कुल पेज दृश्य

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-028



गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-028

अध्याय ३-नौवां प्रवचन
परधर्म, स्वधर्म और धर्म

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। ३५।।
अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से,
गुणरहित भी, अपना धर्म अति उत्तम है।
अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।

प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजता, अपनी इंडिविजुएलिटी है। प्रत्येक व्यक्ति का कुछ अपना निज है; वही उसकी आत्मा है। उस निजता में ही जीना आनंद है और उस निजता से च्युत हो जाना, भटक जाना ही दुख है।
कृष्ण के इस सूत्र में दो बातें कृष्ण ने कही हैं। एक, स्वधर्म में मर जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में भूल-चूक से भटक जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में असफल हो जाना भी श्रेयस्कर है, बजाय परधर्म में सफल हो जाने के।

स्वधर्म क्या है? और परधर्म क्या है? प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है। और किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है। पिता का धर्म भी बेटे का धर्म नहीं है। गुरु का धर्म भी शिष्य का धर्म नहीं है। यहां धर्म से अर्थ है, स्वभाव, प्रकृति, अंतःप्रकृति। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अंतःप्रकृति है, लेकिन है बीज की तरह बंद, अविकसित, पोटेंशियल है। और जब तक बीज अपने में बंद है, तब तक बेचैन है। जब तक बीज अपने में बंद है और खिल न सके, फूट न सके, अंकुर न बन सके, और फूल बनकर बिखर न सके जगत सत्ता में, तब तक बेचैनी रहेगी। जिस दिन बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन जाता है, फूल खिल जाते हैं, उस दिन परमात्मा के चरणों में वह अपनी निजता को समर्पित कर देता है। फूल के खिले हुए होने में जो आनंद है, वैसा ही आनंद स्वयं में जो छिपा है, उसके खिलने में भी है। और परमात्मा के चरणों में एक ही नैवेद्य, एक ही फूल चढ़ाया जा सकता है, वह है स्वयं की निजता का खिला हुआ फूल--फ्लावरिंग आफ इंडिविजुएलिटी। और कुछ हमारे पास चढ़ाने को भी नहीं है।
जब तक हमारे भीतर का फूल पूरी तरह न खिल पाए, तब तक हम संताप, दुख, बेचैनी, तनाव में जीएंगे। इसलिए जो व्यक्ति परधर्म को ओढ़ने की कोशिश करेगा, वह वैसी ही मुश्किल में पड़ जाएगा, जैसे चमेली का वृक्ष चंपा के फूल लाने की कोशिश में पड़ जाए। गुलाब का फूल कमल होने की कोशिश में पड़ जाए, तो जैसी बेचैनी में गुलाब का फूल पड़ जाएगा। और बेचैनी दोहरी होगी। एक तो गुलाब का फूल कमल का फूल कितना ही होना चाहे, हो नहीं सकता है; असफलता सुनिश्चित है। गुलाब का फूल कुछ भी चाहे, तो कमल का फूल नहीं हो सकता। न कमल का फूल कुछ चाहे, तो गुलाब का फूल हो सकता है। वह असंभव है। स्वभाव के प्रतिकूल होने की कोशिश भर हो सकती है, होना नहीं हो सकता।
इसलिए गुलाब का फूल कमल का फूल होना चाहे, तो कमल का फूल तो कभी न हो सकेगा, इसलिए विफलता, फ्रस्ट्रेशन, हार, हीनता उसके मन में घूमती रहेगी। और दूसरी उससे भी बड़ी दुर्घटना घटेगी कि उसकी शक्ति कमल होने में नष्ट हो जाएगी और वह गुलाब भी कभी न हो सकेगा। क्योंकि गुलाब होने के लिए जो शक्ति चाहिए थी, वह कमल होने में लगी है। कमल हो नहीं सकता; गुलाब हो नहीं सकेगा, जो हो सकता था, क्योंकि शक्ति सीमित है। उचित है कि गुलाब का फूल गुलाब का फूल हो जाए। और गुलाब का फूल चाहे छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं। न हो बड़ा फूल कमल का, गुलाब का फूल छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं है। और अगर न भी हो पाए, गुलाब होने की कोशिश भी कर ले, तो भी एक तृप्ति है; कि जो मैं हो सकता था, उसके होने की मैंने पूरी कोशिश की। उस असफलता में भी एक सफलता है कि मैंने वह होने की पूरी कोशिश कर ली, कुछ बचा नहीं रखा था, कुछ छोड़ नहीं रखा था।
लेकिन जो गुलाब कमल होना चाहे, वह सफल तो हो नहीं सकता। अगर किसी तरह धोखा देने में सफल हो जाए, आत्मवंचना में, सेल्फ डिसेप्शन में सफल हो जाए, सपना देख ले कि मैं कमल हो गया...सपने ही देख सकता है, परधर्म में कभी हो नहीं सकता। सपना देख सकता है कि मैं हो गया। भ्रम में पड़ सकता है कि मैं हो गया। तो वैसी सपने की सफलता से वह छोटा-सा गुलाब हो जाना, असफल, बेहतर है। क्योंकि एक तृप्ति का रस सत्य से मिलता है, स्वप्न से नहीं मिलता है।
कृष्ण ने यहां बहुत बीज-मंत्र कहा है। अर्जुन को वे कह रहे हैं कि स्वधर्म में--जो तेरा धर्म हो उसकी तू खोज कर। पहले तू इसको खोज कि तू क्या हो सकता है। तू अभी दूसरी बातें मत खोज कि तेरे वह होने से क्या होगा। सबसे पहले तू यह खोज कि तू क्या हो सकता है। तू जो हो सकता है, उसका पहले निर्णय ले ले। और फिर वही होने में लग जा। और सारी चिंताओं को छोड़ दे। तो ही तू किसी दिन संतृप्ति के अंतिम मुकाम तक पहुंच सकता है।
परधर्म लेकिन हम ओढ़ लेते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो स्वधर्म तब तक हमें पूरी तरह पता नहीं चलता, जब तक कि फूल खिल न जाए। गुलाब को भी पता नहीं चलता तब तक कि उसमें से क्या खिलेगा, जब तक गुलाब खिल न जाए। तो बड़ी कठिनाई है, स्वधर्म क्या है! मर जाते हैं और पता नहीं चलता; जीवन हाथ से निकल जाता है और पता नहीं चलता कि मैं क्या होने को पैदा हुआ था! परमात्मा ने किस मिशन पर भेजा था! कौन-सी यात्रा पर भेजा था। मुझे क्या होने को भेजा था! मैं किस बात का दूत होकर पृथ्वी पर आया था, इसका मरते दम तक पता नहीं चलता।
न पता चलने में सबसे बड़ी जो बाधा है, वह यह है कि चारों तरफ से परधर्म के प्रलोभन मौजूद हैं, जो कि पता नहीं चलने देते कि स्वधर्म क्या है। गुलाब तो खिला नहीं है, अभी उसे पता नहीं है, लेकिन बगल में कोई कमल खिला है, कोई चमेली खिली है, कोई चंपा खिली है। वे खिले हुए हैं, उनकी सुगंध पकड़ जाती है, उनका रूप पकड़ जाता है, उनका आकर्षण, उनकी नकल पकड़ जाती है और मन होता है कि मैं भी यही हो जाऊं। महावीर के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा कि मैं भी महावीर हो जाऊं। खिला फूल है वहां। बुद्ध के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा, कैसे मैं बुद्ध हो जाऊं! क्राइस्ट दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण आतुर हो जाएंगे कि ऐसा ही मैं कब हो जाऊं! कृष्ण दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण नाचने लगेंगे और कहेंगे, कृष्ण कैसे हो जाऊं!
खुद का तो पता नहीं कि मैं क्या हो सकता हूं; लेकिन आस-पास खिले हुए फूल दिखाई पड़ सकते हैं। और उनमें भटकाव है। क्योंकि कृष्ण, इस पृथ्वी पर कृष्ण के सिवाय और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। उस दिन नहीं, आज भी नहीं, कल भी नहीं, कभी नहीं। परमात्मा पुनरुक्ति करता ही नहीं है, रिपिटीशन करता ही नहीं है। परमात्मा बहुत मौलिक सर्जक है। उसने अब तक दुबारा एक आदमी पैदा नहीं किया। हजारों साल बीत गए कृष्ण को हुए, दूसरा कृष्ण पैदा नहीं हुआ। हजारों साल बुद्ध को हो गए, दूसरा बुद्ध पैदा नहीं हुआ। हालांकि लाखों लोगों ने कोशिश की है बुद्ध होने की, लेकिन कोई बुद्ध नहीं हुआ। और हजारों लोगों ने आकांक्षा की है क्राइस्ट होने की, लेकिन कहां कोई क्राइस्ट होता है! बस, एक बार।
इस पृथ्वी पर पुनरुक्ति नहीं है। पुनरुक्ति तो सिर्फ वे ही करते हैं, जिनके सृजन की क्षमता सीमित होती है। परमात्मा की सृजन की क्षमता असीम है। अक्सर बुढ़ापे में कवि अपनी पुरानी कविताओं को फिर-फिर लिखने लगते हैं। चित्रकार चुक जाते हैं और फिर उन्हीं चित्रों को पेंट करने लगते हैं, जिनको वे कई दफा कर चुके। थोड़ा बहुत हेर-फेर, और फिर वही पेंट करते हैं। आदमी की सीमाएं हैं।
खलील जिब्रान ने अपनी पहली किताब, प्रोफेट, इक्कीस साल की उम्र में लिखी, बस चुक गया। फिर बहुत किताबें लिखीं, लेकिन वे सब पुनरुक्तियां हैं। फिर प्रोफेट के आगे कोई बात नहीं कह सका। इक्कीस साल में मर गया, एक अर्थ में। एक अर्थ में, खलील जिब्रान इक्कीस साल में मर जाए, तो कोई बड़ी हानि होने वाली नहीं थी। जो वह दे सकता था, दिया जा चुका था, चुक गया।
अगर पिकासो के चित्र उठाकर देखें, तो पुनरुक्ति ही है फिर। फिर वही-वही दोहरता रहता है। फिर आदमी जुगाली करता है, जैसे भैंस घास खा लेती है और जुगाली करती रहती है। अंदर जो डाल लिया, उसी को निकालकर फिर चबा लेती है।
लेकिन परमात्मा जुगाली नहीं करता, अनंत है उसकी सृजनशीलता, इनफिनिट क्रिएटिविटी। जो एक दफा बनाया, बनाया। उस माडल को फिर नहीं दोहराता। लेकिन हमारा मन होता है कि किसी को देखकर हम आकर्षित हो जाते हैं कि ऐसे हो जाएं। बस, भूल की यात्रा शुरू हो गई।
परधर्म लुभाता है, क्योंकि परधर्म खिला हुआ दिखाई पड़ता है। स्वधर्म का पता नहीं चलता, क्योंकि वह भविष्य में है। परधर्म अभी है, पड़ोस में खिला है; वह आकर्षित करता है कि मैं भी ऐसा हो जाऊं।
