जग-जग कहते जुग भये-(प्रवचन-पहला)
दिनांक 1 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न-01 भगवान, नव-आश्रम
के निर्माण में इतनी देर क्यों हो रही है?
हम आस लगाए बैठे हैं कि कब हम
भी बुद्ध-ऊर्जा के अलौकिक क्षेत्र में प्रवेश करें।
और हम ही नहीं, हजारों आस लगाए बैठे हैं। अंधेरा बहुत है, प्रकाश
चाहिए।
और प्रकाश के दुश्मन भी बहुत
हैं। इससे भय भी लगता है कि कहीं
यह जीवन भी और जीवनों की
भांति खाली का खाली न बीत जाए!
प्रश्न-02 भगवान, संग का
रंग लगता ही है या कि यह केवल संयोग मात्र है? कृपा कर
समझावें!
प्रश्न-03 भगवान,
काल करंते आज कर, आज
करंते अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि
करोगे कब।।
और
आज करंते काल कर, काल
करंते परसों।
जल्दी-जल्दी क्यों करता है, अभी तो जीना बरसों।।
आपके हिसाब से तो दोनों
कहावतें सच होंगी, पर हमारे लिए कौन सा निदान है?
कृपा करके समझाएं!
प्रश्न-04 भगवान, हम
संन्यासियों का परिचय क्या?
पहला प्रश्न: भगवान, नव-आश्रम के निर्माण में इतनी देर
क्यों हो रही है? हम आस लगाए बैठे हैं कि कब हम भी
बुद्ध-ऊर्जा के अलौकिक क्षेत्र में प्रवेश करें। और हम ही नहीं, हजारों आस लगाए बैठे हैं। अंधेरा बहुत है, प्रकाश
चाहिए। और प्रकाश के दुश्मन भी बहुत हैं। इससे भय भी लगता है कि कहीं यह जीवन भी
और जीवनों की भांति खाली का खाली न बीत जाए।
नीलम, प्रकाश की आकांक्षा जग गई तो जीवन खाली नहीं बीत
सकता है। प्रकाश की आकांक्षा बीज है। और बीज है तो अंकुरण भी होगा। अपनी आकांक्षा
को तीव्रता दो,
त्वरा दो। अपनी आकांक्षा को अभीप्सा बनाओ।
आकांक्षा-अभीप्सा
का भेद ठीक से समझ लो। आकांक्षा तो और बहुत आकांक्षाओं में एक आकांक्षा होती है।
अभीप्सा है सारी आकांक्षाओं का एक ही आकांक्षा बन जाना।
जैसे
किरणें अलग-अलग छितर कर पड़ें तो आग पैदा नहीं होती; ताप तो होगा, आग नहीं होगी। लेकिन किरणों को इकट्ठा कर लिया जाए और एक ही जगह संगृहीत
किरणें पड़ें तो ताप ही नहीं आग भी पैदा होगी। अभीप्सा आकांक्षाओं की बिखरी किरणों
का इकट्ठा हो जाना है।
मेरे
बिना भी तुम्हारा पहुंचना हो सकता है। बुद्ध-क्षेत्र के बिना भी बुद्धत्व घट सकता
है। बुद्धत्व का घटना बुद्ध-क्षेत्र पर निर्भर नहीं है। बुद्ध-क्षेत्र बुद्धत्व के
लिए कारण नहीं है,
निमित्त मात्र है। सहारा मिलेगा, सहयोग
मिलेगा। गुरु-परताप साध की संगति! लेकिन जो घटना है वस्तुतः वह तुम्हारे भीतर घटना
है, बाहर नहीं।
मेरा
आश्रम तुम्हारे भीतर निर्मित होना है, तुम्हारे बाहर नहीं। मेरा मंदिर
तुम्हें बनना है। बाहर के मंदिर बने तो ठीक, न बने तो ठीक;
उन पर निर्भर न रहना। बाहर के मंदिरों का बहुत भरोसा न करना। उनके
बनने में बाधाएं डाली जा सकती हैं, हजार अड़चनें खड़ी की जा
सकती हैं--की जा रही हैं, की जाएंगी। वह सब स्वाभाविक है। वह
सदा से होता रहा है--नियमानुसार है, परंपरागत है, नया उसमें कुछ भी नहीं है। चिंता का कोई कारण नहीं है।
नव-आश्रम
निर्मित होगा,
लेकिन जितनी बाधाएं डाली जा सकती हैं, डाली ही
जाएंगी। डाली ही जानी चाहिए भी। क्योंकि सत्य ऐसे ही आ जाए और असत्य कोई बाधा न
डाले तो सत्य दो कौड़ी का होगा। सुबह ऐसे ही हो जाए, अंधेरी
रात के बिना हो जाए, तो क्या खाक सुबह होगी! गुलाब खिलेगा तो
कांटों में खिलेगा। बुद्ध-क्षेत्र का यह गुलाब भी बहुत कांटों में खिलेगा।
तुम्हारी
प्रीति समझ में आती है,
तुम्हारी प्रार्थना समझ में आती है। मगर बुद्ध-क्षेत्र के लिए रुकना
नहीं है, एक पल गंवाना नहीं है। होगा तो ठीक, नहीं होगा तो ठीक। मगर तुम्हें इस जीवन में जाग कर ही जाना है।
जग-जग
कहते जुग-जुग भए!
कब
से जगाने वाले जगा रहे हैं! कितने जुग बीत गए! जागो, जागो! बाहर के निमित्तों पर
मत छोड़ो। यह भी एक निमित्त बन जाएगा कि क्या करें, आश्रम में
प्रवेश नहीं मिल पा रहा है; मिल जाता प्रवेश तो आत्मा को
उपलब्ध हो जाते।
नहीं; प्रवेश
मिल जाएगा तो सुविधा जरूर होगी, सुगमता होगी, सीढ़ियां चढ़नी आसान हो जाएंगी, किसी के हाथ का सहारा
होगा। लेकिन यह तो एक पहलू है। एक दूसरा पहलू भी है जो कभी भूल मत जाना। कभी-कभी
किसी के हाथ का सहारा बाधा भी बन जाता है। क्योंकि हाथ के सहारे मिल जाते हैं तो
लोग समझते हैं अपने पैरों पर खड़े होने की कोई जरूरत नहीं है। लोग बैसाखियों पर
निर्भर हो जाते हैं। और जो बैसाखियों पर निर्भर है, बिना
लंगड़ा हुए लंगड़ा हो जाता है।
मैं
तो तुम्हारी सारी बैसाखियां छीन लेना चाहता हूं। वही होगा नव-आश्रम में। तुम आओगे
बैसाखियां लेकर या बैसाखियां लेने; लाओगे बैसाखियां, छीन ली जाएंगी, उनकी होली हो जाएगी। और जो तुम आए हो
लेने वे तुम्हें कभी दी नहीं जाएंगी। मैं चाहता हूं तुम्हारे पैर तुम्हें ले जाएं
परमात्मा तक। क्योंकि और कोई जाने का मार्ग नहीं, उपाय नहीं।
बुद्ध
ने कहा है: बुद्ध तो केवल मार्ग दिखा सकते हैं, चलना तो तुम्हें होगा।
कहावत
है न हमारे पास--घोड़े को नदी तक ले जा सकते हो, पानी दिखा सकते हो, पिला नहीं सकते। बुद्ध-क्षेत्र नदी तक ले जाएगा, पानी
दिखा देगा; मगर पीना तो तुम्हें होगा, कंठ
तो तुम्हारा प्यासा है! और जिसे पीना है नीलम, वह आज ही पीए,
अभी पीए, कल के लिए प्रतीक्षा न करे।
नव-आश्रम
निर्मित होगा,
तब तक के लिए टालो मत। सब स्थगन मंहगे पड़ते हैं। कल का भरोसा क्या
है? आज है, बस इतना काफी है। आज ही
होना चाहिए जो होना है, अभी होना चाहिए। एक पल पर भी टाला तो
कौन जाने पल आए न आए!
इसलिए
कहूंगा कि टालो मत। मुझसे प्रीति लग गई तो मेरे क्षेत्र में प्रवेश हो गया। यह
क्षेत्र बाहर की बात नहीं है, अंतरतम की है, अंतरात्मा
की है। मुझसे बाहर दूर भी रहो तो कुछ हर्ज नहीं; भीतर मुझसे
पास रहो। बाहर से मेरे पास भी हुए और भीतर से पास न हो सके तो वैसा पास होना किस काम
आएगा?
तूने
पूछा: "नव-आश्रम के निर्माण में इतनी देर क्यों हो रही है?'
होनी
ही चाहिए। यह कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है। यह कोई छोटा-मोटा आश्रम भी होने वाला
नहीं है। जिस आश्रम के लिए हम बीज बो रहे हैं, वह इस पृथ्वी का सबसे बड़ा आश्रम
होगा। दस हजार संन्यासी वहां आवास करेंगे। महत ऊर्जा का बवंडर उठाना है। पूरी
पृथ्वी को जो गैरिक कर दे, ऐसी गुलाल उड़ानी है। रंग दे सारे
जगत को, ऐसी फाग खेलनी है।
निश्चित
ही फाग के दुश्मन हैं,
गुलाल के दुश्मन हैं, रंगों के शत्रु हैं।
उदास, गंभीर, शास्त्रज्ञानी, पंडित-पुरोहित, राजनेता, उनकी
लंबी शृंखला है। और मैं जो कह रहा हूं वह बगावत है। मैं जो कह रहा हूं वह सीधी
बगावत है। मैं जिंदा हूं, यह भी चमत्कार है नीलम! जैसे कोई
सुकरात को जहर न पिलाए! जैसे कोई जीसस को सूली न चढ़ाए! जैसे कोई मंसूर को मारे न!
मैं हूं, यह भी चमत्कार है! इस चमत्कार का लाभ उठा लो। इस
बगावत में डुबकी लगा लो। इसे किसी बहाने मत टालो। मन बड़े बहाने खोज लेता है।
मेरे
नव-आश्रम का विरोध हो रहा है, होगा, होता रहेगा।
नव-आश्रम फिर भी निर्मित होगा। मगर मैं चाहता हूं कि तुम उस पर अपनी सारी आशाओं को
मत टिका देना। तुम तो काम में लगी रहो, क्योंकि नव-आश्रम की
ईंट कौन बनेगा? नव-आश्रम कोई पत्थर, मिट्टी,
गारे से नहीं बनने वाला है। तुमसे बनने वाला है! संन्यासियों से
बनने वाला है! नीलम, तुझे उसकी ईंट बनना है। तो तुम तो तैयार
होओ। ईंटें तैयार हो जाएंगी तो आश्रम भी बनेगा। कौन रोक सका है? सत्य को रोकने की चेष्टा सदा की गई है, मगर कौन कब
रोक सका है?
