उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
संन्यास : परमात्मा का संदेश-(प्रवचन-सातवां)
दिनांक 07 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
प भगवान, उन्नीस सौ चौंसठ के माथेरान शिविर में आपसे प्रथम मिलन हुआ था।
माथेरान
स्टेशन पर जिस प्रेम से आपने मुझे बुलाया था, वे शब्द आज भी
कान में गूंजते हैं।
उन दिन जो
आंसू झर-झर बह रहे थे, वे आंसू अब तक आते ही रहते हैं।
आपको सुनते
समय, आपके दर्शन के समय यही स्थिति रहती है।
आपके साथ
रहने का, उठने-बैठने का सौभाग्य काफी सालों तक मिलता रहा है।
आपसे
प्राप्त प्रेम की जो परिपूर्ण अवस्था उस दिन थी वही परिपूर्ण अवस्था आज भी है।
यह मेरे
जीवन की सबसे बड़ी और आश्चर्यजनक घटना मानती हूं।
यह प्रेम
की अवस्था मेरे जीवन के अंत समय तक रहे, ऐसा आशीर्वाद आपसे
चाहती हूं!
प भगवान, एक प्रश्न के उत्तर में आपने कहा कि पत्नी को दुख मत दो। संन्यास की जल्दी
न
करो। अगर
जल्दी करोगे तो तुम ही मेरे और तुम्हारी पत्नी के बीच दीवार बनोगे।
भगवान,
ठीक यही मेरे साथ हुआ है।
आखिर पत्नी
को साथ ले चलना इतना असंभव सा क्यों लगता है?
क्या यह
आकांक्षा ही गलत है?
प भगवान, जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है?
प भगवान, मैं आपके संदेश के लिए सभी कुछ समर्पित करने को राजी हूं।
जीवन तो
जाना ही है, बस इतनी ही आकांक्षा है कि आपके किसी काम आ आऊं।
पात्रता तो
कुछ भी नहीं है, पर आपके प्रति अगाध प्रेम अवश्य है।
पहला प्रश्न: भगवान, उन्नीस सौ चौंसठ के माथेरान शिविर में आपसे प्रथम मिलन हुआ था। माथेरान
स्टेशन पर जिस प्रेम से आपने मुझे बुलाया था, वे शब्द आज भी
कान में गूंजते हैं। उस दिन जो आंसू झर-झर बह रहे थे, वे
आंसू अब तक आते ही रहते हैं। आपको सुनते समय, आपके दर्शन के
समय यही स्थिति रहती है।
आपके साथ रहने का, उठने-बैठने का सौभाग्य काफी सालों तक मिलता रहा है। आपसे प्राप्त प्रेम की
जो परिपूर्ण अवस्था उस दिन थी, वही परिपूर्ण अवस्था आज भी
है। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी और आश्चर्यजनक घटना मानती हूं।
यह प्रेम की अवस्था मेरे जीवन के अंत समय तक रहे, ऐसा आशीर्वाद आपसे चाहती हूं।
सोहन, प्रेम हो तो सदा पूर्ण
ही होता है; अपूर्ण प्रेम जैसी कोई अनुभूति ही नहीं है। जैसे
वर्तुल हो तो पूर्ण ही होता है; अपूर्ण वर्तुल जैसा कोई
वर्तुल नहीं होता; होगा तो फिर उसे वर्तुल न कह सकेंगे। वैसे
ही प्रेम सदा ही पूर्ण है। इसीलिए प्रेम परमात्मा के अत्यधिक निकट अनुभव है। जिसने
प्रेम जाना उसे परमात्मा को जानना कठिन न रहेगा; जैसे एक कदम
बस और। प्रेम आखिरी सीढ़ी है परमात्मा के मंदिर की; उसके बाद
मंदिर में प्रवेश है।
जीसस ने कहा है: परमात्मा प्रेम है।
मैं तो थोड़ा और एक कदम आगे जाता हूं। जाना भी चाहिए, दो हजार वर्ष बीत गए जीसस के वक्तव्य को दिए हुए। दो हजार वर्षों में
मनुष्य की चेतना ने नये आयाम छुए हैं। जीसस कहते हैं, परमात्मा
प्रेम है। मैं कहता हूं, प्रेम परमात्मा है। जीसस के वक्तव्य
में परमात्मा महत्वपूर्ण बना रहता है; प्रेम उसका एक सदगुण।
मेरे वक्तव्य में प्रेम महत्वपूर्ण हो जाता है; परमात्मा
केवल उसका दूसरा नाम।
लेकिन जिस प्रेम को हम जानते हैं साधारण जगत में, वह तो पूर्ण नहीं है; वह तो प्रेम भी नहीं है। प्रेम
के नाम से न मालूम क्या-क्या, प्रेम का मुखौटा ओढ़ कर,
प्रेम के आच्छादन में छिपा हुआ जीवन में चलता है। घृणा भी चलती है
तो प्रेम का मुखौटा ओढ़ लेती है।
तुम जिसे साधारणतः प्रेम कहते हो, विचारना, खोदना। जरा खोदोगे और पाओगे: प्रेम तो तिरोहित हो गया, कुछ और छिपा है--दूसरे पर मालकियत करने का भाव छिपा है; स्वामित्व की आकांक्षा छिपी है; दूसरे पर अपना
अहंकार आरोपित कर देने की राजनीति छिपी है; दूसरे को दबाने,
शोषित करने, दूसरे का साधन की तरह उपयोग कर
लेने की दूषित भावना छिपी है।
इसीलिए तो तुम्हारे प्रेम मेंर् ईष्या जन्मती है। अन्यथा प्रेम में
औरर् ईष्या जन्मे?र् ईष्या होनी चाहिए हिस्सा घृणा का।र् ईष्या जैसा जहर
और प्रेम से निकलेगा? असंभव! लेकिन तथाकथित प्रेम सेर् ईष्या
निकलती है, जलन निकलती है, क्रोध
निकलता है। जरूर जिसे हम प्रेम कह रहे हैं वह सिर्फ ऊपर-ऊपर प्रेम है, भीतर कुछ और है--ठीक उलटा प्रेम से कुछ और है।
प्रेम मुक्तिदायी है। लेकिन जिसे हम प्रेम कहते हैं वह तो बंधन बन
जाता है; वह तो जंजीरें ढालता है। जिसे हम प्रेम कहते हैं वह
तो कारागृह है; उसमें दो व्यक्ति निरंतर संघर्ष में लगे रहते
हैं कि कौन जीते, कौन हारे। जिसे हम प्रेम कहते हैं वह तो एक
सतत कलह है; संवाद भी नहीं है, बस
विवाद है।
प्रेम के नाम से जगत में कुछ और ही चल रहा है। कुछ झूठ, कुछ कृत्रिम। और कारण उसका है कि हम बचपन से ही प्रेम को झूठ करने का
आयोजन करते हैं। छोटे-छोटे बच्चों से हम कहते हैं: प्रेम करो, मैं तुम्हारी मां हूं! प्रेम करो, मैं तुम्हारा पिता
हूं! प्रेम करो, यह तुम्हारा भाई है! प्रेम करो, यह तुम्हारी बहन है! जैसे प्रेम भी किया जा सकता है! जैसे प्रेम भी किसी
के हाथ में है!
तो बच्चा क्या करे? अगर हम उससे आग्रह करते हैं--और
हम बलशाली हैं; बच्चे का जीवन हमारे हाथ में है; बच्चे को बचना है तो हमारे साथ चलना होगा--तो बच्चा क्या करे? कहां से प्रेम लाए? घर में जो नया-नया बच्चा पैदा
हुआ है उससे घृणा पैदा होती है बड़े बच्चे को, प्रेम नहीं। वह
शत्रु की तरह मालूम पड़ता है, मित्र की तरह नहीं। क्योंकि वह
मां का ध्यान ज्यादा आकर्षित करेगा। अब तक जो बच्चा मां के ध्यान का केंद्र था वह
परिधि पर हट जाएगा, नया बच्चा केंद्र पर होगा। वह नये बच्चे
की ज्यादा देखभाल करेगी, सेवा-शुश्रूषा करेगी, चिंता करेगी।
स्वभावतः नया बच्चा, ज्यादा जरूरत है उसकी, उसके बचाव के लिए, सुरक्षा के लिए ज्यादा आयोजन करना
है। बड़ा बच्चा उपेक्षित होने लगेगा। इस नये बच्चे के प्रति बड़े बच्चे के मन में
प्रेम पैदा होता है? असंभव! मनोवैज्ञानिकों से पूछो। वे कहते
हैं, भयंकरर् ईष्या पैदा होती है। अगर बड़े बच्चे का वश चले
तो छोटे की गर्दन दबा दे। कभी-कभी दबाता भी है मौका देख कर। कम से कम प्रार्थना तो
करता है कि यह उपद्रव भगवान और कहां से भेज दिया! इसको उठा ही लो! यह झंझट किस
अशुभ घड़ी में घर में आ गई!
लेकिन हम कहते हैं: यह तुम्हारा छोटा भाई है, इससे प्रेम करो! और हम शक्तिशाली हैं तो उसे प्रेम दिखाना पड़ता है। कर तो
नहीं सकता, लेकिन प्रेम दिखाना पड़ता है। अभिनय करना पड़ता है।
फिर, तुम मां हो या पिता हो, इससे
प्रेम के पैदा होने की कोई अनिवार्यता है? लेकिन हम कहते
हैं: प्रेम करो, क्योंकि यह तुम्हारी मां, यह तुम्हारे पिता, यह बहन, यह
भाई।
तो एक अभिनय का जाल शुरू होता है, एक पाखंड शुरू होता
है। बच्चा धीरे-धीरे अभिनय करना सीख जाता है। भीतर दबाता रहता है सब घृणा, सब वैमनस्य।
स्मरण रहे, प्रत्येक बच्चे के मन में मां के प्रति क्रोध उठता
है। उठेगा ही, क्योंकि मां उसके जीवन को नियोजित करना चाहती
है। और मां को नियोजित करना ही पड़ेगा। ये अनिवार्यताएं हैं जीवन की। आखिर बच्चा आग
की तरफ जा रहा होगा तो मां को रोकना ही पड़ेगा। अगर बच्चा गिरने की तरफ जा रहा होगा
तो मां को रोकना ही पड़ेगा; कुएं के पास जा रहा होगा तो आवाज
देनी ही पड़ेगी कि रुक, वहां मत जाना! अगर भूल-चूक करेगा तो
कभी धमकाना भी पड़ेगा, कभी मारना-पीटना भी पड़ेगा। और इस सबसे
बच्चे के मन में बड़ा क्रोध पैदा होता है। बच्चे के भीतर बड़ी आग जलती है।
मगर उसे प्रकट तो कर नहीं सकता, उसे दबाए रखता है,
उसे दबाए चला जाता है। वह अचेतन में गहन हो जाती है। ऊपर से प्रेम
प्रकट करता है, मां के पैर छूता है, पिता
के पैर छूता है; और भीतर कहीं गहरे में यह विचार चलता है कि
कभी समय मिला तो मजा चखाऊंगा, कभी मुझे मौका मिला तो मैं भी
देख लूंगा।
और मौका कभी न कभी मिलेगा, मां-बाप एक न एक दिन
बूढ़े होंगे और असहाय हो जाएंगे, वैसे ही असहाय जैसा बच्चा
कभी असहाय था। एक दिन आएगा कि मां-बाप बूढ़े होंगे और बच्चा शक्तिशाली होगा और
मां-बाप शक्तिहीन हो जाएंगे, तब बदला लेने का क्षण आ गया।
लोग कहते हैं कि क्यों मां-बाप का सम्मान नहीं हो रहा है दुनिया में?
