अचानक घर की घंटी बजी, घंटी बजाने के ढंग से ही
मैं समझ गया की पापा जी आ गये। मैं हड़बड़ी में बहुत तेजी से भोंकता हुआ आँगन की
और दौड़ा। एक लम्बा खिचाव था, एक चुंबकीय विछोह....मैंने दरवाजे के नीचे से ही
सूंघ लिया और लगा दरवाजे के पंजा मरने। की जल्दी से कोई आकर इन्हें खोले। मुझसे
रहा नहीं जा रहा था। एक अजीब सी खुशी थी जो मुझमें समा नहीं पा रही थी। ये मनुष्य
भी कितने सुस्त है। कोई काम चटकी से कर क्यों नहीं पाते। काम करने वाली अम्मा
किसी तरह से घीसिड़ —पीसड़ करती हुई आई और उसने दरवाजा खोला1 सामने मम्मी—पाप
खड़े थे। पापा जी वही महरून कुर्ता पायजामा पहने थे, पापा जी के हाथ में दो बैग
थे।
मम्मी जी के हाथ में एक
छोटा बैग था। मम्मी जी पहले अंदर आई मैं खुशी के मारे लगभग रो रहा था।
कुं...कुं....कुं करके चक्कर लगा रहा था। अम्मा जी एक बैग ले कर अंदर चली गई।
मम्मी जी ने जैसे ही मेरे सर पर हाथ फेरना चाहा मैं उछला और अपनी जीभ सीधी मम्मी
जी के मुंह में डाल दी। और कोई दिन होता तो मेरी शामत आ जाती पर आज मम्मी जी ने
मेरी इस बेहूदगी को हंसी में टाल दिया।
मम्मी जी के मुंह की सुगंध और एक अंजान सी
मीठा पन मेरे रोएं—रोएं में समा गया। जिस स्वाद को मैं आपको शब्दों में नहीं बता
सकता। केवल उसे महसूस कर सकता हूं। पर वो स्वाद इतना अनूठा था जिस सालों बाद भी
में नहीं भूल पाया।
परंतु उससे मिलता झूलता सुस्वाद मुझे
अलग—अलग कई कार्य करते हुए महसूस हुआ जरूर। कभी जब में मस्त हो कर बच्चों के साथ
खेलता या ध्यान के कमरे में आँख बंद किये ओशो जी के प्रवचन सुन रहा होता, वह स्वाद
ऐसा था जो केवल मुंह तक ही सीमित नहीं रहता था, पूरे बदन के रोएं—रोएं में फेल
जाता था। मस्तिष्क उससे अबछादित हो जाता था। आंखों में एक अंजान ख़ुमारी सी छा जाती
थी। चाल ऐसी हो जाती थी मानों आप जमीन पर चल नहीं रहे, केवल छू भर रहे है। शरीर
निर्भार हो जाता था। कि तब ऊड़ा की अब ऊड़ा। वो स्वाद बहार से छुअन मात्र था। पर
अंदर गहरे तलों से कोई अंजान स्त्रोत फूट पड़े थे। खाने की वस्तु का स्वाद हम
बाहर से अंदर की और ले जाते है। इस की क्रिया तो बहार से हुई है और प्रतिक्रिया
अंदर से आई है।
जैसे किसी गहरी घटी में
आप खड़े होकर जौर से आवाज दे और आवाज प्रतिध्वनि कर बार—बार लोट आये। कई गुणा
होकर। और वह स्वाद अंदर से बाहर की और फूटता है। बिना कि कारण...केवल अपने होने
में वह परिपूर्ण है। इस लिए उसे कहा नहीं सकता। उसे महसूस किया जा सके ये भी बहुत
बड़ी उपलब्धि है।
मम्मी—पापा दोनों ने गले में एक अजीब सी
माला पहन रखी थी। वरूण भैया भाग कर पापा जी के पास आया और उन से चिपट कर रोने लगा।
कुछ देर में दीदी भी आ कर रोने लगी। मुझे बड़ा अजीब लग रहा था कि ये तो खुशी की
बात है पर ये लोग फिर रो क्यों रहे है। शायद गहरी खुशी में भी आंख से आंसू बह
पड़ते है। इस बात को हम पशु महसूस नहीं कर सकते।
क्योंकि हम भाव रिक्त
है। हमारे भाव कुछ ठोस है। इसी बीच पापा जी ने अपने गले की माला उतरी और वरूण के
गले में डाल दी। वरूण भैया का रोना पल में ही खुशी और गर्व में तबदील हो गया। अब
वह घूम—घूम कर हम सब को चिड़ा रहा था। कि देखो मुझे वो सब मिला जो तुम्हारे पास
नहीं है। कुछ क्षण के लिए तो मैं दीदी और हिमांशु उदास हो गये। की वरूण भैया ने सच
में ही बाजी मार ली। ये सब मुझसे देखा नहीं गया और मैंने अपना प्रतिरोध जताने के
लिए भोंकना, शुरू कर दिया....कि हम तो रह गये......क्या हमें कुछ भी नहीं मिलेगा।
इस बीच मैं चोर नजरों से देख रहा था कि मम्मी
पापा का रंगरूप ही इन कुछ दिनों में बदल गया था। उनका चेहरा, उनकी आंखों, उनका
ललाट, एक अपूर सौंदर्य से भर गया था। आंखों की गहराई तो इतनी बढ़ गई थी की मुझे
देखने से भी डर लग रहा था। मानों अभी उनमें डूब जाऊँगा। मैंने इससे पहले किसी की
आंखें इतनी गहरी नहीं देखी थी। इतने दिन में ये कैसा कायाकल्प हो गया, ये मेरी
समझ के बाहर की बात थी। शायद यहीं है मनुष्य की प्रगति का राज ओर रहस्य।
इसी बीच मम्मी जी ने बैग से एक डिब्बा
निकाला मेरे कान खड़ हो गये। पन्नी की चर—चर से ही मैं समझ जाता था की ये जरूर
कोई खाने की चीज खुल रही है। और मेरे मुंह में पानी आ जाता था। मम्मी जी ने पेड़ो
से भरा वह डिब्बा खोला, उसकी मधुर सुगंध से मैं नाह गया। सबसे पहले उस का एक
पैड़ा मुझे मिला। और सब को शायद दो—दो। परंतु मैं तो उसे पल में ही चटकर इधर उधर
देखने लगा।
कुछ क्षण के लिए वह पैड़ा
मेरे मुहँ में रहा और झट से पेट के अंदर। और ये मनुष्य कितने इत्मीनान से चबा—चबा
कर, स्वाद ले कर खाता है। फिर हम इस तरह से क्यों नहीं खा सकते। अंदर से मुझे
अजीब भी लग रहा था पर ये पुरानी जन्मों की आदत मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी। मैं
लाख सोचता की अब की बार में बहुत स्वाद ले कर आदमी की तरह से खाऊंगा। पर ऐस होता
नहीं। क्योंकि अगर हम स्वाद लेने लगे तो हमारे हिस्सा तो गया। प्रकृति कारण से
हमने जीभ की बजाएं आंत से स्वाद लेना शुरू कर दिया है। मजबूरी है। जैसे
गाये—भैंसे पहले जी भर का पेट भर लेगी फिर इतमीनान से बैठ कर जुगाली कर के स्वाद
ले—ले कर उसे चबायेगी। और हजम करेगी।
इसी तरह से हमने भी पहले खाना पेट के अंदर
भरना है। फिर बाद में उसका स्वाद—ववाद देखा जायेगा। स्वाद तो एक प्रकार की
विलासिता है जो मनुष्य ने विकसित की है। जब आप का पेट भर है और आप केवल स्वाद के
लिए, मन के लिए भोजन कर रहे है। पेट भरने या जीने के लिए स्वाद की जरूरत नहीं
चाहिए। जीवन जीने के लिए पेट भरना पहली जरूरत है। स्वाद एक विलासिता है।
लेकिन मुझे बार—बार सभी
ने एक—एक टुकड़ा दिया। और कोई दिन होता तो मुझे शायद नहीं दिया जाता की ये मीठा
