गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-024
अध्याय ३- छठवां प्रवचन
वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।। २२।।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। २३।।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।। २४।।
इसलिए
हे अर्जुन, यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किंचित भी
प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म
में ही बर्तता हूं। क्योंकि यदि मैं सावधान हुआ कर्म में न बर्तूं, तो हे अर्जुन, सब प्रकार से मनुष्य मेरे बर्ताव के
अनुसार बर्तने लग जाएं। तथा यदि मैं कर्म न करूं, तो ये सब
लोग भ्रष्ट हो जाएं और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा का हनन
करूं अर्थात इनको मारने वाला बनूं।
सनाई
के पर्वत पर मोजेज को परमात्मा का दर्शन हुआ और उस दर्शन में परमात्मा के दस आदेश, टेन
कमांडमेंट्स भी मिले। फिर मोजेज सनाई के पर्वत से नीचे उतरे। लेकिन जब वे पर्वत पर
गए थे, तो मोजेज थे; और जब पर्वत से
नीचे उतरे, तो परमात्मा हो गए। पर्वत से नीचे आकर उन्होंने
अपने लोगों से जो वचन कहा, यहूदी इतिहास में वह सदा ही
विचारणीय बना रहा। मोजेज ने नीचे उतरकर लोगों से कहा कि नाउ आई गिव यू दि ला,
मैं तुम्हें धर्म देता हूं। परमात्मा और मूसा एक हो गए, मोजेज एक हो गए। जिसने भी परमात्मा को जाना, वह परमात्मा
से एक हो जाता है। मोजेज को कहना चाहिए था, परमात्मा के मुझे
दर्शन हुए; उन्होंने मुझे धर्म का नियम दिया, वह मैं परमात्मा की तरफ से तुम्हें देता हूं। लेकिन मोजेज ने कहा, मैं तुम्हें धर्म देता हूं।
एक
हसीद फकीर से उसके शिष्य पूछ रहे थे कि मोजेज का ऐसा कहना अनुचित नहीं है क्या? क्या यह
अनधिकारपूर्ण नहीं है? क्या मोजेज का इस तरह का वक्तव्य
अहंकार से भरा हुआ नहीं है?
तो
उस हसीद फकीर ने एक छोटी-सी कहानी कही, वह मैं आपसे कहना चाहूं।
उस
हसीद फकीर ने कहा,
एक बहुत बड़ा व्यापारी, एक बहुत बड़ा व्यवसायी
तीर्थयात्रा को जाना चाहता था। दूर था उसका तीर्थ, संभावना
वर्षों के लग जाने की थी। अकेला था घर में। उसके बड़े व्यवसाय को संभालने वाला कोई
भी न था। उसने एक आदमी को नौकर की तरह नियुक्त किया। नौकर के हाथ में सारा कारोबार
सौंप दिया और खुद दुकान के पीछे के कमरे में बैठने लगा।
एक
वर्ष बीत गया,
लेकिन उसे ऐसा नहीं लगा कि अभी तीर्थयात्रा पर जाने का समय परिपक्व
हुआ है। अनेक बार वह पीछे के कमरे में से बैठा हुआ नौकर की बातचीत ग्राहकों से
सुनता। नौकर अक्सर कहता, दि मास्टर विल नाट गिव यू दिस थिंग
एट दिस प्राइस, मालिक इस कीमत पर चीज नहीं देगा। दूसरा वर्ष
शुरू हो गया। वह पीछे के कमरे में ही रहता और फिर नौकर को सुनता रहता। लेकिन दूसरे
वर्ष उसे थोड़ी आशा बंधी। नौकर ने ग्राहकों से कहना शुरू कर दिया, वी विल नाट गिव यू दिस थिंग एट दिस प्राइस, हम इस
कीमत पर चीज नहीं दे सकते। लेकिन तब भी मालिक ने सोचा कि अभी ठीक समय नहीं आया कि
मैं यात्रा पर निकल जाऊं। तीसरा वर्ष लग गया। और एक दिन मालिक को लगा कि ठीक समय आ
गया, क्योंकि नौकर ने ग्राहकों से कहा, आई विल नाट गिव यू दिस थिंग एट दिस प्राइस, मैं
तुम्हें इस कीमत पर चीज नहीं दूंगा। मालिक ने अपनी पत्नी से कहा कि अब बेफिक्र
रहो। अब मैं यात्रा पर जा सकता हूं। अब नौकर में और मुझमें कोई फासला नहीं रहा। अब
हमारे बीच की दीवाल टूट गई है। अब नौकर मेरी वाणी बोल रहा है। अब मैं ही बोल रहा
हूं। अब बेफिक्र हुआ जा सकता है।
उस
हसीद फकीर ने यह छोटी-सी कहानी कही थी, यह आपसे मैं कहता हूं, इस सूत्र को समझाने के पहले।
कृष्ण
जब ऐसा कहते हैं कि मुझे अब कुछ भी ऐसा नहीं है जो पाने योग्य हो, क्योंकि
मैंने सब पा लिया; अब कुछ भी ऐसा नहीं है जो मेरे लिए करने
योग्य हो, क्योंकि सब किया जा चुका; जो
पाना था, वह पा लिया गया; जो करना था,
वह कर लिया गया; अब कर्म मेरे लिए कर्तव्य
नहीं है; तो यहां कृष्ण नहीं बोल रहे हैं, परमात्मा ही बोल रहा है। और इतने साहस से सिर्फ वही बोल सकता है, जो परमात्मा के साथ बिलकुल एक हो गया है।
राम
इतने साहस से नहीं बोलते। इसलिए राम को हम पूर्ण अवतार नहीं कह सके। कृष्ण ही इस
साहस से बोलते हैं। और इतना बड़ा साहस सिर्फ निरहंकारी को ही उपलब्ध होता है।
अहंकारी तो सदा भयभीत रहता है। सच तो यह है कि भय को हम अपने अहंकार से छिपाए रखते
हैं। अहंकारी सदा डांवाडोल रहता है। लेकिन कृष्ण जब बोलते हैं, तो वे यह
कह रहे हैं कि मैं, कुछ भी करने योग्य नहीं है, फिर भी किए चला जाता हूं; और कुछ भी पाने योग्य नहीं
है, फिर भी दौड़ता हूं और चलता हूं। क्यों? इसलिए कि चारों ओर जो लोग हैं, मैं चाहूं तो सब छोड़
सकता हूं करना, मैं चाहूं तो सब छोड़ सकता हूं पाना; लेकिन तब मुझे देखकर वे बहुत से लोग, जिन्हें अभी
पाने को बहुत कुछ शेष है, पाना छोड़ देंगे; और जिन्हें अभी करने को बहुत कुछ शेष है, करना छोड़
देंगे।
इस
बात को थोड़ा गहरे देखना जरूरी है। असल में जिसे अभी परमात्मा नहीं मिला, उसे बहुत
कुछ पाने को शेष है। सच तो यह है कि जिसे परमात्मा नहीं मिला, उसे सभी कुछ पाने को शेष है। उसने अभी जो भी पाया है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। और जिसे अभी मुक्ति नहीं मिली और जिसने आत्मा
की स्वतंत्रता को अनुभव नहीं किया, अभी उसे बहुत कुछ करने को
शेष है। असल में अभी तक उसने जो कुछ भी किया है, उससे वह
कहीं भी नहीं पहुंचा है। लेकिन कृष्ण जैसा व्यक्ति, जिसके
पाने की यात्रा पूरी हुई, करने की यात्रा पूरी हुई, जो मंजिल पर खड़ा है, अगर वह भी बैठ जाए, तो हम रास्तों पर ही बैठ जाएंगे।
हम
तो बैठना ही चाहते हैं। हम तो उत्सुक हैं कि बैठने के लिए बहाना मिल जाए। हम तो
आतुर हैं कि हमें कोई कारण मिल जाए और हम यात्रा बंद कर दें। हम यात्रा बड़े बेमन
से कर रहे हैं। हम चल भी रहे हैं तो ऐसे जैसे कि बोझ की भांति चलाए जा रहे हैं।
जिंदगी हमारी कोई मौज का गीत नहीं, और जिंदगी हमारा कोई नृत्य नहीं
है। जिंदगी हमारी वैसी है, जैसे बैल चलते हैं गाड़ी में जुते
हुए, ऐसे हम जिंदगी में जुते हुए चलते हैं। हम तो कभी भी
आतुर हैं कि मौका मिले और हम रुकें।
लेकिन
अगर हम रुक जाएं,
तो हम परमात्मा को पाने से ही रुक जाएंगे। क्योंकि अभी जो पाने
योग्य है, वह पाया नहीं गया; अभी जो
जानने योग्य है, वह जाना नहीं गया। और जानने योग्य क्या है?
जानने योग्य वही है, जिसको जान लेने के बाद
फिर कुछ जानने को शेष नहीं रह जाता है। और पाने योग्य क्या है? पाने योग्य वही है कि जिसको पा लेने के बाद फिर पाने की आकांक्षा ही
तिरोहित हो जाती है। मंजिल वही है, जिसके आगे फिर कोई रास्ता
ही नहीं होता। जिस मंजिल के आगे रास्ता है, वह मंजिल नहीं है,
पड़ाव है।
हम
तो अभी पड़ाव पर भी नहीं हैं, रास्तों पर हैं। शायद ठीक रास्तों पर भी नहीं
हैं, गलत रास्तों पर हैं। ऐसे रास्तों पर हैं, जिन पर अगर हम बैठ गए, जिन पर अगर हम रुक गए,
जिन पर अगर हम ठहर गए, तो हम पदार्थ के ही
घेरे में बंद रह जाएंगे और परमात्मा के प्रकाश को कभी उपलब्ध न हो पाएंगे।
इसलिए
कृष्ण कहते हैं,
मैं जिसे कि सब कुछ मिल गया, मैं जिसने कि सब
कुछ पा लिया, जिसके लिए अब कोई आकांक्षा शेष नहीं रही,
जिसके लिए अब कोई भविष्य नहीं है...। खयाल रहे, भविष्य निर्मित होता है आकांक्षाओं से, कल निर्मित
होता है वासनाओं से। कल हम निर्माण करते हैं इसलिए कि आज बहुत कुछ है, जो पाने को शेष रह गया। कृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए कोई भविष्य नहीं है। सब
कुछ अभी है, यहीं है। रुक जाना चाहिए।
लेकिन
बड़े मजे की बात है,
कृष्ण जैसा व्यक्ति नहीं रुकता और हम रुक जाते हैं! जिन्हें नहीं
रुकना चाहिए, वे रुक जाते हैं; जिसे
रुक जाना चाहिए, वह नहीं रुकता है। हम नासमझ रुकने वालों के
लिए, ठहर जाने वालों के लिए, पड़ाव को
मंजिल, गलत रास्ते को सही रास्ता समझ लेने वालों के लिए
कृष्ण जैसे व्यक्ति को करुणा से ही चलते रहना पड़ता है।
इसलिए
कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि तू रुकेगा, तू ठहरेगा, तो
खतरनाक है। खतरनाक दो कारणों से है। खुद अर्जुन के लिए भी खतरनाक है। अर्जुन भी
अभी वहां नहीं पहुंच गया है, जो मंजिल है। अभी श्रम अपेक्षित
है। अभी संकल्प की जरूरत है। अभी साधना आवश्यक है। अभी कदम उठाने हैं, सीढ़ियां चढ़नी हैं। अभी मंदिर आ नहीं गया और प्रतिमा दूर है। अर्जुन के लिए
भी रुक जाना खतरनाक है। और अर्जुन के लिए खतरनाक है ही, पर
वह एक ही व्यक्ति के लिए खतरनाक है। अर्जुन को देखकर पीछे चलने वाले बहुत से लोग
रुक जाएंगे। जब अर्जुन जैसा व्यक्ति रुके, तो वे रुक जाएंगे।
कृष्ण
की सारी सक्रियता करुणा है। करुणा उन पर, जो अभी अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच
गए हैं। उनके लिए कृष्ण दौड़ते रहेंगे कि उनमें भी गति आती रहे। उनके लिए कृष्ण
खोजते रहेंगे उसको, जिसे उन्होंने पा ही लिया है, ताकि वे भी खोज में लगे रहें। उनके लिए कृष्ण श्रम करते रहेंगे उसके लिए,
जो कि उनके हाथ में है, ताकि वे भी श्रम करते
रहें, जिनके कि हाथ में अभी नहीं है।
इस
सत्य को अगर हम ठीक से देख पाएं, तभी हम बुद्ध, महावीर,
