देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो
सत्रहवां प्रवचन
असली अपराधी: राजनीतिज्ञ
आज तक आपने जो किया है, उसका मिशन क्या-क्या
है--आपका उद्देश्य क्या है? महाबलेश्वर शिविर में मैं आ चुका
हूं।
दोत्तीन
बातें हैं। हमारे समाज की और हमारे देश की एक जड़ मनोदशा है, जहां
चीजें ठहर गई हैं, बहुत समय से ठहर गई हैं। उनमें कोई गति
नहीं रह गई। कोई दो ढाई हजार वर्ष से हम सिर्फ पुनरुक्ति कर रहे हैं। दो ढाई हजार
वर्ष से हमने नये का स्वागत बंद कर दिया है, पुराने की ही
पुनरुक्ति कर रहे हैं। तो मेरे काम का पहला हिस्सा पुराने की पुनरुक्ति को तोड़ता
है। और पुराने की पुनरुक्ति का हमारा मन टूटे, तो ही हम नये
के स्वागत के लिए तैयार हो सकते हैं, वह दूसरा हिस्सा है। तो
पहला तो पुराने को पकड़ने की हमारी जो आकांक्षा है, और जो नये
का भय है, ये दो हिस्से हैं। पुराने को तोड़ देने का और नये
के स्वागत के लिए मार्ग खोलने का।
पुराने
की पकड़ के कारण ही हम विज्ञान को जन्म न दे पाए। यद्यपि पृथ्वी पर सबसे पहले हम ही
थे, जिन्होंने विज्ञान की शुरुआत की थी, लेकिन हम वह
नहीं हैं जो कि उसको अंत तक ले जा सके। हम बहुत शुरू किए और रुक गए। जगत में जितनी
भी खोजे हैं, उन सबके बीज हमने शुरू किए, लेकिन फल कोई काट रहा है। तो कहीं कुछ भूल हो रही है और दृष्टि में जो भूल
हो रही है, वह यह हो रही है कि वैज्ञानिक अनुसंधान निरंतर
पुराने को इनकार करने और नये की खोज करने से विकसित होता है। अगर एक बार हम पुराने
को पूरी तरह स्वीकार कर लें, तो नये के खुलने के लिए अवकाश
नहीं रह जाता है। तो वैज्ञानिक हम न हो पाए, इस वजह से।
दूसरी, इसी तरह
वजह से--शायद हमारी धरती पृथ्वी पर सबसे ज्यादा साधन संपन्न है, लेकिन हम दरिद्र रह गए, क्योंकि टेक्नालॉजी तो सदा
नई है और हमारे पास चित्त जो है पुराने को दोहराने वाला है। तो जो टेक्नालॉजी को
पैदा कर सके, वह संपत्ति को पैदा कर पाए। हम बुरी तरह पिछड़
गए।
तीसरी
बात, जो पुराने की ही पकड़ के कारण पैदा हो गई, यह है कि
जो हमें उपलब्ध हो गया था, उसे हम संतोष बना लिया, स्वभावतः। अगर हम असंतोष रखें उसके साथ तो हमें रोज नये को खोजना पड़े। तो
हमने एक गरीब संतोष की स्थिति बना ली। संतोष अगर बहुत गहरा हो जाए, तो मौत का पर्यायवाची हो जाता है। क्योंकि जीवन की ऊर्जा तो असंतोष से गति
करती है। तो यह जो हमने स्टेटिक सोसाइटी बनाई है, मेरा मिशन
आप कह सकते हैं कि एस्केपिज्म का यह, अवरोध का यह, गति के रुक जाने का जहां-जहां मुझे जो-जो कारण दिखाई पड़ता है, वहां-वहां चोट करूंगा। यह विध्वंसात्मक हिस्सा हुआ। यह विध्वंस का हिस्सा
हुआ, यह एक पहलू है।
जैसे
ही यह पकड़ ढीली हो जाती है,
वैसे ही नये आयाम, नये डायमेंशन, कहां-कहां विकसित हों, कैसे विकसित हों उसकी चिंता,
उसका विचार, उसका तर्क, उसकी
खोज शुरू होती है। अब जैसे, मुझे दिखाई देता है कि पुराने का
मोह जो है, वह समाज को विश्वासी बनाता है, बिलीवर बनाता है। बिलीफ जो है, वह स्टेटिक सोसाइटी
पैदा करता है। और डाउट जो है, वह डायनामिक सोसाइटी पैदा करता
है। अगर हम शक कर सकें, संदेह कर सकें, तो अनिवार्य रूप से डायनामिक सोसाइटी हो, पर कारण है
संदेह के साथ जीना मुश्किल है, समाधान चाहिए ही। तो जैसे ही
संदेह करते हैं, हमें वही स्थिति पैदा करनी पड़ती है जो
समाधानकारी हो। तो संदेह रोज नई स्थिति पैदा करने को मजबूर करता है। अगर हम फिर नई
स्थिति को पैदा करके विश्वासी हो जाएं, तो फिर नई स्थिति,
फिर कल पुरानी हो जाती है और पकड़ लेती है। इसलिए सतत संदेह में जीना
और सतत पुराने को नष्ट करना और नये को जन्म देना, तो विश्वास
को तोड़ना पहला हिस्सा होगा, और संदेह दूसरा सृजनात्मक हिस्सा
होगा कि उसे हम पैदा करें।
अब
जैसे कि दो तरह की शिक्षा हो सकती है--एक शिक्षा जो विश्वास पैदा करवाती हो। एक
शिक्षा जिसका आधार संदेह पर खड़ा हो, जो संदेह पैदा करवाती हो। शिक्षक
भी सहयोगी होता हो, बाप भी सहयोगी होता हो, परिवार भी सहयोगी होता कि हम बच्चे के संदेह को कितना मुक्त करे सकें।
जितना हम संदेह को मुक्त कर सकें, उतनी बड़ी प्रतिभा पैदा
होती है। क्योंकि संदेह के साथ रुका नहीं जा सकता है, आगे
बढ़ना पड़ेगा। और तत्काल किसी ऊंचे तल पर फिर से विश्वास को पैदा करना पड़ेगा,
हालांकि पैदा करते ही विश्वास छोड़ने योग्य हो जाता है।
तो
विश्वास की एक कीमत है कि वह पुराने संदेह को एक टघनग पॉइंट, एक पैसेज
है। विश्वास जो है, वह ठहरने की जगह नहीं है, मुकाम नहीं है, यात्रा पथ है। तो हमने विश्वास को
मुकाम बना रखा है। इसलिए हम ठहर गए हैं। संदेह जो है, वह सतत
सहयोगी है। और रोज हमें पैर उठाना पड़ेगा संदेह का और रोज नये विश्वास पैदा करने
पड़ेंगे और रोज उन्हें डिस्कार्ड भी करना पड़ेगा।
तो
एक तो मन के तल पर समस्त दिशाओं में--चाहे वह धन की हो, चाहे धर्म
की, चाहे विज्ञान की, चाहे राजनीति की,
जहां-जहां विश्वास है, वहां-वहां चोट करने की
मेरी आकांक्षा है। और जहां-जहां विश्वास है, वहां-वहां संदेह
को जन्म देने की भी आकांक्षा है। स्वभावतः, क्योंकि हम
विश्वासी हैं और बहुत गहरे विश्वासी हैं, इसलिए हमें यह पूरी
प्रक्रिया विध्वंसात्मक और डिस्ट्रक्टिव मालूम होती है। क्योंकि हम एक पुरानी चीज
में इस बुरी तरह पकड़ गए हैं कि आज कोई भी नई चीज बनाने का संदेह भी हमें तत्काल
ऐसा लगता है कि पुराने को छोड़ना पड़ेगा। और वह हमें विध्वंसक मालूम होता है। लेकिन
मेरी अपनी समझ है कि सृजन के दो कदम हैं--विध्वंस पहला कदम है और सृजन दूसरा कदम
है।
और
तीसरा पालन का?
पालन
जो है, वह तो सृजन का हिस्सा है। लेकिन हम किसी भी चीज को दो तरह से पाल सकते
हैं। विश्वास की तरह से और संदेह की तरह से। और इन दोनों के फर्क को समझ लेना
जरूरी है। विज्ञान भी पालन करता है, लेकिन निरंतर अपने संदेह
को जीवित रखते हुए।
एक
वैज्ञानिक है,
वह यह नहीं कहेगा...अभी आइंस्टीन के मरने भर पहले किसी ने पूछा था
कि आप एक वैज्ञानिक में और एक धार्मिक में क्या फर्क करते हैं? तो आइंस्टीन ने कहा कि मैं यह फर्क करता हूं कि धार्मिक से सौ सवाल आप
पूछें तो वह एक सौ एक जवाब को सदा तैयार है। और वैज्ञानिक से आप सौ सवाल पूछें तो
निन्यानबे को तो वे इनकार कर देंगे कि हमें मालूम नहीं है। एक का हम जवाब देंगे,
वह भी इस भरोसे से देंगे कि अब तक इतना मालूम है। कल ज्यादा हो सकता
है, इसलिए हम अपने संदेह को किसी भी स्थिति में समाप्त नहीं
कर देते। हमारा विश्वास भी संदेहपूर्ण है।
इसको
जो है, पालन तो करना ही पड़े, क्योंकि जिंदगी अगर जीनी है,
तो निपट अविश्वास में नहीं जी जा सकती है। उसे तो विश्वास में ही
जीना पड़ेगा। लेकिन विश्वास में जीते हुए निरंतर संदेह को जागरूक रखा जा सकता है।
तब हम किसी भी बिलीफ को एब्सल्यूट नहीं बनाते। तब सब बिलीफ रिलेटिव हो जाते हैं।
यानी हम कहते हैं कि इसे मानता हूं, लेकिन यह मेरा मानना जो
है, रिलेटिव है और अब तक जो मैं जानता हूं, उसके हिसाब से ठीक है। कल जो मैं जानूंगा उसके हिसाब से गलत भी हो सकता
है। इसलिए फ्यूचर हमेशा ओपंड है, क्लोज्ड नहीं है।
तो
ऐसा विश्वास चाहिए जो संदेह कर सकता हो। और मेरी अपनी समझ है कि ऐसा विश्वास ही
शक्तिशाली विश्वास है,
जो संदेह भी कर सकता है। जो विश्वास संदेह करने से डरता है, उसे मैं इंपोटेंट कहता हूं, वह नपुंसक है। वह खुद ही
डरा हुआ है कि संदेह करेंगे, तो मर जाएंगे। तो जो विश्वास
संदेह भी कर सकता है--संदेह को मैं विश्वास की विरोधी प्रक्रिया नहीं कहता संदेह
को मैं विश्वास की श्वास कहता हूं। उससे उलटी नहीं है वह।
संदेह
और संशय में क्या फर्क है।
संशय
बहुत और बात है। डाउट और संशय में फर्क है। संशय का मतलब है, ऐसा आदमी
जो अनिश्चय में है। जो निश्चय कर ही नहीं पाता। तो जो निश्चय कर ही नहीं पाता। तो
जो निश्चय नहीं कर पाता, वह तो नष्ट हो जाएगा। लेकिन जो इतना
निश्चय कर लेता है कि कभी संदेह नहीं कर पाता है, वह भी नष्ट
हो गया है।
जिसका
निश्चय ऐसा निश्चय हो जाता है कि अब वह इस ट्रुथ पर आंख उठा कर नहीं देखेगा। चाहे
दुनिया बदल जाए,
चाहे सत्य की सब स्थिति बदल जाए, लेकिन वह आंख
बंद करके चला ही जाएगा कि मैंने पक्का किया था, वही पक्का
है। और अब आंख खोलने से भी डरेगा कि कहीं कच्चा न हो जाए। ऐसा आदमी नष्ट हो जाता
है। ऐसा आदमी नष्ट हो जाएगा तो मैं कहता हूं संशय जिसके मन में है वह भी नष्ट हो
जाता है। और संदेहहीन विश्वास जिसके मन में है, वह भी नष्ट
हो जाता है। जीता तो वह है जो संदेहपूर्ण विश्वास कर पाता है। और संदेहपूर्ण
विश्वास जो है, वही डायनामिक प्रक्रिया है। और उसमें दोनों
तत्व इकट्ठे हैं।
तो
इस मुल्क को कैसे संशयपूर्ण विश्वास दिया जा सके, या विश्रामपूर्ण संशय दिया
जा सके, यह मेरा बुनियादी तथ्य है, जिस
पर मैं जोर डालना चाहता हूं।
आप
जो पुराने को तोड़ने को कहते हैं तो क्या नये का स्वरूप आपके हृदय में है? और है तो
वह क्या है?
जरूर
है, अन्यथा पुराना...। बहुत सी बातों का खयाल लेना पड़ेगा। असल में पुराने को
तोड़ने का कोई प्रयोजन ही नहीं है, जब तक कि नया जन्म लेने के
लिए तैयार न हो गया हो। असल में नया विज़न में हो, तभी यह
पुराना मालूम पड़ता है, नहीं तो पुराना मालूम नहीं पड़ता है।
पुराना जो है, वह कम्पैरेटिव टर्म है। असल में जब आपको नया
विज़न में आ जाए, तभी आप कह पाते हैं कि यह पुराना हो गया है।
अन्यथा आप इसको पुराना नहीं कह सकते।
इस
देश में क्या हुआ है,
कि विज़न देखना, हमने तोड़ दिया है। इस देश में
क्या हुआ है, इस डर से कि कहीं पुराना न हो जाए, हमने विज़न देखने की जो क्षमता है, वह तोड़ दी है। अब
विज़न की जो क्षमता है वह, अनिवार्य रूप से कुछ तत्व हैं
उसमें। जैसे, रहेंगे तो हम इसमें, लेकिन
सोचेंगे उसकी जो अभी नहीं है। रहेंगे तो ज्ञात में, सोचेंगे
अज्ञात में। रहेंगे तो अतीत में, कामना करेंगे भविष्य की,
तभी विज़न होगा।
यह
मुल्क क्या है,
रहता भी अतीत में है, सोचता भी अतीत की है! तो
विज़न पैदा नहीं होता। पर हमने क्या तरकीब लगाई है कि हम सोचेंगे भी अतीत की,
रहेंगे भी अतीत में! न केवल हम राम के जमाने में रहेंगे, बल्कि राम-राज्य लाने की भी सोचते रहेंगे! जब राम-राज्य लाने की सोचेंगे
तो विज़न का कोई उपाय न रहेगा। तब रिपीटीशन रहेगा कि राम-राज्य कैसा था? तो उसको हम फिर से सोचते रहेंगे। इस देश ने दोहरा काम किया है, नया पैदा ही न हो सके, इसलिए पुराने में हम जीते
हैं।
जीना
तो स्वाभाविक है। जीना सदा पुराने में होगा। असल में जो भी बन जाएगा, वह बनते
ही पुराना हो जाएगा। रहेंगे तो हम पुराने में ही इसलिए इसमें कोई उपाय नहीं है।
लेकिन सोचना सदा भविष्य में होगा। होना चाहिए भी। पैर तो हमारे जमीन पर हों,
लेकिन सिर हमारा आकाश में होना चाहिए। और अगर पैर हमारे जहां खड़े
हैं, अगर आंखें भी वहीं हैं, तो हम
गङ्ढे में गिरेंगे। आंखें वहां होनी चाहिए, जहां पैर कभी
होंगे। अभी नहीं हैं जहां।
हमने
क्या कर लिया है,
हमने एक ऐसा मानस तैयार किया है, जो पीछे की
तरफ जीता है, पीछे की तरफ देखता है। और अगर भविष्य की कभी
कोई कल्पना भी करता है, तो वह सदा अतीत के अनुरूप करता है।
वह उसकी पुनरुक्ति ही होती है। अगर हम भविष्य का यूटोपिया भी बनाएं तो भी नाम हम
राम-राज्य ही देना पसंद करेंगे।
इधर
जो मेरा कहना है कि यह जो हमारी पकड़ है अतीत के संबंध में, यह पकड़
टूटनी चाहिए। अतीत को तोड़ने का कोई सवाल नहीं है। अतीत की पकड़ तोड़ने का, वह जो क्लिंगिंग है हमारी, वह हमें तोड़नी चाहिए। अब
जैसे कि एक बाप अपने बेटे को चलना सिखा रहा है, निश्चित ही
बाप ही बेटे को चलना सिखाएगा। बाप अतीत है।
अतीत
का महत्व है न?
