देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर
सामाजिक)—ओशो
अठारहवां प्रवचन
प्रेम-विवाह: जातिवाद का अंत
हमारे यहां चूंकि जातिवाद का राजकरण है--जो हिंदू
है, वह हिंदू को वोट देता है, जो
मुस्लिम है वह मुस्लिम को वोट देता है। हमारे यहां बहुत कौमें हैं। आपके खयाल में
इसको मिटाने के लिए क्या करना चाहिए?
दोत्तीन बातें करना चाहूंगा। एक तो जातीय दंगे को साधारण दंगा मानना
शुरू करना चाहिए। उसे जातीय दंगा मानना नहीं चाहिए, साधारण दंगा मानना
चाहिए। और जो हम साधारण दंगे के साथ व्यवहार करते हैं वही व्यवहार उस दंगे के साथ
भी करना चाहिए, क्योंकि जातीय दंगा मानने से ही कठिनाइयां
शुरू हो जाती हैं, इसलिए जातीय दंगा मानने की जरूरत नहीं है।
जब एक लड़का एक लड़की को भगा कर ले जाता है, वह मुसलमान हो कि
हिंदू, कि लड़की हिंदू है कि मुसलमान है--इस लड़के और लड़की के
साथ वही व्यवहार किया जाना चाहिए, जो कोई लड़का किसी लड़का को
भगा कर ले जाए, और हो। इसको जातीय मानने का कोई कारण नहीं
है।
और हम, जो इस मुल्क में जातीय दंगों को खतम करना चाहते हैं,
इतनी ज्यादा जातीयता की बात करते हैं कि हम उसे रिकग्नीशन देना शुरू
कर देते हैं। इसलिए पहली तो बात यह है कि जातीयता को राजनीति के द्वारा किसी तरह
का रिकग्नीशन नहीं होना चाहिए। राज्य की नजरों में हिंदू या मुसलमान का कोई फर्क
नहीं होना चाहिए।
लेकिन हमारा राज्य खुद गलत बातें करता है। हिंदू कोड बिल बनाया हुआ है, जो कि सिर्फ हिंदुओं पर लागू होगा, मुसलमान पर लागू
नहीं होगा! यह क्या बदतमीजी की बातें हैं? कोई भी कोड हो तो
पूरे नागरिकों पर लागू होना चाहिए। अगर ठीक है तो सब पर लागू होना चाहिए, ठीक नहीं है तो किसी पर लागू नहीं होना चाहिए। लेकिन जब आपका पूरा का पूरा
राज्य भी हिंदुओं को अलग मान कर चलता है, मुसलमान को अलग मान
कर चलता है, तो किस तल पर यह बात खतम होगी?
तो पहले तो हिंदुस्तान की सरकार को साफतौर से तय कर लेना चाहिए कि
हमारे लिए नागरिक के अतिरिक्त किसी का अस्तित्व नहीं है। और अगर एक मुसलमान
गुंडागिरी करता है तो एक नागरिक गुंडागिरी कर रहा है। जो उसके साथ व्यवहार होना
चाहिए, वह होगा। यह मुसलमान का सवाल नहीं है। राज्य की नजरों
से हिंदू और मुसलमान का फासला खतम होना चाहिए, पहली बात।
दूसरी बात--कि हिंदू-मुस्लिम के बीच शांति हो, हिंदू-मुस्लिम का भाई-चारा तय हो, इस तरह की सब
कोशिश बंद करनी चाहिए। यह कोशिश खतरनाक है। इसी कोशिश ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान को
बंटवाया। क्योंकि जितना हम जोर देते हैं कि हिंदू-मुस्लिम एक हों, उतना ही हर बार दिया गया जोर बताता है कि वे एक नहीं हैं। यह हालत वैसी है
जैसे कि कोई आदमी किसी को भूलना चाहता हो, और क्योंकि भूलना
चाहता है इसलिए भूलने के लिए हर बार याद करता है। और हर बार याद करता है तो उसकी
याद मजबूत होती चली जाती है।
लेकिन एकता होगी कैसे?
मेरा मानना यह है, एकता की कोई जरूरत नहीं है।
कठिनाई क्या है--एकता होनी ही चाहिए, इस भ्रांति से भी हम
बड़े परेशान हैं। एकता की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए वह कभी नहीं होगी, जब तक आप एकता करते रहेंगे। असल में एकता करने की बात नहीं है। एकता का
होना न होना एक फैक्ट की बात है, और फैक्ट किन्हीं और चीजों
पर जीता है।
अब जैसे--यदि हम लड़के और लड़कियों को प्रेम की सुविधा दे दें, और बिना प्रेम के विवाह बंद कर दें तो आपको एकता-एकता चिल्लानी नहीं पड़ेगी,
एकता हो जाएगी। कोई आपको समझाना नहीं पड़ेगा, क्योंकि
प्रेम करते वक्त कोई नहीं देखता कि कौन मुसलमान हैं, कौन
हिंदू है; विवाह करते वक्त देखता है। कौन मुसलमान है,
कौन हिंदू है, कौन गुजराती, कोई नहीं देखता है प्रेम करते वक्त। तो एक तो हमें बिना प्रेम के मुल्क
में विवाह को समाप्त कर देना चाहिए, अगर भविष्य में हमें कोई
भी ऐसी स्थिति चाहिए जहां कि अनेकता न हो। और मेरा जोर भिन्न है, मैं एकता पर जोर देना ही नहीं चाहता। मैं यह चाहता हूं अनेकता के कारण
क्या हैं, वे नहीं होने चाहिए।
पहला अनेकता का कारण जो मुझे दिखता है, कि इस मुल्क में
विवाह की जो व्यवस्था है, वह अनेकता का आधारभूत कारण है। यह
मिटा दिया जाना चाहिए।। अगर हिंदुस्तान में हिंदू-मुसलमान के बीच शादी चलती होती
तो पाकिस्तान बंट नहीं सकता था और अहमदाबाद में दंगा भी नहीं हो सकता था। अगर
हिंदू लड़कियां मुसलमान घरों में हों, मुसलमान लड़कियां हिंदू
घरों में हों तो कौन, किसको काटने जाएगा; तब न मुसलमान को अलग करना आसान है, न हिंदू को अलग
करना आसान है। इसके बिना पॉलिटिक्स लेवल पर एकता नहीं हो सकती।
तो हिंदू-मुस्लिम के बीच रोटी-बेटी का व्यवहार
होना चाहिए?
बिलकुल ही, हिंदू-मुस्लिम के बीच नहीं, सबके
बीच होना ही चाहिए। असल में जिनके बीच रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं, उनके बीच एकता हो ही नहीं सकती। रोटी-बेटी का व्यवहार रोकने की जो तरकीब
है, वह अनेकता पैदा करने की मूल व्यवस्था है।
यूरोप में बहुत से ऐसे नेशंस हैं, जहां रोटी-बेटी का व्यवहार है, लेकिन यूरोप ने जितने
युद्ध मानवता पर लादे हैं, उतने शायद किसी ने नहीं लादे हैं।
उनके युद्धों के कारण बहुत भिन्न हैं। दंगे और युद्ध में बहुत फर्क
है। और जिन मुल्कों में दो जातियां के बीच रोटी-बेटी का व्यवहार चलता है, उन मुल्कों में जातीय दंगा नहीं हो सकता है। जैसे चीन है--चीन में आप
जातीय दंगा नहीं करवा सकते। कोई उपाय नहीं है। और कोई दंगे नहीं कर रहा! जातीय
दंगे नहीं करवा सकते चीन में। उसका कारण है कि कभी-कभी एक-एक घर में पांच-पांच
रिलीजन के लोग हैं। दंगा करवाइएगा किससे, भड़काइएगा किसको?
