गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-047
अध्याय ४
अठारहवां प्रवचन
संशयात्मा विनश्यति
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। ४०।।
और हे अर्जुन भगवत विषय को न जानने वाला तथा
श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। उनमें भी संशययुक्त
पुरुष के लिए तो न सुख है और न यह लोक है, न परलोक है। अर्थात
यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।
संशय से भरा हुआ, संशय से ग्रस्त व्यक्तित्व विनाश
को उपलब्ध हो जाता है। भगवत्प्रेम से रहित और संशय से भरा न इस लोक में सुख पाता,
न उस लोक में। विनाश ही उसकी नियति है।
दो बातें ठीक से समझ लेनी इस श्लोक में जरूरी हैं।
एक तो भगवत्प्रेम से रहित, दूसरा संशय से भरा
हुआ। दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। संशय से भरा हुआ व्यक्ति भगवत्प्रेम
को उपलब्ध नहीं होता है। भगवत्प्रेम को उपलब्ध व्यक्ति संशयात्मा नहीं होता है।
लेकिन दोनों को कृष्ण ने अलग-अलग कहा, क्योंकि दोनों के तल
अलग-अलग हैं।
संशय का तल है मन और भगवत्प्रेम का तल है आत्मा। लेकिन मन से संशय न
जाए, तो आत्मा के तल पर भगवत्प्रेम का अंकुरण नहीं होता।
और आत्मा में भगवत्प्रेम का अंकुरण हो जाए, तो मन संशयरहित
होता है। दोनों ही गहरे में एक ही अर्थ रखते हैं। लेकिन दोनों की अभिव्यक्ति का तल
भिन्न-भिन्न है।
इसलिए यह भी ठीक से समझ लेना जरूरी है कि जब कहते हैं कि
संशयात्मा--संशय से भरी हुई आत्मा--विनष्ट हो जाती है, तो ठीक से समझ लेना, संशयात्मा का तल आत्मा नहीं है;
तल मन है। आत्मा में तो संशय होता ही नहीं है। लेकिन जिसके मन में
संशय है, उसे मन ही आत्मा मालूम होती है। इसलिए कृष्ण ने
संशयात्मा प्रयोग किया है।
जिसके मन में संशय है, इनडिसीजन है, वह मन के पार किसी आत्मा को जानता नहीं; वह मन को ही
आत्मा जानता है। और ऐसा मन को ही आत्मा जानने वाला व्यक्ति विनाश को उपलब्ध होता
है।
संशय क्या है? संशय का, पहला तो खयाल कर लें,
अर्थ डाउट नहीं है, संदेह नहीं है। संशय का
अर्थ इनडिसीजन है। अनिश्चय आत्मा, जिसका कोई भी निश्चय नहीं
है; संकल्पहीन, जिसका कोई संकल्प नहीं
है; निर्णयरहित, जिसका कोई निर्णय नहीं
है; विललेस, जिसके पास कोई विल नहीं
है। संशय चित्त की उस दशा का नाम है, जब मन ईदर-आर, यह या वह, इस भांति सोचता है।
एक बहुत अदभुत विचारक डेनमार्क में हुआ, सोरेन कीर्कगार्ड।
उसने एक किताब लिखी है, नाम है, ईदर-आर--यह
या वह। किताब ही लिखी हो, ऐसा नहीं; खुद
भी इतने ही संशय से भरा था। एक युवती से प्रेम था, लेकिन तय
न कर पाया वर्षों तक, विवाह करूं या न करूं! तय न कर पाया यह
कि प्रेम विवाह बने या न बने! इतना समय बीत गया--इतना समय बीत गया कि वह युवती थक
गई। उसने विवाह भी कर लिया। तब एक दिन उसके घर खबर करने गया कि मैं अभी तक तय नहीं
कर पाया हूं। पर पता चला कि अब वह युवती वहां नहीं है। उसका विवाह हुए काफी समय हो
गया है।
इस सोरेन कीर्कगार्ड ने किताब लिखी, ईदर-आर--यह या वह।
उसे अनेक बार लोगों ने चौरस्तों पर खड़े देखा, दो कदम इस
रास्ते पर बढ़ते, फिर लौट आते; फिर दो
कदम दूसरे रास्ते पर बढ़ते, फिर लौट आते। गांव के बच्चे उसके
पीछे दौड़ते और चिल्लाते, ईदर-आर--यह या वह! उसकी पूरी जिंदगी
ऐसी ही इनडिसीजन में--टु बी आर नाट टु बी, होऊं या न होऊं,
करूं या न करूं।
जब चित्त ऐसे संशय से बहुत गहन रूप से भर जाता है, तो विनाश को उपलब्ध होता है। क्यों? क्योंकि जो यही
तय नहीं कर पाता कि करूं या न करूं, वह कभी नहीं कुछ कर
पाता। जो यही तय नहीं कर पाता कि यह हो जाऊं या वह हो जाऊं, वह
कभी भी कुछ नहीं हो पाता।
सृजन के लिए निर्णय चाहिए, असंशय निर्णय चाहिए।
विनाश के लिए अनिर्णय काफी है। विनाश के लिए निर्णय नहीं करना पड़ता।
किसी भी व्यक्ति को स्वयं को नष्ट करना हो, तो इसके लिए किसी निर्णय की जरूरत नहीं होती। सिर्फ बिना निर्णय के बैठे
रहें, विनाश अपने से घटित हो जाता है। किसी को पर्वत शिखर पर
चढ़ना हो, तो श्रम पड़ता है, निर्णय लेना
पड़ता है। लेकिन पत्थर की भांति पर्वत शिखर से लुढ़कना हो घाटियों की तरफ, तब किसी निर्णय की कोई जरूरत नहीं होती और श्रम की भी कोई जरूरत नहीं
होती।
इस जगत में पतन सहज घट जाता है, बिना निर्णय के। इस
जगत में विनाश स्वयं आ जाता है, बिना हमारे सहारे के। लेकिन
इस जगत में सृजन हमारे संकल्प के बिना नहीं होता है। इस जगत में कुछ भी निर्मित
हमारी पूरी की पूरी श्रम, शक्ति, चित्त,
शरीर, सबके समाहित लग जाए बिना, इस जगत में कुछ निर्मित नहीं होता है। विनाश अपने से हो जाता है। बनाना हो,
बनाना अपने से नहीं होता है।
संशय से भरा हुआ चित्त विनाश को उपलब्ध हो जाता है। इसका अर्थ है कि
संशय से भरे चित्त को विनाश के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। विनाश आ जाता है, संशय से भरा हुआ चित्त देखता रहता है। घर में लगी हो आग, संशय से भरी आत्मा की क्या स्थिति होगी? बाहर निकलूं
या न निकलूं? घर में लगी है आग, बाहर
निकलूं या न निकलूं? संशय से भरे चित्त की यह स्थिति होगी।
आग नहीं रुकेगी आपके संशय के लिए, न आपके निर्णय के
लिए। आग बढ़ती रहेगी। और संशय से भरा चित्त ऐसा होता है कि जितनी बढ़ेगी आग, उतना प्रगाढ़ हो जाएगा उसका भीतर का खंडन। उतना ही विचार तेज चलने लगेगा,
निकलूं न निकलूं! आग नहीं रुकेगी। विनाश फलित होगा। वह आदमी घर के
भीतर मरेगा। हम सब जिस जीवन में खड़े हैं--पदार्थ के, संसार
के--वह आग लगे घर से कम नहीं है।
बुद्ध को किसी ने पूछा जब वे घर छोड़कर चले गए, दूसरे गांव के सम्राट ने आकर कहा, सुना है मैंने,
तुम राजपुत्र होकर घर-द्वार छोड़कर चले आए। नासमझी की है तुमने। अपनी
पुत्री से तुम्हारा विवाह कर देता हूं; मेरे राज्य के आधे के
मालिक हो जाओ।
बुद्ध ने कहा, क्षमा करें। जिसे मैं पीछे छोड़ आया हूं, वह मकान और घर नहीं था। आग लगी थी वहां। उस लगी हुई आग को छोड़कर आया हूं
मैं। और तुम फिर मुझे आग लगे घर में प्रवेश के लिए निमंत्रण देते हो! धन्यवाद
तुम्हारे निमंत्रण के लिए; लेकिन शोक तुम्हारे अज्ञान के
लिए! दुखी हूं कि तुम उसे महल कह रहे हो, जिसे मैं छोड़ आया
हूं। महल मैंने नहीं छोड़ा, छोड़ा है मैंने आग लगा हुआ संसार। लपटें
ही थीं वहां। तुम भी छोड़ो!
उस सम्राट ने कहा, सोचूंगा। तुम्हारी बात पर विचार
करूंगा।
बुद्ध ने कहा, घर में आग लगी हो, तब कोई सोचता
है कि निकलूं या न निकलूं?
नहीं; घर में आग लगी हो, तो शायद ही
ऐसा आदमी मिले, जो सोचे। लेकिन जीवन में आग लगी हो, तो अधिकतम लोग ऐसे हैं, जो यही सोचते हैं, निकलें, न निकलें? बदलें,
न बदलें? करें, न करें?
संशय से भरा हुआ चित्त समय को गंवा देता है, इसलिए विनष्ट होता है। समय एक अवसर है, एक
अपरचुनिटी। और ऐसा अवसर, जो मिल भी नहीं पाता और खो जाता है।
क्षण आता है हाथ में; दो क्षण कभी एक साथ नहीं आते। एक क्षण
से ज्यादा इस पृथ्वी पर शक्तिशाली से शक्तिशाली मनुष्य के पास भी कभी ज्यादा नहीं
आता। एक ही क्षण आता है हाथ में, बारीक क्षण। जान भी नहीं
पाते कि आया और निकल जाता है।
संशय से भरा हुआ व्यक्ति जीवन के सभी क्षणों को गंवा देता है। क्योंकि
संशय के लिए काफी समय चाहिए, और क्षण एक ही होता है हाथ में।
जब तक वह सोचता है, तब तक क्षण चला जाता है। जब तक वह सोचता
है, फिर क्षण चला जाता है। अंततः मृत्यु ही आती है संशय के
हाथ में; जीवन पर पकड़ नहीं आ पाती; जीवन
खो जाता है। जीवन खो जाता है निर्णय में ही कि करूं, न करूं।
सुना है मैंने रथचाइल्ड अमेरिका का एक बहुत बड़ा अरबपति हुआ। उससे किसी
ने पूछा कि तुम्हारी सफलता का राज क्या है? गरीब थे तुम, अरबपति हो गए; तुम्हारी सफलता का राज क्या है?
