सावन आया अब के सजन-(प्रवचन-दसवां)
दिनांक 10 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
प भगवान,
पल भर में यह क्या हो गया,
वह मैं गई, वह मन
गया!
चुनरी कहे, सुन री
पवन
सावन आया अब के सजन।
फिर-फिर
धन्यवाद प्रभु!
प भगवान, जीवन के हर आयाम में सत्य के सामने झुकना मुश्किल है
और झूठ के
सामने झुकना सरल! ऐसी उलटबांसी क्यों है?
प भगवान, क्या मौत पर विजय नहीं पाई जा सकती है?
प भगवान, आप सत्य को बांटने में सदा संलग्न रहते हैं।
आपकी अथक
चेष्टा देख बस मैं चकित हूं!
आप कहते
हैं चमत्कार नहीं होते।
मैं कैसे
मानूं? आप तो जीवित चमत्कार हैं!
मनुष्य की
चेतना को जगाने का ऐसा प्रयास न पहले हुआ और न आगे होगा!
पहला प्रश्न: भगवान,
पल भर में यह क्या हो गया,
वह मैं गई, वह मन गया!
चुनरी कहे, सुन री पवन
सावन आया अब के सजन।
फिर-फिर धन्यवाद प्रभु!
हंसा, इस संसार में और सब तो
घटित होने के लिए समय लेता है, लेकिन ध्यान समयातीत है। पल
भी नहीं लगता। दो पलों के बीच में जो अंतराल है वही ध्यान का जगत है। जब ध्यान
घटित होता है तो ऐसे ही घटित होता है कि पल भर भी नहीं लगता। ध्यान समय की
प्रक्रिया नहीं है। ध्यान की कोई सीढ़ियां नहीं हैं। ध्यान क्रांति है, विकास नहीं।
और क्यों ऐसा है? क्योंकि मन की सारी व्यवस्था
मूलतः समय की व्यवस्था है। मन का अर्थ होता है: अतीत, भविष्य।
और अतीत और भविष्य के बीच में दबा हुआ छोटा सा वर्तमान। मन जीता है अतीत में,
जो हो चुका। वहीं खोदता रहता, खोजता रहता,
तलाश करता रहता--स्मृतियों में; या फिर उन्हीं
स्मृतियों के जो प्रतिफलन बनते हैं, प्रतिध्वनियां होती हैं
भविष्य में, जो कल हुआ था, वह कल फिर
हो--मीठा था, मधुर था; या कल जो हुआ था,
बहुत कड़वा था, बहुत तिक्त था--अब कभी न हो।
मन अतीत को ही दोहराना चाहता है भविष्य में--सुंदरतम रूप में; अतीत को ही सजाना चाहता है भविष्य में। भविष्य अतीत का ही विस्तार है। और
आश्चर्य यही कि मन उस अतीत में जीता है जो अब नहीं है और उस भविष्य में जो अभी
नहीं है। मन इन दो अभावों में जीता है, दो शून्यताओं में।
इसलिए तो मन की कोई उपलब्धि नहीं है। और मन जिसे वर्तमान जानता है, वह ना-कुछ है; वह तो केवल अतीत के भविष्य बनने की
प्रक्रिया है--बड़ी पतली सी रेखा! तुम वर्तमान को पकड़ थोड़े ही सकते हो। क्योंकि जब
तक तुमने पकड़ा वह अतीत हो गया; जब तक नहीं पकड़ा तब तक भविष्य
है। इतना छोटा वर्तमान, झूठा वर्तमान है।
वर्तमान तो केवल वही जानता है जो ध्यान को उपलब्ध हुआ है। वह शाश्वत
वर्तमान जानता है।
ध्यान का अर्थ है मन से मुक्त हो जाना। मन से मुक्त होने का अर्थ है
अतीत और भविष्य से मुक्त हो जाना। यह एक क्षण में ही घटती है बात--बस ऐसे जैसे हवा
का झोंका आया और उड़ा ले गया धूल; ऐसे कि किसी ने दर्पण पोंछ दिया
और स्वच्छ हो गया!
हंसा, जो तुझे हुआ ठीक हुआ। ध्यान की पहली अवधारणा ऐसी ही
होती है। ध्यान जब पहली बार उतरता है तो इतना ही विस्मय-विमुग्ध कर देता है,
भरोसा नहीं आता। क्योंकि हम तो सोचते थे सदियों-सदियों की तपश्चर्या
से ध्यान मिलता है।
तपश्चर्या से ध्यान नहीं मिलता, तपश्चर्या से केवल
तपस्वी का अहंकार मिलता है। और अहंकार ध्यान में बाधा है। श्रम से ध्यान नहीं
मिलता; और सब कुछ मिल जाए, धन मिले,
पद मिले, ध्यान नहीं मिलता। ध्यान तो विश्राम
का क्षण है, श्रम का नहीं। और ध्यान तपश्चर्या नहीं है,
न त्याग है। ध्यान तो परम भोग है, परम उत्सव
है, परम आनंद है।
फिर ध्यान कोई ऐसी चीज नहीं है जो बाहर से हमारे तक आती है; आती तो समय लगता। ध्यान कोई ऐसी चीज भी नहीं है जिस तक हम जाते हैं;
जाते तो समय लगता, यात्रा करनी पड़ती। या तो
ध्यान यात्रा करता हम तक या हम यात्रा करते ध्यान तक। ध्यान हमारा स्वभाव है।
ध्यान को लेकर ही हम पैदा हुए हैं। ध्यान की तरह ही हम पैदा हुए हैं। ध्यान हमारी
आत्मा है। इसलिए समय के लगने का सवाल ही नहीं है। हमारे भीतर ही पड़ा है खजाना;
जरा आंख मुड़ी कि मालिक से मिलन हुआ।
तू कहती है: "पल भर में यह क्या हो गया!'
निश्चित ही भरोसा नहीं आता जब पहली बार होता है। क्योंकि हमें तो
सदियों-सदियों से सिखाया गया है कि पापी हो तुम; पहले पापों को धोओ!
जन्मों-जन्मों के पाप हैं, जन्मों-जन्मों तक धोओगे तब कहीं
धुल पाएंगे।
एक दूसरे मित्र फिरोज ने पूछा है कि मैं तो गुनहगार हूं, क्या मुझे भी ध्यान हो सकेगा?
यही हमें समझाया गया है कि आदमी पापी है, गुनहगार है। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि तुम्हारे सब गुनाह,
तुम्हारे सब पाप दर्पण पर जमी धूल की तरह हैं; हवा का एक झोंका उड़ा ले जाएगा। और दर्पण धूल से नष्ट नहीं होता, दब भला जाए; उसमें प्रतिबिंब बनने विकृत हो जाएं,
न बनें, इतनी धूल की परतें जम जाएं; मगर धूलों की परतों के नीचे भी दर्पण अभी भी उतना ही शुद्ध है जितना पहले
था। दर्पण धूल से अशुद्ध होता ही नहीं। दर्पण के अशुद्ध होने का कोई उपाय नहीं है।
तुम्हारे भी अशुद्ध होने का कोई उपाय नहीं।
फिरोज, ये पागलपन की बातें छोड़ो कि मुझ गुनहगार को भी क्या
ध्यान होगा! फिरोज पाकिस्तान से आए हैं। बैठी हैं मन में बात मुल्लाओं-मौलवियों
की--कि आदमी गुनहगार है! क्षमा मांगो, तपश्चर्या करो,
गलाओ अपने को!
नहीं, इस सब की कोई आवश्यकता नहीं है। परमात्मा तुम्हारे
भीतर मौजूद है, सिर्फ आंख मोड़ो भीतर। ध्यान है आंख का
मोड़ना--न तपश्चर्या, न श्रम। और जैसे ही आंख मुड़ी और एक बार
तुम्हें अपने स्वरूप का दर्शन हो गया, फिर कोई पाप न हो
सकेगा।
मैं तुमसे कुछ और ही कह रहा हूं। तुम्हें अब तक यही समझाया गया है कि
जब तुम पाप नहीं करोगे तब ध्यान होगा। मैं कह रहा हूं, ध्यान होगा तो फिर पाप नहीं होगा। तुम्हें समझाया गया है, जब अंधेरा मिट जाएगा तो रोशनी होगी। जिन्होंने यह बात समझाई है वे अंधे थे
और उनकी बात मान कर तुम भी सदियों से अंधे हो। मैं तुम्हें समझा रहा हूं कि जब
रोशनी होगी तो अंधेरा नहीं होगा।
और मैं जो कह रहा हूं वह परम वैज्ञानिक सत्य है। तुम अंधेरे से लड़ रहे
हो। पाप क्या है? अंधेरा है। उसका कोई अस्तित्व है? मूर्च्छा है, बेहोशी है; उसका
कोई अस्तित्व है? सिर्फ होश का अभाव है। जैसे अंधकार प्रकाश
का अभाव है।
एक घर में हजारों-हजारों साल से अंधेरा रहा हो और तुम जाकर एक छोटा सा
दीया जलाओ, क्या अंधेरा यह कहेगा कि अरे दीये, तू अभी जला, जान में तेरी जान नहीं, हम बहुत प्राचीन हैं, सदियों-सदियों से इस घर में रह
रहे हैं, तेरे जलने से निकल न जाएंगे। ऐसे दीये तो जलते रहें
सदियों तक तो भी हमारा बाल बांका नहीं होने वाला। क्या अंधेरा ऐसा कह सकेगा?
नहीं, इधर दीया जला कि उधर अंधेरा गया। गया कहना भी भाषा की
भूल है। अंधेरा था ही नहीं, सिर्फ दीये के अभाव का नाम था।
अंधेरे की कोई वस्तुगत सत्ता नहीं थी, उसका कोई अस्तित्व
नहीं था। इधर दीया जला उधर हमने पाया कि अंधेरा नहीं है, क्योंकि
भाव और अभाव साथ-साथ कैसे होंगे? जब प्रकाश आ गया तो अंधेरा
गया। और ऐसी ही क्रांति घटती है भीतर। ध्यान प्रकाश है, जाग
जाना है। जागे, फिर कोई पाप नहीं होता।
तो मैं तुम्हारे गणित को पूरा बदल देना चाहता हूं। इसीलिए तो मुझसे
पंडित-पुरोहित नाराज हैं। क्योंकि उनका गणित है: पहले अंधेरा हटाओ। और उसी में
तुमको उलझाए रखते हैं; न अंधेरा हटता है, न बात सुलझती
है, न पंडित के जाल से तुम मुक्त हो सकते हो। तुम्हारे
तथाकथित महात्माओं का सारा व्यवसाय, उनके व्यवसाय की आधारभूत
कुंजी यही है कि तुम्हें एक ऐसे काम में उलझा दिया है जो हल हो ही नहीं सकता।
तुमने जरूर यह कहानी सुनी होगी कि एक आदमी निकलता था समुद्र के किनारे
से। उसे एक बोतल पड़ी हुई मिल गई। जिज्ञासावश उसने बोतल खोली--तुमने भी खोली
होती--क्या है बोतल के भीतर? बड़ा धुआं उठा और एक प्रेत प्रकट
हुआ। और उस प्रेत ने कहा कि तू धन्यभागी है, क्योंकि मैं कोई
साधारण प्रेत नहीं हूं, मैं प्रेतों का सम्राट हूं। मैं सजा
भुगत रहा था और उस दिन की प्रतीक्षा थी कि कोई मुझे मुक्त कर दे। तूने मुझे मुक्त
किया। तू जो भी कहेगा वह मैं करूंगा। बस मेरी शर्त एक है कि मुझे चौबीस घंटे काम
चाहिए। मैं एक क्षण खाली नहीं बैठ सकता।
वह आदमी तो बहुत खुश हुआ। उसने कहा, इससे अच्छा और क्या
होगा! आओ, बहुत काम हैं मेरे पास। एक क्षण खाली क्यों बैठोगे?
बहुत वासनाएं हैं, बहुत इच्छाएं हैं मेरी,
उनको पूरी करने में लगो।
जाते ही आज्ञा दी, बनाओ महल! इधर उसने कहा उधर
प्रेत ने महल बना दिया। प्रेत फिर खड़ा था सामने। थोड़ा आदमी घबड़ाया कि अगर इतनी
जल्दी चीजें हुईं तो जल्दी ही चुक जाएंगी। लाओ धन, हीरे-जवाहरात,
सोना-चांदी! इधर वह कहे उधर प्रेत पूरा करे। दोपहर होते-होते वे जो
अनंत वासनाएं मालूम होती थीं, वे खत्म हो गईं। और प्रेत ने
कहा कि याद रखना, मैं खाली बैठ ही नहीं सकता। काम बताओ। अगर
काम नहीं बताया तो गर्दन दबा दूंगा।
भागा वह आदमी एक फकीर के पास, क्योंकि उसी फकीर के
पास सदा गया था--जब भी कोई उलझन होती थी सुलझाने के लिए। उस फकीर ने कहा, यह सीढ़ी रखी है, यह तू ले जा। इस सीढ़ी को लगा दे और
उससे कह--पहले ऊपर चढ़ो, फिर नीचे उतरो; फिर ऊपर चढ़ो, फिर नीचे उतरो। उस आदमी ने कहा,
मुझे न सूझी यह बात! इतनी सरल तरकीब--चढ़ाते रहो, उतारते रहो। मरने दो उसको, चढ़ने दो, उतरने दो; जब उतर जाए तो कहो चढ़ो। कहना बार-बार
आज्ञा देने की जरूरत भी नहीं है; एक दफे दे दी आज्ञा:
उतरो-चढ़ो, उतरो-चढ़ो।
उस आदमी ने कहा कि महाराज, एक सवाल सिर्फ मन में
उठता है कि क्या आपका कभी ऐसे भूत से पाला पड़ा? आपने एकदम से
उत्तर दे दिया!
वह फकीर हंसा और उसने कहा कि यही हमारा धंधा है। लोगों को ऐसी सीढ़ियों
पर चढ़ना-उतरना, यही हम करवाते हैं। यही फकीरों का सदा से धंधा है।
लोग उलझे रहते हैं, सुलझाव कभी आता नहीं। सुलझाव आता नहीं,
इसलिए वे हमारे पास आते हैं सुलझाव पूछने।
तुम्हारे निन्यानबे प्रतिशत उलझाव तुम्हारे पंडितों-पुरोहितों के
द्वारा खड़े किए गए हैं; तुम्हारे उलझाव नहीं हैं। तुम्हारे उलझाव तो बहुत
थोड़े हैं जो हल हो सकते हैं; जरा सी क्रांति से हल हो सकते
हैं। जरा सी चिनगारी ध्यान की, और तुम्हारे सब पाप भस्मीभूत
हो जाएं। मगर पंडित तुम्हें एक ऐसा काम समझा रहे हैं जो हल ही नहीं हो सकता,
जन्मों-जन्मों में हल नहीं हो सकता। अंधेरे से लड़ो, यह उनकी शिक्षा है। बुराई से लड़ो, यह उनकी शिक्षा
है। अशुभ से लड़ो, पाप से लड़ो, यह उनकी
शिक्षा है।
अब कोई आदमी अंधेरे से कितना ही लड़े, वह चाहे गामा पहलवान
ही क्यों न हो या मोहम्मद अली क्यों न हो, लड़ता रहे अंधेरे
से, खूब ठोंके ताल--खुद ही हारेगा, अंधेरा
नहीं हारेगा! धक्के दे अंधेरे को, बांधे पोटलियां, फेंक आए बाहर; पोटलियां फिंक जाएंगी, अंधेरा वहां का वहां रह जाएगा। अंधेरे को इंच भर सरकाया नहीं जा सकता।
और इसी में जिंदगी बीतेगी तो निश्चित हीनता की ग्रंथि पैदा होगी कि
मैं कैसा महापापी हूं कि यह छोटी सी बात से मेरा छुटकारा नहीं होता! कामवासना में
जकड़ा बैठा हूं, कैसा महापापी हूं! और तुम्हारे सारे धर्मगुरु समझा
रहे हैं, लड़ो कामवासना से तो छुटकारा होगा! और तुम यह भी
नहीं देखते कि यह धर्मगुरु हजारों साल से कह रहे हैं। कम से कम पांच हजार साल का
तो लिखित इतिहास है; उससे भी पहले से कह रहे हैं। पांच हजार
साल में लड़वाते रहे, अब तक कामवासना का कुछ हल हुआ है?
कामवासना बढ़ी है, घटी नहीं।
तुम्हारे लड़ने से तुम कमजोर हुए हो, शक्तिशाली नहीं।
तुम्हारे लड़ने से तुम दीन हुए हो, हीन हुए हो। क्योंकि जब
बार-बार हार हाथ लगती है तो आदमी के मन में विषाद पैदा होता है। जब बार-बार हार
हाथ लगती है तो आदमी के मन में अपने ही प्रति निंदा और घृणा पैदा होती है; अपनी दीनता, हीनता, असहाय
अवस्था का भाव पैदा होता है। आदमी दुर्बल होता गया। आत्मविश्वास खो दिया है आदमी
ने, क्योंकि उसे ऐसी चीजें करने को कही गई हैं जो हो ही नहीं
सकतीं।
जैसे कोई तुमसे कहे कि इस वर्तुल को चौकोर करो! अब अगर वर्तुल को
चौकोर करोगे तो वह वर्तुल न रहा। अगर वर्तुल को वर्तुल रखोगे तो चौकोर नहीं हो
सकता। उलझा दिया किसी ने तुम्हें एक झंझट में। अब तुम फंस गए। न कभी वर्तुल चौकोर
होगा, न कभी तुम इस जाल के बाहर आओगे। और स्वभावतः जितने
तुम फंस जाओगे उतने ही तुम पूछने जाओगे। और तुम्हें पता नहीं कि जिनसे तुम पूछने
जा रहे हो वे भी तुम जैसे ही फंसे हैं; किन्हीं औरों ने उन्हें
फंसाया है। फंसाव बड़े पुराने हैं, बड़े प्राचीन, उनकी बड़ी लंबी परंपराएं हैं।
मैं तुम्हें सीधे सूत्र की बात कह रहा हूं। मैं कहता हूं, अंधेरे से मत लड़ो। पाप से लड़ना ही मत। सिर्फ भीतर प्रकाश है, उसकी तरफ आंख मोड़ो। तुम पीठ किए खड़े हो; प्रकाश को
जलाना भी नहीं है, सिर्फ मुड़ना है। यह मुड़ना पल भर में हो
सकता है। पल भर में ही होगा। इसके लिए कोई जन्म-जन्म लगेंगे मुड़ने के लिए? एक झटके में हो जाएगा। इधर आंख बंद कि उधर दिखाई पड़ जाएगा। और जैसे ही
तुम्हें प्रकाश दिखाई पड़ा, अंधेरा गया। फिर तुम करना भी चाहो
पाप तो न कर सकोगे।
फिरोज, कितने ही गुनाह किए हों, क्या
खाक गुनाह किए होंगे! परमात्मा की करुणा तुम्हारे गुनाहों से बहुत बड़ी है। जरा
सोचो, क्या गुनाह करोगे, जो परमात्मा
की करुणा की बाढ़ आएगी उसमें बह न जाएंगे? सब बह जाएंगे।
तुम्हारा प्रश्न तो ऐसे ही है जैसे कोई पूछे कि क्या बीमार आदमी की भी चिकित्सा हो
सकती है?
बीमार की न होगी तो और किसकी होगी? अगर कोई चिकित्सक यह
शर्त लगा दे कि केवल मैं स्वस्थ लोगों की चिकित्सा करूंगा, तो
तुम उसको क्या कहोगे? चिकित्सक कहोगे या पागल कहोगे?
गुनहगार हो, अच्छे लक्षण हैं। बीमारी का पता है, इलाज हो सकता है। निदान हो ही गया, अब औषधि की जरूरत
है। क्या तुम सोचते हो औषधि केवल स्वस्थ लोगों पर काम करती है? तो वह क्या औषधि है! औषधि बीमारी पर काम करती है। और बीमारी पहले नहीं
छोड़नी पड़ती; औषधि पहले लेनी पड़ती है, बीमारी
फिर छूटती है। ध्यान औषधि है।
बुद्ध ने तो बार-बार कहा है कि मैं एक चिकित्सक हूं। नानक ने भी कहा
है कि मैं एक वैद्य हूं। ठीक कहीं ये बातें--चिकित्सक, वैद्य, उपचारक! उपदेशक नहीं।
मैं भी तुमसे कहता हूं, मैं एक चिकित्सक हूं,
उपदेशक नहीं। उपदेशक होता तो मुझे बड़ी आसानी थी; यह सारा देश सम्मान करता, सत्कार करता, क्योंकि इस देश की जड़ धारणाओं के साथ मेरा तालमेल होता। मैं चिकित्सक हूं।
और तुम्हारे भीतर बहुत सी गांठें हैं कैंसर की, वे काटनी
हैं। और उनको काटना पीड़ादायी है। और उन गांठों को तुमने अब तक समझा है बड़ा
बहुमूल्य, हीरे-जवाहरातों जैसा! उनको तुम सजा कर बैठे हो,
उनकी तुम पूजा कर रहे हो। और मैं कहता हूं कि उन्हीं में उलझे हो,
इसलिए तुम्हारे जीवन में पूजन की सुगंध नहीं उठ पा रही।
हंसा, ठीक हुआ। यह पल भर में ही हो जाता है। यह क्रांति है,
विकास नहीं। इसकी सीढ़ियां नहीं हैं, यह छलांग
है।
तू पूछती है: "पल भर में यह क्या हो गया!'
निश्चित ही समझ में नहीं आता जब पहली बार होता है। कैसे समझ में आएगा? समझ के पास कोई आधार नहीं होते, कोई प्रत्यय नहीं
होते। समझ के पास कोई धारणाएं नहीं होतीं, पुराने अनुभव नहीं
होते। समझ तो उसी को समझ सकती है जिसे पहले समझा हो। यह तो इतना नया है, इतना नवीन, इतना नूतन, सद्यःस्नात,
अभी-अभी नहाया, आकाश से उतरा! समझ इसे नहीं
समझ पाएगी।
यह बात समझने की है भी नहीं। यह बात तो नाचने की है। यह बात तो गीत
गाने की है। यह बात तो मस्त हो जाने की है, बांसुरी बजाने की है;
समझने की नहीं है। नहीं तुझे समझ में आएगा। यह घटना तो इतना
आश्चर्य-विमुग्ध कर जाती है, ऐसे रहस्य से भर जाती है कि फिर
वह रहस्य कभी चुकता नहीं। जितनी गहराई बढ़ेगी इस रोशनी की...अभी तो यह शुरुआत है,
अभी तो बस पहली किरण उतरी है। अभी तो पूरे सूरज उतरेंगे, सूरज के बाद सूरज उतरेंगे!
कबीर ने कहा है: जैसे हजार-हजार सूरज एक साथ उतर आएं, ऐसी घटना घटती है समाधि में!
तू पूछती है: "पल भर में यह क्या हो गया,
वह मैं गई, वह मन गया!'