मेरे लिए जहर है। पर आज तो घर में एक खुशी थी। सब इस बात को भूल गये थे। या इस बात
की परवाह नहीं कर रहे थे। सब प्यार को पेड़े के रूप में मुझे खिला रहे थे। और आज
उस खाने का आनंद भी बहुत अजीब था। खुशी में भूख तो नहीं लगती परंतु दूसरी बात भी
साथ—साथ होती है कि स्वाद बहुत बढ़ जाता है।
इतने दिनों का खाली पन के बाद आज घर कुछ
भरा—भरा से लग रहा था। आज लग रहा था, उसमें भी प्राण है। वरना तो वहीं घर कैसा हमे
खाने को दौड़ता था। यही आँगन जो आज उत्सव और उमंग से भरा है। कल यहां पर जब हम
अकेले थे कैसी मायूसी फैली हुई थी।
वहां से आने के बाद भी मम्मी—पापा की दिन
चर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया। फिर अपने काम में उसी तरह से लग गये। और कहूं
उससे भी तरो ताजा हो लगन और मेहनत से अपना काम करने लगे। ये देख कर मुझे बड़ा अचरज
भी होता की मैं तो सारा दिन सौ—सो कर भी थका ही रहता हूं और मम्मी–पापा दिन भर
इतनी मेहनत मशक्कत कर के तरो ताज रहते है। शायद अब उन्हें एक ठहराव मिल गया था। या
उन को जीवन में एक पगडंडी मिल गई थी। जो शायद एक मंजिल की और जा रही थी।
उसी का नाम सन्यास है।
आप की भटकन खत्म हो जाये और आप अपने को किसी के हाथों सौंप दे। जो दूर किसी और
लोक का प्राणी हो। और आप को मिल जाये किसी और लोक की झलक और सुगंध तब आपका जीवन ही
दूसरा हो जायेगा। और आपके जीवन में एक छंद वदिता आ जायेगी। आपके अस्त व्यस्त
सुरों में एक सुहाना राग बज उठे। पापा जी दूध का जो काम करते थे। इन दस दिनों के
लिए बंध कर चले गये थे। और आने के बाद फिर उसे जीरों से शुरू किया। पर शायद जिस
ईमानदारी और नेकनीयत से पापा जी और मम्मी जी सामन बेचते थे। उस की साख और अधिक हो
गई।
इन दस दिनों में लोगों ने
इधर उधर का दूध और दूसरा समान खरीद कर देख लिया। और उस खाली जगह में कोई भी पापा
जी तुलना में नहीं आ सका। और दूकान अब कुछ ही दिनों में दुगुनी बिक्री करने लगी।
जो लोग सोचते थे कि अब तो मम्मी पापा सन्यासी हो कर घर छोड़ कर चले जायेंगे। और
इनके छोटे—छोटे बच्चों के साथ मेरा भी क्या होगा। अब ये अपने जीवन को कैसे
जियेंगे और वो नये—नये ख्वाब देखने लगे थे। पर उनके ख्वाब अधूरे ही रह गये। और आप
देखे कोई भी चीज एक छोर से नहीं हो सकती। उसका दूसरा छोर भी जरूर होना चाहिए। चाहे
वो अदर्श ही क्यों ने हो। उसे हम न देख पाये। पर इससे कोई भेद नहीं पड़ता। जैसे
नदी का एक तीर है, तो कहीं दूसरा किनारा भी होना चाहिए।
अब ये तो कोई बात नहीं की
आपको दिखाई नहीं दे रहा तो आप मानने से मना कर दे। आप देख तो बहुत सी चीजों नहीं
सकते। जैसे खुशबु को आप देख नहीं सकते, आप आक्सीजन गृहण कर के जीवत रहते है। पर आज
तक आपने उसे देखा नहीं है। अब साहस का काम तो यह है की आप उसे जब तक न माने जब तक
उस पार का किनारे पर आप तैर करे पहुंच ने पाये या उसे छू न आये। आज विज्ञान