कृष्ण या क्राइस्ट की सक्रियता को समझ पाएंगे। उनकी सक्रियता और
हमारी सक्रियता में एक बुनियादी भेद है। वे कुछ पाने के बाद भी सक्रिय हैं और हम
कुछ पाने के पहले सक्रिय हैं। एक-सा ही लगेगा। हम और वे रास्ते पर चलते हुए एक-से
ही मालूम पड़ेंगे, लेकिन हम एक-से नहीं हैं। इस तरह के
व्यक्तियों को ही हमने अवतार कहा है। इसलिए अवतार शब्द के संबंध में दो बातें खयाल
में ले लें।
अवतार
हम उस व्यक्ति को कहते हैं,
जिसे पाने को कुछ भी शेष नहीं रहा, फिर भी
पाने वालों के बीच में खड़ा है। अवतार हम उस व्यक्ति को कहते हैं, जिसे जानने को कुछ शेष नहीं रहा, फिर भी जानने वालों
की पाठशाला में बैठा हुआ है। अवतार हम उसे कहते हैं, जिसके
लिए जिंदगी में अब लेने योग्य कुछ भी नहीं है, फिर भी जिंदगी
के घनेपन में खड़ा है। अवतार का कुल अर्थ इतना ही है कि जो पहुंच चुका, वह भी रास्ते पर है।
बुद्ध
के जीवन में एक उल्लेख है। उल्लेख है कि बुद्ध का निर्वाण हुआ। कहानी है बहुत मधुर, बहुत
मीठी। फिर भी सत्य, कहानी की तरह नहीं, उसके अभिप्राय की तरह। बुद्ध का निर्वाण हो गया और निर्वाण के बाद की कथा
है कि वे मोक्ष के द्वार पर खड़े हैं। द्वारपाल ने दरवाजे खोल दिए हैं, लेकिन बुद्ध द्वार से प्रवेश नहीं करते। द्वारपाल कहता है, भीतर आएं, स्वागत है। और मोक्ष प्रतीक्षा करता है
आपकी बहुत दिनों से। चालीस वर्ष पहले बुद्ध को आ जाना चाहिए था, क्योंकि मरने के चालीस वर्ष पहले यात्रा पूरी हो गई थी। मरने के चालीस
वर्ष पहले ही जो पाना था, पा लिया गया; और जो जानना था, वह जान लिया गया था। लेकिन चालीस
वर्ष कहां थे? चालीस वर्ष से मोक्ष प्रतीक्षा करता है कि
आएं। द्वार चालीस वर्ष से खुले हैं।
लेकिन
बुद्ध कहते हैं,
अभी भी मैं प्रवेश नहीं करूंगा। द्वार को अभी और बहुत दिन तक खुले
रहना पड़ेगा। वह द्वारपाल कहता है, क्या कह रहे हैं आप! लोग
द्वार खटखटाते हैं, तब भी मोक्ष के द्वार नहीं खुलते। लोग
छाती पीटते हैं, तो भी मोक्ष के द्वार नहीं खुलते। लोग
गिड़गिड़ाते हैं, तो भी मोक्ष के द्वार नहीं खुलते। मोक्ष के
द्वार खुले हैं और आप रुके हैं बाहर! प्रवेश करें, रुकते
क्यों हैं? तो बुद्ध कहते हैं कि जब तक एक आदमी भी मेरे पीछे
मोक्ष के बिना रह गया है, तब तक मैं प्रवेश नहीं कर सकता
हूं। मैं अंतिम ही आदमी हो सकता हूं, जो मोक्ष में प्रवेश
करेगा।
महायान
बौद्ध धर्म के फकीर कहते हैं, बुद्ध अब भी मोक्ष के द्वार पर खड़े हैं। द्वार
खुले हैं और बुद्ध द्वार पर ही खड़े हैं। अब भी खड़े हैं। जब तक अंतिम आदमी प्रवेश न
कर जाए, तब तक वे खड़े ही रहने वाले हैं। कहानी है। अभिप्राय
गहरा है और सत्य है।
कृष्ण
यही कह रहे हैं। अर्जुन को वे एक बात स्मरण दिलाना चाहते हैं और वह यह कि अपने लिए
ही कर्म करना काफी नहीं है। असली कर्म तो उसी दिन शुरू होता है, जिस दिन वह
दूसरे के लिए शुरू होता है। अपने लिए ही जीना पर्याप्त नहीं है। असली जिंदगी तो
उसी दिन शुरू होती है, जिस दिन वह दूसरे के लिए शुरू होती
है।
ध्यान
रहे, जो सिर्फ अपने लिए, खुद के कुछ पाने के लिए जीता है,
वह बोझ से ही जीएगा, बर्डनसम ही होगी उसकी
जिंदगी--एक बोझ, एक भार। लेकिन जिस दिन व्यक्ति अपने लिए सब
पा चुका होता, सब जान चुका होता, फिर
भी जीता है, तब जिंदगी निर्भार, वेटलेस
हो जाती है। तब जिंदगी से ग्रेविटेशन, जमीन की कशिश खो जाती
है; और आकाश का प्रसाद, प्रभु की ग्रेस
बरसनी शुरू हो जाती है।
हम
जमीन से बंधे हुए जीते हैं,
हम जिंदगी के बोझ से भरे हुए जीते हैं। जो भी अपने लिए जी रहा है,
वह जमीन के बोझ से भरा हुआ जीएगा। अपने लिए जीने से ज्यादा बड़ा कष्ट
दूसरा नहीं है। इस साधारण जिंदगी में भी वे ही क्षण हमारे आनंद के होते हैं,
जब हम थोड़ी देर के लिए दूसरे के लिए जीते हैं। मां जब अपने बेटे के
लिए जी लेती है, तब आनंद से भर जाती है। मित्र जब अपने मित्र
के लिए जी लेता है, तो आनंद से भर जाता है। क्षणभर को भी अगर
हम दूसरे के लिए जीते हैं, तभी हमारे जीवन में आनंद होता है।
कृष्ण
कह रहे हैं, जिसने सब पा लिया, वह दूसरे के लिए ही जीता है,
अपने लिए जीने का तो कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। और तब आनंद की
अनंत वर्षा उसके ऊपर हो जाती है। अर्जुन को वे कह रहे हैं कि तू अपने लिए ही मत
सोच। केवल अपने लिए ही मत सोच--अपने लिए सोच, क्योंकि तेरे
लिए भी अभी यात्रा बाकी है--लेकिन उनके लिए भी सोच, जिनके
लिए बहुत यात्रा बाकी है और जो अभी जीवन के अंधेरे पथों पर हैं और जिन्हें मंजिल
का कोई भी प्रकाश दिखाई नहीं पड़ा है।
प्रश्न:
भगवान श्री, कल की चर्चा पर दो छोटे प्रश्न हैं। एक मित्र पूछते हैं कि आपने वर्ण
व्यवस्था के बारे में जो कहा, क्या आज वह व्यवस्था आज की
स्थिति में उचित है उसे लाना? और दूसरा प्रश्न है कि आश्रमों
की चर्चा आपने की और उम्र का भी विभाजन किया। संन्यास चौथी अवस्था में आता है,
तो मित्र पूछते हैं कि आप बहुत छोटी उम्र के लोगों को भी संन्यास की
दीक्षा दे रहे हैं, तो क्या वह उचित है?
समय
बदल जाता है,
परिस्थिति बदल जाती है, लेकिन जीवन के मूल
सत्य नहीं बदलते हैं। और जो उन मूल सत्यों को अस्वीकार करता है, वह केवल कष्ट में, दुख में और चिंता में पड़ता है। सब
कुछ बदल जाता है, लेकिन जीवन के जो आधार-सत्य हैं, वे नहीं बदलते हैं। वर्ण और आश्रम की व्यवस्था किसी समाज विशेष और किसी
परिस्थिति विशेष के नियम पर निर्मित नहीं थी। वर्णाश्रम की व्यवस्था मनुष्य के
चित्त के ही नियमों पर निर्भर थी। और आज भी उतने ही उपयोग की है, जितनी कभी हो सकती थी और कल भी उतने ही उपयोग की रहेगी। इसका यह मतलब नहीं
है कि वर्ण व्यवस्था के नाम पर जो चल रहा है, वह उपयोगी है।
जो चल रहा है, वह तो वर्ण व्यवस्था नहीं है। जो चल रहा है,
वह तो वर्ण व्यवस्था के नाम पर रोग है, बीमारी
है।
असल
में सभी ढांचे सड़ जाते हैं। सत्य नहीं सड़ते, ढांचे सड़ जाते हैं। और अगर सत्यों
को बचाना हो, तो सड़े हुए ढांचों को रोज अलग करने का साहस
रखना चाहिए। जो ढांचा निर्मित हुआ था, वह तो सड़ गया; उसके प्राण तो कभी के खो गए, उसकी आत्मा तो कभी की
लोप हो गई; सिर्फ देह रह गई है। और उस देह में हजार तरह की
सड़ांध पैदा होगी, क्योंकि आत्मा के साथ ही उस देह में सड़ांध
पैदा नहीं हो सकती थी।
दो
बातें वर्ण के संबंध में। एक तो, जिस दिन वर्ण हाइरेरिकल हो गया, जिस दिन वर्ण नीचे-ऊंचे का भेद करने लगा, उसी दिन
सड़ांध शुरू हो गई। वर्ण के सत्य में नीचे-ऊंचे का भेद नहीं था; वर्ण के सत्य में व्यक्तित्व भेद था। शूद्र ब्राह्मण से नीचा नहीं है,
ब्राह्मण शूद्र से ऊंचा नहीं है। क्षत्रिय शूद्र से ऊंचा नहीं है,
वैश्य ब्राह्मण से नीचा नहीं है। नीचे-ऊंचे की बात खतरनाक सिद्ध
हुई। शूद्र शूद्र है, ब्राह्मण ब्राह्मण है। यह टाइप की बात
है।
जैसे
कि समझें, एक आदमी पांच फीट का है और एक आदमी छह फीट का है। तो पांच फीट का आदमी छह
फीट के आदमी से नीचा नहीं है। पांच फीट का आदमी पांच फीट का आदमी है, छह फीट का आदमी छह फीट का आदमी है। एक आदमी काला है, एक आदमी गोरा है। काला आदमी गोरे आदमी से नीचा नहीं है। काला आदमी काला है,
गोरा आदमी गोरा है। पिगमेंट का फर्क है, चमड़ी
में थोड़े-से रंग का फर्क है। मुश्किल से दो, तीन, चार आने के दाम का फर्क है। और चमड़ी के फर्क से कोई आदमी में फर्क नहीं
होता। गोरे की चमड़ी में भी आज नहीं कल, तीन-चार आने का
पिगमेंट काला डाला जा सकेगा, तो वह काली हो जाएगी। काले की
चमड़ी गोरी हो जाएगी। गोरा गोरा है, काला काला है; ऊंचे-नीचे का फासला जरा भी नहीं है। एक आदमी के पास थोड़ी ज्यादा बुद्धि है,
एक आदमी के पास थोड़ी कम बुद्धि है। ऊंचे-नीचे का फिर भी कोई कारण
नहीं है। कोई कारण नहीं है। जैसे पिगमेंट का फर्क है, ऐसे ही
बुद्धि की मात्रा का फर्क है। है फर्क।
वर्ण
की व्यवस्था में फर्क,
डिफरेंस की स्वीकृति थी, वेल्युएशन नहीं था,
मूल्यांकन नहीं था। और उचित है कि स्वीकृति हो, क्योंकि जिस दिन स्वीकृति खो जाती है, उस दिन उपद्रव,
उत्पात शुरू होता है। अब आज वर्ण टिकेगा नहीं। क्योंकि सड़ी हुई वर्ण
की व्यवस्था, कोई लाख उपाय करे, टिक नहीं
सकती। लेकिन वर्ण लौटेगा। यह व्यवस्था तो मरेगी, लेकिन वर्ण
लौटेगा।
जितना
मनुष्य के संबंध में वैज्ञानिक चिंतन बढ़ेगा आने वाली सदी में, वर्ण की
व्यवस्था वापस लौट आएगी। हिंदुओं की वर्ण की व्यवस्था नहीं लौटेगी। वह तो गई,
वह मर गई। वर्ण की व्यवस्था लौट आएगी और अब और ज्यादा वैज्ञानिक
होकर लौटेगी। क्योंकि जितना मनुष्य के संबंध में समझदारी बढ़ रही है, जितना मनोविज्ञान विकसित हो रहा है, उतनी बात साफ
होती जा रही है कि चार तरह के लोग हैं। उनको इनकार करने का कोई उपाय नहीं है। और
हम कुछ भी उपाय करें, हम सारे लोगों को सिर्फ एक ही तरह से
एक वर्ण का बना सकते हैं। और वह यह कि हम लोगों की आत्मा को बिलकुल नष्ट कर दें और
लोगों को बिलकुल मशीनें बना दें। वर्ण की व्यवस्था उसी दिन असत्य होगी, जिस दिन आदमी मशीन हो जाएगा, आदमी नहीं होगा;
उसके पहले असत्य नहीं हो सकती।
मशीनें
एक-सी हो सकती हैं। फोर्ड की कारें हैं, तो लाख कारें एक-सी हो सकती हैं।
रत्तीभर फर्क खोजा नहीं जा सकता। एक ढांचे में ढलती हैं, एक-सी