इसीलिए नहीं हो रहा है, क्योंकि दबे हुए
क्रोध के भाव अवसर की प्रतीक्षा करते हैं। बच्चे का पहला पाठ ही प्रेम का गलत हो
जाता है; क ख ग ही गलत हो जाता है। फिर यही प्रेम एकमात्र
उसकी पहचान बन गई। यही प्रेम वह पत्नी से भी करेगा।
और इसलिए सारी दुनिया में, सारे तथाकथित समाजों ने
कम से कम आज तक ऐसा आयोजन किया था कि पत्नी भी मां-बाप चुनें; युवक न चुनें, युवतियां न चुनें। जीवन का सर्वाधिक
मूल्यवान क्षण भी दूसरे चुनें। ज्योतिषी चुनें, मां-बाप
चुनें। जन्मकुंडलियों के द्वारा चुना जाए, गणित बिठाया जाए।
अब पश्चिम में कंप्यूटर बन गए हैं और कंप्यूटर चुन देता है कि किसके साथ विवाह
करना ठीक रहेगा।
कोई बच्चा अपनी बहन तो नहीं चुन सकता, अपना भाई तो नहीं चुन
सकता; ये तो उपलब्ध होते हैं जन्म के साथ। चुनाव का तो एक ही
मौका था, एक ही स्वतंत्रता थी--अपनी पत्नी या अपने पति को
चुन सकता। वह भी छीन लिया। उसे भी हमने आयोजित विवाह में रूपांतरित कर दिया। उतनी
स्वतंत्रता भी न बचने दी पृथ्वी पर।
फिर हम कहते हैं: तुम्हारी पत्नी है, प्रेम करो! तुम्हारा
पति है, प्रेम करो! पति तो परमात्मा है! इसलिए प्रेम करना
पड़ता है, होता नहीं। और जो किया जाता है वह झूठा; जो होता है वह सच्चा। जो किया जाता है, कागजी;
असली फूल नहीं, उसमें सुगंध नहीं होती। जो
होता है! प्रेम एक अपूर्व घटना है।
इस तरह हमने सारी मनुष्य-जाति को एक झूठे प्रेम के जाल में उलझा दिया
है। फायदा है कुछ लोगों को इससे। पंडित-पुरोहित को फायदा है, राजनेताओं को फायदा है। मां-बाप को सुविधा है। प्रेम को झूठा करके हमने
मनुष्य के जीवन से स्वतंत्रता का सूत्र कम कर दिया। क्योंकि स्वतंत्र व्यक्ति
खतरनाक मालूम होते हैं। स्वतंत्रता का अर्थ होता है--तुम उन्हें गुलाम न बना
सकोगे। वे जीवन दे देंगे, लेकिन अपनी आजादी न देंगे। वे मरने
को राजी हो जाएंगे, लेकिन अपनी स्वतंत्रता को न खोएंगे।
क्योंकि स्वतंत्रता का मूल्य जीवन से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे अपने प्रेम को न
गंवाएंगे, चाहे स्वयं को गंवा दें। क्योंकि प्रेम की वेदी पर
स्वयं को चढ़ा देना सौभाग्य है। इसलिए न हम जगत में प्रेम चाहते रहे अब तक, न स्वतंत्रता चाहते रहे अब तक। न हम चाहते हैं कि लोग सोच-विचारपूर्ण हों,
न हम चाहते हैं चैतन्य हों। हम चाहते हैं बिलकुल गोबर गणेश, कि गुलामी, आज्ञाकारिता, कि हम
उनसे जो कहें वही किए चले जाएं। कि हम कहें हिरोशिमा पर एटमबम गिराओ, तो आज्ञाकारी सैनिक हिरोशिमा पर एटमबम गिरा दे। एक लाख निर्दोष लोगों को
खाक कर दे क्षण भर में और उसके मन में जरा भी...निश्चिंत रहे...जरा भी चिंता न आए।
क्षण भर को भी उसे संकोच न उठे, संदेह न उठे, प्रश्न न उठे।
काश, इस व्यक्ति ने किसी को प्रेम किया होता! जरा सोचो,
जिस व्यक्ति ने हिरोशिमा पर एटमबम गिराया इसने अगर किसी को प्रेम
किया होता तो क्या यह संभव था कि यह हिरोशिमा पर बम गिरा सकता? इसे याद आया होता अपना प्रेम। इसे याद आया होता कि यह लाखों लोगों ने भी
प्रेम किया होगा। प्रेम की इस बगिया को उजाड़ दूं? सिर्फ
आज्ञाकारिता के थोथे सिद्धांत के आधार पर एक लाख लोगों की बलि चढ़ा दूं? अगर इसने प्रेम किया होता और स्वतंत्रता का स्वाद लिया होता तो इसने इनकार
कर दिया होता। इसने कहा होता कि नहीं, यह नहीं होगा, चाहे मेरी गर्दन कटती हो तो कट जाए।
अगर दुनिया में थोड़े प्रेम का अनुभव हो तो युद्ध बंद हो जाएं। क्योंकि
कौन लड़े, कौन मारे? किसलिए लड़े, किसलिए मारे?
लेकिन युद्ध बंद हो जाएं तो राजनेता का क्या हो? युद्ध बंद हो जाएं तो शासन-सत्ताओं का क्या हो? युद्ध
बंद हो जाएं तो जो रुग्णचित्त लोग नेतृत्व कर रहे हैं, उनका
क्या हो? और अगर युद्ध बंद हो जाएं और आज्ञाकारिता के झूठे
दंभ टूट जाएं, लोग सोचें, विचारें,
फिर कदम उठाएं, लोग अपने प्रेम, अपने अनुभव से जीएं, तो इस दुनिया में हिंदुओं का
क्या होगा? मुसलमानों का क्या होगा? ईसाइयों
का क्या होगा? लोग होंगे, स्वतंत्र लोग
होंगे।
और स्वतंत्र व्यक्ति न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है,
न ईसाई होता है। स्वतंत्र व्यक्ति तो सिर्फ मनुष्य होता है।
स्वतंत्र व्यक्ति न भारतीय होता है, न पाकिस्तानी होता है,
न चीनी होता है, न अमरीकी होता है। स्वतंत्र
व्यक्ति तो केवल मनुष्य होता है। स्वतंत्र व्यक्ति तो कहेगा: सारी पृथ्वी हमारी है,
सारा अस्तित्व हमारा है। क्यों हम खंडों में बांटें? क्योंकि सब खंडों में बांटना आज नहीं कल युद्ध का कारण बनता है। लकीरें
खींचो, कि उस तरफ संगीनें खड़ी हो गईं और इस तरफ संगीनें खड़ी
हो गईं। फिर लकीरों को जरा यहां-वहां किसी ने पार किया कि बंदूकें चलीं। जब तक
जमीन के नक्शे पर लकीरें रहेंगी तब तक जमीन कभी शांति से नहीं जी सकती। प्रेम के
बिना शांति की कोई संभावना नहीं है।
इसलिए पहला सूत्र समझ लेना चाहिए कि हम जिसे प्रेम कहते हैं वह झूठा
प्रेम है। मैं जिसे प्रेम कह रहा हूं वह कोई और ही बात है। वह है तुम्हारे हृदय का
आविर्भाव। तुम जिसे प्रेम कहते हो वह है केवल मस्तिष्क का गणित, हिसाब-किताब।
सोहन, प्रेम तो जब भी होता है पूर्ण ही होता है। और तू
धन्यभागी है कि वैसे पूर्ण प्रेम की एक झलक तुझे मिली। इस जगत में बहुत कम लोग
इतने धन्यभागी हैं। और पूर्ण कभी घटता नहीं; पूर्ण तो और
पूर्ण से पूर्णतर होता चला जाता है। पूर्ण तो और आभायुक्त होता चला जाता है। पूर्ण
में तो और पंखुरियों पर पंखुरियां निकल आती हैं। पूर्ण ह्रास जानता ही नहीं,
सिर्फ विकास जानता है।
और निश्चित ही जब प्रेम का अनुभव होगा तो आंसुओं की झड़ी लगेगी। उस
आंसुओं की झड़ी के पीछे दो पहलू हैं। एक पहलू पीड़ा का है कि अब तक का जीवन व्यर्थ
था, कि अब तक जो जाना वह सही नहीं था, सत्य नहीं था। एक
पहलू पश्चात्ताप का, पीड़ा का, कि यह कल
क्यों न हुआ, परसों क्यों न हुआ? यह और
जल्दी क्यों न हुआ? इतनी देर क्यों हुई?
और एक पहलू अपूर्व आनंद का, कि जब हुआ तब भी
जल्दी है। आज हो गया, कौन निश्चय था कि आज ही होता! आज भी न
होता, यह भी हो सकता था। एक पहलू विषाद का, अतीत की तरफ; और एक पहलू उल्लास का, भविष्य की तरफ।
और आंसू आंखों से जरूर गिरते हैं, लेकिन आते तो हृदय से
हैं, उठते तो हैं हृदय से। जैसे मेघ उठते तो सागर में हैं,
बरसते पृथ्वी पर हैं--ऐसे ही प्रेम के आंसू उठते तो हृदय के सागर
में हैं, बरसते आंखों से हैं। आंखें तो केवल माध्यम हैं।
फिर, जितना ही प्रेम सघन होता है उतना ही जीवन की और सारी
चीजें व्यर्थ मालूम होने लगती हैं। जितना प्रेम का अनुभव प्रगाढ़ होता है, बस प्रेम की ही अहर्निश धुन लगी रहती है।
उमड़ता सावन, उमड़ती हैं घटाएं,
यह निगोड़े नैन
को क्या हो
गया है?
कह दिया शायद हमारा राज तुमने,
पीर से पाषाण पिघले जा रहे हैं;
इस तरह टूटा गगन से एक तारा,
चांद के, लो, प्राण ओंठों
आ रहे हैं;
बिलखता अंबर, बिलखती हैं दिशाएं,
आज की इस रैन को क्या हो गया है?
उमड़ता सावन, उमड़ती हैं घटाएं
यह निगोड़े नैन
को क्या हो
गया है?
पांव छू आए हमारे जिस डगर को,
धूल तक उसकी हुई है अगरू-चंदन;
पर जहां विश्राम करना चाहते हैं,
छांह तक देती
वहां की दाह-दंशन;
दहकता आंगन, दहकते द्वार, राहें,
यह अजाने चैन को क्या हो गया है?
उमड़ता सावन, उमड़ती हैं घटाएं,
यह निगोड़े नैन
को क्या हो
गया है?
एक ध्वनि है, जो न आती पास अपने,
एक प्रतिध्वनि, जो न पीछा छोड़ती है,
जिंदगी नाता जगत से, जागरण से,
राम जाने, तोड़ती या जोड़ती है;
जिंदगी नाता जगत से, जागरण से,
राम जाने, तोड़ती या
जोड़ती है;
बहकते हैं स्वर, बहकती हैं सदाएं,
यह हठीले बैन को क्या हो गया है?
उमड़ता सावन, उमड़ती हैं घटाएं,
यह निगोड़े नैन
को क्या हो
गया है?
मुस्कुराएं हम, चमन सब झूम जाए,
जोहती हैं बाट आने की बहारें;
आज सुधि शायद तुम्हें आई इधर की,
द्वार दस्तक दे
रहीं हल्की फुहारें;
सहमता उपवन, सहमती हैं हवाएं,
इस हठी उपरैन को क्या हो गया है?
उमड़ता सावन, उमड़ती हैं घटाएं,
यह निगोड़े नैन
को क्या हो
गया है?
