गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-069
अध्याय ६
ग्यारहवां प्रवचन
दुखों में अचलायमान
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।
२२।।
और परमेश्वर की प्राप्तिरूप जिस लाभ को प्राप्त
होकर, उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है, और भगवत्प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुख से भी
चलायमान नहीं होता है।
प्रभु को पाने की कामना पूरी हो जाए, तो फिर और कोई कामना
पूरी करने को शेष नहीं रह जाती है। प्रभु में प्रतिष्ठा मिल जाए, तो फिर किसी और प्रतिष्ठा का कोई प्रश्न नहीं है। मिल जाए प्रभु, तो फिर न मिलने को कुछ बचता है, न पाने को कुछ बचता
है।
कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि जिसने प्रभु को उपलब्ध करने का लाभ पा
लिया, उसे परम लाभ मिल गया। वैसा परम लाभ को उपलब्ध व्यक्ति,
महान से महान दुख से अविचलित गुजर जाता है।
इसे थोड़ा समझें। असल में हम दुख से विचलित ही इसीलिए होते हैं कि हमें
आनंद का कोई अनुभव नहीं है।
हम दुख से विचलित ही इसीलिए होते हैं कि हमें आनंद का
कोई अनुभव नहीं है। यदि हमें आनंद का अनुभव हो, तो दुख से हम विचलित
होंगे ही नहीं। असल में जैसे हम जीते हैं, हम दुख में ही
जीते हैं।
लेकिन एक तो साधारण दुख है, जिसके हम आदी हो गए
हैं। जब हम पर कोई असाधारण दुख आता है, जिसके हम आदी नहीं
हैं, तो हम विचलित होते हैं।
ध्यान रहे, हम साधारणतः दुख में ही जीते हैं। लेकिन साधारण दुख
में जीते हैं, इसलिए कोई विचलित होने का कारण नहीं आता। जब
असाधारण दुख आता है, तो चित्त कंपित होता है और हम विचलित हो
जाते हैं।
फ्रायड ने कहा है अपने अंतिम दिनों के संस्मरणों में, कि जैसा मैं समझता हूं, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि
आदमी को हम कभी दुख से मुक्त न कर सकेंगे। ज्यादा से ज्यादा हम इतना ही कर सकते
हैं कि अति दुख आदमी पर न आएं; साधारण दुख आते रहें।
अगर विज्ञान पूरी तरह सफल हो गया--जो कि संभव नहीं दिखाई पड़ता--मान
लें, अगर विज्ञान किसी दिन पूरी तरह सफल हो गया, तो भी आपको दुख से छुटकारा नहीं दिला पाएगा। हां, इतना
ही कर पाएगा कि आपके ऊपर अति दुख न आने पाएं। दुख सामान्य रह जाएं; कुनकुने रह जाएं, उबलते हुए न हों।
कुनकुने दुख धीरे-धीरे हमारी आदत बन जाते हैं। इसलिए उनसे हमें कोई
ज्यादा पीड़ा और परेशानी नहीं होती। विशेष दुख आते हैं, तो हम पीड़ित होते हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि भीतर हमें आनंद का कोई अनुभव
नहीं है, इसलिए विशेष दुख हमें पीड़ित करते हैं।
फिर अगर विशेष दुख रोज-रोज आने लगें, तो वे भी हमें पीड़ित
नहीं करते। हम उनके भी आदी हो जाते हैं। और जिसे विशेष दुख नहीं आए हैं, उसे साधारण दुख भी आ जाए, तो भी पीड़ित करता है। दुख
के प्रति हमारी संवेदनशीलता, दुख के आने पर धीमी होती चली
जाती है।
युद्ध के मैदान पर जाता है सैनिक, तो जब तक नहीं पहुंचा
है युद्ध के मैदान पर, तब तक बहुत पीड़ित, चिंतित और परेशान रहता है। लेकिन मनोवैज्ञानिक हैरान हैं कि युद्ध के
मैदान पर पहुंचने के एक-दो दिन के बाद उसकी सब पीड़ा, सब
चिंता विदा हो जाती है! क्या, हो क्या जाता है?
जब रोज गिरते देखता है बम को अपने किनारे, रोज अपने मित्रों को दफनाए जाते देखता है, रोज
आदमियों को मरते देखता है, सड़क पर लाशों से गुजरता
है--दो-चार दिन में संवेदनशीलता क्षीण हो जाती है। फिर वह जो युद्ध पर जाने से डर
रहा था, वह वहीं बैठकर--पास में हवाई जहाज दुश्मन के उड़ते
रहते हैं, बमबारी करते रहते हैं--वह नीचे बैठकर ताश खेलता
रहता है।
अगर आपको निरंतर दुख में रखा जाए, तो आप उस दुख के लिए
आदी हो जाते हैं; फिर उसका आपको पता नहीं चलता। हम एक खास
स्तर पर दुख के आदी हो गए हैं, और इसीलिए बहुत अड़चन होती है।
जब पहली दफा पश्चिम के लोगों को पता चलता है हमारी गरीबी का, तो उन्हें भरोसा नहीं आता कि इतनी गरीबी को हम सह कैसे लेते होंगे! बगावत
क्यों नहीं कर देते! आग क्यों नहीं लगा डालते! दुनिया को मिटा क्यों नहीं डालते!
उन्हें खयाल भी नहीं कि हम गरीबी के लंबे आदी हैं! गरीबी से हमें कोई विशेष पीड़ा
नहीं होती। सच तो यह है कि गरीब को गरीबी से कभी पीड़ा नहीं होती, पड़ोस में कोई अमीर हो जाता है, तो पीड़ा शुरू होती
है। गरीबी की तो आदत होती है। लाखों वर्ष तक हमारा शूद्र बिलकुल ही पशु के तल पर
जीया है। आदी हो गया था। सपने भी छोड़ दिए थे उसने; वह दुख के
लिए राजी हो गया था।
हम सब दुखी हैं, लेकिन सब एक-एक दुख की सीमा तक
राजी हो गए हैं। तो वहां तक तो हमें कोई दुख चलायमान नहीं करता। लेकिन विशेष दुख आ
जाता है, जिसके लिए हम आदी नहीं हैं, तो
हम कंपित हो जाते हैं, तो हम पीड़ित हो जाते हैं; तो हमारे भीतर कुछ टूटता है, बिखरता है।
लेकिन जो व्यक्ति आनंद के अनुभव को उपलब्ध हो जाए, उसे फिर बड़े से बड़ा दुख विचलित नहीं करता, क्योंकि
भीतर गहरे में वह आनंद में जीता ही है। दुख बाहर ही आते हैं फिर, भीतर तक प्रवेश नहीं कर पाते। दुख बाहर घूमते हैं और चले जाते हैं,
जैसे हवा के झोंके आए हों। या आप रास्ते से गुजरते हों और वर्षा पड़
गई हो, तो आप कोई मिट्टी के पुतले नहीं हैं, आप उस वर्षा को झेलकर घर आ जाते हैं। आप भीतर जानते हैं, कुछ गल नहीं जाएगा। लेकिन उसी रास्ते पर अगर मिट्टी के पुतले भी चल रहे
हों, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे।
भीतर आनंद की वर्षा हो रही हो सतत, तो बाहर कितना ही बड़ा
दुख आ जाए, बाहर ही रहता है, भीतर
प्रवेश नहीं कर पाता। ध्यान रखें, दुख भीतर तभी प्रवेश करता
है, जब भीतर दुख मौजूद हो। और समान समान को आकर्षित करता है।
भीतर दुख मौजूद हो, तो बाहर के दुख को भीतर खींचता है। भीतर
आनंद मौजूद हो, तो बाहर के दुख को वापस लौटा देता है,
उसे निमंत्रण भी नहीं देता।
कृष्ण कहते हैं, जिसने पा लिया परम लाभ, प्रभु को अनुभव किया जिसने, फिर बड़े से बड़ा दुख उसे
चलायमान नहीं करता है।
फिर चलायमान होने की कोई वजह नहीं रह गई। फिर हालत ऐसी ही हो गई कि
जिसे यह पता चल गया कि मेरे पास अनंत खजाना है, उसकी अगर एक कौड़ी गिर
जाए, तो क्या दुख, क्या पीड़ा! जिसे पता
चल जाए, अनंत खजाना मेरे पास है, उसके
करोड़ रुपए भी खो जाएं, तो कौन-सी पीड़ा है, कौन-सा दुख है! अनंत में कुछ कम नहीं होगा।
जिसे पता चल जाए कि मेरे भीतर जो है, वह कभी नहीं मरता,
तो छोटी-मोटी बीमारी की तो बात अलग, मौत खुद
भी द्वार पर आकर खड़ी हो जाए, तो विचलित होने का कोई कारण
नहीं है। मौत से हम विचलित होते हैं, क्योंकि हम जानते हैं,
मैं मरूंगा। मौत से हम विचलित होते हैं, क्योंकि
हम जानते हैं कि बीमारी इतनी तकलीफ दे गई; मौत कितनी तकलीफ न
दे जाएगी! मौत से हम विचलित होते हैं, क्योंकि भीतर अमृत का
हमें कोई अनुभव नहीं है।
यदि अमृत का अनुभव है, तो मौत स्पर्श भी
नहीं कर पाएगी। वह बाहर ही बाहर घूम सकती है, भीतर प्रवेश
नहीं कर सकती।
हमारे भीतर वही प्रवेश करता है, जो हमारे भीतर पहले
से मौजूद है। जीवन के इस नियम को बहुत गौर से समझ लेना जरूरी है। हमारे भीतर वही
प्रवेश करता है, जो हमारे भीतर मौजूद है, अन्यथा हमारे भीतर प्रवेश नहीं हो सकता। अगर आप दुखी हैं, तो दुख प्रवेश कर सकता है। अगर आनंदित हैं, तो आनंद
प्रवेश कर सकता है। अगर अज्ञानी हैं, तो अज्ञान प्रवेश कर
सकता है। अगर ज्ञानी हैं, तो ज्ञान प्रवेश कर सकता है। समान
ही समान को खींचता है, असमान को हटाता है।
तो अगर आपको बार-बार दुख प्रवेश कर जाता हो, तो समझ लेना कि आपके भीतर दुख की गहरी पर्त है, जो
उसे बुला लेती है, निमंत्रण दे देती है। अगर आप उदास आदमी
हैं, तो आपको चारों तरफ से उदासी पकड़ेगी और आपकी तरफ दौड़ेगी।
आप गङ्ढा बन जाएंगे, और उदासी आपकी तरफ नदियां बनकर यात्रा
करने लगेगी। अगर आप आनंदित हैं, तो चारों तरफ से आनंद की
धाराएं आपके भीतर प्रवेश करने लगेंगी।
जो आपके भीतर प्रवेश करता है, वह खबर देता है कि
कौन आपके भीतर बैठा है, जो उसे आकर्षित कर रहा है। जिसने
आनंद को जाना प्रभु को पा लेने के, उसे कोई दुख विचलित नहीं
करेगा।
कितने दुख हैं जीवन में? कितने दुख हैं?