उसने कहा, मैंने एक भी अवसर नहीं खोया। जब भी
अवसर आया, मैंने छलांग लगाई और पकड़ा।
दूसरे व्यक्ति ने पूछा कि तुम्हारा अवसर को पकड़ने का सीक्रेट और कुंजी
क्या है?
उसने कहा, जब अवसर आया, तब मैंने यह नहीं
सोचा कि करूं या न करूं। मैंने सदा एक नियम बनाकर रखा कि पछताना हो, तो करके पछताना; न करके कभी नहीं पछताना। क्योंकि न
करके पछताने का कोई मतलब ही नहीं है। पछताना हो, तो करके
पछता लेना। न करके कभी मत पछताना। क्योंकि किए को अनकिया किया जा सकता है, दि डन कैन बी अनडन। जो किया, उसे अनकिया किया जा
सकता है। लेकिन जो अनकिया छूट गया, उसे फिर किया नहीं किया
जा सकता। जो मकान बनाया, वह गिराया जा सकता है। लेकिन जो
नहीं बनाया, वह समय खो गया जिसमें बनता; अब नहीं बनाया जा सकता।
रथचाइल्ड ने कहा, मैंने सदा एक नियम रखा, करके पछता लूंगा। इसलिए मैंने कभी यह नहीं सोचा कि करूं या न करूं। किया।
और मैं तुमसे कहता हूं कि करके मैं आज तक नहीं पछताया हूं।
असल में निःसंशय व्यक्ति कभी नहीं पछताता। जीवन का अंतिम जोड़ हमारे
किए हुए का जोड़ कम, हमारे लिए गए निःसंशय निर्णय का जोड़ ज्यादा है।
जिंदगी के अंत में, जो किया, वह खो
जाता है; लेकिन जिसने किया, जिस मन ने,
करने, और करने, और करने,
और निर्णय लेने की क्षमता और संकल्प का बल और असंशय रहने की योग्यता
इकट्ठी होती चली जाती है। वही अंतिम हमारे हाथ में संपदा होती है। हमारे निःसंशय
किए गए निर्णय की क्षमता ही हमारी आत्मा होती है।
उस आदमी ने पूछा, मैं भी ऐसा करना चाहता हूं,
लेकिन पता नहीं चलता कि अवसर कब आता है! तुम्हें कैसे पता चलता है
कि अवसर आता है? और अगर कभी अवसर आता ही है, तो जब तक पता चलता है, तब तक जा चुका होता है! तो
तुम छलांग कैसे लगाते हो पकड़ने को?
तो रथचाइल्ड ने कहा कि मैं छलांग लगाता नहीं, मैं छलांग लगाता ही रहता हूं। जब भी अवसर आए, सवार
हो जाता हूं। ऐसा नहीं कि मैं खड़ा देखता रहता हूं कि अवसर आएगा, तो छलांग लगाऊंगा और सवार हो जाऊंगा। क्योंकि जब अवसर आएगा, और जब तक मुझे पता चलेगा, तब तक जा चुका होगा। इस
जगत में सब क्षणभंगुर है। मैं छलांग लगाता ही रहता हूं। आई कंटीन्यू जंपिंग,
मैं कूदता ही रहता हूं। कभी भी अवसर आ जाए, अवसर
का घोड़ा, वह मुझे उचकता हुआ ही पाता है। मेरी छलांग लगती ही
रहती है। क्योंकि रथचाइल्ड ने कहा, छलांग व्यर्थ चली जाए,
इसमें कोई हर्ज नहीं है; लेकिन अवसर का घोड़ा
खाली निकल जाए, इसमें बहुत हर्ज है।
कृष्ण जब कहते हैं, संशयात्मा विनाश को उपलब्ध हो
जाता है, तो वे और भी गहरे अवसर की बात कर रहे हैं। रथचाइल्ड
तो इस संसार के अवसरों की बात कर रहा है। कृष्ण तो परम अवसर की बात कर रहे हैं कि
जीवन एक परम अवसर है, इस परम अवसर में कोई चाहे तो परम
उपलब्धि को पा सकता है--आनंद को, एक्सटैसी को, हर्षोन्माद को। उस उपलब्धि को पा सकता है कि जहां सब जीवन का कण-कण नाच
उठता और अमृत से भर जाता है; जहां जीवन का सब अंधेरा टूट
जाता; और जहां जीवन के सब फूल सुवासित हो खिल उठते हैं;
जहां जीवन का प्रभात होता है और आनंद के गीत का जन्म होता है।
उस परम उपभोग के क्षण को हम चूक रहे हैं प्रतिपल, संशय के कारण। संशय कठिनाई में डालता है। जब भी कोई अवसर आता, हम बैठकर सोचते हैं, करें न करें!
एक युवक आज संध्या संन्यास लेने के लिए बैठा हुआ था मेरे पास। एक बार
भीतर गया, फिर बाहर आया; फिर उसने कहा कि
मैं दुबारा भीतर आता हूं। फिर भीतर आया। फिर कहा कि मैं और जरा बाहर जाकर सोचता
हूं। फिर वह कुर्सी पर बैठकर सोचता रहा, सोचता रहा! मैं
दो-चार बार आस-पास से उसके गुजरा और मैंने पूछा, सोचा?
उसने कहा कि जरा सोचता हूं।
एक और मजे की बात है। जब क्रोध आता है, तब कभी इतना सोचते
हैं? जब घृणा आती है कभी, तब कभी इतना
सोचते हैं? जब वासना उठती है मन में, तब
कभी इतना सोचते हैं? नहीं, बुरे में तो
हम बड़े असंशय चित्त से लागू होते हैं। बुरा आ जाए द्वार पर, तो
हम कहते हैं, आओ, स्वागत है! तैयार ही
खड़े थे द्वार पर हम। शुभ आए, तो बहुत सोचते हैं!
यह भी बहुत मजे की बात है कि आदमी बुरे को करने में संशय नहीं करता, शुभ को करने में संशय करता है। क्यों? क्योंकि बुरे
को करना पतन की तरह है; पहाड़ से पत्थर की तरह नीचे ढुलकना
है। उसमें कुछ करना नहीं पड़ता। पत्थर तो महज जमीन की कशिश से खिंचा चला आता है।
लेकिन शुभ, पर्वत शिखर की चढ़ाई है, गौरीशंकर
की। चढ़ना पड़ता है। कदम-कदम भारी पड़ते हैं। और जैसे-जैसे शिखर पर ऊपर बढ़ती है
यात्रा, वैसे-वैसे भारी पड़ते हैं। फिर एक-एक बोझ निकालकर
फेंकना पड़ता है। अगर बहुत सोना-चांदी ले आए कंधे पर, तो
छोड़ना पड़ता है। गौरीशंकर के शिखर तक जाने के लिए कंधे पर सोने-चांदी के बोझ को
नहीं ढोया जा सकता। धीरे-धीरे शिखर तक पहुंचते-पहुंचते सब फेंक देना पड़ता है।
वस्त्र भी बोझिल हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही शुभ की यात्रा है। एक-एक चीज छोड़ते जानी
पड़ती है।
अशुभ की यात्रा, सब पकड़ते चले जाओ; बीच में पड़े हुए पत्थरों के साथ भी आलिंगन कर लो। वे भी लुढ़कने लगेंगे। सब
इकट्ठा करते चले आओ। बढ़ाते चले जाओ। कुछ छोड़ना नहीं पड़ता। पकड़ते चले जाओ, बढ़ाते चले जाओ। और गङ्ढे में गिरते चले जाओ! जमीन खींचती चली जाती है।
क्रोध के लिए कोई सोचता नहीं। अगर कोई आदमी क्रोध के लिए दो क्षण सोच
ले, तो क्रोध से भी बच जाएगा। और दो क्षण अगर संन्यास के लिए भी सोच ले,
तो संन्यास से भी चूक जाएगा।
अशुभ के साथ जितना सोचें, उतना अच्छा। शुभ के
साथ जितना निःसंशय हों, उतना अच्छा।
फिर यह भी ध्यान रख लें कि अशुभ को करके भी कुछ नहीं मिलता, अशुभ में सफल होकर भी कुछ नहीं मिलता और शुभ में असफल होकर भी बहुत कुछ
मिलता है। शुभ के मार्ग पर असफल हुआ भी बहुत सफल है। अशुभ के मार्ग पर सफल हुआ भी
बिलकुल असफल है। नहीं; जीवन के अंत में कुछ हाथ आता नहीं है।
सिकंदर मरा। जिस गांव में उसकी अर्थी निकली, गांव के लोग चकित हुए, उसके दोनों हाथ अर्थी के बाहर
लटके हुए थे। लोग पूछने लगे, ये हाथ बाहर क्यों हैं? कभी किसी अर्थी के बाहर हाथ नहीं देखे! तो पता चला कि सिकंदर ने मरते समय
अपने मित्रों को कहा, मेरे दोनों हाथ बाहर लटके रहने देना।
मित्रों ने कहा, रिवाज नहीं ऐसा। हमने कोई अर्थी के हाथ बाहर
लटके नहीं देखे! सिकंदर ने कहा, न हो रिवाज। बेईमान रहे
होंगे वे लोग, जिन्होंने हाथ अर्थी के भीतर रखे। मेरे हाथ
बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने कहा, कैसी बातें करते हैं!
