देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर
सामाजिक)—ओशो
नौवां प्रवचन
गांधी का चिंतन अवैज्ञानिक है
...व्यवहार करते हैं। ये दोनों तरकीबें हैं। जिंदा आदमी
को मार डालो और मरे हुए आदमी की पूजा करो। ये छूटने के रास्ते हैं, ये बचने के रास्ते हैं। फिर पूजा भी हम उसी की करते हैं जिसे हमने बहुत
सताया हो। पूजा मानसिक रूप से पश्चात्ताप है। वह प्रायश्चित्त है। जिन लोगों को
जीते जी हम सताते हैं, उनके मरने के बाद पूरा समाज उनकी पूजा
करता है; ऐसे प्रायश्चित्त करता है। वह जो पीड़ा दी है,
वह जो अपराध किया है, वह जो पाप है भीतर,
उस पाप का प्रायश्चित्त चलता है, फिर हजारों
साल तक पूजा चलती है। पूजा किए गए अपराध का प्रायश्चित्त है। लेकिन वह भी अपराध का
ही दूसरा हिस्सा है।
गांधी को जिंदा रहते में हम सताएंगे, न सुनेंगे उनकी,
लेकिन मर जाने पर हम हजारों साल तक पूजा करेंगे। यह गिल्टी कांसियंस,
यह अपराधी चित्त का हिस्सा है यह पूजा। और फिर इस पूजा के कारण हम
सोचने-विचारने को राजी नहीं होंगे। पहले भी हम सोचने-विचारने को राजी नहीं होते।
गांधी जिंदा हों तो हम सोचने-विचारने को राजी नहीं हैं।
तब हम गालियां देकर,
पत्थर मार कर, गोली मार कर दीवाल खड़ी करेंगे
कि उनकी बातें सोचनी न पड़ें। फिर जब वे मर जाएंगे, तब भी हम
सोचने-विचारने को राजी नहीं हैं। तब हम पूजा की दीवाल खड़ी करेंगे और कहेंगे,
अब सोचना-विचारना उचित नहीं, अब तो पूजा करनी
काफी है।
महापुरुषों को या तो गोली मारते हैं हम या फूल चढ़ाते हैं, लेकिन महापुरुषों पर सोचते कभी भी नहीं हैं। मेरा गांधी से कोई विरोध नहीं
है। बहुत प्रेम है। और इसलिए रोज-रोज वे मेरे रास्ते में आ जाते हैं। उन पर मुझे
बात करनी अत्यंत जरूरी मालूम पड़ती है; क्योंकि इस पचास
वर्षों में भारत के राष्ट्रीय आकाश में उनसे ज्यादा चमकदार कोई सितारा पैदा नहीं
हुआ। उस सितारे पर आगे भी सोचना और विचार जारी रखना अत्यंत आवश्यक है। लेकिन जहां
मेरा उनसे विचार-भेद है, वहां मैं निवेदन जरूर करना चाहता
हूं। दोत्तीन बिंदुओं को समझाना चाहूंगा।
पहली बात, गांधी का विचार वैज्ञानिक नहीं है, अवैज्ञानिक है। गांधी का विचार नैतिक तो है, लेकिन वैज्ञानिक
नहीं है, साइंटिफिक नहीं है। गांधी का व्यक्तित्व ही और
गांधी के व्यक्तित्व में चीजों को समझने की जो प्रतिभा थी, वह
प्रतिभा ही वैज्ञानिक नहीं थी।
गांधी जिन दिनों शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए, तो यूरोप की हवाओं में बड़ी क्रांति की बातें थीं। डार्विन का "ओरीजन
ऑफ स्पेसीज' किताब छप गई भी। सारे पश्चिम के जगत में डार्विन
की चर्चा थी, विकासवाद की चर्चा थी। विकासवाद ने एक भारी
धक्का पहुंचा दिया था दुनिया के पुराने विचार को। अब दुनिया का विचार कभी भी वही
नहीं हो सकता था जो डार्विन के पहले था। लेकिन गांधी पर डार्विन के विचार का कोई
परिणाम नहीं हुआ। माक्र्स की "दास कैपिटल' छप चुकी थी।
एक नई क्रांति, समाज-व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था
में, हवा में आ गई थी। चारों तरफ चर्चा थी। लेकिन गांधी पर
माक्र्स के चिंतन का कोई संस्कार नहीं हुआ। जहां गांधी थे इंग्लैंड में, वहां फेबियन सोसाइटी निर्मित हो चुकी थी। समाजवाद के न मालूम कितने रूपों
में, हवा में खबर थी--साइमन, पूरिए,
ऑबेन, बर्नार्डशा, इन
सबकी चर्चा थी हवा में। लेकिन गांधी पर उसका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
पश्चिम में विज्ञान नई क्रांति कर रहा था धर्म के विरोध में। पुराने
धर्म की सारी परंपरा क्षीण होकर गिर रही थी। चर्च, मंदिर टूट रहा था। एक
नया तर्कयुक्त, एक नया विचारपूर्ण भविष्य पैदा हो रहा था।
गांधी पर उसका भी कोई प्रभाव नहीं हुआ। गांधी पर प्रभाव किस बात का हुआ, आपको पता है? वेजिटेरियनिज्म का। गांधी उस पश्चिम की
क्रांति के उस वातावरण में कौन से विचार से प्रभावित हुए? वेजिटेरियनिज्म
से, शाकाहारवाद से। गांधी का चित्त वैज्ञानिकता से जरा भी,
कभी भी, संबंधित नहीं हो सका। जीवन भर भी उनका
चिंतन नैतिक तो रहा, लेकिन वैज्ञानिक नहीं रहा। और गांधी का
हिंदुस्तान में जो भी प्रभाव दिखाई पड़ा, वह भी इसी कारण कि
गांधी नैतिक विचारक हैं, वैज्ञानिक नहीं। हिंदुस्तान हजारों
साल से अवैज्ञानिक होने की आदत में दीक्षित रहा है। हिंदुस्तान ने हजारों साल से
कभी वैज्ञानिक ढंग से नहीं सोचा। हिंदुस्तान में इसीलिए विज्ञान का जन्म नहीं हो
पाया।
हिंदुस्तान के पास प्रतिभा की कमी नहीं है। हिंदुस्तान के पास बुद्ध, दिग्नाग और नागार्जुन और शंकर जैसे अदभुत प्रतिभाशाली लोग हुए हैं,
लेकिन हिंदुस्तान के पास एक भी आइंस्टीन, एक
भी न्यूटन नहीं पैदा हुआ। भारत की प्रतिभा ही पचास पीढ़ियों से, सौ पीढ़ियों से अवैज्ञानिक रही है। तीन हजार वर्षों के लंबे इतिहास में
भारत ने वैज्ञानिक प्रतिभा का कोई प्रणाम नहीं दिया है। भारत का सारा सोचना
गैर-साइंटिफिक, बल्कि एंटी-साइंटिफिक, विज्ञान-विरोधी
है। इस चिंतन की लंबी परंपरा के कारण ही गांधी की अवैज्ञानिक विचारधारा को भी
महत्व मिलना शुरू हुआ। गांधी ने कभी भी तर्कयुक्त ढंग से, तथ्ययुक्त
ढंग से नहीं सोचा।
बिहार में अकाल पड़ा तो गांधी के अवैज्ञानिक चिंतन ने क्या कहा? कहा कि बिहार में इसलिए अकाल पड़ा है कि वहां के हरिजनों के साथ जो
अत्याचार हुआ है, उसका फल मिल रहा है। यह बड़ी अजीब सी बात
उन्होंने कही। बिहार के हरिजनों के साथ किए गये अत्याचार का फल मिल रहा है बिहार
के लोगों को। और हिंदुस्तान भर में अत्याचार नहीं हो रहा है हरिजनों के साथ?
और अगर हरिजनों के अत्याचार के कारण अकाल पड़े, तो हिंदुस्तान में अन्न का एक भी दाना कभी पैदा नहीं होना चाहिए, इतना अत्याचार हो चुका है। लेकिन यह सिर्फ बिहार में क्यों हुआ? बिहार में ही अत्याचार हो रहा है हरिजनों के साथ?
नहीं, लेकिन अवैज्ञानिक चिंतन का कोई हिसाब नहीं है। गांधी
को कोई बात ठीक लगे तो वे कहेंगे, मेरी अंतर्वाणी कर रही है।
अंतर्वाणी आपकी कुछ भी कह सकती है। आपकी अंतर्वाणी किसी चीज के सही होने का सबूत
नहीं है। और अगर इस तरह हर आदमी की अंतर्वाणी सबूत बन जाए, तो
मुल्क एक पालगखाना हो जाएगा। मैं भी कहूंगा, मेरी अंतर्वाणी
यह कह रही है, और आप कहेंगे, मेरी
अंतर्वाणी यह कह रही है। अंतर्वाणी के कहने से कोई चीज सत्य नहीं होती। सत्य होने
के लिए उसे तथ्यगत और वैज्ञानिक होना पड़ेगा। सत्य होने के लिए उसके सबके तर्क को
अपील हो सके, सबके तर्क और बुद्धि को समझ में आ सके, ऐसा होना पड़ेगा। लेकिन गांधी को इतना काफी है। उन्हें कोई बात ठीक लगती है,
वे कहेंगे, मुझे ईश्वर की वाणी कह रही है।
कोई ईश्वर की वाणी किसी से कुछ भी नहीं कहती है। हमेशा अपने ही अचेतन
चित्त की आवाज सुनाई पड़ती है। हमारा यह भीतर का मन हमसे कुछ कहता है। लेकिन मेरे
भीतर का मन कुछ कहे, इस कारण वह सत्य नहीं हो जाता है कि मेरे भीतर के मन
ने कहा है। और मेरे लिए सत्य हो भी सकता है, लेकिन दूसरे के
लिए सत्य कहने का हकदार मैं नहीं हूं। लेकिन गांधी जीवन भर यह कहेंगे कि मेरी
अंतर्वाणी यह कह रही है। और उनकी अंतर्वाणी यह कहेगी और अगर वे उपवास करेंगे और
अनशन करेंगे, तो पूरे मुल्क को भी मानना पड़ेगा कि वे जो कह
रहे हैं, वह ठीक कह रहे हैं।
नहीं, गांधी की इस अंतर्वाणी के सिद्धांत ने भारत के चित्त
को बहुत नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि इससे अवैज्ञानिकता बढ़ती
है। एक आदमी की अंतर्वाणी कहती है कि आंध्रप्रदेश अलग होना चाहिए, और वह अनशन कर देता है। अब अंतर्वाणी को मानना ही पड़ेगा। और अगर हम
अंतर्वाणियों को इस तरह मान कर चलें तो हिंदुस्तान की क्या गति होगी? लेकिन गांधी जैसे बड़े व्यक्ति ने अंतर्वाणी को इतना बल दिया। तर्क को नहीं,
विचार को नहीं, सोच-विचार को नहीं, डायलाग को नहीं, कि हम विचार करें और तय करें। नहीं,
उनकी अंतर्वाणी जो कहती है, वह उन्हें सत्य
मालूम पड़ता है। फिर उस सत्य के लिए वे दबाव डालते हैं, और उस
दबाव को हम समझते हैं, वह अहिंसा है। दबाव किसी भी स्थिति
में अहिंसा कभी नहीं होती है। चाहे दबाव किसी भी रूप का हो, दबाव
हमेशा हिंसा है।
मैं आपकी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाऊं तो यह भी हिंसा है और मैं आपके
दरवाजे पर अनशन करके बैठ जाऊं तो यह भी हिंसा है। मैं आपको हर हालत में दबा रहा
हूं। और कई बार छुरे का भय उतना नहीं होता, जितना कोई आदमी द्वार
पर आकर मर जाए उसका भय होता है। और गांधी जैसा भला आदमी अगर मरने लगे तो हम गलत न
भी होंगे तो भी झुक जाएंगे कि चलो ठीक है। इस आदमी को मरने नहीं देना चाहिए,
इतना बहुमूल्य आदमी! लेकिन गांधी की अवैज्ञानिकता के कारण उनको यह
भी नहीं सूझता है कि दबाव, सभी तरह का, हिंसा होता है। चाहे दबाव किसी तरह का हो, दबाव
मात्र हिंसा है। चाहे आप छुरे से दबाएं किसी को और चाहे मरने की धमकी देकर दबाएं।
और मरने की धमकी देकर दबाना और भी खतरनाक है, क्योंकि दूसरा
आदमी बिलकुल निहत्था हो जाता है, वह कोई उत्तर भी नहीं दे
सकता। जब तक कि वह भी यही पागलपन न करे कि वह भी अनशन लेकर बैठ जाए और कहे कि मैं
भी मर जाऊंगा।
मैंने सुना है, एक मजाक मैंने सुनी है। एक युवक एक लड़की के पीछे
दीवाना था। और उसके घर के सामने जाकर उसने अनशन कर दिया और कहा कि मेरी अंतर्वाणी
कहती है कि मैं तुमसे ही प्रेम करता हूं और तुमसे ही विवाह करूंगा। और अगर मुझसे
विवाह नहीं करोगी तो मैं मर जाऊंगा अनशन करके। सारे गांव के अच्छे लोगों का समर्थन
उस युवक को मिलना शुरू हुआ, क्योंकि उसने यह अहिंसात्मक
आंदोलन शुरू किया था। प्रेम के लिए यह पहली घटना थी। गांव के लोगों ने कहा,
यह तो अहिंसात्मक बात है। यह आदमी धमकी तो नहीं दे रहा है। यह तो
अपने प्राण न्योछावर कर रहा है। यह तो शहीद हो रहा है। घर के लोग बहुत घबड़ा गए।
अगर वह छुरे से धमकी देता तो उससे लड़ा भी जा सकता था। सारे गांव की नैतिक बुद्धि
उसके पक्ष में थी। वे बहुत परेशान हुए। फिर उन्होंने गांव में एक पुराने
अहिंसात्मक आंदोलन करने वाले बुङ्ढे से सलाह ली कि क्या किया जा सकता है? उसने कहा, घबड़ाओ मत, रात हम
इंतजाम कर देंगे। रात वह एक बूढ़ी औरत को लेकर आया। और उस लड़के से उस बूढ़ी औरत ने
आकर कहा कि मेरी अंतर्वाणी कहती है कि मैं तुमसे विवाह करूंगी। और मैं अनशन शुरू
करती हूं। रात में ही वह लड़का अपना बिस्तर वगैरह लेकर भाग गया। क्योंकि अब कोई
उपाय नहीं था।
अंतर्वाणियों पर तय नहीं किया जा सकता है कुछ। अंतर्वाणियों पर छोड़ना
बहुत खतरनाक है और देश को गङ्ढे में ले जाने है। क्योंकि आपकी अंतर्वाणी आपकी
अंतर्वाणी है। और कौन है हकदार यह कहने का कि मेरी अंतर्वाणी ईश्वर की आवाज है? यही तो आज तक दुनिया को नुकसान पहुंचाने वाला तत्व रहा है।
मोहम्मद कहते हैं कि मेरी अंतर्वाणी ईश्वर की आवाज है। वेद के ऋषि
कहते हैं कि हमारी अंतर्वाणी ईश्वर की आवाज है। सारे दुनिया के लोग यही दावा करते
हैं कि हमारी अंतर्वाणी ईश्वर की आवाज है। फिर झगड़े का कोई कारण नहीं रह जाता।
सत्य निर्णीत हो गया। अब सत्य को निर्णय नहीं करना है। तर्क की कसौटी पर, प्रयोग की शाला में, दस आदमियों के बीच अब सत्य का
निर्णय नहीं होना है। सत्य पहले से निर्णीत हो गया। मेरी अंतर्वाणी ईश्वर की आवाज
है; यह बहुत खतरनाक बात है। यह बहुत अवैज्ञानिक बात है। और
अगर यह फैल जाए तो मनुष्य को हितकर नहीं हो सकती। और फिर इस तरह की अंतर्वाणी के
लिए दबाव डालना और भी खतरनाक है।
नहीं, किसी भी तरह का दबाव अहिंसात्मक नहीं है। सब दबाव
वायलेंस हैं, सब दबाव हिंसा है। और इसीलिए गांधी के अनशन और
सत्याग्रह का परिणाम भारत के लिए अच्छा नहीं हुआ। सारा देश आज किसी भी टुच्ची बात
पर सत्याग्रह करता है, किसी भी बेवकूफी की बात पर अनशन शुरू
हो जाता है। सारा मुल्क परेशान है। वह गांधी जो तत्व दे गए हैं, वह मुल्क को भरमा रहा है और भटका रहा है और तकलीफ में डाल रहा है। और अगर
वह बढ़ता चला गया तो हिंदुस्तान की नौका कहां डूब जाएगी, किन
चट्टानों से टकरा कर, कहना मुश्किल है। क्योंकि हिंदुस्तान
की नौका तर्क के सहारे नहीं चल रही है, अबुद्धि के सहारे चल
रही है। हिंदुस्तान का विचार--विचार और विवेक जाग्रत नहीं हो रहा है। हिंदुस्तान
में हर आदमी दावेदार हो गया है कि वह जो कह रहा है, वह सत्य
है, और उसको मानना जरूरी है। यह बात हैरानी की मालूम होती
है!
लेकिन जितने लोग भी गैर-साइंटिफिक ढंग से सोचते हैं, वे हमेशा अपने भीतर की आवाज को बल देना शुरू कर देते हैं।
मैंने सुना है, बगदाद में एक आदमी ने घोषणा कर दी कि मैं पैगंबर हूं।
अब इसका कोई निर्णय नहीं हो सकता है कि कौन आदमी पैगंबर है, क्योंकि
पैगंबर खुद ही कहता है कि भगवान ने मुझे कहा है कि तुम पैगंबर हो। बगदाद के खलीफा
ने उसे पकड़ लिया, क्योंकि बगदाद का खलीफा पैगंबरों के खिलाफ
नहीं है, लेकिन मोहम्मद नाम के पैगंबर से बंधा हुआ है,
दूसरे पैगंबर को वह बरदाश्त नहीं कर सकता। उसने पकड़ लिया उस पागल को
और कहा कि तुम पागल हो। मोहम्मद के बाद अब कोई पैगंबर की दुनिया में जरूरत नहीं
है। असली पैगंबर हो चुका है। तुम्हारा दिमाग खराब है, अपना
दिमाग ठीक करो, अन्यथा फांसी पर लटकने को तैयार हो जाओ। एक
महीने का तुम्हें वक्त देते हैं। उसे जंजीरों से बांध कर कारागृह में डाल दिया।
पंद्रह दिन बाद खलीफा उससे मिलने गया कि शायद अब वह दुरुस्त हो गया
होगा। भूखा-प्यासा, जंजीरों में बंधा, उस पर कोड़े
रोज पड़ रहे थे। खंभे से बंधा था वह आदमी। खलीफा ने जाकर कहा कि महाशय, बुद्धि दुरुस्त हो गई हो तो बोलो, अब तो नहीं है यह
खयाल कि तुम पैगंबर हो? उस आदमी ने कहा, अरे पागल खलीफा, यह तो जब भगवान के पास से मैं चलने
लगा, उन्होंने जब मुझे पैगंबर बनाने का आदेश दिया, तभी उन्होंने कहा था कि पैगंबरों को बड़ी तकलीफें झेलनी पड़ती हैं। हमेशा से
पैगंबरों को मुसीबतें झेलनी पड़ी हैं। मुसीबतों ने सिद्ध कर दिया कि मैं पैगंबर
हूं। और तुम अगर मुझे मार डालोगे तो बिलकुल पक्का सिद्ध हो जाएगा कि मैं पैगंबर
हूं, क्योंकि पैगंबर हमेशा मारे जाते रहे हैं। लेकिन तभी
सीखचों में बंद एक दूसरा आदमी भीतर से चिल्लाया कि खलीफा, यह
आदमी झूठ बोल रहा है, मैंने इसे कभी भी पैगंबर बना कर नहीं
भेजा। खलीफा ने कहा, आप कौन हैं? वह
आदमी दो महीने पहले पकड़ा गया था उसको खुद परमात्मा होने का वहम था। वह कहता था कि
मैं परमात्मा हूं। उसने कहा, यह आदमी बिलकुल झूठ बोल रहा है।
मैंने मोहम्मद के बाद किसी को भेजा ही नहीं। इस आदमी को मैंने कभी नहीं भेजा।
अब यह अंतर्वाणियों का द्वंद्व बड़ी मुश्किल बात है। कौन तय करे कि
अंतर्वाणी किसकी ठीक है? अंतर्वाणी से समाज नहीं संचालित नहीं होते। हां,
अगर कोई व्यक्ति को अपनी अंतर्वाणी ठीक मालूम पड़ती है, तो वह अपने जीवन को जिस भांति संचालित करना चाहे करे। लेकिन जैसे ही वह
दूसरे व्यक्ति से कोई बात कहता है, वैसे ही तर्क और विवेक और
विचार की कसौटी पर बात कही जानी चाहिए। अन्यथा हम समाज को अंधकार में ढकेल
देंगे--अंधे अंधकार में, जहां कि पागलपन पैदा हो जाए।
भारत इस तरह की अंतर्वाणी से बहुत दिन से बंधा रहा है। इसीलिए भारत
में विज्ञान पैदा नहीं हो पाया। विज्ञान अंतर्वाणियों से पैदा नहीं होता, विज्ञान विचार और तर्क से पैदा होता है। गांधीजी ने फिर तर्क को बहुत
नुकसान पहुंचा दिया है। लेकिन वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि हमारी परंपरा इतनी
पुरानी हो गई है अतर्क की, तर्क-विरोधी कि हमें खयाल में
नहीं आता कि इस देश का सबसे बड़ा संकट क्या है?
इस देश का सबसे बड़ा संकट है, एक वैज्ञानिक प्रतिभा
का पैदा न हो पाना। भारत में कोई वैज्ञानिक चिंतन पैदा ही नहीं हो पाता। हमने कुछ
भी ईजाद नहीं की। हमने कोई आविष्कार नहीं किया, हमने प्रकृति
के कोई छिपे हुए राज नहीं खोले। इसलिए हम दीन-दरिद्र और हीन होते चले गए। गरीब
होते चले गए, गुलाम होते चले गए। और आज भी जमीन पर हमारे पास
क्या है? आज जो भी शक्ति हमारे पास दिखाई पड़ती है, वह उधार है। हमारे पास अपनी कोई शक्ति नहीं है। हमारे पास अपनी कोई
वैज्ञानिक बुद्धि नहीं है कि हम अगर दुनिया से टूट जाएं तो हम आज अपना विज्ञान
विकसित कर लें। यह असंभव है। हम अपना विज्ञान विकसित नहीं कर सकते। जिनको हम
वैज्ञानिक भी कहते हैं, बड़े इंजीनियर, बड़े
डाक्टर, उनकी बुद्धि भी अवैज्ञानिक है, वे भी टेक्नीशियंस से ज्यादा नहीं हैं।
मैं कलकत्ते में एक डाक्टर के घर में मेहमान था। सांझ को जब मीटिंग
में जाने के लिए वह डाक्टर मुझे लेकर बाहर निकलने लगे, उनकी बच्ची को छींक आ गई। छींक आते ही डाक्टर ने कहा कि दो मिनट रुक जाइए।
मैंने उनसे कहा, आप डाक्टर होकर यह कहते हैं कि
रुक जाऊं! आपको भलीभांति पता होना चाहिए कि छींक क्यों आती है! डाक्टर को तो जानना
चाहिए? और आपकी लड़की को छींक आने से तीन काल में भी मेरा कोई
संबंध नहीं है। मैं क्यों रुकूं आपकी लड़की के छींक आने से?
डाक्टर ने कहा, वह तो मैं समझता हूं, लेकिन फिर
भी रुक जाने में हर्ज क्या है? दो मिनट बाद चले चलते हैं। यह
अवैज्ञानिक भीतर से बोल रहा है। हर्ज क्या है, यह आदमी कहता
है!
हर्ज बहुत बड़ा है। पूरे मुल्क की हत्या हो जाएगी। अगर वैज्ञानिक चिंतन
पैदा नहीं होता है तो जिंदगी की समस्याओं का सामना करने की हमारी क्षमता विकसित
नहीं हो पाती। हम छींकों से डरने वाले लोग, बिल्लियां रास्ता काट
जाएं और हम बैठ जाएंगे। इस तरह नहीं चलेगा।
अभी मैं जालंधर था। एक बड़े इंजीनियर मित्र ने एक बड़ी कोठी बनाई। उसका
उदघाटन करने के लिए मुझको ले गए। बड़े इंजीनियर हैं, बड़ी शानदार कोठी
बनाई। शायद वैसी कोठी दूसरी न होगी उस नगर में। जब उनकी कोठी का फीता काट रहा था,
तो मैंने देखा कि सामने ही कोठी के दरवाजे पर एक हंडी लटकी है। हंडी
में आदमी का चेहरा बना है, बाल लटके हैं। मैंने पूछा,
यह क्या है? वे इंजीनियर हंसने लगे और कहने लगे,
मकान को नजर न लग जाए, इसलिए इसको लटकाना पड़ता
है।
इन इंजीनियरों और इन डाक्टरों से देश में वैज्ञानिक प्रतिभा पैदा होगी? एक इंजीनियर भी हंडी लटकाता है और सोचता है कि इससे मकान को नजर नहीं
लगेगी। फिर इंजीनियरिंग के सारे प्रमाण-पत्रों को लगा दो आग और घर-घर पर हंडियां
लटका लो। और अपनी छातियों पर भी लटका लो, जिससे किसी को नजर
न लग जाए। यह सारा मुल्क अवैज्ञानिक ढंग से जी रहा है और चिंतन कर रहा है। असल में
अवैज्ञानिक ढंग से कोई चिंतन नहीं होता। सिर्फ अंधा अनुगमन होता है। आदमी अंधे की
तरह पीछे चल पड़ता है। फिर कोई पूछता नहीं कि यह क्या हो रहा है और क्या नहीं हो
रहा है।
गांधी अदभुत व्यक्ति हैं, नैतिक दृष्टि से
अदभुत व्यक्ति हैं, चारित्रिक दृष्टि से अदभुत व्यक्ति हैं।
बहुत हिम्मत के आदमी हैं; जो उन्हें ठीक लगता है, वे उसे पूरी तरह करते हैं; अपनी पूरी जान लगा देते हैं,
अपनी पूरी कुर्बानी दे देते हैं। उनके इस सारे प्रभाव के कारण उनके
अवैज्ञानिक चिंतन का भी हमारे ऊपर प्रभाव पड़ गया है। अच्छे आदमी कभी-कभी खतरनाक
सिद्ध होते हैं। क्योंकि अच्छा आदमी इतना प्रभावित कर लेता है कि उसकी गलतियां
दिखाई पड़नी मुश्किल हो जाती हैं। बुरा आदमी कभी भी अपनी गलतियां किसी पर थोप नहीं
सकता, क्योंकि बुरा आदमी दिखाई पड़ता है कि बुरा आदमी है।
लेकिन अच्छा आदमी खतरनाक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि अच्छा
आदमी इतना अच्छा मालूम पड़ता है कि हमारे मन को लगता है कि वह जो भी कर रहा है,
जो भी कह रहा है, जो भी सोच रहा है, वह सभी अच्छा होना चाहिए। और तब बहुत सी भूलें सारे देश की प्रतिभा में
प्रविष्ट हो जाती है।
गांधी की विचार-दृष्टि वैज्ञानिक नहीं है। इसी अवैज्ञानिकता का परिणाम
है कि वे पीछे लौटने की बात करते हैं। कहते हैं, राम-राज्य। राम-राज्य
की बातें करनी, आज, तीन-चार हजार वर्ष
पीछे लौट जाने की बात करनी है। नासमझी की बात है। समाज को पीछे नहीं लौटाना है,
आगे ले जाना है। लेकिन जितने भी अवैज्ञानिक बुद्धि के लोग हैं,
वे सब पीछे लौटने की बात करेंगे। क्योंकि आगे तो विज्ञान विकसित
होगा, आगे तो विज्ञान और बढ़ेगा, आगे तो
बुद्धि और विकसित होगी। आगे दुनिया में महात्माओं की जगह बहुत कम रह जाने की है।
लेकिन पीछे की दुनिया में, जहां वैज्ञानिक चिंतन का विकास
नहीं हुआ था, जहां सब तरह के अंधविश्वास घर किए थे, और सब तरह के जाल अंधविश्वास ने बुन कर रखे थे, वहीं
लौट जाने का मन होता है। राम की दुनिया में ऐसा क्या था जिसके लिए आज हम समाज को
लौट चलने के लिए कहें? क्या था ऐसा? ऐसी
क्या बात थी जिसके लिए राम-राज्य की चर्चा की जाए?
लेकिन अवैज्ञानिक बुद्धि हमेशा पीछे लौटने वाली बुद्धि होती है। वह
कहती है, पीछे लौट चलो, पीछे लौट चलो।
आगे जाने में भय लगता है, क्योंकि आगे और समस्याएं होंगी,
जिनको सामना करने के लिए बुद्धि को विकसित करना पड़ेगा। उतनी बुद्धि
को विकसित करने के लिए जो तैयार नहीं है, वह कहेगा, पीछे लौट चलो। समस्या से ही भाग जाओ। न समस्या रहेगी, न बुद्धि को जन्मने का कारण रहेगा। लौट जाएं अपनी गुफाओं में, बैठ जाएं आकर पीछे लौट कर। लौटते चलो उस समय जब कि बंदर पहली दफे जमीन पर
उतरा था। और फिर वापस झाड़ों पर चढ़ जाओ और चार हाथ-पैर से चलने लगो। बह बहुत अच्छा
रहेगा, क्योंकि न वहां यंत्रों की जरूरत होगी, न वहां औद्योगीकरण की जरूरत होगी, न वहां किसी आदमी
को किसी पर निर्भर होने की जरूरत होगी। स्वावलंबी, बंदर बन
जाए एक-एक आदमी लौट कर तो बहुत अच्छा है।
लेकिन समाज ऐसे विकसित नहीं होता। और ये पीछे लौटने वाली चिंतनाएं
समाज को हित नहीं पहुंचातीं। क्या था राम के राज्य में, जिसकी इतनी चिंता, जिसके लिए पीछे लौटने की इतनी बात,
ऐसी क्या बात थी? और अगर ऐसा सुंदर राज्य था
वह और ऐसा स्वर्ण-युग था, तो आदमी उसे छोड़ कर क्यों आ गया?
आगे क्यों बढ़ आया?
आदमी हमेशा दुख को छोड़ कर आगे बढ़ता है। सुख को छोड़ कर कभी आदमी आगे
नहीं बढ़ता है। यह ध्यान रहे, हम समाज की जिन स्थितियों से
गुजर आए हैं, वे स्थितियां आज की स्थितियों से बदतर
स्थितियां थीं, इसलिए समाज आगे बढ़ा है उनसे; नहीं तो समाज उनसे कभी आगे नहीं बढ़ता। समाज आगे बढ़ता इसलिए है कि जो पीछे
था, वह इस योग्य नहीं रहा कि उसमें जीया जाए। समाज नये द्वार
तोड़ता है, नये मार्ग खोलता है। लेकिन प्रतिगामी चित्त,
अवैज्ञानिक चित्त हमेशा कहता है, पीछे लौट
चलो। मनोविज्ञान में इस वृत्ति को कहते हैं: रिग्रेस, पीछे
गिर जाने की वृत्ति।
अगर एक जवान आदमी के घर में आग लग जाए और उस आग को सामना करने की उसकी
बुद्धि जवाब दे दे, तो आपको पता है, वह आदमी क्या
करने लगेगा? वह दरवाजे पर बैठ कर ऐसा रोने लगेगा, जैसे कोई छोटा बच्चा हो। वह रिग्रेस कर गया। अब जवान होने की हिम्मत उसने
छोड़ दी। अब वह बच्चा हो गया, वह रोने लगा। बच्चा जो करता
मकान में आग लग जाने पर, वही वह कर रहा है। लेकिन रोने से
कोई मकान की आग नहीं बुझती, और पीछे लौट जाने से कोई हल नहीं
होता। हां, पीछे लौट जाने से एक सुविधा होती है, समस्या को सामना करने से बच जाने का उपाय मिल जाता है।
पीछे लौटना एस्केपिज्म है, पीछे लौटना पलायनवाद
है।
जिंदगी नई समस्याएं खड़ी करती है। उनको हल करने की फिक्र होनी चाहिए, न कि पीछे लौट जाने की।
नये यंत्रों ने नई मुसीबत पैदा की है, यह सच है। हर नई चीज
नई मुसीबत पैदा करती है। क्योंकि पुरानी व्यवस्था में बदलाहट करने की जरूरत आ जाती
है। लेकिन हर नई मुसीबत को झेल लेना, सामना करना, मनुष्य की प्रतिभा को विकास करने का अवसर बनता है। और पीछे लौट जाना
मनुष्य की प्रतिभा का विकास तत्क्षण रुक जाता है।
क्या आपको पता है, एक आदमी बैलगाड़ी चलाता हो,
तो इसके चित्त के बहुत विकास की जरूरत नहीं है, इसकी कांशसनेस बहुत विकसित नहीं होगी। आखिर बैलगाड़ी चलाने के लिए कितनी
चेतना की जरूरत पड़ती है? लेकिन एक आदमी अंतरिक्ष यान चलाता
हो, तो अंतरिक्ष यान चलाने के लिए बैलगाड़ी वाली बुद्धि काम
नहीं दे सकती। इस आदमी की चेतना को विकसित होना पड़ेगा। इस आदमी को इस नये जटिल
यंत्र का सामना करने के लिए इतनी ही जटिल, इतनी ही सूक्ष्म
बुद्धि भी विकसित करनी होगी। जितना यंत्रों का विकास होगा, उतनी
मनुष्य की बुद्धि को चुनौती मिलती है विकसित होने की।
गांधी कहते हैं कि चरखे पर लौट चलो, तकली पर लौट चलो।
इससे मनुष्य की चेतना का विकास नहीं होगा, मनुष्य की चेतना
का पतन होगा। मनुष्य की चेतना उत्पादन के साधनों के विकास के साथ विकसित होती है।
जितने साधन विकसित होते हैं, उतना ही भीतर की चेतना को
चुनौती मिलती है और वह विकसित होती है। साधन छीन लो, और
चेतना अविकसित हो जाएगी।
बंगाल के जंगलों में आज से बीसत्तीस वर्ष पहले दो बच्चियां पकड़ी गई
थीं, जिनको भेड़िए उठा कर ले गए थे। भेड़िए उठा कर ले गए दो
आदमियों की बच्चियों को। उन भेड़ियों ने उन्हें पाला। फिर शिकारियों ने उन्हें पकड़
लिया। उनकी दस और बारह साल के करीब उम्र थी, उन बच्चियों की।
लेकिन उन बच्चियों में आदमी का कोई भी चिह्न न था। आदमी की चेतना का कोई भी लक्षण
न था। वे चार हाथ-पैर से चलतीं, भेड़ियों की तरह चिल्लातीं।
मांस देख कर, कच्चे मांस को खा जातीं, आदमी
पर झपट्टा मारतीं। बहुत हैरानी हुई कि आदमी की दो लड़कियां, इनकी
यह हालत हो गई। भेड़ियों की जीवन-व्यवस्था में जीने पर जो चेतना विकसित होगी,
वह आदमी की विकसित नहीं होगी, भेड़ियों की ही
होगी।
अभी दोत्तीन वर्ष पहले उत्तरप्रदेश में भी एक लड़के को पकड़ा गया था
जंगल से, जिसकी कोई चौदह या पंद्रह साल की उम्र थी। वह भी
भेड़ियों ने पाला था। वह भेड़ियों जैसा हो गया था। उसे छह महीने लग गए सीधा खड़ा होना
सिखाने में। दो पैर से खड़ा होना सीखने के लिए उसे छह महीने लगे गए। एक शब्द बोलने
के लिए, राम उसका नाम रख दिया था, राम
बोलने के लिए उसे डेढ़ साल लग गया। डेढ़ साल में वह उच्चारण कर पाया--राम। क्या हो
गया इसकी चेतना को? भेड़ियों की व्यवस्था में रहने पर चेतना
भेड़ियों जैसी हो गई।
जितना विकसित समाज, जितनी विकसित यंत्र-व्यवस्था,
जितना विकसित विज्ञान, उतना मनुष्य की चेतना
को विकसित होने की चुनौती मिलती है। मनुष्य के भीतर अनंत संभावना है विकास की,
लेकिन चुनौती मिलनी चाहिए, चैलेंज मिलना
चाहिए। गांधी जिस समाज की बात करते हैं, वह चैलेंज देने वाला
समाज नहीं है। वह चुनौतीहीन--अपना कपड़ा बना लो, अपने चरखे पर
बुन लो, अपनी घर की खेती-बाड़ी कर लो, अपने
झोपड़े में रह जाओ, राम-भजन करो और आराम से जीओ। उससे मनुष्य
की चेतना को चुनौती नहीं मिलती।
आदमी आगे क्यों बढ़ आया उन स्थितियों को छोड़ कर?
वह इसीलिए आगे बढ़ आया है कि उन स्थितियों में आत्मा के विकास का अवसर
नहीं था। विश्व-चेतना मनुष्य की चेतना को विकसित करने के लिए तीव्र संदेश दे रही
है। ये यंत्र आकस्मिक रूप से पैदा नहीं हो रहे हैं, ये परमात्मा के खिलाफ
पैदा नहीं हो रहे हैं। यह परमात्मा की ही मर्जी होगी। मनुष्य का जो भी विकास हो
रहा है, वह परमात्मा की मर्जी से हो रहा है। क्योंकि उसकी
मर्जी के बिना और कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन महात्मागण परमात्मा की मर्जी के
खिलाफ बहुत सी बातें कहते रहते हैं। हालांकि उनकी कोई सुनता नहीं। समाज अपनी ही
धारा से बढ़ता है। लेकिन थोड़ा-बहुत विलंब वे जरूर पैदा कर देते हैं। उनका विलंब
पैदा करना नुकसान का कारण हो जाता है।
हिंदुस्तान में पीछे लौटने और लौटाए जाने वाले लोगों की लंबी परंपरा
है। इन संतों-महात्माओं के कारण भारत की आत्मा विकसित नहीं हो पाती है। और भारत की
आत्मा जब तक संतों-महात्माओं से मुक्त नहीं होती, तब तक भारत के पास एक
वैज्ञानिक प्रतिभा का जन्म नहीं होगा, इसे सुनिश्चित मान
लिया जाना चाहिए।
तीन-चार हजार वर्ष से हम क्या कर रहे हैं?
मैं गांधी के अवैज्ञानिक चिंतन का स्पष्ट रूप से विरोध करता हूं। और
यह विरोध करना इसलिए भी बहुत जरूरी हो गया है कि गांधी इतने महिमाशाली व्यक्ति हैं
कि उनकी भूलें और नासमझियां और उनकी झक और उनके फैड्स, वह सब हमारे दिमाग में पकड़ जाएंगे। इसका पूरा खतरा है। वे जो कहेंगे,
वे जो करेंगे, वह हमें प्रीतिकर लगने लगेगा।
वे आदमी इतने प्रीतिकर हैं। इसलिए बड़ी लड़ाई की जरूरत है कि हम उनके विचार को समझें
और देखें कि वह विचार देश को आगे ले जाने वाला सिद्ध होगा कि पीछे ले जाने वाला
सिद्ध होगा। और अगर हमें दिखाई पड़ता हो कि वह पीछे ले जाने वाला सिद्ध होगा,
तो गांधी को पूरी तरह प्रेम करते हुए भी, गांधी
की महिमा के लिए पूरा सम्मान देते हुए, गांधी की सेवाओं के
लिए पूरा सत्कार देते हुए भी, गांधी के उन हिस्सों से देश को
बचाना पड़ेगा, जो देश को अंधकार में ले जा सकते हैं और गर्त
में गिरा सकते हैं।
लेकिन यह बात कहनी ही बहुत मुश्किल हो गई है। क्योंकि यह बात कहने का
मतलब है कि न्यस्त स्वार्थों को, वेस्टेड इंट्रेस्ट को नाराज कर
देना है। गांधी ने किसी पत्र में लिखा है कि मेरा वश चले तो न टेलिग्राफ रहने दूं,
न रेलगाड़ी रहने दूं। बड़े मजे की बात है! अगर गांधी का वश चले तो
टेलिग्राफ, रेलगाड़ी, यह सब वे खत्म कर
दें। तो आदमी कहां जाए? आदमी हो जाए गुहामानव। गिर जाए पीछे
अतीत के पतन में। हमें पता नहीं है कि इन सारे यंत्रों ने भी बहुत कुछ मनुष्य की
आत्मा और धर्म को विकसित होने में सहयोग दिया है। हजारों साल से समझाने वाले लोग
नहीं समझा सके थे कि भंगी के पास बैठो, लेकिन रेलगाड़ी ने
आपको भंगी के पास बिठा दिया। हजारों महात्मा नहीं समझा सके थे यह बात कि भंगी के
पास बैठ कर खाना खा लो, लेकिन रेलगाड़ी में बैठ कर आपने भंगी
के पास खाना खा लिया। लाखों महात्मा जो नहीं कर सके वह एक मुर्दा रेलगाड़ी ने काम
कर दिया।
जिंदगी बहुत अनूठे ढंगों से विकसित होती है। जिंदगी के रास्ते बहुत
अनूठे हैं। और रेलगाड़ी को बंद कर देने का मतलब क्या है? रेलगाड़ी का क्या कसूर है? टेलिग्राफ का क्या कसूर है?
बड़े यंत्रों का, हवाई जहाज का क्या कसूर है?
एक कसूर है, और वह कसूर यह है कि विज्ञान
जितना विकसित होता है, उतना मनुष्य का तर्क विकसित होता है;
और जितना तर्क विकसित होता है उतना अंधविश्वास के आधार पर खड़े हुए
सारे गढ़ गिरने शुरू हो जाते हैं। विज्ञान का विकास तथाकथित धार्मिक आदमी को भयभीत
करता है। विज्ञान का सारा विकास तथाकथित धार्मिक आदमी को भयभीत करता है। क्योंकि
उसकी यारी बुनियादें अतर्क पर, अंधेपन पर, विश्वास पर खड़ी हैं। एक तरफ विज्ञान विकसित होगा, तो
दूसरी तरफ यह अंधविश्वास पर खड़े हुए मंदिर इनके शिखर गिरने शुरू हो जाएंगे। इसलिए
उचित यही है कि विज्ञान विकसित न हो। उचित यही है कि वैज्ञानिक बुद्धि विकसित न
हो। उचित यही है कि मनुष्य का तर्क विकसित न हो। उचित यही है कि आंख बंद करके आदमी
अंधे की तरह महात्माओं के पीछे चलता रहे। ताकि हजारों साल से जो भी कहा जा जा रहा
है--चाहे वह ठीक हो, चाहे वह गलत हो--वह आदमी मानता चला जाए।
आदमी को एक मानसिक गुलामी के लिए तैयार किया गया है। विज्ञान ने वह गुलामी तोड़नी शुरू
कर दी। इसलिए दुनिया भर के संत-महात्मा विज्ञान के बुनियादी रूप से विरोध में हैं।
विरोध वे अनेक-अनेक रूपों में करते हैं, जो खयाल में नहीं
आता। और इतने व्यवस्थित ढंग से वह विरोध चलता है कि शायद उन्हें भी पता न हो कि वे
क्या कर रहे हैं?
अब हिंदुस्तान की बढ़ रही है आबादी। विज्ञान कहता है, संतति-नियमन का उपयोग करो, बर्थ-कंट्रोल का उपयोग
करो। विज्ञान ने एक अदभुत बात खोज निकाली कि आदमी जन्म के ऊपर अधिकार रख सकता है।
पैदा होना आदमी का आदमी के वश में है। लेकिन गांधीजी और विनोबाजी कहते
हैं--संतति-नियमन! इससे तो अनाचार फैल जाएगा। संतति-नियमन कभी नहीं, ब्रह्मचर्य का पालन करो। लेकिन पांच हजार वर्ष से तुम समझा रहे हो,
कितने ब्रह्मचारी पैदा करवाए? और कब तक तुम इस
बकवास को जारी रखोगे? कभी हजार दो हजार आदमी में एक आदमी
ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है। तो उससे हम नहीं कहते कि बर्थ-कंट्रोल का उपयोग
करे, उस पर कोई जबरदस्ती नहीं करते। लेकिन जो लोग नहीं
उपलब्ध हो सकते हैं ब्रह्मचर्य को, इन सारे लोगों को
ब्रह्मचर्य की बातों की आड़ में बच्चे पैदा करते रहने देना, सारे
समाज के लिए स्युसाइड, आत्मघात सिद्ध होगा।
सारी दुनिया ने अपनी संतति पर नियमन पैदा कर लिया है। फ्रांस की
संख्या थिर हो गई है। जापान ने अपनी संख्या पर बहुत तीव्रता से काबू पा लिया है।
लेकिन भारत अपनी संख्या को पागल की हैसियत से बढ़ाए चला जा रहा है। हम सिवाय मरने
के और कहीं भी नहीं पहुंचेंगे। लेकिन गांधी और विनोबा का अवैज्ञानिक चिंतन कहेगा
कि नहीं, संतति-नियमन, यह तो कृत्रिम
उपाय है।
सब उपाय कृत्रिम हैं। उपाय मात्र कृत्रिम होते हैं। उपाय कोई आसमान से
पैदा नहीं होते, आदमी ईजाद करता है। कृत्रिम उपाय का उपयोग मत करो,
संयम रखो। लेकिन तुम्हारे संयम की शिक्षा का क्या फल है? तुम्हारा संयम की शिक्षा अगर दस हजार साल भी चले तो कोई परिणाम नहीं होने
वाला है। और दस हजार साल में इस देश में कीड़े-मकोड़ों की तरह आदमियों की भीड़ इकट्ठी
हो जाएगी, इस भीड़ को जीना असंभव होगा। सिर्फ मरना ही आसान रह
जाएगा। लेकिन आप मरोगे तो वे कहेंगे, इसमें हमारा क्या कसूर?
हम तो कहते थे, ब्रह्मचर्य का पालन करो। तुमने
नहीं किया, तुम मरो, तुम्हारी
जिम्मेवारी, तुम्हारी गलती है। लेकिन वैज्ञानिक साधनों का
उपयोग मत करने देना। और बड़े मजे की बात, वे कहेंगे कि
वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करने से अनैतिकता बढ़ जाएगी, जैसे
कि अनैतिकता बहुत कम है! अब और अनैतिकता क्या बढ़ जाएगी?
अनैतिकता काफी बढ़ गई है, चरम सीमा पर पहुंच गई
है। कम से कम इस देश को तो अब और पतित होने का कोई उपाय नहीं रह गया है। अब तो कोई
बहुत ही अदभुत इंवेंटिव माइंड पैदा हो, आविष्कारक, तो भी नहीं बता सकता कि और चरित्रहीनता के नुस्खे क्या हो सकते हैं। सब
नुस्खा हमें पूरी तरह मालूम हैं। अब और क्या चरित्रहीनता होगी? लेकिन नहीं, वह अवैज्ञानिक बुद्धि नैतिकता की दलीलों
को लेकर अपने अविज्ञान को छिपाए चली जाएगी। और हमको भी वे बातें अच्छी लगेंगी,
क्योंकि उन बातों को सुनने की हमारी लंबी आदत हो गई है। जिस बात को
हम बहुत बार सुनते हैं, बहुत बार सुनने के कारण वह सही लगने
लगती है।
हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि किसी भी झूठ को बार-बार दोहराते
रहो, धीरे-धीरे वह सच हो जाता है। बस झूठ को बार-बार
दोहराने की जरूरत है, वह सच हो जाएगा। असली सवाल बार-बार
दोहराने का है।
और हम तो हजारों साल से कुछ बातें दोहरा रहे हैं। इतनी बार हमने उनको
दोहराया है कि वे सच हो गई हैं। और आज उन झूठी बातों को, जो सच दिखाई पड़ने लगी हैं, तोड़ना एक बड़ी मुश्किल बात
हो गई है। पहाड़ तोड़ना आसान हो गया; उन झूठी बातों को,
जो सच नहीं हैं, तोड़ना बहुत मुश्किल हो गया
है। लेकिन अगर किसी को महात्मा बनना हो, तो तोड़ने की कोशिश
ही नहीं करनी चाहिए। महात्मा बनने की सरल तरकीब यह है। और इस देश में महात्मा बनने
से ज्यादा सरल और कोई भी चीज नहीं है। और कुछ भी बनना बहुत कठिन है, महात्मा बनना एकदम सरल है। और महात्मा बनने का रामबाण नुस्खा यह है कि जो
भी नासमझी चलती रही हो, तुम उसका ही गुणगान जारी रखो। जो भी
नासमझी चलती रही हो, तुम उसकी ही हां में हां भरते रहो। समाज
तुम्हें आदर देगा, क्योंकि तुम समाज की नासमझियों को आदर
देते हो। समाज उत्तर में तुम्हारा सम्मान करेगा, क्योंकि तुम
समाज का सम्मान करते हो। और अगर थोड़ी सी भी क्रांति की बात कही, कि जिंदगी को बदलना जरूरी है, विचार को बदलना जरूरी
है, तो तैयार रहो फिर, फिर महात्मा
नहीं हो सकते, फिर साधु नहीं हो सकते।
हिंदुस्तान ने एक तरकीब निकाली है। हिंदुस्तान के सारे विचारशील लोगों
को एक तरकीब से, एक रिश्वत देकर क्रांति के विमुख बनाया गया है। और वह
रिश्वत यह है कि हम तुम्हें सम्मान देंगे, अगर तुम क्रांति
की बात न करो। और अगर तुमने क्रांति की बात की तो अपमान के सिवाय और कुछ भी नहीं
मिलेगा। इसलिए हिंदुस्तान में संत-महात्मा पैदा हुए, क्रांतिकारी
पैदा नहीं हो सके हैं। हिंदुस्तान के पांच हजार साल के इतिहास में एक भी क्रांति
नहीं हो सकी। यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण मालूम पड़ता है। हमसे छोटे-छोटे मुल्क सौ दो सौ
वर्षों में क्रांति कर लेते हैं, और हमने कोई क्रांति नहीं
की। क्या हमारी आत्मा मर गई है? क्या हम कोई भी बदलाहट करने
में समर्थ नहीं रहे?
गांधी का चिंतन भी सुधारवादी है, क्रांतिवादी नहीं। यह
दूसरा बिंदु में आपसे कह देना चाहता हूं।
गांधी क्रांतिवादी चिंतक नहीं हैं, रिफार्मिस्ट, सुधारवादी चिंतक हैं। अगर हिंदुस्तान में अस्पृश्य चल रहा है, अछूत चल रहा है तो उसको अच्छा नाम दे देंगे; कहेंगे,
हरिजन। वे यह नहीं कहेंगे कि हिंदू धर्म सड़ा हुआ धर्म है। यह नहीं
कहेंगे इस हिंदू धर्म को लगा दो आग, जिस हिंदू धर्म ने यह सब
बेईमानी पैदा की। नहीं, वे कहेंगे, हिंदू
धर्म तो बहुत महान धर्म है। थोड़ी सी भूल हो गई है। किसी तरह समझा-बुझा कर अछूत को
निकट ले जाओ। बीमारी जारी रहने दो। थोड़ी सी भूल रह गई है उसको सुधार लो। कहीं थोड़ा
सा पलस्तर बदल दो, कहीं खिड़की बदल दो, कहीं
रंग-रोगन बदल दो। समाज तो पुराना बिलकुल ठीक है।
गांधी क्रांतिवादी नहीं हैं। तो वे कहेंगे, हिंदू भी ठीक है, मुसलमान भी ठीक है, दोनों भाई-भाई हैं। जब कि दोनों बीमारियां हैं, कोई
भाई-भाई नहीं हैं। न हिंदू की जरूरत है, न मुसलमान की जरूरत
है; हिंदुस्तान को आदमी की जरूरत है, हिंदू-मुसलमान
की बिलकुल जरूरत नहीं है। लेकिन गांधी कहेंगे, हिंदू-मुस्लिम
भाई-भाई।
यह सुधारवादी, समझौतावादी दृष्टिकोण है। यह क्रांति लाने वाला
दृष्टिकोण नहीं है। वे कहेंगे कि दोनों ठीक हैं। वे कहेंगे, अल्ला-ईश्वर
तेरे नाम। भगवान का कोई भी नाम नहीं है। न अल्ला उसका नाम है और न ईश्वर उसका नाम
है। वह अनाम है और सब नाम लेने वाले, सब नाम झूठे नाम हैं,
आदमी के दिए हुए नाम हैं। लेकिन किसी झूठ को खोलने की वह हिम्मत
नहीं जुटाएंगे। वे कहेंगे, तुम्हारा झूठ भी ठीक, तुम्हारा झूठ भी ठीक। झगड़ा मत करो, दोनों भाई-भाई
हो।
और भाई-भाई का नतीजा हम देख रहे हैं, क्या हुआ?
हिंदुस्तान-पाकिस्तान कटा। और इस कटने में गांधीजी ने हिंदू-मुसलमान
को भाई-भाई बनाने की जो बात कही, वह बुनियादी आधार बनी। अगर
हिंदुस्तान के नेताओं ने और विचारशील लोगों ने हिंदू और हिंदू-मुसलमान को बीमारी
कहा होता और हिंदू और मुसलमान दोनों तत्वों के खिलाफ लड़ाई जारी रखी होती, तो हिंदुस्तान के बंटवारे का कभी कोई सवाल नहीं उठ सकता था। देश भी बंट
गया, बीमारी जारी है और हजारों साल तक वह बीमारी जारी रहेगी।
हिंदुस्तान को वैसे क्रांतिकारी लोग चाहिए, जो इसे बीमारियों से छुटकारा दिलाएं, जो बीमारियों
के साथ एडजस्ट होने की, समायोजित होने की बातें न करें। जो
समझौते की बातें न करें, जो जिंदगी को बदलने के लिए हिम्मत
जुटाएं।
और यह हिम्मत जुटानी हो तो गांधी के समझौतावादी रुख के खिलाफ सारे देश
के मन में एक आवाज पैदा होनी अत्यंत जरूरी है।
गांधी एक समझौतावादी हैं।
हिंदुस्तान हमेशा से समझौतावादी रहा है। समझौतावादी होने से यह हमने
सब खो दिया है। अब कब यह मौका आएगा कि हिंदुस्तान समझौतावादीपन की पुरानी आदतें
छोड़ दे। वह हिम्मत से जो ठीक हो उसको करने की कोशिश करे। जो सही दिखाई पड़े, जो मुल्क के चिंतन में सही आए, उसके साथ समझौता न
करे। क्योंकि समझौता करने वाली कौम धीरे-धीरे इंपोटेंट, नपुंसक
हो जाती है। उसका बल चला जाता है, उसका आग्रह चला जाता है,
उसका वीर्य चला जाता है, उसकी लड़ने की क्षमता
चली जाती है, उसकी बदलाहट की ताकत खो जाती है। वह सब खो गई
है।
गांधी क्रांतिकारी नहीं हैं। गांधी की जो बात बहुत क्रांतिकारी मालूम
पड़ती है, वह बात भी उतनी क्रांतिकारी नहीं है, जितनी की घोषणा की जाती है। गांधी कहते हैं कि अहिंसा--और अहिंसा की बात
सच में बड़ी क्रांतिकारी है। लेकिन गांधी के अनशन और सत्याग्रह को मैं अहिंसक नहीं
मानता हूं। अगर कोई भी अनशन जाहिर रूप से किया जाए तो हिंसात्मक हो जाता है। अगर
मुझे किसी व्यक्ति का हृदय-परिवर्तन करना है, तो मौन में,
एकांत में बिना किसी को पता चले, ध्यान में,
समाधि में मुझे उसके हृदय-परिवर्तन की प्रार्थना करनी चाहिए। अगर
में बड़ौदा में घोषणा करके कि मैं फलां आदमी का हृदय-परिवर्तन करूंगा, और अनशन करता हूं, और सारा बड़ौदा मेरे अनशन के
आस-पास घूमता है, और अखबारों में खबरें छपती हैं तो मैं उस
आदमी पर दबाव डाल रहा हूं। यह दबाव अहिंसात्मक नहीं है।
सत्याग्रह अहिंसात्मक हो सकता है, लेकिन वह होगा मौन
में, एकांत में, अंधेरे में जहां किसी
को पता भी न चले। उस आदमी को भी पता न चले, जिसका
हृदय-परिवर्तन करने की मैं कोशिश कर रहा हूं। और तब उस मौन में भी हृदय बदले जाते
हैं, उस मौन में भी हृदय से हृदय तक आवाज पहुंचाई जाती है।
वह तो अहिंसात्मक हो सकता है।
लेकिन इस तरह के सत्याग्रह और अनशन अहिंसात्मक नहीं है; ये हिंसा के नये रास्ते हैं, नये रुख हैं। यह हिंसा
की नई तरकीब है।
नहीं, गांधी के द्वारा जो क्रांति हो गई, वह अहिंसात्मक क्रांति नहीं है। और वह क्रांति संभव हो सकी, वह इसलिए नहीं की भारत अहिंसात्मक आंदोलन कर रहा था, बल्कि इसलिए कि भारत इतना कायर, इतना कमजोर और इतना
निर्वीर्य हो गया है कि उसमें लड़ने की कोई हिम्मत नहीं रही। गांधी ने भी आजादी
मिलने के बाद यह बात स्वीकार की। गांधी ने यह बात स्वीकार की कि अब मैं समझता हूं,
क्योंकि आजादी मिलते ही जो हिंसा का दौर छूटा पूरे मुल्क में,
उससे सब बात पता चल गई कि यह मुल्क कितना अहिंसक है। गांधी ने भी यह
बात स्वीकार की कि मैं समझता हूं अब कि हिंदुस्तान ने कमजोरी की वजह से अहिंसा की
बातें मान ली थीं। हिंदुस्तान अहिंसक नहीं है।
कौन सी अहिंसात्मक क्रांति हो गई! लेकिन वह जो क्रांति गांधी के साथ
चली भी, वह क्रांति भी बहुत अदभुत थी। वह क्रांति, वह विरोध, वह बगावत अंग्रेजों के तो खिलाफ थी,
लेकिन हिंदुस्तान की सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ नहीं थी। अगर
अंग्रेजों की खिलाफत चले तब तक तो ठीक था...
अब आगे नहीं बढ़ना। इसलिए हिंदुस्तान से अंग्रेजी हुकूमत गई।
हिंदुस्तान आजाद नहीं हुआ। हिंदुस्तान से अंग्रेजी हुकूमत गई और हिंदुस्तानी
पूंजीपति के हाथ में हुकूमत आ गई। हिंदुस्तान की गुलामी जारी है। अंग्रेज पूंजीपति
की जगह हिंदुस्तानी पूंजीपति आ गया, लेकिन हिंदुस्तान की
गुलामी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। और इसीलिए हिंदुस्तान का पूंजीपति गांधी के
आस-पास चक्कर लगाता रहा, क्योंकि गांधी से उसे आशा थी कि इस
आदमी के कारण न तो जनता हिंसा कर सकेगी, क्योंकि हिंसा की
अगर क्रांति होती तो हिंदुस्तान का पूंजीपति भी उस क्रांति में बह जाता, यह निश्चित था।
गांधी के कारण हिंसात्मक क्रांति नहीं हो सकेगी, पूंजीवादी सुरक्षित है। और गांधी की समझौतावादी प्रवृत्ति के कारण अंग्रेज
पूंजीपति से सत्ता हमारे हाथ में आ जाएगी, यह भी हिंदुस्तान
की पूंजीवादी व्यवस्था को पता है। इसलिए जैसे ही हिंदुस्तान को आजादी मिल गई,
हिंदुस्तान के पूंजीपतियों और हिंदुस्तान के नेताओं ने गांधी को एक
तरफ फेंक दिया। काम खत्म हो गया था, वह चली हुई कारतूस सिद्ध
हो गए थे। काम पूरा हो गया था। जो काम होना था, हो चुका था।
अब गांधी खतरनाक थे, अब गांधी की कोई जरूरत न थी। इसलिए
गांधी ने मरने के कुछ दिन पहले कहा कि मैं एक खोटा सिक्का हो गया हूं। अब मेरी कोई
पूछ नहीं है, अब मुझे कोई नहीं पूछता है। लेकिन फिर भी वह यह
नहीं समझ पाए कि उन्हें अब कोई क्यों नहीं पूछता है? इसलिए
नहीं पूछता है कि जो उन्हें पूछ रहे थे लोग, उनका काम पूरा
हो गया है। अंग्रेज के हाथ से सत्ता हिंदुस्तानी पूंजीपति के हाथ में आ गई है।
गांधी का काम पूरा हो गया। अब गांधी की कोई भी जरूरत नहीं है। और गांधी का मौजूद
रहना खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
यह जो क्रांति हुई, यह क्रांति नहीं थी। यह केवल
सत्ता का एक पूंजीपति वर्ग से दूसरे पूंजीपति वर्ग के हाथ में हस्तांतरण था,
यह ट्रांसफर था, यह कोई क्रांति नहीं थी। समाज
की जिंदगी वैसी की वैसी है, बल्कि बदतर हो गई है। बीस सालों
में आजादी के बाद हिंदुस्तान का चित्त, हिंदुस्तान की चेतना
और आत्मा पतित हुई है, विकसित नहीं हुई है। असल में अपना
पूंजीपति और भी खतरनाक सिद्ध हुआ है।
और मैं आपको कहता हूं कि अंग्रेज पूंजीपति तो गांधी के प्रति सदय रहा, भारतीय पूंजीपति गांधी के प्रति सदय भी नहीं रह सकता था। और गांधी की
हत्या इसका सबूत है। अंग्रेज हुकूमत के बीच गांधी जिंदा रह सके। अंग्रेज ने गांधी
की हत्या नहीं की है। मुसलमान ने गांधी को गोली नहीं मारी। एक हिंदू ने और हिंदुस्तान
के आजाद होने के बाद गोली मारी, यह आकस्मिक नहीं है, एक्सिडेंटल नहीं है। यह बताता है कि हमारा पूंजीपति, हमारे देश का सत्ताधिकारी पश्चिम के सत्ताधिकारियों से भी खतरनाक सिद्ध हो
सकता है। हम ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। वह जो काला पूंजीपति है, वह गोरे पूंजीपति से ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो रहा है।
गांधी के एक भक्त ने, जब हिंदुस्तान आजाद हुआ, तो उन सज्जन के पास केवल तीस करोड़ की पूंजी थी। आज उनके पास तीन सौ तीस
करोड़ की पूंजी है। बीस वर्ष में तीन सौ करोड़ की पूंजी का इकट्ठा हो जाना मिरेकल है,
चमत्कार है। लेकिन मानना चाहिए कि सत्संग का फायदा होता है। ग्रंथों
में लिखा है, सत्संग से बहुत फायदा होता है। उनको भी गांधी
के सत्संग से फायदा हुआ है।
नहीं, गांधी कोई क्रांतिकारी विचारद्रष्टा नहीं हैं,
गांधी एक सुधारवादी, समझौतावादी चिंतक हैं।
और उन्होंने जो समाज की रूपरेखा दी है, वह कोई क्रांति की
रूपरेखा नहीं है। और इसलिए मैं गांधी के अवैज्ञानिक चिंतन का, उनकी क्रांति-विरोधी दृष्टि का, उनके प्रतिगामी और
पीछे लौट चलने वाली प्रतिक्रियावादी मनोवृत्ति का स्पष्ट रूप से विरोध करता हूं।
लेकिन यह गांधी का विरोध नहीं है। गांधी के व्यक्तित्व के प्रति मुझे
समादर है, लेकिन गांधी के विचार अगर गलत हैं तो चाहे कोई भी
परिणाम हो, मैं उन विचारों को गलत कहना चाहता हूं। और मैं
इतनी आशा करता हूं मुल्क की नई पीढ़ियों से, मुल्क के
विचारशील लोगों से कि वे सिर्फ मुझे गालियां कोई अगर दे तो इससे मेरी बात को गलत
नहीं समझ लेंगे। बल्कि मुझे दी गई गालियां यह बताती हैं कि मैंने जो भी कहा है,
उसका एक भी उत्तर नहीं दिया जा रहा है, सिर्फ
मुझे गालियां दी जा रही हैं और गालियां कमजोर देते हैं। जो मैं कह रहा हूं,
उसका उत्तर दिया जाना चाहिए। मैं उत्तर के लिए तैयार हूं।
और मेरा दावा नहीं है कि जो मैं कहता हूं, सही है, क्योंकि मैं तो विचार और तर्क में विश्वास
करता हूं। मैं दावा नहीं करता कि मेरी अंतर्वाणी जो कहती है, वह सही ही होना चाहिए। वह गलत हो सकता है, लेकिन
मेरी बातों का उत्तर चाहिए। मुझे गालियां देने से कुछ परिणाम नहीं निकल सकता,
और गालियां देकर जनता को बहुत दिन तक गुमराह भी नहीं रखा जा सकता
है। जनता से मुझे आशा है और इस बात की आशा नई पीढ़ियों से और भी ज्यादा है कि
भविष्य सोचने वाला भविष्य होगा भारत का। बहुत दिन हम बिना सोचे जी लिए अंधेरे में।
क्या कभी भगवान वह मौका नहीं देगा कि यह देश भी विचार करे, यह
देश भी जागे और सोचे?
उसी विचार की दिशा में मैं प्रयत्न कर रहा हूं। एक अकेले आदमी की आवाज
कितनी हो सकती है? जिसके पास न कोई संगठन है, न
कोई संस्था है, न कोई साथी है, न कोई
संपत्ति है। एक अकेले आदमी की आवाज कितनी हो सकती है? लेकिन
मैं इस आशा में आवाज दिए ही चला जाऊंगा, जब तक कि वह मेरी
आवाज बिलकुल बंद ही न कर दें। जब तक मुझे यह खयाल है कि कुछ लोग अगर आवाज सुन
लेंगे और अगर आवाज में कोई सत्य होगा, तो यह आवाज रुकवाई
नहीं जा सकती, यह गांव-गांव, कोने-कोने,
एक-एक आदमी तक जरूर पहुंच जाएगी। अगर परमात्मा की यह मर्जी होगी कि
भारत सत्य के प्रकाश में जगे, तो यह होकर रहेगा। इसे कोई भी
रोक नहीं सकता है।
और बहुत सी बातें रह गईं, वह कल सुबह मैं बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता
हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें