देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर
सामाजिक)—ओशो
दसवां प्रवचन
मेरी दृष्टि में रचनात्मक क्या है?
मेरे प्रिय आत्मन्!
बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। एक मित्र ने पूछा है
कि मैं बोलता ही रहूंगा, कोई सेवा कार्य नहीं करूंगा,
कोई रचनात्मक काम नहीं करूंगा, क्या मेरी
दृष्टि में सिर्फ बोलते ही जाना पर्याप्त है?
इस बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। पहली बात तो यह कि जो लोग सेवा को
सचेत रूप से करते हैं, कांशसली, उन लोगों को मैं समाज
के लिए अहितकर और खतरनाक मानता हूं। सेवा जीवन का सहज अंग हो छाया की तरह, वह हमारे प्रेम से सहज निकलती हो, तब तो ठीक;
अन्यथा समाज-सेवक जितना समाज का अहित और नुकसान करते हैं, उतना कोई भी नहीं करता है।
समाज-सेवा भी अहंकारियों के लिए एक व्यवसाय है। दिखाई ऐसा पड़ता है कि
समाज-सेवक विनम्र है; सबकी सेवा करता है; लेकिन सेवक
के अहंकार को कोई देखेगा तो पता चलेगा कि सेवक भी सेवा करके मालिक बनने की पूरी
चेष्टा में संलग्न होता है।
मेरी दृष्टि में जीवन में शांति हो, अंतस्तल पर प्रेम का
उदघाटन हो, तो आदमी जो भी करता है, वह
सेवा है। और बुहारी लगाना ही रास्ते पर रचनात्मक नहीं है; आपकी
खोपड़ी में बुहारी लगाना ज्यादा रचनात्मक है। मैं सिर्फ बोल नहीं रहा हूं। विचार से
बड़ी और कोई रचना जगत में नहीं है। विचार से महीन, विचार से
ज्यादा अदभुत, विचार से ज्यादा शक्तिशाली कोई क्रांति नहीं
है। क्योंकि मूलतः विचार के बीज ही हृदय में जाकर अंततः आचरण को, जीवन को, समाज को, रूपांतरित
करते हैं। लेकिन अगर गांधीजी और विनोबाजी के कारण एक ऐसी बात फैल गई है कि कोई सड़क
पर बुहारी लगाए या कोई जाकर किसी बीमार आदमी का हाथ-पैर धो दे, या कोढ़ी के पैर दबा दे, तो वह विचार देने से भी बड़ी
सेवा कर रहा है, यह बात निहायत नासमझी से भरी हुई है।
इस जगत में जो कुछ भी फलित हुआ है, इस जगत में जो भी
श्रेष्ठ है, इस जगत में जो भी सुंदर है, मनुष्य के जीवन ने जो भी ऊंचाइयां छुई हैं, वे
ऊंचाइयां अंततः विचार की ऊंचाइयां हैं। और ये जो सेवा में रत लोग हैं, ये भी सेवा के किसी बहुत विचार-बीज के कारण अनुप्राणित हैं। इसलिए मुझे यह
समझ में नहीं पड़ता, मैं इसको नितांत मूढ़ता की बात समझूंगा कि
मैं बैठ कर किसी गांव की बुहारी लगाऊं और मैं जाकर किसी झोपड़े की सेवा करूं। जो
मैं कर सकता हूं, उसके मुकाबले वह करना देश के लिए नुकसान
पहुंचाना होगा।
मेरी दृष्टि में तो भारत के विचार की शक्ति खो गई है; भारत के पास विचार की ऊर्जा नष्ट हो गई है। भारत ने हजारों साल से सोचना
बंद कर दिया है। भारत सोचता ही नहीं है। यह इतना बड़ा पत्थर भारत के प्राणों पर है
कि अगर कुछ हजार लोग अपने सारे जीवन को लगा कर इस पत्थर को हटा दें, तो भारत का जितना हित हो सकता है, उतना ये तथाकथित
रचनात्मक कहे जाने वाले कामों से नहीं। और जो लोग इन रचनात्मक कामों के लिए अति
बात करते हुए प्रतीत होते हैं, उनको भी समझ लेना जरूरी है।
समाज को बदले बिना सारे रचनात्मक काम पुराने समाज को बचाने वाले, टिकाने वाले सिद्ध होते हैं। समाज की जीवन-व्यवस्था में आमूल रूपांतरण न
हो, तो समाज में चलने वाली सेवा, समाज
में चलने वाला रचनात्मक आंदोलन पुराने समाज के मकान में ही पलस्तर बदलने, रंग-रोगन करने, खिड़की-दरवाजों को पोतने वाला सिद्ध
होता है। नहीं, आज समाज को रचनात्मक काम की नहीं, विध्वंसात्मक काम की जरूरत है; आज समाज को कंस्ट्रक्शन
की नहीं, एक बहुत बड़े डिस्ट्रक्शन की जरूरत है। आज समाज के
पास इतना कचरा, इतना कूड़ा है हजारों साल का कि उसमें आग देने
की जरूरत है। इस वक्त जो लोग हिम्मत करके विध्वंस करने को राजी हैं, वे ही लोग एकमात्र रचनात्मक काम कर रहे हैं। यह समाज जाए, यह सड़ा-गला समाज नष्ट हो, इसके लिए सब कुछ किया जाना
आज जरूरी है।
तो मुझे दिखाई पड़ता है कि ये जो रचनात्मक काम करने वाली बातें हैं, ये पुराने दकियानूस समाज को किसी तरह बचाए रखने की चेष्टाओं से ज्यादा
नहीं हैं। सब सुधारवाद अंततः सड़ गए। जाते हुए, बिदा होते
समाज को बचाने की अंतिम चेष्टा का फल होता है। और जो लोग सेवा के लिए उत्सुक होते
हैं, जैसा कि विनोबा कहते हैं, सेवा
धर्म है, यह बात निहायत गलत है।
धर्म सेवा हो सकता है, लेकिन सेवा कभी भी
धर्म नहीं हो सकती।
इस फर्क को समझ लेना जरूरी है। सेवा करने से कोई धार्मिक नहीं हो
सकता। हां, धार्मिक व्यक्ति सेवा करता है। असल में तो यह है कि
धार्मिक व्यक्ति जो भी करता है, वह सेवा है। धर्म से तो सेवा
पैदा होती है, लेकिन सेवा से कोई धर्म पैदा नहीं होता। और हम
देख रहे हैं कि दुनिया में दोत्तीन हजार वर्षों से जिन लोगों ने भी सेवा को धर्म
करने की बात बताई है, उन्होंने धर्म को भी नष्ट किया है और
सेवा को भी विकृत किया है।
मैंने एक छोटी सी घटना सुनी है। मैंने सुना है, एक चर्च में मोहल्ले-पड़ोस के बच्चे रविवार की सुबह इकट्ठे होते थे। चर्च
के पादरी ने उन बच्चों को कहा कि एक सेवा का कार्य जरूर रोज करना चाहिए, क्योंकि यही परमात्मा की सच्ची प्रार्थना है। उन बच्चों ने पूछा, कैसा सेवा का कार्य? उस पादरी ने कहा कि जैसे कोई
नदी में डूबता हो तो उसको बचाना चाहिए; कोई बीमार हो तो उसके
लिए दवा ला देनी चाहिए; कोई बूढ़ा आदमी रास्ता पार न कर पाता
हो तो उसको सहारा देकर रास्ता पार करवा देना चाहिए। और अगले रविवार को जब तुम आओ,
तब एक सेवा का कार्य जरूर करके आना। मैं पूछूंगा।
अगले रविवार को बच्चे इकट्ठे हुए। उस चर्च के पादरी ने पूछा, तुममें से किसी ने सेवा का कार्य किया? उन
तीस-पैंतीस बच्चों में से तीन बच्चों ने हाथ उठाए कि हमने सेवा का कार्य किया है।
उस पादरी ने कहा, बहुत अच्छा! कम से कम तीन ने किया, यह भी अच्छा है। सेवा ही प्रार्थना है। सेवा ही परमात्मा तक पहुंचने का
मार्ग है। जो सेवा करेंगे, वे ही असली धन को, आत्मिक धन को उपलब्ध होते हैं।
तुमने, बेटे कौन सी सेवा की?
पहले लड़के ने खड़े होकर कहा कि मैंने एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार
करवाया।
उसने कहा, बहुत अच्छा किया। बूढ़े आदमियों को रास्ता पार करवाना
चाहिए।
दूसरे से पूछा कि बेटे, तुमने क्या किया?
उसने कहा, मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया।
वह पादरी थोड़ा हैरान हुआ! उसने कहा कि दोनों को बूढ़ी औरतें रास्तों पर
मिल गईं? लेकिन कोई आश्चर्य नहीं, बहुत
बुढ़िया हैं, मिल सकती हैं।
तीसरे से पूछा, बेटे, तुमने क्या किया?
उसने कहा, मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया।
उसने कहा, बड़ी हैरानी की बात है! तुमको तीन बुढ़िया मिल गईं?