कृष्ण जब कहते हैं कि स्वधर्म में हार जाना भी बेहतर है, परधर्म में सफल हो जाने के बजाए, तो वे यह कह रहे हैं कि परधर्म से सावधान। परधर्म भयावह है। इससे बड़ी फिअरफुल कोई चीज नहीं है जगत में, परधर्म से। दूसरे को अपना आदर्श बना लेने से बड़ी और कोई खतरनाक बात नहीं है, सबसे ज्यादा इससे भयभीत होना। लेकिन हम इससे कभी भयभीत नहीं हैं। हम तो अपने बच्चों को कहते हैं कि विवेकानंद जैसे हो जाओ, रामकृष्ण जैसे हो जाओ, बुद्ध जैसे हो जाओ, मोहम्मद जैसे हो जाओ। जैसे कि परमात्मा चुक गया हो, कि मोहम्मद को बनाकर अब कुछ और अच्छा नहीं हो सकता है, कि कृष्ण को बनाकर अब कुछ होने का उपाय नहीं रहा है। जैसे परमात्मा हार गया और अब आपके लिए सिर्फ रिपिटीशन के लिए भेजा है, पुनरुक्ति के लिए, डिट्टो आपको लगाकर भेज दिया है कि बस हो जाओ किसी के जैसे। जैसे कार्बन कापी होने का ही आपका अधिकार है।
नहीं, परमात्मा चुकता नहीं है। कृष्ण के इस सूत्र में बड़े कीमती अर्थ हैं, भयावह है परधर्म। अगर भयभीत ही होना है, तो मौत से भयभीत मत होना। कृष्ण नहीं कहेंगे कि मौत से डरो। जो आदमी कहता है, मौत से मत डरो, वह आदमी कहता है, परधर्म से डरो! मौत से भी ज्यादा खतरनाक है परधर्म! क्यों? क्योंकि परधर्म स्युसाइडल है। जिस आदमी ने दूसरे के धर्म को स्वीकार कर लिया, उसने आत्महत्या कर ली। उसने अपनी आत्मा को तो मार ही डाला, अब वह दूसरे की आत्मा की कापी ही बनने की कोशिश में रहेगा।
और कोई कितनी ही कोशिश करे, आवरण ही बदल सकता है। भीतर की आत्मा तो जो है अपनी, वही है। वह कभी दूसरे की नहीं हो सकती। भयावह है मृत्यु से भी ज्यादा परधर्म, क्योंकि आत्मघात है। आत्मघात जिसे हम कहते हैं, उससे भी ज्यादा भयावह है। क्योंकि जिसे हम आत्मघात कहते हैं, उसमें सिर्फ शरीर मरता है, और जिसे कृष्ण भयावह कह रहे हैं, उसमें आत्मा को ही हम दबाकर मार डालते हैं, आत्मा को ही घोंट डालते हैं।
दूसरे के धर्म से सावधान होने की जरूरत है और स्वधर्म पर दृष्टि लगाने की जरूरत है। इस बात की खोज करने की जरूरत है कि मैं क्या होने को हूं? मैं क्या हो सकता हूं? मेरे भीतर छिपा बीज क्या मांगता है? और साहसपूर्वक उस यात्रा पर निकलने की जरूरत है।
इसलिए धर्म सबसे बड़ा दुस्साहसिक काम है, सबसे बड़ा एडवेंचर है। न तो चांद पर जाना इतना दुस्साहसिक है, न एवरेस्ट पर चढ़ना इतना दुस्साहसिक है, न प्रशांत महासागर की गहराइयों में डूब जाना इतना दुस्साहसिक है, न ज्वालामुखी में उतर जाने में इतना दुस्साहस है, जितना दुस्साहस स्वधर्म की यात्रा पर निकलने में है। क्यों? क्योंकि भला चाहे एवरेस्ट पर कोई न पहुंचा हो, लेकिन बहुत लोगों ने पहुंचने की कोशिश की है। भला कोई ऊपर तक तेनसिंह और हिलेरी के पहले न पहुंचा हो, लेकिन आदमी के चरण-चिह्न काफी दूर तक, एप्प्रॉक्सिमेटली करीब-करीब पहुंच गए हैं। यात्री जा चुके उस रास्ते पर। चाहे प्रशांत महासागर में कोई इतना गहरे न गया हो, लेकिन लोग जा चुके हैं। लोग निर्णायक रास्ता छोड़ गए हैं। लेकिन स्वधर्म की यात्रा पर, आपके पहले आपके स्वधर्म की यात्रा पर कोई भी नहीं गया, बिलकुल अननोन है; एक इंच कोई नहीं गया। आप ही जाएंगे पहली बार एकदम अज्ञात में छलांग लगाने, जहां कोई नहीं गया है।
इसलिए परधर्म आकर्षक मालूम पड़ता है। क्योंकि परधर्म में सिक्योरिटी मालूम पड़ती है। नक्शा मिलता है न परधर्म में! हमें पता है, बुद्ध ने क्या-क्या किया है। तो ठीक वैसे ही पालथी मारकर हम भी कुछ करें, तो नक्शा हमारे पास होता है। हमें पता है, कृष्ण ने क्या किया। तो ठीक है, हम भी एक बांसुरी खरीद लाएं और किसी झाड़ के नीचे खड़े होकर बजाएं। नक्शे हैं पास में। परधर्म में नक्शा है, स्वधर्म अनचार्टर्ड है। कोई नक्शा नहीं, कोई कुतुबनुमा नहीं, कोई रास्ता बताने वाला नहीं। क्योंकि आप ही पहली दफा उस यात्रा पर जा रहे हैं, जो आपका स्वधर्म है। इसलिए आदमी डरकर दूसरे के रास्ते पर चला जाता है। बंधे-बंधाए रास्ते, तैयार पगडंडियां, राजपथ लुभाते हैं कि बंधा हुआ रास्ता है, लोग उस पर जा चुके हैं पहले भी, मैं भी इस पर चला जाऊं।
लेकिन ध्यान रहे, दूसरे के रास्ते से कोई अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच सकता है। जब रास्ता दूसरे का, तो मंजिल भी दूसरे की। और दूसरे की मंजिल पर पहुंच जाने से बेहतर, अपनी मंजिल को खोजने में भटक जाना है। क्योंकि भटकना भी सीख बन जाती है। और भूल भी सुधारी जा सकती है। और भूल से, आदमी भूल करने से बचता है। भूल ज्ञान है। अपनी खोज में भटकना और गिरना भी उचित। दूसरे की खोज में अगर बिलकुल राजपथ है, तो भी व्यर्थ, क्योंकि वह आपके मंदिर तक नहीं पहुंचता।
स्वधर्म दुस्साहस है। अज्ञात दुस्साहस है। अनजान, अपरिचित, यहां रास्ता बना-बनाया नहीं है। यहां तो चलना और रास्ता बनाना, एक ही बात के दो ढंग हैं कहने के। यहां तो चलना ही रास्ता बनाना है। एक बीहड़ जंगल में आप चलते हैं और रास्ता बनता है। जितना चलते हैं, उतना ही बनता है। बेकार है। क्योंकि रास्ता होना चाहिए चलने के पहले, तो उसका कोई सहारा मिलता है। आप चलते हैं जंगल में, लताएं टूट जाती हैं, वृक्षों को हटा लेते हैं, जगह साफ कर लेते हैं, लेकिन उससे कोई हल नहीं होता। आगे फिर रास्ता बनाना पड़ता है।
स्वधर्म में चलना ही मार्ग का निर्माण है। इसलिए भटकन तो निश्चित है। लेकिन भटकन से जो भयभीत है, वह कहीं परधर्म की सुरक्षापूर्ण, सिक्योर्ड यात्रा पर निकल गया, तो कृष्ण कहते हैं, वह और भी भयपूर्ण है। क्योंकि यहां तुम भटक सकते थे, लेकिन वहां तुम पहुंच ही नहीं सकते हो। भटकने वाला पहुंच सकता है। भटकता वही है, जो ठीक रास्ते पर होता है।
जरा इसे समझ लेना उचित होगा। भटकता वही है, जो ठीक रास्ते पर होता है, क्योंकि तभी उसे भटकाव का पता चलता है कि भटक गया। लेकिन जो बिलकुल गलत रास्ते पर होता है, वह कभी नहीं भटकता, क्योंकि भटकने के लिए कोई मापदंड ही नहीं होता। दूसरे के रास्ते पर आप कभी नहीं भटकेंगे; रास्ता मजबूती से दिखाई पड़ेगा; कोई चल चुका है। आप लकीर पीटते हुए चले जाएं। लेकिन स्वधर्म के रास्ते पर भटकाव का डर है, साहस की जरूरत है।
इसलिए मैं कहता हूं, धर्म बहुत जोखिम है। और उसी जोखिम की वजह से, उसी रिस्क की वजह से हम दूसरे का धर्म चुन लेते हैं। बेटा बाप का चुन लेता है, शिष्य गुरु का चुन लेता है, पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां एक-दूसरे के पीछे चलती चली जाती हैं। कोई इसकी फिक्र नहीं करता कि दूसरे का धर्म मेरा धर्म नहीं हो सकता है। मैं एक स्वभाव लेकर आया हूं, जिसका अपना स्वर है, जिसका अपना संगीत है, जिसकी अपनी सुगंध है, जिसका अपना जीने का ढंग है। उस ढंग को मुझे विकसित करना होगा।
कृष्ण बहुत जोर देकर अर्जुन से कहते हैं, तू ठीक से पहचान ले, तेरा स्वधर्म क्या है। और अर्जुन अगर आंख बंद करे और जरा ध्यान करे, तो वह कह सकता है कि उसका स्वधर्म क्या है। हम कभी आंख बंद नहीं करते, नहीं तो हम भी कह सकते हैं कि हमारा स्वधर्म क्या है। हम कभी खयाल नहीं करते कि हमारा स्वधर्म क्या है। और इसीलिए कोई चीज हमें तृप्त नहीं करती है। जहां भी जाते हैं, वहीं अतृप्ति।
आज सारी दुनिया उदास है और लोग कहते हैं, जीवन अर्थहीन है। अर्थहीन नहीं है जीवन, सिर्फ स्वधर्म खो गया है। इसलिए अर्थहीनता है। दूसरे के काम में अर्थ नहीं मिलता। अब एक आदमी जो गणित कर सकता है, वह कविता कर रहा है! अर्थहीन हो जाएगी कविता। सिर्फ बोझ मालूम पड़ेगा कि इससे तो मर जाना बेहतर है। यह कहां का नारकीय काम मिल गया। अब जो गणित कर सकता है, वह कविता कर रहा है। गणित और बात है, बिलकुल और। उसका काव्य से कोई लेना-देना नहीं है। काव्य में दो और दो पांच भी हो सकते हैं, तीन भी हो सकते हैं। गणित में दो और दो चार ही होते हैं। वहां इतनी सुविधा नहीं है, इतनी लोच नहीं है। गणित बहुत सख्त है। काव्य बहुत लोचपूर्ण, फ्लेक्सिबल है। काव्य तो एक बहाव है। गणित एक बहाव नहीं है।
अब जो गणितज्ञ हो सकता था, वह कवि होकर अगर बैठ जाए, तो जीवनभर पाएगा कि किसी मुसीबत में पड़ा है; कैसे छुटकारा हो इस मुसीबत से! जो कवि हो सकता था, वह गणितज्ञ हो जाए, तो कठिनाई खड़ी होने वाली है; बहुत कठिनाई खड़ी हो जाने वाली है। क्योंकि इन दोनों के जीवन को देखने के ढंग ही भिन्न हैं। इन दोनों के सोचने की प्रक्रिया अलग है। इनके पास आंखें एक-सी दिखाई पड़ती हैं, एक-सी हैं नहीं।
मैंने सुना है, एक जेलखाने में दो आदमी एक ही दिन बंद किए गए। सांझ, पूर्णिमा की रात, चांद निकला है। दोनों सीखचों को पकड़कर खड़े हैं। एक के चेहरे पर इतना आह्लाद है कि जैसे उसे स्वर्ग का खजाना मिल गया हो, जेल के सीखचों के भीतर! दूसरे के चेहरे पर ऐसा क्रोध है कि अगर उसका बस चले, तो सब आग लगा दे, जैसे नर्क में खड़ा हो। तो उस दूसरे आदमी ने पास खड़े आदमी से कहा, इतने प्रसन्न दिखाई पड़ रहे हो, पागल तो नहीं हो! यह जेलखाना है; इतनी प्रसन्नता? और सामने देखते हो, डबरा भरा हुआ है, गंदगी फैली हुई है; बास आ रही है; मच्छड़-कीड़े घूम रहे हैं। कहां बंद किया हुआ है हमें लाकर! उस दूसरे आदमी ने कहा, तुमने कहा तो मुझे याद आया कि जेल के भीतर हूं, अन्यथा मैं पूर्णिमा के चांद के पास पहुंच गया था। मुझे पता ही नहीं था कि मैं जेल के भीतर हूं। और तुम कहते हो तो मुझे दिखाई पड़ता है कि सामने डबरा है, अन्यथा पूर्णिमा का चांद जब ऊपर उठा हो, तो डबरे सिर्फ पागल देखते हैं, डबरे को देखने की फुर्सत कहां? आंख कहां?