उसके
महत्व का तो कोई इनकार,
सवाल ही नहीं है लेकिन उसका इतना महत्व नहीं है, जितना भविष्य का है। जो मेरी एम्फेसिस है। अतीत का बहुत महत्व है, लेकिन इतना महत्व नहीं है, जितना भविष्य का है,
क्योंकि अतीत वह है जो जीया जा चुका। भविष्य वह है, जिसे जीना है। तो वह जो जीया जा चुका, वह हमेशा
भूमिका ही बनेगा और जो जीना है, वह हमारा सपना होगा। उसमें हमारे
हाथ फैलेंगे और जो जीया जा चुका है उसे सदा ट्रांसेंड करना होगा, उसे पार करना होगा। तभी हम उसे जी सकेंगे, जो अभी
नहीं जीया जा सका है। इसलिए अतीत का महत्व है, लेकिन भविष्य
से ज्यादा नहीं।
इस
मुल्क के मन में अतीत का महत्व इतना ज्यादा है कि भविष्य का कोई महत्व ही नहीं है।
अगर हम बहुत गौर से देखें,
तो हमने भविष्य के लिए जगह ही नहीं रखी है, बल्कि
हमने भविष्य को हमेशा ही अंधकारपूर्ण भाषा में सोचा है। हमारा सतयुग पहले होगा,
हमारा स्वर्ण युग, गोल्डन एज पहले हो जाएगा।
फिर भविष्य सदा कलियुग में। और गिरा-गिरा-गिरा, अंत में
बिलकुल ही नष्ट हो जाएगा। भविष्य जो है, वहां महाप्रलय है।
प्रलय जो है, वहां सब स्वर्ण युग बीत गया है। तो भविष्य में
हम रोज गिर रहे हैं।
डार्विन
ने पश्चिम में एवोल्यूशन का खयाल दिया, अगर हम अपनी फिलासफी को कहें,
तो हम उसे एवोल्यूशनरी नहीं कह सकते हैं। वह विकासात्मक नहीं है,
वह पतनात्मक है। क्योंकि उसमें जो श्रेष्ठ है, वह पहले हो चुका, और जो निकृष्ट है, वह आने को है। तो जिस देश के दिमाग में निकृष्ट आने को है, और श्रेष्ठ हो चुका, स्वभावतः उसके लिए सबसे ज्यादा
मूल्यवान अतीत होगा। और भविष्य तो एक दुख है, जिसे झेलना है।
जब भविष्य एक दुख होगा, पीड़ा होगी, अंधेरा
होगा, तो फिर भविष्य को सृजन करने का मन न रह जाएगा। ऐसा
भविष्य का क्या सृजन करना है? भविष्य के संबंध में अगर कोई
स्वर्ण की कल्पना न हो, विकासात्मक नहीं होगा समाज।
इस
मुल्क का अति मोह है अतीत के प्रति। अति मोह तोड़ना है। अतीत का अपना मूल्य है।
लेकिन उसका मूल्य वैसा ही है कि जिस सीढ़ी को हम छोड़ते हैं, उस पर पैर
तो रखना होता है। लेकिन पैर इसलिए रखना होता है कि अगली सीढ़ी पर हम पैर रख सकें और
पिछली सीढ़ी को हम छोड़ सकें। अतीत सदा ही ट्रांसेंड करने के लिए है, वह पार जाना है; निरंतर पार जाना है। जिसके पार जाना
है, उसको पकड़ने को भाव नहीं होना चाहिए। और जिसे पाना है कल,
उसे पकड़ने का निरंतर भाव होना चाहिए। तो फ्यूचर जो है, भविष्य जो है, अधिक मूल्यवान है--यह मुल्क के चित्त
में बैठना चाहिए। अतीत जो है, वह कम मूल्यवान है। और भविष्य
जो है, वह अतीत से श्रेष्ठतर होने वाला है।
क्योंकि
मन के कुछ नियम हैं। अगर मन एक बात स्वीकार कर ले, तो वे घट जाते हैं। अगर हम
यह मान लें कि कल दुखद ही होने वाला है, इसमें कोई उपाय नहीं
है। यह कल की व्यवस्था है। कल दुखद होगा ही, तो पहली तो बात
यह है कि कल को सुखद बनाने का उपाय छोड़ दूंगा। और कल आसमान से नहीं आता, मुझसे ही आता है, फिर कल का जन्म मुझसे ही होता है।
तो जिसने स्वीकार कर लिया कि कल दुखद होने वाला है, पीड़ापूर्ण
होने वाला है, उसने सुख बनाना तो बंद कर दिया, और वह दुख की प्रतीक्षा करने लगा। और दुख की प्रोजेक्ट भी करेगा, और कल अपनी भविष्यवाणी को पूरा करने के लिए वह कहेगा कि देखो, इतना-इतना दुख आ गया। तो वह जो सुखद आएगा, उसको
देखेगा नहीं और जो दुखद आएगा, उसको बड़ा करके देखेगा। और
भविष्यवाणी में तृप्त हो जाएगा और राजी हो जाएगा कि हमारे ऋषि-मुनि जो कह गए थे,
वह सही है।
तो
भारत की जो काल की व्यवस्था है, उसको मैं गलत मानता हूं। हमारी गोल्डन एज हमें
भविष्य में ही रखना चाहिए और गोल्डन एज ऐसा है जो कभी आता नहीं, सिर्फ आता हुआ मालूम होता है। तभी हम गतिमान होते हैं। अगर कभी आ जाए तो
फिर खतरा हो जाएगा। वह कभी आता नहीं। वह आता ही रहता है, और
हम कभी उस हालत में नहीं होते कि हम कह दें कि आ गया। ऐसी हालत कभी नहीं होती कि
हम कह दें कि पा लिया, क्योंकि पा लिया तो फिर पास्ट हो
जाएगा। वह इंटरनल लांगिंग है। तो भारत के मन में ऐसी लांगिंग नहीं है। इससे भारत
का पतन बहुत स्वाभाविक हुआ।
हमारे
सब ऋषि-मुनियों की भविष्यवाणी हमको पूरी ही करनी है, तो हमें पतन करना पड़ा। अपने
पतन के लिए तैयार होना पड़ा। अभी भी हम तैयार हैं। अभी भी अगर, कल चीन आ जाए, अभी पृथ्वीराज जी से बात हो रही
थी--अगर कल कोई दुश्मन हम पर हमला कर दे और कल हम और बर्बाद हो जाएं, कल और गरीबी आए, हमें भीख मांगनी पड़े; कल उन्नीस सौ अस्सी में महाअकाल पड़ जाए और हमारे बीस करोड़ आदमियों को मरना
पड़े, तो हम इसको भी एक बहुत भीतर खुशी से स्वीकार करेंगे। हम
कहेंगे कि यह होने ही वाला था, यह कहा हुआ है कि कलियुग में
यह सब होने वाला है। इसको भी हम हमारी जो भविष्यवाणी है, हम
उसकी पूर्ति होने देंगे। यह होने वाला है।
अभी
मेरे पास लोग आते हैं,
वे कहते हैं कि कलियुग में लोग व्यभिचारी होंगे। वह तो कलियुग में
यह होने वाला है। सब आदमी सब नीति-नियम छोड़ देंगे। बड़ी खतरनाक भविष्यवाणियां हैं
हमारी, यह हमें तोड़नी पड़ेंगी और इनको अगर तोड़ना है तो हमें
थोड़ा महावीर पर संदेह करने पड़ेंगे। पच्चीस सौ साल का मामला टूट नहीं सकता। और हमें
तोड़ना है तो कहना पड़ेगा कि ऋषि कोई भविष्यवक्ता नहीं है, और
ऋषि ने अगर ऐसा कहा है तो गलत कहा है। अब यह हमें चोटपूर्ण लगेगी।
गलत
कहा है, अगर वह स्थिति लोग देख रहे हैं तो उसका क्या?
जो
हम देख रहे हैं वह स्थिति हमने बनाई है, इस भविष्यवाणी का परिणाम है वह।
अभी पीछे एक मजेदार घटना घटी है। कोई पांच साल पहले बंबई से किसी मित्र ने मुझे एक
पत्र लिखा। एक सज्जन रास्ते से गुजरते होंगे, और एक जैन साधु
रास्ते पर अनायास उनको रोक कर, उनको कह दिया कि तुम्हारी
उम्र तीन महीने और है--अनायास, कोई परिचय नहीं, बिना पूछे, सिर्फ रास्ते गुजरते वक्त। उनको कहा कि
तुम्हारी उम्र तीन महीने से ज्यादा नहीं है! वह कुछ मुख मुद्रा शास्त्र अध्ययन कर
रहे होंगे और इस आदमी को उन्हें दिखाई पड़ा कि इसकी तीन महीने की उम्र है, उसके पूरे लक्षण दिखे। वह किताब पढ़ रहे होंगे, इनमें
पूरे लक्षण उनको दिखाई पड़े। उन्होंने किसी बुरे भाव से इस आदमी को यह बात नहीं
कही। उसने पहले तो इनकार किया कि भई, ऐसे कैसे मर जाऊंगा।
एक-दो दिन उसने छिपाया। लेकिन ऐसी बात छिपाई नहीं जा सकती। उसने अपनी पत्नी को कहा
कि मुझे अचानक साधु ने--अचानक, मैं पूछने नहीं गया, मैं परिचित नहीं हूं, मैं जैन नहीं हूं। उस आदमी को
कोई प्रयोजन तो है नहीं और उसे कुछ दिखाई पड़ा और उसने मुझे कहा कि तुम तीन महीने
से ज्यादा नहीं बचोगे। उसकी पत्नी का सुनना था कि उसने छाती पीटनी शुरू कर दी और
उसने कहा कि मुझे तो बचपन में कहा था कि बत्तीस साल में मैं विधवा हो जाऊंगी और
बत्तीस साल चल रहा है। तो अब तो बात बिलकुल पक्की हो गई। अब इसमें तो कोई उपाय
नहीं रहा। वह खाट से लग गया। मेहमान देखने आने लगे।
तो
मेरे एक मित्र परिचित उसको देखने गए। तो उन्होंने मुझे पत्र लिखा कि यह आदमी मरने
की हालत में हो गया है,
आप क्या कर सकते हैं। तो मैंने उसे एक पत्र लिखा कि तीन महीने तुम
नहीं मरोगे, इसका पक्का मैं लेता हूं, और
मैं बंबई आता हूं। तुम उस साधु को पकड़ने की कोशिश करो, उस पर
मुकदमा चलाएंगे। तुम उसका पता लगाने की कोशिश करो कि वह कौन आदमी है। क्योंकि उस
आदमी ने ठीक मर्डर का काम किया है--तुम मार डाले जाओगे। मैंने कहा, यह मैं वचन लेता हूं--और मुझे कुछ पक्का पता नहीं है कि यह आदमी बचेगा कि
मरेगा, मुझे कुछ पता नहीं, मुझे मालूम
भी नहीं--पत्र में लिखा कि मैं यह वचन देता हूं कि तीन महीन में तुम नहीं मरोगे।
और कभी भी मर जाओ, नहीं मरोगे ऐसा तो मैं नहीं कहता, लेकिन तीन महीने में तुम नहीं मरोगे, और मैं आ रहा
हूं, और तुम उस आदमी की फिक्र करो।
जैसे
ही मेरा पत्र उसे मिला वह खाट से उठा, और उसने कहा कि मैं जाकर पता लगाता
हूं कि वह कौन आदमी था। मन में तो उसको पकड़ ही रही थी यह बात कि इस आदमी ने मेरे
साथ बुरा किया, लेकिन अकारण था, इसलिए
बुरा क्यों करेगा? उसने बामुश्किल खोजबीन करके उसका पता
लगाया। और जब उसने पता लगाया और मेरा पत्र उन्हें जाकर दिखाया तो साधु भी घबड़ा गया,
क्योंकि मैंने उसमें लिखा था कि साधु पर हत्या का मुकदमा चलाएंगे और
तुम उसको पकड़ कर पुलिस थाने में रिपोर्ट करो। वह साधु घबड़ा गया। उसने कहा, मुझे कुछ ज्यादा नहीं मालूम। मैं तो एक शास्त्र पढ़ रहा हूं। उसमें यह-यह
लक्षण है कि ऐसा हाथ, ऐसी चेहरे पर ऐसी स्थिति हो तो आदमी का
जो भरोसा उसमें पैदा हो गया था, वह भी कम हो गया। उसने कहा,
यह तो खुद ही डरा हुआ है, इसे भी कुछ पक्का
मालूम नहीं है। मैं जब आया, तो उसने मुझसे कहा। मैंने कहा,
तुम नहीं मरते हो! अभी तक वह आदमी जिंदा रहा। कोई ढाई साल बाद मरा।
यह
जो आदमी है, यह मर सकता था तीन महीने में। इसमें कोई कठिनाई न थी। और ढाई साल में मरा,
तो भी मेरी समझ है कि इस आदमी का हाथ फिर भी इसके मारने में है।
इसकी जीवेषणा तो क्षीण हो ही गई। इसका एक दफा बल जीने से तो चला ही गया, इसके पैर तो एक दफा उखड़ ही गए। जैसे किसी पौधे को एक दफा तो हमने जमीन से
निकाल ही लिया। फिर से लगा दिया, वह रह गया दो साल, लेकिन उसके भीतर कुछ चीज टूट गई। जीने की जो तीव्रता थी, वह क्षीण हो गई। मरने का जो भाव था, वह प्रगाढ़ हो
गया।
हिंदुस्तान
के साथ, पूरे मन के साथ ऐसा हुआ है। वह जो हमारी भविष्यवाणी है, वह जो हमारी कल्पनाएं और योजनाएं दिमाग में रही हैं, उन्होंने हमें पक्का कर दिया है। फिर जो भी घटता है, हम उसको स्वीकार कर लेते हैं। हम मान लेते हैं कि ऐसा होगा। हमने एक हजार
साल की गुलामी इसीलिए स्वीकार की। हम सब तरह का भ्रष्टाचार, सब
तरह की अनीति स्वीकार करेंगे। क्योंकि यह हम मानते हैं कि यह होने वाला है,
यह होना ही चाहिए। यह न हो तो हम चकित होंगे। तो हमको लगेगा कि क्या
गड़बड़ हो गई? अगर सतयुग आ जाए तो हम भरोसा न कर पाएंगे,
क्योंकि हमको हमारे ऋषियों पर संदेह करना पड़ेगा। और अगर हम संदेह कर
सकें इससे उलटा तो हम सतयुग भी ला सकते हैं। क्योंकि जो भी आ रहा है, वह हमारे मन से आ रहा है। हम स्रष्टा हैं। और समय में जो घटनाएं घट रही
हैं, वह हमारे द्वारा घट रही हैं। और हमने क्या मान रखा है,
उस पर सब कुछ निर्भर है। एक बार अगर पूरे मुल्क का मन इसके लिए
तैयार हो जाए कि स्वर्ग अभी लाना है, तो बहुत कठिनाई न हो,
लेकिन पूरे मुल्क का मन अगर मान ले कि नरक आना है, तो नरक को लाना नहीं पड़ता, वह अपने से आ जाता है।
क्योंकि उसके लिए कुछ नहीं करना पड़ता है। सिर्फ हम बैठे रहें, सिर्फ देखते रहें, तो भी आ जाएगा। स्वर्ग के लिए तो
कुछ करना पड़ेगा, सिर्फ देखने से नहीं आ जाएगा।
स्वर्ग
हमारा सृजन है और नरक है हमारे आलस्य की अपने आप आ गई व्यवस्था।
तो
वह आ रहा है। इसलिए मैं तो...अतीत के साथ हमारे जो बहुत आग्रहपूर्ण संबंध हैं--अति
आग्रहपूर्ण करने चाहिए,
आब्सेशन बन गया है; एक रुग्णभाव बन गया है।
ऐसी हालत हो गई है, जैसे किसी आदमी के पैर में चोट लग जाती
है, तो दिन भर उसी में चोट लगती रहती है। चोट उसी में नहीं
लगती, चोट तो रोज उस जगह लगती थी, लेकिन
पता नहीं चलता था। अब घाव की वजह से बार-बार पता चलता है।
तो
हमारा अतीत एक घाव की तरह हमारी छाती पर बैठा है। वह हमारी पृष्ठभूमि नहीं है, जिस पर
खड़े होकर हम आगे भविष्य में छलांग लगाते हैं। वह एक घाव की तरह है, जिसकी हमें सेवा-शुश्रूषा करके बचाना पड़ता है और उससे घाव मिटता नहीं,
उससे घाव बड़ा हो रहा है। और घाव के धीरे-धीरे बड़ा होते-होते,
हम सब घावग्रस्त हो गए हैं। और उस घाव के कई मुद्दे हैं। सब तरफ से
उसने हमें पकड़ लिया है। जैसे; अतीत की इस घोषणा ने, अतीत की इस मान्यता ने, अतीत के इस विश्वास ने,
भाग्यवादी हम बना दिया है, क्योंकि हमने समय
की एक निर्धारित व्यवस्था स्वीकार कर ली है--एक डिटर्मिनेशन। और इसलिए मेरी अपनी
समझ यह है कि हिंदुस्तान में अगर कम्युनिज्म किसी रास्ते से आएगा, तो हिंदुस्तान के डिटर्मिनेशन के रास्ते से आएगा, क्योंकि
माक्र्स दुनिया में यह सबसे बड़ा डिटर्मिनेशन है।
हिंदुस्तान
पर उसकी अपील किसी दिन भी बढ़ेगी, क्योंकि हिंदुस्तान तो डिटर्मिनिस्ट माइंड है।
क्योंकि हम तो सदा से यह मानते हैं कि चीजें तय हैं। अगर माक्र्स हिंदुस्तान में
पैदा होता, तो हमने उसको ठीक बड़े ऋषियों में जगह दी होती।
क्योंकि वह आदमी ऐतिहासिक रूप से भाग्यवादी है। वह यह कह रहा है कि कम्युनिज्म आने
ही वाला है। यह किसी के लाने की बात नहीं है। यह आपके वश की बात नहीं है इसे रोकना,
यह आने ही वाला है। यह इनएवायडेबल है। यह तो नियति का हिस्सा है,
डेस्टिनी है, कि पूंजीवाद के बाद कम्युनिज्म
आएगा ही। अगर हिंदुस्तान के मन में कभी भी कम्युनिज्म गहरे जाएगा, तो वह हिंदुस्तान की भाग्यवादिता से जाएगा, कि जाएगा
ही।
हम
सदा से यह मानते रहे हैं कि ऐसा आएगा। हमें कुछ करना नहीं है। हम स्रष्टा की तरह
नहीं हैं। हम राहगीर दर्शक हैं। हम देख रहे हैं। जो आता है, उसको हम
देख रहे हैं। इसलिए राहगीर का कोई मतलब नहीं है। जो आता है, उसे
स्वीकार कर लेते हैं। यदि भारत को अपने भविष्य के बाबत कुछ भी निर्माण करना है,
तो उसे बहुत सी अतीत की धारणाओं का विध्वंस करना पड़ेगा, उसे भाग्यवाद को तोड़ देना पड़ेगा। और एक बार हमें यह पक्का खयाल लाना पड़ेगा
कि जो भी कल होगा, वह अभी तक तय नहीं है, वह अभी तय हो रहा है, वह तय होने की प्रक्रिया में
है, और हम उसके तय करने वाले लोग हैं। अगर वह तय हो चुका है,
सिर्फ अनफोल्ड हो रहा है तो फिर ठीक है; हम
राहगीर, दर्शक हो जाते हैं।
हमने
यह धारणा व्यक्तिगत रूप से स्वीकार की थी। उसके कारण थे कि हमारे पास समाज की कोई
धारणा ही नहीं थी। असल में यह भी सोचने जैसा है कि भारत के पास कोई सोसाइटी का
कांसेप्ट नहीं है। उसके पास जो कांसेप्ट है, वह व्यक्ति-व्यक्ति का है। इसलिए
हमारा चिंतन जो है, वह व्यक्तिवादी है। आप अपने भाग्य से तय
हो रहे हैं, मैं अपने भाग्य से तय हो रहा हूं। हम दोनों का
कोई सामूहिक भाग्य नहीं है। आपका अपना भाग्य है, मेरा अपना
भाग्य है। आपका अपना भाग्य है, उनका अपना भाग्य है। हम सब
अपने भाग्य को पार कर रहे हैं और इस वजह से कोई सामूहिक भाग्य, कोई राष्ट्र का भाग्य, कोई देश का भाग्य, कोई कलेक्टिव भाग्य--ऐसी हमारे पास कोई धारणा नहीं है कि हम सबका इकट्ठा
भी कुछ है।
धर्म
और संप्रदाय की वजह से जो संगठन थोड़ा कुछ रहता था, वह तो व्यक्तिवाद तो नहीं
है?
संगठन
पर अलग से थोड़ी बात करनी पड़ेगी। असल में संगठन बहुत तरह के हो सकते हैं। संगठन ऐसे
हो सकते हैं जो आत्मघाती सिद्ध हों। अगर हम यहां इस कमरे में पच्चीस लोग हैं और इस
कमरे के भीतर हम पांच संगठन बना लें, जो स्वविरोधी हों, एक-दूसरे को कंट्राडिक्ट करते हों, तो इससे तो अच्छा
था कि पच्चीस ही असंगठित होते, तो खतरा इतना नहीं है। लेकिन
अगर पांच संगठन हों और आत्मविरोधी हों और एक-दूसरे की दुश्मनी में खड़े हों,
तो यह कमरा मरेगा। हम एक-दूसरे को काटते रहेंगे, और हो सकता है कि पांचों एक-दूसरे को इस बुरी तरह काट दें कि कमरा बिलकुल
इंपोटेंट हो जाए, टोटली।
तो
हिंदुस्तान इंपोटेंट हुआ,
हिंदुस्तान की अनेकता के कारण नहीं, हिंदुस्तान
की टूटी एकता के कारण। मैं नहीं मानता कि हिंदुस्तान बर्बाद हुआ है, इसकी डिस्यूनिटी के कारण। हिंदुस्तान बर्बाद हुआ, मल्टी-यूनिटी
के कारण। हमारे पास बहुत तरह के यूनिट हैं--हिंदू का अलग है, मुसलमान का अलग है। हिंदू के भीतर भी, ब्राह्मण का
अलग है, शूद्र का अलग है। ब्राह्मण के भीतर भी एक ब्राह्मण
का अलग है, दूसरे ब्राह्मण का अलग है। हिंदुस्तान को जो लोग
कहते हैं, हम अनेकता की वजह से मरे हैं, वे लोग गलत कहते हैं। हिंदुस्तान अगर अनेक भी होता तो इतना खतरा नहीं था।
क्योंकि अगर हिंदुस्तान अनेक हो तो मेरे और आपके किसी भी दिन एक हो जाने में बाधा
नहीं थी। किसी भी दिन जरूरत होती इमरजेंसी, तो हम इकट्ठे हो
जाते।
लेकिन
हम एक थे। मैं और आप तो एक हो सकते थे, लेकिन मैं हिंदू था, आप मुसलमान थे। अगर मैं भी आदमी होता और आप भी आदमी होते, तो हमारे बीच कोई संगठन न होता। तो कल अगर पूरे मुल्क में मुसीबत होती और
मैं और आप इकट्ठे हो जाते तो हम दोनों की सामूहिक मौत थी। लेकिन मुसलमान पर खतरा
आया तो हिंदू ने सोचा कि बहुत अच्छा हुआ। यह तो आ ही जाना चाहिए था पहले ही और जब
हिंदू का आया, तो हमने सोचा कि ठीक है, आ ही गया, तो बहुत अच्छा हुआ।
हिंदुस्तान
अनेकता की वजह से नहीं मरा,
न एकता की कमी की वजह से मरा, हिंदुस्तान मरा
बहु-एकता की इकाइयों की वजह से। और वे सब इकाइयां अपने आप में राष्ट्र बन गईं।
हिंदुस्तान मल्टी-नेशनल हो गया, हिंदुस्तान एक राष्ट्र नहीं
रह सका राष्ट्रीयताओं में विभाजित हो गया। यहां एक के भीतर दो, दो के भीतर तीन--यहां इतनी एकताएं हो गईं कि उन एकताओं का इकट्ठा टोटल
परिणाम जीरो हो गया। इसलिए मेरी अपनी समझ यह है कि हिंदुस्तान को एक नहीं करना,
बल्कि उसकी मल्टी-यूनिटी को तोड़ डालना है। यह उसका डिस्ट्रक्टिव कदम
होगा।
और
एकता ऐसी चीज है कि वह रोज की जरूरत नहीं है। मेरी अपनी समझ यह है। एकता रोज की
जरूरत नहीं है,
वह इमरजेंसी की बात है। और अब भी इमरजेंसी होती है, तो आदमी एक हो पाता है। नहीं तो नहीं हो पाता तो कारण भी नहीं है। लेकिन
अगर इमरजेंसी के वक्त में पहले से किए गए कमिटमेंट बाधा बन जाए, तो फिर एक नहीं हो पाते। तो हिंदुस्तान में हम जितनी कोशिश करते हैं कि
सारा देश इकट्ठा हो जाए, तो वह सब असफल होने वाली है।
क्योंकि हमारी कोशिश भी अंततः एक और नये यूनिट को खड़ा कर जाती है। बस ज्यादा से
ज्यादा जहां दस यूनिट थे, वहां हमारा एक ग्यारहवां यूनिट खड़ा
हो जाता, तो कहता, सबको एक करना है। तो
जो लोग उससे राजी हो जाते हैं, वे ग्यारहवीं यूनिट हो जाते
हैं। तो वह उतने ही दूर के दुश्मन हो जाते हैं, जितने बाकी
दूर आपस में थे।
हिंदुस्तान
में हमें एक दफा सब तरह की यूनिटी तोड़ डालनी है। वह जो छोटे-छोटे यूनिट हैं उनको
मिटाने की फिक्र करनी चाहिए। जैसे गांधीजी ने कोशिश की कि हिंदू-मुसलमान एक हो
जाएं, यह सफल नहीं हुआ मामला। अगर कोशिश होती कि हिंदू का यूनिट टूट जाए,
मुसलमान का यूनिट टूट जाए, तो सफलता बहुत
व्यापक हो सकती थी। मैं यह कह रहा हूं जब हम कहते हैं कि हिंदू-मुसलमान एक हो जाएं
तो हम दोनों की यूनिट को रिकग्नीशन दे देते हैं, पहली बात।
तरीके की बात है तो भी गलत है। टेक्निकली भी गलत है।
हिंदुस्तान
को बंटवाने में गांधीजी की कोशिश का जितना हाथ है, उतना हाथ किसी दूसरे आदमी
की कोशिश का नहीं है। हालांकि गांधीजी ने जितनी फिक्र की एक रखने की उतनी किस ने
नहीं की है। अब ये बातें कंट्राडिक्ट्री मालूम पड़ती हैं, लेकिन
मुझे कंट्राडिक्ट्री नहीं दिखाई पड़ती हैं। मेरी अपनी समझ यह है कि जितना हमने जोर
दिया कि हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई, उतना हमने साफ किया कि ये
दोनों अलग-अलग हैं। असल में जब हम भाई-भाई कहते हैं, तभी
कहना शुरू करते हैं, जब दुश्मनी की हालत खड़ी हो जाती है।
उसके पहले हम कभी कहते नहीं।
हम
कभी नहीं कहते कि हिंदी-बर्मी भाई-भाई, हिंदी-चीनी भाई-भाई कह रहे हैं। वह
भय हमें पक्का था कि आज नहीं कल अगर दुश्मनी होनी है तो वह चीन से होनी है। बर्मा
से नहीं होनी है, लंका से नहीं होनी है। हमने कभी नहीं कहा
कि हिंदू-जैन भाई-भाई। हिंदू-सिक्ख भाई-भाई, वह हमने नहीं
कहा। जो डर था, वह डर था मुसलमान का, तो
हमने कहा हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई। वह हमारे भय का सबूत है। वह जितना हमने दोहराया
उतना यह साफ हुआ कि उन दोनों के बीच कोई गहरी दुश्मनी है, जिसको
भाई-भाई कह कर हम पूरा करना चाहते हैं। एक।
और
दूसरा, गांधीजी और उनके दूसरे साथियों ने जितना जोर दिया कि हिंदू-मुस्लिम
भाई-भाई, उससे वह भाई-भाई तो न हुए, लेकिन
बड़ा अजीब परिणाम आया और वह यह कि अगर दो भाई एक न हो सकें, तो
पार्टीशन हो जाना चाहिए। जो उसका बेसिक लॉजिकल कनक्लूजन है। अगर हमने भाई-भाई पर
जोर न दिया होता तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान कभी पार्टीशन नहीं हुए होते। क्योंकि
पार्टीशन दो भाइयों के बीच होता है। पार्टीशन का खयाल ही नहीं आता। खयाल ही इसलिए
आया कि दो भाई एक नहीं होते तो ठीक है, जैसा बाप की जायदाद
बंट जाती है वैसा हिंदुस्तान की जायदाद बंट जानी चाहिए। जब हमने जोर दिया भाई-भाई
पर, तो हमको राजी होना पड़ा पार्टीशन के लिए, क्योंकि वह उसका कनक्लूजन था। फिर आप मना नहीं कर सकते।
जब
भाई-भाई हैं तो पार्टीशन ठीक है। अब राजी नहीं होते तो अलग-अलग हो जाएं। अब राह
देखने में उलटा लगता है। गांधीजी ने पूरी जिंदगी कोशिश की कि पार्टीशन बच जाए, लेकिन वे
ही इसके जन्मदाता हैं। साइकोलाजिकली वह जो व्यवस्था कर रहे थे, वह व्यवस्था जिम्मेदार है। उन्होंने कोशिश की हिंदू-मुस्लिम एक हो जाएं,
उनके एक होने का अति आग्रह है, इम्फैटिकली,
हिंदू-मुस्लिम को अलग करता गया। यह जो कठिनाई है, यह अब भी आज भी मौजूद है। आज भी हम वही चिल्ल-पों मजा रहे हैं।
गुजराती-महाराष्ट्रियन भाई-भाई, हिंदी गैर-हिंदी भाई-भाई। वह
हम सब बकवास लगाए हुए हैं। टैक्टिक्स हमारी सब पुरानी है जो हजार दफे असफल हो चुकी
है। यानी बड़ा मजा यह है कि जो चीजें हजार दफा असफल हो चुकी हैं उनको भी हम कभी
छोड़ते नहीं, फिर उनका दुबारा वही उपयोग करने लगते हैं।
मेरा
मानना है, यह गलत है। यूनिट तोड़ने चाहिए। गुजराती और मराठी एक न होंगे, गुजरात और महाराष्ट्र के यूनिट जाने चाहिए। हिंदी और गैर-हिंदी एक न
होंगे--हिंदी और गैर-हिंदी का यूनिट हटना चाहिए। मजा यह है कि एक तरफ हम यूनिट
बचाते हैं। कहीं की लिंग्विस्टिक प्रॉब्लम है तो एक तरफ यूनिट बचाएंगे, यूनिट को बसाएंगे, यूनिट बनाएंगे, उसको डिफाइन कर देंगे, और इसके बाद हम कहेंगे कि अब
सब एकता होनी चाहिए। यानी हम कुछ ऐसी एब्सर्ड कौम हैं कि जिसके दिमाग में तर्क
जैसी चीज भी नहीं है कि हम कर क्या रहे हैं? अंग्रेज इस
मुल्क को जिस बुरी तरह से विभाजित नहीं कर पाया, हम उतना
विभाजित किए दे रहे हैं बीस साल में।
मेरा
कहना यह है, जैसे इस मामले में हमें यूनिट्स तोड़ने चाहिए। जहां हमें यूनिट दिखाई पड़े,
यूनिट को तोड़ना चाहिए।
जैसे
हिंदू-मुस्लिम को रिकग्नाइज करते हैं, तब तो वह ये दोनों कौमें अलग हो
गईं।
मैं
जो कह रहा हूं--जैसे,
हिंदुस्तान को एक फेडरल गवर्नमेंट की जरूरत है। इसको स्टेट
गवर्नमेंट की जरूरत बिलकुल नहीं है। रिकग्नाइज नहीं कर रहे, बीमारी
है और वह बीमारी को रिकग्नीशन दे रहे हैं, आप कभी लैंग्वेज
के नाम पर कभी प्राविंस के नाम पर और कभी किसी दूसरी बात के नाम पर। और सबके पीछे
कुल कारण इतना है कि हिंदुस्तान के अधिकतम पोलिटीशियन की आकांक्षा कैसे तृप्त
हो--तो जितना मुल्क टुकड़े में हो, उतनी तृप्त हो सकती है।
उतने मिनिस्टर्स होंगे, उतनी कैपिटल्स होंगी, उतने गवर्नर होंगे।
असली
बुनियादी, कुल जमा उतनी ही हिंदुस्तान में कैसे पांच हजार आदमी मिनिस्ट्री में बैठे
रहें, कैसे पचास गवर्नर हों और इसलिए रोज हर प्रांत के दो
टुकड़े करने पड़ेंगे आपको, क्योंकि उस प्रांत के दुगुने
राजनीतिज्ञ तृप्त हो जाएंगे। अगर सौराष्ट्र अलग हो जाए और गुजरात अलग हो जाए;
अगर बरार अलग हो जाए और महाराष्ट्र अलग हो जाए, तो दुगुने राजनीतिज्ञों की तृप्ति होगी। वह जो बरार की राजनीतिज्ञ बंबई
में नहीं बैठ पाता है मिनिस्ट्री में, वह कल अगर अमरावती
राजधानी होगी या नागपुर राजधानी होगी, तो वह इस मिनिस्ट्री
में होगा।
मेरा
कहना यह है कि जब हिंदुस्तान यूनिट को स्वीकृति देता चला जाता है, तब तक
यूनिट और छोटे बनाने पड़ेंगे। पचास साल में आपका एक-एक जिला एक-एक स्टेट होगी,
इससे कम में कोई उपाय नहीं है। क्योंकि आपकी जो प्रोसेस है, उसका लॉजिकल मतलब है, वह आज देख लेना चाहिए।
हिंदुस्तान को फेडरल गवर्नमेंट की जरूरत है। यहां एक गवर्नमेंट काफी है। एक
गवर्नमेंट हो तो मुल्क एक होता है, नहीं तो मुल्क एक नहीं
होगा। दिल्ली में एक गवर्नमेंट पर्याप्त है। बाकी ये सारी स्टेट्स तोड़ देनी है।
मैं जो कह रहा हूं...रिकग्नीशन का मेरा मतलब यह है कि हमें बीमारी को तो पहचानना
पड़ेगा।
अब
जैसे मेरी समझ है कि अगर हिंदू और मुसलमान की बात तो तोड़ना था तो हमें हिंदू और
मुसलमान की बात नहीं उठानी है। बात नहीं उठाने का मतलब यह था कि यह प्रश्न आजादी
का था, यह प्रश्न हिंदू-मुसलमान का था ही नहीं। इस मामले को उठाने की जरूरत नहीं।
हम सबको उठाने में गांधीजी ने खिलाफत के दिनों से उपद्रव शुरू किया। वह पूरे वक्त
पहले तो मुसलमान की खुशामद करते रहे, ऐसी खुशामद जो कि
बिलकुल गैर-जरूरी है। वह इसी डर से कि मुसलमान साथ हो। अब खिलाफत से गांधीजी का
कोई मतलब न था।
टर्की
में खलीफा रहता है या नहीं रहता, इससे गांधीजी को लेना-देना नहीं था। हिंदुस्तान
में बहुत से लोग खिलाफद शब्द से गलती में पड़े। वह समझे कि खिलाफत का मतलब विरोध,
कि आंदोलन है। वहां खलीफा टर्की में रहता है कि नहीं रहता है,
इसका कोई सेंस नहीं था। जिन्ना के टूटने का कारण यह बना कि जिन्ना
गांधी से ज्यादा नॉन-सेक्टिरियन आदमी था। जिन्ना ज्यादा सेक्युलर आदमी था। जिन्ना
रिलिजियस आदमी नहीं था। और जिन्ना के टूटने का कारण यह था कि जिन्ना को हैरानी हुई
कि यह खिलाफत में गांधीजी किसलिए अली बंधुओं के साथ घूम रहे हैं।
मुसलमान
के मसले को गांधीजी क्यों ले रहे हैं हाथ में। गांधीजी हाथ में ले रहे हैं, क्योंकि
वह मुसलमान को फुसलाना चाहते हैं, उनको इकट्ठा करना चाहते
हैं। जिन्ना भयभीत हो गया, भयभीत हो जाना स्वाभाविक था।
खतरनाक पॉलिटिक्स हो सकती है। हिंदू क्यों उत्सुकता ले, इससे
कोई मतलब न था। हिंदुस्तान की राजनीति को अगर नॉन-रिलीजस बेसिस मिली होती, जो कि गांधीजी की वजह से नहीं मिल सकी, क्योंकि
गांधीजी बहुत गहरे रूप से हिंदू थे। सारा ढंग, जीना, व्यवस्था, सब हिंदू की थी। सारा महात्मापन जो था,
वह सब हिंदू का था। गांधीजी का सारा व्यक्तित्व हिंदू का प्रतीक था
और गांधीजी कहते भी थे कि मैं बुनियादी रूप से हिंदू हूं।
यह
सारी का सारी बात ने एक स्थिति खड़ी कर दी जिसमें कि मुसलमान को भाई बनाना पड़े और
कुरान को पढ़ना पड़े,
गीता को पढ़ना पड़े। गीता की भी जरूरत न थी, कुरान
की भी जरूरत न थी, गांधीजी के सामने। मैं जो कह रहा हूं,
वह यह कह रहा हूं कि रिलीजस फैक्ट को हिंदुस्तान की राजनीति में जगह
देने की कोई जरूरत ही न थी। एक दफा जरूरत बनाई आपने, तो फिर
रोज-रोज एक-एक कदम आगे बढ़ना पड़ा और उसके लॉजिकल परिणाम यह कभी भी कहे जा सकते थे
कि हिंदुस्तान बंटेगा। और अभी भी वही हो रहा है।
अब
आपने लैंग्वेज को प्रॉब्लम बना लिया। अब मैं कह सकता हूं कि हिंदुस्तान बंटेगा। यह
देर लग सकती है,
दस-बीस, पचास साल की, लेकिन
हिंदुस्तान बंटेगा। दक्षिण हिंदुस्तान, उत्तर हिंदुस्तान
किसी भी दिन टूट सकता है क्योंकि आपने अब दूसरा उपद्रव बना लिया, लैंग्वेज का। रिलीजन झंझट खतम हुई, तो आपने लैंग्वेज
की झंझट खड़ी कर ली। और जिन्होंने रिलीजन की झंझट खड़ी की, वे
भी बड़े अच्छे लोग थे और जिन्होंने लैंग्वेज की झंझट खड़ी की, वे
भी कम अच्छे लोग नहीं थे। और जब कोई हम मामला उठाते हैं तो बड़ा अच्छा मालूम पड़ता
है।
बड़ा
अच्छा मालूम पड़ता है कि प्रत्येक लैंग्वेज को उसका अलग प्रांत होना चाहिए और एकदम
अच्छी बात मालूम पड़ती है। लेकिन इसके अल्टीमेट कनक्लूजंस क्या होंगे, वह हमारे
खयाल में नहीं है। हिंदुस्तान हमेशा अच्छे आदमी की दलील से परेशान है। बुरा आदमी
जो दलील देता है, उसकी कोई सुनता नहीं है, क्योंकि वह बुरा आदमी है। अच्छा आदमी जो दलील देता है, वह सुन ली जाती है। और अच्छे आदमी के वहम में वह दलील भी स्वीकार हो जाती
है, और बड़े खतरे होते हैं।
अब
जैसे हिंदुस्तान,
लैंग्वेज से बंटवाई गई--उसका बंटवारा पक्का है। अभी भी हम उसको
रिकग्नाइज करते जा रहे हैं! और रोज हमारा आपसे कोई लेना-देना नहीं है। हमारा देश
अलग है, हमारा सारा जीवन अलग है। मुसलमान और हिंदू में इतना
फर्क नहीं है, जितना कि भारतीय और नागा में। तो रेशियल फर्क
हैं। मुसलमान और हिंदू तो एक ही खून के हैं, इसलिए इनमें कोई
रेशियल फर्क नहीं है। इनका तो जो फर्क है वह रिलीजस, लैंग्वेज
का फर्क है। बाकी बस्तर का आदमी है वह। उसको आप कब तक रोकेंगे? वह आदमी बिलकुल अलग है। हिंदुस्तान एक बड़ा कांटीनेंट है। उसमें जैसे आप
स्वीकार करते जाएंगे, आप मुश्किल में पड़ते चले जाएंगे। तो
मेरा कहना यह है कि हमें बुनियाद से रिकग्नीशन लेना बंद करना है।
अभी
मैं अहमदाबाद था पीछे। वहां के हरिजन मंडल के मित्र मेरे पास आए। और उन्होंने कहा
कि गांधीजी आते थे,
हरिजन के घर में ठहरते थे। आप क्यों नहीं ठहरते हैं? तो मैंने उनसे कहा कि अगर तुम अपने घर में मुझे बुलाओ, तो मैं आने को राजी हूं, लेकिन हरिजन के घर में नहीं
जाऊंगा। क्योंकि हरिजन को इतनी भी रिकग्नीशन देना मैं पसंद न करूंगा कि वह हरिजन
है और उसके घर में ठहरता हूं। यह बड़ा अच्छा रिकग्नीशन है, लेकिन
हरिजन फिर हरिजन ही बना रहता, और अब और खतरा हो जाता,
क्योंकि बीमारी अब आदर योग्य मालूम पड़ती है।
अछूत
होना बेहतर है था,
क्योंकि वह शब्द गंदा था और किसी को पकड़ने में सुखद नहीं मालूम पड़ता
था। हरिजन बड़ा अच्छा शब्द है। जैसे टी.बी. को हम अच्छा नाम दे दें और ऐसा दिल से
लगाए रखें। अभी हरिजन शब्द खतरनाक है। यह बड़ा प्यारा मालूम पड़ता है और हरिजन भी
गौरव अनुभव करता है कि मैं हरिजन हूं और आप मेरे घर ठहरे हैं आकर। मगर रिकग्नीशन
जारी है और उसको हम फिर बांटे चले जा रहे हैं! यह हमें सारी बांटने की प्रक्रिया
तोड़नी चाहिए। और जहां-जहां यह मुल्क टुकड़ों में बंटा है, वहां
टुकड़े कैसे तोड़े जाएं, उसका सारा इंतजाम करना चाहिए। इस
मुल्क को एक बनाने की जरूरत नहीं है, इस मुल्क की भीतरी
एकताओं को तोड़ने की जरूरत है। मैं तो बेसिकली बात करना चाहता हूं--और एकता,
एकता इसका सहज परिणाम होगी। उसको लाने की जरूरत ही नहीं है।
वह
फेडरल गवर्नमेंट के माने में...?
नहीं, बिलकुल
डेमोक्रेटिक हो, लेकिन स्टेट को अलग तोड़ने की जरूरत नहीं है।
यह एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लाक होने चाहिए, इसको तोड़ने की कोई
जरूरत नहीं है। हिंदुस्तान की पॉलिटिक्स इतनी गंदी न हो, अगर
हम इतने डबरे न बनाएं, लेकिन इतने डबरे बनाने पड़ते हैं
क्योंकि इतने मेंढक-मछलियां हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
वह सारे के सारे मामले यह हैं कि पाकिस्तान के
मामले हिंदुस्तान से भिन्न नहीं हैं। हिंदुस्तान और पाकिस्तान एक ही माइंड के दो
टुकड़े हैं। इनके मामले कभी भिन्न होने वाले नहीं हैं। जो मामला यहां है, वह मामला
वहां है। वह तो यह भ्रांति थी हमको कि हिंदू-मुसलमान का मामला है, दिमाग का मामला है।
अब
हुआ क्या है,
जैसे बंगाल में है, अब जो पाकिस्तान का बंगाली
हिस्सा है, वह जो बंगाली पाकिस्तानी है, वह पश्चिमी पाकिस्तानी के खिलाफ है, क्योंकि पंजाब
से जो मुसलमान गया है या सिंध से जो मुसलमान गया है ढाका, वह
उसका उतना ही दुश्मन है, जितना कि कलकत्ते का आदमी मारवाड़ी
का और गुजराती का दुश्मन है। ये सब फारेनर्स हैं। कलकत्ते में फारेनर है मारवाड़ी,
ढाका में फारेनर है लाहौर का आदमी। इसमें कोई फर्क का मामला नहीं
है।
असल
में हमारा माइंड जो है,
वह लड़ने की प्रवृत्ति वाला है। वह बहुत तरह की वृत्तियां उसमें लड़ने
की हैं। एक मुद्दा खतम होता है, हम दूसरा मुद्दा फौरन लड़ने
को लिए ईजाद कर देते हैं। और मैं मानता हूं कि अगर ऐसा ही हो, तो पुराने मुद्दे पर ही लड़ना बेहतर होता है, कम से
कम नये मुद्दे तो नहीं है। अगर हिंदू-मुसलमान इकट्ठे रहते, तो
गुजराती-मराठी का झगड़ा कभी नहीं होता। हिंदुस्तान-पाकिस्तान अगर इकट्ठे होते तो
गुजराती-मराठी का झगड़ा कभी नहीं होने वाला था। क्योंकि एक बड़ा झगड़ा हमको काफी
तृप्ति दे रहा था। अब वह झगड़ा खतम हो गया।
हमारा
दिमाग लड़ने वाला है। अब वह कहता है, नये झगड़ा कैसे खोजना? अब वह गुजराती-मराठी लड़ रहा है। आप गुजराती-मराठी का लड़ना छोड़ना बंद कर
दें, गुजरात को पूरा यूनिट बना दें, तो
सौराष्ट्री और गुजराती लड़ेगा। वह बच नहीं सकता। वह माइंड वही है। वह तत्काल नये
डिवीजन खड़े करके नई यूनिट बना कर लड़ाई शुरू कर देता है। इस माइंड को तोड़ना पड़े।
माइंड को तोड़ने के सारे उपाय किए जा सकते हैं। लेकिन हम क्या करते हैं, हम इस माइंड को तोड़ना नहीं चाहते। इस माइंड के रहते यूनिटी चाहते हैं।
हम
कहते हैं, आप मुसलमान हैं, मुसलमान धर्म बहुत अच्छी बात है। आप
हिंदू हैं, हिंदू धर्म का तो कहना ही क्या, बहुत महान धर्म है। अब आप दोनों एक हो जाते हैं। आपकी दोनों नासमझियों की
पहले हम तारीफ कर दिए, उनको हम पुख्ता कर दिए और अब दोनों से
कहा कि दोनों इकट्ठे हो जाओ। अजीब पागलपन है। कहना पड़ेगा कि तुम्हारा मुसलमान धर्म
भी पागलपन है, जो आदमी को कटवा दे, तुम्हारा
हिंदू धर्म भी पागलपन है जो आदमी को कटवा दे। इतनी हिम्मत जब तक न जुटा पाएं। जब
तक हम दोनों को कहते रहें, तुम भी ठीक, तुम भी ठीक। और दोनों ठीक, और अल्ला-ईश्वर तेरे नाम!
तुम दोनों आ जाओ और गले-गले मिल जाओ।
यह
होने वाला नहीं है। हमको कहना पड़े कि उसका नाम अल्लाह भी नहीं है और उसका नाम
ईश्वर भी नहीं है। उसका कोई नाम नहीं है और जब तक तुम नाम ले रहे हो, तुम
बिलकुल बेसमझ हो। हमें इस तरफ से चोट करनी पड़े तो, तो हम
यूनिट तोड़ सकें, और एक बार यूनिट टूट जाए, तो इस मुल्क में एकता लानी कठिन नहीं है। और एकता हमेशा इमरजेंसी की जरूरत
है, रोज की जरूरत है, यह भी एक पागलपन
है। हम चिल्लाते हैं कि एकता, एकता--हमारे लिए रोज की जरूरत
बन गई। क्योंकि ये छोटे-छोटे टुकड़े रोज जान ले रहे हैं; नहीं
तो एकता इमरजेंसी की बात है।
जब
मुल्क पर कभी हमला हो कोई मुल्क पर दुश्मन आ जाए, तो मुल्क इकट्ठा हो पाता
है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। अभी भी चीन का हमला हुआ था, तो
आप इकट्ठे हो गए। इसलिए एकता कोई रोज की जरूरत नहीं है। क्योंकि बीमारी जब आएगी,
तब दवा का इलाज कर लेंगे। इसकी कोई जरूरत ही नहीं है। हमको जरूरत पड़
गई है, क्योंकि हम रोज उपद्रव में पड़े हुए हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
उसके
कारण हैं पॉलीटिशियन। असल में इतने पॉलीटिशियंस हैं मुल्क में कि उनकी तृप्ति कैसे
हो।
यह
ह्यूमन नेचर है?
यह
ह्यूमन नेचर नहीं है। असल में यह बड़े मजे का सवाल आपने पूछा। ह्यूमन नेचर जैसी कोई
चीज नहीं है। यानी इसका मतलब यह है कि आप ह्यूमन नेचर को जैसा बनाना चाहें, वह बन
जाता है। ऐसी कोई फिक्स्ड चीज नहीं है। इसलिए अगर किसी देश में स्त्रियां
महत्वपूर्ण हैं और पुरुष कम महत्वपूर्ण हैं, तो वहां ऐसा
लगता है कि ह्यूमन नेचर है कि स्त्री महत्वपूर्ण है कि पुरुष महत्वपूर्ण है।
अब
जैसे कुछ इलाकों में जहां कि स्त्री महत्वपूर्ण है, वहां स्त्री खड़े होकर पेशाब
करेगी, पुरुष बैठ कर पेशाब करेगा। इम्पार्टेंस जिसकी है वह
खड़े होकर पेशाब करेगा। यह इसकी उपाय नहीं है कि बेचारे को बैठ कर करना पड़े। उस
इलाके का आदमी सदा से ऐसा सोचता था कि स्त्री खड़े होकर पेशाब करती है, पुरुष बैठ कर पेशाब करता है। जब पहली दफे उसने पुरुष को खड़े होकर करते
देखा और स्त्री को बैठ कर तो उनको पता चला कि यह ह्यूमन नेचर नहीं है। ह्यूमन नेचर
जैसी कोई फिक्स्ड चीज नहीं है। ह्यूमन नेचर बहुत फ्लेक्सिबल चीज है। इसलिए हजार
तरह का ह्यूमन नेचर हो सकता है। आप कैसा विकसित करते हैं। तो यह जो इंडियन माइंड
है, उसने एक कंडीशनिंग विकसित की है। अब जैसे, कुछ बातें हम विकसित करते हैं परंपरा में। लंबे अर्से में वह फिक्स्ड हो
जाती हैं। एक दफा फिक्स्ड हो जाएं तो नेचर बन जाती हैं। आदत ही होती है लेकिन वह
नेचर बन जाती है। अब जैसे कि यह जो लड़ने की वृत्ति है--लड़ने की वृत्ति के हजार रूप
होते हैं। लड़ने की वृत्ति बड़ी फ्लेक्सिबल चीज है। वृत्ति है। हमने क्या किया है,
पहले तो हम जो बुनियादी चीजें हैं, उनको
स्वीकार नहीं करते हैं। फिर वे कनिंग रास्ते खोज कर निकलती हैं। जैसे लड़ने की
वृत्ति।
इस
हमें स्वीकार करना चाहिए,
यह है। लेकिन हम कहेंगे, नहीं है। मनुष्य का
धर्म नहीं है लड़ना। हम क्या करेंगे? पहले तो इसको इनकार कर
देंगे, मनुष्य का धर्म ही नहीं है लड़ना, यह तो पशु का धर्म है। इसको पशु का धर्म तय कर देंगे और मनुष्य भी लड़ने की
वृत्ति से भरा हुआ है, जो स्वाभाविक है। इसके लिए हम और कुछ
न करेंगे और मनुष्य को समझाएंगे कि मनुष्य कभी लड़ता नहीं। मनुष्य तो महान है। अब
यह उस बेचारे के भीतर जो वृत्ति है, वह क्या करे? अब वह कोई तरकीबें निकाल लेती है--मस्जिद के पीछे से लड़ेगा, मंदिर के पीछे से लड़ेगा, भाषा के पीछे से लड़ेगा।
अगर
हम सीधा-सीधा स्वीकार कर लें कि लड़ने की वृत्ति मनुष्य का हिस्सा है, तो हम
उसके लिए आउट-लेट खोज सकते हैं, ज्यादा उचित है। जैसे,
खेल में, अगर हम अपने मुल्क के लड़कों को तीन
घंटे ग्राउंड पर खेल खिला सकें, तो हम मुल्क के नब्बे परसेंट
उपद्रव को बंद कर दें। अब एक उम्र है, जब एक बच्चा दो घंटे
तक गेंद फेंकता है, वह उसको नहीं मिलता है फेंकने को,
वह पत्थर फेंकता है। वह पत्थर बस पर फेंकेगा, कांच
पर फेंकेगा। आप उसको तीन घंटे ग्राउंड पर गेंद फिंकवाते हैं, स्टिक लड़वा दें, लकड़ियां तुड़वा दें, तो वह तीन घंटे बाद तृप्त होकर घर लौट आएगा।
यह
बड़े मजे की बात है कि आमतौर से शिकारी तरह के लोग बहुत भले लोग होते हैं। उनकी
हिंसा वहां निकल जाती है। और जिनको आप बहुत भले आदमी कहें, वह अक्सर
बहुत बुरे आदमी होते हैं। हिटलर सिगरेट भी नहीं पीता है, शराब
भी नहीं पीता है, मांस भी नहीं खाता है, नौ बजे रात सो जाता है। पक्का महात्मा है। और मनोवैज्ञानिक अब कह रहे हैं
कि अगर हिटलर सिगरेट पीता होता, जुआ खेलता होता, वेश्या के घर हो आया होता, शराब पी लेता, तो दुनिया युद्ध में न जाती। इस आदमी का कुछ तो निकल जाता।
तो
क्या संयम से कुछ नहीं होता है?
उसके
वैज्ञानिक रास्ते खोजने चाहिए। उससे ही संयम पैदा होता है। संयम जो है, वह
सप्रेशन नहीं है। संयम जो है, वह समझ है। अगर एक युवक एक
उम्र में जब वह लड़ना चाहता है, और मैं समझता हूं कि लड़ने की
बात युवा होने का लक्षण है। और जिस दिन नहीं होगी दुनिया में, उस दिन दुनिया बड़ी फीकी हो जाएगी। अब रहा लड़ने का जो क्षण है, उस लड़ने के क्षण को हम गौरवपूर्ण बना पाते हैं कि अगौरवपूर्ण बना पाते
हैं। यह हमारी सामाजिक व्यवस्था और चित्त को सोचने की बात होगी।
अब
जब युवक लड़ना चाहते हैं तब वे इस ढंग से लड़ें कि लड़ना खेल हो जाए और गंभीरता न बन जाए।
लड़ेंगे तो वह पक्का। और आपने खेल न बनाया तो तो वे हिंदू-मुसलमान के नाम से लड़
लेंगे। लड़ेंगे तो पक्का ही,
लड़ने से नहीं रुक सकते।
तो
जो सोसायटी निकास दे देती है, उस सोसायटी में उपद्रव दिशा ले लेगी। फिर उन
उपद्रवों को हम क्रिएटिव भी बना सकते हैं। अब जैसे कि खतरे की एक वृत्ति है युवक
के पास। एक उम्र तक वह खतरा लेना चाहता है--चाहें तो आप हिमालय पर चढ़वा लें,
समुद्र पार करवा लें, वृक्षों पर चढ़वा लें,
आकाश में हवाई जहाज उड़वा लें।
अगर
आप यह न करवा पाए,
तो भी खतरे तो लेगा। तो पड़ोस की स्त्री को धक्का मार देगा, मगर तब वह बेहूदा हो जाएगा और बेमानी हो जाएगा। और वह भी उतना नुकसान
उठाएगा और जिसके साथ वह बदल लेगा, वह भी नुकसान उठाएगा और
पूरी सोसायटी करप्ट होगी। मेरी अपनी समझ यह है कि अगर हम मनुष्य की सारी वृत्तियों
को सहज स्वीकार कर लें और फिर उनके निकास की वैज्ञानिक और क्रिएटिव--सृजनात्मक
दिशा खोजें। जैसे कि हम मान कर चलते हैं, हम चाहते हैं कि
लड़कों में पच्चीस साल तक सेक्स ही न हो। अब यह यहूदी की बातें मान कर हम चलते हैं!
इसको हम मान तो लेते हैं और ब्रह्मचर्य ही जीवन है, ऐसी
तख्ती भी लगा देते हैं कभी-कभी। लेकिन इसका कोई परिणाम तो होने वाला नहीं है। हां,
इसका एक ही परिणाम होता है कि सेक्स को जो हम क्रिएटिव मार्ग दे
सकते थे, वह हम नहीं दे पा रहे हैं। और तब सेक्स परवर्ट होता
है और हजार तरह के उलटे रास्ते खोजता है।
क्रिएटिव
मार्ग क्या है?
क्रिएटिव
मार्ग का मेरी अपनी समझ यह है कि सेक्स के बहुत से डायमेंशन हैं। अगर लड़के और
लड़कियों को बचपन से साथ बड़ा किया जाए, तो एक डायमेंशन उनका तृप्त हो जाता
है, जो कि बहुत बड़ा डायमेंशन है। लड़के लड़कियों को जानना
चाहते हैं, लड़कियां लड़कों को जानना चाहती हैं। क्युरासिटी
है। यह क्युरासिटी गलत हो सकती है। यह क्युरासिटी गलत हो गई है। जब आप किसी के
की-होल में से झांक कर देखते हैं, तब यह जरा अशोभन हो गई। या
किसी की दीवाल के बगल में कान लगा कर किसी के घर की बातें सुनते हैं तब यह अशोभन
हो गई।
यही
क्युरासिटी विज्ञान बन जाती है। तब भी आप कान लगा कर सुन रहे हैं, लेकिन तब
आप एटम की आवाज सुनने की कोशिश कर रहे हैं कि एटम क्या कर रहा है? यही क्युरासिटी, इसमें कोई फर्क नहीं है मानने में।
और जब आप एक एटम के पास घंटों बैठ कर उधेड़बुन कर रहे हैं, तब
भी वही क्युरासिटी है। लेकिन हमारे मुल्क की क्युरासिटी सेक्स के आस-पास घूमती है
और नष्ट होती है। साइंटिफिक नहीं हो पाती। जिस मुल्क में सेक्स फ्रीडम होगी,
उस मुल्क में साइंस का जन्म तत्काल शुरू हो जाता है।
यूरोप
में पिछले तीन सौ वर्षों में जिस मात्रा में सेक्स की फ्रीडम बढ़ी, उसी
मात्रा में साइंटिफिक इनवेंशन बढ़ा। इसके भीतर पैरेलल संबंध है। असल में जब सेक्स
की क्युरासिटी खतम हो जाती है, तो क्युरासिटी कहां जाए?
एक स्त्री को आपने नग्न देख लिया, अब आप क्या
करिएगा? अब स्त्री को नग्न देखने की बात तो खतम हो गई। अब आप
कोई और गहरे तल पर किसी और चीज को नग्न करेंगे, अनकवर
करेंगे। अब आप प्रकृति को नग्न करने चले जाएंगे। अब आप एवरेस्ट पर चढ़ेंगे या
हिमालय के गौरीशंकर को उघाड़ेंगे, या कुछ और करेंगे।
मैं
नहीं कहता कि जो पश्चिम हो गया, वह बिलकुल ठीक हो गया। कहता मैं यह हूं कि उससे
हमें बहुत कुछ सीखने योग्य है। उसमें बहुत कुछ समझने योग्य है। जो भी सेक्स
सप्रेसिव समाज है, वह साइंटिफिक नहीं हो पाता है। उसकी
क्युरासिटी सेक्स के आस-पास रह जाती है। और मेरा मानना है कि लड़के और लड़कियों को
साथ बड़ा करना चाहिए। उन्हें साथ दौड़ने दो, खेलने दो, तैरने दो। उनके बीच भी यह हिंदू-मुसलमान से भी बड़ा खतरा खड़ा किए हुए
हैं--लड़की अलग और लड़का अलग!
वह
जो नेचरल इंस्टिंक्ट है,
वह कुछ न करने का कर बैठती है, तो उसके लिए
क्या उपाय है?
वह
जो भय है आपका,
उस भय की वजह से वह नहीं रुकती। उस भय की वजह से वह दुगुना कर बैठती
है। और उलटे रास्तों से करती है, जो कि बीमार और रुग्ण हो जाते
हैं, एबनार्मल हो
जाते हैं। जो नार्मल है, करने योग्य है, उसको रोकने की वृत्ति भी आपकी गलत है। मेरा मतलब समझे, जो नार्मल और करने योग्य है, जैसे चौदह साल का लड़का
और लड़की हो गए हैं, वे प्रेम करेंगे। अगर इनके प्रेम को हम
सहज व्यवस्था दे सकें, और इनको सेक्स की पूरी शिक्षा दे सकें,
इनको करीब आने का पूर मौका दे सकें, तो ये खुद
भी इतने रिस्पांसीबल हो जाएंगे कि सौ में से दस मौके ही उस खतरे के हैं, जो आप कह रहे हैं। और आप जो करवा रह हैं, उसमें
नब्बे मौके हैं और इस मौके बचने के हैं। जो बचेंगे वे होमोसेक्सुअल हो जाएंगे,
वे और दूसरे उपद्रव कर लेंगे, जिनकी वजह से
जिंदगी भी खतरे में पड़ जाएगी। और मेरी अपनी समझ यह है--हॉस्टल्स और यूनिवर्सिटी
में बहुत दिन रहने के बादा--बहुत मुश्किल से ऐसे लड़के मिलेंगे, जो मास्टर्बेशन नहीं कर रहे हों, होमोसेक्सुअल नहीं
हैं। बहुत मुश्किल से लड़कियां मिलेंगी, जो होमोसेक्सुअल नहीं
हैं। आउट-लेट वे खोजेंगी। आपने एक आउट-लेट बंद किया, जो कि
नैसर्गिक था। वे आउट-लेट खोज रहे हैं।
यह
जो परवर्शंस का भय हो जाता है, वह क्या है?