उन तीनों ने कहा, तीन नहीं, बूढ़ी
एक ही थी। हम तीनों ने उसी को पार करवाया।
पर उसने कहा, क्या बूढ़ी इतनी बूढ़ी थी कि तीन आदमियों की जरूरत पड़ी
तुम्हें पार करवाने के लिए?
उन तीनों ने कहा, पार नहीं होना चाहती थी, जबरदस्ती पार करवाया है। वह तो भागती थी इस तरफ कि हमें वहां जाना नहीं
है। लेकिन आपसे कहा था कि बिना सेवा किए परमात्मा नहीं मिल सकता। तो हमने उसे
जबरदस्ती पार करवा दिया। वह बहुत चिल्लाती थी कि मुझे उस तरफ नहीं जाना है।
यह जो सेवा को पकड़े हुए प्रोफेशनल सेवक, ये जो धंधा बनाए हुए
हैं सेवा का, इनको तो बुढ़ियों को रास्ता पार करवाना है,
इनको तो कुछ भी करवाना है--डूबतों को बचाना है--यहां तक भी, अगर डूबते न मिलें तो किसी को डूबा कर भी बचाने का इंतजाम किया जा सकता
है। नहीं, ऐसी सेवा वगैरह के समर्थन में मेरे मन में कोई भी
बात नहीं है। इन तथाकथित सेवकों को मैं मिस्चीफ मांगर्स कहता हूं, ये समाज में सबसे ज्यादा मिस्चीवियस एलिमेंट हैं, ये
समाज में सबसे ज्यादा उपद्रवकारी तत्व हैं। इसको सेवा करनी है। इसको सेवा करनी ही
है, चाहे कुछ भी हो जाए।
इस तरह की सेवा से हित नहीं हुआ है। मैं नहीं कहता हूं कि सेवा धर्म
है। मैं जरूर कहता हूं कि धर्म सेवा है। अगर कोई व्यक्ति धर्म को उपलब्ध हो, तो उसके जीवन में जो भी है, वह सब सेवा बन जाता है।
लेकिन तब वह कांशस नहीं होता; तब वह सुबह से निकलता नहीं है
खोज करने कि किसकी सेवा करें। तब वह जीवन में जीता है, और
उसके जीने से, जितना भी उसका जीना है, उसकी
चर्या है, उसकी श्वास भी लेनी है, वह
सब अनजाने ही, बिना पता चले, सेवा बन
जाती है। जहां हृदय में प्रेम है, वहां व्यक्ति में सेवा है।
फिर वह सेवा दिखाई पड़े, अखबारों में उसकी खबर छपे, फोटो निकाला जाए, फोटोग्राफर तैयार रहे जब सेवक सेवा
करता हो। क्योंकि आजकल कोई सेवक बिना फोटोग्राफर के सेवा नहीं करता, यह आपको मालूम है। फोटोग्राफर को पहले खबर कर आता है कि आज हम सेवा करने
जा रहे हैं। फिर इसी तरह के धोखेबाज सेवकों की जमात नेता हमेशा बन जाती है। हम तो
देख रहे हैं, हिंदुस्तान में यह हो गया। जिनको हम उन्नीस सौ
सैंतालीस के पहले सेवक की तरह जानते थे, उन्नीस सौ सैंतालीस
के बाद एक आधी रात के परिवर्तन में, पंद्रह अगस्त के बाद वे
सब एकदम मालिक हो गए। और तब उनका असली रूप हमें दिखाई पड़ा कि ये जो सेवक मालूम
पड़ते थे, ये सुबह बैठ कर चरखा चलाते थे, हरिजन कालोनी की सफाई करते थे, ये आदमी बिलकुल दूसरे
सिद्ध हुए। जब इनके हाथ में ताकत आई, तो ये आदमी बिलकुल और
हो गए। इनको पहचानना मुश्किल हो गया कि वे वही लोग हैं! यह कैसा चमत्कार हो गया!
यह पंद्रह अगस्त की रात बड़ी मिरेकल्स, बड़ी चमत्कारी मालूम
पड़ती है। और अंग्रेज बड़े जादूगर थे, मालूम होता है। जरा सी
तरकीब और हिंदुस्तान के सारे सेवक क्या से क्या हो गए!
नहीं, यह आकस्मिक नहीं है। लेकिन न गांधीजी इस बात को पहचान
पाए और न भारत अभी इस बात को पहचान पाया है कि सेवा करना भी प्रिस्टीज, इज्जत पाने की तरकीब है। और अगर दूसरी तरकीब मिल जाए इज्जत पाने की तो
सेवक फौरन सेवा छोड़ कर मंच पर आसीन हो जाएगा, कुर्सियों पर
बैठ जाएगा।
वह सेवा भी अहंकार की तृप्ति का मार्ग है। इसलिए दो सेवकों से अगर आप
कह दो कि फलां सेवक आपसे बड़ा सेवक है, तो उसे दुख हो जाता
है, कि यह कैसे हो सकता है कि मुझसे बड़ा कोई सेवक हो। सेवक
भी मानता है कि मुझसे बड़ा कोई भी नहीं है। यह सब अहंकार की चेष्टा है। अहंकार से
जब सेवा पैदा होती है, तो सेवा सिर्फ बहाना है। अंततः भीतर
गहरे में यशाकांक्षा, पद-प्रतिष्ठा, अस्मिता,
अहंकार की ही यात्रा चलती है।
नहीं, ऐसी किसी सेवा के मैं पक्ष में नहीं हूं।
मैं जरूर उस सेवा के पक्ष में हूं जो व्यक्ति के आत्मिक रूपांतरण से
उपलब्ध होती है, जो सहज हो जाती है। उसे पता भी नहीं चलता। उसे पता भी
नहीं चलता कि वह सेवा कर रहा है। अगर आप उससे कहने जाएं कि आप सेवा कर रहे हैं तो
वह हैरान होगा। वह कहेगा, कैसी सेवा? मैंने
तो कुछ भी नहीं किया। मैं जो कर सकता था, वह हुआ है।
मैंने सुना, एक संन्यासी भारत आया। वह अफ्रीका में था। वह हिमालय
की यात्रा, बद्री-केदार की यात्रा को गया। जब वह पहाड़ चढ़ रहा
था, तेज धूप थी, आकाश से आग बरसती थी,
पहाड़ की चढ़ाई थी, हांफ रहा था, पसीना बह रहा था। तभी उसे एक पहाड़ी लड़की भी दिखाई पड़ी, जो पहाड़ चढ़ रही है। वह लड़की की उम्र ज्यादा नहीं है, तेरह-चौदह साल की होगी। बहुत नाजुक, उसके चेहरे पर
आग झलक रही है, पसीना बह रहा है, वह थक
गई है, वह हांफ रही है और कंधे पर अपने भाई को बिठाए हुए है।
वह भी तगड़ा है, छोटा है लेकिन मजबूत और वजनी। संन्यासी उसके
पास पहुंचा, तो सिर्फ दयावश उसने कहा कि बेटी, बहुत बोझ लग रहा होगा तुझे? उस लड़की ने बहुत चौंक कर
संन्यासी को देखा और कहा, स्वामी जी, बोझ
आप लिए हुए हैं; यह तो मेरा छोटा भाई है। बोझ आप लिए हुए
हैं। संन्यासी अपना बिस्तर-विस्तर बांधे हुए है। यह मेरा छोटा भाई है, बोझ नहीं!
संन्यासी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मेरी जिंदगी में मुझे इतना
अमृत-वचन पहले कभी सुनने को नहीं मिला था। बहुत शास्त्र मैंने पढ़े थे, लेकिन यह अदभुत! पहली दफे मुझे पता चला, उस पहाड़ी
लड़की ने कहा, यह भाई है मेरा छोटा, यह
बोझ नहीं है!