राजनेता
विरोध डालेंगे,
क्योंकि मैं एक ऐसी दुनिया देखना चाहता हूं जहां राजनीति न हो। मैं
एक ऐसी दुनिया देखना चाहता हूं जहां शासनत्तंत्र कम से कम हो। क्योंकि शासनत्तंत्र
जितना ज्यादा हो उतनी गुलामी होती है। शासनत्तंत्र जितना कम हो उतनी स्वतंत्रता
होती है। थोड़ा तो जरूरी रहेगा। मैं पूर्ण अराजकवादी नहीं हूं, क्योंकि पूर्ण अराजकता संभव नहीं है। पूर्ण अराजकता तो तभी संभव है जब सभी
लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएं। ऐसा तो कब होगा, कहना
मुश्किल; कभी होगा भी, यह भी कहना
मुश्किल। पूर्ण अराजकता तो तभी हो सकती है जब बुद्धों का समूह हो। बुद्धुओं के
समूह में शासन की जरूरत तो रहेगी। बुद्धुओं के कारण शासन की जरूरत है। तो जब तक
बुद्धूपन है दुनिया में, शासन भी रहेगा किसी न किसी मात्रा
में। मगर उसकी न्यूनतम मात्रा हो जानी चाहिए। शासन का तंत्र ऐसी किसी भी चीज का
विरोध करेगा जो शासन के तंत्र की जड़ें काटता हो।
राजनेता
मेरा विरोध करेंगे ही। श्री मोरारजी देसाई का मुझसे विरोध आकस्मिक नहीं है, अकारण
नहीं है। ठीक होना चाहिए वही है। जैसा होना चाहिए वैसा ही है। क्योंकि उन्हें एक बात
साफ दिखाई पड़ती है कि अगर मेरी बात सही है तो राजनेता का अस्तित्व ही गलत है। अगर
उसको अपने अस्तित्व को बचाना है तो मेरी बात जितने कम लोगों तक पहुंचे उतना अच्छा।
रेडियो पर मत जाने दो, टेलीविजन पर मत जाने दो, अखबारों में मत छपने दो; लोगों को मेरे पास मत आने
दो; जो आ जाएं उनको इस तरह सताओ, इतना
परेशान करो, इतना हैरान करो कि वे दोबारा आने की हिम्मत और
जुर्रत न करें। यह सब हो रहा है। और मैं फिर तुम्हें दोहरा दूं कि यह सब बड़े
नियमबद्ध रूप से हो रहा है। ऐसा नहीं है कि मैं इससे कुछ चकित हूं। न होता ऐसा तो
मैं चकित होता, तो मैं हैरान होता।
एक
बहुत प्यारे फकीर थे। मेरे पास कभी-कभी आकर रुकते थे। महात्मा भगवानदीन उनका नाम
था। जब सभा में कभी बोलते थे, अगर कोई ताली बजा दे तो वे बड़े नाराज हो जाते
थे। मैंने उनसे पूछा कि लोग ताली बजाते हैं तो खुश होना चाहिए, आप नाराज हो जाते हैं! वे कहते कि जब भी कोई ताली बजाता है तब मैं समझता
हूं कि जरूर मैंने कोई गलत बात कही होगी, नहीं तो लोगों की
समझ में ही कैसे आती! अगर सही बात कहो तो लोग पत्थर मारते हैं। अगर गलत बात कहो तो
लोग माला पहनाते हैं।
उनकी
बात मुझे जंची। बूढ़ा ठीक कह रहा था, उचित कह रहा था। ठीक बात कहो और
लोग पत्थर न मारें, यह असंभव। क्योंकि ठीक बात उनके पैरों के
नीचे की जमीन खींच लेती है। और मैंने ठीक के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहना है,
ऐसा तय किया। समझौते भी नहीं करने हैं। सत्य को इस ढंग से भी नहीं
कहना है कि थोड़ा मीठा हो जाए। कड़वा है तो कड़वा। सत्य जैसा है वैसा ही कहना है। न
समझौते, न लीपा-पोती, न ढांकना,
न मुखौटे। तो कठिनाई तो होगी। राजनेता की कठिनाई है।
फिर
नौकरशाही है इस देश में। शायद दुनिया में ऐसी नौकरशाही कहीं भी नहीं। लालफीताशाही
है इस देश में। ऐसी लालफीताशाही भी दुनिया में कहीं नहीं। हमारे देश में कुछ चीजें
तो बड़ी गौरव की हैं--नौकरशाही, लालफीताशाही! जो काम घड़ियों में हो जाएं वे
वर्षों में नहीं हो सकते। बस फाइलें घूमती ही रहती हैं। कोई अंत ही नहीं आता।
सत्य
प्रिया ने एक कहानी मेरे पास भेजी। शेरसिंह पुलिस में नौकरी करता था। एक बार पुलिस
के सबसे बड़े आई.जी. साहब ने सिंह का शिकार खेलने की इच्छा प्रकट की। शेरसिंह ने
सारी व्यवस्था कर दी। मचान बंधवा दिया, एक पेड़ से बकरे को बांध दिया।
आई.जी., डी.आई.जी., एस.पी., आई.जी. की पत्नी और उनकी बेबी, सभी मचान पर बैठ गए।
शाम का समय था, शेरसिंह वहां टार्च लेकर खड़ा हो गया। उसको
बकरे के गले की घंटी बजते ही टार्च की रोशनी फेंकनी थी, ताकि
आई.जी. साहब सिंह का शिकार कर सकें। काफी देर हो गई और सिंह नहीं आया तो बेबी ने
अपनी मम्मी से पूछा, मम्मी, सिंह कब
आएगा? मम्मी ने आई.जी. साहब से पूछा, सिंह
कब आएगा? आई.जी. ने डी.आई.जी. से, डी.
आई.जी. ने एस.पी. से, एस.पी. ने शेरसिंह से पूछा कि सिंह कब
आएगा? और सब एक ही मचान पर बैठे हैं। मगर सरकारी ढंग होता है
एक काम करने का! बेचारे शेरसिंह की जेब में तो सिंह था नहीं। फिर भी शेरसिंह ने
एस.पी. साहब से कहा कि सर, सिंह आता ही होगा, जब साहब आ गए तो सिंह भी आएगा ही। अरे सरकार, सरकारी
हुक्म को कौन टाल सकता है!
सब
पास-पास ही बैठे हैं। शेरसिंह की बात सुन कर एस.पी. ने डी.आई.जी. से, डी.आई.जी.
ने आई.जी. से कहा कि सर, सिंह आता ही होगा। साहब आएं और सिंह
न आए, ऐसा कहीं हो सकता है! सरकारी प्रतिष्ठा का सवाल है।
आई.जी. ने अपनी पत्नी से और पत्नी ने बेबी से कहा, सिंह आता
ही होगा, चिंता न कर। जहां तेरे पिताजी मौजूद हैं वहां किस
चीज की कमी?
फिर
बेबी तो थक कर सो गई। करीब रात को बारह बजे सिंह आया। उसकी दहाड़ से शेरसिंह, एस.पी.,
डी.आई.जी., आई.जी., आई.जी.
की पत्नी और बेबी, सभी का जीवन-जल वस्त्रों में ही निकल कर
बह गया। शेरसिंह ने टार्च की रोशनी फेंकी, आई.जी. साहब ने
किसी तरह गोली चलाई। परंतु गोली बकरे को लगी। सरकारी काम! कोई तीर निशाने पर कभी
लगता नहीं। और लगे भी क्या, जब जीवन-जल ही निकल गया तो अब
शक्ति भी कहां रही! किसी तरह कंपते हुए हाथ, लेकिन अपनी
प्रतिष्ठा भी बचानी पड़े, सब सरकारी आफिसर मौजूद हैं, तो गोली किसी तरह चलाई। आश्चर्य तो यह है कि बकरा भी कैसे मर गया! बकरे को
भी पता होता कि गोली सरकारी है, नहीं मरता। आई.जी. साहब ने
डी.आई.जी. से पूछा, शिकार कैसा रहा? डी.आई.जी.
ने एस.पी. से पूछा, एस.पी. ने शेरसिंह से पूछा। शेरसिंह
पेशोपस में पड़ा कि क्या जवाब दे! शिकार तो कुछ हुआ ही नहीं। फिर भी सोच कर उसने
एस.पी. साहब से कहा, सर, शिकार अंतिम
सांस ले रहा है। नौकर-चाकर भी होशियार हो जाते हैं। चमचे! उसने सिंह की बात ही छोड़
दी। उसने कहा, शिकार अंतिम सांसें ले रहा है। बकरा अंतिम
सांसें ले रहा था। एस.पी. ने डी.आई.जी. से कहा, सर, शिकार अंतिम सांस ले रहा है। डी.आई.जी. साहब ने आई.जी. साहब से कहा,
सर, शिकार अंतिम सांस ले रहा है। आई.जी. साहब
ने अपनी पत्नी से कहा, डाघलग, शिकार
अंतिम सांस ले रहा है। पत्नी ने बेबी से कहा, बिटिया,
शिकार अंतिम सांस ले रहा है। बड़े साहब प्रसन्न हुए। डी.आई.जी. की
प्रसन्नता का क्या कहना! उन्होंने शेरसिंह की तरक्की कर दी।
शिकार
बकरे का और तरक्की शेरसिंह की! और फाइलों का ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाने का
लुत्फ देखा आपने! और मजा यह कि सब अंधे वहीं मौजूद थे। और सिंह तो दहाड़ मार कर कभी
का जा चुका था। हां,
बकरा जरूर दम तोड़ रहा था।
तो
एक तो श्री मोरारजी देसाई का दबाव, भारी दबाव, कि
मेरा कोई काम हो न सके! फिर सरकारी तंत्र--बड़ा तंत्र! जिसमें चीजें सरकती ही रहती
हैं, सरकती ही रहती हैं। जिसमें किसी चीज का कभी कोई अंत आता
मालूम नहीं होता। तो देर तो लग रही है। मगर देर कितनी ही हो, यह बुद्ध-ऊर्जा का क्षेत्र निर्मित होगा--निर्मित हो रहा है; क्योंकि तुम निर्मित हो रहे हो। मुझे उनकी फिक्र है नहीं। तुम निर्मित हो
रहे हो। मेरी आशा तुमसे है। तुम हो, तो शेष सब हो जाएगा।
लेकिन तुम टालना मत; तुम प्रतीक्षा समय की मत करना। एक-एक पल
बहुमूल्यवान है।
तूने
पूछा नीलम: "हम आस लगाए बैठे हैं कि कब हम भी बुद्ध-ऊर्जा के अलौकिक क्षेत्र
में प्रवेश करेंगे।'
प्रवेश
हो गया। जो संन्यस्त हुआ,
वह प्रविष्ट हो गया। प्रवेश तो प्रीति में प्रवेश है।
"और हम ही नहीं, हजारों आस लगाए बैठे हैं।'
मुझे
पता है। रोज न मालूम कितने पत्र आते हैं कि कब हम भी सम्मिलित हो सकते हैं! उनके
पत्र तक नहीं पहुंचें,
इसकी व्यवस्था की जाती है। दिल्ली से पत्र चलता है, पूना पहुंचते-पहुंचते डेढ़ महीने लग जाते हैं! कुछ-कुछ पत्र तो छह-छह महीने
में पहुंचते हैं! और जो नहीं पहुंचते, उनका तो हमें पता ही
नहीं चलता। क्योंकि जब छह महीने में पहुंचते हैं, तो कुछ तो
पहुंचते ही नहीं; या पहुंचेंगे छह साल में! हर पत्र खोला
जाता है; कोई पत्र बिना खुला नहीं आता। हर पत्र को जितनी
देर-दार की जा सके, उतनी देर-दार की जाती है। हर पत्र की
जांच-पड़ताल होती है।
श्री
जयप्रकाश नारायण ने जो महाक्रांति की है, उससे एक बड़ा अदभुत लोकतंत्र
निर्मित हुआ है! यह लोकतंत्र है, जहां लोगों के निजी पत्र भी
निजी नहीं हैं! फोन टेप किए जाते हैं। अमरीका जैसे देश में फोन टेप करने और इस तरह
के उपद्रव करने के कारण निक्सन को राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ा। यहां यह सब रोज हो रहा
है। यहां यह सब नियमानुसार हो रहा है। यहां किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगती।
देर
तो जितनी वे कर सकते हैं,
करेंगे; मगर उनकी देर के बावजूद भी घटना घटने
वाली है। घटना इसलिए घटने वाली है कि देर है, मगर अंधेर नहीं
है। सत्य को अटका सकते हो, मगर मिटा नहीं सकते। जीसस को ही
मार कर तुम क्या मार पाए! सुकरात को जहर देकर तुमने अपने को जहर दे लिया।
सुकरात
जब मर रहा था,
तो उसको जहर देने वाले एक आदमी ने पूछा कि सुकरात, मरते समय तुम्हारे मन को क्या हो रहा है? तुम्हारा
बहुमूल्य जीवन नष्ट हो रहा है!
सुकरात
ने कहा, भूल यह बात, छोड़ यह बात। मेरे कारण तुम सब का नाम भी
सदियों तक याद किया जाएगा। मेरे कारण! चूंकि तुमने मुझे जहर दिया था, इतिहास में तुम्हारे नामों का उल्लेख रहेगा। अन्यथा तुम्हारे नामों का कोई
उल्लेख भी होने वाला नहीं था।
वह
आदमी तो चुप हो गया होगा। सुकरात जैसे लोग जब जवाब देते हैं तो मुंह बंद हो जाते
हैं। सुकरात के एक शिष्य ने पूछा कि अंतिम एक प्रश्न कि जब आप मर जाएंगे तो हम
आपको गड़ाएं? जलाएं? कौन सी विधि करें? सुकरात
ने कहा, सुनो, यह भी सुनो! वे दुश्मन
हैं, जो मुझे मार रहे हैं; और वे सोचते
हैं कि मेरे मित्र हैं, जो मुझे गड़ाएंगे!
सुकरात
ने कहा, न तो मारने वाले मुझे मार पाएंगे और न गड़ाने वाले मुझे गड़ा पाएंगे। मैं रहूंगा।
यह मेरी आवाज गूंजती ही रहेगी। और जब भी कोई सत्य को खोजेगा, उसे राह दिखाती रहेगी। और जब भी कोई अंधेरे में टटोलेगा, उसके लिए रोशनी बन जाएगी। और जब भी कोई सच में प्यासा होगा, तो उसके कंठ में अमृत की बूंद बन जाएगी।
नहीं, नव-आश्रम
रुकेगा नहीं। थोड़ी देर-अबेर। पर तुम उसके कारण स्थगित नहीं करना। तुम्हारा श्रम
जारी रहे; तुम्हारा ध्यान जारी रहे; तुम्हारी
प्रार्थना जारी रहे। तुम्हारी सारी प्रार्थनाओं के परिणाम में ही तो नव-आश्रम
निर्मित होगा। तुम्हारी आशा के दीये जगते रहें; क्योंकि
तुम्हारे दीयों से ही तो वहां दीपावली होगी। और तुम अपने हृदय को रंगे चलो,
रंगे चलो; क्योंकि तुम्हारे रंगों का ही तो
मुझे उपयोग करना है। गुलाल कैसे उड़ाऊंगा? उत्सव कैसे होगा?