बाप कंफ्यूशियस को मानता है, पत्नी, उसकी मां जो है, लाओत्से को मानती है, बेटा मोहम्मद को मानता है, कोई बुद्धिस्ट है घर में,
एक लड़की है--बहू जो है वह। तो चीन में एक-एक घर में कभी-कभी
पांच-पांच धर्म के आदमी भी हैं। इसकी वजह से कनवर्शन नहीं होता। अगर लड़का हिंदू है
और पत्नी मुसलमान है, तो पत्नी मुसलमान होना जारी नहीं रख
सकती। मेरा मतलब समझे न आप? जब एक घर में पांच धर्मों के लोग
हों, तो आप अलग करवाइएगा कैसे? किसके
साथ दंगा करवाइएगा? डिमार्केशन मुश्किल हो जाता है।
हिंदुस्तान में डिमार्केशन आसान है--यह हिंदू है, यह मुसलमान
है, यह साफ मामला है। मुसलमान अगर मरता है तो मेरी न तो
पत्नी मरती है, न मेरी बहन मरती है, कोई
नहीं मरता, मुसलमान मरता है।
आपने बताया था कि राज्य में धर्म होना चाहिए। तो
हमारे मुल्क में अभी की परिस्थिति का ध्यान रख कर कौन सा धर्म होना चाहिए?
जब भी मैं धर्म की बात करता हूं तो मैं अनिवार्य रूप से यह कह रहा हूं
कि कौन सा धर्म, तो धर्म होता ही नहीं। धार्मिकता मेरे लिए एक भीतरी
गुण है। उसका किसी संगठन, किसी संस्था, किसी संप्रदाय से कोई संबंध नहीं है। धार्मिकता को मैं एक इनर क्वालिटी
मानता हूं। और धार्मिक आदमी मुसलमान हो नहीं सकता। और धार्मिक आदमी हिंदू भी नहीं
हो सकता है। असल में धार्मिक होने की वजह से अड़चन हो जाएगी हिंदू-मुसलमान में।
क्योंकि हिंदू और मुसलमान मनुष्यता को तुड़वाते हैं और धार्मिक आदमी किसी से भी
टूटा हुआ अनुभव नहीं करता। तो इसलिए धार्मिकता को मैं एक अलग ही क्वालिटी मातना
हूं, जिसका हिंदू, मुस्लिम और ईसाई से
कोई संबंध नहीं है। तो जब मैं धर्म की बात करता हूं तो मेरा मतलब हमेशा रिलीजस
क्वालिटी से है। धर्म से मेरा मतलब प्रचलित धर्मों से नहीं है।
आपने बताया था कि अपने देश में अभी ज्यादातर पूंजी नहीं होती है और जब
तक पूंजी पैदा न हो तब तक अच्छा नहीं हो सकता देश। तो क्या आपको लगता है कि ज्यादा
पूंजी और जल्दी पूंजी पैदा करने के लिए अपने देश में कोई भी ऐसी पोलिटिकल व्यवस्था
होनी चाहिए, जिसमें हम सबकी पूंजी हो सके। पासिबल। हमारे देश में
अभी जो पोलिटिकल स्थिति है, डेमोक्रेसी की, वह ज्यादा पूंजी पैदा करने में और जल्दी पूंजी करने में अनुकूल है?
बिलकुल अनुकूल बनाई जा सकती है। हम उसका उपयोग नहीं कर रहे हैं। असल
में सिस्टम का भी तो उपयोग करना पड़ता है! डेमोक्रेसी तो बहुत कीमती सिस्टम है, लेकिन उसका उपयोग करना पड़ता है। आपके पास लाख रुपये की कार है, लेकिन उसको भी चलाने के लिए चलाना पड़ता है।
दो कठिनाइयां हैं--एक कठिनाई यह है कि हिंदुस्तान के पास डेमोक्रेटिक
माइंड नहीं है। असल में डेमोक्रेसी उधार चीज है हमारे मुल्क में। हमारे लिए
लोकतंत्र बिलकुल उधार है। हिंदुस्तान का पूरा अतीत का चित्र गैर-लोकतांत्रिक है, नॉन-डेमोक्रेटिक है। यहां राजा भगवान रहा है सदा। यहां प्रजा सदा राजा की
भक्त रही है। यहां प्रजा ने कभी राजा को हटाने की और राजा की जगह स्वयं राजा बन
जाने की कोई कामना प्रकट नहीं की। डेमोक्रेसी मूलतः वेस्टर्न कांटेक्ट है। तो
चूंकि लोकतंत्र की धारणा जड़ों में नहीं है, तो ऊपर तो वह आ
गई है। हमने उसको लीप-पोत कर इकट्ठा कर दिया है, लेकिन
सिस्टम वर्क कर रही है। हमने फैक्ट्री खड़ी कर ली है, लेकिन
वह चलती नहीं है।
तो लोकतंत्र हिंदुस्तान में सक्रिय हो, यह सवाल है। लोकतंत्र
जैसी पोलिटिकल सिस्टम बदले, यह सवाल नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र से बेहतर तो अब कोई सिस्टम अब तक विकसित नहीं हो सका है।
और अगर हम कोई भी सिस्टम दूसरा लाते हैं तो इससे अविकसित होगा। अब लोकतंत्र की
वघकग में कठिनाई पड़ रही है, और कुछ और भी धारणाएं नुकसान
पहुंचा रही हैं। यह मेरा मानना है। गांधी जी की स्वदेशी की एक धारणा भी उसको
नुकसान पहुंचा रही है।
सच्चाई तो यह है कि आज अगर हम इस मुल्क को त्वरित टे्रडली मेकनाइज
करना चाहते हैं, इंडस्ट्रिलाइज करना चाहते हैं, तो
हमें सारी दुनिया की पूंजी को आमंत्रित करना चाहिए। इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं
है। सारी दुनिया से पूंजी आमंत्रित होनी चाहिए। लेकिन हम मरे जा रहे हैं। हम कहते
हैं, कहीं हमारा शोषण न हो जाए।
और मजा यह है कि आज शोषण की इस हमारी धारणा ने हमको बहुत नुकसान दिया
है। अगर अमरीकी पूंजी आई तो अमेरिका हमारा शोषण कर लेगा! मेरी समझ यह है कि अमरीकी
पूंजी अगर हिंदुस्तान में है या अंग्रेजों की पूंजी आती है, कहीं से भी पूंजी आकर हिंदुस्तान में लगती है, तो
स्वभावतः वह पूंजी तुम्हारे लिए कोई खैर-खैरात के लिए नहीं लगने वाली है। वे उस
पूंजी से फायदा उठाना चाहेंगे। फायदा उठाने की आशा में ही वे पूंजी लगाएंगे। तो हम
उनको फायदा पहुंचा सकें, तभी वे पूंजी लगाने वाले हैं। लेकिन
उनके फायदे में हमारा नुकसान नहीं है, हमारा फायदा है। अगर
अमरीकन पूंजी हिंदुस्तान में लगती है और एक लाख आदमी जो बेकार थे, अगर वे काम में लग जाते हैं तो समझ लें, उनसे वे दस
रुपये का काम लेते हैं, और पांच ही रुपया उनको मिलता है और
पांच अमेरिका चला जाता है तो भी हमारा कुछ नहीं खो रहा है क्योंकि हमारे दस ही खो
रहे थे, जब वे एक लाख आदमी बेकार थे।
तो पहली तो मेरी धारणा यह है कि सारी दुनिया से पूंजी आमंत्रित होनी
चाहिए। लेकिन यह तभी आमंत्रित हो सकती है, जब पूंजी सुरक्षित
हाथों में हो। आप जब तक सोशलिज्म की बकवास करेंगे, तब तक
दुनिया की पूंजी हिंदुस्तान में नहीं लगाई जा सकती, क्योंकि
खतरा यह है कि हिंदुस्तान में लगी पूंजी दुनिया में चली जाएगी, बाहर, और जा रही है। हिंदुस्तान का पूंजीवादी सारी
दुनिया के बैंकों में पैसा जमा कर रहा है। क्योंकि आज नहीं कल उसे यहां खतरा हुआ
जा रहा है कि पूंजी छिन जाएगी। बिलकुल ही हमें सारी दुनिया की पूंजी को निमंत्रण
देकर मुल्क का तीव्रता से औद्योगीकरण कर लेना चाहिए।
दूसरी बात--कि हमने इतनी रोक-टोक लगाई है बाहर की चीजों पर, उन बाहर की चीजों पर रोक-टोक के कारण जो ठीक, स्वस्थ
काम्पिटीशन पैदा होना चाहिए, वह नहीं पैदा हो रहा है। इसलिए
एंबेसेडर जैसी सड़ी गाड़ियां, जिसको बैलगाड़ी कहना चाहिए,
वह बीस और बाईस हजार में बिक रही है। अगर आज सारी दुनिया के लिए
बाजार खुला हो तो एंबेसेडर को पांच हजार से ज्यादा में कोई भी खरीदने को राजी नहीं
होगा। अब चूंकि वह बाईस हजार में बिक रही है, बीस हजार में
बिक रही है तो कोई वजह नहीं है कि उसमें किसी तरह का सुधार हो। कोई सुधार की जरूरत
नहीं है, वह पैसा दे रही है। तीनों गाड़ियां हिंदुस्तान की,
चाहे एंबेसेडर हो, चाहे फियट हो, स्टैंडर्ड हो कोई भी पांच हजार से ज्यादा में नहीं बिक सकती है। अब मेरा
मानना यह है कि जब वह पांच हजार में बिकने की हालत में आ जाएंगी, तब काम्पिटीशन शुरू होगा, तब हमें उनमें विकास करना
ही होगा।
दूसरी बात यह है कि कुछ संबंधों में, अगर हम बाहर की पूंजी
हिंदुस्तान में बुला लें तो ऐसा नहीं कि हमको लाभ होगा, बाहर
वालों को भी बहुत लाभ होगा। अब जैसे कि मुझे दिखाई पड़ रहा है कि हमारी सारी की
सारी स्मगलिंग हम ही पैदा करवा रहे हैं। पाकिस्तान में सोने के दाम अगर सौ रुपये
कम हैं और हमारे यहां सौ रुपये ज्यादा हैं तो स्मगलिंग नहीं होगी तो और क्या होगा?
यह स्वाभाविक है। ब्लैक मार्केटिंग हम करवा रहे हैं। सब चीजों के
दाम ज्यादा हो जाएंगे, क्योंकि चीजें कम पड़ती हैं। और मुल्क
को न तो सस्ते में चीजें मिलती हैं, न मुल्क को श्रम करने का
मौका मिलता है, न संपत्ति पैदा करने का मौका मिलता है।
आज दुनिया में कोई भी मुल्क अगर त्वरित रूप से विकसित होना चाहे तो
उसके बाजार दुनिया भर के लिए खुले होने चाहिए और उन्हें सीधे स्वस्थ काम्पिटीशन
में पड़ना चाहिए। मुसीबत पड़ेगी उसमें, लेकिन मुसीबत से
विकास है, सारा प्रसार है।
लेकिन उसकी तकलीफ यह रहेगी कि अगर हम कैप्टेलाइज्ड हो जाएंगे तो हमारे
देश की सब इकोनॉमिकल पावर चंद पूंजीपतियों के हाथ में रहेगी, तो वे लोग गवर्नमेंट पर दबाव ऐसा डालेंगे कि हमारे यहां पर जैसा आप कहते
थे कि राज्य के हाथ में सत्ता रहेगी, तो इसके बदले में
पूंजीपतियों के हाथ में सत्ता रहेगी?
तो कठिनाई क्या है? सत्ता तो सदा ही चंद आदमियों के
हाथों में रहेगी ही। इसका कोई उपाय नहीं है। इसलिए चुनाव यह नहीं है कि चंद
आदमियों के हाथ में रहेगी। इसका कोई उपाय ही नहीं है। यह तथ्य है, इसमें कोई उपाय नहीं है। इसलिए चुनाव यह नहीं है। जो आल्टरनेटिव है,
वह यह है कि सत्ता किन चंद आदमियों के हाथ में रहे? सत्ता चंद आदमियों के हाथ में
रहेगी, यह हमें समझ लेना चाहिए।
अब सवाल यह है कि इस सत्ता को किन चंद आदमियों के हाथ में देना है? क्या उन्हीं चंद आदमियों के हाथ में देना है, जिन
चंद आदमियों के हाथ में राज्य की भी सत्ता है? क्या ये दोनों
सत्ताएं एक ही चंद आदमियों के ग्रुप के हाथ में दे देनी है या विभिन्न। एक।
दूसरा--कि यह जो चंद आदमियों के हाथ में सत्ता है, यह परमानेंट रहेगी या एक लिक्विडिटी की हालत में होगी, बदलती हुई हालत में होगी ये दो सवाल हैं।
मेरा मानना है कि पूंजीवाद या पूंजीपति बदलती हुई व्यवस्था है। अगर आज
हम गौर से देखें तो आज से तीस साल पहले अमेरिका में जो बड़े पूंजीपति थे, आज वे ही परिवार बड़े पूंजीपति नहीं है। दूसरे परिवार भी उसी जगह आ गए हैं।
हमारे यहां तो टाटा और बिड़ला बने हुए हैं।
उसका कारण है। उसका कारण यह है कि पूंजीवाद को हम विकसित नहीं होने दे
रहे हैं। विकसित होने दें, तो यह रोज बदलता रहेगा। इसमें बदलाहट रोज हो जाएगी।
अमेरिका का एग्जांपल आप क्यों ले रहे हैं?
अमरीकन पूंजीवाद अकेला पूंजीवाद का सबूत है। हम कोई पूंजीवादी मुल्क
नहीं हैं। इसलिए उदाहरण अमेरिका का इसलिए ले रहा हूं कि उसने पूंजीवाद को एक तरह
से विकसित किया है। बीस साल पहले जो आदमी था, बीस साल बाद आपको पता
नहीं चलेगा कि कहां गया। नये लोग आ गए हैं। असल में पूंजीवाद एक लिक्विड सिस्टम है
वहां?
