उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
मेरी आंखों में झांको-(प्रवचन-आठवां)
दिनांक 08 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
प भगवान, क्या भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति नहीं है?
प भगवान, मनुष्य इतना दुखी और इतना उदास क्यों हो गया है?
प भगवान, जनता जिस ईश्वर को पूजती है वह ईश्वर और आपका ईश्वर क्या एक ही है?
पहला प्रश्न: भगवान, क्या भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति नहीं है?
सुरेंद्र कुमार, मनुष्य
का अहंकार बहुत से रूप लेता है। अहंकार के खेल बड़े सूक्ष्म हैं। मैं बड़ा हूं,
ऐसा सीधा कहना तो मुश्किल है, परोक्ष रूप से
ही कहा जा सकता है। मेरा धर्म बड़ा है, मेरा देश बड़ा है,
मेरी संस्कृति बड़ी है, इन सबके पीछे घोषणा एक
ही है: मैं बड़ा हूं!
और तुम सोचते हो, तुम्हीं सोचते हो कि भारतीय
संस्कृति श्रेष्ठतम है? चीनी सोचते हैं चीनी संस्कृति
श्रेष्ठतम है। और अमरीकी सोचते हैं कि अमरीकी संस्कृति श्रेष्ठतम है। दुनिया में
ऐसा कोई देश नहीं है जो ऐसा ही न सोचता हो।
जरा इस पर विचार करो! हिंदू सोचते हैं उनका ही धर्म श्रेष्ठ; वही मुसलमान सोचता, वही जैन, वही
बौद्ध, वही ईसाई, पारसी, यहूदी। जब सभी ऐसा सोचते हैं तो इसका संबंध धर्म से नहीं होगा; इसका संबंध किसी और गहरी चीज से होगा जो सभी के भीतर छिपी है। हम हर बात
में किसी न किसी रूप में अपने अहंकार को सिद्ध करना चाहते हैं।
जरूर खूबियां हैं। चीनी संस्कृति की अपनी खूबियां हैं; लाओत्सु दिया दुनिया को, च्वांगत्सु दिया, कनफ्यूशियस दिया। भारतीय संस्कृति की अपनी खूबियां हैं; बुद्ध दिए, महावीर दिए, कृष्ण
दिए। अरबी संस्कृति की अपनी खूबियां हैं; मोहम्मद दिए,
बायजीद, बहाऊद्दीन, जलालुद्दीन...।
सारी दुनिया की संस्कृतियों की अपनी-अपनी खूबियां हैं; लेकिन
श्रेष्ठ कौन, यह बात ही गलत, यह विचार
ही भ्रांत। और इसके भीतर मूल आकांक्षा एक ही है कि सब तरह से सिद्ध हो जाए कि मैं
श्रेष्ठ हूं। और जो भी यह सिद्ध करना चाहता है कि मैं श्रेष्ठ हूं उसे कहीं भीतर
डर है कि वह श्रेष्ठ है नहीं। नहीं तो सिद्ध क्यों करना चाहेगा? हीनता की ग्रंथि ही श्रेष्ठता का दावा करती है।
मनस्विदों से पूछो! वे यही कहेंगे, जितना हीन व्यक्ति हो
उतना चारों तरफ श्रेष्ठता का शोरगुल मचाता है। इसीलिए राजनीति में सिर्फ हीनता की
ग्रंथि से पीड़ित लोग ही उत्सुक होते हैं--निकृष्टतम। क्योंकि भीतर घाव की तरह
हीनता काटती है। इसे किसी तरह फूलों से ढांक देना है; सिंहासनों
पर विराजमान होकर इसे भुला देना है।
मैंने एक कहानी सुनी है। पेरिस के विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र का
जो विभागाध्यक्ष था, जो हेड ऑफ दि डिपार्टमेंट था, उसने
एक दिन आकर सुबह-सुबह ही अपनी कक्षा में घोषणा की कि मैं दुनिया का सबसे श्रेष्ठतम
व्यक्ति हूं!
विद्यार्थी हंसे। झक्की तो वे उसे मानते ही थे। दर्शनशास्त्र का कोई
प्रोफेसर और विश्वविद्यालय में झक्की न माना जाए, ऐसा होता ही नहीं।
पहली तो बात, दर्शनशास्त्र में झक्की ही उत्सुक होते हैं,
ऐसी धारणा है। फिर कोई साधारण झक्की नहीं होगा, जब विभाग का अध्यक्ष हो गया तो असाधारण झक्की होगा। और आज तो हद हो गई।
इतने सीधे-सीधे कोई कहता है? लोग छिपा-छिपा कर कहते हैं! इस
आदमी ने सीधे ही आकर घोषणा कर दी कि मैं दुनिया का सबसे श्रेष्ठतम व्यक्ति हूं।
विद्यार्थी तो सकते में आ गए। लेकिन एक विद्यार्थी ने हिम्मत खड़े होने की की और
पूछा कि आप दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं, आप तो जो भी कहते
हैं उसके पीछे जरूर कोई तर्क होगा। आपकी इस घोषणा के पीछे क्या तर्क प्रक्रिया है?
समझाएं।
तो उस प्रोफेसर ने कहा, मुझे पता था कोई न
कोई पूछेगा कि इसके पीछे तर्क की प्रक्रिया क्या है। तो मैं सारी तैयारी करके आया
हूं। उसने अपने झोले से दुनिया का नक्शा निकाला, बोर्ड पर टांगा,
और कहा, यह दुनिया का नक्शा है। मैं तुमसे
पूछता हूं कि दुनिया में सबसे श्रेष्ठ देश कौन सा है?
स्वभावतः सभी फ्रेंच थे; उन्होंने कहा,
फ्रांस! इसमें क्या पूछने की बात है? यह तो
स्वतः सिद्ध है।
तो उस प्रोफेसर ने कहा, तो बाकी दुनिया छोड़
दें। फ्रांस सबसे श्रेष्ठ देश है, यह सिद्ध हुआ। तुम सब राजी
होते हो, हाथ उठा दो। अब इतना ही मुझे सिद्ध करना है कि मैं
फ्रांस में सर्वश्रेष्ठ हूं, तो दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हो
जाऊंगा। और मैं तुमसे यह पूछता हूं कि फ्रांस में सर्वश्रेष्ठ नगर कौन सा है?
तब जरा विद्यार्थी समझे कि अब मामला गड़बड़ हुआ जा रहा है। स्वभावतः वे
सभी पेरिस के निवासी थे, उन्होंने कहा, पेरिस। तो
प्रोफेसर ने कहा, अब फ्रांस को भी छोड़ दो, अब रहा पेरिस, अब पेरिस में ही निपटारा करना है। और
पेरिस में सर्वाधिक श्रेष्ठतम संस्था कौन सी है?
निश्चित ही विश्वविद्यालय! विद्यापीठ! सरस्वती का मंदिर!
और उसने पूछा कि विश्वविद्यालय में सर्वश्रेष्ठ विषय कौन सा है?
दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी थे तो सभी ने कहा, दर्शनशास्त्र। तो उसने कहा, अब भी कुछ बाकी बचा है
सिद्ध करने को? मैं दर्शनशास्त्र का प्रधान अध्यापक हूं। मैं
दुनिया का श्रेष्ठतम व्यक्ति हूं।
ऐसे ही तर्क...मेरा शास्त्र श्रेष्ठ! मेरा सिद्धांत श्रेष्ठ! मेरी
जाति श्रेष्ठ! मेरा वर्ण श्रेष्ठ! लेकिन सीधी-सीधी बात क्यों नहीं कहते? सीधी कहो तो अच्छा। बीमारी साफ हो तो इलाज हो सके। बीमारी जब छुप-छुप कर
आती है तो इलाज करना मुश्किल हो जाता है। बीमारी जब नयी-नयी शक्लें लेकर आती है तो
इलाज करना मुश्किल हो जाता है, निदान ही मुश्किल हो जाता है।
इसीलिए सदियां हो गईं और निदान नहीं हो पा रहा है। अगर तुम कहो कि मैं दुनिया का
सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति हूं, तो पहले तो तुम भी डरोगे, छाती कंपेगी, यह कहें कैसे? और
सारे लोग संदेह उठाएंगे। लेकिन तुम कहते हो, भारतीय संस्कृति
सर्वश्रेष्ठ! अब जिनके बीच तुम कह रहे हो वे भी भारतीय हैं; वे
सब तुम्हारे साथ सिर में सिर हिलाएंगे, कहेंगे कि बिलकुल ठीक,
सत्य ही कहते हैं आप, सत्य वचन महाराज!
क्योंकि उनका अहंकार भी इसी में सिद्ध हो रहा है जिसमें तुम्हारा। फिर हिंदुओं के
बीच कहो कि हिंदू श्रेष्ठ, स्वभावतः! और फिर ब्राह्मणों के
बीच कहो कि ब्राह्मण श्रेष्ठ, तो कोई संदेह भी नहीं उठाएगा।
मगर इस तरह छिपे रास्तों से, पीछे के रास्तों से कौन आ रहा
है तुम्हारे जीवन में? सिर्फ एक अहंकार।
खूबियां हैं संस्कृतियों की, सो सभी संस्कृतियों
की खूबियां हैं। और खूबियां हैं धर्मों की, सो सभी धर्मों की
खूबियां हैं। अगर वेद सुंदर हैं तो कुरान का भी कोई मुकाबला नहीं। और अगर कुरान
सुंदर है तो बाइबिल अनूठी है। अद्वितीय हैं ये सारे स्रोत। मगर इनकी तुलना मत करना;
न तो कुरान वेद से श्रेष्ठ है, न वेद बाइबिल
से श्रेष्ठ है, न बाइबिल धम्मपद से श्रेष्ठ है। ये सब इतनी
अनूठी चीजें हैं कि इनकी तुलना नहीं हो सकती। गुलाब की गेंदे से तुलना कैसे करोगे?
और चंपा की चमेली से तुलना कैसे करोगे? चंपा
चंपा है, चमेली चमेली है। चमेली की अपनी गंध है, चंपा की अपनी गंध है। और फिर चंपा को प्रेम करने वाले लोग हैं और चमेली को
प्रेम करने वाले लोग भी हैं। फिर अपनी-अपनी पसंद है।
कुरान में जो तरन्नुम है, कुरान में जो गीत है,
वह दुनिया के किसी शास्त्र में नहीं। उपनिषदों में जो साफ अभिव्यक्ति
है, जो सुस्पष्ट अभिव्यक्ति है, दो और
दो चार जैसी, ऐसी दुनिया के किसी शास्त्र में नहीं। और
बाइबिल की भाषा में जैसी पृथ्वी की सुगंध है, जैसा ग्राम्य
ताजापन, वैसा दुनिया के किसी शास्त्र में नहीं। बुद्ध के
वचनों में जैसी शांति है, जैसा अपूर्व संगीत है शांति का,
शून्य का, वैसा और कहां मिलेगा! लेकिन ये सब
अनूठे हैं, इनको तौलो मत। तौलने की दृष्टि भ्रांत है। ये कोई
तराजू पर रख कर तौले जाने वाली चीजें नहीं हैं। यह काम तो तुम पागलों पर छोड़ दो।
मगर यह जमीन पागलों से भरी है और इसलिए इस तरह की बातें चलती हैं।
मैंने सुना, एक बार दो अफीमची मिले। पहला अफीमची बोला, मेरे दादा का मकान इतना ऊंचा था कि एक बार एक बच्चा ऊपर से गिरा तो जमीन
तक आते-आते आदमी बन गया। दूसरा भला क्यों चुप रहता! उसने कुछ कम पी थी! खिलखिला कर
हंसा और बोला कि छोड़ो जी छोड़ो! मेरे दादा के मकान से तो एक बार एक बंदर गिरा था जो
जमीन तक पहुंचते-पहुंचते आदमी बन गया था।
अफीमची माफ किए जा सकते हैं। मगर यही दशा तो उनकी है जिनको तुम समझदार
कहते हो--पंडित-पुरोहित, तुम्हारे महात्मा। ये सब अफीमची हैं। जरूर इन्होंने
कोई सूक्ष्म अफीम पी रखी है--अहंकार की। और अहंकार से बड़ी अफीम क्या है?