हम उनकी थोड़ी-सी मोटी गिनती कर लें, तो खयाल
में आ जाए।
प्रिय के बिछुड़ने का दुख है। प्रियजन के बिछुड़ने का दुख है। लेकिन जो
प्रभु को मिल गया, वह प्रियतम को मिल गया। अब कोई प्रियजन के बिछुड़ने का
दुख नहीं रह जाता। अब मिलन शाश्वत है। अब तो हम उस प्यारे को मिल गए, जिसकी झलक हमने सब प्रियजनों में देखी थी, लेकिन
जिसे हम किसी में पा न सके थे। जिसे हमने सब प्रियजनों में खोजना चाहा था, और खाली और रिक्त हाथ वापस लौट आए थे। जिसे हमने जब भी किसी को प्रेम किया
था, तो उसमें बहुत गहरे में हमने परमात्मा को ही तलाशा था।
और इसीलिए तो सभी प्रेमी फ्रस्ट्रेट होते हैं, क्योंकि अंत में मिलता है आदमी, परमात्मा तो मिलता
नहीं। खोजते परमात्मा को ही हैं। इसलिए जब भी कोई किसी के प्रेम में गिरता है,
तो वह उसके भीतर किसी दिव्यता की खोज है। लेकिन फिर हाथ में तो
हड्डी, मांस, चमड़ी के कुछ और आता नहीं,
कोई दिव्यता तो हाथ में आती नहीं। फिर विषाद घेर लेता है।
जो प्रभु को पा लिया, उसके लिए अब मिलन का कोई प्रश्न
न रहा, परम मिलन हो गया। अब उसके हाथ किसी के आलिंगन को नहीं
फैलेंगे, और या फैलेंगे भी, तो सभी के
आलिंगन में उसे परमात्मा का ही आलिंगन होगा। और कोई अगर उससे बिछुड़कर जा रहा है,
तो उसका कुछ भी नहीं बिछुड़ेगा। क्योंकि जो परम मिलन हो गया है,
उस परम मिलन के आगे अब किसी बिछुड़न का कोई अर्थ नहीं है।
अपयश का दुख है जीवन में, अपमान का दुख है जीवन
में। लेकिन जिसे प्रभु ने सम्मानित कर दिया, अब उसे अपमान छू
सकेगा? जिसे स्वयं प्रभु ने अपने मंदिर में प्रवेश दिया और जिसे
स्वयं प्रभु ने अपने निकट बिठा लिया--यह सिर्फ मैं काव्य की भाषा में बोल रहा हूं,
प्रभु कोई व्यक्ति नहीं है--जो प्रभु के अनुभव को उपलब्ध हुआ,
अब कौन-सा अपमान उसके लिए अर्थपूर्ण रह जाएगा? जो बड़े से बड़ा मान संभव था, वह हो गया।
तो जीसस जैसा आदमी सूली पर भी शांति से लटक सकता है। मंसूर को जब
लोगों ने सूली दी, तो मंसूर सिर उठाकर ऊपर आकाश की तरफ देखकर हंसने लगा।
मंसूर एक अदभुत फकीर था, जीसस की हैसियत का।
मुसलमान फकीर था, सूफी था। जब मंसूर को लोग काटने लगे और
सूली देने लगे, तो मंसूर ने आकाश की तरफ देखा और मुस्कुराया।
तो एक लाख लोगों की भीड़ थी, जो पत्थर फेंक रहे थे उस पर,
गालियां दे रहे थे उसको। कोई उसका पैर काट रहा था, कोई उसका हाथ काट रहा था। कोई उसकी आंखें फोड़ने के लिए छुरे लिए हुए खड़ा
था।
और जब मंसूर को लोगों ने हंसते देखा, तो किसी ने भीड़ में
से पूछा कि मंसूर, किसको देखकर हंस रहे हो? मरने के करीब हो! तो मंसूर ने कहा कि तुम्हें मौत दिखाई पड़ती है, मुझे महामिलन दिखाई पड़ रहा है। यहां से विदा हो जाऊंगा, वहां प्रभु से महामिलन हो जाएगा। उसकी बांहें मुझे आकाश में फैली हुई
दिखाई पड़ रही हैं। तुम मुझे जल्दी विदा कर दो, ताकि उसे और
प्रतीक्षा न करनी पड़े!
अब यह जो आदमी है, इसको हम काट-काटकर भी दुख नहीं
दे सकते। क्योंकि इसको हम काट ही नहीं सकते। यह जिस तल पर जी रहा है, वहां कोई हमारे अस्त्र-शस्त्र काम न करेंगे। जिस जगह यह जी रहा है,
उस तल पर, उस आयाम में, हम
इसे दुख न पहुंचा पाएंगे।
जब मंसूर के हाथ काटे, तो उसके हाथ से लहू
बहने लगा। उसने दूसरे हाथ से लहू लेकर, जैसे कि मुसलमान नमाज
के पहले वजू करते हैं, उस लहू को पानी की तरह हाथ पर फेरा।
किसी ने पूछा, मंसूर! यह तुम क्या कर रहे हो? तो मंसूर ने कहा कि मैं प्रभु से मिलने के पहले, आखिरी
मिलन हुआ जा रहा है, वजू कर रहा हूं। तो लोगों ने कहा कि खून
से कहीं वजू की जाती है? मंसूर ने कहा, पानी से भी कोई वजू हो सकती है? पानी से भी कहीं कोई
वजू हो सकती है, मंसूर ने कहा। अब तक तो धोखा दिया वजू करने
का कि पानी से हाथ धो लेते थे, आज मौका मिला कि अपने जीवन से
हाथ धो रहे हैं। जीवन से हाथ धोकर प्रभु की यात्रा पर जा रहा हूं।
जिसे प्रभु की जरा-सी भी झलक मिल जाए, उसके जीवन में
चलायमान होने का कोई भी कारण नहीं है। लेकिन हमें कोई झलक नहीं है, इसलिए छोटी-सी चीज चलायमान कर जाती है। सच तो यह है कि हम चलायमान ही रहते
हैं। जैसा मैंने कहा, हम दुखी ही रहते हैं। सामान्य धक्के हम
झेलते रहते हैं, आदी हो जाते हैं। असामान्य धक्के आते हैं,
हम दिक्कत में पड़ जाते हैं।
और इसीलिए हम असामान्य धक्कों को अपने से रोके रखते हैं, भुलाए रखते हैं। भुलाए रखते हैं कि मौत है। भुलाए रखते हैं कि प्रिय बिछुड़
जाएगा। भुलाए रखते हैं कि सब सफलताएं अंत में असफलताओं की राख सिद्ध होती हैं।
भुलाए रखते हैं कि सब सिंहासन आखिर में कब्रों की सीढ़ियां बन जाते हैं। सबको भुलाए
रखते हैं। और इस तरह जीते हैं भुलावे में कि जैसे कहीं कोई दुख नहीं है।
लेकिन हम कितनी देर अपने को भुलावा दे सकते हैं! दुख आएगा ही। दुख
जीवन का स्वरूप है। अगर आप आनंद को नहीं उपलब्ध कर लेते हैं, तो दुख आपको कंपाता ही रहेगा।
कृष्ण ठीक कहते हैं, परम लाभ हो जाता है उसे। फिर बड़े
से बड़ा दुख चलायमान नहीं कर सकता है।
वही कसौटी है। वही कसौटी है कि जब बड़े से बड़ा दुख कंपन न लाए, तो ही जानना कि वह आदमी प्रभु के दर्शन को उपलब्ध हुआ।
बुद्ध के आखिरी छः महीने बहुत पीड़ा में बीते। पीड़ा में उनकी तरफ से, जिन्होंने देखा; बुद्ध की तरफ से नहीं। बुद्ध एक
गांव में ठहरे हैं। और उस गांव के एक शूद्र ने, एक गरीब आदमी
ने बुद्ध को निमंत्रण दिया कि मेरे घर भोजन कर लें। तो वह पहला निमंत्रण देने वाला
था, सुबह-सुबह जल्दी आ गया था पांच बजे, ताकि गांव का कोई धनपति, गांव का सम्राट निमंत्रण न
दे दे। बहुत बार आया था, लेकिन कोई निमंत्रण दे चुका था।
वह निमंत्रण दे ही रहा था कि तभी गांव के एक बड़े धनपति ने आकर बुद्ध
को कहा कि आज मेरे घर निमंत्रण स्वीकार करें। बुद्ध ने कहा, निमंत्रण आ गया। उस अमीर ने उस आदमी की तरफ देखा और कहा, इस आदमी का निमंत्रण! इसके पास खिलाने को भी कुछ होगा? बुद्ध ने कहा, वह दूसरी बात है। बाकी निमंत्रण उसका
ही स्वीकार किया। उसके घर ही जाता हूं।
बुद्ध गए। उस आदमी को भरोसा भी न था कि बुद्ध कभी उसके घर भोजन करने
आएंगे। उसके पास कुछ भी न था खिलाने को वस्तुतः। रूखी रोटियां थीं। सब्जी के नाम
पर बिहार में गरीब किसान, वह जो बरसात के दिनों में कुकुरमुत्ता पैदा हो जाता
है--लकड़ियों पर, गंदी जगह में--उस कुकुरमुत्ते को इकट्ठा कर
लेते हैं, सुखाकर रख लेते हैं और उसी की सब्जी बनाकर खाते
हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि कुकुरमुत्ता पायजनस हो जाता है। कहीं ऐसी जगह पैदा हो
गया, जहां जहर मिल गया, तो कुकुरमुत्ते
में जहर फैल जाता है।
बुद्ध के लिए उसने कुकुरमुत्ते बनाए थे, वे जहरीले थे। जहर थे,
सख्त कड़वे जहर थे। मुंह में रखना मुश्किल था। लेकिन उसके पास एक ही
सब्जी थी। तो बुद्ध ने यह सोचकर कि अगर मैं कहूं कि यह सब्जी कड़वी है, तो वह कठिनाई में पड़ेगा; उसके पास कोई दूसरी सब्जी
नहीं है। वे उस जहरीली सब्जी को खा गए। उसे मुंह में रखना कठिन था। और बड़े आनंद से
खा गए, और उससे कहते रहे कि बहुत आनंदित हुआ हूं।
जैसे ही बुद्ध वहां से निकले, उस आदमी ने जब सब्जी
चखी, तो वह तो हैरान हो गया। वह भागा हुआ आया और उसने कहा कि
आप क्या कहते हैं? वह तो जहर है! वह छाती पीटकर रोने लगा।
लेकिन बुद्ध ने कहा, तू जरा भी चिंता मत कर। क्योंकि जहर
मेरा अब कुछ भी न बिगाड़ सकेगा, क्योंकि मैं उसे जानता हूं,
जो अमृत है। तू जरा भी चिंता मत कर।
लेकिन फिर भी उस आदमी की चिंता तो हम समझ सकते हैं। बुद्ध ने उसे कहा
कि तू धन्यभागी है। तुझे पता नहीं। तू खुश हो। तू सौभाग्यवान। क्योंकि कभी हजारों
वर्षों में बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है। दो ही व्यक्तियों को उसका सौभाग्य
मिलता है, पहला भोजन कराने का अवसर उसकी मां को मिलता है और
अंतिम भोजन कराने का अवसर तुझे मिला है। तू सौभाग्यशाली है; तू
आनंदित हो। ऐसा फिर सैकड़ों-हजारों वर्षों में कभी कोई बुद्ध पैदा होगा और ऐसा अवसर
फिर किसी को मिलेगा। उस आदमी को किसी तरह समझाकर-बुझाकर लौटा दिया।
बुद्ध के शिष्य कहने लगे, आप यह क्या बातें कह
रहे हैं! यह आदमी हत्यारा है। बुद्ध ने कहा, भूलकर ऐसी बात
मत कहना, अन्यथा उस आदमी को नाहक लोग परेशान करेंगे! तुम जाओ;
गांव में डुंडी पीटकर खबर करो कि यह आदमी सौभाग्यशाली है, क्योंकि इसने बुद्ध को अंतिम भोजन का दान दिया है।
मरने के वक्त लोग उनसे कहते थे कि आप एक दफे भी तो रुक जाते! कह देते
कि कड़वा है, तो हम पर यह वज्रपात न गिरता! लेकिन बुद्ध कहते थे कि
यह वज्रपात रुकने वाला नहीं था। किस बहाने गिरेगा, इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता है। और जहां तक मेरा संबंध है, मुझ पर कोई
वज्रपात नहीं गिरा है, नहीं गिर सकता है। क्योंकि मैंने उसे
जान लिया है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है।
यह अनुभव हो, तो फिर कोई कंपन जीवन के किसी भी दुख का नहीं होता
है।
हमें तो सब चीजें हिला जाती हैं। हमारे पीछे तो कोई ऐसी चीज नहीं है, जिस पर हम बिना हिले खड़े हो जाएं। कोई ऐसा स्तंभ नहीं है, जिस पर हम बिना हिले खड़े हो जाएं।
कबीर ने एक छोटा-सा दोहा लिखा है। जिसका अर्थ है कि कबीर बहुत रोने
लगा यह देखकर कि दो चक्कियों के पाट के बीच जो भी पड़ गया, वह पिस गया। कबीर घर लौटा। कबीर के घर एक बेटा पैदा हुआ था। कबीर का बेटा
था, तो कबीर की हैसियत का बेटा था। उसका नाम था कमाल। कबीर
ने घर जाकर यह दोहा पढ़ा और कहा कि कमाल, आज रास्ते पर चलती
चक्की देखकर मैं रोने लगा, क्योंकि मुझे खयाल आया कि जगत की
चक्की के दो पाटों के बीच जो भी पड़ गया, वह बचा नहीं।
कमाल ने दूसरा दोहा कहा और उसने कहा कि नहीं, यह मत कहो। मैं भी चलती चक्की देखा हूं। चलती चक्की देखकर कमाल हंसने लगा,
क्योंकि मैंने देखा कि दो पाटों के बीच में एक छोटी-सी कील भी है।
जिसने उस कील का सहारा ले लिया, दो पाट उसको पीस नहीं पाए।
पाट चलते रहे। वह जो छोटी-सी कील है चक्की के बीच में, उसके
सहारे जो गेहूं का दाना चढ़ गया, उसके सहारे जो रह गया,
दो चाक चलते रहे, चलते रहे, पीसते रहे, लेकिन वह अनपिसा बच गया!
जो परमात्मा की बीच में कील है, उसके निकट जितना सरक
जाए, सेंटर के, केंद्र के, उतना ही इस जगत की कोई चीज फिर पीस नहीं पाती है। अन्यथा तो दो पाट पीसते
ही रहेंगे। दुख पीसता ही रहेगा। मृत्यु पीसती ही रहेगी। और हम कंपते ही रहेंगे,
स्वभावतः।
यह बिलकुल स्वाभाविक है कि मौत को देखकर हम कंप जाएं। यह बिलकुल
स्वाभाविक है कि चारों तरफ दुख ही दुख हो और हम कंप जाएं। यह स्वाभाविक तभी तक है, जब तक बीच की कील का सहारा नहीं मिला।
कृष्ण उसी कील की बात कर रहे हैं कि पा लेता है जो प्रभु के परम लाभ
को, फिर बड़े से बड़े दुख उसे चलायमान नहीं करते हैं।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।। २३।।
और जो दुखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए चित्त से अर्थात तत्पर हुए चित्त से
निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।
संसार के संयोग से जो तोड़ दे, दुख के संयोग से जो
पृथक कर दे, अज्ञान से जो दूर हटा दे, ऐसे
योग को अथक रूप से साधना कर्तव्य है, ऐसा कृष्ण कहते हैं।
अथक रूप से! बिना थके, बिना ऊबे।
इस बात को ठीक से समझ लें।
मनुष्य का मन ऊबने में बड़ी जल्दी करता है। शायद मनुष्य के बुनियादी
गुणों में ऊब जाना एक गुण है। ऐसे भी पशुओं में कोई पशु ऊबता नहीं। बोर्डम, ऊब, मनुष्य का लक्षण है। कोई पशु ऊबता नहीं। आपने
कभी किसी भैंस को, किसी कुत्ते को, किसी
गधे को ऊबते नहीं देखा होगा, कि बोर्ड हो गया है! नहीं;
कभी ऊब पैदा नहीं होती। अगर हम आदमी और जानवरों को अलग करने वाले
गुणों की खोज करें, तो शायद ऊब एक बुनियादी गुण है, जो आदमी को अलग करता है।
आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है, बड़ी जल्दी बोर्ड हो
जाता है। किसी भी चीज से ऊब जाता है। ऐसा नहीं कि दुख से ऊब जाता है, सुख से भी ऊब जाता है। अगर सुख ही सुख मिलता जाए, तो
तबियत होती है कि थोड़ा दुख कहीं से जुटाओ। और आदमी जुटा लेता है! अगर सुख ही सुख
मिले, तो तिक्त मालूम पड़ने लगता है; मुंह
में स्वाद नहीं आता फिर। फिर थोड़ी-सी कड़वी नीम मुंह पर रखनी अच्छी होती है।
थोड़ा-सा स्वाद आ जाता है।
आदमी ऊबता है, सभी चीजों से ऊबता है। बड़े से बड़े महल में जाए,
उनसे ऊब जाता है। सुंदर से सुंदर स्त्री मिले, सुंदर से सुंदर पुरुष मिले, उससे ऊब जाता है। धन
मिले, अपार धन मिले, उससे ऊब जाता है।
यश मिले, कीर्ति मिले, उससे ऊब जाता
है। जो चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है; मिलते ही ऊब जाता है।
इस बात को ऐसा समझें, संसार में जितनी चीजें हैं,
उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, पाकर
ऊब जाता है। पाने की चेष्टा में कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता
है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। इंतजार
जिंदगीभर चल सकता है; मिलन घड़ीभर चलाना मुश्किल पड़ जाता है।
संसार की प्रत्येक वस्तु को पाने के लिए तो हम नहीं ऊबते, लेकिन पाकर ऊब जाते हैं। और परमात्मा की तरफ ठीक उलटा नियम लागू होता है।
संसार की तरफ प्रयत्न करने में आदमी नहीं ऊबता, प्राप्ति में
ऊबता है। परमात्मा की तरफ प्राप्ति में कभी नहीं ऊबता, लेकिन
प्रयत्न में बहुत ऊबता है। ठीक उलटा नियम लागू होगा भी।
जैसे कि हम झील के किनारे खड़े हों, तो झील में हमारी
तस्वीर बनती है, वह उलटी बनेगी। जैसे आप खड़े हैं, आपका सिर ऊपर है, झील में नीचे होगा। आपके पैर नीचे
हैं, झील में पैर ऊपर होंगे। तस्वीर झील में उलटी बनेगी।
संसार के किनारे हमारी तस्वीर उलटी बनती है। संसार में जो हमारा
प्रोजेक्शन होता है, वह उलटा बनता है। इसलिए संसार में गति करने के जो
नियम हैं, परमात्मा में गति करने के वे नियम बिलकुल नहीं
हैं। ठीक उनसे उलटे नियम काम आते हैं। मगर यहीं बड़ी मुश्किल हो जाती है।
संसार में तो ऊबना आता है बाद में, प्रयत्न में तो ऊब
नहीं आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में
ही ऊब आती है। और प्राप्ति तो आएगी बाद में, और प्रयत्न पहले
ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे।
कितने लोग नहीं हैं जो प्रभु की यात्रा शुरू करते हैं! शुरू भर करते
हैं, कभी पूरी नहीं कर पाते। कितनी बार आपने तय किया कि
रोज प्रार्थना कर लेंगे! फिर कितनी बार छूट गया वह। कितनी बार तय किया कि स्मरण कर
लेंगे प्रभु का घड़ीभर! एकाध दिन, दो दिन, काफी! फिर ऊब गए। फिर छूट गया। कितने संकल्प, कितने
निर्णय, धूल होकर पड़े हैं आपके चारों तरफ!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान
से कुछ हो सकेगा? मैं उनको कहता हूं कि जरूर हो सकेगा। लेकिन
कर सकोगे? वे कहते हैं, बहुत कठिन तो
नहीं है? मैं कहता हूं, बहुत कठिन जरा
भी नहीं। कठिनाई सिर्फ एक है, सातत्य! ध्यान तो बहुत सरल है।
लेकिन रोज कर सकोगे? कितने दिन कर सकोगे? तीन महीने, लोगों को कहता हूं कि सिर्फ तीन महीने
सतत कर लो। मुश्किल से कभी कोई मिलता है, जो तीन महीने भी
सतत कर पाता है। उब जाता है, दस-पांच दिन बाद ऊब जाता है!