एक ही क्षण में बात चली जाती है, क्योंकि न तो मैं का
कोई अस्तित्व है...मैं एक झूठ है, सब से बड़ा झूठ! और मन क्या
है? अतीत और भविष्य, अभाव। मन के अभाव
का जो केंद्र है उसी का नाम मैं है। इसलिए मैं सब से बड़ा झूठ है। तुम हो नहीं,
परमात्मा है; मगर तुमने मान रखा है कि मैं
हूं। और जब तक तुम पकड़े हो इस मैं को, तब तक अड़चन रहेगी।
और लोग बहुत कुछ कर लेते हैं, संसार से छोड़ कर
पहाड़ों पर भाग जाते हैं, मगर मैं नहीं छूटता। मैं कोई ऐसे
छूटेगा? यहां गृहस्थी थे, वहां तपस्वी
हो जाते हैं। यहां भोगी थे, वहां योगी हो जाते हैं।
"मैं' भोग के कपड़े छोड़ कर योग के कपड़े पहन लेता है;
इससे क्या फर्क पड़ता है? "मैं' धन छोड़ देता है और त्याग के आभूषण पहन लेता है; इससे
क्या होता है? सच तो यह है कि त्यागी का अहंकार भोगी के
अहंकार से कहीं ज्यादा बड़ा होता है। होगा भी, क्योंकि धनी तो
बहुत हैं, भोगी तो बहुत हैं, त्यागी तो
बहुत विरले होते हैं। साधारण आदमी इतना अहंकारी हो भी तो कैसे हो? जानता है कि साधारण हूं। लेकिन जिसने व्रत किए, उपवास
किए, योग साधा, आसन साधे, प्राणायाम, प्रत्याहार, शास्त्रों
का अध्ययन किया, वेद कंठस्थ किए--उसके अहंकार में रोज-रोज
नयी संपदा जुड़ती जाती है। इसलिए तुम्हारे तथाकथित महात्मा में जैसा अहंकार होता है
वैसा अहंकार साधारण आदमी में नहीं होता। दो महात्माओं को एक ही मंच पर बिठालना तक
मुश्किल है।
एक बार मैं एक सभा में आमंत्रित हुआ, वहां तीन सौ महात्मा
इकट्ठे थे। एक सर्व धर्म सम्मेलन मनाया जा रहा था, सब धर्मों
के लोग बुलाए गए थे। मंच इतनी बड़ी बनाई गई थी कि उस पर तीन सौ लोग बैठ सकें। लेकिन
एक-एक ने बैठ कर व्याख्यान दिया, क्योंकि सब साथ बैठने को
राजी नहीं। क्या अड़चन थी? अड़चन यह थी कि कौन ऊपर बैठे,
कौन नीचे बैठे। शंकराचार्य वहां मौजूद थे पुरी के, वे अपने सिंहासन पर ही बैठेंगे! अगर वे सिंहासन पर बैठेंगे तो करपात्री
महाराज नीचे नहीं बैठे सकते। उनको भी सिंहासन चाहिए उतना ही ऊंचा। और फिर और-और
लोग थे, जब एक सिंहासन पर बैठे तो दूसरा कैसे नीचे? आखिर तीन सौ लोगों के मंच पर एक-एक व्यक्ति ने बैठ कर व्याख्यान दिया,
तीन सौ साथ नहीं बिठाए जा सके।
यह अहंकार देखते हो! यह विक्षिप्तता देखते हो! और ये विक्षिप्त लोग दूसरों
को स्वस्थ करने चले हैं।
मैंने सुना है, एक किसान को यह मानसिक बीमारी थी कि वह स्वयं को बैल
समझने लगा था, वह बैलों की तरह ही चलता था और बैलों की तरह
ही रंभाता था। परिवार के लोग और मित्रजन परेशान हो गए। गांव में ही एक पंडित जी आए,
जो झाड़ा-फूंकी के लिए भी प्रसिद्ध थे। घर के लोग उस किसान को पंडित
जी के पास ले गए। किसान की पत्नी ने रो-रो कर सब हाल सुनाया। पंडित जी ने कहा,
घबड़ाने की कोई बात नहीं बेटी, यह तो बड़ा
मामूली सा रोग है। और जवानी के दिनों में मुझे खुद यह रोग हो गया था। मैं सिर्फ
बैलों जैसा चलता और रंभाता ही नहीं था, बल्कि घास-फूस और
खली-चूनी भी खाने लगा था। मेरी खुद पर आजमाई हुई जड़ी मैं इसे दूंगा, इसलिए गारंटी भी दे सकता हूं कि बीमारी अवश्य ठीक होगी, क्योंकि मेरी खुद की बीमारी इसी जड़ी-बूटी से ठीक हो गई थी।
ऐसा कहते हुए पंडित जी ने आत्मविश्वास के साथ एक मंत्र-सिद्ध जड़ी-बूटी
दी और बताया कि इसे एक काले रंग के कपड़े से बांध कर सात गांठें लगा कर अमावस की
रात को ठीक बारह बजे मरीज के पेट पर रख देना, बस तुरंत ही रोग ठीक
हो जाएगा।
किसान की पत्नी ने डरते-डरते पूछा, महाराज, क्या यह उचित न होगा कि पेट की बजाय मरीज के सिर पर जड़ी की पोटली रखी जाए,
क्योंकि बीमारी तो दिमाग में है।
अगर मुझसे ज्यादा अक्ल तुझमें है तो फिर मेरे पास तू आई ही क्यों? पंडित जी ने गुस्से में आगबबूला होकर कहा। अरे मूर्ख, अगर तू सिर पर पोटली रखने जाएगी तो वह तुझे सींग नहीं मार देगा?
पंडित जी को खयाल होगा कि बीमारी ठीक हो गई है--अभी बीमारी ठीक नहीं
हुई। अभी पंडित जी भी उतने ही रुग्ण हैं, वहीं के वहीं हैं।
उनकी भ्रांति में कोई भेद नहीं पड़ा है।
भोगी से त्यागी हो जाओ, अज्ञानी से ज्ञानी हो
जाओ, संसारी से संन्यासी हो जाओ, बाजार
छोड़ मरघट पर रहने लगो, वस्त्रों को छोड़ नग्न हो जाओ--नहीं
कुछ फर्क पड़ेगा। अहंकार नये-नये रूप ले लेगा। अहंकार तो मिटता है केवल एक ही घड़ी
में, जब तुम भीतर झांकते हो और पाते हो कि मैं हूं ही नहीं।
और ध्यान रखना, अहंकार मिटाए नहीं मिटता। कोई मिटाना चाहेगा
तो नहीं मिटा सकेगा। क्योंकि जो अहंकार को मिटाने चला है उसने पहली तो यह बात मान
ही ली कि अहंकार है, और वहीं भ्रांति हो गई। भ्रांति ही आधार
बन गई, अब आगे कुछ नहीं हो सकता। पहला कदम ही गलत हो गया।
अहंकार है ही नहीं, ऐसा जानना पर्याप्त है। और मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसा मान लो कि अहंकार है ही नहीं, क्योंकि
मानने से कुछ भी नहीं होगा। मानना तो नपुंसक है। जानने में बल है और वीर्य है।
जैसे ही भीतर झांकोगे, अहंकार पाया ही नहीं जाता, क्योंकि वहां अहंकार है ही नहीं--कोरा आकाश है चैतन्य का। और उस चैतन्य के
कोरे आकाश को देखोगे, चकित हो जाओगे: वहां कोई मैं-भाव नहीं
है। होना तो है, अस्तित्व है, लेकिन
मैं का कोई भाव नहीं है। इस मैं के अभाव को जिसने जान लिया, उसने
प्रभु के लिए द्वार खोल दिए।
तू कहती है हंसा: "वह मैं गई, वह मन गया!
चुनरी कहे, सुन री
पवन,
सावन आया अब के सजन!'
निश्चित ही और सब सावन तो झूठे हैं, ध्यान का सावन जब आता
है तभी सावन आता है! क्योंकि ध्यान के सावन में ही मेघ बरसते हैं अमृत के। उसके
पहले जीवन तो व्यर्थ की आपाधापी है।
हंसा, पहली किरण उठी, नाच! आनंदित हो!
इस किरण को समझने की चेष्टा मत करना, क्योंकि समझ बहुत छोटी बात
है। ये रहस्य समझने के नहीं हैं, ये रहस्य जीने के हैं।
बड़भागी है तू, मस्त हो! मग्न हो!
दूसरा प्रश्न: भगवान, जीवन के हर आयाम में सत्य के सामने झुकना मुश्किल है और झूठ के सामने
झुकना सरल। ऐसी उलटबांसी क्यों है?
मुकेश, उलटबांसी जरा भी नहीं
है; सिर्फ तुम्हारे विचार में जरा सी चूक हो गई है, इसलिए उलटबांसी दिखाई पड़ रही है। चूक बहुत छोटी है, शायद
एकदम से दिखाई न पड़े, थोड़ी खुर्दबीन लेकर देखोगे तो दिखाई
पड़ेगी।
सत्य के सामने झुकना पड़ता है; झूठ के सामने झुकना
ही नहीं पड़ता, झूठ तुम्हारे सामने झुकता है। और इसीलिए झूठ
से दोस्ती आसान है, क्योंकि झूठ तुम्हारे सामने झुकता है। और
सत्य से दोस्ती कठिन है, क्योंकि सत्य के सामने तुम्हें
झुकना पड़ता है। अंधा अंधेरे से दोस्ती कर सकता है, क्योंकि
अंधेरा आंखें चाहिए ऐसी मांग नहीं करता। लेकिन अंधा प्रकाश से दोस्ती नहीं कर सकता
है, क्योंकि प्रकाश से दोस्ती के लिए पहले तो आंखें चाहिए।
अंधा अमावस की रात के साथ तो तल्लीन हो सकता है, मगर
पूर्णिमा की रात के साथ बेचैन हो जाएगा। पूर्णिमा की रात उसे उसके अंधेपन की याद
दिलाएगी; अमावस की रात अंधेपन को भुलाएगी, याद नहीं दिलाएगी।
तुम कहते हो: "जीवन के हर आयाम में सत्य के सामने झुकना मुश्किल
है।'
यह सच है, क्योंकि सत्य के सामने झुकने का अर्थ होता है अहंकार
को विसर्जित करना।
लेकिन दूसरी बात सच नहीं है जो तुम कहते हो कि झूठ के सामने झुकना सरल
क्यों है?
झूठ के सामने झुकना ही नहीं पड़ता; झूठ तो बहुत जी-हजूर
है। झूठ तो सदा तुम्हारे सामने झुका हुआ खड़ा है, तुम्हारे
पैरों में बैठा है। झूठ तो गुलाम है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन लखनऊ के एक नवाब का नौकर था। शुरुआत
तो छोटी सी नौकरी से हुई थी, लेकिन कुशल आदमी है, चमचागिरी में कुशल, जल्दी ही नवाब के बहुत अंतरंग
लोगों में हो गया। चमचे का अर्थ होता है: झूठ बोलने में कुशल। चमचे का अर्थ होता
है: झूठ की कला में पारंगत। चमचे का अर्थ होता है: अंधे को नैनसुख कहे, या अंधे को प्रज्ञाचक्षु कहे। चमचे का अर्थ होता है: कुरूप को सौंदर्य की
गरिमा दे, महिमा दे, गीत गाए; जो गालियों के भी योग्य नहीं है उसके लिए गीत गाए।
मुल्ला जल्दी ही सीढ़ियां चढ़ा, बहुत जल्दी नवाब का
सबसे अंतरंग मित्र हो गया--ऐसा अंतरंग कि नवाब उसके बिना उठे नहीं, बैठे नहीं; ऐसा अंतरंग कि रात सोए भी नवाब तो मुल्ला
भी उसी कमरे में सोए। एक दिन दोनों खाना खाने बैठे हैं, नवाब
को सब्जी बहुत पसंद आई। भिंडी की सब्जी बनी, नयी-नयी अभी
ताजीत्ताजी भिंडियां आई हैं। नवाब ने कहा मुल्ला को कि भिंडी की सब्जी भी बड़ी गजब
की चीज है! मुल्ला ने कहा, क्यों न हो! अरे भिंडी के संबंध
में तो शास्त्रों में ऐसे-ऐसे उल्लेख हैं कि अमृत है भिंडी, कि
हजार रोगों की एक दवा है भिंडी, कि बूढ़ा खाए तो जवान हो जाए,
कि कहानियां तो यहां तक हैं कि मुर्दों ने खाई तो जिंदा हो गए!
जितना झूठ बोल सकता था भिंडी के संबंध में, बोला। रसोइए ने
भी सुन लिया कि भिंडी तो अदभुत चीज है और नवाब ने भी माना। रसोइया रोज भिंडी बनाने
लगा।
अब एक दिन भिंडी हो तो चल जाए, दूसरे दिन भिंडी हो
तो चला लो, तीसरे दिन मुश्किल होने लगे। जब सातवें दिन फिर
भिंडी बनी तो नवाब ने थाली फेंक दी। कहा, यह क्या मचा रखा है?
क्या मुझे मारोगे? भिंडी, भिंडी, भिंडी!
मुल्ला नसरुद्दीन एकदम आगबबूला हो गया, उसने भी अपनी थाली
फेंक दी। उसने कहा, यह रसोइया पागल है। अरे भिंडी जहर है!
शास्त्रों में तो साफ लिखा है कि जवान खाएं तो बूढ़े हो जाएं; और बूढ़े खाएं कि मरे। बच्चों ने खाई है, बाल सफेद हो
गए हैं।
नवाब ने कहा, अरे नसरुद्दीन, और सात दिन पहले
तो तुम कुछ और कहते थे!
नसरुद्दीन ने कहा, मालिक, मैं
आपका गुलाम हूं, भिंडी का नहीं। मैं तनख्वाह आपसे पाता हूं,
भिंडी से नहीं। अरे भिंडी से मुझे क्या लेना-देना है? आप जिसमें खुश, मैं उसमें खुश।
झूठ सदा तुम्हारे सामने हाथ जोड़े खड़ा रहेगा। झूठ के सामने तुम्हें
झुकना ही नहीं होता। झूठ तो खुद ही झुका है। झूठ तो तुम्हें फुसलाता है। झूठ तो
तुम्हारे ऊपर जितना मक्खन चढ़ा सके चढ़ाता है; जितनी पूजा-अर्चना
तुम्हारी कर सके करता है। तब तो तुम्हें अपने लिए राजी कर पाता है। नहीं तो झूठ के
लिए कौन राजी होगा! झूठ के साथ कौन चलेगा!
झूठ बड़े सुंदर वस्त्र पहन कर आता है। झूठ बड़े सुंदर रूप रख कर आता है।
झूठ शास्त्रों के सहारे लेकर आता है। कहावत है कि शैतान शास्त्रों का उल्लेख करता
है। झूठ डरा हुआ है कि अगर किसी ने गौर से देख लिया, वस्त्र उघाड़ कर देख
लिए, तो भीतर का खोखलापन दिखाई पड़ जाएगा। इसलिए झूठ सब आयोजन
करता है कि तुम्हें उसकी सचाई दिखाई न पड़े। झूठ तो तुम्हारे चरण दबाता है। झूठ तो
बड़ा सेवक है।
मुकेश, इसलिए झूठ के साथ दोस्ती आसान, क्योंकि
झूठ तुम्हें रूपांतरित करने की बात ही नहीं करता। झूठ तो कहता है कि तुम हो ही,
जो होना चाहिए वही हो, उससे भी श्रेष्ठ तुम
हो। झूठ तुम्हारी प्रशंसा के पुल बांधता है। झूठ तुम्हें बड़ी सांत्वना देता है। और
कितने-कितने झूठ हमने गढ़े हैं! इतने झूठ कि अगर तुम खोजने चलो तो घबड़ा जाओ! सत्य
तो एक है, झूठ अनंत हैं। झूठ अनेक हैं। जैसे स्वास्थ्य एक है
और बीमारियां अनेक हैं, ऐसे ही सत्य एक है।
और सत्य तुम्हें फुसलाएगा नहीं, तुम्हारी खुशामद नहीं
करेगा। सत्य तो कड़वा मालूम पड़ेगा, क्योंकि तुम झूठ की मिठास
के आदी हो गए हो। झूठ तो अपने ऊपर शक्कर चढ़ा कर आएगा। सत्य तो जैसा है वैसा
है--नग्न! जो लोग झूठ के आदी हो गए हैं, वे सत्य से तो आंखें
चुराएंगे; सत्य उनकी जीभ को जमेगा ही नहीं। सत्य तो उन्हें
बहुत तिक्त मालूम होगा, कड़वा मालूम होगा।
और खयाल रखना, हम आदतों से जीते हैं। मैंने सुना है, एक रास्ते पर भरी दोपहरी में एक आदमी गिर पड़ा और बेहोश हो गया। वह रास्ता
इत्र वालों का रास्ता था, इत्र वालों की गली थी। सामने की ही
दुकान से, जिस आदमी की दुकान थी वह अपना सब से कीमती इत्र
लेकर आया। उसने सुन रखा था कि यह इत्र अगर किसी बेहोश आदमी को सुंघाया जाए तो वह
होश में आ जाए। उसने बेहोश आदमी को इत्र सुंघाया। वह बेहोश आदमी तड़फने लगा जैसे
मछली तड़फती है। अभी तक तो शांत पड़ा था, अब तड़फने लगा,
जैसे मछली तड़फती हो रेत में डाल दी गई हो, धूप
में डाल दी गई हो। वह तो बड़ा हैरान हुआ। और उसने हाथ से बेहोश आदमी ने इस तरह
इशारे किए कि हटाओ, अलग करो!
भीड़ में एक और आदमी खड़ा था, उसने कहा कि आप मार
डालोगे उस आदमी को। यह इत्र हटाओ यहां से! मैं इंतजाम करता हूं। वह एक टोकरी लिए
हुए था, टोकरी में एक पुराना सड़ा-गला वस्त्र, उसने उस पर पानी छिड़का और उस आदमी के मुंह पर रख दिया। तत्क्षण वह आदमी
होश में आ गया और उसने कहा कि मेरे भाई, किसने मुझे बचाया?
कोई मेरी जान लिए ले रहा था! हालांकि मुझे बेहोशी थी, मगर कोई मेरी जान लिए ले रहा था, इतनी तेज पीड़ा मुझे
होने लगी कि मुझे बेहोशी में भी पता चल रहा था कि कोई मुझे मारे डाल रहा है। सांस
घुटने लगी मेरी। कोई ऐसी बदबू सुंघा रहा था। यह तुम कौन हो जिसने मछलियों की सुगंध
मेरे नासापुटों में भर दी?
उस आदमी ने कहा, मैं भी एक मछुआ हूं जैसे तुम
मछुआ हो। मैं भी मछली बेचने आया था जैसे तुम बेचने आए थे। मैं जानता हूं कि मछुआ
तो सिर्फ एक ही सुगंध पहचानता है, वह मछली की। मछली तो नहीं
थीं मेरे पास, लेकिन यह कपड़ा जिसमें मैं हमेशा मछलियां बांध
कर लाता हूं और बेचता हूं, यह पुराना कपड़ा मेरे पास था। यह
तो मछलियों की गंध से तरोबोर है। इस पर जरा पानी छिड़क दिया और तेरी नाक पर रख दिया,
होश आ गया। और मैं जानता हूं कि यह इत्र वाला तेरी जान ले लेता।
वह इत्र की गली में लगी भीड़ तो चकित हो गई। निश्चित ही जिसको मछली में
सुगंध आती हो उसको इत्र में दुर्गंध आएगी। जो झूठ के साथ बहुत दोस्ती बना ली
है...और हमने कितने झूठों के साथ दोस्ती बना ली है! हमें बचपन से झूठ ही पिलाए जा
रहे हैं। दूध में, मां के दूध में हमें झूठ पिलाए जा रहे हैं। तुम जब
पैदा होते हो, हिंदू नहीं होते, मुसलमान
नहीं होते, ईसाई नहीं होते, जैन नहीं
होते; मगर एक झूठ पिलाया जाता है कि तुम जैन हो, कि तुम हिंदू हो, कि तुम ईसाई हो। फिर झूठों पर झूठ,
कि जैन भी तुम दिगंबर नहीं हो, श्वेतांबर हो।
फिर झूठों पर झूठों पर झूठ, कि श्वेतांबर भी तुम स्थानकवासी
नहीं हो, तेरापंथी हो। कि तुम भारत की पुण्यभूमि में पैदा
हुए हो। जैसे और सारी भूमियां पाप की भूमियां हैं, भारत
पुण्यभूमि है! और भूमि इकट्ठी है, बंटी हुई नहीं है कहीं।
कोई रेखा नहीं है भूमि पर।
अब यह बड़ा मजा है, उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले
लाहौर पुण्यभूमि थी, कराची भी, ढाका भी।
अब? अब पुण्यभूमि नहीं रही, क्योंकि
नक्शे पर पाकिस्तान अलग हो गया। पुण्यभूमि कहां है? यह सारी
पृथ्वी या तो पुण्यभूमि है या फिर कोई भूमि पुण्यभूमि नहीं है। मगर झूठ...।
जर्मनों को समझाया जा रहा है कि तुम्हीं श्रेष्ठ जाति हो, जगत पर राज्य करने को तुम्हीं पैदा हुए हो। जर्मन जैसी बुद्धिमान जाति को
भी अडोल्फ हिटलर जैसा जड़बुद्धि आदमी, बिलकुल सामान्य प्रतिभा
का आदमी, जिसकी कोई योग्यता नहीं है, वह
भी मूढ़ बना सका--मूढ़ बना सका एक बहुत विचारशील जाति को! क्यों? क्योंकि उसने ऐसा झूठ बोला जो सब के मन भाया। उसने ऐसा झूठ बोला जिसको कोई
इनकार न कर पाया। उसने कहा कि तुम आर्य हो--शुद्ध आर्य! तुम ही पैदा हुए हो दुनिया
पर राज्य करने को।
कौन इनकार करे! अगर कोई तुमसे यह कहे कि तुम शुद्ध आर्य हो, बस तुम्हीं हो शुद्ध, बाकी सारा जगत अशुद्ध हो चुका
है, एक तुम पर ही आशा है जगत की। चाहे तुम्हें यह बात
शुरू-शुरू में एकदम झूठ भी लगे कि तुम और शुद्ध आर्य, कि
तुम्हीं पैदा हुए हो जगत पर राज्य करने को; मगर फिर भी मन
मान लेने को राजी होगा। मन कहेगा कि बात सच ही होगी, नहीं तो
कोई कहेगा ऐसा! और जब पूरी जाति को यह बात कही जाती है तो जहर बड़े जोर से फैलता
है। और जब भीड़ मानने लगती है तो भीड़ ही नहीं मानने लगती, समझदार
से समझदार लोग मानने लगते हैं।
जर्मनी का सबसे बड़ा विचारक मार्टिन हाइडेगर, जो इस सदी के बड़े से बड़े विचारकों में एक है, उसने
भी अडोल्फ हिटलर को स्वीकार कर लिया। क्योंकि चाहे कितने ही बड़े तुम विचारक क्यों
न होओ, तुम्हारे भीतर वही झूठ बैठे हुए हैं जो सबके भीतर
बैठे हुए हैं। और जब तुम्हारे अहंकार को कोई फुसलाता है और फुग्गे की तरह फुलाता
है तो एकदम राजी हो जाते हो। जर्मन जाति राजी हो गई कि दुनिया पर राज्य करने को
पैदा हुए हैं, राज्य करके रहेंगे। यह ईश्वर ने हमारे ऊपर
विशेष जिम्मेवारी दी है, उत्तरदायित्व है हमारा।
यहूदी सदा से मानते रहे हैं कि वे ही ईश्वर के चुने हुए लोग हैं। इस
झूठी बात के मानने के कारण सदियों-सदियों सताए गए हैं, मगर वे छोड़ते नहीं; जितने सताए गए उतने ही उन्होंने
जोर से इस बात को पकड़ लिया है। क्योंकि जितने सताए गए उतना उनको भरोसा आया कि जरूर
हम ईश्वर के चुने हुए आदमी हैं। क्योंकि कहा है पुराने उनके शास्त्रों में कि
ईश्वर जिसे चुनता है उसे बहुत कठिनाइयों से गुजर कर परीक्षा देनी पड़ती है; उसके लिए बड़ी चुनौतियां आती हैं, अग्नि-परीक्षाएं
आती हैं।
एक बूढ़ा यहूदी ईश्वर की प्रार्थना कर रहा था और कह रहा था, हे परमपिता, तेरी हम पर सदा से अनुकंपा है! वर्षों
से प्रार्थना करता था, एक दिन परमात्मा की आवाज आकाश से
गूंजी कि तूने इतनी प्रार्थना की, अब कुछ मांग ले। तो उसने
कहा, एक ही बात मांगनी है: हमें चुने हुए काफी समय हो गया,
अब आप किसी और को चुन लो। अब किसी और जाति को चुन लो। अब यहूदियों
का पिंड छोड़ो! क्योंकि तुमने हमें क्या चुना, आज तीन हजार
सालों से हम सताए जा रहे हैं--परीक्षा ही, परीक्षा ही,
परीक्षा ही। उत्तीर्ण तो होने का कोई उपाय दिखाई पड़ता नहीं।
यहूदियों को ही भ्रांति नहीं है, दुनिया के हर आदमी को
यह भ्रांति है। आदमियों को छोड़ दो, जानवरों को भी यह भ्रांति
है।
तुमने कहानी सुनी होगी ईसप की: एक सिंह को एक दिन सुबह-सुबह एक लोमड़ी
ने शक पैदा करवा दिया। लोमड़ी ने कहा, ऐसा लोग कहते तो हैं
कि सिंह राजा है, मगर प्रमाण क्या? वोट
लिए हैं लोगों के? अब जमाने गए राजशाही के, यह लोकतंत्र है। फिर से वोट लिया जाना चाहिए।
सिंह ने कहा, अभी जाकर पूछ लेता हूं। एक सियार से पूछा। सियार ने
कहा, यह भी कोई बात है पूछने की! अरे महाराज, महाराजाधिराज, आप ही सम्राट हैं! एक बिल्ली से पूछा।
अरे, बिल्ली ने कहा, यह भी कोई पूछने
की बात है? यह तो ईश्वर ने ही आपको सम्राट बनाया। सिंह फूलता
गया, फूलता गया। पूछता गया, फूलता गया।
फिर उसने हाथी से पूछा। हाथी ने उसे अपनी सूंड में लपेटा और फेंका कोई पचास कदम
दूर। गिरा जमीन पर, हड्डी-पसली टूट गई, झाड़-झूड़ कर अपने को उठ कर खड़ा हुआ और कहा कि भाई, अगर
तुम्हें ठीक उत्तर मालूम नहीं तो कह देते। इतनी उठा-पटक की क्या जरूरत थी? साफ कह देते कि मुझे उत्तर मालूम नहीं।
मैंने सुना है, एक हाथी सुबह-सुबह, सर्दी के
दिन हैं, धूप ले रहा है। एक चूहा भी अपनी पोल से निकल आया,
वह भी हाथी के पास खड़ा होकर धूप ले रहा है। चाहता है कि हाथी का
ध्यान उसकी तरफ जाए, लेकिन हाथी का ध्यान नहीं जा रहा। तो
काफी चें-चें करता है, घूमता है, चारों
तरफ चक्कर मारता है, जितना भी प्रचार कर सकता है करता है।
आखिर हाथी को खयाल में आता है: कोई चें-चें-चें-चें, कोई पैर
में चोंच भी मार रहा है। तो उसने नीचे देखा, बड़े गौर से
देखा। छोटी-छोटी आंखें हाथी की, देखा एक चूहा जरा सा! सर्दी
का समय है, फुर्सत का वक्त है, धूप
लेने का समय है, कोई अड़चन नहीं है। हाथी ने कहा कि मेरे भाई,
तुम भी हो क्या? इतने छोटे! मैंने तो कभी सोचा
भी नहीं, सपने में भी नहीं देखा कि इतना छोटा भी प्राणी होता
है! चूहा अकड़ कर खड़ा हो गया। उसने कहा, छोटा नहीं हूं। असल
में मैं तीन महीने से बीमार हूं।
आदमी को ही नहीं, जानवरों को भी...।
भारत पुण्यभूमि! कि यहां ऋषि-मुनियों का देश! कि हिंदू धर्म महान
धर्म! कि इसलाम धर्म महान धर्म! कि ईसाइयत ही अकेला धर्म है जिससे स्वर्ग का द्वार
खुलेगा! जो ईसाई हैं वे ही केवल प्रवेश पा सकेंगे, बाकी सब नरक में
सड़ेंगे! ऐसे फिर झूठों पर झूठ समझाए जाते हैं। रूस में एक तरह के झूठ समझाए जाते
हैं कि कम्युनिज्म एकमात्र भविष्य है; और अमरीका में दूसरे
झूठ समझाए जाते हैं, भारत में तीसरे झूठ समझाए जाते हैं। मगर
इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। झूठ कोई भी हों, झूठ ही हैं। और
झूठ सब तुम्हें फुलाते हैं। झूठ सब तुम्हारी मालिश करते हैं। झूठ तुम्हारे अहंकार
को पुष्ट करते हैं।
इसलिए झूठ को स्वीकार कर लेना, मुकेश, आसान है; आसान क्या सुखद है, प्रीतिकर
है। सत्य को स्वीकार करने के लिए साहस चाहिए। सत्य को स्वीकार करने के लिए साहस ही
नहीं, दुस्साहस चाहिए! सत्य को स्वीकार करने के लिए जोखिम
उठाने की हिम्मत चाहिए। इसलिए सत्य के सामने कोई झुकता नहीं। झुकना पड़ेगा! झुकना
कौन चाहता है? कोई नहीं झुकना चाहता।
सत्य के सामने झुकने को जो राजी है, वही धार्मिक व्यक्ति
है। मैं उसी को संन्यासी कहता हूं। लेकिन सत्य के सामने वही झुक सकता है, जिसके भीतर ध्यान की किरण उतरी हो और जिसने देखा हो कि मैं तो हूं ही
नहीं। बस उस मैं के न होने में ही झुकना है। झुकना कोई कृत्य नहीं है। झुकना
तुम्हारा कोई संकल्प नहीं है। अगर कृत्य है, अगर संकल्प है,
तो कर्ता फिर निर्मित हो जाएगा, फिर अहंकार बन
जाएगा। तुम्हारे भीतर एक नया अहंकार पैदा हो जाएगा कि देखो मैं कितना विनम्र हूं,
कैसा झुक जाता हूं, जगह-जगह झुक जाता हूं,
मुझसे ज्यादा विनम्र कोई भी नहीं!
चार आदमियों ने तय किया कि वे एक गुफा में बैठ कर ध्यान करेंगे, मौन रखेंगे। जब तक ज्ञानोपलब्धि न हो जाए, जब तक
निर्विकल्प समाधि न लग जाए, तब तक हटेंगे नहीं, तब तक मौन नहीं तोड़ेंगे। कोई पांच-सात मिनट ही बीते होंगे कि पहला आदमी
बोला कि अरे, पता नहीं मैं घर की बिजली बुझा कर आया कि नहीं!
पांच बजे उठ कर चला आया हूं, बिजली जलती न छोड़ आया होऊं।
दूसरे आदमी ने कहा कि हमने तय किया है कि चुप रहेंगे और तुम बोल गए।
तीसरे आदमी ने कहा, भैया, बोल
तो तुम भी गए।
चौथे आदमी ने कहा, हमीं भले, जो
अब तक नहीं बोले!
ध्यान इस जगत में सर्वाधिक बहुमूल्य घटना है। क्योंकि ध्यान अर्थात
मौन। ध्यान अर्थात निर्विचार। ध्यान अर्थात एक शून्य चैतन्य की अवस्था, जब चैतन्य तो पूरा होता है, लेकिन चैतन्य के समक्ष
कोई विषय नहीं होता, कोई विचार नहीं होता। बस चैतन्य मात्र!
उस चैतन्य की घड़ी में तुम जानोगे--तुम नहीं हो, परमात्मा है।
यही झुकना है। और अगर यह जाने बिना तुम झुके तो तुम्हारा झुकना भी झूठ होगा,
तुम्हारा झुकना औपचारिक होगा। और तब तुम्हारे भीतर एक नया अहंकार
शुरू होगा, जो विनम्र आदमी में पाया जाता है।
मैंने सुना है, जीवन की यह महत्वपूर्ण बातों में एक बात है, जो ठीक से समझ लेना, कि अहंकार के रास्ते इतने
सूक्ष्म हैं कि अगर तुम बहुत जागरूक नहीं हो तो अहंकार को एक दरवाजे से तुम बाहर
निकालोगे, वह दूसरे दरवाजे से भीतर आ जाएगा। अहंकार इतना
कुशल है कि वह विनम्रता का भी आवरण लेकर तुम्हारे भीतर आ सकता है। दुनिया में
विनम्रता का भी अहंकार होता है। लोग हैं ऐसे जिनको यह दंभ है कि उनसे ज्यादा
विनम्र और कोई भी नहीं। मगर यह भाषा तो वही रही, अहंकार की
रही, कुछ फर्क न पड़ा। अकड़ तो वही रही, कुछ
फर्क न पड़ा। मूढ़ता जरा भी न बदली।
निरहंकारिता को सारे धर्मों ने बड़ा मौलिक गुण माना है। लेकिन खयाल
रखना, निरहंकारिता को! और तुम्हें समझाया जो जाता है वह
समझाई जाती है विनम्रता; निरहंकारिता नहीं, अहंकार-शून्यता नहीं, बल्कि विनम्रता। भाषा-कोश में
दोनों का एक ही अर्थ होता है। निरहंकारिता और विनम्रता, भाषा-कोश
दोनों का एक ही अर्थ करते हैं। भाषा-कोशों से बड़ी भ्रांतियां फैलती हैं, क्योंकि भाषा-कोश लिखने वाले लोग भाषा जानते होंगे, जीवन
नहीं जानते। जीवन की भाषा और है और भाषा का जीवन और है। भाषा तो केवल शब्दों,
व्याकरण के नियमों का खेल है; जीवन कुछ और ही
बात है, न वहां शब्द हैं, न व्याकरण
है। जीवन की भाषा में अगर समझना हो, अगर अस्तित्वगत अनुभव
समझना हो, तो विनम्रता अहंकार का एक रूप है; निरहंकारिता नहीं है विनम्रता।
इसलिए तुम विनम्र आदमी के चेहरे पर बड़ा दंभ पाओगे, बड़ी अकड़ पाओगे। ऐसे वह हाथ जोड़ कर खड़ा होगा। हो सकता है तुम्हारे पैर छुए।
हो सकता है तुमसे कहे, मैं तो आपकी चरण-रज हूं। मगर वह आंख
के कोने से देख रहा है कि तुम प्रशंसा करो कि अहा, आप जैसा
विनम्र आदमी कोई नहीं देखा! और स्वभावतः जो तुमसे कहेगा कि मैं आपकी चरण-रज हूं,
आप उसकी प्रशंसा करोगे ही, क्योंकि वह आपके
अहंकार को भर रहा है, आप उसके अहंकार को भरो; यही पारस्परिक लेन-देन है, शिष्टाचार है।
कभी कोई आदमी आपसे कहे कि मैं आपके चरण की धूल हूं...। ऐसा एक दफे हुआ, एक मुसलमान फकीर को लोग मेरे पास ले आए। उन्होंने मुझे कहा कि वह बड़ा
विनम्र आदमी है! हर किसी के पैर छू लेता है! राह चलते लोगों के पैर छू लेता है!
आपसे मिलाना है। मैंने कहा, जरूर ले आओ।
फकीर आया, एकदम मेरे पैरों में गिर पड़ा साष्टांग दंडवत! पैर के
नीचे की धूल उठा कर उसने अपने माथे पर टीका कर लिया। मुझसे बोला कि मैं आपके चरणों
की धूल हूं। मैंने कहा, निश्चित! तुम बिलकुल ठीक कहते हो।
चरणों की ही धूल हो!
वह आदमी बहुत चौंका। उसने मुझे बड़े क्रोध से देखा। मैंने कहा, तुमने बिलकुल सत्य कहा। यही मेरी भी समझ है। तुम्हें देख कर ही मैं समझ
गया कि तुम चरणों की धूल से ज्यादा नहीं हो।
वह आदमी कहने लगा, आप आदमी कैसे हैं! मैंने न मालूम
कितने लोगों के चरण छुए हैं, बड़े-बड़े महात्माओं के पास गया;
लेकिन कभी किसी ने मुझे इस तरह की कठोर बात नहीं कही।
मैंने कहा, कठोर! मैं तो सिर्फ तुम्हारी बात से राजी हो रहा हूं।
लेकिन वह नहीं चाहता कि मैं उसकी बात से राजी हो जाऊं; वह चाहता था सुनना कि मैं कहूं कि अहा, यही तो सदगुण
है, यही पुण्य-भाव है। तो प्रसन्न होता। उसने यह "मैं
आपके चरणों की धूल हूं', इसको सूत्र बना लिया अपने अहंकार के
निर्माण करने का। मगर इतनी आसानी से अहंकार नहीं छूटता; अंतर्दर्शन
के बिना नहीं छूटता। तुम ढोंग कितना ही करो सोच-विचार का, त्यागत्तप
का, सबको अहंकार पचा लेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे ने उससे पूछा, पापा, मेरे मास्टर जी कहते हैं कि दुनिया गोल है। लेकिन मुझे तो चपटी दिखाई पड़ती
है। और ढब्बू जी का लड़का है, वह कहता है, न तो गोल है न चपटी, जमीन चौकोर है। पापा, आप तो बड़े विचारक हैं, आप क्या कहते हैं?
मुल्ला नसरुद्दीन ने आंखें बंद कर लीं। जब बेटा कह रहा है आप बड़े
विचारक हैं तो थोड़ा विचारक का ढोंग करना पड़ेगा। आंखें बंद कर लीं, हाथ ठोड़ी से लगा लिया। जैसे तुमने रोडिन की मूर्ति देखी हो--दि थिंकर! हाथ
लगाए हुए ठोड़ी से। थोड़ी देर बैठा ही रहा। हालांकि सोच-विचार कुछ नहीं आया, सब तरह की बातें सिर में घूमती रहीं कि आज कौन सी फिल्म देखने जाऊं,
क्या करूं, क्या न करूं। बेटे ने कहा, पापा बहुत देर हो गई, अब तक आप पता नहीं लगा पाए?
दुनिया गोल है, चपटी है कि चौकोर है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, बेटा, न तो दुनिया गोल है, न चपटी, न
चौकोर, दुनिया चार सौ बीस है।
अब कितना ही सिर लगा कर सोचते रहो, मगर सोचोगे भी क्या?
तुम्हारा सोच-विचार तुमसे ऊपर नहीं जा सकता। तुम्हारी विनम्रता भी
तुमसे ऊपर नहीं जा सकती। तुम्हारी विनम्रता भी चाकर हो जाएगी तुम्हारे अहंकार की।
और ये सारे झूठ और झूठों के झमेले हमें सिखाए गए हैं।
झूठ के सामने, मुकेश, तुम्हें झुकना ही नहीं
पड़ता। झूठ खुद ही झुक जाता है; झूठ एकदम पैर पकड़ लेता है।
झूठ कहता है, मालिक, मुझे सेवक की तरह
स्वीकार कर लो। सब तरह आपकी सेवा करूंगा। सब तरफ आपकी सुरक्षा करूंगा। सत्य तो
आपको मुश्किलों में डाल देगा; मैं आपको मुश्किलों से
बचाऊंगा। सत्य तो आपको झंझटें खड़ी कर देगा।
सिग्मंड फ्रायड ने लिखा है--और ठीक लिखा है--कि अगर प्रत्येक व्यक्ति
यह तय कर ले पृथ्वी पर कि चौबीस घंटे सिर्फ सत्य बोलेंगे, सिर्फ सत्य और कुछ भी नहीं, तो दुनिया में चार दोस्त
भी नहीं बचेंगे। सब पति-पत्नियों के तलाक हो जाएंगे। अगर चौबीस घंटे के लिए लोग तय
कर लें कि सिर्फ सत्य बोलेंगे। खालिस सत्य और कुछ नहीं, तो
सारे नाते-रिश्ते टूट जाएंगे।
और सिग्मंड फ्रायड जब कुछ कहता है तो उसकी बात में गहरी खोज है, जीवन भर का अनुभव है। चालीस साल तक लोगों के मनों में झांकने की जो उसकी
अपूर्व क्षमता थी, उसके आधार पर उसका यह वक्तव्य है। लोग कह
ही नहीं रहे हैं। लोग कुछ और ही कहते हैं। सोचते कुछ और हैं, बताते कुछ और हैं। भीतर कुछ है, बाहर कुछ और है।
हमारे सारे नाते-रिश्ते झूठ पर खड़े हैं।
पत्नी कहती है पति से कि मैं आपके चरणों की दासी हूं। मगर हालत और है; मानती यही है कि यह चरणदास है। चौबीस घंटे यही सिद्ध करती है कि तुम
चरणदास हो और चिट्ठी वगैरह में लिखती है कि आपके चरणों की दासी। वह सब
चिट्ठी-पत्रियों में लिखने की बात है। मगर चरणदास भी जब चिट्ठी पाते हैं कि पत्नी
लिखती है चरणों की दासी तो फूल कर कुप्पा हो जाते हैं, बड़े
प्रसन्न होते हैं।
कौन पत्नी मानती है कि पति में अकल है! कौन पति मानता है कि मेरी
पत्नी सुंदर है! लेकिन कहना पड़ता है, प्रशंसा करनी पड़ती
है। और ऐसा ही नहीं कि लोग सिर्फ कहते ही हैं, इस तरह की
किताबें लिखी गई हैं जिनमें इस तरह के सुझाव दिए गए हैं।
पश्चिम में डेल कारनेगी का नाम बहुत प्रसिद्ध है। उसकी एक किताब इतनी
बिकी है कि बाइबिल के बाद नंबर दो। हाऊ टु विन फ्रेंड्स एंड इन्फ्लुएंस पीपुल? कैसे दोस्त बनाओ और कैसे लोगों को जीतो? उसमें जो
सूत्र दिए हैं, वे सब इसी तरह के झूठों के सूत्र हैं। डेल
कारनेगी कहता है कि जब भी घर आओ तो भूलो ही मत पत्नी के प्रति प्रेम प्रकट करना।
हो प्रेम या नहीं, इसका सवाल नहीं। कुछ न कुछ सुंदर शब्द
बोलो ही; भीतर हों या न हों, यह सवाल
नहीं। तुम्हारे भीतर क्या है, इससे किसी को क्या लेना-देना
है? पत्नी तुम जो कहते हो उसको सुनती है। रोज कहो कि हे
प्रिये, तेरे जैसी सुंदरी संसार में कोई भी नहीं है। सोचते
तुम कुछ भी रहो, मगर कहो यही, तो तुम
जीत पाओगे, स्वभावतः।
और डेल कारनेगी जो कह रहा है वह सदियों का अनुभव है लोगों का। चौबीस
घंटे सत्य बोला जाए, सिर्फ सत्य, तो पृथ्वी एकदम उजड़
जाए, बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाए।
एक आदमी ने गांव के नेता जी को, किसी बातचीत में
गुस्सा-गुस्सी हो गई और सच्ची बात कह दी। कह दिया कि तुम उल्लू के पट्ठे हो! अब
नेता जी को उल्लू का पट्ठा कहो तो नेता जी कुछ ऐसे ही नहीं छोड़ देंगे। उन्होंने
अदालत में मुकदमा चलाया मानहानि का। मुल्ला नसरुद्दीन नेता जी के पास ही खड़ा था तो
उसको गवाही में लिया। अब नेता जी ने गवाही में लिया तो वह मना भी नहीं कर सका।
मानता वह भी था, मगर यह मौका छोड़ना क्यों! नेता जी प्रसन्न
रहें तो ठीक ही है। कभी काम पड़ेंगे, कभी कोई लाइसेंस निकलवा
देंगे, कभी कोई झंझट-झगड़ा होगा तो निपटा देंगे। तो चला गया
अदालत में।
जिसने गाली दी थी नेता जी को, उसने मजिस्ट्रेट को
कहा कि होटल में कम से कम पचास लोग थे, जरूर मैंने उल्लू का
पट्ठा शब्द का उपयोग किया है; लेकिन मैंने किसी का नाम नहीं
लिया। मैं किसी और से भी कहता हो सकता हूं। नेता जी कैसे सिद्ध कर सकते हैं कि
मैंने इन्हीं से उल्लू का पट्ठा कहा है?
नेता जी ने कहा, सिद्ध कर सकता हूं। मेरे पास
गवाह हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन को खड़ा किया गया। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि मुल्ला
नसरुद्दीन, तुम गवाही देते हो कि इस आदमी ने नेता जी को इंगित
करके उल्लू का पट्ठा कहा? मुल्ला ने कहा कि निश्चित, सौ प्रतिशत निश्चित बात है यह कि इसने नेता जी को ही उल्लू का पट्ठा कहा
है! मजिस्ट्रेट ने कहा, तुम कैसे इतने निश्चित हो सकते हो?
वहां पचास लोग और मौजूद थे, इसने किसी का नाम
तो लिया नहीं। नसरुद्दीन ने कहा, नाम लिया हो कि नहीं लिया
हो, पचास मौजूद हों कि पांच सौ मौजूद हों, मगर वहां उल्लू का पट्ठा केवल एक था, वह नेता जी थे!
इसने इन्हीं को कहा है, मैं कसम खाकर कहता हूं। अपने बेटे की
कसम खाकर कहता हूं। वहां कोई दूसरा था ही नहीं, यह कहेगा भी
किसको?
तुम छिपाओगे कितनी देर? हां, ऊपर हम छिपाए चले जाएं, तो भीतर एक धारा चल रही है।
ऊपर-ऊपर झूठ का बड़ा भार है, लेकिन भीतर सत्य की किरण भी मौजूद
है।
मुकेश, जिस दिन तुम जानोगे कि अहंकार नहीं है उस दिन झुकना
नहीं पड़ेगा, अपने को झुका हुआ पाओगे, अचानक
झुका हुआ पाओगे! वही झुका हुआ पाना प्रार्थना है, पूजा है।
झुके चेष्टा से, वह पूजा नहीं है। झुका हुआ पाया निश्चेष्टा
में, वह पूजा है। प्रार्थना कही तो प्रार्थना नहीं; प्रार्थना निकली तो प्रार्थना है।
लेकिन वह अपूर्व घड़ी तो तब आए, जैसे हंसा को हुआ
वैसा तुमको हो--यह मन गया, यह मैं गया! और आई पवन और कह गई
कि सावन आ गया।
ध्यान में उतरो, मुकेश! सत्य-असत्य का अभी विचार
ही न करो। अभी तुम किसे सत्य कहोगे? किसे असत्य कहोगे?
किसी शहर के एक प्रसिद्ध सिनेमाघर में एक व्यक्ति मैनेजर के कक्ष में
पहुंचा और उसने बड़े ही क्रुद्ध स्वर में मैनेजर से कहा, सुनिए जनाब, मेरी पत्नी अपने किसी प्रेमी के साथ
यहां सिनेमा हाल में मौजूद है। उससे कहिए कि वह सीधी तरह घर चली जाए, नहीं तो बाद में बड़ा धमाल हो जाएगा। मैं यहीं तूफान मचा दूंगा।
मैनेजर ने कहा, आप शांत हो जाइए, शांत होकर
बैठिए, हम अभी अनाउंस करवाते हैं।
मैनेजर ने पिक्चर हाल में अनाउंस करवाया, दोस्तो, कोई महिला जो कि अपने प्रेमी के साथ पिक्चर
देखने आई हुई हैं, वे कृपया अपने घर चली जाएं। यह उनके पति
का आदेश है। हम दो मिनट के लिए हाल की लाइट बंद कर रहे हैं, जो
भी महिला अपने प्रेमी के साथ हाल में हैं, वे कृपया अपने घर
वापस चली जाएं। यह उनकी और हमारी दोनों की इज्जत का सवाल है। इसलिए हम बत्तियां
बंद करवा देते हैं, ताकि कोई उन्हें देखे न, पहचाने न।
इस अनाउंसमेंट के बाद मैनेजर ने दो मिनट के लिए हाल की बत्तियां बंद
करवा दीं। जब दो मिनट बाद बत्तियां जलाई गईं तो मैनेजर तथा दर्शकों के आश्चर्य का
ठिकाना न रहा, क्योंकि हाल में अब एक भी महिला मौजूद नहीं थी।
एक जिंदगी है तुम जो जीते हो; एक जिंदगी है जो तुम
दिखलाते हो। एक जिंदगी है जैसी होनी चाहिए थी; और एक जिंदगी
है जैसी तुमने बना ली है। इन झूठों के बाहर आओ। लेकिन तुम बाहर आने की चेष्टा से
बाहर न आ सकोगे। तुम्हारे भीतर सत्य की प्रतीति हो तो बाहर आ सकोगे।
फिर दोहरा दूं: क्रांति भीतर से बाहर की तरफ होती है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं। पहले केंद्र पर क्रांति होती है तब परिधि की
तरफ फैलती है। परिधि पर क्रांति नहीं होती। परिधि की क्रांति अगर हो तो वह क्रांति
नहीं होती, क्रांति का केवल झूठा आभास होती है। परिधि की
क्रांति को ही लोग आचरण कहते हैं। और समाज का जोर इसी पर है कि आचरण सुधारो,
आचरण सुधारो। और तुम्हारे आचरण सुधारने के सब उपाय केवल तुम्हें झूठ
कर जाते हैं, थोथा, पाखंडी कर जाते
हैं।
मैं चाहता हूं, तुम्हारा अंतस जागरूक हो। आचरण अगर कभी बदले तो अंतस
के कारण बदले। आचरण के कारण अंतस नहीं बदलता है; आचरण तो
सिर्फ पाखंडी ही पैदा करता है। आचरण नहीं, अंतस! इस सूत्र को
हृदय में सम्हाल कर रख लो। आचरण जरूर बदलेगा, लेकिन आचरण
छाया है अंतस की। छाया को बदलने में मत लगे रहना, क्योंकि
छाया को बदलने से मूल नहीं बदलता। मूल बदल जाए तो छाया जरूर बदलती है।
इसलिए मैं अपने संन्यासियों को नहीं कहता कि तुम अपने आचरण को ऐसा करो, वैसा करो; यह खाओ, वह पीओ;
इतने बजे उठो, इतने बजे मत उठो। मैं अपने
संन्यासियों को सिर्फ एक बात कह रहा हूं, सिर्फ एक औषधि,
कि तुम ध्यान में उतरो। ध्यान तुम्हें सत्य के सामने खड़ा कर देगा,
फिर तुम्हारे जीवन में क्रांति होनी शुरू होगी--जो तुम करोगे नहीं,
होगी ही। और उस बात का सौंदर्य ही और है, जब
तुम्हारा आचरण अपने आप बदलता है, जब तुम्हारे आचरण में अपने
आप आभा आती है! थोप-थाप कर, जबरदस्ती ऊपर से बिठा कर,
किसी तरह सम्हाल कर जो आचरण बनाया जाता है, वह
पाखंड है।
लेकिन सदियों से तुम्हें पाखंड सिखाया गया है धर्म के नाम पर, नीति के नाम पर। इसलिए मैं जब तुम्हें उस पाखंड को छोड़ देने के लिए कहता
हूं तो तथाकथित नीतिवान लोग मेरे विपरीत हो जाते हैं, तथाकथित
धार्मिक लोग मेरे विरोध में हो जाते हैं। उनका विरोध समझ में आता है, क्योंकि सदियों की उनकी धारणा को मैं तोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। लेकिन उस
धारणा को तोड़ना ही होगा, क्योंकि सदियां बीत गईं और आदमी
नहीं बदला। सदियां बीत गईं और आदमी सड़ता ही चला गया।
बहुत देर वैसे ही हो चुकी है, अब जागो! अब हम एक
नये धर्म का सूत्रपात करें; परमात्मा को एक नये ढंग से
पुकारें; प्रार्थना को एक नयी भाव-भंगिमा दें; जीवन को एक नया मार्ग! वह मार्ग ध्यान का है, वह
मार्ग अंतर्यात्रा का है।
तीसरा प्रश्न: भगवान, क्या मौत पर विजय नहीं पाई जा सकती है?
गिरीशचंद्र, यह प्रश्न तभी उठ सकता
है जब मौत से तुम बहुत डरे होओ। मौत पर विजय पाने की जरूरत क्या है? मौत तो विश्राम है। क्या विश्राम पर विजय पानी है? क्या
कभी विश्राम नहीं करना है? दौड़ते ही रहना है, धापते ही रहना है?
मौत दुश्मन नहीं है कि उस पर विजय पाओ; मौत तो महामित्र है।
मौत तो तुम्हारे सारे जीवन के उपद्रव, सारे जीवन की आपाधापी
के बाद तुम्हें विश्राम का क्षण है। मौत तो तुम्हें नयी देह देगी, नया जीवन देगी। अगर कुछ पाठ लिए हों पुराने जीवन से तो नये जीवन में उनका
उपयोग कर लेना। मौत तुम्हें एक अवसर देगी पुरानी आदतें छोड़ने, पुरानी देह के छोड़ने, पुराने ढंग-ढांचे को छोड़ने का।
मौत तो एक महा अवसर है।
मैंने सुना है, जब सिकंदर भारत की यात्रा को आया तो उसने सुन रखी थी
एक कहानी। कहानी ही मानता था, नहीं सोचा था कि सच होगी। सुन
रखा था उसने कि कहीं रास्ते में मरुस्थलों में कोई एक ऐसा झरना है, जिस झरने का जल पी लेने से आदमी अमर हो जाता है। सिकंदर जब आया तो उसने
अपने सिपाहियों को कह रखा था कि पता लगाए रखना, जहां से
गुजरो पता लगाए रखना, कि वह झरना कहां है? और आखिर वह एक दिन घड़ी आ गई जब उस झरने का पता मिल गया। सिकंदर ने उस झरने
पर चारों तरफ पहरा लगवा दिया, अकेला उस झरने के पास गया। एक
छोटी सी खोह में, एक छोटी सी गुफा में वह झरना था। भीतर
प्रवेश किया। बड़ा स्वच्छ निर्मल जल था--ऐसा जैसा कभी नहीं देखा! स्फटिक मणि जैसी
स्वच्छता की बात तो सुनी थी, मगर देखी नहीं थी, आज पहली बार देखी। सामने अमृत को देख कर फिर कोई रुके! जल्दी से अंजली भर
कर पीने को ही जा रहा था कि कोई आवाज गूंजी कि रुक! चारों तरफ देखा कि कौन है गुफा
में?
एक कौआ बैठा था। उस कौए ने कहा, रुक, मेरी सुन ले। मेरी कथा सुन ले। मेरी दुख-कथा सुन ले, फिर पीना। एक क्षण रुक जाएगा तो कुछ हर्ज नहीं होगा।
एक तो कौआ, और बोले! भरी अंजली छूट गई। सिकंदर भी एकदम घबड़ा गया
और उसने पूछा कि क्या तुम्हें कहना है? उस कौए ने कहा,
मुझे यह कहना है कि जैसे तू सिकंदर है आदमियों में, ऐसा मैं भी सिकंदर हूं कौओं में। मैंने भी कहानी सुनी थी और मैं भी खोज
में निकला था। और अंततः मैंने यह झरना पा लिया और मैंने जी भर कर पी लिया। इस बात
को हुए सदियां बीत गईं। अब मैं मरना चाहता हूं और मर नहीं पा रहा हूं। सिर पटकता
हूं, चोट नहीं लगती। पहाड़ से गिरता हूं, जिंदा का जिंदा। आग में चला जाता हूं, पंख नहीं
जलते। जहर पीता हूं, असर नहीं होता। और अब मुझे मरना है। मैं
थक गया! बहुत थक गया! अब कब तक जीता रहूं? किसलिए जीता रहूं?
अब यह जिंदगी बहुत बोझ मालूम होती है। अगर तुम्हें कुछ पता हो ऐसी
किसी जगह का जहां अमृत को काटने वाली कोई दवा, कोई एंटीडोट,
तो मुझे बता दो। और मेरी कथा सुनने के बाद भी अगर तुम्हें पीना हो
तो पीओ, लेकिन सोच लेना, फिर मर न
सकोगे।
और कहते हैं सिकंदर ने दो क्षण सोचा और फिर ऐसा भागा वहां से--भागा
इसलिए कि कहीं किसी प्रलोभन में पी ही न ले--ऐसा भागा कि उसने लौट कर पीछे नहीं
देखा। कभी कोई उससे बात भी छेड़ता था उस झरने की तो वह बात नहीं करता था; वह कहता कि उसकी बात ही मत करो। उस झरने की मैं बात ही नहीं सुनना चाहता।
गिरीशचंद्र, तुम पूछते हो: "क्या मौत पर विजय नहीं पाई जा
सकती?'
क्या करोगे मौत पर विजय पाकर? मौत जीवन की विपरीत
अवस्था नहीं है; जीवन को नित नया करने की व्यवस्था है। मौत
से गुजर कर जीवन नितनूतन होता है। मौत जीवन का अंत नहीं है। जीवन तो शाश्वत है।
जीवन को जानो तो तुम्हें जीवन की शाश्वतता पता चल जाए। जीवन तो अमृत है ही,
अब किसी और अमृत की जरूरत नहीं है। और मौत को जीत कर क्या करोगे?
मगर मौत से आदमी भयभीत है और भय के कारण मौत को जीतना चाहता है। और
सदियों से आदमी ने चेष्टा की है। एक से एक मूर्खतापूर्ण चेष्टाएं की गई हैं। अभी
अमरीका में एक नयी से नयी चेष्टा चल रही है, क्योंकि अमरीका में
अब साधन उपलब्ध हो गए हैं। तो कुछ लोग मर जाते हैं, वे वसीयत
कर जाते हैं कि उनकी देह को बचाया जाए। देह को बचाना बहुत मंहगा मामला है, दस हजार डालर प्रति दिन का खर्च होता है--एक लाख रुपया रोज। देह बिलकुल न
सड़े, जैसी की तैसी रहे, तो उसको बहुत
तापमान को नीचे गिरा कर, बर्फ से भी बहुत नीचे तापमान को
गिरा कर, बर्फ की चट्टानों में दबा कर रखना पड़ता है। एक क्षण
को भी अगर गर्मी पहुंच गई, जरा सी भी गर्मी पहुंच गई,
तो देह में सड़ान शुरू हो जाएगी। और यह मरने के मिनटों के भीतर हो
जाना चाहिए।
इस समय अमरीका में कोई दस लाशें इस तरह बचाई जा रही हैं। क्यों? वे करोड़पतियों की लाशें हैं। वे मरते वक्त वसीयत कर गए हैं कि उनकी लाश
बचाई जाए। किस आशा में? क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि दस या
पंद्रह वर्ष के भीतर हम वह तरकीब खोज लेंगे जिससे मुर्दे को पुनः जिलाया जा सकता
है। तो दस ही पंद्रह साल का सवाल है। दस-पंद्रह साल अगर लाश बची रही और तरकीब खोज
ली गई तो मुर्दों को जगाया जाएगा, उसमें ये मुर्दे भी जाग
जाएंगे। एक लाख रुपया रोज का खर्च! कोई चार अरब रुपया प्रति वर्ष का खर्च! मगर
जिनके पास सुविधा है वे पंद्रह-बीस साल का इंतजाम कर सकते हैं।
समझ लो कि आज से बीस साल बाद एक आदमी इस तरह जिंदा भी हो गया, फिर क्या करेगा? पहले भी क्या किया था? पहले भी जिंदा रहा था, पहले ही क्या किया था?
जो उपद्रव पहले किए थे वही फिर करेगा; कोई
बुद्धिमत्ता तो आ नहीं जाएगी, कोई बोध तो पैदा हो नहीं
जाएगा। और देह अगर बच भी गई तो भी बूढ़ी होगी, सड़ी होगी।
करोगे क्या उसका? और यह भी समझ लो कि आज नहीं कल तुम्हारे
शरीर के सारे के सारे हड्डी-मांस-मज्जा को भी बदला जा सके और नया किया जा सके,
तो भी क्या होगा?
मैंने सुना है, एक आदमी बूढ़ा हो गया। बहुत धनपति था। उसने बुढ़ापे में
शादी कर ली। अब बुढ़ापे की शादी, खुद की उम्र नब्बे साल और
लड़की की उम्र उन्नीस साल। डाक्टरों से कहा कि कुछ करो। अब डाक्टर भी क्या करें!
मगर डाक्टर इनकार भी नहीं कर सकते। विशेषज्ञ की एक मुसीबत होती है; वह यह तो कह ही नहीं सकता कि मैं नहीं जानता। नहीं तो उसका अज्ञान प्रकट
होता है। उसने कहा, मत घबड़ाओ। उसने सारा का सारा यौन-यंत्र
बदल डाला। एक बंदर का आपरेशन करके...।
तुम जानते हो, हिंदुस्तानी बंदर अमरीका भेजे जा रहे हैं! बड़ा
एक्सपोर्ट चलता है। हमारे पास एक्सपोर्ट करने को कुछ और है भी नहीं; चलो हनुमान जी के वंशजों को एक्सपोर्ट करो। इससे धर्म का भी प्रचार होगा,
ये बंदर जाएंगे तो हनुमान चालीसा भी ले जाएंगे। और ये बंदर कोई
साधारण बंदर तो नहीं हैं, रामचंद्र जी की सेवा में रहे हैं।
चलो इसी तरह हिंदू धर्म फैलेगा।
तो एक बंदर का पूरा का पूरा यौन-यंत्र काट कर, उस आदमी का आपरेशन करके उसमें यौन-यंत्र बंदर का लगा दिया। बूढ़ा बहुत खुश
हुआ। जवानी फिर अनुभव होने लगी। नौ महीने बाद पत्नी को बच्चा हुआ। बूढ़ा बाहर बैठा
है--एकदम उत्तेजित। बंदर जैसा उत्तेजित! बैठता ही नहीं, खड़ा
हो-हो जाता है। डाक्टर कहते हैं, बैठो भाई, थोड़ा वक्त लगेगा, पैदा होगा तभी होगा। मगर वह
फिर-फिर उठ आता है। दरवाजा खोलता है, बंद करता है; अखबार खोलता है, बंद करता है। बंदर की हालत उसकी!
आखिर डाक्टर बाहर आया। उसने पूछा, क्या हुआ?
उसने कहा, भई जरा ठहरो भी तो! तुम्हारा बच्चा पहले शैंडेलियर पर
चढ़ गया है, अब वह उतरे नीचे तो हम बताएं क्या हुआ। वह
शैंडेलियर से नहीं उतर रहा है।
अब बंदर का यंत्र लगाओगे तो क्या तुम बच्चे से आशा करते हो कि वह कुछ
और होंगे? मगर यह चल रही है कोशिश कि आदमी के यंत्र को बदल दो,
उसकी हड्डियां बदल दो, मांस-मज्जा बदल दो। यह
भी चलेगा। मगर इस सब से भी क्या प्रयोजन है?
असली सवाल यह नहीं है कि मौत को कैसे विजय किया जाए; असली सवाल यह है कि जीवन कैसे जीया जाए। क्या फिजूल की बात पूछते हो! अभी
जिंदा हो, इस जिंदगी का क्या उपयोग हो सके, कैसा सदुपयोग हो सके, ऐसी कुछ बात पूछो। ऐसी कुछ बात
पूछो कि कैसे जीएं इस जीवन को समग्रता से कि फिर दुबारा देह में न आना पड़े?
ऐसी कुछ बात पूछो कि कैसे जीएं परिपूर्णता से कि यह पृथ्वी की
परीक्षाओं में फिर न आना पड़े।
यही तो जानने वालों ने पूछा है और जानने वालों ने समझाया है और जताया
है। उपनिषद यही पूछते हैं, बुद्ध यही पूछते हैं। बुद्ध यही समझाते हैं, उपनिषद यही समझाते हैं। कुरान और बाइबिल आखिर क्या समझा रहे हैं? एक ही बात समझा रहे हैं कि देह में होना, एक विराट
आत्मा को एक बहुत संकीर्ण से स्थान में बंद करना है। यह कारागृह है। तुम चाहते हो
कारागृह शाश्वत हो जाए? इन सींकचों के बाहर कभी न निकल सको?
हंसा, उड़ना नहीं है मानसरोवर की तरफ? हंसा,
उड़ चल वा देश! उस दूसरे देश की तलाश नहीं करनी है, इसी किनारे रहना है सदा-सदा? और पाया क्या है इस
किनारे? खोया है सिर्फ।
नहीं, मृत्यु को शत्रु मत मानो। मृत्यु के दो उपयोग हैं। जो
आदमी अंधे की तरह जीया, ध्यान-विहीन जीया, उसके लिए भी मृत्यु मित्र है। क्योंकि वह उसे नयी देह देगी, फिर नया बचपन देगी, फिर नयी ताजगी देगी, फिर नयी बुद्धि देगी--ताकि फिर जीवन का अनुभव कर सके; इस बार चूक गया, अगली बार न चूके; इस आशा में परमात्मा दूसरा अवसर देगा। और जिस व्यक्ति ने जीवन को समग्रता
से जीया, ध्यानपूर्वक जीया, जीवन को
समाधि में रूपांतरित कर लिया, उसके लिए? उसके लिए दूसरी देह नहीं मिलेगी। उसके लिए तो परमात्मा में निमग्न होने का
अवसर मिलेगा। वह तो उसके विराट आकाश में लीन हो जाएगा, जैसे
गंगा सागर में गिर कर लीन हो जाती है। उस लीनता का आनंद लेगा। वह आनंद शाश्वत
है--सच्चिदानंद। वहां सत्य है, वहां चैतन्य है, वहां आनंद है। देह नहीं होगी, सिर्फ बोध मात्र होगा,
चिन्मात्र होगा। और अगर तुम्हें यहीं-यहीं वापस आना है तो घबड़ाते
क्यों हो?
मौत यदि रुकती
नहीं तो जन्म
भी रुकता कहां
है!
एक क्षण यदि और है तो दूसरा क्षण और कुछ है,
रूप पल पल पर बदल कर और कुछ है और कुछ है।
यह अखंड विधान जग में रंच भी झुकता कहां है!
मौत यदि रुकती
नहीं तो जन्म
भी रुकता कहां
है!
यदि तुम्हारे वक्ष में है सांस बांहों में भरा बल,
काल-सरिता की लहर पर आंक दो गति-चित्र निर्मल।
सिंधु समझो बिंदु पर यह बिंदु में चुकता कहां है!
मौत यदि रुकती
नहीं तो जन्म
भी रुकता कहां
है!
दुख केवल दुख ही यदि सत्य है तो और क्या है?
अश्रु सिंचित हास पुलकित जिंदगी फिर और क्या है?
जिंदगी का मोल केवल मौत से चुकता कहां है!
मौत यदि रुकती
नहीं तो जन्म
भी रुकता कहां
है!
गिरीशचंद्र, ऐसे क्या घबड़ाए? न मौत रुकती,
न जन्म रुकता। मौत और जन्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; इधर मरे, उधर जन्मे। जन्म हो गया तो मौत होगी,
मौत हो गई तो जन्म होगा--सिर्फ उन थोड़े से लोगों को छोड़ कर जो जाग
कर मरेंगे। जो जाग कर मरेंगे, वे न तो जन्मते, न मरते; वे उस शाश्वत को पा लेते हैं, जिसका कोई जन्म नहीं, मृत्यु नहीं। उस शाश्वत का नाम
ही परमात्मा है।
गिरीशचंद्र, पाओ परमात्मा को। मौत पर विजय पाकर क्या करोगे?
क्या हाथ लगेगा? सत्तर साल की जिंदगी हो कि
सात सौ साल की, सात सौ साल की हो कि सात हजार साल की--क्या
होगा? तुम वही-वही दोहराए जाओगे न! इतना दोहराने से भी
तुम्हें समझ नहीं आती! इन्हीं-इन्हीं गङ्ढों में फिर-फिर गिरोगे। यही-यही भूलें
फिर-फिर करोगे।
नहीं, मौत पर विजय नहीं पानी है, जीवन
पर विजय पानी है। और जीवन पर विजय कौन को मिलती है? उसको
मिलती है जो जीवन को जान लेता है। हम अपने से ही अपरिचित जी रहे हैं; यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं और मौत को जीतना चाहते हैं! डुबकी मारो
इसमें कि मैं कौन हूं। पूछो एक प्रश्न सतत--मैं कौन हूं? और
इसका उत्तर खोज लो।
और उत्तर, खयाल रखना, उधार न हो। मेरा
उत्तर तुम्हारे काम का नहीं; न बुद्ध का, न महावीर का, न कृष्ण का, न
क्राइस्ट का, किसी का उत्तर तुम्हारे काम का नहीं। तुम्हें
अपना उत्तर खोजना होगा। अपना सत्य ही मुक्त करता है; दूसरों
के सत्य सिद्धांत बन जाते हैं, संप्रदाय बन जाते हैं। दूसरों
के सत्य तो बंधन बन जाते हैं।
आखिरी प्रश्न: भगवान, आप सत्य को बांटने में सदा संलग्न रहते हैं। आपकी अथक चेष्टा देख बस मैं
चकित हूं। आप कहते हैं चमत्कार नहीं होते। मैं कैसे मानूं? आप
तो जीवित चमत्कार हैं! मनुष्य की चेतना को जगाने का ऐसा प्रयास न पहले हुआ और न
आगे होगा। मैं इस चमत्कार को नमस्कार करती हूं।
नीलम, मैं मिटा कि फिर
चमत्कार ही चमत्कार है। जब तक मैं है तब तक विषाद ही विषाद है।
यहां जो हो रहा है, ऐसा कहना ठीक नहीं कि मैं कर रहा
हूं; मैं नहीं हूं, इसलिए हो रहा है।
मैं जो बोल रहा हूं, मैं नहीं बोल रहा हूं; कोई और बोल रहा है। यह जो सतत उपक्रम हो रहा है, इसमें
मैं परमात्मा के हाथ में एक सूखे पत्ते की तरह हूं, हवाएं
जहां उड़ा ले जाएं! अब मेरा न कोई व्यक्तिगत लक्ष्य है, न कोई
गंतव्य है। मैं ही नहीं हूं, तो क्या लक्ष्य, क्या गंतव्य! परमात्मा पूरब ले जाता तो पूरब और पश्चिम ले जाता तो पश्चिम।
आकाश में उठा दे तो ठीक और धूल में गिरा दे तो ठीक। जैसी उसकी मर्जी!
तुम धीरे-धीरे मुझे व्यक्ति की तरह देखना बंद ही कर दो। तुम भूल ही
जाओ कि यहां कोई है। तुम तो मुझे बांस की पोली पोंगरी समझो। कोई बांसुरी का गीत
अपना तो नहीं होता! बांसुरी से निकलता होगा। हां, अगर कोई भूल-चूक होती
हो तो बांसुरी की होगी, मगर गीत बांसुरी का नहीं होता। अगर
बेसुरा मैं कर दूं गीत तो वह बेसुरापन मेरे बांस का होगा; लेकिन
अगर गीत में कोई माधुर्य हो तो माधुर्य तो सदा उस परमात्मा का है। अगर कोई सत्य हो
तो सदा उसका है; अगर कुछ असत्य हो तो जरूर बांस ने जोड़ दिया
होगा। बांस के कारण जरूर गीत उतना मुक्त नहीं रह जाता; बांस
की संकरी गली से गुजरना पड़ता है, संकरा हो जाता है।
मेरी भूलों के लिए मुझे क्षमा करना। लेकिन मुझसे अगर कोई सत्य तुम्हें
मिल जाए, उसके लिए मुझे धन्यवाद मत देना।
नीलम, याद रख! मैं तो बस वैसे हूं जैसे सूरज निकले तो रोशनी
फैलती है। अब कमल कोई यह थोड़े ही कहेगा कि सूरज आया और उसकी किरणों ने आकर मेरी
पंखुड़ियों को खोला। वह तो सूरज निकला, कमल खुल जाता है। रात
होती है, आकाश तारों से भर जाता है। फूल खिलते हैं, गंध उड़ती है। अब वर्षा आने को है, मेघ घिरेंगे;
मेघ घिरेंगे, वर्षा भी होगी, प्यासी धरती तृप्त भी होगी। यह सब हो रहा है। बस इसी होने के महाक्रम में
मैं भी एक हिस्सा हूं।
और चाहता हूं, नीलम, तू भी ऐसी ही एक हिस्सा
हो जा। चाहता हूं मेरा प्रत्येक संन्यासी इस महाक्रम में एक हिस्सा हो जाए। उसे
भाव ही न रहे अपने होने का; बस परमात्मा के होने का भाव
पर्याप्त है, उसके आगे और क्या चाहिए!
गिरिवर से निर्झर
झरता है!
छल छल का
संगीत मनोहर घाटी
को गुंजित करता
है!
पाषाणों से नित टकरा कर
गिर गिर उठता फिर ऊपर,
फेनिल मोती की लड़ियों से
उछल उछल भरता अपना उर,
श्रांति सभी पथिकों के तन मन की क्षण भर में नित हरता है!
गिरिवर से निर्झर झरता है!
धरता कितने रूप मनोहर--
कभी तरल कुंदन सा बनकर
कभी चांद तारों से सज्जित
कभी अरुण रंग-रंजित
होकर
पाषाणों से भरी
हुई घाटी को
भी उर्वर करता
है!
गिरिवर से निर्झर झरता है!
इसे मिले जीवन के जो पल
उन्हें बिताता चलकर अविरल,
ज्ञात नहीं है इसे कहां ले--
जाएगी जीवन की
हलचल
फिर भी प्रतिपल हर्षित मन में निज पथ पर आगे बढ़ता है!
गिरिवर से निर्झर
झरता है!
तुम तो मेरे संबंध में ऐसा ही सोचना जैसे पहाड़ से एक झरना गिरता हो, कि पक्षी सुबह गीत गाते हों! तुम मुझे भूल ही जाओ। तुम जितना मेरे व्यक्ति
को भूल जाओगे उतने मेरे करीब आ जाओगे। जिस दिन मैं तुम्हें व्यक्ति की तरह दिखाई
ही न पडूंगा उस दिन तुम बिलकुल मेरे साथ संयुक्त हो जाओगे, एक
हो जाओगे।
वही घड़ी गुरु और शिष्य के मिलन की घड़ी है--न गुरु गुरु रह जाता, न शिष्य शिष्य रह जाता। एक बचता है, दो खो जाते हैं।
और उस दो के खो जाने में अमृत की वर्षा है, आनंद के द्वार
खुलते हैं, प्रभु के मंदिर में प्रवेश होता है! और वही मेरा
संदेश है: उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र!
आज इतना ही।
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