देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो
चौथा-प्रवचन
लकीरों से हट कर
मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि
गांधीजी ने दरिद्रों को दरिद्रनारायण कहा, इससे उन्होंने दरिद्रता को
कोई गौरव-मंडित नहीं किया है, कोई ग्लोरीफाई नहीं किया है।
शायद
आपको पता न हो,
दरिद्रनारायण शब्द गांधीजी की ईजाद है। हिंदुस्तान में एक शब्द चलता
था, वह था लक्ष्मीनारायण। दरिद्रनारायण शब्द कभी नहीं चलता
था, चलता था लक्ष्मीनारायण। मान्यता यह थी कि लक्ष्मी के पति
ही नारायण हैं। ईश्वर को भी हम ईश्वर कहते हैं, ऐश्वर्य के
कारण। वह शब्द भी ऐश्वर्य से बनता है। लक्ष्मी के पति जो हैं वह नारायण हैं।
समृद्धनारायण, ऐसी हमारी धारणा थी। हजारों साल से वही धारणा
थी। धारणा यह थी कि जिनके पास धन है उनके पास धन पुण्य के कारण है, परमात्मा की कृपा के कारण है। धन का एक महिमावान रूप था, धन गौरव-मंडित था, धन की ग्लोरी थी हजारों वर्षों
से। दरिद्र दरिद्र था पाप के कारण, अपने पिछले जन्मों के
पापों के कारण दरिद्र था। धनी धनी था अपने पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण। धन
प्रतीक था उसके पुण्यवान होने का, दरिद्रता प्रतीक थी उसके
पापी होने का। यह हमारी धारणा थी।
इस
धारणा में गांधी ने जरूर क्रांति की और बहुमूल्य काम किया कि उन्होंने
लक्ष्मीनारायण शब्द के सामने दरिद्रनारायण शब्द गढ़ा और उन्होंने कहा कि नहीं
दरिद्र भी नारायण है। लेकिन जैसा अक्सर होता है, जब भी किसी शब्द, किसी विचार, किसी धारणा की प्रतिक्रिया में, रिएक्शन में कोई धारणा गढ़ी जाती है तो जो भूल इस तरफ होती थी अतिशय में
वही भूल दूसरी तरफ हो जाती है। दरिद्र नारायण है, एक समय था
समृद्धनारायण से। नारायण तो सभी हैं। न समृद्धनारायण है, न
दरिद्रनारायण है। नारायण तो सभी हैं। एक अति, एक एक्सियन यह
बात थी कि समृद्ध नारायण है, समृद्धि को ग्लोरीफाई किया गया
था। उसकी प्रतिक्रिया में दूसरी अति यह हो गई कि दरिद्र नारायण है, अब दरिद्र को ग्लोरीफाई किया गया। वह जो ग्लोरी, वह
जो महिमा समृद्ध के साथ जुड़ी थी, वही महिमा समृद्ध से छीन कर
दरिद्र से जोड़ देनी पड़ी।
रवींद्रनाथ
ने एक गीत लिखा है,
रवींद्रनाथ ने गीत लिखा है: कहां खोजते हो प्रभु को, कहां खोजते हो भगवान को, कहां खोजते हो परमात्मा को,
मंदिरों में? नहीं है मंदिरों में। मूर्तियों
में? नहीं है मूर्तियों में। आकाश में? चांदत्तारों में? नहीं है, नहीं
है। भगवान वहां है जहां राह के किनारे मजदूर पत्थर तोड़ता है। यह दूसरी अति हो गई।
चांदत्तारों में भी परमात्मा है, फूलों में भी, सब जगह, मंदिरों में भी, जो भी
है वही परमात्मा है। लेकिन कल तक एक अति थी कि इस दीन और दरिद्र में परमात्मा को
नहीं देखा जा रहा था, आज उसकी प्रतिक्रिया में, रिएक्शन में दूसरी अति हो गई कि नहीं है वहां। यहां है, जहां मजदूर पत्थर तोड़ता है। यह दूसरी अति है। महिमा बदल दी गई।
गांधीजी
ने एक क्रांतिकारी कदम उठाया दरिद्र को नारायण कह कर, लेकिन
जैसा कि सदा होता है, एक अति से दूसरी अति पर व्यक्ति चला
जाता है, एक अति से दूसरी अति पर विचार चला जाता है। जब किसी
ने, गांधी इंग्लैंड गए और गांधी के सेक्रेटरी बर्नार्डशा को
मिले और बर्नार्डशा को गांधी के सेक्रेटरी ने कहा कि आपकी गांधी के संबंध में क्या
धारणा है? बर्नार्डशा ने कहा, और सब तो
ठीक है, लेकिन दरिद्रनारायण शब्द मेरे बर्दाश्त के बाहर है।
दरिद्र को तो मिटाना है, उससे तो घृणा करनी है, उसे तो समाप्त कर देना है, दरिद्र को बचने नहीं देना
है। और सब तो ठीक है, यह दरिद्रनारायण शब्द मेरी समझ के बाहर
है।
नेहरू
ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा कि गांधी की बहुत सी बातें मेरी समझ में नहीं आती
हैं। यह दरिद्रनारायण शब्द मेरी समझ में नहीं आ सका है। यह शब्द ठीक नहीं है।
दरिद्र को तो मिटाना है,
दरिद्र को तो समाप्त करना है, दरिद्र को तो
बचने नहीं देना है। और उसे जब हम नारायण जैसे महत्वपूर्ण महिमा से मंडित करेंगे तो
जाने-अनजाने जिसे हम महिमा देना शुरू करते हैं उसे हम मिटाना बंद कर देते हैं। वह
मनोवैज्ञानिक घटना है, जिसे हम महिमा देते हैं उसे नष्ट करने
का विचार छूटना शुरू हो जाता है। अगर दरिद्र को महारोग कहें तो मिटाने का खयाल
आएगा, दरिद्र को नारायण कहें तो पूजा का खयाल आएगा। यह तो
मनोवैज्ञानिक प्रतिफलन होगा उसका।
सवाल
यह नहीं है कि गांधी महिमामंडित करते हैं या नहीं। दरिद्रनारायण कहने से दरिद्रता
महिमामंडित होती है और दरिद्रनारायण कहने से ऐसा नहीं लगता कि इसको मिटाना है।
दरिद्रनारायण कहने से ऐसा लगता है कि पूजा करनी है। नारायण की हम सदा से पूजा करते
रहे हैं, लेकिन हम कहेंगे कि दरिद्र महारोग है तो सीधा खयाल उठता है कि मिटाना है,
नष्ट करना है, समाप्त कर देना है। यह प्रश्न
तो हमारी मनोवैज्ञानिक प्रतिफलन का है कि हमारे मन पर क्या प्रतिफलन होता है।
छोटे-छोटे शब्द भी हमारे मानस को गतिमान करते हैं और हमारे मानस में, हमारे कलेक्टिव मानस में, हमारे अचेतन में, हमारे समूह मन में शब्दों की करोड़ों वर्ष की परंपरा है और स्थान है।
नारायण को मिटाने की हमने कभी कल्पना ही नहीं की है मनुष्य-जाति के इतिहास में।
नारायण को सदा हमने पूजा है, उसे मंदिर में उसके चरणों पर
सिर रखा है। नारायण को सदा हमने हाथ जोड़े हैं। नारायण को मिटाने की कल्पना ही
असंभव है हमारे चित्त को। जब भी हम किसी के साथ नारायण जोड़ देंगे तो स्वभावतः वह
जो हमारा हजारों वर्षों का बना हुआ मन है वह नारायण को मिटाने को आतुर नहीं रह
जाएगा।
दरिद्रनारायण
शब्द दुर्भाग्यपूर्ण है। उससे समृद्धनारायण को उत्तर तो मिल गया, लेकिन घड़ी
का पेंडुलम एक कोने से दूसरे कोने पर पहुंच गया। एक बीमारी से दूसरी बीमारी पर
पहुंच गया। न तो समृद्ध नारायण है और न दरिद्र नारायण है। नारायण तो सभी हैं,
इसलिए किसी को विशेष रूप से नारायण कहना खतरनाक है। एकदम खतरनाक है।
लेकिन प्रतिक्रिया में ऐसा होता है। अब तक ब्राह्मण प्रभु के लोग थे, परमात्मा के लोग थे, गॉड चूजन थे, ईश्वर के चुने हुए लोग थे। गांधीजी ने उसकी प्रतिक्रिया में हरिजन शब्द
चुना, शूद्रों के लिए। जो कि कभी भी प्रभु के कृपापात्र नहीं
रहे, जिनको प्रभु की कृपापात्र होने का कोई सवाल न था।
कृपापात्र थे स्वर्ण, कृपापात्र थे ब्राह्मण, क्षत्रिय। शूद्र? शूद्र तो बाहर था जीवन के। उस पर
कृपा की कोई किरण परमात्मा की कभी नहीं पड़ी थी। ठीक किया गांधी ने। हिम्मत की कि
उसको कहा हरिजन, लेकिन हरिजन कहने से वही भूल फिर दोहरा दी
गई। हरिजन थे ब्राह्मण अब तक, परमात्मा के लोग वे थे। उनसे
छीन कर महिमा हमने शूद्र को दे दी। लेकिन जरूरत इस बात की है कि महिमा किसी के पास
बंधी न रह जाए। महिमा वितरित हो जाए और सबकी हो जाए। हरिजन हैं सब। जब तक ब्राह्मण
हरिजन थे तब तक शूद्र हरिजन न था। और अगर हम शूद्र को हरिजन कहते हैं तो हम दूसरी
भूल करते हैं। ब्राह्मण के प्रति एक विरोध और वैमनस्य पैदा होगा। वह जो दक्षिण
भारत में ब्राह्मण के प्रति वैमनस्य और विरोध पैदा हो रहा है वह दूसरी प्रतिक्रिया
है, वह दूसरी प्रतिक्रिया है कि अब नीचे जो शूद्र है वह हो
गया हरिजन। अब वह चूजन पिपुल अब वे हो गए। तो अब ब्राह्मण को नीचे, अपदस्थ करना है।
यह
खेल कब तक चलेगा?