बड़े आश्चर्य की बात है कि रोज अखबार पढ़कर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज
रेडियो सुनकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज फिल्म देखकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज वे ही
बातें करके नहीं ऊबता जिंदगीभर। ध्यान करके क्यों ऊब जाता है? आखिर ध्यान में ऐसी क्या कठिनाई है!
कठिनाई एक ही है कि संसार की यात्रा पर प्रयत्न नहीं उबाता, प्राप्ति उबाती है। और परमात्मा की यात्रा पर प्रयत्न उबाता है, प्राप्ति कभी नहीं उबाती। जो पा लेता है, वह तो फिर
कभी नहीं ऊबता।
इसलिए बुद्ध को मिला ज्ञान, उसके बाद वे चालीस
साल जिंदा थे। चालीस साल किसी आदमी ने एक बार उन्हें अपने ज्ञान से ऊबते हुए नहीं
देखा। कोहनूर हीरा मिल जाता चालीस साल, तो ऊब जाते। संसार का
राज्य मिल जाता, तो ऊब जाते।
महावीर भी चालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, फिर किसी आदमी ने कभी उनके चेहरे पर ऊब की शिकन नहीं देखी। चालीस साल
निरंतर उसी ज्ञान में रमे रहे, कभी ऊबे नहीं! कभी चाहा नहीं
कि अब कुछ और मिल जाए!
नहीं; परमात्मा की यात्रा पर प्राप्ति के बाद कोई ऊब नहीं
है। लेकिन प्राप्ति तक पहुंचने के रास्ते पर अथक...।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, बिना ऊबे श्रम करना
कर्तव्य है, करने योग्य है।
यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि कृष्ण ऐसा कहते हैं, अर्जुन कैसे माने और क्यों माने? कृष्ण कहते हैं,
करने योग्य है। अर्जुन कैसे माने और क्यों माने? अर्जुन को तो पता नहीं है। अर्जुन तो जब प्रयास करेगा, तो ऊबेगा, थकेगा। कृष्ण कहते हैं।
इसलिए धर्म में ट्रस्ट का, भरोसे का एक कीमती
मूल्य है। श्रद्धा का अर्थ होता है, ट्रस्ट। उसका अर्थ होता
है, भरोसा। उसका अर्थ होता है, कोई कह
रहा है, अगर उसके व्यक्तित्व से वे किरणें दिखाई पड़ती हैं,
जो वह कह रहा है, उसका प्रमाण देती हैं;
वह जो कह रहा है, जिस प्राप्ति की बात,
वहां खड़ा हुआ मालूम पड़ता है...।
अर्जुन भलीभांति कृष्ण को जानता है। कृष्ण को कभी विचलित नहीं देखा
है। कृष्ण को कभी उदास नहीं देखा है। कृष्ण की बांसुरी से कभी दुख का स्वर निकलते
नहीं देखा है। कृष्ण सदा ताजे हैं।
इसीलिए तो आप, और विशेषकर आधुनिक युग के चिंतक और विचारक बड़ी
मुश्किल में पड़ते हैं। वे कहते हैं, कृष्ण की बुढ़ापे की कोई
तस्वीर क्यों नहीं है! ऐसा तो नहीं हो सकता कि कृष्ण बूढ़े न हुए हों। जरूरी ही हुए
होंगे। कोई नियम तो कृष्ण को छोड़ेगा नहीं। बुद्ध की भी बुढ़ापे की कोई तस्वीर नहीं
है। अस्सी साल के होकर मरे। महावीर की भी बुढ़ापे की कोई तस्वीर नहीं है। जरूर कहीं
कोई भूल-चूक हो रही है।
लेकिन जो लोग ऐसा सोचते हैं, उन्हें इस मुल्क के
चिंतन के ढंग का पता नहीं है। यह मुल्क तस्वीरें शरीरों की नहीं बनाता, मनोभावों की बनाता है। कृष्ण कभी भी बूढ़े नहीं होते, कभी बासे नहीं होते; सदा ताजे हैं। बूढ़े तो होते ही
हैं, शरीर तो बूढ़ा होता ही है। शरीर तो जराजीर्ण होगा,
मिटेगा। शरीर तो अपने नियम से चलेगा। पर कृष्ण की चेतना अविचलित भाव
से आनंदमग्न बनी रहती है, युवा बनी रहती है। वह कृष्ण की
चेतना सदा नाचती ही रहती है।
कृष्ण की हमने इतनी तस्वीरें देखी हैं। कई दफे शक होने लगता है कि
कृष्ण ऐसा एक पैर पर पैर रखे और बांसुरी पकड़े कितनी देर खड़े रहते होंगे! यह ज्यादा
दिन नहीं चल सकता। यह कभी-कभी तस्वीर उतरवाने को, फोटोग्राफर आ गया हो,
बात अलग है। बाकी ऐसे ही कृष्ण खड़े रहते हैं?
नहीं, ऐसे ही नहीं खड़े रहते हैं। लेकिन यह आंतरिक बिंब है,
यह भीतरी तस्वीर है। यह खबर देती है कि भीतर एक नाचती हुई, प्रफुल्ल चेतना है, एक नृत्य करती हुई चेतना है,
जो सदा नाच रही है। भीतर एक गीत गाता मन है, जो
सदा बांसुरी पर स्वर भरे हुए है।
यह बांसुरी सदा ऐसी होंठ पर रखे बैठे रहते होंगे, ऐसा नहीं है। यह बांसुरी तो सिर्फ खबर देती है भीतर की। ये तो प्रतीक हैं,
सिंबालिक हैं। ये गोपियां चारों वक्त, चारों
पहर, चौबीस घंटे आस-पास नाचती रहती होंगी, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि कृष्ण इसी गोरखधंधे में लगे रहे। नहीं;
ये प्रतीक हैं, बहुत आंतरिक प्रतीक हैं।
असल में इस मुल्क की मिथ, इस मुल्क के मिथिक,
इस मुल्क के पुराण प्रतीकात्मक हैं। गोपियों से मतलब वस्तुतः
स्त्रियों से नहीं है। स्त्रियां भी कभी कृष्ण के आस-पास नाची होंगी। कोई भी इतना
प्यारा पुरुष पैदा हो जाए, स्त्रियां न नाचें, ऐसा मौका चूकना संभव नहीं है। स्त्रियां नाची होंगी। लेकिन यह प्रतीक कुछ
और है। यह प्रतीक गहरा है।
यह प्रतीक यह कह रहा है कि जैसे किसी पुरुष के आस-पास चारों तरफ सुंदर, प्रेम से भरी हुई, प्रेम करने वाली स्त्रियां नाचती
रहें और वह जैसा प्रफुल्लित रहे, वैसे कृष्ण सदा हैं। वह
उनका सदा होना है। वह उनका ढंग है होने का। जैसे चारों तरफ सौंदर्य नाचता हो,
चारों तरफ गीत चलते हों, चारों तरफ संगीत हो,
और घूंघर बजते हों, और चारों तरफ प्रियजन
उपस्थित हों, और प्रेम की वर्षा होती हो, ऐसे कृष्ण चौबीस घंटे ऐसी हालत में जीते हैं। ऐसा चारों तरफ उनके हो रहा
हो, ऐसे वे भीतर होते हैं।
अर्जुन जानता है कृष्ण को भलीभांति। उदासी कभी उस चेहरे पर निवास नहीं
बना पाई। आंखों ने उस चेहरे पर कभी हताशा नहीं देखी। उस व्यक्तित्व में कहीं कोई
पड़ाव नहीं बन सका दुख का कभी। लेकिन अर्जुन को तो अभी भरोसा करना पड़ेगा, ट्रस्ट करना पड़ेगा कि कृष्ण कहते हैं, तो यात्रा की
जाए।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य। इसलिए कहते
हैं, करने योग्य है अर्जुन!
करोगे, तो जान लोगे। नहीं करोगे, तो
नहीं जान पाओगे। कुछ जानने ऐसे हैं, जो करने से ही मिलते
हैं। और हम सब ऐसे लोग हैं कि हम सोचते हैं, जानने से ही
जानना हो जाए। हम सोचते हैं, कुछ बात जान लें और ज्ञान हो
जाए। कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य है अर्जुन! करोगे, तो जान पाओगे। करने से ही जानना आएगा। और करने की सबसे बड़ी कठिनाई वे गिना
देते हैं साधक को, ऊब। ऊब जाओगे; दो
दिन करोगे और ऊब जाओगे।
हेरिगेल एक जर्मन विचारक जापान में था तीन वर्षों तक। एक फकीर के पास
एक अजीब-सी बात सीख रहा था। सीखने गया था ध्यान, और उस फकीर ने सीखना
शुरू करवाया धनुर्विद्या का। हेरिगेल ने एक-दो दफे कहा भी कि मैं ध्यान सीखने जर्मनी
से आया हूं और मुझे धनुर्विद्या से कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन उस फकीर ने कहा कि
चुप! ज्यादा बातचीत नहीं। हम ध्यान ही सिखाते हैं। हम ध्यान ही सिखाते हैं।
दो-चार दिन, आठ दिन, हेरिगेल का पाश्चात्य
मन सोचने लगा, भाग जाऊं। किस तरह के आदमी के चक्कर में पड़
गया! लेकिन एक आकर्षण रोकता भी था। उस आदमी की आंखों में कुछ कहता था कि वह कुछ
जानता जरूर है। उसके उठने-बैठने में भनक मिलती थी कि वह कुछ जानता जरूर है। रात
सोया भी पड़ा रहता और हेरिगेल उसे देखता, तो उसे लगता कि यह
आदमी और लोगों जैसा नहीं सो रहा है। इसके सोने में भी कुछ भेद है! तो भाग भी न सके,
और कभी पूछने की हिम्मत जुटाए, तो वह फकीर
होंठ पर अंगुली रख देता कि पूछना नहीं। धनुर्विद्या सीखो।
एक साल बीत गया। सोचा हेरिगेल ने कि ठीक है; अब कोई उपाय नहीं है। इस आदमी से जाया भी नहीं जा सकता; इससे भागा भी नहीं जा सकता। नहीं तो यह फिर जिंदगीभर पीछा करेगा, इसका स्मरण रहेगा कि उस आदमी के पास था जरूर कुछ, कोई
हीरा भीतर था, जिसकी आभा उसके शरीर से भी चमकती थी। मगर कैसा
पागल आदमी है कि मैं ध्यान सीखने आया हूं, वह धनुर्विद्या
सिखा रहा है! तो सोचा कि सीख ही लो, तो झंझट मिटे।
सालभर उसने अथक मेहनत की और वह कुशल धनुर्धर हो गया। उसके निशान सौ
प्रतिशत ठीक लगने लगे। उसने एक दिन कहा कि अब तो मेरे निशान भी बिलकुल ठीक लगने
लगे। अब मैं धनुर्विद्या भी सीख गया। अब वह ध्यान के संबंध में कुछ पूछ सकता हूं?