छोटा भाई बोझ नहीं होता। तो इस कंधे पर छोटे भाई को ले जाना सेवा भी
नहीं हो सकती। यह सिर्फ प्रेम का कृत्य है। इसमें कहीं कोई सेवा नहीं है। इस छोटी
लड़की को पता भी नहीं है कि वह सेवा कर रही है। जिस दिन सेवा इतनी अनकांशस, इतनी सहज, बिना जाने, बिना पता
चले जब सेवा होती है तो वैसी सेवा धर्म है।
लेकिन वैसी सेवा तभी होती है जब भीतर धर्म का उदय हो। भीतर धर्म का
जागरण हो तो जीवन सेवा बन जाता है।
लेकिन इधर उलटा चल रहा है। इधर समझाया जा रहा है कि तुम बाहर जीवन को
सेवा का बना लो तो भीतर धर्म का जन्म हो जाएगा। यह सरासर व्यर्थ और गलत बात है।
ऐसा कभी नहीं हो सकता। आप लाख सेवा करो, मन धार्मिक नहीं हो
जाएगा।
जीवन में जो क्रांतियां हैं, वे बाहर से भीतर की
तरफ नहीं होती हैं। जीवन की सारी क्रांतियां भीतर से बाहर की तरफ होती हैं। अगर हम
यहां एक दीया जलाएं इस भवन में, तो अंधेरा बाहर निकल जाएगा,
यह सच है। लेकिन अगर कोई यह कहे कि तुम अंधेरा बाहर निकाल दो,
तो दीया जल जाएगा, तो वह बिलकुल ही फिजूल
बातें कह रहा है। न तो आप अंधेरे को बाहर निकाल सकते हैं, और
अंधेरे को आप कितना ही बाहर निकालने की कोशिश करें, अंधेरा
बाहर नहीं निकलेगा। और निकल भी जाए तो भी दीया नहीं जल जाएगा, दीया जल जाए तो अंधेरा बाहर निकल जाता है। लेकिन अंधेरा बाहर निकलने से
कोई दीया नहीं जलता है।
भीतर प्रकाश जले धर्म का तो उसकी किरणें जीवन को, आचरण को सेवा बना देती हैं। लेकिन इस भूल में आप मत रहना कि हम जीवन को
सेवा बना लेंगे और भीतर की आत्मा रूपांतरित हो जाएगी। लेकिन यह बहुत बुनियादी भूल
है। और यह बुनियादी भूल इस देश के चरित्र को हजारों साल से विकृत कर रही है। इसको
थोड़ा समझ लेना और भी उपयोगी होगा, क्योंकि इस संबंध में दो
प्रश्न और हैं। वे भी इस संदर्भ में समझ में आ सकेंगे।
महावीर को हमने देखा; महावीर का आचरण हमें दिखाई पड़ा।
आत्मा तो किसी की दिखाई नहीं पड़ती है, आचरण ही दिखाई पड़ता
है। आचरण बाहर होता है, आत्मा तो भीतर होती है। सिर्फ
व्यक्ति को दिखाई पड़ती है, बाहर से नहीं दिखाई पड़ सकती। मैं
भीतर क्या हूं, वह तो नहीं दिखाई पड़ सकता, मेरे बाहर मैं क्या करता हूं, वही दिखाई पड़ सकता है।
लेकिन जो भी मैं करता हूं, वह मेरे होने से आता है। मेरे
करने से मेरा होना नहीं निर्मित होता, मेरे होने से, मेरे बीइंग से मेरी डूइंग निकलती है। मैं जो हूं, वह
मेरे करने में आता है। लेकिन मेरे करने से मेरा बीइंग, मेरी
आत्मा निर्मित नहीं होती।
महावीर को हमने देखा उदाहरण के लिए; उनकी जिंदगी में
दिखाई पड़ी अहिंसा। वे पांव भी फूंक-फूंक कर रखते हैं कि कोई कीड़ी न दब जाए। वे पलक
भी खयाल से झपते हैं कि कोई कीटाणु न मर जाए। वे रात करवट भी नहीं बदलते सोने में
कि कहीं करवट बदलने में कोई कीड़ा-मकोड़ा आ गया हो और दब न जाए। वे अंधेरे में चलते
नहीं कि कहीं किसी के जीवन को चोट न पहुंच जाए। उनके जीवन में हमें दिखी अहिंसा कि
वे फूंक-फूंक कर जी रहे हैं। हमको आचरण दिखाई पड़ गया, महावीर
की आत्मा तो दिखाई नहीं पड़ी। आप महावीर को देखे कि यह आदमी फूंक-फूंक कर चलता है,
पानी छान कर पीता है, रात करवट नहीं बदलता।
आपने तय किया कि हम भी अहिंसक होंगे; रात करवट नहीं बदलेंगे,
पांव फूंक-फूंक कर रखेंगे, पानी छान कर
पीएंगे।
आप पीओ पानी छान कर जिंदगी भर, सारे समुद्र छान डालो
और आप पांव फूंक-फूंक कर रखो, और चाहो तो पांव रखो ही मत,
और करवट मत बदलो, और चाहो तो करवट लो ही मत,
लेटो ही मत; लेकिन महावीर की आत्मा पैदा नहीं
हो जाएगी। लेकिन हजारों संन्यासी महावीर के पीछे इसी नासमझी को दोहराए चले जा रहे
हैं। महावीर पांव फूंक-फूंक रखने के कारण आत्मा का जन्म नहीं हो गया है। आचरण से
आत्मा निर्मित नहीं होती, आत्मा से आचरण प्रवाहित होता है।
महावीर भीतर आत्मा को जाने हैं, इसलिए यह आचरण पैदा
हुआ है। और हम? हम आचरण करेंगे और आत्मा को जानना चाहेंगे,
जो कि उलटा हो गया। उलटा नहीं हो सकता है। तो हजारों साल से महावीर
के पीछे अहिंसक खड़े हो रहे हैं, लेकिन महावीर की सुगंध किसी
को भी उपलब्ध नहीं हुई। ठीक महावीर जैसे नंगे खड़े हो जाते हैं; नंगे खड़े होने से कोई महावीर बन जाएगा? महावीर जैसा
बाल-वाल घुटा कर खड़े हो जाते हैं, महावीर जैसा चलते हैं,
महावीर जैसा बैठते हैं। यह सब एक्टिंग है, अभिनय
है। इससे कोई महावीर पैदा नहीं हो सकता। यह आचरण का आरोपण है। इसको थोपते चले जाओ,
इससे कुछ भी नहीं होगा। महावीर की ऊर्जा इससे पैदा नहीं होगी। इसलिए
हजारों संन्यासी हैं महावीर के। लेकिन कहां महावीर की सुगंध, कहां वह ज्योति, कहां वह जीवन, कहां वह संगीत? उसकी कोई खबर नहीं मिलती। नहीं मिल
सकती है।
ठीक ऐसा सारे तत्वों के संबंध में होता है। हम देखते हैं आचरण, और वैसा आचरण करने लगते हैं। गांधी चरखा चलाते हैं, नकलचोर
पीछे बैठ कर चरखा चलाने लगेंगे और सोचेंगे बन गए गांधी! इतना सस्ता और आसान नुस्खा
होता तो दुनिया में सब कभी का ठीक हो गया होता। हां, यह आदमी
धोखे में पड़ गया, यह आदमी बिलकुल धोखे में पड़ गया है। यह
बिलकुल खड़ा हो जाएगा। अभी विनोबा के पास जाएं, तो उनके
आस-पास दो-चार विनोबा की शकल-सूरत के आदमी मिल जाते हैं। ठीक वैसा ही दाढ़ी-वाढ़ी
बनाए हैं, कपड़ा-वपड़ा लपेट कर वैसे ही खड़े हो गए हैं। इन
नासमझों के कारण जिंदगी को फायदा नहीं होता, नुकसान होता है।
नहीं, बाहर की नकल से कभी भी कोई भीतर का असल पैदा नहीं
होता है। भीतर का असल कैसे पैदा होता है, वह सवाल है। आचरण
से नहीं, भीतर का असली तत्व पैदा होता है समाधि से, ध्यान से। वह कल रात मैं आपसे बात करूंगा कि वह ध्यान कैसे पैदा हो सकता
है। अभी इतना ही कहना चाहता हूं कि सेवा नहीं है महत्वपूर्ण, महत्वपूर्ण है वह हृदय जहां से सेवा प्रवाहित होती है। और अगर वह हृदय न
हो, तो आप सेवा कर सकते हैं; लेकिन
आपकी सेवा हितकर नहीं होगी, अमंगल सिद्ध होगी, अहितकर सिद्ध होगी। और दुनिया में जितने सेवक कम हों इस तरह के, उतनी दुनिया शांति से जी सकती है। दुनिया को शांति से नहीं जीने देते,
उन्हें सेवा करनी है।
मैं कोई सेवक नहीं हूं और मुझे किसी की कोई सेवा नहीं करनी है। अपनी
ही कर लूं तो पर्याप्त है। लेकिन अगर आप अपनी ही सेवा कर रहे हैं तो आपकी जिंदगी
में वह सुगंध पैदा होगी कि उससे बहुतों की सेवा हो जाएगी। लेकिन उसका कभी आपको पता
भी नहीं चलेगा।
तो सचेतन रूप से सेवा करने वालों के पक्ष में मैं नहीं हूं।
और आप पूछते हैं कि रचनात्मक कार्य क्या करूंगा?
किस बात को रचनात्मक कार्य कहते हैं आप? किस बात को रचनात्मक
कार्य कहते हैं? जो गोरख-धंधा रचनात्मक कार्यों के नाम से
चलता है, इसको रचनात्मक कार्य कहते हैं? यह रचनात्मक कार्य है?
रचनात्मक कार्य एक ही है मनुष्य की चेतना में, वह ध्यान में रख कर और वह यह कि मनुष्य की चेतना का आविर्भाव कैसे हो,
मनुष्य कैसे स्वतंत्र हो, मनुष्य की आत्मा सोई
हुई कैसे जागे, मनुष्य के भीतर जो छिपा हुआ है, वह कैसे प्रकट हो। उसके अतिरिक्त कोई रचनात्मक कार्य नहीं है। और वह प्रकट
हो जाए तो हजार-हजार रचनात्मक कार्य उस जागी हुई चेतना के आस-पास संगठित होने शुरू
होते हैं, प्रकट होने शुरू होते हैं।
लेकिन हमारी पकड़ में क्षुद्र चीजें एकदम आती हैं। हम इतने
मैटीरियलिस्ट हैं, हम इतने पदार्थवादी हैं कि हमको यही समझ में आता है।
हमको समझ में नहीं आएगा कि श्री अरविंद भी कोई सेवा कर रहे हैं पांडिचेरी में बैठ
कर। हम कहेंगे, क्या सेवा कर रहा है यह आदमी? यह आदमी सेवा नहीं कर रहा है, बैठा है पांडिचेरी के
भवन में बंद होकर, यह क्या सेवा कर रहा है? सेवा विनोबाजी कर रहे हैं जो कि पैदल-पैदल चल रहे हैं, गांव-गांव घूम रहे हैं। यह आदमी क्या सेवा कर रहा है, श्री अरविंद? अपनी अंधेरी कोठरी में बैठ कर यह क्या
कर सकता है?
लेकिन आपको पता नहीं कि अरविंद जितनी सेवा कर रहा है उतना आपके सेवकों
में से कोई भी सेवा नहीं कर रहा है। लेकिन वह जरा फिर खोज की बात है कि अरविंद
क्या कर रहा है वहां बैठ कर?
क्या आपको पता है कि विचार की क्रांति, क्या आपको पता है कि
विचार की तरंगें सारे जगत को आंदोलित और प्रभावित करती हैं? क्या
आपको पता है कि मैं अपने मौन में बैठ कर भी आपके प्राणों को प्रवाहित कर सकता हूं?
अभी रूस में एक वैज्ञानिक प्रयोग हुआ। क्योंकि अरविंद की बात को पचाना
मुश्किल होगा, लेकिन रूस के वैज्ञानिक प्रयोग को समझना आसान हो
जाएगा। फ्यादोर नाम के एक वैज्ञानिक ने एक बहुत अदभुत प्रयोग किया। और रूस में हुआ,
इसलिए और भी महत्वपूर्ण है; क्योंकि रूस तो इस
तरह की बातों को मानने को एकदम राजी नहीं होता। फ्यादोर ने यह प्रयोग किया कि दूर,
कितनी ही दूर व्यक्ति हों, विचार की तीव्र
तरंगों से उन व्यक्तियों को प्रभावित किया जा सकता है।
मास्को में बैठ कर तिफलिस में, एक हजार मील दूर,
मास्को में फ्यादोर बैठा हुआ है अपनी प्रयोगशाला में और तिफलिस में
विचार की तरंगें भेज रहा है। सिर्फ विचार से। तिफलिस के बगीचे में एक दस नंबर की
सीट पर...आस-पास लोग छिपे बैठे हैं देखने को कि क्या परिणाम होता है? एक अजनबी आदमी आकर दस नंबर की सीट पर बैठा है। फोन से खबर की गई फ्यादोर
को कि दस नंबर की सीट पर एक आदमी बैठा है; तुम उसे वहां से
विचार के द्वारा सो जाने की सलाह दो। फ्यादोर ने एक हजार मील दूर आंख बंद करके उस
दस नंबर की सीट पर बैठे आदमी को आंतरिक सुझाव दिया कि तू सो जा! तीन मिनट के भीतर
वह आदमी सो गया! लेकिन यह भी डर है कि संयोग की बात हो कि वह थका-मांदा यात्री सो
गया हो। तो वहां जो लोग छिपे बैठे, उन्होंने फोन से खबर की
कि आदमी सो गया है। लेकिन तुम ठीक पंद्रह मिनट बाद उसे उठा दो, तब हम समझेंगे कि तुम्हारे विचार से कुछ हो रहा है। फ्यादोर ने ठीक पंद्रह
मिनट, घड़ी पर, उस आदमी को एक हजार मील
दूर, उठा दिया कि उठ जाओ। वह आदमी चौंक कर उठा। मित्र हैरान
हो गए! ठीक पंद्रह मिनट में वह उठा था। उस आदमी से जाकर पूछा कि आपको कुछ लगा?
उसने कहा, मैं बड़ा हैरान हुआ। जब मैं आया था
तो मुझे ऐसा लगा कि कोई मुझसे कह रहा है सो जाओ, बहुत थके
हुए हो। मैंने समझा कि मैं ही कह रहा हूं। लेकिन अभी अचानक मुझे नींद में आवाज सुनाई
पड़ी कि उठ जाओ, इसी वक्त उठ जाओ। तो मैं उठ आया हूं।
अमेरिका की एक प्रयोगशाला में एक छोटा सा प्रयोग चलता था। डिलाबार
लेबोरेटरी में उन्होंने एक अदभुत प्रयोग किया। एक आदमी को बहुत ही संवेदनशील कैमरे
के सामने बिठाया गया और उससे कहा गया कि तुम बहुत केंद्रित रूप से मन में कोई
विचार करो--किसी एक चीज का। उस आदमी ने आंखें बंद करके छुरी का विचार किया। वह
पांच मिनट तक छुरी का चित्र मन में सोचता रहा। उस सामने के फोटो प्लेट पर, निकलने पर छुरी का चित्र अंकित हो गया।
डिलाबार लेबोरेटरी में हुए प्रयोग ने सारी दुनिया को चकित कर दिया कि
क्या मन के भीतर सोचे गए विचार का भी प्रतिबिंब फोटो कैमरे में पकड़ा जा सकता है? फ्यादोर के प्रयोग ने सारे रूस में हवा पैदा कर दी कि यह क्या हुआ?
कि क्या एक हजार मील दूर बैठा हुआ आदमी भी विचार की तरंगों से किसी
को प्रभावित कर सकता है?
मैं आपसे कहता हूं, अरविंद यह प्रयोग कर रहे थे। और
हिंदुस्तान की चेतना को उन्होंने जितना प्रभावित किया है; न
गांधी ने और न किसी ने प्रभावित किया है। लेकिन वह जरा एसोटेरीक, वह कंस्ट्रक्टिव काम जरा और तरह का है। तो जो लोग बुहारी लगाने को
कंस्ट्रक्टिव काम समझते हैं, वे अरविंद के काम को
कंस्ट्रक्टिव नहीं समझेंगे। लेकिन कितनी ही बुहारी लगाओ, क्या
होता है?
मनुष्य की चेतना पर असली काम किया जाना जरूरी है। बुद्ध और महावीर
रचनात्मक कार्यकर्ता नहीं थे। तो अगर कभी रचनात्मकवादियों ने कभी कोई इतिहास लिखा, तो बुद्ध, महावीर और जीसस के नाम उनमें नहीं लिखे
जाएंगे। ये सब फिजूल के लोग थे। इन्होंने कोई रचनात्मक कार्य नहीं किया। न तो किसी
कोढ़ी के पैर दाबे और न कोई अस्पताल बनाया और न सड़कें साफ कीं और न भंगी कालोनी में
निवास किया; ये सारे लोग रचनात्मक नहीं थे। ये सब फिजूल के
लोग थे। इन्होंने समय खराब किया और लोगों का समय खराब किया।
नहीं साहब, ये रचनात्मक काम करने वाले लोग उस अर्थ में दो कौड़ी
के भी नहीं हैं; जिन अर्थों में बुद्ध, जीसस, शंकर और महावीर का काम है। लेकिन उस काम को
देखने के लिए भी समझ चाहिए, आंखें चाहिए। उसको पहचानने के
लिए भी थोड़ी प्रबुद्ध प्रज्ञा चाहिए।
मैं कोई रचनात्मक कार्य में नहीं लगा हुआ हूं, न लगूंगा।
मेरी दृष्टि में विचार की क्रांति इस देश को इस समय एकमात्र जरूरत है।
तो सारी चेष्टाओं से कोशिश करूंगा कि सोया हुआ विचार जग जाए। सब तरह के शॉकस दूंगा, सब तरह के धक्के पहुंचाऊंगा, सब तरफ से आपको
हिलाऊंगा कि नींद टूट जाए। आप नाराज भी होंगे। क्योंकि नींद किसी की भी तोड़ो तो वह
नाराज होता है। आप क्रोध से भी भर जाएंगे। आप मुझ पर पत्थर भी फेंक सकते हैं,
मुझे गालियां भी दे सकते हैं कि हम सो रहे हैं आराम से, सपना देख रहे हैं सुखद और यह आदमी आकर जगाए चला जा रहा है।
नहीं, लेकिन इस समय देश को तीव्रता से जगाने वाले कुछ लोगों
की जरूरत है। इस नींद से भरे देश में अभी किसी रचनात्मक काम से कुछ भी न होगा। अभी
एक ही काम की जरूरत है कि देश की चेतना जागे। और दूसरे काम की जरूरत है कि देश के
पास जो लाखों वर्षों की जंजीरें इकट्ठी हो गई हैं अतीत की, उनको
नष्ट करने का कोई तीव्र आंदोलन हो कि उन सब जंजीरों को तोड़ कर मुल्क की चेतना को
हम नये जगत के साथ खड़ा कर दें। लेकिन नहीं, हमारे नेता,
हमारे धर्मगुरु, हमारे समाज-सुधारक, वे सब पीछे की कड़ियों से बांधने की कोशिश करते हैं। वे मुक्त नहीं होने
देते वहां से।
क्या आपको पता है कि रूस ने पचास वर्षों में जो काम किया, वह हम एक हजार वर्षों में भी नहीं कर सकते। लेकिन क्यों किया यह काम?