पहली बार जब प्रेम की अनुभूति की बदली हृदय में घनी होती है तो जरूर
बहुत आंसू झरते हैं--आंसू, जो कि आंखों को ही नहीं स्वच्छ कर जाएंगे, बल्कि प्राणों को भी। आंसू, जो कि जीवन को, चैतन्य को, चैतन्य के दर्पण को धूल से मुक्त कर
जाएंगे। और ये आंसू ऐसे नहीं हैं कि चुक जाएं। इसलिए सोहन, वे
आज भी बह रहे हैं, वे बहते ही रहेंगे। उन्हीं आंसुओं के आनंद
में डूबी तुम इस संसार से विदा होगी। उन्हीं आनंद-अश्रुओं में डूबी, प्रार्थना से भरी, प्रेम से परिपूर्ण अगर इस संसार
से कोई विदा हो सके तो फिर लौटने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
पूर्णता का कोई भी अनुभव मुक्तिदायी है, फिर आवागमन नहीं है।
पांव छू आए हमारे जिस डगर को,
धूल तक उसकी
हुई है अगरू-चंदन;
प्रेम भरा व्यक्ति जहां चल जाए वहां धूल भी अगरू-चंदन हो जाती है।
पांव छू आए हमारे जिस डगर को,
धूल तक उसकी हुई है अगरू-चंदन;
पर जहां विश्राम करना चाहते हैं,
छांह तक देती
वहां की दाह-दंशन;
फिर इस संसार में कुछ भी भाता नहीं। इस संसार के पार की एक बूंद भी
कंठ में उतर जाए तो इस संसार में फिर कुछ भाता नहीं। फिर यहां कोई छाया नहीं है।
फिर यहां दंश ही दंश है। भक्तों की यही तो पीड़ा है, प्रेमियों की यही तो
उलझन है। उन्हें वह दिखाई पड़ गया है जो साधारणतः अदृश्य है। उन्हें भीनी-भीनी उसकी
महक आ गई है। और उसकी महक के आते ही यह सारा जगत दुर्गंधयुक्त हो जाता है।
श्री अरविंद ने कहा है: जब तक प्रकाश को, असली प्रकाश को नहीं जाना था, तब तक जिसे हम प्रकाश
जानते थे वह प्रकाश नहीं था, वह अंधेरा था। जब असली प्रकाश
को जाना तो पहचाना कि अब तक जो प्रकाश मान रखा था वह अंधेरा था। और जब असली जीवन
को जाना तो जाना कि जिसे अब तक जीवन जाना था वह जीवन नहीं था, केवल मृत्यु की एक लंबी शृंखला थी।
जैसे ही जीवन में अज्ञात की कोई किरण उतरती है, यह सारा जीवन एकदम असार मालूम होने लगता है। इस सारे जीवन के बीच रहते हुए
भी व्यक्ति असंलग्न हो जाता है, असंग हो जाता है।
इस असंगता को ही मैं संन्यास कहता हूं, सोहन। संन्यास यानी
कहीं भाग जाना नहीं, कोई पलायन नहीं। संन्यास यानी असंग भाव।
संन्यास यानी जानते हुए जीना कि यह जगत काफी नहीं है, सीढ़ियां
है, बस सीढ़ियां। मंदिर का शिखर दिखाई पड़ने लगे। और उस मंदिर
का शिखर प्रेमपूर्ण आंखों को ही दिखाई पड़ता है। प्रेम के अतिरिक्त उस मंदिर का
शिखर किसी को दिखाई नहीं पड़ता। उस प्रेम को ही चाहो श्रद्धा कहो; उस प्रेम को चाहे आस्था कहो, भाव-भक्ति कहो, जो नाम देना हो दो। लेकिन प्रेम बहुत प्यारा नाम है।
मेरा चुनाव प्रेम के लिए है। भक्ति कहो तो भक्ति थोड़ी सीमित हो जाती
है। फिर भक्ति सिर्फ भगवान की तरफ--संकरा रास्ता हो जाता है। भक्ति में इस जगत के
प्रति, इस जीवन के प्रति एक तरह का निषेध हो जाता है। प्रेम
में स्वीकार है। प्रेम में कीचड़ से लेकर कमल तक सभी कुछ स्वीकार है। प्रेम एक सीढ़ी
है जिसमें नीचे से नीचे सोपान हैं और ऊपर से ऊपर सोपान हैं। नीचे सीढ़ी के पैर
पृथ्वी पर अटके हैं और ऊपर का छोर आकाश से जुड़ा है। प्रेम विराट है--भक्ति से कहीं
ज्यादा विराट! भक्ति तो सिर्फ ऊपर के सोपान की बात है, आखिरी
छोर की; लेकिन प्रेम में पूरी सीढ़ी समाहित है।
मेरा चुनाव प्रेम के लिए है। क्यों?
एक सूफी फकीर बूढ़ा हो गया है। उसके बेटे को बेटा हुआ है। वह उस छोटे
से बेटे को लेकर फकीर के पास आया है। फकीर भी प्रसन्न है कि आज वह दादा बना। उसने
बेटे को गोद में ले लिया है। उसे बड़े प्यार से खिला रहा है। और तभी उसे भीतर एक
खयाल आता है कि मैं इस बेटे को इतना प्रेम दे रहा हूं, इतना आनंद-मग्न हूं, क्या मेरा यह प्रेम देना मेरी
ईश्वर भक्ति के पक्ष में है या विपक्ष में? जैसे ही उसे यह
खयाल आया उसने अपने नाती को धक्का देकर गोद से नीचे गिरा दिया।
उस बच्चे का बाप तो बहुत हैरान हुआ कि अभी आप इतने प्रेम से उसे थपथपा
रहे थे, फिर क्या हुआ?
उसने कहा, मुझे याद आया कि मैं इस बच्चे को प्रेम करने में
परमात्मा को भूल गया। इसे ले जाओ, इसे यहां से हटा लो। इसे
कभी यहां मत लाना। मेरे लिए यह बच्चा तो शैतान जैसा है।
मैं जब यह कहानी पढ़ रहा था तो मैंने सोचा, जो भक्ति इतनी संकीर्ण हो जाए, उस भक्ति से क्या कोई
मुक्त हो सकेगा? जो भक्ति इतनी ओछी हो जाए, इतनीर् ईष्यालु हो जाए, भगवान इतना छोटा पड़ जाए कि
उसमें यह बेटा भी न समा सके, तो यह भगवान का आकाश न हुआ,
यह किसी मस्जिद का आंगन हो गया, किसी मंदिर का
आंगन हो गया।
भगवान का प्रेम तो इतना बड़ा होना चाहिए कि और सारे प्रेम उसमें समा
जाएं, जैसे सागर में सारी नदियां समा जाती हैं। और सागर यह
भी तो नहीं कहता कि ऐ नदियो, मत गिरो मुझमें! न मालूम
कहां-कहां की गंदगियां लेकर तुम आती हो, न मालूम किन नगरों,
न मालूम किन रास्तों की धूल-धंवास, कूड़ा-कर्कट
लेकर तुम आती हो, मुझमें न समाओ! मुझे गंदा न कर देना!
नहीं, सागर सबको आत्मसात कर लेता है। सागर की क्षमता ऐसी है
कि जो उसमें गिरेगा वह पवित्र हो जाएगा। सागर अपवित्र नहीं होता।
ऐसे ही, परमात्मा की अगर सच में ही प्रार्थना जगी हो, प्रेम जगा हो, तो उस प्रेम के कारण तुम्हारे और
प्रेम खंडित नहीं होते, बल्कि पहली बार तुम्हारे और प्रेम भी
पूर्ण होने लगते हैं। पहली बार तुम्हारे और प्रेम भी सच्चे होने लगते हैं। पहली
बार तुम्हारे और प्रेम भी प्रामाणिक होने लगते हैं। फिर तुम पत्नी को इसलिए नहीं
चाहते कि वह पत्नी है, तुम्हारी है; बल्कि
इसलिए चाहते हो कि उसके भीतर भी परमात्मा प्रकट हुआ है। तुम बेटे को फिर इसलिए
नहीं चाहते कि वह तुम्हारा है; फिर इसलिए चाहते हो कि उसके
भीतर भी परमात्मा प्रकट हुआ है। फिर तो सब के भीतर परमात्मा प्रकट हुआ है--कौन
अपना, कौन पराया! एक का ही वास है।
इसलिए मैं भक्ति से भी मूल्यवान प्रेम शब्द को मानता हूं, क्योंकि प्रेम निषेध नहीं करेगा। भक्ति में डर है। भक्तों ने अक्सर निषेध
किया है। भक्त अक्सर डर गए हैं। और जो डर जाएं वे कोई भक्त हैं? जो भयभीत होकर अपने नाती को हटा दिया गोद से, यह
आदमी कभी परमात्मा को पा सकेगा? हालांकि यह सोच रहा है कि यह
पुण्य-कर्म कर रहा है। और सूफी इस कहानी को इस तरह लिखते हैं जैसे कि फकीर ने बहुत
अच्छा किया! बड़ी प्रशंसा से लिखते हैं। और जब मैं सूफी किताबों में इस तरह की
कहानियां देखता हूं तो एक बात पक्की हो जाती है कि जिसने भी यह किताब लिखी वह सूफी
नहीं है, उसे प्रेम का कोई पता नहीं है; पंडित होगा, लेकिन उसे जीवन के रहस्यों का कोई बोध नहीं
है।
सोहन, प्रेम तो पूर्ण है--इतना पूर्ण कि सारे अस्तित्व को
समा ले अपने में और फिर भी शेष रह जाता है। अस्तित्व छोटा पड़ जाता है, प्रेम इतना पूर्ण है। और जो पूर्ण है वह घटता नहीं, बढ़ता
ही जाता है। प्रेम के इस जगत में पूर्णिमा के बाद फिर चांद छोटा नहीं होता,
चांद रोज बड़ा होता जाता है, चांद ही चांद रह
जाता है। कंकड़-पत्थर भी चांद हो जाते हैं। सब तरफ चांदनी हो जाती है।
तू कहती है कि प्रेम की जो परिपूर्ण अवस्था उस दिन थी वही परिपूर्ण
अवस्था आज भी है।
ऐसा ही होना चाहिए। वैसा ही हुआ है। तू क्षण भर को भी नहीं डगमगाई है।
बहुत इस बीच मेरे पास आए हैं लोग और गए हैं, लेकिन एक क्षण को भी,
इंच भर को भी तू दूर नहीं हटी है।
मेरे साथ चलना आसान काम नहीं है। मुझसे प्रेम करना मंहगा सौदा है।
क्योंकि मुझसे प्रेम करने में तुम्हें न मालूम कितने नाते-रिश्ते, न मालूम कितने संबंध, न मालूम कितनी सांसारिक
औपचारिकताएं तोड़नी पड़ेंगी। लेकिन तूने सब आनंद से स्वीकार कर लिया है। यह तभी संभव
हो सकता है जब हीरा हाथ लगा हो, तो कंकड़-पत्थर छोड़ने में
किसको अड़चन होती है!
यहां तो बहुत लोग आएंगे और जाएंगे; राज तो उनके ही हाथ
लगेगा जो टिकेंगे, आने-जाने वालों के हाथ नहीं, यात्रियों के हाथ नहीं। आने-जाने वाले आते-जाते रहेंगे। उनकी भी जरूरत है।
हलन-चलन होता रहता है, गति होती रहती है। पानी रुकता नहीं,
ठहरता नहीं। उनका भी उपयोग है।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहा करता था...। उसके कहने के ढंग जरा कठोर
थे। वह आदमी जरा और ही ढंग का आदमी था। उसका बोलना ऐसा था जैसे कोई लट्ठ मार दे
सिर पर। किसी ने गुरजिएफ को पूछा, इतने लोग आते हैं, जाते हैं, उसमें से थोड़े से लोग टिकते हैं, इस संबंध में आपका क्या कहना है? तो उसने कहा,
तुम भोजन करते हो तो भोजन में नब्बे प्रतिशत तो रफेज होता है। दस
प्रतिशत पचता है, मांस-मज्जा बनता है, नब्बे
प्रतिशत तो मल-मूत्र से बाहर निकल जाता है। जो लोग आते-जाते रहते हैं, उसने कहा, उनकी भी जरूरत है--रफेज! अगर तुम सिर्फ
पौष्टिक आहार ही करोगे जिसमें रफेज नहीं है, तो तुम मुश्किल
में पड़ जाओगे। मल-मूत्र का निष्कासन कैसे होगा?
जरा कठोर भाषा है। गुरजिएफ की भाषा ऐसी ही थी। सीधी-सीधी बात कह देता
था; वैसी ही कह देता था जैसी कहनी चाहिए, बिना लाग-लगाव
के।
जो लोग कब्जियत से बीमार होते हैं, उनको हम क्या सलाह
देते हैं? उनको कहते हैं, पालक की
सब्जी लो, और सब्जियां लो, हरी
सब्जियां लो, कच्ची सब्जियां लो। क्यों? क्योंकि इनमें से अधिक पचेगा नहीं। इसमें अधिक कूड़ा-कर्कट है, घास-पात है। लेकिन वह घास-पात का वजन जरूरी है, ताकि
तुम्हारी अंतड़ियां साफ होती रहें। गुरजिएफ ने भी खूब उदाहरण लिया कि वे जो नब्बे
प्रतिशत लोग आते-जाते रहते हैं, वे सिर्फ अंतड़ियों को साफ
करने के लिए हैं, इससे ज्यादा उनका कोई मूल्य नहीं। मूल्य तो
उनका है जो टिक रहे हैं, जो हड्डी-मांस-मज्जा बने हैं।
सोहन, तू टिक रही और इतनी टिक रही कि अब तो जाने का सवाल ही
नहीं उठता। एक सीमा है, उसके पार जाने का सवाल नहीं उठता। एक
सीमा है जब पहचान ऐसी गहरी हो जाती है कि फिर जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है। एक
समझ है अंतरतम की। जो बुद्धि से ही मुझे समझते हैं, वे हो
सकता है आज नहीं कल चले जाएं। क्योंकि बुद्धि का कोई भरोसा नहीं। बुद्धि में कभी
कोई श्रद्धा उमगती ही नहीं। बुद्धि तो केवल गणित बिठालती रहती है। आज कोई बात
अच्छी लगी तो मेरे साथ हो गए, कल कोई बात अच्छी नहीं लगी तो
मेरा साथ छोड़ दिया। हृदय जानता है गहराइयां। हृदय बातों से नहीं जुड़ता, प्राणों से जुड़ता है। हृदय के सुनने का ढंग ही और है, समझने का ढंग और है। हृदय के तर्क ही कुछ और हैं, जिनको
बुद्धि न तो समझती है, न समझ सकती है। बुद्धि बिलकुल उपयोग
की चीज है बाहर के जगत में, मगर भीतर के जगत में बिलकुल
निरुपयोगी है, बोझ है, बाधा है,
दीवार है।
सोहन, तूने प्रेम से समझा, हृदय से
सुना। तूने समीप रहने की हिम्मत रखी। जब दूसरे छोड़ कर जा रहे थे तब भी तूने फिकर न
की। तेरा प्रेम परिपक्व हुआ। इसलिए प्रेम बढ़ता गया है, और-और
पूर्णतर होता गया है।
तूने कहा कि यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी और आश्चर्यजनक घटना मानती हूं।
है ही प्रेम जीवन की सबसे बड़ी और सबसे आश्चर्यजनक घटना। क्योंकि जिसको
प्रेम की नाव मिल गई, समझो कि उसको वह किनारा मिल गया। जिसको प्रेम की नाव
मिल गई अब दूसरा किनारा ज्यादा दूर नहीं।
तृण की तरी
तीर पर ठहरी,
पांथ
पार जो जाओ!