तूने
यह भी पूछा कि "अंधेरा बहुत है, प्रकाश चाहिए।'
अंधेरा
कितना ही हो,
चिंता न करो। अंधेरे का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। अंधेरा कम और
ज्यादा थोड़े ही होता है; पुराना-नया थोड़े ही होता है। हजार
साल पुराना अंधेरा भी, अभी दीया जलाओ और मिट जाएगा। और घड़ी
भर पुराना अंधेरा भी, अभी दीया जलाओ और मिट जाएगा। और अंधेरा
अमावस की रात का हो तो मिट जाएगा। और अंधेरा साधारण हो तो मिट जाएगा। अंधेरे का
कोई बल नहीं होता। अंधेरा दिखाई बहुत पड़ता है, मगर बहुत
निर्बल है, बहुत नपुंसक है। ज्योति बड़ी छोटी होती है,
लेकिन बड़ी शक्तिशाली है। क्योंकि ज्योति परमात्मा का अंश है;
ज्योति में परमात्मा छिपा है। अंधेरा तो सिर्फ नकार है, अभाव है। अंधेरा है नहीं। इसीलिए तो अंधेरे के साथ तुम सीधा कुछ करना चाहो
तो नहीं कर सकते। न तो अंधेरा ला सकते हो, न हटा सकते हो।
दीया जला लो, अंधेरा चला गया। दीया बुझा दो, अंधेरा आ गया। सच तो यह है कहना कि अंधेरा आ गया, चला
गया--ठीक नहीं; भाषा की भूल है। अंधेरा न तो है, न आ सकता, न जा सकता। जब रोशनी नहीं होती तो उसके
अभाव का नाम अंधेरा है। जब रोशनी होती है तो उसके भाव का नाम अंधेरे का न होना है।
अंधेरा
कितना ही हो नीलम,
और कितना ही पुराना हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। जो
दीया हम जला रहे हैं, जो रोशनी हम जला रहे हैं, वह इस अंधेरे को तोड़ देगी; तोड़ ही देगी। बस रोशनी
जलने की बात है। इसलिए अंधेरे की चिंता न लो। रोशनी के लिए ईंधन बनो।
इस
प्रकाश के लिए तुम्हारा स्नेह चाहिए। स्नेह के दो अर्थ होते हैं: एक तो प्रेम और
एक तेल। दोनों अर्थों में तुम्हारा स्नेह चाहिए--प्रेम के अर्थों में और तेल के
अर्थों में--ताकि यह मशाल जले।
अंधेरे
की बिलकुल चिंता न लो। अंधेरे का क्या भय! सारी चिंता, सारी
जीवन-ऊर्जा प्रकाश के बनाने में नियोजित कर देनी है। और प्रकाश तुम्हारे भीतर है,
कहीं बाहर से लाना नहीं है। सिर्फ छिपा पड़ा है, उघाड़ना है। सिर्फ दबा पड़ा है, थोड़ा कूड़ा-कर्कट हटाना
है। मिट्टी में हीरा खो गया है, जरा तलाशना है।
और
तूने कहा: "प्रकाश के दुश्मन भी बहुत हैं!'
सदा
से हैं। कोई नयी बात नहीं। मगर क्या कर पाए प्रकाश के दुश्मन? प्रकाश के
दुश्मन खुद दुख पाते हैं--और क्या कर पाते हैं!
जिन्होंने
सुकरात को जहर दिया,
तुम सोचते हो सुकरात को दुखी कर पाए? नहीं,
असंभव! खुद ही दुखी हुए, खुद ही पश्चात्ताप से
भरे, खुद ही पीड़ित हुए। सुकरात को सूली की सजा देने के बाद
न्यायाधीश सोचते थे कि सुकरात क्षमा मांग लेगा। क्षमा मांग लेगा तो हम क्षमा कर
देंगे। क्योंकि यह आदमी तो प्यारा था; चाहे कितना ही बगावती
हो, इस आदमी की गरिमा तो थी। असल में सुकरात जिस दिन बुझ
जाएगा, उस दिन एथेंस का दीया भी बुझ जाएगा--यह भी उन्हें पता
था।
सुकरात
की मौत के बाद एथेंस फिर कभी ऊंचाइयां नहीं पा सका। आज क्या है एथेंस की हैसियत? आज एथेंस
की कोई हैसियत नहीं है। इन ढाई हजार सालों में सुकरात के बाद एथेंस ने फिर कभी
गौरव नहीं पाया; कभी फिर स्वर्ण-शिखर नहीं चढ़ा एथेंस पर। और
सुकरात के समय में एथेंस विश्व की बुद्धिमत्ता की राजधानी थी। विश्व की श्रेष्ठतम
प्रतिभा का प्रागटय वहां हुआ था। एथेंस साधारण नगर नहीं था, जब
सुकरात जिंदा था। सुकरात की ज्योति से ज्योतिर्मय था, जगमग
था।
जानते
तो वे लोग भी थे जो सुकरात को सजा दे रहे थे। अपने स्वार्थों के कारण सजा दे रहे
थे। मारना चाहते भी नहीं थे; सिर्फ सुकरात सत्य बोलना बंद कर दे, इतना चाहते थे। सोचा था उन्होंने, अपेक्षा रखी थी,
कि मौत सामने देख कर सुकरात क्षमा मांग लेगा। लेकिन सुकरात ने तो
क्षमा मांगी नहीं। तो बड़े हैरान हुए। तो उन्होंने खुद ही कहा कि हम दो शर्तें और
रखते हैं। एक--कि अगर तुम एथेंस छोड़ कर चले जाओ तो जहर देने से हम अपने को रोक
लेंगे। हम तुम्हें नहीं मारेंगे। फिर एथेंस लौट कर मत आना। अगर यह तुम न कर
सको...।
सुकरात
ने कहा, यह मैं न कर सकूंगा। क्योंकि एथेंस के इस बगीचे को मैंने लगाया। यहां
मैंने सैकड़ों लोगों के प्राणों में प्राण फूंके हैं। यहां मैंने न मालूम कितने
लोगों की बंद आंखों को खोला है। एथेंस को छोड़ कर मैं न जा सकूंगा। अब इस बुढ़ापे
में फिर से काम शुरू न कर सकूंगा। मौत तो आती ही होगी, तो
यहीं आ जाए। एथेंस में जीया, एथेंस में जागा, एथेंस में ही मरूंगा--अपने प्रियजनों के बीच। अब किसी परदेश में अब फिर
जाकर क ख ग से शुरू करूं, यह मुझसे न हो सकेगा। और आखिर में
यह वहां होना है जो यहां हो रहा है। जब एथेंस जैसे सुसंस्कृत नगर में ऐसा हो रहा
है तो एथेंस को छोड़ कर कहां जाऊं? जहां जाऊंगा, वहां तो और जल्दी हो जाएगा। यहां कम से कम यह तो भाग्य रहेगा कि सुसंस्कृत,
सभ्य, समझदार लोगों के द्वारा मारा गया था! कम
से कम यह तो सौभाग्य रहेगा! जंगली लोगों के हाथों से मारे जाने से यह बेहतर है।
एथेंस मैं नहीं छोडूंगा, तुम जहर दे दो।
उन्होंने
कहा, दूसरी शर्त यह है कि तुम एथेंस में रहो, कोई फिक्र
नहीं, मत छोड़ो; मगर सत्य बोलना बंद कर
दो।
सुकरात
हंसा। उसने कहा,
यह तो और भी असंभव है। यह तो ऐसे है, जैसे कोई
पक्षियों से कहे गीत न गाओ, कि कोई फूलों से कहे सुगंध न
उड़ाओ, कि कोई झरनों से कहे कि नाद न करो। यह तो ऐसे है जैसे
कोई सूरज से कहे रोशनी मत दो। यह नहीं हो सकता। मैं हूं तो सत्य बोला जाएगा। मैं
जो बोलूंगा वही सत्य होगा। अगर मैं चुप भी रहा तो मेरी चुप्पी भी सत्य का ही उदघोष
करेगी। नहीं, यह नहीं हो सकेगा। यह तो मेरा धंधा है। ठीक
"धंधे' शब्द का प्रयोग किया है सुकरात ने। व्यंग्य में
किया होगा। मरते वक्त भी इस तरह के लोग हंस सकते हैं। सुकरात ने कहा, यह तो मेरा धंधा है, मेरा प्रोफेशन। सत्य बोलना मेरा
धंधा है। यह तो मेरी दुकान। यह तो मैं जब तक जी रहा हूं, जब
तक श्वास आती-जाती रहेगी, तब तक मैं बोलता ही रहूंगा।
सुकरात
को फांसी जहर पिला कर देनी ही पड़ी। मगर पछताए बहुत लोग, क्योंकि
उसके बाद एथेंस की गरिमा मिट गई। उसके बाद रोज-रोज एथेंस का पतन होता चला गया।
जीसस
को सूली लगी। जिस आदमी ने,
जुदास ने, जीसस को दुश्मनों के हाथ में बेचा
था, तुम्हें मालूम है उसने खुद भी दूसरे दिन सूली लगा ली! यह
कहानी बहुत कम लोगों को पता है, क्योंकि ईसाई यह कहानी कहते
नहीं। यह कहनी चाहिए, इसके बिना जीसस की कहानी अधूरी है।
जीसस को तो सूली लगाई गई, जुदास ने दूसरे दिन अपने हाथ से
जाकर झाड़ से लटक कर सूली लगा ली। इतना पछताया। क्योंकि जीसस के जाते ही उसे दिखाई
पड़ा: जेरुसलम अंधेरा हो गया। जेरुसलम का उत्सव खो गया। जेरुसलम पर एक उदासी छा गई।
एक रात उतर आई, जो फिर टूटी नहीं, जो
अभी भी नहीं टूटी! जब तक कोई दूसरा जीसस पैदा न हो, जेरुसलम
की रात टूट भी नहीं सकती। दो हजार साल बीत गए, रात का अंत
नहीं है, प्रभात का कोई पता नहीं है।
प्रकाश
के दुश्मन हैं जरूर,
मगर प्रकाश के दुश्मन क्या कर पाते हैं? पीछे
पछताते हैं। और प्रकाश के दुश्मन भला एक प्रकाशित दीये को बुझा देते हों, लेकिन उस प्रकाशित दीये की ज्योति को, जो तिरोहित हो
जाती है आकाश में, सदा के लिए शाश्वत भी कर देते हैं।
शायद
जीसस को लोग भूल भी गए होते अगर सूली न लगी होती। शायद सुकरात को लोग भूल भी गए
होते अगर जहर न दिया गया होता। लेकिन छाप लग गई सुकरात पर जहर देने से। जीसस
मनुष्य-जाति के अंतरंग हो गए, प्राणों के प्राण हो गए।
तो
अंधेरे के पक्षपाती,
प्रकाश के दुश्मन, प्रकाश की कोई हानि नहीं कर
पाते, कभी नहीं कर पाते। सत्य की कोई हानि होती ही नहीं।
सत्यमेव जयते! सत्य तो जीतता ही है। हां, छोटी-मोटी लड़ाइयां
भला हार जाए, मगर आखिरी लड़ाई में तो जीतता ही है। और
छोटी-मोटी लड़ाइयों का कोई हिसाब नहीं है। कभी-कभी तो जीतने के लिए भी दो कदम पीछे
हटना पड़ता है। कभी-कभी तो जीतने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। कभी-कभी तो जीतने
के लिए हार का ढोंग रचना पड़ता है। लेकिन अंतिम विजय सदा ही प्रकाश की है, सत्य की है।
और
तू कहती है कि इससे लगता है, भय लगता है कि यह जीवन भी और जीवनों की तरह
खाली न बीत जाए!