इस खेल को हम समझेंगे, इसके राज को? इसके राज को हम समझेंगे तो यह समझना जरूरी है कि प्रत्येक मनुष्य परमात्मा
है। चाहे वह दरिद्र हो, चाहे समृद्ध हो, चाहे बीमार हो, चाहे स्वस्थ हो, चाहे काला हो, चाहे गोरा हो, चाहे
स्त्री हो, चाहे पुरुष हो--प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है।
इसे किसी भी वर्ग विशेष को परमात्मा का नाम देना उसे महिमामंडित करना है। मैं
जानता हूं कि गांधी की मजबूरी थी। वह एक प्रतिक्रिया में, एक
विरोध के लिए उन्होंने एक बात चुनी होगी। लेकिन अब चालीस-पचास साल के बाद उस शब्द
को एकदम तत्काल छोड़ देना जरूरी है। अब उस शब्द को पकड़ लिए जाना ठीक नहीं है। और यह
भी ध्यान रहे कि दरिद्र को न तो महिमा देनी है और न दरिद्र के साथ सहानुभूति प्रकट
करनी है, यह भी ध्यान रहे। दरिद्र के साथ सहानुभूति, दया खतरनाक बातें हैं। दरिद्र के साथ दया नहीं करनी है, दरिद्रता को मिटाना है ताकि दरिद्र न रह जाए। दरिद्र के साथ दया करने से
दरिद्रता मिटती नहीं है। दरिद्र के साथ दया करने से दरिद्रता चलती है, पोषित होती है। भिखमंगे को हम रोटी दे देते हैं, इससे
भिखमंगापन नहीं मिटता। भिखमंगे को दी गई रोटी भिखमंगेपन को दी गई रोटी सिद्ध होती
है। वह रोटी भिखमंगे के पेट में ही नहीं पहुंचती, भिखारीपन
के पेट में पहुंच जाती है। और भिखारीपन जीता है और मजबूत होता है। भिखारी को
मिटाना है। दया पर्याप्त नहीं है, दया बहुत तरकीब की बात है।
शोषक
समाज ने हजारों वर्षों में दया का आविष्कार ईजाद किया है, दान और
दया का। ये तरकीबें हैं। जिससे नीचे के पीड़ित वर्ग को राहत देने का उपाय किया जाता
है। अन्यथा बगावत हो सकती है, क्रांति हो सकती है। इसलिए दया
और दान, थोड़ी सी व्यवस्था बनाए रखनी पड़ती है, ताकि वह जो नीचे पीड़ित है उसको ऐसा न लगे कि मुझे बिलकुल छोड़ दिया गया।
उसे लगे कि नहीं दया की जाती है, दान किया जाता है, धर्म किया जाता है। यह दया, दान और धर्म गरीब का
अपमान है। और जिस समाज में दान, दया, धर्म
की जरूरत पड़ती है, वह समाज स्वस्थ, सुंदर
समाज नहीं है, वह समाज रुग्ण है। और जब तक दुनिया में दया,
दान और सहानुभूति की जरूरत हम पैदा करते रहेंगे, तब तक हम अच्छे मनुष्य को पैदा नहीं कर सकेंगे।
एक
ऐसा समाज चाहिए जहां कोई दया मांगने के लिए तैयार न हो। एक ऐसा समाज चाहिए जो ऐसे
लोगों को पैदा न कर देता हो, जिनको आपकी सहानुभूति की जरूरत पड़े। कभी आपने
खयाल किया कि जिस पर आप दया करते हैं वह दया आपके अहंकार को मजबूत कर जाती है,
वह दया आपको मजबूत कर जाती है कि मैं कुछ हूं, मैंने कुछ किया। और जिस पर आप दया करते हैं उसके मन को पश्चात्ताप,
ग्लानि और चोट से भर जाती है कि मेरा अपमान किया गया है। आप ध्यान
रखना, जिस पर भी आपने दया की उसको आपने बहुत गहरे में अपना
शत्रु बना लिया है, मित्र नहीं। वह आपसे बदला लेगा। क्योंकि
कोई भी आदमी अपमानित होता है जब उसे दया मांगनी पड़ती है। पीड़ित होता है, ऊपर से मुस्कुराकर कहता है कि भगवान तुम्हें सुखी रखे, लेकिन वह जानता है, वह भलीभांति जानता है कि उसे इस
हालत में कौन ले आया है? कैसे वह इस हालत में आ गया है?
ऊपर से धन्यवाद देता है। लेकिन भीतर? भीतर
उसके भीर् ईष्या पलती है और अपमान पलता है।
नहीं, दया के
आधार पर दो व्यक्तियों के बीच मैत्री कभी पैदा नहीं होती। इसलिए अक्सर लोग कहते
सुने जाते हैं कि मैंने उस आदमी के साथ भला किया और वह मेरे साथ बुरा कर रहा है।
नेकी का फल बदी से मिल रहा है। हमेशा मिलेगा। क्योंकि नेकी अपमान करती है किसी का,
और नेकी तुम्हारे अहंकार को मजबूत करती है और दूसरे मनुष्य को पीड़ित
करती है। नहीं, अब हम दया और धर्म पर नहीं जी सकते हैं और न
जीने की जरूरत है। अब तो हमें समझना होगा कि दरिद्र क्यों पैदा होता है? दरिद्रता कहां से जन्म लेती है? उस जड़ को काट देना
होगा। एक तरफ जड़ को मजबूत किए चले जाते हैं और शाखाओं और पत्तों को काटते हैं। यह
कैसा पागलपन है! एक आदमी रोज पानी देता हो एक वृक्ष में, और
फिर पत्तों को काटता हो, और रोज पानी देता हो वृक्ष में। हम
जो कर रहे हैं सब मिल कर उससे दरिद्र पैदा हो रहा है। फिर एक-एक दरिद्र को हम
भिक्षा देते हैं, धर्मशाला बनाते हैं, औषधालय
खोलते हैं।
इधर
ऊपर से हम यह व्यवस्था करते हैं और जो हम कर रहे हैं सारा समाज मिल कर उससे दरिद्र
पैदा हो रहा है। यह बड़ी अजीब बात है कि सारा समाज मिल कर रोग पैदा करे और फिर रोग
के इलाज के लिए अस्पताल खोले। यह कुछ समझ में आने जैसी बात नहीं है। लेकिन अब तक
हमें समझ में आती थी,
क्योंकि हमने व्यक्तिगत संपत्ति को प्रत्येक व्यक्ति के अपने कर्मों
का फल समझा हुआ था। वह बात गलत है। कर्मों के फल हैं, जन्म
हैं, पुनर्जन्म हैं, लेकिन संपत्ति
कर्मों के फल से उपलब्ध नहीं, संपत्ति समाज के वितरण की व्यवस्था
पर निर्भर है।
लेकिन
अब तक हमारी धारणा यही थी कि गरीब गरीब है अपने कर्मों के कारण, अमीर अमीर
है अपने कर्मों के कारण। इस दृष्टिकोण ने, इस कंसेप्ट ने,
इस सिद्धांत ने हिंदुस्तान की गरीबी को तोड़ने के सब उपाय मुश्किल कर
दिए थे। और आज भी हिंदुस्तान में गरीबी नहीं टूट रही। तो उसके पीछे हमारी फिलासफी
है, हमारा दृष्टिकोण है। वह हमारा दृष्टिकोण यह है कि गरीब
समझता है कि मैं गरीब हूं अपने फलों के कारण, अमीर अमीर है
अपने फलों के कारण। हमारे दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है, अपने-अपने
फलों से संबंध है। यह तरकीब बहुत होशियारी की साबित हुई। यह तरकीब बहुत होशियारी
की साबित हुई। इससे मेरे पिछले जन्मों को मुझसे जोड़ दिया गया, लेकिन समाज से मुझे तोड़ दिया गया। समाज के ऊपर मेरी गरीबी-अमीरी का कोई
सवाल न रहा, कोई प्रश्न न रहा।
यह