प्रतिमेटर की बात करता है। रोज नये—नये रहस्यों पर से पर्दा हटाता है।
लेकिन इतना करने पर ही वह
अपने पास से पास नहीं जा पाता। क्यों? क्योंकि वह विज्ञान है,
काश वह देख पता अपने अंदर की गहराई को और समझ पाता उन अनबुझे रहस्यों को तो आज वह
विद्धवंश की और अगसर नहीं होता। विज्ञान की खोज मनुष्य के काम तो केवल 10 प्रतिशत
आती है। बाकी सारी उसके और प्रकृति के विद्धवंश का सामान ही खोजता हे।
अब
फिर वहीं काम वहीं ध्यान वही दिनचर्या। समय सब को साथ ले कर फिर दौड़ने लगा। मम्मी
पापा जिस कमरे में ध्यान करते थे। वह कमरा अक्सर बंद रहता था। वह केवल ध्यान के
समय ही खुलता था या पापा जी रात उसी कमरे में सोते थे। हम सब नीचे वाले कमरे में
सोते थे। कभी—कभी जब मैं उस कमरे के अंदर चला जाता या जाने दिया जाता तो मुझे अपने
उपर बहुत गर्व होता था। उस कमरे की तरंगें, वहां की सुगंध, वहां की शांति ही अलग
थी। मेरा उस कमरे में घुसते ही बस एक काम होता था। पूरे कमरे की कानूनी कार्यवाही
हर चीज को सुध कर देखता।
हम कुत्तों ने नाक को
इतना विकसित कर लिया है, कि देखने का काम भी हम नाक से ही करते है। आँख का भरोसा हमारा
कम हो गया है। जैसे मनुष्य का सारा जोर बुद्धि पर हो गया है। वह कहता है मैं सोच
रहा था तुम नहीं खड़े होगे। अरे भले मानस देख लो आँख से खड़े है या नहीं। इस बात
के लिए बुद्धि को नाहक परेशान कर रहे हो।
बस
एक बार उस कमरे में चला भर जाता फिर न मुझे भूख ही लगती और न प्यास मैं आँख बंद
कर सोता ही रहता। वहां की नींद ही अजीब थी। कितनी गहरी और कितनी चमक। जहां न कोई
ध्वनि ही और पूर्ण ध्वनि भी। सन्यास लेकिर आने के बाद कुछ अधिक लोग ही ध्यान
करने आने लगे थे। उनमें से कुछ लोगों का आना तो मुझे फूटी आँख नहीं सुहाता थ। पहले
कम लोग ध्यान करने के लिए आते थे या नहीं आते थे तो मुझे अंदर जाने का मोका भी
मिल जाता था। लेकिन अब तो वहां जगह नहीं कम पड़ जाती है। इस लिए में बहार ही रह
जाता था। इस लिए मुझे लगता था इन बहार के लोगों को नाहक अंदर आने दिया जाता है।
सब
लोग अच्छे नहीं होते, क्या इस बात को मैं जानता हूं तो क्या मम्मी—पापा नहीं
जानते होंगे। जरूर जानते होगे। परंतु फिर भी उन्हें क्यों अंदर आने दिया जाता है
ये बात मेरी समझ के बाहर थी। कुछ लोग तो इतने खराब थे की मैं बस किसी तरह से अपने
आप को रोक पाता था।
उनकी तरंगें......उनकी
उर्जा बहुत विकसित थी। उनका चलना, उनकी आंखों से धूर्तता टपकती थी। मैं उन्हें
भोंकता जरूर था चाहे वह एक बार आयें हो या रोज आते हो। मैं एक बार पूरे परिवार को
आगाह कर देता था कि इन लोगों को नाहक घर के अंदर आने दिया जाता है। अब तो रात को
भी मेले सा लगने लगा। रात दूकान के बाद भी ध्यान और सत्संग चलता था। मेरी समझ में
नहीं आता था क्यों मम्मी पापा इतनी मेहनत करते है। इस तरह से तो उनका शरीर
अस्वास्थ्य हो जायेगा।
पर एक बात थी ध्यान के लिए जो संगीत बजता
था, वो मुझे अति प्रिय था। वह मेरे को इतना अच्छा लगता था कि मैं उस संगीत को
सुनने के लिए ध्यान के कमरे के बाहर ही लेट जाता था। उस संगीत में एक शांति थी।
फिर एक दिन ने जाने कहां से एक गंजे से आदमी को पापा जी साथ लिए हुए आये। रात का
समय था। एक तो दिन और रात के मेरे काम और सोच में फर्क होता है।
रात के समय मैं अधिक
चौकन्ना हो जाता था। उस आदमी के हाथ में कुछ डंडे जैसे दिखने वाली चीज थी। मैं
पहले तो डरा की ये इस तरह क्यों और क्या ले कर आया है। बाद में मुझे पता चला की
उस का नाम ‘’ बांसुरी’’ है। जो ध्यान के संगीत
में भी बजती है। लेकिन ध्यान के संगीत में बजी वह बांसुरी और इस आदमी ने जो
बांसुरी बजाईं उस में बहुत भेद था। इसकी आवाज चुभती थी। कानों के साथ कही गहरे
लगती थी। और ध्यान की बजि वह बांसुरी कहीं अंदर एक सीतलता सी भरती चली जाती थी।
वह आदमी अंदर कमरे में कुछ बजा रहा था और मैं
बहार भय की हुंकार भर रहा था। मेरे अंदर का जानवर बहार निकल रहा था। अपने पूरे
जंगली पन के साथ। मेरे दांतों से एक खास किस्म का रसायन निकलने लगा। और मेरे मुहँ
से जोर दर हुंकार निकली....हूं...हूं......हूं....मन कर रहा था इस आवाज से कही दूर
भाग जाऊं। मैं आपने कान बंद करने की कोशिश कर रहा था। पर वह आवाज है की बढ़ती ही
जा रही थी। एक अजीब सी हालत हो गई थी मेरी। एक अंजाने बंधन में बंधा में तड़प रहा
था। छटपटा रहा था। आज मुझे ये बंधन गुलामी
लग रहे थे।
अपने पूर्वजों की आजादी उनकी स्वछंदता पर
गर्व हो रहा था। यहां आज मुझे कितना अकेला पन खल रहा था मैं आपको बता नहीं सकता।
जब पीड़ और संताप में ह्रदय रो रहा हो तो कोई ऐसा चाहिए जो अपने जैसा हो, जो अपने
दूःख को बांट ले, अपने ज़ख़्मों को सहला दे। और सब हो रहा उस गंजे आदमी के कारण।
वह मेरी आंखों में खटक रहा था। लगता था इस आफत को किसी तरह से यहां से भगा दूँ।
वरना ये तो मेरा यहाँ रहना दूसवार कर देगा। ऐसा न हो कि इस स्वर्ग के समान घर को
छोड़ कर मुझे भागना पड़े। वो में अंदर से नहीं चाहता था। कुछ ही देर में वह आदमी
चला गया मुझे चैन मिला। पापा जी भी बाहर आये और मेरे सर पर अपना हाथ रख कर खुब प्यार
किया और मेरी ऐसी हालत देख कर मेरे कान के पास अपना मुख ला कर किसी रहस्य की तरह
कहने लगे ‘’ कि तुझे तनाव हाँ रहा था। ये ध्वनि बहुत
खराब थी। मेरी आंखों में पानी बह रहा था। और मेरा मस्तिष्क सुन्न हो गया था।‘’ एक अजीब सा सन्नाटा मुझे चारो और सुनाई दे रहा था।
जो मेरे मस्तिष्क को
बंद कर रहा था। न मैं उस समय सोच सकता था और न कुछ करने की ही मेरी हालत थी।
फिर कुछ दिन तक वह आदमी नहीं आया। मुझे लगा
वह आफत टल गई। परंतु ये मेरा भ्रम था। एक रात वह पापा जी के साथ फिर आ गया। मैं एक
दम से गुस्से में आ गया था और पापा जी ने उस मुझे न पकड़ लिया। और मेरे सर पर प्यार
से हाथ फेरते हुए कहने लगे इतना गुस्सा क्यों। और उसे कमरे में भेज दिया।
परंतु मेरा इतना गुस्सा
पापा जी ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। वह भी समझ गये की मुझे इस आदमी का आना
फूटी आँख नहीं सुहा रहा था। जब वह उपर चला गय तब पापा जी ने मुझे छोड़ा, मेरे गुस्से
का कोई अंत नहीं था। मैं जितनी तेज गति से भाग सकता था भागा। अगर मुझे उस दिन वह
आदमी कमरे के बहार मिल जाता तो समझो उसकी शामत आ गई। परंतु वह मेरे तेवर देख कर डर
गया था। उसने अंदर से ध्यान का कमरा बंद कर लिया था।
में तेजी से भाग कर
दरवाजे तक गया। और लगा उसे सूँघने। एक दो बार खड़ा होकर मैने जोर से धक्के भी
मारे। पर वह अंदर से बंद था। पापा जी उपर आये और मुझे लगे समझाने की जब कोई घर पर
आये तो यह सब ठीक नहीं, पर मैं केवल नीची गर्दन किये सुनता भर रहा। न वह शब्द और
न वह समझ मेरे अंदर जा रही थी। और न ही में कुछ सुनना चाहता था। पापा जी भी अंदर
चले गये। अंदर से बाँसुरी बजने की आवाज आ रही थी। पर ये सिलसिला ज्यादा देर नहीं
चला। शायद वह आदमी भी मेरे गुस्से से डर गया।
मैं अंदर से बेचैन हो रहा था मेरे सब्र के सब
बाँध टुट चूके थे। अब मुझे उस आदमी की एक ही चीज नजर आ रही थी चप्पल। सो मैंने उन्हें
गुस्से में पकड़ कर इतने छोटे—छोटे टुकडे करने शुरू कर दिये। पूरी छत पर उन
टुकडों को मैने इधर उधर बिखेर दिया। आसमान पर पूरा चाँद था। उसकी सुनहरी चाँदनी
आँगन को नहला रही थी। कितनी मधुर थी उसकी शीतलता और सुबह की रोशनी कैसी आक्रमक
होती है। और चंद्रमा की रोशनी आपको छू कर भी कैसी अनछुई सी बनी रहती है। परंतु
आँखो में समाये क्रोध के कारण मैं उस फैली रोशनी को देख नहीं पा रहा था।
क्योंकि मेरे मन में तो
हिंसा भरी थी। एक ज्वाला जो मुझे जला रही थी।
ये सब काम तो मैंने पाँच मिनट में ही खत्म
कर लिया। अब मेरा वहां रूकना ठीक नहीं था। क्योंकि मैं गुनाहगार हो गया था। जब आप
कुछ गलत कर देते हो तो तब आपका साहस भी आपके साथ नहीं होता और भय आपको चारो और से
घेर लेता है। चप्पलों के टुकडे—टुकडे करने के बीच ही मेरा गुस्सा भी कम हो गया
था। और मेरे दांतों की खुजली भी मिट गई थी। और अपना कार्य पूर्ण हुआ समझ कर में
विजय और भय के साथ नीचे गया और लंबी तान कर सो गया। कब वह आदमी गया।
मैंने फिर इसकी भी परवाह
नहीं की । बस कुछ देर में उपर से आती वह ध्वनि बंद हो गई थी। सुबह मेरी आँख खुली
जब मैंने छत पर जाकर अपनी कारस्तानी देखी.....ओर इस बात का अंत ये हुआ की वह आदमी
शायद इस घटना से इतना डर गया कि वह फिर कभी घर नहीं आया। और मेरा गुस्सा और मेरी
तरकीब काम कर गई। धन्य भाग मेरे। कि इस
कारस्तानी के बाद भी मेरी पिटाई नहीं हुई.....मैं बहुत खुश था।
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