नहीं
बीतेगा। तू चिंता छोड़। यह जीवन खाली नहीं बीतेगा। जो मुझसे जुड़े हैं वे भर कर ही
जाएंगे, क्योंकि मैं अपने भीतर जो अनुभव कर रहा हूं, तुम्हारे
भीतर उंडेलने को तत्पर हूं। और जिन्होंने भी अपनी गागरें मेरे सामने रख दी हैं वे
खाली नहीं जाने वाले हैं। खाली वे ही जाएंगे जिन्होंने गागरें ही नहीं रखीं;
या रखी हैं तो उलटी रखी हैं; या अपनी गागरों
को पीठ के पीछे छिपाए बैठे हैं। सुन भी रहे हैं और नहीं सुन रहे हैं। देख भी रहे
हैं और नहीं देख रहे हैं।
मेरे
भीतर जो उमगा है,
मेरे भीतर जो स्वर बजा है, वह तुम्हारे भीतर
भी स्वर बजाने में कुशल है। वह तुम्हारे भीतर के भी तार छेड़ेगा। वह तुम्हें
दिखाऊंगा जो साधारणतः देखा नहीं जाता। और वह तुम्हें सुनाई पड़ेगा जो साधारणतः सुना
नहीं जाता। वह आकाश की वीणा बजेगी।
नीलम, अपने आंचल
को फैलाओ! अपनी झोली पसारो! और बुद्ध-क्षेत्र तो निर्मित हो ही गया है। अभी अदृश्य
है, उसको दृश्य करना है, बस इतनी बात
है। आज पृथ्वी पर एक लाख संन्यासी हैं। उनमें से दस हजार संन्यासी किसी भी क्षण
आने को तैयार हैं सब छोड़-छाड़ कर।
सारे
कष्ट यहां आकर संन्यासी झेल रहे हैं। और मैंने अगर कुछ उनके कष्टों के संबंध में
कहा और पूना नगर की असंस्कृत दशा के संबंध में कुछ कहा, तो बड़ी
बेचैनी पूना में फैल गई। बड़े लेख लिखे गए।
एक
लेखक ने लिखा कि पूना चौदह लाख की आबादी का नगर है। हो सकता है चार प्रतिशत लोग
लुच्चे-लफंगे हों,
संन्यासियों को परेशान कर रहे हों, विशेषकर
संन्यासिनियों को परेशान कर रहे हों; लेकिन इस कारण पूरे नगर
की निंदा नहीं की जा सकती।
उन
लेखक का नाम है राम बंसल। मैं हैरान हुआ। मुझे गणित बहुत नहीं आता, लेकिन
इतना गणित तो आता है कि राम बंसल की बात की व्यर्थता को सिद्ध कर सकूं। अगर चौदह
लाख की आबादी है तो चार प्रतिशत कितने लोग होते हैं? छप्पन
हजार लोग होते हैं चार प्रतिशत। और यहां विदेशी संन्यासिनियां ज्यादा से ज्यादा एक
हजार। एक-एक संन्यासिनी के पीछे छप्पन-छप्पन गुंडे पड़े हों, और
मैं आलोचना न करूं? जरा सोचो तो कि तुम्हारी पत्नी को बस्ती
में छप्पन गुंडों से मुकाबला करना पड़े, तो जहां जाएगी वहीं
गुंडा मिल जाएगा। और माना कि ये चार प्रतिशत बुरे लोग हैं, मगर
जो भले लोग हैं वे नपुंसक हैं और निष्क्रिय हैं। अगर चार गुंडे एक स्त्री पर हमला
करते हैं तो सज्जन मुंह फेर कर निकल जाते हैं। वे छियानबे प्रतिशत जो लोग बचते हैं
वे किस काम के हैं? वे तो इन गुंडों से खुद ही डरे हुए हैं।
लेकिन
बड़ी हैरानी हो गई उनको कि पूना जैसी सुसंस्कृत नगरी...कभी रही होगी, कभी जरूर
रही होगी, तभी तो पूना नाम मिला। पूना नाम बना है पुण्य से,
पुण्य शब्द से। कभी पुण्य नगरी रही होगी। दक्षिण की काशी है पूना।
मगर असली काशी की हालत इतनी खराब हो गई है कि नकली काशी की हालत का क्या हिसाब
रखना! असली काशी ही डूब गई तो नकली काशियों का क्या है!
और
लेखकों ने नाम गिना दिए कि यहां लोकमान्य तिलक जैसे महापुरुष हुए!
मुझे
भी पता है। और महात्मा नाथूराम गोडसे, उनके संबंध में भी कुछ सोचोगे कि
नहीं? महात्मा नाथूराम गोडसे एक अकेला काफी है सौ लोकमान्य
तिलक को पोंछ देने के लिए।
अड़चनें
होंगी, समाज से अड़चनें होंगी, राज्य से अड़चनें होंगी,
राजनीतिज्ञों से अड़चनें होंगी। इन सारी अड़चनों को झेल कर भी हजारों
लोग आने को उत्सुक हैं। वे आकर रहेंगे। संन्यासियों का यह गैरिक नगर बस कर रहेगा।
थोड़ी देर हो सकती है; मगर अंधेर न कभी हुआ है, न हो सकता है। मगर तुम तैयार होने लगो, क्योंकि सभी
को प्रवेश न मिल सकेगा। उन्हीं को प्रवेश मिल सकेगा जो तैयार हो गए हैं।
इसलिए
इसकी चिंता मत करो कि कितनी देर लगती है नये कम्यून के बनने में। चिंता इसकी करो
कि नया कम्यून बने,
उसके पहले तुम तैयार होओ। वहां तो मैं उन्हीं को चाहता हूं जो अपने
अहंकार को बिलकुल ही शून्य करके प्रवेश करें, क्योंकि वहां
कुछ अनूठे प्रयोग होने हैं जो सदियों से नहीं हुए हैं। वहां कुछ अनूठी गहराइयों
में ले जाना है जहां आदमी ने जाना सदियों से बंद कर दिया है। तुम्हें तुम्हारे
अचेतन में उतारना है और तुम्हारे समष्टिगत अचेतन में भी उतारना है। तुम्हें
तुम्हारे अतिचेतन में भी ले जाना है और तुम्हें सार्वभौम जागतिक चेतन में भी ले
जाना है। तुम तो बीच में हो। न तुम्हें गहराइयों का पता है, न
तुम्हें ऊंचाइयों का पता है। मैं तुम्हें ले चलूंगा प्रशांत महासागर की गहराइयों
में भी और गौरीशंकर के शिखरों पर भी। और ये दोनों यात्राएं साथ-साथ करनी हैं।
क्योंकि जो जितना गहरा जाता है उतना ऊंचा जाने में समर्थ हो जाता है और जो जितना
ऊंचा जाता है उतना गहरा जाने में समर्थ हो जाता है। ऊंचाई और गहराई एक ही आयाम है,
एक ही आयाम का विस्तार है।
नीलम, तैयारी
करो! अपने को मिटाने की तैयारी करो! ताकि तुम जब नये कम्यून में प्रवेश पाओ तो
मेरे हृदय की धड़कन तुम्हारे हृदय की धड़कन हो और मेरी श्वास तुम्हारी श्वास हो।
कठिनाई
तुम्हें होती है--देर हुई जाती। मन जल्दी है, आतुर है। शुभ है मन की आतुरता।
आग
लगा दी जो तुमने वह आंसू से क्या बुझ पाएगी?
मुझे
पता है कि मैं आग लगा रहा हूं। ये गैरिक वस्त्र आग के ही तो प्रतीक हैं। यह चिता
जला रहा हूं,
जिसमें तुम्हारा अहंकार जले, तुम्हारा देह-भाव
जले। तुम्हारा तादात्म्य मन, देह, बुद्धि
सबसे छूट जाए, जल जाए, राख हो जाए।
ताकि सिर्फ शुद्ध चैतन्य में ही तुम विराजमान हो सको।
आग
लगा दी जो तुमने वह आंसू से क्या बुझ पाएगी?
मुझे
पता है नीलम,
रो-रो कर यह आग बुझने वाली नहीं। सच तो यह है, रो-रो कर यह आग बढ़ेगी। इसलिए रोने को, मैं कहता हूं,
छोड़ना मत। ये आंसू घी का काम करेंगे। प्रेम में गिरे आंसू घी हो
जाते हैं। ये इस लपट को और बढ़ाएंगे। और यह आग बुझाने के लिए है भी नहीं, और-और प्रज्वलित करने के लिए है।
आग
लगा दी जो तुमने वह आंसू से क्या बुझ पाएगी?
गली-गली
में द्वार-द्वार पर
बैठा
दी मैंने शहनाई
पर
बीते दिन भूल न पाता
कंपती स्वर-स्वर
में परछाईं
गांठ
लगा दी जो तुमने वह कैसे स्वयं सुलझ जाएगी?
नहीं
सुलझेगी। स्वयं नहीं सुलझेगी। गांठ लगा ही इसलिए रहा हूं कि सारी छोटी गांठों को
मिटा कर एक बड़ी गांठ लगा दूं। फिर उस एक बड़ी गांठ को काटा जा सकता है। सुलझाना
नहीं है, काटना है। फिर तो एक तलवार से गांठ को काटा जा सकता है। छोटी-छोटी गांठों
के साथ झंझट है। कोई की धन के साथ, पद के साथ, प्रतिष्ठा के साथ--छोटी-छोटी गांठें लगी हैं। सारी गांठों की एक गांठ रह
जाए, एक ग्रंथि बन जाए, तो उसे तो
तलवार के एक झटके से काटा जा सकता है। और वही तलवार नये कम्यून में उपलब्ध होने
वाली है।
जीसस
से किसी ने पूछा कि तुम विश्व के लिए क्या लाए हो? जीसस ने कहा, शांति नहीं, तलवार।
ईसाई
इस वक्तव्य को उद्धृत करने में डरते हैं, क्योंकि उनको इस वक्तव्य में विरोध
दिखाई पड़ता है। जीसस तो बार-बार कहते हैं कि प्रेम परमात्मा है। और जीसस तो
बार-बार कहते हैं कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, उसके
सामने दूसरा कर देना। और जीसस तो कहते हैं कि जो तुम्हारा कोट छीन ले उसे कमीज भी
दे देना। और जीसस तो कहते हैं, जो तुमसे कहे कि बोझ एक मील
तक ढोकर ले चलो मेरा, दो मील तक चले जाना। इस आदमी ने उत्तर
में कहा कि शांति नहीं, मैं लाया हूं जगत में एक तलवार! तो
इस वचन को ईसाई उद्धृत नहीं करते। इस पर ईसाई पंडित-पुरोहित प्रवचन नहीं देते,
इसको कन्नी काट जाते हैं। समझते ही नहीं कि किस तलवार की बात हो रही
है।
तलवारें
और तलवारें, बहुत तरह की तलवारें हैं। तलवारें हैं जिनसे समस्याएं खड़ी होती हैं और
तलवारें हैं जिनसे समस्याएं काटी जाती हैं। तलवारें हैं जिनसे अशांति पैदा होती है
और तलवारें हैं जिनसे शांति की वर्षा होती है। जीसस उस तलवार की बात कर रहे हैं जो
तुम्हारी गांठ को काट दे, एक झटके में काट दे!
और
धीरे-धीरे क्या काटना! आहिस्ता-आहिस्ता क्या काटना! हां, बहुत
गांठें हों तो मुश्किल होती है। सारी गांठों की एक गांठ बना लो। सारी गांठों की एक
गांठ बनाने से मेरा मतलब है सारी आकांक्षाओं की एक अभीप्सा; एक
परमात्मा को पाने की अभीप्सा, बस एक गांठ रह जाए। उसे मैं
काट दूंगा। उसके लिए मैं तलवार हूं।
आग
लगा दी जो तुमने वह आंसू से क्या बुझ पाएगी?
गली-गली
में द्वार-द्वार पर
बैठा
दी मैंने शहनाई
पर
बीते दिन भूल न पाता
कंपती स्वर-स्वर
में परछाईं
गांठ
लगा दी जो तुमने वह कैसे स्वयं सुलझ जाएगी?
खारे
मन सागर की बांहों--
ने
ऊंचे उठ हाथ बढ़ाया
मगर
चांदनी की लहरों ने
उनको बढ़
कर कहां उठाया
प्यास
जगा दी जो तुमने क्यों लोरी सुन वह सो जाएगी?
नहीं
सोएगी। लोरियों में मेरा भरोसा भी नहीं है। मैं सांत्वना देना भी नहीं चाहता। मैं
यहां नहीं हूं कि तुम्हें सुला दूं। मैं यहां तुम्हें जगाने को हूं, झकझोरने
को हूं।
सुंदर
यहां बहुत कुछ है पर
तुम
सुंदरतम सबसे बांके
झूठे
हो, पर सत्य हृदय के
अवगुंठन से
शिवता झांके
तम की
बेला, घन दुर्दिन
हैं, घर कैसे
ऊषा आएगी?
बड़ा
अंधेरा है, सुबह कैसे होगी?