क्या आपको पता है कि अमेरिका ने तीन सौ वर्षों में जो काम किया,
वह तीन हजार वर्ष में भी कोई कौम नहीं कर सकती। क्या कारण है लेकिन?
एक कारण है, जो खयाल में नहीं आता। और जिस दिन
इस देश के खयाल में आ जाएगा, हम भी उतना ही विकास करने में
तत्काल समर्थ हो जाएंगे। और वह कारण यह है कि रूस ने उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति
के बाद अपने अतीत से सारे संबंध विच्छिन्न कर लिए, एकदम से
संबंध विच्छिन्न कर लिए। अतीत जैसे खत्म हो गया; भविष्य रह
गया, वर्तमान रह गया, अतीत जैसे नहीं
रहा। उन्नीस सौ सत्रह के बाद एक अंतराल पैदा हो गया; नहीं है
कोई अतीत, बस है भविष्य, बस है
वर्तमान। और अमेरिका के पास तो कोई अतीत है ही नहीं। उनकी तो कौम की उम्र ही तीन
सौ वर्ष है। उनके पास अतीत नहीं है, अतीत का बोझ नहीं है।
इसलिए अमेरिका की सबसे नई कौम सबसे ज्यादा समृद्ध, सबसे
ज्यादा विकासशील, सबसे ज्यादा जवान हो गई। उसका और कोई राज
नहीं है--उसके पीछे मुर्दों का बोझ नहीं है, हजारों वर्ष की
लाशें नहीं हैं, कब्रिस्तानों की लंबी कथा नहीं है। उसमें
अटकाव नहीं है, भविष्य है सिर्फ। और भविष्य की तरफ चेतना को
विकास का मौका है।
भारत के सामने एक ही रचनात्मक काम है कि अतीत से कैसे संबंध भारत का
क्षीण हो, कैसे भविष्य की तरफ भारत की आंखें उन्मुख हों।
लेकिन हमारे समझदार लोग समझाते हैं कि हमारा अतीत तो सतयुग था, स्वर्णयुग था--राम हुए, बुद्ध हुए, कृष्ण हुए। हमारे सब तीर्थंकर, सब अवतार हो चुके।
हमारी सब श्रेष्ठ रचनाएं हो चुकीं, गीता लिखी जा चुकी,
बुद्ध-वचन कहे जा चुके, रामायण हो गई, महाभारत हो गया। सब हो चुका हमारा। हमारा भविष्य? भविष्य
हमारा कुछ भी नहीं है। सब अतीत है।
क्या आपको पता है, बूढ़ा आदमी हमेशा अतीत की तरफ
देखता है, क्योंकि भविष्य में मौत होती है, और कुछ भी नहीं होता। बच्चे हमेशा भविष्य की तरफ देखते हैं, क्योंकि पीछे कुछ भी अतीत नहीं होता। बच्चे की जो चेतना है, वह हमेशा भविष्योन्मुखी होती है। बूढ़े की जो चेतना है, वह हमेशा अतीतोन्मुखी होती है। बूढ़ा हमेशा पीछे की तरफ देखता है। वह हमेशा
पीछे जो हो चुका--जवानी के गीत, जवानी के प्रेम, बचपन की स्मृतियां, वह उनका ही गुणगान करता रहता है,
वह उन्हीं की स्मृति में खोया रहता है, आगे
कुछ भी नहीं है।
ध्यान रहे, जो कौम आगे देखना बंद कर देती है, उस कौम की आत्मा भी बूढ़ी हो जाती है। बूढ़े होने का लक्षण यह है--पीछे
देखना। युवा होने का, विकासमान होने का लक्षण यह है--आगे
देखना। लेकिन हमारी गर्दन तो पीछे मुड़ी है, और इतने दिनों से
मुड़ी है कि हमारी हड्डियां मजबूत होकर जु॰? गई हैं, पैरालाइज्ड हो गई हैं। अब आगे की तरफ हम देख नहीं सकते, पीछे मुड़े हुए हैं। जैसे किसी कार में पीछे की तरफ लाइट लगा हो और आगे चल
रही हो गाड़ी, वैसी हमारी स्थिति हो गई है। वह तो भगवान बहुत
नासमझ है हिंदुस्तान के लिए। अगर उसमें थोड़ी भी अक्ल हो, तो
हमारी आंखें खोपड़ी पर लगानी चाहिए, आगे लगाने की कोई जरूरत
नहीं है। आगे आंखों की कोई आवश्यकता ही नहीं हैं, आंखें पीछे
होनी चाहिए। उस रास्ते को हमें देखने में बड़ा मजा आता है जो रास्ता गुजर चुका और
जिस रास्ते पर अब कभी भी गुजरना नहीं हो सकता है। उड़ती हुई धूल को देखते रहते हैं
पीछे। आपको पता है? पीछे लौटना असंभव है। लेकिन गांधीजी कहते
हैं, राम-राज्य चाहिए। पीछे लौटना इम्पॉसिबिलिटी है। कोई कभी
पीछे नहीं लौट सकता। समय बचता ही नहीं पीछे जाने को; एक क्षण
पीछे नहीं लौटा जा सकता। हमेशा आगे ही जाना होता है। जाने का अर्थ है: आगे। लेकिन
पीछे की याद की जा सकती है। और जितनी ज्यादा आप याद करेंगे पीछे की, उतना आगे चलने वाले कदमों में बाधा पड़ेगी। क्योंकि पीछे की याद करने वाला
मन आगे चलने वाले कदमों से टूट जाता है, उसमें विसंगति पैदा
हो जाती है। उसमें जोड़ नहीं रह जाता है। आगे चलने वाला मन भी चाहिए आगे चलने वाले
पैरों के लिए। पैर आगे चल रहे हैं हिंदुस्तान के, मन पीछे चल
रहा है। यह विसंगति हिंदुस्तान के प्राणों को जड़ किए दे रही है, नष्ट किए दे रही है।
नहीं, चित्त को ले जाना है आगे।
एक विध्वंस की जरूरत है। यह शब्द बहुत कठोर मालूम पड़ेगा। लेकिन हमें
पता ही नहीं है कि जो विध्वंस की क्षमता खो देते हैं, वे सृजन की क्षमता भी खो देते हैं। विध्वंस का मतलब सिर्फ विध्वंस नहीं
होता। विध्वंस का मतलब होता है कि तोड़ना, ताकि बनाया जा सके।
लेकिन तोड़ने की हिम्मत खो दी है, इसलिए हमें बड़ा अच्छा लगता
है, जब कोई कहता है, रचनात्मक
कार्यक्रम। तो हम बड़े प्रसन्न होते हैं। लेकिन कभी आपने कोई देखा कि किसी ने कहा
हो विध्वंसात्मक कार्यक्रम। हमें रचनात्मक कार्यक्रम बड़ा अच्छा लगता है।
लेकिन रचना कौन कर सकते हैं? वे जो तोड़ सकते हैं।
मैंने सुना है, एक गांव में एक बहुत पुराना चर्च था। वह इतना पुराना
था कि उस चर्च के भीतर कोई भी जाने में डरता था। वह कभी भी गिर सकता था। हवाएं
चलती थीं, तो चर्च कंपता था। आकाश में बादल गरजते थे,
तो चर्च कंपता था। जोर का तूफान आता था, तो
लगता था, अब गिरा, अब गिरा। अंधेरी रात
में जरा आवाज होती थी, तो गांव के लोग बाहर निकल कर देखते थे
कि चर्च गिर तो नहीं गया! अब ऐसे चर्च में कौन प्रार्थना करने जाए। प्रार्थना करने
वाले लोगों ने जाना बंद कर दिया। फिर चर्च की कमेटी ने बहुत विचार किया कि क्या
करें। फिर चर्च की कमेटी बुलाई गई। पादरी और कमेटी और ट्रस्टी सब इकट्ठे हुए। वे
भी चर्च के भीतर इकट्ठे नहीं हुए। वह भी चर्च के बाहर ही उन्होंने बैठक रखी,
क्योंकि वहां भीतर कौन जाता? और नेता तो हमेशा
अनुयायियों से ज्यादा होशियार होते हैं। जब अनुयायी तक नहीं जा रहे हैं, तो नेता कैसे जा सकता है?