व्यर्थ धर्म नय पंथ, दर्शन मत,
यान ज्ञान--विज्ञान के महत
यह तृण तरणी
सीमा ही में लय
असीम तुम पाओ!
हरित-पंख तृण तरी क्षिप्रतर,
भव सागर अब और न दुस्तर,
नव आस्था में डूब
हृदय का
कल्मष भार डुबाओ!
सृजन गुहा की द्वार यह तरी,
प्राण चेतना ज्वार से भरी,
आर पार का भ्रम न वहां
तुम इसमें जहां समाओ!
तरी सिंधु, सब सिंधु ही तरी,
दृष्टि हृदय की हो जो गहरी
प्रति कण तीर;
काल-लहरों पर
शशि-कर नीड़ बसाओ
पांथ
पार जो जाओ!
नाव तेरे हाथ लग गई, अब दूसरा किनारा बहुत दूर नहीं
है, आधी यात्रा पूरी हो गई। तूने चाहा है कि यह प्रेम की
अवस्था मेरे जीवन के अंत समय तक रहे, ऐसा आशीर्वाद आपसे
चाहती हूं।
तू चाहे आशीर्वाद मांगे या न मांगे, आशीर्वाद तुझ पर बरस
ही रहा है। आशीर्वाद मांगने से थोड़े ही मिलता है, पात्रता से
मिलता है। अपात्र मांगे भी तो भी क्या किया जा सकता है? उसके
पास पात्र ही नहीं है जिसमें वह सम्हाल सकेगा आशीर्वाद। और अगर पात्र भी है तो
इतना गंदा है कि आशीर्वाद भी उसमें गिर कर अभिशाप हो जाएगा। जिनके पास पात्र है
उसमें आशीर्वाद बरसता ही है, मांगने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
बिन मांगे मोती मिलें, मांगे मिले न चून!
रहीम ठीक कहते हैं। पात्रता हो तो बस बिना मांगे मोती बरस जाते हैं। और तूने खूब
प्रमाण दिए हैं पात्र होने के। आशीर्वाद बरस ही रहा है। और जो आज तेरे साथ है वह
जीवन के अंतिम क्षण में तो बहुत गहन होकर साथ होगा। क्योंकि जीवन का अंतिम क्षण है
क्या? सारे जीवन का निचोड़, सारे जीवन
का इत्र, सारे जीवन के फूलों का इत्र! अगर आज तेरा सुंदर है
तो कल सुंदरतर होगा, परसों और सुंदरतर। और जिसका जीवन सुंदर
है, प्रेमपूर्ण है, आनंद-उल्लास से भरा
है, उत्सवपूर्ण है, उसकी मृत्यु भी
उत्सव होगी, महोत्सव होगी। क्योंकि मृत्यु है क्या? सारे जीवन की पराकाष्ठा! मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, जीवन की पूर्णाहुति है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, एक प्रश्न के उत्तर में आपने कहा कि पत्नी को दुख मत दो। संन्यास की जल्दी
न करो। अगर जल्दी करोगे, तो तुम ही मेरे और तुम्हारी पत्नी
के बीच एक दीवार बनोगे।
भगवान, ठीक यही मेरे साथ हुआ
है। आखिर पत्नी को साथ ले चलना इतना असंभव सा क्यों लगता है? क्या यह आकांक्षा ही गलत है?
अजित सरस्वती, आकांक्षा
गलत तो नहीं है, आकांक्षा तो ठीक ही है। क्योंकि तुम्हें
अमृत मिले और तुम पत्नी को आमंत्रित न करो, यह कैसे संभव
होगा? तुम्हारे जीवन में रसधार बहे और तुम पत्नी को छोड़ ही
दो एक किनारे, उपेक्षित, यह कैसे होगा?
जब तुम्हारे जीवन में नये का आविर्भाव होगा तो स्वाभाविक है कि
जिन्हें तुमने चाहा है, जिन्हें तुमने निकट पाया है, तुम
उन्हें भी निमंत्रित करो। तुम्हारा पत्नी को निमंत्रण देना एकदम स्वाभाविक है।
लेकिन स्वाभाविक होने से ही तो कुछ बातें पूरी नहीं हो जातीं। जीवन बहुत अटपटी
व्यवस्था है। जीवन कोई नियम से थोड़े ही चल रहा है--बड़ा बेबूझ है!
इसीलिए तो कबीर कहते हैं: एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आगि। नदी में आग लगी हुई है। होना नहीं चाहिए, स्वाभाविक नहीं है; मगर जीवन अचंभों से भरा है।
इनमें सबसे बड़ा अचंभा यह है: तुमने जिसे चाहा है, तुम जरूर
चाहोगे कि तुम्हारे जीवन में आनंद आए तो उसे भी तुम भागीदार बनाओ। मगर यही अड़चन बन
जाएगी। नदिया लागी आगि! मुश्किल हो जाएगा।
पति पत्नी को अगर लाना चाहे किसी दिशा में तो कठिनाई शुरू हो जाती है, क्योंकि यह नाता ही कुछ हमने गलत ढंग का निर्मित किया है। यह नाता ही गलत
है। यह आकांक्षा तो सही है, मगर पति-पत्नी का नाता
अस्वाभाविक है। चौंकोगे तुम मेरी बात सुन कर। यह आकांक्षा स्वाभाविक, लेकिन पति-पत्नी का नाता अस्वाभाविक है। मनुष्य को छोड़ कर और तो कहीं कोई
पति-पत्नी नहीं होते। मनुष्य ने ही यह संस्था ईजाद की है।
संस्थाओं में जीना जरा कठिन काम है। क्योंकि संस्थाएं नियम से चलती
हैं; और संस्थाएं दमन से चलती हैं। और सब संस्थाओं में कुछ
न कुछ हिंसा होती है। संस्था मात्र हिंसा पर निर्भर होती है। इसलिए सबसे बड़ी
संस्था, राज्य, शुद्ध हिंसा पर खड़ी है।
हालांकि तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। अगर कोई आदमी चोरी करता है तो हमें हिंसा दिखाई
पड़ती है; और चौरस्ते पर खड़ा हुआ पुलिस का सिपाही बंदूक लिए
खड़ा है, हमें हिंसा नहीं दिखाई पड़ती। अगर राज्य किसी को
फांसी की सजा देता है तो हमें हिंसा नहीं दिखाई पड़ती। और अगर कोई आदमी किसी को मार
डाले तो हिंसा। हमने राज्य की हिंसा को स्वीकार कर लिया है। हमने मान ही लिया है
कि वह ठीक है।
संस्थागत हिंसा को हम सदा से स्वीकार करते रहे हैं। तुम्हारे बच्चे को
अगर स्कूल में शिक्षक पिटाई कर देता है तो बिलकुल ठीक है। लेकिन कोई दूसरा आदमी
रास्ते में तुम्हारे बच्चे को मार दे, तो चाहे कितना ही ठीक
कारणों से मारे, तुम लड़ने पहुंच जाओगे। लेकिन शिक्षक ने मार
दिया, तो तुम कहोगे, शिक्षक नहीं
मारेगा तो क्या करेगा? बिना मारे कहीं ज्ञान आया है? मारने से विद्या छम-छम करती आती है।
संस्थागत हिंसा स्वीकार हो जाती है।
मैं रायपुर में एक घर में रहता था। पड़ोस में एक सज्जन अपनी पत्नी को
मार रहे थे। मैं उठा और मैंने उनको कहा कि बस अब रुक जाओ, काफी हो गया। मैंने सोचा था कम से कम पत्नी तो मुझे धन्यवाद देगी। लेकिन
पत्नी ने भी मुझसे क्या कहा, मालूम है--कि आप बीच में बोलने
वाले कौन होते हैं? पत्नी ने मुझसे कहा! वही पिट रही थी! कि
आप बीच में बोलने वाले कौन होते हैं? ये मेरे पति हैं! यह
पति-पत्नी का मामला है। आप जाइए।
संस्थागत हिंसा इतनी स्वीकृत हो जाती है कि वह जो पिट रहा है वह भी
संस्थागत हिंसा को समादर देता है। पति-पत्नी का नाता मौलिक रूप से अस्वाभाविक है।
इसका कोई भविष्य नहीं है। जैसे ही आदमी थोड़ा और सुसंस्कृत होगा, पति-पत्नी का हिसाब दुनिया से विदा हो जाने वाला है, देर-अबेर विदा होगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि स्त्री-पुरुष प्रेम नहीं
करेंगे। प्रेम करेंगे; और प्रेम करेंगे तो साथ भी रहेंगे;
लेकिन उनका साथ रहना स्वेच्छा होगी, कोई कानूनी
बंधन नहीं। असल में जहां बंधन है वहां प्रतिशोध पैदा होता है।
अजित सरस्वती, तुम्हारी पत्नी बंधन अनुभव करती होगी। सभी की
पत्नियां अनुभव करती हैं। पति भी अनुभव करते हैं--पति, जो कि
ज्यादा ताकतवर हैं; जिन्होंने कि स्त्रियों को बिलकुल गुलाम
बना कर रखा है। मगर स्त्रियां भी बदला लेती हैं; जहां ले
सकती हैं, जितना ले सकती हैं, उतना
बदला लेती हैं। और सब तरफ से तो हमने उनको पंगु कर दिया है, लेकिन
कुछ बातों में तो वे इनकार कर सकती हैं। अब जैसे मेरे पास तुम अगर पत्नी को लाना
चाहो...।
मुझे पूना आए पांच वर्ष हो गए। अजित सरस्वती, जो लोग मेरे बहुत समीप हैं, उनमें से एक हैं;
जिनको मैं अपने गणधर कहूं, उनमें से एक हैं;
जिन्होंने मुझे गहराई से समझा है, उनमें से एक
हैं; जो मेरी बात को लोगों तक कभी पहुंचाने में समर्थ हो
जाएंगे, उनमें से एक हैं। स्वभावतः पत्नी को तुम लाना चाहोगे।
मगर और तरह से तो पत्नी तुम्हारी स्वामित्व की जो व्यवस्था है उसको नहीं तोड़ सकती,
मगर ऐसी बातों में तो तोड़ सकती है। वह कहेगी कि वहां हमें नहीं जाना
है। मैं तो मंदिर जाऊंगी, मंदिर काफी है। मैं तो गीता पढूंगी
या रामायण पढूंगी। मुझे तो परंपरागत धर्म पर्याप्त है। मुझे कोई नये विचारों में
रस नहीं है। तुम्हें जाना है, तुम जाओ।
यह प्रतिरोध है, यह प्रतिशोध है। अन्यथा अगर पति
इतना आनंदित हो रहा है--और तुम आनंदित हुए हो, शांत हुए
हो--तुम्हारी पत्नी को यह दिखाई नहीं पड़ेगा तो किसको दिखाई पड़ेगा? सब दिखाई पड़ रहा है, लेकिन फिर भी अहंकार उसका
रोकेगा। पत्नी और पति का संबंध इतना अस्वाभाविक है, इसीलिए
उसमें इतनी कलह है। चौबीस घंटे छोटी-छोटी बातों में कलह है। वे बातें महत्वपूर्ण
नहीं हैं। बच्चे के लिए कौन सा खिलौना खरीदना है, इस पर झगड़ा
हो जाता है। जैसे झगड़े की तलाश ही चलती है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन को उल्लू पालने का अजीब शौक सूझा।
शौक तो शौक ही हैं और शौक तो अजीब ही होते हैं। और फिर मुल्ला तो उलटी खोपड़ी का
आदमी है। कोई मोर को पाले, समझ में आए; उसको उल्लू पालना। वैसे उल्लू प्रतीक है--सिर्फ भारत को छोड़ कर सारी
दुनिया में--ज्ञान का। क्योंकि उसको रात में दिखाई पड़ता है, अंधेरे
में दिखाई पड़ता है। जिसको अंधेरे में दिखाई पड़े, अब और क्या
ज्ञान का इससे महत्वपूर्ण प्रतीक हो सकता है! उल्लू तो समझो महर्षि। अंधेरे तक में
दिखाई पड़ता है! इसलिए सारी दुनिया में--भारत को छोड़ कर--सारी दुनिया में उल्लू
ज्ञान का प्रतीक है।
एक दिन वह बाजार से उल्लू खरीद कर एक पिंजरे में घर ले आए। मालूम है, उल्लू को देख कर उनकी पत्नी क्या बोली? उसने कहा,
कान खोल कर सुन लो जी! इस घर में दो उल्लू नहीं रहेंगे, एक ही रहेगा! तय कर लो, या तो यह उल्लू रहेगा या तुम,
दो में से एक ही रह सकता है। एक को ही सह रही हूं, यही काफी है।
और यह मत तुम सोचना कि उल्लू के लाने की वजह से यह हुआ। मैं तुमसे
कहता हूं, अगर मुल्ला नसरुद्दीन मोर भी लाया होता तो भी यही
होता, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये तो बहाने हैं।
पति-पत्नी को झगड़ते हुए बहुत देर हो गई थी, तो एक पड़ोसी ने पति से पूछा, भाई, आखिर झगड़ा किस बात का है? पति ने पत्नी की ओर इशारा
करके कहा, मुझसे क्या पूछते हो, इन्हीं
से पूछ लो। पत्नी ने झल्ला कर कहा, तीन घंटे से भी ज्यादा हो
गए, अब तक क्या मुझे याद रहेगा कि मैंने किस बात के लिए झगड़ना
शुरू किया था?
झगड़े के लिए झगड़ा चल रहा है। जैसे कला के लिए कला! लोग कहते हैं न, आर्ट फॉर आर्ट्स सेक! ऐसा पति-पत्नी के बीच जो झगड़ा चल रहा है, वह झगड़े के लिए झगड़ा है। कहीं कुछ घाव हैं भीतर जो एक-दूसरे ने एक-दूसरे
पर आरोपित कर दिए हैं। उन घावों की सीधी-सीधी बात नहीं हो सकती, क्योंकि वह नियम के प्रतिकूल है बात करना।
पति पत्नियों को समझाते रहे हैं कि पति परमात्मा है। चूंकि सभी
शास्त्र पुरुषों ने लिखे। स्त्रियों को न तो पढ़ने दिया; जब पढ़ने ही नहीं दिया तो लिखने का तो सवाल कहां! तो सभी शास्त्र पुरुषों
ने लिखे, इसलिए स्त्री नरक का द्वार है! और पति? पति परमात्मा है! जिन मूढ़ों ने ये बातें लिखी होंगी उनको यह भी खयाल नहीं
है कि अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रहे हो! खुद को पत्नी से पुजवाने की आकांक्षा! तो
फिर पत्नी पूजती है--दोनों अर्थों में! औपचारिक रूप से दिखाने के लिए पहला अर्थ
पूजा का--चरण छूती है, थाल सजाती है, आरती
उतारती है। वह दूसरों को दिखाने के लिए। और जैसे ही दूसरे गए कि रखी उसने आरती एक
तरफ और असली पूजा शुरू की।
स्त्री और पुरुष के साथ अब तक न्याय नहीं हो सका है। दोनों के सोचने, समझने, जीने के ढंग अलग हैं। दोनों की जीवन पर पकड़
अलग है।
मनोवैज्ञानिक अब इस खोज पर पहुंचे हैं कि मनुष्य के भीतर दो मस्तिष्क
हैं, एक मस्तिष्क नहीं। हमारे दाएं हाथ से बाएं हिस्से का
मस्तिष्क जुड़ा है। बाएं हिस्से का जो मस्तिष्क है वह पुरुष है। और इसीलिए दाएं हाथ
को हमने श्रेष्ठता दे दी है--दायां हाथ ब्राह्मण और बायां हाथ शूद्र! अंग्रेजी में
तो कहावत है: राइट इज़ राइट एंड लेफ्ट इज़ रांग। क्योंकि दायां हाथ पुरुष का प्रतीक
है। वह जो बायां मस्तिष्क है वह दाएं हाथ से जुड़ा है। बायां मस्तिष्क तर्क करता है,
गणित बिठाता है, व्यवसाय चलाता है, विज्ञान की खोज करता है, आक्रामक है, हिंसक है, राजनीतिक है। और बाएं हाथ से जुड़ा है
दायां मस्तिष्क; वह स्त्रैण है। वहां काव्य का जन्म होता है,
सौंदर्य की अनुभूति होती है, प्रेम का
आविर्भाव होता है। वहां गणित नहीं है, तर्क नहीं है; वहां अनुभूति है, भावना है। इन दोनों मस्तिष्कों के
बीच अब तक हम ठीक-ठीक सेतु नहीं बिठा पाए।
स्त्री और ढंग से सोचती है, पुरुष और ढंग से
सोचता है; उनके बीच वार्तालाप भी संभव नहीं है। हां, यदि प्रेम से संबंध हुआ हो तो शायद वार्तालाप संभव हो सके; और अगर प्रेम पर ही संबंध निर्भर हो और तब तक ही संबंध रहे जब तक प्रेम है,
तो वार्तालाप संभव है। लेकिन अगर प्रेम की जगह हम कानून को बिठा
लेते हैं और प्रेम तो एक तरफ हट जाता है या प्रेम होता ही नहीं, विवाह एक सामाजिक संस्था होती है, करना चाहिए इसलिए
कर लेते हैं, मां-बाप चुन लेते हैं, जन्मकुंडली
मिला लेते हैं, तो फिर तालमेल कभी भी बैठ नहीं पाएगा,
सुरबद्धता नहीं हो पाएगी।
प्रेमी ने प्रेमिका से कहा, प्रिये, जब मैं तुम्हें देखता हूं, तब मेरा दिल तेजी से
धड़कने लगता है। दिमाग संज्ञा-शून्य हो जाता है। गला सूख जाता है।
तुम प्रेम प्रदर्शित कर रहे हो या अपनी बीमारियां बता रहे हो? उसे रोकते हुए प्रेमिका ने कहा।
ध्यान रखना, जब तुम किसी स्त्री से बात कर रहे हो और वह स्त्री
अगर तुम्हारी पत्नी है तो बहुत ध्यान रखना। एक-एक शब्द का ध्यान रखना। अगर किसी
पुरुष से तुम बात कर रही हो और वह पुरुष तुम्हारा पति है, तो
एक-एक शब्द का ध्यान रखना। क्योंकि दो जगत, दो बिलकुल विपरीत
जगत करीब खड़े हैं; नासमझी सुगमता से हो जाएगी, समझदारी बहुत मुश्किल है। और इसलिए पति-पत्नी झगड़ते ही रहते हैं, झगड़ते ही रहते हैं। झगड़ा ही जैसे उनका संबंध हो जाता है! और अगर झगड़ा कभी
बंद भी होता है तो वह तभी बंद होता है जब दोनों थक चुके, ऊब
चुके--यानी अब उन्होंने प्रेम की आशा भी छोड़ दी।
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि पति-पत्नी अगर झगड़ रहे हैं तो उसका अर्थ
है कि अभी उनको आशा है कि कोई रास्ता निकल आएगा। और अगर उन्होंने झगड़ा बंद कर दिया
तो उसका मतलब यह है कि अब उन्होंने आशा भी छोड़ दी; रास्ता निकलने वाला
नहीं, अब स्वीकार ही कर लेना ठीक है; जो
है और जैसा है, ठीक है।
फिल्म चल रही थी। अचानक पर्दे पर दहाड़ता हुआ एक शेर प्रकट हुआ, तो एक सज्जन बौखला कर अपनी सीट से उठ खड़े हुए। साथ बैठे उनके मित्र ने कहा,
क्या आप शेर से डर गए?
जी नहीं, उन सज्जन ने कहा, बीबी की याद आ
गई। अब मुझे घर चलना चाहिए, काफी देर हो गई है।
ऐसी ही दशा है। और ये व्यंग्य और ये लतीफे झूठे नहीं हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात घर से भाग गया। पत्नी ने इतना सताया! कहीं
जगह न मिली; सराय बंद, होटलों में जगह नहीं।
सर्कस ठहरा हुआ था गांव में, तो सोचा कि जाकर सर्कस में ही
सो जाऊं। वहां भी कोई जगह न मिली, सिर्फ शेर के पिंजड़े का
दरवाजा खुला छूट गया था। सो वह अंदर होकर, दरवाजा बंद करके,
शेर की पीठ का तकिया बना कर सो रहा।
सुबह उसकी पत्नी निकली उसे खोजने। थोड़ी रिमझिम बूंदाबांदी हो रही थी, सो छाता लगा कर गई। सारे गांव में चक्कर लगाया, कहीं
न मिला। पुराने अड्डे सब देख डाले, कहीं न मिला। अब सिर्फ
सर्कस बचा था तो वह सर्कस में गई, वहां देखा तो वह घर्राटे
ले रहा है। तो उसने छाता सींकचों के भीतर से डाल कर उसको हुद्दा दिया और कहा कि
अरे कायर, शर्म नहीं आती यहां सो रहा है!
वह सिंह के साथ सोने को राजी और पत्नी उसको कायर कह रही है कि अरे
कायर, अरे भगोड़े! घर चल तो तुझे मजा चखाऊं! घर जाने में डर
रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी काफी मोटी और काली, जब कि वह स्वयं दुबले-पतले! उनमें किसी बात को लेकर अक्सर झगड़ा हुआ करता।
ऐसे ही जब एक बार झगड़ा हुआ और काफी शोर-शराबा हुआ तो उनके एक मित्र उनकी सहायता के
लिए आ पहुंचे। वह उन्हें समझाने की खातिर बोले, नसरुद्दीन,
पति-पत्नी तो एक गाड़ी के दो पहिए होते हैं। गाड़ी सही ढंग से चलती
रहे, इसलिए चाहिए कि दोनों पहियों में लड़ाई न हो। नसरुद्दीन
ने कहा कि ठीक कहते भाईजान! मगर अगर गाड़ी का एक पहिया ट्रक का और दूसरा साइकिल का
हो, तो गाड़ी कैसे चलेगी?
कोई गाड़ी चलती नहीं मालूम पड़ रही, सब गाड़ियां खड़ी हैं।
गाड़ी शब्द का अर्थ सोचते हो? गाड़ी का मतलब, जो गड़ी है। बड़ा मजेदार शब्द है! क्यों हम चलती हुई चीज को गाड़ी कहते हैं?
पता नहीं किसने यह गहरी सूझ खोजी! शायद पति-पत्नी की गाड़ी को देख कर
ही यह खयाल आया होगा। चलती तो है ही नहीं, गड़ी है बिलकुल;
इंच भर नहीं चलती, जहां के तहां गड़ी है। मगर
कहते हैं गाड़ी। और यह भी कहते हैं कि चलती का नाम गाड़ी!