उसके गुरु ने कहा कि अभी धनुर्विद्या कहां सीखे? निशान ठीक लगने लगा, लेकिन असली बात नहीं आई। उसने
कहा कि निशान ही तो असली बात है! अब मैं सौ प्रतिशत ठीक निशाना मारता हूं। एक भी
चूक नहीं होती। अब और क्या सीखने को बचा? उसके गुरु ने कहा
कि नहीं महाशय! निशाने से कुछ लेना-देना नहीं है। जब तक तुम तीर चलाते वक्त मौजूद
रहते हो, तब तक मैं न मानूंगा कि तुम धनुर्विद्या सीख गए।
ऐसे चलाओ तीर, जैसे कि तुम नहीं हो।
उसने कहा कि अब बहुत कठिन हो गया। अभी तो हम आशा रखते थे कि साल छः
महीने में सीख जाएंगे, अब यह बहुत कठिन हो गया। यह कैसे हो सकता है कि मैं न
रहूं! तो तीर चलाएगा कौन? और आप कहते हो कि तुम न रहो और तीर
चले! एब्सर्ड है। तर्कयुक्त नहीं है। कोई भी गणित को थोड़ा समझने वाला, तर्क को थोड़ा समझने वाला कहेगा कि पागल के पास पहुंच गए। अभी भी भाग जाना
चाहिए।
लेकिन सालभर उस आदमी के पास रहकर भागना निश्चित और मुश्किल हो गया, क्योंकि आठ दिन बाद ही भागना मुश्किल था। सालभर में तो उस आदमी की न मालूम
कितनी प्रतिमाएं हेरिगेल के हृदय में अंकित हो गईं। सालभर में तो वह आदमी उसके
प्राणों के पोर-पोर तक प्रवेश कर गया। भरोसा करना ही पड़ेगा, और
आदमी बिलकुल पागल मालूम होता है।
उस फकीर ने कहा, तू जल्दी मत कर। जरूर वह वक्त आ
जाएगा, जब तू मौजूद नहीं रहेगा और तीर चलेगा। और जिस दिन तू
मौजूद नहीं है और तीर चलता है, उसी दिन ध्यान आ जाएगा।
क्योंकि स्वयं को पूरी तरह अनुपस्थित कर लेने की कला ही ध्यान है, टु बी एब्सेंट टोटली।
और जिस क्षण कोई स्वयं को पूरी तरह अनुपस्थित कर लेता है, परमात्मा प्रवेश कर जाता है। परमात्मा के लिए भी जगह तो खाली करिएगा अपने
घर के भीतर! आप इतने भरे हुए हैं कि परमात्मा आना भी चाहे, तो
कहां से आए? उसको ठहरने लायक जगह भी भीतर चाहिए; उतनी जगह भी भीतर नहीं है! हम इतने ज्यादा अपने भीतर हैं, टू मच, कि वहां कोई रत्तीभर भी स्थान नहीं है,
स्पेस नहीं है।
उस फकीर ने कहा, तू जल्दी मत कर। तू कुछ वक्त लगा
और यह तीर निशान पर लगाने की बात न कर। निशान न भी लगा, तो
चलेगा। उस तरफ निशान चूक जाए, चूक जाए; इस तरफ निशान न चूके। उसने कहा, इस तरफ के निशान का
मतलब? कि इस तरफ करने वाला मौजूद न रहे, खाली हो जाए। तीर उठे और चले, और तू न रहे।
एक साल और उसने मेहनत की। पागलपन साफ मालूम होने लगा। रोज उठाता धनुष
और रोज गुरु कहता कि नहीं; अभी वह बात नहीं आई। निशान ठीक लगते जाते, और वह बात न आती। एक साल बीत गया। भागना चाहा, लेकिन
भागना और मुश्किल हो गया। वह आदमी और भरोसे के योग्य मालूम होने लगा। इन दो सालों
में कभी उस आदमी की आंख में रंचमात्र चिंता न देखी। कभी उसे विचलित होते न देखा।
सुख में, दुख में, सब स्थितियों में उस
आदमी को समान पाया। वर्षा हो कि धूप, रात हो कि दिन, पाया कि वह आदमी कोई अडिग स्थान पर खड़ा है, जहां कोई
कंपन नहीं आता।
भागना मुश्किल है। लेकिन बात पागलपन की हुई जाती है। दो साल खराब हो
गए! गुरु से फिर एक दिन कहा कि दो साल बीत गए! उसके गुरु ने कहा कि समय का खयाल जब
तक तू रखेगा, तब तक खुद को भूलना बहुत मुश्किल है। समय का जरा खयाल
छोड़। समय बाधा है ध्यान में।
असल में समय क्या है? हमारा अधैर्य समय है। जो टाइम
कांशसनेस है, वह समय का जो बोध है, वह
अधैर्य के कारण है। इसलिए जो समाज जितना अधैर्यवान हो जाता है, उतना टाइम कांशस हो जाता है। जो समाज जितना धीरज से बहता है, उतना समय का बोध नहीं होता।
अभी पश्चिम बहुत टाइम कांशस हो गया है। एक-एक सेकेंड, एक-एक सेकेंड आदमी बचा रहा है; बिना यह जाने कि
बचाकर करिएगा क्या? बचाकर करिएगा क्या? माना कि एक सेकेंड आपने बचा लिया और कार एक सौ बीस मील की रफ्तार से चलाई
और जान जोखम में डाली और दो-चार सेकेंड आपने बचा लिए, फिर
करिएगा क्या? फिर उन दो-चार सेकेंड से और कार दौड़ाइएगा! और
करिएगा क्या?
लेकिन समय का बोध आता है भीतर के तनावग्रस्त चित्त से। इसलिए बड़े मजे
की बात है कि आप जितने ज्यादा दुखी होंगे, समय उतना बड़ा मालूम
पड़ेगा। घर में कोई मर रहा है और खाट के पास आप बैठे हैं, तब
आपको पता चलेगा कि रात कितनी लंबी होती है। बारह घंटे की नहीं होती, बारह साल की हो जाती है। दुख का क्षण एकदम लंबा मालूम पड़ने लगता है,
क्योंकि चित्त बहुत तनाव से भर जाता है। सुख का क्षण बिलकुल छोटा
मालूम पड़ने लगता है। प्रियजन से मिले हैं और विदा का वक्त आ गया, और लगता है, अभी तो घड़ी भी नहीं बीती थी और जाने का
समय आ गया! समय बहुत छोटा हो जाता है।
हेरिगेल का वह गुरु कहने लगा कि समय की बात बंद कर, नहीं तो ध्यान में कभी नहीं पहुंच पाएगा।
ध्यान का अर्थ ही है, समय के बाहर निकल जाना।
रुक गया। अब इस आदमी से भाग भी नहीं सकता। यही ट्रस्ट, श्रद्धा का मैं अर्थ कह रहा हूं आपसे। श्रद्धा का अर्थ है कि आदमी की बात
भरोसे योग्य नहीं मालूम पड़ती, पर आदमी भरोसे योग्य मालूम
पड़ता है। श्रद्धा का अर्थ है, बात भरोसे योग्य नहीं मालूम
पड़ती, लेकिन आदमी भरोसे योग्य मालूम पड़ता है। बात तो ऐसी
लगती है कि कुछ गड़बड़ है। लेकिन आदमी ऐसा लगता है कि इससे ठीक आदमी कहां मिलेगा! तब
श्रद्धा पैदा होती है।
अब कृष्ण जो कह रहे हैं अर्जुन से, वह बात तो बिलकुल ऐसी
लगती है कि जब कोई दुख विचलित न कर सकेगा, संसार से सब
संसर्ग टूट जाएगा; पीड़ा-दुख, सबके पार
उठ जाएगा मन। ऐसा मालूम तो नहीं पड़ता। जरा-सा कांटा चुभता है, तो भी संसर्ग टूटता नहीं मालूम पड़ता। इस विराट संसार से संसर्ग कैसे टूट
जाएगा? कैसे इसके पार हो जाएंगे दुख के? दुख के पार होना असंभव मालूम पड़ता है। लेकिन कृष्ण आदमी भरोसे के मालूम
पड़ते हैं। वे जो कह रहे हैं, जानकर ही कह रहे होंगे।
हेरिगेल और रुक गया, एक साल और। लेकिन तीन साल! उसके
बच्चे, उसकी पत्नी वहां से पुकार करने लगे कि अब बहुत हो गया,
तीन साल बहुत हो गए ध्यान के लिए! वह भी जर्मन पत्नी थी, तीन साल रुकी। हिंदुस्तानी होती, तो तीन दिन मुश्किल
था। तीन साल बहुत वक्त होता है। वह चिल्लाने लगी कि अब आ जाओ। अब यह कब तक और! अभी
वह लिखता जा रहा है कि अभी तो शुरुआत भी नहीं हुई। गुरु कहता है कि नाट ईवेन दि
बिगनिंग, अभी तो शुरुआत भी नहीं हुई। और तू बुलाने के पीछे
पड़ी है!
आखिर जाना पड़ा। तो उसने एक दिन गुरु को कहा कि अब मैं लौट जाता हूं, यह जानते हुए कि आप जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे,
क्योंकि आप इतने ठीक हैं। यह जानते हुए कि इन तीन वर्षों में बिना
जाने भी मेरे भीतर क्रांति घटित हो गई है। और अभी आप कहते हैं कि दिस इज़ नाट ईवेन
दि बिगनिंग, यह अभी शुरुआत भी नहीं है। और मैं तो इतने आनंद
से भर गया हूं। अभी शुरुआत भी नहीं है, तो मैं सोचता हूं कि
जब अंत होता होगा, तो किस परम आनंद को उपलब्ध होते होंगे!
लेकिन दुखी हूं कि मैं आपको तृप्त न कर पाया; मैं असफल जा
रहा हूं। मैं इस तरह तीर न चला पाया कि मैं न मौजूद रहूं और तीर चल जाए। तो मैं कल
चला जाता हूं।
गुरु ने कहा कि तुम चले जाओ। जाने के पहले कल सुबह मुझसे मिलते जाना।
दोपहर उसका हवाई जहाज जाएगा, वह सुबह गुरु के पास
पुनः गया। आज कोई उसे तीर चलाना नहीं है। वह अपनी प्रत्यंचा, अपने तीर, सब घर पर ही फेंक गया है। आज चलाना नहीं
है; आज तो सिर्फ गुरु से विदा ले लेनी है। वह जाकर बैठ गया
है।
गुरु किसी दूसरे शिष्य को तीर चलाना सिखा रहा है। बेंच पर वह बैठ गया
है। गुरु ने तीर उठाया है, प्रत्यंचा पर चढ़ाया है, तीर
चला। और हेरिगेल ने पहली दफा देखा कि गुरु मौजूद नहीं है, तीर
चल रहा है। मौजूद नहीं है का मतलब यह नहीं कि वहां नहीं है, वहां
है। लेकिन उसके हाव-भाव में कहीं भी कोई एफर्ट, कहीं कोई
प्रयास, ऐसा नहीं लगता कि हाथ तीर को उठा रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि तीर हाथ को उठवा रहा है। ऐसा नहीं लगता कि प्रत्यंचा
को हाथ खींच रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता है, चूंकि प्रत्यंचा खिंच रही है, इसलिए हाथ खिंच रहे
हैं। तीर चल गया, ऐसा नहीं लगता कि उसने किसी निशाने के लिए
भेजा है, बल्कि ऐसा लगता है कि निशाने ने तीर को अपनी तरफ
खींच लिया है।
उठा। दौड़कर गुरु के चरणों में गिर पड़ा। हाथ से प्रत्यंचा ले ली; तीर उठाया और चलाया। गुरु ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा कि आज! आज तू जीत
गया। आज तूने इस तरह तीर चलाया कि तू मौजूद नहीं है। यही ध्यान का क्षण है।
हेरिगेल ने कहा, लेकिन आज तक यह क्यों न हो पाया?
तो उसके गुरु ने कहा, क्योंकि तू जल्दी में
था। आज तू कोई जल्दी में नहीं था। क्योंकि तू करना चाहता था। आज करने का कोई सवाल
न था। क्योंकि अब तक तू चाहता था, सफल हो जाऊं। आज
सफलता-असफलता की कोई बात न थी। तू बैठा हुआ था, जस्ट वेटिंग,
सिर्फ प्रतीक्षा कर रहा था।
अथक श्रम का अर्थ है, प्रतीक्षा की अनंत क्षमता। कब घटना
घटेगी, नहीं कहा जा सकता। कब घटेगी? क्षण
में घट सकती है; और अनंत जन्मों में न घटे। कोई प्रेडिक्टेबल
नहीं है मामला। कोई घोषणा नहीं कर सकता कि इतने दिन में घट जाएगी। और जिस बात की
घोषणा की जा सके, जानना कि वह क्षुद्र है और आदमी की घोषणाओं
के भीतर है। परमात्मा आदमी की घोषणाओं के बाहर है।
हम सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हैं। प्रयत्न कर सकते हैं और प्रतीक्षा कर
सकते हैं। और ऊब गए, तो खो जाएंगे। और ऊब पकड़ेगी। ऊब बुरी तरह पकड़ती है।
सच तो यह है कि जितने लोग मंदिरों और मस्जिदों में आपको ऊबे हुए दिखाई पड़ेंगे,
उतने कहीं न दिखाई पड़ेंगे। मधुशालाओं में भी उनके चेहरों पर थोड़ी
रौनक दिखेगी, मंदिरों में वह भी नहीं दिखेगी। होटलों में
बैठकर वे जितने ताजे दिखाई पड़ते हैं, उतने भी मस्जिदों और
गुरुद्वारों में दिखाई नहीं पड़ते। ऊबे हुए हैं! जम्हाइयां ले रहे हैं! सो रहे हैं!
मैंने सुना है कि एक चर्च में एक पादरी बोल रहा है। एक आदमी जोर से
घुर्राटे लेने लगा, सो गया है। पादरी उसके पास आया और कहा कि भाई जान,
थोड़ा धीरे से घुर्राटे लें, क्योंकि दूसरे
लोगों की नींद न टूट जाए! पूरा चर्च ही सो रहा है।
मंदिरों में लोग सो रहे हैं। धर्मसभाओं में लोग सो रहे हैं। ऊबे हुए
हैं; जम्हाइयां ले रहे हैं। कैसे, फिर
कैसे होगा?
कृष्ण कहते हैं, अथक! बिना ऊबे श्रम करना पड़े योग
का।
हां, एक ही भरोसे की बात कही जा सकती है कि वे जो कह रहे
हैं, प्राप्ति पर जीवन की सारी खोज पूरी हो जाती है। और
प्राप्ति पर फिर कभी ऊब नहीं आती।
और ध्यान रहे, प्रयत्न में ऊब आ जाए तो हर्जा नहीं, प्राप्ति में ऊब नहीं आनी चाहिए। अन्यथा जीवनभर का श्रम व्यर्थ गया। और इस
संसार में प्रयत्न में तो बड़ा रस रहता है और पा लेने पर कुछ हाथ नहीं लगता,
और ऊब आ जाती है।
लेकिन यह बात ट्रस्ट पर ही ली जा सकती है, भरोसे पर ही। यह श्रद्धा का ही सूत्र है।
पर कृष्ण किसी को धोखा किसलिए देंगे? कोई प्रयोजन तो नहीं
है। बुद्ध किसलिए लोगों को धोखा देंगे? महावीर किसलिए लोगों
को धोखा देंगे? क्राइस्ट या मोहम्मद किसलिए लोगों को धोखा
देंगे? कोई भी तो प्रयोजन नहीं है। फिर एकाध आदमी धोखा देता,
तो भी ठीक था। इस पृथ्वी पर न मालूम कितने लोग! किसलिए धोखा देंगे?
और फिर मजे की बात यह है कि ये लोग अगर धोखा देने वाले लोग होते, तो इतनी शांति और इतने आनंद और इतनी मौज और इतने रस में नहीं जी सकते थे।
कोई धोखा देने वाला जीता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। ये जो कह रहे हैं, कुछ जानकर कह रहे हैं। लेकिन इस जानने के लिए आपको कुछ करना पड़ेगा। अगर आप
सोचते हैं कि सुनकर, पढ़कर, स्मृति से,
समझ से काम हो जाएगा, तो कुछ भी काम नहीं
होगा। कुछ करना पड़ेगा।
और ध्यान रहे, श्रम का एक कदम भी उतने दूर ले जाता है, जितने विचार के हजार कदम भी नहीं ले जाते। विचार में आप वहीं खड़े रहते
हैं। सिर्फ हवा में पैर उठाते रहते हैं; कहीं जाते नहीं।
श्रम का एक कदम भी दूर ले जाता है। और एक-एक कदम कोई चले, तो
लंबी से लंबी यात्रा पूरी हो जाती है।
लेकिन इस बड़ी यात्रा में सबसे बड़ी बाधा आपकी ऊब से पड़ेगी, आपके घबड़ा जाने से पड़ेगी, कि पता नहीं, पता नहीं कुछ होगा कि नहीं होगा! आपकी प्रतीक्षा जल्दी ही थक जाएगी। उससे
सबसे बड़ी कठिनाई पड़ेगी। साधक के लिए ऊब सबसे बड़ी बाधा है।
यह अगर स्मरण रहे, तो जब भी आप ऊब जाएं, तब थोड़े सजग होकर देखना कि ऊब मन को पकड़ रही है, तुड़वा
देगी सारी व्यवस्था को। तो ऊब से बचना। और जब ऊब पकड़े तो और जोर से श्रम करना,
तो ऊब की जो ताकत है, वह भी श्रम में कनवर्ट
होती है, वह भी श्रम में लग जाती है।
ऊबने में भी ताकत खर्च होती है। ऊबने में भी ताकत खर्च होती है; उस ताकत को भी श्रम में लगा देना। जब ऊब पकड़े मन को, तो और तेजी से श्रम करना। अगर ऊब पकड़े मन को, तो
बैठकर ध्यान मत करना, दौड़कर ध्यान करना।
बुद्ध दो तरह का ध्यान करवाते थे भिक्षुओं को। कहते थे, एक घंटा बैठकर करो; और जैसे ही तुम्हें लगे कि ऊब
पकड़ी, कि दौड़कर करो। जानते थे कि ऊब तो पकड़ेगी ही। तो पहले
बैठकर करो, फिर चलकर करो।
अगर आप कभी बुद्धगया गए हों, तो आज भी वे पत्थर
लगे हुए हैं, जहां बुद्ध घंटों चलते रहते थे। बोधिवृक्ष के
नीचे बैठते, फिर चलते। फिर बैठते, फिर
चलते। फिर बैठते, फिर चलते।
आज भी बर्मा, थाईलैंड जैसे मुल्कों में, जहां
बुद्ध के ध्यान-केंद्र अभी भी थोड़ा-बहुत काम करते हैं, वहां
भिक्षु एक घंटा बैठकर ध्यान करेगा, फिर दूसरे घंटे चलेगा।
फिर बैठकर ध्यान करेगा, फिर तीसरे घंटे चलेगा। फिर बैठकर
ध्यान करेगा। जब भी बैठकर देखेगा कि जरा-सी ऊब का क्षण आया, फौरन
उठकर चलने लगेगा। ऊबेगा नहीं। ऊब नहीं आने देगा!