ये दोनों आदमी एक ही साथ खड़े हैं, एक ही जेलखाने में। इन दोनों के पास एक-सी आंखें हैं, लेकिन एक-सा स्वधर्म नहीं है; स्वधर्म बिलकुल भिन्न है। अब वह आदमी कहता है, मुझे पता ही नहीं था कि मैं जेलखाने में हूं। जब पूर्णिमा का चांद निकला हो, तो कैसे पता हो सकता है कि जेलखाने में हूं। वह दूसरा आदमी कहेगा, पागल हो गए हो! जब जेलखाने में हो, तो पूर्णिमा का चांद निकल ही कैसे सकता है? ठीक है न! जब जेलखाने में बंद है आदमी, तो पूर्णिमा का चांद निकलता है कहीं जेलखानों में! जेलखानों में कभी पूर्णिमा नहीं होती, वहां अमावस ही रहती है। पर ये दो आदमी, इनके देखने के दो ढंग। और दो ढंग ही होते, तो भी ठीक था। जितने आदमी उतने ढंग हैं।
स्वधर्म का मतलब है, पृथ्वी पर जितनी आत्माएं हैं, उतने धर्म हैं, उतने स्वभाव हैं। दो कंकड़ भी एक जैसे खोजना मुश्किल हैं, दो आदमी तो खोजना बहुत ही मुश्किल है। सारी पृथ्वी को छान डालें, तो दो कंकड़ भी नहीं मिल सकते, जो बिलकुल एक जैसे हों। आदमी बड़ी घटना है। कंकड़ों तक के संबंध में परमात्मा व्यक्तित्व देता है, तो आदमी के संबंध में तो देता ही है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, खोज, पीछे देख, लौटकर देख, तू क्या हो सकता है! अर्जुन को कृष्ण, अर्जुन से भी ज्यादा बेहतर ढंग से जानते हैं। कृष्ण की आंखें अर्जुन को आर-पार देख पाती हैं।
अब पश्चिम में मनोविज्ञान कह रहा है कि प्रत्येक नर्सरी स्कूल में, किंडरगार्टन में, प्रत्येक प्राइमरी स्कूल में मनोवैज्ञानिक होने चाहिए, जो प्रत्येक बच्चे का एप्टिटयूड--अगर कृष्ण की भाषा में कहें, तो स्वधर्म--उस बच्चे का झुकाव पता लगाएं। और मनोवैज्ञानिक कहे कि इस बच्चे का यह झुकाव है, तो बाप उस बच्चे का कुछ भी कहे कि इसको डाक्टर बनाना है, अगर मनोवैज्ञानिक कहे कि चित्रकार, तो बाप की नहीं चलनी चाहिए। सरकार कहे कि इसे डाक्टर बनाना है, तो सरकार की नहीं चलनी चाहिए। सरकार कितना ही कहे कि हमें डाक्टरों की जरूरत है, हमें पेंटर की जरूरत नहीं है, तो भी नहीं चलनी चाहिए। क्योंकि यह आदमी डाक्टर हो ही नहीं सकता। हां, डाक्टर की डिग्री इसे मिल सकती है, लेकिन यह डाक्टर हो नहीं सकता। इसके पास चिकित्सक का एप्टिटयूड नहीं है। इसके पास वह गुणधर्म नहीं है।
इसलिए पश्चिम का मनोवैज्ञानिक इस सत्य को समझने के करीब आ गया है। और वह कहता है, अब तक बच्चों के साथ ज्यादती हो रही है। कभी बाप तय कर लेता है कि बेटे को क्या बनाना है, कभी मां तय कर लेती है, कभी कोई तय कर लेता है। कभी समाज तय कर देता है कि इंजीनियर की ज्यादा जरूरत है। कभी बाजार तय कर देता है। मार्केट वेल्यू होती है--डाक्टर की ज्यादा है, इंजीनियर की ज्यादा है, कभी किसी की ज्यादा है--इन सब से तय हो जाता है। सिर्फ एक व्यक्ति, जिसे तय किया जाना चाहिए था, वह भर तय नहीं करता है। वह उस व्यक्ति की अंतरात्मा से कभी नहीं खोजा जाता है कि यह आदमी क्या होने को है। बाजार तय कर देगा, मां-बाप तय कर देंगे, हवा तय कर देगी, फैशन तय कर देगी कि क्या होना है।
स्वभावतः मनुष्य विजड़ित हो गया है, क्योंकि कोई मनुष्य वह नहीं हो पाता है, जो हो सकता है। और जब कभी भी हम करोड़ों लोगों में एकाध आदमी वही हो जाता है, जो होने को पैदा हुआ था, तो उसका आनंद और है, उसका नृत्य और है, उसका गीत और है। उसकी जिंदगी में जो खुशी है; फिर हम तड़पते हैं कि यह खुशी हमको कैसे मिले? कौन-सा मंत्र पढ़ें, कौन-सा ग्रंथ पढ़ें, यह खुशी कैसे मिले? सच बात यह है कि खुशी सिर्फ स्वधर्म के फुलफिलमेंट से मिलती है और किसी तरह मिलती नहीं है। बाकी सब समझाने की तरकीबें हैं, कन्सोलेशंस हैं। सिर्फ आदमी को आनंद उसी दिन मिलता है, जिस दिन उसके भीतर का बीज पूरा खिल जाता है और फूल बन जाता है। उस दिन वह परमात्मा के चरणों में समर्पित कर पाता है। उस दिन वह धन्यभागी हो जाता है। उस दिन वह कह पाता है, प्रभु तेरी अनुकंपा है, तेरी कृपा है; धन्यभागी हूं कि तूने मुझे पृथ्वी पर भेजा है। अन्यथा जिंदगीभर वह कहता रहता है कि मेरे साथ अन्याय हुआ है; मुझे क्यों पैदा किया है? क्या वजह है मुझे सताने की? मुझे क्यों न उठा लिया जाए?