अजित, तुम्हारी आकांक्षा तो अशुभ नहीं, अस्वाभाविक भी नहीं, पर पत्नी के साथ नाता
अस्वाभाविक है। इसलिए मैं तुमसे कहूंगा, तुम यह फिकर ही छोड़
दो। क्योंकि तुम्हारी फिकर, उसे लाने की चेष्टा, उसे मुझसे जोड़ने का तुम्हारा उपाय, बाधा ही बनेगा।
वह इसी को मुद्दा बना लेगी अपने अहंकार की घोषणा का। यह ही संघर्ष का कारण हो
जाएगा। तुम यह बात ही छोड़ दो। तुम बिलकुल भूल ही जाओ। इस बात को ही बीच में न आने
दो। मेरा नाम भी पत्नी के सामने मत लेना।
अजित दूसरे तरह के उपाय करते रहते हैं। वह कहीं टेप लगा देते हैं, कि पत्नी सुने, कुछ तो उसको अकल आए। मगर इस तरह कोई
पति कभी किसी पत्नी को अकल नहीं ला पाया है; और न कोई पत्नी
कभी किसी पति को अकल ला पाई है। यहां पत्नियां भी हैं, उनके
भी साथ वही दिक्कत है--पति आने को राजी नहीं। पति, और पत्नी
के पीछे आए! उसके अहंकार को चोट लगती है। पति, और यह मान ले
कि पत्नी ने खोज लिया सदगुरु! असंभव। और वही स्थिति पत्नियों की भी है। सभी
पत्नियां समझती हैं कि उनके पतियों से ज्यादा बुद्धू और कोई भी नहीं। कहें न कहें,
लेकिन भीतर उनकी समझ यही है, अंतरतम समझ यही
है।
इसलिए बेहतर यही है कि अगर कोई पति यहां आ गया है तो पत्नी को लाने की
जरा भी चेष्टा न करे। आकांक्षा उठेगी; पी जाना उस आकांक्षा
को। मत चेष्टा करना। तो शायद पत्नी उत्सुक हो जाए। तुम बात ही मत उठाना। तुम्हारी
तरफ से कोई प्रयास न हो तो एक संभावना है उसके आने की। तुम्हारा प्रयास, और उसका विरोध निश्चित हो जाएगा। जीवन बड़ा अटपटा है! यहां निषेध निमंत्रण
बन जाते हैं।
मेरे एक मित्र हैं, वकील हैं। वकील हैं तो वकील के
ढंग से सोचते हैं। नया मकान बनाया उन्होंने, तो उनकी दीवाल
के आस-पास बैठ कर कुछ लोग पेशाब कर जाते। तो उन्होंने दीवाल पर बड़े-बड़े अक्षरों
में लिखवा दिया कि यहां पेशाब करना मना है। तब से तो बड़ा उपद्रव हो गया। वहां से
जो निकले वही पेशाब करे। वे मुझसे कहने लगे, यह भी हद हो गई
बात! पहले कुछ लोग करते थे, और अब तो यहां से जो निकलता है
वह छोड़ता ही नहीं।
मैंने कहा, वह जो तुमने लिखवा रखा है इतने बड़े-बड़े अक्षरों में,
उसको देख कर किसी को भी याद आ जाती होगी कि भाई कर ही लो। और चूंकि
दीवाल पर तुमने लिख रखा है और नीचे कई जगह पहले पेशाब किए हुए लोगों के निशान बने
हैं, तो वह सोचता होगा कि यह मामला क्या है, स्थान करने योग्य है। तुम यह तख्ती मिटा दो।
तो उन्होंने कहा, फिर क्या करूं? मैंने कहा, तुम यहां लिख दो कि यहां से जो बिना
पेशाब किए जाएगा वह अपने असली बाप का बेटा नहीं है। उन्होंने कहा, और मारे गए! लोग मेरे घर में घुस कर करने लगेंगे। मैंने कहा कि तुम लिखो
तो--सावधान, यहां पेशाब करना ही पड़ेगा!
और उन्होंने लिखा। और जो उसको पढ़े कि सावधान, यहां पेशाब करना ही पड़ेगा! लोग ऐसे ही गुजरने लगे, बिना
पेशाब किए। ऐसे कोई करवा सकता है! यह किसकी आज्ञा! क्या समझ रखा है इस वकील के
बच्चे ने! हम कोई इसकी आज्ञा मानेंगे!
निषेध निमंत्रण बन जाता है। तुम देखते हो, रास्ते से अगर कोई बुरका ओढ़े हुए स्त्री निकल जाए तो सब झांक-झांक कर
देखने लगते हैं। चाहे बुरके के भीतर स्त्री हो या न हो, कोई
पाकिस्तानी जासूस हो तो भी चलेगा, मगर लोग झांक-झांक कर
देखने लगते हैं। छिपी हुई चीज को उघाड़ने का मन हो जाता है।
अजित, तुम मुझे छिपा लो। तुम बिलकुल मेरी बात ही मत करो।
तुम्हारी पत्नी बात भी छेड़े यहां-वहां से--छेड़ेगी वह--तुम टाल ही जाना। तुम दूसरी
बातें करना, मेरी बात ही मत करना। तो शायद उत्सुकता जगे। तो
उसे लगे कि शायद हीरा हाथ लग गया। अब छिपा रहे हो, मुझे
बताना नहीं चाहते, मुझे भागीदार नहीं बनाना चाहते!
जिंदगी बड़ी उलटी है। और इस जिंदगी के उलटे नियमों को समझ ले जो वही
जीवन को रूपांतरित करने में सफल हो सकता है, अन्यथा नहीं।
तीसरा प्रश्न: भगवान, जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है?
जीवन तो कोरा कागज है; जो लिखोगे वही पढ़ोगे।
गालियां लिख सकते हो, गीत लिख सकते हो। और गालियां भी उसी
वर्णमाला से बनती हैं जिससे गीत बनते हैं; वर्णमाला तो
निरपेक्ष है, निष्पक्ष है। जिस कागज पर लिखते हो वह भी
निरपेक्ष, निष्पक्ष। जिस कलम से लिखते हो, वह भी निरपेक्ष, वह भी निष्पक्ष। सब दांव तुम्हारे
हाथ में है। तुमने इस ढंग से जीया होगा, इसलिए व्यर्थ मालूम
होता है। तुम्हारे जीने में भूल है। और जीवन को गाली मत देना।
यह बड़े मजे की बात है! लोग कहते हैं, जीवन व्यर्थ है। यह
नहीं कहते कि हमारे जीने का ढंग व्यर्थ है! और तुम्हारे तथाकथित साधु-संत, महात्मा भी तुमको यही समझाते हैं--जीवन व्यर्थ है।
मैं तुमसे कुछ और कहना चाहता हूं। मैं कहना चाहता हूं: जीवन न तो
सार्थक है, न व्यर्थ; जीवन तो निष्पक्ष है;
जीवन तो कोरा आकाश है। उठाओ तूलिका, भरो रंग।
चाहो तो इंद्रधनुष बनाओ और चाहो तो कीचड़ मचा दो। कुशलता चाहिए। अगर जीवन व्यर्थ है
तो उसका अर्थ यह है कि तुमने जीवन को जीने की कला नहीं सीखी; उसका अर्थ है कि तुम यह मान कर चले थे कि कोई जीवन में रेडीमेड अर्थ होगा।
जीवन कोई रेडीमेड कपड़े नहीं है, कोई सैमसन की दुकान
नहीं है, कि गए और तैयार कपड़े मिल गए। जिंदगी से कपड़े बनाने
पड़ते हैं। फिर जो बनाओगे वही पहनना पड़ेगा, वही ओढ़ना पड़ेगा।
और कोई दूसरा तुम्हारी जिंदगी में कुछ भी नहीं कर सकता। कोई दूसरा तुम्हारे कपड़े
नहीं बना सकता। जिंदगी के मामले में तो अपने कपड़े खुद ही बनाने होते हैं।
जीवन व्यर्थ है, ऐसा मत कहो। ऐसा कहो कि मेरे
जीने के ढंग में क्या कहीं कोई भूल थी? क्या कहीं कोई भूल है
कि मेरा जीवन व्यर्थ हुआ जा रहा है?
बुद्ध का जीवन तो व्यर्थ नहीं। जीसस का जीवन तो व्यर्थ नहीं। मोहम्मद
का जीवन तो व्यर्थ नहीं। कैसा अर्थ खिला! कैसे फूल! कैसी सुवास उड़ी! कैसे गीत जगे!
कैसी मृदंग बजी! लेकिन कुछ लोग हैं कि जिनके जीवन में सिर्फ दुर्गंध है। और मजा
ऐसा है कि जो तुम्हारे जीवन में दुर्गंध बन रही है वही सुगंध बन सकती है--जरा सी
कला, जीने की कला!
मैं धर्म को जीने की कला कहता हूं। धर्म कोई पूजा-पाठ नहीं है। धर्म
का मंदिर और मस्जिद से कुछ लेना-देना नहीं है। धर्म तो है जीवन की कला। जीवन को
ऐसे जीया जा सकता है--ऐसे कलात्मक ढंग से, ऐसे प्रसादपूर्ण ढंग
से--कि तुम्हारे जीवन में हजार पंखुरियों वाला कमल खिले, कि
तुम्हारे जीवन में समाधि लगे, कि तुम्हारे जीवन में भी ऐसे
गीत उठें जैसे कोयल के, कि तुम्हारे भीतर भी हृदय में
ऐसी-ऐसी भाव-भंगिमाएं जगें, जो भाव-भंगिमाएं प्रकट हो जाएं
तो उपनिषद बनते हैं; जो भाव-भंगिमाएं अगर प्रकट हो जाएं तो
मीरा का नृत्य पैदा होता है, चैतन्य के भजन बनते हैं!
इसी पृथ्वी पर, इसी देह में, ऐसी ही
हड्डी-मांस-मज्जा के लोग ऐसा-ऐसा सार्थक जीवन जी गए--और सतीश तुम पूछते हो,
जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है?
मौसम आ कर
झूठे रिश्ते-नाते जोड़ गया।
अब गुलाब की पंखुड़ियों सा
बिखरा यहां-वहां
इंद्रधनुष की तरह उजाला
टूटा जहांत्तहां
हम को एक अंधेरे
गलियारे में छोड़ गया।
कालिख पुती हो गई सारी
गुड़हल सी शामें
खुली आंख से देखा तो
हम थे बबूल थामे
यह अनुभव किश्तों में
फिर से हम को तोड़ गया!
जरा आंख खोल कर देखो, कहीं अंधेरे में आंख बंद किए
बबूल को तो नहीं पकड़ लिया है? और सोचते हो इसमें गुलाब के
फूल लगेंगे! फिर कांटे छिदें तो कसूर किसका है? कहीं बबूल की
छाया में तो नहीं बैठे हो? बबूल की कहीं कोई छाया होती है?
फिर धूप घनी होगी, लहू पसीना बन कर बहेगा,
तो यह मत कहना कि दुनिया की गलती है। यहीं वट-वृक्ष भी थे, जिनके नीचे बहुत छाया थी। मगर तुमने खोजे नहीं। यहीं झरने भी थे, जहां प्यास तृप्त होती। आत्मा की प्यास तृप्त होती! मगर तुम मरुस्थलों में
भटकते रहे। मरुस्थलों में भी छिपे हैं मरूद्यान, जरा खोजो!
तुम्हारे भीतर ही सारी खोज होनी है।
जो व्यक्ति ध्यान-रहित जीएगा उसका जीवन व्यर्थ होगा, असार होगा। जो व्यक्ति ध्यान-सहित जीएगा उसका जीवन सार्थक होगा। जीवन न तो
व्यर्थ होता न सार्थक, ध्यान पर सब निर्भर है। ध्यान है राज।
ध्यान है कुंजी।
लेकिन सदियों-सदियों से यही शिक्षा दी गई है कि जैसे जीवन में कोई बना
बनाया अर्थ रखा है, जो तुम्हें अपने आप मिल जाएगा।
अपने आप नहीं मिलेगा। बस ढो लोगे बोझ को और मर जाओगे एक दिन। कब्र
मिलेगी, अर्थ नहीं मिलेगा। अर्थ तो बड़ी जागरूकता से मिलता है।
अर्थ तो निर्मित करना होता है, सृजन करना होता है। अर्थ के
लिए तो स्रष्टा होना होता है।
सतीश, लेकिन तुम्हें जो लोग शिक्षा दे रहे हैं, जिन पंडित-पुरोहितों ने, महात्माओं ने तुम्हें
समझाया है, उनको खुद भी नहीं मिला था अर्थ, सो वे कहते हैं जीवन व्यर्थ है। और तुम्हें भी यह बात जंच जाती है,
क्योंकि तुम्हें भी नहीं मिला है। और तुम्हें बात बिलकुल प्रामाणिक
मालूम होने लगती है, क्योंकि तुम्हारे आस-पास जो लोग हैं
उन्हें भी नहीं मिला है। लेकिन वे सभी बैठे रास्ता देख रहे हैं कि गिर पड़ेगा अर्थ
कहीं से। ऐसे नहीं होगा।
जैसे मूर्तिकार मूर्ति गढ़ता है, इंच-इंच तोड़ता है
पत्थर को, सम्हाल कर, सम्हल कर। बड़ी
मुश्किल से मूर्ति निर्मित हो पाती है। और जितनी महान कृति निर्मित करनी हो उतनी
मुश्किल हो जाती है।
जीवन को निखारने की कला सीखो। कोई गीता पढ़ रहा है, कोई रामायण रट रहा है, कोई कुरान कंठस्थ किए बैठा
है--और सोच रहा है जीवन में अर्थ नहीं मिल रहा है!
