किसी का
कोई विरोध नहीं है। बस शांति से सुनें, जो भी आवाजें हो रही
हैं उन्हें सुनें। मौन सुनते रहें, सुनते-सुनते ही मन शांत
होता जाएगा, एकदम शांत।
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