क्या फायदा होगा? मतलब क्या? प्रयोजन
क्या? सिकंदर ने कहा, मैं चाहता हूं कि
लोग ठीक से देख लें, मैं खाली हाथ जा रहा हूं। वह जिंदगीभर
जो मैंने इकट्ठा किया, उससे हाथ भरे नहीं।
सफल बहुत था सिकंदर। कम ही लोग इतने सफल होते हैं। पर मरते क्षण
सिकंदर को यह खयाल कि मेरे हाथ खाली लोग देख लें; समझें कि सिकंदर भी
असफल गया है--रिक्त, खाली हाथ।
असफलता भी शुभ के मार्ग पर बड़ी सफलता है। साधु के पास कुछ भी नहीं
होता, फिर भी बंधे हाथ जाता है; बहुत
कुछ लेकर जाता है। कम से कम अपने को लेकर जाता है। आत्मा को विनष्ट करके नहीं जाता;
आत्मा को निर्मित करके, सृजन करके, क्रिएट करके जाता है। इस पृथ्वी पर इस जीवन में उससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं
है कि कोई अपने को पूरा जानकर और पाकर जाता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, संशय विनाश कर देता
है अर्जुन! और अर्जुन बड़े संशय से भरा हुआ है। अर्जुन एकदम ही संशय से भरा हुआ है।
उसे कुछ सूझ नहीं रहा है, क्या करे, क्या
न करे! बड़ा डांवाडोल है उसका चित्त। अर्जुन शब्द का भी मतलब डांवाडोल होता है। ऋजु
कहते हैं सरल को, सीधे को; अऋजु कहते
हैं इरछे-तिरछे को, विषम को।
जो भी डांवाडोल है, इरछा-तिरछा होता है। वह ऐसे चलता
है, जैसे शराबी चलता है। एक पैर इधर पड़ता है, एक पैर उधर पड़ता है। कभी बाएं घूम जाता है, कभी दाएं
घूम जाता है। गति सीधी नहीं होती।
निःसंशय चित्त की गति स्टे्रट, सीधी होती है। संशय
से भरे चित्त की गति सदा डांवाडोल होती है। रखता है पैर, नहीं
रखना चाहता। फिर उठा लेता है। फिर रखता है; फिर नहीं रखना
चाहता। अर्जुन वैसी ही स्थिति में है।
फिर कृष्ण साथ में यह भी कहते हैं, भगवत्प्रेम को उपलब्ध!
जगत में तीन प्रकार के प्रेम हैं। एक, वस्तुओं का प्रेम।
जिससे हम सब परिचित हैं। जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से
ही परिचित हैं। दूसरा, व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में
एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं। सिर्फ
इसलिए कि आपको अपने को बचाने की सुविधा रहे! समझें कि दूसरे, मैं तो लाख में एक हूं ही!
नहीं; इस तरह बचाना मत।
एक फ्रेंच चित्रकार सीजां एक गांव में ठहरा। उस गांव के होटल के
मैनेजर ने कहा, यह गांव स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है। यह
पूरी पहाड़ी अदभुत है। सीजां ने पूछा, इसके अदभुत होने का राज,
रहस्य, प्रमाण? उस
मैनेजर ने कहा, राज और रहस्य तो तुम रहोगे यहां, तो पता चल जाएगा। प्रमाण यह है कि इस पूरी पहाड़ी पर एक आदमी से ज्यादा
प्रतिदिन नहीं मरता है। सीजां ने जल्दी से पूछा कि आज मरने वाला आदमी मर गया या
नहीं? नहीं तो मैं भागूं।
आदमी अपने को बचाने के लिए बड़ा आतुर है। तो अगर मैं कहूं, लाख में एक; आप कहेंगे, बिलकुल
ठीक। छोड़ा अपने को। आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं, खयाल रखना।
लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलब्ध होता है। शेष आदमी
वस्तुओं के प्रेम में ही जीते हैं। आप कहेंगे, हम व्यक्तियों को
प्रेम करते हैं। लेकिन मैं आपसे कहूंगा, वस्तुओं की भांति,
व्यक्तियों की भांति नहीं।
आज एक मित्र आए संन्यास लेने; पत्नी को साथ लेकर
आए। पत्नी को समझाया, कि नहीं, वे घर
छोड़कर नहीं जाएंगे। पति ही रहेंगे। पिता ही रहेंगे। संन्यास उनकी आंतरिक घटना है।
चिंतित मत होओ। घबड़ाओ मत! लेकिन उस पत्नी ने कहा कि नहीं, मैं
संन्यास नहीं लेने दूंगी। मैंने कहा, कैसा प्रेम है यह?
अगर प्रेम गुलामी बन जाए, तो प्रेम है?
प्रेम अगर स्वतंत्रता न दे, तो प्रेम है?
प्रेम अगर जंजीरें बन जाए, तो प्रेम है?
फिर यह पति व्यक्ति नहीं रहा, वस्तु हो गया;
यूटिलिटेरियन; फिर यह व्यक्ति नहीं रहा। फिर
पत्नी कहती है, मैं आज्ञा नहीं दूंगी, तो
नहीं!
व्यक्ति का सम्मान न रहा, उसकी स्वतंत्रता का
सम्मान न रहा; उसका कोई अर्थ न रहा; वह
वस्तु हो गई।
हम व्यक्तियों को प्रेम भी करते हैं, तो पजेस करते हैं,
मालिक हो जाते हैं। मालिक व्यक्तियों का कोई नहीं हो सकता। सिर्फ
वस्तुओं की मालकियत होती है। अगर कोई पत्नी पति को पजेस करती है, कहती है, मालकियत है। कोई पति कहता है पत्नी को कि
मेरी हो; तो फर्नीचर में और पत्नी में बहुत भेद नहीं रह जाता
है। उपयोग हो गया, लेकिन व्यक्ति का सम्मान न हुआ। उस दूसरे
व्यक्ति की निज आत्मा का कोई आदर न हुआ।
वस्तुओं को ही हम प्रेम करते हैं, इसलिए व्यक्तियों को
भी प्रेम करते हैं, तो उनको भी वस्तु बना लेते हैं।
दूसरा प्रेम, व्यक्तियों का जो प्रेम है, वह
कभी लाख में एक आदमी को, मैंने कहा, उपलब्ध
होता है। व्यक्ति के प्रेम का अर्थ है, दूसरे का अपना मूल्य
है; मेरी उपयोगिता भर मूल्य नहीं है उसका। यूटिलिटेरियन--मैं
उसका उपयोग कर लूं--इतना ही उसका मूल्य नहीं है। उसका अपना निज मूल्य है। वह मेरा
साधन नहीं है। वह स्वयं अपना साध्य है।
कांट ने, इमेनुएल कांट ने कहा है--नीति के परम सूत्रों में एक
सूत्र। अनीति के लिए कांट कहता है, अनीति का एक ही अर्थ है,
दूसरे व्यक्ति का साधन की तरह उपयोग करना अनैतिक है। और दूसरे
व्यक्ति को साध्य मानना नैतिक है।
गहरे से गहरा सूत्र है कि दूसरा व्यक्ति अपना साध्य है स्वयं। मैं
उससे प्रेम करता हूं एक व्यक्ति की भांति, एक वस्तु की भांति
नहीं। इसलिए मैं उसका मालिक कभी भी नहीं हो सकता हूं।
लेकिन व्यक्ति के प्रेम को ही हम उपलब्ध नहीं होते।
फिर तीसरा प्रेम है, भगवत्प्रेम। वह अस्तित्व का
प्रेम है, लव टुवर्ड्स दि एक्झिस्टेंस। लव टुवर्ड्स दि पर्सन,
एंड लव टुवर्ड्स थिंग्स, आब्जेक्ट्स। वस्तुओं
के प्रति प्रेम, मकान, धन-दौलत,
पद-पदवी! व्यक्तियों के प्रति प्रेम, मनुष्य!
अस्तित्व के प्रति प्रेम, भगवत्प्रेम है। समग्र अस्तित्व को
प्रेम।
अब इसको थोड़ा ठीक से देख लेना जरूरी है। जब हम वस्तुओं को प्रेम करते
हैं, तो हमें सारे जगत में वस्तुएं ही दिखाई पड़ती हैं,
कोई परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जिसे हम प्रेम करते हैं,
उसे ही हम जानते हैं। प्रेम जानने की आंख है। प्रेम के अपने ढंग हैं
जानने के। सच तो यह है कि प्रेम ही इंटिमेट नोइंग है। आंतरिक, आत्मीय जानना प्रेम ही है।
इसलिए जब हम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हैं, तभी हम जानते हैं। क्योंकि जब हम प्रेम करते हैं, तभी
वह व्यक्ति हमारी तरफ खुलता है। जब हम प्रेम करते हैं, तब हम
उसमें प्रवेश करते हैं। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह निर्भय
होता है। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह छिपाता नहीं है। जब हम
प्रेम करते हैं, तब वह उघड़ता है, खुलता
है; भीतर बुलाता है, आओ; अतिथि बनो! ठहराता है हृदय के घर में।
जब कोई व्यक्ति प्रेम करता है किसी को, तभी जान पाता है। अगर
अस्तित्व को कोई प्रेम करता है, तभी जान पाता है परमात्मा
को। भगवत्प्रेम का अर्थ है, जो भी है, उसके
होने के कारण प्रेम।
कुर्सी को हम प्रेम करते हैं, क्योंकि उस पर हम
बैठते हैं, आराम करते हैं। टूट जाएगी टांग उसकी, कचरेघर में फेंक देंगे। उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है। हटा देंगे। जो लोग
मनुष्यों को भी इसी भांति प्रेम करते हैं, उनका भी यही है।
पति को कोढ़ हो जाएगा, तो पत्नी डायवोर्स दे देगी, अदालत में तलाक कर देगी। टूट गई टांग कुर्सी की। हटाओ! पत्नी कुरूप हो
जाएगी, रुग्ण हो जाएगी, अस्वस्थ हो
जाएगी, अंधी हो जाएगी; पति तलाक कर
देगा। हटाओ! तब तो वस्तु हो गए लोग।
जो व्यक्ति सिर्फ वस्तुओं को प्रेम करता है, उसके लिए सारा जगत मैटीरियल हो जाता है, वस्तु मात्र
हो जाता है। व्यक्ति में भी वस्तु दिखाई पड़ती है। और भगवत चैतन्य तो कहीं दिखाई
नहीं पड़ सकता।
भगवत चैतन्य को अनुभव करने के लिए पहले वस्तुओं के प्रेम से
व्यक्तियों के प्रेम तक उठना पड़ता है; फिर व्यक्तियों के
प्रेम से अस्तित्व के प्रेम तक उठना पड़ता है। जो व्यक्ति व्यक्तियों को प्रेम करता
है, वह मध्य में आ जाता है। एक तरफ वस्तुओं का जगत होता है,
दूसरी तरफ भगवान का अस्तित्व होता है, पूरा
अस्तित्व। इन दोनों के बीच खड़ा हो जाता है। उसे दोनों तरफ दिखाई पड़ने लगता है। एक
तरफ वस्तुओं का संसार है और एक तरफ अस्तित्व का लोक है। फिर वह आगे बढ़ सकता है।
सुना है मैंने, रामानुज एक गांव से गुजरते हैं। और एक आदमी आया। और
उसने कहा कि मुझे भगवान से मिला दें। मुझे भगवान से प्रेम करा दें। मैं भगवत्प्रेम
का प्यासा हूं। रामानुज ने कहा, ठहरो, इतनी
जल्दी मत करो। तुमसे मैं कुछ पूछूं। तुमने कभी किसी को प्रेम किया? उसने कहा, कभी नहीं, कभी नहीं।
मुझे तो सिर्फ भगवान का प्रेम है। रामानुज ने कहा, कभी किसी
को किया हो भूल-चूक से? उस आदमी ने कहा, बेकार की बातों में समय क्यों जाया करवा रहे हैं? प्रेम
इत्यादि से मैं सदा दूर रहा हूं। मैंने कभी किसी को प्रेम किया ही नहीं। रामानुज
ने कहा, फिर तुमसे कहता हूं एक बार; एकाध
बार, सोचो, किसी को किया हो--किसी पौधे
को किया हो, किसी आदमी को किया हो, किसी
स्त्री को किया हो, किसी बच्चे को किया हो--किसी को भी किया
हो!