बड़े
अंधेरे के बाद ही सुबह होती है। घने अंधेरे के बाद ही सुबह होती है। रात जितनी गहन
होने लगती है उतनी सुबह करीब होने लगती है। मेरे काम में जितनी बाधा पड़ेंगी, मेरे
संन्यासियों पर जितनी मुसीबतें आएंगी, जितनी रात सघन होगी,
जितने बादल मंडराएंगे--उतना ही काम आसान होता जाएगा, उतना ही प्रभात का क्षण करीब आता जाएगा।
इसलिए
सब चिंता तुम मुझ पर छोड़ दो। तुम तो नाचो, तुम तो गाओ। जो जब होना है तब ठीक
समय पर हो जाएगा। एक क्षण की भी उसमें देरी नहीं होगी। और मुझे चिंता नहीं पकड़ती,
इसलिए मैं कहता हूं सब चिंता मुझ पर छोड़ो।
चला
जा रहा गज गति से मैं,
भूंक रहे हैं श्वान।
कितने
आए चले गए सब,
जग
के छलिया छले गए सब;
गूंज
रहा फिर भी धरती पर स्नेह सिद्ध रस-गान।
चला
जा रहा गज गति से मैं,
भूंक रहे हैं श्वान।
कांटों
की देखी झांकी है,
अभी रक्त
पग में बाकी
है;
करते रहे
सदा मुस्काकर प्राण-रक्त
का दान।
पास
न आ पाए बेचारे,
कितने भूंक-भूंक
कर हारे;
फिर
भी स्वर में पड़ा न अंतर गाता पथ जय-गान।
क्या
चिंता चलने वाले को,
लौ पर
बढ़ जलने वाले
को?
पथ
की छाया स्नेह ज्योति बन करती शीतल प्राण।
चला
जा रहा गज गति से मैं,
भूंक रहे हैं श्वान।
छोड़ो
सब चिंताएं मुझ पर! दे दो सब बोझ मुझे! क्योंकि मुझे बोझ नहीं लगता और मुझ पर
चिंता नहीं पड़ती। तुम निश्चिंत नाचो और गाओ। तुम्हारा नृत्य और तुम्हारा गीत नये
कम्यून को करीब ले आएगा। तुम सुबह की प्रभाती गाओ, प्रभात करीब ले आएगी।
तुम्हारी प्रभाती प्रभात को करीब लाने का कारण बनेगी। तुम उदास नहीं होना। तुम
चिंतित नहीं होना।
स्वाभाविक
है, मुझे गालियां पड़ती हैं सारे देश में तो मेरे संन्यासी को चिंता होती है।
प्रसन्न होना, नाचना जब मुझे गालियां पड़ें। इसका अर्थ है कि
लोग अब विचार करने लगे। इसका अर्थ है कि लोगों को अब बेचैनी शुरू हो गई। इसका अर्थ
है कि मेरी मौजूदगी अब उनके न्यस्त स्वार्थों में कांटा बनने लगी। नहीं तो कोई
मुफ्त गाली नहीं देता। कोई व्यर्थ गाली नहीं देता, हर किसी
को गाली नहीं देता। मैं तो इसकी प्रतीक्षा ही कर रहा था, कब
सारे लोग गालियां देने लगें। तो वह घड़ी शुभ घड़ी होगी, क्योंकि
उसके बाद काम गति पकड़ेगा। और जितने लोग गालियां देंगे उतने ही लोग उत्सुक हो
जाएंगे।
जीवन
का गणित बड़ा अनूठा है! जितने लोग निंदा करेंगे उतने लोग आतुर होकर सुनना चाहेंगे
कि बात क्या है! यहां तुम में से बहुत इसी तरह आए हैं। इतनी गालियां सुनीं, इतनी
निंदा सुनी, कि सोचा एक बार जाकर देख तो लेना चाहिए कि बात
क्या है! और जो एक बार यहां आया है उसकी जिंदगी में कुछ न कुछ होकर रहेगा। वह वैसा
ही नहीं जा सकता जैसा आया था।
नीलम, चिंता न
कर। सब ठीक समय पर हो रहा है। सब ठीक समय पर हो जाएगा। और प्रत्येक घटना की अपनी
घड़ी है, अपनी परिपक्व घड़ी है। उसके पहले कुछ होना ठीक भी
नहीं। ठीक परिपक्व घड़ी में ही कुछ होता है, वही ठीक है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, संग का रंग लगता ही है या कि यह
केवल संयोग मात्र है? कृपा कर समझावें!
राजेंद्र भारती, सब तुम पर निर्भर है। वर्षा होती हो और तुम छाता
लगा कर खड़े हो जाओ,
तो भीगोगे नहीं। छाता बंद कर लो, और भीग
जाओगे। वर्षा होती हो, तुम छिद्र वाला घड़ा ले जाकर आकाश के
नीचे रख दो; भर भी जाएगा और फिर भी खाली हो जाएगा। छिद्र बंद
कर दो, भरेगा और भरा रह जाएगा। वर्षा होती हो, छिद्रहीन घड़े को भी आकाश के नीचे ले जाकर उलटा रख दो; तो वर्षा होती रहेगी और घड़ा खाली का खाली रहेगा। सब तुम पर निर्भर है।
सदगुरु
तो वर्षा है--अमृत की वर्षा! तुम लोगे तो तुम्हारे प्राणों को रंग जाएगा। तुम न
लोगे, द्वार-दरवाजे बंद किए बैठे रहोगे, तो चूक जाओगे।
तुम
पूछ रहे हो: "संग का रंग लगता ही है या कि यह केवल संयोग मात्र है?'
अनिवार्यता
नहीं है और संयोग भी नहीं। संग का रंग लगता ही होता, तब तो जो भी सदगुरु के पास
आ जाता उसी को रंग लग जाता। फिर तो जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे सूली देते-देते रंग गए होते। फिर तो जिन्होंने बुद्ध को पत्थर मारे,
वे पत्थर मारते-मारते रंग गए होते।
संग
का रंग लगे ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। ऐसी अनिवार्यता तो जगत में किसी चीज की
नहीं है। आग भी तभी जलाएगी जब तुम हाथ डालोगे। हाथ तुम दूर रखो, आग नहीं
जलाएगी। आग जलती रहेगी। आग अपने को जलाती रहेगी। मगर अगर हाथ डालोगे तो जलोगे।
सदगुरु
के पास आओगे तो रंग लगेगा। हाथ डालोगे तो जलोगे। प्राण डाल दोगे तो जो भी व्यर्थ
है, कूड़ा-कर्कट है, सब कचरा हो जाएगा; सोना निखर आएगा।
और
यह संयोग मात्र भी नहीं है। संयोग मात्र का तो अर्थ है: कभी हो जाए, कभी न हो।
हो जाए तो हो जाए, न हो तो न हो; कोई
नियमबद्धता नहीं है। ऐसा भी नहीं है।
आग
में हाथ का जलना संयोग मात्र नहीं है। आग में हाथ डालोगे तो जलोगे ही, नियम से
जलोगे। ऐसा नहीं कि कभी जलो और कभी न जलो। कभी आग कहे कि आज दिल ही जलाने का नहीं
है। और कभी कहे कि आज जरा दूर ही रहना, आज दुगना जलाऊंगी।
संयोग नहीं है आग में हाथ डाल कर जलना और अनिवार्यता भी नहीं है। क्योंकि
अनिवार्यता होती तो तुम कहीं भी होते तो जल जाते। दूर खड़े रहते तो भी जल जाते।
आग
का तो नियम है जलाना। मगर जिसको जलना है सब उस पर निर्भर है। उसे पास आना होगा।
उसे निकटता, समीपता, सत्संग करना होगा।
संग
का रंग तो लगता है,
मगर लगने दोगे तभी न!
ऐसा
हुआ, फाग के दिन आए, होली आई। गांव के लोगों ने होली
खेली। राजनेता को भी पकड़ लिया। नेताजी के साथ दिल में तो बहुत दिन से था लोगों के
कि झूमा-झटकी कर लें। खूब रंग पोता, काला रंग पोता, डामल पोता, नाली की कीचड़-कबाड़ पोती। और बड़े हैरान थे
कि नेता मुस्कुराता रहा सो मुस्कुराता ही रहा। उसकी मुस्कुराहट में जरा भी फर्क न
पड़ा। दोपहर हो गई। लोग घर गए। नेताजी भी घर गए। लोग सोच रहे थे कि महीनों लग
जाएंगे रंग छुड़ाने में, क्योंकि रंग लाए थे गाढ़े से गाढ़ा।
रंग क्या था, कोलतार था। छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा। चमड़ी उखड़
जाए, रंग न छूटे। सो लोगों ने जरा झांक कर देखा शाम तक कि
हालत क्या है नेताजी की!
देखा
तो बड़े चकित हुए,
नेताजी के चेहरे पर तो रंग है ही नहीं! हां, पास
में एक मुखौटा पड़ा है जिस पर कोलतार पुता है। और तब उन्हें समझ में आया कि यह नेताजी
नहीं हंस रहे थे, मुखौटा हंस रहा था। इसलिए हंसी गई भी नहीं,
क्योंकि मुखौटे की हंसी जाए कैसे, वह तो हंसी
बनी थी।
अब
नेताजी हंसे और उन्होंने कहा कि तुम भी खूब हो! अरे तुम्हें इतना भी पता नहीं कि
सब राजनेताओं के मुखौटे होते हैं? तुमने नाहक रंग खराब किया! इसलिए मैं मजे से
पुतवाता भी रहा कि पोतते रहो, कोई फिकर नहीं, अपने चेहरे पर तो रंग लगना नहीं है।
अगर
सदगुरु के पास भी तुम मुखौटे ओढ़ कर गए तो संग का रंग नहीं लगेगा। हिंदू की तरह गए, बस चूके।
मुसलमान की तरह गए, चूके। जैन की तरह गए, चूके। ये मुखौटे हैं। सदगुरु के पास तो छोटे बच्चे की तरह गए--सरल,
न कोई विशेषण, न कोई धर्म, न कोई जाति, न कोई सिद्धांत, न
कोई शास्त्र--फिर लगेगा रंग, निश्चित लगेगा, अनिवार्यरूपेण लगेगा! और ऐसा लगेगा कि कभी नहीं छूटेगा। यह रंग ऐसा है ही
नहीं जो छूट जाए। यह पक्का रंग है।
कबीर
ने कहा है कि चुनरिया मैं ऐसी रंगता हूं कि फिर कभी छूटता नहीं रंग। कबीर ने कहा:
मैं रंगरेज हूं।
सभी
सदगुरु रंगरेज हैं। मगर जबरदस्ती छीन कर तुम्हारी चुनरिया थोड़े ही रंग देंगे, कि तुम
भाग रहे हो और वे तुम्हारी चुनरिया रंग रहे हैं! और यह चुनरिया ऐसी है भी नहीं कि इसे
तुम छोड़ कर भाग जाओ। तुम्हारी आत्मा की ही चुनरिया है।
राजेंद्र, अगर कोई
रंगने को तैयार हो तो उन सदगुरुओं से भी रंग जाता है जो अब मौजूद नहीं हैं और कोई
रंगने को तैयार न हो तो उनसे भी नहीं रंग पाता जो मौजूद हैं। ऐसे दीवाने हैं जो
कृष्ण से रंग गए, और कृष्ण को गए हजारों साल हो गए! आखिर
मीरा रंगी न! कृष्ण से रंगी। कृष्ण के रंग में डूब गई। और कितने लोग कृष्ण के समय
में मौजूद रहे होंगे और बिना रंगे रह गए होंगे। दुर्योधन तो नहीं रंगा था।
दुर्योधन की तो छोड़ दो, अर्जुन ने भी रंगे जाने में बड़ी झंझट
खड़ी की थी। तभी तो गीता पैदा हुई, नहीं तो गीता कैसे पैदा
होती? कृष्ण कहते रंग जाओ और अर्जुन कहता कि यह रहा सिर,
रंगो! तो गीता पैदा न होती।
अर्जुन
ने बड़ी झंझट की। बड़े सवाल उठाए। इधर से, उधर से बड़े संदेह खड़े किए। फिर भी
रंगा, यह संदिग्ध है। मेरा अपना भाव तो यही है कि थक गया वह
कृष्ण की बातें सुन-सुन कर। तो उसने कहा कि अब बस महाराज, बंद
करो; मेरे सब संदेह दूर हो गए। क्योंकि अब संदेह उठाए तो फिर
चर्चा चले। मेरे सब संदेह दूर हो गए। आप जैसा कहोगे वैसा ही करूंगा। उठा लिया
गांडीव, चल पड़ा लड़ने।
लेकिन
पूरा रंगा नहीं होगा,
क्योंकि पुरानी कथा कहती है कि जब महायात्रा शुरू हुई मृत्यु के बाद,
स्वर्गारोहण हुआ, तो और सब बीच में ही गलते
चले गए, उनमें अर्जुन भी गल गया। सिर्फ युधिष्ठिर और उनका
कुत्ता, दो स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे। यह कुत्ता कहीं
ज्यादा सत्संगी साबित हुआ। यह दिल खोल कर रंग गया होगा। अर्जुन भी गल गया! वह गीता
सुनी, उसका क्या हुआ? मैं पूछता हूं,
वह गीता सुनी, उसका क्या हुआ? गीता न बचा सकी अर्जुन को! कृष्ण ने इतना रंगा, रंगा--और
रंग न बैठा! जरूर कहीं बात है।
अर्जुन
थक गया। विवाद में हार गया। सब तरफ से उसने कोशिश कर ली बचने की, लेकिन
देखा कि नहीं, इस आदमी से बचना मुश्किल है; लड़ना ही होगा। सो लड़ा। मगर कहीं भीतर कोर-कसर रह गई। कहीं कोई संदेह का कण
भी रह गया हो तो पर्याप्त है डुबा देने को।
युधिष्ठिर
अपने कुत्ते के साथ स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे। द्वारपाल ने द्वार खोला, युधिष्ठिर
को कहा, आप भीतर आ जाएं, लेकिन कुत्तों
के आने की मनाही है।
युधिष्ठिर
ने कहा, तो फिर मैं भी नहीं आ सकूंगा। कुत्ता पहले, पीछे
मैं।
क्यों? पहरेदार
ने पूछा, क्यों?
तो
उन्होंने कहा कि मेरे भाई बीच में गल गए, मेरी पत्नी बीच में गल गई, मेरे सगे-संबंधी बीच में गल गए; सिर्फ मेरे साथ
स्वर्ग के द्वार तक यह कुत्ता आ पाया है। मैं इसे छोड़ दूं? जिसने
मेरा यहां तक संग-साथ दिया है, जहां तक कोई मेरा संगी-साथी
नहीं हुआ; जो मृत्यु के इस पार भी अमृत के द्वार तक मेरे साथ
आया है; जिसकी मेरे साथ ऐसी गांठ बंधी, ऐसी सगाई हो गई--उसे छोड़ दूं? रख लो अपना स्वर्ग!
तुम्हारा स्वर्ग छोड़ सकता हूं, मगर इस साथी को, संगी को नहीं छोड़ सकता। इस शिष्य को नहीं छोड़ सकता हूं।
अर्जुन
बीच में गल गया। कृष्ण के रंग में अर्जुन भी उतना नहीं रंग पाया, जैसी मीरा
रंगी। और मीरा रंगी हजारों साल बाद। और चैतन्य भी रंगे हजारों साल बाद।
अगर
सदगुरु से प्रीति हो तो प्रीति सारे अवधान, सारे व्यवधान गिरा देती है। अगर
प्रीति हो तो समय मिट जाता है, क्षेत्र मिट जाता है; बीच की सारी दूरियां, काल की या क्षेत्र की, समाप्त हो जाती हैं। प्रेम कालातीत है, क्षेत्रातीत
है।
अगर
प्रेम हो राजेंद्र,
तो रंग जाओगे। कभी भी रंग जाओगे। सदगुरु चला भी जाता है देह को छोड़
कर, तो भी उसकी आत्मा उपलब्ध रहती है, सदा
उपलब्ध रहती है। जो प्रेम-पगे हैं, जो उसे प्रीति से
पुकारेंगे, उन पर वह फिर भी बरसेगा। लेकिन सदगुरु मौजूद भी
हो और तुम अपनी अकड़ में बैठे हो, कि तुम अपनी होशियारी और
कुशलता में बैठे हो, तो चूक जाओगे।
खे
रे धीरे धीरे नैया
परिचित
है प्रिय घाट पुराना
मांझी
अनगिन लहरें आईं
आकर
घाटों से टकराईं
नहीं
जानते इसी घाट पर
राधा
बंसी सी लहराई
मैं
आता था सदा यहां ही
ढूंढ
ढूंढ नित नया बहाना
रही
न माया, उसकी काया
छिप-छिपकर
अब भी मुसकाती
सुन
न सकोगे, अंधे बहरे
देखा
मधु-स्मृति कजरी गाती
मुसकाती
है खिल कदंब सी
छूट
न पाता आना जाना
अनजाने
ही बात बता दी
लगने
वाली घात बता दी
वादी
तो पहले से ही था
और
बना हूं अब प्रतिवादी
बुरा
न होगा, मुझे छोड़ दो
धार-बीच सुनने
को गाना
जो
सुन सकते हैं वे आज भी यमुना के तट पर कृष्ण की बांसुरी सुन सकते हैं। जो सुन सकते
हैं वे आज भी बंसीवट में राधा का गीत सुन सकते हैं। आंख चाहिए! कान चाहिए! कान और
आंख के पीछे जुड़ा हुआ हृदय चाहिए! आंख प्रेम से देखे, कान प्रेम
से सुने--तो बुद्ध मौजूद हैं, कृष्ण मौजूद हैं, जीसस मौजूद हैं, मोहम्मद मौजूद हैं। ये सदा ही मौजूद
हैं।
सदगुरु
मिटता ही नहीं। जो मिट जाए वह क्या सदगुरु है!
महर्षि
रमण का अंतिम क्षण,
और किसी ने पूछा, महर्षि, अब देह छूट जाएगी, आप कहां जाएंगे? महर्षि ने कहा, कहां जाऊंगा! जाने को कहीं कोई जगह
और है? जो हूं वही रहूंगा, जहां हूं
वहीं रहूंगा। जाने को कहां है? एक ही तो अस्तित्व है,
दूसरा कोई अस्तित्व नहीं है।
बड़ी
अदभुत बात कही: जाऊंगा कहां? एक ही अस्तित्व है, यहीं
रहूंगा! जैसा हूं वैसा ही रहूंगा।
देह
के गिर जाने से आत्मा तो नहीं गिर जाती। और घड़े के फूट जाने से जल तो नहीं फूट
जाता। और घाटों के छूट जाने से नदी तो नहीं मर जाती--सागर हो जाती है। प्रीति
चाहिए! प्रीति एक देखने का और ही ढंग है। भाव देखने की एक नयी ही आंख है। जो
अदृश्य को भी दिखा देती है,
ऐसी आंख! जो अगोचर को गोचर बना देती है, ऐसी
आंख!
और
तुम पूछते हो: "संग का रंग लगता ही है या कि यह केवल संयोग मात्र है?'
संयोग
मात्र ही नहीं है और अनिवार्यता भी नहीं है। तुम पर निर्भर है। स्वतंत्रता है। तुम
चाहो तो लगेगा,
तुम न चाहो तो नहीं लगेगा।
सत्य
थोपा नहीं जा सकता। स्वीकार कर लोगे तो तुम्हारा है, अस्वीकार कर दोगे तो
तुम्हारा नहीं है। जबरदस्ती ओढ़ाया नहीं जा सकता। सत्य कोई जंजीर नहीं है जो
तुम्हारे हाथों में पहना दी जाए। और सत्य कोई कारागृह नहीं है जिसमें तुम्हें
आबद्ध कर दिया जाए। सत्य मुक्ति है।
तुमने
यह खयाल किया,
बंधन जबरदस्ती लादे जा सकते हैं, मुक्ति
जबरदस्ती नहीं लादी जा सकती। किसी के हाथों में जंजीरें और पैरों में बेड़ियां
जबरदस्ती डाली जा सकती हैं--जबरदस्ती ही डाली जाती हैं, नहीं
तो कौन डलवाने को राजी होगा! लेकिन अगर किसी को मुक्त करना हो, जंजीरें काटनी हों, तो जबरदस्ती नहीं की जा सकती।
तुम तोड़ भी दोगे तो वह फिर डाल लेगा।
ऐसा
हुआ, फ्रांस की क्रांति में बैस्तले का किला तोड़ा गया। उसमें फ्रांस के सब से
जघन्य अपराधी बंद थे। जिनको आजीवन कैद होती थी, वे ही केवल
उस किले में बंद किए जाते थे। उसमें कोई पांच हजार कैदी थे। कोई तीस साल से बंद था,
कोई चालीस साल से, कुछ तो ऐसे थे जो पचास साल
से बंद थे। उन कैदियों को जो जंजीरें और बेड़ियां पहनाई जाती थीं उनमें ताले नहीं
होते थे। क्योंकि ताले की कोई जरूरत नहीं थी। चाबी भी नहीं होती थी। क्योंकि खुलने
का तो सवाल ही नहीं था; जब वे मर जाएंगे तब उनके हाथ-पैर तोड़
कर जंजीरें निकाल ली जाती थीं। क्योंकि मरने तक तो उनको अब कारागृह में ही रहना
है। क्रांतिकारियों ने बैस्तले का किला तोड़ दिया और जबरदस्ती लोगों को उनकी
कालकोठरियों से निकाल कर मुक्त करना चाहा। बहुतों ने तो इनकार किया, बिलकुल इनकार किया, लड़े-झगड़े--हम जाना नहीं चाहते!
मैं
भी उनकी बात समझता हूं,
हंसो मत, तुम भी समझो। पचास साल से जो आदमी
अंधेरी कोठरी में रहा हो, वह अब बाहर की रोशनी में आंख भी
खोल सकेगा? अंधा हो जाएगा। उन्हें बाहर लाया गया तो उन्हें
कुछ दिखाई ही न पड़े। उन्होंने कहा, हमें भीतर जाने दो। जो
आदमी पचास साल से गंदी हवाओं में जी रहा है, जहां न खिड़कियां
हैं, न रोशनदान हैं, उसे ताजी हवा
बरदाश्त होगी? सह न पाएगा। और जो आदमी पचास साल से आबद्ध है,
समय पर सुबह रूखी-सूखी रोटी मिल जाती है, सांझ
रूखी-सूखी रोटी मिल जाती है; रात घंटा बजता है, सो जाता है; न चिंता, न
फिकर--वह अब फिर से रोटी कमाए सत्तर साल की उम्र में! पचास साल से जिसने रोटी नहीं
कमाई, जो भूल ही भाल गया सब--अब कहां जाए? पचास साल बाद किसको खोजे? पत्नी मर चुकी होगी। बेटे
पहचानेंगे भी नहीं। भाई-बंधु दुतकार देंगे कि भई हम नहीं जानते, कौन हो, कहां से आए हो, आगे
बढ़ो! पचास साल बाद, वह समाज जिसको वह छोड़ आया था, अब बचा कहां! न परिचित होंगे, न प्रियजन होंगे,
न जाने-पहचाने लोग होंगे। कौन रोटी देगा?
मगर
क्रांतिकारी जिद्दी,
माने नहीं, जबरदस्ती कोड़ों की चोट पर जंजीरें
तुड़वा दीं, हथकड़ियां निकलवा दीं। धक्के मार कर बाहर न जाने
वाले कैदियों को बाहर कर दिया।
और
एक बड़ी अपूर्व घटना घटी--इतिहास के लिए महत्वपूर्ण। सांझ होते-होते अधिकतम कैदी
वापस लौट आए और उन्होंने प्रार्थना की, कम से कम हमें अपनी कोठरियों में
तो सोने दो! हम सोएं कहां? हम जाएं कहां? कोई छप्पर तो चाहिए!
और
दूसरे दिन तो क्रांतिकारी और हैरान हुए। अनेक ने रात में अपनी जंजीरें, जो तोड़ दी
गई थीं, उनको वापस अपने हाथों में डाल लिया और पैरों में पहन
लिया था। उनसे पूछा कि पागलो, यह क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा, बिना जंजीर के, बिना
हथकड़ी के नींद ही नहीं आती। इतना वजन न हो हाथ-पैर में...पचास साल इतने वजन के साथ
ही सोए हैं।
तुम
भी जानते हो,
जो स्त्री बहुत से गहने पहन कर सोती है रात, एक
दिन गहने उतार कर सोए, नींद नहीं आएगी। और गहने क्या हैं?
लोहे की जंजीरें समझो या सोने की, फर्क क्या
है? जरा सा फर्क हो जाएगा तो नींद नहीं आएगी। तुम रोज बाएं
तरफ सिर करके सोते हो, आज दाएं तरफ सिर करके सोना, और नींद नहीं आएगी। दुलाई तुम्हारी जरा मोटी या पतली हो जाए, और नींद नहीं आएगी, क्योंकि वजन कम और ज्यादा हो
जाएगा। तकिया जरा छोटा-बड़ा हो जाए तो नींद नहीं आएगी।
तुम
समझो उन लोगों की तकलीफ,
पचास साल से जंजीरों में ही सोए थे! तब क्रांतिकारियों को समझ में
आया कि गुलामी तो जबरदस्ती दी जा सकती है, लेकिन स्वतंत्रता
जबरदस्ती नहीं दी जा सकती।
कोई
सदगुरु तुम्हें जबरदस्ती मुक्त नहीं कर सकता।
मैंने
सुना है, एक पहाड़ी सराय में एक क्रांतिकारी रात मेहमान हुआ। सांझ जब सूरज ढलता था
तब वह सराय पहुंचा। सराय के द्वार पर ही एक तोता पिंजड़े में बंद है। सुंदर पिंजड़ा!
और तोता चिल्ला रहा है: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता!
क्रांतिकारी
के हृदय में तो वीणा बज गई। यही तो उसकी आवाज है! उसने पूछताछ की। पता चला कि सराय
का जो मालिक है,
कभी जवानी में उसको भी स्वतंत्रता का पागलपन था। तो उसने तोते को
राम-राम करना नहीं सिखाया है, स्वतंत्रता-स्वतंत्रता का पाठ
सिखाया है। तोता चिल्लाता ही रहा: स्वतंत्रता! रात पूरा चांद निकला तब भी तोता
चिल्ला रहा था: स्वतंत्रता! क्रांतिकारी से न रहा गया, वह
आया, उसने तोते का पिंजड़ा खोला और कहा, उड़ जा! प्यारे उड़ जा!
मगर
तोते उड़े? तोते ने जोर से पिंजड़े के सींकचे पकड़ लिए। क्रांतिकारी ने कहा, यह तू क्या कर रहा है? अब दरवाजा खुला है, उड़ जा!
मगर
तोता पिंजड़े को पकड़े है जोर से और चिल्ला रहा है, और भी जोर से चिल्ला रहा
है: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता!
लेकिन क्रांतिकारी तो जिद्दी होते हैं, उसने हाथ भीतर डाल कर
जबरदस्ती तोते को बाहर खींचना चाहा। तोते ने चोंचें मारीं उसके हाथ पर, लहूलुहान कर दिया उसका हाथ, और चिल्ला रहा है:
स्वतंत्रता, स्वतंत्रता! मगर क्रांतिकारी भी क्रांतिकारी है,
कोई तोतों से हार जाए! उसने खींच कर तोते को जबरदस्ती...उसके पंख भी
टूट गए तोते के, कोई फिकर नहीं। खींच कर...वह तोता उस पर हाथ
पर चोट करता ही रहा, कोई फिकर नहीं, उसने
उसे आकाश में उड़ा दिया। और तब बड़ा प्रसन्नचित्त कि एक आत्मा आजाद हुई, सो गया।
सुबह
जब उसकी नींद खुली,
दरवाजा खुला पड़ा था पिंजड़े का, तोता अंदर बैठा
है और चिल्ला रहा है: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता!
स्वतंत्रता
जबरदस्ती नहीं दी जा सकती। और मैं तो जिस स्वतंत्रता की बात कर रहा हूं वह परम
स्वतंत्रता है। तुम चाहो तो ले सकते हो। तुम चाहो तो ग्रहण कर सकते हो।
सत्य
दिया नहीं जा सकता,
लिया जा सकता है; सिखाया नहीं जा सकता,
सीखा जा सकता है।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
काल करंते आज कर, आज करंते अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करोगे कब।।
और
आज करंते काल कर, काल करंते परसों।
जल्दी-जल्दी क्यों करता है, अभी तो
जीना बरसों।।
आपके हिसाब से तो दोनों कहावतें सच होंगी, पर हमारे
लिए कौन सा निदान है? कृपा करके समझाएं।
नरेन्द्र! मेरे लिए निश्चित ही दोनों कहावतें सच हैं और एक
साथ सच हैं। लेकिन दोनों का प्रयोग भिन्न-भिन्न है।
जहर
भी ठीक है; क्योंकि कभी औषधि बनता है। और अमृत भी गलत हो सकता है; ज्यादा पी लो तो जान ले ले। कांटे बुरे भी हैं, क्योंकि
गड़ते हैं; और भले भी, क्योंकि गड़े
कांटों को निकालना हो तो फिर कांटों की ही जरूरत पड़ती है।
जीवन
एकदम दो और दो चार,
ऐसा साफ-सुथरा नहीं है; जीवन एक रहस्य है। ये
दोनों कहावतें सच हैं।
काल
करंते आज कर,
आज करंते अब।
पल
में परलय होयगी,
बहुरि करोगे कब।।
कौन
जानता है! पल भर का भरोसा नहीं। पल में परलय होयगी! अगर कुछ करना हो तो अभी कर लो।
मगर कुछ से क्या मतलब?
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने मनोवैज्ञानिक के पास गया था। और उसने कहा कि मेरे दफ्तर में कोई
काम ही नहीं करता। मैं पहुंचता हूं तो लोग जल्दी-जल्दी बही-खाते खोल लेते हैं, झूठा-झाठी
लिखा-पढ़ी करने लगते हैं। मैं गया कि इधर बस बही-खाते बंद। टांगें लोग टेबलों पर
फैला देते हैं। चाय पी रहे हैं, सिगरेट पी रहे हैं, गप-सड़ाका मार रहे हैं। मैं गया कि सब काम बंद! मैं पहुंचता हूं तो सब काम
होने लगता है; मगर सब झूठा, क्योंकि
काम कुछ होता नहीं। क्या करूं, क्या न करूं? आप मनस्विद हैं, आप कुछ रास्ता बताएं।
उस
मनस्विद ने यह कहावत लिख कर दे दी। कहा, इसे दफ्तर में टांग दो सब जगह!
काल
करंते आज कर,
आज करंते अब।
पल
में परलय होयगी,
बहुरि करोगे कब।।
इसका
परिणाम होगा,
उसने कहा। लोग इसको बार-बार पढ़ेंगे, प्रभाव
पड़ेगा, संस्कार पड़ेगा।
टांग
दी उसने हर टेबल के ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में। दूसरे दिन मनोवैज्ञानिक मुल्ला
नसरुद्दीन को मिला रास्ते में। बड़ा हैरान हुआ। सिर पर पट्टी बंधी थी। हाथ पर
पलस्तर चढ़ा था। कहा कि नसरुद्दीन, क्या हो गया? उसने कहा कि
वह तुम्हारी कहावत! उसने कहा, मेरी कहावत! मेरी कहावत से
तुम्हारा सिर कैसे फूटेगा? मेरी कहावत से तुम्हारा हाथ कैसे
टूटेगा?
उसने
कहा कि महाराज,
तुम्हारी कहावत का परिणाम है! क्योंकि मैनेजर तिजोड़ी में जितने पैसे
थे लेकर भाग गया। उसने सोचा--
काल
करंते आज कर,
आज करंते अब।
पल
में परलय होयगी,
बहुरि करोगे कब।।
पता
मुझे चला कि वह सोच तो रहा था बहुत दिन से कि करना है, करना है,
लेकिन कल करेंगे, कल करेंगे; मगर जब यह तख्ती उसने देखी तो वह तो तिजोड़ी से लेकर सब नदारद हो गया। मेरा
सेक्रेटरी मेरी टाइपिस्ट को भगा गया। वे नदारद हो गए। और मेरा जो चपरासी है उसने
भीतर घुस कर मेरी ऐसी पिटाई की! मैंने पूछा, भाई, तू यह क्या करता है? उसने कहा--
काल
करंते आज कर,
आज करंते अब।
पल
में परलय होयगी,
बहुरि करोगे कब।।
पिटाई
तो तुम्हारी मुझे कब से करनी है! जब से नौकरी शुरू की है तब से करनी है। मगर टालता
रहता हूं कि कर लेंगे,
जब होगी सुविधा तब देखेंगे। कभी मौका मिल जाएगा अंधेरे-उजेले कहीं,
खोल देंगे सिर। मगर यह तुमने तख्ती क्या लगा दी, इसका प्रभाव हुआ है!
नासमझ
के हाथ में अमृत जहर हो जाएगा। समझदार के हाथ में जहर भी अमृत हो जाता है। यह जो
पहली कहावत है,
सदगुणों के लिए है। अगर प्रेम करना हो तो अभी। अगर दान करना हो तो
अभी। ध्यान करना हो तो अभी। पूजा, प्रार्थना, अर्चना करनी हो तो अभी। संन्यस्त होना हो तो अभी। कोई शुभ विचार उठता हो
तो कल पर मत टालना, क्योंकि कल का क्या भरोसा है?
लेकिन
शुभ विचार ही तो नहीं उठते तुम्हारे मन में, अशुभ विचार भी उठते हैं। अशुभ
विचारों को कल पर टालना। कहना कि क्या जल्दी है, कल कर
लेंगे!
आज करंते
काल कर, काल करंते
परसों।
जल्दी-जल्दी
क्यों करता है,
अभी तो जीना बरसों।।
तुम
ऐसा समझो कि मुल्ला नसरुद्दीन ने अगर यह दूसरी तख्ती टांगी होती तो दफ्तर ज्यादा
ढंग पर रहता। काम-वाम तो नहीं होता, मगर सिर न टूटता, हाथ-पैर न टूटते। कम से कम टाइपिस्ट को भगा कर न ले जाता सेक्रेटरी। और कम
से कम तिजोड़ी में जो था तिजोड़ी में रहता। बढ़ता नहीं तो भी कोई हर्जा नहीं; मगर जो था वह रहता।
बुरे
को कल पर टाल दो।
गुरजिएफ
ने कहा है कि मेरे जीवन में जो सब से क्रांतिकारी बात घटी, वह मेरे
दादा के द्वारा घटी। मैं नौ साल का था। उनकी मृत्यु आई, उन्होंने
मुझे पास बुलाया। उनका मुझ पर बड़ा प्रेम था और मुझसे कहा, शायद
तू अभी समझ भी न सके, अभी तेरी उम्र भी समझने की नहीं;
लेकिन याद रख, याद रख! कभी उम्र हो जाएगी तब
समझ लेगा, मगर एक-एक शब्द याद रख। छोटा सा ही वचन है जो मैं
तुझे दे जाता हूं। यही तेरे लिए मेरी संपदा, मेरी वसीयत। और
कुछ मेरे पास देने को है भी नहीं। मगर इस वचन ने मेरे जीवन को बदला है। तो गुरजिएफ
ने कहा, मैंने सुन लिया। ठीक से समझा तो नहीं, लेकिन बाद में जब समझ आई तो प्रयोग करना शुरू किया। और मरते वक्त दादा कह
गया था और इतना उसका प्रेम था कि उसके प्रेम के कारण ही किया! मगर धीरे-धीरे रस
आना शुरू हुआ। अंकुरित हुआ बीज, वृक्ष बना।
वचन
क्या था? वचन छोटा सा था कि अगर कोई गाली दे, अपमान करे,
तो उससे कहना: चौबीस घंटे बाद उत्तर दूंगा। अब यह भी कोई बहुत बड़ा
शास्त्र है? मगर गुरजिएफ कहता, मेरा
पूरा जीवन इसने बदल दिया। क्योंकि जब भी मैंने, किसी ने गाली
दी, अपमान किया, तो याद रखा--उसी क्षण
तत्क्षण उत्तर नहीं देना है। गाली देने वाले को कहा कि भाई क्षमा करना, मेरे दादा को मैंने वचन दिया है, तो कल चौबीस घंटे
बाद उत्तर दूंगा। और चौबीस घंटे जब सोचा तो क्रोध बह गया। कभी-कभी तो ऐसा लगा कि
उसने जो कहा ठीक ही कहा।
रास्ते
पर तुमसे किसी ने कह दिया,
चोर कहीं के! ऐसे तो बुरा लग जाता है, मगर
सोचोगे तो हजार बातें समझ में आएंगी कि चोरियां कितनी तो की हैं। नहीं की होंगी तो
सोची तो हैं ही। किसी ने कह दिया, लुच्चे-लफंगे! नाराज हो
गए। मगर घर जाकर सोचोगे तो, विचार करोगे तो लगेगा कि बात
एकदम गलत तो नहीं है। लुच्चा का मतलब केवल इतना ही होता है: घूर-घूर कर देखने
वाला। सो घूर-घूर कर कई दफे देखा है। इसमें क्या बुरा है? ठीक
ही कहा।
गुरजिएफ
ने कहा कि जब मैंने बहुत सोचा तो या तो पाया कि जो कहा है ठीक कहा। तो दादा ने कहा
था, अगर पाए कि ठीक है तो धन्यवाद देना जाकर। अगर पाए कि गलत है तो फिकर ही
क्या करनी, गलत की क्या फिकर करनी? गलत
में जान ही कहां है! बात ही भूल जाना। और दो में से एक ही हुआ: या तो पाया ठीक है
तो धन्यवाद दे दिया। धन्यवाद दे दिया तो एक बनती शत्रुता मिट गई, एक मैत्री निर्मित हुई। और एक अपूर्व ढंग की मैत्री! क्योंकि दूसरे को भी
दिखाई पड़ा, यह आदमी साधारण आदमी नहीं है। इसकी गरिमा दिखाई
पड़ी। और अगर गलत था तो बात ही छोड़ दी, क्योंकि गलत के लिए
क्या उत्तर देना, क्या चिंता करनी! गलत तो अपने से मर जाएगा।
गलत के पैर ही कहां होते हैं जो चल सके? गलत में प्राण ही
कहां हो सकते हैं? गलत में श्वास ही क्या होती है? गलत के लिए लड़ने-झगड़ने में क्या सार है! और ठीक के लिए लड़ने-झगड़ने में कोई
प्रयोजन नहीं।
गुरजिएफ
ने लिखा है, इसका परिणाम यह हुआ कि मैंने बहुत मित्र बनाए, बहुत
मित्र बनाए और शत्रु मैंने निर्मित नहीं किए। इससे जीवन में एक माधुर्य आया।
गुरजिएफ
में थी कला मित्र बनाने की अदभुत! और उस कला का सारा राज इस छोटे से सूत्र में है।
नरेन्द्र, सब तुम पर
निर्भर है। गलत को कल पर छोड़ो, क्योंकि कल कभी आता नहीं;
कल पर छोड़ोगे तो गलत कभी होगा नहीं। और ठीक को अभी कर लो, क्योंकि ठीक को कल पर छोड़ोगे, कल कभी आता नहीं,
कल पर छोड़ोगे तो ठीक कभी होगा नहीं।
लोग
इससे उलटा ही करते हैं: ठीक को अभी करते हैं, ऐसा नहीं; ठीक
को कल पर छोड़ते हैं। गलत को अभी करते हैं; गलत को कल पर नहीं
छोड़ते। अगर तुम्हें क्रोध उठ आता है तो तुम अभी करते हो; और
अगर करुणा उठती है तो तुम कहते हो सोचेंगे, विचारेंगे। बस
सोचने-विचारने में ही करुणा का भाव बह जाता है। अगर अच्छा करने का भाव उठता है तो
तुम कहते हो जरा सोचूं, विचारूं। और अगर बुरा करने का भाव
उठता है तो तुम आगबबूला हो जाते हो, अभी कर गुजरते हो।
दुनिया
में जितनी बुराइयां होती हैं, वे त्वरा में होती हैं, तीव्रता
में होती हैं, जल्दी में होती हैं। और दुनिया में जितनी
भलाइयां होती हैं, वे भी त्वरा में होती हैं, तीव्रता में होती हैं, जल्दी में होती हैं। भले के
लिए करने को जिसने सोचा, भला न होगा। और बुरे को जिसने करने
के लिए सोचा, उससे बुरा न होगा।
महावीर
के जीवन में एक उल्लेख है। महावीर का एक भक्त अपने घर लौटा। पुरानी कहानी है, ढाई हजार
साल पुरानी कहानी है; अब तो ऐसा होता नहीं, मगर तब ऐसा होता था। वह स्नान करने बैठा है। उसकी पत्नी उबटन करके उसे
स्नान करवा रही है। उबटन करवाते-करवाते बात होने लगी। पत्नी ने कहा कि मैंने सुना,
तुम भी महावीर के भक्त हो गए। मेरा भाई भी भक्त है। और भक्त ही नहीं
है, मेरा भाई तो कहता है कि आज नहीं कल वह महावीर के द्वारा
संन्यस्त होगा, दीक्षा लेगा।
पति
ने कहा, कल? फिर कभी नहीं लेगा। महावीर की सारी शिक्षा यही
है कि शुभ करना हो तो अभी, इसी क्षण। तेरा भाई किसको धोखा दे
रहा है?