लेकिन रॉकफेलर अभी तक है।
ठीक है, इसके कारण हैं। आज रॉकफेलर रहेगा, लेकिन रॉकफेलर उसी हालत में नहीं है, जैसा
अनचैलेंज्ड आज से बीस साल पहले था। आज रॉकफेलर अनचैलेंज्ड नहीं है। रॉकफेलर अकेला
रॉकफेलर है, ऐसा नहीं है। आज पच्चीस रॉकफेलर खड़े हो गए हैं।
अब हमको जो नाम याद रहते हैं, वे पच्चीस साल पहले के हैं।
स्वभावतः क्योंकि यह खयाल तो बनता है वह पच्चीस साल, तीस साल
पुराना होता है। आज कौन आदमी अमेरिका में सबसे बड़ा ताकतवर है, पच्चीस साल लग जाएंगे दुनिया भर में उसके नाम को पहुंचने में, तब तक वह ताकतवर नहीं रह जाएगा।
पूंजीवाद जो है, वह लिक्विड सिस्टम है। उसमें
पूरे वक्त उतार-चढ़ाव हो रहे हैं, क्योंकि उसमें एक नेचुरली
काम्पिटीशन है, जो चल रहा है। फिर जब हम आज रॉकफेलर कहते हैं
या मार्टिन कहते हैं, या फोर्ड कहते हैं, तो ये सिर्फ नाम रह गए हैं। इनकी सारी संपत्ति शेयर होल्डर्स की है। अगर
हम बहुत गौर से देखें तो ये सिर्फ नाम हैं, जिनकी क्रेडिट
है। यह भी हो सकता है कि फोर्ड की कंपनी में फोर्ड के शेयर ज्यादा हैं, लेकिन सारे मुल्क के शेयर हैं। तो धीरे-धीरे अमेरिका में जो है, अपने आप एक ग्रेटर शेयरिंग होता जा रहा है, जिसमें
नाम प्रतीक भर रह गए हैं, और उनका कोई मतलब नहीं रह गया।
फोर्ड के नाम का मूल्य है। आज नई कार चलाइए तो उसका उतना मूल्य नहीं होगा, उसको काम्पिटीशन में खड़ा होना पड़ेगा। फोर्ड के नाम की इज्जत है, कार फोर्ड के नाम से चलेगी। फोर्ड की कंपनी को भी मेनेज करने वाले लोग रोज
बदलते जा रहे हैं और फोर्ड की कंपनी के डायरेक्टर्स भी रोज बदलते जा रहे हैं।
मालकियत रोज घूम रही है हाथों में, लेकिन वहां मालकियत स्थिर
नहीं है। हिंदुस्तान में स्थिर है, क्योंकि काम्पिटीशन नहीं
है। और हिंदुस्तान के टाटा, बिड़ला और डालमिया, साहू या कोई और स्थिर हैं।
अमेरिका के आयुध के कंट्रेक्टरों ने और आयुध
कंपनी के मालिकों ने सेकेंड वर्ल्ड-वॉर करवाई है?
यह जो हमारा खयाल है, यह बहुत जटिल मामला है। यह इतना
आसान नहीं है कि हम एक कॉज को पकड़ कर उनको बता दें। यह बहुत जटिल मामला है और एक
नहीं हजार कारण हैं। और मजा तो यह है कि जैसा आदमी है अभी, अगर
कोई भी कारण न हो--तो इसलिए लड़ना शुरू होता गया कि अब कोई भी कारण नहीं है। आदमी
की जो स्थिति है, वह स्थिति लड़ने के लिए बहुत ही पुनरुक्त
है। और हजार कारण हैं, कोई एक कारण नहीं है उसमें। उसमें
पूंजीपति का हाथ है, उसमें मजदूर का हाथ है, उसमें राजनीतिज्ञ का हाथ है, उसमें महात्मा का हाथ
है, उसमें फोर्ड का हाथ है, उसमें हम
सबके हाथ हैं। असल में मेरे हिसाब से वॉर जो है, वह मनुष्य
के टोटल-माइंड से पैदा होती है। वह कोई एक कारण से नहीं है।
आप जो कंपेरिजन दे रहे हैं, खास करके आप सोशलिज्म वर्ड भी इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन
मेरे खयाल से जो आप उदाहरण दे रहे हैं, वह जो भारतीय करते
हैं, वह कम्युनिस्ट सोसाइटी के लिए ठीक होता?
बड़े मजे की बात यह है। असल में सोशलिज्म, कम्युनिस्ट शब्द धीरे-धीरे बदनाम हो गया। और कम्युनिस्ट शब्द ने धीरे-धीरे
एक तरह का कनोटेशन ले लिया है, इसलिए कम्युनिज्म भी सोशलिज्म
की भाषा बोल रहा है। वह सिर्फ डाइल्यूट कम्युनिज्म है, और
कुछ भी नहीं है। अगर इसको बहुत गौर से देखें तो मजा यह है--अब जैसे कि यू.एस.आर.
है, वे भी सोशलिस्ट शब्द का उपयोग कर रहे हैं अपने मुल्क के
लिए और मैं समझता हूं कि कम्युनिस्ट शब्द उपयोग नहीं कर रहे हैं--यूनियन ऑफ
सोशलिस्टिक रिपब्लिकंस। वह भी कम्युनिज्म का उपयोग नहीं कर रहे हैं, वह भी सोशलिस्ट हैं! हिटलर था, वह भी नेशनलिस्ट,
सोशलिस्ट-पार्टी थी। वह भी सोशलिस्ट है। इंग्लैंड की लेबर पार्टी भी
सोशलिस्ट है, स्कैंडेनेवियन भी सोशलिस्ट हैं। लेकिन सच्चाई
यह है कि जब एक शब्द बहुत कीमत का मालूम पड़ने लगता है तो हजार लोग उसका उपयोग करने
लगते हैं और हजार फेड हो जाते हैं।
लेकिन इंग्लैंड सोशलिस्ट नहीं था लेबर पार्टी के नीचे। वह मिक्स्ड
इकोनॉमी है। न स्कैंडेनेविया सोशलिस्ट है, वह भी मिक्स्ड
इकोनॉमी है। आज अमेरिका सोशलिस्ट शब्द का उपयोग करने लगे तो बस एकदम शब्द ठीक हो
जाएगा। लेकिन अमेरिका भी मिक्स्ड इकोनॉमी है। असल में कैपिटलिज्म शब्द का उपयोग
करना भी ठीक नहीं है बहुत। क्योंकि जितनी कैपिटलिस्ट कंट्रीज हैं, वे सब मिक्स्ड इकोनॉमी हैं। मिक्स्ड इकोनॉमी जहां भी है, उसको मैं कैपिटलिस्ट कहता हूं। और जहां अनमिक्स्ड इकोनॉमी है, और बेसिकली उन्होंने जहां पर पूंजीपति को खतम किया है, उनको मैं सोशलिस्ट कह रहा हूं। और जब कोई बात करनी हो तो पच्चीस शेप की
अगर हम बात करें तो बात करनी बेमानी हो जाती है।
तो मेरे लिए डिमार्केशन साफ है। कैपिटलिस्ट कंट्री मैं उसको कह रहा
हूं कि जिस समाज या शासन व्यवस्था में शासन ने सारी ओनरशिप नहीं ले ली है, ने लेने की इच्छा रखता है और जहां व्यक्तिगत पूंजी के लिए स्वतंत्रता है,
उसके फैलाव का उपाय है। जहां राज्य मालिक नहीं बन गया है, इंडिविजुअल ओनर्स हैं। राज्य ओनर नहीं है। और सोशलिस्ट शब्द मैं उसके लिए
कह रहा हूं जहां स्टेट ने ओनरशिप ले ली है, लेने की कोशिश
में है, या लेने की योजना बना रखी है, वह
सारी ओनरशिप ले लेगी। शेप तो पच्चीस हैं, लेकिन पच्चीस शेप
सिर्फ कंफ्यूज करते हैं और कुछ भी नहीं करते। और जब हमें कोई बात साफ हो तो हमें
दो सेट साफ बांट लेने चाहिए। ब्लैक-व्हाइट को सीधा हम बांट लें तो ही चर्चा हो
सकती है। अगर हम एक ही बात करें तो चर्चा मुश्किल हो जाती है। कैपिटलिज्म के भी
सेट्स हैं।
क्या आप ऐसा नहीं समझते कि, "स्टेट मस्ट बी डिजाल्व अवे'?
स्टेट जो है, वह मैं आशा करता हूं कि एक वक्त आना चाहिए जो
धीरे-धीरे क्षीण होती जाए। लेकिन ऐसा मैं नहीं सोच पाता कि कभी ऐसा वक्त आएगा कि
स्टेट विदर अवे हो जाएगी। स्टेट के फंक्शंस बदलते जाएंगे, लेकिन
स्टेट रहेगी। क्योंकि स्टेट जो है, उसके कुछ बुनियादी
फंक्शंस हैं, जो कभी भी समाप्त नहीं किए जा सकते। स्टेट विदर
अवे हो सकती है एक ही अर्थ में--वह यह, इस अर्थ में कि अगर
तीसरा महायुद्ध हो जाए और हमारे जीवन की सारी कांप्लेक्सिटी खतम हो जाएं और हम
आदिवासी की हालत में आ जाएं तो स्टेट विदर अवे हो सकती है, क्योंकि
तब स्टेट का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। स्टेट को एक कांप्लेक्स सोसाइटी की जरूरत है।
अब जब पचास करोड़ आदमी एक मुल्क में रह रहे हैं तो बिना स्टेट के काम नहीं चल सकता।
लेकिन मेरी अपनी समझ यह है कि एज़ ए पॉलिटिकल बॉडी, वह
धीरे-धीरे कमजोर होती जानी चाहिए। एज़ ए फंक्शनल बॉडी, वह
धीरे-धीरे मजबूत होती जानी चाहिए।
अब जैसे रेलवे है या पोस्ट ऑफिस है, अब ये स्टेट के
फंक्शंस रहेंगे। या पुलिस है, स्टेट का फंक्शन रहेगा। किसी
दिन मिलिटरी भी खतम हो सकती है, अगर नेशंस खतम हो जाएं।
लेकिन पुलिस खतम नहीं हो सकती है। पुलिस को तो स्टेट को रखना ही पड़ेगा और वह भी
इंटर-इंडिविजुअल रिलेशनशिप का मामला है। कोई आदमी किसी औरत को लेकर भागता ही
रहेगा। मैं नहीं सोचता कि ऐसा कोई वक्त आ जाएगा कि पड़ोसी की औरत पसंद नहीं पड़ेगी।
आशा हम कर सकते हैं। आशा हम कर सकते हैं कि स्टेट का फंक्शन धीरे-धीरे क्षीण होता
जाए, बट इन ए एब्सल्यूट सेंस, स्टेट
कैन नाट बी आउट ऑफ एक्झिस्टेंस। एज़ ए लेसर इवल, लेस एंड लेस
फंक्शनल इतना ही होगा और यह होना चाहिए।
आपने ध्यान के लिए साधकों को जो कुछ सूचनाएं दी
थीं बदन को थका देने की। कुछ लोग ध्यान की ऐसी शिक्षा देते हैं कि वहां बदन को
थकान नहीं आती है। और विचार के मूल में जाएंगे तो अपने ध्यान में आ जाएंगे। क्या
यह काम जरूरी है?
बिलकुल ही जरूरी है। उसके कारण हैं। यानी जैसे आप हैं, तो आपकी जो मौजूदा मन की स्थिति में ध्यान के विपरीत बहुत से एलिमेंटस
मौजूद हैं। जैसे एंजायटी मौजूद है, टेंशंस मौजूद हैं,
सप्रेशंस मौजूद हैं, इन्हीबीशंस मौजूद रहती
है। इनकी मौजूदगी आपको विचार के मूल बिंदु तक नहीं जाने देगी। इनकी मौजूदगी परे
वक्त इनर डिस्टर्बेंस पैदा करती रहेगी। आप सब कोशिश करेंगे, लेकिन
बीच-बीच में कि हम नहीं करेंगे, और इसलिए यह वर्षों और जीवन
की लंबी यात्रा होगी, जिसमें कि आप आशा नहीं रख सकते कि इसी
जन्म में ध्यान हो जाएगा। मैं जो कर रहा हूं उसमें दोहरी प्रोसेस है। पहली प्रोसेस
कैथार्सिस की है। पहली प्रोसेस जो तीस मिनट की है, उसमें
आपमें जो भी इनर हिंड्रेंसेज संभव हैं, उसको अलग करने की
कोशिश करें। ध्यान की अभी हम फिक्र ही नहीं कर रहे हैं। यानी मामला ऐसा है कि घास
उगी है, मैंने जाकर बीज फेंक दिया। एक तो यह स्थिति है और
बहुत संभावना है कि घास बीज को पचा जाए। और दूसरी स्थिति है कि पहले हम घास साफ
करते हैं, जमीन साफ करते हैं, फिर जड़ें
उखाड़ कर फेंक देते हैं, जमीन तैयार कर देते हैं, बीज डाल देते हैं।
तो मेरा मानना है कि जैसी मौजूदा आपकी हालत है। बिलकुल ऐसी ही जमीन की
है, जिसमें घास हजारों साल से चल रहा है। इसमें बीज फेंकना बेमानी है और सिर्फ
नासमझ माली होने की खबर देता है। इसकी सफाई बहुत जरूरी है। इसीलिए मैं सीधा शुरू
करना पसंद नहीं करता। पहली प्रोसेस रेचन की है, कैथार्सिस की
है। उसमें तीन चरणों में आपको सब तरह से हलके, शांत होकर
हिंडें्रसेज को तोड़ डालना है। और जब एक दफा आप हलके और शांत हो गए तो आप तत्काल
पाते हैं कि आपका प्रवेश हो गया। उसे करना नहीं पड़ता। और दूसरी जितनी प्रक्रियाएं
हैं, उनमें आपको प्रवेश करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में
प्रवेश होगा। चौथी जो स्टेज है, दिस इज़ नॉट ए स्टेप, दिस इज़ ए हैपनिंग। तीन काम आपको करना होगा, चौथा
होगा।
और मैं मानता हूं, जो ध्यान आप करेंगे, वह आपसे ज्यादा कीमती नहीं हो सकता है। जो ध्यान आप लाएंगे, वह आप ही लाएंगे न, आपका माइंड, आपकी कंडीशनिंग, आप, आपकी सब
बीमारियां, रोग, चिंताएं, वेग। जिस मेडिटेशन को आप लाएंगे, वह बहुत कीमती नहीं
हो सकता, वह आपकी ही बाइ-प्रॉडक्ट होगा। तो मैं उस मेडिटेशन
की कीमत मानता हूं जो आता है आपके ऊपर। आप तो सिर्फ ओपनिंग में होते हैं। आपका कोई
एफर्ट नहीं है।
जो तीन एफर्ट हैं, वे सिर्फ सफाई के हैं, निगेटिव हैं। पाजिटिव एफर्ट आपको करना नहीं है। वह होगा। और इसलिए बेसिकली
फर्क है उनमें। और उस प्रोसेस में तो कई जन्म लग जाएं, फिर
भी पक्का नहीं है। बड़ी कठिनाई यही है। अब जैसे महेश जी का जो मामला है, जिसे वे ध्यान कह रहे हैं, वह ध्यान नहीं है। वह
सिर्फ जप है। तो उसका परिणाम जो है, वह ज्यादा से ज्यादा
तंद्रा का है, वह ऑटो हिप्नोसिस है, उससे
ज्यादा नहीं है। अगर आप एक शब्द को बोलना शुरू करते हैं रिपीटेटिवली, तो वह आपके भीतर एक तरह की हिप्नोसिस पैदा करता है। वह ट्रांजिटरी नीड है।
मेरा जो प्रयोग है इसमें, और उनके प्रयोग में अगर हम फर्क
करें तो उनका प्रयोग जस्ट लाइक ए ट्रेंक्वेलाइजर, और मैं
जिसे कह रहा हूं, जस्ट लाइक एन एक्टिवाइजर है, क्योंकि मेरे प्रयोग में तो आप हिप्नोसिस में तो जा नहीं सकते, क्योंकि इतनी एक्टिव प्रोसेस है कि बेहोश तो हो नहीं सकते, नींद आ नहीं सकती। इतनी गहरी श्वास ली है, इतना शरीर
नाचा और कूदा है और इतने जोर से आपने "मैं कौन हूं' पूछा
है, यह इतनी एक्टिव प्रोसेस है कि इसमें तंद्रा नहीं आ सकती।
बड़े मजे की बात है यह जो थकान है न, टेंशन की थकान है। और
जब आप पूरे टेंस हो जाते हैं--पूरे टेंस हो जाते हैं और पूरे टेंशन से वापस
रिलैग्जेशन में लौटते हैं, वह तो लौटेंगे ही। तो यह जो वापस
लौटती है, इतनी फ्रेशनेस से भरी होती है, जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि इसके पहले पूरी एक्टिविटी है।
जैसे आप बहुत खेल कर थक तो जरूर जाते हैं, लेकिन फ्रेश हो
जाते हैं।
यह ध्यान की स्थिति हिप्नोसिस से आगे की है कि
पीछे की?
बहुत आगे की है।
आपने कहा कि जो लोग सोशलिज्म की बात कर रहे हैं, वे लोग अपने देशवासियों को एक आधार दे रहे हैं कि कुछ होगा, कुछ होगा। अपना मतलब निकाल लेते हैं, मगर व्यावहारिक
भूमिका पर देखें तो नेशनलाइजेशन और जो भी हमारा ट्रेड और कामर्स गवर्नमेंट ले लेती
हैं, उसके बारे में रिजल्ट से फायदा होता है।
मेरी समझ में ऐसा नहीं होता है। मेरी समझ में ऐसा है कि राज्य के हाथ
में व्यापार-वाणिज्य आ जाए तो राज्य के हाथ में दोहरी शक्तियां हो जाती हैं और
राज्य के डेमोक्रेसी से हट कर डिक्टेटोरियल हो जाने की संभावना बन जाती है।
क्योंकि राज्य के हाथ में सब है--राज्य की ताकत तो है ही, धन की भी है और दो ही ताकतें हैं। अगर राज्य के हाथ में सेंट्रलाइजेशन हो
जाए, देश की सभी ताकतें हों तो अपने आप तानाशाही बैठने लगती
है। और जितनी बड़ी मात्रा में तानाशाही बैठती है, उतनी बड़ी
मात्रा में व्यक्तिगत स्वतंत्रता चिंतन की, विचार की,
अभिव्यक्ति की वह सब कम होने लगती है। तानाशाही पहले तो भली मालूम
पड़ेगी। जिसको बैंक से लोन नहीं मिलता--लेकिन यह तो बिना राज्य के लिए भी हो सकता
है। यह तो राज्य नियमन कर सकता है, कि बैंक जनता को इस भांति
लोन दे। इसके लिए नेशनलाइजेशन जरूरी नहीं है। यह जनता के लिए अधिक सुविधाएं मिलें,
इंडस्ट्रीज को ज्यादा सुविधाएं मिलें, मजदूर
को ज्यादा वेलफेयर मिले यह तो राज्य नियमन कर सकता है और इस नियम को लागू किया जा
रहा है या नहीं किया जा रहा है, इसकी चिंता कर सकता है।
लेकिन इसके लिए स्वयं राज्य को सारी सत्ता हाथ में देने की कोई जरूरत नहीं है।
टे्रफिक पर एक आदमी खड़ा किया हुआ है रास्ते पर। वह इसलिए खड़ा किया हुआ
है, वह देखे कि कारें बाएं से गुजरती हैं कि नहीं गुजरती हैं। इसलिए टे्रफिक
के आदमी को सब कारों की मालकियत देने की जरूरत नहीं है। और उसे देखना चाहिए कि कौन
आदमी गुजर रहा है ठीक से, कौन नहीं गुजर रहा है, लेकिन फिर भी वह इन सारे लोगों की सुविधा के लिए वहां है। वह इनका मालिक
होने के लिए वहां नहीं है कि कल वह धीरे-धीरे कहने लगे कि चूंकि गड़बड़ होती है बहुत,
इसलिए सब कारों की मालकियत मैं लिए लेता हूं, सब
आदमियों की मालकियत मैं ले लेता हूं। अब कोई गड़बड़ न होगी, क्योंकि
मालिक भी मैं हूं, टे्रफिक का आदमी भी मैं हूं।
राज्य का फंक्शन ही यह है कि राज्य का प्रत्येक व्यक्ति जो कर रहा है, वहां उसे स्वतंत्रता से कर सके, लेकिन वह किसी को
नुकसान न पहुंचा सके, इसके लिए राज्य का निर्माण है। लेकिन
धीरे-धीरे राज्य सब एब्जार्ब करना चाहता है और वह कहता है कि नहीं तुम जो करते हो,
वह भी हम करेंगे, तुम जो कमाते हो, वह हम कमाएंगे। बीच का जो मध्यस्थ है, उसको अलग करके
हम ही सीधी ओनरशिप ले लेते हैं।
इसलिए सोशलिज्म का गहरा मतलब तो स्टेट कैपिटलिज्म ही होता है कोई और
मतलब होता नहीं। सोशलिज्म का मतलब यह नहीं होता कि सोसाइटी की संपत्ति होगी।
सोशलिज्म का मतलब होगा, स्टेट की संपत्ति होगी। सोसाइटी है कहां? सोसाइटी ने नाम पर स्टेट मालकियत ले लेती है। तो एक दफा अर्थ का तंत्र
राज्य के हाथ में चला जाए तो देश की सारी संभावनाएं स्वतंत्रता की, लोकतंत्र की, लोकतंत्र की सब समाप्त होती हैं। फिर
राज्य जिनके हाथ में है, उनको हटाने का उपाय कठिन हो जाता
है।
दूसरे मजे की बात है कि, जैसे ही व्यक्तिगत
संपत्ति छिन जाए, वैसे ही, उसी दिन
आपके भीतर से कोई निन्यानबे प्रतिशत शक्ति छिन जाती है। और आपके भीतर से व्यक्तित्व
भी छिनता है। धीरे-धीरे मुल्क एक आटोमेटा, एक यंत्रों का
समूह रह जाता है। उसको खाना भी मिलता है, कपड़े भी मिलते हैं,
काम भी मिलता है, लेकिन उसकी आत्मा, उसका व्यक्तित्व, वह सब का सब छिन जाता है। तो मैं
मानता हूं कि अंततः तो नुकसान है। तो नुकसान जब पहुंचाना होगा तो थोड़े बहुत फायदे
भी पहुंचाने पड़ते हैं। एकदम से आप नुकसान नहीं पहुंचा सकते। क्योंकि मछली को अगर
कांटे में फंसाना हो तो आटा लगाना ही पड़ता है। कांटे का यही फायदा है।
मैं सवाल यह कर रहा था कि नेशनलाइजेशन के बारे
में, कि अभी अपने देश में बड़ी संख्या में गरीब लोग हैं।
क्या उनको तात्कालिक कोई भी राहत नहीं दे सकते हैं हम? यदि
दे सकते हैं तो किस तरह दे सकते हैं?
तात्कालिक राहत दी जा सकती है। दो-चार बातों का खयाल करना पड़े--एक तो, जनसंख्या कुछ सख्ती से रोक देना पड़े, बढ़ती जनसंख्या
को। नहीं तो हम कोई भी सहायता पहुंचेगी नहीं। और हम कितना ही इंतजाम करें, हम जितना करेंगे, लोग उससे सदा ज्यादा हो जाएंगे और
तकलीफ वही रहेगी बढ़ती जाएगी। तो एक तो जनसंख्या इस समय सबसे बड़ा सवाल है। और इन
जनसंख्या को जितनी ताकत से हम रोक सकें, उसको रोकना चाहिए।
सब तरफ से हमले करने चाहिए।
जैसे मेरा मानना है कि इसको स्वेच्छा पर नहीं छोड़ना उपाय है। स्वेच्छा
से नहीं छोड़ा जा सकता है। यह कंपलसरी होना चाहिए। यह वैसे की कंपलसरी होना चाहिए, जैसे चोरी न करने को हम कंपलसरी रोकते हैं। डाका न डालने को कंपलसरी रोकते
हैं। सारा उपयोग करना पड़ेगा हमें, हमें सारा उपयोग करना पड़े।
यह तो अनिवार्य हो जाना चाहिए। दूसरा, जो लोग भी दंडित होते
हैं, जिनको इस किसी तरह का दंड देते हैं, उनके दंड के साथ यह अनिवार्य रूप से होना चाहिए। एक आदमी को हम छह महीने
की सजा देते हैं, तो अनिवार्य रूप से उसका पालन होना चाहिए।
हमारे जेल से तो एक आदमी बाहर नहीं आना चाहिए।
यह एक तो पहला प्रिवेंशन हो कि हम जनसंख्या को रोकने की कोशिश करें।
दूसरी बात है कि मुल्क के पास बहुत से साधन हैं जो अभी अनएक्सप्लाइटिड हैं। मिसाल
के तौर पर समुद्र है। समुद्र से बहुत सा भोजन निकाला जा सकता है। तो अब जमीन की ही
फिक्र करते हैं तो हम भूल में पड़ेंगे और हम जमीन को ही खाद डालते हैं तो कुछ होने
वाला नहीं है। असल में जमीन की ताकत चुक गई है। हिंदुस्तान ने जमीन को वापस कुछ
नहीं दिया है हजारों साल तक, इसलिए जमीन की ताकत चुक गई है।
जमीन पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। हमें समुद्र से फिक्र करनी पड़े, हमें हवा से फिक्र करनी पड़े, हमें सूरज की किरणों से
फिक्र करनी पड़े और हमें सिंथेटिक फूड की फिक्र करनी पड़े, जो
सबसे बड़ी जरूरत है। जब तक हम सिंथेटिक फूड की फिक्र करनी पड़े, जो सबसे बड़ी जरूरत है। जब तक हम सिंथेटिक फूड की फिक्र न करें, तब तक हम शायद कोई मामला हल न कर पाएं। बजाय इसके कि हम रोटी देने की
फिक्र करें, हमें गोली देने की फिक्र न करें, तब तक हम शायद कोई मामला हल न कर पाएं। बजाय इसके कि हम रोटी देने की
फिक्र करें, हमें गोली देने की फिक्र करनी पड़े। और गोली ही
अब इस मुल्क को बचा सकती है। भोजन नहीं बचा सकता है। तो हमें भोजन की आदतें छोड़नी
पड़ें, तो हमें गोली की आदत पर निर्भर होना पड़े।
आप समुद्र से जो भोजन की व्यवस्था की बात कर रहे
हैं, तो जैन धर्म है, वैष्णव धर्म है
और बुद्ध धर्म है, वे लोग तो मांस के विरुद्ध हैं?
नहीं-नहीं, मैं मांस की बात नहीं कर रहा हूं। असल में समुद्र के
पानी में बहुत तत्व हैं, जो भोजन बनाए जा सकते हैं, जिन पर काफी काम चल रहा है।
बड़ा महंगा होगा?
इतना महंगा नहीं है कि जितना महंगा इतने लोगों का भूखों मरना है। और
इतना महंगा भी नहीं, जितना हम जमीन पर ही कोशिश करके कर रहे हैं। असल में
मेरा कहना यह है कि हमारा माइंड डायवर्ट होना चाहिए, हम
सिर्फ भोजन की ही फिक्र में लगे रहें कि उत्पादन बढ़ाएं, ट्रेक्टर
लाएं, फर्टिलाइजर डालें, इससे अब कोई
बहुत हल होने वाला नहीं है। जमीन बड़ी चुकी हुई और चूसी हुई है हमारी।
हमारी सरकार ने समुद्र से भोजन निकालने के लिए
नॉन-वेजिटेरिअन फूड तो सबके लिए निकाले हैं।
मैं तो उसके भी पक्ष में हूं, वह तो निकालें ही।
मैं उनके विपक्ष में नहीं हूं, क्योंकि मेरे सामने सवाल ये
नहीं हैं। मेरे सामने सवाल यह है कि मछली बचे कि आदमी बचे। बड़ा सवाल यह है नहीं कि
हिंसा और अहिंसा--बड़ा सवाल यह है कि कम हिंसा या ज्यादा हिंसा। जिंदगी में जो सवाल
हैं, वह रिलेटिव हैं। एब्सल्यूट सवाल होते ही नहीं। इसलिए जो
जैन मुनि यह कह रहा है कि मछली को मत मारो, वह कह रहा है कि
आदमी को मारो। और मेरे सामने सवाल अगर मछली और आदमी बचाने का है, अगर गेहूं मिलते हों तो मैं मछली बचाने को राजी हूं। लेकिन अगर आल्टरनेटिव
मछली और आदमी में बचाने का है तो मैं मछली को मारूंगा। तो मैं तो कहता हूं,
मछली खाएं, मांस खाएं। मैं यह कह रहा हूं,
आदमी मरेगा अगर नहीं खाते हैं। और जो कह रहा है कि मत खाओ, वह आदमी को मारने के लिए जिम्मेदार होगा वह बड़ी हिंसा कर रहा है। इसलिए इस
वक्त जैन साधु या बौद्ध भिक्षु जो समझाते हों, या गांधीजी के
अनुयायी अगर समझाते हों कि मांसाहार मत करो तो वह आदमी को मारने की तैयारी करवा
रहे हैं, तो हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है। मछली बच जाएगी,
आदमी मर जाएगा। और तब हिंसा बड़ी होगी या छोटी होगी, यह हमें सोच लेना चाहिए।
तो मेरे लिए जिंदगी में सवाल हमेशा रिलेटिव है। सवाल यह नहीं है कि
हिंसा और अहिंसा, सवाल यह है कि कम हिंसा या ज्यादा हिंसा। हमेशा ऐसा
ही सवाल है। तो मैं सदा कम हिंसा के लिए राजी हूं और आदमी को बचाना ही कम हिंसा
है। मछली को बचाना ज्यादा हिंसा है। इसलिए यह जो चुनाव है मेरे लिए रिलेटिव है और
मैं इसके लिए तैयार हूं कि मछलियां पैदा करें बड़े पैमाने पर, खाएं भी बड़े पैमाने पर। हां, जरूर हम बात की
प्रतीक्षा करें कि हम एक नेसेसरी ईविल कर रहे हैं--मछली को तो भी मार रहे हैं--तो
कल हम एक इंतजाम कर लें, जिसमें मछली को मारना जरूरी न रह
जाए। लेकिन जब तक वह इंतजाम न होगा, तब तक आदमी को तो बचा
लें अंत में इंतजाम तो यही हो कि मछलियां न मारी जा सकें।
बहुत से अनएक्सप्लाइटिड सोर्सेस की हमें फिक्र लेनी चाहिए। और दूसरी
सिंथेटिक फूड की हमें सबसे ज्यादा चिंता लेनी चाहिए।
और इकोनॉमी इकोनॉमिक सिस्टम के बारे में क्या
करें?
इकोनॉमिक सिस्टम मेरे लिए कैपिटलिज्म ही उचित मालूम पड़ता है अभी। तो
सौ वर्ष इस मुल्क को ठीक ढंग से कैपिटलिज्म की तरफ ले जाने की फिक्र करनी चाहिए, और वह फिक्र हो सकती है। असल में लोग अभी भी सामंतवादी हैं। अभी भी
सामंतवादी राजा नहीं है, लेकिन सामंतवादी स्ट्रक्चर है मुल्क
का आज। आज भी गांव का आदमी उसी ढंग से जी रहा है, जो हजार
साल पहले जीता था। वह सिर्फ स्ट्रक्चर सामंतवादी का था। सामंतवादी स्ट्रक्चर जीता
है कृषि पर, पूंजीवादी जीता है उद्योग पर। और हमें कृषि से
शिफ्ट करना पड़े उद्योग की तरफ। और हमें कृषि का भी औद्योगीकरण करना पड़े। इसलिए मैं
सिंथेटिक फूड की बात कर रहा हूं। मैं कह रहा हूं, हम उसे खेत
में न पैदा करें, फैक्टरी में पैदा करें। उसको हम जितने
जल्दी ला सकें, ले आएं।
चौथी बात समझने जैसी है, वह यह है कि हम लंबी
योजनाएं बना रहे हैं, वे लंबी योजनाएं जो पांच या दस-बीस साल
में सक्रिय हों, शायद दस-बीस साल में मुल्क इतने प्रॉब्लम
बना लेगा कि वह कभी सक्रिय नहीं हो पाएंगी या सक्रिय भी होंगी तो मुल्क इतनी बड़ी
जनसंख्या पैदा कर लेगा कि मामला वहीं का
वहीं रह जाएगा, उससे कुछ हल नहीं होगा। तो इस वक्त मुल्क को
बड़ी योजनाओं में, आगे की, भविष्य की
योजनाओं में सक्रिय करने की बजाय इमिजिएट योजनाओं में सक्रियता लाने की फिक्र करनी
चाहिए। पांच साल की नहीं, पंद्रह दिन वाली योजना में
सक्रियता लाने की फिक्र करनी चाहिए। चार-पांच साल में हमें पचास योजनाएं बनानी
पड़ेंगी। और पंद्रह दिन वाली योजना में सक्रियता लाने की फिक्र करनी चाहिए।
चार-पांच साल में हमें पचास योजनाएं बनानी पड़ेंगी। और पंद्रह दिन की योजना ही इस
मुल्क को इनसेंटिव दे सकती है। क्योंकि इस मुल्क की लिथार्जी इतनी गहरी है कि पांच
साल तक की हम सोच ही नहीं पाते।
अब जैसे--गांव में अगर हम कोई काम पांच साल या पच्चीस साल आगे की
योजना के खयाल से कर रहे हैं। पच्चीस साल बाद फायदा होगा, निश्चित फायदा होगा। लेकिन गांव को जरूरत आज है। तो बजाय इसके कि आप
पच्चीस साल बाद जो फैक्ट्री काम करेगी, उसको बनाएं, पंद्रह दिन बाद जो फैक्ट्री काम कर सकेगी, उसको
बनाने की फिक्र करें और लांग टर्म योजनाएं जो हैं, उनको
सेकेंड्री इंपोर्टेंस दें। शार्ट टर्म योजनाओं को प्राइमरी इंपोर्टेंस दें।
इसीलिए गांधीजी ने कहा था कि तुम तकली चलाओ और कल
की रोटी कल पैदा कर लो।
गांधीजी की तकली चलाने का जो मामला है न, तकली चलाने के साथ मजा यह है कि जितनी देर में तकली चलाई जाती है, उतनी देर में शॉर्ट टर्म योजना बहुत रुपया पैदा कर सकती है। गांधीजी तो
यंत्र विरोधी व्यक्ति हैं। मैं नहीं कहता कि तकली मत चलाओ, मैं
नहीं कहता। कुछ भी कहीं कर सकते हो तो तकली चलाओ। यह मैं कभी नहीं कहता कि तकली मत
चलाओ। लेकिन तकली चलाने को जिंदगी का सेंट्रल फोर्स अगर बनाने की कोशिश की जाए,
और गांधीजी वही कोशिश कर रहे हैं। उनका सारा अर्थशास्त्र तकली के
आस-पास केंद्रित है। उसके मैं खिलाफ हूं। मैं कहता हूं आदमी फुर्सत में बैठा है,
ताश खेलने की बजाय तकली चलाए तो बेहतर है। लेकिन आप एक आदमी के तकली
चलाने को उसकी इकोनॉमी का केंद्र बना रहे हों तो आप खतरनाक बातें कर रहे हैं। आप
उस आदमी को मार डालेंगे, गरीबी में डाल देंगे।
हमें छोटे यंत्र विकसित करने चाहिए। हम छोटे यंत्र विकसित कर सकते
हैं। अब कोई जरूरत नहीं कि आदमी तकली हाथ से चलाए। छोटा करघा हो सकता है जो बिजली
से चले। आदमी देख-रेख करे और जितने दिन में तकली चला कर अपने लिए पैदा करता है, उतने दिन में पांच हजार के लिए पैदा करे। इस मुल्क के लिए जापान और इजरायल
की तरह ध्यान देना चाहिए। जो यंत्र विरोधी नहीं हैं, लेकिन
छोटे यंत्रों में बड़ी गति कर रहे हैं। इस मुल्क को अमेरिका की तरफ ध्यान देने से
थोड़ा सावधान रहना चाहिए, यंत्रों का जहां तक संबंध है। पचास
साल बाद हम अमेरिका के यंत्रों का ठीक से उपयोग कर सकेंगे। आज हमें फिक्र करनी
चाहिए उन मुल्कों की जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, लेकिन फिर भी जो यंत्र पक्षपाती हैं और वे यंत्रों के प्रयोग से, छोटे यंत्रों के प्रयोग से आगे बढ़ रहे हैं। जैसे कि इजरायल है। इजरायल ने
इधर जो बीस साल में काम किया, वह आंखें खोल देने जैसा है। उस
काम को हम कर सकते हैं। हमारे पास ज्यादा सुविधा है, इतनी
सुविधा उनके पास नहीं है। लेकिन हमारे पास समझ कम है।
तो क्या आपका खयाल है कि जो बड़ी इंडस्ट्री डाली
गई हैं, वह अपने हित में नहीं हुई हैं?
नहीं-नहीं, मैं यह नहीं कहता कि हित में नहीं रही। मेरा कहना यह
है कि बड़ी इंडस्ट्री जरूर डालें, लेकिन वह सेकेंड्री
इंपोर्टेंस हों, क्योंकि मुल्क के प्रॉब्लम इमिजिएट हैं।
इंडस्ट्री डालनी तो पड़ेगी, नहीं तो बीस-पच्चीस साल बाद हम और
दिक्कत में पड़ जाएंगे। बड़ी इंडस्ट्री हमें डालनी ही पड़ेगी। लेकिन सबसे ज्यादा
इंपोर्टेंस--क्योंकि जो इंडस्ट्री बड़ी है, वह पांच साल बाद
काम करेगी और आदमी आज भूखा मर रहा है। यह तो आज मरते भूखे आदमी के लिए हमें कुछ
फिक्र करनी ही पड़ेगी, जो आज की तात्कालिक काम करती हो।
फर्स्ट इंपोर्टेंस इसको हो, इसकी ताकत से जो हमको ताकत मिले,
वह सेकेंड्री इंपोर्टेंस में हमें वह सारी की सारी व्यवस्था करनी
पड़े। और नहीं तो क्या होगा? हम बड़ी इंडस्ट्री जिस दिन खड़ी कर
पाएंगे, उस दिन तक हम पाएंगे कि प्रॉब्लम्स तो बहुत आगे जा
चुके हैं, हम वहीं हैं।
आज इतना ही।
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