धर्म की धारणा ने निश्चित ही व्यक्तिगत संपत्ति को बचाने का अदभुत उपाय किया है।
इसीलिए सारे धर्मशास्त्र दुनिया के कहते हैं, चोरी पाप है, लेकिन दुनिया का एक भी धर्मशास्त्र नहीं कहता कि शोषण पाप है। दुनिया का
कोई धर्मशास्त्र कैसे कह सकता है कि शोषण पाप है? वे कहते
हैं, चोरी पाप है। कभी आपने सोचा कि इसके इंप्लीकेशंस क्या
हैं, इसके मतलब क्या हैं? इसका मतलब यह
है कि चोरी हमेशा गरीब का कृत्य है अमीर के खिलाफ, चोरी
हमेशा उनका कृत्य है जिनके पास संपत्ति नहीं, उनके खिलाफ
जिनके पास संपत्ति है। धर्म संपत्तिशाली की रक्षा कर रहा है। वह कहता है, चोरी पाप है। लेकिन वह यह नहीं कहता कि शोषण पाप है। शोषण अमीर का कृत्य
है दरिद्र के खिलाफ। धर्मग्रंथ कोई भी नहीं कहता कि शोषण पाप है। एक अर्थों में
माक्र्स की किताब दुनिया का एक नया धर्मग्रंथ है, जो शोषण को
पाप कहता है। और अगर माक्र्स हिंदुस्तान में पैदा हुआ होता, तो
हमने अपने अवतारों में उसकी गिनती की होती। हम निश्चित उसको अपने अवतारों में
गिनते। क्योंकि उसने धर्म और जीवन के संबंध में एक नये सूत्र को स्थापित किया है
और वह यह कि शोषण पाप है। और जब तक शोषण का पाप जारी है तब तक चोरी जैसे छोटे पाप
पैदा होते रहेंगे। वह उसकी बाइ-प्रोडक्ट है। वह उससे आएंगे और मिट नहीं सकेंगे।
मैं यह नहीं कहता हूं कि शोषक पापी है, मैं कहता हूं,
शोषण पाप है।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं पूंजीपति में और पूंजीवाद में क्या
फर्क करता हूं?
क्या मैं कहना चाहता हूं कि पूंजीवाद जिम्मेवार है, पूंजीपति जिम्मेवार नहीं है?
हां, मैं फर्क
करता हूं और कहना चाहता हूं कि पूंजीपति और पूंजीहीन, शोषक
और शोषित, दोनों शोषण के यंत्र के परिणाम हैं। शोषण का यंत्र
जारी है। उस शोषण के यंत्र में सारे लोग श्रम कर रहे हैं। वह जिसके पास धन नहीं है,
आप सोचते हैं, वह धन पाने के लिए श्रम नहीं कर
रहे? वह धन पाने के लिए श्रम कर रहे? नहीं
कर पा रहे यह दूसरी बात है। जो गरीब है वह अमीर होने की कोशिश नहीं कर रहा?
नहीं हो पा रहा यह दूसरी बात है। जो धनहीन है, वह भी धनाकांक्षी है। जो धनवान है, वह गरीब होने से
बचने की कोशिश नहीं रह रहा? वह धनवान है लेकिन गरीब न हो जाए,
इसकी पूरी कोशिश में लगा हुआ है। जो गरीब है वह अमीर कैसे हो जाए,
इसकी पूरी कोशिश में लगा हुआ है। कुछ लोग सफल हो गए हैं, कुछ लोग असफल हो गए हैं, यह दूसरी बात है। हम सारे
लोग इस कमरे में दौड़ने की कोशिश करें और हमारे इस भवन का यह नियम हो कि जो प्रथम आ
जाएगा वह सर्वश्रेष्ठ होगा। हम सारे लोग दौड़ेंगे, लेकिन
प्रथम तो एक ही आ सकता है। जो आ जाएगा वह जिम्मेवार है प्रथम आने के लिए या कि वह
व्यवस्था जो कहती है कि प्रथम आना श्रेयस्कर है, वह व्यवस्था
जिम्मेवार है? जो नहीं आ सके उनका कोई बड़ा पुण्य कर्म है कि
वे नहीं आ सके? उन्होंने भी दौड़ने की पूरी कोशिश की है जी
जान से। वे नहीं आ सके यह दूसरी बात है। जिनके पास धन नहीं है उन दोनों की दौड़
समान है। दोनों धनाकांक्षी हैं--धनाढय भी, धनहीन भी--दोनों
धनाकांक्षी हैं।
धनाकांक्षा
का यह जो समाज है वह जिम्मेवार है। धनपति जिम्मेवार नहीं है पूंजीवाद के लिए, पूंजीवाद
जिम्मेवार है धनपति को पैदा करने के लिए। हमारी जो चिंतना है पूंजी को संगृहीत
करने की, हमारा जो विचार है कि पूंजी को उपलब्ध कर लेना,
पूंजी का मालिक हो जाना, पूंजी पर कब्जा कर
लेना, श्रेयस्कर है जीवन में। यह जो हमारी पूरी व्यवस्था
है...फिर जो आदमी पूंजी को उपलब्ध कर लेता है, उसे हम देते
हैं सम्मान। बड़े मजे की बात है, दरिद्र भी उसे सम्मान देता
है जो पूंजी उपलब्ध कर लेता है। दरिद्र भी हाथ बंटा रहा है पूंजी के सम्मान में।
दरिद्र पूरा आदर देता है उसे जो जीत जाता है। दरिद्र खुद उसे अपमानित करता है जो
उससे दरिद्र है। वह उसको स्वीकार नहीं करता। सम्राट सम्राटों से मिलते हैं,
पूंजीपति पूंजीपतियों से मिलते हैं, चमार
चमारों से मिलते हैं। चमार भी भंगी से मिलना पसंद नहीं करते। वह नीचे उनका और भी
ज्यादा दरिद्र है। उससे मिलने को वह भी राजी नहीं है। वे उसके साथ भी चाहते हैं कि
रास्ते पर नमस्कार वह उन्हें करे।
पूरे
समाज की मनोवृत्ति धनाकांक्षी है, पूरे समाज का चित्त पूंजीवादी है। गरीब का भी,
भिखमंगे का भी, सम्राट का भी, धनपति का भी, इसमें धनपति को जिम्मा देने की जरूरत
नहीं है। हम सब जिम्मेवार हैं, हम इकट्ठे जिम्मेवार हैं।
निकृष्टतम, दरिद्रतम और श्रेष्ठतम और धनवान, हम सब इकट्ठे जिम्मेवार हैं इस समाज को निर्मित करने में। और इसलिए यह बात
गलत है कि कोई कहे कि पूंजीपति जिम्मेवार है। पूंजीपति भी उसी व्यवस्था का पैदावार
है, जिस व्यवस्था की पैदावार गरीब है। वे दोनों एक ही
व्यवस्था से उत्पन्न हुए। और गरीब भी पूंजीवाद को जमाए रखने में उतना ही सहयोगी है
जितना अमीर।
पूंजीवाद
जिस दिन जाएगा उस दिन अमीरी ही नहीं जाएगी, गरीबी भी चली जाएगी। पूंजीवाद के
जाने के साथ ही गरीब-अमीर दोनों चले जाएंगे। वे दोनों पूंजीवाद के हिस्से हैं।
उसमें गरीब उतना ही जिम्मेवार है। यह हमें कभी-कभी दिखाई नहीं पड़ता है। हमें यह
दिखाई पड़ता है कि एक ताकतवर आदमी ने एक कमजोर आदमी की छाती पर पैर रख कर खड़ा हो
गया है, तो हम कहते हैं, यह ताकतवर
आदमी बुराई कर रहा है। लेकिन हम नहीं जानते कि कमजोर आदमी बुराई क्यों करने दे रहा
है? दोनों जिम्मेवार हैं। वह कमजोर है, और वह सहने को राजी है किसी को छाती पर। तो छाती पर पैर रखने वाला जितना
जिम्मेवार है इस कृत्य में, छाती पर जिसने पैर रखने दिया है,
वह भी उतना ही जिम्मेवार है। कमजोर हमेशा से उतने ही जिम्मेवार हैं
जितने ताकतवर। कायर हमेशा से उतने ही जिम्मेवार हैं जितने बहादुर। हम कहते हैं कि