और यह तो आपको पता है कि नेता हमेशा अनुयायी के पीछे चलते हैं। दिखाई
आगे पड़ते हैं, चलते हमेशा पीछे हैं। क्योंकि कोई नेता इतना हिम्मतवर
नहीं होता कि अनुयायी के आगे चले। क्योंकि नेता की जान अनुयायी के वोट और हाथ पर
निर्भर रहती है। अगर अनुयायी पीछे से खिसक जाए तो नेता की जान निकल गई। नेता की
अपनी कोई जान होती है? अनुयायियों को देख कर चलना पड़ता है।
जब अनुयायी तक भीतर नहीं आते तो नेता कैसे भीतर आ सकते हैं? हालांकि
नेता गांव में लोगों को जाकर समझाते थे कि चर्च में जरूर आना चाहिए। और गांव के
लोग मन ही मन में हंसते थे कि बड़ी अदभुत बात है, नेता खुद
कभी नहीं जाते, लेकिन हमको समझाते हैं। जैसा हिंदुस्तान में
होता है सब जगह। नेता समझाते हैं, यह करना चाहिए। और जनता
सुनती है और ताली पीटती है और समझती है कि नेता भी नहीं करते हैं यह और हमसे कहते
हैं कि करना चाहिए। लेकिन जनता समझती है कि ठीक है, कभी हम
भी नेता हो जाएंगे तो हम भी मंच पर चढ़ कर यही कहेंगे कि यह करना चाहिए। करना-वरना
तो किसी को है नहीं। एक पाखंड, एक धोखा चल रहा है पूरे देश
में। वह उस गांव में भी चलता होगा।
कमेटी बाहर बैठी, और कमेटी सोचने लगी, क्या किया जाए? कोई प्रार्थना करने नहीं आता। बड़े
दुख से उन्होंने एक प्रस्ताव पास किया कि पुराने चर्च को गिराना चाहिए। सर्वसम्मति
से यह तय किया। लेकिन पुराने को गिराने में बड़ा दुख होता है। मुर्दा लोग पुराने को
गिरा ही नहीं सकते। मरे-मराए लोग इतना डरते हैं पुराने को गिराने से! लेकिन डरते
क्यों हैं?
डरते इसलिए हैं कि नये को बनाने की क्षमता नहीं है। अगर पुराना गिर
गया तो फिर क्या होगा? डरते हैं इसलिए। जिनको नये को बनाने की क्षमता है,
वे पुराने को गिराने से कभी भी नहीं डरते। बल्कि वे आतुर होते हैं
कि जल्दी पुराना गिरे तो नये का निर्माण किया जा सके। बहुत डरे थे, बहुत दुखी थे। फिर दूसरा प्रस्ताव किया कि नया चर्च बनाना जरूरी है।
सर्वसम्मति से उसे भी स्वीकार किया। फिर तीसरा प्रस्ताव जल्दी से स्वीकार किया कि
नया चर्च ठीक पुराने जैसा बनाएंगे। नक्शा वही रहेगा, जरा भी
फर्क नहीं करेंगे। नींव पुरानी रहेगी, नींव नई नहीं डालेंगे।
नींव तो पुरानी ही रखेंगे, क्योंकि अपने बापदादों ने जो नींव
डाली थी, उसको हम कैसे बदल सकते हैं? वह
बाप-दादे तय कर गए हमेशा के लिए नींव, अब कोई नहीं बदल सकता
उसको। बाप-दादे भविष्य को भी तय कर गए? अपने वक्त को तय करते
तो ठीक था, लेकिन आने वाले लोगों की आत्मा को भी कैद कर गए।
नींव डाल गए हैं वे, अब उसी नींव पर मकान बनेगा। उन्होंने
कहा, हम तो पुरानी नींव पर ही बनाएंगे। और ध्यान रहे,
पुराने दरवाजे, पुरानी ईंटें, पुराना कूड़ा-कबाड़ सबका उपयोग करेंगे। क्योंकि वह साधारण कूड़ा-कचरा नहीं,
वह सैक्रेड है, पवित्र है। पुरखों के द्वारा
लगाई गई ईंटें हैं। साधारण ईंटें नहीं हैं। हम सब मकान का सामान वही लगाएंगे।
उसी जगह मकान बनाएंगे, उसी नींव पर बनाएंगे।
सर्वसम्मति से, बड़ी खुशी से यह भी उन्होंने स्वीकार किया।
और फिर चौथा प्रस्ताव स्वीकार किया, वह भी सर्वसम्मति से,
कि जब तक नया न बन जाए, तब तक पुराने को
गिराएंगे नहीं।
बस, वह पुराना खड़ा हुआ है चर्च वहीं का वहीं। अभी भी
हवाएं आती हैं, अभी भी प्राण कंपते हैं। वह नया कभी नहीं
बनेगा। वह नया कैसे बन सकता है? कहीं पुराने के आधार पर
दुनिया में नया बना है? यह ऐसे ही है कि जैसे एक आदमी बूढ़ा
होकर मर जाए और भगवान उसमें नई आत्मा डाल दे। नहीं, पुराने
शरीर में नई आत्मा नहीं डाली जा सकती। नई आत्मा फिर नया शरीर ग्रहण करती है। फिर
नया बच्चा, फिर नई आत्मा। पुराने शरीर को दफना देना पड़ता है।
पुराने में पुराने के आधार पर नया निर्मित नहीं होता। बल्कि पुराने के आधार पर नया
निर्माण करने का वह जो पागल मोह है, उसकी वजह से नया कभी
निर्मित नहीं हो पाता है।
नहीं बना वह नया चर्च, नहीं बनेगा। ऐसा ही
भारत में हो रहा है। हजारों साल से पुराना इकट्ठा होता चला जाता है। वह इतना भारी
हो गया है, आज की भारत की आत्मा एकदम बोझिल हो गई है,
उठ भी नहीं सकती। जैसे एक-एक आदमी के ऊपर हजारों मुर्दे बैठे हों,
उसकी खोपड़ी पर मुर्दों का अंबार लगा हो, उसके
कारण हमने नये के निर्माण की क्षमता खो दी है।
दूसरा महायुद्ध हुआ, जर्मनी तहस-नहस हो गया। रूस के
नगर बर्बाद हो गए। जापान मिट्टी में मिल गया। लेकिन जाकर देखो अब। पता भी नहीं
चलेगा कि दूसरा महायुद्ध कभी हुआ था। सब निर्मित हो गया। वे जो बर्बाद हो गए थे,
फिर आबाद हो गए--और पहले से ज्यादा अच्छे।
मेरे एक मित्र ने जापान से मुझे लिखा कि नागासाकी और हिरोशिमा जो
बिलकुल मिट्टी हो गए थे, बर्बाद हो गए थे। जहां आज से बीस साल पहले देख कर कोई
कहता कि अब कभी यहां पौधे में अंकुर नहीं निकलेगा, अब कभी
कोई फूल नहीं खिलेगा, अब कभी कोई प्राण यहां आबाद नहीं हो
सकेगा, अब कभी यहां कोई बस्ती नहीं बसेगी, सब जल कर राख हो गया था। वह बस्तियां आबाद हो गईं। और उन बस्तियों में
रहने वाले लोग खुशी से यह कहते हैं कि बड़ा अच्छा हुआ कि एटम गिर गया; पुराना सब समाप्त हो गया, सब नया हो गया। नये रास्ते
हैं, नये मकान हैं, नये स्कूल हैं। पुराना
कचड़ा-कबाड़ एकदम नष्ट हो गया, जिसको नष्ट करना बहुत मुश्किल
था। सारा सब नया हो गया। अदभुत लोग हैं। जवान मालूम होते हैं।
और हम बूढ़े हैं, हमारी बड़ी अदभुत हालत है।
महाभारत के बाद कोई युद्ध ही नहीं हुआ बड़ा हमारे यहां। लेकिन अभी भी उसका जो
नुकसान हुआ है, वह जारी है। वह बदलता नहीं। महाभारत के युद्ध
में जो मकान गिर गया होगा, खोज करना, वह
अभी भी वहीं गिरा हुआ पड़ा होगा। उसमें कोई फर्क नहीं हुआ होगा। क्योंकि महाभारत
में युद्ध हो गया न, उसका हम दुख अभी तक झेल रहे हैं। अब उस
युद्ध से कभी छुटकारा होने वाला नहीं है। अब हम हमेशा के लिए बर्बाद ही रहेंगे।
महाभारत में युद्ध हुआ न। उसकी वजह से सब तकलीफ चल रही है। वह कब हुआ था युद्ध?
पुराने का मोह नये के निर्माण की क्षमता का विनाश बनता है। नये का
आग्रह और नये का मोह चाहिए। नये का आमंत्रण चाहिए। नये की खोज चाहिए।
लेकिन नहीं, अगर कोई मुसीबत आ जाए तो खोलो गीता और निकालो उत्तर!
अजीब बात है। कोई हमने पागल होने का ठेका ले रखा है? जिंदगी
में समस्या आज खड़ी है। बेचारे कृष्ण को क्यों परेशान करना? हमारे
पास कोई बुद्धि नहीं है? हम फेस नहीं कर सकते किसी समस्या का?
गीता-माता में खोजने जाते हैं सब कुछ। कृष्ण भी होंगे कहीं तो सिर
ठोंकते होंगे आकाश में कि कहां के मूढ़ों के बीच मैंने उपदेश दिया? अभी तक पीछा पकड़े हुए हैं। कृष्ण को एक जिंदगी में एक समस्या खड़ी थी
अर्जुन के सामने, दिया उत्तर। लेकिन उत्तर सबके लिए बांधने
वाला नहीं है। लेकिन हम उत्तरों से बंध गए हैं।
और जब भी मुसीबत आए, मुसीबत हमेशा नई होती है।
परिस्थितियां हमेशा नई होती हैं। वे हमेशा नया जवाब मांगती हैं और हमारे पास जवाब
रेडीमेड, पुराने हैं। नई परिस्थिति, पुराना
जवाब, कोई तालमेल नहीं बैठता। हम हारते चले जाते हैं।
मैंने सुना है, जापान के एक गांव में दो मंदिर थे। एक दक्षिण का
मंदिर कहलाता था, एक उत्तर का मंदिर कहलाता था। दोनों
मंदिरों में झगड़ा था; जैसा कि मंदिरों में होता है। मंदिरों
में दोस्ती तो कभी होती नहीं, झगड़े ही होते हैं। वे अड्डे ही
झगड़े के हैं। और जब तक रहेंगे जमीन पर, तब तक झगड़े जारी
रहेंगे। बड़ा झगड़ा था उत्तर के, दक्षिण के मंदिरों में। इतना
झगड़ा था कि पुरोहित एक-दूसरे को देखते भी नहीं थे। रास्तों पर से भी नहीं गुजरते
थे कि एक-दूसरे का मुकाबला न हो जाए।
दोनों पुरोहितों के पास दो छोटे बच्चे थे, सेवा-टहल के लिए, काम-धाम के लिए। दोनों ने समझा रखा
था कि कभी भी भूल कर दूसरे मंदिर के बच्चे से बात मत करना। वे हमारे दुश्मन हैं।
लेकिन बच्चे तो बच्चे होते हैं, बूढ़े बिगाड़ने की कोशिश भी
करते हैं तो एकदम से तो नहीं बिगाड़ पाते हैं। थोड़ा वक्त लग जाता है। बच्चे कहीं
एकदम बूढ़ों की मानते हैं? और बच्चे अगर बूढ़ों की मान लें,
तो समझना कि बच्चे से वे बूढ़े हो गए, अब बच्चे
नहीं रहे। वे बच्चे भी नहीं मानते थे। कभी-कभी मौके-बेमौके अकेले में मिल जाते थे
तो बात कर लेते थे। बच्चों को भी पुरानी दुश्मनी देने में, ट्रांसफर
करने में थोड़ा समय लगता है बूढ़ों को--समझाने में कि तुम हिंदू हो, तुम मुसलमान हो, तुम इस मंदिर के हो, तुम उस मंदिर के हो। बच्चों को कुछ पता नहीं होता। भगवान इस तरह की बातें
सिखा कर भेजता नहीं है। उन बच्चों को नहीं लगता था कि झगड़ा क्या है मंदिरों में?
एक दिन उत्तर के मंदिर का बच्चा जा रहा था रास्ते से; दक्षिण के मंदिर का बच्चा वहां से निकला और उसने पूछा कि दोस्त, कहां जा रहे हो? दक्षिण का पुजारी छत पर से देख रहा
था कि दोनों बात कर रहे हैं। उसको आग लग गई। हिंदू-मुसलमान बात करें तो पुजारी को
बड़ी आग लग जाती है, पता है आपको? पुरोहित
को बड़ी आग लग जाती है, धर्मगुरु के प्राण जलने लगते हैं,
क्योंकि उसका धंधा टूटा। अगर हिंदू-मुस्लिम में बात हुई तो उसका
धंधा गया। उनमें झगड़ा रहे तो धंधा चलता है, नहीं तो धंधा
नहीं चलता है। यह धंधा धर्म का पूरा का पूरा झगड़े पर खड़ा है, नहीं तो यह चल नहीं सकता। पुजारी नीचे आया, उस लड़के
को बुलाया कि तुमने क्या बात की? उस लड़ने ने कहा कि आज तो
मैंने बात की, और मैं हार भी गया। तो मुझे बड़ा दुख है। मैंने
उस लड़के को पूछा कि दोस्त, कहां जा रहे हो? उसने कहा, जहां हवाएं ले जाएं। फिर मेरी समझ में
नहीं आया कि अब में और क्या बातचीत आगे चलाऊं।
उस पुजारी ने कहा कि हमारे मंदिर का कोई आदमी कभी उस मंदिर से नहीं
हारा। यह इतिहास में पहली घटना घटी है कि तू हार कर आया, यह बहुत बुरी बात है। उसको उत्तर देना जरूरी है, उसको
हराना पड़ेगा। यह हमारी इज्जत का सवाल है, यह हमारी पुरखों की
इज्जत का सवाल है। एक हजार साल पुराना झगड़ा है। कल तू फिर जाना और उससे पूछना कि
कहां जा रहा है और जब वह कहे कि जहां हवाएं ले जाएं, तो कहना
कि अगर हवाएं बंद हों दोस्त, तो कहीं जाओगे कि नहीं? तब वह भी ठप्प रह जाएगा। वह भी समझ नहीं पाएगा।
दूसरे दिन लड़का उत्तर तैयार करके गया। और आप पक्का समझ लेना, जो उत्तर तैयार करके जाते हैं उनके पास बुद्धि कभी नहीं होती है। क्योंकि
तैयार उतर हमेशा मिडियाकर माइंड का लक्षण है, क्षीण बुद्धि
आदमी का लक्षण है। बुद्धिमान आदमी को सवाल सामने खड़ा होता है, उत्तर आता है। आना चाहिए। उत्तर तैयार का क्या मतलब होता है? जब अभी सवाल ही नहीं उठा तो उत्तर तैयार कैसे हो सकता है? लेकिन हम सभी उत्तर तैयार करने वाले लोग हैं। वह लड़का भी उत्तर कंठस्थ
करके बिलकुल चला गया कि पूछूंगा आज यह। खड़ा रहा रास्ते पर; निकला
वह लड़का। पूछा, कहो दोस्त कहां जा रहे हो? लेकिन वह लड़का बड़ा बेईमान था। उसने कहा कि जहां पैर ले जाएं। अब बड़ी
मुश्किल हो गई। बंधा हुआ उत्तर, वह गीता-माता का उत्तर। अब
क्या होगा? अब वह फिर खड़ा रह गया। गुरु ऊपर से देखता था कि
वह फिर हार गया। लौट कर आया, पूछा क्या हुआ? उसने कहा, वह लड़का तो बहुत बेईमान मालूम होता है।
बदल गया वह तो। उस पुजारी ने कहा, उस मंदिर के लोग सदा से
बेईमान रहे हैं। उनका कोई भरोसा नहीं है। सुबह कुछ कहेंगे, सांझ
कुछ कहने लगते हैं। लेकिन उसे हराना जरूरी है। उसने क्या कहा? उसने कहा, वह लड़का तो कहने लगा, जहां पैर ले जाएं। अब मैं क्या कहता, उतर तो तैयार
था। उस उत्तर की कोई संगति न थी। उसने कहा, कल फिर तू पूछना।
जब वह लड़का कहे कि जहां पैर ले जाएं, तो कहना, भगवान न करे कि लंगड़े न हो जाओ। अगर लंगड़े हो गए तो कहीं जाओगे कि नहीं?