हो सकती हैं। कारें इसीलिए एक-सी हो सकती हैं, क्योंकि उनके
पास कोई आत्मा नहीं है। हां, आत्मा होगी, तो व्यक्ति एक-से कभी नहीं हो सकते। आत्मा का अर्थ ही भेद है। व्यक्तित्व
का अर्थ ही अंतर है, डिफरेंस है। आपके पास व्यक्तित्व है,
उसका मतलब ही यही है कि आप दूसरे व्यक्तियों से कहीं न कहीं भिन्न
हैं। अगर आप बिलकुल भिन्न नहीं हैं, तो व्यक्तित्व नहीं है,
आत्मा नहीं है। मनुष्य के पास जब तक आत्मा है, तब तक वर्ण का सत्य झुठलाया नहीं जा सकता है। हम इनकार कर सकते हैं।
एक
आदमी कह सकता है कि हम ग्रेविटेशन को नहीं मानते, जमीन की कशिश को नहीं
मानते। मत मानिए! इससे सिर्फ आपकी टांग टूटेगी। इससे ग्रेविटेशन का सत्य गलत नहीं
होता। एक आदमी कह सकता है कि हम आक्सीजन के सत्य को नहीं मानते; हम श्वास लेंगे नहीं। तो ठीक है, मत लीजिए। इससे
सिर्फ आप मरेंगे, आक्सीजन नहीं मरती। जीवन के नियम को इनकार
किया जा सकता है, लेकिन इससे जीवन का नियम नष्ट नहीं होता,
सिर्फ हम नष्ट होते हैं।
हां, जीवन के
नियम पर हम झूठी व्यवस्थाएं भी खड़ी कर सकते हैं। और तब झूठी व्यवस्थाओं के कारण
जीवन का नियम भी बदनाम हो जाता है। हमने जो हाइरेरिकल व्यवस्था निर्मित की
ऊंचे-नीचे की, उससे बदनामी पैदा हुई; उससे
वर्ण की व्यवस्था दूषित हुई। उससे वर्ण की व्यवस्था गंदी हुई, कंडेम्ड हुई। आज वह कंडेम्ड है, लेकिन वर्ण का सत्य
कभी भी कंडेम्ड नहीं है।
और
मैं आपसे कहना चाहूंगा कि यह पहली सदी है, जब पश्चिम के मनोविज्ञान ने पुनः
इस बात को साफ करना शुरू कर दिया है कि दो व्यक्तियों के बीच पूरी समानता, पूरी एकता, पूरा एक-सा पन कभी भी सिद्ध नहीं किया जा
सकता। और दुर्भाग्य का होगा वह दिन, जिस दिन विज्ञान सब
आदमियों को बराबर कर देगा, क्योंकि उसी दिन आदमी की आत्मा
नष्ट हो जाएगी।
इसलिए
वर्ण के सत्य में कहीं भी अंतर नहीं पड़ा है; पड़ेगा भी नहीं; पड़ना भी नहीं चाहिए; पड़ने भी नहीं देना। लड़ना भी
पड़ेगा आज नहीं कल आदमी को, कि हम अलग हैं, भिन्न हैं, और हमारी भिन्नता कायम रहनी चाहिए।
हालांकि राजनीति भिन्नता को तोड़ डालने की पूरी चेष्टा में लगी है।
सब
भिन्नता टूट जाए और आदमी मशीन जैसा व्यवहार करे, तो राजनीतिज्ञों के लिए बड़ी
सरल और सुलभ हो जाएगी बात। तब डिक्टेटोरियल हुआ जा सकता है, तब
तानाशाही लाई जा सकती है, तब टोटेलिटेरियन हुआ जा सकता है।
तब व्यक्तियों की कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है, व्यक्ति
हैं ही नहीं। लेकिन जब तक व्यक्ति भिन्न हैं, तभी तक
लोकतंत्र है जगत में। जब तक व्यक्तियों में आत्मा है, तभी तक
रस भी है जगत में, वैविध्य भी है जगत में, सौंदर्य भी है जगत में, रंग-बिरंगापन भी है जगत में।
वर्ण
की व्यवस्था इस रंग-बिरंगेपन को, इस वैविध्य को अंगीकार करती है। ऊंच-नीच की बात
गलत है। और जो लोग ऊंच-नीच बनाए रखने के लिए वर्ण की व्यवस्था का समर्थन कर रहे
हैं, वे लोग खतरनाक हैं। लेकिन मैं वह बात नहीं कह रहा हूं।
मैं कुछ और ही बात कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं, आदमी चार
प्रकार के हैं। हम चाहे मानें और चाहे हम न मानें।
आज
अमेरिका में तो कोई वर्ण व्यवस्था नहीं है। लेकिन सभी लोग वैज्ञानिक नहीं हैं। और
वैज्ञानिक शुद्ध ब्राह्मण है। आइंस्टीन में और ब्राह्मण में कोई भी फर्क नहीं है।
आज पश्चिम का वैज्ञानिक ठीक वही है, जैसा ब्राह्मण था। सारी खोज उसकी
सत्य की है, और सत्य की खोज के लिए वह सब तकलीफें झेलने को
राजी है। लेकिन सभी लोग सत्य की खोज के लिए उत्सुक नहीं हैं। राकफेलर ब्राह्मण
नहीं है। और न मार्गन ब्राह्मण है। और न रथचाइल्ड ब्राह्मण है। वे वैश्य हैं
शुद्धतम, शुद्धतम वैश्य हैं। धन ही उनकी खोज है। धन ही उनकी
आकांक्षा है, धन ही सब कुछ है। लेकिन एक बहुत बड़ा वर्ग है
सारी पृथ्वी पर, जो लड़ने के लिए उत्सुक और आतुर है। उसकी
लड़ाई के ढंग भले बदल जाएं, लेकिन वह लड़ने के लिए उत्सुक और
आतुर है।
नीत्से
ने कहा है कि जब कभी मैं रास्ते पर सिपाहियों की संगीनें धूप में चमकती हुई देखता
हूं, और जब कभी मैं सैनिकों के जूतों की आवाज सड़क पर लयबद्ध सुनता हूं, तो मुझे लगता है, इससे श्रेष्ठ कोई भी संगीत नहीं
है। अब यह जो नीत्से है, इसको मोजार्ट बेकार है, बीथोवन बेकार है; इसके लिए वीणा बेकार है। यह कहता
है, जब चमकती हुई संगीनें सुबह के सूरज में दिखाई पड़ती हैं,
तो उनकी चमक में जो गीत है, इससे सुंदर कोई
गीत नहीं है। और जब सैनिक रास्ते पर चलते हैं, और उनके जूतों
की लयबद्ध आवाज में जो भाव है, वह किसी संगीत में नहीं है।
यह आदमी जो भाषा बोल रहा है, वह ब्राह्मण की नहीं है। यह
आदमी जो भाषा बोल रहा है, वह शूद्र की नहीं है। यह आदमी जो
भाषा बोल रहा है, वह क्षत्रिय की है। यह रहेगा। इस आदमी को
हम इनकार करेंगे, तो यह बदला लेगा।
किसी
आदमी को इनकार नहीं किया जा सकता। प्रत्येक आदमी को उसके टाइप के फुलफिलमेंट के
लिए, उसके व्यक्तित्व के रूप के अनुसार, अनुकूल, समाज में सुविधा होनी चाहिए। शूद्र भी हैं। कई दफा शूद्र अगर दूसरे घर में
पैदा हो जाए, तो बहाने खोजकर शूद्र हो जाता है। बहाने खोजकर
शूद्र हो जाता है। अगर वह ब्राह्मण के घर में पैदा हो जाए, तो
वह कहेगा कि नहीं, ब्रह्म की खोज से क्या होगा? मैं तो कोढ़ी की सेवा करूंगा! वह कहेगा, ध्यान-व्यान
से कुछ भी नहीं होगा। धर्म यानी सर्विस, सेवा!
अगर
इस मुल्क के धर्मों में हम खोज करने जाएं, तो इस मुल्क का धर्म मौलिक रूप से
ब्राह्मणों ने निर्मित किया। इसलिए इस मुल्क के धर्म में सेवा नहीं आ सकी, सर्विस का कंसेप्ट नहीं आया। इस मुल्क के धर्म ने सेवा की बात ही नहीं की
कभी, क्योंकि वह मौलिक रूप से ब्राह्मण ने उसको निर्मित किया
था। वह एक वर्ण के द्वारा निर्मित था, उसकी दृष्टि उसमें
प्रवेश कर गई।
इसलिए
पहली दफे जब क्रिश्चिएनिटी से हिंदू और जैन और बौद्धों की टक्कर आई, तो बहुत
मुश्किल में पड़ गए वे। क्योंकि क्रिश्चिएनिटी जिस घर से आई थी, जीसस एक बढ़ई के बेटे थे। वे एक शूद्र परिवार से आते हैं। जन्म उनका एक
घुड़साल में होता है। जिंदगी के जो उनके बचपन का काल है, वह
बिलकुल ही समाज का जो चौथा वर्ग है, उसके बीच व्यतीत हुआ है।
इसलिए जीसस ने जब धर्म निर्मित किया, तो उस धर्म में सर्विस
मौलिक तत्व बना। इसलिए सारी दुनिया में ईसाई के लिए सेवा धर्म का श्रेष्ठतम रूप
है। ध्यान नहीं, मेडिटेशन नहीं, सर्विस!
ब्रह्म का चिंतन नहीं, पड़ोसी की सेवा! और इसलिए ईसाइयत ने
सारी दुनिया में जो ब्राह्मण से उत्पन्न धर्म थे, उन सबको
कंडेम्ड कर दिया।
बुद्ध
और महावीर पैदा तो हुए क्षत्रिय घरों में, लेकिन उनके पास बुद्धि ब्राह्मण की
थी। और यह भी जानकर आपको हैरानी होगी कि महावीर क्षत्रिय घर से आए, लेकिन महावीर का जो धर्म निर्मित किया, वह जिन
गणधरों ने किया, वे ग्यारह के ग्यारह ब्राह्मण थे। महावीर ने
जो बातें कहीं, उनको जिन्होंने संगृहीत किया, वे ग्यारह ही ब्राह्मण थे। महावीर के ग्यारह जो बड़े शिष्य हैं--ग्यारह बड़े
शिष्य, जिन्होंने महावीर के सारे धर्मशास्त्र निर्मित
किए--वे ग्यारह के ग्यारह ब्राह्मण थे। इसलिए कोई उपाय न था कि हिंदुस्तान का कोई
भी धर्म सेवा पर जोर दे सके।
हां, विवेकानंद
ने जोर दिया, क्योंकि विवेकानंद शूद्र परिवार से आते हैं,
कायस्थ हैं। इसलिए विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन को ठीक क्रिश्चियन
मिशनरी के ढंग पर निर्मित किया। हिंदुस्तान में सेवा के शब्द को लाने वाला आदमी
विवेकानंद है। फिर गांधी ने जोर दिया।
यह
टाइप की बात है। ब्राह्मण की कल्पना के बाहर है कि शूद्र के पैर दबाने से ब्रह्म
कैसे मिल जाएगा! शूद्र की कल्पना के बाहर है कि आंख बंद करके शून्य में उतर जाने
से ब्रह्म कैसे मिल जाएगा! क्षत्रिय की कल्पना के बाहर है कि बिना लड़े जब कुछ भी
नहीं मिलता, तो ब्रह्म कैसे मिल जाएगा! वैश्य की कल्पना के बाहर है कि जब धन के बिना
कुछ भी नहीं मिलता, तो धर्म कैसे मिल जाएगा! वैश्य अगर पहुंचेगा
भी धर्म के पास, तो धन से ही पहुंचेगा। ये टाइप हैं। और जब
मैं यह कह रहा हूं कि व्यक्तियों के टाइप का सवाल है...।
वर्ण
की धारणा समाज के बीच नीच-ऊंच का प्रश्न नहीं है। वर्ण की धारणा समाज के बीच
व्यक्ति वैभिन्य का प्रश्न है। और इसलिए दुनिया में चार तरह के लोग सदा रहेंगे और
चार तरह के धर्मों की धारणा सदा रहेगी। हां, इन चार से मिल-जुलकर भी बहुत-सी
धारणाएं बन जाएंगी, लेकिन वे मिश्रित होंगी। लेकिन चार शुद्ध
स्वर धर्मों के सदा पृथ्वी पर रहेंगे, जब तक आदमी के पास
आत्मा है। और वह समाज स्वस्थ समाज होगा, जो इस भेद को इनकार
न करे--क्योंकि इनकार करने से नियम नहीं मिटता, सिर्फ समाज
को नुकसान होता है--जो इस भेद को स्वीकार कर ले।
अब
उलटी हालतें होती हैं न! अगर रामकृष्ण मिशन में कोई आदमी संन्यासी हो जाए, तो वे
उससे कहेंगे, सेवा करो। वह टाइप अगर ब्राह्मण का है, तो मुश्किल में पड़ जाएगा। उसकी कल्पना के बाहर होगा, कैसी सेवा! सेवा से क्या होगा? लेकिन अगर कोई
सेवाभावी व्यक्ति बुद्ध का अनापानसती योग साधने लगे--कि सिर्फ श्वास पर ध्यान
करो--तो वह सेवाभावी व्यक्ति कहेगा, यह क्या पागलपन है!
नानसेंस। श्वास पर ध्यान करने से क्या होगा? कुछ करके दिखाओ!