अरे पागलो, कुरान कंठस्थ करने से नहीं कुछ होगा; कुरान जन्माना होगा! तुम जब परमात्मा से गर्भित होओगे, जब तुम्हारे गर्भ में परमात्मा पैदा होगा, जब तुम
परमात्मा को अपने गर्भ में ढोओगे वर्षों तक, तब तुम्हारे
भीतर कुरान पैदा होगा; तब तुम्हारे शब्दों में आयतें उतरेंगी;
तब तुम्हारा शब्द-शब्द सुगंध लाएगा आकाश की; तब
तुम बन जाओगे सेतु पृथ्वी और आकाश के बीच।
लेकिन हम बड़ी सस्ती शिक्षाओं के आधार पर जी रहे हैं। जिनके पास कुछ
नहीं है उनसे हम शिक्षाएं ले रहे हैं। तुम जरा सोचो, तुम किससे शिक्षाएं
ले रहे हो? बैठ गए कोई धूनी रमा कर, लीप-पोत
ली राख ऊपर, और तुम चले शिक्षा लेने कि बाबा जी गांव में आए
हैं! और तुम्हारे आधार क्या हैं इनको स्वीकार करने के? क्योंकि
बाबा जी धूनी रमाए हैं, राख लपेटे हुए हैं, जटा बढ़ाए हैं; दिन में एक बार भोजन करते हैं;
कि सिर्फ गऊ का दूध ही पीते हैं, दुग्धाहारी
हैं; या कि कपड़ा नहीं पहनते हैं, नग्न
बैठे हैं; धूप-धाप आती है, कोई चिंता
नहीं, बड़े त्यागी हैं!
मगर इन सब बातों से जीवन की कला का कोई भी संबंध नहीं। यह तो ऐसा ही
समझो कि एक आदमी राख लपेट कर बैठ जाए और तुम कहो कि यह देखो, यह आदमी बड़ा चित्रकार है! क्यों? क्योंकि देखो राख
लपेटे बैठा है! यह आदमी बड़ा संगीतज्ञ है! क्यों? क्योंकि
देखो धूनी रमाए बैठा है!
धूनी रमाने से संगीतज्ञ का क्या लेना-देना? संगीतज्ञ धूनी रमाएगा क्यों? कोई धूनी रमाने से वीणा
ज्यादा मधुर बजेगी? यह आदमी उपवास करता है, इसलिए बहुत बड़ा कवि है--ऐसा तो तुम कभी नहीं कहते। और उपवासा आदमी अगर
कविता भी करेगा तो उसकी कविता में होगा क्या? भूख होगी,
रोटी होगी, साग-सब्जी होगी, चटनी होगी, इस तरह की चीजें होंगी।
जर्मनी का प्रसिद्ध कवि हेन, जंगल में भटक गया एक
बार, तीन दिन तक भूखा रहना पड़ा। फिर पूर्णिमा की रात को जब
चांद निकला, उसने ऊपर देखा, बहुत हैरान
हुआ। जिंदगी भर उसने चांद पर कविताएं लिखी थीं; उस दिन बहुत
चौंका, क्योंकि सारी कविताएं गलत हो गईं। अब तक वह चांद में
देखता था सुंदर-सुंदर स्त्रियों के चेहरे, रम्य चेहरे,
प्रेयसियों के चेहरे। आज चांद में क्या दिखाई पड़ा? एक डबल रोटी आकाश में तैर रही है! उसने आंखें मीड़ कर फिर से देखा कि मुझे
कुछ भूल तो नहीं हो रही, डबल रोटी! मगर भूखे आदमी को अगर तीन
दिन के बाद चांद में डबल रोटी न दिखाई पड़े तो क्या दिखाई पड़े?
तुम कवि की इसलिए तो प्रशंसा नहीं करते कि यह भूखा है, उपवासा रहता है, लंगोटी पहनता है, जंगल में रहता है, घर-द्वार छोड़ दिया--इसलिए महाकवि
है! नहीं, तुम कवि को उसकी कविता से आंकते हो। धर्म भी
व्यक्ति के आनंद से मापा जाना चाहिए, और किसी आधार पर नहीं;
उसके जीवन की अर्थवत्ता से मापा जाना चाहिए, और
किसी आधार पर नहीं।
मगर तुम उन लोगों से शिक्षा ले रहे हो, जिनके जीवन में न कोई
अर्थ है, न आनंद है। अब मैं जानता हूं तुम्हारे सारे
महात्माओं को। करीब-करीब सभी महात्माओं से मेरा मिलना हुआ है। जैन महात्मा और
हिंदू महात्मा और मुसलमान फकीर--सब मुर्दों की तरह; जीवन में
न कोई उल्लास है। हो भी कैसे उल्लास? लेकिन ये सूखे-साखे लोग,
आत्मघाती लोग, रुग्ण-चित्त लोग, स्वयं को दुख देने में रस लेने वाले लोग--इनसे तुम शिक्षाएं ले रहे हो?
इनसे तुम जीवन में अर्थ खोजने चले हो?
सतीश, ऐसे अर्थ नहीं मिलेगा। पहले यह तो पूछ लो कि इन्हें
मिला है अर्थ? जरा इनको गौर से तो देखो, इनकी आंखों में तो झांको! वहां दीये जल रहे हैं?
ग्राहक ने दुकानदार से पूछा, गेहूं का क्या भाव है?
गेहूं किस भाव बेच रहे हैं आप?
दुकानदार ने उत्तर दिया, एक सौ चालीस रुपये
क्विंटल।
ग्राहक बोला, लेकिन सामने वाला दुकानदार तो एक सौ पच्चीस रुपये
क्विंटल में बेच रहा है।
तो उस दुकानदार ने चिढ़ कर कहा, तो जाओ, वहीं से ले लो! यहां मेरा सिर क्यों खाने आए?
ग्राहक बोला, लेकिन उसके पास आज हैं नहीं।
तब दुकानदार ने समझाया कि जिस दिन मेरे पास नहीं होते, मैं सौ रुपये क्विंटल बेचता हूं।
जरा पूछ तो लिया करें कि उनके पास हैं भी? जो तुम खरीदने चले हो, जिन हीरों की तुम्हें तलाश है,
वे उनके पास हैं भी?
नहीं, लेकिन तुमने तो न मालूम कैसी-कैसी गलत आधारशिलाएं बना
रखी हैं! तुमने अब तक धर्म को गलत परिभाषाएं दी हैं। और उसके कारण सारा जगत परेशान
हो रहा है। कोई अपनी आंखें फोड़ लेता है, इस डर से कि अगर
आंखें रहेंगी तो रूप दिखाई पड़ेगा, रूप दिखाई पड़ेगा तो रूप की
वासना पैदा होगी।
आंखें फोड़ने के पहले कुछ दिन पहले आंख पर पट्टी बांध कर बैठ कर तो देख
लेना था कि आंख पर पट्टी बांधे रहो तब भी वासना पैदा होती है। असल में और ज्यादा
पैदा होती है। और बंद आंखों में स्त्रियां जितनी सुंदर दिखाई पड़ती हैं उतनी खुली
आंखों से कभी दिखाई नहीं पड़तीं। दूर के ढोल सुहावने होते हैं! और जो स्त्रियों के
संबंध में सच है वही पुरुषों के संबंध में सच है।
लेकिन किसी ने अगर आंखें फोड़ लीं तो हम कहते हैं: अहा, यह रहा महात्मा!
अब इससे तुम शिक्षा लोगे, ज्यादा से ज्यादा
तुम्हारी आंखें फुड़वाएगा, और क्या करेगा! कोई ने अपना शरीर
सुखा लिया। तुम इससे शिक्षा लोगे, तुम्हें सुखाएगा, और क्या करेगा? और अगर न सुखा पाएगा तो कम से कम
तुम्हारे मन में ग्लानि और अपराध का भाव तो पैदा कर ही देगा। भोजन करने बैठोगे तब
ऐसा लगेगा, पाप कर रहे हो।
अगर जैन मुनि की बातें सुनीं तो भोजन करते समय लगेगा कि पाप कर रहे
हो। क्योंकि जैन मुनि सिखा ही यह रहा है कि उपवास, उपवास, उपवास। अगर जैन मुनि की बातें सुनीं तब तो दतौन करना भी पाप मालूम पड़ेगा,
क्योंकि जैन मुनि दतौन नहीं करता। दांतों का क्या सजाना है! इस देह
में क्या रखा है! यह देह तो कूड़ा-कबाड़ है, मल-मूत्र है,
इसमें है ही क्या!
जैन मुनि स्नान नहीं करता। अगर जैन मुनि के पास ज्यादा दिन रहे, स्नान करोगे, लगेगा कि बड़ा पाप कर रहे हैं, नरक का रास्ता खोल रहे हैं! नहा-नहा कर नरक जाओगे। और लक्स टायलेट साबुन
वगैरह से तो बिलकुल दूर रहना, नहीं तो नरक बिलकुल सुनिश्चित
है। लक्स टायलेट साबुन लगाई कि फिसले नरक की तरफ! जितनी अच्छी साबुन उतने जल्दी
फिसले!
तुम किस तरह के लोगों से शिक्षा ले रहे हो, सतीश?
जिन्हें जीवन में अर्थ मिला नहीं उनसे शिक्षा ले रहे हो। इससे तो
बेहतर हो वृक्षों से पूछो। इससे तो बेहतर हो फूलों से पूछो। इससे तो बेहतर हो
पहाड़ों, चांदत्तारों से पूछो। कुछ चमक तो है, कुछ रौनक तो है, कुछ गंध तो है, कुछ गीत तो है! शायद वहां से तुम्हें ज्यादा ठीक-ठीक संदेश मिल जाएगा
परमात्मा का। परमात्मा वहां अभी ज्यादा जीवित है; तुम्हारे
महात्माओं में तो बिलकुल मर गया है।
एक सज्जन मुझसे पूछते थे, क्या आप मानते हैं
परमात्मा सब जगह है?
मैंने कहा, सब जगह है, केवल महात्माओं को
छोड़ कर। क्योंकि महात्मा उसको भीतर ही नहीं घुसने देते। महात्मा इतने सिकुड़ गए हैं
कि जगह ही नहीं।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक नीग्रो ने स्वप्न देखा कि जीसस ने उसे
पुकारा है। लेकिन उस गांव में जो चर्च था वह सफेद चमड़ी वालों का था। वे घुसने नहीं
देंगे अंदर। यह तो बड़ी अजीब दुनिया है! यहां चमड़ियों से तय होता है, रंगों से तय होता है! और ऐसा मत सोचना कि ऐसा अमरीका में, यूरोप में ही हो रहा है; हमने भी अपने देश में लोगों
को वर्णों में बांटा है। वर्ण का अर्थ होता है रंग। ऐसा लगता है, काले-कलूटे लोगों को हमने शूद्रों में डाल दिया होगा। वे जो शूद्र थे वे
इस देश के नीग्रो थे। हमारे शास्त्रों में जो राक्षसों की कथाएं हैं, वे कुछ नहीं हैं, वे सिर्फ काले रंग के लोगों की
कथाएं हैं, दक्षिण के लोगों की कथाएं हैं। इसलिए दक्षिण में
अगर रामायण का विरोध है तो कुछ आश्चर्य नहीं; विरोध होना ही
चाहिए। क्योंकि दक्षिण के संबंध में रामायण में जरूर भद्दी बातें हैं।
उस नीग्रो को डर तो बहुत लगा कि जाने भी देंगे सफेद चमड़ी के लोग अंदर? लेकिन फिर भी गया। उसने सुन रखा था कि पादरी बहुत सहृदय है। कम से कम
पादरी दिखलाते तो हैं कि सहृदय हैं, होते तो नहीं। क्योंकि
सहृदय होकर पादरी होना असंभव है। वे बातें दोनों साथ-साथ नहीं चल सकतीं। कुछ बातें
हैं जो साथ-साथ चलती ही नहीं। लेकिन इस आशा में गया नीग्रो, गया
रात जब कोई न हो चर्च में। दरवाजा खटखटाया, पादरी बाहर आया।
अब पादरी को बड़ा संकोच हुआ। नीग्रो ने कहा, मुझे स्वप्न में
जीसस ने पुकारा। अब यहां गांव में और तो कोई जीसस का मंदिर नहीं है, मुझे भीतर आने दें। मुझे पूजा करने दें, मुझे
प्रार्थना करने दें।
अब पादरी क्या कहे! ऊपर से तो सहृदयता दिखानी ही है। मुस्कुराया और
कहा कि बहुत अच्छा हुआ जीसस ने दर्शन दिया। लेकिन इस चर्च में प्रवेश के कुछ नियम
हैं। तीन महीने शुद्ध जीवन जीओ; न क्रोध करना, न कामवासना, न लोभ; फिर आना।
यह शर्त पहली बार ही लगाई गई। सफेद चमड़ी वाले लोग जो आते थे, उनके लिए यह शर्त नहीं थी। नहीं तो एक नहीं आ सकता था वहां। आने की तो बात
ही क्या, पादरी को खुद ही बाहर रहना पड़ता। मगर पादरी ने यह
आशा रखी कि न यह पूरी कर पाएगा...कौन पूरा कर पाया है! न काम, न लोभ, न क्रोध--तीन महीने! एकाध दफे भी हो जाएगा,
बस खत्म; न शर्त होगी पूरी, न यह दुबारा आएगा, न झंझट उठेगी; अपनी सहृदयता, अपना सदभाव भी बचा और अपना धर्म भी
बचा। और यह काली चमड़ी के मूरख से छुटकारा भी मिला, इसको भी
कहां जीसस सपने में दिखाई पड़े! जीसस को भी क्या सूझी! इतने सफेद चमड़ी वाले लोग,
इनको छोड़ कर इसके सपने में गए।
महीना बीतने के करीब हुआ, एक सांझ पादरी द्वार
पर खड़ा था चर्च के और देखा कि वह नीग्रो आ रहा है। पादरी ने कहा, मारे गए। उस नीग्रो को देख कर ही उसे लगा कि उसने शर्तें पूरी कर ली हैं।
उसके चेहरे पर एक आभा! उसके चलने में एक प्रसाद! उसका करीब आना ही इतना शांतिपूर्ण
कि लगा पादरी को कि अब झंझट हुई! दिखता है इसने शर्तें पूरी कर लीं। अब मैं मुसीबत
में पडूंगा।
लेकिन वह नीग्रो आकर कोई सौ कदम दूर रुक गया रास्ते पर, खिलखिला कर हंसा और लौट गया। पादरी को बड़ी हैरानी हुई कि यह क्या मामला
हुआ! बड़ी जिज्ञासा उठी, भागा, नीग्रो
को पकड़ा कि भई सुन तो! आना तेरा, फिर चौरस्ते पर खड़े होकर
मुझे देखना, फिर खिलखिला कर हंसना, यह
क्या मामला है? क्या मजाक? और फिर लौट
जाना! बात क्या है?
