अध्याय १-२
पंद्रहवां प्रवचन
मोह-मुक्ति, आत्मत्तृप्ति और
प्रज्ञा की थिरता
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।
५२।।
और हे अर्जुन, जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को बिलकुल तर जाएगी, तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा।
मोहरूपी कालिमा से जब बुद्धि जागेगी, तब वैराग्य फलित होता है। मोहरूपी कालिमा से! मनुष्य के आस-पास कौन-सा
अंधकार है?
एक तो वह अंधकार है, जो दीयों के जलाने से मिट जाता
है। धर्म से उस अंधकार का कोई भी संबंध नहीं है। वह हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता
है, नहीं हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। फिर धर्म किस
अंधकार को मिटाने के लिए चेष्टारत है?
एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य के शरीर को नहीं घेरता,
वरन मनुष्य की चेतना को घेर लेता है। एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य की आत्मा के चारों तरफ घिर जाता है। उस अंधकार को कृष्ण कह रहे
हैं, मोहरूपी कालिमा। तो अंधकार और मोह इन दो शब्दों को थोड़ा
गहरे में समझना उपयोगी है।
अंधकार का लक्षण क्या है? अंधकार का लक्षण है
कि दिखाई नहीं पड़ता जहां, जहां देखना खो जाता है, जहां देखना संभव नहीं हो पाता, जहां आंखों पर परदा
पड़ जाता है--एक। दूसरा, जहां दिखाई न पड़ने से कोई मार्ग नहीं
मालूम पड़ता, कहां जाएं! क्या करें! तीसरा, जहां दिखाई न पड़ने से प्रतिपल किसी भी चीज से टकरा जाने की संभावना हो
जाती है। अंधकार हमारी दृष्टि का खो जाना है।
मोह में भी ऐसा ही घटित होता है। इसलिए मोह को अंधकार कहने की
सार्थकता है। मोह में जो हम करते हैं, मोह में जो हम होते
हैं, मोह में जैसे हम चलते हैं, मोह
में जो भी हमसे निकलता है, वह ठीक ऐसा ही है, जैसे अंधेरे में कोई टटोलता हो। नहीं कुछ पता होता, क्या
कर रहे हैं! नहीं कुछ पता होता, क्या हो रहा है! नहीं कुछ
पता होता, कौन-सा रास्ता है! कौन-सा मार्ग है! आंखें नहीं
होती हैं। मोह अंधा है। और मोह का अंधापन आध्यात्मिक अंधापन है, स्प्रिचुअल ब्लाइंडनेस है।
सुना है मैंने, एक आदमी के मकान में आग लग गई है। भीड़ इकट्ठी है। वह
आदमी छाती पीटकर रो रहा है, चिल्ला रहा है। स्वभावतः,
उसके जीवनभर की सारी संपदा नष्ट हुई जा रही है। जिसे उसने जीवन समझा
है, वही नष्ट हुआ जा रहा है। जिसके आधार पर वह खड़ा था,
वह आधार गिरा जा रहा है। जिसके आधार पर उसके मैं में शक्ति थी,
बल था; जिसके आधार पर वह कुछ था, समबडी था, वह सब बिखरा जा रहा है।
जान सोलिज ने एक किताब लिखी है, अरेस्ट्रोस। उसमें
कुछ कीमती वचन लिखे हैं। उसमें एक कीमती वचन है, नोबडी
वांट्स टु बी नोबडी। नोबडी वांट्स टु बी नोबडी। ठीक-ठीक अनुवाद मुश्किल है। कोई भी
नहीं चाहता कि ना-कुछ हो। सभी चाहते हैं, समबडी हों, कुछ हों।
उसकी समबडीनेस बिखरी जा रही है, उस आदमी की। वह कुछ
था इस मकान के होने से। और जिनका भी कुछ होना किसी और चीज के होने पर निर्भर है,
किसी दिन ऐसा ही रुदन, ऐसी ही पीड़ा उन्हें घेर
लेती है। क्योंकि वे सब जो बाहर की संपदा पर टिके हैं, किसी
दिन बिखरते हैं, क्योंकि बाहर कुछ भी टिकने वाला नहीं है। वह
उसी के मकान में आग लग गई हो, ऐसा नहीं, सभी के बाहर के मकानों में आग लग जाती है। असल में बाहर जो भी है, वह आग पर चढ़ा हुआ ही है।
तो छाती पीटता है, रोता है। स्वाभाविक है। फिर पड़ोस
में से कोई दौड़ा हुआ आता है और कहता है, व्यर्थ रो रहे हो
तुम। तुम्हारे लड़के ने मकान तो कल बेच दिया। उसका बयाना भी हो गया है। क्या
तुम्हें पता नहीं? बस, आंसू तिरोहित हो
गए। उस आदमी का छाती पीटना बंद हो गया। जहां रोना था, वहां
वह हंसने लगा, मुस्कुराने लगा। सब एकदम बदल गया।
अभी भी आग लगी है, मकान जल रहा है; वैसा ही जैसा क्षणभर पहले जलता था। फर्क कहां पड़ गया? मकान अब मेरा नहीं रहा, अपना नहीं रहा। मोह का जो
जोड़ था मकान से, वह टूट गया है। अब भी मकान में आग है,
लेकिन अब आंख में आंसू नहीं हैं। आंख में जो आंसू थे, वे मकान के जलने की वजह से थे? वह मकान अब भी जल रहा
है। आंख में जो आंसू थे, वे मेरे के जलने की वजह से थे। मेरा
अब नहीं जल रहा है, आंखें साफ हो गई हैं। अब आंसुओं की परत
आंख पर नहीं है। अब उस आदमी को ठीक-ठीक दिखाई पड़ रहा है। अभी उसे कुछ भी दिखाई
नहीं पड़ रहा था।
उधर आग की लपटें थीं, तो इधर आंख में भी तो आंसू थे,
सब धुंधला था, सब अंधेरा था। अब तक उसके
हाथ-पैर कंपते थे, अब हाथ-पैर का कंपन चला गया। अब वह आदमी
ठीक वैसा ही हो गया है, जैसे और लोग हैं। और कह रहा है,
ठीक; जो हो गया, ठीक है।
तभी उसका लड़का दौड़ा हुआ आता है। और वह कहता है, बात तो हुई थी, लेकिन बयाना नहीं हो पाया। बेचने की
बात चली थी, लेकिन हो नहीं पाया। और अब इस जले हुए मकान को
कौन खरीदने वाला है!
फिर आंसू वापस लौट आए; फिर छाती पीटना शुरू
हो गया। मकान अब भी वैसा ही जल रहा है! मकान को कुछ भी पता नहीं चला कि इस बीच सब
बदल गया है। सब फिर बदल गया है। मोह फिर लौट आया है। आंखें फिर अंधी हो गई हैं।
फिर मेरा जलने लगा है।
इस जीवन में मोह ही जलता है, मोह ही चिंतित होता
है, मोह ही तनाव से भरता है, मोह ही
संताप को उपलब्ध होता है, मोह ही भटकाता है, मोह ही गिराता है। मोह ही जीवन का दुख है।
इसे कृष्ण मोह कह रहे हैं। बुद्ध ने इसे तृष्णा कहा है, तनहा कहा है। इसे कोई और नाम दें, इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता। इसके भीतरी रहस्य में एक गुण है, और वह यह कि जो
मेरा नहीं है, वह मेरा मालूम होने लगता है। मोह की जो
हिप्नोसिस है, मोह का जो सम्मोहन है, वहां
जो मेरा नहीं है, वह मेरा मालूम होने लगता है; और जो मेरा है, उसका कुछ पता ही नहीं चलता।
मोह के अंधकार का जो गुणधर्म है, वह यह है कि जो मेरा
नहीं है, वह मेरा मालूम होता है। और जो मेरा है, वह मेरा नहीं मालूम होता है। एक रिवर्सन, एक विपर्यय
हो जाता है। चीजें सब उलटी हो जाती हैं।
मकान मेरा कैसे हो सकता है? मैं नहीं था, तब भी था। मैं नहीं रहूंगा, तब भी रहेगा। जमीन मेरी
कैसे हो सकती है? मैं नहीं था, तब भी
थी। मैं नहीं रहूंगा, तब भी होगी। और जमीन को बिलकुल पता
नहीं है कि मेरी है। और मेरा मोह एक सम्मोहन का जाल फैला लेता है--मेरा बेटा है,
मेरी पत्नी है, मेरे पिता हैं, मेरा धर्म है, मेरा धर्मग्रंथ है, मेरा मंदिर है, मेरी मस्जिद है--मैं के आस-पास एक
बड़ा जाल खड़ा हो जाता है। वह जो मैं का फैलाव है, वही मोह का
अंधकार है।
असल में मैं जो है, उसे ठीक ऐसा समझें कि वह अंधेरे
का दीया है। जैसे दीए से रोशनी गिरती है, ऐसे मैं से अंधकार
गिरता है। जैसे दीया जलता है, तो प्रकाश हो जाता है; ऐसे मैं जलता है, तो अंधकार हो जाता है। जितना सघन
मैं, उतनी डार्कनेस, उतना निबिड़ अंधकार
चारों ओर फैलता चला जाता है। जो आदमी मैं में ही जीता है, वह
अंधकार में जीता है--मोह-निशा में।
तो कृष्ण कहते हैं, इस मोह की कालिमा से जो मुक्त हो
जाता है, वैसा व्यक्ति वैराग्य को उपलब्ध होता है। लेकिन
कृष्ण जिसे वैराग्य कहते हैं, हम आमतौर से उसे वैराग्य नहीं
कहते हैं। इसलिए इस बात को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।
हम तो वैराग्य जिसे कहते हैं, वह राग की विपरीतता
को कहते हैं। विपरीत राग को कहते हैं वैराग्य, हम जिसे
वैराग्य कहते हैं। मकान मेरा है, ऐसा जानना राग है--हमारी
बुद्धि में। मकान मेरा नहीं है, ऐसा जानना वैराग्य है--हमारी
बुद्धि में। लेकिन मेरा है या मेरा नहीं है, ये दोनों एक ही
चीज के दो छोर हैं। कृष्ण इसे वैराग्य नहीं कहते। यह विपरीत राग है। यह राग से
मुक्ति नहीं है। नहीं, मेरा नहीं है।
रामतीर्थ अमेरिका से वापस लौटे, टेहरी गढ़वाल में
मेहमान थे। उनकी पत्नी मिलने आई। खिड़की से देखा पत्नी को आते हुए, तो खिड़की बंद करके द्वार बंद कर लिया। एक मित्र साथ ठहरे हुए थे, सरदार पूर्ण सिंह। उन्होंने कहा, दरवाजा क्यों बंद
करते हैं? क्योंकि मैंने आपको किसी भी स्त्री के लिए कभी
दरवाजा बंद करते नहीं देखा! पूर्ण सिंह जानते हैं कि जो आ रही है, उनकी पत्नी है--या थी। रामतीर्थ ने कहा, वह मेरी कोई
भी नहीं है। पर पूर्ण सिंह ने कहा कि और भी जो स्त्रियां आती हैं, वे भी आपकी कोई नहीं हैं। लेकिन उन और कोई नहीं स्त्रियों के लिए कभी
द्वार बंद नहीं किया! नहीं, यह स्त्री जरूर आपकी कोई
है--विशेष आयोजन करते हैं, द्वार बंद करते हैं! रामतीर्थ ने
कहा, वह मेरी पत्नी थी; लेकिन मेरी कोई
पत्नी नहीं है। पूर्ण सिंह ने कहा, अगर वह पत्नी नहीं है,
तो उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें, जैसा किसी
भी स्त्री के साथ करते हैं। द्वार खोलें!
यह व्यवहार विशेष है; यह विपरीत राग का व्यवहार है। एक
भ्रम था कि मेरी पत्नी है, अब एक भ्रम है कि मेरी पत्नी नहीं
है। लेकिन अगर पहला भ्रम गलत था, तो दूसरा भ्रम सही कैसे हो
सकता है? वह पहले पर ही खड़ा है; वह
पहले का ही एक्सटेंशन है; वह उसी का विस्तार है।
पहला भ्रम तो हमारी समझ में आ जाता है। दूसरा भ्रम विरागी का भ्रम
है--संन्यासी का, त्यागी का--वह जरा हमारी समझ में मुश्किल से आता है।
लेकिन साफ है बात कि यह पत्नी विशेष है, यह साधारण नहीं है।
इस स्त्री के प्रति रामतीर्थ की कोई दृष्टि है। किसी दिन रामतीर्थ ने इस स्त्री के
लिए उठकर द्वार खोला होता, अब उठकर द्वार बंद कर रहे हैं।
लेकिन इस स्त्री के लिए उठते जरूर हैं। किसी दिन द्वार खोलने उठे होते, अपनी पत्नी है; आज द्वार बंद करने उठे हैं, अपनी पत्नी नहीं है। लेकिन द्वार तक रामतीर्थ को उठना पड़ता है; वैराग्य नहीं है।
पूर्ण सिंह ने कहा कि अगर आप द्वार नहीं खोलते हैं, तो मैं नमस्कार करता हूं। मेरे लिए आपका सब ब्रह्मज्ञान व्यर्थ हो गया।
मैं जाता हूं। यह कैसा ब्रह्मज्ञान है! क्योंकि किसी स्त्री से आपने नहीं कहा अब
तक रुकने के लिए। सभी स्त्रियों में ब्रह्म दिखाई पड़ा। आज इस स्त्री में कौन-सा
कसूर हो गया है कि ब्रह्म नहीं है!
रामतीर्थ को भी चुभी बात; खयाल में पड़ी। द्वार
तो खोल दिया। लेकिन विचारशील व्यक्ति थे। यह तो दिखाई पड़ गया कि वैराग्य फलित नहीं
हुआ है। क्योंकि वैराग्य का अर्थ ही यह है कि जहां न राग रहा हो, न विराग रहा हो। वैराग्य भी न रहा हो, वहीं वैराग्य
है। मोह की निशा पूरी ही खो गई हो। मेरा खो गया हो, मेरा
नहीं है, यह भी खो गया हो। जहां वैराग्य भी नहीं है, वहीं वैराग्य है।
रामतीर्थ को भी दिखाई तो पड़ गया। समझ में तो आ गया। उसी दिन उन्होंने
गेरुए वस्त्र छोड़ दिए। यह जानकर आपको हैरानी होगी कि रामतीर्थ ने जिस दिन जल-समाधि
ली, उस दिन वे गेरुए वस्त्र नहीं पहने हुए थे। उस दिन उन्होंने साधारण वस्त्र
पहन लिए थे। क्योंकि यह उनको भी यह साफ हो गया था कि यह वैराग्य नहीं है।
वैराग्य का अर्थ, जहां न राग रह गया, न विराग रह गया। न जहां किसी चीज का आकर्षण है, न
विकर्षण है; न अट्रैक्शन है, न रिपल्शन
है। जहां न किसी चीज के प्रति खिंचाव है, न विपरीत भागना है।
न जहां किसी चीज का बुलावा है, न विरोध है। जहां व्यक्ति थिर
हुआ, सम हुआ; जहां पक्ष और विपक्ष एक
से हो गए, वहां वैराग्य फलित होता है।
लेकिन इसे विराग क्यों कहते हैं? वैराग्य क्यों कहते
हैं? क्योंकि जहां वैराग्य भी नहीं है, वहां वैराग्य क्यों कहते हैं? कोई उपाय नहीं है।
शब्द की मजबूरी है, और कोई बात नहीं है। आदमी के पास सभी
शब्द द्वंद्वात्मक हैं, डायलेक्टिकल हैं। आदमी की भाषा में
ऐसा शब्द नहीं है जो नान-डायलेक्टिकल हो, द्वंद्वात्मक न हो।
मनुष्य ने जो भाषा बनाई है, वह मन से बनाई है। मन द्वंद्व
है। इसलिए मनुष्य जो भी भाषा बनाता है, उसमें विपरीत शब्दों
में भाषा को निर्मित करता है।
बड़े मजे की बात है कि हमारी भाषा बन ही नहीं सकती विपरीत के बिना।
क्योंकि बिना विपरीत के हम परिभाषा नहीं कर सकते, डेफिनीशन नहीं कर
सकते। अगर कोई आपसे पूछे कि अंधेरा यानी क्या? तो आप कहते
हैं, जो प्रकाश नहीं है। बड़ी सर्कुलर डेफिनीशन है। कोई पूछे,
प्रकाश यानी क्या? तो आप कहते हैं, जो अंधेरा नहीं है। न आपको अंधेरे का पता है कि क्या है, न प्रकाश का पता है कि क्या है। अंधेरे को जब पूछते हैं, क्या है? तो कह देते हैं, प्रकाश
नहीं है। और जब पूछते हैं, प्रकाश क्या है? तो कह देते हैं, अंधेरा नहीं है। यह कोई परिभाषा हुई?
यह कोई डेफिनीशन हुई? परिभाषा तो तभी हो सकती
है, जब कम से कम एक का तो पता हो!
मैंने सुना है, एक आदमी एक अजनबी गांव में गया। उसने पूछा कि अ नाम
का आदमी कहां रहता है? तो लोगों ने कहा, ब नाम के आदमी के पड़ोस में। पर उसने कहा, मुझे ब का
भी कोई पता नहीं, ब कहां रहता है? उन्होंने
कहा, अ के पड़ोस में। पर उसने कहा कि इससे कुछ हल नहीं होता,
क्योंकि न मुझे अ का पता है, न ब का पता है।
मुझे ठीक-ठीक बताओ, अ कहां रहता है? उन्होंने
कहा, ब के पड़ोस में। लेकिन ब कहां रहता है? उन्होंने कहा, अ के पड़ोस में।
आदमी से पूछो, चेतना क्या है? वह कहता है,
पदार्थ नहीं। उससे पूछो, पदार्थ क्या है?
वह कहता है, चेतना नहीं। माइंड क्या है?
मैटर नहीं। मैटर क्या है? माइंड नहीं। बड़े से
बड़ा दार्शनिक भी इसको परिभाषा कहता है, इसको डेफिनीशन कहता
है। यह डेफिनीशन हुई? धोखा हुआ, डिसेप्शन
हुआ--परिभाषा न हुई। क्योंकि इसमें से एक का भी पता नहीं है।
लेकिन आदमी को कुछ भी पता नहीं है, काम तो चलाना पड़ेगा।
इसलिए आदमी बेईमान शब्दों को रखकर काम चलाता है। उसके सब शब्द डिसेप्टिव हैं। उसके
किसी शब्द में कोई भी अर्थ नहीं है। क्योंकि अपने शब्द में वह जिस शब्द से अर्थ
बताता है, उस शब्द में भी उसको कोई अर्थ नहीं है। उसकी सब
परिभाषाएं सर्कुलर हैं, वर्तुलाकार हैं। वह कहता है, बाएं यानी क्या! वह कहता है, दाएं जो नहीं है। और
दाएं? वह कहता है, बाएं नहीं। लेकिन इनमें
से किसी का पता है कि बायां क्या है?
यह आदमी की भाषा डायलेक्टिकल है। डायलेक्टिकल का मतलब यह कि जब आप
पूछें अ क्या, तो वह ब की बात करता है; जब
पूछें ब क्या, तो वह अ की बात करने लगता है। इससे भ्रम पैदा
होता है कि सब पता है। पता कुछ भी नहीं है; सिर्फ शब्द पता
हैं। लेकिन बिना शब्दों के काम नहीं चल सकता। राग है तो विराग है। लेकिन तीसरा
शब्द कहां से लाएं? और तीसरा शब्द ही सत्य है। वह कहां से
लाएं?
महावीर कहते हैं, वीतराग। लेकिन उससे भी कोई फर्क
नहीं पड़ता। वीतराग का भी मतलब राग के पार हो जाना, बियांड
अटैचमेंट होता है। विराग का भी मतलब वही होता है कि राग के बाहर हो जाना। कोई फर्क
नहीं पड़ता। हम कोई भी शब्द बनाएंगे, वह किसी शब्द के विपरीत
होगा। वह तीसरा नहीं होता, वह हमेशा दूसरा ही होता है। और
सत्य तीसरा है। इसलिए दूसरे शब्द को कामचलाऊ रूप से उपयोग करते हैं। कृष्ण भी
कामचलाऊ उपयोग कर रहे हैं।
इसलिए वैराग्य का अर्थ राग की विपरीतता मत समझ लेना। वैराग्य का अर्थ
है, द्वंद्व के पार, राग और विराग के पार जो हो गया,
जिसे न अब कोई चीज आकर्षित करती है, न
विकर्षित करती है। क्योंकि विकर्षण आकर्षण का ही शीर्षासन है। क्योंकि विकर्षण
आकर्षण का ही शीर्षासन है। वह सिर के बल खड़ा हो गया आकर्षण है। और मोह की अंध-निशा
टूटे तो। शर्त साफ है। वैराग्य को कौन उपलब्ध होता है? मोह
की अंध-निशा टूटे तो, मोह की कालिमा बिखरे तो।
लेकिन हम क्या करते हैं? हम मोह की कालिमा
नहीं तोड़ते, मोह के खिलाफ अमोह को साधने लगते हैं। हम मोह की
कालिमा नहीं तोड़ते, मोह के खिलाफ, विरोध
में अमोह को साधने लगते हैं। हम कहते हैं, घर में मोह है,
तो घर छोड़ दो, जंगल चले जाएं। लेकिन जिस आदमी
में मोह था, आदमी में था कि घर में था?
अगर घर में मोह था, तो आदमी चला जाए तो मोह के बाहर
हो जाएगा। अगर घर मोह था। लेकिन घर को कोई भी मोह नहीं है आपसे, मोह आपको है घर से। और आप भाग रहे हैं और घर वहीं का वहीं है। आप जहां भी
जाएंगे, मोह वहीं पहुंच जाएगा। वह आपके साथ चलेगा, वह आपकी छाया है। फिर आश्रम से मोह हो जाएगा--मेरा आश्रम। क्या फर्क पड़ता है?
मेरा घर, मेरा आश्रम--क्या फर्क पड़ता है?
मेरा बेटा, मेरा शिष्य--क्या फर्क पड़ता है?
मोह नया इंतजाम कर लेगा, मोह नई गृहस्थी बसा
लेगा।
यह बड़ी मजेदार बात है कि गृह का अर्थ घर से नहीं है। गृह का अर्थ उस
मोह से है, जो घर को बसा लेता है, दैट
व्हिच बिल्ट्स दि होम। होम से मतलब नहीं है गृह का; उससे
मतलब है, जो घर को बनाता है। वह कहीं भी घर को बना लेगा। वह
झाड़ के नीचे बैठेंगे, तो मेरा हो जाएगा। महल होगा, तो मेरा होगा। लंगोटी होगी, तो मेरी हो जाएगी। और
मेरे को कोई दिक्कत नहीं आती कि बड़ा मकान हो कि छोटा हो, इससे
कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे का आयतन कितना है, इससे मेरे के
होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरा, आयतन पर निर्भर नहीं है।
इसे ऐसा समझें, एक आदमी दो लाख रुपए की चोरी करे और एक आदमी दो पैसे
की चोरी करे, तो क्या आप समझते हैं कि दो पैसे की चोरी छोटी
चोरी है और दो लाख रुपए की चोरी बड़ी चोरी है? आयतन बड़ा है,
चोरी बराबर है। दो लाख की चोरी उतनी ही चोरी है, जितनी दो पैसे की चोरी है। क्योंकि चोरी करने में जो भी घटना घटती है,
वह दो पैसे में भी घट जाती है, दो लाख में भी
घट जाती है। चोर तो आदमी हो ही जाता है दो पैसे में उतना ही, जितना दो लाख में। हां, अदालत दो पैसे के चोर को
छोटा चोर कहे, दो लाख के चोर को बड़ा चोर कहे, सजा कम-ज्यादा करे, वह बात अलग है। क्योंकि अदालत को
चोरी से मतलब नहीं है, दो लाख से मतलब है। अदालत क्वांटिटी
पर जीती है।
धर्म का क्वांटिटी से, परिमाण से कोई संबंध
नहीं। धर्म का क्वालिटी से संबंध है, गुण से संबंध है। धर्म
कहेगा, दो पैसे की चोरी या दो लाख की चोरी, बराबर चोरी है। इसमें कोई फर्क नहीं। गणित में होगा फर्क, धर्म में कोई भी फर्क नहीं है। धर्म के लिए चोरी हो गई। आदमी चोर है।
सच तो यह है कि धर्म को और थोड़ा गहरे में उतरें, तो अगर दो लाख और दो पैसे की चोरी में कोई फर्क नहीं है, तो दो लाख की चोरी और चोरी करने के विचार में भी कोई फर्क हो सकता है?
धर्म के लिए कोई फर्क नहीं है। चोरी की या चोरी करने का विचार किया,
कोई अंतर नहीं है, बात घटित हो गई। हम जो करते
हैं, वह भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है। जो हम करने की
सोचते हैं, वह भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है।
यह जान सोलिज की जिस किताब का मैंने नाम लिया, अरेस्ट्रोस, उसमें उसका एक वचन और है कि आदमी अपने
कर्मों से ही नहीं बंधता--सिर्फ कर्मों से नहीं बंधता--बल्कि जो उसने करना चाहा और
नहीं किया, उससे भी बंध जाता है।
हम सिर्फ चोरी से ही नहीं बंधते--की गई चोरी से--नहीं की गई चोरी से, सोची गई चोरी से भी उतने ही बंध जाते हैं। की गई चोरी से दूसरे को भी पता
चलता है, न की गई चोरी से जगत को पता नहीं चलता, लेकिन परमात्मा को पूरा पता चलता है। क्योंकि परमात्मा से हमारे संबंध भाव
के हैं, कृत्य के नहीं। करने के नहीं हैं हमारे संबंध
परमात्मा से, करने के संबंध जगत से हैं, समाज से हैं, बाहर से हैं। होने के संबंध हैं हमारे
परमात्मा से--बीइंग के, डूइंग के नहीं।
और होने में क्या फर्क पड़ता है? मैंने चोरी की कल्पना
की या मैंने चोरी की, इससे होने में कोई फर्क नहीं पड़ता,
चोर मैं हो गया। परमात्मा की तरफ तो चोरी की खबर पहुंच गई कि यह
आदमी चोर है। हां, जगत तक खबर नहीं पहुंची। जगत तक खबर
पहुंचने में देर लगेगी। जगत तक खबर पहुंचने में चोरी का विचार ही नहीं, चोरी को हाथ का भी सहयोग लेना होगा। जगत तक पहुंचने में भाव ही नहीं,
पौदगलिक कृत्य, मैटीरियल एक्ट भी करना होगा।
इससे चोरी बढ़ती नहीं, सिर्फ चोरी प्रकट होती है; अनमैनिफेस्ट चोरी मैनिफेस्ट होती है; अव्यक्त चोरी
व्यक्त होती है। बस और कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अव्यक्त चोरी उतनी ही चोरी है,
जितनी व्यक्त चोरी है, जहां तक धर्म का संबंध
है।
तो यह सवाल नहीं है कि आपके पास कितना बड़ा मकान है, कि मकान नहीं है, झोपड़ा है। यह सवाल नहीं है कि आपके
पास करोड़ों रुपए हैं, कि कौड़ियां हैं। यह सवाल नहीं है। सवाल
यह है कि आपके पास मेरा कहने का भाव है या नहीं है।
वही मेरे का भाव मोह की निशा है, मोह का अंधकार है। जब
तक आप कह सकते हैं मेरा, चाहे यह मेरा किसी भी चीज से जुड़ता
हो--मेरा धर्म--फर्क नहीं पड़ता, मोह की निशा जारी है। आप कह
सकते हैं: हिंदू, मुसलमान मेरा; कुरान,
बाइबिल, गीता मेरी; मंदिर-मस्जिद
मेरा।
हम अजीब लोग हैं। सारी दुनिया के धर्म चिल्लाते हैं कि जिसे परमात्मा
को पाना हो, उसे मेरे को छोड़ना पड़ेगा। और हम इतने कुशल हैं कि हम
परमात्मा को भी मेरा बना लेते हैं कि मेरा! वह परमात्मा तेरा, यह परमात्मा मेरा।
मैंने सुना है कि किसी गांव में एक बहुत मजेदार घटना घटी। गणेशोत्सव
था और गणेश का जुलूस निकल रहा था। लेकिन पूरे गांव के लोगों के हर मोहल्ले के गणेश
होते थे। अब गणेश हर मोहल्ले के होते, कोई ब्राह्मणों का
गणेश होता, कोई भंगियों का गणेश होता, कोई
चमारों का गणेश होता, कोई लोहारों का, कोई
तेलियों का। लेकिन नियम था, डिसिप्लिन थी गणेशों की भी एक।
और वह यह थी कि ब्राह्मणों का गणेश पहले चलता, फिर उसके बाद
किसी का, फिर किसी का; ऐसी प्रोसेशन
में व्यवस्था थी।
लेकिन एक वर्ष ऐसा हुआ कि ब्राह्मणों के गणेश जरा समय से देर से
पहुंचे। ब्राह्मणों के गणेश थे; समय में जरा देर दिखानी ही
चाहिए! आदमी के बड़े होने का पता ही चलता है कि वह समय से जरा देर से पहुंचे। जितना
बड़ा नेता, उतनी देर से पहुंचता है। जरा देर से पहुंचे
ब्राह्मणों के गणेश, और तेलियों के गणेश जरा पहले पहुंच गए।
गरीब गणेश थे, वह जरा पहले पहुंच गए, समय
से पहुंच गए कि कहीं जुलूस न निकल जाए। क्योंकि तेलियों के गणेश के लिए कोई जुलूस
रुकेगा नहीं। उनको तो समय पर पहुंचना ही चाहिए, वे समय पर
पहुंचे।
फिर समय से बहुत देर हो गई, जुलूस निकालना जरूरी
था, रात हुई जाती थी, तो तेलियों के
गणेश ही आगे हो गए। पीछे से आए ब्राह्मणों के गणेश! तो ब्राह्मणों ने कहा, हटाओ तेलियों के गणेश को! तेलियों का गणेश और आगे? यह
कभी नहीं हो सकता। बेचारे तेलियों के गणेश को पीछे हटना पड़ा।
हिंदू के भी देवता हैं, मुसलमान के भी।
हिंदुओं में भी हिंदुओं के हजार देवता हैं। एक देवता भी तेलियों और ब्राह्मणों का
होकर, अलग हो जाता है। भगवान मेरे को छोड़ने से मिलता है। और
हम इतने कुशल हैं कि भगवान को भी मेरे की सीमाओं में बांधकर खड़ा कर देते हैं।
मंदिर जलता है, तो किसी मुसलमान को पीड़ा नहीं होती; खुशी होती है। मस्जिद जलती है, तो किसी हिंदू को
पीड़ा नहीं होती; खुशी होती है। और हर हालत में भगवान ही जलता
है। लेकिन मेरे की वजह से दिखाई नहीं पड़ता। मेरा अंधा कर जाता है। वह मेरा अंधकार
है।
किसी भी तरह के मेरे का भाव मोह की निशा है। इसके प्रति जागना है, भागना नहीं है। भागे कि मैं की विपरीतता शुरू हुई, कि
फिर मैं कहीं और निर्माण होगा। फिर वह वहां जाकर अपने को निर्मित कर लेगा।
मैं जो है, बड़ी क्रिएटिव फोर्स है; मैं जो
है, बड़ी सृजनात्मक शक्ति है। वास्तविक नहीं, स्वप्न का सृजन करती है, ड्रीम क्रिएटिंग। स्वप्न का
निर्माण करती है, लेकिन करती है। बहुत हिप्नोटिक है। जहां भी
खड़ी हो जाती है, वहां एक संसार बन जाता है।
सच तो यह है कि मेरे के कारण ही संसार है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन संसार कहीं भी नहीं है। मेरे के कारण ही गृह है, गृहस्थी है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन कहीं कोई
गृह नहीं है, कहीं कोई गृहस्थी नहीं है। संन्यासी वह नहीं है,
जो घर छोड़कर भाग गया; संन्यासी वह है, जिसके भीतर घर को बनाने वाला बिखर गया। जिसके भीतर से वह निर्माण करने
वाली मोह की जो तंद्रा थी, वह खो गई है।
इसे कृष्ण कहते हैं, इस मोह की निशा को जो छोड़ देता
है और जिसकी बुद्धि वैराग्य को उपलब्ध हो जाती है, उसके जीवन
में, उसके जीवन में फलित होता है--कहें उसे मोक्ष, कहें उसे ज्ञान, कहें उसे आनंद, कहें उसे परमात्मा, कहें उसे ब्रह्म, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सिर्फ नामों के भेद हैं।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।। ५३।।
और जब तेरी अनेक प्रकार के सिद्धांतों को सुनने से विचलित हुई बुद्धि
परमात्मा के स्वरूप में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू समत्वरूप योग
को प्राप्त होगा।
जैसी बुद्धि है, निश्चल नहीं है। जैसी बुद्धि है,
दृढ़ नहीं है। जैसी बुद्धि है, वेवरिंग,
कंपित, कंपती हुई, लहराती
हुई है। जैसी बुद्धि है वह ऐसी है, जैसे तूफान और आंधी में
दीए की ज्योति होती है। एक क्षण भी एक जगह नहीं; एक क्षण में
भी अनेक जगह। क्षण के शुरू में कहीं होती है, तो क्षण के अंत
में कहीं। एक क्षण को भी आश्वस्त नहीं कि बचेगी, बुझती-जलती
मालूम पड़ती है। झोंके हवा के--और ज्योति अब गई, अब गई,
ऐसी ही होती रहती है।
कीर्कगार्ड ने मनुष्य को कहा है, ए ट्रेंबलिंग,
एक कंपन। पूरे समय--जन्म से लेकर मृत्यु तक--एक कंपन, जहां सब कंप रहा है, जहां सब भूकंप है। जहां भीतर
कोई थिरता नहीं, कोई दृढ़ता नहीं। जो हम बाहर से चेहरे बनाए
हुए हैं, वे झूठे हैं। हमारे बाहर के चेहरे ऐसे लगते हैं,
बड़े अकंप हैं। सचाई वैसी नहीं है; भीतर सब
कंपता हुआ है। बहादुर से बहादुर आदमी भीतर भय से कंप रहा है। बहादुर से बहादुर
आदमी भीतर भय से कंप रहा है।
स्टैलिन था। नाम ही उसको स्टैलिन इसलिए दिया--मैन आफ स्टील, लौहपुरुष। नाम नहीं है उसका असली वह, दिया हुआ नाम
है--लौहपुरुष, स्टैलिन, स्टील का आदमी।
लेकिन ख्रुश्चेव ने अभी संस्मरण लिखे हैं। तो उसमें लिखा है कि वह इतना भयभीत आदमी
था, जिसका कोई हिसाब नहीं। और एक दिन तो ख्रुश्चेव से उसने
कहा कि अब तक तो मैं दूसरों से डरता था, अब तो मैं अपने से
भी डरने लगा हूं। डर भारी था।
स्टैलिन कभी भी भोजन नहीं कर सकता था सीधा, जब तक कि दो-चार को खिलाकर न देख ले। अपनी लड़की पर भी भरोसा नहीं था,
कि जो खाना बना है, उसमें जहर तो नहीं है!
ख्रुश्चेव ने लिखा है, हम सब को उसका भोजन पहले चखना पड़ता
था। हम भी कंपते हुए चखते थे कि जिससे स्टैलिन घबड़ा रहा है, लौहपुरुष,
वह हमको चखना पड़ रहा है! लेकिन मजबूरी थी। पहले चार को भोजन करवा
लेता सामने बिठाकर। जब देख लेता कि चारों जिंदा हैं, तब भोजन
करता। भोजन करना भी निश्चिंतता न रही।
घर से बाहर नहीं जाता था। समझा तो यह जाता है कि उसने एक डबल आदमी रख
छोड़ा था, अपनी शकल का एक आदमी और रख छोड़ा था, जो सामूहिक जलसों में सम्मिलित होता था। हिटलर ने भी एक डबल रख छोड़ा था।
सामूहिक जलसे में कहां-कब गोली लग जाएगी! सब इंतजाम है, फिर
भी डर है। इंतजाम भारी था। स्टैलिन और हिटलर के पास जैसा इंतजाम था, ऐसा पृथ्वी पर किसी आदमी के पास कभी नहीं रहा। एक-एक आदमी की तलाशी ले ली
जाती थी। हजारों सैनिकों के बीच में थे। सब तरह का इंतजाम था। लेकिन फिर भी आखिरी
इंतजाम यह था कि जो आदमी सलामी ले रहा है जनता की, वह असली
स्टैलिन नहीं है। वह एक नकली अभिनेता है, जो स्टैलिन का काम
कर रहा है। स्टैलिन तो अपने घर में बैठा हुआ देख रहा है, खबर
सुन रहा है कि क्या हो रहा है।
कैसी विडंबना है कि स्टैलिन और हिटलर जैसे आदमी इसी यश को पाने के लिए
इतना श्रम करते हैं! और फिर कोई अभिनेता नमस्कार लेता है जाकर। पत्नी को भी कमरे
में सुला नहीं सकते। क्योंकि रात कब गरदन दबा देगी, कुछ पता नहीं।
खूब स्टील के आदमी हैं! तो घास-फूस का आदमी कैसा होता है? भूसे से भरा आदमी कैसा होता है? और अगर स्टैलिन इतने
भूसे से भरे हैं, तो हमारी क्या हालत होगी? हम तो स्टैलिन नहीं हैं, हम तो स्टील के आदमी नहीं
हैं। स्टील के आदमी की यह हालत हो, तो हमारी क्या हालत होगी?
नहीं, एक चेहरा, एक मास्क, एक मुखौटा है, जो ऊपर से बिलकुल थिर है। भीतर असली
चेहरा पूरे वक्त कंप रहा है। वहां कंपन ही चल रहा है। वहां बहादुर से बहादुर आदमी
भीतर भयभीत है। वहां तथाकथित ज्ञानी से ज्ञानी, भीतर गहरे
में अज्ञान से कंप रहा है। यहां वह कह रहा है कि मुझे पता है, ब्रह्म है। और वहां भीतर वह जान रहा है, मुझे कुछ भी
पता नहीं। यह भी पता नहीं है कि मैं भी हूं। बाहर वह दिखला रहा है अधिकार, कि मुझे मालूम है। भीतर उसे कुछ भी मालूम नहीं है। भीतर अज्ञान खाए जा रहा
है। बाहर से वह कह रहा है, आत्मा अमर है। और भीतर मौत मुंह
बाए मालूम पड़ती है।
ऐसी जो हमारी बुद्धि है, जो दृढ़ नहीं है।
लेकिन दृढ़ का क्या मतलब है? फिर वही कठिनाई है शब्दों की।
दृढ़ का क्या मतलब है? जिसको हम दृढ़ आदमी कहते हैं, क्या उसके भीतर कंपन नहीं होता? असल में जितनी दृढ़ता
आदमी बाहर से दिखाता है, उतना ही भीतर कंपित होता है। असल
में दृढ़ता जो है, वह सेफ्टी मेजर है, वह
भीतर के कंपन को झुठलाने के लिए आयोजन है।
एडलर ने इस संबंध में बड़ी मेहनत की है। शायद मनुष्य जाति के इतिहास
में इस दिशा में एडलर की खोज सर्वाधिक कीमती है। एडलर कहता है कि एक बड़ी अजीब घटना
आदमी के साथ घटती है कि आदमी जो भीतर होता है, उससे ठीक उलटा बाहर
आयोजन करता है, दि एग्जेक्ट कानट्रेरी, ठीक उलटा आयोजन करता है। जितना मनुष्य भीतर हीनता से पीड़ित होता है,
उतना बाहर श्रेष्ठता का आयोजन करता है।
सभी राजनीतिज्ञ इनफीरिअरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित होते हैं। होंगे ही, अन्यथा राजनीतिज्ञ होना मुश्किल है। राजनीतिज्ञ होने के लिए जरूरी है कि
भीतर हीनता का भाव हो कि मैं कुछ भी नहीं हूं। तभी आदमी दौड़कर सिद्ध करता है कि
देखो, मैं कुछ हूं। यह आपको कम सिद्ध करता है, अपने को ज्यादा सिद्ध करता है--अपने सामने--कि नहीं, गलत थी वह बात कि मैं कुछ नहीं हूं। देखो, मैं कुछ
हूं।
एडलर का कहना है कि बड़े से बड़े जो संगीतज्ञ हुए हैं जगत में, वे वे ही लोग हैं, जिनके बचपन में कान कमजोर होते
हैं। कमजोर कान का आदमी संगीतज्ञ हो जाता है। कमजोर आंख के आदमी चित्रकार हो जाते
हैं।
लेनिन कुर्सी पर बैठता था, तो उसके पैर जमीन
नहीं छूते थे। पैर बहुत छोटे थे, ऊपर का हिस्सा बहुत बड़ा था।
लेकिन बड़ी से बड़ी कुर्सी पर वह आदमी बैठ सका। उसने सिद्ध करके बता दिया कि
तुम्हारे पैर अगर जमीन को छूते हैं, तो कोई बात नहीं,
कोई फिक्र नहीं, हम कुर्सी को आसमान से छूकर
बताए देते हैं। एडलर कहेगा कि लेनिन की इस महत्वाकांक्षा में उसके पैरों का छोटा
होना ही कारण था, वह हीनता ही उसको पीड़ित कर रही थी। पैर
बहुत छोटे थे, साधारण कुर्सी पर भी लटक जाते थे, जमीन पर नहीं पहुंचते थे।
बर्नार्ड शा ने मजाक में कहा है कि छोटे पैर से क्या फर्क! छोटा हो
पैर कि बड़ा हो, जमीन पर आदमी खड़ा हो, तो सभी के
पैर जमीन पर पहुंच जाते हैं। क्या फर्क पड़ता है छोटे-बड़े पैर से? जमीन पर खड़ा हो, तो सभी के पैर जमीन पर पहुंच जाते
हैं।
वह तो ठीक है। लेकिन छोटे पैर से फर्क पड़ता है; आदमी कुर्सी पर पहुंच जाता है। क्योंकि जब तक कुर्सी पर नहीं पहुंच जाता,
तब तक उसके प्राण पीड़ित होते रहते हैं कि पैर छोटे हैं, पैर छोटे हैं, पैर छोटे हैं। वही पीड़ा उसको विपरीत
यात्रा पर ले जाती है।
तो एडलर से अगर पूछें कि दृढ़ता का क्या मतलब है? तो एडलर और कृष्ण के मतलब में फर्क है; वह मैं
समझाना चाहता हूं। एडलर कहेगा, दृढ़ता का मतलब कि आदमी
वीकलिंग है, भीतर कमजोर है। आदमी भीतर कमजोर है, इसलिए बाहर से दृढ़ता आरोपित कर रहा है। आदमी भीतर घास-फूस का है, इसलिए बाहर से स्टैलिन है। आदमी भीतर से कुछ नहीं है, इसलिए बाहर से सब कुछ बनने की कोशिश में लगा है। क्या कृष्ण भी इसी दृढ़ता
की बात कर रहे हैं? अगर इसी दृढ़ता की बात कर रहे हैं,
तो दो कौड़ी की है।
नहीं, इस दृढ़ता की वे बात नहीं कर रहे हैं। एक और दृढ़ता है,
जो भीतर की कमजोरी को दबाने से उपलब्ध नहीं होती, जो भीतर के चित्त के विपरीत आयोजन करने से उपलब्ध नहीं होती, बल्कि भीतर के कंपित चित्त के विदा हो जाने से उपलब्ध होती है।
दो तरह की दृढ़ताएं हैं। एक दृढ़ता वह है, जिसमें मेरे भीतर
कमजोरी तो मौजूद रहती है, और उसकी छाती पर सवार होकर मैं दृढ़
हो जाता हूं। और एक ऐसी दृढ़ता है, जो मेरी कमजोरी बिखर जाती
है, विलीन हो जाती है, उसके अभाव में
जो मेरे भीतर छूट जाती है। लेकिन उसे हम क्या कहें? उसे
दृढ़ता कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सच तो यह है कि दृढ़ता पहले
वाली ही है। वह एडलर ठीक कहता है। उसे हम क्या कहें, जो
कमजोरी के विसर्जन पर बचती है?
एक तो स्वास्थ्य वह है, जो भीतर बीमारी को
दबाकर प्रकट होता है। और एक स्वास्थ्य वह है, जो बीमारी के
अभाव पर, एब्सेंस में प्रकट होता है। लेकिन जो बीमारी के
अभाव में प्रकट होता है, उस स्वास्थ्य को हम क्या कहें?
क्योंकि हम एक ही तरह के स्वास्थ्य से परिचित हैं, जो बीमारी को दबाकर उपलब्ध होता है। दबाने की प्रक्रिया को इसलिए हम दवा
कहते हैं। दवाई--दबाने वाली। जिससे हम बीमारी को दबाते रहते हैं, उसको हम दवा कहते हैं।
लेकिन एक और स्वास्थ्य है, जो बीमारी का अभाव
है--दबाव नहीं, सप्रेशन नहीं--एब्सेंस। लेकिन अगर हम मेडिकल
साइंस से पूछने जाएं, तो वह कहेगी कि नहीं, हम ऐसे किसी स्वास्थ्य को नहीं जानते हैं, जो बीमारी
का अभाव है। हम तो ऐसे ही स्वास्थ्य को जानते हैं, जो बीमारी
से लड़कर उपलब्ध होता है।
इसलिए अगर आप किसी चिकित्सक से जाकर कहें कि मुझे स्वस्थ होना है, तो वह कहेगा, हम कुछ रास्ता नहीं बता सकते हैं। हमसे
तो यह पूछो कि कौन-सी बीमारी है, उसे अलग करना है, उसे मिटाना है, तो हम रास्ता बता सकते हैं।
इसलिए आज तक दुनिया की कोई भी मेडिकल साइंस, चाहे वह आयुर्वेद हो और चाहे वह एलोपैथी हो और चाहे होमियोपैथी हो और चाहे
यूनानी हो और चाहे कोई और हो, कोई भी पैथी हो, वह अब तक स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं कर पाई, सिर्फ
बीमारियों की परिभाषा कर पाई है। उससे पूछो कि स्वास्थ्य क्या है? तो वह कहेगी, हमें पता नहीं। हमसे पूछो कि बीमारियां
क्या हैं, तो हम बता सकते हैं, टी.बी.
का मतलब यह, कैंसर का मतलब यह, फ्लू का
मतलब यह। लेकिन स्वास्थ्य का क्या मतलब है? स्वास्थ्य का
हमें कोई पता नहीं है।
हीनता को दबाकर एक श्रेष्ठता प्रकट होती है, यह श्रेष्ठता सदा ही नीचे की हीनता पर कंपती रहती है। सदा भयभीत, सदा अपने को सिद्ध करने को आतुर, सदा अपने को तर्क
देने को चेष्टारत, सदा संदिग्ध, सदा
भीतर से भयग्रस्त।
और एक ऐसी भी श्रेष्ठता है--असंदिग्ध, अपने को सिद्ध करने
को आतुर नहीं, अपने को प्रमाणित करने के लिए चेष्टारत नहीं,
जिसे अपने होने का पता ही नहीं।
अब ध्यान रहे, जिस दृढ़ता का आपको पता है, वह
एडलर वाली दृढ़ता होगी। और जिस दृढ़ता का आपको पता ही नहीं है, वह कृष्ण वाली दृढ़ता होगी। जिस दृढ़ता का पता है...पता चलेगा कैसे? पता हमेशा कंट्रास्ट में चलता है। स्कूल में शिक्षक लिखता है सफेद खड़िया
से काले ब्लैक-बोर्ड पर। सफेद दीवार पर भी लिख सकता है, लिख
जाएगा, पता नहीं चलेगा। लेकिन काले ब्लैक-बोर्ड पर लिखता है;
लिखता है, दिखाई पड़ता है। काले पर लिखता ही
इसीलिए है कि दिखाई पड़ सके। जितना काला ब्लैक-बोर्ड, उतने
अक्षर साफ दिखाई पड़ते हैं।
जितना हीन आदमी, उतनी श्रेष्ठता दिखाई पड़ती है।
जितना श्रेष्ठ आदमी, उतनी श्रेष्ठता सफेद दीवार पर सफेद
अक्षरों जैसी लीन हो जाती है, दिखाई नहीं पड़ती है। कंट्रास्ट
में, विरोध में दिखाई पड़ती है।
अगर आपको पता चलता है कि मैं स्वस्थ हूं, तो समझना कि बीमारी कहीं दबी है। अगर आपको पता चलता है, मैं ज्ञानी हूं, तो समझना कि अज्ञान कहीं दबा है।
अगर आपको पता चलता है कि मैं दृढ़ चित्तवान हूं, तो समझना कि
भीतर भूसा कहीं भरा है। अगर पता ही नहीं चलता...।
इसलिए उपनिषद कहते हैं कि जो कहता है, मैं जानता हूं,
समझना कि नहीं जानता है। इसलिए उपनिषद एक अदभुत वचन कहते हैं। शायद
इससे ज्यादा करेजियस स्टेटमेंट, इससे ज्यादा साहसी वक्तव्य
पृथ्वी पर कभी नहीं दिया गया है। उपनिषद कहते हैं कि ज्ञानी को क्या कहें! अज्ञानी
तो भटक ही जाते हैं अंधकार में, ज्ञानी महा-अंधकार में भटक
जाते हैं, ग्रेटर डार्कनेस। अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार
में, ज्ञानी महा-अंधकार में भटक जाते हैं। किन ज्ञानियों की
बात कर रहा है उपनिषद? उन ज्ञानियों की बात कर रहा है,
जिन्हें ज्ञान का पता है कि ज्ञान है।
जिन्हें दृढ़ता का पता है, वे दृढ़ नहीं हैं।
कृष्ण जिस दृढ़ता की बात कह रहे हैं, उसे एडलर की दृढ़ता से
बिलकुल भिन्न जान लेना। कृष्ण का मनोविज्ञान बहुत और है। वह विपरीत पर खड़ा हुआ
नहीं है। क्योंकि जो विपरीत पर खड़ा हुआ मकान है, किसी भी दिन
गिर जाएगा; उसका कोई भरोसा नहीं है। जो प्रतिकूल पर ही
निर्मित है, वह अपने शत्रु पर ही आधार बनाए है। स्वभावतः,
अपने ही शत्रु के कंधे पर हाथ रखकर जो बलशाली हुआ है, वह कितनी देर बलशाली रहेगा? जो अपने ही विपरीत को
अपनी बुनियाद में आधारशिला के पत्थर बनाया है, उसके शिखर
कितनी देर तक आकाश में, सूर्य की रोशनी में उन्नत रहेंगे?
कितनी देर तक?
नहीं, यह नहीं हो सकता ज्यादा देर। और जितनी देर ये शिखर
ऊपर उन्नत दिखाई भी पड़ेंगे, उतनी देर नीचे बुनियाद में पूरे
समय संघर्ष है, पूरे समय द्वंद्व है, पूरे
समय प्राणों में कंपन है, वेवरिंग है, ट्रेंबलिंग
है। वहां कंपन चलता ही रहेगा, वहां भय हिलता ही रहेगा,
वहां पानी की धार कंपती ही रहेगी। यह रेत पर बनाया हुआ मकान है। रेत
पर भी नहीं, पानी पर बनाया हुआ मकान है। यह अब गिरा, अब गिरा, अब गिरा--भीतर आप जानते ही रहेंगे; अब गिरा, अब गिरा, अब
गिरा--भीतर आप डरते ही रहेंगे। जितना भीतर डरेंगे, उतनी बाहर
दृढ़ता दिखलाएंगे--अपने को धोखा देने के लिए, दूसरों को धोखा
देने के लिए।
लेकिन कृष्ण जिस दृढ़ता की बात कर रहे हैं, वह प्रवंचना नहीं है, वह रूपांतरण है। लेकिन वह कब
फलित होता है? वह तभी फलित होता है, वह
तभी फलित होता है, जब चित्त राग और विराग से, जब बुद्धि चुनाव से, और जब मन विषयों के बीच कंपन को
छोड़कर अकंप हो जाता है, जब मन इच्छाओं के बीच कंपन को छोड़कर
अनिच्छा को उपलब्ध हो जाता है। अनिच्छा का मतलब विपरीत इच्छा नहीं, इच्छा के अभाव को उपलब्ध हो जाता है। तब वे कहते हैं कि अर्जुन, ऐसी अकंप चित्त की दशा में जीवन की संपदा की उपलब्धि है। तब चित्त दृढ़ है।
तब चित्त पानी पर नहीं, चट्टानों पर है। और तब आकाश में शिखर
उठ सकता है। और तब पताका, जीवन की, अस्तित्व
की ऊंचाइयों में फहरा सकती है।
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम्।। ५४।।
इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा:
हे केशव, समाधि में स्थित स्थिर प्रज्ञा वाले पुरुष का क्या
लक्षण है और स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है,
कैसे बैठता है, कैसे चलता है?
अर्जुन पहली बार, अब तक अर्जुन का जो वर्तुल-
व्यक्तित्व था, उससे उठकर प्रश्न पूछ रहा है। पहली बार। अब
तक जो भी उसने पूछा था, वह पुराना आदमी पूछ रहा था, वह पुराना अर्जुन पूछ रहा था। पहली बार उसके प्रश्न ने कृष्ण को छूने की
कोशिश की है--पहली बार। इस वचन से पहली बार वह कृष्ण के निकट आ रहा है। पहली बार
अर्जुन अर्जुन की तरह नहीं पूछ रहा है, पहली बार अर्जुन
कृष्ण के निकट होकर पूछ रहा है। पहली बार कृष्ण अर्जुन के भीतर प्रविष्ट हुए
प्रतीत होते हैं।
यह सवाल गहरा है। वह पूछता है, स्थितप्रज्ञ किसे
कहते हैं? किसे कहते हैं, जिसकी
प्रज्ञा स्थिर हो गई? वह कौन है? वह
कौन है जिसके ज्ञान की ज्योति थिर हो गई? वह कौन है जिसकी
चेतना का दीया अकंप है? वह कौन है जिसे समाधिस्थ कहते हैं?
उसकी भाषा क्या है? वह उठता कैसे है? वह चलता कैसे है? वह बोलता कैसे है? उसका होना क्या है? उसका व्यवहार क्या है? उसे हम कैसे पहचानें?
दो बातें वह पूछ रहा है। एक तो वह यह पूछ रहा है, प्रज्ञा का स्थिर हो जाना, स्थित हो जाना, ठहर जाना क्या है? लेकिन वह घटना तो बहुत आंतरिक है।
वह घटना तो शायद स्वयं पर ही घटेगी, तभी पता चलेगा। वह शायद
कृष्ण भी नहीं बता पाएंगे कि क्या है। इसलिए अर्जुन तत्काल--और इसमें अर्जुन बहुत
ही बुद्धिमानी का सबूत देता है। एक बहुत इंटेलिजेंट, बहुत ही
विचार का, विवेक का सबूत देता है। प्रश्न के पहले हिस्से में
पूछता है कि प्रज्ञा का थिर हो जाना क्या है कृष्ण? लेकिन
जैसे किसी अनजान मार्ग से उसको भी एहसास होता है कि प्रश्न शायद अति-प्रश्न है,
शायद प्रश्न का उत्तर नहीं हो सकता है। क्योंकि घटना इतनी आंतरिक है
कि शायद बाहर से न बताई जा सके।
इसलिए ठीक प्रश्न के दूसरे हिस्से में वह यह पूछता है कि बताएं यह भी
कि बोलता कैसे है वह, जिसकी प्रज्ञा थिर हो गई? जो
समाधि को उपलब्ध हुआ, समाधिस्थ है, वह
बोलता कैसे? डोलता कैसे? चलता कैसे?
उठता कैसे? उसका व्यवहार क्या है? इस दूसरे प्रश्न में वह यह पूछता है कि बाहर से भी अगर हम जानना चाहें,
तो वह कैसा है? भीतर से जानना चाहें, तो क्या है? वह घटना क्या है? वह
हैपनिंग क्या है? जिसको समाधिस्थ कहते हैं, वह घटना क्या है? यह भीतर से। लेकिन अगर यह न भी हो
सके, तो जब किसी व्यक्ति में वैसी घटना घट जाती है, तो उसके बाहर क्या-क्या फलित होता है? उस घटना के
चारों तरफ जो परिणाम होते हैं, वे क्या हैं?
यह प्रश्न पहला प्रश्न है, जिसने कृष्ण को
आनंदित किया होगा। यह पहला प्रश्न है, जिसने कृष्ण के हृदय
को पुलकित कर दिया होगा। अब तक के जो भी प्रश्न थे, अत्यंत
रोगग्रस्त चित्त से उठे प्रश्न थे। अब तक जो प्रश्न थे, वे
अर्जुन के जस्टीफिकेशन के लिए थे। वह जो चाहता था, उसके ही
समर्थन के लिए थे। अब तक जो प्रश्न थे, उनमें अर्जुन ने चाहा
था कि कृष्ण, वह जैसा है, वैसे ही
अर्जुन के लिए कोई कंसोलेशन, कोई सांत्वना बन जाएं।
अब यह पहला प्रश्न है, जिससे अर्जुन उस मोह
को छोड़ता है कि मैं जैसा हूं, वैसे के लिए सांत्वना हो। यह
पहला प्रश्न है जिससे वह पूछता है कि चलो, अब मैं उसको ही
जानूं, जैसे आदमी के लिए तुम कहते हो, जैसे
आदमी को तुम चाहते हो। जिस मनुष्य के आस-पास तुम्हारे इशारे हैं, अब मैं उसको ही जानने के लिए आतुर हूं। छोडूं उसे, जो
अब तक मैंने पकड़ रखा था।
इस प्रश्न से अर्जुन की वास्तविक जिज्ञासा शुरू होती है। अब तक अर्जुन
जिज्ञासा नहीं कर रहा था। अब तक अर्जुन कृष्ण को ऐसी जगह नहीं रख रहा था, जहां से उनसे उसे कुछ सीखना, जानना है। अब तक अर्जुन
कृष्ण का उपयोग एक जस्टीफिकेशन, एक रेशनलाइजेशन, एक युक्तियुक्त हो सके उसका अपना ही खयाल, उसके लिए
कर रहा था।
इसे समझ लेना उचित है, तो आगे-आगे समझ और
स्पष्ट हो सकेगी।
हम अक्सर जब प्रश्न पूछते हैं, तो जरूरी नहीं कि वह
प्रश्न जिज्ञासा से आता हो। सौ में निन्यानबे मौके पर प्रश्न जिज्ञासा से नहीं
आता। सौ में निन्यानबे मौके पर प्रश्न सिर्फ किसी कनफर्मेशन के लिए, किसी दूसरे के प्रमाण को अपने साथ जोड़ लेने के लिए आता है।
बुद्ध एक दिन एक गांव में प्रविष्ट हुए। एक आदमी ने पूछा, ईश्वर है? बुद्ध ने कहा, नहीं,
कहीं नहीं है, कभी नहीं था, कभी नहीं होगा। स्वभावतः, वह आदमी कंप गया। कंप गया।
उसने कहा, क्या कहते हैं आप? ईश्वर
नहीं है? बुद्ध ने कहा, बिलकुल नहीं
है। सब जगह खोज डाला; मैं कहता हूं, नहीं
है।
फिर दोपहर एक आदमी उस गांव में आया और उसने पूछा कि जहां तक मैं सोचता
हूं, ईश्वर नहीं है। आपका क्या खयाल है? बुद्ध ने कहा, ईश्वर नहीं है? ईश्वर
ही है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उस आदमी ने कहा, क्या
कहते हैं! मैं तो यह सोचकर आया कि बुद्ध नास्तिक हैं।
सांझ को एक और आदमी आया और उस आदमी ने बुद्ध से कहा कि मुझे कुछ भी
पता नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। आप क्या कहते हैं? बुद्ध ने कहा,
मैं भी कुछ न कहूंगा। मैं भी चुप रहूंगा। उसने कहा कि नहीं-नहीं,
कुछ तो कहें! बुद्ध ने कहा कि मैं कुछ न कहूंगा।
इन तीन को तो छोड़ दें, कठिनाई में पड़ गया
बुद्ध का भिक्षु आनंद। वह तीनों समय साथ था, सुबह भी,
दोपहर भी, सांझ भी। उसका कष्ट हम समझ सकते
हैं। सोचा न था कभी कि बुद्ध और ऐसे इनकंसिस्टेंट, इतने
असंगत कि सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ
कुछ। लेकिन कंसिस्टेंट सिर्फ बुद्धुओं के सिवाय और कोई भी नहीं हो सकते। सिर्फ
बुद्धिहीन संगत हो सकते हैं। बुद्धिमान के उत्तर असंगत होंगे ही। क्योंकि हर उत्तर
किसी को दिया गया है; कोई उत्तर सभी को नहीं दिया गया है।
आनंद ने बुद्ध से कहा कि मुझे परेशानी में डाल दिया। रात सोते समय
मुझे नींद न आएगी, पहले मेरा उत्तर दो! सही क्या है? इन तीनों में कौन-सी बात ठीक है? या कि चौथी बात ठीक
है?
बुद्ध ने कहा, तुझे क्या मतलब! जिनसे मैंने बात की थी, उनसे मतलब पूरा हो गया। तेरा न सवाल था, न तेरे लिए
जवाब है। तूने पूछा नहीं था, तूने सुना क्यों? उसने कहा, और मजा करते हैं आप! मेरे पास कान हैं,
मैं बहरा नहीं हूं। मैं पास ही मौजूद था। सुनाई मुझे पड़ गया। तो
बुद्ध ने कहा, जो दूसरे के लिए कहा गया हो, उसे सुनना उचित नहीं है। तुझे क्या जरूरत थी? पर
उसने कहा, जरूरत थी या नहीं, मुझे
सुनाई पड़ गया और मैं बेचैन हूं। तीन उत्तर एक दिन में! आप कहना क्या चाहते हैं?
बुद्ध ने कहा, मैंने तीन उत्तर नहीं दिए। मैंने तो उत्तर एक ही दिया
है कि मैं तुम्हें कन्फर्म न करूंगा। मैं तुम्हारी हां में हां न भरूंगा। मैंने तो
उत्तर एक ही दिया है दिनभर। सुबह जो आदमी आया था, वह चाहता
था कि मैं कह दूं कि हां, ईश्वर है, ताकि
जिस ईश्वर को वह मानता है, उसको मेरा भी सहारा मिल जाए। ताकि
वह आश्वस्त हो जाए कि चलो, मैं ठीक हूं, बुद्ध भी यही कहते हैं। वह सिर्फ मेरा उपयोग करना चाहता था। वह मुझसे
सीखने नहीं आया था। वह मुझसे जानने नहीं आया था। वह जानता ही था, वह सीखा ही हुआ था। वह सिर्फ मेरा और साथ चाहता था, वह
सिर्फ एक सर्टिफिकेट और चाहता था, एक प्रमाणपत्र और चाहता था
कि जो मैं कहता हूं, वही बुद्ध भी कहते हैं! मैं ठीक हूं,
क्योंकि बुद्ध भी यही कहते हैं! वह सिर्फ अपने अहंकार के लिए एक
युक्ति और खोज रहा था। वह बुद्ध का भी अपने अहंकार के लिए शोषण कर रहा था।
दोपहर जो आदमी आया था, वह नास्तिक था। वह भी
आश्वस्त था कि उसे पक्का पता है। उसकी कोई जिज्ञासा न थी। जिन्हें पक्का पता है,
उनकी कोई जिज्ञासा नहीं होती। जिन्हें पक्का ही पता है, उन्हें जिज्ञासा कैसे हो सकती है? और मजा यह है कि
जिन्हें पक्का पता है, वे भी जिज्ञासा करते हैं। तब उनका
पक्का पता बहुत कच्चे पते पर खड़ा है। पर वह कच्चा पता बहुत नीचे है। पक्का ऊपर है,
कच्चा नीचे है। इसलिए वह कच्चा उनको धक्के देता रहता है कि और पक्का
कर लो, और पक्का कर लो। पक्का नहीं है, पता कुछ भी नहीं है, लेकिन भ्रम है कि पता है।
अर्जुन अभी ऐसे बोलता रहा, इस प्रश्न के पहले तक,
जैसे उसे पता है कि क्या ठीक है, क्या गलत है!
चाहता था इतना कि कृष्ण और हामी भर दें, गवाह बन जाएं,
तो कल वह जगत को कह सके कि मैं ही नहीं भागा था, कृष्ण ने भी कहा था। मैंने ही युद्ध नहीं छोड़ा था, कृष्ण
से पूछो! रिस्पांसिबिलिटी बांटना चाहता था, दायित्व बांटना
चाहता था।
ध्यान रहे, जो दायित्व बांटना चाहता है, उसके
भीतर कंपन है। पक्का उसको भी नहीं है, इसीलिए तो दूसरे का
सहारा चाहता है। लेकिन यह बताना भी नहीं चाहता कि मुझे पता नहीं है। यह अहंकार भी
नहीं छोड़ना चाहता कि मुझे पता नहीं है।
अर्जुन पूरे समय ऐसे बोल रहा है कि जैसे उसे भलीभांति पता है। धर्म
क्या है, अधर्म क्या है! श्रेयस क्या है, अश्रेयस क्या है! जगत का किससे लाभ होगा, किससे नहीं
होगा! मरेगा कोई, नहीं मरेगा! सब उसे पता है। पता बिलकुल
नहीं है; लेकिन अहंकार कहता है, पता
है। इसी अहंकार में वह एक टेक कृष्ण की भी लगवा लेना चाहता था। तुम भी बन जाओ उस
लंगड़े की बैसाखी, यही वह चाहता था।
कृष्ण जैसे लोग किसी की बैसाखी नहीं बनते। क्योंकि किसी लंगड़े की
बैसाखी बनना, उसको लंगड़ा बनाए रखने के लिए व्यवस्था है। कृष्ण जैसे
लोग तो सब बैसाखियां छीन लेते हैं। वे लंगड़े को पैर देना चाहते हैं, बैसाखी नहीं देना चाहते। इसलिए कृष्ण ने अभी इस बीच उसकी सब बैसाखियां छीन
लीं, जो उसके पास थीं, वे भी।
अब वह पहली दफा, पहली बार कृष्ण से जिज्ञासा कर
रहा है, जिसमें अपने लिए समर्थन नहीं मांग रहा है। अब वह
उन्हीं से पूछ रहा है कि समाधिस्थ कौन है कृष्ण? किसे हम
कहते हैं कि उसकी प्रज्ञा ठहर गई? और जब किसी की प्रज्ञा ठहर
जाती है, तो उसका आचरण क्या है? और जब
किसी के अंतस में ज्योति ठहर जाती है, तो उसके बाहर के आचरण
पर क्या परिणाम होते हैं? मुझे उस संबंध में बताएं। अब वह
पहली बार हंबल है, पहली बार विनीत है।
और जहां विनय है, वहीं जिज्ञासा है। और जहां विनय
है, वहां ज्ञान का द्वार खुलता है। जहां अपने अज्ञान का बोध
है, वहीं से मनुष्य ज्ञान की तरफ यात्रा शुरू करता है। इस
वचन में कृष्ण ज्ञानी और अर्जुन अज्ञानी, ऐसी अर्जुन की
प्रतीति पहली बार स्पष्ट है। इसके पहले अर्जुन भी ज्ञानी है। कृष्ण भी होंगे,
नंबर दो के। नंबर एक वह खुद था अब तक। बड़ा कठिन है, दूसरे आदमी को नंबर एक रखना बड़ा कठिन है।
मैंने सुना है, गांधी गोलमेज-कांफ्रेंस के लिए गए लंदन। तो उनका एक
भक्त बर्नार्ड शा को मिलने गया। और बर्नार्ड शा को कहा उस भक्त ने कि गांधी जी को
आप महात्मा मानते हैं या नहीं?
भक्तों को बड़ी चिंता होती है कि उनके महात्मा को कोई दूसरा महात्मा
मानता है कि नहीं! खुद ही संदेह होता है भीतर, इसलिए दूसरे से भी
पक्की गारंटी करवाना चाहते हैं। अब बर्नार्ड शा से पूछने जाने की क्या जरूरत है
भक्त को? इसको खुद ही शक रहा होगा। सोचा, चलो, बर्नार्ड शा से पूछ लें। और सोचा होगा यह भी कि
शिष्टाचारवश भी कम से कम बर्नार्ड शा कुछ ऐसा तो कह नहीं सकता कि नहीं हैं।
लेकिन बर्नार्ड शा जैसे लोग शिष्टाचार नहीं पालते, सत्याचार पालते हैं। और सत्याचार बड़ी और बात है। और शिष्टाचार तो सब
दिखावा है। बर्नार्ड शा ने कहा, महात्मा हैं तुम्हारे गांधी,
बिलकुल हैं, लेकिन नंबर दो के हैं। भक्त ने
कहा, नंबर दो के? नंबर एक का महात्मा
कौन है? बर्नार्ड शा ने कहा, मैं!
बर्नार्ड शा ने कहा, मैं झूठ न बोल सकूंगा। मैं अपने से ऊपर
किसी को रख ही नहीं सकता हूं। ऐसी मेरी स्पष्ट प्रतीति है।
भक्त तो बहुत घबड़ा गया कि कैसा अहंकारी आदमी है! लेकिन बर्नार्ड शा
बड़ा ईमानदार आदमी है। नंबर एक कोई भी अपने को रखता है। वह जो कहता है, चरणों की धूल हूं, वह भी नंबर एक ही रखता है अपने
को। यह चरणों की धूल वगैरह सब शिष्टाचार है।
बर्नार्ड शा ने कहा, सचाई यह है कि ज्यादा से ज्यादा
नंबर दो रख सकता हूं तुम्हारे महात्मा को। नंबर एक तो तय ही है। उसकी कोई बात ही
मत करो। उसमें कोई शक-शुबहा नहीं है मुझे। मैं नंबर एक हूं।
व्यंग्य कर रहा था गहरा पूरी मनुष्य जाति पर। और कभी-कभी ऐसा होता है
कि बहुत बुद्धिमान जो नहीं कह पाते, वह व्यंग्य करने वाले
कह जाते हैं।
अरबी में एक कहावत है कि परमात्मा जब भी किसी आदमी को बनाता है, तो दुनिया में धक्का देने के पहले उसके कान में एक मजाक कर देता है। उससे
कह देता है, तुझसे अच्छा आदमी कभी भी नहीं बनाया। बस उस मजाक
में सभी आदमी जीते हैं। जिंदगीभर कान में वह गूंजती रहती है परमात्मा की बात कि
मुझसे अच्छा कोई भी नहीं! मगर वह दिल में ही रखनी पड़ती है, क्योंकि
बाकी को भी यही कह दिया है उसने। उसको अगर जोर से कहिए, तो
झगड़े के सिवाय कुछ हो नहीं सकता। इसलिए मन में अपने-अपने हर आदमी समझता है। दूसरे
से शिष्टाचार की बातें करता है, मन में सत्य को जानता है,
कि सत्य मुझे पता है।
अभी जो भी प्रश्न पूछे जा रहे थे कृष्ण से, कृष्ण भी समझते हैं कि उनमें अर्जुन अभी तक नंबर एक है। इस पूरे बीच उसके
नंबर एक को गिराने की उन्होंने सब तरफ से कोशिश की है। और उसको चाहा है कि वह समझे
कि स्थिति क्या है! व्यर्थ ही अपने को नंबर एक न माने। क्योंकि नंबर एक को केवल
वही उपलब्ध होता है, जिसको अपने नंबर एक होने का कोई पता
नहीं रह जाता। वह हो जाता है। जिसको पता रहता है, वह कभी नहीं
हो पाता। पहली दफे अर्जुन विनम्र हुआ है। अब उसकी हंबल इंक्वायरी शुरू होती है। अब
वह पूछता है कि बताओ कृष्ण! और इस पूछने में बड़ी विनम्रता है।
प्रश्न: भगवान श्री, जैसा कि आपने बताया, स्थितप्रज्ञता एक आंतरिक घटना है। और स्थितप्रज्ञ पुरुष जो जीवन जीता है,
वह कोई पैटर्न में तो जीता नहीं है, कोई
निश्चित पैटर्न बनाकर नहीं जीता है। जैसे कि बुद्ध के तीनों उत्तर अलग रहे। तो
बाहर से भी हम कैसे निश्चित कर पाएं कि वह स्थितप्रज्ञ है?
ठीक पूछते हैं। जिस व्यक्ति के भीतर जीवन में सत्य की किरणें फैल जाती
हैं, सत्य का सूर्य जगता है, और
जिसकी आंतरिक चेतना जागृति को, पूर्ण जागृति को उपलब्ध हो
जाती है, उसका जीवन स्पांटेनियस हो जाता है, सहज हो जाता है, सहज-स्फूर्त हो जाता है। उसके जीवन
में किसी पैटर्न को, किसी ढांचे को खोजना मुश्किल है। उसके
जीवन में कोई बंधी-बंधाई रेखाएं नहीं होतीं। उस व्यक्ति का जीवन रेल की पटरियों पर
दौड़ता हुआ जीवन नहीं होता; गंगा की तरह भागता हुआ, स्वतंत्रता से भरा जीवन होता है। वहां कोई रेल की पटरियां नहीं होतीं बंधी
हुई, कि जिन पर ही चलता है वैसा व्यक्ति।
लेकिन फिर भी कुछ बातें कही जा सकती हैं। क्योंकि उसके नो-पैटर्न में
भी एक बहुत गहरा पैटर्न होता है। उसके न-ढांचे में भी, उसके ढांचे के अभाव में भी, एक गहरी आंतरिक व्यवस्था
होती है, एक इनर डिसिप्लिन होती है। ऊपर तो कोई ढांचा नहीं
होता।
अब जैसे इतना तो कहा ही जा सकता है कि उसका जीवन सहज-स्फूर्त होता है, स्पांटेनियस होता है। यह भी सूचना हो गई। यह भी सूचना हो गई। बुद्ध सुबह
कुछ कहते हैं, दोपहर कुछ कहते हैं, सांझ
कुछ कहते हैं। पैटर्न नहीं है, फिर भी पैटर्न है। ढांचा नहीं
है। सुबह जो कहा था, वही दोपहर नहीं दोहराया।
बुद्ध जैसे व्यक्ति मरकर नहीं जीते हैं, जीकर ही जीते हैं।
सुबह जो कहा था, उसको सिर्फ वही दोहराएगा, जो दोपहर तक मरा हुआ है। जो दोपहर तक जीया है, वह
फिर से उत्तर देगा, फिर रिस्पांड करेगा। उसका उत्तर सदा नया
होगा। नए का मतलब यह है कि वह पुराने उत्तर को दोहराएगा नहीं। आप पूछेंगे, फिर उत्तर उसमें प्रतिध्वनित होगा। वह जो भी हो!
लेकिन इन तीन अलग-अलग घटनाओं में, इन तीन असंगतियों में,
इस इनकंसिस्टेंसी में भी एक भीतरी कंसिस्टेंसी है। सुबह भी बुद्ध
सहज उत्तर देते हैं, दोपहर भी, सांझ
भी। सुबह भी देख लेते हैं कि वह आदमी सिर्फ प्रमाण चाह रहा है, दोपहर भी देख लेते हैं कि प्रमाण चाह रहा है, सांझ
भी देख लेते हैं कि प्रमाण चाह रहा है। सुबह भी उसे डगमगा देते, दोपहर भी डगमगा देते, सांझ भी डगमगा देते।
बुद्ध के ऊपर कोई मृत ढांचा नहीं है, लेकिन एक जीवंत धारा
है। पर उस जीवंत-धारा के संबंध में कुछ इशारे किए जा सकते हैं। जैसे एक इशारा यही
किया जा सकता है कि स्थितप्रज्ञ का जीवन सहज-स्फूर्त, तत्क्षण-स्फूर्त,
स्पांटेनियस है। इसलिए दो स्थितप्रज्ञ के जीवनों को ऊपर से बिलकुल
अलग-अलग होते हुए भी, भीतर की एकता को जांचा जा सकता है,
पहचाना जा सकता है।
जैसा मैंने पीछे कहा, तो कई मित्रों ने मुझे पूछा कि
ऐसा कैसे हो सकता है! मैंने कहा कि महावीर और बुद्ध एक बार एक ही गांव में एक ही
धर्मशाला में ठहरे। अब एक ही धर्मशाला में दो स्थितप्रज्ञ--ऐसा कम होता है। एक ही
बार पृथ्वी पर दो स्थितप्रज्ञ मुश्किल से होते हैं। एक ही धर्मशाला में, एक ही गांव में--बहुत रेयर फिनामिनन, बड़ी अदभुत घटना
है। तो मुझसे मित्रों ने पूछा कि क्या इतने अहंकारी रहे होंगे कि मिले नहीं?
हमको ऐसा ही सूझता है एकदम से। क्योंकि हम जब नहीं मिलते किसी से, तो सिर्फ अहंकार के कारण नहीं मिलते। और हमारे पास कोई कारण नहीं होता।
क्यों मिलें हम? लेकिन हमको यह पता ही नहीं होता कि अहंकार न
बचा हो, तो मिलना कैसे हो सकता है। क्योंकि मिलने वाला भी
अहंकार है, न मिलने वाला भी अहंकार है। हमें खयाल में नहीं
आती वह बात।
मिले कौन? होना तो चाहिए न कोई--मिलने के लिए भी, न मिलने के लिए भी। बुद्ध हैं कहां! महावीर हैं कहां! किससे मिलना है?
कोई पराया बचा है, जिससे मिलना है? बुद्ध अगर बचे होते, तो चले जाते महावीर से मिलने,
या इनकार करते मिलने से।
यह बड़े मजे की बात है कि न मिले, न इनकार किया मिलने
से। वह हुआ ही नहीं, बस, इट डिडन्ट
हैपेन--बस, यह हुआ ही नहीं। इसका कोई उपाय ही नहीं है।
क्योंकि कौन मिले? किससे मिले? मिलने
के लिए भी अहंकार चाहिए। और फिर किसलिए मिले? कोई कारण
चाहिए।
हां, अगर अहंकार होता, तो शायद एक ही
धर्मशाला में ठहरने से भी इनकार कर देते। कहते कि वहां हम नहीं ठहरते। ठहर गए। अगर
कोई पकड़कर ले जाता, तो चले जाते। रुकते भी नहीं, रोकते भी नहीं कि नहीं जाते। कोई पकड़कर नहीं ले गया। किसी ने दोनों को
खींचा नहीं।
असल में दोनों के आस-पास अहंकारियों का इतना बड़ा जाल रहा होगा कि उसने
दीवार का काम किया होगा। दोनों के आस-पास अहंकारियों का इतना जाल रहा होगा कि उसने
सख्त प्राचीर का काम किया होगा। अगर कोशिश भी चली होगी, तो भक्तों ने न चलने दी होगी--मिलने की। ऐसा कैसे हो सकता है! अगर बुद्ध
के भक्तों ने महावीर के भक्तों से कहा होगा कि मिलाने महावीर को ले आओ, तो उन्होंने कहा होगा, हम ले आएं? तुम ले आओ अपने बुद्ध को, मिलाना हो तो। उन्होंने
कहा होगा, यह कैसे हो सकता है कि बुद्ध को हम लेकर आएं!
बुद्ध नहीं आ सकते। मगर यह बातचीत भक्तों में चली होगी। यह उनमें चली होगी,
जो चारों तरफ घेरकर खड़े हैं। वे सदा खड़े हैं।
इस दुनिया में बुद्ध, महावीर, कृष्ण
और मोहम्मद और ईसा के बीच कोई दीवार नहीं है; दीवार है,
भक्तों के कारण; वे जो घेरकर खड़े हैं। भयंकर
दीवार है। हां, बुद्ध अगर तोड़ना चाहते, तो दीवार को तोड़ सकते थे। लेकिन तोड़ने का भी कोई कारण नहीं है। महावीर अगर
चाहते कि मिलना है, तो मिल सकते थे। लेकिन महावीर और बुद्ध
चाह से नहीं जीते; एकदम डिजायरलेस, अचाह
से जीते हैं। मिलना हो जाता, तो हो जाता। नहीं हुआ, तो नहीं हुआ। राह पर चलते मिल जाते, तो मिल जाते।
नहीं मिले, तो नहीं मिले। मगर दोनों बिलकुल एक जैसे हैं।
दोनों बिलकुल एक जैसे हैं।
एक और मित्र ने इस संबंध में मुझे चिट्ठी लिखकर भेजी है कि आप कहते हैं
कि महावीर और बुद्ध जो कहते हैं, वह बिलकुल एक है। तो क्या बुद्ध
और महावीर को दिखाई नहीं पड़ा यह कि एक है?
बिलकुल दिखाई पड़ता था। बिलकुल दिखाई पड़ता था। तो उन्होंने पूछा है कि
अगर दिखाई पड़ता था, तो उन्होंने कह क्यों नहीं दिया कि एक है!
उन्होंने नहीं कहा, आप पर कृपा करके। क्योंकि अगर
बुद्ध और महावीर कह दें कि बिलकुल एक है, तो आप सिर्फ
कनफ्यूज्ड होंगे और कुछ भी नहीं हो सकता; आप सिर्फ विभ्रमित
होंगे, और कुछ भी नहीं हो सकता।
इसलिए महावीर कहे चले जाते हैं कि जो मैं कह रहा हूं, वही ठीक है। जो बुद्ध...बेकार है। यह जो मैं कह रहा हूं, यही ठीक है। आप इतने कमजोर चित्त हैं कि अगर महावीर इतने अतिशय से न बोलें,
तो आपके चित्त पर कोई परिणाम ही होने वाला नहीं है। क्योंकि आप इतने
कमजोर हैं कि अगर महावीर को आप देखें कि वह कहें, यह भी ठीक,
वह भी ठीक; यह भी ठीक, वह
भी ठीक, सभी ठीक, तो आप भाग खड़े होंगे।
आप तो खुद ही कमजोर हैं। आप तो चले ही जाएंगे कि जब सभी ठीक है, तो फिर ठीक है, हम भी ठीक हैं। आप उससे जो निष्कर्ष
निकालेंगे, वह यह कि फिर हम भी ठीक! फिर हम जाते हैं।
अगर महावीर को ज्ञानियों के बीच में बोलना पड़े, तो महावीर कहेंगे, सभी ठीक। अगर बुद्ध को ज्ञानियों
के बीच में बोलना पड़े, बुद्ध कहेंगे, सभी
ठीक। अगर ज्ञानियों के बीच में बोलना पड़े, तो बुद्ध बोलेंगे
ही नहीं, महावीर बोलेंगे ही नहीं। इतना भी नहीं कहेंगे कि
सभी ठीक। लेकिन बोलना पड़ता है अज्ञानियों के बीच में।
ये बुद्ध और महावीर की पीड़ा आपको पता नहीं है। बोलना पड़ता है उनके बीच
में, जिन्हें कुछ भी पता नहीं है। उनके लिए इस तरह के
एब्सोल्यूट स्टेटमेंट, इस तरह के निरपेक्ष वचन कि सभी ठीक,
सिर्फ व्यर्थ होंगे, अर्थहीन होंगे। उनके लिए
कहना पड़ता है, यही ठीक। और इतने जोर से कहना पड़ता है कि महावीर
के व्यक्तित्व का वजन और गरिमा और महिमा, उस यही ठीक के बीच
जुड़ जाए, तो शायद आप दो कदम उठाएं।
हां, महावीर भलीभांति जानते हैं कि जिस दिन आप पहुंचेंगे,
जान लेंगे, सभी ठीक। लेकिन वह उस दिन के लिए
छोड़ दिया जाता है। उसके लिए कोई अभी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
पहाड़ पर आप चल रहे हैं। मैं अपने रास्ते को कहता हूं, यही ठीक। आप कहते हैं, उस रास्ते के बाबत क्या खयाल
है, वह जो वहां से जा रहा है? मैं कहता
हूं, बिलकुल गलत! जब मैं कहता हूं, बिलकुल
गलत, तो मेरा मतलब यह नहीं होता कि वह बिलकुल गलत। मैं
भलीभांति जानता हूं, उससे भी लोग पहुंचे हैं। लेकिन हजार
रास्ते जा रहे हैं पहाड़ पर। और आप चल सकते हैं सिर्फ एक पर, हजार
पर नहीं। और अगर आपको हजार ही ठीक दिखाई पड़ जाएं, तो संभावना
यह नहीं है कि आप हजार पर चलें, संभावना यही है कि आप एक पर
भी न चलें। दो कदम एक पर चलें, फिर दो कदम दूसरे पर चलें,
फिर दो कदम तीसरे पर चलें। जैसा आपका चित्त है डांवाडोल, वह रास्ते बदलता रहे और आप पहाड़ के नीचे ही भटकते रहें।
हजार रास्ते भी पहुंच जाते हैं पहाड़ पर, लेकिन हजार रास्तों
से चलकर कोई भी नहीं पहुंचता। अनंत रास्ते पहुंचते हैं परमात्मा तक, लेकिन अनंत रास्तों से कोई भी नहीं पहुंचता। पहुंचने वाले सदा एक ही
रास्ते से पहुंचते हैं।
तो महावीर जिस रास्ते पर खड़े हैं, उचित है कि वे कहें,
इसी रास्ते से पहुंच जाओगे, आ जाओ। और जरूरी
है कि आपको इस रास्ते पर चलने के लिए भरोसा और निष्ठा आ सके, वे कहें कि बाकी कोई रास्ता नहीं पहुंचाता है।
महावीर को आपकी वजह से भी असत्य बोलने पड़ते हैं। और बुद्ध को भी आपकी
वजह से असत्य बोलने पड़ते हैं। मनुष्य के ऊपर जो अनुकंपा है ज्ञानियों की, उसकी वजह से उन्हें ढेर असत्य बोलने पड़ते हैं। लेकिन इस भरोसे में वे
असत्य बोले जाते हैं कि आप एक से भी चढ़कर जब शिखर पर पहुंच जाएंगे, तब आप खुद ही देख लेंगे कि सभी रास्ते यहीं ले आए हैं।
अब जैसे पूछा है कि क्या ढांचा होगा? ढांचा कोई नहीं होगा।
लेकिन जैसे यह बात: कृष्ण भी कहेंगे कि इस रास्ते से चलो, बुद्ध
भी कहेंगे कि इस रास्ते से चलो, महावीर भी कहेंगे कि इस
रास्ते से चलो, शंकर भी कहेंगे कि इस रास्ते से चलो। और अगर
झंझट बनी और शंकर से किसी ने पूछा, बुद्ध के रास्ते के बाबत
क्या खयाल है? तो वे कहेंगे, बिलकुल
गलत। और बुद्ध से अगर किसी ने पूछा कि महावीर के रास्ते के बाबत क्या खयाल है?
तो बुद्ध कहेंगे, बिलकुल गलत। और महावीर से
किसी ने पूछा कि बुद्ध के रास्ते के बाबत क्या खयाल है? तो
महावीर कहेंगे, भटकना हो तो बिलकुल ठीक। इस मामले में तो
बिलकुल एक ही बात होगी।
यह जो...ऊपर से ढांचे नहीं दिखाई पड़ेंगे, लेकिन अगर बहुत गहरे में खोज-बीन की, तो बहुत जीवंत
पैटर्न, लिविंग पैटर्न होंगे। पैटर्न भी डेड और लिविंग हो
सकते हैं।
एक चित्रकार एक चित्र बनाता है, वह डेड होता है।
लेकिन एक चित्र प्रकृति बनाती है, वह लिविंग होता है। एक
चित्रकार भी एक वृक्ष बनाता है, लेकिन वह मरा होता है। एक
वृक्ष प्रकृति भी बनाती है, लेकिन वह जीवंत होता है। वह
प्रतिपल बदल रहा है। कुछ पत्ते गिर रहे, कुछ आ रहे, कुछ जा रहे, कुछ फूट रहे, हवाएं
हिला रही हैं।
एक सूर्य सुबह उगता है, और एक वानगाग भी
सूर्योदय का चित्र बनाता है। लेकिन वानगाग के सूर्योदय का चित्र ठहरा हुआ है,
स्टैटिक, स्टैगनेंट है। सुबह का सूरज कभी नहीं
ठहरता है; उगता ही चला जाता है, कहीं
नहीं ठहरता। इतना उगता चला जाता है कि डूब जाता है, एक क्षण
नहीं ठहरता है।
जिंदगी में जो पैटर्न हैं, वे सब जीवित हैं। वे
ऐसे ही हैं जैसे किसी वृक्ष के नीचे खड़े हो जाएं। पत्तों से छनकर धूप की किरणें
आती हैं। वृक्ष में हवाएं दौड़ती हैं, नीचे छाया और धूप का एक
जाल बन जाता है। वह प्रतिपल कंपता रहता है, बदलता रहता
है--प्रतिपल।
स्थितप्रज्ञ की प्रज्ञा तो स्थिर होती है, लेकिन उसके जीवन का पैटर्न बिलकुल जीवंत होता है, वह
प्रतिपल बदलता रहता है।
कृष्ण से ज्यादा बदलता हुआ व्यक्ति खोजना मुश्किल है। नहीं तो हम सोच
ही नहीं सकते कि एक ही आदमी बांसुरी भी बजाए और एक ही आदमी सुदर्शन चक्र लेकर भी
खड़ा हो जाए। और एक ही आदमी गोपियों के साथ नाचे भी, और इतना कोमल,
और वही आदमी युद्ध के लिए इतना सख्त हो जाए। और वही आदमी नदी में
स्नान करती स्त्रियों के कपड़े लेकर वृक्ष पर चढ़ जाए, और वही
आदमी नग्न होती द्रौपदी के लिए वस्त्र बढ़ाता रहे, बढ़ा दे। यह
एक ही आदमी इतने बदलता पैटर्न!
जिन्होंने कृष्ण को गोपियों के वस्त्र उठाकर वृक्ष पर बैठते देखा होगा, क्या वे सोच सकते थे कभी कि किसी नग्न होती स्त्री के यह वस्त्र बढ़ाएगा?
यह आदमी! भूलकर ऐसा नहीं सोच सकते थे। कोई सोच सकता था कि यह आदमी,
जो मोर के पंख बांधकर और स्त्रियों के बीच नाचता है, यह आदमी कभी युद्ध के लिए जगत की सबसे मुखर वाणी बन जाएगा? कोई सोच भी नहीं सकता था। मोर के पंखों से और युद्धों का कोई संबंध है,
कोई संगति है?
लेकिन यह मृत आदमी नहीं है, मोर के पंख इसे
बांधते नहीं। यह मृत आदमी नहीं है, बांसुरी की धुन इसे
बांधती नहीं। यह मृत आदमी नहीं है, यह जीवित आदमी है।
और जीवित आदमी का मतलब ही है, रिस्पांसिव। जगत जो
भी स्थिति ला देगा, उसमें उत्तर देगा और उत्तर रेडीमेड नहीं
होंगे। स्थितप्रज्ञ के उत्तर कभी भी रेडीमेड नहीं हैं, तैयार
नहीं हैं। उन पर सैमसन की सील नहीं होती, वे रेडीमेड कपड़े
नहीं हैं। बने-बनाए नहीं हैं कि बस कोई भी पहन ले। वह प्रतिपल, प्रतिपल जीवन को दिए गए उत्तर से, प्रतिपल जीवन के
प्रति हुई संवेदना से, सब कुछ निकलता है। इसलिए एक अनुशासन
नहीं है ऊपर, लेकिन भीतर एक गहरा अनुशासन है।
और एक बात और। जिनके जीवन में ऊपर अनुशासन होता है, उनके जीवन में ऊपर अनुशासन इसलिए होता है कि उन्हें इनर डिसिप्लिन का
भरोसा नहीं है। उनके भीतर कोई डिसिप्लिन नहीं है। जिन्हें भीतर के अनुशासन का कोई
भरोसा नहीं है, वे ऊपर से अनुशासन बांधकर चलते हैं। लेकिन
जिनके भीतर के अनुशासन का जिन्हें भरोसा है, वे ऊपर से
बिलकुल स्वतंत्र होकर चलते हैं। कोई डर ही नहीं है। कोई डर ही नहीं है। वे तैयार
होकर नहीं जीते; वे जीते हैं, क्योंकि
वे तैयार हैं। जो भी स्थिति आएगी, उसमें उत्तर उनसे आएगा। उस
उत्तर के लिए पहले से तैयार होने की कोई भी जरूरत नहीं है।
श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।। ५५।।
उसके उपरांत श्री कृष्ण भगवान बोले: हे अर्जुन, जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता है,
उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ,
स्थिर प्रज्ञा वाला कहा जाता है।
स्वरूप से संतुष्ट--टु बी कंटेंट विद वनसेल्फ--इसे पहला स्थितप्रज्ञ
का लक्षण कृष्ण कहते हैं। हम कभी भी स्वयं से संतुष्ट नहीं हैं। अगर हमारा कोई भी
लक्षण कहा जा सके, तो वह है, स्वयं से असंतुष्ट।
हमारे जीवन की पूरी धारा ही स्वयं से असंतुष्ट होने की धारा है। अकेले में हमें
कोई छोड़ दे, तो अच्छा नहीं लगता, क्योंकि
अकेले में हम अपने ही साथ रह जाते हैं। हमें कोई दूसरा चाहिए, कंपनी चाहिए, साथ चाहिए। तभी हमें अच्छा लगता है,
जब कोई और हो।
और बड़े मजे की बात है कि दो आदमियों को साथ होकर अच्छा लगता है और इन
दोनों आदमियों को ही अकेले में बुरा लगता है। जो अपने साथ ही आनंदित नहीं है, वह दूसरे को आनंद दे पाएगा? और जो अपने को भी इस
योग्य नहीं मानता कि खुद को आनंद दे पाए, वह दूसरे को आनंद
कैसे दे पा सकता है? करीब-करीब हमारी हालत ऐसी है कि जैसे
भिखारी रास्ते पर मिल जाएं और एक-दूसरे के सामने भिक्षा-पात्र फैला दें। दोनों
भिखारी!
मैंने सुना है, एक गांव में दो ज्योतिषी रहते थे। सुबह दोनों निकलते
थे, तो एक-दूसरे को अपना हाथ दिखा देते थे कि आज कैसा धंधा
चलेगा!
हम सब स्वयं से बिलकुल राजी नहीं हैं। एक क्षण अकेलापन भारी हो जाता
है। जितना हम अपने से ऊब जाते हैं, उतना हम किसी से नहीं
ऊबते। रेडियो खोलो, अखबार उठाओ, मित्र
के पास जाओ, होटल में जाओ, सिनेमा में
जाओ, नाच देखो, मंदिर में जाओ--कहीं न
कहीं जाओ, अपने साथ मत रहो। अपने साथ बड़ा...।
कृष्ण पहला सूत्र देते हैं, स्वयं से संतुष्ट,
स्वयं से तृप्त। स्वभावतः, जो अपने से तृप्त
नहीं है, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ बहती रहेगी, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ कंपती रहेगी। असल में जहां हमारा संतोष है,
वहीं हमारी चेतना की ज्योति ढल जाती है। मिलता है वहां या नहीं,
यह दूसरी बात है। लेकिन जहां हमें संतोष दिखाई पड़ता है, हमारे प्राणों की धारा उसी तरफ बहने लगती है।
तो हम चौबीस घंटे बहते रहते हैं यहां-वहां। एक जगह को छोड़कर--अपने में
होने को छोड़कर--हमारा होना सब तरफ डांवाडोल होता है। फिर जिसके पास भी बैठ जाते
हैं, थोड़ी देर में वह भी उबा देता है। मित्र से भी ऊब जाते
हैं, प्रेमी से भी ऊब जाते हैं, क्लब
से भी ऊब जाते हैं, खेल से भी ऊब जाते हैं, ताश से भी ऊब जाते हैं। तो फिर विषय बदलने पड़ते हैं। फिर दौड़ शुरू होती
है--जल्दी बदलो--नए सेंसेशन की, नई संवेदना की। सब पुराना
पड़ता जाता है--नया लाओ, नया लाओ, नया
लाओ। उसमें हम दौड़ते चले जाते हैं।
लेकिन कभी यह नहीं देखते कि जब मैं अपने से ही असंतुष्ट हूं, तो मैं कहां संतुष्ट हो सकूंगा? जब मैं भीतर ही
बीमार हूं, तो मैं किसी के भी साथ होकर कैसे स्वस्थ हो
सकूंगा? जब दुख मेरे भीतर ही है, तब
किसी और का सुख मुझे कैसे भर पाएगा?
हां, थोड़ी देर के लिए धोखा हो सकता है। लोग मरघट ले जाते
हैं किसी को, कंधे पर रखकर उसकी अर्थी को, तो रास्ते में कंधा बदल लेते हैं। एक कंधा दुखने लगता है, तो दूसरे कंधे पर अर्थी कर लेते हैं। लेकिन अर्थी का वजन कम होता है?
नहीं, दुखा हुआ कंधा थोड़ी राहत पा लेता है। नए
कंधे पर थोड़ी देर भ्रम होता है कि ठीक है। फिर दूसरा कंधा दुखने लगता है। सिर्फ
वजन के ट्रांसफर से कुछ अंतर पड़ता है? नहीं कोई अंतर पड़ता।
अपने पर वजन है, तो कंधे बदलने से कुछ न होगा। और भीतर दुख
है, तो साथी बदलने से कुछ न होगा। और भीतर दुख है, तो जगह बदलने से कुछ न होगा।
दूसरे में संतोष खोजना ही प्रज्ञा की अस्थिरता है, स्वयं में संतोष पा लेना ही प्रज्ञा की स्थिरता है। लेकिन स्वयं में संतोष
वही पा सकता है, जो--दूसरे में संतोष नहीं मिलता है--इस सत्य
को अनुभव करता है। जब तक यह भ्रम बना रहता है कि मिल जाएगा--इसमें नहीं मिलता तो
दूसरे में मिल जाएगा, दूसरे में नहीं मिलता तो तीसरे में मिल
जाएगा--जब तक यह भ्रम बना रहेगा, तब तक जन्मों-जन्मों तक
प्रज्ञा अस्थिर रहेगी। जब तक यह इलूजन, जब तक यह भ्रम पीछा
करेगा कि कोई बात नहीं, इस स्त्री में सुख नहीं मिला,
दूसरी में मिल सकता है; इस पुरुष में सुख नहीं
मिला, दूसरे में मिल सकता है; इस मकान
में सुख नहीं मिला, दूसरे में मिल सकता है; इस कार में सुख नहीं मिला, दूसरी कार में मिल सकता
है--जब तक यह भ्रम बना रहेगा कि बदलाहट में मिल सकता है, तब
तक प्रज्ञा डोलती ही रहेगी, कंपित होती ही रहेगी। यह विषयों
की आकांक्षा, यह भ्रामक दूर के ढोल का सुहावनापन, यह चित्त को कंपाता ही रहेगा।
लेकिन आदमी बहुत अदभुत है। अगर उसका सबसे अदभुत कोई रहस्य है, तो वह यही है कि वह अपने को धोखा देने में अनंत रूप से समर्थ है। इनफिनिट
उसकी सामर्थ्य है धोखा देने की। एक चीज से धोखा टूट जाए, टूट
ही नहीं पाता कि उसके पहले वह अपने धोखे का दूसरा इंतजाम कर लेता है।
बर्नार्ड शा ने कहीं कहा है, कि कैसा मजेदार है
मन! एक जगह भ्रम के तंबू उखड़ नहीं पाते कि मन तत्काल दूसरी जगह खूंटियां गाड़कर
इंतजाम शुरू कर देता है। सच तो यह है कि मन इतना होशियार है कि इसके पहले कि एक
जगह से तंबू उखड़ें, वह दूसरी जगह खूंटियां गाड़ चुका होता है।
और हम सब इसको समझ लेते हैं। अगर पत्नी देखती है कि पति थोड़ी कम
उत्सुकता ले रहा है, तो वह किसी बहुत गहरे इंसटिंक्टिव आधार पर समझ जाती
है कि खूंटियां किसी और स्त्री पर गड़नी शुरू हो गई होंगी। तत्काल! तत्काल कोई उसे
गहरे में बता जाता है, कहीं खूंटियां और गड़नी शुरू हो गई
हैं। और सौ में निन्यानबे मौके पर बात सही होती है। सही इसलिए होती है कि सौ में
निन्यानबे मौके पर आदमी स्थितप्रज्ञ नहीं हो जाता। और मन बिना खूंटियां गाड़े जी
नहीं सकता।
हां, एक मौके पर गलत होती है। कभी किसी बुद्ध के मौके पर
गलत हो जाती है। यशोधरा ने भी सोची होगी पहली बात तो यही कि कुछ गड़बड़ है। जरूर कोई
दूसरी स्त्री बीच में आ गई, अन्यथा भाग कैसे सकते थे!
इसलिए बुद्ध जब बारह साल बाद घर लौटे, तो यशोधरा बहुत नाराज
थी, बड़ी क्रुद्ध थी। क्योंकि वह यह सोच ही नहीं सकती कि मन
ने कहीं खूंटियां ही न गाड़ी हों, खूंटियां ही उखाड़ दी हों सब
तरफ से। और फिर भी बड़े मजे की बात है कि एक स्त्री को इसमें ही ज्यादा सुख मिलेगा
कि कोई किसी दूसरी स्त्री पर खूंटियां गाड़ ले। इसमें ही ज्यादा पीड़ा होगी कि अब
खूंटियां गाड़ी ही नहीं हैं। क्योंकि यह बिलकुल समझ के बाहर मामला हो जाता है।
कृष्ण से अर्जुन ने जो बात पूछी है, उसके लिए पहला उत्तर
बहुत ही गहरा है, मौलिक है, आधारभूत
है। जब तक चित्त सोचता है कि कहीं और सुख मिल सकता है, तब तक
चित्त स्वयं से असंतुष्ट है। जब तक चित्त स्वयं से असंतुष्ट है, तब तक दूसरे की आकांक्षा, दूसरे की अभीप्सा उसकी
चेतना को कंपित करती रहेगी, दूसरा उसे खींचता रहेगा। और उसके
दीए की लौ दूसरे की तरफ दौड़ती रहेगी, तो थिर नहीं हो सकती।
जैसे ही--दूसरे में सुख नहीं है--इसका बोध स्पष्ट हो जाता है, जैसे ही दूसरे पर खूंटियां गाड़ना मन बंद कर देता है, वैसे ही सहज चेतना अपने में थिर हो जाती है। स्थिरधी की घटना घट जाती है।
बायरन ने शादी की। मुश्किल से शादी की। कोई साठ स्त्रियों से उसके
संबंध थे। हमें लगेगा, कैसा पुरुष था! लेकिन अगर हमें लगता है, तो हम धोखा दे रहे हैं। असल में ऐसा पुरुष खोजना कठिन है जो साठ स्त्रियों
से भी तृप्त हो जाए। यह दूसरी बात है कि समाज का भय है, हिम्मत
नहीं जुटती, व्यवस्था है, कानून है,
और फिर उपद्रव हैं बहुत।
लेकिन बायरन को एक स्त्री ने मजबूर कर दिया शादी के लिए। उसने कहा, पहले शादी, फिर कुछ और। पहले शादी, अन्यथा हाथ भी मत छूना। शादी की। चर्च में घंटियां बज रही हैं, मोमबत्तियां जली हैं, मित्र विदा हो रहे हैं,
शादी करके बायरन उतर रहा है सीढ़ियों पर अपनी नव-वधू का हाथ हाथ में
लिए हुए। और तभी सड़क से एक स्त्री जाती हुई दिखाई पड़ती है। और उसका हाथ छूट गया।
और उसकी पत्नी ने चौंककर देखा, और बायरन वहां नहीं है। शरीर
से ही है, मन उसका उस स्त्री के पीछे चला गया है।
उसकी पत्नी ने कहा, क्या कर रहे हैं आप? बायरन ने कहा, अरे, तुम हो?
लेकिन जैसे ही तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में आया, तुम मेरे लिए अचानक व्यर्थ हो गई हो। मेरा मन एक क्षण को उस स्त्री के
पीछे चला गया। और मैं कामना करने लगा कि काश! वह स्त्री मिल जाए।
ईमानदार आदमी है। नहीं तो पहले ही दिन विवाहित स्त्री से इतनी हिम्मत
बहुत मुश्किल है कहने की। साठ साल के बाद भी मुश्किल पड़ती है कहना। पहला दिन, पहला दिन भी नहीं, अभी सीढ़ियां ही उतर रहा है चर्च
की। वह स्त्री तो चौंककर खड़ी हो गई। लेकिन बायरन ने कहा कि जो सच है वही मैंने
तुमसे कहा है।
ऐसा ही है सच हम सब के बाबत। कभी आपने सोचा है कि जिस कार के लिए आप
दीवाने थे और कई रात नहीं सोए थे, वह पोर्च में आकर खड़ी हो गई है।
फिर! फिर कल दूसरी कोई कार सड़क पर चमकती हुई निकलती है और उसकी चमक आंखों में समा
जाती है। फिर वही पीड़ा है। जिस मकान के लिए आप दीवाने थे कि पता नहीं उसके भीतर
पहुंचकर कौन-से स्वर्ग में प्रवेश हो जाएगा। उसमें प्रवेश हो गया है। और प्रवेश
होते ही मकान भूल गया और कोई स्वर्ग नहीं मिला। और फिर स्वर्ग कहीं और दिखाई पड़ने
लगा। मृग-मरीचिका है। सदा सुख कहीं और है और चित्त दौड़ता रहता है।
कृष्ण कहते हैं, जब सुख यहीं है भीतर, अपने में, तभी प्रज्ञा की स्थिरता उपलब्ध होती है।
अभी इतना ही। फिर सांझ।
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