जागो! इस तरह की व्यर्थ की बातों से अपने को मुक्त करो।
राजपथ पर जब कभी जयघोष होता है
आदमी फुटपाथ पर बेहोश होता है।
भीड़ भटके रास्तों पर दौड़ती है
जब सफर का रहनुमा खामोश होता है।
एक सुनहरे सांप ने हमसे कहा--
आदमी के दांत में विषकोश होता है।
मील के पत्थर अनंकित मौन हैं
हां, यही इतिहास का आक्रोश होता है।
मंत्र जपते ओंठ जब जलने लगें--
ऋत्विजों के आचरण में दोष होता है।
हम उन्हें आवाज दें मिलकर "मयूख'
साथ जिनके जोश के कुछ होश होता है।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे हैं, जिनमें जोश है, मगर होश नहीं। उनकी संख्या बड़ी है।
निन्यानबे प्रतिशत वे ही लोग हैं। जिनमें जोश है, मगर होश
नहीं; जिनमें बड़ी सक्रियता है, मगर जरा
भी शांति नहीं; जिनमें बड़ी कर्मठता है, मगर जरा भी बुद्धिमत्ता नहीं। यही लोग दुनिया के उपद्रवों के कारण हैं।
बुद्धिहीन, लेकिन कर्मठ। होश तो जरा नहीं, मगर जोश बहुत। हिंदू संस्कृति खतरे में है--और जोशीले लोग इकट्ठे हो
जाएंगे कि चाहे जान चली जाए, बचा कर रहेंगे। न संस्कृति का
कुछ पता है, न संस्कृति के अर्थ का कुछ पता है, मगर जोश है! और जोश को कहीं कोई निकास तो चाहिए। हिंदू-मुस्लिम दंगा हो
जाए तो कुछ निकास हो। हिंदुस्तान-पाकिस्तान लड़ें तो कुछ निकास हो। कहीं कुछ उपद्रव
हो, घिराव हो, हड़ताल हो, तो कुछ निकास हो। और दूसरी तरफ वे लोग हैं, जिन्हें
थोड़ा होश है, लेकिन जिनमें जोश नहीं। जानते हैं, मगर बैठे रहते हैं मुर्दों की भांति।
मैं चाहता हूं, मेरा संन्यासी ऐसा व्यक्ति हो जिसमें होश के साथ जोश
हो। मैं चाहता हूं, भविष्य का आदमी होश और जोश को साथ-साथ
सम्हाले।
अतीत की यही दुर्घटना रही है कि होश वाले लोग जोश वाले लोग नहीं थे; जोश वाले लोग होश वाले लोग नहीं थे। तो बुद्ध इतिहास के बाहर रह गए और
बुद्धुओं ने इतिहास रचा। तैमूर और चंगीज खां और नादिरशाह और सिकंदर और नेपोलियन और
हिटलर और माओत्से तुंग, इस तरह के लोग इतिहास लिखे, इस तरह के लोगों ने इतिहास रचा। और बुद्ध और लाओत्सु और च्वांगत्सु और
जरथुस्त्र, कहीं इतिहास के किनारों पर रह गए। दुनिया अब ऐसे
लोग चाहती है, जिनमें होश भी हो और जोश भी हो और समतुल हो;
जिनके भीतर एक सम्यकत्व हो; जिनके भीतर कर्म
की और ज्ञान की एक सम्मिलित धारा हो।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। संसार
छोड़ कर तुम बुद्ध हो जाओगे; तुममें होश तो होगा, लेकिन जोश
नहीं रह जाएगा। और मैं अपने संन्यासी को सिर्फ संसारी भी नहीं रहने देना चाहता,
कि जोश तो बहुत हो, होश बिलकुल न हो। मैं
चाहता हूं, तुम संसार में रहो और संन्यासी। बोधिवृक्षों के
नीचे बैठ कर तुम बुद्ध मत बनना; तुम्हें दुकानों में,
बाजारों में, मकानों में, पत्नी और बच्चों के बीच घिरे हुए, जीवन के सारे
संघर्ष के बीच बुद्धत्व को उपलब्ध करना है। तुम्हें यहीं शोरगुल में ध्यान को
साधना है। यहीं समस्याओं की भीड़ में तुम्हारी समाधि पके, तो
तुम एक नयी मनुष्यता का सूत्रपात कर सकोगे। यह सूत्रपात अत्यंत जरूरी है।
रोशनी को कुचल रहे हैं लोग,
वक्त से पहले ढल रहे हैं लोग।
ऊंचे कद और तंग दरवाजे,
कितना झुककर निकल रहे हैं लोग।
जिस्म साबित दिखाई देते हैं,
अपने अंदर पिघल रहे हैं लोग।
एक अंधी सुरंग के भीतर,
एक मुद्दत से चल रहे हैं लोग।
पास आकर भी इन सलीबों के,
कितने खुश हैं, उछल रहे हैं लोग।
बीमारियों पर प्रसन्न हैं लोग। बीमारियों के लिए झंडे ऊंचे किए हैं।
यह हिंदू होने का अहंकार, यह मुसलमान होने का अहंकार, यह
भारतीय होने की मूढ़ता, यह चीनी होने का पागलपन, इन सबको तुम समझो कि फांसियां हैं। मगर इनको देख-देख कर लोग उछलते हैं,
कूदते हैं, शोभायात्राएं निकालते हैं। अपनी ही
लाश अपने कंधों पर ढो रहे हो। अपनी ही मौत का आयोजन अपने हाथ से कर रहे हो।
प्राणों में कैंसर फैलता जा रहा है। लेकिन उसी कैंसर को तुम समझ रहे हो तुम्हारी
जीवन-संपदा।
नहीं सुरेंद्र कुमार, भारतीय संस्कृति विश्व की
श्रेष्ठतम संस्कृति नहीं है। न कोई और संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति है।
यह सोचने का ढंग गलत। बहुत फूल हैं परमात्मा के इस जगत में, बड़ा
वैविध्य है। और वैविध्य है, इसलिए सौंदर्य है। सुंदर है यह
जगत। अगर यह गुलाब ही गुलाब से भरा होता तो गुलाब का भी सौंदर्य नष्ट हो जाता। गुलाब
भी इसीलिए सुंदर है कि यहां केवड़ा भी होता है। गुलाब भी इसीलिए सुंदर है कि यहां
कमल भी होता है।
यह जो विविधता है, इसको नष्ट करने का बड़ा आग्रह है
लोगों के मन में। सदियों से लोग कोशिश कर रहे हैं। हिंदू चाहते हैं सारी दुनिया
हिंदू हो जाए। मुसलमान चाहते हैं सारी दुनिया मुसलमान हो जाए। ईसाई चाहते हैं सारी
दुनिया ईसाई हो जाए। जैन चाहते हैं सारी दुनिया जैन हो जाए। मगर कोई यह नहीं
पूछता--वैविध्य मिट जाए तो जिंदगी बड़ी बेरौनक हो जाएगी।
रहने दो सब तरह के लोग। रहने दो ढंग-ढंग की संस्कृतियां। रहने दो
ढंग-ढंग के गीत, ढंग-ढंग के वाद्य। इस सारे वैविध्य को मिटाओ मत--बढ़ाओ,
सजाओ, संवारो। और फिर भी जानो कि भीतर आदमी एक
है। वस्त्र भिन्न हैं, परिधान भिन्न हैं, भीतर आदमी एक है। क्योंकि भीतर आदमी के परमात्मा विराजमान है। परमात्मा पर
किसी की बपौती नहीं है--न भारतीय की, न पाकिस्तानी की।
दूसरा प्रश्न: भगवान, मनुष्य इतना दुखी और उदास क्यों हो गया है?
आज ही हो गया है, ऐसा नहीं। आदमी सदा से दुखी और
उदास है। हां, आज दुख और उदास, यह दुख,
यह चिंता, यह उदासी समझने की समझ आदमी में
ज्यादा आ गई है। है तो सदा से दुखी, लेकिन इतना बोध नहीं था;
इसलिए गुजारे रहा, गुजारे जाता रहा। आदमी सदा
से दुखी था, लेकिन उसने अपने दुख को छिपाने की बड़ी सुविधाएं
खोज ली थीं--पिछले जन्मों के पापों का फल भोग रहा हूं, तो
दुख झेलना आसान हो जाता; कि परमात्मा ने भाग्य में जो लिख
दिया है वह होकर रहेगा। तो नियति है, अपने किए क्या होगा!
इसलिए जो है ठीक है, जैसा है ठीक है। फिर चार दिन की जिंदगी
है, गुजार लो।
आज न तो अतीत के जन्मों के सिद्धांत काम आ रहे हैं, न परमात्मा विधि का लेखक रह गया है। लोगों के मन में बहुत संदेह उठे हैं।
संदेह शुभ लक्षण है। संदेह का अर्थ है, समझ पैदा हो रही है।
विश्वास खंडित हो गए हैं, अच्छा हुआ, क्योंकि
विश्वास आदमी को अंधा रखते हैं।
ध्यान रखना, मैं श्रद्धा का पक्षपाती हूं, विश्वास
का विरोधी।
विश्वास का अर्थ होता है दूसरों ने तुम्हें जो दे दिया, उधार। और श्रद्धा का अर्थ होता है अपने अनुभव से जिसे पाया। श्रद्धा का
अर्थ होता है स्वयं की प्रतीति। और विश्वास का अर्थ होता है दूसरों के द्वारा डाले
गए संस्कार। विश्वास एक तरह की मानसिक आदत है; और श्रद्धा,
जीवन-सत्य की खोज। विश्वास संदेह के विपरीत है। विश्वासी संदेह को
दबा कर बैठा रहता है। और श्रद्धा संदेहों का उपयोग कर लेती है, संदेह की सीढ़ियां बना लेती है। हर संदेह अगर ठीक-ठीक ईमानदारी से जीया जाए
तो श्रद्धा तक लाता है। लाएगा ही! संदेह में बीज छिपे हैं श्रद्धा के।
इसलिए मैं नहीं कहता कि संदेह को दबाना; मैं नहीं कहता कि
संदेह की तरफ पीठ करना। मैं तो कहता हूं, संदेह को पूरा-पूरा
जीना, निखारना, धार रखना, ताकि तुम्हारी श्रद्धा नपुंसक न हो। तुम्हारी श्रद्धा सारे संदेहों को पार
करने के बाद होगी तो फिर कोई संदेह उसे गिरा न सकेगा।
साधारण विश्वासी आदमी बड़ा डरा रहता है कि कोई संदेह न जगा दे; कोई ऐसी बात न हो जाए कि वह थोथा विश्वास जो ऊपर से थोप लिया है, टूट जाए, उखड़ जाए। जैसे कच्चे रंग मुंह पर पोत लिए
हों तो वर्षा से डर लगता है।
मैंने सुना है, लखनऊ में एक आदमी रास्ते पर पंखे बेच रहा था। लखनवी
लहजे में, बड़ी सुंदर आवाज में जोर-जोर से चिल्ला कर कह रहा
था कि ऐसे पंखे न तो कभी बने और न फिर बनेंगे। ये अनूठे पंखे हैं। इन पंखों की
खूबियों का कोई अंत नहीं है।
एक रईस ने--गर्मी के दिन थे, पसीना-पसीना हो रहा
था--खिड़की खोली और पंखे वाले को भीतर बुलाया और कहा कि बड़ी देर से चिल्ला रहे हो,
क्या खूबी है इन पंखों की?
तो उस पंखे वाले ने कहा कि इन पंखों की खूबी यह है कि ये कभी टूटते
नहीं। ये तुम्हारी पीढ़ी दर पीढ़ी, बच्चे, बच्चों
के बच्चों तक काम आएंगे। ये टूटते ही नहीं।
रईस ने पंखा खरीद लिया। और वह आदमी जा भी नहीं पाया था, रईस ने पंखा एक-दो बार ही किया होगा कि टूट गया। वह तो बड़ा हैरान हुआ।
सस्ते से सस्ते पंखे भी कुछ दिन तो चलते हैं। और यह शाश्वत पंखा, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला था, एक ही दो बार हवा
करने में टूट गया। बहुत हैरान हुआ! लेकिन वह आदमी जा चुका था। दूसरे दिन की
प्रतीक्षा की उसने कि शायद फिर निकले। फिर दोपहर वही आवाज कि अनूठे पंखे! न पहले
कभी बने, न फिर कभी बनेंगे!
उसने उस आदमी को बुलाया। और उसने कहा कि तेरी हिम्मत की दाद देनी
होगी। यह टूटा हुआ पंखा पड़ा है और तू कहता था अनूठा पंखा! और इस सड़े पंखे के तू
मुझसे पांच रुपये लूट ले गया!
और उस पंखे वाले ने आंख भी न झपकी; उसने कहा, तो इसका सिर्फ एक ही अर्थ होता है कि आपको पंखा करना नहीं आता।
उस रईस ने कहा, हद हो गई! और भी देखो, बेशर्मी
की भी कोई सीमा है! बेईमानी की भी कोई सीमा है! मुझे पंखा करना नहीं आता? पंखा कैसे किया जाता है?
तो उस आदमी ने कहा कि पंखा करने का ढंग, पंखे को हाथ में रख
कर सामने रख लो और सिर को हिलाते रहो। यह पंखा शाश्वत है, मगर
ढंग से किया जाए तो। यह कोई ढंग है? हिला दिया होगा, पंखा टूट गया। पंखा हिलना नहीं चाहिए। सिर हिलाओ और पंखे को सामने रखो।
हवा भी होगी, पंखा भी रहेगा।
तुम्हारी श्रद्धाएं--जिनको तुम श्रद्धा कहते हो--श्रद्धाएं नहीं हैं, विश्वास हैं। बस ऐसे हैं, जरा में टूट जाएंगे। इसलिए
तथाकथित विश्वासी बहुत डरा रहता है कि कोई संदेह न जगा दे। जिसके जीवन में श्रद्धा
है वह संदेहों से डरता ही नहीं; वह तो संदेहों को निमंत्रण
दे आता है कि आओ! क्योंकि श्रद्धा संदेह से बहुत आगे की बात है। लेकिन संदेहों को
पार करके आए होओ तब।
सुदास, तुम पूछते हो: "मनुष्य इतना दुखी, उदास क्यों हो गया है?'
मनुष्य सदा दुखी था, लेकिन सांत्वना करता रहा था। सदा
उदास था, लेकिन अपनी उदासी के लिए व्याख्याएं खोजता रहा था।
आज पहली दफा व्याख्याएं व्यर्थ हो गई हैं, सांत्वनाएं उखड़ गई
हैं। आज पहली दफा आदमी ने पंखे को सामने रख कर सिर हिलाना बंद कर दिया है, पंखा टूट गया है। पंखा हिलाया कि टूट गया। आज मनुष्य सब तरह के संदेहों से
घिरा हुआ खड़ा है। सब तरफ अंधेरा मालूम होता है। क्योंकि जिन दीयों पर भरोसा किया
था वे दीये नहीं थे, सिर्फ कल्पना के जाल थे। अब मनुष्य को
सच्चे दीये की तलाश करनी होगी।
यह शुभ घड़ी है। मैं इससे चिंतित नहीं हूं। मैं इससे आनंदित हूं। और
तुमसे भी मैं कहूंगा, सुदास, आनंदित होओ। यह शुभ घड़ी
है कि झूठी सांत्वनाएं उखड़ गईं, झूठे सिद्धांत कचरे में गिर
गए। आदमी ने पहली दफा आंख खोली है। आदमी ने पहली दफा जीवन को देखने की चेष्टा शुरू
की है।
निश्चित, यह कठिन मार्ग है। आदमी प्रौढ़ हुआ है। इसलिए बचपन की
परियों की कथाएं अब काम नहीं आएंगी और बच्चों के लिए गढ़े गए ईश्वर के सिद्धांत भी
अब काम नहीं आएंगे। अब ज्यादा देर नहीं लगेगी कि तुम गणेश-उत्सव मनाते ही रहो,
मनाते ही रहो। पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई है। अभी भी खींचे जा
रहे हो, लकीर के फकीर हो पुराने इसलिए मुर्दा लकीरों को भी
पीटे जा रहे हो। सांप वहां है ही नहीं और तुम अब भी लकड़ी पीटे जा रहे हो। पुरानी
आदत हो गई है। लेकिन तुम्हारे पुराने सिद्धांत, धारणाएं,
सब निस्तेज हो गए हैं, उन्होंने आभा खो दी है,
उनके आधार गिर गए हैं, उनकी बुनियादें सरक गई
हैं। तुम्हारे सारे मंदिर धूल-धूसरित हो गए हैं।
और स्वभावतः, ऐसी अड़चन की घड़ी पहले कभी न आई थी। आदमी प्रौढ़ ही न
हुआ था। बच्चों को हम खिलौने दे देते हैं, बस खिलौनों में
उलझ जाते हैं। लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाएंगे तो फिर तुम खिलौनों में न उलझा सकोगे।
ऐसा ही आदमी प्रौढ़ हो गया है। अब तुम स्वर्ग-नरक की कथाएं... किसको धोखा दे पाओगे
उन कथाओं से? और तुम्हारे अजीब-अजीब ईश्वर के सिद्धांत कि ईश्वर
आकाश में बैठा है, कि तीन चेहरे वाला है, कि ऐसा है कि वैसा है। अब तुम किसको समझा पाओगे कि क्षीरसागर में लेटा है,
नाभि में से कमल उगा है। अब तुम किसको समझाओगे? किस क्षीरसागर की बात कर रहे हो? कहां है क्षीरसागर
तुम्हारा? कहां हैं तुम्हारे कैलाश? आदमी
ने सब छान डाला।
यूरी गागरिन ने जब अंतरिक्ष की यात्रा की पहली बार और लौटा वापस जमीन
पर तो रूस में उससे जो पहली बात पूछी गई वह यह कि अंतरिक्ष में ईश्वर मिला? यूरी गागरिन ने कहा, मैंने बहुत तलाशा अंतरिक्ष में,
मैं इसी खोज में था कि और कुछ मिले या न मिले, कम से कम ईश्वर मिल जाए। मगर कोई ईश्वर है ही नहीं तो मिलता कैसे?
रूस में उन्होंने एक बड़ा म्यूजियम बनाया है, जिसमें अंतरिक्ष से लाई गई सारी चीजों को रखा गया है; चांद से लाए गए पत्थर, जमीन के टुकड़े, वे सब उसमें सम्हाल कर रखे गए हैं; सारे चित्र! उस
म्यूजियम के दरवाजे पर लिखा है एक वचन कि हमने अंतरिक्ष में जाकर देख लिया,
वहां कोई ईश्वर नहीं है।
लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ईश्वर नहीं है। इससे सिर्फ इतना
सिद्ध होता है कि पुरानी धारणा व्यर्थ हो गई। हमें अब ईश्वर को भी नयी भाव-भंगिमा
देनी होगी। अब ईश्वर व्यक्ति की तरह नहीं हो सकता। अब तो ईश्वर शक्ति की तरह हो
सकता है। अब ईश्वर जगत का स्रष्टा, ऐसा नहीं हो सकता;
अब तो ईश्वर जगत की सृजनात्मकता, क्रिएटिविटी,
ऐसा होगा। अब ईश्वर के दर्शन करने की बात फिजूल है। अब तो तुम्हारे
भीतर जो द्रष्टा बैठा है, वही ईश्वर है। एक क्रांति घट गई।
पहले हम सोचते थे ईश्वर दृश्य है, उसे देखा जा सकता है।
अब हमें एक क्रांति करनी होगी--ईश्वर दृश्य नहीं है, द्रष्टा
है। जिन्होंने पहले भी जाना है उन्होंने भी यही कहा है कि ईश्वर द्रष्टा है,
दृश्य नहीं। लेकिन वे इने-गिने लोग थे, अंगुलियों
पर गिने जा सकें।
आज पूरी पृथ्वी बड़े संदेह से भर गई है। इसलिए सुदास, बहुत दुख है और बहुत उदासी है। मगर यह दुख और उदासी ऐसे ही है, जैसे रात बहुत अंधेरी जब हो जाती है तो खबर देती है कि सुबह करीब है।
चूंकि पुरानी धारणाएं गिर गईं, पुराने सिद्धांत गिर गए,
पुराने शास्त्र अर्थहीन हो गए, पुराने संबंध,
पुराना समाज, पुराने समाज की व्यवस्था,
सब अस्तव्यस्त हो गई, सब डांवाडोल हो गई,
आदमी बिलकुल अकेला हो गया है--इसलिए बहुत उदास है। इतना आदमी अकेला
कभी नहीं था; समाज का अंग था। हर आदमी किसी समाज, किसी गांव, किसी भीड़ का अंग था। आज भीड़ में भी हो तो
भी अकेले हो। ऐसा अकेलापन उदास करता है। लेकिन अगर इस अकेलेपन का ठीक-ठीक उपयोग कर
लो तो यही अकेलापन समाधि बनेगा, ध्यान बनेगा। और यही अकेलापन
आनंद का स्रोत हो जाएगा। इसी अकेलेपन से गंगा बहेगी आनंद की।
कहां गए,
घर से घर लगे हुए,
बतियाते द्वार?
कहां गए,
हवा और पानी से
लहराते प्यार?
दीवारों की स्थिति, द्वारों के दिशाबोध,
एक सिरे गायब, पनपे अंतर्विरोध--
मातमी
लिबासों में लिपटे
जन-उत्सव त्योहार,
खाटें पकड़े डयोढ़ी, बूढ़े नौबतखाने,
मस्जिद से मुंहफेरे खड़े हुए बुतखाने
तटवासी
अनुभव स्थितियों को
धकियाते ज्वार
रीत गई असमय ही नेह-छोह की भाषा,
फिर भी हम बांधे हैं, आसमान से आशा
चुक गए
जनम से
कंधे देने तक के व्यवहार
एक पुराना जगत हमने बनाया था, वह सब का सब विदा हो
गया है। आदमी एक महाशून्य में खड़ा है। न पुराने संबंधों में कुछ अर्थ रह गया है,
न पुरानी औपचारिकता में प्राण रह गए हैं, न
पुराने शिष्टाचार में कोई आत्मा बची है। और नया हम जन्म नहीं दे पा रहे हैं।
पुराना मर गया है, उसकी लाश सड़ रही है। और नये की कहीं कोई
संभावना नहीं दिखाई पड़ती।
मैं उस नये को ही पुकार दे रहा हूं। तुम्हारे भीतर मैं उस नये को ही
निर्माण करने की महत चेष्टा में लगा हूं। एक नया ही मनुष्य चाहिए--नयी धारणाओं से
सजा, अस्तित्व के प्रति नयी उमंगों से भरा। परमात्मा की एक
नयी ही प्रतीति, एक नया साक्षात--मंदिरों-मस्जिदों, पंडित-पुजारियों, काशी और काबा से मुक्त। एक मनुष्य
चाहिए जो पूरी पृथ्वी को अपना माने, पूरी मनुष्य-जाति को
अपना माने। और यह आज संभव है, यह इसके पहले कभी संभव भी नहीं
था।
लेकिन बजाय इसके कि हम इस महत संभावना की घड़ी को आनंद में रूपांतरित
करें, हम सिर्फ सड़ी हुई लाश के पास बैठे दुर्गंध से भर रहे
हैं। चुनौती सामने खड़ी है। जीवन एक महा प्रश्न-चिह्न बन गया है। बजाय इसके कि हम
चुनौती को अंगीकार करें और अभियान पर निकलें, हम अभी भी इस
आशा में बैठे हैं कि शायद पुरानी राख में टटोलने से कोई अंगार मिल जाएगी।
नहीं-नहीं, नयी अंगार जलानी है। पुरानी अंगार बिलकुल बुझ गई है,
राख हो गई है; अब उसमें मत टटोलते बैठे रहो।
अब तो हमें फिर से निर्माण करना होगा। और अगर तुम्हें थोड़ी भी समझ हो तो फिर से
निर्माण करने का अवसर कितना बड़ा सौभाग्य है!
मुल्ला नसरुद्दीन कविता-पाठ कर रहे थे। श्रोताओं में एक तरफ हलचल देख
कर वे रुके; क्या आपको काव्य-पाठ सुनाई दे रहा है? एक श्रोता बोला, नहीं। इसीलिए तो हलचल मची है।
इसीलिए तो लोग बेचैन हैं। यह सुनते ही माइक्रोफोन ठीक किया गया और नसरुद्दीन ने
पुनः कविता-पाठ शुरू किया। लेकिन अब दूसरी तरफ श्रोताओं में हलचल मच गई और पहले से
भी ज्यादा। नसरुद्दीन बोले, क्यों भाई, अब क्या परेशानी है? क्या अभी भी काव्य-पाठ सुनाई
नहीं दे रहा है? कई श्रोता उठ खड़े हुए और बोले, परेशानी यह है कि अब काव्य-पाठ सुनाई दे रहा है।
अब तक आदमी आंख बंद किए चल रहा था, जैसे कोल्हू के बैल
चलते हैं। दुख था, मगर आंख बंद थी। अब आंख खुल गई है और दुख
है। दुख वैसा का वैसा है।
सुदास, ऐसा मत सोचना कि पहले का आदमी सुखी था। इस तरह की
बातें तुम्हारे पंडित और पुरोहित और तुम्हारे तथाकथित साधु और संत तुम्हें समझाते
हैं कि पहले का आदमी बहुत सुखी था; पहले सतयुग था, पहले स्वर्ण-युग था।
दुनिया में दो तरह के अफीम के नशे हैं। एक, कि पहले स्वर्ण-युग था; और दूसरा, कि स्वर्ण-युग आगे आएगा। ये दोनों नशे हैं। एक नशा धार्मिक लोगों का
है--हिंदुओं का, मुसलमानों का, जैनों
का, बौद्धों का। और एक नशा अधार्मिक लोगों का
है--कम्युनिस्टों का, सोशलिस्टों का, फेसिस्टों
का। स्वर्ण-युग आगे! एक का स्वर्ण-युग पीछे, एक का
स्वर्ण-युग आगे। दोनों ही भुलावे के रास्ते हैं। इसलिए दोनों को मैं अफीम कहता
हूं। माक्र्स ने कहा है, धर्म अफीम के नशे हैं। ठीक कहा है।
लेकिन माक्र्स ने जो कुछ भी निर्मित किया, वह अफीम का नया
नशा है। फर्क इतना ही है कि पुरानी अफीम अतीत में भरोसा रखती थी, नयी अफीम भविष्य में भरोसा रखती है; जब कि अस्तित्व
का केवल एक ही रूप होता है--वर्तमान। अस्तित्व तो अभी है।
मैं तुमसे कहता हूं, सतयुग अभी है, स्वर्ण-युग अभी है। न तो पीछे था और न आगे होगा।
तुम मेरी अगर बात न मान सको तो जरा अपने पुराणों में उठा कर देखो। तुम
किस सतयुग की बातें कर रहे हो? लोग इस तरह बातें करते हैं,
जैसे सारे पाप अब हो रहे हैं। जरा अपने पुराण टटोलो। और तुम चकित हो
जाओगे, तुम हैरान हो जाओगे। तुम जिन स्वर्ग के देवताओं को
बड़ा पवित्र मान रहे हो, जरा अपने पुराणों में खोजो!
वे स्वर्ग के देवता जमीन पर उतर कर व्यभिचार कर जाते हैं। और साधारण
स्त्रियों के साथ ही नहीं, ऋषियों की पत्नियों को भी नहीं छोड़ते। यह स्वर्ण-युग
था, जब देवता भी इतने भ्रष्ट थे! यह स्वर्ण-युग था, जब तपस्वियों को भ्रष्ट करने का आयोजन ही देवताओं का एकमात्र काम था,
कि भेजो एकदम उर्वशी! कोई बेचारा ध्यान कर रहा है, तुम्हारा क्या बिगाड़ रहा है? कोई आंख बंद किए शांत
बैठा अपनी माला जप रहा है, भेजो उर्वशी! भ्रष्ट करो उसे! यह
स्वर्ण-युग था, जहां देवता भी इतने गए-बीते थे!
तुम जरा अपना पुराना इतिहास, जो पुराणों में छिपा
पड़ा है, वह उठा कर देखो। कोई पढ़ता नहीं पुराण, शायद इसीलिए लोग नहीं पढ़ते कि पढ़ेंगे तो बड़ी ग्लानि होगी।
ब्रह्मा से लेकर इंद्र तक तुम्हारे सारे देवता अत्यंत भ्रष्ट हैं।
उनकी भ्रष्टता की कोई सीमा भी नहीं है। पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा अपनी बेटी पर ही
मोहित हो गए। ऐसा तो अब भी नहीं होता। अपनी बेटी के ही पीछे चल पड़े! उसी के प्रति
कामातुर हो गए। और ब्रह्मा महादेव हैं, स्रष्टा हैं जगत के।
वेदों में सोमरस की बड़ी चर्चा है। वैज्ञानिक कहते हैं कि सोमरस कोई खो
गई जड़ी-बूटी है, जो रही होगी भांग, गांजा,
चरस, अफीम जैसी। उसे पी-पी कर देवता मस्त हो
रहे थे। पश्चिम के बहुत बड़े विचारक अल्डुअस हक्सले ने तो लिखा है कि सोमरस एल एस
डी जैसी कोई चीज थी। और भविष्य में--अल्डुअस हक्सले ने लिखा है कि--जब हम एल एस डी
की शोध को पूरा कर लेंगे तो जो अंतिम हमारे हाथ में मादक द्रव्य लगेगा सारी
वैज्ञानिक शोध के बाद, अच्छा होगा उसका नाम हम सोमा
रखें--वेद के ऋषियों की स्मृति में!
यज्ञ हो रहे थे तुम्हारे स्वर्ण-युग में जिनमें गऊमाता के भक्त गऊ की
बलि चढ़ा रहे थे, घोड़े काटे जा रहे थे, नरमेध भी
हो रहे थे। स्वर्ण-युग! सतयुग!
लोगों को यह भ्रांति है कि अब लोग खराब हो गए हैं। अगर लोग अब खराब हो
गए हैं तो बुद्ध किसको समझा रहे थे चौबीस घंटे--चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, भ्रष्टाचार मत करो, हिंसा मत करो, हत्या मत करो! किसको समझा रहे थे?
पुराने से पुराने शास्त्र भी इन्हीं शिक्षाओं से भरे हैं। ये
शिक्षाएं बताती हैं कि लोग चोर थे। नहीं तो किसको समझा रहे हो कि चोरी मत करो?
जहां कोई चोर ही न हो वहां बुद्ध और महावीर और कृष्ण और पतंजलि
लोगों को समझाते फिरें कि चोरी मत करो, तो इनका दिमाग खराब
है, ये पागल हैं। जहां कोई चोरी करता ही नहीं वहां क्या समझा
रहे हो कि चोरी मत करो! कोई तो खड़े होकर कहता कि महाराज, क्यों
व्यर्थ मेहनत कर रहे हो? चोरी यहां कोई करता ही नहीं।
झूठी हैं वे कहानियां जो कहती हैं कि घरों में ताले नहीं डाले जाते
थे। हां, एक कारण हो सकता है ताले न डालने का कि घर में कुछ हो
ही न। लेकिन चोरी तो होती थी। नहीं तो बुद्ध क्यों कहते हैं कि चोरी मत करो?
और महावीर ने अचौर्य को महाव्रत क्यों कहा है पांच महाव्रतों में?
और हिंसा तो डट कर हो रही थी, कि महावीर को
अहिंसा का पाठ देना पड़ा। बेईमानी सघन थी।
कब था स्वर्ण-युग? कब था आदमी सुखी?
कभी नहीं था। लेकिन हां, एक मूर्च्छा थी,
एक तंद्रा थी; वह तंद्रा टूट गई है आज। अच्छा
हुआ टूट गई। टूट गई तो अब हम उपाय कर सकते हैं सुखी होने का। लेकिन सुख, दूसरी भ्रांति में मत पड़ जाना कि समाजवाद आएगा तो मिलेगा, कि साम्यवाद आएगा तो मिलेगा, कि वर्गविहीन समाज की
रचना होगी तो मिलेगा। सुख का कोई संबंध बाहर से नहीं है। सुख अंतर-दशा है। जो
निर्विचार हो जाए उसे अभी और यहीं मिल जाएगा।
और फिर कब समाज वर्गविहीन होगा? तब तक तुम जिंदा
रहोगे? और सवाल तुम्हारा है। रूस में क्रांति हुए साठ साल हो
गए, अभी तक भी कोई सुख की झलक दिखाई नहीं पड़ती। सुख तो बहुत
दूर, रूस अभी भी इतना भयभीत रहता है--बाहर से कोई देश में
अंदर न आए! रूसी देश के बाहर न जाएं! क्योंकि ओलंपिक वगैरह में रूसी देश के बाहर
जाते हैं तो फिर लौटना ही नहीं चाहते। क्या हो जाता है उनको? रूस के बाहर आकर उनको पता चलता है कि दुनिया कहां से कहां पहुंच गई!
रूस में एक तरह की समानता आई है, गरीबी बांट दी गई है।
बांटने को अमीरी तो थी भी नहीं। जैसे भारत में अगर समाजवाद आए तो क्या करोगे?
बांटोगे क्या खाक! गरीबी बांट लोगे। हां, सब
समान रूप से गरीब हो सकते हैं। एकाध बिड़ला, एकाध टाटा,
एकाध सिंघानिया, इनको करोगे क्या? बांट लोगे। बांटने से किसके हाथ क्या पड़ने वाला है? वही
रूस में हुआ। गरीबी की दृष्टि से सब लोग समान हो गए। लेकिन आदमी ऐसा मूढ़ है कि
गरीबी की समानता को सुख समझ सकता है! हां, बाहर का उसे पता
नहीं चलना चाहिए।
आदमी को बड़ा कष्ट होता है दूसरे को सुख में देख कर; अपने को दुख में देख कर इतना कष्ट नहीं होता। आदमी को बड़ा सुख मिलता है
दूसरे को कष्ट में देख कर। अगर सभी बराबर कष्ट में हैं तो लोग बिलकुल निश्चिंत
रहते हैं, लोग कहते हैं, अब क्या करना
है? अब क्या झंझट? लेकिन अगर एक आदमी
सुखी हो जाए तो बाकी सारे लोग बहुत दुखी हो जाते हैं; उसके
सुख के कारण दुखी हो जाते हैं।
रूस से बाहर जो लोग आते हैं और बाहर की दुनिया देखते हैं, वे बड़े चकित होते हैं। उनको बिलकुल धोखे में रखा जा रहा है। उन्हें बाहर
की दुनिया के संबंध में गलत खबरें दी जा रही हैं, गलत पाठ
पढ़ाए जा रहे हैं। साठ साल में सुख तो बिलकुल नहीं हुआ, सिर्फ
लोगों की आजादी खो गई। सब तरह की आजादी खो गई।
मैंने सुना है, कुत्तों की एक प्रदर्शनी हुई पेरिस में। उसमें सारी
दुनिया के कुत्ते इकट्ठे हुए। रूसी कुत्ते भी आए। बड़े मजबूत कुत्ते--रूसी कुत्ते!
बड़े पहलवान छाप! फ्रांसीसी कुत्तों ने उनसे पूछा कि रूस के क्या हालचाल हैं?
कैसी चल रही जिंदगी वहां? तो उन्होंने बड़ी शान
बघारी कि जब से समाजवाद आया, जब से साम्यवाद आया, सुख ही सुख है। खाने को सुंदर-सुंदर भोजन, रहने को
सुंदर-सुंदर मकान, घूमने-फिरने को बगीचे। क्या नहीं है! उनकी
बातें सुन कर फ्रांसीसी कुत्तों के मन में बड़ीर् ईष्या जगी, बड़ी
लार टपकी उनकी जीभों से। जब जाने का दिन आया तो रूसी कुत्तों ने फ्रांसीसी कुत्तों
से कहा कि हमें कहीं छिपा दो, हम जाना नहीं चाहते। पूछा,
अरे, जहां इतना सुख है कि हम सोच रहे थे कि
कोई मौका मिल जाए तो हम भी वहीं आ जाएं, तुम जाना क्यों नहीं
चाहते? उन्होंने कहा, अब तुम सच्ची बात
पूछते हो तो यह कि और सब तो ठीक है, लेकिन भौंकने की आजादी
बिलकुल नहीं है, भौंक नहीं सकते।
और कुत्तों को भौंकने की आजादी न हो तो कुत्तों की आत्मा ही मर गई
समझो। कुत्तों की आत्मा ही क्या है--उनके भौंकने में! अभिव्यक्ति की आजादी नहीं
है।
न तो अतीत में कोई रामराज्य था और न भविष्य में कोई रामराज्य होने
वाला है। अतीत में रामराज्य जो लोग बताते हैं वे तुम्हें धोखा दे रहे हैं और जो
भविष्य में बताते हैं वे भी धोखा दे रहे हैं। अगर कोई रामराज्य हो सकता है तो अभी।
रामराज्य से मेरा अर्थ किसी दशरथ-पुत्र राम का राज्य नहीं है। वे तो
कोई बहुत सुंदर दिन न रहे होंगे, कोई अच्छे दिन न रहे होंगे। राम
के पिता दशरथ ने बुढ़ापे में शादी कर ली थी, उसकी वजह से सब
उपद्रव हुआ। बुढ़ापे में शादी की! यह रामराज्य, यह स्वर्ण-युग,
यह सतयुग, बूढ़े दशरथ को अभी कामवासना से
छुटकारा नहीं मिला! और इसी स्त्री की बातों में आकर अपने बेटे को चौदह साल के लिए
जंगल का आदेश दे दिया कि निकल जाओ घर से! इस बूढ़े में कोई बल रहा होगा? कोई आत्मबल रहा होगा? यह तो मालूम होता है कि अपनी
पत्नी का बिलकुल चाकर रहा होगा। बुढ़ापे में शादी जो लोग करते हैं, अक्सर उनकी ऐसी गति हो जाती है।
और राम में इतना भी बल न था कि एक गलत बात के खिलाफ खड़े हो सकते!
दकियानूसी रहे होंगे। मान ली आज्ञा, चाहे गलत सही,
मान ली आज्ञा। और इसलिए पीढ़ियों दर पीढ़ियों से इस देश में हम राम का
गुणगान सुनते रहे हैं। वह इसीलिए कि सब आज्ञा मानो, सब
आज्ञाकारी बनो। और जो देश इतनी भी क्षमता नहीं रखता कि गलत आज्ञाओं के खिलाफ खड़ा
हो सके वहां क्रांति कैसे होगी? राम चले गए जंगल! गलत बात,
फिर चाहे पिता की भी क्यों न हो, इससे क्या
फर्क पड़ता है? गलत बात के सामने झुकना गलत है।
फिर राम को राज्य का बड़ा मोह रहा होगा। राज्य के मोह के पीछे फिर सीता
का भी त्याग कर दिया। अगर यूं ही था तो खुद भी चले गए होते सीता के साथ, तो कुछ शान की बात होती।
और राम का राज्य तो रामराज्य कहा ही नहीं जा सकता। क्योंकि कहानी है
कि एक शूद्र के कानों में सीसा भरवा दिया था गर्म करवा कर पिघला कर, क्योंकि उसने वेद-वचन सुनने की जुर्रत की थी। यह रामराज्य है, जहां एक शूद्र वेद-वचन न सुन सके? महात्मा गांधी
इन्हीं राम का गुणगान कर रहे हैं और दूसरी तरफ शूद्र को हरिजन बता रहे हैं! और
इन्हीं हरि ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघला कर भरवा दिया। उसके प्राण ही ले
लिए होंगे। उसको बहरा कर दिया, क्योंकि उसने वेद-वचन सुन लिए
थे!
न तो अतीत में कोई रामराज्य था और न भविष्य में कोई होगा। फिर मैं किस
रामराज्य की बात करता हूं?
एक राम तुम्हारे भीतर सोया है। दशरथ के बेटे राम की नहीं। एक राम
तुम्हारे भीतर सोया है। एक ईश्वर तुम्हारे भीतर विराजमान है। उसको जगाओ। उसकी
जागृति में रामराज्य है। वह जग जाए तो सब दुख मिट जाता है, सब पीड़ा मिट जाती है। सब मृत्यु, सब भय समाप्त हो
जाते हैं। तुम्हारे भीतर सोया हुआ राम जग जाए तो बस अमृत से तुम्हारा संबंध हो
गया।
सुदास, आज जरूर आदमी दुखी है, लेकिन
आदमी सदा से दुखी रहा है; आज उसे पता चल रहा है; आज होश में है। क्लोरोफार्म उतर गया। क्लोरोफार्म देते हैं न किसी मरीज को,
थोड़ी देर बाद क्लोरोफार्म उतर जाता है। जब क्लोरोफार्म उतर जाता है
तब उसे पीड़ा का पता चलता है। आपरेशन हो गया, अब उसे दर्द
मालूम होता है।
एक क्लोरोफार्म सारी मनुष्य-जाति पीए बैठी रही है अतीत में। धर्म का
एक नशा था, जो घोट-घोट कर पिलाया गया था। वह उतर गया, वह उखड़ गया। विज्ञान के विकास ने क्लोरोफार्म की पुरानी पद्धति तोड़ दी,
आदमी होश में आ गया। होश में आया तो दुख का पता चल रहा है, पीड़ा का पता चल रहा है, संताप का पता चल रहा है,
चिंता का पता चल रहा है। मगर यह अच्छा है, क्योंकि
पता चल रहा है तो हम मिटाने का कुछ उपाय कर सकेंगे। उपाय एक है कि तुम्हारे भीतर
थिरता आए, मौन समाए। उपाय एक है कि तुम्हारे भीतर चित्तशून्य
दशा पैदा हो, मन से मुक्ति हो, निर्विचार
सघन हो।
पतंजलि जिसको कहते हैं निर्विकल्प समाधि, वही रामराज्य है। और तुम्हारे भीतर अगर दीया जल जाए निर्विचार समाधि का,
तो जो बुझे दीये हैं, वे भी तुम्हारे पास आकर
जल सकते हैं। यह सारी दुनिया एक दीपावली मना सकती है।
लेकिन जब मैं यह कहता हूं तो स्वभावतः मैं तुम्हें कोई सांत्वना नहीं
दे पाता। तुम्हें अगर कह देता कि पीछे सब ठीक था, तो तुम पीछे के सपनों
में खो जाते; या तुमसे कह देता आगे सब ठीक हो जाएगा, तो तुम आगे की कल्पनाओं में खो जाते। लेकिन जब मैं कहता हूं अभी कुछ करना
है, तो बड़ी मुश्किल होती है। क्योंकि मनुष्य बड़ा आलसी है,
बड़ा तामसी है। कुछ करना है अभी! मन सदा टालने का होता है--कल पर टाल
दो, बीते कल पर टालो, आने वाले कल पर
टालो, आज मत छेड़ो उपद्रव। क्योंकि आज अगर करना है तो करना
होगा।
इसलिए सुदास, मेरी बात ठीक लगे तो भी तुम उससे बचना चाहोगे।
मैंने सुना है, एक महात्मा के पास एक नया-नया शिष्य आया। शिष्य बहुत
आलसी। गुरु ने उसकी आदत सुधारनी चाही। एक रात दोनों सोने जा रहे थे, खाट पर लेट गए थे। शिष्य को उठाने के लिए गुरु ने कहा कि शायद वर्षा आ रही
है, गाय को अंदर ले आओ।
शिष्य लेटे-लेटे ही बोला, गुरु जी, अभी एक बिल्ली निकली थी, मैंने उस पर हाथ फेर कर
देखा था। बाहर वर्षा नहीं हो रही, क्योंकि बिल्ली सूखी थी।
गुरु ने उसे उठाने के लिए फिर कहा, देख तो जरा घड़ी में
कितने बजे हैं?
शिष्य बोला, गुरु जी, अभी हम सोने वाले हैं,
समय जान कर क्या करेंगे?
गुरु ने उसे फिर उठाने के लिए कहा, दीया फालतू जल रहा है,
उसको बुझा दो।
शिष्य बोला, गुरु जी, दो काम मैंने किए,
अब यह काम आप करिए।
मैं जब कहता हूं, अभी और यहीं रामराज्य को सुलगाना
है, जगाना है! तुम सुन लेते हो, समझ भी
लेते हो, लेकिन बचना चाहते हो, टालना
चाहते हो। तुम कहते हो, थोड़ी देर तो और सो लेने दो, कल करेंगे, फिर करेंगे, अभी और
दूसरे काम करने हैं।
लेकिन सब काम व्यर्थ हैं। करने योग्य बात, सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात, सबसे प्रथम बात एक
है--स्वयं को जान लो! क्योंकि उसी जानने में स्वर्ग है, उसी
जानने में निर्वाण है, उसी जानने में राम है, उसी जानने में सब जानना छिपा है; सब होने का रहस्य,
सारा आनंद, सारा उत्सव छिपा है!
मनुष्य जी रहा है करीब-करीब ऐसे जैसे नशे में हो। नशा टूटता भी है तो
हम नये नशे खोज लेते हैं। एक नशा टूटता है तो हम दूसरा नशा खोज लेते हैं। लोग
मंदिरों में, मस्जिदों में जा रहे थे, क्योंकि
वहां जाकर भूल जाते थे जीवन का दुख, जीवन की पीड़ाएं। अब
मंदिर-मस्जिद कोई नहीं जाता तो सिनेमाघर के सामने कतार लगी है; वहां जाकर तीन घंटे के लिए नशे में डूब जाते हैं। शराब पी रहे हैं। पहले
मालाएं फेर रहे थे, भजन कर रहे थे, कीर्तन
कर रहे थे; अब ताश खेल रहे हैं, शतरंज
बिछाए बैठे हैं। मगर हर हाल समय को काट रहे हैं; समय का
उपयोग नहीं कर रहे हैं; समय को रूपांतरित नहीं कर रहे हैं।
नींद-नींद मनुष्य की अवस्था है।
एक बार दो शराबी रास्ता भटक गए। रात का समय है, कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली थी। चलते-चलते एक शराबी अनायास किसी पत्थर से
टकराया। पत्थर से टकराने पर वह अपने साथी से बोला, अरे लगता
है यार किसी कब्रिस्तान में आ गए, क्योंकि मैं अभी-अभी किसी
पत्थर से टकराया हूं। लगता है किसी की कब्र का पत्थर है। जरा माचिस की तीली जला कर
देखना तो कब्र किसकी है?
दूसरे ने जेब से माचिस निकाली और तीली जलाई। थोड़ी देर को प्रकाश हुआ
और तीली बुझ गई। एक तो नशा, फिर थोड़ी सी देर के लिए प्रकाश और तीली का बुझ जाना।
दूसरे ने पहले से कहा, यार लगता है कि कोई अच्छी-खासी उम्र
में मरा है। इस पर तो चार सौ बीस लिखा हुआ है। लगता है कोई बुजुर्ग की कब्र है। और
बुजुर्ग भी कोई छोटे-मोटे नहीं, दिल्ली में कोई बड़े नेता जी
रहे होंगे। नहीं तो चार सौ बीस की उम्र, ठीक चार सौ बीस की
उम्र पाना बड़ा मुश्किल है। क्या गजब का आदमी रहा! ठीक समय पर मरा। जरा फिर से
माचिस जला, जरा देख तो लें किसकी कब्र है! ठीक-ठीक नाम तो
पता चल जाए। हो सकता है कोई अपना ही भाई-बंधु हो, अपना ही
कोई बुजुर्ग हो।
फिर तीली जलाई गई, फिर प्रकाश हुआ और तीली बुझ गई।
दूसरे ने दुख भरे स्वर में जवाब दिया, अरे-अरे, चार सौ बीस मील पुणे। मालूम होता है कोई बहुत पुण्यात्मा आदमी की कब्र
है--पुणे! बेचारे! परमात्मा उनकी आत्मा को शांति दे।
तुम चल तो रहे हो, काम भी कर रहे हो, मगर होश में हो? होश का अर्थ समझते हो? एक-एक कृत्य सावधानी से किया जाए। चलो तो जानते हुए। महावीर ने कहा है,
चले तो विवेक से, उठे तो विवेक से। बुद्ध ने
कहा है, स्मृति क्षण भर को न खोए। श्वास भीतर जाए तो स्मरण
रहे कि श्वास भीतर गई और श्वास बाहर जाए तो स्मरण रहे कि श्वास बाहर गई।
श्वास-श्वास का भी बोध बना रहे! तो तुम्हारे भीतर इतनी बोध की अग्नि जलेगी कि तुम
तो प्रज्वलित हो ही उठोगे, तुम तो आभामंडल से भर ही जाओगे,
तुम्हें देख कर दूसरों के भीतर भी अभीप्सा पैदा होगी कि ऐसा आनंद
हमें कैसे मिले!
और आज जितनी शुभ घड़ी है इतनी कभी न थी, क्योंकि सामूहिक नींद
टूट गई है, अब सिर्फ व्यक्तिगत नींद तोड़ने का सवाल है। पहले
तो व्यक्तिगत नींद तो थी ही, सामूहिक नींद भी थी। अब कम से
कम सामूहिक नींद का बोझ हट गया है। अब तो सिर्फ व्यक्तिगत नींद है। तुम जरा करवट
ले सको, जरा झकझोर सको अपने को, तो उठ
आने में देर न लगेगी।
इधर मैं अनेक लोगों पर ध्यान के प्रयोग करके तुमसे कहता हूं यह। यह
कोई सैद्धांतिक बात नहीं कह रहा हूं। अनेक लोगों पर ध्यान के प्रयोग करके तुमसे यह
कह रहा हूं कि समय बहुत अनुकूल है। सच में हर पच्चीस सौ वर्ष में समय अनुकूल होता
है। जैसे एक साल में पृथ्वी का एक चक्कर पूरा होता है सूरज का, ऐसे पच्चीस सौ साल में हमारा सूर्य किसी एक महासूर्य का एक चक्कर पूरा
करता है और हर पच्चीस सौ साल के बाद संक्रमण की घड़ी आती है, संक्रांति
की घड़ी आती है। पच्चीस सौ साल पहले बुद्ध हुए, महावीर हुए,
लाओत्सु, कनफ्यूशियस, च्वांगत्सु,
लीहत्सु, जरथुस्त्र, साक्रेटीज,
सारी दुनिया ने बुद्ध पुरुष देखे पच्चीस सौ साल पहले। और उसके भी
पच्चीस सौ साल पहले कृष्ण, मोजेज, ऐसे
बुद्ध पुरुष देखे। फिर पच्चीस सौ साल बीत गए हैं, अब फिर
संक्रांति की घड़ी करीब है।
और संक्रांति की घड़ी का अर्थ होता है जब सामूहिक नशा टूट जाता है, सिर्फ व्यक्तिगत नशे के तोड़ने की जरूरत रहती है। उसे तोड़ना बहुत कठिन नहीं
है, आसान है। इससे ज्यादा आसान कभी भी न होगा। कभी ऐसा होता
है कि नाव ले जानी हो उस पार तो पतवार चलानी पड़ती है; और कभी
ऐसा होता है कि पतवार नहीं चलानी पड़ती, सिर्फ पाल खोल दो,
हवा अपने आप नाव को उस तरफ ले जाती है।
हर पच्चीस सौ साल में ऐसी घड़ी आती है जब पतवार बिना चलाए पार हुआ जा
सकता है, सिर्फ पाल खोल दो। ऐसी ही शुभ घड़ी में तुम हो। इसका
उपयोग कर लो। इसे चूके तो शायद पच्चीस सौ साल बाद दुबारा फिर ऐसा मौका मिले।
पच्चीस सौ साल लंबा चूकना है। और चूकने की आदत सघन हो जाए तो फिर भी चूक सकते हो।
जागो!
तीसरा प्रश्न: भगवान, जनता जिस ईश्वर को पूजती है वह ईश्वर और आपका ईश्वर क्या एक ही है?
अब्दुल लतीफ, वह
एक कैसे हो सकता है! उसके एक होने का कोई उपाय नहीं। जनता यानी सोए हुए लोग;
उन्होंने नींद में स्वप्न देखे हैं; ईश्वर भी
उनकी एक स्वप्नवत कल्पना है।
मैं जिस ईश्वर की बात कर रहा हूं वह कोई धारणा नहीं है, न कोई कल्पना है, न कोई विचार है, न कोई दार्शनिक प्रस्तावना है। मैं तो उस ईश्वर की बात कर रहा हूं जो
है--जो मौजूद है--जो वृक्षों में हरा है, फूलों में लाल है;
जो हवाओं में अदृश्य है; जो पहाड़ों में सिर
उठाए खड़ा है, ध्यानस्थ; जो नदियों में
तरंगित है; जो समुद्र की लहरों में निनाद कर रहा है; जो तुम्हारे भीतर मौजूद है; जो मेरे भीतर मौजूद है।
मेरे लिए ईश्वर अस्तित्व का पर्यायवाची है। इसलिए मेरे साथ तो नास्तिक होने का
उपाय ही नहीं है।
मेरे पास नास्तिक आ जाते हैं, वे कहते हैं, क्या हम भी संन्यासी हो सकते हैं? मैं उनको कहता हूं,
जरूर। वे कहते हैं, लेकिन हम नास्तिक हैं,
नास्तिक को कौन संन्यास में स्वीकार करेगा! मैं उनसे कहता हूं,
मैं स्वीकार करता हूं! क्योंकि मेरा ईश्वर अस्तित्व का पर्यायवाची
है। तुम अस्तित्व को तो मानते हो न! चांदत्तारों को मानते हो?
वे कहते हैं, हां।
नदी-पहाड़ों को मानते हो?
वे कहते हैं, हां।
मुझे मानते हो? स्वयं को मानते हो?
वे कहते हैं, हां। यह सब तो है। हम तो उस ईश्वर को नहीं मानते जो न
दिखाई पड़ता, न जिसको सिद्ध किया जा सकता।
मैं उनसे कहता हूं, उस ईश्वर को मैं भी नहीं मानता
हूं। मैं तो इस सारी समग्रता को ही ईश्वर कहता हूं। आओ, मेरे
मंदिर के द्वार नास्तिक के लिए खुले हैं--वैसे ही जैसे आस्तिक के लिए खुले हैं।
मंदिर की कोई शर्त हो सकती है? मंदिर की यह शर्त हो सकती है
कि आस्तिक होओगे तब आना? मंदिर तो यह कह सकता है कि आ जाओ तो
आस्तिक हो जाओगे। अगर आस्तिक पहले से ही हो तो आने की जरूरत ही क्या रही!
अगर चिकित्सक अपने द्वार पर यह तख्ती लगा दे कि जब स्वस्थ हो जाओ तभी
आना, क्योंकि मैं सिर्फ स्वस्थ लोगों की चिकित्सा करता हूं,
तो उस चिकित्सक को हम पागल कहेंगे। चिकित्सक के द्वार पर तो बीमार
ही जाएंगे। हां, स्वस्थ होकर निकलेंगे।
मैं उनको कहता हूं, नास्तिक हो, आओ! यह द्वार तुम्हारे लिए है। ईश्वर को नहीं मानते, आओ! आत्मा को नहीं मानते, आओ! क्योंकि मैं, जो नहीं मानता है, उसमें थोड़ा बल देख रहा हूं--बजाय
उसके, जो मानता है। मानता है, वह तो निर्बल
है; वह तो कमजोर है, कायर है; वह तो दूसरों के दबाव में आ गया। उसका ईश्वर क्या है सिवाय उसके भय के
विस्तार के! घबड़ा रहा है, डर रहा है, ईश्वर
को मान लिया है। मौत करीब आ रही है, ईश्वर को मान लेता है।
जवानी में लोग ईश्वर की उतनी फिक्र नहीं करते, बुढ़ापा आते-आते
मानने लगते हैं। बुढ़ापा आते-आते नास्तिक नहीं बचते।
कुछ दुनिया में अजीब चीजें घटती हैं। तीस साल के बाद का हिप्पी नहीं
मिलेगा; कि मिलेगा? बस तीस साल
होते-होते हिप्पी खत्म हो जाता है। शादी-वादी हो गई, बच्चे
हो गए, फिर कैसे हिप्पी! फिर दुकान करो, नौकरी करो, गए पुराने दिन। हिप्पियों में कहावत है
कि तीस साल से ज्यादा उम्र के आदमी का भरोसा ही मत करना, क्योंकि
तीस साल के बाद का आदमी असली आदमी होता ही नहीं। हिप्पी ही नहीं होता तो आदमी कैसे
होगा?
जवानी में तुम्हें नास्तिक मिल जाएंगे। अगर नहीं भी होंगे नास्तिक तो
कम से कम ईश्वर की कोई फिक्र नहीं करने वाले लोग मिल जाएंगे। लेकिन बुढ़ापा जैसे
आएगा, पैर जैसे कंपेंगे, वैसे-वैसे
लोग ईश्वर को मानने लगते हैं।
यह ईश्वर का मानना नहीं है; यह सिर्फ भय है। यह
मौत द्वार पर आ रही है; पता नहीं मौत के बाद ईश्वर का
साक्षात्कार हो तो फिर क्या होगा! कहीं ईश्वर हुआ ही तो फिर क्या होगा!
मेरे एक शिक्षक नास्तिक थे। दर्शन-शास्त्र के अध्यापक थे। जब बीमार
पड़े तो मैं उनके घर गया देखने। बड़ा हैरान हुआ, उन्होंने तो रामचंद्र
जी की तस्वीर लगा रखी है अपने कमरे में! मैंने उनसे पूछा, आपका
कमरा और रामचंद्र जी की तस्वीर! यह तो मैं कल्पना ही नहीं कर सकता था। उन्होंने
कहा, जब बूढ़े होओगे तब जानोगे। मैंने कहा, फिर भी कुछ इशारा तो मुझे दें। उन्होंने कहा, बात
साफ है। जिंदगी भर मैंने ईश्वर को नहीं माना। अब भी कह नहीं सकता ईमानदारी से कि
मानता हूं, क्योंकि संदेह तो भीतर है। मगर अब जोर से कह नहीं
सकता कि नहीं है ईश्वर, कौन जाने हो ही! अब मौत करीब आ गई,
मरने के बाद कम से कम इतना तो रहेगा कि कह सकेंगे कि मरते वक्त तो
याद कर लिया था। मरते वक्त तो तुम्हारी तस्वीर टांग ली थी।
यह देखते हो, यह आस्तिकता! इसका कोई मूल्य है? यह आस्तिकता नहीं, नपुंसकता है।
मैंने उनसे कहा, अगर कहीं कोई ईश्वर है तो
तुम्हें देखने से भी इनकार कर देगा। तुम यह तस्वीर उतारो। अगर ईश्वर है कहीं और
मिले मौत के बाद, तो कहना, मैं क्या कर
सकता हूं! संदेह तुमने दिया था, मैंने पैदा नहीं किया था। और
तुम कभी प्रत्यक्ष नहीं हुए जीवन में, मैं मानता तो कैसे
मानता! और तुमने मुझे बल दिया था, विचार दिया था, सोचने की क्षमता दी थी, स्वीकार करता तो कैसे! डरना
मत, हिम्मत से अपनी बात कह देना। और मैं तुमसे कहता हूं,
अगर कहीं कोई ईश्वर होगा तो तुम्हें छाती से लगा लेगा। कायरों की
कहीं इज्जत होती है? कहीं कोई सम्मान होता है? सब सम्मान उनका है जिनका साहस अदम्य है।
निश्चित ही मैं जिस ईश्वर की बात कर रहा हूं, लतीफ, वह वही ईश्वर नहीं है जो गंडात्ताबीज खोजने
वालों का ईश्वर है; जो मजारों और कब्रों पर उर्स मनाने वालों
का ईश्वर है; जो कमजोरों का, भयभीतों
का, लोभियों का ईश्वर है। जो मूर्च्छित व्यक्तियों का ईश्वर
है, वह कैसे मेरा ईश्वर हो सकता है?
मेरा ईश्वर इस सारे जगत में व्याप्त है। मेरा ईश्वर जगत-विरोधी नहीं
है। मेरा ईश्वर जगत का प्राण है। इस विश्व की जो धकधक है, वही मेरा ईश्वर है। कोयल जब गाती है तो मैं ईश्वर को सुनता हूं, और पपीहा जब पुकारता है तो मेरे कानों में उपनिषद और वेद और गीता और कुरान
फीके पड़ जाते हैं। फूल जब खिलते हैं तो मैं जानता हूं ईश्वर खिला। और जब रात तारों
से भर जाती है तो मैं जानता हूं ईश्वर ही अनंत-अनंत तारों में छितर गया है।
मेरा ईश्वर एक काव्य है। मेरा ईश्वर एक संगीत है। तुम्हें अगर मेरे
ईश्वर से परिचित होना है तो प्रकृति के करीब आओ, क्योंकि मेरा ईश्वर
प्रकृति में ही छिपा है; प्रकृति उसका घूंघट है। उठाओ घूंघट
और तुम मालिक को पाओगे। जहां भी घूंघट उठाओगे उसी को पाओगे।
जीसस ने कहा है, उठाओ पत्थर और तुम मुझे पाओगे;
तोड़ो लकड़ी और तुम मुझे पाओगे। वही मैं तुमसे कहता हूं।
लेकिन लोग अपनी-अपनी समझ से जीते हैं। अंधे की समझ प्रकाश के संबंध
में क्या होगी? और बहरे की समझ संगीत के संबंध में क्या होगी?
मुल्ला नसरुद्दीन गया था शास्त्रीय संगीत सुनने। नहीं माने पड़ोस के
लोग, कहा कि टिकट भी हम ले लेंगे, मगर
चलो मुल्ला, एक दफा तो जीवन में सुन लो। गाली-गलौज ही सुनते
रहे, शास्त्रीय संगीत सुन लो! कि ऐसे ही मर जाओगे? बड़ा कलाकार आया है।
नहीं माने लोग। मुल्ला ने तो बहुत कहा कि भई मुझे कुछ लेना-देना नहीं, क्या शास्त्रीय, क्या संगीत! मैं तो अपने मजे में
हूं। शतरंज बिछा कर बैठा था कि मित्र आते ही होंगे; हुक्का
लगा कर बैठा था, गुड़गुड़ाने की तैयारी थी। और तुम कहां का
शास्त्रीय संगीत उठा लाए!
नहीं माने तो गया, घसिटता हुआ गया। मित्र तो बड़े
हैरान हुए, जब संगीतज्ञ आलाप भरने लगा, खूब आलाप भरने लगा, तो मुल्ला की आंखों से एकदम
टप-टप आंसू गिरने लगे। मित्रों ने कहा, अरे नसरुद्दीन,
हमने तो कभी सोचा नहीं था कि तुम भी और शास्त्रीय संगीत के ऐसे
प्रेमी! हमारी आंखें गीली नहीं हुईं और तुम्हारी आंखों से टपटप आंसू गिर रहे हैं!
अरे, उसने कहा, शास्त्रीय संगीत की
ऐसी की तैसी! यह आदमी मरेगा! ऐसा ही आऽऽ आऽऽ आऽऽ करते मेरा बकरा मर गया था। रात भर
शास्त्रीय संगीत करता रहा था, सुबह मर गया बेचारा। इसका इलाज
करो भाइयो, क्या बैठे आऽऽ आऽऽ सुन रहे हो! आंसू मेरे गिर रहे
हैं कि यह बेचारा, इसकी पत्नी होगी, बाल-बच्चे
होंगे, गया काम से। इसको शास्त्रीय संगीत कहते हैं?
समझ तो अपनी होगी।
प्रेमी ने अपनी प्रेयसी से कहा, वाकई प्रतीक्षा की
घड़ियां बहुत खराब होती हैं। प्रेमिका तुरंत बोली, किसने कहा
था कि प्रतीक्षा की घड़ी खरीदो! मेरी मां कहती है कि सीको घड़ी सबसे बढ़िया होती है।
पत्नी गुस्से में पति से बोली, मुझे मालूम हुआ है कि
दफ्तर की टाइपिस्ट के साथ तुम्हारे संबंध अच्छे नहीं हैं। पति ने समझाया, तुमने बिलकुल ठीक सुना है। पर बहुत दिन से मैं उससे अपना संबंध मधुर बनाने
का प्रयास करता आ रहा हूं, सफलता मिलती ही नहीं।
मेरा ईश्वर तो तुम तभी जान सकोगे जब मेरी ही अंतर्दशा में आओगे, उसके पहले नहीं। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, गीता
समझनी हो तो कृष्ण बनना पड़ेगा, उसके पहले संभव नहीं। और
धम्मपद का राज खुलेगा जब बुद्धत्व तुम्हारे भीतर खिलेगा। और जिस दिन तुम जीसस की
क्राइस्ट अवस्था को उपलब्ध होओगे, उस दिन बाइबिल के वचनों
में कमल ही कमल खिल जाते हैं। एक-एक वचन में हजार-हजार कमल! जिस दिन तुम जान सकोगे
मोहम्मद की मस्ती, उस दिन कुरान की आयतों की तरन्नुम
तुम्हारी श्वास-श्वास में भर जाएगी। फिर कुरान में जो संगीत है उससे तुम्हारा
स्पर्श होगा; उसके पहले संभव नहीं है।
अब्दुल लतीफ, तुम्हारा ईश्वर बस तुम्हारा ही ईश्वर होगा न! तुम
जैसे हो वैसा ही होगा न!
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक दिदरो ने लिखा है, अगर घोड़े ईश्वर की प्रतिमा बनाएं तो घोड़े की ही प्रतिमा बनाएंगे वे;
आदमी की तो कभी नहीं बना सकते, कभी भूल कर
नहीं बना सकते। आखिर आदमी ने घोड़ों के साथ जो व्यवहार किया है, उसको भी तो ध्यान में रखेंगे। घोड़ों की छाती पर चढ़ा रहा है आदमी सदियों से,
इसको ईश्वर मानेंगे? उनका ईश्वर कोई सुंदर
घोड़ा, घोड़े की ही कोई महिमाशाली प्रतिमा बनाएंगे वे। यह बिलकुल
ठीक ही है।
मैंने सुना है, पेरिस में एक परिवार रहता था। बाप अपने बेटे को लेकर
रोज बगीचा घूमने जाता था। बगीचे में नेपोलियन की प्रतिमा थी--घोड़े पर सवार! शानदार
घोड़ा, दो पैर आकाश में उठाए, उस पर
बैठा हुआ नेपोलियन। बड़ी कलात्मक कृति थी। बेटा रोज अपने बाप को कहता था कि चलो
नेपोलियन को देखें। बाप उसे रोज नेपोलियन की मूर्ति के पास ले जाता था।
फिर बदली हुई बाप की। बदली के दिन बेटे ने कहा कि आज बगीचा न चलिएगा? आखिरी बार नेपोलियन को देख आएं। बाप इनकार न कर सका, ले गया बेटे को। उस दिन बाप ने पूछा कि तुझे नेपोलियन से इतना लगाव क्यों
है? तू नेपोलियन के संबंध में क्या समझता है? तूने नेपोलियन के संबंध में कुछ सुना, पढ़ा? नेपोलियन कौन था?
तो उसने कहा, नेपोलियन कौन था, इसकी मुझे
फिक्र नहीं। मैं तो यह पूछना चाहता हूं आपसे--कभी मौका ही नहीं आया--कि नेपोलियन
के ऊपर यह कौन चढ़ा बैठा है?
उस लड़के के लिए तो वह घोड़ा नेपोलियन था। वह तो नेपोलियन घोड़े को मानता
था। कहता था, मेरे मन में सवाल तो कई दफे उठा, पर मैंने कहा कि क्यों आपको परेशान करूं! यह कौन चढ़ा बैठा है नेपोलियन
के...इसको उतार क्यों नहीं देते? नेपोलियन थक गया होगा इसको
ढोते-ढोते।
छोटे बच्चे का नेपोलियन घोड़ा है। हम अपनी समझ के पार नहीं जा सकते।
हमारी समझ के पार हमारा ईश्वर नहीं हो सकता। हमारी समझ के पार हमारा सत्य नहीं हो
सकता। हम दर्पण हैं। अगर हमारा दर्पण गंदा है तो जो भी उसमें झलकेगा गंदा हो
जाएगा। अगर हमारे दर्पण पर धूल जमी है तो जो भी झलकेगा धूल उसमें बाधा डालेगी।
तुम ईश्वर की फिक्र छोड़ो, तुम दर्पण की धूल
झाड़ो। तुम दर्पण को शुद्ध करो। तुम इस मन के दर्पण को बिलकुल निश्छल करो। और तब
तुम जानोगे, प्रतिबिंब बनेगा तुममें परमात्मा का। वह मेरा
ईश्वर है। वह कोई धारणा नहीं है--अनुभव है, अनुभूति है।
बस्तियां कैसे हुईं मैदान यह प्यारे न पूछ
इस अंधेरे के सफर में चांद या तारे न पूछ
एक टूटी रीढ़ की हड्डी सरीखे जश्न पर
क्यों उड़ा करते यहां रंगीन गुब्बारे न पूछ
उनकी महफिल में जले हैं शमा रात भर
दिन में क्यों रहते अंधेरे तेरे घर-द्वारे न पूछ
भूख या भूचाल या तूफान आंधी से नहीं
क्यों मरे हैं लोग अनगिन खौफ के मारे न पूछ
अब तो कानी आंख के मेले लगे चारों तरफ
ऐसी बदहाली में
साथी नैन रतनारे
न पूछ
जहां कानों का मेला लगा हो वहां तुम रतनारे नैनों की चर्चा ही मत
करना। जहां अंधों का मेला लगा हो वहां आंखों की बात ही मत उठाना। उनकी आंख की
धारणा निश्चित ही गलत होगी, गलत ही हो सकती है।
अब तो कानी आंख के मेले लगे चारों तरफ
ऐसी बदहाली में
साथी नैन रतनारे
न पूछ
और लोगों का भगवान है क्या सिवाय भय के?
भूख या भूचाल या तूफान आंधी से नहीं
क्यों मरे हैं लोग अनगिन खौफ के मारे न पूछ
और ध्यान रखें, जिसका भय मिट गया उसकी मृत्यु मिट गई। भय है तो
मृत्यु है। भय है तो कैसा भगवान? और जहां भय है वहां प्रेम
नहीं। भय है तो कैसा प्रेम? भय के मिटते ही प्रेम का
आविर्भाव है या प्रेम का आविर्भाव हो तो भय मिट जाता है। प्रेम और भय साथ-साथ नहीं
रहते। भयभीत होकर मत झुकना किसी मूर्ति के सामने, अन्यथा
तुम्हारा झुकना झूठा है। शरीर की कवायद भला हो जाए, लेकिन
प्राणों में कोई ज्योति न जलेगी। और भय ही लोगों को चला रहा है।
मैंने सुना है, एक सूफी कहानी है। एक सूफी फकीर, जुन्नैद, एक गांव के बाहर रहता था, बगदाद के बाहर। एक दिन सुबह-सुबह उसने देखा कि मौत चली आ रही है। जुन्नैद
ने कहा, रुक! यहां तेरे आने की क्या जरूरत? बगदाद में प्रवेश करने की क्या जरूरत? मौत ने कहा कि
क्षमा करें, आप तो पहुंचे हुए परमहंस हैं, आपसे क्या छिपाना! इस गांव में पांच सौ आदमियों को ले जाना है। पांच सौ
आदमियों की मौत निश्चित हो गई है। मैं उन्हें लेने आई हूं।
फकीर ने कहा, फिर ठीक, जो निश्चित है वह
होगा। मौत भीतर चली गई।
सात दिन बाद वापस लौटी। जुन्नैद बड़ा नाराज था। जब मौत वापस आई तो उसने
कहा, रुक! लेकिन मैंने यह आशा न की थी कि तू झूठ बोलेगी।
तूने कहा था पांच सौ आदमी और पांच हजार मर गए।
उसने कहा, मैंने तो पांच सौ ही मारे, साढ़े
चार हजार घबड़ाहट में मर गए। उनका मेरे ऊपर कोई दोष नहीं है।
लोग बिलकुल भयभीत हैं, भय के कारण कहीं भी
झुक जाते हैं। मंदिरों में, मस्जिदों में झुके हैं यही लोग;
यही लोग स्टैलिन, हिटलर, माओ के सामने झुक जाते हैं। इन्हें कहीं भी झुका लो, ये भय से भरे लोग बस झुकने को तत्पर हैं। ये असल में तलाश करते हैं कि कोई
झुका ले। इन्हें कमर सीधी रखना मुश्किल हो रहा है। ये कहीं घुटने टेकने को आतुर
हैं। इनका बहाना कुछ भी हो, मगर ये घुटने टेकना चाहते हैं।
ये खुशामद करना चाहते हैं। इनकी प्रार्थनाएं, इनकी स्तुतियां
खुशामदों से ज्यादा नहीं हैं।
अब्दुल लतीफ, मेरा ईश्वर मंदिर-मस्जिद का ईश्वर नहीं है, न ही समाधि-मजार का। मेरे ईश्वर की कोई प्रतिमा नहीं है, क्योंकि सभी प्रतिमाएं उसकी हैं। मेरे ईश्वर का कोई रूप नहीं है, क्योंकि सभी रूप में वही है। मेरे ईश्वर का कोई आकार नहीं है, क्योंकि सभी आकारों में वही निराकार समाया है।
लेकिन मेरे ईश्वर से पहचान करनी हो तो बाहर जाने से नहीं होगी, भीतर जाने से होगी। मेरा ईश्वर अंतर्यात्रा में मिलेगा, अंतिम यात्रा की जो अंतिम मंजिल है, जहां तुम अपने
में लीन होकर रह जाओगे। अगर एक क्षण को भी तुम अपने में लीन हो जाओ, डूब जाओ, बिलकुल रोआं-रोआं डूब जाए, कुछ भी बचे नहीं अनडूबा, तो तुम जानोगे कि मैं किस
ईश्वर की चर्चा कर रहा हूं। और उसे जानते ही मुक्ति है। उसे जानते ही मोक्ष है।
लोगों ने जिस ईश्वर को मान रखा है, सुना-सुनाया
है--शास्त्रों से, शास्त्रज्ञों से। जिनसे तुमने सुना है,
उनको भी पता नहीं है। जिनसे उन्होंने सुना है, उनको भी पता नहीं है। लोग सदियों-सदियों से ढो रहे हैं उधार। और हर आदमी
उस उधारी को बिगाड़ता जाता है, क्योंकि हर आदमी उसमें कुछ न
कुछ जोड़ता चला जाता है। हर आदमी उसमें कुछ न कुछ अपनी कला भी दिखाता है।
नसरुद्दीन का बेटा फजलू स्कूल से चार नये शब्द सीख आया--दारू, हुक्का, रंडी और उल्लू का पट्ठा। वह बारंबार इनके
अर्थ पूछे। इस डर से कि कहीं बेटा बिगड़ न जाए, नसरुद्दीन ने
दारू का अर्थ चाय, हुक्का का अर्थ काफी, रंडी यानी भिंडी की सब्जी, और उल्लू का पट्ठा यानी
मेहमान बतला दिया। दूसरे ही दिन एक विचित्र घटना घटी, जिसकी
कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फजलू बाहर बरामदे में बैठा था, तभी नसरुद्दीन का कोई परिचित उससे मिलने आया। फजलू ने कहा, आओ उल्लू के पट्ठे, कुर्सी पर बैठो। मित्र तो यह सुन
कर हैरान रह गया। बोला, तुम्हारे पापा कहां गए? फजलू ने कहा, पापा? अरे वे
बाजार गए हैं रंडी खरीदने। आजकल उन्हें रंडी बहुत भाती है। वे आते ही होंगे।
फजलू ने अपने नये शब्द-भंडार का उपयोग करने का अच्छा अवसर देख कर कहा, आप हुक्का पीना पसंद करते हैं या दारू लेकर आऊं?
वह मित्र तो यह सुन कर हक्का-बक्का रह गया, घबड़ाते हुए बोला, फजलू, कैसी
उलटी-सीधी बातें कर रहे हो तुम? तुम्हारी मम्मी कहां हैं?
उन्हीं को बुला कर लाओ। तब तक पापा भी आते होंगे।
फजलू ने दरवाजे के भीतर झांक कर आवाज लगाई, मम्मी, एक उल्लू का पट्ठा आया है। मैंने हुक्का-दारू
की पूछी तो कुछ नहीं बोला। कहता है उलटी-सीधी बातें मत करो; जब
तक पापा रंडी वगैरह लेकर नहीं आते, तब तक तुम्हारी मम्मी को
ही बुला दो।
शास्त्रों से तुमने जो सीखा है बस ऐसा ही है--बड़ा दूर, सत्य से बहुत दूर, हजार-हजार कोस दूर। पंडितों से
तुमने जो सुना है वह ऐसा ही है। वह असत्य तो हो सकता है, सत्य
नहीं हो सकता। क्योंकि सत्य तो केवल उसके पास उपलब्ध हो सकता है जिसे उपलब्ध हो।
सत्य तो सत्संग में मिलता है--अध्ययन में नहीं, मनन में नहीं,
चिंतन में नहीं--ध्यान में मिलता है। सत्य तो सदगुरु में डुबकी
लगाने से मिलता है।
अब्दुल लतीफ, कब तक पूछते रहोगे? अब डूबो!
बहुत समय गंवाया पूछ-पूछ कर; पूछ-पूछ कर कुछ भी न मिलेगा।
यहां ईश्वर घटित हो रहा है। तुम जरा अपने हृदय के द्वार खोलो। तुम जरा मौन में
मुझे समझो। तुम मुझे अपने भीतर आने दो या तुम मेरे भीतर आओ। मेरा हाथ अपने हाथ में
लो। मेरी आंखों में झांको। यह जो नृत्य, यह जो उत्सव यहां
निर्मित हो रहा है; यह जो महोत्सव यहां अपने आप बनता जा रहा
है; यह जो रंग-गुलाल यहां उड़ रही है--इसमें भागीदार बनो।
अब्दुल लतीफ, संन्यास का क्षण आ गया! रंगो मेरे रंग में, तो जानोगे कि मेरे ईश्वर का क्या अर्थ है। उसके अतिरिक्त जानने का कोई
उपाय नहीं है।
आज इतना ही।
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