कामू ने अपनी एक किताब का प्रारंभ एक बहुत अजीब शब्द से किया है। लिखा है, दि ओनली मेटाफिजिकल प्राब्लम बिफोर ह्यूमन काइंड इज़ स्युसाइड--मनुष्य जाति के सामने एक ही धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक प्रश्न है, सवाल है और वह है, आत्महत्या। कि हम आत्महत्या क्यों न कर लें? रहने का क्या प्रयोजन है? क्या अभिप्राय है? क्या अर्थ है? ठीक कहता है वह।
एक ओर कहां हम कृष्ण को देखते हैं बांसुरी बजाते, नाचते; कहां एक ओर हम दुख-पीड़ा से भरे हुए लोग! कहां एक ओर बुद्ध कहते हैं, परम शांति है; कहां एक ओर हम कहते हैं, शांति परिचित नहीं है, कोई पहचान नहीं है। कहां एक ओर क्राइस्ट कहते हैं, प्रभु का राज्य; और कहां हम एक ओर, जहां सिवाय नर्क के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। या तो ये सब पागल हैं, या हम चूक गए हैं कहीं। जहां ये नहीं चूके हैं, वहां हम चूक गए हैं। चूक गए हैं, स्वधर्म से चूक गए हैं।
इसलिए मैं भी दोहराता हूं, स्वधर्म में असफल हो जाना भी श्रेयस्कर, परधर्म में सफल हो जाना भी अश्रेयस्कर। स्वधर्म में मर जाना भी उचित, परधर्म में अनंतकाल तक जीना भी नर्क। स्वधर्म में एक क्षण भी जो जी ले, वह मुक्ति को अनुभव कर लेता है। एक क्षण भी अगर मैं पूरी तरह वही हो जाऊं, जो परमात्मा ने चाहा है कि मैं होऊं, बस, उससे ज्यादा प्राणों की और कोई प्यास नहीं है।


प्रश्न: भगवान श्री, आप कहते हैं, धर्म एक है, समाधि एक है, परमात्मा एक है, लेकिन स्वधर्म अनेक हैं। तो इन दोनों में कैसे तालमेल बैठे, इसे स्पष्ट करें।
ऐसे ही, जैसे सरिताएं बहुत हैं और सागर एक है। ऐसे ही, जैसे वर्षा की बूंदें बहुत हैं, वर्षा एक है। ऐसे ही, जैसे गुलाब अलग है, कमल अलग है, लेकिन फ्लावरिंग एक है, फूल हो जाना एक है, खिल जाना एक है। स्वधर्म अलग-अलग हैं, धर्म अलग नहीं है। और जिस दिन स्वधर्म की, मैं अपने स्वधर्म की पूर्ति करता हूं और आप अपने स्वधर्म की पूर्ति करते हैं, तो जिस मंदिर पर हम पहुंच जाते हैं, वह एक है। लेकिन रास्ते अलग हैं। जिस रास्ते आप पहुंचते हैं, वह मेरा रास्ता नहीं है। जिस रास्ते मैं पहुंचता हूं, वह आपका रास्ता नहीं है।
एक कवि भी अपने गीत को गाकर उसी आनंद को उपलब्ध हो जाता है, जो एक गणितज्ञ अपने सवाल को हल करके होता है। लेकिन सवाल अलग और कविता अलग। एक चित्रकार भी अपने चित्र को बनाकर उसी आनंद को उपलब्ध हो जाता है, जैसे एक नृत्यकार नाचकर होता है। लेकिन नाचना अलग, चित्रकारी अलग, वह आनंद एक है। स्वधर्म जहां पहुंचा देता है, वह मंजिल एक है।
जैसे पहाड़ पर हम चढ़ते हों अपने-अपने रास्तों से और सब शिखर पर पहुंच जाएं। वह शिखर पर पहुंच जाना एक, उस शिखर पर हवाएं, और सूरज, और आकाश, और उड़ते हुए बादल, वे एक हैं; लेकिन जिन रास्तों से हम आए, वे सब अलग।
दो आदमी एक रास्ते से नहीं पहुंचते शिखर तक, क्योंकि दो आदमी एक जगह नहीं खड़े हैं। एक जगह खड़े भी नहीं हो सकते। जो जहां खड़ा है, वहीं से तो यात्रा शुरू करेगा। अब मैं यहां बैठा हूं, आप सब अगर मेरी तरफ चलना शुरू करें, तो आप वहीं से शुरू करेंगे न जहां आप बैठे हैं! और आप अपनी जगह अकेले ही बैठे हैं। आपकी जगह और कोई नहीं बैठा हुआ है। दूसरे जहां बैठे हैं, वहां से चलेंगे। दिशाएं अलग होंगी, ढंग चलने के अलग होंगे, चलने की शक्तियां अलग होंगी, चलने के इरादे अलग होंगे, पहुंचने के खयाल अलग होंगे। पहुंच जाएंगे एक जगह। जैसे सब सरिताएं सागर में पहुंच जाती हैं, ऐसे ही सब स्वधर्म महाधर्म में पहुंच जाते हैं। वह धर्म एक है। लेकिन वह धर्म उस दिन मिलता है, जिस दिन स्व मिट जाता है।
अर्जुन से अभी कृष्ण उस धर्म की बात नहीं कर रहे हैं। उसकी भी बात करेंगे। तब वे अर्जुन से कहेंगे, सर्वधर्मान् परित्यज्य...। वे उसकी भी बात करेंगे। वे कहेंगे, अब तू सब धर्म छोड़ दे। अभी वे कह रहे हैं, स्वधर्म पकड़ ले। यही कृष्ण अर्जुन से कहेंगे, अब तू सब धर्म-वर्म छोड़। अब तू मुझमें आ जा।
हम गंगा से नहीं कह सकते कि तू यमुना के रास्ते पर चल। हम यमुना से नहीं कह सकते कि तू सिंधु के रास्ते पर चल। हम सिंधु से नहीं कह सकते कि तू ब्रह्मपुत्र के रास्ते पर चल। लेकिन फिर सागर के किनारे पहुंचेंगी वे, और सागर कहेगा, आ जाओ, सब अपने रास्तों को छोड़ो और मुझमें आ जाओ। चलेंगी अपने रास्ते पर, फिर एक दिन रास्ते भी छोड़ देने पड़ते हैं। जिस दिन मंजिल मिल जाती है, उस दिन रास्ता छोड़ देना पड़ता है। मंजिल मिलकर जो रास्ते को पकड़े रहे, वह पागल है। परमात्मा सामने आ जाए और स्व को पकड़े रहे, वह पागल है। लेकिन परमात्मा सामने न हो और कोई पर को पकड़ ले परमात्मा की जगह, वह भी पागल है। पर, परमात्मा नहीं है। दि अदर, पर परमात्मा नहीं है।
स्व को, तब तक तो स्व ही सब कुछ है। जब तक परमात्मा नहीं मिलता, तब तक आत्मा ही सब कुछ है; तब तक आत्मा की ही फिक्र करें। जब तक सागर नहीं मिलता, तब तक नदी अपने रास्ते को पकड़े रहे। और जिस दिन सागर मिले, नाचे और लीन हो जाए। उस दिन सब रास्ते छोड़ दे, तट तोड़ दे। फिर उस दिन मोह न करे कि इन तटों ने इतने दिन साथ दिया, अब कैसे छोडूं! फिर उस दिन चिंता न करे कि जिन रास्तों ने यहां तक पहुंचाया, उन्हें कैसे छोडूं! रास्तों ने यहां तक पहुंचाया ही इसलिए कि अब यहां उन्हें छोड़ दो। बस, रास्ते समाप्त हुए। धर्म वहां मिलता है, जहां स्वधर्म लीन हो जाता है।
तीन बातें हुईं--परधर्म, स्वधर्म, धर्म। हम परधर्म में जीते हैं। अर्जुन परधर्म के लिए लालायित हो रहा है। है क्षत्रिय, एप्टिटयूड उसका वही है। अगर मनोवैज्ञानिक कहते, तो वे कहते कि तू कुछ और नहीं कर सकता। तेरी आत्मा निखरेगी तेरी तलवार की चमक के साथ। तू जागेगा उसी क्षण में, जहां प्राण दांव पर होंगे। तू कोई आंख बंद करके ध्यान करने वाला आदमी नहीं है। तुझे ध्यान लगेगा, लेकिन लगेगा युद्ध की प्रखरता में, इंटेंसिटी में। वहां तू लीन हो जाएगा। वहां तू भूल जाएगा। तू ऐसा बैठकर सुबह और ध्यान नहीं कर सकता कि मैं शरीर नहीं हूं। नहीं, जब तलवारें चमकेंगी धूप में और दांव पर सब कुछ होगा, तब तू भूल जाएगा कि तू शरीर है, तब तुझे पता भी नहीं रहेगा कि तू शरीर है। तू भी जानेगा कि शरीर नहीं हूं। लेकिन वह तलवार के दांव पर होगा। वह यहां घर में बैठकर माला पकड़कर तुझसे होने वाला नहीं है। वह तेरा एप्टिटयूड नहीं है, वह तेरा स्वधर्म नहीं है। तो अभी तू परधर्म पकड़ने की मत सोच।
बड़े मजे की बात है, जो परधर्म को पकड़ ले, वह परमात्मा तक कभी नहीं पहुंच सकता। परधर्म पकड़ने वाला तो स्वधर्म तक ही नहीं पहुंचता, परमात्मा तक पहुंचने का तो सवाल ही नहीं उठता। पहले परधर्म छोड़, स्वधर्म पकड़। फिर घड़ी आएगी वह भी--उसकी हम बात करेंगे--जब कृष्ण कहेंगे, अब स्वधर्म भी छोड़, अब परमात्मा में लीन हो जा। पर को छोड़ पहले, फिर स्व को भी छोड़ देना, तब सर्व उपलब्ध होता है। पर को छोड़कर स्व, स्व को छोड़कर सर्व। उसके आगे फिर कुछ छोड़ने-पकड़ने को नहीं रह जाता।
स्वधर्म परधर्म के विपरीत है। और धर्म जो है, वह अधर्म के विपरीत है। स्वधर्म परधर्म के विपरीत है, धर्म जो है वह अधर्म के विपरीत है। परधर्म से यात्रा स्वधर्म तक, स्वधर्म से यात्रा धर्म तक। जो आदमी स्वधर्म को लेकर चलेगा, एक दिन धर्म में पहुंच जाएगा; और जो आदमी परधर्म को पकड़कर चलेगा, एक दिन अधर्म में पहुंच जाएगा। परधर्म का आखिरी कदम अधर्म होगा। क्योंकि परधर्म को पकड़ने वाले की निजता खो जाती है, उसकी आत्मा खो जाती है। और जिस दिन आत्मा खो जाती है, उसी दिन अधर्म घर कर लेता है। खुद का दीया तो बुझ गया, अब अंधेरा घर में प्रवेश कर जाएगा। जिसका स्वधर्म जागता है, वह अधर्म में कभी नहीं गिर पाता। स्वधर्म बढ़ते-बढ़ते, ज्योति बढ़ते-बढ़ते एक दिन सूर्य के साथ एक हो जाती है। उस दिन वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है।
तो ये चार बातें खयाल में ले लें। हमारे सामने अभी विकल्प है, या तो स्वधर्म, या परधर्म। अगर अधर्म तक जाना हो, तो परधर्म का रास्ता उपयोगी है, हितकर है, सहयोगी है। अगर धर्म तक जाना हो, तो स्वधर्म का रास्ता हितकर है, सहयोगी है। अधर्म तक हम दूसरे के द्वारा पहुंचते हैं।
इस संबंध में एक छोटी-सी कहानी आपको कहूं। अधर्म तक सदा ही हम वाया दि अदर, दूसरे के द्वारा पहुंचते हैं। और धर्म तक हम सदा ही वाया दि सेल्फ, स्व के द्वारा पहुंचते हैं।
इसलिए धर्म पर जाने वाला आदमी एकांत में चला जाता है, ताकि दूसरे न हों, जहां दूसरे न हों, दूसरे का चित्र भी न बने। इसलिए धर्म की खोज में बुद्ध जंगल चले जाते हैं, महावीर पहाड़ों पर चले जाते हैं, मोहम्मद पहाड़ चढ़ जाते हैं, मूसा सनाई के पर्वत पर खो जाते हैं।
धर्म की खोज में जाने वाला आदमी दूसरे से हटता है, चुपचाप हट जाता है। न पर रहे--न रहे बांस, न बजे बांसुरी--न पर रहे, न पर को पकड़ने का प्रलोभन रहे। हट जाता है छोड़कर चुपचाप। लेकिन जिस आदमी को अधर्म करना है, वह आदमी भीड़ खोजता है। वह आदमी कभी अकेलापन नहीं खोजता। क्योंकि अधर्म करने के लिए दूसरा बिलकुल जरूरी है।
यह बड़े मजे की बात है कि शांत तो आप अकेले भी हो सकते हैं, अशांत के लिए दूसरा बिलकुल जरूरी है। यह बड़े मजे की बात है कि आनंदित तो आप अकेले भी हो सकते हैं, लेकिन दुखी होने के लिए दूसरा बहुत जरूरी है। यह बड़े मजे की बात है कि पवित्रता में तो आप अकेले भी हो सकते हैं, लेकिन पाप में उतरने के लिए दूसरा बिलकुल जरूरी है। ब्रह्मचर्य में तो आप अकेले भी हो सकते हैं, लेकिन कामुकता के लिए दूसरा बिलकुल जरूरी है। त्याग तो आप अकेले भी कर सकते हैं, लेकिन भोग के लिए दूसरा बिलकुल जरूरी है। इसे खयाल ले लें।
एक ईसाई पैरेबल है, ईसाई कहानी है ओल्ड टेस्टामेंट में। ईदन के बगीचे में अदम और ईव को परमात्मा ने बनाया। कहानी है, लेकिन एक बात देखने जैसी है, इसलिए आपसे कहता हूं। और परमात्मा ने कहा कि यह एक वृक्ष है, इसके फल मत खाना। यह ज्ञान का वृक्ष है, इसके फल खाए कि तुम स्वर्ग के दरवाजे के बाहर कर दिए जाओगे। बड़ी अजीब बात! बड़ी अजीब बात! अज्ञान का कोई फल खाए और स्वर्ग के बाहर कर दिया जाए, समझ में आता है। ज्ञान का कोई फल खाए और स्वर्ग के दरवाजे के बाहर कर दिया जाए, समझ में आने में कठिनाई होती है। लेकिन साफ परमात्मा ने कहा कि यह ज्ञान का वृक्ष है, इसके फल खाए तो स्वर्ग के बाहर कर दिए जाओगे।
सांप ने आकर ईव को, स्त्री को कहा कि तू पागल है, इस धोखे में मत पड़ना। परमात्मा खुद इसी वृक्ष के फल खाकर परमात्मा है। और पागल, कहीं ज्ञान के फल खाकर कोई स्वर्ग खोता है! ज्ञान के फल से ही स्वर्ग मिलता है। तुम्हें पता ही नहीं है कुछ। खा लो और परमात्मा जैसे हो जाओ। ईव ने अदम को समझाया कि इस फल को खा ही लेना चाहिए। इसमें जरूर कोई राज है, जरूर कोई रहस्य है। और जब परमात्मा ने रोका, तो मतलब गहरा है। और परमात्मा ज्ञान के फल खाने से रोके, तो हमारा दोस्त नहीं दुश्मन है। ज्ञान का फल!
अदम को भी बात जंची, जैसा कि सदा ही स्त्रियों की बातें पुरुषों को जंच जाती हैं। यानी उसी दिन ईदन के बगीचे में ऐसी भूल हुई हो, ऐसा नहीं, हर बगीचे में और हर घर में यही भूल होती है। जंच ही जाती है। क्योंकि स्त्री परसुएड करने में बहुत कुशल है।
उसने फुसलाया अदम को। अदम ने फल खा लिया, और तत्काल स्वर्ग के दरवाजे के बाहर निकाल दिए गए। परमात्मा ने कहा, अदम, तूने फल क्यों खाया? उसने कहा, मैं क्या करूं! दूसरे ने मुझे फुसलाया, ईव ने मुझे फुसलाया। ईव से कहा कि तूने इसे क्यों फुसलाया? तो उसने कहा, दूसरे ने मुझे फुसलाया, सांप ने मुझे फुसलाया।
ईसाई कहानी कहती है कि दूसरे के मार्ग से पाप आता है। इस कहानी में दोत्तीन बातें हैं। दूसरे के मार्ग से! और इसमें एक और बात खयाल करने की है। और वह यह कि ज्ञान के फल ने आदमी को स्वर्ग के बाहर क्यों कर दिया? क्योंकि जैसे ही अदम ने फल खाया और जैसे ही ईव ने फल खाया उस ट्री आफ नालेज का, ज्ञान के वृक्ष का, वैसे ही अदम को पता चला कि मैं नंगा हूं, ईव को पता चला कि मैं नग्न हूं, उसने जल्दी से पत्ते रखकर अपनी नग्नता ढांक ली। परमात्मा ने कहा कि तुमने ज्ञान तो पा लिया, लेकिन सरलता खो दी। और सरलता में ही स्वर्ग है, कांशसनेस में नहीं, ज्ञान में नहीं, सरलता में। अब तक तुम बच्चों जैसे सरल थे। नग्न थे, तो तुम्हें पता न था कि तुम नग्न हो। अब तुम बच्चों जैसे सरल न रहे। अब तुम चालाक हो गए, अब तुम कनिंग हो गए, अब तुम कैलकुलेटिंग हो गए, अब तुम हिसाब लगाने लगे कि नग्न हैं; ऐसा है, वैसा है। अब तुम सवाल उठाओगे, अब तुम सवालों में उलझोगे और गिरोगे।
ज्ञान का फल इसलिए, जो ज्ञान इसलिए सरलता को नष्ट कर दे, वह धोखा है, ज्ञान नहीं है। नाम ही उसका ज्ञान है। जो ज्ञान सरलता को वापस लौटा दे, वही ज्ञान है। और दूसरे के मार्ग से ज्ञान नहीं आता, अज्ञान आता है। और दूसरे के मार्ग से धर्म नहीं आता, अधर्म आता है। धर्म का मार्ग स्वयं के भीतर है। वह गंगोत्री स्वयं के भीतर है जहां से ज्ञान की, धर्म की गंगा जन्मती है और एक दिन सर्व के सागर में लीन हो जाती है।


अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।। ३६।।
श्री भगवानुवाच
काम एष कोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।। ३७।।
इस पर अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण, फिर यह पुरुष बलात्कार से लगाए हुए के सदृश, न चाहता हुआ भी, किससे प्रेरा हुआ पाप का आचरण करता है?
श्री कृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम क्रोध ही है; यही महाअशन अर्थात अग्नि के सदृश, भोगों से तृप्त न होने वाला और बड़ा पापी है।
इस विषय में इसको ही तू वैरी जान।


अर्जुन ने एक बहुत ही गहरा सवाल कृष्ण से पूछा। अर्जुन ने कहा, फिर अगर सब कुछ परमात्मा ही कर रहा है, अगर सब कुछ प्रकृति के गुणधर्म से ही हो रहा है, अगर सब कुछ सहज ही प्रवाहित है और अगर व्यक्ति जिम्मेवार नहीं है, तो फिर पाप कर्म न चाहते हुए भी कि करे, आदमी बलात पाप कर्म क्यों कर लेता है? कौन करवा देता है? अगर परमात्मा ही चला रहा है सब कुछ और मैं भी नहीं चाहता कि बुरा कर्म करूं, और परमात्मा चला रहा है सब कुछ, फिर भी मैं बुरे कर्म में प्रवृत्त हो जाता हूं, तो बलात मुझे कौन बुरे कर्म में धक्का दे देता है?
गहरा सवाल है। कहना चाहिए कि मनुष्य जाति में जो गहरे से गहरे सवाल उठाए गए हैं, उनमें से एक है। सभी धर्मों के सामने--चाहे हिब्रू, चाहे ईसाई, चाहे मोहमडन, चाहे हिंदू, चाहे जैन--गहरे से गहरा सवाल यह उठा है कि अगर परमात्मा ही चला रहा है और हम भी नहीं चाहते...। और फिर आप तो कहते हैं कि हमारे चाहने से कुछ होता नहीं। हम चाहें भी, तो भी परमात्मा जो चाहता है, उससे अन्यथा नहीं हो सकता। और हम चाहते भी नहीं कि बुरा कर्म करें और परमात्मा तो चाहेगा क्यों कि बुरा कर्म हो! फिर कौन हमें धक्के देता है और बलात बुरे कर्म करवा लेता है? फ्राम व्हेयर इज़ ईविल? यह बुराई कहां से आती है?
अलग-अलग चिंतकों ने अलग-अलग उत्तर खोजे हैं जो बहुत गहरे नहीं गए, उन्होंने कहा, शैतान है, वह करवा लेता है। उत्तर खोजना जरूरी था, लेकिन यह कोई बहुत गहरा उत्तर नहीं है। वे कहते हैं, डेविल है, एक पापात्मा है, वह सब करवा लेती है। लेकिन यह उत्तर बहुत गहरा नहीं है, क्योंकि अर्जुन को अगर यह उत्तर दिया जाए, तो अर्जुन कहेगा, वह परमात्मा उस पापात्मा पर कुछ नहीं कर पाता? वह परमात्मा उस शैतान को कुछ नहीं कर पाता? तो क्या वह शैतान परमात्मा से भी ज्यादा शक्तिशाली है? और अगर शैतान परमात्मा से ज्यादा शक्तिशाली है, तो मुझे परमात्मा के चक्कर में क्यों उलझाते हो, मैं शैतान को ही नमस्कार करूं!
अनेक चिंतकों ने दूसरा एक तत्व खोजने की कोशिश की है। कि एक दूसरा भी है परमात्मा के अलावा, जो लोगों को पाप में धक्के दे रहा है। लेकिन यह उत्तर न तो मनोवैज्ञानिक है, न बहुत गहरा है। इससे तो केवल वे ही राजी हो सकते हैं, जो किसी भी चीज के लिए राजी हो सकते हैं। इस उत्तर से और कोई राजी नहीं हो सकता।
इसलिए कृष्ण ऐसा उत्तर नहीं देते हैं। कृष्ण बहुत मनोवैज्ञानिक उत्तर देते हैं। वे यह कहते हैं, प्रकृति के तीन गुण हैं, रजस, तमस और सत्व। उनका उत्तर बहुत वैज्ञानिक है। वे कहते हैं, प्रकृति त्रिगुणा है।
और मैं आपको यह कहूं कि यह तीन गुणों की बात जब कृष्ण ने कही थी, तब बड़े वैज्ञानिक आधार रखती थी। लेकिन कृष्ण के बाद पिछले पांच हजार सालों में जितने लोगों ने कही, उनको इसके विज्ञान का कुछ बोध नहीं था। दोहराते रहे। लेकिन अभी पश्चिम में पिछले बीस साल में विज्ञान ने फिर कहा कि प्रकृति त्रिगुणा है। जिस दिन हम आधुनिक सदी में परमाणु का विश्लेषण कर सके, परमाणु को तोड़ सके, उस दिन बड़े चकित होकर हमें पता चला कि परमाणु तीन हिस्सों में टूट जाता है। पदार्थ का जो अंतिम परमाणु है, वह तीन हिस्सों में टूट जाता है, इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोटान में टूट जाता है। और वैज्ञानिक कहते हैं कि इन तीन के बिना परमाणु नहीं बन सकता। और इन तीन के जो गुणधर्म हैं, वे वही गुणधर्म हैं, जो सत, रज और तम के हैं। ये तीन जो काम करते हैं, वे वही काम करते हैं, जो हम बहुत पुराने दिनों से सत, रज और तम शब्दों से लाते थे।
उसमें तमस जो है, इनरशिया, वह अवरोध का तत्व है, स्थिरता का तत्व है। अगर तमस न हो, तो जगत में कोई भी चीज स्थिर नहीं रह सकती। आप एक पत्थर उठाकर फेंकते हैं। अगर जगत में कोई तमस न हो, कोई ग्रेविटेशन न हो, रोकने वाली कोई ताकत, अवरोधक न हो, तो फिर पत्थर कभी भी गिरेगा नहीं। फिर आपने फेंक दिया, फेंक दिया; फिर वह चलता ही रहेगा, अनंत काल तक। फिर वह गिरेगा कैसे? कुछ अवरोध हो, कोई हो जो रोकता हो। आप भी पृथ्वी पर नहीं हो सकेंगे। कभी के हम उड़ गए होते। वह जमीन खींच रही है, तमस, ग्रेविटेशन का भार हमें रोके हुए है।
अभी जो अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष यात्रा पर गए, उनकी बड़ी से बड़ी कठिनाइयों में एक कठिनाई यह है कि जैसे ही जमीन के ग्रेविटेशन के बाहर होते हैं दो सौ मील के पार, वैसे ही कशिश समाप्त हो जाती है, तो आदमी गुब्बारे जैसा हो जाता है, जैसे गैस भरा गुब्बारा उड़ने लगता है। तो अगर बेल्ट न बंधा हो कुर्सी से, तो आप यान की कुर्सी से तत्काल उठकर यान के टप्पर से गुब्बारे की तरह टकराने लगेंगे। फिर नीचे भी उतर नहीं सकते, कोई ताकत काम नहीं करती नीचे उतरने के लिए। चांद पर यही कठिनाई है, क्योंकि तमस चांद का कम है, आठ गुना कम है। इसलिए चांद पर अगर हम मकान बनाएंगे, तो चोर आठ गुना ऊंची छलांग लगा सकता है। फुटबाल को वहां चोट मारेगा खिलाड़ी, तो यहां जमीन पर जितनी ऊंची जाती है, उससे आठ गुनी ऊंची चली जाएगी।
यह जो तमस का अर्थ है इनरशिया, अवरोधक शक्ति। अब बड़े मजे की बात है कि अगर अवरोधक शक्ति न हो, तो गति भी असंभव है। गति भी इसीलिए संभव है कि अवरोधक शक्ति का उपयोग कर पाते हैं। आपकी कार में जैसे ब्रेक न हों, फिर गति भी संभव नहीं है, आप पक्का समझ लेना। फिर कार चलनी भी संभव नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि नहीं चल सकती। चल गई, बस एक ही दफा चल गई। उसमें वह ब्रेक भी चाहिए, जो अवरोधक है। एक्सीलेरेटर ही काफी नहीं है, उसमें अवरोधक...।
जीवन एकदम विस्फोट हो जाए, अगर उसमें रोकने वाली ताकत न हो। इनरशिया, तमस जो है, वह रोकने वाली ताकत है। रजस जो है, वह गति की मूवमेंट की ताकत है। ये उलटी ताकते हैं। तमस रोकता, रजस गति देता। शक्ति है, एनर्जी है। सत्व तीसरा कोण है। जैसे कि हम एक ट्राएंगल बनाएं, दो कोण नीचे हों और एक ऊपर हो। सत्व इन दोनों के ऊपर है, कहें कि इन दोनों का बैलेंस है, संतुलन है। सत्व बैलेंसिंग है, वह संतुलन है। अगर गति भी हो, रोकने वाला भी हो, लेकिन संतुलन न हो...।
जैसे एक कार है, उसमें एक्सीलेरेटर भी है और ब्रेक भी है, लेकिन ड्राइवर नहीं है। वह जो ड्राइवर है, वह पूरे वक्त बैलेंसिंग है। जब जरूरत होती है, तो ब्रेक पर पैर ले जाता है; जब जरूरत होती है, तो एक्सीलेरेटर पर पैर ले जाता है। वह पूरे वक्त बैलेंस कर रहा है। सत्व जो है, वह बैलेंसिंग है।
ये तीन तत्व हैं, जिनको भारत ने ऐसे नाम दिए थे। पश्चिम जिनको इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान कहे, कोई और नाम दे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। एक बात बहुत अनिवार्य रूप से सिद्ध हो गई है कि जीवन का अंतिम विश्लेषण तीन शक्तियों पर टूटता है। इसलिए हमने इन तीन शक्तियों को ये कई तरह से नाम दिए थे। जो लोग वैज्ञानिक ढंग से सोचते थे, उन्होंने रजस, तमस, सत्व ऐसे नाम दिए। जो लोग मेटाफोरिकल, काव्यात्मक ढंग से सोचते थे, उन्होंने कहा, ब्रह्मा, विष्णु, महेश। उनका भी काम वही है। वे तीन नाम भी यही काम करते हैं। उसमें ब्रह्मा सर्जक शक्ति हैं, विष्णु सस्टेनिंग, संभालने वाले और शिव विनाश करने वाले। उन तीन के बिना भी नहीं हो सकता। ये जो इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोटान हैं, ये भी ये तीन काम करते हैं। उसमें जो इलेक्ट्रान है, वह निगेटिव है। वह ठीक शिव जैसा है, निगेट करता है, तोड़ता है, नष्ट करता है। उसमें जो प्रोटान है, वह ब्रह्मा जैसा है, पाजिटिव है, इसलिए प्रोटान उसका नाम है। वह विधायक है, वह निर्माण करता है। और उसमें जो न्यूट्रान है, वह न निगेटिव है, न पाजिटिव है। वह सस्टेनिंग है, वह बीच में है, बैलेंसिंग है।
कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य के भीतर--जो भी घटित होता है, बाहर और भीतर--वह इन तीन शक्तियों का खेल है। इन तीन शक्तियों के अनुसार सब घटित होता है। आदमी धकाया जाता, रोका जाता, जन्माया जाता, मरण को उपलब्ध होता, हंसी को उपलब्ध होता, रोने को उपलब्ध होता--वह इन सारी तीन शक्तियों का काम है। ये तीन शक्तियां अपना काम करती रहती हैं। ये परमात्मा के तीन रूप जीवन को सृजन देते रहते हैं।
अर्जुन पूछता है, फिर नहीं भी हम करना चाहते, फिर कौन करवा लेता है? आप तो चाहते हैं कि जमीन पर न गिरें, लेकिन जरा पैर फिसला कि गिर जाते हैं। कोई शैतान गिरा देता है? कोई शैतान नहीं गिरा देता; ग्रेविटेशन अपना काम करता है। आप नहीं गिरना चाहते, माना, स्वीकृत कि आप नहीं गिरना चाहते, लेकिन उलटे-सीधे चलेंगे, तो गिरेंगे। आप नहीं गिरना चाहते थे, तो भी गिरेंगे। पैर पर पलस्तर लगेगा। आप डाक्टर से कहेंगे, मैं नहीं गिरना चाहता था और परमात्मा तो टांग तोड़ता नहीं किसी की, क्यों तोड़ेगा? इतना बुरा तो नहीं हो सकता कि अकारण मुझ भले आदमी की, जो गिरना भी नहीं चाहता, उसकी टांग तोड़ दे। लेकिन मेरी टांग क्यों टूट गई? तो डाक्टर वही उत्तर देगा, जो कृष्ण ने दिया। डाक्टर कहेगा, ग्रेविटेशन की वजह से। जमीन में गुरुत्वाकर्षण है, आप कृपा करके सम्हलकर चलें। उलटे-सीधे चलेंगे, तो ग्रेविटेशन टांग तोड़ देगी। क्योंकि प्रत्येक शक्ति अगर हम उसके अनुकूल न चलें, तो नुकसान पहुंचाने वाली हो जाती है। अगर अनुकूल चलें, तो नुकसान पहुंचाने वाली नहीं होती।
प्रत्येक शक्ति का उपयोग अनुकूल और प्रतिकूल हो सकता है। अब मनुष्य के भीतर कौन-सी शक्तियां हैं, जो उसे बलात--जैसे कि एक आदमी नहीं गिरना चाहता है और गिर जाता है और टांग टूट जाती है। और एक आदमी क्रोध नहीं करना चाहता है और क्रोध हो जाता है और खोपड़ी खुल जाती है। या दूसरे की खुल जाती है या खुद की खुल जाती है। क्या, कौन कर जाता है यह सब? परमात्मा? परमात्मा को क्या प्रयोजन है! और परमात्मा ऐसे काम करे, तो परमात्मा हम उसे कैसे कहेंगे? कोई कहेगा, शैतान। कृष्ण नहीं कहते। कृष्ण कहते हैं, सिर्फ जीवन की शक्तियां काम कर रही हैं।
मनुष्य के भीतर क्रोध है। वह भी अनिवार्य तत्व है। कहें कि वह हमारे भीतर निगेटिव फोर्स है, क्रोध विनाश की शक्ति है हमारे भीतर। प्रेम हमारे भीतर निर्माण की शक्ति है। और विवेक हमारे भीतर बैलेंसिंग फोर्स है। जो आदमी विवेक को छोड़कर सारी शक्ति क्रोध में लगा देगा, वह बलात नर्क की तरफ चलने लगेगा; नहीं चाहेगा, तो भी जाएगा। जो सारी शक्ति प्रेम की ओर लगा देगा, वह बलात स्वर्ग की ओर जाने लगेगा, चाहे चाहे और चाहे न चाहे। उसके जीवन में सुख उतरने लगेगा। और जो आदमी बैलेंस कर लेगा और समझ लेगा कि दुख और सुख और दोनों के बीच में अलग, वह आदमी मुक्ति और मोक्ष की दिशा में यात्रा कर जाएगा।
इसलिए हमारे पास तीन शब्द और समझ लेने जैसे हैं, स्वर्ग, नर्क और मोक्ष। स्वर्ग में वह जाता है, जो अपने भीतर की विधायक शक्तियों के अनुकूल चलता है। नर्क में वह जाता है, जो अपने भीतर विनाशक शक्तियों के अनुकूल चलता है। मोक्ष में वह जाता है, जो दोनों के अनुकूल नहीं चलता है; दोनों को संतुलित करके दोनों को ट्रांसेंड कर जाता है, परे हो जाता है, अतीत हो जाता है।
कृष्ण कह रहे हैं, शक्तियां हैं और इन तीन शक्तियों के बिना जीवन नहीं हो सकता है। इसलिए अर्जुन, कौन तुझे धक्का देता है, ऐसा मत पूछ। यह समझ कि धक्का तेरे भीतर से कैसे निर्मित होता है। क्रोध, काम, अहंकार, अगर उनके प्रति तू अतिशय से झुक जाता है, तो जो तू नहीं चाहता वह तुझे करना पड़ता है।
कभी आपने देखा, कामवासना मन को पकड़ ले--ऐसा कहना ठीक नहीं है कि कामवासना मन को पकड़ ले, कहना यही ठीक होगा कि जब आप कामवासना को मन को पकड़ लेने देते हैं, आप जब पकड़ लेने देते हैं...। और ध्यान रहे, कामवासना आपके बिना पकड़ाए आपको नहीं पकड़ती है।
हां, एक सीमा होती है हर चीज की, उसके पार मुश्किल हो जाता है रोकना। एक सीमा होती है। जगह-जगह हमने कार की ट्रैफिक पर लिखा हुआ है कि यहां पांच मील रफ्तार। क्यों? क्योंकि वहां इतने ज्यादा लोग गुजर रहे हैं कि अगर तीस मील रफ्तार हो, तो रोकना समय पर मुश्किल है। पांच मील हो, तो समय पर रोकना आसान है। जहां लोग कम गुजर रहे हैं, वहां सत्तर मील भी हो, तो कोई हर्ज नहीं। वहां समय पर सत्तर मील भी रोकना आसान है। हर चीज की एक सीमा है।
फ्रायड, सिग्मंड फ्रायड एक कहानी कहा करता था। वह कहा करता था कि एक छोटे-से गांव में एक गरीब म्युनिसिपल कमेटी ने गांव का कचरा ढोने के लिए एक घोड़ा खरीदा, एक घोड़ागाड़ी के लिए। लेकिन गरीब थी म्युनिसिपैलिटी और कहते हैं, गांव बड़ा बुद्धिमान था। बुद्धिमान था, ऐसा कहें; या लोगों में ऐसी मजाक प्रचलित थी कि गांव बहुत बुद्धिमान है, गांव को ऐसा खयाल था कि बहुत बुद्धिमान है। हालांकि वह जो भी करता था, वह बहुत बुद्धिहीनता के काम होते थे। म्युनिसिपल ने एक घोड़ा खरीदा। लेकिन घोड़े को घास, दाना, पानी इतना महंगा पड़ने लगा कि म्युनिसिपल के बजट पर भारी हुआ। गरीब, छोटी-सी म्युनिसिपल थी। कमेटी बुलाई गई। उन्होंने तय किया कि क्या किया जाए! उन्होंने कहा कि आधा राशन करके देखा जाए घोड़े के लिए। अगर आधे में काम चल जाए तो ठीक, नहीं फिर थोड़ा बढ़ा देंगे।
आधा राशन किया, लेकिन काम बिलकुल ठीक चल गया। घोड़ा आधे राशन पर भी जिंदा रहा। तब तो उन्होंने कहा कि हम पागल हैं, जो इसको इतना दें। और आधा करके देखें। उन्होंने और आधा किया। घोड़ा फिर भी जिंदा रहा और फिर भी काम करता रहा! उन्होंने कहा, हम बिलकुल पागल हैं। इसे और आधा करें। और भी आधा कर दिया। घोड़ा मुश्किल में रहा, लेकिन फिर भी किसी तरह काम करता रहा। म्युनिसिपल कमेटी ने कहा कि हम बिलकुल नासमझी कर रहे हैं, अब राशन बिलकुल बंद कर दें। राशन बिलकुल बंद कर दिया। जो होना था, वही हुआ। घोड़ा मर गया। एक सीमा थी, जहां तक घोड़ा कम राशन पर भी काम किया; फिर एक सीमा आई, जहां से काम नहीं कर सका।
हमारी प्रत्येक वृत्ति की सीमाएं हैं, जहां तक हम उन्हें रोक सकते हैं, और जहां से फिर हम उन्हें नहीं रोक सकते। एक विचार मेरे मन में उठा, शब्द बना मेरे भीतर। अभी मैं आपको न कहूं, तो रोक सकता हूं। फिर मेरे मुंह से शब्द निकल गया; अब इस शब्द को वापस नहीं ला सकता। एक सीमा थी, एक जगह थी; मेरे भीतर विचार भी था, शब्द भी था, ओंठ पर भी आ गया था, फिर भी मैं रोक सकता हूं। फिर एक सीमा के बाहर बात हो गई, मैंने आपसे बोल दिया, अब मैं इसे वापस नहीं लौटा सकता। अब कोई उपाय इसे वापस लौटाने का नहीं है। एक जगह थी, जहां से यह वापस लौट जाता।
क्रोध, एक जगह है, जहां से वापस लौट सकता है। लेकिन जब उस जगह के बाहर निकल जाता है, उसके बाद वापस नहीं लौटता। काम, एक जगह है, जहां से वापस लौट सकता है। जब उसके आगे चला जाता है, तो फिर वापस नहीं लौट सकता। और ध्यान रहे, बड़े मजे की बात यह है कि उस सीमा तक, जहां तक काम वापस लौट सकता है, उस समय तक आप उसको सहयोग देते हैं। और जब वह वापस नहीं लौटता, तब आप चिल्लाते हैं कि कौन मुझे धकाए जा रहा है परवश! कौन मुझे बलात काम करवा रहा है!
इसे ठीक से भीतर समझेंगे, तो खयाल में आ जाएगा। एक जगह है, जहां तक हर वृत्ति आपके हाथ में होती है। लेकिन जब आप उसे इतना उकसाते हैं कि आप का पूरा शरीर और पूरा यंत्र उसको पकड़ लेता है, फिर आपकी बुद्धि के बाहर हो जाता है। फिर आप कहते हैं कि नहीं-नहीं। और फिर भी घटना घटकर रहती है। तब आप कहते हैं, कौन बलात करवाए चला जाता है, जब कि हम नहीं करते हैं! कोई नहीं करवाता, शक्तियां करती हैं। लेकिन करवाने का अंतिम निर्णय गहरे में आपका ही कोआपरेशन है, आपका ही सहयोग है।
कृष्ण इतना ही कह रहे हैं कि कोई बैठा नहीं है पार, तुम्हें क्रोध में, काम में, युद्ध में, लड़ाई-झगड़े में ले जाने को। प्रकृति के नियम हैं। अगर उन नियमों को तुम समझ लेते हो और समता को, संतुलन को उपलब्ध होते हो; अनासक्ति को, साक्षीभाव को उपलब्ध होते हो; विवेक को, श्रद्धा को उपलब्ध होते हो, तो फिर तुम्हें कोई फिक्र करने की जरूरत नहीं है, फिर जो भी होगा परमात्मा पर। लेकिन जब तक तुम ऐसी समता को और अनासक्ति को उपलब्ध नहीं होते, भीतर तुम आसक्ति को पालते चले जाते हो, बारूद में चिनगारी डालते चले जाते हो, फिर जब आग भड़ककर मकान को पकड़ लेती है, तब तुम कहते हो, मैं तो चाहता नहीं था कि आग लगे, लेकिन यह आग लग गई है। बारूद का नियम है, धर्म है, वह आग लगा देगी। तुमने चिनगारी फेंकी, चिनगारी का धर्म है कि वह आग पकड़ा देगी। और जब बारूद भड़क उठेगी, तब तुम छाती पीटोगे और चिल्लाओगे कि यह तो मैं नहीं चाहता था।
कभी आपने देखा, एक आदमी हत्या कर देता है...दोस्तोवस्की का एक बहुत कीमती उपन्यास है, क्राइम एंड पनिशमेंट। उसमें रोसकोलनिकोव नाम का एक पात्र है। वह रोज अपने सामने उसकी मकान मालकिन जो है, उसके मकान की बुढ़िया जो मालकिन है--वह कोई सत्तर साल की बूढ़ी औरत है--वह गिरवी रखने का काम करती है और लोगों से खींचकर ब्याज चूसती है। मरने के करीब है, लेकिन रत्तीभर दया नहीं करती। कोई नहीं है उसका; बहुत धन है। तो रोसकोलनिकोव--एक विद्यार्थी है--वह देखता रहता अपनी खिड़की से। गरीब आदमी गिड़गिड़ाते हैं, रोते हैं, चिल्लाते हैं, लेकिन कुछ भी नहीं। उनके कपड़े भी उतरवा लिए जाते हैं; कोई दया नहीं, कोई ममता नहीं। कई बार उसके मन में होता है, इस बुढ़िया को कोई मार क्यों नहीं डालता? इसके होने की कोई जरूरत ही क्या है? यह मर भी जाए, तो हर्ज क्या है? यह मर जाए, तो सैकड़ों लोग जो उसके चक्कर में फंसे हैं, वे मुक्त हो जाएं।
गरीब किसान, गरीब मजदूर, गरीब लोग, विधवा औरतें, बीमार आदमी, वे सब उससे ब्याज पर रुपया ले लेते हैं। फिर वह कभी चुकता नहीं। उनकी चीजें भी चुक जाती हैं और उन पर अदालत में मुकदमे भी चलते हैं, सजाएं भी हो जाती हैं। रोज यही काम। वह कई बार सोचता है, कोई इसकी गरदन क्यों नहीं दबा देता! और बहुत बार उसके हाथ खुद भिंच जाते हैं कि गरदन दबा दूं। फिर वह सोचता है कि मुझे क्या मतलब? और मैं क्यों दबाऊं? और मेरा क्या बिगाड़ा है? फिर वह बात भूल जाता है। फिर ऐसे वर्षों चलता रहा।
फिर एक दिन उसे भी फीस भरनी है और घर से पैसे नहीं आए। तो वह अपनी घड़ी रखने उस बुढ़िया के पास गया। सांझ का वक्त है, उसने घड़ी बुढ़िया को दी। बुढ़िया ठीक से देख नहीं सकती, सत्तर साल उसकी उम्र है। वह खिड़की के पास घड़ी को ले जाकर देखती है रोशनी में कि ठीक है या नहीं; कितने पैसे दिए जा सकते हैं। अचानक बस रोसकोलनिकोव को क्या हुआ कि उसने जाकर उसकी गरदन दबा दी। उसे पता ही नहीं चला, कब यह हुआ। गरदन जब दब गई और जब उसके हाथ में उसकी नसें उभर आईं, और खून उसके मुंह से गिरने लगा, तब वह घबड़ाया कि यह मैंने क्या कर दिया! वह बुढ़िया नीचे गिर पड़ी। तब उसे पता चला, यह तो मैंने हत्या कर दी! तब वह भागा। और तब वह रातभर अपने बिस्तर में सोचता है कि मैं उसकी हत्या कैसे कर दिया! परवश। जो अर्जुन कह रहा है कि जैसे बलात कोई धक्का दे...। तो वह कहता है, कौन मेरे ऊपर सवार हो गया! कोई भूत, कोई प्रेत! क्या हुआ? मैंने हत्या क्यों कर दी? किसने मुझसे हत्या करवा दी? यह कौन शैतान मेरे पीछे पड़ा है?
कोई उसके पीछे नहीं पड़ा है। दो साल तक उसने सोचा, तैयारी की। दो साल तक उसने शक्तियों को रस दिया, दो साल तक हाथ भींचे, दो साल तक मन में क्रोध का जहर फैलाया। वह सब तैयार हो गया।
बीज बोते वक्त किसको पता चलता है कि वृक्ष निकलेगा? बीज बोते वक्त किसको पता चलता है कि इतना बड़ा वृक्ष पैदा होगा? फिर बलात वृक्ष पैदा हो जाता है। और बीज हम ही बोते हैं। बीज छोटा होता है, दिखाई भी नहीं पड़ता है। मन में क्रोध के बीज बोते हैं, काम के बीज बोते हैं, फिर शक्तियां पकड़ लेती हैं। फिर वे तीन शक्तियां अपना काम शुरू कर देती हैं। आपने बीज बोया, जमीन काम शुरू कर देती है, पानी काम शुरू कर देता है, रोशनी काम शुरू कर देती है। सूरज की किरणें आकर बीज को बड़ा करने लगती हैं।
आप हैरान होंगे कि जमीन बहुत कम काम करती है। अभी एक वैज्ञानिक ने प्रयोग किया; नापत्तौलकर प्रयोग किया। एक बट वृक्ष को लगाया एक गमले में, बड़े गमले में, नापत्तौलकर बिलकुल। इतनी मिट्टी, इतना गमले का वजन, इतने वृक्ष के बीज का वजन, सब नापत्तौलकर लगाया। फिर वृक्ष बहुत बड़ा हो गया। फिर उसने वृक्ष पूरा का पूरा निकाल लिया और फिर नापा। तो जितना कोई दो सौ सेर का गमला उसने रखा था, उसमें केवल चार सेर की कमी हुई। चार सेर कुल! और वृक्ष को नापात्तौला, तो वह तो कोई दो सौ अस्सी सेर निकला वृक्ष। और कुल चार सेर की कमी हुई मिट्टी में। और उस वैज्ञानिक का खयाल है कि वे चार सेर भी वृक्ष ने नहीं लिए। वह भी, हवा भी आती है, तूफान भी आता है, मिट्टी उड़ भी जाती है; पानी में बह भी जाती है। चार सेर! इतना बड़ा वृक्ष कहां से आ गया? सूरज भी दे रहा है, हवाएं भी दे रही हैं, पानी भी दे रहा है, जमीन भी दे रही है, चारों तरफ से पूरा कास्मास उसको दे रहा है।
एक छोटे-से बीज को आपने बो दिया, फिर सारी दुनिया की ताकत उसको दे रही है और वह बड़ा हो रहा है। आपने इधर क्रोध का बीज बोया, सारी दुनिया से क्रोध को साथ देने वाली ताकतें--तमस की, इनरशिया की ताकतें--आपकी तरफ बहनी शुरू हो जाएंगी। आपने प्रेम बोया, सारी तरफ से दुनिया से शुभ शक्तियां आपकी तरफ बहनी शुरू हो जाएंगी। आपने साक्षीभाव निर्मित किया, दुनिया की सारी ताकतें आपके लिए बैलेंस में हो जाएंगी। कोई आपकी तरफ नहीं बहेगा, कोई आपके बाहर नहीं बहेगा; सब चीजें सम हो जाएंगी; ठहर जाएंगी।
कृष्ण कहते हैं, न तो कोई शैतान, न कोई परमात्मा; ये तीन शक्तियां हैं अर्जुन। और तू जिसका बीज बो देता है अपने भीतर, वही शक्ति सक्रिय होकर काम करने लगती है।


प्रश्न: भगवान श्री, तीनों गुणों से चलने वाली सृष्टि ईश्वर ने बनाई। तमस गुण मनुष्य की प्रकृति में ईश्वर ने दिया, उसके पीछे क्या उद्देश्य ईश्वर का है?