विवाद
छिड़ गया पति और पत्नी में। पत्नी ने कहा कि तुम मेरे भाई को नहीं जानते, क्षत्रिय
है! आखिर मैं भी क्षत्राणी हूं। और जब वह कहता है कि लेगा तो लेगा।
उसने
कहा कि क्षत्रिय हो तो भी क्या करेगा, कल आएगा तब लेगा न! कल आता कब?
क्षत्रिय के लिए भी नहीं आता, किसी के लिए
नहीं आता। कोई कल फर्क थोड़े ही करता है--क्षत्रिय, ब्राह्मण,
शूद्र...कि इसके लिए आएंगे, उसके लिए नहीं
आएंगे। कल किसी के लिए नहीं आता। मेरी मान! कितने दिन से सोच रहा है वह?
तब
जरा पत्नी झिझकी,
कहा कि कम से कम तीन साल तो हो ही गए।
तो
अभी तीन साल में कल नहीं आया? तीस साल में भी नहीं आएगा। और जिंदगी के जाल तो
रोज बढ़ते जाते हैं, घटते नहीं। सोचता होगा कि सब निबटा लूं,
फिर दीक्षा ले लूंगा। तो सब तो कभी निबटता ही नहीं। आदमी लिपटता ही
जाता है, निबटता कब है। एक से दो चीजें निकलती हैं, दो से चार, चार से आठ...बाजार फैलता जाता है। आदमी
छोटे पसार से शुरू करता है, फिर बड़ा पसारी हो जाता है। फिर
दुकान को समेटना मुश्किल हो जाता है। फिर वह सोचता है अब समेटूं तब समेटूं,
मगर तब हाथ छोटे पड़ जाते हैं, दुकान बड़ी हो
जाती है।
आखिर
पत्नी को यह बात लगी तो चोट की, कि मेरे भाई का अपमान मेरा अपमान! मेरे भाई के
क्षत्रिय होने पर संदेह किया जा रहा है। मेरे भाई की धार्मिक भावना का संदेह किया
जा रहा है। तो उसने भी चोट पर चोट की। उसने कहा, तो तुम क्या
समझते हो, तुम भी तो सुनते हो महावीर को! तुम्हारे मन में
दीक्षा लेने का भाव नहीं उठा?
एक
क्षण सन्नाटा रहा,
और पति जैसा नग्न बैठा था स्नान के लिए वैसा ही उठ कर खड़ा हो गया।
पत्नी ने कहा, कहां जाते हो? उसने कहा,
बस दीक्षा लेने जा रहा हूं। पत्नी ने कहा, पागल
हो गए हो! अरे कहां चले? मगर वह तो द्वार खोल कर बाहर हो
गया। पत्नी चिल्लाई, लोग क्या कहेंगे? नग्न
बाहर जा रहे हो! उसने कहा, अब लोग क्या कहेंगे, इसकी क्या फिकर करूं? महावीर की दीक्षा में तो नग्न
होना ही पड़ेगा, सो अभी से नग्न! पीछे होने की क्या जरूरत है?
नग्न ही जाता हूं। दीक्षा का आधा काम तो तूने ही पूरा करवा दिया।
अरे, पत्नी ने
कहा, मजाक करती थी। लेकिन पति ने कहा, मजाक
हो या नहीं, बात खत्म हो गई। तूने मेरे क्षत्रिय पर चोट कर
दी। शुभ अभी ही कर लेना उचित है। मैं तेरा अनुगृहीत हूं। और पति ने झुक कर पत्नी
के चरण छुए कि तू मेरी पहली गुरु है। न तू यह बात छेड़ती, न
मुझे अभी स्मरण आता। तूने मेरे सोए-सोए स्मरणों को जगा दिया। मैं भी तो प्रभावित
हूं महावीर से। और जब प्रभावित हूं तो दीक्षा लेनी चाहिए, नहीं
तो प्रभाव का अर्थ क्या है? हालांकि मैंने कभी सोचा नहीं था,
लेकिन कहीं अचेतन में भाव तो था। कल पर टाला भी नहीं था, क्योंकि कभी चेतन भाव बनाया नहीं था। आज तूने अचेतन से उसे चेतन में ला
दिया, मैं तेरा अनुगृहीत हूं।
उस
आदमी ने लौट कर पीछे नहीं देखा। यह तो सम्यक उपयोग हो गया।
स्मरण
रखो, जीवन के कोई सिद्धांत अपने आप में सही और गलत नहीं होते; उनके प्रयोग पर सब निर्भर करता है। और प्रयोग के लिए ध्यानस्थ चित्त
चाहिए। इसलिए मैं तुमसे यह नहीं कहता इनमें से किस सूत्र का पालन करो। अगर
तुम्हारे पास ध्यानस्थ चित्त नहीं है तो तुम जिस सूत्र का भी पालन करोगे गलत ही
करोगे।
यही
हो रहा है। पश्चिम ने पहले सूत्र का उपयोग कर लिया है, तो वे
कहते हैं--
काल
करंते आज कर,
आज करंते अब।
पल
में परलय होयगी,
बहुरि करोगे कब।।
पश्चिम
में आदमी एकदम आपाधापी और भागा-दौड़ी में लगा है--अभी करो! जल्दी करो! यह भी कोई
नहीं पूछता कि इतनी जल्दी क्या? मगर जल्दी, जल्दी पहुंचना
है! चाहे पहुंचो, चाहे न पहुंचो। सौ मील की रफ्तार, एक सौ बीस मील की रफ्तार से कार को दौड़ाओ--जल्दी पहुंचना है! पहुंचना कहां
है? किसी मित्र के घर ताश खेलने जा रहे हैं; या शतरंज बिछी होगी, कहीं देर न हो जाए। सब्जी
खरीदने जा रहे हैं और इतनी तेजी! पहुंच कर भी क्या करोगे? इतनी
जल्दी क्या है?
मगर
पश्चिम ने पहला सूत्र पकड़ लिया मूढ़तापूर्ण ढंग से--अभी कर लो! तो हर चीज जल्दी
होनी चाहिए, इंस्टैंट कॉफी की भांति--अभी, इसी वक्त! इतनी भी देर
कौन करे कि कॉफी तैयार करो, फिर बनाओ। पश्चिम जल्दी ही और सब
चीजों में जल्दबाजी कर-कर के ऐसी जगह आ रहा है कि भोजन इत्यादि कौन करे, फिर भोजन करो, फिर पचाओ--बस विटामिन की टिकिएं निगल
जाओ या एक इंजेक्शन ले लो, सात दिन के लिए निबटे। इतनी देर
इतना समय कौन खराब करे! सोने में समय खराब हो रहा है, सोए
कौन! तो ऐसी टिकिएं ले लो जिनसे नींद न आए। समय कम है और बहुत करना है। भागे जाओ!
भागे जाओ! और भाग-भाग कर पहुंचोगे कहां? कब्र में गिरोगे!
और
पूरब ने दूसरे सूत्र का उपयोग करके अपना सारा गौरव गंवा दिया है--
आज करंते
काल कर, काल करंते परसों।
जल्दी-जल्दी
क्यों करता है,
अभी तो जीना बरसों।।
पूरब
टालता है। वह कहता है: अभी क्या जल्दी है, कर लेंगे। अभी तो जवान हूं,
अभी तो बुढ़ापा आएगा। और फिर भी अगर मर गए तो क्या जल्दी है, दूसरा जन्म होगा। पश्चिम में तो दूसरा जन्म होता नहीं। और यहां तो जन्मों
के बाद जन्म हैं, सिलसिला ही सिलसिला है।
पश्चिम
मर रहा है तनाव से,
जल्दबाजी, तीव्रता, शीघ्रता;
और पूरब मर रहा है आलस्य से, तामस से। दोनों
ने गलत उपयोग कर लिया है।
इसलिए
मैं तुम्हें सिद्धांत नहीं देता; मैं तुम्हें आंख देता हूं। फर्क समझ लो। सिद्धांतों
के साथ हमेशा खतरा है। क्योंकि सिद्धांतों का उपयोग कौन करेगा? व्याख्या कौन करेगा? तुम्हीं तो व्याख्या करोगे न!
फिर तुम अपने हिसाब से व्याख्या करोगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन डट कर शराब पी रहा है। और किसी ने कहा, नसरुद्दीन! तुमको मैंने
कुरान भी पढ़ते देखा और तुम शराब भी पीते हो, शर्म नहीं आती?
नसरुद्दीन ने कहा, कुरान के अनुसार ही शराब पी
रहा हूं। कुरान में वचन साफ है कि जितनी पीनी हो शराब पी लो। उस आदमी ने कहा,
वह मुझे मालूम है, लेकिन आगे? यह तो आधा वचन है। आगे लिखा है कि लेकिन परिणाम के लिए तैयार रहना,
नरक की अग्नि में सड़ोगे। मुल्ला ने कहा, अभी
जितनी हैसियत है उतना कर रहा हूं--आधा। अभी पूरे करने की हैसियत, पात्रता नहीं है। मान तो कुरान को ही रहा हूं।
लेकिन
व्याख्या तो तुम करोगे न!
इसलिए
मैं तुम्हें सिद्धांत नहीं देता। मैं तुम्हें बंधी-बंधाई धारणाएं नहीं देता। मैं
तो तुम्हें देता हूं दृष्टि--देखने की, सोचने की, विचारने
की। मैं तो तुम्हें ध्यान देता हूं, ताकि ध्यान के दर्पण में
तुम्हें साफ दिखाई पड़ने लगे--कौन बात कब ठीक है। कभी ठीक होती है, कभी ठीक नहीं होती। संदर्भ बदल जाते हैं, सत्य बदल
जाते हैं।
आखिरी सवाल: भगवान, हम संन्यासियों का परिचय क्या?
उत्सव
आमार जाति, आनंद आमार गोत्र! बस इतना ही छोटा सा परिचय। पर इतना काफी है। इसमें आ गए
सब उपनिषद, आ गईं सब भगवद्गीताएं, आ गई
बाइबिल, आ गया कुरान, आ गया धम्मपद।
इसमें आ गए सब बुद्धों के गीत। इसमें आ गए सब जाग्रत पुरुषों के उत्सव।
उत्सव
आमार जाति, आनंद आमार गोत्र!
आज इतना ही।
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