और अगर आपने तय कर लिया है कि ऊब को नहीं आने देंगे, तो आप थोड़े ही दिन में पाएंगे कि आप ऊब का अतिक्रमण कर गए। अब आप अथक योग
में प्रवेश कर सकते हैं।
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।। २४।।
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्।। २५।।
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि संकल्प से उत्पन्न होने वाली संपूर्ण
कामनाओं को निःशेषता से अर्थात वासना और आसक्ति सहित त्यागकर और मन के द्वारा
इंद्रियों के समुदाय को सब ओर से ही अच्छी प्रकार वश में करके, क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरामता को प्राप्त होवे तथा धैर्ययुक्त
बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवाय और कुछ भी चिंतन न
करे।
परमात्मा के सिवाय और कुछ भी चिंतन न करे, यही इस सूत्र का सार है। शेष सब कृष्ण ने पुनः दोहराया है। कामनाओं को वश
में करके, मन के पार होकर, इंद्रियों
के अतीत उठकर, संकल्प-विकल्प से दूर होकर--सब जो उन्होंने
पहले कहा है, पुनः दोहराया है। और अंत में, सदा परमात्मा के चिंतन में लीन रहे।
दो बातें। एक, कृष्ण क्यों बार-बार वही-वही बात दोहराते हैं?
इतना रिपीटीशन, इतनी पुनरुक्ति क्यों है?
बुद्ध ने तो इतने वचन दोहराए हैं कि बुद्ध के जो नए वचनों के संग्रह
प्रकाशित हुए हैं, उनको संपादित करने वाले लोगों को बड़ी
कठिनाई पड़ी। क्योंकि अगर बुद्ध के ही हिसाब से पूरे वचन कहे जाएं, तो संग्रह कम से कम दस गुना बड़ा होगा। इतनी बार वचन दोहराए हैं कि फिर
संपादित करने वाले लोग वचन लिख देते हैं और बाद में डिट्टो निशान लगाते जाते हैं
कि वही, जो ऊपर कहा है, फिर कहा। वही,
जो ऊपर कहा है, फिर कहा। दस गुना छंटाव करना
पड़ता है।
लेकिन संपादन करने वाले लोगों से बुद्ध ज्यादा बुद्धिमान थे। इतने
दोहराने की बात क्या हो सकती है? इस दोहराने का...कृष्ण भी क्या
गीता में कुछ सूत्र दोहराए चले जा रहे हैं। फिर, और फिर,
और फिर। बात क्या है? अर्जुन बहरा है?
होना चाहिए। सभी श्रोता होते हैं। सुनता हुआ मालूम पड़ता है, शायद सुन नहीं पाता। बिलकुल दिखाई पड़ता है कि सुन रहा है, लेकिन कृष्ण को दिखाई पड़ता होगा उसके चेहरे पर कि नहीं सुना। फिर दोहराना
पड़ता है।
ये किताबें लिखी गई नहीं हैं, बोली गई हैं। दुनिया
में जो भी श्रेष्ठतम सत्य हैं, वे लिखे हुए नहीं हैं,
बोले हुए हैं। वह चाहे कुरान हो, कि चाहे बाइबिल,
कि चाहे गीता, चाहे धम्मपद। जो भी श्रेष्ठतम
सत्य इस जगत में कहे गए हैं, वे बोले गए सत्य हैं। वे किसी
के लिए एड्रेस्ड हैं। कोई सामने मौजूद है, जिसकी आंखों में
कृष्ण देख रहे हैं कि कहा मैंने जरूर, लेकिन सुना नहीं।
जीसस तो बहुत जगह बाइबिल में कहते हैं--बहुत जगह कहते हैं--कान हैं
तुम्हारे पास, लेकिन सुन सकोगे क्या? आंख है
तुम्हारे पास, लेकिन देख सकोगे क्या? बार-बार
कहते हैं कि जिनके पास कान हों, वे सुन लें। जिनके पास आंख
हो, वे देख लें। तो क्या अंधों और बहरों के बीच बोलते होंगे?
नहीं; इतने अंधे और बहरे तो कहीं भी नहीं खोजे जा सकते कि
सारी बाइबिल उन्हीं के लिए उपदेश दी जाए। हमारे जैसे ही लोगों के बीच बोल रहे
होंगे, जिनके कान भी ठीक मालूम पड़ते हैं, आंख भी ठीक मालूम पड़ती है, फिर भी कहीं कोई बात चूक
जाती है। तो कृष्ण और बुद्ध जैसे आदमी को दोहराना पड़ता है। बार-बार वही बात
दोहरानी पड़ती है। फिर नए कोण से वही बात कहनी पड़ती है। शायद सुन ली जाए।
और एक कारण है। सुनने के भी क्षण हैं, मोमेंट्स। नहीं कहा
जा सकता कि किस क्षण आपकी चेतना द्वार दे देगी। किस क्षण आप उस स्थिति में होंगे
कि आपके भीतर शब्द प्रवेश कर जाए, नहीं कहा जा सकता।
अमेरिका में एक बहुत बड़ा करोड़पति, अरबपति था, रथचाइल्ड। उससे किसी नए युवक ने, संपत्ति के तलाशी
ने पूछा कि आपकी सफलता का रहस्य क्या है? तो रथचाइल्ड ने कहा
कि मेरी सफलता का एक ही रहस्य है कि मैं किसी अवसर को चूकता नहीं, छलांग मारकर अवसर को पकड़ लेता हूं। पर, उस आदमी ने
कहा कि यह पता कैसे चलता है कि यह अवसर है? और जब तक पता
चलता है, तब तक तो अवसर हाथ से निकल जाता है। तो छलांग मारने
का मौका कैसे मिलता है? रथचाइल्ड ने कहा कि मैं खड़ा रहता ही
नहीं; मैं तो छलांग लगाता ही रहता हूं। जब अवसर आता है,
उस पर सवार हो जाता हूं। मैं छलांग लगाता ही रहता हूं। अवसर के लिए
रुका नहीं रहता कि जब आएगा, तब छलांग लगाऊंगा। एक सेकेंड
चूके, कि गए। हम तो छलांग लगाते रहते हैं। अवसर आया, हम सवार हो जाते हैं।
ठीक ऐसे ही व्यक्ति की चेतना में कोई क्षण होते हैं, जब द्वार खुलता है।
तो कृष्ण जैसे व्यक्ति तो कहे चले जाते हैं सत्य को। अर्जुन के चारों
तरफ गुंजाते चले जाते हैं सत्य को। पता नहीं कब, किस क्षण में अर्जुन
की चेतना उस बिंदु पर आ जाए, उस टयूनिंग पर, जहां आवाज सुनाई पड़ जाए और सत्य भीतर प्रवेश कर जाए! इसलिए इतना दोहराना
पड़ता है।
पर दोहराने में भी हर बार वे कोई एक नई बात साथ में जोड़ते चले जाते
हैं। हर बार कोई एक नया सत्य, कोई एक नया इंगित। नहीं तो
अर्जुन भी उनसे कहेगा कि आप क्या वही-वही बात दोहराते हैं!
मजा यह है कि जो बिलकुल नहीं सुनते, वे भी इतना तो समझ ही
लेते हैं कि बात दोहराई जा रही है। जिनकी समझ में कुछ भी नहीं आता, वे भी शब्द तो सुन ही लेते हैं। उनको यह तो पता चल ही जाता है कि आपने यही
बात पहले कही थी, वही बात आप अब भी कह रहे हैं। शब्द
पुनरुक्त हो रहे हैं, यह जानने के लिए समझ आवश्यक नहीं है,
केवल स्मृति काफी है।
तो इसलिए कृष्ण या बुद्ध फिर वही शब्द दोहराते हैं, लेकिन फिर कुछ नया इशारा जोड़ते हैं। शायद उस नए इशारे से कुंजी पकड़ में आ
जाए और अर्जुन का ताला खुल जाए। इसमें नया शब्द जोड़ते हैं, प्रभु
का सतत चिंतन।
इसमें दो बातें समझने जैसी हैं। एक तो, प्रभु का।
जिसे हम नहीं जानते, उसका चिंतन कैसे करेंगे? जिसे हम जानते ही नहीं, उसका हम चिंतन कैसे करेंगे?
क्या करेंगे चिंतन?
दूसरी बात, चिंतन का अर्थ?
चिंतन का अर्थ विचार नहीं है। क्योंकि विचार तो उसका ही होता है, जो ज्ञात है, नोन है। अज्ञात का कोई विचार नहीं
होता।
चिंतन का कुछ और अर्थ है। वह समझ में आ जाए तो प्रभु का चिंतन खयाल
में आ जाए। समझें, आपको प्यास लगी है। आप पच्चीस काम में लगे रहें,
तो भी प्यास का चिंतन भीतर चलता रहेगा। विचार नहीं। विचार तो आप
दूसरा कर रहे हैं। हो सकता है, हिसाब लगा रहे हैं, खाता-बही कर रहे हैं, किसी से बात कर रहे हैं। लेकिन
भीतर एक अनुधारा, एक अनुचिंतन, एक
बारीक अंडर करेंट, भीतर प्यास की चलती रहेगी। कोई भीतर
बार-बार कहता रहेगा, प्यास लगी है, प्यास
लगी है, प्यास लगी है।
यह मैं आपसे कह रहा हूं, इसलिए शब्द का उपयोग
कर रहा हूं। वह जो आपके भीतर है, वह शब्द का उपयोग नहीं
करेगा। वह तो प्यास की ही चोट करता रहेगा कि प्यास लगी है। शब्द का उपयोग नहीं
करेगा, वह यह नहीं कहेगा कि प्यास लगी है। प्यास ही लगती
रहेगी। फर्क आप समझ रहे हैं?
