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रविवार, 20 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-15




देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो
पंद्रहवां प्रवचन
भौतिक समृद्धि अध्यात्म का आधार

जो ठीक है और सच है वह मुझे कहना ही पड़ेगा। इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं। आखिर जो सत्य है, लोगों को उसके साथ आना पड़ेगा--चाहे वे आज दूर जाते हुए मालूम पड़ें। और लोग पास हैं इसलिए मैं असत्य नहीं बोल सकता। क्योंकि सच जब भी बोला जाएगा, तब भी प्राथमिक परिणाम उसका यही होगा कि लोग दूर भागेंगे। क्योंकि हजारों वर्षों की धारणा में वे पले हैं, उस पर चोट पड़ेगी। सत्य का हमेशा ही यही परिणाम हुआ है। सत्य हमेशा डिवास्टेंटिंग है। एक अर्थ है कि वह जो हमारी धारणा है उसको तो तोड़ डालेगा। और अगर धारणा तोड़ने से हम बचना चाहें तो हम सत्य नहीं बोल सकते। जान कर मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाह रहा हूं। डेलिब्रेटली मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाहता। लेकिन सत्य जितनी चोट पहुंचाता है उसमें मैं असमर्थ हूं, उतनी चोट पहुंचेगी। उसको बचा भी नहीं सकता हूं। फिर मैं कोई राजनीतिक नेता नहीं हूं कि मैं इसकी फिक्र करूं कि लोग मेरे पास आएं, कि मैं इसकी फिक्र करूं कि पब्लिक ओपिनियन क्या है?

मैं इस चिंता में हूं कि लोकमानस सत्य के निकट पहुंचना चाहिए। मैं लोकमानस के अनुकूल बनूं, इसकी मुझे जरा भी चिंता नहीं है। सत्य के अनुकूल लोकमानस बनाया जाए, इसकी मुझे चिंता है। और निश्चित ही बहुत सी बातें मैं कह रहा हूं जो चोट पहुंचाने वाली हैं, आघात करने वाली और विध्वंसकारी हैं। लेकिन असल में सच में कहा जाए तो पूरी बातें नहीं कर रहा हूं, जो कि और भी चोट करने वाली होंगी, जो कि और भी विध्वंसकारी होंगी।
तो जैसे-जैसे लोगों के सुनने की भूमिका विकसित होती चली जाएगी कि मैं उन सारी चीजों को कहना चाहूंगा। वह तो प्रारंभ है एक यात्रा का। अभी इसमें और बहुत कुछ कहने जैसा है, क्योंकि जीवन के सारे मसलों पर हमारी दृष्टि थोथी और झूठी है। तो मैं जीवन के प्रत्येक मसले पर जहां-जहां झूठ है, मैं कहना चाहूंगा। और न केवल कहना चाहूंगा, बल्कि अगर संभावना बन सकी और शक्ति इकट्ठी हो सकी तो उस चीज को बदलने की पूरी चेष्टा करूंगा।,
जैसे कि सेक्स के बाबत अभी मैंने कहा। यह तो तीन वर्षों तक मैंने शुभ भूमिका बनाने की फिक्र की। कभी-कभी थोड़ा मैं कुछ बोलता रहा था--कभी ब्रह्मचर्य के संबंध में, कभी किसी और के संदर्भ में। लेकिन पूरी तरह बात नहीं कही थी। फिर मुझे लगा कि अब भूमिका बनी है, अब उस बात को कहा जा सकता है, वह मैंने कही। लेकिन अभी सेक्स पर बहुत कुछ कहने को है और वह जैसे भूमिका बनेगी, मैं कहूंगा। ऐसे ही शिक्षा पर, ऐसे ही परिवार पर, ऐसे ही आर्थिक व्यवस्था पर, ऐसे ही देश की राजनीति पर।
मुझे लगता ऐसा है कि हिंदुस्तान में कोई तीन हजार वर्षों से जो लोग विचारक हुए, उनमें से किसी पर चोट करने के लिए कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया। तो उसने ज्यादा से ज्यादा फिक्र यही कि कि वह पुराने ढांचे में पुराने शब्दों का ही उपयोग करते, पुरानी मान्यताओं को ही स्वीकार करते, थोड़ा बहुत हेरफेर कर सकते तो करते। लेकिन सीधी चोट करने की हिम्मत नहीं जुटाई जा सकी और इसलिए हिंदुस्तान में विज्ञान पैदा नहीं हुआ। क्योंकि साइंस तभी पैदा हो सकती है, जब हम अनन्य रूप से सत्य के प्रति समर्पित हों। हम इसकी फिक्र छोड़ दें कि क्या परिणाम होगा?
जो सत्य है, नग्न सत्य, उसको स्वीकृत करने की हिम्मत से विज्ञान शुरू होता है नहीं तो फिर आदमी फिक्शन में ही जीता है। और हमारा मुल्क पुराण-कथाओं में जी रहा है, विज्ञान में नहीं। उसके चिंतन का ढंग साइंटिफिक नहीं। और हिंदुस्तान की यह तकलीफ है कि हम सब व्यक्तियों से बंधे हुए हैं। कोई महावीर से बंधा हुआ है, कोई कृष्ण से बंधा हुआ है, कोई गांधी से बंध गया है। और जो लोग भी व्यक्तियों से बंध जाते हैं उनकी सत्य के प्रति यात्रा बंद हो जाती है। क्योंकि फिर वे सदा यह सोचते हैं कि इसने जो कहा है वही सत्य है, उससे अन्यथा सत्य नहीं हो सकता।
तो अभी तो मैं सिद्धांतों पर चोट कर रहा हूं जो उतनी खतरनाक नहीं है। आने वाले दिनों में मैं व्यक्तियों पर भी चोट करूंगा। जो कि ज्यादा खतरनाक और डिवास्टेटिंग मालूम होगी। क्योंकि अगर मैं अहिंसा के संबंध में कुछ बात करता हूं तो उतनी चोट नहीं पहुंचती है, अगर मैं यह कहूं कि महावीर ये गलत कहते हैं तो चोट और ज्यादा पहुंचने वाली है। क्योंकि व्यक्तियों से हमारे मोह ज्यादा हैं। फिर भी अब थोड़ी-थोड़ी चोट पहुंची है लेकिन उसके लिए तैयारी करनी पड़ेगी ताकि चोट पहुंचाई जा सके।

अभी परसों आपने कहा कि हिटलर हिप्नोटाइज करता रहा। लेकिन जहां तक नेहरू का संबंध है, मैंने बीस वर्षों से एक रिपोर्टर की हैसियत से उन्हें देखा और सुना है। मैं यह नहीं सोचता कि वे लोगों को हिप्नोटाइज करने की कोशिश करते रहे?

मैंने कहा जरूरी नहीं है। मैं जान कर यह कह रहा हूं। जान कर करना जरूरी नहीं है, लेकिन वह रो रहा है। और मजा यह है कि न केवल लोगों को हिप्नोटाइज कर रहे हैं, नेहरू खुद भी लोगों से हिप्नोटाइज होते हैं। अभी अच्युत पटवर्धन ने कहा, मैं यह बात कह रहा था तो उनको भी यह खयाल आया और मुझसे आकर कहे कि नेहरू जी के साथ मैं मद्रास में था। उन्होंने दिन में कोई तीस मीटिंग अटेंड की थीं और वे सांझ को बिलकुल ताजे मालूम होते थे। तो मैंने उनसे पूछा कि आप थके नहीं तीस मीटिंग के बाद? तो उन्होंने कहा, कि मुझे एक मीटिंग में बोलने के बाद मुझे वह असर होता है जो एक व्हिस्की के पेग से होता है। न केवल लोगों को हिप्नोटाइज कर रहे हैं वे, बल्कि इतनी आंखें हैं, उनको भी आखिर हिप्नोटाइज कर रही हैं और उनको भी सुख मिल रहा है इस बात से। हजारों आदमी, दस लाख आदमी अगर एक आदमी को आधा घंटे तक देख रहे हैं कि इतनी आंखों में जो केंद्रित बन जाते हैं, वे खुद हिप्नोटाइज हो रहे हैं। व्हिस्की का असर हो सकता है। नेहरू ने गलत नहीं कहा। तो यह जो मैं व्यक्तियों पर चोट की तैयारी करूंगा। क्योंकि जब तक उन पर चोट नहीं जा सकती, इस मुल्क में कोई चिंतन पैदा ही नहीं किया जा सकता।

मुझे यह गलतफहमी हो रही है कि आप हिटलर और नेहरू की तुलना कर रहे हैं?

नहीं, नहीं। कम्पेयर नहीं कर रहा हूं। लेकिन जहां तक हिप्नोटाइज करने का सवाल है, वे कम्पेयर किए जा सकते हैं। और किसी मामले में कम्पेयर नहीं कर रहा हूं। नेतागिरी ही उस बेसिस पर खड़ी हुई है। लीडरशिप जो है वह भी उसी बेसिस पर खड़ी हुई है। लीडर होने का मतलब यही है कि जाने-अनजाने हिप्नोटाइज करना; नहीं तो आप लीडर बन नहीं सकते। और जिस दिन दुनिया में हिप्नोटिज्म के बाबत पूरी तरह जानकारी हो जाएगी, उस दिन लीडर की मौत हो जाने वाली है। नेता जिंदा नहीं रह सकते। तो अब वे सतर्क होकर उसके रास्ते खोज रहे हैं, जिनमें कि आपको कुछ भी पता न चले।
अभी मैंने पढ़ा कि एक एक्सपेरिमेंट वे अमेरिका में करते हैं। अभी फिल्म के ऊपर एडवरटाइजमेंट से, क्योंकि एडवरटाइजमेंट की जो हिप्नोसिस है, वह अमेरिका में आज जाहिर हो गई एक-एक को। कि लक्स टायलेट साबुन को बार-बार रिपीट करने से आदमी हिप्नोटाइज हो जाता है। तो अब जनता को पता चल गया तो अब रेसिस्टेंस पैदा हो गया है। अब उसको इतने सूक्ष्म रूप से करने लगे कि उसका पता न चले तो फिर नई अजीब बात निकाली उन्होंने। वह यह है कि फिल्म चल रही है, चलती हुई फिल्म के बीच में सेकेंड के हजारवें हिस्से में लक्स टायलेट की बीच में से स्मृति निकल जाएगी, वह किसी को दिखाई नहीं पड़ेगी। फिल्म चल रही है, बीच में "लक्स टायलेट सोप'! आपको दिखाई नहीं पड़ेगा आंख से। तो इस पर एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं। यह परिणाम हुआ कि वह दिखाई तो नहीं पड़ रहा है आंख से, लेकिन अनकांशस माइंड उससे इंप्रेस हो जाता है। और अगर वह एक फिल्म में तीस बार दोहरा दिया जाए तो आपको पता भी न चलेगा कि लक्स टायलेट साबुन, अच्छा साबुन है, लेकिन वह आपका माइंड पकड़ लेगा कहीं, और माइंड काम करेगा। तो जैसे ही हिप्नोटिज्म की पूरी जानकारी हो जाएगी, लीडरशिप को नये रास्ते खोजने जरूरी हो जाएंगे। उनकी लीडरशिप हमेशा से हिप्नोटाइज करती रही है--चाहे वे जान कर करें, चाहे वे जान कर न करें।
तीन तरह के लीडर हैं। जो लीडर जन्मजात हिप्नोटाइजर हैं, उनको कभी पता नहीं रहता कि हम हिप्नोटाइज कर रहे हैं। वह तो उनके जीवन का हिस्सा है, वह चलता चला जाता है। दूसरे वे हैं, जो व्यवस्था से लीडरशिप पैदा करते हैं। उनको पूरा काम कांशस होता है, क्या करना है, क्या बोलना है, कैसा कपड़ा पहनना है। उनके पास हार्ट इंप्रेशन की पूरी व्यवस्था है। तीसरे वे हैं, जिन्हें जबरदस्ती लीडर बना दिया जाता है। उनको न पता होता, न तो उनको कोई सहज भाव होता है। वे बेचारे सिर्फ थोप दिए गए लीडर हैं। ये तीन तरह के लीडर हैं। इसमें हिटलर दूसरे तरह का लीडर है, जो पूरी की पूरी व्यवस्था से लीडरशिप पर जा रहा है। स्टैलिन दूसरे तरह का लीडर है, जो पूरी व्यवस्था से है। नेहरू पहले तरह के लीडर हैं। कोई व्यवस्था नहीं है, लेकिन हिप्नोसिस पर है, और वह जन्मजात है, वह व्यक्तित्व का हिस्सा है।

दो लाख व्यक्तियों को हिप्नोटाइज करने के बजाय यदि नेहरू देश के दो दर्जन रिपोर्टरों को हिप्नोटाइज कर लेते तो उनके माध्यम से वे देश की जनता तक बड़ी आसानी से पहुंच जाते।

उनको नहीं हिप्नोटाइज किया जा सकता है। सच तो यह है कि डजन कारस्पांडेंट को हिप्नोटाइज करने के पहले दस लाख को हिप्नोटाइज करना जरूरी है। वह उनको हिप्नोटाइज करने का हिस्सा है। आप मुझसे प्रभावित होंगे, जब दस लाख आदमी आप मुझसे प्रभावित देखेंगे। तब कारस्पांडेंट प्रभावित होता है। कारस्पांडेंट तो प्रभावित होता है दस लाख लोगों की हिप्नोसिस को देख कर। तब वह सोचता है कि यह आदमी अर्थ का है, इसका बात अर्थ की है। अगर मेरे पास एक आदमी है तो आप मुझसे पूछने नहीं आएंगे। मेरा मतलब नहीं है, मैं इंडिविजुअल नहीं हूं। मास-हिप्नोसिस की संभावना पूरी है। और इंडिविजुअली हिप्नोटाइज करने में देर लगती है, मास-हिप्नोसिस बहुत आसान है। एक-एक आदमी को हिप्नोटाइज करने में एक-एक आदमी रेसिस्ट करता है। मास-हिप्नोसिस से रेसिस्टेंस नहीं है किसी का; और आपके आसपास हिप्नोटाइज होंगे तो आपको पता ही नहीं चलता कि आप कब हिप्नोटाइज हो गए हैं। तो एक इंडिविजुअल को हिप्नोटाइज करना कठिन है, क्राउड को हिप्नोटाइज करना हमेशा आसान है, क्योंकि क्राउड के पास रेसिस्टिव फोर्स नहीं रह जाता है। इसलिए जितने लीडर हैं वे सब क्राउड लीडर हैं। पर्सनल रिलेशनशिप में हिप्नोटाइज करना कठिन बात है क्योंकि आप पूरे इंप्रेस्ड हैं।
मैं यह जान कर हैरान हुआ हूं, अगर मैं आपसे बात कर रहा हूं और आपने प्रश्न पूछा तो उस प्रश्न के उत्तर में आपको प्रभावित करना ज्यादा कठिन है। शरद बाबू बैठे सुन रहे हैं। लोगों ने प्रश्न पूछा, वे सिर्फ सुन रहे हैं, तो उनको प्रभावित करना ज्यादा आसान है, क्योंकि वह रेसिस्टेंस नहीं कर रहे हैं। तो भीड़ हमेशा जल्दी हिप्नोटाइज होती है और भीड़ को हिप्नोटाइज देख कर तो आदमी उसमें आता है इंडिविजुअल, वह हिप्नोटाइज होता है। उसको समझ में नहीं आता कि जहां दस लाख लोगों को उसने देखा, वह एकदम से जो दस लाख लोगों का साइकिक एटमास्फिअर है, उसमें वह डूब जाता है। तो चाहे कोई जानता हो या न जानता हो, आदमी को हिप्नोटाइज किया जा रहा है। और अगर हम मनुष्य को आध्यात्मिक रूप से सबल बनाना चाहते हैं तो उसे सचेत करना जरूरी है कि वह हिप्नोटाइज नहीं कर रहा। लेकिन हिप्नोसिस एक तरह की ट्रिक है क्योंकि मैं आपको समझाता हूं तो माइंड आर्ग्यु करता है।
यह एक बल्ब लगा हुआ है रास्ते पर, और पूरे वक्त जल रहा है, बुझ रहा है, आपको एडवरटाइज किया जा रहा है। पहले यह तो पता था। पहले आप देखते थे, एडवरटाइजमेंट स्थिर था। वह बल्ब जलता-बुझता नहीं था। अभी वह हिप्नोटिस्ट ने बताया है कि उसको जलाने-बुझाने से हिप्नोटिज्म ज्यादा होगी, क्योंकि वह रिपीट हो रहा है, वैसे रिपीट नहीं होता।
लिखा है "अम्मा' तो आपने पढ़ लिया। यह तो खतम हो गई बात, लेकिन फिर जला, फिर बुझा तो जितनी बार वह जला-बुझा, उतनी बार आपको कहना पड़ा "अम्मा'। वह तो मजबूरी हो गई। वह तो हिप्नोटिस्ट बता रहा है कि उसको जलाओ-बुझाओ जल्दी-जल्दी, ताकि वह आदमी निकलते हुए बीस दफा पढ़े कि "अम्मा, अम्मा'। तो बीस दफा पढ़ने से रिपीट होगा तो उसके भीतर घुस जाएगा।
अब यह बदमाशी है। यह आदमी को नुकसान पहुंचाएगी। उससे हम कुछ भी कर सकते हैं। इसका मतलब यह है कि आज, तो ब्रेनवॉश, पर माइंडवॉश पर रूस और चीन में इतना काम हो रहा है, कि आप यह समझ लीजिए आदमी की स्वतंत्रता मुश्किल से पचास वर्ष बचने वाली है। अगर आदमी नहीं समझ गया तो, बिलकुल पचास वर्ष से ज्यादा बचने वाली नहीं है आदमी की स्वतंत्रता। अभी हम यहां बैठ कर इतनी बात कर रहे हैं, इसलिए संभावना रह जाने वाली है, क्योंकि आपके माइंड को कंट्रोल भीतर से किया जाता है बिलकुल ही, और आपको पता भी नहीं चले कि आप जो बोल रहे हैं, वह आपसे बुलवाया जा रहा है। जो आप कह रहे हैं, वह आपसे कहलवाया जा रहा है। और अभी तो साइकोएनालिसिस--और यह सबका काम जितना बढ़ गया, वह उतना घबड़ाने वाला है--कि आपको माइंड में इलेक्ट्रोड लगा कर रखा जा सकता है। और ट्रांसमीटर होगा मेरे हाथ में, और मैं दुनिया में कहीं रहूं और वहां से कहूं कि आप इस वक्त सो जाइए, तो आपको सोना पड़ेगा उसी वक्त। तो माइंड में आपके इलेक्ट्रोड रख दिया गया है, वह बिलकुल ट्रांस्मीशन का काम कर रहा है, रेडियो जैसा। वे कहेंगे नींद आ रही है, नींद आ रही है! इससे इस बात की संभावना बन गई है कि सारी मनुष्यता को कंट्रोल किया जा सकता है। इतना सा आदमी कुछ भी कंट्रोल कर सकता है और कुछ भी करवा सकता है। और इतना काम उस तरफ हो रहा है कि अगर हम लोगों को सचेत नहीं करते हैं तो आने वाले पचास वर्षों में मनुष्यता की सारी स्वतंत्रता खतम हो जाने वाली है, कोई स्वतंत्रता नहीं रह जाएगी।
अभी पिछले कोरियन वार में जिन अमरीकन कैदियों को चीन ने पकड़ रखा था, उनका पूरा माइंडवॉश करके भेजा। नौ महीने में वे माइंडवॉश कर देते हैं। नौ महीने बाद वे अमेरिका पहुंचे तो वे कम्युनिज्म की प्रशंसा करते हुए पहुंचे और अमेरिका को गाली देते हुए पहुंचे कि कैपिटलिज्म सब खराब है। और वे यह कहते हुए पहुंचे कि मेरे साथ बहुत अच्छा सलूक किया गया है। उनके साथ बहुत बुरा सलूक किया जा रहा है। रूस में जितनी भी ट्रायल्स हुई पिछले चालीस वर्षों में, सारी ट्रायल्स में जिस आदमी को सजा दी, उससे कंफेस करवा लिया कि हमने यह पाप किया है। एक भी आदमी ने रेसिस्ट नहीं किया। और अच्छे-अच्छे लोगों से, जो कि बड़ी कोटि के विचारक थे, उनसे अदालत में कहलवा लिया कि हमने यह किया, वह पापा किया! मैंने स्टैलिन को मारने की कोशिश की! और न तो उजरतदारी की जरूरत रही कुछ। और सिर्फ माइंडवॉश किया उन बेचारों का। उनको छह-छह चार-चार महीने बंद रख कर उनके मन में रिपीटेडली यह भाव डलवाया गया कि तुमने स्टैलिन की हत्या की कोशिश की। क्योंकि एक आदमी को सात दिन जगाया जाए, सोने न दिया जाए और सात दिन हर हालत जगाए रखा जाए और सजेस्ट किया जाए कि तुमने स्टैलिन को मारने की कोशिश की। दोत्तीन दिन तक तो वह कहेगा कि नहीं, मैंने तो नहीं कोशिश की। फिर नींद की कमी, और शक पैदा होगा कि कहीं मैंने की तो नहीं, इतने लोग कह रहे हैं। और सात दिन में वह आकर कहने लगा कि मैंने कोशिश की। फिर नींद की कमी, और शक पैदा होगा कि कहीं मैंने की तो नहीं, इतने लोग कह रहे हैं। और सात दिन में वह आकर कहने लगेगा कि मैंने कोशिश की है स्टैलिन को मारने की। अदालत में खड़ा करके उससे कंफेस करवा लिया कि मैंने स्टैलिन को मारने की कोशिश की। तो मेरी चेष्टा यह है कि लीडरशिप अब खतरनाक अवस्था पर आदमी को ले जाएगी। तो उसे हिप्नोटिक स्थिति के प्रति सचेत करना है।
जैसा आप कहते हैं, मेरी बातें उस वक्त कई भाव पैदा कर देती हैं आपके मन में, लेकिन अभी कोई रास्ता नहीं है, जब कि वह भाव पैदा न करूं। वह भाव पैदा होगा तो आप पूछेंगे, सवाल उठेंगे और मैं तैयार हूं सवाल-जवाब के लिए। मैं तो पूरे मुल्क को एक डायलाग में डाल देना चाहता हूं दस साल के भीतर। तो जितने प्रश्न उठेंगे, बातें साफ हो सकेंगी। वह तो स्वाभाविक है कि मुझे सुन कर पच्चीस प्रश्न आपको उठें। जरूर मैं चाहता हूं कि उठने चाहिए। सिर्फ जो जड़बुद्धि हैं उनको नहीं उठेगा, नहीं तो जो विचारशील हैं, उनको उठना चाहिए।

आप मैटीरियल डवलपमेंट चाहते हैं या फिलासफिकल डवलपमेंट?