यह
तो होगा न, क्योंकि जितनी भी अप्राकृतिक व्यवस्था होगी, उतनी ही
स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाली होगी। स्त्री और पुरुष का संबंध स्वास्थ्य को
नुकसान पहुंचाने वाला नहीं है। लेकिन अगर परवर्शन पैदा हो जाए तो स्वास्थ्य को
नुकसान पहुंचने वाला है। अप्राकृतिक है वह। और दूसरी बात, एक
दफा, अप्राकृतिक मार्ग बन जाए आपके दिमाग का, तो उसे प्राकृतिक मार्ग पर लौटाना असंभव हो जाता है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
यह
बात तभी तक रोक सकते हैं,
जब तक आपके पास किताबें हों। अगर आपके पास बिलकुल किताबें हों,
तो स्वामी जी भाड़ में जाएंगे, आप किताब चुरा
ले जाएंगे। विवेक जो है, वह भी आसमान से नहीं उतरता। वह भी
व्यवस्था से आता है। असल में अगर एक लड़का और लड़कियों के साथ बड़ा हुआ है, उसने सब तरह की लड?कियों के साथ खेला और कूदा है,
तो पहली तो बात यह है कि लड़की में जो एक पागल आकर्षण मालूम होता है,
वह बहुत गुणा क्षीण हो जाता है। तो आपकी पत्नी को वह रास्ते पर
धक्का इतनी आसानी से नहीं मार सकता। उसके भीतर भी आकर्षण में बुनियादी फर्क पड़ता
है।
दूसरी
बात, जैसे-जैसे वह परिचित होता है, और अगर हमारी कोई
रुकावटें न हों। अब जैसे समझ लें, एक आदमी जिसे घर में खाना
ठीक से मिलता है, उसको बहुत कम संभावना है कि अगर एक रात उसे
खाना न मिले, तो वह दूसरे के घर में चोरी करने चला जाए। एक
रात में यह संभव नहीं है। लेकिन एक आदमी को खाना ही न मिला हो और आपके सामने किचन
में ही उसको बिठा कर रखा गया हो और किचन तक हाथ भी न बढ़ाने दिया जाता हो और उसको
अगर आज रात मौका मिल जाए और वह भूखा हो, तो संभावना बहुत कम
है कि विवेक काम कर पाए। विवेक के काम करने की भी सिचुएशन चाहिए। हम विवेक की तो
बात करते हैं, लेकिन सिचुएशन बिलकुल अविवेकपूर्ण है।
मेरा
दोनों बात पर जोर है। मेरा कहना है पहले तो सिचुएशन ऐसी बनाएं जिसमें विवेक काम कर
सके। दूसरा विवेक पैदा करने का आपका क्या उपाय है? बाप कभी बात नहीं करता है
बेटे से सेक्स की, मां कभी बात नहीं करती। शिक्षक कभी बात
नहीं करता। विवेक आसमान से आ जाने वाला है? उसके भीतर जो
नेचरल इंस्टिंक्ट आएगी, वह बिलकुल एनिमल होगी और कोई दुनिया
में उसको बताने वाला नहीं कि क्या हो रहा है उसके भीतर। वह तो यही समझेगा, मैं ही कोई एक पापी हूं, दुनिया में यह हो ही नहीं
रहा है। बाप जो है, उसको यह हो नहीं रहा है।
अभी
कल मुझे एक लड़के का पत्र आया है। उसने लिखा है कि मैं तो सदा ही समझता था कि मेरे
बाप को सेक्स जैसी कोई चीज ही नहीं है, लेकिन मैंने जब उन्हें मां के साथ
संभोग करते देखा, तो मैं हैरान हो गया कि मुझे ब्रह्मचर्य का
उपदेश दिया जा रहा है। और उस दिन से मैं बाम का दुश्मन हो गया हूं। और उसने जो
पत्र लिखा है, वह बहुत हैरानी का है कि बाप का मैं दुश्मन हो
गया हूं तो मैं अपने बाप के प्रति श्रद्धा कैसे पैदा करूं, यह
मुझे लिखिए। और मेरे भीतर एक अजीब चीज चल रही है, जो मैं
किसी को नहीं कह सकता। मैं भी अपनी मां के साथ संभोग करना चाहता हूं, जब बाप करता है। यह परवर्शन हो गया।
लेकिन
यह इतना खतरनाक है कि लड़का अगर किसी लड़की से संभोग करना चाहे, तो नेचुरल
है, लेकिन अगर यह मां से करना चाहे तो यह परवर्शन है। और यह
परवर्शन इसके मां-बाप दोनों ने मिल कर पैदा किया है, क्योंकि
दोनों इसको यह दिखा रहे हैं कि इस तरह की बात ही नहीं है कोई। इसको एकदम अंधेरे
में रखा जा रहा है। और इसको उपदेश पिलाए जा रहे हैं। उपदेश भी ऐसे हैं, जो उनके व्यक्तित्व के बिलकुल विपरीत हैं। इस बात को स्वीकार करना चाहिए,
कि सेक्स जीवन की सहज स्थिति है। मां को स्वीकार करना चाहिए कि
सेक्स भी जीवन की सहज स्थिति है।
इस
बच्चे को नार्मल बनाने के लिए जरूरी है कि जो इसके भीतर उठ रहा है, वह सहज
इसको बताया जाए कि सहज से घबड़ाने की कोई बात नहीं है। यह कोई बीमारी पैदा नहीं हो
ही है तुम्हारे भीतर। इसको अकेले कैदखाने में डाल देने की जरूरत नहीं है कि अपनी
बीमारी को खुद ही सोचे। इसकी साथी मिल जाएंगे, जो इतने ही
अनजान और अशिक्षित हैं। इसको लोग मिल जाएंगे, जो इसको गलत
रास्तों पर डाल देंगे। सेक्स की पूर्ण शिक्षा विवेक लाने में बड़ी सहयोगी है।
एक--सेक्स
के संबंध में कंडेमनेशन का भाव हट जाए तो विवेक आने में बड़ा सहयोग मिलेगा। सेक्स
कोई पाप नहीं है,
परमात्मा की तख्ती उस पर भी है। ऐसी दिव्यता की धारणा अगर पैदा की
जाए, तो सेक्स का दुरुपयोग करना फिर मुश्किल हो जाए।
तो
साधु-संत जो ब्रह्मचर्य का पालन सिखाते हैं, वह गलत है?
यह
बिलकुल ही अवैज्ञानिक बकवास है। और जो भी इन बातों को कर रहा है...क्योंकि मैं
मानता हूं कि इस मुल्क का साधु धोखे की बातें कर रहा है और गलत बातें कह रहा है।
और वह बातें इसलिए कर रहा है, मैं तो इतना हैरान हूं कि साधारण गृहस्थ अगर
मेरे पास आता है मिलने तो उसके हजार प्रॉब्लम होते हैं, उनमें
एक प्रॉब्लम सेक्स होता है। लेकिन साधु मुझसे मिलने आता है तो उसके हजार प्रॉब्लम
में हजार प्रॉब्लम सेक्स के होते हैं। वह दिन-रात ब्रह्मचर्य समझा रहा है और जब
मुझसे प्राइवेट में मिलता है, तो उसका प्रॉब्लम क्या है?
अस्सी
साल का हो गया है,
सत्तर साल का हो गया है, तो भी! बढ़ जाता है
ज्यादा। क्योंकि जितना सप्रेस किया था, लोलुपता भारी हो जाती
है। और जब शक्ति कम हो जाती है, तो लोलुपता और भी उस पर हमला
करती है कि अभी समय भी चुका जा रहा है। मैं यह मानता हूं कि ब्रह्मचर्य जैसी
संभावना है, लेकिन ब्रह्मचर्य सेक्स के विपरीत लड़ कर कभी
संभावना नहीं है। सेक्स को समझ कर जरूर संभव है। लेकिन सेक्स की निंदा अगर आप करते
हैं, तब तो बिलकुल संभव नहीं है, क्योंकि
फाइट शुरू हो गई और इसलिए नहीं संभव हो पाया। आप ऋषि-मुनियों की अगर कहानियां
पढ़ेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि ब्रह्मचर्य के नाम पर जो-जो आपके ऋषि-मुनियों का
जीवन है, वह बताता है।
यह
तो यूरोप में भी है।
कहीं
भी, आपके ऋषि-मुनि ही नहीं, सप्रेशन सब जगह था। आप जैसा
सप्रेशन सारी दुनिया में था। सारी दुनिया का जो पिछला दिमाग था, उसमें एक सा सप्रेशन है। सारी दुनिया में धर्म ने वही सिखाया है। लेकिन
उसके परिणाम आप जानते हैं कि क्या-क्या हुए? पूरा भ्रष्टाचार
है। अगर आप अपने ऋषियों, देवताओं की कहानियां पढ़ें तो वे
सारी कहानियां भ्रष्टाचार की हैं। और मजा यह है कि उनको हम पूजे चले जा रहे हैं और
ब्रह्मचर्य की बकवास किए जा रहे हैं! सब उपद्रवी हैं। यह जो मामला है, हम यह नहीं देखते कि सब ऋषि-मुनियों का हो गया है।
विश्वामित्र
और मेनका की जो बातें हैं द्रष्टा के लिए, तो उसमें क्या हैं?
यही
है--असल में जहां भी ऋषि जो है, उसका स्खलन सदा आसान है। साधारण आदमी के बजाय।
स्खलन तब आसान है, जब कि सप्रेशन बहुत तीव्र हो। और मेनका को
लाने की जरूरत नहीं है। साधारण सी स्त्री मेनका जैसी दिखाई पड़ेगी, अगर आपका दिमाग सप्रेशन में है। कोई अप्सराएं उधर से उतर कर यहां ऋषियों
को भ्रष्ट करने आएं, ऐसा कोई इंतजाम परमात्मा का दिखाई नहीं
पड़ता, और अगर ऐसा कोई भी इंतजाम है, तो
परमात्मा भी हद्द कनिंग है।
एकदम
बेमानी बात है कि एक आदमी,
ऋषि बेचारा साधना कर रहा है और ऊपर से अप्सराएं भेजी जा रही हैं,
उसको भ्रष्ट करने के लिए! यह परमात्मा की उत्सुकता बहुत सेक्सुअल
है। और परमात्मा किसी का तपोभंग करने को उत्सुक है कि तप बढ़ाने को उत्सुक है?
यह सारी व्यवस्था हुई न। असल में कोई अप्सरा नहीं आ रही है। लेकिन
साधारण सी स्त्री बहुत सप्रेशन से अप्सरा दिखाई पड़ती है। और स्त्री न हो, तो भी दिखाई पड़ सकती है। बहुत सप्रेसिव दिमाग हो, तो
प्रोजेक्शन शुरू हो जाता है। आंखें बंद कीं और स्त्री ही दिखाई पड़ेगी, और कुछ ध्यान में आने वाला नहीं है। तो यह सारी की सारी अवैज्ञानिक
अव्यवस्था थी।
यह
सेक्स के बारे में बहुत,
आपके विचारों के बारे में बहुत कुछ बातें होती हैं। उसका आपकी ओर से
कुछ खुलासा करेंगे?
बिलकुल
खुलासा करूंगा। मेरी अपनी दृष्टि ऐसी है कि एक तो जीवन में जो भी है, उसको मैं
निंदा के भाव से नहीं देखता। जीवन के प्रति मेरे मन में निंदा का भाव ही नहीं है।
समग्र जीवन का बाबत। अगर आपके भीतर क्रोध है, तो उसे भी मैं
निंदा से नहीं देखूंगा। मैं मानता हूं, क्रोध भी बहुत बड़ी
शक्ति है, और उसके दोनों रूप हो सकते हैं, रचनात्मक भी, विध्वंसात्मक भी।
इसी
तरह काम है, लोभ है--सब एनर्जीज हैं। इसलिए जीवन की समस्त एनर्जीज को मैं स्वीकार करता
हूं। और इनकी स्वीकृति के बाद ही मैं मानता हूं कि इनकी समग्र स्वीकृति में इनके
परिष्कार का पहला कदम है, क्योंकि जिस शक्ति को हम स्वीकार
नहीं करते, उस शक्ति से हम लड़ना शुरू कर देते हैं। और जिस
शक्ति से हम लड़ते हैं तो हमारे भीतर हम खंड-खंड करते हैं--अपने से ही लड़ना है वह।
अगर मैं अपने बाएं हाथ की निंदा करूं और दाएं हाथ को लड़ाऊं, तो
उसमें कुछ हारने-जीतने वाला होने वाला नहीं है। दोनों हाथ मेरे हैं। कोई जीतेगा
नहीं, कोई हारेगा नहीं, सिर्फ लड़ाई
चलेगी।
हां, एक हार
जाएगा, मैं हार जाऊंगा आखिर में लड़ते-लड़ते। हाथ मेरे लड़ेंगे।
तो मेरी सारी शक्तियां हैं, वे इंटिग्रेटेड होनी चाहिए। और
अगर मैंने अपनी एक भी शक्ति से लड़ना शुरू किया, तो मैं
डिसइंटिग्रेटेड हुआ और टुकड़ों में टूटा हुआ आदमी स्किजोफ्रेनिक हो जाता है। इसलिए
भारतीय संस्कृति को मैं स्किजोफ्रेनिक कहता हूं। यह हमारा पूरा का पूरा दिमाग
खंड-खंड है, टुकड़ों में बंटा है और आपस में लड़ रहे हैं अपने
भीतर। यह लड़ाई मैं पसंद नहीं करता।
मैं
मानता हूं, जो मेरे भीतर है, जो मिला है प्रकृति से या परमात्मा
से, इस सबको मैं कैसे सृजनात्मक मार्ग पर ले जा सकूं,
यह कैसे मेरे लिए अधिकतम सुख का कारण बन सके, यह
कैसे मेरे लिए अधिकतम तृप्ति ला सके, यह कैसे मेरे लिए वह
जगह ला सके, जो मैं कह सकूं कि जीवन धन्य हुआ। इस दिशा में
मैं इन सारी शक्तियों को कैसे ले जाऊं, इनमें से किसी शक्ति
को काटना नहीं, नष्ट नहीं करना है, इसलिए
सेक्स पर भी मेरी पूरी स्वीकृति है। अब यह जो स्वीकृति है, इससे
भ्रांति पैदा होती है। लोगों का चूंकि सप्रेसिव माइंड है, इसलिए
उनके लिए स्वीकार का मतलब सिर्फ होता है एकदम से।
जिस
आदमी ने उपवास किया है,
उसे भोजन का मतलब सदा ही ज्यादा खा जाना होता है। सदा ही। उसके लिए
जो मतलब होता है दिमाग से, क्योंकि उसके लिए वह सोच ही नहीं
सकता कि भोजन मिले और ज्यादा न खाया जाए। पंद्रह दिन से जो उपवास कर रहा है वह
भोजन का मतलब ज्यादा खा जाना। तो वह दो ही काम कर सकता है, या
तो वह भोजन बिलकुल रोके रहे, तब चल सकता है। अगर वह थोड़ा सा
शुरू करे, तो सब खा जाए, ज्यादा खा जाए,
इसका डर उसको सदा है। तो वह कहेगा, भोजन को
स्वीकार की मत करो। स्वीकार किया कि मुश्किल में पड़े।
यह
जो हजारों साल का हमारा दमित चित्त है, यह दमित चित्त हमें इतना डराता है
कि हमने जड़ से स्वीकार किया है। सभी धर्म दमित हैं न। असल में सभी धर्म जो हैं,
वह विज्ञान के जन्म के पहले के हैं। और विज्ञान की नवीनतम मनस खोजों
ने हमें बताया है कि दमन जो है, वह विकृत करता है, स्वीकृत नहीं करता है। असल में सभी धर्म फ्रायड के पहले के हैं, और फ्रायड के बाद अभी कोई धर्म पैदा नहीं हुआ, जब कि
अब धर्म फ्रायड के बाद जो पैदा होगा, वह बड़ा भिन्न होगा।
इसलिए
जो मैं कह रहा हूं,
वह उस धर्म की पहली स्वीकृति होगी। मेरे हिसाब में प्रि-फ्रायडियन
धर्म और पोस्ट-फ्रायडियन धर्म अलग हो गए। लेकिन अभी फ्रायड के बाद कोई धर्म पैदा
नहीं हो पाया है। सब धर्म जो हैं, प्रि-फ्रायडियन हैं। कोई
दो हजार साल पहले का है, कोई हजार साल पहले का है। ये सारे
के सारे धर्मोंने दमन को, सताने को, कष्ट
देने को, अपने को दबाने को स्वीकार किया था। यह बिलकुल ही
स्वाभाविक था।
मनुष्य
के मन के संबंध में हमारी जानकारी बहुत कम है। अब मनुष्य के संबंध में हमारी जो
जानकारी है, वह कहती है, यह गलत रहा। और इस गलत के कोई फायदे
कहीं हुए? धर्म की इतनी चर्चा हुई, उन्होंने
कितने धार्मिक आदमी पैदा कर लिए?
और
अगर कभी करोड़ दो करोड़ आदमी में एक आदमी बुद्ध हो जाए, तो यह ऐसे
ही है, जैसे दो करोड़ पौधे हम लगाएं और एक पौधे में फल आ जाए,
तो माली का प्रशंसा करनी पड़े! यह नासमझी की बात है, इसमें कोई प्रशंसा की बात नहीं है। दो करोड़ पौधों में एक पौधे पर फल आ गया
है तो यह माली निंदा योग्य है। और मानना चाहिए कि यह फल माली के कारण नहीं आया,
माली से बच कर आ गया है किसी तरह से। माली का सबूत तो दो करोड़ पौधे
पर है। तो हमारा जो धर्म था, उसने कितने धार्मिक आदमी पैदा
किए? अगर कुछ दस-पांच आदमी धार्मिक पैदा हो गए, जो अंगुलियों पर गिने जा सकें और करोड़ों, अरबों लोग
क्रिपिल्ड, परेशान और चिंता में जीएं, तो
यह हमें मानना चाहिए कि इंस्पाइट ऑफ स्वास्थ्य ये कुछ लोग पैदा हो गए हैं। यह कोई
दिमाग गौरव नहीं है। यह किसी तरह बच निकले।
अमेरिका
में विचारक हुआ थोरो। थोरो जब पढ़-लिख कर अपने गांव आया, यूनिवर्सिटी
से लौटा, उसके गांव में उसका स्वागत हुआ और एक बूढ़े ने एक
बहुत कीमती बात कही। और उस बूढ़े न कहा, मैं थोरो का स्वागत
करता हूं कि यह लड़का अपने को यूनिवर्सिटी से बचा कर लौट आया है। यह जैसा गया था,
वैसे ही लौट आया है, इसलिए मैं इसका स्वागत कर
रहा हूं। इसने अपने को कैसे बचा लिया, यह आश्चर्य है।
मेरी
समझ में बुद्ध और महावीर,
कृष्ण और क्राइस्ट, शंकर और नागार्जुन,
ये थोड़े से लोग हमारे हुए हैं, ये लोग कैसे
हमारी संस्कृति से बच कर हो गए, यह आश्चर्य हमें करना चाहिए।
हमारी संस्कृति के सबूत नहीं हैं। ये हमारी संस्कृति से बच कर इनमें फल आ गए। आने
वाले भविष्य में मैं समझता हूं कि यहां करोड़ दो करोड़ में एकाध दो आदमी न हो पाए
धार्मिक, तो हम समझेंगे कि चलेगा। तो, तो
क्षम्य है। लेकिन अब ऐसा नहीं चल सकता है कि एक आदमी धार्मिक हो और दो करोड़ आदमी
अधार्मिक हों, तो हमें समझना पड़ेगा कि धर्म का विज्ञान कहीं
भ्रांत है। तो मैं मानता हूं कि भ्रांत है और उसकी सबकी सबसे बड़ी भ्रांति यह है कि
वह मनुष्य की शक्तियों का आरोहण नहीं सिखाता है, दमन सिखाता
है। तो सेक्स के बाबत हमारी सबसे ज्यादा कठिनाई है, कि उसको
हमने ज्यादा दबाया है। और उसके दबाने के कुछ कारण थे।
बड़े
मजे की बात यह है कि पक्की समझ वाला कोई आदमी है ही नहीं इस दुनिया में। मुश्किल
से दस-पांच हैं। वह जो बूढ़ा है, वह उससे भी ज्यादा कच्चा है, जितना कि जवान है। सिर्फ उम्र ज्यादा हो गई है, तो
वह समझ रहा है कि पक्की समझ है! पक्की समझ सप्रेसिव माइंड में कभी पैदा नहीं होती।
आपका
जो प्रवचन है,
वह कच्चे मानस पर...।
उसी
के लिए तो है न,
मेरा तो। उसी पर असर करना है। वह जिसको आप पक्की समझ कह रहे हैं,
वह तो उस जगह पहुंच गया है कि वह पॉइंट ऑफ नो रिटर्न पर है वह। उसको
तो लाना भी नहीं है। मैं मानता हूं कि अगर आदमी ईमानदारी से नास्तिक हो सके,
तो बेईमानी से आस्तिक होने से सदा बेहतर है। और जो आदमी नास्तिक भी
नहीं हो सकता, वह आस्तिक होगा कभी, यह
मैं शक करता हूं। नास्तिक होना पहली सीढ़ी है, आस्तिक होना
अंतिम फल है।
नास्तिकता
मार्ग है, आस्तिकता उपलब्धि है।
तो
मैं इनको भी विरोध में नहीं मानता। जैसे विश्वास और संदेह के लिए मैंने आपको कहा, वैसे मैं
मानता हूं कि नास्तिक होना अनिवार्य हिस्सा है। एक उम्र है, जब
आदमी को इनकार करना सीखना चाहिए। और एक उम्र है कि जब उसको जल्दी हां नहीं भरनी
चाहिए, क्योंकि वह कमजोरी का सबूत है। हां मजबूरी में नहीं
भरनी चाहिए, हां किसी अनुभूति से भरनी चाहिए। तो मैं तो
मानता हूं, युवकों को एक वक्त नास्तिकता से गुजरना ही चाहिए,
और अगर वे नास्तिकता से गुजर सकें, तो ही किसी
दिन सिंसिअरली आस्तिक हो कसेंगे।
और
हमारे मुल्क का जो आस्तिक है, वह बेईमान इसीलिए है। वह कभी नास्तिक तक होने
की ईमानदारी उसने नहीं दिखाई है। उसने ईश्वर तक के लिए झूठी हां भरी है, और उसकी हां तो ठीक ही है--उसका ईश्वर, उसका
परमात्मा, उसका मोक्ष सब झूठा हां भर रहा है। उसको कुछ भी
पता नहीं और वह हां भर रहा है! तो मैं नहीं मानता कि नास्तिकता बुरी बात है। मैं
तो मानता हूं, अनिवार्य मैच्योरिटी में, जिसको आप पक्की समझ कह रहे हैं, उसकी सीढ़ी का हिस्सा
है।
आपकी
बात तो कच्ची समझ वाले पांच-दस हजार साल से सुन रहे हैं और पक्की समझ वाले नहीं हो
पाए! एक पचास साल का मौका मुझे भी चाहिए, मैं जो कह रहा हूं। आपकी तो पचास
हजार साल से सुन रहे हैं, अभी तक पक्की समझ वाला कोई हो नहीं
पाया। उसी बात को आप फिर भी कहे चले जाना चाहते हैं! मैं मानता हूं कि मेरे साथ
रिस्क है। आप जो कमजोर सिद्ध हो चुके हैं, आपका तो कोई सवाल
ही नहीं है। आप तो विकल्प हैं ही नहीं। मेरे साथ रिस्क है, वह
ठीक भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है। उसमें एक संभावना ठीक
होने की है, एक गलत होने की है। आप तो सौ प्रतिशत गलत हो
चुके हैं। आप तो कोई विकल्प ही नहीं हैं। मैं मानता हूं, खतरा
है ही, लेकिन हर नई चीज में खतरा है, और
खतरा होना चाहिए।
नीत्शे
अपनी टेबल पर एक छोटा सा वचन--आपको पसंद पड़ेगा--लिखे रहता था--"लिव डेंजरसली'। और जब
किसी ने उसको पूछा कि तुम क्यों लिखे हुए हो? तो उसने कहा,
और तो लिविंग को कोई मतलब ही नहीं होता, जीने
का कोई मतलब ही नहीं होता है। जीना है तो खतरे में ही जीना पड़ेगा। नहीं जीना है,
तो मरना बहुत सिक्योरिटी की बात है। मर गए, फिर
कोई खतरा नहीं है। मरा हुआ आदमी फिर मर भी नहीं सकता, बीमार
भी नहीं पड़ सकता, भूल भी नहीं कर सकता, पाप भी नहीं कर सकता।
आप
अपने को धर्मगुरु मानते हैं या नेता मातने हैं या क्या मानते हैं?
न
मैं नेता हूं,
न मैं धर्मगुरु हूं।
तो
फिर जो आपका चोला है,
वह धर्मगुरु का है?
वह
चोला मुझे पसंद है। वह मेरी स्वतंत्र पसंदगी है। जो मैं कपड़ा पसंद करूं, वह तो
मुझे पसंद करना चाहिए कि मैं कैसा कपड़ा पहनूं।
लेकिन
भ्रांति हो जाती है लोगों में?
वह
भ्रांति तो मैं तोड़ रहा हूं चारों तरफ से। वह नहीं टिकने दूंगा। मेरे कपड़ों से
भ्रांति नहीं टिकने दूंगा। मैं भी तो मौजूद हूं कपड़े के भीतर। मैं नहीं टिकने
दूंगा।
आप
माक्र्स और फ्रायड का कुछ मिक्सचर हैं, ऐसा भ्रम होता है?
यह
किसी को लग सकता है। लेकिन माक्र्सवादी से पूछेंगे तो नहीं कहेगा ऐसा। फ्रायडियन
से पूछेंगे तो ऐसा नहीं होगा। क्योंकि जब मैं फ्रायड पर पूरी बात करता हूं तो मैं
मानता हूं कि फ्रायड बहुत प्राथमिक है और बचकाना है। और माक्र्स बिलकुल आउट ऑफ डेट
है। माक्र्स का कोई भविष्य नहीं है। यह तो जो मैं कह रहा था माक्र्स डिटर्मिनिस्ट
है तो मैं यह कह रहा था कि भारत के मन में चूंकि डिटर्मिनिस्ट की जगह है, इसलिए
माक्र्स को भी जगह मिल सकती है। लेकिन डिटर्मिनिज्म ही गलत है। कम्युनिज्म भी आएगा
नहीं। कोई लाए, तो ला सकता है, न लाए
तो रोका जा सकता है। कोई कम्युनिज्म इनएविटेबिलिटी नहीं है। अभी मैंने
"समाजवाद से सावधान' लेक्चर दिए। पूरी किताब आपको भिजवा
देता हूं। तो मैं तो सख्त खिलाफ हूं।
लोग
तो आपमें शक कर रह हैं कि आप कम्युनिस्ट विचार के हैं?
स्वाभाविक
है, मैं जो सारी चीजों में शक पैदा करवाऊं, तो मेरे बाबत
भी शक पैदा हो, यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें वक्त लगेगा,
क्योंकि मैं इतनी बातें कर रहा हूं और इतने विभिन्न कोणों से कहता
हूं और हमारा मन ऐसा है न कि तत्काल लेबल लगाने को उत्सुक होता है। अगर मेरी एक
बात सुनी, तो एक आदमी एक लेबल लगा देगा। मेरी दूसरी बात सुनी
तो, तो वह तत्काल लेबल बदलने की दिक्कत शुरू हो जाती है। अब
मेरी कठिनाई यह है कि जिंदगी जो है, वह बहुत ही मल्टी
डायमेंशनल है, और बड़ी जटिल है। उस पूरी जटिलता को जब आप पूरी
तरह समझ पाएं, तो आप कभी भी लेबल न लगाना चाहेंगे।
आप
धर्मगुरु हैं या नेता हैं,
कम्युनिस्ट हैं, क्या हैं, आपका कोई स्वरूप पकड़ में नहीं आता है?
क्योंकि
नहीं है कोई स्वरूप। हमारी कठिनाई क्या है, अभी एक घटना से आपको समझाऊं। मैं
इधर पीछे एक दफा ट्रेन में बढ़ा बंबई से। यहां सब मित्र छोड़ने गए थे। तो मेरे
कंपार्टमेंट में एक सज्जन और थे। उन्होंने देखा, बहुत से लोग
छोड़ने आए। किसी ने पैर छुआ, किसी ने माला पहनाई, स्वभावतः उन्होंने मेरे कपड़े वगैरह देखे तो समझा कि कोई महात्मा हैं।
गाड़ी
चली तो उन्होंने साष्टांग,
बिलकुल सिर रख कर पैर पर मुझे नमस्कार किया, और
कहा कि तुम्हें पक्का पता लगा लेना चाहिए कि मैं महात्मा हूं या नहीं हूं। तुमने
तो पैर पहले ही पकड़ लिए। अब अगर मैं महात्मा न निकला तो तुम वापस कैसे लोगे और मुझ
पर एक नाहक का ऋण हो जाएगा और मैं इसको लौटाऊंगा कैसे? उन्होंने
कहा, नहीं, आप भी क्या मजाक करते हैं।
मैंने कहा, मैं मजाक नहीं कर रहा। मैं महात्मा नहीं हूं।
मेरा शौक है ये कपड़े पहनने का। उन्होंने कहा, नहीं-नहीं,
आप मजाक कर रहे हैं। अब वह आदमी डर गया, कहा,
नहीं आप मजाक कर रहे हैं। मैंने कहा, मैं मजाक
नहीं कर रहा हूं, मैं कोई महात्मा नहीं हूं। तो उसने कहा,
कम से कम आप हिंदू तो हैं! जाने दो महात्मा को। अगर हिंदू भी हों तो
चलो झंझट खतम हुई। मैंने कहा, हिंदू तो मैं बिलकुल ही नहीं
हूं। एक दफा महात्मा होने की भूल कर भी जाऊं, हिंदू होने की
भूल बिलकुल नहीं कर सकता। हिंदू बिलकुल नहीं हूं। उसने कहा, अरे,
आप क्या मजाक किए दे रहे हैं, क्या गजब किए दे
रहे हैं? वह इतना घबड़ा गया--पढ़ा-लिखा आदमी है वह, एयर कंडीशंड में है वह, पैसे वाला आदमी है! आप यह
क्या कर रहे हैं? हिंदू नहीं हैं आप? तो
आप कौन हैं। तो मैंने कहा, क्या मुझे हिंदू या मुसलमान या
ईसाई होना ही पड़ेगा? मैं निपट आदमी नहीं हो सकता? मेरे निकट आदमी होने में कोई आपको आपेक्ष है? कि
मुझे कोई लेबल होना पड़ेगा। कहा, नहीं-नहीं, मुझे कोई आक्षेप नहीं है। लेकिन उस आदमी ने क्या किया? वह इतना उसको कठिन पड़ा, मेरे साथ बैठना कि वह
कंडक्टर को बुला कर बगल के कंपार्टमेंट में चला गया। मैं बाथरूम गया, तो मैंने देखा, उसका सामान गया। तो मैंने उसका जाकर
सुबह दरवाजा खटखटाया। मैंने कहा,सत्संग का आपने मौका छोड़
दिया? मैं जो मजाक कर रहा था। उसने फिर भी पैर पकड़े। उसने
कहा, मैं तो पहले ही कह रहा था कि आप महात्मा हैं। आपने रात
भर मुझे निकलवा दिया। यह जो मैं आपसे कह रहा हूं।
जो
आप पूछते हैं कि मैं नेता हूं कि धर्मगुरु हूं। न मैं नेता हूं, न मैं
धर्मगुरु हूं। मैं एक निपट अकेला आदमी की हैसियत से खड़ा हूं जिसके साथ कोई लेबलिंग
नहीं है। न मेरा कोई अनुयायी है।
फिर
आपका उद्देश्य?
उद्देश्य
जो मुझे ठीक लग रहा है,
जो मुझे आनंदपूर्ण लग रहा है, वह आपसे कह देता
हूं। फिर आपसे मेरा कोई संबंध नहीं है। आपने सुन लिया, इतना
काफी है।
इसका
परिणाम होगा?
बिलकुल
फिक्र नहीं, क्योंकि परिणाम की फिक्र नहीं है--बिलकुल नहीं है। आंदोलन इस पर हो जाए,
यह दूसरी बात है। मेरा आंदोलन नहीं है। नहीं होगा, तो मैं इसमें कोई इनकार करता नहीं।
क्या
यह निरपेक्ष भाव आपको बराबर लगता है?
बराबर
का प्रश्न नहीं है,
वह है, एक बात। वह मेरे लिए आनंदपूर्ण है। और
मैं मानता हूं कि ऐसे ही आनंदपूर्ण निर्लेप भाव से अगर कुछ हो, तो वह शुभ है। अगर हमारे करने की कोशिश से कुछ हो, तो
उसमें कुछ न कुछ हिंसा हो जाती है। गुरु हिंसा कर ही देता है। नेता भी हिंसा कर
देता है और पक्ष भी पैदा कर देता है। वह मुक्त नहीं कर पाता है, बांध ही देता है। तो मैं तो आपसे बात कह देता हूं, फिर
खतम हो गई बात। आपको अच्छी लगी, बुरी लगी, वह आप जानें। मुझसे आपका इससे कोई संबंध पैदा नहीं होता। ज्यादा से ज्यादा
मित्रता के। और आपका मेरा संबंध कभी नहीं बन पाता। और उसमें मेरी आप बात मानते हैं
कि नहीं मानते हैं, वह आपका जानना है। मेरा कोई लेना-देना
नहीं है। और मुझे आप न मानें, यह मेरी चेष्टा होती है। अगर
मानें बात को, तो मुझसे कोई संबंध न रखेंगे। क्योंकि व्यक्ति
आड़े आकर नुकसान ही पहुंचाते हैं सत्य को। वह धर्मगुरु की तरह पहुंचाएं, नेता की तरह पहुंचाएं, कोई फर्क नहीं पड़ता। एक हमने
बात की, एक डायलाग पूरा हो गया। एक बात मैंने आपसे की,
आपने मुझसे की। मैंने आपसे कुछ सीखा, आपने
मुझसे कुछ सीखा, बात खतम हो गई। इसमें मैं सिखाने वाला,
आप सीखने वाले, ऐसा भी पक्का रिश्ता नहीं है।
इसमें हम दोनों बात करते वक्त सीख रहे हैं।
इस
प्रक्रिया में इसलिए कौन शिष्य है, कौन गुरु है, कौन क्या है, ये बेमानी बातें हैं और बचकानी हैं।
अगर कहें तो चाइल्डिश हैं। असल में यह गुरु और नेता, यह
हमारे भीतर जो बहुत चाइल्डिश माइंड है, उसकी वजह से पैदा
होता है। नहीं तो इनकी कोई जरूरत नहीं है। हमने तो यह बात कह दी, आपने सुन ली। ठीक लगी, ठीक लगी, गलत लगी, गलत लगी, खतम हो गई।
इतना तय है कि अगर उस में कुछ भी दम था, तो चाहे आप उसे सही
मानें चाहे गलत, आप वही नहीं होंगे, जो
बात सुनने के पहले थे। वह नहीं हो सकते--चाहे गलत मानें चाहे सही। एक आंदोलन शुरू
हो गया। यह आंदोलन कोई परिणाम लाए, तो फिर हम दुकानदार हो
जाते हैं। दुकानदारी से ज्यादा नहीं रह जाती बात। यहां कोई दुकान नहीं है, जिस पर कि कुछ बेचना है। यहां तो मामला कुछ ऐसा है कि जो ग्राहक आएगा,
उसका कुछ छिन ही जाएगा। यहां से तो कुछ लेकर जाने की कम ही उम्मीद
है।
अभी
कल दोत्तीन महिलाएं आईं। कृष्णमूर्ति उनके घर ठहरते हैं। वे बड़ी घबड़ाई हुई आईं।
उन्होंने कहा,
हमने आपको दो साल पहले सुना था, तो हम बड़े
प्रसन्न हुए और हमको लगा कि आप तो बिलकुल कृष्णमूर्ति की बात कह रहे हैं। तो हमने
कृष्णमूर्ति को जाकर कहा। वे बड़े खुश हुए कि मुझे इसी वक्त मिलवाओ। अभी आपकी हमने
कुछ बातें सुनीं तो हमें ऐसा लगा कि आप तो कृष्णमूर्ति के खिलाफ बोल रहे हैं तो
हमें बड़ा सदमा पहुंचा। मैंने उनसे कहा कि तुम्हें अच्छा लगे या बुरा लगे! तुम्हें
अच्छा लगना ही चाहिए, जिस दिन मैं ऐसा सोचूंगा, उस दिन तुम्हें क्या अच्छा लगता है, वही करने
लगूंगा।
स्वभावतः
नेता कभी वह नहीं कर सकता जो अनुयायी को बुरा लगे। नेता का नेता होना, अनुयायी
के अच्छे लगने पर निर्भर है। गुरु कभी वह नहीं कह सकता, जिससे
शिष्य भाग जाएं। क्योंकि गुरु का गुरु होना शिष्य के रुके रहने पर निर्भर है। तो
नेता और गुरु कभी भी ठीक-ठीक नग्न सत्य को नहीं कह पाते, नहीं
कह सकते हैं। उसको उन्हें आवरण देने पड़ते हैं। असत्य इकट्ठा करना पड़ता है। तो
दुनिया में जितने कम गुरु हों, जितने कम नेता हों, उतने सत्य की संभावना है। मैं उन महिलाओं को कहना चाहता था कि अब तू फिर
जाकर कृष्णमूर्ति को कहना कि वह तो बिलकुल खिलाफ कह रहे हैं और अगर वह अब भी खुश
हों तो समझना, आदमी किसी काम के हैं, और
अगर दुखी हो जाएं, तो दुकानदारी शुरू हो गई। तो मैं तो ऐसा
मान कर चलता हूं।
आप
कभी कृष्ण की प्रशंसा करते हैं, कभी कृष्ण की निंदा करते हैं। कभी क्राइस्ट और
महावीर की प्रशंसा करते हैं कभी निंदा करते हैं?
क्योंकि
मेरे लिए कृष्ण साधारण व्यक्ति नहीं, बड़े असाधारण हैं। और कृष्ण मेरे
लिए मल्टी-डायमेंशनल हैं। कृष्ण के कोई एक आयाम नहीं हैं। कृष्ण के अनंत आयाम हैं।
किसी आयाम पर मैं उनसे राजी होता हूं, तो कहता हूं, ठीक है। और तब अपनी प्रशंसा में कंजूसी नहीं करता। और किसी आयाम पर अगर
मैं राजी नहीं होता तो कहता हूं, गलत है, और तब गलत कहने में भी कंजूसी नहीं करता। और इसमें मैं कृष्ण के साथ
अन्याय नहीं करता हूं, इसमें मैं अपने साथ ही न्याय करता
हूं। कृष्ण से कुछ लेना-देना नहीं है।
अगर
महावीर की कोई बात मुझे ठीक लगती है, तो मैं उसके पूरे रास्ते साथ जाने
को तैयार हूं। और कोई चीज मुझे गलत लगती है तो इसलिए, कोई
चीज में हां न भरूंगा कि कोई और बात मुझे ठीक लगी। और यही मेरा अपने मित्रों से भी
कहना है कि मेरी अगर एक बात ठीक लगे, तो इसका यह मतलब नहीं
कि मेरी दूसरी बात भी ठीक लगे। एक-एक बात यूनीक है, एक-एक
बात एटामिक है। अगर ठीक से समझें तो कृष्ण के चरित्र में भी हजार एटम उठे हैं। और
मुझे हो सकता है कि कृष्ण के सिर पर लगी हुई मोरपंख बहुत अच्छी लगती है और मैं
कहूं कि मोरपंख बड़ी सुंदर है, लेकिन कृष्ण की शक्ल मुझे
अच्छी नहीं लगती। और मैं कहूं, यह शक्ल मुझे बिलकुल नहीं
जंचती और इस पर मोरपंख तो और खराब हो जाते हैं। इसमें कठिनाई क्या है, हमारा मन क्या कहता है?
हमारा
मन चूंकि डॉगमेटिक है,
वह कहता है, एक लेबल लगा दो। तो या तो कह दो,
कृष्ण भगवान हैं, या कह दो शैतान हैं तो हम
निपट जाएं! मतलब साफ हो जाए कि क्या हैं? और मैं मानता हूं
कि कोई आदमी इतना अच्छा नहीं है कि उसमें बुरा न हो और कोई आदमी इतना बुरा नहीं है
कि उसमें अच्छा न हो। और आदमी इतनी बड़ी घटना है कि रावण में भी कुछ है जो राम से
बेहतर है; और राम में भी कुछ है, जो
रावण से बदतर है। लेकिन हम पूरे को, इकट्ठे को स्वीकार लें,
यह सुविधापूर्ण है असल में। कन्वीनिएंस है यह कि राम भगवान और रावण
शैतान।
मैं...मुझे
उसके लिए ठीक नहीं लगता,
इसलिए मेरे साथ दिक्कत तो हो जाती है, क्योंकि
कृष्ण का भक्त एक दिन सुन लेता है कि मैंने कहा, कि कृष्ण
बहुत अदभुत हैं, वह इसी प्रशंसा में चला आ रहा है। दूसरे दिन
वह सुनता है कि नहीं गड़बड़ है। तब वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। उसका कारण है कि
वह मुझको भी पूरा मानना चाहता है। मैं कब कहता हूं, उसको
समझना चाहिए कि जब मैं कृष्ण में भाग करता हूं, तो वह मुझमें
भी भाग कर ले। मेरी वह बात ठीक लगी थी, वह ठीक नहीं लग रही
है, बात खतम हो गई। मैं कहां कहता हूं कि मेरी पूरी बात ठीक
लगनी ही चाहिए। लेकिन गुरु बनना हो, तो पूरी ही लगनी चाहिए।
लोग
ऐसा भी करते हैं कि कभी गांधी को बुरा इसलिए कहते हैं कि वे लोगों का ध्यान अपनी
ओर आकर्षित करें?
यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है।
हो
सकता है। उनको ऐसा लगता हो। यह बिलकुल लग सकता है और इसको जितना ही वे
समझेंगे...तो अभी तो मैं दूसरों का खंडन कर रहा हूं, जैसे ही मुझे लगेगा कि मेरे
पीछे लोग इकट्ठे हो गए तो मैं अपना भी खंडन करूंगा। और वह भी चल रहा है। अगर मैंने
दो साल पहले कोई बात कही थी और वह मुझे आज अच्छी नहीं लगती है, उसका मैं खंडन करता हूं। तब उनको पता चलेगा कि मैं अपने को भी खंडन कर
सकता हूं। तभी मेरे बाबत साफ होंगे वे कि इस आदमी के बाबत निश्चय कभी भी नहीं हो
सकेगा। और निश्चय होना भी नहीं चाहिए।
आज
तो जो मुझे ठीक लगता है,
वह मैं आज कहूंगा न--आज जीऊंगा न! कल का तो पता नहीं है। आज जो मुझे
ठीक लगता है, वह कहूंगा। कल जो मुझे ठीक लगेगा, कल कहूंगा। और अगर आपकी बात मानूं तो आज भी नहीं कह सकता, कल भी नहीं कह सकता, क्योंकि परसों भी है। तब तो कभी
नहीं कह सकता। एक बहुत मजेदार घटना कहूं, फिर हम उठें।
टालस्टाय
के जीवन में एक संस्मरण है। टालस्टाय, चेखव और गोर्की तीनों एक बगीचे में
बैठे हुए हैं। वहां कुछ बात चलती है और गोर्की ने यह सवाल उठाया। टालस्टाय से कहा
कि स्त्री के संबंध में आपका क्या खयाल है? तो टालस्टाय ने
कहा कि मैं तब तक न बोल सकूंगा, जब तक मेरा एक पैर कब्र में
न हो। एक मेरा जब कब्र में चला जाए और एक बाहर रह जाए, तब
तुम एकदम से पूछ कर मुझे ढक्कन में बंद कर देना। तुम ढक्कन बंद कर देना। तो चेखव
ने कहा, आप यह कैसी बात कहते हैं! तो टालस्टाय ने कहा कि अभी
तक, मैंने निरंतर, रोज-रोज जो तय किया,
वह दूसरे दिन पाया कि बदलना पड़ा। क्योंकि एक स्त्री में भी एक
स्त्री नहीं है। उसमें भी हजार स्त्रियां हैं। और हजार तो हजार होती ही हैं। और आज
एक पहलू दिखता है, कल सुबह दूसरा पहलू दिखता है, सांझ दूसरा पहलू दिखता है। लेकिन टालस्टाय कुछ भी नहीं कह पाया, क्योंकि पैर, दोनों पैर एक साथ चलते हैं कब्र में,
एक नहीं जाता है। मैं यह कहना चाहता हूं, मुझे
तो मिला नहीं टालस्टाय, नहीं तो उससे मैं कहता कि कब्र में
जब जाते हो, तब दोनों पैर एक साथ जाते हैं। कब्र में एक पैर
नहीं जाता है कि तुम एक पैर बाहर रख कर कुछ कह सको। कहना है तो दोनों पैर बाहर
रहेंगे, तभी कहना पड़ेगा। और इसलिए सब कहना रिलेटिव है,
इसलिए कोई कहना एब्सोल्यूट नहीं है। इसलिए कोई भी दावेदार सर्वज्ञता
का दावा करे तो गलत है।
कोई
कहे कि मैं सर्वज्ञ हूं और जो कहता हूं वह अंतिम और आखिरी सत्य है। इसलिए कोई भी
दावेदार सर्वज्ञता का दावा करे तो गलत है।
कोई
कहे कि मैं सर्वज्ञ हूं और जो कहता हूं वह अंतिम और आखिरी सत्य है, ऐसा आदमी
एकदम ही गलत बात कह रहा है। और ऐसा ही आदमी गुरु बन सकता है। और ऐसे आदमी को
अनुयायी मिल सकते हैं। क्योंकि मुझे कैसे अनुयायी मिलेंगे, क्योंकि
अनुयायी ही निश्चित नहीं हो सकता कि यह आदमी कल क्या कहेगा, परसों
क्या कहेगा? तो मैं तो एक प्रोसेस हूं और मेरा मानना है कि
सभी जीवंत व्यक्तियों को एक प्रक्रिया होना चाहिए, एक ठहराव
नहीं। तो जो हमें ठीक लगे, उसे हमें ईमानदारी से कहने का
साहस होना चाहिए। जो मुझे आज ठीक लगता है, आज कहूंगा। कल जो
मुझे ठीक गलता है, कल कहूंगा। जरूरी नहीं है कि जो मैं कल
कहूं, वह आज के विपरीत हो, क्योंकि
कहने वाला मैं ही रहूंगा।
बहुत
संभावना यही है कि वह आज का ही अगला कदम हो। और आज भी मैं ईमानदार और कल भी मैं
ईमानदार तो रहूंगा। जो कह रहा हूं, तो मेरी ईमानदारी ने जो आज जाना था
और जो कल मेरी ईमानदारी जानेगी, उसका ही पर्सपैक्टिव आगे का
होगा। उसमें कोई बहुत गहरे कंट्राडिक्शन नहीं हो सकते, अगर
ईमानदार हूं। अगर मैं आज ही बेईमान हूं तो फिर खतरा है। जो आज तो मुझे वही कहने दो,
जो मुझे ठीक लगता है। ताकि मैं कल भी वही कह सकूं, जो मुझे ठीक लगे। और तब अगर पूरी जिंदगी के बाद जब मैं मर जाऊं और पैर
कब्र में हों तब तो मेरे बाबत कोई निर्णय ले सके कि यह आदमी क्या कह रहा था,
क्योंकि प्रोसेस पूरी हो गई।
असल
में हम किसी भी जीवंत व्यक्ति के बाबत उसके मरने के पहले कभी निर्णय नहीं ले सकते
और हमें लेबल तब तक नहीं लगाना चाहिए। लेबल सब कब्र पर लगाना चाहिए, उसके पहले
नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि उसके पहले जिस पर लगा दिया, या तो
वह आदमी अपनी तरफ से मर गया, या आपने उसको मरा हुआ मान लिया।
और आपने मान लिया, अब लेबल लगा सकते हैं और आगे कोई उपाय
नहीं है, अब तुम ठहर गए हो जहां के तहां। तो मैं नहीं मानता,
किसी के लिए नहीं मानता।
पृथक्करण
तो हम करते हैं?
करना
चाहिए, पृथक्करण लोग करें, विचार लोग करें, लेबलिंग न करें। लेबलिंग की जल्दी हो जाती है। उससे खतरे होते हैं। वह
चिंतन की कमी है। हम चाहते हैं, जल्दी से लेबल लगा दें। एक
संन्यासी मेरे पास आए। वह मुझसे कहने लगे, आप मुझे यह बता
दें, आप किस शास्त्र को मानते हैं? मैंने
कहा, क्यों? वह कहता कि मुझे बात ही
करने की कोई जरूरत न रही, आप अगर गीता को मानते हैं, तो
मैं समझ जाऊं, क्योंकि गीता को मैं जानता हूं। असल में मुझे
समझना न पड़े, इसलिए बहुत आसान यह है कि मैं कह दूं कि मैं
सांख्य को मानता हूं, कि वेदांत को मानता हूं, कि जैन को। जैन के बाबत वह जो समझा-बूझा है, वह मेरे
बाबत लागू कर लेगा, बात खतम हो जाए।
हम
यही कर रहे हैं,
ज्यादा से ज्यादा यह हिंदू है। हम पूछ लेते हैं, हिंदू है, तो ठीक है। हिंदू के संबंध में मेरी एक
धारणा है। खतम हो गया। सैयद, शहजादा के बाबत अलग से सोचने की
अब जरूरत न रही। यह मैंने इनको निबटा दिया। इंडिविजुअल हमेशा डिस्टघबग है। तो मैं
नहीं करने देता कोई भी। मैं आपको अपने बाबत तय नहीं होने देता। क्योंकि मैं ही तय
नहीं हूं, कल मैं बदलूंगा, परसों
बदलूंगा। जब तक जिंदा हूं, बदलता रहूंगा।
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