वह लड़का खुश हुआ, लेकिन फिर भी उसे पता नहीं
कि फिर वही भूल कर रहा है कल वाली। फिर तैयार उत्तर! दूसरे दिन वह फिर खड़ा हो गया
रास्ते पर जाकर। उत्तर तैयार है, घोख रहा है मन में। आया है
लड़का दूसरे मंदिर का, पूछा--कहां जा रहे हो? उसने कहा, सब्जी लेने बाजार जा रहा हूं। वे सब उत्तर
फिजूल हो गए।
तैयार उत्तर हमेशा फिजूल हो जाते हैं। और जिन कौमों के पास उत्तर
तैयार हैं, वे सारी कौमें नपुंसक हो जाती हैं। जिंदगी मांगती है
सीधा एनकाउंटर, जिंदगी मांगती है मुकाबला। जिंदगी कहती है आओ,
नई हैं परिस्थितियां, खड़ी करो अपनी चेतना को;
नई परिस्थितियों का उत्तर दो। और नई परिस्थितियों का उत्तर तभी दिया
जा सकता है, जब पुराने उत्तर मन पर बोझिल न हों।
लेकिन यहां सारा चित्त मुल्क का बोझिल है। महात्मा, साधु, संन्यासी, तीर्थंकर,
अवतार इतने हो चुके हैं हमारे, और वे सब उत्तर
दे गए हैं, और सबके उत्तर हमारे सिर पर बैठे हुए हैं। हमारा
अपना कोई उत्तर नहीं है। हमारा अपना कोई प्रेजेंट, हमारा कोई
वर्तमान व्यक्तित्व नहीं है। हमारी कौम की आज कोई वर्तमान आत्मा नहीं है। और यह
सारी आत्मा सिर्फ रटे हुए उत्तर दोहरा रही है। इसलिए हम दुनिया में पिछड़ते चले
जाते हैं, रोज पिछड़ते चले जाते हैं। और जब पिछड़ जाते हैं,
तब भी हम अपनी किताब में खोजते हैं कि जरूर हमने कुछ गलती याद कर
लिया होगा। किताब तो गलत हो नहीं सकती। फिर हम अपनी किताब में खोज कर नई व्याख्या
निकालते हैं कि नहीं, यह मतलब रहा होगा, इसलिए हार गए।
और जिंदगी रोज बदलती जाती है, जिंदगी बड़ी बेईमान
है। जिंदगी रुकी नहीं है, जिंदगी ठहरी नहीं है, जिंदगी भागती चली जाती है। जैसे गंगा रोज बदल रही है। जो पानी कल था गंगा
में, वह आज नहीं है। जो अभी था, वह अभी
नहीं है। वह हेराक्लतु ने कहा है कि एक ही नदी में दुबारा उतर नहीं सकते--यू कैन
नाट स्टेप ट्वाइस इन दि सेम रिवर। वह ठीक कहा है; जिंदगी की
नदी में भी दुबारा नहीं उतर सकते हो। जो हो चुका, वह हो
चुका। जो नहीं हुआ है, वह होगा। इसलिए जो हो चुके उत्तर,
वह जो नहीं हुआ है उसके लिए कारगर नहीं होंगे।
इसलिए भारत पुराना पड़ता जाता है; उत्तर पुराने हैं
उसके पास।
कब छुटकारा होगा हमारा शास्त्रों से? कब छुटकारा होगा अतीत से? कब मुक्त होंगे हम पीछे से?
और कब हम जागेंगे और देखेंगे भविष्य को?
इसका मतलब यह नहीं है कि मैं यह कहता हूं कि गीता मत पढ़ना। इसका यह
मतलब नहीं है कि मैं कहता हूं कि रामायण मत पढ़ना। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं
कहता हूं कि गांधी को मत समझना। इसका यह मतलब है कि समझना, लेकिन उत्तर किसी के कंठस्थ मत करना। उत्तर अपने आने देना और जैसा युग,
जैसा समय और जैसी परिस्थिति, उसके अनुकूल अपने
चित्त को दर्पण बनाना कि वह हर तरह उत्तर ला सके। बैलगाड़ियों के जमाने में दिए गए
उत्तर अंतरिक्षयान के जमाने में सही साबित नहीं हो सकते। लेकिन जो जिद्द करेंगे कि
हमने, बैलगाड़ियों के जमाने में जिन पुरखों ने बैलगाड़ियों में
बैठ कर उत्तर दिए थे, हम तो कसम खा लिए हैं कि हम पुरखों के
आगे नहीं जाएंगे। हमने तो लक्ष्मण-रेखा खींच दी है उसके आगे, सीता अब मत निकलना। सारे मुल्क को सीता बनाए हुए हैं ये पुरखे और
लक्ष्मण-रेखा खींचे हुए हैं कि आगे मत जाना। इससे आगे जाओगे तो बड़ा खतरा हो जाएगा।
और देखो, सीता गई थी तो कितने खतरे में पड़ गई। इसलिए जाना मत
आगे रेखा के।
और सारी दुनिया सब रेखाएं छोड़ कर अंतरिक्ष की यात्राओं पर निकल जाएगी
और तुम पिछड़ जाना इस जमीन पर। तुम इसी गंदी जमीन पर रह जाना। और सारी दुनिया
अंतरिक्ष के दूर-दूर के लोगों को खोजेगी, सत्यों के न मालूम
कितने अनजान पर्तें उठाएगी, न मालूम सत्य की कितनी प्रतिमाओं
को उघाड़ेगी, न मालूम कितने दुस्साहस के काम करेगी? न मालूम कितने एडवेंचर करेंगे दूसरे मुल्कों के बच्चे? और हमारे बच्चे? हमारे बच्चे क्या कर सकते हैं?
हनुमानजी के मंदिर पर नारियल फोड़ेंगे! क्या करेंगे? जब तुम चांदत्तारों पर चले जाना दूसरे मुल्कों के लोगो, तब भी हमारे बच्चे हनुमानजी के मंदिर पर नारियल फोड़ते रहेंगे और किसी सड़क
के किनारे बैठे बेवकूफ से हाथ की रेखाएं दिखलाते रहेंगे और ताबीज बांधते रहेंगे!
हमारे बच्चे यही करते रहेंगे?
यह बहुत हो चुका। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। यह नहीं होना चाहिए। यह
नहीं होने दिया जा सकता है। लेकिन कौन रोकेगा इसे? कौन इस धारा को
तोड़ेगा? कौन इस बंधे प्रवाह को मिटाएगा? कौन इन जंजीरों को तोड़ेगा? मन बहुत शंकित हो उठता
है। कौन करेगा यह?
लेकिन एक आशा बंधती है, एक आशा बंधती है कि
शायद वक्त आ गया है कि हमारी चेतना इसके लिए तैयार हो। और वक्त शायद इसलिए आ गया
है कि या तो हमें तैयार होना होगा या हमें मिट जाना होगा। दो के अतिरिक्त तीसरा
कोई उपाय नहीं रहा है। शायद इतने दबाव में, इतने प्रेशर में,
मिटने की स्थिति में शायद हमें होश आ जाए, शायद
हम जाग जाएं, शायद हम आंख खोल कर देखें कि दुनिया कहां चली
गई है! इतिहास कहां चला गया है!
हम कंटेंप्रेरी नहीं हैं, इस भूल में मत रहना
कि हम बीसवीं सदी में रह रहे हैं। हम बीसवीं सदी में नहीं रह रहे हैं। हम कोई दस
सदियों पीछे हैं। हम दसवीं सदी में होंगे। और हमारे बीच भी जो दसवीं सदी में होंगे,
वे बड़े प्रोग्रेसिव मालूम पड़ेंगे; क्योंकि
हमारे बीच पांचवीं सदी के और पहली सदी के लोग भी हैं। हम इस जगत के, आज के काल में कंटेंप्रेरी नहीं हैं और इसलिए हमें जितनी पिछड़ी बात हो
उतनी ज्यादा अपील करती है, जिसका कोई हिसाब नहीं। क्योंकि
हमारा चित्त पिछड़ा हुआ है।
अगर विनोबा पैदल चलते हैं तो हमारा हृदय गदगद हो जाता है कि धन्यभाग, कितना अच्छा किया जा रहा है। वे अंतरिक्षयानों पर यात्रा करेंगे और तुम
पैदल चलने वाले महात्मा की इसलिए प्रशंसा करोगे कि वह पैदल चलता है। पिछड़ जाओगे,
मर जाओगे, बच नहीं सकोगे। भविष्य तुम्हारे साथ
खड़ा नहीं होगा। कोई पैदल चले, उसकी खुशी है, मजे की बात है, फायदे की बात है विनोबा के लिए पैदल
चलना, स्वास्थ्यपूर्ण है, लेकिन पैदल
चलने का आदर दुर्भाग्यपूर्ण है। वह आदर गलत है, वह पिछड़ेपन
का आदर है। वह जिंदगी को नये-नये रास्तों पर ले जाने का द्वार उससे नहीं खुलता।
यह हमारी कठिनाई कब छुटेगी? यह कैसे छुटेगी?
एक ही रास्ता दिखता है कि लोगों के मन को झकझोरा जाए, लोगों को हिलाया जाए, उनकी नींद तोड़ी जाए, उनको चोट की जाए कि शायद चोट से वे तिलमिला उठें। लेकिन कुछ तो लोग इतने
मर गए हैं कि चोट ही नहीं लगती, तिलमिलाते भी नहीं। वे
गुस्से में भी नहीं भरते, ऐसी कुछ मौत आ गई है। गुस्से में
भी भर जाएं तो भी कुछ हो जाए। इसकी जरूरत है। वह मैं कर रहा हूं। जो मुझे रचनात्मक
मालूम पड़ता है, वह मैं कर रहा हूं। जो मुझे सेवा मालूम पड़ती
है, वह मैं कर रहा हूं।
लेकिन सेवा के नाम से और रचना के नाम से जो सब चल रहा है, वह मैं नहीं कह रहा हूं। नहीं कर रहा हूं इसलिए कि उसे न मैं सेवा मानता
हूं और न रचना मानता हूं।
विचार इस देश में जग जाए, इसके लिए जो भी किया
जा सकता है, वह सब किया जाना जरूरी और अत्यंत आवश्यक है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, इससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम
करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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