उसने कहा कि कल रात जीसस मुझे फिर सपने में दिखाई पड़े। और उन्होंने
कहा, सुन, नाहक उस चर्च में जाने की
कोशिश मत कर, वे तुझे घुसने नहीं देंगे। तू शर्तें कितनी ही
पूरी कर, वे नयी शर्तें लगा देंगे। शर्तों में से कुछ और
शर्तें निकाल लेंगे। वे तुझे घुसने नहीं देंगे। तो मैंने पूछा कि लेकिन मैं जब सब
शर्तें पूरी कर दूंगा, फिर क्यों नहीं घुसने देंगे? उन्होंने कहा, अब तू मानता ही नहीं मेरी तो मैं तुझे
सच्ची बात बता दूं। वे मुझे नहीं घुसने देते, तुझे क्या खाक
घुसने देंगे! मैं कितने दिनों से कोशिश कर रहा हूं कि भई मुझे भीतर आने दो,
मेरा ही चर्च! मगर वे मुझे भीतर नहीं आने देते।
जीसस के नाम पर समर्पित चर्च में जीसस नहीं हैं; और मोहम्मद के नाम पर समर्पित मस्जिद में मोहम्मद नहीं हैं; और कृष्ण के मंदिर में कोई और भला मिल जाए, कृष्ण
नहीं मिलेंगे।
तुम्हारे महात्माओं को छोड़ कर और सब जगह परमात्मा है, क्योंकि तुम्हारे महात्मा उसे भीतर ही नहीं घुसने देते। तुम्हारे महात्मा
तो ऐसे अकड़ कर बैठे हैं कि कोई घुसना भी चाहे तो कैसे घुसे! तुम्हारे महात्माओं का
परमात्मा से कोई संबंध नहीं हो पाता, उनके जीवन में कोई अर्थ
नहीं है। और उनसे ही तुम सीखोगे। कुछ चीजें हैं जो साथ-साथ नहीं हो सकतीं--महात्मा
और परमात्मा साथ-साथ नहीं हो सकते। परमात्मा को पाने के लिए तो बिलकुल मिट जाना
होता है; कहां के महात्मा, कहां के साधु,
कहां के संत, सब समाप्त हो जाता है।
सीखो जीवन को अर्थ देना। जीवन को, उठाओ तूलिका और रंगो।
इसीलिए मेरा यह जो बुद्ध-क्षेत्र है, यहां गीत है, गायन है, नृत्य है, मस्ती है।
क्योंकि हम यहां जीवन की कला, जीवन में चार चांद जोड़ने की
चेष्टा कर रहे हैं। यहां तथाकथित धर्म नहीं सिखाया जा रहा है; यहां धर्म की एक नयी अवधारणा हो रही है, एक नया
अवतरण हो रहा है। धर्म--जो उत्सवपूर्ण हो!
मेरे संन्यासी को मैं नाचता-गाता हुआ व्यक्तित्व देना चाहता हूं; उदास नहीं, उदासीन नहीं; उल्लासपूर्ण,
उमंगपूर्ण, उत्साहपूर्ण, जीवंत! हंसते हुए चलना है उसके द्वार की तरफ, रोते
हुए क्या! और अगर कभी रोओ भी तो तुम्हारे आंसू हंसते हुए होने चाहिए, तो ही स्वीकार हो सकेंगे।
जीवन व्यर्थ मालूम होता है, क्योंकि तुमने उसे अब
तक, सतीश, सार्थक बनाने की कोई चेष्टा
नहीं की है। जीवन व्यर्थ नहीं है, सिर्फ तुम्हें सजग होना है,
तुम्हें ध्यानपूर्ण होना है, तुम्हें
प्रार्थनापूर्ण होना है--और जीवन में अर्थ पर अर्थ प्रकट होते जाते हैं। अर्थ पर
अर्थ, जैसे शिखरों पर शिखर, अंतहीन
शिखर प्रकट होते हैं। जीवन अपूर्व है! मगर तुम्हारी समझ की गहराई पर सब निर्भर
करेगा।
एक डाक्टर ने, जो एक छोटे से बच्चे की जांच कर रहा था, उससे पूछा, बेटे, तुम्हें
नाक-कान से कोई शिकायत तो नहीं?
उस बच्चे ने कहा, जी है! वे कमीज उतारते समय बीच
में आते हैं।
बच्चे की समझ बच्चे की ही समझ होगी। तुम्हारी समझ बचकानी है, सतीश।
अमरीका के एक व्यक्ति ने शादी के केवल एक सप्ताह बाद तलाक की दरखास्त
दी और कारण लिखा: जिस समय मैंने शादी की, मेरे चश्मे का नंबर
गलत था।
सतीश, तुम्हारे चश्मे का नंबर गलत है। तुम चश्मे का नंबर
बदलो। अच्छा तो यह हो कि तुम चश्मा उतार कर ही रख दो। तुम खुली, दृष्टि-शून्य आंखों से देखो, दर्शन-मुक्त आंखों से
देखो, तो तुम्हें बहुत अर्थ दिखाई पड़ेगा। पृथ्वी बड़ी
रहस्यपूर्ण है। पृथ्वी पर परमात्मा इतना सघन रूप से उतरा है!
आखिरी प्रश्न: भगवान, मैं आपके संदेश के लिए सभी कुछ समर्पित करने को राजी हूं। जीवन तो जाना ही
है, बस इतनी ही आकांक्षा है कि आपके किसी काम आ जाऊं।
पात्रता तो कुछ भी नहीं है, पर आपके प्रति अगाध प्रेम अवश्य
है।
प्रदीप, वही पात्रता है। प्रेम
पात्रता है। और क्या पात्रता? अगर प्रेम अगाध है, तो जो चाहिए वह मौजूद है।
और तुम ठीक कहते हो: जीवन तो जाना ही है। इसलिए जीवन की तरफ कोई पकड़
नहीं होनी चाहिए। और जीवन अगर किसी काम आ जाए तो इससे शुभ और क्या होगा! और जीवन
अगर परमात्मा की वाणी को गुंजाने के काम आ जाए तो धन्यभागी हो, बड़भागी हो। अगर तुम बुझ भी जाओ लोगों को जगाने में, अगर
तुम राख भी हो जाओ, तो भी फिकर नहीं, तुम्हारी
राख भी गीत गुनगुनाएगी। तुम्हारा न होना भी लोगों को जगाने के काम आएगा। तुम्हारी
मृत्यु भी लोगों को अमृत की तरफ ले चलेगी।
शुभ आकांक्षा है। ऐसी ही आकांक्षा प्रत्येक संन्यासी की होनी चाहिए।
और कुछ देर में, जब फिर मेरे तन्हा दिल को
फिक्र आ लेगी कि तन्हाई का क्या चारा करे
दर्द आएगा दबे पांव, लिए सुर्ख चिराग
वो जो इक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे
शोलए-दर्द जो पहलू में लपक उठेगा
दिल की दीवार पे हर नक्श दमक उठेगा
हल्कए-जुल्फ कहीं, गोशा-ए-रुख्सार कहीं
हिज्र का दश्त कहीं, गुलशने-दीदार कहीं
लुत्फ की बात कहीं, प्यार का इकरार कहीं
दिल से फिर होगी मेरी बात कि ऐ दिल ऐ दिल
ये जो महबूब बना है तेरी तन्हाई का
ये तो मेहमां है घड़ी भर का, चला जाएगा
इससे कब तेरी मुसीबत का मुदावा होगा
मुश्तइल हो के कभी उठेंगे वहशी साये
ये चला जाएगा, रह जाएंगे बाकी साये
रात भर जिन से तेरा खून-खराबा होगा
जंग ठहरी है, कोई खेल नहीं है ऐ दिल
दुश्मने-जां हैं सभी, सारे के सारे कातिल
ये कड़ी रात भी, ये साये भी, तन्हाई भी
दर्द और जंग में कुछ मेल नहीं है ऐ दिल
लाओ सुलगाओ कोई जोशो-गजब का अंगार
तैश की आतिशे-जर्रार कहीं से लाओ
वो दहकता हुआ गुलजार कहीं से लाओ
जिसमें गर्मी भी है, हरकत भी, तवानाई
भी
हो न हो अपने कबीले का भी कोई लश्कर
मुन्तजिर होगा अंधेरे की फसीलों के उधर
इनको शोलों के रजज अपना पता तो देंगे
खैर, हम तक न वो पहुंचें भी, सदा तो
देंगे
दूर कितनी है
अभी सुबह, बता तो
देंगे
अगर गिर भी गए कहीं राह में, मिट भी गए कहीं राह
में, तो कोई फिकर नहीं।
इनको शोलों के
रजज अपना पता
तो देंगे
पीछे जो लोग आ रहे हैं, उनको पता तो देंगे कि
एक और राह भी है, एक और यात्रा भी है!
खैर, हम तक न वो पहुंचें भी, सदा तो
देंगे
दूर कितनी है
अभी सुबह, बता तो
देंगे
अगर गिर गए तो मील के पत्थर बन जाओगे। और इससे ज्यादा आनंद की क्या
घड़ी हो सकती है कि परमात्मा के मार्ग पर तुम मील के पत्थर बन जाओ!
जीवन तो जाएगा, व्यर्थ भी जा सकता है, अधिक
लोगों का व्यर्थ ही जाता है। लेकिन अगर तुमने जीवन को परमात्मा को समर्पित किया;
अपने को सब भांति उसके हाथों में छोड़ दिया, और
कहा, जो तेरी मर्जी हो कर! तो जरूर तुमसे संदेश उठेगा।
तुम्हारी श्वासों से परमात्मा काम लेगा। तुमसे उसकी बांसुरी बजेगी।
लेकिन तुम बिलकुल मिट जाओ तो ही बांसुरी बज सकती है, अन्यथा तुम बीच में बाधा बन जाओगे। उसके स्वर तुमसे बह सकते हैं अगर तुम न
रहो तो। और जहां तुम नहीं हो वहीं परमात्मा है।
प्रदीप, ऐसा ही हो जैसा तुम चाहते हो! ऐसा ही होना चाहिए;
न केवल तुम्हारे जीवन में, वरन प्रत्येक
संन्यासी के जीवन में। संन्यास परमात्मा का संदेश न बन सके तो संन्यास ही नहीं है।
आज इतना ही।
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