स्वभावतः, उस आदमी ने सोचा कि अगर मैं कहूं कि मैंने किसी को
प्रेम किया है, तो रामानुज कहेंगे कि अयोग्य है तू। इसलिए
उसने कहा, मैंने किया ही नहीं। साफ कहता हूं। प्रेम से मैं
सदा दूर रहा हूं। मुझे तो भगवत्प्रेम की आकांक्षा है।
रामानुज ने कहा कि फिर मैं बड़ी मुश्किल में हूं। फिर मैं कुछ भी न कर
पाऊंगा। क्योंकि अगर तूने किसी को थोड़ा भी प्रेम किया होता, तो उसी प्रेम की किरण के सहारे मैं तुझे भगवत्प्रेम के सूरज तक पहुंचा
देता। थोड़ा-सा भी तूने किसी में झांका होता प्रेम से, तो मैं
तुझे पूरे अस्तित्व के द्वार में धक्का दे देता। लेकिन तू कहता है कि तूने किया ही
नहीं। यह तो ऐसे हुआ कि मैं किसी आदमी से पूछूं कि तूने कभी रोशनी देखी, दीया देखा? मिट्टी का दीया जलता हुआ देखा? वह कहे, नहीं, मुझे तो सूरज
दिखा दें। मैंने दीया कभी देखा ही नहीं। पूछता हूं कि कभी तुझे एकाध किरण छप्पर
में से फूटती हुई दिखाई पड़ी हो? वह कहे, कहां की बातें कर रहे हैं? किरण वगैरह से अपना कोई
संबंध ही नहीं है। हम तो सूरज के प्रेमी हैं। तो रामानुज ने कहा कि जैसे उस आदमी
से मुझे कहना पड़े कि क्षमा कर! तू किरण भी नहीं खोज पाया,
सूरज तक तुझे कैसे पहुंचाऊं? क्योंकि हर किरण सूरज का रास्ता
है।
व्यक्ति का प्रेम भी भगवत्प्रेम की शुरुआत है। व्यक्ति का प्रेम एक
छोटी-सी खिड़की है, झरोखा, जिसमें से हम किसी एक
व्यक्ति में से परमात्मा को देखते हैं। खिड़की! अगर, रामानुज
ने कहा, तू एक में भी झांक सका हो, तो
फिर मैं तुझे सब में झांकने की कला बता दूं। लेकिन तू कहता है, तूने कभी झांका ही नहीं!
हम वस्तुओं में जीते हैं। हम व्यक्तियों में भी झांकते नहीं। क्यों? क्या बात है? वस्तुओं के साथ बड़ी सुविधा है, व्यक्तियों के साथ झंझट है। छोटे-से व्यक्ति के साथ! घर में एक बच्चा पैदा
हो जाए; अभी दो साल का बच्चा है, लेकिन
वह भी एक उपद्रव है। व्यक्ति है। वह भी स्वतंत्रता मांगता है। उससे कहो, इस कोने में बैठो। तो फिर उस कोने में बिलकुल नहीं बैठता है! उससे कहो,
बाहर मत जाओ, तो बाहर जाता है! उससे कहो,
फलां चीज मत छुओ, तो छूकर दिखलाता है कि मेरी
भी आत्मा है। मैं भी हूं। आप ही नहीं हैं।
इसलिए आज अमेरिका या फ्रांस में या इंगलैंड में लोग कहते हैं, एक बच्चे की बजाय एक टेलीविजन सेट खरीद लेना बेहतर। टेलीविजन सेट! जब चाहो
बटन दबाओ, चले; बंद करो, बंद हो जाए। आन-आफ होता है।
व्यक्ति आन-आफ नहीं होता। उसको आप नहीं कर सकते आन-आफ। एक छोटे-से
बच्चे को मां दबा-दबाकर सुला रही है; आफ करना चाह रही है।
वे आन हो-हो जा रहे हैं! उठ-उठ आ रहे हैं! वे कह रहे हैं कि नहीं, अभी नहीं सोना है। छोटा-सा बच्चा भी इनकार करता है कि उसके साथ वस्तु जैसा
व्यवहार न किया जाए। उसके भीतर परमात्मा है।
व्यक्ति से प्रेम करने में डर लगता है। क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता
मांगेगा। वस्तुओं से प्रेम करना बड़ा सुविधापूर्ण है; स्वतंत्रता नहीं
मांगते। तिजोरी में बंद किया; ताला डाला; आराम से सो रहे हैं। रुपए तिजोरी में बंद हैं। न भागते, न निकलते; न विद्रोह करते, न
बगावत करते; न कहते कि आज इरादा नहीं है चलने का हमारा,
आज नहीं चलेंगे! नहीं; जब चाहो, तब हाजिर होते हैं; जैसा चाहो, वैसा हाजिर होते हैं। वस्तुएं गुलाम हो जाती हैं, इसलिए
हम वस्तुओं को चाहते हैं।
जो आदमी भी दूसरे की स्वतंत्रता नहीं चाहता, वह आदमी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा। और जो व्यक्ति को प्रेम नहीं कर
पाएगा, वह भगवत्प्रेम के झरोखे पर ही नहीं पहुंचा, तो भगवत्प्रेम के आकाश में तो उतरने का उपाय नहीं है।
भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत एक
व्यक्तित्व है, दि होल एक्झिस्टेंस इज़ पर्सनल। भगवत्प्रेम का
अर्थ है, जगत नहीं है, भगवान है। इसका
मतलब समझते हैं? अस्तित्व नहीं है, भगवान
है। क्या मतलब हुआ इसका? इसका मतलब हुआ कि हम पूरे अस्तित्व
को व्यक्तित्व दे रहे हैं। हम पूरे अस्तित्व को कह रहे हैं कि तू भी है; हम तुझसे बात भी कर सकते हैं।
इसलिए भक्त--भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने
व्यक्तित्व दिया। भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने भगवान कहा।
भक्त का अर्थ है, ऐसा प्रेम से भरा हुआ हृदय, जो इस पूरे अस्तित्व को एक व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है। सुबह उठता है,
तो सूरज को हाथ जोड़कर नमस्कार करता है। सूरज को नमस्कार नासमझ नहीं
कर रहे हैं। हालांकि बहुत-से नासमझ कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने शुरू किया था,
वे नासमझ नहीं थे।
सूरज को नमस्कार उस आदमी ने किया था, जिसने सारे अस्तित्व
को व्यक्तित्व दे दिया था। फिर सूरज का भी व्यक्तित्व था। तो हमने कहा, सूर्य देवता है; रथ पर सवार है; घोड़ों पर जुता हुआ है; दौड़ता है आकाश में। सुबह होता,
जागता; सांझ होता, अस्त
होता। ये बातें वैज्ञानिक नहीं हैं; ये बातें धार्मिक हैं।
ये बातें पदार्थगत नहीं हैं; ये बातें आत्मगत हैं।
नदियों को नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया।
वृक्षों को नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया। सारे जगत को
व्यक्तित्व दे दिया। कहा कि तुममें भी व्यक्तित्व है। आज भी आप कभी किसी पीपल के
पास नमस्कार करके गुजर जाते हैं। लेकिन आपने खयाल नहीं किया होगा कि जो आदमी,
आदमियों को वस्तु जैसा व्यवहार करता है, उसका
पीपल को नमस्कार करना एकदम सरासर झूठ है। पीपल को तो वही नमस्कार कर सकता है,
जो जानता है कि पीपल भी व्यक्ति है, वह भी
परमात्मा का हिस्सा है; उसके पत्ते-पत्ते में भी उसी की छाप
है। कंकड़-कंकड़ में भी उसी की पहचान है। जगह-जगह वही है अनेक-अनेक रूपों में। चेहरे
होंगे भिन्न; वह जो भीतर छिपा है, भिन्न
नहीं है। आंखें होंगी अनेक, लेकिन जो झांकता है उनसे,
वह एक है। हाथ होंगे अनंत, लेकिन जो स्पर्श
करता है उनसे, वह वही है।
गदर के समय, म्यूटिनी के समय, अठारह सौ
सत्तावन में, एक मौन संन्यासी, जो
पंद्रह वर्ष से मौन था। नग्न संन्यासी। रात गुजर रहा था। चांदनी रात थी। चांद था
आकाश में। वह नाच रहा था। धन्यवाद दे रहा था चांद को। उसे पता नहीं था कि उसकी मौत
करीब है।
नाचते हुए नग्न वह निकला नदी की तरफ। बीच में अंग्रेज फौज का पड़ाव था।
फौजियों ने समझा कि यह कोई जासूस मालूम पड़ता है। तरकीब निकाली है इसने कि नग्न
होकर गीत गाता हुआ फौजी पड़ाव में से गुजर रहा है। उन्होंने उसे पकड़ लिया। और जब
उससे पूछताछ की और वह नहीं बोला, तब शक और भी पक्का हो गया कि वह
जासूस है। बोलता क्यों नहीं? हंसता है, मुस्कुराता है, नाचता है, बोलता
क्यों नहीं?