हमारे ऊपर मुसलमान आए और उन्होंने हमें गुलाम बना लिया, मुसलमान
जिम्मेवार है। और आप जिम्मेवार नहीं हैं जो गुलाम बने? गुलाम
उतना ही जिम्मेवार है जितना गुलाम बनाने वाला। और जब तक गुलाम ऐसा सोचता है कि
गुलाम बनाने वाले जिम्मेवार हैं, तब तक वह बिलकुल गलत बात
सोचता है। गुलामी दोनों के हाथ के जोड़ का परिणाम है। गुलाम बनाने वाले का और गुलाम
बनने वाले का। और जब तक दुनिया में गुलाम बनने को लोग मौजूद हैं तब तक गुलाम बनाने
वाले लोग भी हमेशा मौजूद रहेंगे। यह जिम्मेदारी दोनों तरफ है।
स्त्रियां
कहती हैं कि पुरुषों ने हमें दबा लिया है, लेकिन स्त्रियों को जानना चाहिए कि
वे दबने को तैयार हैं और इसलिए पुरुषों ने दबा लिया है, अन्यथा
कौन किसको दबा सकता है। कोई किसी को नहीं दबा सकता। लेकिन हम हमेशा यह देखते हैं
कि दूसरा जिम्मेवार है। अंग्रेज जिम्मेवार है, हमको गुलाम
बना लिया। और तुम चालीस करोड़ नपुंसक क्या करते थे कि अंग्रेज तुम्हें गुलाम बना
सके? हम कम से कम मर तो सकते थे--अगर और कुछ नहीं कर सकते
थे। मुर्दों को तो गुलाम नहीं बनाया जा सकता था? कम से कम
आखिरी रूप में एक ताकत तो आदमी के हाथ में है कि वह मर सकता है, एक च्वाइस तो कम से कम हाथ में है हर आदमी के कि वह आत्महत्या कर सकता है।
मैंने
सुना है कि जर्मनी ने हालैंड पर हमला करने का विचार किया। हालैंड तो बहुत समृद्ध
मुल्क नहीं है और हालैंड के पास बहुत सुसज्जित सेनाएं भी नहीं हैं। हालैंड के पास
बड़ी शक्ति भी नहीं हैं। जर्मनी से जीतने का तो कोई उपाय भी नहीं है उसके पास।
लेकिन हालैंड ने तय किया कि चाहे हम मर जाएंगे, लेकिन हम गुलाम नहीं बनेंगे। पर
लोगों ने पूछा कि हम करेंगे क्या? कैसे गुलाम नहीं बनेंगे?
तो हालैंड का आपको पता होगा, उसकी जमीन नीची
है समुद्र की सतह से। समुद्र के चारों तरफ दीवालें और परकोटे उठा कर उसको अपनी
जमीन को बचाना पड़ता है। तो हालैंड के एक-एक कम्यून ने, एक-एक
गांव की कौंसिल ने यह तय किया कि जिस गांव पर हिटलर का कब्जा हो जाए वह गांव अपनी
दीवालें तोड़ दे और समुद्र को गांव के ऊपर आ जाने दे। पूरा गांव डूब जाएगा, हिटलर की फौजें भी डूब जाएंगी। हालैंड को हम पूरा डुबा देंगे समुद्र के
नीचे, लेकिन इतिहास यह नहीं कह सकेगा कि हालैंड गुलाम हुआ।
ऐसी
कौम को गुलाम बनाना मुश्किल है। क्या करिएगा? आखिर गुलाम बनाने के लिए आदमी का
जिंदा रहना तो जरूरी है? कमजोर आदमी को भी मरने का हक तो है।
कमजोर आदमी भी मरना नहीं चाहता, इसलिए गुलाम बनने को राजी
होता है और गुलामी में उसका हाथ है। कोई अपने को बचा नहीं सकता। यह जो पूंजी की
व्यवस्था है, यह जो शोषण की व्यवस्था है, इसमें गरीब आदमी का हाथ उतना ही है जितना अमीर आदमी का हाथ है। इसमें
भिखमंगों का हाथ उतना ही है जितना शहनशाहों का हाथ। यह तो दोनों के जोड़ का फल है।
इसलिए
मैं नहीं कहता कि पूंजीपति का हाथ है, मैं कहता हूं, हम सबका हाथ है। और जब तक हम यह न समझेंगे कि हम सबका हाथ है, तब तक हम इस शोषण की व्यवस्था को नहीं बदल सकेंगे। अगर पूंजीपति का हाथ है
तो किसी पूंजीपति को गोली मार दो, तो कोई फर्क पड़ेगा?
दूसरा पूंजीपति पैदा हो जाएगा, क्योंकि
व्यवस्था काम कर रही है। किसी पूंजीपति को समझा-बुझा कर उसकी संपत्ति बंटवा दो,
तो कोई फर्क पड़ेगा? संपत्ति बंट जाएगी,
दूसरा पूंजीपति खड़ा हो जाएगा, क्योंकि
व्यवस्था काम कर रही है। व्यवस्था काम कर रही है, सिस्टम काम
कर रही है, उस सिस्टम से सारी चीजें पैदा हो रही हैं,
उस व्यवस्था से पैदा हो रही हैं।
इसलिए
जो समाजवादी पूंजीपतियों के प्रति घृणा फैलाते हैं, वे गलत काम करते हैं। वह
काम ठीक नहीं है। समाजवाद पूंजीपति के प्रति घृणा नहीं है, समाजवाद
पूंजीपति, दरिद्र, धनवान सबको मिटाने
का उपाय है। समाजवाद पूंजीवाद के विरोध में है, पूंजीपति के
विरोध में नहीं है। पूंजीपति के विरोध से कुछ प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन है
पूंजीवाद से, वह जो कैपिटलिज्म है, वह
जो हमारी पूंजी के प्रति निष्ठा है, वह जो हम पूंजी को
मनुष्य से ज्यादा मूल्य देते हैं, वह जो हम पूंजी को जीवन का
परमात्मा बनाए हुए हैं, वह जो हम पूंजी के लिए ही जीते और
मरते हैं--गरीब भी, अमीर भी, यह जो पूंजी
का सारा का सारा इंतजाम है--इस पूंजी के केंद्र को तोड़ देना समाजवाद है।
समाजवाद
गरीब की लड़ाई नहीं है पूंजीपति के खिलाफ। समाजवाद पूंजीपति की, गरीब की,
सबकी लड़ाई है पूंजी के खिलाफ; यह समझ लेना
जरूरी है और जिस दिन हम यह समझ सकेंगे की पूंजीवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई है,
पूंजीपति के खिलाफ नहीं, तो पूंजीपति भी इस
लड़ाई में साथी और सहयोगी होगा। समाजवादियों की इस गलत धारणा ने कि हम पूंजीपति के
खिलाफ लड़ रहे हैं, समाज को अजीब हालत में डाल दिया है।
उन्होंने एक ऐसी हालत पैदा कर दी कि लड़ाई पूंजीपति के खिलाफ है। तो पूंजीपति
समाजवाद का नाम सुन कर ही भयभीत होता है। वह सुनता है कि समाजवाद, यानी मेरी दुश्मनी। समाजवाद पूंजीपति की दुश्मन नहीं है। समाजवाद गरीब से
गरीबी छीन लेगा, अमीर
से अमीरी छीन लेगा। और गरीब भी ठीक अर्थों में नारायण नहीं हो पाता, अमीर भी ठीक अर्थों में नारायण नहीं हो पाता। अमीर-नारायण भी तकलीफ में
रहता है पूंजी की, गरीब-नारायण तकलीफ में रहता है गरीबी की।
जिस दिन हम गरीब की गरीबी छीन लेंगे, अमीर की अमीरी छीन
लेंगे, उस दिन हम प्रत्येक मनुष्य को मनुष्य होने का पूरा हक
देंगे, उस दिन मनुष्य-नारायण का जन्म होगा। न तो समृद्धनारायण
की पूजा जरूरत है, न दरिद्रनारायण की पूजा की जरूरत है। पूजा
की जरूरत है नारायण की। और नारायण प्रकट नहीं हो पा रहा है, क्योंकि
पूजा पूंजी की चल रही है, नारायण की पूजा कैसे हो सकती है?
इसलिए मैंने कहा कि मैं उस शब्द को पसंद नहीं करता हूं।
कुछ मित्रों ने यह पूछा है कि समाजवाद की, समानता की
मैं जो बात करता हूं, क्या उसका यह अर्थ है कि सबकी संपत्ति
बिलकुल समान कर दी जाए? क्या उसका अर्थ है कि सबको तनख्वाहें
बिलकुल बराबर दे दी जाएं? क्या उसका अर्थ है कि प्रत्येक
आदमी को एक सा मकान दे दिया जाए?
नहीं, उसका यह
अर्थ नहीं है। उसका यह अर्थ है कि प्रत्येक आदमी को जीवन में विकास का समान अवसर
दे दिया जाए। अभी हम पूंजी के इतने प्रभाव में हैं कि जब भी हम समानता की बात
सोचते हैं, तो तत्काल हमारे सामने जो पहला सवाल उठता है वह
यह है कि बराबर नौकरी, बराबर तनख्वाह, बराबर
मकान। यह पूंजी का प्रभाव है कि तत्काल हमें पूंजी को समान करने का ध्यान आता है,
क्योंकि हम पूंजी से प्रभावित हैं, हम पूंजी
के अतिरिक्त कुछ सोच ही नहीं सकते। हमें मनुष्य का सवाल ही नहीं है, सवाल पूंजी का है। हजारों साल से पूंजी की धारणा के नीचे जीने से, जब भी समाजवाद की दृष्टि उठती है, तो हम समझते हैं
पूंजी।
नहीं, सवाल
मूलतः यह नहीं है कि सब आदमियों को बराबर-बराबर तनख्वाह मिल जाए। तनख्वाह का मूल्य
नहीं है, मूल्य इस बात का है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन का
समान अवसर मिल जाए। अब एक घर में एक आदमी मोटा है और एक आदमी दुबला है, तो समान रोटी खिलाने से बड़ी झंझट पैदा हो जाएगी। कि समाजवाद का मतलब यह
नहीं है कि सब लोगों को बराबर रोटी खानी पड़ेगी। अब एक मोटा आदमी है, उसकी कम रोटी में जान निकल जाएगी और पतले आदमी को ज्यादा रोटी खिलाने से
जान निकल जाएगी। यह मतलब नहीं है। लेकिन प्रत्येक आदमी को जीवन का समान अवसर
उपलब्ध हो सके, जीवन के विकास का, परमात्मा
तक पहुंचने का, संगीत तक, सत्य तक,
धर्म तक, जीवन की सुविधा का समान अवसर मिल
सके। और जितने दूर तक यह संभव हो सके, जितने दूर तक यह उचित
हो सके, उतने दूर तक वर्गों का फासला निरंतर कम से कम होता
चला जाए।
अब
हिंदुस्तान में एक आदमी एक रुपया कमा नहीं पा रहा है रोज और दूसरा आदमी रोज पांच
लाख रुपये कमा रहा हो। यह फासला? यह घबड़ाने वाला फासला है। यह अमानवीय है,
इनह्यूमन है। और हम कहते हैं कि हम धार्मिक लोग हैं! धार्मिक लोग हम
होते, तो इतने अमानवीय, इतने अधार्मिक
फासले सह सकते थे? लेकिन हमारा धर्म इसमें है कि हम माला
फेरते हैं, वह हमारा धर्म है।
अभी
एक बहन ने मुझे आकर कहा,
कि किसी धार्मिक को वह साथ में लाई होंगी, उन्होंने
कहा, अरे, यह तो ब्रह्म की कोई बात ही
नहीं कर रहे हैं, यह तो सब संसार की ही बातें कर रहे हैं।
ब्रह्म
की बातों को लोग समझते हैं धार्मिक हो गए। ब्रह्म की बात कर ली तो धार्मिक हो गए।
धार्मिक ब्रह्म की बात करने से कोई नहीं होता, धार्मिक होता है इस जगत में ब्रह्म
को उतारने की संभावना बढ़ाने से। इस जगत में ब्रह्म अवतरित हो। ब्रह्म की बकवास तो
ग्रंथों में बहुत लिखी है, परिभाषा बहुत लिखी है और कोई भी
मूढ़जन याद कर सकता है कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। इसको याद करने में कोई
बहुत बुद्धिमानी की जरूरत नहीं है। लेकिन ब्रह्म सत्य हो कहां पाया है। जगत ही
सत्य बना हुआ है। ब्रह्म तो बिलकुल असत्य है। ब्रह्म सत्य हो सकता है, जब हम इस जगत में ब्रह्म के विकास की अधिकतम सुविधा और समान सुविधा जुटा
सकेंगे तो ब्रह्म प्रकट हो सकता है। तो ब्रह्म सत्य होगा और जगत मिथ्या होगा।
बुद्ध के लिए, महावीर के लिए ब्रह्म सत्य हो गया, जगत मिथ्या हो गया। लेकिन हमारे लिए? हमारे लिए रोटी
सत्य है और ब्रह्म मिथ्या है। हमारे लिए शरीर सत्य है और आत्मा मिथ्या है।
सूत्र
रटने से कुछ भी नहीं होगा,
बल्कि हम सूत्र रटते ही इसलिए हैं। जिस आदमी को यह पता चल चुका हो
कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है, वह रोज सुबह बैठ कर,
आंख बंद करके यह कहेगा कि ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या? पता चल गया हो, तो पागल हो गया, उसको कहने की जरूरत? एक पुरुष एक कोने में बैठ कर कहे कि मैं पुरुष हूं, मैं
पुरुष हूं, तो सबको शक हो जाएगा कि यह आदमी पुरुष नहीं है।
क्या बात का सबूत है! तुम पुरुष हो यह तुम्हें पता है, बात
खत्म हो गई। अब इसको रोज-रोज दोहराने की और सत्संग करने की जरूरत नहीं रही समझने
जाने के लिए कि मैं पुरुष हूं या नहीं। जब तक संदेह है तब तक इस तरह की बातों की
पुनरुक्ति है। जो लोग सुबह बैठ कर दोहराते हैं ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या, उनको जगत सत्य दिखाई पड़ता है, ब्रह्म मिथ्या दिखाई
पड़ता है। इस स्थिति को उलटाने के लिए बेचारे जोर-जोर से रट रहे हैं कि नहीं-नहीं
जगत असत्य है, ब्रह्म सत्य है। जो उन्हें दिखाई पड़ रहा है
उसको मिटा डालने के लिए, पोंछ डालने के लिए, उलटा कर लेने के लिए ये सारी बातें कर रहे हैं। इन बातों से ब्रह्मज्ञान
का कोई संबंध नहीं है।
ब्रह्मज्ञान
का संबंध ब्रह्म की चर्चा से नहीं, इस जगत में ब्रह्म की कैसे अवतारणा
हो, कैसे डिसेंड हो सके वह जो डिवाइन है, वह जो दिव्य है, वह कैसे इस पृथ्वी पर आ सके,
अधिकतम प्राणों में कैसे आकर वह स्पर्श कर सके, अधिकतम प्राणों में कैसे उसका संगीत गूंज सके। लेकिन जिन प्राणों को शरीर
से ही मुक्त होने का उपाय न मिलता हो, उन प्राणों में ब्रह्म
के अवतरण की संभावना कहां?
इसलिए
मैं कहता हूं कि समाजवाद आने पर जगत में ब्रह्मवाद आने के द्वार खुल जाएंगे। अब तक
दुनिया में व्यक्ति हो सके हैं ब्रह्मवादी, समाज नहीं हो सका। अरबों-खरबों
व्यक्तियों में अगर एकाध व्यक्ति ब्रह्मवादी हो जाता है, इसका
मूल्य कितना हो सकता है? अगर हम इतिहास उठा कर देखें दस हजार
वर्ष का, तो हम दस-पच्चीस नाम गिना सकेंगे मुश्किल से कि ये
ब्रह्मवादी हैं। कितने अरबों लोग पैदा हुए, कितने अरबों लोग
मरे, कितने अरबों लोग जीए, कितने अरबों
लोग समाप्त हुए, वे सब कहां गए? वे
ब्रह्मवादी नहीं हो पाए? दस-पांच लोग ब्रह्मवादी हुए! यह
सफलता की बात है?
एक
माली एक करोड़ पौधे लगाए और एक पौधे में फूल आ जाए, तो हम माली की प्रशंसा
करेंगे? हम कहेंगे कि धन्य हो माली, बड़े
कुशल हो, बहुत कारीगर हो, बड़े महान हो।
माली के कारण नहीं आए, इंस्पाइट ऑफ, उसके
बावजूद आ गए होंगे।
करोड़-करोड़
लोग पैदा हों और एक आदमी शंकर हो जाए, करोड़-करोड़ लोग पैदा हों और एक आदमी
जीसस हो जाए, यह कथा कोई सौभाग्यपूर्ण है? नहीं, होना उलटा चाहिए। करोड़-करोड़ लोग पैदा हों,
कभी एकाध आदमी अधार्मिक हो पाए, तो हम समझेंगे
कि पृथ्वी ब्रह्म की तरफ जा रही है। लेकिन हम अपने देश में यह भ्रम लिए हुए बैठे
हैं कि हम सब धार्मिक लोग हैं। धार्मिक लोग हैं और इतने फासले हैं जीवन में! नहीं
मैं यह कहता हूं कि सारे फासले आज टूट सकते हैं। लेकिन, लंबे
अर्थों में, आदर्श की भांति एक दिन सारे फासले भी टूट सकते
हैं। लेकिन आज फासले हम जितने कम कर सकें, सुविधा और अवसर को
जितना बांट सकें उतना मनुष्यता का पुनरुत्थान होगा, उतनी
मनुष्यता परमात्मा की और उठ सकती है।
इसलिए
जो बातें मैं कर रहा हूं,
कोई भूल कर यह न समझे कि मैं संसार की बातें कर रहा हूं। संसार की
बात करने की मुझे सुविधा नहीं है, फुर्सत नहीं है। मैं जो
बात कर रहा हूं वह धर्म की ही बात कर रहा हूं, मैं जो बात कर
रहा हूं वह ब्रह्मज्ञान की ही बात कर रहा हूं, कोई संसार की
बात मुझे करने की रुचि नहीं है। और जो संसार है ही नहीं उसकी बात की भी कैसे जा
सकती है? ब्रह्म ही है, उसी की बात की
जा सकती है। और ब्रह्म बड़ी मुश्किल में पड़ा है और पूंजीवाद ने ब्रह्म को बहुत झंझट
में डाला हुआ है। इस पूंजीवाद से ब्रह्म का छुटकारा होना जरूरी है।
यह
जो हमारी दृष्टि अगर रहे कि नहीं-नहीं, संसार असार है, उसकी बात नहीं करनी है। यह बात पूंजीवाद के बहुत पक्ष में है। पूंजीवाद
चाहता है कि साधु-संत यही समझाते रहे कि संसार असार है, संसार
असार है, इसमें कुछ भी मतलब नहीं है। गरीबी? अरे सह लो, इसमें कुछ सार नहीं है, गरीबी-अमीरी सब बराबर है। भूख सह लो, अकाल सह लो,
दरिद्रता सह लो, संतोष रखो, सांत्वना रखो, यह सब सपना है। पूंजीवाद पसंद करता है
कि यह बातें, यह जहर, यह पायज़न लोगों
के दिमाग में डाला जाता रहे कि यह सब तो असार है, इसकी फिक्र
ही मत करो।
एक
आदमी आपको लूट रहा है और एक ज्ञानी आपको समझा रहा है कि घबड़ाओ मत, लूटते रहो,
यह सब असार है। लेकिन वह लूटने वाला बिलकुल नहीं सुनता, वह लूटता चला जाता है, उसे असार से कोई फर्क नहीं
पड़ता। यह लूटने वाला सुन लेता है कि असार है और खड़ा रह जाता है। यह लूटता है। वह
लूटने वाला प्रसन्न होता है। लूट में से थोड़ा हिस्सा वह ज्ञानी को भी देता है।
क्योंकि वह जानता है। यह आपको पता है? वह लूट में से थोड़ा
हिस्सा उसको देता है।
सारे
पंडित, सारे ज्ञानी, सारे साधु-संन्यासी उस लूट में
हिस्सेदार होते हैं और उस हिस्से में होने की वजह से वे बेचारे निरंतर यह कहते
रहते हैं--सब असार है, सब असार है, कोई
सार नहीं है, यह सब माया है, यह सब
सपना है, यह सब सपना है। यह सपना है जो चारों तरफ चल रहा है?
और अगर यह सपना है, तो ज्ञानी छोड़ कर क्या
भागता है? अगर पत्नी सपना है, तो पत्नी
से भागने की जरूरत? और धन अगर सपना है, तो धन से भागने की जरूरत? और अगर जीवन सपना है,
तो त्याग किसका करते हो? सपनों के त्याग किए
जा सकते हैं? नहीं, लेकिन छोड़ने और
भागने के लिए ज्ञानी मानता है कि सपना नहीं है।
लेकिन
यह जो चल रही है समाज की व्यवस्था, यह जो समाज की सनातन व्यवस्था चल
रही है यह न बदल जाए, इसके बदलने की बात करो, वह कहेगा, कहां संसार की और माया की बात करते हैं।
उसे पता नहीं कि माया और संसार को उसकी बातें सुरक्षा दे रही हैं। इस माया और
संसार को तोड़ा जा सकता है, इस पृथ्वी को परमात्मा की खोज का
एक अपूर्व अवसर बनाया जा सकता है। लेकिन आज तक मनुष्य ने जो समाज निर्मित किया है
उस समाज में अधिकतम लोगों की जीवन-ऊर्जा रोटी जुटाने में, शरीर
की व्यवस्था करने में ही नष्ट हो जाती है, वह कभी भी इसके
ऊपर नहीं उठ पाती है, इसके बियांड, इसके
अतीत नहीं जा पाती।
एक
ऐसा समाज चाहिए संपत्तिशाली, एक ऐसा समाज चाहिए समृद्धिशाली, एक ऐसा समाज चाहिए समान अवसर वाला, एक ऐसा समाज
चाहिए जहां पूंजी केंद्र न हो, परमात्मा केंद्र हो, जहां हम जीवन को जीएं सिर्फ इसलिए कि जीवन और ऊपर जा सके। एक वैसा समाज
जिस दिन दुनिया में होगा, उस दिन धर्म का जन्म होगा, उस दिन ब्रह्म हमारे निकट आ सकेगा। अभी शरीर के अतिरिक्त, पदार्थ के अतिरिक्त हमारे निकट कुछ भी नहीं है।
एक
अंतिम प्रश्न,
फिर मैं अपनी बात पूरी करूं।
एक बहन ने पूछा है: बहुत ही मजेदार बात पूछी है, उन्होंने
पूछा है कि शिविरों में, अभी अखबारों ने कुछ फोटो छाप दिए,
एक बहन मेरे गले से आकर लगी हुई है, अखबारों
ने फोटो छाप दिया। उन्होंने वह फोटो देख लिया होगा। तो उन्होंने मुझसे पूछा है कि
शिविर में आप स्त्रियों के साथ बड़ा दर्ुव्यवहार करते हैं। गांधीजी ने तो ऐसा
दर्ुव्यवहार कभी भी नहीं किया।
अगर
स्त्रियों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना दर्ुव्यवहार है, तो मैं
जरूर दर्ुव्यवहार करता हूं। अब तक साधु-संत स्त्रियों के साथ घृणा का व्यवहार करते
रहे हैं, इसलिए वही सदव्यवहार हमें मालूम होने लगा है।
साधु-संतों ने आज तक स्त्री को मनुष्य होने की हैसियत नहीं दी है। साधु-संतों ने
उसे नरक का द्वार समझा है, साधु-संतों ने उसे कीड़े-मकोड़ों से
बदतर बताया है। साधु-संतों ने उसे सांप-बिच्छुओं से खतरनाक समझाया है। साधु-संतों
का अगर वह पैर भी छू ले, तो साधु-संत अपवित्र हो जाते हैं और
उन्हें उपवास करके पश्चात्ताप करना पड़ता है। और ये साधु-संत स्त्री से ही पैदा
होते हैं। इनकी सारी देह स्त्री से ही निर्मित होती है। इनका खून स्त्री का,
इनकी हड्डी स्त्री की, इनके जीवन की सारी
ऊर्जा स्त्री से आती है और वही स्त्री नरक का द्वार हो जाती है!
मनुष्य-जाति
जब तक स्त्रियों के साथ ऐसा असम्मानपूर्ण और ऐसा मूढ़तापूर्ण व्यवहार करेगी, तब तक
मनुष्य-जाति के जीवन में कोई ऊर्ध्वगमन नहीं हो सकता है। स्त्री के साथ
दर्ुव्यवहार अब तक रहा है और उस दर्ुव्यवहार का कारण? उस
दर्ुव्यवहार का कारण स्त्री की कोई खराबी नहीं है। क्योंकि जिन बातों के कारण
स्त्री को आप दोष देते हैं, आप उन बातों में स्त्री के
सहयोगी नहीं हैं? यह बड़े मजे की बात है! पुरुष नरक का द्वार
नहीं है? स्त्री अकेली दुनिया में कामवासना ले आती है,
पुरुष नहीं? सच्चाई उलटी है। स्त्री इतनी
कामुक कभी भी नहीं है, जितने पुरुष कामुक हैं। और स्त्री की
कामवासना को अगर न जगाया जाए, तो स्त्री कामवासना के लिए
बहुत आतुर भी नहीं होती। और सारी स्त्रियां जानती हैं कि कामवासना में कौन उन्हें
रोज घसीटता है--उनका पति या वे स्वयं! कौन उन्हें घसीटता है? पुरुष चौबीस घंटे सेक्सुअल है। प्रतिदिन सेक्सुअल है, लेकिन दोष है स्त्री का। वह उन्हें नरक ले जाती है।
यह
भी ध्यान रखना जरूरी है कि स्त्री तो पुरुष पर कोई बलात्कार नहीं कर सकती है, स्त्री तो
पैसिव है, स्त्री तो निष्क्रिय है, वह
कोई हमला तो कर नहीं सकती पुरुष पर। पुरुष हमला कर सकता है। जो निष्क्रिय है उसको
नरक का द्वार कहता है और जो सक्रिय है वासना में, अपने को
शायद स्वर्ग का द्वार समझता होगा। स्त्री को दी गईं ये गालियां, ये अपमान, ये अशोभन शब्द अब तक सदव्यवहार समझे गए
हैं। और स्त्रियां इतनी मूढ़ हैं कि पुरुष की इन मूर्खतापूर्ण बातों में सहयोगी
रहीं और उन्होंने साथ दिया है। उन्होंने कोई इनकार नहीं किया, उन्होंने कोई बगावत नहीं की, उन्होंने कोई विद्रोह
नहीं किया। उन्होंने नहीं कहा कि यह तुम क्या कह रहे हो। उसे सह लिया उन्होंने
चुपचाप। उसको उन्होंने मान लिया है चुपचाप। क्योंकि उनका न कोई अपना गुरु है, न उनका अपना कोई शास्त्र है,
न उनका अपना कोई धर्म है। वे सब पुरुषों के निर्मित हैं, वे पुरुषों के पक्ष में लिखे गए हैं। वे पुरुषों ने लिखे हैं, अपने पक्ष में लिखे हैं। पुरुषों ने अपने ग्रंथों में लिख लिया है कि अगर
पति मर जाए तो स्त्री को सती होना चाहिए, लेकिन किसी पति को
भी कभी सती होना चाहिए, यह बात उन्होंने नहीं लिखी। स्वभावतः
वर्गीय दृष्टिकोण है, वह पुरुष का अपना दृष्टिकोण है। वैसा
उसने लिख लिया है।
साधु
और संन्यासी स्त्री के प्रति क्यों इतना दर्ुव्यवहारपूर्ण रहा है? उसका
एकमात्र मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि साधु और संन्यासी को, भीतर
उसकी कामना की स्त्री बहुत पीड़ित और परेशान करती है। उसके भीतर स्त्री घूमती है।
वह बेचारा परमात्मा को बुलाना चाहता है। जब भी परमात्मा को बुलाता है तभी पत्नी आ
जाती है। वह जब भी राम-राम-राम-राम जपता है तभी भीतर काम-काम, कामवासना-कामवासना चलती है। वह घबड़ाया हुआ है भीतर की स्त्री से। वह उस
भीतर की स्त्री से परेशान है, उसके बदले में वह स्त्री को
गाली देता है, उसके बदले में बाहर की स्त्री से भयभीत होता
है कि बाहर की स्त्री ने अगर हाथ छू दिया, तो मरे, जान निकल गई, क्योंकि भीतर जो स्त्री बैठी है वह जग
जाएगी, वह खड़ी हो जाएगी।
बाहर
की स्त्री के हाथ में ऐसा क्या है जिसे छू देने से किसी संन्यासी में कुछ अपवित्र
हो जाएगा? और संन्यासी के शरीर में ऐसा कुछ क्या है जो स्त्री के शरीर से ज्यादा
पवित्र है और छूने से अपवित्र हो सकता है? शरीर में क्या है?
इतना भय क्या है? इतना भय स्त्री का भय नहीं,
अपने भीतर छिपी हुई सेक्सुअलिटी का, कामवासना
का भय है।
इसलिए
संन्यासी भागता रहा है,
घबड़ाता रहा है, दूर-दूर भागता रहा है। स्त्री
छू ले तो पाप, स्त्री छू ले तो अपवित्रता। और इसको बाकी
पुरुष बहुत आदर देते रहे हैं क्योंकि बाकी पुरुषों का मन स्त्री को छूने के लिए
लालायित है। वे देखते हैं कि एक आदमी स्त्री को नहीं छूता है, दूर-दूर भागता है, वे कहते हैं: है महापुरुष,
है तपस्वी, क्योंकि हमारा तो मन नहीं मानता
बिना छुए हुए। हमारा मन होता है कि छुएं-छुएं-छुएं। किसी तरह रोकते हैं, संस्कार, शिष्टाचार, सब तरह से
अपने को सम्हालते हैं, लेकिन मौका मिल जाए, भीड़ मिल जाए, मंदिर हो, मस्जिद
हो, गिरजा हो, तो थोड़ा-बहुत धक्का दे
ही देते हैं, वह दूसरी बात है। लेकिन सामने शिष्टाचार रखते
हैं, दूर-दूर बच कर चलते हैं।
इतना
बच कर चलना सबूत किस बात का है? इतना बच कर चलना छूने की इच्छा का सबूत है और
किसी बात का सबूत नहीं है। इतनी घबड़ाहट सबूत किस बात का है? तो
बाकी पुरुष देखता है कि यह है संन्यासी, यह महाराज। ये
स्त्री को छूने नहीं देते, दूर से ही चिल्लाते हैं, दूर-दूर, दूर-दूर, दस कदम दूर
रहना।
अभी
मैंने सुना कि एक महाराज को यहां बंबई में किसी स्त्री ने छू दिया, तो
उन्होंने तीन दिन का उपवास किया। और उससे उनकी इज्जत बहुत बढ़ी। क्योंकि कामवासना
से भरे हुए समाज में ऐसे ही लोगों की इज्जत हो सकती है। कामवासना से भरे हुए समाज
में ऐसे ही लोगों की इज्जत हो सकती है। क्योंकि हम कामवासना से भरे हैं, हमें लगता है कितना महान त्याग किया कि एक स्त्री ने छुआ और उन्होंने
इनकार कर दिया कि नहीं छूने देंगे। यह हमारी सेक्सुअल मेंटेलिटी का सबूत है। और
इसको अगर सदव्यवहार समझते हैं, तो मैं स्त्रियों के साथ ऐसा
सदव्यवहार करने से इनकार करता हूं। लेकिन बड़े मजे की बात है, बड़ी आश्चर्य की कि एक बहन ने पूछा है, किसी पुरुष ने
पूछा होता तो मेरी समझ में आ सकता था। यह बहन बड़ी मर्दानी होगी। इसकी बुद्धि
पुरुषों से निर्मित होगी।
वह
कैंप में जो बहन मेरे आकर हृदय से लग गई, उस क्षण में उसकी प्रार्थना,
उसका प्रेम, उसका आनंद, उसकी
पवित्रता अदभुत थी, अन्यथा हजार लोगों के सामने वह मेरे हृदय
से आकर जुड़ जाने की हिम्मत भी नहीं कर सकती थी। उसका पति बगल में खड़ा था, वह घबड़ाता रहा। अभी उनके पति मुझे मिले और कहने लगे, मैंने इससे पूछा कि पागल तूने यह क्या किया? उसने
कहा कि मुझे तो पता ही नहीं था। यह तो जब मैं अलग हट गई तब मुझे खयाल आया कि लोग
क्या सोचेंगे, लेकिन उस क्षण में मुझे सोच-विचार भी न था। उस
क्षण मुझे लगा कि कोई दूर की पुकार मुझे खींच रही है और मैं पास चली गई। उसी
स्त्री को मैं धक्का दे दूं इस खयाल से कि कोई अखबार का रिपोर्टर फोटो नहीं उतार
ले। उसे कह दूं कि नहीं दूर। उसे दूर कह कर मैं सिर्फ इतना सिद्ध करूंगा कि मेरे
भीतर भी वासना उद्दाम वेग से खड़ी है, अन्यथा भय क्या है?
अन्यथा डर क्या है? अन्यथा चिंता क्या है?
वह स्त्री कहीं कोई एकांत अंधेरे कोने में मुझसे गले आकर नहीं मिली
थी। हजार लोग चारों तरफ खड़े थे, वहां फोटो उतारी जा रही थी।
मुझमें भी थोड़ी बुद्धि तो है। लेकिन इस निर्बुद्धि समाज के सामने ऐसा लगता है कि
चाहे कुछ भी सहना पड़े, जो ठीक है, जो
सही है--चाहे अनादर सहना पड़े, चाहे अपमान सहना पड़े--जो ठीक
है, सही है वही करना है, वही किए चले
जाना है। मुझे नहीं लगता कि कोई पुरुष मेरे पास प्रेम से आकर जब गले मिलता है तो
उसे मैं नहीं रोकता, तो एक स्त्री को मैं कैसे रोक सकता हूं।
जब कोई पुरुष को मैं नहीं रोकता तो स्त्री को कैसे रोक सकता हूं। और स्त्री और
पुरुष के बीच इतना फासला करने की जरूरत क्या है? प्रयोजन
क्या है? क्या हमें शरीर के अतिरिक्त कभी कुछ दिखाई ही नहीं
पड़ता? वह जिस फोटोग्राफर ने चित्र उतारा होगा और जिस संपादक
ने छापा होगा, वह फोटो मेरे और उस स्त्री के बाबत कम,
उस फोटोग्राफर और संपादक के संबंध में ज्यादा बताते हैं। उसकी
बुद्धि वहीं अटक रही, उस घंटे भर के ध्यान के बाद उसे यही
दिखाई पड़ा, इतना ही दिखाई पड़ा!
उन
बहन ने यह भी पूछा है कि गांधीजी तो ऐसा दर्ुव्यवहार कभी स्त्रियों के साथ नहीं
करते थे। तो शायद बहन को गांधीजी का कुछ पता नहीं। गांधीजी इस दर्ुव्यवहार को शुरू
करने वाले महापुरुष हैं। हिंदुस्तान में गांधी ने पहली बार स्त्री को सम्मान दिया
है। हिंदुस्तान के महापुरुषों में स्त्री को सम्मान देने वाले गांधी के मुकाबले
सिवाय महावीर को और कृष्ण को छोड़ कर और कोई भी नहीं है। बुद्ध भी नहीं। बुद्ध तक
भयभीत हो गए इस बात से जब स्त्रियों ने आकर कहा कि हमें भिक्षुणी बना लो, तो बुद्ध
ने कहा कि नहीं-नहीं, यह नहीं हो सकता। बुद्ध भयभीत हो गए इस
बात से कि स्त्रियां अगर भिक्षुणी बनेंगी और भिक्षुओं के साथ रहेंगी, तो खतरा है।
महावीर
ने जरूर कोई चिंता नहीं की,
बात ही नहीं की, स्त्रियों को भिक्षुणी बनाया।
और हैरान होंगे जान कर आप कि महावीर के भिक्षु थे केवल बारह हजार और भिक्षुणियां
थीं चालीस हजार। न मालूम कितने लोगों ने महावीर पर एतराज किया होगा कि चालीस हजार
स्त्रियों से घिरा हुआ है यह आदमी। जरूर एतराज किया होगा, क्योंकि
आदमी सदा आप ही जैसे हमेशा से थे। आपसे बदतर।
क्राइस्ट
पर लोगों ने शक किया कि मैरी मैग्दलिन नाम की वेश्या इसके चरणों में आकर चरण छूती
है। लोगों ने कहा कि नहीं इस स्त्री को चरण मत छूने दो। क्राइस्ट ने कहा, लेकिन
स्त्री का पाप क्या है कि चरण न छुए? लोगों ने कहा, स्त्री थी तो भी ठीक, यह वेश्या है। क्राइस्ट ने कहा,
वेश्या मेरे पास नहीं आएगी तो कहां जाएगी? और
अगर मैं वेश्या को इनकार कर दूंगा, तो फिर वेश्या के लिए
उपाय क्या है? मार्ग क्या है?
विवेकानंद
हिंदुस्तान लौटे,
निवेदिता साथ आ गई, और बस हिंदुस्तान का दिमाग
फिर गया। और सारे बंगाल में बदनामी फैल गई कि यह स्वामी और संन्यासी और यह
निवेदिता कैसे साथ? निवेदिता की पवित्रता को, निवेदिता के प्रेम को किसी ने भी नहीं देखा! आज जो सारी दुनिया में
विवेकानंद का काम फैला हुआ दिखाई पड़ता है, उसमें विवेकानंद
का हाथ कम निवेदिता का हाथ ज्यादा है। निवेदिता भी दंग रह गई होगी। कैसे ओछे लोग
थे! कैसी छोटी बुद्धि थी! इतना ही उन्हें दिखाई पड़ा! विवेकानंद को इतना ही समझ पाए
वे सिर्फ!
गांधी
ने तो बहुत हिम्मत की। स्त्रियों को गांधी हिंदुस्तान के घरों से पहली दफे बाहर
लाए। स्त्रियों को पुरुषों के साथ खड़ा किया। आपको शायद पता नहीं होगा, वह मेरी
ही फोटो छप गई, ऐसा नहीं, मैंने सुना
है कि गांधी की एक फोटो यूरोप और अमेरिका में खूब प्रचारित की गई थी। एक फोटो तो
उनकी वह प्रचारित की गई, जिसमें वे अपने ही घर की बच्चियों
की, जो उनकी नातनी-पोतनियां होंगी, उनके
कंधों पर हाथ रखे हुए दिखाए गए हैं। वह फोटो प्रचारित की गई कि यह गांधी बुढ़ापे
में भी छोकरियों के साथ रास-रंग करता है। शायद उन बहन को पता नहीं होगा कि वह फोटो
जिसमें वे लड़कियों के कंघे पर हाथ रख कर घूमने जाते हैं या प्रार्थना में जाते
हैं। तो यह बताया गया है कि यह बुङ्ढा हो गया, अभी लेकिन
इसका लड़कियों में रस है, लड़कियों के कंधों पर हाथ रख कर चलता
है। और पूछने वाला पूछ सकता है कि लड़कियों के कंधे पर क्यों लड़कों के कंधों पर
क्यों नहीं? बिलकुल ठीक! लेकिन उसे पता नहीं कि गांधी को
लड़के और लड़कियों में कोई भी फर्क नहीं भी हो सकता है।
यह
मत सोचना कि वह फोटो मेरा ही छाप दिया, वह फोटो हमेशा से छापने वाले लोग
रहे हैं और रहेंगे। अपनी बुद्धि के अनुकूल ही वे कुछ कर सकते हैं, उससे ज्यादा करने का उपाय भी तो नहीं है। उन पर नाराज होने का कोई कारण भी
तो नहीं है। और शायद उन बहन को पता नहीं होगा कि गांधी अपनी अंतिम उम्र में,
बुढ़ापे में, एक बीस वर्ष की नग्न युवती को
लेकर छह महीने तक बिस्तर पर सोते रहे। तब उनको पता चलेगा। इतना दर्ुव्यवहार अभी
मैंने किसी तरह से नहीं किया है। छह महीने तक एक नग्न युवती के साथ गांधी बिस्तर
पर सोते रहे। किसलिए? इस बात की जांच के लिए कि क्या मन के
किसी कोने-कातर में, मन के किसी भी अंधकारपूर्ण कोने में
स्त्री की कोई वासना तो शेष नहीं रह गई? जो रात में नग्न
स्त्री को अकेले में, एकांत में पाकर, बिस्तर
पर साथ पाकर जाग आए, तो मैं परीक्षा कर लूं उससे, उससे मुक्त होने का कोई उपाय कर लूं। और उस स्त्री की पवित्रता की कल्पना
करते हैं जो छह महीने तक गांधी के साथ नग्न सो सकी। और उसने पीछे कहा कि गांधी के
साथ सो कर मुझे छह महीने में ऐसा लगा--गांधी जैसे मेरी मां हैं।
जल्दी
नतीजे लेना ठीक नहीं है। जिंदगी बहुत गहरी है और बहुत समझने को है। जहां हम खड़े
हैं जिंदगी वहीं नहीं है,
जिंदगी और आगे है। हम मिट्टी के दीये हैं, जिंदगी
की ज्योति मिटी के दीये से बहुत ऊपर जाती है। जिनको ऊपर की ज्योति नहीं दिखाई पड़ती
उन्हें सिर्फ मिट्टी के दीये दिखाई पड़ते हैं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए
बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं,
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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