मेरी दृष्टि में मैटीरियल डवलपमेंट जो है, वह फिलासफिकल डवलपमेंट की पहली सीढ़ी है। कोई भी देश, कोई भी समाज जब तक आर्थिक, भौतिक समृद्धि से भरा हुआ न हो, तब तक दार्शनिक विकास नहीं हो सकता। और नहीं हो सकता है, क्योंकि दार्शनिक विकास के लिए यह एक बुनियादी जरूरत है कि भौतिक रूप से समृद्ध हो। जब आदमी की रोटी की, कपड़े की और छप्पर की चिंता पूरी हो जाती है, तब पहली दफा स्प्रिीचुअलिटी की इच्छा पैदा होती है। तब वह सोचता है कि अब क्या? फिर? तो जिसको रोटी नहीं, कपड़ा नहीं, मकान नहीं मिल रहा है, उसको आप कह रहे हैं कि आत्मा-परमात्मा का चिंतन करो, तो आप निहायत फिजूल बात कर रहे हैं, हिंदुस्तान में जिन दिनों धार्मिक चिंतन किया गया है और फिलासफी का डवलपमेंट हुआ, बुद्ध या महावीर या कृष्ण--ये सारे के सारे लोग समृद्ध हिंदुस्तान की पैदाइश हैं। यह समृद्धि देखी है मुल्क ने। लोग खुशहाल थे। और इसमें अत्यंत बड़े मजे की बात है कि ये खुशहाल इसलिए थे कि सब राजपुत्रों के लड़के थे। ये सब शाही घरों के लड़के हैं। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम राजाओं के लड़के हैं। जहां लक्जूरी पूरी होती है जिंदगी की, वहां सब सीमाएं तृप्त हो जाती हैं, वहां आदमी की जो इंक्वायरी है, वह ऊपर उठती है। और वह पूछता है जो पहले पूछ ही नहीं सकता था।
तो मेरी दृष्टि में आने वाले दिनों में फिलासफिकल जो भी संभावनाएं हैं वे रूस और अमेरिका में फलित हो सकती हैं, हिंदुस्तान में नहीं। तो मेरी दृष्टि में--जैसा अब तक समझा जाता रहा है--रिलीजस या फिलासफिक या स्प्रिचुअल डवलपमेंट और मैटीरियल डवलपमेंट विरोधी बातें हैं, एक मैं नहीं मानता। मैं मानता हूं मैटीरियल डवलपमेंट नेसेसरी डवलपमेंट है स्प्रिचुअल डवलपमेंट के लिए।
कैसे यह हिंदुस्तान में आएगा?
दोत्तीन बातें मुझे दिखाई पड़ती हैं--एक तो हिंदुस्तान की पूरी चिंतना बदलनी पड़ेगी इस संबंध में। समृद्धि का विरोधी है हिंदुस्तान और गरीब का पक्षपाती है! यह अत्यंत मूढ़तापूर्ण दृष्टि है। तो पहले तो पूरे मुल्क की यह दृष्टि हमें बदलनी पड़ेगी कि समृद्धि कोई अशुभ बात नहीं है, बल्कि समृद्धि होगी तो ही हम धार्मिक हो सकेंगे। अभी क्यों हमारे मन में आ रहा है कि धार्मिक होने के लिए दरिद्र होना जरूरी है? यह बिलकुल पागलपन की बात है। तो एक तो हमें मुल्क के विचार से यह बात निकाल देनी है कि गरीबी कोई पूजा की चीज है, या गरीब होना कोई अच्छी बात है, कि एक आदमी लंगोटी लगा कर खड़ा हो जाता है तो कोई बहुत महान कार्य कर रहा है। तो अभी एक फिलासफी ऑफ पावर्टी, दरिद्रता का दर्शन हमारे चित्त में बैठा हुआ है। कम से कम में जीऊं, कम से कम आवश्यकता। छोटा से छोटा मकान हुआ, दाल-रोटी खा ली और अपनी चादर ओढ़ लिया और गुजार लिया। जितनी कम जरूरत हो सकती है, उतनी कम जरूरत है। कम जरूरत जिन लोगों के खयाल में बहुत महत्वपूर्ण है, वे देश को दरिद्र बना देंगे। मैं कहता हूं जरूरत बढ़नी चाहिए। जरूरत इतनी बढ़ाओ कि तुम्हें जरूरत बढ़ाने की वजह से नये-नये मार्ग खोजने पड़ें। उनको पूरा करने के लिए, नई दिशाएं खोजनी पड़ें तो समृद्धि की तरफ गति शुरू होती है।
तो पहले तो एक समृद्धि का दर्शन। वह दरिद्रता का दर्शन हटाने की जरूरत है। पहले तो मेंटली तैयारी करनी पड़े, तब मैटीरियली तैयारी होती है। दूसरी बात पहले तो मेंटली तैयारी बहुत जरूरी है। अभी तो माइंड से हम गरीब हैं और गरीब रहने को हम तत्पर हैं। बल्कि सच यह है कि जो अमीर हैं, जिनसे हम भीख मांग कर जी रहे हैं और हम अमेरिका को गाली दिए जा रहे हैं कि तुम भौतिकवादी से भीख मांगनी पड़ रही है। तो पहले तो हमारे मन में यह साफ हो जाना चाहिए कि समृद्धि लक्ष्य है। एक-एक व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में, आने वाली पीढ़ी और विद्यार्थियों के मन में समृद्धि का विचार गहराई से डालने की जरूरत है। ताकि हजारों सालों की दरिद्रता का पागलपन खतम हो जाए।
दूसरी बात, कोई भी मुल्क तभी समृद्ध हो सकता है, टेक्नालॉजी में विकसित हो। और हमारा मुल्क टेक्नालॉजी में विकसित नहीं रहा, बल्कि हम टेक्नालॉजी के दुश्मन रहे। और गांधी ने और मुसीबत खड़ी कर दी अभी पीछे। वे भी टेक्नालॉजी के दुश्मन थे। वह विनोबा भी टेक्नालॉजी के दुश्मन हैं। तो इस मुल्क में टेक्नालॉजी के खिलाफ एक हवा रही है वह यह, कि अगर पैदल चलने से काम चलता है तो कार में जाने की क्या जरूरत है? हवाई जहाज की जरूरत क्या है? बड़ी मशीन की जरूरत क्या है? चरखे से काम चला लो, तकली कात लो। अब अगर तकली और चरखे कातने को मिलें तो हम कभी समृद्ध नहीं हो सकते हैं। सारे देशों की समृद्धि मूलतः नब्बे प्रतिशत टेक्नालॉजी का फल है। तो संपत्ति पैदा होती है वह सौ में से नब्बे प्रतिशत टेक्नालॉजी का फल है। तो हिंदुस्तान के माइंड को टेक्नालॉजीकल बनाने की जरूरत है। यह बेवकूफी, खादी की, चरखे की, तकली की--आग लगा देने की जरूरत है। यह ग्रामोद्योग की बकवास बंद करने की जरूरत है। बड़े उद्योग, केंद्रित उद्योग। यह विकेंद्रीकरण की बात घातक है कि डिसेंट्रलाइज करो, क्योंकि जितना डिसेंट्रलाइज्ड होगी, इकोनॉमी, उतनी ही गरीब होगी।

इंडस्ट्रियल डवलपमेंट हम कैसे कर सकते हैं, क्योंकि इसके लिए फॉरेन एक्सचेंज, रा-मैटीरियल आदि की बड़ी समस्याएं हैं।

उसकी बात मैं आपसे कहता हूं। मेरे लिए बड़ा सवाल तो यह है कि--यह तो दूसरा सवाल है--बड़ा सवाल यह है कि हमारा माइंड टेक्नालॉजी के लिए राजी नहीं है। माइंड राजी हो तो रूस ने कहां से किया, किससे फाइनेंस किया है पिछले पचास सालों में? और उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति के बाद रूस की हालत हमसे बदतर थी, हमसे बेहतर नहीं थी। रूस को तो कोई सहायता नहीं थी दूसरे मुल्कों से, क्योंकि दूसरे मुल्क तो नष्ट करने को तैयार थे रूस को। लेकिन पचास साल में वह टेक्नालॉजिकली अमेरिका से भी किन्हीं मामले में आगे हो गया। कैसे?

रूस और अमेरिका की तुलना कैसे कर सकते हैं?

मेरी मान्यता यह है कि जो डेमोक्रेसी लोगों को काम करने के लिए कंपेल न कर सके, वह निकम्मी डेमोक्रेसी है। असल में हम शब्दों से इतने ज्यादा परेशान हैं, यह मामला कुछ ऐसा हो गया है कि डेमोक्रेसी अगर ठीक से समझी जाए तो वह भी एक समृद्ध समाज की जीवन व्यवस्था है। एक दरिद्र समाज डेमोक्रेसी होने की बात कर रहा है, यह वैसा ही है, जैसे एक दरिद्र आदमी घर में हवाई जहाज रखने की बात करता है। डेमोक्रेसी जो है, वह पूर्ण शिक्षित, समृद्ध, सुसंपन्न समाज की व्यवस्था है। जब तक समाज उतना सुसंपन्न, सुशिक्षित नहीं हो जाता, तब तक डेमोक्रेसी का मतलब सिर्फ इतना ही होगा कि यह सदय डिक्टेटरशिप है, बेनिवोलेंट डिक्टेटरशिप है। उसका यही मतलब होगा। बिलकुल ही यही डेमोक्रेसी नुकसान कर रही है। बीस साल में मुल्क को नुकसान पहुंचा है, भारी नुकसान पहुंचा है। आज तो जरूरत है कि तीस-चालीस साल तक मुल्क को एक मिलिटरी कैंप की शक्ल में खड़ा करके मेहनत करें। तब तो हम समृद्ध हो सकते हैं, अन्यथा हम समृद्ध नहीं हो सकते। इस तरह समृद्धि नहीं आने वाली है। बल्कि बीस साल का फल यह हुआ है कि अंग्रेज के समय में हमारी जितनी एफिशिएंसी है, वह बहुत नीचे गिर गई। काम करने की क्षमता भी नीचे गिर गई, काम करने का मन भी नीचे गिर गया। कोई काम करना नहीं चाहता। और एक खयाल पैदा हो गया।
रूस में क्रांति हुई तो वहां एक मजाक चला। जिस दिन उन्नीस सौ सत्रह में पहले दिन क्रांति हुई अक्टूबर में और मास्को क्रांतिकारियों के हाथ में चला गया तो एक मोटी औरत बीच रास्ते पर चलती हुई पाई गई। पुलिस के आदमी ने कहा, तुम यह कहां चली? बीच रास्ता चलने का है? उसने कहा, अब हम स्वतंत्र हो गए हैं। अब हमें यह कोई नहीं कह सकता कि बाएं चलो कि दाएं चलो। स्वतंत्रता का मतलब और लोकतंत्र का मतलब है कि रिस्पांसिबिलिटी और गहरी हो गई। एक बेनिवोलेंट डिक्टेटरशिप से ही लोकतंत्र आगे बढ़ेगा और डेमोक्रेसी बन सकती है। तो हिंदुस्तान में अभी पूर्ण लोकतंत्र की बात ही करनी फिजूल है।

तो आप कब कहने वाले हैं? डेमोक्रेसी है तो अच्छा है।

जब भी कहिए। मैं तो हमेशा तैयार हूं। बल्कि ऐसा मुश्किल हो गया है कि मुझे इतनी बातों के बारे में कहना है, लेकिन न मंच है, न मौका है। तो यह तो जो मंच बना लेते हैं उनको श्रेय है। मंच बना लेते हैं इसलिए वह बात मुझे कहनी पड़ रही है। मैं मित्रों से कह रहा हूं कि आने वाले दिनों में बंबई में चार दिन इस संबंध में चार लेक्चर रखें।
तो जरूरी है मुझे इतनी नुकसानदायक लग रही है डेमोक्रेसी की बातचीत, इतनी खतरनाक कि हमको नष्ट किए दे रही है। अभी मुल्क को कोई जरूरत नहीं है डेमोक्रेसी की।

यदि आप खुली मीटिंग में इस पर बोलेंगे तो इससे विवाद बढ़ेगा।

हां, वह तो कहूंगा, लेकिन मैं उसके लिए लड़ने को तैयार हूं। बात की जा सकती है तो मैं तो एक बेनिवोलेंट डिक्टेटरशिप चाहता हूं, एक सदय अधिनायकशाही मुल्क में होनी चाहिए। और टेक्नालॉजी की बात हमें फोर्स करनी पड़ेगी, क्योंकि मुल्क का इनरशिया पांच हजार साल पुराना है। बिना फोर्स किए कुछ कर नहीं सकते। अगर आप सोचते हैं कि बस हम कह देंगे कि बर्थ-कंट्रोल कर लो तो बर्थ-कंट्रोल हो जाएगा, यह हद बेवकूफी की बात है। इधर तो जब तक बंदूक सामने न होगी, तब तक बर्थ-कंट्रोल होने वाला नहीं है। तो वह जो चरखा चलाने वाला आदमी है, वह एकदम से आटोमैटिक मशीन पर पहुंच नहीं सकता। उसका माइंड कैसे पहुंच जाएगा? उस तक पहुंचाना पड़ेगा और फोर्स करना पड़ेगा। एक पंद्रह-बीस साल के लिए सारे मुल्क को एक सैन्य शिविर की तरह व्यवहार करना पड़ेगा तो हम उस हालत में पहुंचेंगे कि डेमोक्रेसी फिर हम ला सकें तो तकनीक पर मेरा जोर है दूसरा। और तकनीक को बढ़ाने के लिए हमें मुल्क पर दबाव डालना पड़ेगा, ऐसे काम चलने वाला नहीं है।

क्या आप इनके लिए युवक संगठन बना रहे हैं?

हां, मैं युवक संगठन बना रहा हूं इस बात के लिए, और प्रयत्न करूंगा। तीसरी बात सारे जगत में जो संपत्ति आई है, वह संपत्ति जैसा लोग सोचते हैं कि कहीं रखी नहीं है। संपत्ति कहीं रखी हुई नहीं है, वह तो क्रिएशन है। कैपिटल हैज टु बि क्रिएटेड। कहीं है नहीं कि हम गए और हमने उसे उठा कर कब्जा कर लिया। वह तो क्रिएशन है। उसके क्रिएशन के लिए मुल्क की जिंदगी की सारी जीवनचर्या बदलनी पड़ेगी। यह जीवनचर्या उसको क्रिएट करने वाली नहीं है। यह जो हमारा ढंग है अभी उठने, बैठने, चलने, सोने का, उससे वह पैदा होने वाली नहीं है हमें पूरी की पूरी जीवनचर्या मुल्क की बदलने के लिए। तो खास कर हॉस्टल्स और विद्यार्थियों में मैं काम करना चाहता हूं। इसलिए कि लोगों को इस योग्य बना सकूं, कि यह समझा सकूं कि कितनी देर में हम कितना पैदा कर सकते हैं और कैसे कर सकते हैं और कितने सहयोग से कर सकते हैं। कितने लोगों की जरूरत पड़ेगी, कितनी मशीन की जरूरत पड़ेगी और हम कितने कम समय में कितना ज्यादा पैदा कर सकते हैं। एक ही ध्यान रखना है--कम शक्ति में, कम समय में, कम श्रम से अधिकतम कैसे पैदा किया जा सकता है।

तो फिर आप कम्युनिज्म का समर्थन करते हैं?

एक तरह का कम्युनिज्म तो मुल्क में लाना ही पड़ेगा।

यानी कम्यून?

हां, कम्यून। बिलकुल ही ठीक है। कम्युनिज्म की जरूरत पड़ेगी। मैं इसके बाबत विचार करता हूं। जरा एक हवा पैदा हो तो मैं कुछ ग्रुप पूरे मुल्क में छोटे-छोटे कम्यून बनाऊं जिनकी सोशल लिविंग हो। एक छोटा सा गांव हो, जिसमें पूरा का पूरा सोशल लिविंग हो। बच्चे भी सामूहिक रूट से पाले जाएं, सामूहिक रूप से शिक्षित हों, सारे लोग सामूहिक रूप से फार्मों में काम करें और टेक्नालॉजी पर ज्यादा से ज्यादा जोर दें और आदमी के श्रम को कम से कम उपयोग में लाएं। जितना आदमी का श्रम बचता है, उतना श्रम इंटलेक्ट में ट्रांसफार्म होता है। मेरी अपनी समझ यह है इस मुल्क में इंटलेक्ट विकसित नहीं हो सकी, क्योंकि हम आदमी को श्रम से मुक्त नहीं कर सके। श्रम से मुक्त होने पर ही उसकी शक्ति इंटेलिजेंस में विकसित होनी शुरू होती है। इंटेलिजेंस उन समाजों में विकसित होती है, जहां लक्जूरी पैदा होती है।

रूस मैं दबाव है।

इंडिविजुअल है कहां? आपको यह सिर्फ खयाल है। है कहां? कहीं हो, तो आए। इंडिविजुअल है कहां? लेकिन इंडिविजुअल है नहीं। अभी भी नहीं है। आपको भ्रम है कि आपके कम्पल्शन के कारण नहीं आ रहा है। आपकी पत्नी आपको खींच रही है आपके पिता आपको खींच रहे हैं, स्टेट खींच रही है, समाज खींच रहा है, बॉस खींच रहा है। आप सिर्फ भ्रम में जी रहे हैं कि आप कम्पैल्ड नहीं हैं। आप एक-एक इंच कम्पैल्ड हैं। सच तो यह है कि जितना सामूहिक यूनिट होगा और जितना मशीन-सेंटर उत्पादन हो जाएगा, उतना ही व्यक्ति को मुक्त किया जा सकता है। इस पर तो लंबी बात करनी पड़ेगी और इनकी बात रुक जाएगी, जो कर रहा था।

आप किससे प्रभावित हैं--स्वामी विवेकानंद, भगवान बुद्ध, महावीर रामकृष्ण परमहंस? इनमें किससे प्रभावित हैं?

किसी व्यक्ति से मैं प्रभावित नहीं हूं, लेकिन कुछ-कुछ सबसे प्रभावित हूं, जो मुझे प्रीतिकर रही। कुछ चीज माक्र्स में भी उतनी प्रीतिकर है, जितनी बुद्ध में। कुछ मुझे नीत्शे में भी प्रीतिकर है और गांधी में भी। तो मेरे सामने कोई एक व्यक्ति मुझे प्रीतिकर नहीं है। सारे जगत की तो देन है, उसमें तो भी मुझे श्रेष्ठतर लगता है, चाहे वह किसी से आता हो, मुझे अंगीकार है सदा। तो मेरे साथ बड़ी कठिनाई हो गई है। कभी मैं माक्र्स की प्रशंसा में बोलता हूं, कभी नीत्शे की प्रशंसा में भी बोलता हूं, कभी मैं गांधी के खिलाफ भी बोलता हूं, कभी बुद्ध की प्रशंसा भी करता हूं और कभी बुद्ध के खिलाफ भी बोलता हूं। कभी रामकृष्ण की प्रशंसा करता हूं, कभी खिलाफ। तो लोगों को बहुत मुश्किल हो गई। मैं किसी व्यक्ति के पक्ष में नहीं हूं। मुझे जो ठीक दिखाई पड़ता है, वह जिस व्यक्ति में भी दिखाई पड़ता है, मैं उतनी देर उसका प्रशंसक भी हूं।

क्या आप किसी के व्यक्तित्व से प्रभावित भी हूं।

नहीं, जरा भी नहीं। मुझे तो सारा हेरिटेज--पूरी मनुष्यता की ही फिक्र है। उस पूरे हेरिटेज से डिराइव करना है जो कुछ करना है। उसके लिए मन मैं जरा भी भाव नहीं जाता कि महात्मा हैं या क्राइस्ट हैं। सारी दुनिया में जो भी मनुष्य ने आज तक सोचा है, उसकी जो भी क्रीम है, वह सब मुझे अंगीकार है। वह जो सब श्रेष्ठतर है, सब स्वीकार है। वह चाहे एक ऐसे आदमी ने कहा हो, जो वेश्यागामी हो, शराब पीता हो, इसकी मुझे फिक्र नहीं। वह अगर सत्य है तो मुझे अंगीकार है। और चाहे वह एक ऐसे आदमी ने कहा हो, जैसे वह शराब नहीं पीता है, और ब्रह्मचारी है और दिन-रात भजन-कीर्तन करता है, लेकिन बेवकूफी की बात कहे तो वह बेवकूफी की बात है। उसमें मैं फर्क नहीं करता। तो सारी मनुष्यता का आज तक का जो अनुभव है, उन सारे अनुभव से मुझे प्रेम है। और उसमें जो भी श्रेष्ठतर है उसे मैं हमेशा से स्वीकार करता हूं, लेकिन मेरे मन में किसी व्यक्ति का कोई स्थान नहीं है।

देश के सामने बहुत बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं, जैसे इम्पोर्ट नहीं है, रा-मैटीरियल नहीं है, आदि आदि। तो यदि चरखा दे दिया एक-एक आदमी को, तो उससे वे चार आना रोज तो कमा ही लेंगे?

असल बात यह है कि जो मैंने तीन बातें कहीं, जब तक वे नहीं हो जातीं, और आपको फॉरेन कैपिटल भी मिल जाए तो भी आप इंडस्ट्रियलाइज्ड नहीं कर पाएंगे। माइंड का मेकप हमारा इंडस्ट्रियल नहीं है। वह क्रांति नहीं हो सकती, जो औद्योगिक क्रांति पश्चिम में हुई। उस क्रांति के पीछे जो रिनासां का युग बीता, उसने सारे माइंड बदल दिए लोगों के। वैसा कोई रिनासां भारत में कभी नहीं हुआ नहीं। और बड़ी इंडस्ट्रियां आप खड़ी कर दें, वह उनसे चलने वाली नहीं है। कैपिटल का सवाल  नहीं है, मेरे लिए सारा सवाल माइंड का है। एक बार माइंड तैयार हो तो। जिन मुल्कों में, यूरोप में इंडस्ट्री बनीं, वे कहां से फॉरेन कैपिटल लाए थे? आज से डेढ़ सौ साल पहले, वहां कहां की इंडस्ट्री थी? हम समझ लें कि हम उसी हालत में हैं। मैं यह पूछता हूं कि यूरोप में डेढ़ सौ साल पहले कहां से कैपिटल आई, कहां से इंडस्ट्री आई, कहां से टेक्निशियन आए? कहीं से भी नहीं आए।

आज की तरह उनके सामने जनसंख्या का सवाल नहीं था?

यह सवाल नहीं है। यदि पापुलेशन प्रॉब्लम उनके सामने बड़ी होती तो इंडस्ट्री और बड़ी आती। माइंड का सवाल है। आपके सामने पापुलेशन का प्रॉब्लम आज है, पचास साल पहले तो नहीं था, आपने तब इंडस्ट्री क्यों पैदा कर ली?

तब हम गुलाम थे।

वह गुलाम भी आप क्यों थे। गुलाम भी आप इसलिए हुए कि टेक्निकली आप विकसित नहीं हुए। बल्कि टेक्निकली जब भी ज्यादा विकसित कौम आपके मुकाबले आई, आपको हार जाना पड़ा। आप हैरान होंगे पिछले हजार सालों का इतिहास देख कर, कि जब भी आप हारे, जिससे आप हारे, वह कौम ज्यादा आपसे ताकतवर नहीं थी, सिर्फ टेक्निकली ज्यादा ताकतवर थी। पहली दफा मुसलमान हिंदुस्तान में आए तो हिंदुस्तान का राजा हाथी पर लड़ने गया। वह टेक्निकली गलत था। घोड़े पर लड़ने वाले से हार जाने वाला था। घोड़े पर लड़ने वाला टेक्निकली होशियार था, क्योंकि घोड़ा ज्यादा तेज जानवर है, जल्दी से बचता, भागता है। हाथी बिलकुल बेहूदा जानवर है। उस पर आप सवारी निकालिए किसी महाराजा की तो ठीक है, लेकिन वह युद्ध के मैदान का जानवर थोड़े ही है! तो आप हाथी से लड़ने गए। टेक्निकली गलत थी यह बात। घोड़े पर लड़ने वाला जीत गया। जो कौमें आपसे लड़ने आई थीं, वह आपसे कमजोर कौमें थीं, ज्यादा ताकतवर कौमें नहीं थीं। उनकी संख्या ज्यादा नहीं थी, न कुछ था, न उनके पास रोटी थी खाने को, न कुछ और था, सिर्फ टेक्निकली वह आपसे ज्यादा इम्प्रूव्ड साधन लेकर आई थीं। वे आ गए थे घोड़ा लेकर।
इसके बाद भी आप हारे। आप बंदूक से लड़ते, तो दूसरे तोप लेकर आ गए। अंग्रेज से हारने का कोई बड़ा कारण नहीं था, बस आपके पास बंदूकें थीं और अंग्रेज के पास तोपें थी। टेक्निकली वे आपसे ज्यादा होशियार थे। अंग्रेज की ताकत कितनी थी हिंदुस्तान में जीत जाने की? हिंदुस्तान में इतने दूर देश से आकर एक कौम खड़ी हो जाए थोड़े से लोगों को लेकर और जीत जाए!
और हमारे नेता बेवकूफी की बातें समझाते हैं कि चूंकि हममें भेदभाव था इसलिए हम हारे। जब भी दुश्मन आया आपके सामने, वह टेक्निकली आपसे ज्यादा साधन लेकर आया था। आप ठप हो गए थे। अभी आज भी आप पर चीन आ जाएगा तो आप हारने वाले नहीं हैं, यह कौन कहेगा? क्योंकि टेक्निकली आप चीन से पीछे हैं हमेशा। आप जीत नहीं सकते चीन से। और आप यह पक्का मानिए कि दस साल में पाकिस्तान से भी टेक्निकली आप पीछे हो जाने वाले हैं, क्योंकि आपका पूरा माइंड नॉन-टेक्निकल है। बड़ा मजा यह है कि, अभी आप बड़े खुश हो लिए, थोड़ी सी जीत हो गई। दस साल के भीतर आप पाकिस्तान से भी जीतने में समर्थ नहीं रह जाएंगे। क्योंकि वह टेक्निकली आगे जा रहा है। वह अणु-भट्टियां खड़ी कर रहा है, वह सब कर रहा है और यहां हम इसका विचार करते हैं कि हमें अणु-भट्टियां बनाना है कि नहीं बनाना! यही बेवकूफी हजार बार कर चुके हैं। वह बंदूक वाला सोचता रहा था तोप बनाने के लिए। और अंग्रेज तोप बना कर आ गए छाती पर। उसने नहीं पूछा कि बनाने के लिए कि बनाओ, कि नहीं बनाओ, कि महावीर स्वामी क्या कहते हैं, बुद्ध भगवान क्या कहते हैं, महात्मा गांधी क्या कहते हैं? अणु बनाना है कि नहीं बनाना है? अहिंसा की फिलासफी क्या कहती है? दस साल में पाकिस्तान अणु बना लेगा।

अब तो भारत में एटम बनाने की पूरी संभावना है।

बिलकुल ही, पाजिटिवली। टेक्नालॉजी है, बेटर टेक्नालॉजी है। एटम बम का सवाल नहीं है, टेक्नालॉजी हमें श्रेष्ठ होना चाहिए। हर दिशा में टेक्नालॉजिकली श्रेष्ठ होना चाहिए। अणु बम टेक्नालॉजी का श्रेष्ठतम हिस्सा है। हमें बनाना चाहिए। जरूरी नहीं है कि हम लड़ने जाएं, लेकिन आणविक, एटामिक एनर्जी की टेक्नालॉजी में जाना ही चाहिए, खड़ी कर लेनी चाहिए, क्योंकि बच्चों के लिए सवाल कल खड़ा हो सकता है। आई एम फार टेक्नालॉजी। इसमें अणु बम का सवाल नहीं है।
अब दुनिया में एलोपैथी विकसित हो रही है और यहां के बेवकूफ आयुर्वेदिक की बातें करते चले जाते हैं और उनको गवर्नमेंट सहायता दे रही है! टेक्नालॉजिकली की जगह बेवकूफी की बातें करते हैं। दो हजार साल में मेडिकल साइंस कहां से कहां पहुंच गई और वह इधर जड़ी-बूटियां की बातें कर रहे हैं और गवर्नमेंट दान दे रही है! और औषधालय बनवाएगी! और यह करो, और आयुर्वेद हमारा है! हमारा तुम्हारा सवाल नहीं है, टेक्नालॉजिकली कौन आगे है? तो हर चीज में यह देखन है कि कौन आगे हैं? और जब हम सारे जीवन में टेक्लालॉजी का ध्यान देकर चलेंगे, तो मैं आपसे कहता हूं कि पचास साल में हिंदुस्तान बिना किसी से सहायता लिए खड़ा हो सकता है।

आप पब्लिक को विश्वास कैसे दिलाएंगे, कनविंस कैसे करेंगे?

बिलकुल ही प्रेक्टिकली होने की कोशिश है। बिना एप्रोच किए पब्लिक का माइंड बदला नहीं जा सकता, क्योंकि वे उस माइंड को पकड़े हुए हैं।

पब्लिक का माइंड बदलने के लिए आपको पब्लिक के पास आना पड़ेगा?

हां, वह तो मैं कोशिश करूंगा। उसमें आप सहयोगी बनिए। लेकिन सवाल यह है कि अगर हिंदुस्तान का माइंड गांधी की पूजा करता चला जाता है तो मैं मानता हूं कि टेक्नालॉजिकली हिंदुस्तान विकसित नहीं होगा। ये दोनों बातें जुड़ी हुई हैं, क्योंकि गांधी बिलकुल ही टेक्नालॉजी के दुश्मन हैं। तो अब अगर मैं टेक्नालॉजी के लिए लोगों को विकसित करना चाहता हूं तो गांधी मेरे आड़े आते हैं, और कोई आड़े नहीं आता। तो गांधी से मुझे लड़ना पड़ेगा। गांधी अच्छे आदमी हैं, इसमें कोई शक-शुबहा नहीं है, लेकिन अच्छे आदमियों का क्या करेंगे? सवाल तो यह है कि वह जो फिलासफी खड़ी कर रहे हैं, वह मुल्क के लिए घातक है। तो मुझे तो बात करनी पड़ेगी, क्योंकि जब मैं टेक्नालॉजी की बात करूं, तो जो भी सीधा सवाल उठता है कि गांधी के बाबत आपका क्या खयाल है? या तो टेक्नालॉजी की बात करूं या ग्रामोद्योग की बात करूं। मैं मानता हूं कि ग्रामोद्योग की बात करने वाला मुल्क का हत्यारा है। मुल्क को डुबा देगा, मार डालेगा। ग्रामोद्योग की बात करूं। मैं मानता हूं कि ग्रामोद्योग की बात करने वाला मुल्क का हत्यारा है। मुल्क को डुबा देगा, मार डालेगा। ग्रामोद्योग तो चल रहा है पांच हजार साल से और हम मरते जा रहे हैं।

आप बोले कि गांधी जी मुल्क के हत्यारे थे। संभव है कि आपकी भी कोई हत्या कर दे।

कोई हर्जा नहीं। एक दफा मेरी भी हत्या हो जाए तो गांधी से मेरी टक्कर सीधी-सीधी हो जाए।

तो फिर काम रुक जाएगा?

काम नहीं रुकेगा। एक दफा मेरी हत्या हो जाए तो फिर गांधी से मेरा मुकाबला सीधा ही सीधा हो जाए। फिर टेक्नालॉजी के पक्ष में भी कोई आदमी मरता है तो मुल्क में विचार शुरू हो जाएगा। उसमें कोई हर्जा नहीं है। मेरे मरने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन मेरे मरने से पचास लोगों के मन में खयाल आ सकता है और बात चल सकती है। पच्चीस दूसरे लोग खड़े हो जाएंगे। टेक्नालॉजी के लिए कोई मरे भी तो! टेक्नालॉजी के लिए कोई मरा नहीं इस मुल्क में आज तक। तो कोई हर्जा नहीं है, मर जाए। मेरे मरने से क्या फर्क पड़ता है?

मरने से तो काम रुक नहीं जाएगा?

कुछ काम नहीं रुकता किसी के मरने से। क्राइस्ट मर गए तो कोई काम रुकता है क्रिश्चियनिटी का? माक्र्स मर गए तो कोई कम्युनिज्म रुकता है? आदमी मर जाते हैं और जिन विचारों के लिए मरते हैं, वे विचार बलशाली हो जाते हैं। उनके मरने से वे खाद बन जाते हैं। तो उसमें कोई हर्जा नहीं है, जरा भी हर्जा की बात नहीं है। एक दफा मार ही डालें तो उसमें बड़ा हित हो जाए, उसमें कोई नुकसान नहीं।

बहुत कुछ पूछना है। आप देख ही रहे हैं कि जहां ऐसी मीटिंग होती है, वहां सामान्यतया बहुत कम लोग होते हैं। उनके सामने पैसे की और अन्य कई समस्याएं हैं...।

बहुत कुछ किया जा सकता है। असल में मेरी जो बेसिक थीसिस है सारी बातों में। हिंदुस्तान में अच्छे आदमियों को राजनीति में नहीं आना चाहिए ऐसी धारणा है सदा से। धारणा है इसलिए नहीं आते। क्योंकि यह समझाया गया है कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं आना चाहिए, वह बदमाशों की चीज है। इस समझाने का परिणाम यह हुआ बदमाश ही बदमाश इकट्ठे हो गए हैं, अच्छा आदमी वहां जाता नहीं। और अगर आदमी जाए तो आप उसको कहेंगे कि तुम भी हो गए गड़बड़। तो इसकी जरूरत है मुल्क में कि हम अच्छे आदमी को कहें कि तुम जाओ राजनीति में। तुम वहां प्रविष्ट करो तो वे हम उन बदमाशों से बचा सकेंगे।

साधन नहीं है, संपत्ति नहीं है, इसलिए कैसे जाएंगे?

ऐसा जरूरी नहीं है कि अच्छे आदमी के पास धन नहीं है, संपत्ति नहीं है। अच्छे आदमी के पास भी साधन, शक्ति-संपन्नता है, लेकिन अच्छे आदमी के पास साहस नहीं है। वह सिर्फ इसलिए कि मेंटल मेकप हमारा जो है, मेकप हमारा यह है कि...अभी मैं हूं, अगर मैं कहता हूं कि मैं राजनीति में जाता हूं तो वह जो मेरी पूजा करता हूं, वह कहेगा कि गड़बड़ हो गए हैं, अब तो राजनीति में चले गए हैं।
गांधी, हिंदुस्तान की हुकूमत हाथ में आई तो भी गांधी साहस नहीं जुटा पाए कि वे एग्जिक्यूटिव बॉडी में खड़े हो जाएं, कि वे प्रधानमंत्री बन जाएं। क्योंकि अगर वह प्रधानमंत्री बनते तो सदा कि लिए "महात्मा' खतम हो गए होते इस मुल्क में। वे महात्मा फिर कभी नहीं कहे जा सकते। अब महात्मा को बचाना है कि प्रधानमंत्री बनना है?
एक अच्छे आदमी थे गांधी मेरी दृष्टि में। आदमी के लिहाज से एकदम अच्छे आदमी थे। उनकी अच्छाई में कोई इंच भर कमी नहीं है। उनकी समझ में कितनी भी गलती हो, उनकी बुद्धि चाहे कितनी ही साधारण हो, लेकिन आदमी बहुत अदभुत हैं और अच्छे आदमी हैं। लेकिन वह गड़बड़ हो गई बात। अगर गांधी वहां हुकूमत में बैठते तो दो परिणाम होते। एक तो गांधी की अच्छाई का परिणाम होता और अच्छे लोग पूरी मुल्क से आकर्षित होते और राजनीति की तरह जाते। क्योंकि जब गांधी जा सकते तो भय टूट जाता, खतम हो जाती बात। दूसरा यह होता कि गांधी के एक मौका मिलता कि वे जो बातें कर रहे थे उनको प्रयोग करके दिखलाते। या तो वे प्रयोग कर लेते तो मुल्क बदल जाता और या तो असफल हो जाते तो हमारी गांधी से झंझट छूट जाती। दो में से कुछ भी फल हो जाता। तो होशियारी हो गई। गांधी वहां से बच गए जाने से। उन्होंने अपना महात्मापन बचा लिया और राजनीति में वे नहीं गए।

क्या नेहरू को उन्होंने राजनीति में नहीं भेजा?

जरा भी नहीं। नेहरू और गांधी में जमीन आसमान का फर्क है। नेहरू पोलिटिशियन हैं, गांधी पोलिटिशियन नहीं हैं, राजनीतिज्ञ बिलकुल नहीं है। ये सीधे-सच्चे आदमी हैं। उनकी सच्चाई ज्यादा मूल्यवान है बजाय राजनीति के। नेहरू तो पोलिटिशियन हैं। तो नेहरू ने पॉलिटिक्स के जो खेल थे, वे वहां सब शुरू किए। सारे खेल शुरू हुए वहां। जितने नेहरू के नीचे अच्छे आदमी थे, जिनसे नेहरू को खतरा हो सकता था, उनको धीरे-धीरे कांग्रेस के बाहर फेंकने के सब उपाय कर दिए--जैसे जयप्रकाश हैं, कृपलानी हैं, चाहे कोई हो। जिन लोगों से नेहरू को काम्पिटिशन डर था, उनकी जड़ें काट दी गईं।
पोलिटिशियन हमेशा अपने से छोटे आदमी को पास रखना पसंद करता है, अपने बराबर के आदमी से कभी बात नहीं करता, क्योंकि उससे तो खतरा है। चाहे राजगोपालाचारी हों, चाहे जयप्रकाश हों, चाहे कोई भी हो। धीरे-धीरे एक-एक आदमी की जड़ काट कर सारे अच्छे आदमियों को, कीमती आदमियों को अलग कर दिया। और दो कौड़ी के आदमी धीरे-धीरे उनकी जगह बैठा दिए जो कि हमेशा ही हजूरी करें। मुल्क के बदमाशों को इकट्ठे करने का काम नेहरू कर ऊपर है, इस जिम्मे से उनको बचाया नहीं जा सकता है। क्योंकि सारे अच्छे आदमियों की जड़ें काट डालीं और साधारण आदमियों को नीचे ले आए, क्योंकि वे हमेशा जी हजूरी करेंगे। राजनीतिज्ञ का माइंड यह है कि हमेशा अपने से छोटे आदमियों की भीड़ को चारों तरफ घेर कर रखो। अपने मुकाबले का आदमी कभी साथ न आ जाए।
तो नेहरू और गांधी में जमीन आसमान के फर्क हैं। अगर गांधी ने हिम्मत जुटाई होती तो यह कभी नहीं हो सकता था कि जयप्रकाश, कृपलानी और राजगोपालाचारी कांग्रेस के बाहर जाते। यह असंभव था, यह बिलकुल असंभव था। हिंदुस्तान के सारे अच्छे आदमी गांधी के साथ खड़े होते, हिंदुस्तान की हुकूमत दूसरी शक्ल की हुकूमत होती। उसमें नेहरू भी होते, जयप्रकाश भी होते। उसमें लोहिया भी होता, उसमें राजगोपालाचारी भी होते, उसमें मुल्क के सारे अच्छे लोग होते। एक शक्ल बदल जाती हिंदुस्तान की। लेकिन गांधी महात्मापन को बचा गए, हिंदुस्तान को डुबा गए। उनके सामने यह दिक्कत सीधी है कि करना क्या है? क्योंकि सारा मुल्क कहता कि अरे, बस डांवाडोल हो गए! और जैसे ही गांधी ने हाथ में सत्ता नहीं ली कि सारे मुल्क ने कहा, यह है सच्चा महात्मा। और पता नहीं सच्चा महात्मा कितना महंगा पड़ गया हमारे लिए।
गांधी और नेहरू में जो मैं फर्क कर रहा हूं, वह फर्क यही कर रहा हूं कि गांधी के व्यक्तित्व के साथ बहुत से लोग खड़े हो सकते थे। नेहरू के व्यक्तित्व के साथ बहुत से बड़े लोग खड़े नहीं हो सकते थे। यह मैं नहीं कहता हूं कि गांधी के साथ सभी खड़े हो सकते थे। एम.एन राय खड़े नहीं हो सकते थे, सुभाष खड़े नहीं हो सकते थे, लेकिन ये बहुत इक्के-दुक्के थे। और गांधी इतने कुशल और समझदार आदमी थे कि सुभाष को भी खड़ा कर सकते थे, यह कठिन नहीं था।
गांधी अगर सत्ता में गए होते तो हिंदुस्तान की सत्ता की पूरी शक्ल बदल गई होती। नीचे से ऊपर तक का पूरा मेकप, ढांचा बदल गया होता। वह पोलिटिशियन का ढांचा नहीं रह गया होता, वह अच्छे का ढांचा रह गया होता। और सारे मुल्क से जिन लोगों को जाने का मौका मिलता, वे दूसरे तरह के लोग होते, टाइप बदल गया होता। लेकिन वह गांधी हिम्मत नहीं जुटा पाए और हमने नहीं जुटाने दी हिम्मत। सारे मुल्क को कंपेल करना था गांधी को कि हम आपको भेजेंगे, आपको जाना चाहिए। लेकिन सारा मुल्क खुश हुआ कि महात्मा हमारा कितना सच्चा है कि आगे राजगद्दी हाथ में है और लात मार दी। क्योंकि हजारों साल से हम यही मानते हैं कि राजगद्दी को जो लात मार दे, वह बड़ा ऊंचा आदमी है--चाहे उसका फल कुछ भी हो। तो मैं कहता हूं, मेरे लिए सारा चिंतन जो है बेसिक, वह यह है कि पूरे माइंड का फ्रेम हमारा बदले। अच्छा आदमी राजनीति में पहुंचाया जाना चाहिए।
तो मेरी दृष्टि है कि गांव-गांव में नागरिक समितियां होनी चाहिए, मुहल्ले-मुहल्ले। काम बढ़े तो मैं चाहता हूं कि एक-एक गांव में नागरिक समिति हो और नागरिक समिति यह तय करेगी कि जो आदमी अपने तरफ से खड़ा हो जाएगा और कहेगा कि मैं अच्छा उम्मीदवार हूं, उसको हम वोट नहीं देंगे, उसको हम डिसक्वालिफिकेशन समझेंगे कि यह आदमी खुद अपने को कहता है कि मैं अच्छा उम्मीदवार हूं, मुझको भेजो। नागरिक समिति अच्छे लोगों से प्रार्थना करे कि आप खड़े हो जाएं। और आप खड़े होते हैं तो नागरिक समिति आपका समर्थन करेगी। न हम दल की फिक्र करना चाहते हैं, कि तुम किस दल के हो। तुम अच्छे आदमी हो, तुम चिंतनशील हो, तुम विचारशील हो, हम तुम्हें भेजना चाहते हैं।
अगर पंद्रह-बीस वर्ष मुल्क के कोने-कोने में नागरिक समितियां हों, भले आदमी को एप्रोच करें कि इस आदमी को हम खड़ा करना चाहते हैं और इसको नागरिक समिति पूरा समर्थन देगी और कोई दल का हम विचार नहीं करते। किसी दल का हो--कम्युनिस्ट हो, कांग्रेसी हो, सोशलिस्ट हो। आदमी अच्छा है, इसको वोट दिया जाए। तो अच्छे आदमी को बीस साल तक हमें मुल्क से भेजने की चेष्टा करनी चाहिए और यह फिक्र करनी चाहिए कि अच्छा आदमी धीरे-धीरे बुरे आदमी को रिप्लेस कर दे।
अभी यह हो रहा है कि अच्छे आदमियों के बुरा आदमी रिप्लेस कर रहा है।  और बुरा आदमी एक दफा जब अच्छे आदमी को हटाता है, तो उसका परिणाम यह होता है कि पांच साल बाद उससे भी बुरा आदमी उसको हटा सकेगा, उससे और बुरा आदमी आ सकेगा। तो हर पांच साल में हिंदुस्तान और गुंडों के हाथ में चला जाएगा, क्योंकि जो वहां बैठा है, उसको उससे बड़ा गुंडा ही हटा सकता है, उससे अच्छा गुंडा नहीं हटा सकता है। तो हर पांच साल में हिंदुस्तान गुंडों के हाथ में उतरता चला जाएगा। आने वाले तीस साल में हिंदुस्तान पूरा गुंडाइज्म का मुल्क होगा, जहां अच्छे आदमी को तो जाने का सवाल ही नहीं है, जीना मुश्किल हो जाएगा।
तो हमें सचेत होना पड़ेगा और कुछ करना पड़ेगा उसके सामने, कि हम नागरिक समितियां खड़ी करेंगे, अच्छे आदमी को प्रोत्साहन दें, अच्छे आदमी को हिम्मत दें, बल दें। और इस बात की हवा पैदा करें कि यह अच्छे आदमी का कर्तव्य है कि राजनीति में जाए। यह डयूटी का हिस्सा है। आदमी कोई कीमती नहीं है, लेकिन आदमी अगर पचास साल भी हिम्मत से सत्य के लिए कुछ करे तो अपनी जिंदगी में ही परिणाम देख सकता है, इसमें कठिनाई नहीं है।


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