अमृत द्वार-(विविध)
ओशो
प्रवचन-पांचवां-(नाचो समग्रता है
नाच)
पत्रकार-वार्ता, बंबई, दिनांक २१ सितंबर १९६८
धर्म हमारा सर्वग्राही नहीं है। वह जवान को आकर्षित ही नहीं करता है।
जब आदमी मौत के करीब पहुंचने लगे तभी हमारा धर्म उसको आकर्षित करता है।इसका मतलब
यही है कि धर्म हमारा मृत्योन्मुखी है। मृत्यु के पार का विचार करता है, जीवन का विचार नहीं करता है। तो जो लोग मृत्यु के पार जाने की तैयारी करने
लगे वे उत्सुक हो जाते हैं। ठीक है उनको उत्सुक हो जाना। उसके लिए भी धर्म होना
चाहिए। धर्म में मृत्यु के बाद का जीवन भी सम्मिलित है लेकिन इस पार का जीवन भी
सम्मिलित है और उसकी कोई दृष्टि नहीं है।
और ऐसे ही मैं मान नहीं सकता कि बच्चों के लिए वही धर्म काम का हो
सकता है जो बूढ़ों और वृद्धों के लिए है। बच्चों का तो जो धर्म होगा वह इतना गंभीर
नहीं हो सकता है। वह तो खेलता, कूदता, हंसता
हुआ होता है। बच्चों का ऐसा धर्म चाहिए जो उनको खेलने के साथ धर्म आ जाए, वह उनकी प्लेफुलनेस का हिस्सा हो। वह मंदिर में जाते हैं और बच्चे,
वह तो वहां भी शोर-गुल करना चाहते हैं। हम उनको डांटकर चुप बैठा
देते हैं। और उसका परिणाम यह होता है कि बच्चों को यह समझ में ही नहीं आता है कि
क्यों कर दबाया जा रहा है, क्योंकि चुप किया जा रहा है,
और बचपन से ही मंदिर कोई अच्छी जगह नहीं है, यह
भाव पैदा होता है बच्चों मन में। वहां कोई खेलना है, कूदना
है, आनंदित होना है--वह नहीं है वहां।
फिर जवान आदमी को भी धर्म कुछ ऐसा मालूम पड़ता है वह जीवन-विरोधी है। न
वहां प्रेम की आज्ञा देता है, न वहां काम की तृप्ति के लिए कोई
विचार और दृष्टि देता है। न वह शरीर के सौंदर्य और शरीर के रस के लिए संभावना देता
है। और जवान के पूरे प्राणों में भी जो पुकार है वह सौंदर्य की है प्रेम की है,
धर्म उसकी पुकार को किसी तरह कोई उतर नहीं देता, कोई रिस्पोंस नहीं देता। तो वह सिनेमा जाता है, वह
वहां जाता है जहां उसको उत्तर मिल सकता है। और वह सब गलत उत्तर है। जहां उसको
उत्तर मिल सकता है। और वह सब गलत उत्तर है। मरो कहना है, मंदिर
से उत्तर मिलना चाहिए। मगर वह हम मंदिर न बना सके जो सारे जीवन को घेरता हो,
न वह हम धर्म खड़ा कर सके।
तो इधर तो मेरी पूरी चिंतन बस बात पर लगी हुई है कि हम जीवन के पहले
दिन से लेकर अंतिम विदा के क्षण तक समग्र जीवन को उसके आमूल, इकट्ठे रूप में सोचें और सारी चीजें जो जीवन में हैं वे धर्म के संबंध में
हों। तो मुझे दिखायी पड़ रहा है कि एक तरह की धार्मिक चिंतना सारे जगत में और सारे
मनुष्य के लिए उपयोग हो सके। उसमें सेक्स के लिए बहुत अनिवार्य जगह बनानी पड़ेगी।
अभी तो कोई जगह ही नहीं है।
प्रश्न--अस्पष्ट
उत्तर--कोई सवाल ही नहीं है। यानी मेरा कहना यह है कि विवाह जो है ऐसा
नहीं होना चाहिए कि हिंदू का धर्म, मुसलमान का धर्म,
ऐसा होरिजेंटल रही, वर्टिकल होना चाहिए--बच्चे
का धर्म, जवान का धर्म, बूढ़े का धर्म।
वह जो विभाजन होगा वह ऐसा होना चाहिए--नीचे से ऊपर की तरफ। उस विभाजन में तो कोई
वैज्ञानिक का मतलब होता है।
हिटलर जैसे हुकूमत में आया तो उसने क्या किया आते से ही? उसने कहा, अब बच्चों को हम खेल-खिलौने, गुड्डा-गुड्डी यह नहीं बनाने देंगे। तोपें बनानी चाहिए, बंदूकें बनानी चाहिए खिलौने की जगह। और बच्चे की पहले दिन भी उसके झूले पर
लटकानी हो तो तोप लटकानी है। क्योंकि हमें सैनिक बनाना है, तो
उसकी आत्मा को साक्षात्कार करनी होगी, वह उसके खेल का हिस्सा
हो जाएगा। पहले वह तोप से खेले, कल वह फिर तोप चलाना खेल
समझेगा। उसमें कोई बाधा नहीं रह जाएगी। आज खेलेगा तोप से, कल
तोप चलाने को खेल समझ पाएगा। वह उसकी जिंदगी का हिस्सा हो जाएगी। उसे कभी कल्पना
भी नहीं उठेगी।
प्रश्न--जैसे अभिमन्यु?
उत्तर--हां, पहले से जो भी हमें बनाना है जीवन को। अगर हमें जीवन
को एक धार्मिक जीवन बनाना है तो बच्चे के पहले दिन से उसकी शुरुआत हो जानी चाहिए।
और यह असंभव है कि बच्चे अधार्मिक हों, जवान अधार्मिक हों
बूढ़े अचानक धार्मिक हो जाए यह संभव है। क्योंकि बूढ़ा होना तो उसकी फलावरिंग है,
उसी से निकलेगा। तो अगर बच्चे धार्मिक नहीं हैं, जवान धार्मिक नहीं हैं तो बूढ़े झूठे धार्मिक होंगे, मेरा
कहना है। वे कभी सच्चे धार्मिक नहीं होंगे। सारे जीवन का आधार अधार्मिक होगा। और
फिर अचानक एक दिन मौत को सामने देखकर वे घबरा जाएंगे और प्रार्थना करने लगेंगे। उस
प्रार्थना का कोई बहुत मूल्य नहीं है।
प्रश्न--आप बच्चों के लिए कैसा धर्म चाहते हैं?
उत्तर--हिंदू का नहीं--हिंदू-मुसलमान को तो मैं पागलपन समझता हूं।
धर्म यानी धर्म। जैसे विज्ञान, गणित यानी गणित, कोई गणित पूरब का अलग, पश्चिम का अलग, हिंदू का अलग, मुसलमान का अलग, ये पागलपन की बातें हैं। गणित अगर सही है तो एक होगा, गलत है तो कई तरफ का हो सकता है। वैसे ही धर्म यानी धर्म। आत्मा के,
परमात्मा के पाप के जो भी नियम हैं, जो
सार्वलौकिक नियम हैं उनको मैं धर्म का नाम देता हूं।
बच्चे के धर्म से मेरा मतलब है कि बच्चे का जो रुझान है--जैसे बच्चा
खेलना चाहता है, कूदना चाहता है। मेरा कहना है, खेलने
और कूदने के साथ ध्यान को जोड़ा जा सकता है--मेडीटेशन इन एक्शन। बच्चा कवायद कर रहा
है।
प्रश्न--हमारे आश्रम में तो विभाजन था!
उत्तर--काहे में है? हमारे जो आश्रम का विभाजन था,
चार विभाजन में हमने आदमी को तोड़ दिया हुआ था। जो पहले पच्चीस वर्ष
के थे उसको हम ब्रह्मचर्य की शिक्षा देते थे और मेरा कहना है कि पहले पच्चीस वर्ष
काम की शिक्षा दी जानी चाहिए; सेक्स की, ब्रह्मचर्य की नहीं बेहूदी बात है। सेक्स की परिपूर्ण शिक्षा से
ब्रह्मचर्य निकल सकता है। और ब्रह्मचर्य की शिक्षा से सिर्फ सेक्स का सप्रेशन होता
है, और कुछ नहीं होता है। और सप्रेस्ड व्यक्ति खतरनाक
व्यक्ति है और हजार रोगों का आमंत्रण है उसमें। मेरे में जो फर्क हैं, मैं पच्चीस वर्ष को मानता हूं जैसे ही व्यक्ति सेक्सुअलाजी मेच्योर
हुआ--लड़का या लड़की, उसको पूरे काम-काज करके सेक्सुअली की
पूरी शिक्षा देनी चाहिए और वे सारी सत्य बातें कह देनी चाहिए जो कि सत्य हैं,
लेकिन झूठी शिक्षाएं उनको गलत बातें सीखा रही हैं। सारी दुनिया के
अनुभव, वैज्ञानिक शिक्षण यह परिणाम होते निकाली। जैसे ही
बच्चे दस-बारह साल को पार किया, उसके जीवन में सेक्स की नयी
घटना उठ रही है। उस घटना के बाबत सत्य--नैतिक आधार पर नहीं, वैज्ञानिक
आधार पर, हम क्या चाहते हैं उस हिसाब पर नहीं, मनुष्य कैसा है उस हिसाब पर पूरी शिक्षा और मनुष्य के सहज स्थिति की
स्वीकृति।
पुराने धर्म में उसकी स्वीकृति नहीं थी। चीजों की स्वीकृति नहीं थी जो
हमारे भीतर हैं। उसकी निंदा है, उसका विरोध है, उनको तोड़ डालना है बदल डालना है। इसीलिए तो हमने पाखंडी समाज पैदा कर
लिया। क्योंकि जो वास्तविक है उसकी स्वीकृति नहीं है। तो आदमी वास्तविक को भीतर
दबा लेता है और जो वास्तविक है ही उसकी खोल ओढ़ लेता है ऊपर से क्योंकि आप कहते हैं
कि ऐसा होना चाहिए। अगर संन्यासियों के पास घूम फिर कर अध्ययन करें--और वैज्ञानिक
अध्ययन कभी कुछ होता नहीं। आमतौर से जिन संन्यासियों को स्त्री का साथ नहीं मिला,
उनमें होमोसेक्सुअलिटी पैदा हो जाने वाली है, मैं
कह रहा हूं, ब्रह्मचर्य की शिक्षा का सवाल नहीं है, सवाल है काम की और सेक्स की शिक्षा का। आपके उस आश्रम में जिसको आप
ब्रह्मचर्य आश्रम कहते थे, सेक्स की कोई शिक्षा कभी नहीं दी
गयी थी, सिवाय सेक्स की निंदा के और विरोध के; इससे ज्यादा कोई शिक्षा कभी नहीं दी गई थी। न आपका कोई शास्त्र बताता है
कि क्या शिक्षा आप देते थे।
उसे हमने ब्रह्मचर्य का नाक दिया था, वह इसलिए ही दिया था।
प्रश्न--शिक्षा के लिए?
उत्तर--शिक्षा के लिए नहीं, गृहस्थ की तैयारी के
लिए क्योंकि दूसरा आश्रम गृहस्थ का है। वह ब्रह्मचर्य छोड़ेगा आखिर थोड़ी ही छोड़
देगा, फिर विद्या थोड़े ही छोड़ देगा! वह पहले आश्रम से दूसरे
आश्रम का फर्क क्या है? दूसरे आश्रम का फर्क यह है कि वह
ब्रह्मचर्य छोड़ेगा और कामुक जीवन में सम्मिलित होगा, जबकि
लाइफ शुरू होगी उसकी। तीसरे जीवने में वह सेक्सुअल लाइफ छोड़ेगा और वन की तरफ
उन्मुख और चौथे जीवन में वह वन में प्रविष्ट हो जाएगा। व्यवस्था जो थी वह यह थी कि
पहले मैं वह तैयारी करेगा काम निमंत्रण की। दूसरे में काम का भोग कहेगा। तीसरे में
काम भोग से जो बच्चा पैदा हुए हैं उनकी व्यवस्था जुटाएगा और चौथे में मोक्ष की
यात्रा पर उन्मुख हो जाएगा। वह पूरी की पूरी व्यवस्था सेक्स से संबंधित है।
ब्रह्मचर्य का मतलब? ब्रह्मचर्य के काल में वह
विद्याध्ययन करेगा। विद्याध्ययन ब्रह्मचर्य के काल का हिस्सा होगा, लेकिन साधना ब्रह्मचर्य की रहेगी। विद्या-अध्ययन भी जो है, वह भी विद्यार्थियों में आप क्या कराते रहे थे? विद्या-अध्ययन
के नाम पर आप कराते क्या थे उसको? अगर उसको भी बहुत गौर से
देखेंगे तो बहुत हैरानी होगी कि विद्या अध्ययन के नाम पर आप कराते क्या थे?
विद्या अध्ययन के नाम पर धर्म के नाम पर रिचुअल सिखाते थे कि यज्ञ
ऐसे करना, हवन ऐसे करना, पूजा ऐसी करनी
यह सब सिखाते थे। धर्म तो कुछ सिखाया नहीं जाता था, रिचुअल
सिखाया जाता था, कर्म-कांड सिखाया जाता था विद्या के नाम पर।
दूसरी मजे की बात है कि जितना भी जो लोग वहां गुरुकुल में सम्मिलित
होते थे, वह कोई पूरे समाज को छूने वाली व्यवस्था न थी शूद्र
तो सम्मिलित हो नहीं सकता था, शूद्र तो वर्जित था। चंडाल
वर्जित था। सम्मिलित होते थे ब्राह्मणों के लड़के और राजाओं के लड़के। तो ब्राह्मणों
पौरोहित्य का काम सिखाते थे शिक्षा के नाम पर कि वे पुरोहित कम बनें और राजा के
लड़कों को युद्ध का काम सिखाते थे, सैनिक का काम सिखाते थे।
कुल जमा सारी शिक्षा यही थी। अन्यथा अगर हमारे पास शिक्षा का कोई व्यक्तित्व
शास्त्र होता तो पांच हजार साल में पश्चिम हमारे आगे निकल जाता--तीन सौ वर्षों में?
अगर कोई विद्या का व्यवस्थित आयोजना की होती...तो हम पांच हजार साल
से चिंतन कर रहे थे इस दिशा में, और हम कुल जमा यह समाज पैदा
कर पाए जो हमारे पास है! आज हमारे पास सब कुछ उधार है। न तो एक मशीन है आपकी अपनी
बनाई हुई, न आपके आप अपनी बनायी हुई एक दवा है, न आपके पास बुनाई हुई आलपीन है, और न हवाई जहाज है।
आप पांच हजार वर्ष से विद्या का अध्ययन कर रहे थे, ब्रह्मचारीगण
इकट्ठे होकर--यहां तक आपका विज्ञान विकसित हुआ, यहां तक आपकी
समझ विकसित हुई! क्या विकसित हुआ?
तो विद्या के नाम पर पौराहित्य सिखाया जा रहा था। पौरोहित्य से
विज्ञान नहीं निकलता। विद्या के नाम पर रिचुअल सिखाया जाता था, रिचुअल से कोई धर्म नहीं निकलता है। विद्या के नाम पर समाज का एक ढांचा था,
उस ढांचे को कैसे कायम रखा जाए, इसका आयोजन
किया जा रहा था, उस ढांचे को कैसे कायम रख जाए, इसका आयोजन किया जा रहा था। वह जो स्ट्रक्चर था वह टूट न जाए, उसकी पूरी आयोजना की जाती थी। क्षत्रिय का काम यह था कि ब्राह्मण की रक्षा
करे और ब्राह्मण का काम यह था कि वह क्षत्रिय को प्रोत्साहन दे और वह कहे कि यह
भगवान है। जिसको आप कहते हैं कि हमने बड़ी ऊंची समाज व्यवस्था बना रखी थी, नाम बड़े प्यारे हैं लेकिन उस समाज व्यवस्था के भीतर असलियत क्या थी,
नाम बड़े प्यारे हैं लेकिन उस समाज व्यवस्था के भीतर असलियत क्या थी
और सत्य क्या था? सत्य यह था कि राम जैसे अच्छे आदमी को भी
शूद्र के कानों में शीशा पिघलवाकर डलवाने की हमने व्यवस्था की है, क्योंकि वह वेद सुन रहा था कान से। वेद नहीं सुन सकता है शूद्र। ऐसे हम
विद्या गुणी थे कि शूद्र के कान में हमने शीशा पीघलवाकर डलवा दिया। और मजा यह है
कि आज इस पूरे वेद को तुम पढ़ने को किसको कहो, तो पढ़ कर वह
पाता है कि कुछ भी नहीं है। दस पंक्तियों को छोड़ कर सारा वेद व्यर्थ है। यानी कई
दफे इतनी हैरानी होती है कि जिस वेद को तुम इतना सुरक्षित करते रहे थे, उसमें दस पच्चीस इम्पार्टेन्ट पंक्तियां हैं, बाकी
सब कबाड़ और कचरा है जिसमें कि कल्पना भी नहीं हो सकती कि इसमें धर्म का भी कोई
संबंध हैं। एक दूध को दोहने वाला भगवान से प्रार्थना कर रहा है कि गाय के थन में
ज्यादा दूध आ जाए--यह भी वेद में है। एक किसान कह रहा है कि हे भगवान वर्षा हो जाए,
इंद्र भगवान वर्षा हो जाए मेरे खेत में--यह भी वेद है। एक आदमी कह
रहा है, मेरे शत्रु सब मर जाए--यह भी वेद में है। यह सब धर्म
शास्त्र है। इसका अध्ययन कर रहे थे ब्रह्मचारी गण बैठकर वर्षों तक!
विद्या के नाम पर क्या था? और गृहस्थ आश्रम के
नाम पर आपने कौन सी साइंस विकसित की थी? यह विकसित किया आपने
कि स्त्रियों को सती करवाया। यह विकसित किया कि पुरुषों को परमात्मा बनवा दिया और
औरत को दासी बनवा रखा है इतने दिन तक। यह विकसित किया कि स्त्री की सारी शिक्षा
छीन ली, सारी स्वतंत्रता छीन ली, सारा
सामर्थ्य छीन लिया।
प्रश्न--मनु जी ने?
उत्तर--हां, वही तो गुरु, हमारे व्यवस्थापक
थे। मनु हमारा एजुकेट है। हमारे एजुकेट दोनों थे, एक मनु और
एक मैकाले। दो के अलावा इस मुल्क में कोई एजुकेट हुआ नहीं। एक मनु था, वह हमें बेवकूफ बना गया, दूसरा मैकाले हमें बना गया।
और दो हमारे एजूकेट हैं और दोनों के मिल कर सारे मुल्क के दिमाग को खराब कर रखा
है।
प्रश्न--लेकिन बुद्ध ने भी तो पैंतालीस साल तक
दिया?
उत्तर--जरूर, बुद्ध ने हिम्मत की तो बुद्ध टिक नहीं सके? आप समझिये न! बुद्ध ने हिम्मत की, सो बुद्ध कहां है।
बुद्ध हिंदुस्तान में टिक न सके, पैर उखड़ गए यहां से।
प्रश्न--बुद्ध ने क्या किया?
उत्तर--बड़ी हिम्मत की। हिंदुस्तान में कोई क्रांतिकारी नहीं हुआ, ऐसा नई...लेकिन हिंदुस्तान की धारा ऐसी रही कि क्रांतिकारी के पैर यहां
टिक नहीं सके। आज भी नहीं टिकते। आज भी पूरी धार उखाड़ने की कोशिश करती है कि पैर
टिक जाए कहीं। आज भी हम कोई क्रांति उन्मुख समाज नहीं हैं, रिव्योलूशनरी
समाज नहीं है हमारा और मेरा कहना है, जो समाज क्रांति उन्मुख
नहीं है वह समाज मुर्दा है और मर चुका है क्योंकि क्रांति तो चाहिए रोज, हर पहलू पर।
प्रश्न--अस्पष्ट
उत्तर--एक तो इस देश में कभी भी शरीर की बहुत चिंता नहीं की गयी है और
इसीलिए शरीर की दृष्टि से हम बहुत हीन और दीन हो गए हैं। तो बचपन मग सबसे ज्यादा
जोर तो शरीर स्वास्थ्य पर दिया गया है, सबसे ज्यादा जोर। कुछ
भी मूल्यवान नहीं है उससे ज्यादा। यानी सब कुछ छोड़ा जा सकता है, लेकिन उसको नहीं छोड़ा जा सकता है। चाहे सारी शिक्षा छूट जाए तो कोई हर्जा
नहीं। बहुत कीमती है, तो उसके शरीर को इतना मजबूत और बलवान
बना दें। तो आने वाले पूरे जीवन में उसके शरीर के बाबत उसको विचार भी न करना पड़े
कि वह है भी। स्वस्थ आदमी का एक ही लक्षण है कि उसको शरीर का पता भी न रहे। और
बीमार आदमी लक्षण है कि उसको पता चलता रहे...कि यह शरीर है, यह
पैर है, यह सिर है। तो कुछ भी पता नहीं चलना चाहिए। इतनी एक
तो शारीरिक व्यवस्था देनी चाहिए, लेकिन हिंदुस्तान का सारा
चित शरीर विरोधी रहा है आज तक। सच तो यह है कि शरीर को जितना हम नुकसान पहुंचाएंगे
उतना ही हम आध्यात्मिक समझे जाते रहे हैं।
काउंट कैसर लिंग ने एक डायरी लिखी है, हिंदुस्तान से लौट
कर। और उसने लिखा है कि हिंदुस्तान जाकर समझ में आया कि टुबी हेल्दी इज टुबी
अनस्प्रीचुअल। हिंदुस्तान जाकर यह समझ में आया कि स्वस्थ एक गैर आध्यात्मिक बात है,
अस्वस्थ होना एक आध्यात्मिक खूबी है। तो हिंदुस्तान की शिक्षा यह
रही है, शरीर विरोधी। स्नान मत करो, संन्यासी
कहते हैं। संन्यासियों के वर्ग है कि स्नान नहीं करते। और आप स्नान करते हैं इसलिए
आपको पापी समझते हैं। पसीना आ जाए उनको पोंछो मत क्योंकि पसीने को पोंछना शरीर को
सुंदर बनाने की चेष्टा है। और शरीर को सुंदर क्यों बनाएं? शरीर
को सुंदर बना तो पाप है।
तो मेरा कहना है, शरीर स्वस्थ होना चाहिए, शरीर सुंदर होना चाहिए। ये वैल्यूज हमें कल्टीवेट करनी चाहिए, पांच हजार साल में यह वैल्यूज खत्म हो गयी। कोई आदमी शरीर के सौंदर्य
चेष्टा करता है तो वह अपने भीतर गिल्टी अनुभव करता है कि वह कोई पाप कर रहा है। एक
बच्चा अगर सुंदर दिखाई पड़ता है या वह सुंदर होने की चेष्टा करता है, स्वस्थ होने की, तो वह गिल्टी है। वह कोई अच्छा काम
नहीं कर रहा है। फूहड़ कपड़े पहनें लड़के तो अच्छे मालूम होते हैं। वह ऐसे कपड़े पहनें
जिनमें ताजे और स्वस्थ और सुंदर दिखाई पड़े तो हमारा समाज विरोध में है इस बात के
लिए, कि यह गलत बात है। क्योंकि हमारी कारण यह है कि शरीर
विरोधी है हमारा चिंतन पूरा; कि हम आत्मा को बात करना चाहते
हैं शरीर के विरोध में।तो मेरा पहला कहना है कि शरीर का मूल्य वापस प्रतिस्थिति
करना है। शरीर का मूल स्थापित करना है वापस।
शरीर को इस ट्रेनिंग के साथ ही उसी के साथ सैन्य शिक्षण हर बच्चे को
मिलना चाहिए। क्योंकि जब तक हम बहुत छोटी उम्र से सैन्य शिक्षण न दें तब तक न तो
हम साहस विकसित कर सकते हैं। और जिस बच्चे में साहस नहीं है वह बच्चा कभी भी नैतिक
नहीं हो सकेगा। मैं नैतिक जीवन का बुनियादी आधार करेज मानता हूं--न तो सत्य मानता
हूं और न अहिंसा मानता हूं, करेज जितना साहसी लड़का होगा, जीवन
में उतना ही वह सत्यवादी होगा। क्योंकि जब भी साहस की कमी पड़ती है तभी आदमी झूठ
बोलता है। जब उसको लगता है कि ठग जाएंगे सच बोलने से, तब झूठ
बोलने लगता है। जब उसको लगता है कि ईमानदारी की तो नुकसान हो जाएगा तो वह बेइमानी
करता है। मेरी दृष्टि में सारी अनीति साहस की कमी है।
और साह तभी विकसित होता है जब हम बच्चों को साहस की ट्रेनिंग से
गुजारें। सैनिक शिक्षण का मतलब है कि उसे साहस की ट्रेनिंग से गुजारें। सैनिक
शिक्षण का मतलब है कि उसे साहस की ट्रेनिंग से गुजारना चाहिए। छोटे से छोटे बच्चों
को पहाड़ों पर ले जाना चाहिए, समुद्रों में तैरना चाहिए। दस
पच्चीस हजार बच्चे हर साल मरेंगे, मर जाने देना है, इसकी फिकर छोड़ देनी है--पूरी कौम के मरने की बजाय। जिस तरह से कल्टीवेट हो
सके साहस, दुस्साहस कल्टीवेट हो सके, वह
हमें सारी चेष्टा का कर पाएंगे। नहीं तो यह जो शिक्षक हमें समझ रहे हैं और नेता
समझा रहे हैं कि मारल टीचिंग हो स्कूल में, झूठ बोलना पाप
है--यह तो हम पांच हजार साल से कर रहे हैं। इसमें कुछ-कुछ नहीं हुआ। कि हिंसा
परमोधर्म है, यह सब तो बहुत हो चुकी है बकवास, इससे कुछ हुआ नहीं। हमें यह पकड़ना पड़ेगा कि एक आदमी अनैतिक होता कब है?
जब भी उसमें साहस की कमी पड़ती है और फियर पैदा होती है, तभी वह अनैतिक होता है। तभी बचाव के लिए एक ही रास्ता रह जाता है उसके पास
कि वह झूठ बोल ले, बच जाए। बेईमानी कर ले, चोरी कर ले। हमें इतना साहसी बच्चा पैदा करना है जो कि जान हमेशा हथेली पर
लिया रहे तो ही नैतिक आदमी पैदा होगा। क्योंकि पूरी सोसाइटी ही इममोरल है और मारल
आदमी तभी पैदा हो सकता है जब पूरी सोसाइटी से लड़ने की हिम्मत उसके भीतर हो। हममें
लड़ने की हिम्मत नहीं है। हमें लड़ने की हिम्मत पैदा करने की बड़ी जरूरत है। और वह
कोई बच्चे में किससे लड़ने की हिम्मत हम पैदा कर सकते हैं, समुद्र
से लड़ने की हिम्मत पैदा कर सकते हैं, पहाड़ पर जूझने की
हिम्मत पैदा कर सकते हैं। उसे हम उस ट्रेनिंग से गुजार सकते हैं जहां उसे ऐसा लगने
लगे कि वह जान हथेली पर लिए हुए है।
एक घटना मुझे याद आती है--अकबर के पास दो राजपूत लड़के गए। उम्र कोई
बीस वर्ष है। दोनों जुड़वा भाई हैं और उन्होंने जाकर, अकबर से जाकर कहा कि
हम दो बहादुर लड़के हैं, और नौकरी की तलाश में आए हैं। अकबर
ने ऐसे ही मजाक में पूछा कि बहादुरी का कोई प्रमाण पत्र है? कैसे
हम समझे कि तम बहादुर हो? उन दोनों की आंखों में एकदम आग चमक
गयी। उन्होंने बहादुरी का प्रमाणपत्र कहीं सुना है? और कोई
बहादुर आदमी किसी दूसरे से प्रमाणपत्र लिखाने जाएगा कि मैं बहादुर हूं? अगर कोई लिखता है तो उसको कायर समझ लेना और उन्होंने तलवार निकाली और वे
तलवारें एक दूसरे के छाती में घुस गयी। दोनों भाई थे। फव्वारा छूट गया, खून का, नीचे गिर पड़े। अकबर तो घबड़ा गया। उसने अपने
सेनापतियों को बुलाया राजपुतों को कि यह क्या हो गया? यह तो
बड़ी मुश्किल हो गयी। मैंने तो सिर्फ प्रमाणपत्र पूछा था। उन सेनापतियों ने कहा,
राजपुतों से प्रमाण पत्र पूछना होता है। प्रमाणपत्र एक ही है कि हम
मरने को हमेशा तैयार हैं, उसके सिवा और क्या प्रमाण हो सकता
है? बहादुर आदमी का प्रमाणपत्र क्या है--कि हम मरने को हमेशा
तैयार है। जीने का कोई मोह नहीं ऐसा कि हम उसके लिए कुछ खोने को तैयार हों। सब खो
सकते हैं--जीने को भी खो सकते हैं, दांव पर लगा सकते हैं।
तो छोटे बच्चों को, मेरी दृष्टि में, दूसरी ट्रेनिंग का हिस्सा है, जीवन को दांव पर लगाने
की। वह तो मेरा कहना यह है कि यह तो बढ़ाते जाना चाहिए जब की युनिवर्सिटी के लेवल
पर बच्चा बाहर न निकले। तो वह तो कर देना चाहिए जितनी जल्दी हो सके। के. जी. शुरू
करना चाहिए। डेवलपमेंट होंगे उसके तो। के. जी. के बच्चे कोई समुद्र में नहीं फेंक
देना है, लेकिन के. जी. के बच्चे को भी अंधेरे में भेजा जा
सकता है, दरख्तों पर चढ़ाया जा सकता है, उसकी हिम्मत बढ़ायी जा सकती है, जहां उसको हमेशा यह
लग सके कि मर सकता हूं, लेकिन मरना फिकर नहीं करनी है जो
करना है। वह इतना जल्दी बीजारोपण करना है कि युनिवर्सिटी के लेवल तक आते-आते हम
उसको उस हालत में खड़ा कर दें कि वह अपने को बहादुर कह सके, तो
हम करेक्टर खड़ा करेंगे, क्योंकि सोसाइटी है इम्मारल।
प्रश्न--फिजिकली वीब बच्चे हों?
उत्तर--मैं समझा आपकी बात को--फिजिकली वीक भी बच्चे है। उसका कारण कुल
इतना है कि बच्चे पैदा करने की हमारी सारी व्यवस्था अवैज्ञानिक है। सच तो यह है कि
अगर थोड़ी भी वैज्ञानिक बुद्धि और समझ हो तो हर आदमी को बच्चा पैदा करने का हम नहीं
होना चाहिए मेरी जो समाज की अपनी कल्पना है उसमें हर आदमी को बच्चा पैदा करने का हक
नहीं देता--मेरी समाज की कल्पना में। बच्चा पैदा करने का हक बहुत बड़ी जिम्मेवारी
है क्योंकि आप एक बच्चे को पैदा नहीं कर रहे हैं, आप बच्चे के द्वारा
पूरी इस दुनिया को पैदा कर रहे हैं जो कि हजारों साल तक आगे जारी रहेगी। तो बच्चे
पर तो नियंत्रण होना चाहिए कि किन मां बाप को सर्टिफाई करती है सरकार, वही बच्चे पैदा कर सकते हैं। हर कोई करने का सवाल नहीं है। फिर भी अभी
कमजोर बच्चे हैं। लेकिन जितने कमजोर बच्चे हैं उनमें से अधिक बच्चे कमजोर इसलिए
हैं कि उनकी कभी ट्रेनिंग से नहीं गुजारा गया है कि उनकी कमजोरी दूर हो जाए। अगर
सौ बच्चे कमजोर हैं तो उनमें बीस बच्चे ही ऐसे साबित होंगे जिनको ठीक नहीं किया जा
सकता, बाकी बच्चे ठीक किए जो सकते हैं। और जो बीस बच्चे ठीक
नहीं किए जा सकते हैं उनको उन क्षेत्रों में ले जाना चाहिए जहां कमजोरी बाधा नहीं
है, लेकिन साहस की उनको भी जरूरत है।
साहस और कमजोरी में फासला है। कमजोर आदमी अनिवार्य रूप से साहसी नहीं
होता है, ऐसा मत समझ लेना। और ताकतवर आदमी अनिवार्य रूप से
साहसी होता है, ऐसी भी समझने की कोई जरूरत नहीं है। साहस कुछ
इनर-क्वालिटी है, कमजोरी बिलकुल शरीर की बात है। एक कमजोर
आदमी भी साहसी हो सकता है अगर वह मौत को झेलने की हिम्मत करता है। और एक ताकतवर
आदमी कमजोर हो सकता है। अगर भाग खड़ा हो और मरने से डरता है। तो मेरा कहना है कि
कमजोरी मिटाने की कोशिश करनी चाहिए सब तलों--जन्म से लेकर मृत्यु तक। और दूसरी बात,
कि अभी जो कमजोर बच्चे हैं उनको तो मिटाया नहीं जा सकता है, उनको डायरेक्शन देने की जरूरत है।
प्रश्न--अस्पष्ट
उत्तर--समझा, समझा। पहले तो कमजोर बच्चे को स्वस्थ बनाने की पूरी
चेष्टा करनी चाहिए। मेरा कहना है सौ में से अस्सी बच्चे तो ठीक हो सकते हैं जो बीस
बच्चे बचते हैं उनका भी हम दिशा दे सकते हैं। जैसा मेरा कहना है, स्कूल टीचर है स्कूल टीचर के लिए कोई बहुत शक्तिशाली आदमी की जरूरत नहीं
है। शक्तिशाली आदमी स्कूल के टीचर बनें, यह फिजूल की बात है।
यह ऐसा काम है इसमें साधारण स्वास्थ्य का आदमी भी ठीक है।
प्रश्न--अस्पष्ट
उत्तर--क्योंकि सारे लोग समान नहीं हैं, और समान हो भी नहीं
सकते हैं। मैं समझता नहीं, वे शब्द जो हैं हमारे, वे इतने गंदे हो चुके हैं, उसका उपयोग भी नहीं करना
चाहिए। वे दोनों भाई हैं और बहादुरी का सवाल नहीं है, वे
दोनों यह बताना चाह रहे हैं कि मौत को हम हाथ में लिए हुए है।
और साहस का यह अर्थ है कि आदमी जिंदगी को इतना मूल्यवान नहीं सकता कि
उसे भी किसी क्षण खोने से झिझकता हो और डरता हो। जो मैं उस उदाहरण से कहने वाला
हूं, कोई उदाहरण पूरा नहीं है। उदाहरण से जो मैं कहने वाला
हूं वह यह कि करेज का मतलब क्या है आध्यात्मिक अर्थों में। करेज का आध्यात्मिक
अर्थों में एक ही मतलब है कि ऐसा आदमी जो मौत से किसी भी क्षण और किसी भी कारण से
भयभीत नहीं है। जो मौत को ऐसे ही अंगीकार कर सकता है जैसे किसी प्रेमी को अंगीकार
कर रहा हो। लेकिन इससे ज्यादा मेरा कहने का मतलब नहीं है। उसमें जितना आप सोच सकते
हैं सोचें, उसमें मेरा इतराज भी नहीं है कह कुल इतना रहा हूं
कि मौत को साक्षात करने की क्षमता विकसित होनी चाहिए बच्चों में, तो हम चरित्र, तो हम व्यक्तित्व और तो एक जातीय गुण
पैदा कर सकेंगे जो कि बिलकुल खो गया है।
और मेरी अपनी दृष्टि यह है कि हारी सारी शिक्षा, आज तक की सारी संस्कृति कायरता पैदा करती है, साहस
पैदा नहीं करती। और कायरता के कारण इतनी चरित्रहीनता पैदा हुई है, यह बाई प्रोडक्ट है। हम बात करते हैं, आत्मा अमर है,
फलां है ढिकां है, लेकिन हम इसलिए बातें करते
हैं आत्मा की अमरता की, कि हमको मौत का डर है; और कोई कारण नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा कि आत्मा अमर नहीं है। हम जो
बातें करते हैं आत्मा की अमरता की वह सिर्फ मौत का भय और डर है। और उस डर का हमने
इतना पोषण किया है, इतना पोषण किया है कि एक एक आदमी बिलकुल
भयभीत है मरने से। और इस भय में जो आदमी खड़ा हुआ है, उससे आप
कुछ करवा सकते हैं। एक आदमी उसकी जोर से गर्दन पकड़ ले और कहे मार डालेंगे, अदालत में चलकर हमें यह कह दो, वह आदमी तैयार है।
उसको दिखायी पड़े कि मैं फंस जाऊंगा, वह झूठ बोलने को तैयार
है, बेइमानी करने को तैयार है।
प्रश्न--अस्पष्ट
उत्तर--हमेशा सारे ढंग ही वैज्ञानिक है, अगर ढंग है तो! नहीं
तो ढंग ही नहीं है। यह जो युवक है आज आपके पास, मेरी दृष्टि
में भारत के इतिहास में पहली दफा युवक उस हालत में पहुंचा है कि धार्मिक हो सकता
है, इसके पहले तो कभी हो ही नहीं सकता। क्योंकि न तो युवक
में विद्रोह था आज के पहले, और जिस युवक में विद्रोह ही नहीं
है वह धार्मिक नहीं हो सकता। धार्मिक होने के लिए बड़ी विद्रोह क्षमता चाहिए
क्योंकि धार्मिक होने का मतलब यह है कि वह सत्य की खोज में जाता है। और सत्य की
खोज में जाने का मतलब यह है कि आपके समाज ने हजार झूठ थोपे हैं जिनको वह तोड़ेगा,
तो वह सत्य की खोज में जाने वाला है।
मेरी दृष्टि में भार के भाग्य में एक बहुत कीमती क्षण आया है, अगर वह लड़कों का उपयोग कर सके तो ये लड़के धार्मिक हो सकते है। आपका पुराना
लड़का तो धार्मिक हो नहीं सकता था, वह जो--हजूर था। उसमें
इनकार करने की ताकत भी नहीं थी। और मेरी यह भी समझ है कि जिस बच्चे में इनकार की
ताकत नहीं है इसके हां का कोई मूल्य नहीं है। जो नो नहीं कह सकता तो उसके यस का दो
कौड़ी मूल्य है। तो उसके यस में कोई जान नहीं है। आज पहली दफा बच्चे ने कहा है,
तो--पच्चीस चीजों पर और इस बच्चे को अगर हम राजी कर सके और यह कह
सके तो इस बच्चे के यश का अर्थ होगा, पूरे मुल्क को बदल देने
वाला होगा।
आज तक हिंदुस्तान में जवान था ही नहीं। बूढ़े थे और बूढ़ों के अनुगत थे, जवान नहीं थे। जवान की कोई पीढ़ी नहीं थी हिंदुस्तान में। बूढ़ा आदमी था और
बूढ़े का आज्ञाकारी जवान है। जवान की पीढ़ी विकसित हुई है अभी। यानी अब हमको लगता है
कि जवान कुछ अलग है। उसकी अपनी हैसियत खड़ी हो रही है। और वह जो हमें उसमें दिखायी
पड़ रहा है उसकी गैरआध्यात्मिकता, वह गैरआध्यातिमकता नहीं है।
आपके सारे मूल्य असफल सिद्ध हो चुके हैं। आपने जितनी वैल्यूज आज तक खड़ी की थीं वह
सब असफल हो गयी है। बाहर जाने वाली शक्तियां जग रही है। अभी आंख खुलने का वक्त है,
अभी आंख बंद करने का उसका वक्त भी नहीं है। अभी वह एक कोने बैठे
नहीं सकता, अभी वह सारी एक्टिविटी उसके भीतर मचल रही है। तो
मेरी अपनी दृष्टि यह है--मेडीटेशन इन एक्शन, एक नयी
प्रक्रिया ध्यान की विकसित होनी चाहिए, और हो सकती है,
कठिनाई नहीं है कि हम एक्शन के साथ ध्यान को जोड़ें। जैसे--लड़के
कवायद कर रहे हैं, मिल्ट्री की कवायद हो रही है तो कवायद
करते वक्त इस भांति उनको समझाया और सिखाया जा सकता है कि वह पूरी कवायद पर अटेंशन
दें, वह सिर्फ कवायद ही कर रहे हैं उनका मन और कुछ भी नहीं
कर रहा है सिर्फ एक्शन रह जाए।
बुद्ध दो तरह के प्रयोग करते थे ध्यान का। एक तो वह कहते थे बैठकर
ध्यान कर और एक को वह कहते थे चलते हुए ध्यान। वह भिक्षुओं को कहते थे एक घंटा
बैठकर ध्यान करो फिर एक घंटा चलते हुए ध्यान करो। बैठकर एक बात है ध्यान की ज्यादा
आसान है। चलकर ध्यान थोड़ा कठिन है। एक्शन के साथ क्रिया हो रही है और ध्यान। लेकिन
युवक के लिए चलकर ध्यान करना आसान है बजाय बैठकर। तो मेरी दृष्टि यह है कि मेरी
मिल्ट्री ट्रेनिंग युवक की हो और उसकी मिल्ट्री ट्रेनिंग का अनिवार्य सेटल हिस्सा
मेडिटेशन हो। वह चले, खेले, दौड़े।
उन्होंने जापान में एक व्यवस्था खोज ली थी। जापान में जैसे यहां
क्षत्रिय होते थे वैसे वहां समुराई जापान में क्षत्रियों का वर्ग था। उन्होंने
ध्यान को तलवार बाजी के साथ जोड़ रखा था। तलवार चलाना सिखाते और ध्यान के साथ तलवार
चलाओ ध्यानपूर्वक। तो समुराई दो काम कर लेता था। वह तलवार चलाना सीखते सीखते
ध्यानस्थ होना भी जान जाता था। और युद्ध के मैदान में समुराई का कोई मुकाबला नहीं
था दुनिया में क्योंकि वह जितना शक्तिशाली होता था, जितना मौन होता था,
जितना निर्विचार होकर लड़ता था उतना दूसरा आदमी तो निर्विचार भी नहीं
था शांत भी नहीं था, वह पच्चीस बातें भी सोच रहा था। समुराई
से जीतना मुश्किल था। और धीरे-धीरे तो यह हालत पैदा हुई जापान में कि अगर दो
समुराई में कभी तलवार बाजी हो जाए तो कोई नहीं जीत पाया था जीतना ही मुश्किल था
किसी का। क्योंकि वह दोनों ही उतने शांति से इतना मौन, इतने
मैडीटेटिविली लड़ते थे कि मुश्किल मामला था कि कोई जी जाता
ठीक उस तरह की कोई व्यवस्था मिल्ट्री ट्रेनिंग के साथ युवकों के लिए
खोजनी जरूरी है। और एक संगठन चाहिए युवकों का सारे देख में जो मिल्ट्री के ढंग पर
आयोजित हो लेकिन धार्मिक शिक्षण जिसका केंद्र हो। और धार्मिक शिक्षण से मेरा मतलब, ध्यान का शिक्षण। धार्मिक शिक्षण से मेरा मतलब नहीं कि गीता पढ़ाओ उनको,
धार्मिक शिक्षण से मेरा मतलब नहीं है कि उनको बैठकर पाठ रटवाओ कि
सत्य बोलना अच्छा है। इससे प्रयोजन मेरा नहीं है। धार्मिक शिक्षण का मतलब ध्यान का
शिक्षण है। इधर मेरे मन में एक योजना आती है कि एक युवक क्रांति दल पूरे मुल्क में
खड़ा किया जाए। उसकी सारी प्रवृत्ति ठीक सैनिक प्रशिक्षण की होगी, लेकिन उसके केंद्र में ध्यान होगा और ध्यान और कर्म को अगर हम जोड़ दें तो
हम युवक को धार्मिक बना सकते हैं, अन्यथा नहीं। अभी तक युवक
धार्मिक नहीं बन सका क्योंकि ध्यान था। निष्क्रिय वृद्धों के लिए और कर्म था
युवकों के लिए। कर्म और ध्यान के बीच कोई सेतु नहीं है इधर मैं सोचता हूं कि वह
सेतु होना चाहिए। बचपन से साहस, युवा होने पर ध्यान और कर्म,
इन दोनों का संयुक्त रूप जोड़ा जा सकते तो हम एक व्यक्तित्व बना सकते
हैं, जिसको धार्मिक युवक कह सकते हैं। और वैसे युवक में
क्वालिटी अपने आप पैदा होंगी जो आप लाख कोशिश करके पैदा नहीं कर सकते है। जैसे
शांत व्यक्ति में अनिवार्य रूपेण प्रेम पैदा होता है, अशांत
व्यक्ति में कभी प्रेम पैदा नहीं हो सकता है। क्योंकि अशांत व्यक्ति इतना भीतर
परेशान है कि प्रेम करने का सवाल कहां है? वह घृणा कर सकता
है, क्रोध कर सकता है द्वेष कर सकता है यार् ईष्या कर सकता
है लेकिन प्रेम नहीं कर सकता है। और अगर युवक प्रेम करने में समर्थ हो तो आज युवक
की जितनी तोड़ फोड़ दिखाई पड़ रही है वह एकदम विलीन हो जाएगी। एकदम विलीन हो जाएगी।
और आप लाख समझाए उसको कि तुम बस मत जलाओ, तुम क्लास का
फर्नीचर मत तोड़ो। आदमी सोच ही हनीं पा रहा है, वह फर्नीचर
तोड़ रहा है, बस जला रहा है, एक साइकिक
मामला है उसके भीतर। उसके भीतर चित्त ऐसे है कि सिवाय तोड़ने के उसे कुछ सूझ ही
नहीं रहा है। अगर आप बस न जलाने देंगे तो और खतरनाक चीजें तोड़ेगा वह।
जुंग एक मनोवैज्ञानिक था।
उसके पास एक आदमी लाया गया। वह एक दफ्तर में नौकर था और वह आदमी धीरे-धीरे पागल
होता चला गया था। पागल कुल यह था कि जो उसका बस था वह उसे डांटना या अपमानित करता
तो उसके मन में होता कि निकालूं जूता और इसको मार दूं। लेकिन वास को जूता कैसे
मारा जा सकता है?वह अपने को रोक लेता था। लेकिन यह बात बढ़ती चली गयी,
आब्सेशन हो गया। मालिक कुछ कहे, उसका हाथ जूते
पर जाए और घबराकर अपने को रोक लेता। उसे यह डर पैदा हो गया कि किसी दिन मैं अगर
निकाल के मार ही न दूं, नहीं तो मुश्किल हो जाएगी, तो उसने छुट्टी ले ली और वह घर पर बैठ गया। लेकिन घर बैठे गया तो उसका ही
चिंतन चलने लगा उसे कि कहीं रास्ते पर वह मुझे मिल जाए और मैं जूता निकाल कर मार दूं।
जुंग के पास उसे लाए। जुंग ने
कहा, यह ठीक हो जाएगा। मालिक का एक चित्र ले आओ और रोज
इससे कहो कि दफ्तर जाने के पहले और दफ्तर से आने के बाद पांच जूते मालिक के चित्र
को मारकर, तुम जाओ। लोगों ने कहा, यह
क्या पागलपन है, इससे क्या होगा? लेकिन
जुंग ने कहा, तुम करो, रिलीजियसली तुम
इसको करो। ऐसा नहीं, जब पूजा करता है आदमी रोज नियमित वक्त
पर उसके जूते मारने में। वह आदमी भी हंसा। लेकिन उसे खुशी हुई। यह बात कुछ लगी,
दिल में बहुत दिन से यह बात थी। उसने पांच जूते सुबह और पांच जूते
शाम को मारकर यह दफ्तर जाना शुरू किया। और पहले जूते मार कर गया तो वह उस आदमी ने
लौटकर कहा कि आज मुझे मालिक पर उतना क्रोध नहीं आया जितना मुझे रोज आता था। और
पंद्रह दिन के भीतर वह आदमी दफ्तर में शांति से काम करने लगा। और मालिक ने खुद कहा,
इस आदमी में क्या फर्क हो गया? यह आदमी बड़ा
शांत मालूम पड़ रहा है। कोई फर्क नहीं हो गया, और महीने भर
में वह आदमी नार्मल हो गया। एक साल भी चला गया और वह खुद हंसने लगा कि यह क्या
पागलपन था कि मुझे जूता मारने का खयाल आता था।
हमने उस एक निकास दिया। हिंदुस्तान के युवक के पास शक्ति है। और शांति
बिलकुल हनीं है। अशांति चित्त है और शक्ति पास है। अशांत चित और शक्ति पास होगी तो
टूट-फूट होगी, विघटन होगा, आज्ञा हीनता होगी,
सब तरह का उपद्रव पैदा होगा, शिक्षक और नेता
और ये पुरोहित समझा रहे हैं युवकों को कि तुमको यह बुरा काम नहीं करना चाहिए कोई
भी यह नहीं देख रहा है कि इसके भीतर साइकिक स्थिति ऐसी है कि आप इधर से रोकोगे उधर
करेगा उधर से रोकोगे कहां करेगा। उसकी साइकिक स्थिति बदलने की जरूरत है।
ओशो
पत्रकार-वार्ता, बंबई, दिनांक २१ सितंबर १९६८
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