मैंने कहा, गीत गाता हुआ, वाणी से नहीं।
ऐसे भी गीत हैं, जो प्राणों से गाए जाते हैं। ऐसे भी गीत हैं,
जो शून्य में उठते और शून्य में ही खो जाते हैं। वह तो मौन था,
शब्द से तो चुप था। पर गीत गाता हुआ, नाचता
हुआ, अपने समग्र अस्तित्व से पूर्णिमा के चांद को धन्यवाद
देता हुआ!
सिपाहियों ने कहा कि बोलता क्यों नहीं है? मुस्कुराता है। आंखें कहती हैं। गाता है। नाचता है। बोलता क्यों नहीं है?
बेईमान है। जासूस है! उन्होंने भाला उसकी छाती में भोंक दिया।
उस संन्यासी ने संकल्प लिया हुआ था कि एक ही शब्द बोलूंगा--आखिर, अंतिम, मृत्यु के द्वार पर। इस जगत से पार होते हुए
धन्यवाद का एक शब्द इस पार बोलकर विदा हो जाऊंगा।
कठिन पड़ा होगा उसको कि क्या शब्द बोले! मुश्किल पड़ा होगा! एक ही वाक्य
बोलना है--अंतिम!
छाती में घुस गया भाला। खून के फव्वारे बरसने लगे। वह जो नाचता था
हृदय, मरने के करीब पहुंच गया। उस संन्यासी ने कहा, तत्वमसि श्वेतकेतु! उपनिषद का महावाक्य। उसने कहा, श्वेतकेतु,
तू भी वही है। दैट आर्ट दाऊ। तू भी वही है।
नहीं समझे होंगे वे अंग्रेज सिपाही। लेकिन उसने उस सिपाही से कहा, तू भी वही है--तत्वमसि! उस अंग्रेज सिपाही से, जिसने
उसकी छाती में भोंका भाला, उससे उसने कहा, तू भी वही है।
इस खिड़की में से भी वह उसी को देख पाया। इस भाला भोंकती हुई खिड़की में
से भी उसी का दर्शन हुआ। भगवत्प्रेम को उपलब्ध हुआ होगा, तभी ऐसा हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता है।
भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत व्यक्ति है।
व्यक्तित्व है जगत के पास अपना, उससे बात की जा सकती है।
इसलिए भक्त बोल लेता है उससे।
मीरा पागल मालूम पड़ती है दूसरों को, क्योंकि वह बातें कर
रही है कृष्ण से। हमें पागल मालूम पड़ेगी, क्योंकि हमारे लिए
तो वस्तुओं के अतिरिक्त जगत में कुछ भी नहीं है। व्यक्ति भी नहीं हैं, तो परम व्यक्ति तो होगा कैसे? लेकिन मीरा बातें कर
रही है उससे! सूरदास उसका हाथ पकड़कर चल रहे हैं! आदान-प्रदान हो रहा है। डायलाग
है। चर्चा होती है। प्रश्न-उत्तर हो जाते हैं। पूछा जाता है, प्रतिसंवाद हो जाता है। व्यक्ति!
जब जीसस सूली पर लटके और उन्होंने ऊपर आंख उठाकर कहा कि हे प्रभु, माफ कर देना इन सबको, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये
क्या कर रहे हैं; तब यह आकाश से नहीं कहा होगा। आकाश से कोई
बोलता है? यह आकाश में उड़ते पक्षियों से नहीं कहा होगा।
पक्षियों से कोई बोलता है? भीड़ खड़ी थी नीचे, उसने भी आकाश की तरफ देखा होगा; लेकिन आकाश में चलती
हुई सफेद बदलियों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा होगा। नीला आकाश--खाली और शून्य।
हंसे होंगे मन में कि पागल है। लेकिन जीसस के लिए सारा जगत प्रभु है। कह दिया,
क्षमा कर देना इन्हें, क्योंकि इन्हें पता
नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।
भगवत्प्रेम हो, तो व्यक्ति और परम-व्यक्ति के बीच चर्चा हो पाती है,
संवाद हो पाता है, आदान-प्रदान हो पाता है। और
उससे मधुर संवाद, उससे मीठा लेन-देन, उससे
प्रेमपूर्ण पत्र-व्यवहार और कोई भी नहीं है। प्रार्थना उसका नाम है। भगवत्प्रेम
में वह घटित होती है।
तो कृष्ण कहते हैं, संशयमुक्त, भगवत्प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति इस लोक में भी आनंद को उपलब्ध होता है,
परलोक में भी। संशय से भरा हुआ, भगवत्प्रेम से
रिक्त, इस लोक में भी दुख पाता है, उस
लोक में भी।
दुख हमारा अपना अर्जन है, हमारी अपनी अघनग है।
हमारा अपना अर्जित है दुख। दुख पाना हमारी नियति नहीं, हमारी
भूल है। दुख पाने के लिए हमारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं है, और कोई रिस्पांसिबल नहीं है। दुखी हैं, तो कारण है
कि संशय को जगह देते हैं। दुखी हैं, तो कारण है कि व्यक्ति
को खोजा नहीं; परम व्यक्ति की तरफ गए नहीं।
आनंदित जो होता है, उसके ऊपर परमात्मा कोई विशेष
कृपा नहीं करता है। वह केवल उपयोग कर लेता है जीवन के अवसर का और प्रभु के प्रसाद
से भर जाता है।
गङ्ढे हैं। वर्षा होती है, तो गङ्ढों में पानी
भर जाता है और झीलें बन जाती हैं। पर्वत के शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन पर्वत के शिखरों पर झील नहीं बनती। पानी नीचे बहकर गङ्ढों में
पहुंचकर झील बन जाती है। पर्वत शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन
वे पहले से ही भरे हुए हैं, उनमें जगह नहीं है कि पानी भर
जाए। झीलों पर वर्षा होती है, तो भर जाता है। झीलें खाली हैं,
इसलिए भर जाता है।
जो व्यक्ति संशय से भरा है, भगवत्प्रेम से खाली
है, उसके पास संशय का पहाड़ होता है। ध्यान रखें, बीमारियां अकेली नहीं आतीं; बीमारियां सदा समूह में
आती हैं। बीमारियां भीड़ में आती हैं। ऐसा नहीं होता है कि किसी आदमी में एक संशय
मिल जाए। जब संशय होता है, तो अनेक संशय होते हैं। संशय भी
भीड़ में आते हैं, एक नहीं आता। स्वास्थ्य अकेला आता है,
बीमारियां भीड़ में आती हैं। श्रद्धा अकेली आती है, संशय बहुवचन में आते हैं।
संशय से भरा हुआ आदमी पहाड़ बन जाता है संशय का। उस पर भी प्रभु का
प्रसाद बरसता है, लेकिन भर नहीं पाता। संशयमुक्त झील बन जाता है--गङ्ढा,
खाली, शून्य--प्रभु के प्रसाद को ग्रहण करने
के लिए गर्भ बन जाता है। स्वीकार कर लेता है।
इसलिए ध्यान रखें, निरंतर भक्तों ने अगर भगवान को
प्रेमी की तरह माना, तो उसका कारण है। अगर भक्त इस सीमा तक
चले गए कि अपने को स्त्रैण भी मान लिया और प्रभु को पति भी मान लिया, तो उसका भी कारण है। कारण है। और वह कारण है, गङ्ढा
बनना है, ग्राहक बनना है, रिसेप्टिव
बनना है। स्त्री ग्राहक है, रिसेप्टिव है; गर्भ बनती है; स्वीकार करती है। नए को अपने भीतर
जन्म देती है, बढ़ाती है। अगर भक्तों को ऐसा लगा कि वे
प्रेमिकाएं बन जाएं प्रभु की, तो उसका कारण है। इसीलिए कि वे
गङ्ढे बन जाएं, प्रभु उनमें भर जाए।
लेकिन जो अहंकार के शिखर हैं, वे खाली रह जाते हैं।
और जो विनम्रता के गङ्ढे हैं, वे भर जाते हैं।
प्रभु का प्रसाद प्रतिपल बरस रहा है। उसके प्रसाद की उपलब्धि आनंद है, उसके प्रसाद से वंचित रह जाना संताप है, दुख है।
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।। ४१।।
हे धनंजय, समत्वबुद्धिरूप योग द्वारा भगवत अर्पण कर दिए हैं
संपूर्ण कर्म जिसने और ज्ञान द्वारा नष्ट हो गए हैं सब संशय जिसके, ऐसे परमात्मपरायण पुरुष को
कर्म नहीं बांधते हैं।
संशयरहित जो हो गया, कर्म जिसने अपने समर्पित कर दिए
प्रभु को, बेशर्त दान है जिसका स्वयं का समग्र को; अपनी तरफ जो शून्य हो रहा; कह दिया प्रभु को पूर्ण
जिसने; ऐसे पुरुष को--समर्पित, शून्य
हुए, विनम्र, निःसंशय, भगवत्प्रेम से भरे हुए--ऐसे पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।
कृष्ण बार-बार अर्जुन को हजार-हजार मार्गों से कह रहे हैं कि अर्जुन, तू वह राज समझ ले, जिससे कर्म करते हुए भी बंधन नहीं
बनता है।
समर्पण कर दिए जिसने सब कर्म प्रभु को, उसे बंधन नहीं होता
है। फिर बंधेगा, तो प्रभु; खुलेगा,
तो प्रभु। अपनी तरफ से उसने सारा बोझ उसे दे दिया है।
समर्पण ही लेकिन कठिनाई है। अहंकार बाधा है। अहंकार कहता है, मैं हूं। समर्पण कहेगा, तू है। अहंकार कहता है,
मैं सब कुछ। समर्पण कहता है, मैं कुछ भी नहीं।
और अहंकार इतना चालाक है, इतने सूक्ष्म हैं मार्ग उसके,
इतनी महीन हैं तरकीबें उसकी; इतने होशियार,
इतने गणित का खेल है उसका, कि जब अहंकार कहता
है, मैं कुछ भी नहीं, तब भी वह कहता है,
मैं कुछ हूं! कुछ भी नहीं हूं। मैं कुछ हूं। ना-कुछ होने में भी
अहंकार खड़ा हो जाता है। समर्पण अति कठिन है।
रूमी ने एक छोटा-सा गीत लिखा है, वह इस सूत्र को
समझाने को कहूं। रूमी ने लिखा है कि प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया। खटखटाया
द्वार। जैसा कि प्रेमियों का मन आमतौर से होता है, अपेक्षाओं
से भरा, ऐसा ही उसका भी भरा है। खटखटाया द्वार; आवाज नहीं दी। क्योंकि सोचा उस प्रेमी ने, मेरी
खटखटाहट को भी तो पहचान लेगी प्रेयसी! मेरी खटखटाहट नहीं पहचानेगी क्या? मेरे पदचाप नहीं पहचानेगी क्या? प्रतीक्षा की होगी
मेरी, तो जरूर मेरे पदचापों की आहट भी मिल गई होगी। और चाहा
होगा मुझे, तो मेरे खटखटाने का ढंग भी तो मेरा है! नहीं दी
आवाज; सिर्फ द्वार खटखटाया।
भीतर से पूछा उसकी प्रेयसी ने, कौन है द्वार पर!
प्रेमी को दुख हुआ। प्रेमी को सुख मुश्किल से ही होता है। अपेक्षाएं होती हैं बहुत,
उसी अनुपात में दुख भी बरसते हैं। दुख हुआ, पहचानी
नहीं! प्रेम का सुख ही रिकग्नीशन है, कोई पहचाने! आना था
दौड़ते हुए; खोलना था द्वार। कहना था कि पदचाप पड़े थे राह पर,
तभी जान गई कि तुम आते हो। खटखटाया था द्वार, तभी
खुल जाने थे द्वार और कहना था, तुम! आवाज तुम्हारी पहचानती
हूं। लेकिन भीतर से पूछती है, कौन हो?
दुखी हुआ मन। कहा, मैं हूं। पहचाना नहीं? प्रेयसी ने कहा, जब तक तुम हो, तब तक प्रेम के द्वार खुलना भी चाहें, तो खुलेंगे
कैसे? जाओ। जब बचो न, तब आ जाना।
प्रेम के द्वार अहंकार के लिए कभी नहीं खुलते हैं। हालांकि अहंकार
प्रेम के द्वार निरंतर ठकठकाता है और खुलवाना चाहता है। अहंकार प्रेम के ऊपर सदा
बलात्कार है। सदा! तोड़ देना चाहता है। खुलते तो कभी नहीं, तोड़ देता है। लेकिन तोड़े गए द्वार, खुले हुए द्वार
नहीं हैं। और तोड़े गए द्वार को जिसने खुला हुआ द्वार समझा, वह
पागल है। क्योंकि जब द्वार खुलते हैं प्रेम के अपने से, तब
उसका रस, उसका रहस्य और ही है। और जब तोड़े जाते हैं, तब उसका विरस, उसकी अर्थहीनता और ही है।
सोचा प्रेमी ने कि ठीक ही है बात। जब तक मैं हूं, तब तक प्रेम कैसा? क्योंकि प्रेम तो तभी है, जब तू ही है, मैं नहीं हूं। लौट गया।
पुराना प्रेमी रहा होगा; ओल्ड फैशन्ड! नए ढंग
का होता, बहुत उपद्रव मचाता। कहानी पुरानी है, रूमी ने लिखी है। और फिर उस तरह के प्रेमी ने लिखी, जो
प्रभु के द्वार की बात कर रहा है।
लौट गया प्रेमी। वर्ष आए और गए। वर्षाएं आईं और बीतीं; पतझड़ हुए और चुके; वसंत खिले और मिटे। न मालूम कितने
चांद पूरे हुए और अस्त हुए। न मालूम कितना समय बीता! निश्चय ही अहंकार को मिटाना
लंबी यात्रा है; आर्डूअस है; तपश्चर्यापूर्ण
है।
फिर वर्ष, वर्ष, वर्ष बीतने के बाद पता भी
न रहा कि कितना समय बीता; वह प्रेमी वापस आया। द्वार खटखटाए।
फिर वही आवाज भीतर से, कौन हो? लेकिन
अब प्रेमी ने कहा, तू ही है। और रूमी कहता है, द्वार खुल गए। तू ही है--द्वार खुल गए। समर्पण हुआ। छोड़ा मैं को। प्रेम के
द्वार खुले।
लेकिन शायद इस पृथ्वी के लिए तो ठीक है कि जिसे हम प्रेम करें, उसके सामने मैं को छोड़ दें और तू को मान लें, तो
द्वार खुल जाएं। लेकिन रूमी तो अब कहीं खोजे से मिलेगा नहीं, अन्यथा उससे कहता कि अगर मेरा वश चले, तो कविता अभी
भी पूरी नहीं करूंगा। कहलाता फिर भी मैं कि प्रेमी ने कहा, तू
है, तो प्रेयसी ने कहा, लौट जाओ फिर,
और कुछ दिन प्रतीक्षा करो। क्योंकि जब तक तू का खयाल है, तब तक मैं कहीं न कहीं छिपा ही होगा। तू का खयाल भी मैं के कहीं छिपे होने
की खबर है; अन्यथा तू का भी पता नहीं चलता। अगर मैं होता,
तो लौटा देता।
समर्पण अहंकार का पूर्ण विसर्जन है, इतना पूर्ण कि तू
कहने की भी जगह न रह जाए। तू कहने की भी जगह न रह जाए। लेकिन दूर की हुई यह बात।
पहले तो हम तू कहने के योग्य बनें; मैं को छोड़ें! फिर हम तू
से भी मुक्त हों; तू को भी छोड़ें। तब, कृष्ण
कहते हैं, अर्जुन, फिर कर्म का कोई भी
बंधन नहीं है। फिर कर्म नहीं बांधते हैं। फिर व्यक्ति मुक्त ही है। फिर उसकी
मुक्ति को कुछ भी नहीं छू पाता। फिर उसकी मुक्ति अग्नि जैसी है। कुछ भी फेंको कचरा
उसमें, जलकर राख हो जाता है।
अग्नि निर्दोष, क्वांरी है वर्जिन बच जाती है पीछे। अग्नि सदा ही
क्वांरी बच जाती है। अग्नि क्वांरी ही बच जाती है, उसका
क्वांरापन अदभुत है। कुछ भी डालो उसमें, हो जाता है राख;
अग्नि क्वांरी की क्वांरी वापस खड़ी हो जाती है--शुद्ध, ताजी।
जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता, वह अग्नि की तरह
क्वांरा और ताजा और शुद्ध हो जाता है। प्रभु के साथ मिलकर एक, इतना शुद्ध हो जाता है, फिर कुछ भी उसे अशुद्ध नहीं
कर पाता है। इतना स्वतंत्र हो जाता है कि फिर कोई बंधन उसे बांध नहीं पाते हैं।
इतना मुक्त कि फिर कोई कारागृह उसके लिए कारागृह नहीं बन सकता है।
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। ४२।।
इससे, हे भरतवंशी अर्जुन, तू
समत्वबुद्धिरूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए हृदय में स्थित,
इस अपने संशय को ज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके
युद्ध के लिए खड़ा हो।
इसलिए हे अर्जुन, तू समत्वबुद्धिरूप योग को पाकर,
संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट डाल।
दो बातें हैं। एक, समत्वबुद्धिरूपी योग को, समता को उपलब्ध हो। समता का अर्थ है, निष्पक्षता को।
समता का अर्थ है, तटस्थता को। समता का अर्थ है, दोनों के पार, दुई के पार, द्वैत
के पार। समत्वबुद्धिरूपी योग को!
हमारी बुद्धि सदा असम्यक है। असम्यक बुद्धि का अर्थ है कि कभी इस तरफ
डोल जाती है, कभी उस तरफ डोल जाती है। हमारी चाल ऐसी है, जैसे कभी नट को रस्सी पर चलते हुए देखा हो। देखा है, नट को रस्सी पर चलते हुए? हाथ में एक डंडा लिए रहता
है। कभी बाएं डोलता, कभी दाएं डोलता। कभी बाएं, कभी दाएं। रस्सी पर चलता है; बाएं-दाएं डोलता है।
यह भी खयाल में ले लेना कि जब वह बाएं डोल रहा है, तो उसका मतलब आप जानते हैं कि बाएं क्यों डोलता है? बाएं
इसलिए डोलता है कि जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब वह
बाएं डोलता है बैलेंस करने को। जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है कि कहीं दाएं गिर
न जाऊं, तो वह तत्काल बाएं डोलता है। जब बाएं गिरने का डर
पैदा होता है, तब वह दाएं डोलता है।
हमारी बुद्धि नट जैसी है। रस्सी पर बारीक, कभी धर्म की तरफ डोलते, कभी अधर्म की तरफ; कभी हिंसा की तरफ, कभी अहिंसा की तरफ; कभी पदार्थ की तरफ, कभी परमात्मा की तरफ। लेकिन
डोलते ही रहते हैं, समत्व को उपलब्ध नहीं होते। ऐसे नहीं,
जैसे कोई व्यक्ति जमीन पर खड़ा है; डोलता ही
नहीं--स्ट्रेट, सीधा। जैसे दीए की लौ ऐसे कमरे में हो,
जहां के सब द्वार बंद हैं। हवा का कोई झोंका भीतर नहीं आता। ज्योति
सीधी है; जरा भी कंपती नहीं; खड़ी है!
बुद्धि जब ऐसी खड़ी होती है, अन-डोली, अन-वेवरिंग, कंपनमुक्त, मध्य
में; न बाएं, न दाएं; न इस पक्ष में, न उस पक्ष में; जब मध्य में, समत्व को, समता
को, समाधि को बुद्धि उपलब्ध होती है, तब
वह समत्व बुद्धि को उपलब्ध हुआ व्यक्ति ही इस जगत के जाल, झंझट,
समस्याओं की गांठ को काट पाता है। अन्यथा वह खुद ही उलझ जाता है,
अपने ही कंपन से उलझ जाता है। हम अपने ही कंपन से उलझते चले जाते
हैं, चौबीस घंटे।
कभी अपने मन की इस असम्यक, असम अवस्था की
परीक्षा करना, निरीक्षण करना। देखना सुबह से एक दिन सांझ तक
कि मन कैसा डोलता है! कितना डोलता है!
सुना है मैंने, एक चर्च में सुबह रविवार के दिन लोग प्रार्थना,
प्रवचन को इकट्ठे हुए हैं। एक आदमी घर से तय करके आया कि सौ रुपए आज
दान करने हैं। सौ रुपए लेकर आया। लेकिन जब वह सीढ़ियां चढ़ रहा था, उसने कहा, एकदम पूरे सौ रुपए! लौटा। चर्च के पास की
किसी दूकान से रुपए भंजाकर लाया। सोचा पचास ही काफी होंगे देने। फिर अपनी हैसियत
भी सौ देने की कहां है? अभी थी, पंद्रह
मिनट पहले!
भीतर पहुंचा। खयाल आया, पचास न भी दूं,
कौन मुझे मजबूर कर रहा है? अपने ही हाथ से
फंसता हूं। सोचा, दस से भी काम चल जाएगा। बड़ी राहत मिली। बोझ
टल गया। अभी कुछ दिया नहीं था। सब भीतर चलता था। अभी किसी को पता भी नहीं था कि वह
क्या कर रहा है। लेकिन दस देने हैं, इसलिए आगे की बेंच पर
जाकर बैठा।
स्वभावतः, जिसके खीसे में दस का नोट है, वह
पीछे कैसे बैठे! आगे बैठा। फिर दस देने भी हैं। तो अगर थोड़ा पीछे बैठे और जब बर्तन
घूमे पैसा डालने का, तो कौन देखेगा? पादरी
कम से कम देख तो ले कि दस का नोट डाला है!
फिर पादरी का प्रवचन शुरू हुआ। आधा प्रवचन चला था, तब उसे खयाल आया कि पांच डालने से भी काम चल सकता है। प्रवचन पचहत्तर
प्रतिशत पूरा होने आया, तब उसे खयाल आया कि इस तरह के
भावावेश में पड़ना नहीं चाहिए। हजार और काम हैं। एक रुपया डालूं। कौन कहता है कि
ज्यादा डालो? एक रुपया भी क्या कम है!
जब बर्तन घूमने लगा, तब उसके मन में आया कि कई लोग
नहीं डाल रहे हैं; अगर मैं भी न डालूं, तो हर्ज क्या है? जब बर्तन उसके सामने आया, उसने चारों तरफ देखा कि कोई भी नहीं देख रहा है, तो
सोचा कि एक रुपया उठा लूं!
ऐसा मन है। ऐसा ही है, पूरे समय। खोजेंगे
अपने मन को, तो ऐसा ही पाएंगे, नट
रस्सी पर जितना कंपता है, उससे भी ज्यादा कंपता हुआ। ऐसे मन
से संशय नहीं कट सकता। संशय तो कटेगा, समत्व होगा तब;
समता होगी तब; बीच में कोई ठहरेगा तब; संतुलन होगा तब; बैलेंस होगा तब--तब कटेगा।
तो कृष्ण कहते हैं, समत्व बुद्धि को उपलब्ध हो और
ज्ञान की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन!
ज्ञान सच में ही तलवार है। शायद वैसी कोई और तलवार नहीं है। क्योंकि
जितना सूक्ष्म ज्ञान काटता है, उतना सूक्ष्म और कोई तलवार नहीं
काटती।
अभी वैज्ञानिकों ने कुछ किरणें खोज निकाली हैं, जो बड़ी शीघ्रता से, तेजी से काटती हैं; डायमंड को भी काटती हैं। लेकिन फिर भी ज्ञान की तलवार की बारीकी ही और है।
संशय को वे भी नहीं काट सकते; डायमंड को काट सकते होंगे।
संशय बहुत अदभुत है। गहरे से गहरे और बारीक से बारीक अस्त्र को भी
बेकार छोड़ जाता है; कटता ही नहीं। सिर्फ ज्ञान से कटता है।
ज्ञान का अर्थ? ज्ञान का अर्थ है, समत्वबुद्धिरूपी
योग। वही, जब बुद्धि सम होती है, तो
ज्ञान का जन्म होता है। बुद्धि की समता का बिंदु ज्ञान के जन्म का क्षण है। जहां
बुद्धि संतुलित होती है, वहीं ज्ञान जन्म जाता है। और जहां
बुद्धि असंतुलित होती है, वहीं अज्ञान जन्म जाता है। जितनी
असंतुलित बुद्धि, उतना घना अज्ञान। जितनी संतुलित बुद्धि,
उतना गहरा ज्ञान। पूर्ण संतुलित बुद्धि, पूर्ण
ज्ञान। पूर्ण असंतुलित बुद्धि, पूर्ण अज्ञान। पूर्ण असंतुलित
बुद्धि होती है विक्षिप्त की, पागल की, इसलिए उसके संशय का कोई हिसाब ही नहीं है। पागल, विक्षिप्त
का संशय पूर्ण है। अपने पर ही संशय करता है पागल।
अभी-अभी अमेरिका से एक युवती मेरे पास आई। छः साल पागलखाने में थी।
उसने अपने हाथ की कलाइयां मुझे बताईं, दोनों कलाइयां बिलकुल
कटी हुई। कई बार काटा उसने खुद ही। वही उसका पागलपन था, कलाई
काट डालना! रेजर मिल जाए, कैंची मिल जाए, छुरा मिल जाए, सब्जी काटने की छुरी मिल जाए, कुछ भी मिल जाए, बस कलाई काटती।
मैंने उससे पूछा कि तुझे कलाई काटने का यह खयाल क्यों चढ़ा था? उसने कहा, खयाल! मुझे ऐसा लगता था कि अगर मेरे हाथ
कहीं मेरी गर्दन दबा दें और मैं मर जाऊं। तो इनको काट डालूं। अपने ही हाथ पर संशय
कि कहीं गर्दन न दबा दें!
विक्षिप्त इस स्थिति में पहुंच जाता है कि वह दूसरे पर संशय करता है, ऐसा नहीं; अपने पर भी संशय करता है। अपने पर भी!
विक्षिप्त का संशय पूर्ण हो जाता है, ज्ञान शून्य हो जाता
है। विमुक्त का संशय शून्य हो जाता है, ज्ञान पूर्ण हो जाता
है।
दो छोर हैं, विक्षिप्त और विमुक्त। और हम बीच में हैं, नट की तरह डोलते हुए। हम अपनी रस्सी पकड़े हुए हैं, कभी
विक्षिप्त की तरफ डोलते, कभी विमुक्त की तरफ।
सुबह मंदिर जाते हैं, तो देखें चाल। फिर लौटकर बाजार
जाते हैं, तब देखें अपनी चाल। सुबह जब मंदिर का घंटा बजाते
हैं प्रभु को कहने को कि आ गया, मैं आया, तब देखें भाव। फिर उसी मंदिर से लौटकर भागते हैं दुकान की तरफ, तब देखें आंखें। तब बड़ी हैरानी होती है कि एक आदमी, इतना
फर्क! वही बैठा है गंगा के किनारे तिलक-चंदन लगाए, पूजा-पाठ,
प्रार्थना! वही बैठा है दफ्तर में; वही बैठा
है नेता की कुर्सी पर, तब उसकी स्थिति!
एक ही आदमी सुबह से सांझ तक कितने चेहरे बदल लेता है! चेहरे बदलते हैं
इसलिए कि भीतर बुद्धि बदल जाती है। करीब-करीब पारे की तरह है हमारी बुद्धि। वह जो
थर्मामीटर में पारा होता है--ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे। लेकिन वह
बेचारा तापमान की वजह से होता है! हम? हम तापमान की वजह से
नहीं होते। हम अपनी ही वजह से होते हैं। क्योंकि हमारे पास ही कोई कृष्ण खड़ा है,
कोई बुद्ध, कोई महावीर। उसका पारा जरा भी
यहां-वहां नहीं होता; ठहरा ही रहता है; समत्व को उपलब्ध हो जाता है।
ज्ञान की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन। और मजा ऐसा है कि अगर
अर्जुन इतना भी तय कर ले कि हां, मैं काटने को राजी हूं, तो कट गया। क्योंकि संशय तय नहीं करने देता। इतना भी तय कर ले...।
रामकृष्ण के जीवन का एक संस्मरण कहूं, तो खयाल में आ जाए।
फिर आखिरी सूत्र ही है यह।
रामकृष्ण ने बहुत दिन तक काली की मूर्ति की, प्रतिमा की पूजा की। स्वभावतः, भक्त थे, भाव से भरे थे। प्रतिमा बाहर की फिर गैर-जरूरी हो गई। आंख बंद करते,
प्रतिमा खड़ी हो जाती। पर रामकृष्ण का मन आकार से न भरा। जब तक
निराकार न मिले, तब तक मन भरता भी नहीं है। फिर आकार वह
देवता का ही क्यों न हो, आकार ही है। सीमा फिर वह देवी की ही
क्यों न हो, सीमा ही है। निराकार के पहले तृप्ति नहीं है।
फिर भटकाव शुरू हो गया।
एक साधु रुका था आश्रम में, दक्षिणेश्वर के मंदिर
में, तोतापुरी। रामकृष्ण ने कहा, मुझे
निराकार समाधि चाहिए। तोतापुरी ने कहा, तू ज्ञान की तलवार
उठा और भीतर जब काली की प्रतिमा आए, तो दो टुकड़े कर दे।
रामकृष्ण ने कहा, क्या कहते हैं? काली की प्रतिमा और दो टुकड़े, और मैं? ऐसे अपशकुन के शब्द न बोलो। तोतापुरी ने कहा, जब तक
वह प्रतिमा न गिरे आकार की, तब तक निराकार का प्रवेश नहीं
है। तो रामकृष्ण बहुत रोए। काली से जाकर बहुत माफी मांगी कि यह आदमी कैसी बातें
कहता है!
लेकिन फिर बात तो ठीक थी। फिर राजी हुए। पर बैठें; आंख बंद करें; आंसू बहने लगें; आनंदमग्न हो जाएं। आंखें खोलें; तोतापुरी कहें कि
काटा? तो वे कहें, भूल ही गए! फिर कहने
लगे, तलवार! तलवार कहां से लाऊं? वहां
भीतर तलवार कहां? तोतापुरी ने कहा, ज्ञानरूपी
तलवार। फिर वे कहने लगे कि बहुत खोजता हूं, कोई तलवार तो
मिलती नहीं। तलवार कहां से लाऊं?
तो तोतापुरी ने कहा, यह मूर्ति कहां से ले आए हो?
मूर्ति लाते वक्त अड़चन न हुई? भीतर मूर्ति ले
गए पत्थर की और तलवार लाते वक्त अड़चन होती है? बैठो! एक कांच
का टुकड़ा ले आया तोतापुरी और उसने कहा कि आंख तुम बंद करो। और जब मैं देखूंगा
तुम्हारी आंख में आनंद के आंसू आए, समझूंगा कि आ गई मूर्ति,
तभी मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट दूंगा। जब मैं काटूं, तब तुम हिम्मत से उठाकर तलवार मार देना मूर्ति में। जैसे मूर्ति ले आए हो,
ऐसे तलवार भी ले आओ।
रोते रहे। तोतापुरी ने काट दिया माथा। हिम्मत की, तलवार उठाई, मूर्ति को मारा। मूर्ति दो टुकड़े होकर
गिर गई भीतर। रामकृष्ण गहरी समाधि में खो गए। तीन दिन तक उठ न सके। लौटकर कहा,
दि लास्ट बैरियर--आखिरी बाधा गिर गई। और मैं भी कैसा पागल कि कहता
था, तलवार कहां से लाऊं? मारने की
हिम्मत नहीं थी, इसलिए कहता था कि कहां से लाऊं? मालूम तो था कि जब मूर्ति भीतर ला सकते हैं, तो
तलवार क्यों नहीं ला सकते?
कृष्ण भी जो कह रहे हैं अर्जुन से कि तू उठाकर तलवार काट डाल संशय को, अगर अर्जुन कहे कि अच्छा मैं राजी काटने को, तो कट
जाएगा संशय। सिर्फ इतना कहे कि मैं राजी। वह संशय वही तो नहीं कहने देता कि मैं
राजी। वह फिर नए सवाल उठाएगा। गीता अभी आगे और भी चलेगी। वह नए सवाल उठाएगा।
आदमी का मन उत्तर से बचता है, सवालों को गढ़ता है।
आदमी का मन, फिर से कहता हूं, उत्तर से
बचता है, सवालों को गढ़ता है। आमतौर से जो लोग सवाल पूछते हैं,
वे इसलिए नहीं कि उत्तर मिल जाए, बल्कि इसलिए
कि कहीं उत्तर न मिल जाए; इसलिए सवाल पूछे चले जाओ!
अर्जुन पूछता चला जाएगा सवाल पर सवाल। उत्तर कृष्ण हजार बार दे चुके
हैं इसके पहले भी, हजार बार देंगे इसके बाद भी; लेकिन
अर्जुन सवाल उठाए चला जाता है। इसके पहले कि कृष्ण का उत्तर हो, वह नए सवाल खड़े कर देता है। सवाल पुराने ही हैं; नया
कोई सवाल नहीं है। सवाल वही है; शब्द बदल जाते हैं; आकार बदल जाता है। कृष्ण के उत्तर भी नए नहीं हैं। उत्तर एक ही है। अगर
अर्जुन कहता, मैं डाल-डाल, तो कृष्ण
कहते, मैं पात-पात। ठीक, तुम उधर सवाल
खड़ा करते हो, हम इधर जवाब देते हैं!
लेकिन अथक है कृष्ण का परिश्रम! इतना परिश्रम बहुत कम गुरुओं ने लिया
है। अथक है परिश्रम! उत्तर मिल जाए अर्जुन को, इसकी चेष्टा सतत
कृष्ण करते चले जाते हैं।
जो व्यक्ति भी ज्ञान की तलवार उठा ले--समत्व बुद्धि की--संशय को काट
डाले, लास्ट बैरियर, संशय के साथ ही
आखिरी बाधा गिर जाती है और वे द्वार खुल जाते हैं जो कि परमात्मा के हैं, आनंद के, मुक्ति के, परम शांति
के, परम निर्वाण के हैं।
प्रश्न: भगवान श्री, सवाल मेरे पास बिलकुल नहीं हैं,
लेकिन फिर भी एक बड़ा सवाल है। इस अध्याय के आखिर में लिखा गया है,
ओम तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः।
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग इस अध्याय का नाम दिया गया है; अतः
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग पर कुछ कहें।
ज्ञान-कर्म-संन्यास, ऐसा इस अध्याय का नाम है। एक ओर
ज्ञान, दूसरी ओर संन्यास, बीच में
कर्म। ज्ञान-कर्म-संन्यास योग। ज्ञान हो, कर्म न खोए,
और संन्यास फलित हो।
ज्ञान से कर्म हो, तो संन्यास फलित होता है।
ज्ञानपूर्ण कर्म हो, तो अकर्म बन जाता है। ज्ञानपूर्ण भोग हो,
तो त्याग बन जाता है। ज्ञानपूर्ण अंधकार भी प्रभात है।
ये तीन शब्द बड़े सूचक हैं।
एक ओर ज्ञान; प्रारंभ ज्ञान से; स्रोत ज्ञान
से। बहे कर्म में, संसार में। पहुंचे संन्यास तक, परमात्मा में। वर्तुल पूरा हो जाए।
ज्ञान जब कर्म बनता है, तभी संन्यास है। अगर
ज्ञान पलायन बन जाए, तो फिर संन्यास नहीं है। ज्ञान अगर
पलायन बन जाए, तो संन्यास नहीं है। ऐसा कहें, ज्ञान-पलायन-संन्यास योग; तो इससे विपरीत होगा।
आमतौर से संन्यासी यही करता है, ज्ञान-पलायन-संन्यास।
कृष्ण उलटा अर्जुन को कह रहे हैं। उलटा इसलिए, संन्यासी से
उलटा। वह तो सीधा ही कह रहे हैं। संन्यासी उलटा है। पलायन नहीं, एस्केपिज्म नहीं।
कृष्ण का मूल संदेश इस अध्याय में अपलायन का, नो एस्केपिज्म; भागो मत, बदलो।
पीठ मत फेरो, मुकाबला करो। अस्तित्व का सामना करो; भागो मत। लेकिन अज्ञानी भी करते हैं सामना, तब वे
लिप्त हो जाते हैं, और भोगी हो जाते हैं। ज्ञानी भी करते हैं
सामना; लेकिन तब वे लिप्त नहीं होते और संन्यास को उपलब्ध हो
जाते हैं।
ज्ञानपूर्ण हो जाए कर्म, वही संन्यास है। जो
भी करें, समत्व बुद्धि से हो, प्रभु
समर्पित हो, संन्यास है। अज्ञान से किया गया अकर्म भी
संन्यास नहीं, ज्ञान से किया गया कर्म भी संन्यास है। अज्ञान
में कोई कुछ भी न करे, तो भी पाप लगता है। ज्ञान में सब कुछ
करे, तो भी पाप नहीं है।
अदभुत है संदेश!
इन नौ दिनों में इस ज्ञान-कर्म-संन्यास योग की बहुत-बहुत पहलुओं से
मैंने बात आपसे की है, इस आशा में कि जल्दी, शीघ्र ही
आए वह क्षण कि उठे ज्ञान की तलवार, टूट जाए संशय; खुले द्वार प्रभु का, उस उपलब्धि का, जिसे पाए बिना हमारे पास कुछ भी नहीं है; जिसे पाए
बिना हाथ अर्थी पर खाली लटके होंगे। रिक्त, व्यर्थ, खोकर प्रभु के सामने खड़े होंगे, तो मुंह दिखाने का
भी उपाय न होगा।
नहीं; जा सकें संपदा के साथ प्रभु के समक्ष; चढ़ा सकें नैवेद्य जीवन में जो पाया है उसका, इस आशा
में ये बातें कहीं।
मेरे प्रिय आत्मन्, इन बातों को इतने प्रेम और शांति
से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर
बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
चले न जाएंगे, दस मिनट और बैठे रहें अपनी ही जगह। संन्यासी मंच पर आ
जाएंगे सब, धुन चलेगी। इसीलिए आज संन्यासियों का आनंद आपमें
बंट सके, तो उन्हें रोका है। वे रुकने को राजी न थे, उनके आनंद में कमी पड़ेगी, बैठकर ही उन्हें धुन में
उतरना पड़ेगा। लेकिन बैठकर ही नाचें, नाचना आंतरिक है,
बैठकर ही डोलें, बैठकर ही खो जाएं। संन्यासी
मंच पर होंगे, वे धुन करेंगे, आप भी
साथ दें। यह अंतिम समापन आप सबकी धुन के साथ समाप्त हो। कोई उठे न, इतनी देर बैठे रहे, अपनी जगह बैठ जाएं। कोई उठे न,
ताली दें, स्वर में स्वर दें, डोलें, आंखें बंद कर लें। देखने की फिक्र छोड़ दें,
ताकि आप भीतर देख सकें। एक दस मिनट धुन चलेगी फिर हम विदा हो
जाएंगे।
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