ईश्वर का कोई उद्देश्य नहीं होता। उद्देश्य की भाषा सदा मनुष्य की है। उद्देश्य तो उसका होता है, जिसे भविष्य में कुछ पाना हो। जैसे एक आदमी, एक कुम्हार एक घड़ा बनाता है। उसका उद्देश्य होता है कि बाजार में बेचना है या उसका उद्देश्य होता है कि घर का पानी भरना। फिर एक वानगाग चित्र बनाता है। वानगाग से कोई पूछता है कि यह चित्र तुमने किस उद्देश्य से बनाया है? तो वह कहता है, कोई उद्देश्य नहीं है। बनाना ही मेरा आनंद है। आप कहेंगे, बाजार में बिक सकता है। वानगाग का एक चित्र नहीं बिका, एक चित्र जिंदा रहते नहीं बिका। आप कह सकते हैं कि कोई प्रतिष्ठा मिलती होगी, कोई सम्मान करता होगा कि बड़े चित्रकार हो। किसी ने प्रतिष्ठा नहीं की, किसी ने सम्मान नहीं किया। आप कहते होंगे कि बड़ा धन वाला आदमी रहा होगा, पैसा पास में रहा होगा, फुर्सत रही होगी, तो कुछ न कुछ करता रहा होगा। नहीं, वानगाग बहुत गरीब आदमी था। और उसका भाई उसे इतना ही पैसा देता था, जिसमें सात दिन की सिर्फ रोटी चल जाए रूखी-सूखी। न रंग के लिए पैसे, न कागज के लिए, न कैनवास के लिए। तो वह सप्ताह में चार दिन खाना खाता और तीन दिन उपवास करता। और तीन दिन में उपवास में जो बच जाए, उससे पेंट करता। और जब उससे कोई पूछता, किसलिए? तो वह कहता, बस, बना लेने में आनंद है।
परमात्मा उद्देश्य से जगत को नहीं बना रहा है; बना लेने में आनंद है; बनाना ही आनंद है। आगे-पीछे कुछ भी उद्देश्य नहीं, परपजलेस। और ध्यान रहे, आनंद हमेशा ही परपजलेस होता है। एक मां अपने बेटे को बड़ा कर रही है, उससे पूछें, किसलिए? अगर वह कहे कि बाद में नौकरी करवानी है, तो समझना मां नहीं है, कोई फैक्टरी है। अगर मां है, तो वह कहेगी, किसलिए? कैसा गलत सवाल पूछते हो! बस, मेरा आनंद है।
परमात्मा के लिए सृष्टि आनंद है, उसका आनंद-कृत्य है; इसलिए उद्देश्य तो कोई नहीं है। हां, लेकिन यह सवाल फिर भी संगत है कि वह आदमी में तमस क्यों रखता है?
असल में हम तमस शब्द को सदा ही गलत अर्थों में लेते रहे हैं। हम समझते हैं, तमस कोई बुरी चीज है। तमस बुरी नहीं है, तमस अपने आप में बुरी चीज नहीं है। हां, तमस में ही पूरी तरह भर जाना बुरा है। तमस अपने आप में बुरा नहीं है, जहर भी अपने आप में बुरा नहीं है; और कभी तो बीमारी में दवा का काम करता है। हम कहें कि जहर क्यों बनाया परमात्मा ने! एक आदमी जहर खाकर मर जाए। आप कहेंगे कि जिम्मेदार परमात्मा है। जहर क्यों बनाया? न बनाता परमात्मा, न यह आदमी खाता।
लेकिन जहर अपने आप में किसी को मारता नहीं। जहर तो जिला भी सकता है। लेकिन इस आदमी ने जहर ही जहर खा लिया, तो मर गया। अमृत भी खा लो ज्यादा मात्रा में, तो मौत घटित हो सकती है। अमृत भी मात्रा में ही खाना, अगर मिल जाए! एक तो मिलता नहीं, क्योंकि डर यही है कि जहर तो बहुत कम लोग खाते हैं, अमृत अगर मिल जाए, तो बिना मात्रा में बहुत लोग खा जाएंगे। शायद इसीलिए नहीं मिलता है! क्योंकि रोकेंगे कैसे फिर अमृत मिल जाए, तो आप अपने को कि अब कहां रुकें, खाते ही चले जाएंगे। अमृत से मौत आ जाएगी।
जीवन में नियम हैं। कोई नियम बुरा नहीं, कोई नियम भला नहीं, अनिवार्य हैं। बिना तमस के, बिना इनरशिया के जगत अस्तित्व में नहीं हो सकता। उसके अस्तित्व में होने के लिए कोई अवरोधक शक्ति चाहिए। लेकिन अगर कोई आदमी सिर्फ अवरोधक शक्ति पर ही निर्भर रह जाए, तो भी खतरा हो जाएगा, क्योंकि दूसरी दो शक्तियां भी चाहिए। और श्रेष्ठतम स्वास्थ्य की स्थिति वह है, जहां तीनों शक्तियां बैलेंस करती हैं, संतुलित होती हैं। उसी क्षण में आदमी तीनों के बाहर निकल जाता है और परमात्मा को अनुभव कर पाता है। जब तक आदमी इधर-उधर डोलता है...।
कभी आपने देखा है नट को, रस्सी पर चलता है, कभी थिर नहीं रहता। आप कहें कि थिर क्यों नहीं रहता? थिर रहे--थिर रहे, तो फौरन गिरे और मर जाए। थिर क्यों नहीं रहता है नट? नट पूरे वक्त बैलेंस करता रहता है। और जब आपको दिखता है, अब बाएं झुक रहा है, तो आप गलती में मत पड़ जाना। बाएं झुकता ही तब है, जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है। दाएं तब झुकता है, जब बाएं गिरने का डर पैदा होता है। वह बैलेंस कर रहा है पूरे वक्त। जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है, वह वजन को बाएं ले जाता है, ताकि बैलेंस हो जाए। जब दाएं से बच जाता है, बाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब उलटी तरफ बैलेंस ले जाता है कि बच जाए। और प्रकृति नीचे काम कर रही है। नट अगर बैलेंस न करे, तो जमीन पर गिरे, हड्डी-पसली टूट जाए। फिर प्रकृति से यह नहीं कह सकता कि तूने मेरी हड्डी-पसली तोड़ी! प्रकृति कहेगी, हमें कोई मतलब नहीं; तुम अपनी रस्सी पर बैलेंस करते रहो, हमें कोई मतलब नहीं।
ये तीन जो गुण हैं, इनमें जो बैलेंस कर लेता है, वह व्यक्ति धर्म को उपलब्ध हो जाता है। नहीं बैलेंस कर पाता, तो गिरता है, हड्डी-पसली टूट जाती है। फिर हम कहते हैं, किसने बलात गिरा दिया! किसी ने नहीं गिराया, आप बैलेंस नहीं कर पाए।
कृष्ण का पूरा योग समतायोग है, दि योग आफ बैलेंस। बस, नट की तरह पूरे वक्त जिंदगी एक बैलेंस है, एक संतुलन है; सदा, सदा संतुलन है। ज्यादा खा लिया, तो उपवास करो; ज्यादा उपवास कर लिया, तो ग्लूकोस के इंजेक्शन लो! बस, बैलेंस पूरे वक्त। पूरे समय जिंदगी एक बहुत बारीक संतुलन है, डेलिकेट बैलेंस है। उसमें जरा इधर-उधर हुए कि आप गए। प्रकृति अपना काम करती रहेगी। वह नीचे खड़ी है। वह कह रही है कि नट, जब तक तुम बैलेंस करो, रहो ऊपर; जब न कर पाओ, नीचे आ जाओ। हम तैयार हैं।
अनिवार्य तत्व हैं तीन, उससे कम नहीं हो सकते। तीन के बिना सृष्टि खो जाएगी, इसलिए वे हैं। लेकिन तमस में आप गिरें, इसलिए नहीं। आप तमस के द्वारा रजस को साधते रहें। जब तमस बढ़ जाए, तो रजस की तरफ झुक जाएं। जब रजस बढ़ जाए, तो तमस की तरफ झुक जाएं। दोनों को साधते रहें। और जब दोनों बिलकुल सध जाएं, तो आपकी वर्टिकल यात्रा सत्व की तरफ शुरू होगी। फिर तीनों के बीच साधना पड़ेगा। वह और भी गहरी कीमिया है। दो के बीच साधना बहुत आसान है। दो के बीच साधेंगे, तो सत्व में उठ जाएंगे।
साधु उसे कहते हैं, जो सत्व में पहुंच गया है, जिसने दो को साध लिया। जो तमस और रजस के बीच संतुलित हो गया, उसका नाम साधु है। जो रजस, तमस और सत्व तीनों के बीच सध गया, उसका नाम संत है। वह बहुत अलग बात है। जब तीनों के बीच कोई साधता है, तो सेंटर पर पहुंच जाता है ट्राएंगल के। वह सेंटर ही द्वार है ट्राएंगल का। तीन शक्तियों के बीच में वह स्पेस है, खाली जगह है, जहां से व्यक्ति परमात्मा में, ब्रह्म में प्रवेश कर जाता है।
लेकिन यह धीरे-धीरे हम बात करेंगे, तो खयाल में आएगी। पहले साधु बनें, दो के बीच साधें। फिर संत बनें, तीन के बीच साधें। और जिस दिन तीन के बीच सधा, उस दिन बनना बंद हो जाता है, उसी दिन परमात्मा में प्रवेश हो जाता है। उस दिन प्रकृति के तीनों गुणों के बाहर आदमी हो जाता है।
इसलिए प्रकृति है त्रिगुणा और परमात्मा है त्रिगुणातीत, वह तीनों के बाहर है।
शेष कल बात करेंगे।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें