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शनिवार, 8 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-61



                    एस धम्मो सनंतनो (भाग—7)
ओशो
  (ओशो द्वारा भगवान बुद्ध की सुललित वाणी धम्मपद पर दिए गए
                        दस अमृत प्रवचनों का संकलन)

तुम जिद्द करते हो कि हम अज्ञानी हैं। और बुद्धों का सारा प्रयास यही है समझाना कि तुम नहीं हो; तुम्हारी भ्रांति तोड़नी है। तुम मालिक हो, तुमने गुलाम समझा हुआ है। तुम विराट हो, तुमने छोटे के साथ अपना संबंध बना लिया। आंखें आकाश की तरफ उठाओ, सारा आकाश तुम्हारा है, तुम आंखें जमीन पर गड़ाए खड़े हो। इससे यह नहीं होता कि आकाश तुम्हारा नहीं रहा, सिर्फ तुम्हारी आंखें छोटे में उलझ गयी हैं। मगर आंखों  की क्षमता आकाश को भी समा लेने की है। कितने ही छोटे में उलझे रहो, जिस दिन आंख उठाओगे र उस दिन पूरा आकाश तुम्हारी आंखों में प्रतिबिंबित हो उठेगा।

ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो




भूमिका

ज भी याद है मुझे वह जादुई माहौल जिसमें इस प्रवचनमाला की महफिलें डूबी होती थीं। आश्रम के नवनिर्मित ऐतिहासिक बुद्ध सभागार (बुद्धा ऑडीटोरियम ) में शुरू हुई ओशो की यह पहली वार्तामाला थी। जेट गति से विकसित हो रहे आश्रम के जीवन में अर्से से महसूस की' जा रही एक विशाल ऑडीटोरियम की कमी दूर हो चुकी थी।
समस्त श्रोताओं का ऑडीटोरियम में एक साथ बैठ सकना; प्रातकालीन सूरज की सुनहरी किरणों व गुनगुनी धूप का ऑडीटोरियम के चारों ओर फैली घनी हरियाली के साथ छेड़छाड़ व लुकाछिपी—न केवल बासंती रात की शीतलता में पगी हरियाली बल्कि अभी—अभी संन्यासी मालियों के होजों (जल—नलिकाओं ) से बरसती प्रेम—फुहारों से ओतप्रोत व आर्द्र हरियाली, सुबह की इस अपूर्व ताजगी में घने वृक्षों में छिपी बैठी कोयलों की रह—रह कर, व कभी अनवरत, पुकार; हर ओर से खुले इस ओवेल (अंडाकार ) ऑडीटोरियम में आरपार गहन मौन में डूबा संन्यासियों का यह गैरिक—सागर; उस मौन की संगिनी निश्चलता—जम गया सा गैरिक—सागर; कुछ समय बाद इस सन्नाटे में एक हल्की सी दरार डालती, क्रमश: निकट आती व स्पष्टतर होती जाती ध्वनि कार के पहियों तले बजरी की खस—खसाहट की व कार के कीमती इंजन की अनाक्रामक घुरघुराहट की; एक अवर्ण्य प्रेम व अभीप्सा की ऊष्मापूर्ण ऊर्जा—लहरों का इस गैरिक—सागर पर फैलते जाना, फैलते जाना, भोर के सुगंधिल शीतल—मंद—समीर की तरह एक रोमांचक स्फुरणा का सबके तन—मन—प्राण में प्रवेश; ओशो का कार से बाहर आना; मनोहारी हंस चाल से, बिना किसी जल्दी में—एक शाश्वत, समयातीत विश्राम में—प्रणाम की अपनी भुवनमोहिनी मुद्रा में उनका सभागार में प्रवेश, समस्त हृदय—मुकुलों का खिल उठना, संगमरमरी मंच की कुछ सीढ़िया चढ़ कर ओशो का मंच पर पहुंचना, पूरे 18० डिग्री के कोण में घूम कर आहादमय हिलोरों में लहराते गैरिक—सागर का मौन अभिवादन ( अथवा आशिर्वर्षण ? ) जो इस सागर की गहनतम गहराइयों से प्रत्युत्तरित भी हो रहा होता, ओशो का मुस्कुरा कर कुर्सी में बैठ जाना, और फिर अगले ही पल अमृतरस की फुहार सी कानों के मार्ग से हृदय—सीपी में झिरने वाली ओशो की संजीवनी वाणी—गौतम बुद्ध के 'धम्मपद' का खुलासा करती हुई; इस सब ( और भी बहुत कुछ ) से मिल कर सशरीर होता था यह माहौल जिसमें लिपटे —घिरे श्रोता न जाने किन—किन अंतलोंकों की सहज ही यात्रा कर आते जिसे जन्मों—जन्मों की साधनाएं भी संभव नहीं बना पातीं।
एक अन्य बात जिसका इस जादुई माहौल (मैजिकल मिल्‍यू) के निर्माण में हाथ था वह थी 'धम्मपद' के इन सूत्रों के साथ उन संदर्भ—कथाओं का जुड़ा होना जिनके अंतर्गत गौतम बुद्ध द्वारा भिन्न—भिन्न समयों पर ये सूत्र कहे गए। ओशो का उन कथाओं की पर्तों में जाना हमारे ही मन व शरीर की पर्तों में जाना सिद्ध हो रहा था। ये मनुष्य मात्र की कथाएं हैं। ये सब के लिए हैं।
लगता वही बुद्ध मौजूद, वही शिष्यमंडली उनके सम्मुख, हर ओर से हरियाले निकुंज में घिरा—डूबा किसी आम्रवन का प्रतिनिधित्व करता हुआ बुद्ध सभागार—सब कुछ तो वैसा ही! पलमात्र में दिक्—काल की पच्चीस सदियों का अंतराल विदा हो जाता और ओशो की यह महफिल (असेंबली) उन क्षणों में होती जिनमें गौतम बुद्ध इन सूत्रों को बोले होंगे।
इस वार्तामाला से ठीक नौ महीने बाद, इसी बुद्ध सभागार में, इसी श्रोतामंडली के समक्ष, ओशो द्वारा गौतम बुद्ध के वज्रच्‍छेदिका प्रज्ञापारमिता' सूत्रों के अंगरेजी भाषा में समझाए जाते समय एक और प्रसंग सामने आया जो ओशो की इस महफिल (असेंबली) पर और भी रहस्य का माहौल उंडेल गया। गौतम बुद्ध के उन सूत्रों को और उन पर कहे गए ओशो के कुछ वचनों को यहां उद्धृत करना मुझे यथोचित ही लग रहा है.
सुभूति ने पूछा :

'क्या भविष्यकाल में. कोई ऐसे लोग होंगे आखिरी समय में युगांतर काल में आखिरी पांच सौ वर्षों में इस सम्यक शिक्षा के पतन काल में जो कि जब इस सूत्र के ये वचन समझाए जा रहे होंगे तो इनके सत्य को समझेंगे?'
प्रभु. ने उत्तर दिया. 'ऐसा मत बोलो सुभूति! हां तब भी ऐसे लोग होंगे जो कि जब उन्हें सूत्र के ये वचन समझाए जा रहे होंगे तो इनके सत्य को समझेगे। क्योंकि सुभूति उस समय भी बोधिसत्व होंगे और ये बोधिसत्व सुभूति उस प्रकार के न होंगे। जिन्होंने कि केवल अकेले एक बुद्ध का सम्मान किया है न वैसे होगे। जिन्होंने कि अपनी पुण्य की जड़ें केवल अकेले एक बुद्ध में जमा रखी हैं उलटे सुभूति वे बोधिसत्व जो कि जब इस सूत्र के ये वचन समझाए जा रहे होंगे।
एक अकेला विचार भी निरभ्र श्रद्धा का पाएंगे वैसे होंगे जिन्होंने लाखों— लाखों बुद्धों का सम्मान किया है। वैसे होंगे जिन्होंने अपनी पुण्य की जड़ें लाखों— लाखों बुद्धों में जमा रखी हैं। सुभूति वे ज्ञात हैं तथागत को उनकी बुद्ध— प्रत्यभिज्ञा के जरीए; सुभूति वे दृश्य हैं तथागत को उनके बुद्ध— चक्षु के जरीए; सुभूति वे पूर्णत: ज्ञात हैं। तथागत को। और वे सब के सब सुभूति अमाप व अगणित पुण्य के अंबार पैदा करेगे व प्राप्त करेगे।'
अधिकांश पाठकों को तो पढ्ने में ही यह स्पष्ट हो चुका होगा कि कौन सी वह महफिल है आज, जिसका गौतम बुद्ध वर्णन कर रहे हैं। कौन सी वह महफिल है आज, जहां अतीत, वर्तमान व भविष्य तक के समस्त बुद्धों का सम्मान किया जा रहा है, जहां ध्यानियों ने अपनी जड़ें अतीत, वर्तमान व भविष्य तक के समस्त बुद्धों में जमा रखी हैं। कुछ को अपनी दृष्टि थोड़ा इधर—उधर दौड़ा कर देखना पड़ सकता है, और उन्हें भी बात स्पष्ट होते देर न लगेगी।
ध्यान रहे, गौतम बुद्ध के समय से प्रारंभ पच्चीस सौ वर्षीय चक्र के पांच—पांच सौ वर्षों में विभाजित पांच खंडों का यह अंतिम (पांचवां) खंड है।
इन सूत्रों को समझाते समय ओशो कहते हैं—
''अब तुम चकित होओगे. यही है वह समय जिसकी सुभूति चर्चा कर रहे हैं, और तुम हो वह लोग।
''बुद्ध तुम्हारे संबंध में बात कर रहे हैं। वह सूत्र तुम्हें समझाया जा रहा है। पच्चीस शताब्दियां बीत चुकी हैं।........
''यह विलक्षण ही है कि सुभूति ने ऐसा सवाल पूछा। उससे भी बढ़ कर विलक्षण है कि बुद्ध कहते हैं कि 'पच्चीस शताब्दियों बाद वे लोग तुमसे कम सौभाग्यशाली न होंगे, बल्कि अधिक सौभाग्यशाली होंगे'।...
''यह बहुत रहस्यमय है, लेकिन संभव है। बुद्धपुरुष को भविष्य का दर्शन हो सकता है। वह भविष्य के कुहासे के पार देख सकता है। उसकी स्पष्टता ऐसी है, उसकी दृष्टि ऐसी है, वह अज्ञात भविष्य में प्रकाश की किरण फेंक सकता है, वह देख सकता है। यह बहुत रहस्यमय लगेगा कि बुद्ध तुम्हें वज्रच्‍छेदिका प्रज्ञापारमिता' सूत्रों को सुनता हुआ देखते हैं।....
''यह सोचना तक हषोंन्मादक है कि गौतम बुद्ध ने तुम्हें वज्रच्‍छेदिका प्रज्ञापारमिता' सूत्र सुनते हुए देखा था। वज्रच्‍छेदिका प्रज्ञापारमिता' सूत्रों में यह तुम्हारी चर्चा हुई है। यही कारण है कि मैंने इसे चुना। जब मैंने इन वचनों को देखा तो मैंने सोचा, 'यही तो बात है मेरे लोगों के लिए। उन्हें जानना ही चाहिए कि वे गौतम बुद्ध द्वारा देख लिए गए थे; कि उनके संबंध में पच्चीस शताब्दियों पूर्व कुछ कहा जा चुका है; कि उनकी भविष्यवाणी हो चुकी है'''
जैसे भविष्य में यात्रा संभव है ऐसे ही अतीत में भी यात्रा संभव है। कुछ आश्चर्य नहीं कि गौतम बुद्ध द्वारा देखी गयी ओशो की यह महफिल पच्चीस सदियों पूर्व लगी उनकी महफिलों के साथ एक हो जाया करती थी। इसकी कुछ झलक, इसकी कुछ पुलक, इसका कुछ स्वाद आपको भी इन प्रवचनों को पढ़ते —पढ़ते मिलेगा——यदि आपने छोड़ा स्वयं को, यदि आपने खुला रखा स्वयं ले
और, हम आह्लादित हैं ' धम्मपद' पर ओशो के प्रवचनों का यह सातवां पुष्प सज— धज सहित आपके सम्मुख प्रस्तुत करने में।

स्वामी योग प्रताप भारती (सच्चा बाबा)

परिचय—
ये प्रवचन माला इसलिए भी अति मधुर और सौम्‍य  है कि 7—12 भागों में भागवान बुद्ध के जीवन में घटी उन घटनाओं का वर्णन है, जिस स्‍थिति ये ये सूत्र कहे.... जो साध के मार्ग में अति सहयोगी होते है...वो वचन आज से 2500 साल पहले उन साधको को ही नहीं कहे...गये वह आज भी प्रत्‍येक साधक को कहे गये है...इस लिए ये कथाये शास्‍वत है।....ओर मधुर भी...हमे यथा स्‍थिति उस समय के लोगों के मनोभाव का भी  खुब परिचय मिलता है।
कि लोग किसी तरह...से धर्म से जूडे थे...ओर देश की आर्थिक हालत भी क्‍या थी। बुद्ध के जमाने में सारे भारत वर्ष की कुछ जनसंख्‍या करिब दो करोड़ थी। और अकेले बिहार ने 25-30 हजार बोद्ध भिक्षुओं और इतने ही महावीर के अनूयाईयों का भरण पौषण किया। और हिंदू संन्‍यासी तो इससे भी ज्‍यादा थे। तो देश खुशहाल होना चाहिए.....सामथर्यवान होना चाहिए...
धम्‍म पद की ये कथाये बहुत ही सुंदर और ज्ञान वर्धक है.....
—स्‍वामी आनंद प्रसाद

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