लोग गरीब हैं, लोग भूखे हैं, लोग बीमार
हैं। उनकी सेवा करो।
ये
व्यक्तियों के भेद हैं। और अगर इन भेदों को हम वैज्ञानिक रूप से साफ-साफ न समझ लें, तो बड़ी
कठिनाई होती है। लेकिन हमारा युग भेद को तोड़ रहा है, कई तरह
से तोड़ रहा है। जैसे उदाहरण के लिए आपको कहूं। स्त्री और पुरुष का बायोलाजिकल भेद
है, ब्राह्मण और क्षत्रिय का साइकोलाजिकल भेद है। शूद्र और
वैश्य का मनोवैज्ञानिक भेद है, स्त्री और पुरुष का जैविक भेद
है। लेकिन हमने भेद तोड़ने का तय कर रखा है। हम भेद को इनकार करने को उत्सुक हैं।
तो हमने पहले वर्णों को तोड़ने की कोशिश की सारी दुनिया में। एक तो सारी दुनिया में
वर्ण बहुत स्पष्ट नहीं थे, सिर्फ इसी मुल्क में थे। हमने
उनको तोड़ने की कोशिश की। हमने करीब-करीब उनको जराजीर्ण कर दिया। अब एक दूसरा जैविक
भेद है स्त्री-पुरुष का, उसको भी तोड़ने की कोशिश की जा रही
है।
तो
एक बहुत मजेदार घटना घट रही है। वह घटना यह घट रही है कि लड़कियां यूरोप और अमेरिका
में लड़कों के कपड़े पहन रही हैं और लड़के लड़कियों जैसे बाल बढ़ा रहे हैं। दोनों करीब
आ रहे हैं। बायोलाजिकल भेद तोड़ने की कोशिश चल रही है। लेकिन इससे क्या होगा? इससे क्या
भेद टूट जाएगा? इससे भेद नहीं टूटेगा; सिर्फ
लड़कियां कम लड़कियां हो जाएंगी, और लड़के कम लड़के हो जाएंगे;
और दोनों के बीच जो फासले से, भेद से, जो रस पैदा होता था, वह क्षीण हो जाएगा। इसलिए आज
यूरोप और अमेरिका में लड़के और लड़की के बीच से रोमांस विदा हो गया है, रोमांस नहीं है। हो नहीं सकता। वह भेद पर निर्भर है। कितना भेद है,
उतना रस है। जितना भेद टूटा, उतना रस टूट जाता
है।
हम
सब तरह के भेद तोड़ने को पागल लोग हैं। भेद रहने ही चाहिए। उसका मतलब लेकिन यह नहीं
कि स्त्री छोटी है और पुरुष बड़ा है। वह गलत बात है। भेद के आधार पर ऊंचाई-नीचाई तय
करना गलत बात है। सब भेद हॉरिजांटल हैं। कोई भेद वर्टिकल नहीं है। न तो पुरुष ऊंचा
है और न तो स्त्री ऊंची है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि पुरुष और स्त्री एक
हैं। पुरुष अलग है,
स्त्री अलग है। ऊंचा-नीचा कोई भी नहीं है। लेकिन भेद स्पष्ट है और
भेद स्पष्ट रहना चाहिए।
और
स्त्री को पूरी कोशिश करनी चाहिए कि वह कितनी स्त्रैण हो सके, और पुरुष
को पूरी कोशिश करनी चाहिए कि वह कितना पुरुष हो सके। और स्त्री जितनी ज्यादा
स्त्री, पुरुष जितना ज्यादा पुरुष, उन
दोनों के बीच के जीवन का रस उतना ही गहरा होगा, आकर्षण उतना
ही गहरा होगा। उन दोनों के बीच प्रेम के प्रवाह की धारा उतनी ही तीव्र होगी। जितना
कम पुरुष और जितनी कम स्त्री, तो स्त्री नंबर दो का पुरुष हो
जाती है और पुरुष नंबर दो की स्त्री हो जाता है। और वे दोनों करीब तो बहुत आ जाते
हैं, लेकिन उनके बीच की पोलैरिटी टूट जाती है, और उनके बीच का रस टूट जाता है। आज पहली दफे पश्चिम में स्त्री और पुरुष
के बीच का जो रस-संगीत था, वह टूट गया है।
वर्ण
मनोवैज्ञानिक भेद हैं। और समाज में उनसे भी रस-संगीत पैदा होता है। एकसुरा समाज
ऐसा ही है जैसा इकतारा बजता है। इकतारे का भी थोड़ा रस तो है, लेकिन
उबाने वाला है। और इकतारा रस दे सकता है अगर और वाद्यों के साथ बजता हो। अकेले ही
बजता रहे, तो घबड़ाहट हो जाती है।
मैंने
एक घटना सुनी है,
कि एक सज्जन वीणा बजाते हैं। लेकिन बस वे एक तार को और एक ही जगह
दबाए चले जाते हैं। महीनों हो गए। उनकी पत्नी, उनके बच्चे
बहुत घबड़ा गए हैं। और एक दिन उनके पड़ोसियों ने भी सबने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि
आप क्या कर रहे हैं! हमने औरों को भी बजाते देखा है, लेकिन
हाथ चलता है, अलग तार छुए जाते हैं, अलग
दबाव दिया जाता है। यह क्या पागलपन है कि एक ही जगह उंगली को दबाए हैं आप! और अब
महीनों हो गए, वहीं दबाए चले जा रहे हैं! हम घबड़ा गए हैं। उन
सज्जन ने कहा कि तुम्हें पता नहीं, दूसरे लोग ठीक स्थान खोज
रहे हैं; मुझे मिल गया है! वे वहीं अपना सब...। इसलिए वे लोग
इधर-उधर हाथ फैलाते हैं। मुझे कोई जरूरत न रही। मैं मंजिल पर आ गया हूं। अब मैं
उसी को बजाता रहूंगा।
लेकिन
यह आदमी तो पागल है,
पड़ोस के लोगों को भी पागल कर देगा।
जीवन
एक संगीत है,
लेकिन संगीत अर्थात एक आर्केस्ट्रा। उसमें बहुत विभिन्न स्वर चाहिए।
उसमें क्षत्रिय की चमक भी चाहिए; उसमें शूद्र की सेवा भी
चाहिए। उसमें ब्राह्मण का तेज भी चाहिए; उसमें वैश्य की खोज
भी चाहिए। उसमें सब चाहिए। और इनमें ऊपर-नीचे कोई भी नहीं है। और यह सत्य आज भी
असत्य नहीं हो गया और कल भी असत्य नहीं हो जाने वाला है।
दूसरी
बात पूछी है कि मैंने कहा कि जीवन का एक क्रम है और संन्यास उसमें अंतिम अवस्था
है...।
लेकिन
यह क्रम टूट गया। और अभी तो ब्रह्मचर्य भी अंतिम अवस्था नहीं है। ब्रह्मचर्य पहली
अवस्था थी उस क्रम में,
यह क्रम टूट गया। अब तो ब्रह्मचर्य अंतिम अवस्था भी नहीं है! पहले
की तो बात ही छोड़ दें। मरते क्षण तक आदमी ब्रह्मचर्य की अवस्था में नहीं पहुंचता।
तो अब तो संन्यास तो कब्र के आगे ही कहीं कोई अवस्था हो सकती है। और जब बूढ़े
ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होते हों, तो मैं कहता हूं, बच्चों को भी हिम्मत करके संन्यासी होना चाहिए, जस्ट
टु बैलेंस, संतुलन बनाए रखने को। जब बूढ़े भी ब्रह्मचर्य को
उपलब्ध न होते हों, तो बच्चों को भी संन्यासी होने का साहस
करना चाहिए। तो शायद बूढ़ों को भी शर्म आनी शुरू हो, अन्यथा
बूढ़ों को शर्म आने वाली नहीं है। एक तो इसलिए।
और
दूसरा इसलिए भी कि जीवन का जो क्रम है, उस क्रम में बहुत-सी बातें
इंप्लाइड हैं, उसमें बहुत-सी बातें अंतर्गर्भित हैं। जैसे
महावीर ने अंतिम अवस्था में संन्यास नहीं लिया, बुद्ध ने
अंतिम अवस्था में संन्यास नहीं लिया। क्योंकि जिनके जीवन की पिछले जन्म की यात्रा
वहां पहुंच गई, जहां से इस जन्म में शुरू से ही संन्यास हो
सकता है, वे पचहत्तर वर्ष तक प्रतीक्षा करें, यह बेमानी है। यही जन्म सब कुछ नहीं है। हम इस जन्म में कोरे कागज,
टेबुलारेसा की तरह पैदा नहीं होते हैं, जैसा
कि रूसो और सारे लोग मानते हैं। गलत मानते हैं। हम कोरे कागजकी तरह पैदा नहीं
होते। हम सब बिल्ट-इन-प्रोग्रैम लेकर पैदा होते हैं। हमने पिछले जन्म में जो भी
किया, जाना, सोचा, समझा है, वह सब हमारे साथ जन्मता है। इसलिए जीवन के
साधारण क्रम में यह बात सच है कि आदमी चौथी अवस्था में संन्यास को उपलब्ध हो,
लेकिन जो लोग पिछले जन्म से संन्यास का गहरा अनुभव लेकर आए हों,
या जीवन के रस से पूरी तरह डिसइल्यूजंड होकर आए हों, उनके लिए कोई भी कारण नहीं है। लेकिन वे सदा अपवाद होंगे।
इसलिए
बुद्ध और महावीर ने अपवाद के लिए मार्ग खोजा। कभी-कभी नियम भी बंधन बन जाते हैं, उसके लिए
हमें अपवाद छोड़ना पड़ता है। आइंस्टीन को अगर हम गणित उसी ढंग से सिखाएं, जिस ढंग से हम सबको सिखाते हैं, तो हम आइंस्टीन की
शक्ति को जाया करेंगे। अगर हम मोजार्ट को संगीत उसी तरह सिखाएं, जिस तरह हम सबको सिखाते हैं, तो हम उसकी शक्ति को
बहुत जाया करेंगे। मोजार्ट ने तीन साल की उम्र में संगीत में वह स्थिति पा ली,
जो कि कोई भी आदमी अभ्यास करके तीस साल में नहीं पा सकता है। तब
मोजार्ट के लिए हमें अपवाद बनाना पड़ेगा। बीथोवन ने सात साल में संगीत में वह
स्थिति पा ली, जो कि संगीतज्ञ सत्तर साल की उम्र में नहीं पा
सकते अभ्यास करके। तो बीथोवन के लिए हमें अलग नियम बनाना पड़ेगा। इनके लिए हमें
नियम वही नहीं देने पड़ेंगे।
इसलिए
हर नियम के अपवाद तो होते ही हैं। और अपवाद से नियम टूटता नहीं, सिर्फ
सिद्ध होता है। एक्सेप्शन प्रूव्स दि रूल। वह जो अपवाद है, वह
सिद्ध करता है कि अपवाद है, इसलिए शेष सबके लिए नियम
प्रतिकूल है। तो ऐसा नहीं है कि भारत में बचपन से संन्यास लेने वाले लोग न थे,
वे थे, लेकिन वे अपवाद थे।
और
आज तो अपवाद को नियम बनाना पड़ेगा। क्यों बनाना पड़ेगा? वह इसलिए
बनाना पड़ेगा, कि आज तो चीजें इतनी रुग्ण और अस्तव्यस्त हो गई
हैं कि अगर हम प्रतीक्षा करें कि लोग वृद्धावस्था में संन्यस्त हो जाएंगे, तो हमारी प्रतीक्षा व्यर्थ होने वाली है। उसके कई कारण हैं। वृद्धावस्था में
संन्यास तभी फलित हो सकता है, जब तीन आश्रम पहले गुजरे हों,
अन्यथा फलित नहीं हो सकता। आप कहें कि वृक्ष में फूल आएंगे वसंत
में। लेकिन वसंत में फूल तभी आ सकते हैं, जब बीज बोए गए हों,
जब खाद डाली गई हो, जब वर्षा में पानी भी पड़ा
हो और गर्मी में धूप भी मिली हो। न गर्मी में धूप आई, न
वर्षा में पानी गिरा, न बीज बोए गए, न
माली ने खाद दिया--और वसंत में फूल की प्रतीक्षा कर रहे हैं!
चौथा
आश्रम संन्यास फलित होता था, यदि तीन आश्रम नियमबद्ध रूप से पहले गुजरे हों,
अन्यथा फलित नहीं होगा। ब्रह्मचर्य बीता हो पच्चीस वर्ष का, गार्हस्थ्य बीता हो पच्चीस वर्ष का, वानप्रस्थ बीता
हो पच्चीस वर्ष का, तब अनिवार्यरूपेण, गणित
के हल की तरह, चौथे आश्रम का चरण उठता था।
आज
तो कठिनाई है। आज तो तीन चरण का कोई उपाय नहीं रहा। तो अब दो ही उपाय हैं। एक तो
उपाय यह है कि हम संन्यास के सुंदरतम फूल को--जिससे सुंदर फूल जीवन में दूसरा नहीं
खिलता--मुरझा जाने दें,
उसे खिलने ही न दें। और या फिर हिम्मत करें और जहां भी संभव हो सके,
जिस स्थिति में भी संभव हो सके, संन्यास के
फूल को खिलाने की कोशिश करें।
इसका
यह मतलब नहीं है कि सारे लोग संन्यासी हो सकते हैं। असल में जिसके मन में भी
आकांक्षा पैदा होती है संन्यास की, उसके प्राण उसे सूचना दे रहे हैं
कि उसके पिछले जन्मों में कुछ अर्जित है, जो संन्यास बन सकता
है।
फिर
मैं यह कहता हूं कि बुरे काम को करके सफल हो जाना भी बुरा है; अच्छे काम
को करके असफल हो जाना भी बुरा नहीं है। एक आदमी चोरी करके सफल भी हो जाए, तो बुरा है; और एक आदमी संन्यासी होकर असफल भी हो
जाए, तो बुरा नहीं है। अच्छे की तरफ आकांक्षा और प्रयास भी
बहुत बड़ी घटना है। और अच्छे के मार्ग पर हार जाना भी जीत है और बुरे के मार्ग पर
जीत जाना भी हार है। और आज हारेंगे, तो कल जीतेंगे। इस जन्म
में हारेंगे, तो अगले जन्म में जीतेंगे। लेकिन प्रयास,
आकांक्षा, अभीप्सा होनी चाहिए।
फिर
चौथे चरण में जो संन्यास आता था, उसकी व्याख्या बिलकुल अलग थी; और जिसे मैं संन्यास कहता हूं, उसकी व्याख्या को
मजबूरी में अलग करना पड़ा है--मजबूरी में, स्मरण रखें। चौथे
चरण में जो संन्यास आता था, वह पूरे जीवन से ऐसे अलग हो जाना
था, जैसे पका हुआ फल वृक्ष से अलग हो जाता है, जैसे सूखा पत्ता वृक्ष से गिर जाता है। न वृक्ष को खबर मिलती है, न सूखे पत्ते को पता चलता, कब अलग हो गए। वह बहुत
नेचरल रिनंसिएशन था। उसके कारण हैं।
अभी
भी पचहत्तर साल का बूढ़ा घर से टूट जाता है--अभी भी। लेकिन न तो बूढ़ा टूटना चाहता
है...। अभी भी पचहत्तर साल का बूढ़ा घर में बोझ हो जाता है। कोई कहता नहीं, सब अनुभव
करते हैं। बेटे की आंख से पता चलता है, बहू की आंख से पता
चलता है, घर के बच्चों से पता चलता है कि अब इस बूढ़े को विदा
होना चाहिए। कोई कहता नहीं; शिष्टाचार कहने नहीं देता;
लेकिन अशिष्ट आचरण सब कुछ प्रकट कर देता है। टूट जाता है, टूट ही जाता है। लेकिन बूढ़ा भी हटने को राजी नहीं। वह भी पैर जमाकर जमा
रहता है। और जितना हटाने के आंखों में इशारे दिखाई पड़ते हैं, वह उतने ही जोर से जमने की कोशिश करता है। बहुत बेहूदा है, एब्सर्ड है।
असल
में वक्त है हर चीज का,
जब जुड़े होना चाहिए, और जब टूट जाना चाहिए।
वक्त है, जब स्वागत है; और वक्त है,
जब अलविदा भी है। समय का जिसे बोध नहीं होता, वह
आदमी नासमझ है। पचहत्तर साल की उम्र ठीक वक्त है, क्योंकि
तीसरी, चौथी पीढ़ी जीने को तैयार हो गई है। और जब चौथी पीढ़ी
जीने को तैयार हो गई, तो आप कट चुके जीवन की धारा से। अब जो
नए बच्चे घर में आ रहे हैं, उनसे आपका कोई भी तो संबंध नहीं
है। आप उनके लिए करीब-करीब प्रेत हो चुके, घोस्ट हो चुके। अब
आपका होना सिर्फ बाधा है। आपकी मौजूदगी सिर्फ जगह घेरती है। आपकी बातें सिर्फ कठिन
मालूम पड़ती हैं। आपका होना ही बोझ हो गया है। उचित है कि हट जाएं; वैज्ञानिक है कि हट जाएं।
लेकिन
नहीं, आप कहां हटकर जाएं? खयाल ही भूल गया है। खयाल इसलिए
भूल गया है कि तीन चरण पूरे नहीं हुए। अन्यथा बच्चे हटाते, उसके
पहले आप हट जाते। और जो पिता बच्चों के हटाने के पहले हट जाता है, वह कभी अपना आदर नहीं खोता है, कभी अपना आदर नहीं
खोता। जो मेहमान विदा करने के पहले विदा हो जाता है, वह सदा
स्वागतपूर्ण विदा पाता है। जो मेहमान डटा ही रहता है जब तक कि घर के लोग पुलिस को
न बुला लाएं, तब फिर सब अशोभन हो जाता है। इससे घर के लोगों
को भी तकलीफ होती है, अतिथि को भी तकलीफ होती है और आतिथ्य
का भाव भी नष्ट होता है। ठीक समझदार आदमी वह है कि जब लोग रोक रहे थे, तभी विदा हो जाए; जब घर के लोग रोते हों, तभी विदा हो जाए; जब घर के लोग कहते हों कि रुकें,
अभी मत जाएं, तभी विदा हो जाए। यही ठीक क्षण
है। वह अपने पीछे एक मधुर स्मृति छोड़ जाए। वह मधुर स्मृति घर के लोगों के लिए
ज्यादा प्रीतिकर होगी, बजाय आपकी कठिन मौजूदगी के।
लेकिन
वह चौथा चरण था। तीन चरण जिसने पूरे किए हों, और जिसने ब्रह्मचर्य का आनंद लिया
हो, और जिसने काम का दुख भोगा हो, और
जिसने वानप्रस्थ होने की, वन की तरफ मुख रखने की अभीप्सा और
प्रार्थना में क्षण बिताए हों, वह चौथे चरण में अपने आप
चुपचाप--चुपचाप--विदा हो जाता है।
नीत्से
ने कहीं लिखा है,
राइपननेस इज़ आल, पक जाना सब कुछ है। लेकिन अब
तो कोई नहीं पकता। पका हुआ आदमी भी लोगों को धोखा देना चाहता है कि मैं अभी कच्चा
हूं।
मैंने
सुना है कि एक स्कूल में शिक्षक बच्चों से पूछ रहा था कि एक व्यक्ति उन्नीस सौ में
पैदा हुआ, तो उन्नीस सौ पचास में उसकी उम्र कितनी होगी? तो एक
बच्चे ने खड़े होकर पूछा कि वह स्त्री है कि पुरुष? क्योंकि
अगर पुरुष होगा, तो पचास साल का हो गया होगा। और अगर स्त्री
होगी, तो कहना मुश्किल है कि कितने साल की हुई हो। तीस की भी
हो सकती है, चालीस की भी हो सकती है, पच्चीस
की भी हो सकती है।
लेकिन
जो स्त्री पर लागू होता था,
अब वह पुरुष पर भी लागू है। अब उसमें कोई फर्क नहीं है। पका हुआ भी
कच्चे होने का धोखा देना चाहता है। बूढ़ा आदमी भी नई जवान लड़कियों से राग-रंग रचाना
चाहता है। इसलिए नहीं कि नई लड़की बहुत प्रीतिकर लगती है, बल्कि
इसलिए कि वह अपने को धोखा देना चाहता है कि मैं अभी लड़का ही हूं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि बूढ़े लोग कम उम्र की स्त्रियों में इसीलिए उत्सुक होते हैं कि वे
भुलाना चाहते हैं कि हम बूढ़े हैं। और अगर कम उम्र की स्त्रियां उनमें उत्सुक हो
जाएं, तो वे भूल जाते हैं कि वे बूढ़े हैं। अगर बर्ट्रेंड रसेल अस्सी साल की उम्र
में बीस साल की लड़की से शादी करता है, तो इसका असली कारण यह
नहीं है कि बीस साल की लड़की बहुत आकर्षक है। अस्सी साल के बूढ़े को आकर्षक नहीं रह
जानी चाहिए। और साधारण बूढ़े को नहीं, बर्ट्रेंड रसेल की
हैसियत के बूढ़े को। हमारे मुल्क में अगर दो हजार साल पहले बर्टें्रड रसेल पैदा हुआ
होता, तो अस्सी साल की उम्र में वह महर्षि हो जाता। लेकिन
इंग्लैंड में वह अस्सी साल की उम्र में बीस साल की लड़की से शादी रचाने का उपाय
करता है। वह धोखा दे रहा है अपने को। अभी भी मानने का मन होता है कि मैं बीस ही
साल का हूं। और अगर बीस साल की लड़की उत्सुक हो जाए, तो धोखा
पूरा हो जाता है, सेल्फ डिसेप्शन पूरा हो जाता है। क्योंकि
बीस साल की लड़की उत्सुक ही नहीं हो सकती न अस्सी साल के बूढ़े में! वह अस्सी साल का
बूढ़ा भी मान लेता है कि अभी दो-चार ही साल बीते हैं बीस साल को।
यह
जो मनोदशा है,
इस मनोदशा में संन्यास की नई ही धारणा का मेरा खयाल है। अब हमें
संन्यास के लिए चौथे चरण की प्रतीक्षा करनी कठिन है। आना चाहिए वह वक्त, जब हम प्रतीक्षा कर सकें। लेकिन वह तभी होगा, जब
आश्रम की व्यवस्था पृथ्वी पर लौटे। उसे लौटाने के लिए श्रम में लगना जरूरी है।
लेकिन जब तक वह नहीं होता, तब तक हमें संन्यास की एक नई
धारणा पर, कहना चाहिए ट्रांजिटरी कंसेप्शन पर, एक संक्रमण की धारणा पर काम करना पड़ेगा। और वह यह कि जो जहां है, वृक्ष से टूटने की तो कोशिश न करे, क्योंकि पका फल
ही टूटता है। लेकिन कच्चा फल भी वृक्ष पर रहते हुए अनासक्त हो सकता है। जब पका हुआ
फल कच्चे होने का धोखा दे सकता है, तो कच्चा फल पके होने का
अनुभव क्यों नहीं कर सकता है? इसलिए जो जहां है, वह वहीं संन्यस्त हो जाए।
मेरे
संन्यास की धारणा जीवन छोड़कर भागने वाली नहीं है। मेरे संन्यास की धारणा वानप्रस्थ
के करीब है। मेरे संन्यास की धारणा वानप्रस्थ के करीब है। और मैं मानता हूं, वानप्रस्थी
ही नहीं हैं, तो संन्यासी कहां से पैदा होंगे! तो मैं जिसको
अभी संन्यास कह रहा हूं, ठीक से समझें तो वानप्रस्थी।
वानप्रस्थी का मतलब यह है कि वह घर में है, लेकिन रुख उसका
मंदिर की तरफ है। दुकान पर है, लेकिन ध्यान उसका मंदिर की
तरफ है। काम में लगा है, लेकिन ध्यान किसी दिन काम से मुक्त
हो जाने की तरफ है। राग में है, रंग में है, फिर भी साक्षी की तरफ उसका ध्यान दौड़ रहा है। उसकी सुरति परमात्मा में लगी
है। इसके स्मरण का नाम मैं अभी संन्यास कहता हूं।
यह
संन्यास की बड़ी प्राथमिक धारणा है। लेकिन मैं मानता हूं कि जैसी आज समाज की स्थिति
है, उसमें यह प्राथमिक संन्यास ही फलित हो जाए, तो हम
अंतिम संन्यास की भी आशा कर सकते हैं। बीज हो जाए, तो वृक्ष
की भी आशा कर सकते हैं। इसलिए जो जहां है, उसे मैं वहीं
संन्यासी होने को कहता हूं--घर में, दुकान पर, बाजार में--जो जहां है, वहीं संन्यासी होने को कहता
हूं, सब करते हुए। लेकिन सब करते हुए भी संन्यासी होने की जो
धारणा है, संकल्प है, वह सबसे तोड़ देगा
और साक्षी पैदा होने लगेगा। आज नहीं कल, यह वानप्रस्थ जीवन
संन्यस्त जीवन में रूपांतरित हो जाए, ऐसी आकांक्षा और आशा की
जा सकती है।
सक्ताः
कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।
२५।।
इसलिए
हे भारत, कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं, वैसे
ही अनासक्त हुआ विद्वान (भी) लोकशिक्षा को चाहता हुआ कर्म करे।
कर्म
में आसक्त अज्ञानीजन जैसा कर्म करते हैं, ठीक वैसा ही अनासक्त व्यक्ति भी
कर्म करे। कर्म में जो आसक्त है, वह तो करता ही है, लेकिन करता है आसक्ति के कारण। इसीलिए हमें कठिन होती है यह बात समझनी कि
अनासक्त होकर कर्म कैसे करेंगे! फिर कारण क्या होगा? अभी तो
धन इकट्ठा करना है। आनंद मालूम होता है धन में, इसलिए धन
इकट्ठा करते हैं, अभी तो बड़ा मकान अहंकार को तृप्ति देता है,
इसलिए बड़ा मकान बनाते हैं। अभी तो दौड़ते हैं, धूपते
हैं, विक्षिप्त होकर श्रम करते हैं, क्योंकि
आसक्ति है भीतर। लेकिन अनासक्त हो जाएंगे, आसक्ति नहीं होगी,
तो फिर कैसे दौड़ेंगे? फिर कैसे भागेंगे?
फिर कैसे श्रम करेंगे?
तो
कृष्ण यहां दो बातें कहते हैं। एक तो वे यह कहते हैं कि ठीक वैसा ही कर्म करें, जैसा
आसक्त व्यक्ति कर्म करता है। अंतर कर्म में न करें, अंतर
आसक्ति में करें। क्या होगा इससे? इससे जीवन एक अभिनय हो
जाएगा। एक अभिनेता भी तो कर्म करता है।
राम
की सीता खो जाती है। राम जंगल में चिल्लाते हैं, रोते हैं, पुकारते हैं, सीता! सीता कहां है? वृक्षों को पकड़कर सिर पीटते हैं, सीता कहां है?
फिर रामलीला में बना हुआ राम भी, सीता खो जाती
है, तो चिल्लाता है। राम से जरा ज्यादा ही आवाज में चिल्लाता
है! क्योंकि राम के लिए कोई आडिएंस वहां नहीं थी, कोई देखने
वाला, सुनने वाला नहीं था। धीमे चिल्लाए होंगे, तो भी चला होगा; जोर से चिल्लाए होंगे, तो भी चला होगा। लेकिन अभिनेता जोर से चिल्लाता है। राम एक-दो दफे ही कहे
होंगे, तो भी चल गया होगा। अभिनेता को बहुत बार चिल्लाना
पड़ता है, पूरी प्रक्रिया करनी पड़ती है। अगर एक कोने में राम
और एक कोने में अभिनेता खड़ा किया जाए, तो शायद अभिनेता ही
प्रतियोगिता में जीत जाए! उसके भी कारण हैं, क्योंकि राम को
तो एक ही दफे, बिना रिहर्सल के, ऐसा
मौका आया। अभिनेता के लिए रिहर्सल के काफी मौके मिले। फिर अभिनेता वर्षों से कर
रहा है राम का पार्ट अदा। लेकिन अभिनेता और राम में वही फर्क है, जो कृष्ण कह रहे हैं। अभिनेता कर्म तो पूरा कर रहा है, लेकिन आसक्ति कोई भी नहीं है।
कर्म
हो सकता है बिना आसक्ति के। अभिनय से समझें। इसलिए हम कृष्ण के जीवन को लीला कहते
हैं और राम के जीवन को चरित्र कहते हैं। राम का जीवन लीला नहीं है। राम बहुत गंभीर
हैं, बहुत सीरियस हैं। एक-एक चीज तौलते हैं, नापते हैं।
खेल नहीं है जिंदगी; जिंदगी एक काम है, वहां रत्ती-रत्ती हिसाब है। कृष्ण की जिंदगी एक अभिनय है, वहां कुछ हिसाब नहीं है। वहां खेल है। वहां जो वे कर रहे हैं, कर रहे हैं पूरी तरह, और फिर भी भीतर जैसे कोई दूर,
अलूफ खड़ा हुआ है। इसलिए कृष्ण के जीवन को हम कहते हैं लीला, चरित्र नहीं। चरित्र में बड़ा गंभीर होना पड़ता है। चरित्र में जो हम कर रहे
हैं, उससे संयुक्त होना पड़ता है। लीला में जो हम कर रहे हैं,
उससे वियुक्त होना पड़ता है। कृष्ण अगर रोएं भी, तो भरोसा मत करना। और कृष्ण अगर हंसें भी, तो भरोसा
मत करना। और कृष्ण प्रेम भी करें, तो भरोसा मत करना। और
कृष्ण सुदर्शन लेकर लड़ने भी खड़े हो जाएं, तो भरोसा मत करना।
क्योंकि यह आदमी सब कृत्यों के बाहर ही खड़ा है। इसके लिए पूरी पृथ्वी एक नाटक के
मंच से ज्यादा नहीं है।
वही
वे अर्जुन से कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, कर तो तू ठीक वैसा ही, पूरी कुशलता से, जैसा अज्ञानीजन आसक्त होकर कर्म
करते हैं। लेकिन हो अनासक्त। अर्थात तू अभिनय कर। तू यह मत सोच कि तू युद्ध कर रहा
है। तू यही सोच कि अभिनय कर रहा है। तू यह मत सोच कि तू लोगों को मार रहा है और
लोग मर रहे हैं। तू यही सोच कि तू अभिनय कर रहा है। लेकिन हम अभिनय में भी कभी-कभी
इतने उलझ जाते हैं--अभिनय में भी--कि वह भी कर्म मालूम पड़ने लगता है।
मैंने
सुना है कि एक बार रामलीला में ऐसा हो गया। जो रावण बना था और जो स्त्री सीता बनी
थी, वे दोनों एक-दूसरे के प्रेमी थे, मंच के बाहर। इसका
पता न था मंडली को। और यह भी खयाल न था कि उपद्रव हो जाएगा। उपद्रव हो गया।
क्योंकि जब स्वयंवर रचा और लोग चिल्लाने लगे कि रावण, तू
लंका जा, लंका में आग लगी है। रावण ने कहा, आज न जाऊंगा। बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। रावण उठा और उसने उठाया धनुष-बाण और
तोड़कर रख दिया। और उसने कहा जनक से कि निकाल सीता कहां है?
वह
तो जनक थोड़ा समझदार आदमी था। उसने अपने नौकरों से कहा, भृत्यो,
यह तुम मेरे बच्चों के खेलने का धनुष-बाण उठा लाए, शिवजी का धनुष कहां है? परदा गिराया, रावण को निकाल बाहर किया! दूसरे आदमी को रावण बनाया। तब पीछे पता चला कि
वे प्रेमी थे। ऐसे तो शादी नहीं हो सकती थी, उसने सोचा कि
यहीं हो जाए! भूल गया कि हम रावण का पार्ट करने आए हैं। अभिनय में भी ऐसा हो जाता
है। इससे उलटा भी हो सकता है। जीवन में भी अभिनय हो सकता है।
अज्ञानीजन
आसक्त होकर, मोहग्रस्त होकर, जैसे कर्म में डूबे हुए दिखाई पड़ते
हैं, कृष्ण कहते हैं, तू भी उसी तरह
डूब। फर्क डूबने में मत कर, फर्क डूबने वाले में कर। फर्क
कर्म में मत कर, फर्क कर्ता में कर। फर्क बाहर मत कर,
फर्क भीतर कर।
कृष्ण
का सारा जोर,
वह जो इनर रियलिटी है, वह जो भीतर का सत्य है,
उसको रूपांतरित करने का है। उसको बदल डाल! वहां तू बस अभिनेता हो
जा। लेकिन अर्जुन तो पूछेगा न, कि अभिनेता भी क्यों हो जाऊं?
क्योंकि अभिनेता अभी अर्जुन हो नहीं गया। इसलिए बेचारे कृष्ण को
मजबूरी में, इन कंपल्शन, एक कारण बताना
पड़ता है। और वह कारण यह कि लोकमंगल के कारण, लोक के मंगल के
लिए।
वस्तुतः
इस कारण की भी कोई जरूरत नहीं है। और अगर कृष्ण कृष्ण की ही हैसियत से बात करते
होते, दूसरा आदमी भी कृष्ण की हैसियत का आदमी होता, तो यह
शर्त न जोड़ी गई होती। क्योंकि अनासक्त व्यक्ति का कर्म अनकंडीशनल है। जब सारा लोक
ही लीला है, तो लोकमंगल की बात भी बेमानी है। लेकिन कृष्ण को
जोड़नी पड़ती है यह शर्त। जिससे वे बात कर रहे हैं, वह पूछेगा,
फिर भी कोई कारण तो हो? कि अभिनय भी बेकार
करें? जहां कोई देखने ही न आया हो, वहां
अभिनय क्या करें? तो कृष्ण कहते हैं, दर्शकों
के आनंद के लिए तू अभिनय कर।
यह
जो दूसरी बात वे कह रहे हैं कि लोकमंगल के लिए, इस बात को कृष्ण बहुत मजबूरी में
कह रहे हैं। यह मजबूरी अर्जुन की समझ के कारण पैदा हुई है। अर्जुन समझ ही नहीं
सकता कि बिना कारण भी कोई कर्म हो सकता है, अकारण भी,
अनकाज्ड, अनकंडीशनल, बेशर्त।
कि जहां कोई वजह नहीं है, तो वहां क्यों काम करूं? हम भी पूछेंगे, हम भी कहेंगे कि यह तो बिलकुल पागल
का काम हो जाएगा। जब कोई भी कारण नहीं है, तो काम करें ही
क्यों? हमारा वही आसक्त मन पूछ रहा है। आसक्त मन कहता है,
कारण हो, तो काम करो। कारण न हो, तो मत करो। यह हमारे आसक्त मन की शर्त है। यह हमारा आसक्त मन या तो कहता
है कि लोभ हो, तो काम करो; लोभ न हो,
तो मत करो, विश्राम करो। यह आसक्त मन का तर्क
है।
अर्जुन
तो आसक्त है। अभी वह अनासक्त हुआ नहीं। कृष्ण को उसको ध्यान में रखकर एक बात और
कहनी पड़ती है। अन्यथा इतना कहना काफी है कि जैसे अज्ञानी आसक्तजन कर्म करते हैं, ऐसा ही तू
अनासक्त होकर कर। अभिनेता हो जा। लेकिन इतना अर्जुन के लिए काफी नहीं होगा। अर्जुन
के लिए थोड़ा-सा कारण चाहिए। तो कृष्ण कहते हैं, दूसरों के
हित के लिए! दूसरों के हित के लिए तू कर। क्यों? इतना झूठ भी
क्यों? है वह झूठ। झूठ इस अर्थों में--ऐसा नहीं है कि दूसरों
का हित नहीं होगा; ध्यान रखें, दूसरों
का हित होगा, उस अर्थ में झूठ नहीं है--झूठ इस अर्थों में कि
अनासक्त कर्म के लिए इतनी शर्त भी उचित नहीं है।
इसलिए
मैं आपसे कहना चाहूंगा कि कृष्ण, बुद्ध और महावीर के सभी वचन पूर्ण सत्य नहीं
हैं; उनमें थोड़ा असत्य आता है। उनके कारण, जिनसे वे बोले गए हैं। क्योंकि पूर्ण सत्य अर्जुन नहीं समझ सकता। पूर्ण
सत्य बुद्ध के सुनने वाले नहीं समझ सकते। पूर्ण सत्य बोलना हो, तो असत्य मिश्रित होता है। और अगर पूर्ण सत्य ही बोलना हो और असत्य
मिश्रित न करना हो, तो चुप रह जाना पड़ता है, बोलना नहीं पड़ता। इन दो के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।
इस
दूसरे हिस्से में अर्जुन को कारण बताया जा रहा है। वह कारण वैसे ही है जैसे हम
मछलियों के लिए,
पकड़ने के लिए आटा और आटे के भीतर कांटा लगाकर डाल देते हैं। मछली
कांटा नहीं पकड़ेगी, भाग खड़ी होगी। अर्जुन भी शुद्ध अनासक्त
कर्म नहीं पकड़ सकता। वह कहेगा, फिर करें ही क्यों? यही तो मैं कह रहा हूं माधव! वह कहेगा, यही तो मैं
कह रहा हूं कृष्ण! कि जब अनासक्ति ही है, तो मैं जाता हूं।
कर्म क्यों करूं? यही तो मैं कह रहा हूं! आप भी यही कह रहे
हैं, तो मुझे जाने दें। इस युद्ध से बचाएं, इस भयंकर कर्म में मुझे न जोतें।
कृष्ण
को उस कांटे पर थोड़ा आटा भी लगाना पड़ता है। वह आटा लोकमंगल का है। तो शायद अर्जुन
लोकमंगल के लिए...। क्यों?
लेकिन अगर अर्जुन की जगह ब्राह्मण होता, तो
लोकमंगल काम नहीं करता शब्द। क्षत्रिय को काम कर सकता है। क्षत्रिय को काम कर सकता
है। अगर बुद्ध से कृष्ण ने कहा होता कि लोकमंगल के लिए रुके रहो राजमहल में,
वे कहते, कोई लोकमंगल नहीं है। जब तक आत्मा का
मंगल नहीं हुआ, तब तक लोकमंगल हो कैसे सकता है? बुद्ध स्पष्ट कह देते कि बंद करो गीता, हम जाते हैं!
वह
आदमी ब्राह्मण है। उस आदमी पर कृष्ण की गीता काम न करती उस तरह से, जिस तरह
से अर्जुन पर काम कर सकती है। असल में कृष्ण ने फिर यह गीता कही ही न होती। यह
गीता एड्रेस्ड है। यह अर्जुन के लिए, क्षत्रिय व्यक्तित्व के
लिए है। इस पर पता लिखा है। इसलिए वे कहते हैं, लोकमंगल के
लिए। क्योंकि क्षत्रिय के मन में, लोग क्या कहते हैं,
इसका बड़ा भाव है। शक्ति के आकांक्षी के मन में, लोग क्या कहते हैं, लोगों का क्या होता है, इसका बड़ा भाव है। क्षत्रिय अपने पर पीछे, लोगों की
आंखों में पहले देखता है। लोगों की आंखों में देखकर ही वह अपनी चमक पहचानता है।
इसलिए
कृष्ण बार-बार अर्जुन को कहते हैं, लोकमंगल के लिए। ऐसा नहीं है कि
लोकमंगल नहीं होगा, लोकमंगल होगा। लेकिन वह गौण है, वह हो जाएगा; वह बाइप्रोडक्ट है। लेकिन कृष्ण को जोर
देना पड़ता है लोकमंगल के लिए, क्योंकि वे जानते हैं, सामने जो बैठा है, शायद लोगों के मंगल के लिए ही रुक
जाए। शायद लोगों की आंखों में उसके लिए जो भाव बनेगा, उसके
लिए रुक जाए। क्षत्रिय है। यद्यपि रुक जाए, तो कृष्ण
धीरे-धीरे उसे उस अनासक्ति पर ले जाएंगे, जहां आटा निकल जाता
है और कांटा ही रह जाता है। एक-एक कदम, एक-एक कदम बढ़ना होगा।
और कृष्ण एक-एक कदम ही बढ़ रहे हैं।
न
बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि
विद्वान्युक्तः समाचरन्।। २६।।
तथा
ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम
अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप
में स्थित हुआ
और
सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ
उनसे
भी वैसा ही करावे।
यह
सूत्र बहुमूल्य है। बहुत-सी दिशाओं से इसे समझना हितकर है। ज्ञानीजन को चाहिए कि
अज्ञानियों के मन में कर्म के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न न करे। ज्ञानीजन को चाहिए कि
अज्ञानीजनों के जीवन में उत्पात न हो जाए, इसका ध्यान रखे। ज्ञानी की स्थिति
वस्तुतः बहुत नाजुक है। नाजुक उसी तरह, जैसे किसी पागलखाने
में उस आदमी की होती है, जो पागल नहीं है। पागलखाने में पागल
इतनी नाजुक स्थिति में नहीं होते, जितनी नाजुक स्थिति में वह
आदमी होता है, जो पागल नहीं होता है।
मैं
अपने एक मित्र को जानता हूं, जो पागल हो गए थे। घर से भाग गए। चोरी, और-और न मालूम क्या-क्या पागलपन में किया। अपना नाम-पता भी भूल गए। फिर
किसी अदालत ने उन्हें डेढ़ साल की सजा दे दी और लाहौर के पागलखाने में बंद करवा
दिया। छह महीने तक तो वे पूरे पागल थे। किसी दिन भूल-चूक से पागलखाने के
अधिकारियों की, फिनाइल का पूरा डब्बा मिल गया, वे उसको पी गए। फिनाइल पी जाने से कुछ हुआ--कभी ऐसा हो जाता है--कि उनको
इतने कै-दस्त हुए कि उनका पागलपन कै-दस्त में निकल गया। पांच-सात दिन के बाद वे
बिलकुल स्वस्थ हो गए। पागल न रहे।
तो
वे मुझे कहते थे कि मुझे सालभर फिर गैर-पागल हालत में पागलों के बीच बितानी पड़ी।
और वह जो कष्ट मैंने देखा जिंदगी में, उसका कोई हिसाब नहीं। जब तक पागल
था, मुझे कष्ट का कोई पता ही नहीं था। क्योंकि जो दूसरे कर
रहे थे, वही मैं भी कर रहा था। सब लाजिकल मालूम होता था। सब
ठीक मालूम होता था। अगर कोई मेरा सिर हिला देता था, पैर खींच
लेता था, तो कुछ गड़बड़ नहीं मालूम होती थी, सब ठीक मालूम होता था। जब मैं ठीक हो गया, तब उपद्रव
शुरू हुआ। क्योंकि अब मैं दूसरे के पैर नहीं खींच सकता था, लेकिन
दूसरे तो मेरे खींचे ही चले जा रहे थे। और जितना ही मैं अधिकारियों से कहता कि मैं
बिलकुल ठीक हूं, तो वे कहते, यह तो सभी
पागल कहते हैं। अगर न कहूं कि मैं बिलकुल ठीक हूं, तो कोई
सुनने वाला नहीं है; अगर कहूं, तो भी
कोई सुनने वाला नहीं। क्योंकि वे कहते, यह तो सभी पागल कहते
हैं। कौन पागल है, जो मानता है कि मैं पागल हूं! एक साल
पागलखाने में गैर-पागल को बितानी पड़ी।
ज्ञानी
की हालत करीब-करीब अज्ञानियों के बीच ऐसी ही डेलिकेट, ऐसी ही
नाजुक हो जाती है। अगर ज्ञानी अपने ज्ञान के अनुसार आचरण करे, तो अनेक अज्ञानियों के लिए भटकने का कारण बन सकता है। अगर ज्ञानी अपने
शुद्ध आचरण में जीए, तो अनंत अज्ञानियों के लिए और गहन
अंधकार में, गहन नर्क में गिरने का कारण बन सकता है। अगर
ज्ञानी अपने शुद्ध ज्ञान की बात भी कहे, तो अनेक अज्ञानियों
के जीवन को अस्तव्यस्त कर देगा।
ज्ञानी
कैसे आचरण करे;
क्या कहे, क्या न कहे; कैसे
उठे, कैसे बैठे; क्या बोले, क्या न बोले--यह बड़ा नाजुक मामला है। और कई बार जब ज्ञानी इतना स्मरण नहीं
रखता, तो नुकसान पहुंचता है। बहुत बार पहुंचा है। क्योंकि
ज्ञानी जहां से बोलता है, वहां से वह अज्ञानी के चित्त में
प्रकाश का द्वार खोले, यह जरूरी नहीं है। जरूरी नहीं है कि
उसकी वाणी, उसका आचरण सूर्य का द्वार बन जाए अज्ञानी के जीवन
में। यह भी हो सकता है कि अज्ञानी का जो टिमटिमाता दीया था, जिसकी
रोशनी में वह किसी तरह टटोलकर जी लेता था, वह भी बुझ जाए।
इतना
तो निश्चित है कि जिसने सूर्य को देखा, वह कहेगा, बुझा
दो दीयों को, इनसे क्या होने वाला है! इतना तो निश्चित है,
जिसने अनासक्त कर्म को अनुभव किया, वह कहेगा,
पागलपन कर रहे हो तुम। लेकिन पागलपन कह देने से कुछ पागलपन नहीं
होता। और पागल एक चीज को छोड़कर दूसरे को पकड़ ले, तो भी कुछ
फर्क नहीं पड़ता; अंतर जरा भी नहीं आता। वह आदमी वही का वही
रह जाता है। सिर्फ रूप, आकार बदल जाते हैं।
इसलिए
कृष्ण यहां एक बहुत महत्वपूर्ण सूत्र कह रहे हैं। शायद इस सदी के लिए और भी ज्यादा
महत्वपूर्ण, क्योंकि इस सदी का सारा उपद्रव अज्ञानियों के कारण कम और ज्ञानियों के
कारण ज्यादा है। फ्रायड ने कुछ सत्य उपलब्ध किए, ये सत्य नए
नहीं हैं। ये सत्य पतंजलि को भी पता हैं; ये सत्य मौलिक नहीं
हैं। ये सत्य गौतम बुद्ध को भी पता हैं; ये सत्य कोई बहुत
नूतन आविष्कार नहीं हैं। जिन्होंने भी जीवन की गहराई में प्रवेश किया है, उन्हें इनका सदा ही पता रहा है। लेकिन फिर भी ये सत्य इस भांति कभी नहीं
कहे गए थे, जिस भांति फ्रायड ने कहे हैं। फ्रायड को कृष्ण के
इस सूत्र का कोई पता नहीं है। इसलिए इन सत्यों से लाभ नहीं हुआ, हानि हुई है। इसलिए इन सत्यों से मंगल नहीं हुआ, अमंगल
हुआ है।
कृष्णमूर्ति
जो कहते हैं,
वह कृष्ण को भलीभांति पता था, बुद्ध को भी पता
था, महावीर को भी पता था, लाओत्से को
भी पता था, क्राइस्ट को भी पता था। लेकिन क्राइस्ट, लाओत्से, बुद्ध और महावीर और कृष्ण ने इस भांति नहीं
कहा, जिस भांति वे कहते हैं। इसलिए बुद्ध, क्राइस्ट और महावीर से तो लोगों के जीवन में मंगल फलित हुआ; कृष्णमूर्ति की बातों से मंगल फलित नहीं हुआ है, नहीं
हो सकता है। इसलिए नहीं कि जो कहा जा रहा है वह गलत है, बल्कि
इसलिए कि वह जिनसे कहा जा रहा है, उनको बिना समझे कहा जा रहा
है।
इसलिए
चालीस-चालीस वर्ष से कृष्णमूर्ति को लोग बैठकर सुन रहे हैं। उससे कृष्णमूर्ति उनकी
समझ में नहीं आए,
सिर्फ महावीर, बुद्ध और कृष्ण उनकी समझ के
बाहर हो गए हैं। उससे सूरज उनकी जिंदगी में नहीं उतरा, सिर्फ
जो उनके पास छोटे-मोटे दीए थे, वे भी उन्होंने बुझा दिए हैं।
और अब अगर उनसे कोई दीयों की बात करे, तो वे सूरज की बात
करते हैं। और सूरज उनकी जिंदगी में नहीं है। अब अगर उनसे कोई साधना की बात करे,
तो वे कहते हैं, साधना से क्या होगा? साधना से कुछ नहीं हो सकता। और बिना साधना की उनकी जिंदगी में कुछ भी नहीं
हुआ है! अब अगर उनसे कोई उपाय की बात करे कि इस उपाय से मन शांत होगा, आनंदित होगा, तो वे कहेंगे, उपाय
से कंडीशनिंग हो जाती है, संस्कार हो जाते हैं। उपाय से कुछ
भी नहीं हो सकता, इससे तो कंडीशनिंग हो जाएगी। और
नान-कंडीशनिंग उनकी हुई नहीं है सुन-सुनकर। सूरज उतरा नहीं! जिन दीयों से सूरज के
अभाव में काम चल सकता था, वे भी बुझा दिए गए हैं। सूरज निकल
आए, फिर तो दीए अपने से ही बुझ जाते हैं, बुझाने नहीं पड़ते। और जलते भी रहें, तो दिखाई नहीं
पड़ते। उनका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, वे व्यर्थ हो जाते
हैं। लेकिन सूरज न निकले, तो छोटे-से दीए भी काम करते हैं।
बुद्ध
और महावीर में ज्यादा करुणा है, कृष्णमूर्ति के बजाय। कृष्ण और क्राइस्ट में
ज्यादा करुणा है, कृष्णमूर्ति के बजाय। करुणा इस अर्थों में
कि वे निपट सत्य को निपट सत्य की तरह नहीं कह दे रहे हैं, आप
पर भी ध्यान है कि जिससे कह रहे हैं, उस पर क्या होगा! सवाल
यही महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं कह दूं सत्य को। सवाल यह भी महत्वपूर्ण है, परिणाम क्या है? इससे होगा क्या? उससे जो होगा, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है, बजाय मेरे कह देने के। क्योंकि अंततः मैं कह इसलिए रहा हूं कि कुछ हो,
और वह मंगलदायी हो।
फ्रायड
ने, डार्विन ने, कृष्णमूर्ति ने सारे जगत में जो बातें कही
हैं, वे झूठ नहीं हैं, वे सच हैं। उनकी
सचाई में रत्तीभर फर्क नहीं है। लेकिन उन्हें बुद्धिमानी से नहीं कहा गया है।
जानते हैं; जो जानते हैं, वह ठीक जानते
हैं। लेकिन जिनसे कहा जा रहा है, उन्हें ठीक से नहीं जानते।
आदमी से गलत छुड़ा लेना बहुत आसान है, जरा भी कठिन नहीं है।
किसी चीज को भी गलत सिद्ध कर देना बहुत आसान है, जरा भी कठिन
नहीं है। लेकिन सही का पदार्पण, सही का आगमन और अवतरण बहुत
कठिन है।
कृष्ण
यही कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि अर्जुन, अनासक्त व्यक्ति को अज्ञानियों पर
ध्यान रखकर जीना चाहिए। ऐसा न हो कि अनासक्त व्यक्ति छोड़कर भाग जाए, तो अज्ञानी भी छोड़कर भाग जाएं। अनासक्त छोड़कर भागेगा, तो उसका कोई भी अहित नहीं है। लेकिन अज्ञानी छोड़कर भाग जाएंगे, तो बहुत अहित है। क्योंकि अज्ञान में छोड़कर वे जहां भागेंगे, वहां फिर कर्म घेर लेगा। उससे कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। दुकान छोड़कर
मंदिर में जाएगा अज्ञानी, तो मंदिर में नहीं पहुंचेगा,
सिर्फ मंदिर को दुकान बना देगा। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। खाते-बही
पढ़ते-पढ़ते एकदम से गीता पढ़ेगा, तो गीता नहीं पढ़ेगा, गीता में भी खाते-बही ही पढ़ेगा।
अज्ञानी
सत्यों का भी दुरुपयोग कर सकता है, करता है। सत्यों का भी दुरुपयोग हो
सकता है और असत्यों का भी सदुपयोग हो सकता है। ज्ञानी छोड़ दे सब। अज्ञानी भी छोड़ना
चाहता है, लेकिन छोड़ना चाहने के कारण बिलकुल अलग हैं। ज्ञानी
इसलिए छोड़ देता है कि पकड़ना, न पकड़ना, बराबर
हो गया। चीजें छूट जाती हैं, दे जस्ट विदर अवे। अज्ञानी
छोड़ता है; चीजें छूटती नहीं, चेष्टा
करके छोड़ देता है। जिस चीज को भी चेष्टा करके छोड़ा जाता है, उसमें
पीछे घाव छूट जाता है।
जैसे
कच्चे पत्ते को कोई वृक्ष से तोड़ लेता है, कच्ची डाल को कोई वृक्ष से तोड़
लेता है, तो पीछे घाव छूट जाता है। पका पत्ता भी टूटता है,
लेकिन कोई घाव नहीं छूटता। पके पत्ते को सम्हलकर छूटना चाहिए,
कच्चे पत्तों को टूटने का खयाल न आ जाए। कच्चे पत्ते भी टूटने के
लिए आतुर हो सकते हैं। पके पत्ते का आनंद देखेंगे हवाओं में उड़ते हुए और खुद को
पाएंगे बंधा हुआ। और पका पत्ता हवाओं की छाती पर सवार होकर आकाश में उठने लगेगा,
और पका पत्ता पूर्व और पश्चिम दौड़ने लगेगा, और
पके पत्ते की स्वतंत्रता--वृक्ष से टूटकर, मुक्त होकर--कच्चे
पत्तों को भी आकर्षित कर सकती है। वे भी टूटना चाह सकते हैं। वे भी कह सकते हैं,
हम भी क्यों बंधे रहें इस वृक्ष से! टूटें। लेकिन तब पीछे वृक्ष में
भी घाव छूट जाता और कच्चे पत्ते में भी घाव छूट जाता। और घाव खतरनाक है।
इसलिए
ध्यान रखें, पका पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता नहीं।
कच्चा पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता है। पका पत्ता
सड़ेगा क्या! सड़ने के बाहर हो गया पककर। कच्चा पत्ता जब भी टूटेगा तो सड़ेगा। अभी
कच्चा ही था; अभी पका कहां था? अभी तो
सड़ेगा। और ध्यान रखें, पकना एक बात है, और सड़ना बिलकुल दूसरी बात है।
कच्चा
आदमी वैसा ही होता है,
जैसे कच्ची लकड़ी को हम ईंधन बना लें। तो आग तो कम जलती है, धुआं ही ज्यादा निकलता है। पकी लकड़ी भी ईंधन बनती है, लेकिन तब धुआं नहीं निकलता, आग जलती है। जो व्यक्ति
जानकर जीवन से छूट जाता है सहज, वह पकी लकड़ी की तरह ईंधन बन
जाता है, उसमें धुआं नहीं होता। कच्चे व्यक्ति अगर छूट जाते
हैं पक्के लोगों को देखकर, तो आग पैदा नहीं होती, सिर्फ धुआं ही धुआं पैदा होता है। और लोगों की आंखें भर जलती हैं, भोजन नहीं पकता है।
कृष्ण
कह रहे हैं, ज्ञानी को बहुत ही...तलवार की धार पर चलना होता है। उसे ध्यान रखना होता
है अपने ज्ञान का भी, चारों तरफ घिरे हुए अज्ञानियों का भी।
इसलिए ऐसा उसे बर्तना चाहिए कि वह किसी अज्ञानी के कर्म की श्रद्धा को चोट न बन
जाए; वह उसके कर्म के भाव को आघात न बन जाए; वह उसके जीवन के लिए आशीर्वाद की जगह अभिशाप न बन जाए।
बन
गए बहुत दफा ज्ञानी अभिशाप! और अगर ज्ञान के प्रति इतना भय आ गया है, तो उसका
कारण यही है। बुद्ध को देखकर लाखों लोग घर छोड़कर चले गए। चंगेज खां ने भी लाखों
घरों को बरबाद किया। लेकिन चंगेज खां को इतिहास दोषी ठहराएगा, बुद्ध को नहीं ठहराएगा। हजारों स्त्रियां रोती, तड़पती-पीटती
रह गईं। हजारों बच्चे अनाथ हो गए पिता के रहते। हजारों स्त्रियां पतियों के रहते
विधवा हो गईं। हजारों घरों के दीए बुझ गए। कृष्ण यही कह रहे हैं...। और इसके
दुष्परिणाम घातक हुए और लंबे हुए। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि संन्यास में एक
तरह का भय समाहित हो गया।
अब
अगर मेरे पास कोई आता है--और मेरा संन्यास बिलकुल और है; अभिशाप की
तरह नहीं है, वरदान की तरह है--तो वह कहता है, मेरी पत्नी खिलाफ है। क्योंकि पत्नी संन्यासी के खिलाफ होगी ही। पत्नी अगर
आती है, तो वह कहती है, मेरा पति खिलाफ
है कि भूलकर संन्यास मत ले लेना। क्योंकि संन्यास की जो धारणा निर्मित हुई हमारे
देश में, वह धारणा कच्चे पत्तों के टूटे होने की धारणा थी।
तो डर लगता है कि अगर पति संन्यासी हुआ, तो क्या होगा?
सब बरबाद हो जाएगा। पत्नी संन्यासिनी हो गई, तो
क्या होगा? सब बरबाद हो जाएगा।
बुद्ध
और महावीर के अनजाने ही कच्चे पत्ते टूटे। और कच्चे पत्ते टूटे, तो पीछे
घाव छूट गए। वे घाव अब तक भी मनस, हमारे समाज के मानस में भर
नहीं गए हैं। अभी भी दूसरे का बेटा संन्यासी हो, तो हम फूल
चढ़ा आते हैं उसके चरणों में; खुद का बेटा संन्यासी होने लगे,
तो प्राण कंपते हैं। खुद का बेटा चोर हो जाए, तो
भी चलेगा; संन्यासी हो जाए, तो नहीं
चलता है। डाकू हो जाए, तो भी चलेगा। कम से कम घर में तो
रहेगा! दो साल सजा काटेगा, वापस आ जाएगा। संन्यासी हो जाए,
तो गया; फिर कभी वापस नहीं लौटता। इसलिए इस
देश में संन्यास को हमने इतना आदर भी दिया, उतने ही हम भयभीत
भी हैं भीतर; डरे हुए भी हैं; घबड़ाए
हुए भी हैं। यह घबड़ाहट उन ज्ञानियों के कारण पैदा हो जाती है, जो अज्ञानियों का बिना ध्यान लिए वर्तन करते हैं।
तो
कृष्ण कहते हैं कि तू ऐसा बर्त कि तेरे कारण किसी अज्ञानी के सहज जीवन की श्रद्धा
में कोई बाधा न पड़ जाए। हां, ऐसी कोशिश जरूर कर कि तेरी सुगंध, तेरे अनासक्ति की सुवास, उनके जीवन में भी धीरे-धीरे
अनासक्ति की सुवास बने, अनासक्ति की सुगंध बने और वे भी जीवन
में रहते हुए अनासक्ति को उपलब्ध हो सकें। तो शुभ है, तो
मंगल है, अन्यथा अनेक बार मंगल के नाम पर अमंगल हो जाता है।
आखिरी
श्लोक।
प्रकृतेः
क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा
कर्ताहमिति मन्यते।। २७।।
(वास्तव में) संपूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए हुए हैं,
(तो भी) अहंकार से मोहित हुए अंतःकरण वाला पुरुष,
मैं
कर्ता हूं, ऐसे मान लेता है।
समस्त
कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किए हुए हैं। लेकिन अज्ञान से, अहंकार से
भरा हुआ पुरुष, मैं कर्ता हूं, ऐसा मान
लेता है। दो बातें हैं।
सच
ही, सब कुछ किया हुआ है प्रकृति का। जिसे आप कहते हैं, मैं
करता हूं, वह भी प्रकृति का किया हुआ है। जिसे आप कहते हैं,
मैं चुनता हूं, वह भी प्रकृति का चुना हुआ है।
आप कहते हैं कि कोई चेहरा मुझे प्रीतिकर लगता है, चुनता हूं
इस चेहरे को, विवाह करता हूं। लेकिन कभी आपने सोचा कि यह
चेहरा आपको प्रीतिकर क्यों लगता है? अंधा है चुनाव! क्या
कारण हैं इसके प्रीतिकर लगने का? यह आंख, यह नाक, यह चेहरा, प्रीतिकर
क्यों लगता है? बस, लगता है। कुछ और कह
सकेंगे, क्यों लगता है? शायद कहें कि
आंख काली है। लेकिन काली आंख क्यों प्रीतिकर लगती है? यह आंख
आपकी आंख में प्रीतिकर लगती है। यह आपकी प्रकृति और इस आंख की प्रकृति के बीच हुआ
तालमेल है। इसमें आप कहां हैं?
आप
कहते हैं, यह चीज मुझे बड़ी स्वादिष्ट लगती है। कभी आपने सोचा कि स्वादिष्ट लगती है,
आपको? लेकिन बुखार चढ़ जाता है, और फिर स्वादिष्ट नहीं लगती। सिर्फ आपकी जीभ पर प्रकृति के रसों का और
भोजन के रसों का तालमेल है। आप नाहक बीच में पड़ जाते हैं। आप नाहक हर जगह बीच में
खड़े हो जाते हैं।
आप
कहते हैं, मुझे जीने की इच्छा है। लेकिन आपको जीने की इच्छा है या आप ही जीने की
इच्छा के एक अंग हैं? एक आदमी कहता है, मैं आत्महत्या कर रहा हूं। यह आदमी स्वयं आत्महत्या कर रहा है कि जीवन के
सारे गुण उस जगह आ गए हैं, जहां आत्महत्या घटित होती है?
यदि हम कर्मों में गहरे उतरकर देखें, और
अहंकार में भी, तो अहंकार एक भ्रांति है। जीवन कर रहा है,
सब कुछ जीवन कर रहा है। सुख-दुख, जो आपको सुखद
लगता है, वह भी प्रकृति का गुणधर्म है। जो आपको दुखद लगता है,
वह भी प्रकृति का गुणधर्म है।
मैं
एक राजमहल में मेहमान था। पहली ही दफा राजमहल में मेहमान हुआ, तो बड़ी
मुश्किल में पड़ गया, रातभर सो न सका। ऐसी मुश्किल मुझे कभी न
आई थी। ऐसे सुख का कोई अभ्यास न था। सुख का भी अभ्यास चाहिए, अन्यथा दुख बन जाता है। क्योंकि तालमेल, कोई हार्मनी
नहीं बन पाती। जिनका अतिथि था, उनके पास जो श्रेष्ठतम,
जो भी श्रेष्ठतम था, उन्होंने इंतजाम किया था।
गद्दी ऐसी थी कि मैं पूरा ही उसमें डूब जाऊं। करवट लूं, तो
मुसीबत; फिर नींद खुल जाए। एक तो नींद लगनी ही मुश्किल। ऊपर
मसहरी पर पूरा आईना था। अंदर ही पंखे थे। जरा आंख खुले, तो
पूरी तस्वीर ऊपर दिखाई पड़े! अकेला होना मुश्किल हो गया, अपनी
ही तस्वीर पीछा करे! आधी रात तक जद्दोजहद की, लड़ाई की कि कोई
तरह जीत जाऊं उस गद्दी से, जीत नहीं हो सकी। फिर नीचे फर्श
पर सो गया और नींद आ गई। सुबह मित्र आए। मुझे फर्श पर देखा, तो
दुखी हुए। और कहा कि कुछ अड़चन हुई आपको? इंतजाम ठीक नहीं कर
पाए? मैंने कहा, ज्यादा कर दिया! फर्श
पर बड़ा सुख मिला। तालमेल पड़ गया। गद्दी आपकी जरा ज्यादा गद्दी थी; अभ्यास नहीं था, तालमेल नहीं हो सका।
जिसे
हम सुख कहते हैं,
वह भी तालमेल है। जिसे हम दुख कहते हैं, वह भी
तालमेल है या तालमेल का अभाव है। लेकिन मैं सुखी होता हूं, मैं
दुखी होता हूं, वह भ्रांति है। सिर्फ मेरे भीतर जो प्रकृति
है और मेरे बाहर जो प्रकृति है, उसके बीच संबंध निर्मित होते
हैं। जन्म भी एक संबंध है, मृत्यु भी एक संबंध है। लेकिन मैं
कहता हूं, मैं जन्मा; और मैं कहता हूं,
मैं मरा। और जवानी भी एक संबंध है, मेरे भीतर
की प्रकृति और बाहर की प्रकृति के बीच। और बुढ़ापा भी एक संबंध है। लेकिन मैं कहता
हूं, मैं जवान हुआ और मैं बूढ़ा हुआ। हार भी एक संबंध है,
मेरी प्रकृति के बीच और बाहर की प्रकृति के बीच। जीत भी एक संबंध है,
मेरी प्रकृति के बीच और बाहर की प्रकृति के बीच। लेकिन मैं हारता
हूं, मैं जीतता हूं-- अकारण, व्यर्थ।
कृष्ण
कह रहे हैं, ज्ञानी पुरुष इस अहंकार, इस अज्ञान, इस भ्रम से बच जाता है कि मैं कर्ता हूं, और देखता
है, प्रकृति करती है। और जैसे ही खयाल आता है कि प्रकृति
करती है, कि सब सुख-दुख खो जाते हैं। और जैसे ही खयाल आता है
कि प्रकृति के गुणधर्मों का फैलाव सब कुछ है, हम उसमें ही
उठी हुई एक लहर से ज्यादा नहीं, उसके ही एक अंश--वैसे ही
जीवन से आसक्ति-विरक्ति खो जाती है, और आदमी अनासक्त,
वीतराग, ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। अर्जुन
से वे कह रहे हैं कि तू लड़ रहा है, ऐसा मत सोच, प्रकृति लड़ रही है।
कौरवों
की एक प्रकृति है,
एक गुणधर्म है; पांडवों की एक प्रकृति है,
एक गुणधर्म है। तालमेल नहीं है। संघर्ष हो रहा है। जैसे सागर की लहर
आती और तट से टकराती। लेकिन हम कभी ऐसा नहीं कहते कि सागर की लहर तट से लड़ रही है।
लेकिन अगर लहर को होश आ जाए और लहर चेतन हो जाए, तो लहर
तैयारी करके आएगी कि लड़ना है तट से। और तट तैयारी रखेगा कि लड़ना है लहर से। अभी
दोनों को कोई होश नहीं है, इसलिए कोई लड़ाई नहीं है। लहर तट
से टकराती, बिखरती, तट भी टूटता रहता।
दोनों गुणधर्म चलते रहते हैं। कहीं कोई जीतता नहीं, कहीं कोई
हारता नहीं। आदमी, आदमियों की लहरें जब लड़तीं हैं, तो हम लड़ते हैं, प्रकृति को भूलकर।
कृष्ण
के हिसाब से धर्म और अधर्म की लड़ाई है। कृष्ण के हिसाब से प्रकृति के बीच ही उठी
हुई दो लहरों का संघर्ष है। इसमें अर्जुन नाहक ही...। हां, अर्जुन
लहर के ऊपर है, एक लहर के ऊपर है; इसलिए
भ्रम में हो सकता है कि मैं लड़ रहा हूं। इस भ्रम में हो सकता है कि मैं हारूंगा,
मैं जीतूंगा। इस भ्रम में हो सकता है कि मैं मारूंगा, मिटूंगा। वह सिर्फ लहर के ऊपर है, जैसे समुद्र की
लहर के ऊपर झाग होती है। झाग भी अकड़ उठे, अगर उसको होश आ
जाए। लहर के ऊपर होती है। जैसे कि सम्राटों के सिर पर राजमुकुट होते हैं, ऐसे ही लहर पर झाग होती है। अर्जुन भी झाग है एक लहर की, वह दुर्योधन भी झाग है एक लहर की। दोनों लहरें टकराएंगी और प्रकृति निर्णय
करती रहेगी कि क्या होना है।
जिस
दिन कोई व्यक्ति जीवन को अहंकार से मुक्त करके देख पाता, उसी दिन
हार-जीत, सुख-दुख, सब खो जाते हैं।
ज्ञानी तब कर्म करता और कर्ता नहीं बनता है। ज्ञानी तब सब कुछ होता और फिर भी भीतर
से कुछ भी नहीं होता है। तब ज्ञानी जवान होता और जवान नहीं होता, भीतर वही रहता है, जो बचपन में था। और बूढ़ा होता और
बूढ़ा नहीं होता है, भीतर वही रहता है, जो
जवानी में था। और मरता है और नहीं मरता, भीतर वही रहता है,
जो जीवन में था। तब ज्ञानी भीतर अस्पर्शित, अनटच्ड।
लेकिन
स्पर्शित हो जाते हैं हम अहंकार के कारण। अहंकार बहुत सेंसिटिव है; छुआ नहीं
कि दुखा नहीं। छुओ और दुखा। बस, अहंकार ही सारा स्पर्श ले
लेता है। रास्ते पर आप जा रहे हैं, कोई हंस देता है। और आपका
अहंकार स्पर्श ले लेता है; दुखी होने लगे। बड़ी मुश्किल है।
एक लहर हंसती है, उसे हंसने दें। और एक लहर को हक है कि
दूसरी लहर को देखकर हंसे। आप क्यों परेशान हैं? नहीं,
लेकिन आप परेशान न होते, अगर आपने जाना होता
कि प्रकृति ऐसी है।
आप
गिर पड़े हैं। केले के छिलके पर पैर फिसल गया और चार लोग हंस दिए हैं। बिलकुल ठीक
है; इसमें कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। जैसे छिलके के ऊपर पैर पड़ता है, आप गिर जाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर आपके गिरने की
घटना पड़ती है और हंसी फूट जाती है। यह सब प्रकृति का गुणधर्म है। आपके हाथ में
नहीं है, छिलके पर पैर पड़ा, गिर गए।
उनके हाथ में नहीं, कि हंसी बिखर गई। और आप अब दुखी होकर चले
जा रहे हैं। अब कल आप जरूर उनके रास्ते पर छिलके बिछाएंगे। जरूर कल उनको गिराकर
हंसना चाहेंगे। अब आप जाल में पड़ते हैं, अब आप व्यर्थ के जाल
में पड़ते हैं। वह जाल अहंकार स्पर्शित होने से हुआ है।
कृष्ण
इतना ही कहते हैं कि ज्ञानी करता है कर्म, लेकिन कर्ता नहीं बनता है। बस जो
कर्ता नहीं बनता, वह जीवन के परम सत्य को उपलब्ध हो जाता है।
शेष
रात बात करेंगे।
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