अगर आप कहें कि प्यास लगी है, प्यास लगी है,
प्यास लगी है, तो यह विचार हुआ। और अगर प्यास
ही लगती रहे; सब काम जारी रहे, विचार
जारी रहे और भीतर एक खटक, एक चोट, द्वार
पर कोई कुंडी खटखटाता रहे, शब्द में नहीं, अनुभव में; प्यास, प्यास भीतर
उठती रहे, तो चिंतन हुआ।
प्रभु का विचार तो हम कर ही नहीं सकते। लेकिन प्रभु की प्यास हम सबके
भीतर है। हालांकि हममें से बहुत कम लोगों ने पहचाना है कि प्रभु की प्यास हमारे
भीतर है। लेकिन हम सबके भीतर है। कोई आदमी प्रभु-प्यास के बिना पैदा ही नहीं होता, हो नहीं सकता।
हां, यह हो सकता है कि वह अपनी प्रभु-प्यास की व्याख्या
कुछ और कर ले। और वह प्रभु-प्यास की व्याख्या करके कुछ और खोजने निकल जाए।
मिस-इंटरप्रिटेशन हो सकता है; लेकिन प्यास सदा मौजूद रहती
है।
अगर एक आदमी धन की तलाश में जाता है, तो बहुत ठीक से समझें
तो भी वह प्रभु की तलाश में ही जाता है, गलत दिशा में।
क्योंकि धन से लगता है, प्रभुता मिल जाएगी। धन से लगता है,
प्रभुता मिल जाएगी। बहुत होगा धन, तो दीनता न
रह जाएगी; प्रभु हो जाएंगे; मालकियत हो
जाएगी।
एक आदमी पद की तलाश करता है कि राष्ट्रपति हो जाऊं; राष्ट्रपति के सिंहासन पर बैठ जाऊं। गलत व्याख्या कर रहा है वह। मन में तो
परम पद पर पहुंचने की आकांक्षा है कि उस पद पर पहुंच जाऊं, जिसके
ऊपर कोई पहुंचने की जगह न रह जाए। लेकिन वह यहीं की छोटी-बड़ी कुर्सियां चढ़ रहा है!
बड़ी से बड़ी कुर्सी पर खड़े होकर भी पाएगा, कहीं नहीं पहुंचा।
सिर्फ एक जगह पहुंचा है, जहां से अब कोई गिराएगा--सिर्फ एक
जगह पहुंचा है। क्योंकि नीचे दूसरे चढ़ रहे हैं। वे टांगें खींच रहे हैं।
उसको वे पालिटिक्स कहते हैं; या और कुछ नाम दें।
एक-दूसरे की टांग को खींचने का नाम पालिटिक्स! और जितने ऊपर आप गए, उतने ज्यादा लोग आपकी टांग खींचेंगे। क्योंकि आप अकेले रह जाएंगे और चढ़ने
वाले बहुत हो जाएंगे।
लाओत्से ने कहा है कि हमको कोई नीचे कभी न उतार पाया, क्योंकि हमने कहीं चढ़ने की कोशिश ही नहीं की।
अगर ऐसा करें, तो ठीक है। नहीं तो कोई न कोई खींचेगा। लेकिन वह जो
पद की आकांक्षा है, वह जो पावर की, शक्ति
की आकांक्षा है, वह भी वस्तुतः प्रभुता की आकांक्षा है।
नेपोलियन से कोई पूछ रहा था कि कानून की क्या व्याख्या है? व्हाट इज़ दि ला? तो नेपोलियन ने कहा, आई एम दि ला, मैं हूं कानून।
अब ऐसा सिर्फ प्रभु कह सकता है, परमात्मा, कि मैं हूं कानून। नेपोलियन कह रहा है! और उसे पता नहीं कि हृदय की धड़कन
अभी बंद हो जाए, तो आई एम दि ला कुछ काम न करे; मैं कानून हूं, कुछ काम न करे। और जिस दिन उसने यह
बात कही, उसके थोड़े ही दिन बाद वह हार गया। और बड़ी छोटी-सी
चीज से हारा, बिल्लियों से!
नेपोलियन छोटा बच्चा था, तो एक छः महीने का
बच्चा था जब नेपोलियन, तो एक बिलाव ने जंगली बिलाव ने उसकी
छाती पर पंजा मार दिया था। नौकरानी इधर-उधर हट गई थी, जैसा
कि नौकरानियां हट जाती हैं। बिल्ली ने पंजा मार दिया। भागी नौकरानी आई। बिल्ली तो
हट गई। लेकिन छः महीने के बच्चे पर बिल्ली का पंजा बैठ गया। वह जो बाद में कहता था,
आई एम दि ला, वह सिर्फ बिल्ली का पंजा था उसकी
छाती में, कोई कानून नहीं था। फिर वह बहादुर आदमी सिद्ध हुआ।
शेर से लड़ सकता था, लेकिन बिल्ली से डरता था। वह छः महीने
में जो कानून बनकर बैठ गई थी बिल्ली! बिल्ली को देखता था तो छः महीने के बच्चे की
हैसियत हो जाती थी उसकी, रिग्रेस कर जाता। कभी हारा नहीं था।
लेकिन उसके दुश्मन ने, नेल्सन ने, जो उसके खिलाफ लड़ने आया था, पता लगा लिया कि उसकी
कमजोरी बिल्ली है। तो सत्तर बिल्लियां नेल्सन अपनी युद्ध की फौज के सामने बांधकर
लाया। और जब नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं, तो जैसा अर्जुन ने
कृष्ण से कहा कि हे कृष्ण, मेरा गांडीव धनुष शिथिल हो गया;
मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं, पसीना छूट रहा
है। अब मेरी हिम्मत नहीं होती। ऐसा ही नेपोलियन ने अपने सेनापति से कहा कि तू
सम्हाल। बिल्लियों को देखकर मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं! हार गया उसी सांझ।
और जिसने पंद्रह दिन पहले कहा था, आई एम दि ला, वह पंद्रह दिन बाद हेलेना के द्वीप पर कैद था कारागृह में। सुबह घूमने
निकला था। छोटा-सा द्वीप। द्वीप पर उसको मुक्त रखा गया था, क्योंकि
छोटे द्वीप के बाहर भाग नहीं सकता था। द्वीप पर कारागृह था, पूरा
द्वीप ही उसके लिए कारागृह था। सुबह घूमने निकला था। छोटी-सी पगडंडी है जंगल की और
एक घास वाली औरत एक बड़ा घास का गट्ठर लिए उस तरफ से आती थी। नेपोलियन के साथ एक
चिकित्सक रखा गया था, क्योंकि नेपोलियन जो कि कभी भी बीमार
नहीं पड़ा था, हारते ही इस बुरी तरह बीमार पड़ गया, जिसका कोई हिसाब नहीं।
सभी राजनीतिज्ञ पड़ जाते हैं, हारते ही! ज्यादा दिन
जिंदगी नहीं रहती फिर। फिर मौत बड़ी जल्दी करीब आ जाती है।
तो चिकित्सक साथ था। दोनों चल रहे थे। चिकित्सक तो भूल गया, चिल्लाकर जोर से कहा कि ओ घसियारिन! रास्ता छोड़। लेकिन घसियारिन क्यों
रास्ता छोड़े? हो कौन तुम, जिसके लिए
रास्ता छोड़े! घसियारिन तो बढ़ी चली आई। तब नेपोलियन को खयाल आया। नेपोलियन रास्ते
से नीचे उतर गया, डाक्टर को भी नीचे उतार लिया और उसने कहा
कि वे दिन चले गए, जब हम पहाड़ों से कहते थे, रास्ता छोड़ दो और पहाड़ रास्ता छोड़ देते थे। अब घास वाली औरत रास्ता नहीं
छोड़ेगी। नीचे उतरकर किनारे खड़ा हो गया। पंद्रह दिन पहले उस आदमी ने कहा था,
आई एम दि ला, मैं हूं कानून, मैं हूं नियम।
असल में नेपोलियन की या सिकंदर की यात्रा भी इसी आशा में है कि एक जगह
मिल जाए, जहां जाकर मैं कह सकूं, मैं हूं
प्रभु। पद की हो, कि धन की हो, कि यश
की हो, सारी यात्रा मिस-इंटरप्रिटेशन है, उस प्यास की गलत व्याख्या है, जो हमारे भीतर प्रभु
के लिए है। वह सबके भीतर है।
बस, इस गलत व्याख्या को तोड़ देने की जरूरत है और आपके
भीतर चिंतन चलने लगेगा चौबीस घंटे। चाहे दुकान पर बैठे होंगे, तो भीतर कोई प्रभु की प्यास सरकने लगेगी। चाहे घर पर होंगे, चाहे काम करते होंगे, चाहे विश्राम करते होंगे,
चाहे जागते होंगे, चाहे सो गए होंगे, भीतर एक खटक चलती ही रहेगी।
उस खटक का नाम चिंतन है। उस खटक का, कि प्रभु हुए बिना
कोई उपाय नहीं, कि प्रभु से एक हुए बिना कोई उपाय नहीं,
कि प्रभु की गोद में पड़े बिना कोई उपाय नहीं, कि
प्रभु की शरण में गए बिना कोई उपाय नहीं, कि प्रभु के साथ
लीन हुए बिना कोई उपाय नहीं।
ऐसी जब प्यास--शब्द नहीं, ऐसी प्यास--जब भीतर
सरकने लगती है, तो उसका नाम प्रभु का सतत चिंतन है।
कृष्ण कहते हैं, ऐसे सतत चिंतन को जो उपलब्ध होता
है, समस्त वासनाओं को क्षीण करके और समस्त इंद्रियों के पार
उठकर, परम है सौभाग्य उसका, वह योगीजन
उस सबको पा लेता है, जो पा लेने योग्य है।
आज इतना ही। फिर कल सुबह।
लेकिन पांच मिनट बैठेंगे, कोई जाएगा नहीं।
धैर्य रखेंगे पांच मिनट। यहां थोड़ा प्रभु का चिंतन चलता है; प्रभु
के प्यासे लोग नाचते हैं उसकी यात्रा पर। उनको देखें। देखें ही न, उनका साथ दें। बैठकर ताली भी बजाएं। उनके गीत में सम्मिलित भी हों। एक
पांच मिनट के लिए भूल जाएं सब।
उठें मत। दो-चार लोग उठकर दूसरे लोगों को परेशान करते हैं। अपनी जगह
बैठे रहें। एक पांच मिनट का धैर्य रख लें। इतनी देर धीरज की बात सुनी, तो उसको जल्दी खराब न करें। बैठ जाएं अपनी जगह पर। साथ दें उनके कीर्तन
में। मग्न हों। पांच मिनट के लिए आनंदित हों और यह प्रसाद लेकर घर जाएं।
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