गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-060
अध्याय ६
दूसरा प्रवचन
आसक्ति का सम्मोहन
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।। ३।।
और समत्वबुद्धिरूप योग में आरूढ़ होने की इच्छा
वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में, निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उस
योगारूढ़ पुरुष के लिए सर्वसंकल्पों का अभाव ही कल्याण में हेतु कहा है।
समत्वबुद्धि योग का सार है। समत्वबुद्धि को सबसे पहले समझ लेना उपयोगी
है। साधारणतः मन हमारा अतियों में डोलता है, एक्सट्रीम्स में
डोलता है। या तो एक अति पर हम होते हैं, या दूसरी अति पर
होते हैं। या तो हम किसी के प्रेम में पागल हो जाते हैं, या
किसी की घृणा में पागल हो जाते हैं। या तो हम धन को पाने के लिए विक्षिप्त होते
हैं, या फिर हम त्याग के लिए विक्षिप्त हो जाते हैं। लेकिन
बीच में ठहरना अति कठिन मालूम होता है। मित्र बनना आसान है, शत्रु
भी बनना आसान है; लेकिन मित्रता और शत्रुता दोनों के बीच में
ठहर जाना अति कठिन है। और जो दो के बीच में ठहर जाए, वह
समत्व को उपलब्ध होता है।
जीवन सब जगह द्वंद्व है। जीवन के सब रूप द्वंद्व के ही रूप हैं। जहां
भी डालेंगे आंख, जहां भी जाएगा मन, जहां भी
सोचेंगे, वही पाएंगे कि दो अतियां मौजूद हैं। इस तरफ गिरेंगे,
तो खाई मिल जाएगी; उस तरफ गिरेंगे, तो कुआं मिल जाएगा। दोनों के बीच में बहुत पतली धार है। वहां जो ठहर जाता
है, वही योग को उपलब्ध होता है। दो के बीच, द्वंद्व के बीच जो पतली धार है, द्वंद्व के बीच जो
संकीर्ण मार्ग है, वही संकीर्ण मार्ग समत्वबुद्धि है।
समत्वबुद्धि का अर्थ है, संतुलन; द्वंद्व के बीच सम हो जाना। जैसे कभी देखा हो दुकान पर दुकानदार को तराजू
में सामान को तौलते। जब दोनों पलड़े बिलकुल एक से हो जाएं और तराजू का कांटा सम पर
ठहर जाए--न इस तरफ झुकता हो बाएं, न उस तरफ झुकता हो दाएं;
न बाएं जाए; न दाएं जाए, न लेफ्टिस्ट हो, न राइटिस्ट हो--बीच में ठहर जाए,
तो समत्वबुद्धि उपलब्ध होती है।
कृष्ण कहते हैं, समत्वबुद्धि योग का सार है।
कृष्ण उसे योगी न कहेंगे, जो किसी एक अति को
पकड़ ले। वह भोगी के विपरीत हो सकता है, योगी नहीं हो सकता।
त्यागी हो सकता है। अगर शब्दकोश में खोजने जाएंगे, तो भोगी
के विपरीत जो शब्द लिखा हुआ मिलेगा, वह योगी है। शब्दकोश में
भोगी के विपरीत योगी शब्द लिखा हुआ मिल जाएगा। लेकिन कृष्ण भोगी के विपरीत योगी को
नहीं रखेंगे। कृष्ण भोगी के विपरीत त्यागी को रखेंगे।
योगी तो वह है, जिसके ऊपर न भोग की पकड़ रही, न
त्याग की पकड़ रही। जो पकड़ के बाहर हो गया। जो द्वंद्व में सोचता ही नहीं; निर्द्वंद्व हुआ। जो नहीं कहता कि इसे चुनूंगा; जो
नहीं कहता कि उसे चुनूंगा। जो कहता है, मैं चुनता ही नहीं;
मैं चुनाव के बाहर खड़ा हूं। वह च्वाइसलेस, चुनावरहित
है। और जो चुनावरहित है, वही संकल्परहित हो सकेगा। जहां
चुनाव है, वहां संकल्प है।
मैं कहता हूं, मैं इसे चुनता हूं। अगर मैं यह भी कहता हूं कि मैं
त्याग को चुनता हूं, तो भी मैंने किसी के विपरीत चुनाव कर
लिया। भोग के विपरीत कर लिया। अगर मैं कहता हूं, मैं सादगी
को चुनता हूं, तो मैंने वैभव और विलास के विपरीत निर्णय कर
लिया। जहां चुनाव है, वहां अति आ जाएगी। चुनाव मध्य में कभी
भी नहीं ठहरता है। चुनाव सदा ही एक छोर पर ले जाता है। और एक बार चुनाव शुरू हुआ,
तो आप अंत आए बिना रुकेंगे नहीं।
और भी एक मजे की बात है कि अगर कोई व्यक्ति चुनाव करके एक छोर पर चला
जाए, तो बहुत ज्यादा देर उस छोर पर टिक न सकेगा; क्योंकि जीवन टिकाव है ही नहीं। शीघ्र ही दूसरे छोर की आकांक्षा पैदा हो
जाएगी। इसलिए जो लोग दिन-रात भोग में डूबे रहते हैं, वे भी
किन्हीं क्षणों में त्याग की कल्पना और सपने कर लेते हैं। और जो लोग त्याग में
डूबे रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में भोग के और भोगने के
सपने देख लेते हैं। वह दूसरा विकल्प भी सदा मौजूद रहेगा। उसका वैज्ञानिक कारण है।
द्वंद्व सदा अपने विपरीत से बंधा रहता है; उससे मुक्त नहीं हो सकता। मैं जिसके विपरीत चुनाव किया हूं, वह भी मेरे मन में सदा मौजूद रहेगा। अगर मैंने कहा कि मैं आपको चुनता हूं
उसके विपरीत, तो जिसके विपरीत मैंने आपको चुना है, वह आपके चुनाव में सदा मेरे मन में रहेगा। आपका चुनाव आपका ही चुनाव नहीं
है, किसी के विपरीत चुनाव है। वह विपरीत भी मौजूद रहेगा।
और मन के नियम ऐसे हैं कि जो भी चीज ज्यादा देर ठहर जाए, उससे ऊब पैदा हो जाती है। तो जो मैंने चुना है, वह
बहुत देर ठहरेगा मैं ऊब जाऊंगा। और ऊबकर मेरे पास एक ही विकल्प रहेगा कि उसके
विपरीत पर चला जाऊं। और मन ऐसे ही एक द्वंद्व से दूसरे द्वंद्व में भटकता रहता है।
जब कृष्ण कहते हैं, समत्व, तो
अगर हम ठीक से समझें, तो समत्व को वही उपलब्ध होगा, जो मन को क्षीण कर दे। क्योंकि मन तो चुनाव है। बिना चुनाव के मन एक क्षण
भी नहीं रह सकता।
जब मैंने आपसे कहा कि तराजू का कांटा जब बीच में ठहर जाता है, तब अगर हम दूसरी तरह से कहना चाहें, तो हम यह भी कह
सकते हैं कि तराजू अब नहीं है। क्योंकि तराजू का काम तौलना है। और जब कांटा बिलकुल
बीच में ठहर जाता है, तो तौलने का काम बंद हो गया; चीजें समतुल हो गईं। तौलने का तो मतलब यह है कि तराजू खबर दे। लेकिन अब
दोनों पलड़े थिर हो गए और कांटा बिलकुल बीच में आ गया, समतुलता
आ गई, तो वहां तराजू का काम समाप्त हो गया। समतुल तराजू,
तराजू होने के बाहर हो गया। ऐसे ही मन का काम अतियों का चुनाव है।
अगर ठीक से हम समझें, अगर हम मनोवैज्ञानिक से पूछें,
तो वह कहेगा, मन का विकास ही चुनाव की वजह से
पैदा हुआ। और इसीलिए आदमी के पास सबसे ज्यादा विकसित मन है, क्योंकि
आदमी के पास सबसे ज्यादा चुनाव की आकांक्षा है। पशु बहुत चुनाव नहीं करते, इसलिए बहुत मन उनमें पैदा नहीं होता। पक्षी बहुत चुनाव नहीं करते। पौधे
बहुत चुनाव नहीं करते। आदमी की सामर्थ्य यही है कि वह चुन सकता है। वह कह सकता है,
यह भोजन मैं करूंगा और वह भोजन मैं नहीं करूंगा। पशु तो वही भोजन
करते चले जाएंगे, जो प्रकृति ने उनके लिए चुन दिया है।
अगर यहां हजार तरह की घास लगी हो और आप भैंस को छोड़ दें, तो भैंस उसी घास को चुन-चुनकर चर लेगी जो प्रकृति ने उसके लिए तय किया है,
बाकी घास को छोड़ देगी। भैंस खुद चुनाव नहीं करेगी, इसलिए भैंस के पास मन भी पैदा नहीं होगा।
सारी प्रकृति मनुष्य को छोड़कर मन से रहित है। ठीक से समझें, तो मनुष्य हम कहते ही उसे हैं, जिसके पास मन है।
मनुष्य शब्द का भी वही अर्थ है, मन वाला।
मनुष्य में और पशुओं में इतना ही फर्क है कि पशुओं के पास कोई मन नहीं
और मनुष्य के पास मन है। मनुष्य इसलिए मनुष्य नहीं कहलाता कि मनु का बेटा है, बल्कि इसलिए मनुष्य कहलाता है कि मन का बेटा है; मन
से ही पैदा होता है। वह उसका गौरव भी है, वही उसका कष्ट भी
है। वही उसकी शान भी है, वही उसकी मृत्यु भी है। मन के कारण
वह पशुओं से ऊपर उठ जाता है। लेकिन मन के कारण ही वह परमात्मा नहीं हो पाता।
यह दूसरी बात भी खयाल में ले लें।
मन के कारण वह पशुओं के ऊपर उठ जाता है। लेकिन मन के ही कारण वह परमात्मा
नहीं हो पाता। पशुओं से ऊपर उठना हो, तो मन का होना जरूरी
है। और अगर मनुष्य के भी ऊपर उठना हो और परमात्मा को स्पर्श करना हो, तो मन का पुनः न हो जाना जरूरी है। यद्यपि मनुष्य जब मन को खो देता है,
तो पशु नहीं होता, परमात्मा हो जाता है।
मनुष्य मन को जान लिया, और तब छोड़ता है। पशु
ने मन को जाना नहीं, उसका उसे कोई अनुभव नहीं है। अनुभव के
बाद जब कोई चीज छोड़ी जाती है, तो हम उस अवस्था में नहीं
पहुंचते जब अनुभव नहीं हुआ था, बल्कि उस अवस्था में पहुंच
जाते हैं जो अनुभव के अतीत है।
मन है चुनाव, च्वाइस--यह या वह। मन सोचता है ईदर-आर की भाषा में।
इसे चुनूं या उसे चुनूं! दुकान पर आप खड़े हैं; मन सोचता है,
इसे चुनूं, उसे चुनूं! समाज में आप खड़े हैं;
मन सोचता है, इसे प्रेम करूं, उसे प्रेम करूं! प्रतिपल मन चुनाव कर रहा है, यह या
वह। सोते-जागते, उठते-बैठते, मन कांटे
की तरह डोल रहा है तराजू के। कभी यह पलड़ा भारी हो जाता है, कभी
वह पलड़ा भारी हो जाता है।
और ध्यान रहे, जिस चीज को मन चुनता है, बहुत
जल्दी उससे ऊब जाता है। मन ठहर नहीं सकता। इसलिए मन अक्सर जिसे चुनता है, उसके विपरीत चला जाता है। आज जिसे प्रेम करते हैं, कल
उसे घृणा करने लगते हैं। आज जिसे मित्र बनाया, कल उसे शत्रु
बनाने में लग जाते हैं। जो बहुत गहरा जानते हैं, वे तो
कहेंगे, मित्र बनाना शत्रु बनाने की तैयारी है। इधर बनाया
मित्र कि शत्रु बनने की तैयारी शुरू हो गई। मन लौटने लगा।
थियोडर रेक अमेरिका का एक बहुत विचारशील मनोवैज्ञानिक था। उसने लिखा
है, मन के दो ही सूत्र हैं, इनफैचुएशन और फ्रस्ट्रेशन।
उसने लिखा है, मन के दो ही सूत्र हैं, किसी
चीज के प्रति आसक्त हो जाना और फिर किसी चीज से विरक्त हो जाना।
या तो मन आसक्त होगा, या विरक्त होगा। या तो पकड़ना
चाहेगा, या छोड़ना चाहेगा। या तो गले लगाना चाहेगा, या फिर कभी नहीं देखना चाहेगा। मन ऐसी दो अतियों के बीच डोलता रहेगा। इन
दो अतियों के बीच डोलने वाले मन का ही नाम संकल्पात्मक, संकल्प
से भरा हुआ।
जहां संकल्प है, वहां विकल्प सदा पीछे मौजूद रहता
है। जब आप किसी को मित्र बना रहे हैं, तब आपके मन का एक
हिस्सा उसमें शत्रुता खोजने में लग जाता है, फौरन लग जाता
है! आपने किसी को प्रेम किया और मन का दूसरा हिस्सा तत्काल उसमें घृणा के आधार
खोजने में लग जाता है। आपने किसी को सुंदर कहा और मन का दूसरा हिस्सा तत्काल तलाश
करने लगता है कि कुरूप क्या-क्या है! आपने किसी के प्रति श्रद्धा प्रकट की और मन
का दूसरा हिस्सा फौरन खोजने लगता है कि अश्रद्धा कैसे प्रकट करूं!
मन का दूसरा पलड़ा मौजूद है, भला ऊपर उठ गया हो,
अभी वजन उस पर न हो। लेकिन वह भी वजन की तलाश शुरू कर देगा। और
ज्यादा देर नहीं लगेगी कि नीचे का पलड़ा थक जाएगा, हल्का होना
चाहेगा। ऊपर का उठा पलड़ा भी थक जाएगा और भारी होना चाहेगा। और हम एक पलड़े से दूसरे
पलड़े पर वजन रखते हुए जिंदगी गुजार देंगे। इस पलड़े से वजन उठाएंगे, उस पलड़े पर रख देंगे। उस पलड़े से वजन उठाएंगे, इस
पलड़े पर रख देंगे। पूरी जिंदगी, मन के एक अति से दूसरी अति
पर बदलने में बीत जाती है।
कृष्ण कहते हैं, उसे कहता हूं मैं योगी, जो समत्वबुद्धि को उपलब्ध हो। जो पलड़ों पर वजन रखना बंद कर दे। इस बचकानी,
नासमझ हरकत को बंद कर दे और कहे कि मैं इस किस जाल में पड़ गया! जो
तराजू के पलड़ों से अपनी आइडेंटिटी, अपना तादात्म्य तोड़ दे।
और तराजू जहां ठहर जाता है, जहां समतुल हो जाता है, वहां आ जाए, मध्य में। दो अतियों के बीच, ठीक मध्य को जो खोज ले; न मित्र, न शत्रु; जो बीच में रुक जाए।
यह बड़ा अदभुत क्षण है, बीच में रुक जाने का।
और एक बार इस बीच में रुकने का जिसे आनंद आ गया--और इस बीच में रुकने के अतिरिक्त
कहीं कोई आनंद नहीं है। क्योंकि जब भी एक पलड़े पर भार होता है, तभी चित्त में तनाव हो जाता है।
जब भी आप कुछ चुनते हैं, चित्त में उत्तेजना
शुरू हो जाती है। सच तो यह है कि उत्तेजना के बिना चुन ही नहीं सकते। उत्तेजना से
ही चुनते हैं; उद्विग्न हो जाते हैं। और जब भी उत्तेजना से
चुनते हैं, तभी मन के लिए पीड़ा के लिए निमंत्रण दे दिया,
दुख को बुलावा दे दिया। फिर थोड़ी देर में ऊब होगी, फिर थोड़ी देर में परेशान होंगे। फिर इससे विपरीत चुनेंगे, यह सोचकर कि जब इसमें कुछ सुख न मिला, तो शायद विपरीत
में मिल जाए।
मन का गणित ऐसा है। वह कहता है, इसमें सुख नहीं मिला,
तो इससे उलटे को चुन लो। शायद उसमें सुख मिल जाए! उसमें सुख नहीं
मिला, तो फिर उलटे को चुन लो। और मन निरंतर, जिसको हम अनुभव कर लेते हैं, उससे ऊब जाता है;
और उससे विपरीत, जिसका हम अनुभव नहीं करते,
उसके लिए लालायित बना रहता है।
और स्मृति हमारी बड़ी कमजोर है। ऐसा नहीं है कि जिसे हम आज ऊबकर छोड़
रहे हैं, उसे हम फिर पुनः कल न चुन लेंगे। स्मृति हमारी बड़ी
कमजोर है। कल फिर हम उसे चुन सकते हैं। जिसे हमने आज ऊबकर छोड़ दिया है और विपरीत
को पकड़ लिया है, कल हम विपरीत से भी ऊब जाएंगे और फिर इसे
पकड़ लेंगे। स्मृति बड़ी कमजोर है।
असल में अतियों से भरे हुए चित्त में स्मृति होती ही नहीं। अतियों से
भरे चित्त में तो विपरीत का आकर्षण ही होता है। कभी लौटकर जिंदगी को देखें। आपकी
जिंदगी में आप उन्हीं-उन्हीं चीजों को बार-बार चुनते हुए मालूम पड़ेंगे।
आज सांझ किया है क्रोध; मन पछताया। क्रोध
करते ही मन पछताना शुरू कर देता है। वह विपरीत है। वह दूसरी अति है। इधर क्रोध
जारी हुआ, उधर मन ने पछताने की तैयारी शुरू की। क्रोध हुआ,
आग जली, उत्तेजित हुए, पीड़ित-परेशान
हुए। फिर मन दुखी हुआ, रोया, पराजित
हुआ, पछताया। पछताने में दूसरी अति छू ली। लेकिन ध्यान रखना,
पछताकर फिर आप क्रोध करने की तैयारी में पड़ेंगे। कल सांझ तक आप फिर
तैयारी कर लेंगे क्रोध की। वह कल जो पछताए थे, उसकी स्मृति
नहीं रह जाएगी।
कितनी बार पछताए हैं! पश्चात्ताप कोई नई घटना नहीं है। वही किया है
रोज-रोज; फिर पछताए हैं। फिर वही करेंगे, फिर पछताएंगे। और कभी यह खयाल न आएगा कि इतनी बार पश्चात्ताप किया,
कोई परिणाम तो होता नहीं।
तो अगर आप इतना भी कर लें कि अब क्रोध तो करूंगा, लेकिन पश्चात्ताप नहीं करूंगा, तो भी आप बड़ी मुश्किल
में पड़ जाएंगे। क्योंकि अगर आपने पश्चात्ताप नहीं किया, तो
फिर मन फिर से क्रोध की तैयारी नहीं कर पाएगा। यह आपको उलटा लगेगा। लेकिन जीवन की
धारा ऐसी है।
आपसे मैं कहता हूं, क्रोध मत छोड़ें, पश्चात्ताप ही छोड़ दें सिर्फ। फिर आप क्रोध नहीं कर पाएंगे, क्योंकि पश्चात्ताप पुनः क्रोध की तैयारी है। क्रोध छोड़ दें, तो पश्चात्ताप नहीं कर पाएंगे, क्योंकि पश्चात्ताप
की कोई जरूरत न रह जाएगी। पश्चात्ताप छोड़ दें, तो क्रोध नहीं
कर पाएंगे, क्योंकि पश्चात्ताप के बिना क्रोध को भूलना असंभव
है। फिर क्रोध के पलड़े पर ही बैठे रह जाएंगे; फिर दूसरे पलड़े
पर जाना तराजू के बहुत मुश्किल है। और मन एक ही पलड़े पर बैठा नहीं रह सकता;
बहुत घबड़ा जाएगा, बहुत परेशान हो जाएगा। और
अगर आपने इतना ही तय कर लिया कि मैं पछताऊंगा नहीं, तो मन के
लिए एक ही उपाय है कि वह मध्य में चला जाए, जहां कोई पलड़ा
नहीं है।
लेकिन मन धोखा देता है। मन कहता है, क्रोध किया है,
पछताओ। और मन यह भी समझाता है, और न मालूम
कितने लोग समझाते रहते हैं--साधु हैं, संन्यासी हैं--सारे
मुल्क में समझाते रहते हैं, बिलकुल अवैज्ञानिक बात। वे कहते
हैं, क्रोध किया है, तो पश्चात्ताप
करो। पश्चात्ताप से, वे कहेंगे कि तुम्हारा क्रोध मिट जाएगा।
कभी किसी का नहीं मिटा। वे कहते हैं, क्रोध किया, तो पश्चात्ताप करो; पश्चात्ताप से क्रोध मिट जाएगा।
क्रोध नहीं मिटेगा, सिर्फ क्रोध को पुनः करने की सामर्थ्य
पैदा हो जाएगी। करके देखें और आप पाएंगे कि पुनः आप समर्थ हो गए।
क्रोध से जो थोड़ा-सा दंश पैदा हुआ था, पीड़ा आई थी, वह फिर मिट गई। क्रोध से जो अहंकार को थोड़ी-सी चोट लगी थी कि मैं कैसा
बुरा आदमी हूं, वह फिर मिट गई। पश्चात्ताप से फिर लगा कि मैं
तो अच्छा आदमी हूं। पश्चात्ताप करके आप पुनः उसी स्थिति में आ गए, जैसा क्रोध करने के पहले थे। आपने स्टेटस को, पुनः-पुनः
पुरानी स्थिति में अपने को स्थापित कर लिया। अब आप फिर क्रोध कर सकते हैं। अब आप
बुरे आदमी नहीं हैं। अब आप क्रोध कर सकते हैं।
द्वंद्व! और जो मैंने क्रोध के लिए कहा, वही मन की सभी
वृत्तियों के लिए लागू है। सभी वृत्तियों के लिए लागू है। कृष्ण कहते हैं, बीच में है योग। ये दोनों ही अयोग हैं--क्रोध भी, पश्चात्ताप
भी; प्रेम भी, घृणा भी। बीच में है योग;
वहीं है, जहां संतुलन है।
क्या करें? संतुलन में कैसे ठहर जाएं? कहां
रुकें?
जब भी एक पलड़े से दूसरे पलड़े पर जाने की तैयारी हो रही हो, तब दूसरे पलड़े पर न जाएं। जल्दी न करें। दूसरे पलड़े पर न जाएं। अगर क्रोध
है, तो क्रोध में ही ठहर जाएं; पश्चात्ताप
पर जल्दी न करें जाने की। क्रोध में ही ठहर जाएं।
ठहर न सकेंगे। मन का नियम नहीं है ठहरने का। अगर पश्चात्ताप पर जाने
से आपने रोक लिया, तो भी मन जाएगा। लेकिन जाने का, तीसरा एक ही उपाय है कि वह पलड़े के बाहर चला जाए।
इसलिए जो आदमी क्रोध कर सके, वह क्रोध में ही ठहर
जाए। बुरा है क्रोध बहुत। ठहर नहीं सकेंगे, हटना पड़ेगा। रुक
न सकेंगे, उतरना ही पड़ेगा। लेकिन जल्दी न करें दूसरी अति पर
जाने की। तो फिर एक ही विकल्प रह जाएगा अपने आप, आपको मध्य
में जाने के अलावा कहीं जाने की गति न रह जाएगी।
जो भी चित्त का रोग है, उसी रोग में ठहर
जाएं। भागें मत; जल्दी न करें। विपरीत रोग को न पकड़ें;
वहीं ठहर जाएं। मन के ठहरने का नियम नहीं है; वह
तो जाएगा। आप उसको द्वंद्व में भर न जाने दें, तो वह मध्य
में चला जाएगा। इसे प्रयोग करें और आप हैरान हो जाएंगे।
लेकिन जैसे ही क्रोध हुआ कि मन दूसरा कदम उठाकर पश्चात्ताप के पलड़े
में रखना शुरू कर देता है। आदमी का आधा हिस्सा क्रोध करता है, आधा हिस्सा पश्चात्ताप की तैयारी करने लगता है। क्रोध करते हुए आदमी को
देखें। उसके चेहरे पर खयाल रखें, तो आप फौरन उसके चेहरे पर
धूप-छाया पाएंगे। वह क्रोध भी कर रहा है, सकुचा भी रहा है;
तैयारी भी कर रहा है कि पश्चात्ताप कर ले। अभी हाथ मारने को उठाया
था; थोड़ी देर में हाथ जोड़कर माफी मांग लेगा। निपटा दिया! वह
मन के द्वंद्व में पूरा एक कोने से दूसरे कोने में चला गया। इस मन की
द्वंद्वात्मकता को, डायलेक्टिक्स को समझ लेना जरूरी है।
माक्र्स ने तो कहा है कि समाज डायलेक्टिकल है, द्वंद्वात्मक है। समाज द्वंद्व से जीता है। लेकिन ऐसा दिन तो कभी आ सकता
है, जब समाज द्वंद्व से न जीए। माक्र्स के खुद के खयाल से भी
अगर कभी साम्यवाद दुनिया में आ जाए, तो कोई द्वंद्व नहीं रह
जाएगा। फिर नान-डुअलिस्टिक हो जाएगा समाज। नान-डायलेक्टिकल हो जाएगा; द्वंद्व नहीं होगा। लेकिन मन कभी भी, किसी स्थिति
में भी गैर-द्वंद्वात्मक नहीं हो सकता। द्वंद्व रहेगा। हां, मन
ही न रह जाए--उसके सूत्र कृष्ण कह रहे हैं--वह बात दूसरी है। मन रहेगा, तो द्वंद्व रहेगा। मन ही न रह जाए, तो द्वंद्वहीनता
आ जाएगी।
इसलिए कृष्ण के सूत्र को अगर कोई ठीक से समझे, तो माक्र्स का साम्यवाद दुनिया में तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि दुनिया में बड़े पैमाने पर ऐसे लोग न हों, जिनके
पास मन न रह जाए। नहीं तो द्वंद्व जारी रहेगा। द्वंद्व बच नहीं सकता।
समाज में जो द्वंद्व दिखाई पड़ते हैं, वे व्यक्ति के ही मन
के द्वंद्वों का विस्तार है। जब तक भीतर मन द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है, तब तक हम कोई ऐसा समाज निर्मित नहीं
कर सकते, जिसमें द्वंद्व समाप्त हो जाए। हां, द्वंद्व बदल जाएगा। अमीर-गरीब का न रहेगा, तो
सत्ताधारी कमीसार और गैर-सत्ताधारी का हो जाएगा। पद वाले का और गैर-पद वाले का हो
जाएगा। धन का न रहेगा, सौंदर्य का हो जाएगा, बुद्धि का हो जाएगा।
और बड़े मजे की बात है! पुराने जमाने में लोग कहते थे कि धन तो भाग्य
से मिलता है। कल अगर समाजवाद दुनिया में आ जाए, तो कोई सुंदर होगा,
कोई असुंदर होगा। किसी के सुंदर होने से उतनी हीर् ईष्या जगेगी,
जितनी किसी के धनी होने से जगती रही है। फिर साम्यवाद क्या कहेगा कि
सुंदर होना कैसे हो जाता है? कहेगा, भाग्य
से हो जाता है। कहेगा, प्रकृति से हो जाता है।
फिर एक आदमी बुद्धिमान होगा और एक आदमी बुद्धिहीन होगा। और बुद्धिहीन
सत्ता में तो नहीं पहुंच पाएंगे; बुद्धिमान सत्ता में पहुंच
जाएंगे। फिर समाजवाद क्या कहेगा? कि ये बुद्धिमान सत्ता में पहुंच
गए। आखिर बुद्धिमान और बुद्धिहीन को समान हक होना चाहिए। पर यह बुद्धिमान सत्ता
में पहुंच जाता है। तब एक ही उत्तर रह जाएगा कि बुद्धिमान के लिए हम कैसे बंटवारा
करें! वह शायद भाग्य से ही है। वह बुद्धिमान है पैदाइश से, और
तुम बुद्धिमान नहीं हो पैदाइश से।
द्वंद्व बदल जाएंगे। द्वंद्व नहीं बदलेगा; द्वंद्व जारी रहेगा। क्योंकि मन द्वंद्वात्मक है। लेकिन माक्र्स को खयाल
भी नहीं था मन का, उसे तो खयाल था समाज की व्यवस्था का।
बुद्ध या कृष्ण या महावीर या क्राइस्ट को हम पूछें, तो वे कहेंगे, समाज की व्यवस्था तो मन का फैलाव है।
हां, उस दिन समाज समतुल हो सकता है, जिस
दिन व्यक्ति योगारूढ़ हो जाएं, बड़े पैमाने पर। इतने बड़े
पैमाने पर व्यक्ति योगारूढ़ हो जाएं कि जो योगारूढ़ नहीं हैं, वे
अर्थहीन हो जाएं; उनका होना, न होना
व्यर्थ हो जाए। पर अभी तो एकाध आदमी कभी करोड़ में योगारूढ़ हो जाए, तो बहुत है। इसलिए जो सिर्फ सपने देखते हैं, वे कह
सकते हैं कि कभी ऐसा हो जाएगा कि सब लोग योगारूढ़ हो जाएं। यह दिखाई नहीं पड़ता। यह
संभावना बड़ी असंभव मालूम पड़ती है।
यह आशा बड़ी निराशा से भरी मालूम पड़ती है कि समाज किसी दिन समतुल हो
जाए। क्योंकि अभी तो हम व्यक्ति को भी समबुद्धि का नहीं बना पाते हैं। समाज तो बड़ी
घटना है। और समाज तो बदलती हुई घटना है। एक व्यक्ति भी हम निर्मित नहीं कर पाते
हैं, जो कि सम हो जाए। इसलिए साम्य कभी समाज में हो जाए,
यह असंभव मालूम पड़ता है। जब तक व्यक्ति का चित्त पूरी समता को
उपलब्ध न हो--और एक व्यक्ति के चित्त के समता को उपलब्ध होने से कुछ भी नहीं होता।
क्योंकि कुछ कृष्ण और महावीर और कुछ बुद्ध सदा समता को उपलब्ध होते रहे हैं। लेकिन
इसके अतिरिक्त कोई भी मार्ग नहीं है।
मन दुख लाएगा ही, क्योंकि मन द्वंद्व लाएगा। जहां
होगा द्वंद्व, वहां होगा संघर्ष, वहां
होगी कलह, वहां होगा द्वेष, वहां होगी
उत्तेजना, वहां होगा तनाव; वहां पीड़ा
सघन होगी, वहां संताप घना होगा, वहां
जीवन नर्क होगा।
मन नर्क का निर्माता है। मन के रहते कोई स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर
सकता। क्योंकि मन ही नर्क है। लेकिन अगर कोई सम हो जाए...।
तो कभी छोटे-छोटे प्रयोग करके देखें सम होने के। बहुत छोटे-छोटे
प्रयोग करके देखें; उनसे ही रास्ता धीरे-धीरे साफ हो सकता है।
कभी स्नान करके खड़े हैं। खयाल करें, तो आप हैरान होंगे कि
या तो आपका वजन बाएं पैर पर है या दाएं पैर पर है। थोड़ा-सा खयाल करें आंख बंद करके,
तो आप पाएंगे, वजन बाएं पैर पर है या दाएं पैर
पर है। अगर पता चले कि आपके शरीर का वजन बाएं पैर पर है, तो
थोड़ी देर रुके हुए देखते रहें। आप थोड़ी देर में पाएंगे कि वजन दाएं पैर पर हट गया।
अगर दाएं पैर पर वजन मालूम पड़े, तो वैसे ही खड़े रहें और पीछे
अंदर देखते रहें कि वजन दाएं पैर पर है। क्षण में ही आप पाएंगे कि वजन बाएं पैर पर
हट गया। मन इतने जोर से बदल रहा है भीतर। वह एक पैर पर भी एक क्षण खड़ा नहीं रहता।
बाएं से दाएं पर चला जाता है; दाएं से बाएं पर चला जाता है।
अब अगर इस छोटे-से अनुभव में आप एक प्रयोग करें, उस स्थिति में अपने को ऐसा समतुल करके खड़ा करें कि न वजन बाएं पैर पर हो,
न दाएं पैर पर; दोनों पैरों के बीच में आ जाए।
यह बहुत छोटा-सा प्रयोग आपसे कह रहा हूं। वजन दोनों के बीच आ जाए।
एक क्षण को भी उसकी झलक आपको मिलेगी, तो आप हैरान हो
जाएंगे। और मिलेगी झलक। क्योंकि जब बाएं पर जा सकता है और दाएं पर जा सकता है,
तो बीच में क्यों नहीं रह सकता! कोई कारण नहीं है, कोई बाधा नहीं है, सिर्फ पुरानी आदत के अतिरिक्त। एक
क्षण को आप ऐसे अपने को समतुल करें कि बीच में रह गए, न बाएं
पर वजन है, न दाएं पर। और जिस क्षण आपको पता चलेगा कि बीच
में है, उसी क्षण आपको लगेगा कि शरीर नहीं है। एकदम लगेगा,
बाडीलेसनेस हो गई है; शरीर में कोई भार न रहा।
शरीर जैसे निर्भार हो गया। ऐसा लगेगा, जैसे आकाश में चाहें
तो उड़ सकते हैं! उड़ नहीं सकेंगे; लेकिन लगेगा ऐसा कि चाहें
तो उड़ सकते हैं। ग्रेविटेशन नहीं मालूम होता। ग्रेविटेशन तो है, जमीन तो अभी भी खींच रही है। लेकिन जमीन का जो भार है, वह असली भार नहीं है। असली भार तो मन का है, जो
निरंतर द्वंद्व, हर छोटी चीज में द्वंद्व को खड़ा करता है।
इस छोटे-से प्रयोग को भी अगर रोज पंद्रह मिनट कर पाएं, तो तीन महीने में आप उस स्थिति में आ जाएंगे, जब
दोनों पैर के बीच में आपको खड़े होने का अनुभव शुरू हो जाएगा। तो इस छोटे-से सूत्र
से आपको मन को समत्वबुद्धि में ले जाने का आधार मिल जाएगा। तब जब भी मन और कहीं भी
बायां-दायां चुनना चाहे, तब आप वहां भी बीच में ठहर पाएंगे।
लेकिन बीच में ठहरने का अनुभव कहीं से तो शुरू करना पड़े। कठिन बात मैंने नहीं कही
है, बहुत सरल कही है। क्योंकि और चीजें बहुत कठिन हैं।
और चीजें बहुत कठिन हैं। मित्र न बनाएं, शत्रु न बनाएं--बड़ा
कठिन मालूम पड़ेगा। मन ने किसी को देखा नहीं कि बनाना शुरू कर देता है। आपको थोड़ी
देर बाद पता चलता है; मन उसके पहले बना चुका होता है। अजनबी
आदमी भी आपके कमरे में प्रवेश करता है, आपका मन चौंककर
निर्णय ले चुका होता है। निर्णय आपको भी बाद में जाहिर होते हैं। मन कह देता है,
पसंद नहीं है यह आदमी। अभी मिले भी नहीं, बात
भी नहीं हुई, चीत भी नहीं हुई; अभी
पहचाना भी नहीं, लेकिन मन ने कह दिया कि पसंद नहीं है।
पुराने अनुभव होंगे।
मन के पास अपने अनुभव हैं। कभी इस शकल के आदमी ने कुछ गाली दे दी
होगी। कि इस आदमी के शरीर से जैसी गंध आ रही है, वैसे आदमी ने कभी
अपमान कर दिया होगा। कि इस आदमी की आंखों में जैसा रंग है, वैसी
आंखों ने कभी क्रोध किया होगा। कोई एसोसिएशन इस आदमी से तालमेल खाता होगा। मन ने
कह दिया कि सावधान! यह आदमी तुर्की टोपी लगाए हुए है, मुसलमान
है। यह आदमी तिलक लगाए हुए है, हिंदू है। जरा सावधान! यही
आदमी मस्जिद में आग लगा गया था; कि यही आदमी मंदिर को तोड़
गया था। सावधान!
यह बहुत अचेतन है, यह आपके होश में नहीं घटता है।
होश में घटने लगे, तब तो घट ही न पाए। यह आपकी बेहोशी में
घटता है। आपके भीतर उन अंधेरे कोनों में घट जाता है यह निर्णय, जिनके प्रति आप भी सचेतन नहीं हैं। आप तो थोड़ी देर बाद सचेतन होंगे;
देर लगेगी। इस आदमी से बातचीत होगी। और आपके मन ने जो निर्णय ले
लिया, उस निर्णय के अनुसार मन इस आदमी में वे-वे बातें खोज
लेगा, जो आपने निर्णय लिया है।
आमतौर से आप सोचते हैं कि आप सोच-समझकर निर्णय लेते हैं। लेकिन जो मन
को समझते हैं, वे कहते हैं, निर्णय आप पहले
लेते हैं, सोच-समझ सब पीछे का बहाना है।
एक आदमी के प्रेम में आप पड़ जाते हैं। आपसे कोई पूछे, क्यों पड़ गए? तो आप कहते हैं, उसकी
शकल बहुत सुंदर है, कि उसकी वाणी बहुत मधुर है। लेकिन
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, प्रेम में आप पहले पड़ जाते हैं,
ये तो सिर्फ बाद के रेशनलाइजेशंस हैं।
अगर कोई पूछे कि क्यों प्रेम में पड़ गए? तो आप इतने समझदार
नहीं हैं कि आप यह कह सकें कि मुझे पता नहीं क्यों प्रेम में पड़ गया! बस, पड़ गया हूं! समझदारी दिखाने के लिए आप कहेंगे कि इसकी शकल देखते हैं,
कितनी सुंदर है! लेकिन इसी की शकल को देखकर कोई घृणा में पड़ जाता
है। इसी की शकल को देखकर कोई दुश्मन हो जाता है। कहते हैं, देखते
हैं, इसकी आवाज कितनी मधुर है! इसी की आवाज सुनकर किसी को
रातभर नींद नहीं आती। और आपको भी कितने दिन आएगी, कहना पक्का
नहीं है। महीने, दो महीने, तीन महीने,
चार महीने बाद हो सकता है, डायवोर्स की
दरख्वास्त लेकर खड़े हों। यही आवाज बहुत कर्णकटु हो जाए, जो
बहुत मधुर मालूम पड़ी थी।
क्या हो गया? आवाज वही है, आप वही हैं,
चेहरा वही है। इससे बड़ी सुगंध आती थी, अब
दुर्गंध आने लगी। नाक-नक्श वही है, लेकिन पहले बिलकुल
संगमरमर मालूम होता था, अब बिलकुल मिट्टी मालूम होने लगा। हो
क्या गया?
कुछ हो नहीं गया। मन भीतर पहले निर्णय ले लेता है; पीछे आपकी बुद्धि उसका अनुसरण करती रहती है।
फ्रायड का कहना है--और फ्रायड मन को जितना जानता है, कम लोग जानते हैं--कहना है कि मनुष्य अपने सब निर्णय अंधेरे में और अचेतन
में लेता है। और उसकी सब बुद्धिमत्ता झूठी और बेईमानी है। सब बातें वह जो कहता है
कि मैंने बड़ी सोच-समझकर की हैं, कोई सोच-समझकर नहीं करता।
बातें पहले कर लेता है, पीछे सोच-समझ का जाल खड़ा करता है।
हम ऐसे मकान बनाने वाले हैं--मकान बनाने के लिए स्ट्रक्चर खड़ा करना
पड़ता है न बाहर! चारों तरफ बांस-लकड़ियां बांधनी पड़ती हैं, फिर मकान बनता है। लेकिन मन का मकान उलटा बनता है। पहले मकान बन जाता है,
फिर हम बाहर लकड़ियां वगैरह बांध देते हैं।
पहले मन निर्णय ले लेता है, फिर पीछे हम बुद्धि
के सब बांस इकट्ठे करके खड़ा करते हैं, ताकि कोई यह न कह सके
कि हम निर्बुद्धि हैं। किसी की छोड़ दें, हम न कह सकें अपने
को ही कि हम निर्बुद्धि हैं। हम बुद्धिमान हैं। हमने जो भी निर्णय लिया है,
बहुत सोच-समझकर लिया है।
कोई निर्णय आप सोच-समझकर नहीं ले रहे हैं। क्योंकि जो आदमी सोच-समझकर
निर्णय लेगा, वह एक ही निर्णय लेता है, वह जो
कृष्ण ने कहा है, वह समत्व का निर्णय लेता है। वह कोई दूसरा
निर्णय कभी लेता ही नहीं।
द्वंद्व के सब निर्णय नासमझी के निर्णय हैं। निर्द्वंद्व होने का
निर्णय ही समझदारी का निर्णय है। वे जो भी समझदार हैं, उन्होंने एक ही निर्णय लिया है कि द्वंद्व के बाहर हम खड़े होते हैं। और
जिसने कहा कि मैं द्वंद्व के बाहर खड़ा होता हूं, वह मन के
बाहर खड़ा हो जाता है। और जो मन के बाहर खड़ा हो गया, उसकी
शांति की कोई सीमा नहीं; क्योंकि अब उत्तेजना का कोई उपाय न
रहा।
उत्तेजना आती थी द्वंद्व से, चुनाव से, च्वाइस से। अब कोई उत्तेजना का कारण नहीं। अब कोई टेंशन, अब कोई तनाव पैदा करने वाले बीज न रहे। अब वह बाहर है। अब वह शांत है। अब
वह मौन है। अब वह जीवन को देख सकता है, ठीक जैसा जीवन है। अब
वह अपने भीतर झांक सकता है ठीक उन गहराइयों तक, जहां तक
गहराइयां हैं। और ऐसा व्यक्ति जो अपने भीतर पूर्ण गहराइयों तक झांक पाता
है--योगारूढ़, योग को आरूढ़, योग को
उपलब्ध।
योग का प्रारंभ है समत्व, लेकिन जैसे ही समत्व
फलित हुआ कि आदमी योगारूढ़ हो जाता है। योगारूढ़ का अर्थ है, अपने
में ठहर गया।
हम योग अरूढ़ हैं। हम च्युत हैं। हम कहीं-कहीं डोलते फिरते हैं। वह जगह
भर छोड़ देते हैं, जहां हमें ठहरना चाहिए। कभी बाएं पर, कभी दाएं पर, मध्य में कभी भी नहीं। मध्य में ही
आत्मा है। बाएं भी शरीर है, दाएं भी शरीर है। जब बाएं पैर पर
जोर पड़ता है, तब शरीर के एक हिस्से पर जोर पड़ता है। और जब
दाएं पैर पर जोर पड़ता है, तब भी शरीर के एक हिस्से पर जोर
पड़ता है। अगर आप दोनों पैर के बीच में ठहर पाए, तो आप शरीर
के बाहर ठहर गए; आप आत्मा में ठहर गए। तब किसी शरीर के
हिस्से पर जोर नहीं पड़ता है।
और ऐसा ही सब चीजों के लिए है। घृणा भी मन का हिस्सा है, प्रेम भी मन का हिस्सा है। अगर दोनों के बाहर ठहर गए, तो आत्मा में ठहर गए। क्रोध भी मन है, और क्षमा भी
मन है। दोनों के बाहर ठहर गए, तो मन के बाहर ठहर गए।
इन दोनों के बाहर ठहरे हुए व्यक्ति को कृष्ण कहते हैं, योगारूढ़, योग में ठहरा हुआ, योग
में थिर।
ऐसी थिरता जीवन के समस्त राज को खोल जाती है। ऐसी थिरता जीवन के सब
द्वार खोल देती है। हम पहली बार अस्तित्व की गहराइयों से संबंधित होते हैं। पहली
बार हम उतरते हैं वहां, जहां जीवन का मंदिर है, या जहां
जीवन का देवता निवास करता है। पहली बार हम परमात्मा में छलांग लगाते हैं।
योग के पंख मिल जाएं जिसे, वही परमात्मा में
छलांग लगा पाता है। लेकिन योग के पंख उसे ही मिलते हैं, जिसे
समत्व का हृदय मिल जाए। नहीं तो योग के पंख नहीं मिलते। समत्व से शुरू करना जरूरी
है।
ऐसा व्यक्ति संकल्पों से क्षीण हो जाता है, कृष्ण कहते हैं।
संकल्प की जरूरत ही नहीं रह जाती। संकल्प की जरूरत ही तब पड़ती है, जब मुझे कुछ चुनाव करना हो। कहता हूं, यह चाहता हूं,
तो फिर पाने के लिए मन को जुटाना पड़ता है। कहता हूं, धन पाना है, तो फिर धन की यात्रा पर मन को दौड़ाना
पड़ता है। चाहता हूं कि हीरे की खदानें खोजनी हैं, तो फिर
खदानों की यात्रा पर शक्ति को नियोजित करना पड़ता है। नियोजित शक्ति का नाम संकल्प
है। इच्छा सिर्फ प्रारंभ है। अकेली इच्छा से कुछ भी नहीं होता। फिर सारी ऊर्जा
जीवन की उस दिशा में बहनी चाहिए।
मैं हाथ में तीर लिए खड़ा हूं, सामने वृक्ष पर पक्षी
बैठा है। अभी तीर चलेगा नहीं, अभी पक्षी मरेगा नहीं। मन में
पहले इच्छा पैदा होनी चाहिए, इस पक्षी का भोजन कर लूं,
या इस पक्षी को कैद करके अपने घर में इसकी आवाज को बंद कर लूं,
कि इस पक्षी के सुंदर पंखों को अपने पिंजड़े में, कारागृह में डाल दूं। इच्छा पैदा होनी चाहिए, इस
पक्षी की मालकियत की। पर अकेली इच्छा से कुछ भी न होगा। इच्छा आपमें रही आएगी,
पक्षी बैठा हुआ गीत गाता रहेगा वृक्ष पर। इच्छा आपके भीतर जाल बुनती
रहेगी, पक्षी वृक्ष पर बैठा रहेगा।
नहीं; इच्छा को संकल्प बनना चाहिए। संकल्प का मतलब है,
सारी ऊर्जा नियोजित होनी चाहिए। हाथ तीर पर पहुंच जाना चाहिए। तीर
पक्षी पर लग जाना चाहिए। सारी एकाग्रता, सारी मन की शक्ति,
सारे शरीर की शक्ति तीर में समाहित हो जानी चाहिए। जब तीर चढ़ गया
प्रत्यंचा पर, पक्षी पर ध्यान आ गया, तो
इच्छा न रही, संकल्प हो गया। हां, अभी
भी लौट सकते हैं। अभी भी संकल्प छूट नहीं गया है। लेकिन अगर तीर छूट गया हाथ से,
तो फिर लौट नहीं सकते। संकल्प अगर चल पड़ा यात्रा पर, प्रत्यंचा के बाहर हो गया, तो फिर लौट नहीं सकते।
तो संकल्प की दो अवस्थाएं हैं। एक अवस्था, जहां से लौट सकते हैं; और एक अवस्था, जहां से लौट नहीं सकते। हमारे सौ में से निन्यानबे संकल्प ऐसी ही अवस्था
में होते हैं, जहां से लौट सकते हैं। जिन-जिन संकल्पों से
लौट सकते हैं, लौट जाएं। संकल्प से लौटेंगे, तो इच्छा रह जाएगी। हमारी सौ प्रतिशत इच्छाएं ऐसी हैं, जिनसे हम लौट सकते हैं। निन्यानबे प्रतिशत संकल्प ऐसे हैं, जिनसे हम लौट सकते हैं। केवल उन्हीं संकल्पों से लौटना मुश्किल है,
जिनके तीर हमारी प्रत्यंचा के बाहर हो गए।
मैं उस क्रोध से भी वापस लौट सकता हूं, जो अभी मेरी वाणी
नहीं बना। मैं उस क्रोध से भी वापस लौट सकता हूं, जो अभी
मुखर नहीं हुआ। लेकिन जो क्रोध गाली बन गया और मेरे होठों से बाहर हो गया, उससे वापस लौटने का कोई उपाय न रहा; तीर छूट गया है।
लेकिन जिन संकल्पों के तीर छूट गए हैं, तीर छूट गया, अब पक्षी को लगेगा और पक्षी गिरेगा मरकर, तो भी मैं
इतना तो कर ही सकता हूं, संकल्प को व्यर्थ कर सकता हूं। लौट
तो नहीं सकता, लेकिन व्यर्थ कर सकता हूं। व्यर्थ करने का
मतलब यह है कि पक्षी पर मालकियत न करूं। जिस इच्छा को लेकर संकल्प निर्मित हुआ था,
उस इच्छा को पूरा न करूं। अभी भी तीर खींचा जा सकता है पक्षी से।
अभी भी पक्षी के घाव ठीक किए जा सकते हैं। अभी भी पक्षी को पिंजड़े में न डाला जाए,
इसका आयोजन किया जा सकता है। अभी भी पक्षी जिंदा हो, तो उसे मुक्त आकाश में छोड़ा जा सकता है।
तो जो संकल्प तीर की तरह निकल गए हों, उन संकल्पों को अनडन
करने के लिए जो भी किया जा सके, वह साधक को करना चाहिए,
उनको व्यर्थ करने के लिए। जो संकल्प अभी प्रत्यंचा पर चढ़े हैं,
प्रत्यंचा ढीली छोड़कर तीरों को वापस तरकस में पहुंचा देना चाहिए। जो
संकल्प इच्छा रह जाएं, उन इच्छाओं के द्वंद्व को समझ लेना
चाहिए कि चुनाव से पैदा हो रहे हैं। और दाएं और बाएं के बीच में खड़ा हो जाना
चाहिए। और कहना चाहिए, मैं चुनूंगा नहीं। मैं एक ही चुनाव
करता हूं कि मैं चुनूंगा नहीं। टु बी च्वाइसलेस इज़ दि ओनली च्वाइस। एक ही चुनाव है
मेरा कि अब मैं चुनाव नहीं करता।
इच्छाओं के बादल थोड़ी देर में ही बिखर जाएंगे और तिरोहित हो जाएंगे।
और अगर आप बाएं और दाएं के बीच में खड़े हो गए, तो समत्व का अनुभव
होगा। और समत्व का अनुभव योगारूढ़ होने का द्वार खोल देता है। वहां कोई संकल्प नहीं
है; वहां कोई विकल्प नहीं है। वहां परिपूर्ण मौन, परिपूर्ण शून्य है। उसी शून्य में परम साक्षात्कार है।
कृष्ण के सभी सूत्र परम साक्षात्कार के विभिन्न द्वारों पर चोट करते
हैं। वे अर्जुन को कहते हैं कि तू समत्वबुद्धि को उपलब्ध हो जा, फिर तू योगारूढ़ हो जाएगा। और फिर योगारूढ़ होकर तेरे सारे संकल्प गिर
जाएंगे, सब विकल्प गिर जाएंगे; तेरे
चित्त की सारी चिंताएं गिर जाएंगी। तू निश्चिंत हो जाएगा। सच तो यह है कि तू
चित्तातीत हो जाएगा। चित्त ही तेरा न रह जाएगा, मन ही तेरा न
रह जाएगा। अगर ऐसा कहें, तो कह सकते हैं कि फिर तू अर्जुन न
रह जाएगा, आत्मा ही रह जाएगा।
और जिस दिन कोई सिर्फ आत्मा रह जाता है, उसी दिन जान पाता है
अस्तित्व के आनंद को, वह जो समाधि है अस्तित्व की, वह जो एक्सटैसी है, वह जो मंगल है, वह जो सौंदर्य है गहन--सत्य, स्वयं में छिपा--उसके
उदघाटन को। परम है संगीत उसका, परम है काव्य उसका।
लेकिन जानने के पहले एक तैयारी से गुजरना जरूरी है। उसी तैयारी का नाम
योग है। उस तैयारी की सिद्धि को पा लेना योगारूढ़ हो जाना है। उस तैयारी की
प्रक्रिया समत्वबुद्धि है।
प्रश्न: भगवान श्री, इस श्लोक में कहे गए शमः अर्थात
सर्वसंकल्पों के अभाव में और निर्विचार अवस्था में क्या कोई भेद है अथवा दोनों एक
ही हैं? कृपया इस पर प्रकाश डालें।
निर्विचार और निःसंकल्प क्या इन दोनों में कोई भेद है या दोनों एक हैं?
जहां तक अंत का संबंध है, दोनों एक हैं। जहां तक
सिद्धि का संबंध है, दोनों एक हैं। जहां तक उपलब्धि का संबंध
है, दोनों एक हैं। जहां पूर्ण होता है निःसंकल्प होना या
निर्विचार होना, वहां एक ही अनुभूति रह जाती है--शून्य की,
निराकार की, परम की। लेकिन जहां तक मार्ग का
संबंध है, दोनों में भेद है। जहां तक मार्ग का संबंध है,
दोनों में भेद है। जहां तक मैथडॉलाजी का, विधि
का संबंध है, वहां दोनों में भेद है।
निर्विचार की प्रक्रिया भिन्न है निःसंकल्प होने की प्रक्रिया से।
निःसंकल्प होने की प्रक्रिया है, समत्वबुद्धि, द्वंद्व के बीच में ठहर जाना। निःसंकल्प होने की, संकल्पातीत
होने की, संकल्पशून्य होने की विधि है--जो मैंने अभी आपसे
कही--समबुद्धि को उपलब्ध हो जाना। निर्विचार होने की प्रक्रिया है, साक्षित्व को उपलब्ध हो जाना।
परिणाम एक होंगे। निर्विचार होने की प्रक्रिया है, साक्षी हो जाना विचार के। कैसा ही विचार हो, उस विचार
के केवल विटनेस हो जाना, देखने वाले हो जाना, दर्शक बन जाना। खेल में होते हुए, खेल के दर्शक हो
जाना। जैसे नाटक को देखते हैं, ऐसा अपने मन को देखने लगना।
विचारों की जो धारा बहती है, उसके किनारे, जैसे रास्ता चल रहा है, लोग चल रहे हैं, उसके किनारे बैठकर रास्ते को देखने लगा कोई। ऐसे किनारे बैठकर, मन के विचारों की धारा को देखने लगना।
विचारों के प्रति जागरूकता विधि है। और जो विचारों के प्रति जागरूक
होगा, वह वहीं पहुंच जाएगा निर्विचार होकर, निराकार में। लेकिन उन दोनों के छलांग के स्थान अलग-अलग हैं। और व्यक्ति
व्यक्ति के टाइप, प्रकार पर निर्भर करता है कि कौन-सा उचित
होगा।
जैसे उदाहरण के लिए, कुछ लोग हैं, जो इच्छाओं जैसी चीज ज्यादा करते ही नहीं, विचार ही
करते हैं। इंटलेक्चुअल्स, बुद्धि की दुनिया में जीने वाले
लोग इच्छाओं के जाल में बहुत नहीं पड़ते। अक्सर गहन बुद्धि में जीने वाला आदमी बहुत
आस्टेरिटी में, तपश्चर्या में जीता है।
आइंस्टीन! अब आइंस्टीन से अगर आप कहो कि चुनाव मत करो, तो वह कहेगा, चुनाव हम करते ही कहां! अगर आइंस्टीन
से आप कहो कि न काली कार चुनो, न नीली कार चुनो; वह कहता है कि हमने कभी खयाल ही नहीं किया कि कौन-सी कार काली है और
कौन-सी नीली है!
आइंस्टीन का जीवन तो एक तपस्वी का जीवन है। भोजन करते वक्त भी उसकी
पत्नी को ही खयाल रखना पड़ता है कि नमक ज्यादा तो नहीं है, शक्कर ज्यादा तो नहीं है, क्योंकि वह तो खा लेगा। वह
जीता है विचार की दुनिया में, वहीं दौड़ता रहता है।
डाक्टर राममनोहर लोहिया एक दफा आइंस्टीन को मिलने गए थे। ग्यारह बजे
का वक्त उनकी पत्नी ने दिया था कि आप ठीक ग्यारह बजे आ जाएं; और जरा-सी भी देर की, तो कठिनाई होगी। तो लोहिया ने
सोचा कि शायद कोई बहुत जरूरी काम होगा ग्यारह के बाद आइंस्टीन को। वे भागे हुए ठीक
ग्यारह बजे पहुंचे, लेकिन सिर्फ एक मिनट की देरी हो गई।
तो उनकी पत्नी ने कहा कि आप तो चूक गए। पर उन्होंने कहा, एक ही मिनट! मुझे दरवाजे पर भी वे दिखाई नहीं पड़े। वे गए कहां? उसकी पत्नी ने कहा कि वे बाथरूम में चले गए। उन्होंने कहा, आप भी क्या बात करती हैं! मैं प्रतीक्षा कर सकता हूं। उसने कहा, लेकिन कोई हिसाब नहीं कि वे कब निकलें। उन्होंने कहा, बाथरूम में कितना नहाते हैं? उसने कहा, नहाने का तो सवाल कहां है! कई दफा तो बिना नहाए निकल आते हैं! तो बाथरूम
में करते क्या हैं? वे वही करते हैं, जो
चौबीस घंटे करते हैं। टब में लेट जाते हैं; सोचना शुरू कर
देते हैं। नहाना तो भूल जाते हैं!
छः घंटे बाद वे निकले। बड़े आनंदित बाहर आए। कोई गणित की पहेली हल हो
गई। डाक्टर लोहिया ने पूछा कि गणित की पहेली आप क्या बाथरूम में हल करते हैं? तो आइंस्टीन ने कहा कि एक्सपैंडिंग यूनिवर्स का जो सिद्धांत मैंने विकसित
किया कि जगत निरंतर फैल रहा है, ठहरा हुआ नहीं है, जैसे कि कोई गुब्बारे में हवा भर रहा हो और गुब्बारा बड़ा होता जाए,
ऐसा जगत बड़ा होता जा रहा है; ठहरा हुआ नहीं
है। जगत रोज बड़ा हो रहा है। आइंस्टीन के सिद्धांत को समर्थन मिल पाया और सही सिद्ध
हुआ। तो आइंस्टीन ने कहा कि यह सिद्धांत मैंने अपने बाथरूम के टब में बैठकर साबुन
के बबूले उठाते वक्त, जब साबुन के बबूले बड़े होते, तब मुझे खयाल आया। यह साबुन के बबूले अपने टब में बनाते हुए और बबूलों से
खेलते वक्त मुझे खयाल आया कि यह जगत एक्सपैंडिंग हो सकता है।
हमारे पास तो जो शब्द है ब्रह्म, उसका मतलब ही होता है,
एक्सपैंशन। इस मुल्क के ऋषि तो सदा से यह कहते रहे हैं कि जगत फैल
रहा है, जगत ठहरा हुआ नहीं है। ब्रह्मांड का अर्थ ही होता है,
जो फैलता चला जाए। जो रुके ही नहीं, फैलता ही
चला जाए। स्वभाव ही जिसका फैलाव है।
पर आइंस्टीन को यह खयाल उसके बाथरूम में मिला। ऐसे लोग इच्छाओं में
नहीं जीते, विचारों में जीते हैं। थोड़ा फर्क है। ऐसे लोग इच्छाओं
में नहीं जीते, विचारों में जीते हैं। इनके लिए, दो इच्छाओं के बीच ठहर जाओ, इस सूत्र का बहुत अर्थ
नहीं होगा। इनके लिए, विचारों के प्रति सजग हो जाओ, इसका ज्यादा अर्थ होगा।
तो जो इंटलेक्चुअल टाइप है, जो बुद्धिवादी टाइप
है, जिसका प्रकार बुद्धि में जीने का है, वासनाओं में जीने का नहीं--बुद्धि भी वासना है, पर
बहुत विभिन्न प्रकार है उसके जीने का--उसके लिए तो निर्विचार की साधना है।
लेकिन अधिकतम लोग विचारों में नहीं जीते; अधिकतम लोग वासनाओं में जीते हैं। कभी कोई आइंस्टीन जीता है विचार में।
अधिक लोग वासनाओं में जीते हैं। अगर आप विचार भी करते हैं, तो
किसी वासना के लिए। और आइंस्टीन जैसे आदमी अगर कभी वासना भी करते हैं, तो किसी विचार के लिए।
इस फर्क को खयाल में ले लें।
अगर आप विचार भी करते हैं, तो किसी वासना के
लिए। आप चाहते हैं, एक बड़ा मकान हो जाए, तो विचार करते हैं कि कैसे हो जाए? क्या धंधा करूं?
कैसे धन कमाऊं? अगर आइंस्टीन को कभी बड़े मकान
का भी विचार आता है, तो वह तभी आता है, जब उसको लगता है कि उसकी प्रयोगशाला छोटी पड़ गई है। अब इसमें विचार ठीक से
नहीं हो पा रहा है। वह सोचता है, कोई बड़ी प्रयोगशाला मिल
जाए। अगर आइंस्टीन जैसा आदमी बड़े मकान की वासना भी करता है, तो
किसी विचार के कारण। और हम अगर कभी बैठकर थोड़ा विचार भी करते हैं, तो किसी वासना के कारण। यह भेद है। जिनकी वासना इंफेटिकली तेज है, उनके लिए कृष्ण जो कह रहे हैं, वह ठीक कह रहे हैं।
अर्जुन विचार वाला आदमी नहीं है, इच्छाओं वाला आदमी है,
योद्धा है। विचार से बहुत लेन-देन नहीं है उसको। और आइंस्टीन जैसा
विचार में खो जाए, तो युद्ध न कर पाएगा। युद्ध का सूत्र ही
है कि विचार मत करना, लड़ना। विचार किया, तो लड़ाई कठिन हो जाएगी; हार सुनिश्चित हो जाएगी।
युद्ध में तो वह आदमी जीतता है, जो विचार नहीं करता, समग्र रूप से लड़ता है। विचार करता ही नहीं।
जापान में योद्धाओं का एक समूह है, समुराई। समुराई
शिक्षक सिखाते हैं कि अगर तुमने एक क्षण भी विचार किया, तो
तुम चूक जाओगे। तलवार चलाओ, विचार मत करो। जब लड़ रहे हो,
तो तलवार चलाओ, विचार मत करो। अगर जरा-सा
विचार किया, तो तलवार उतनी देर के लिए चूक जाएगी; उतनी देर में दुश्मन तो छाती में तलवार डाल देगा।
तो अगर कभी दो समुराई योद्धा उतर जाते हैं तलवार के युद्ध में, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है जीत-हार तय करना। क्योंकि दोनों ही निर्विचार
लड़ते हैं एक अर्थ में, विचार नहीं करते, सीधा लड़ते हैं। और लड़ना इंटयूटिव होता है, क्योंकि
विचार तो होता नहीं कि कहां चोट करूं! जहां से पूरे प्राण कहते हैं चोट करो,
वहीं चोट होती है। चोट होने में और विचार करने में फासला नहीं होता।
चोट ही विचार है।
और बड़ी हैरानी की बात है कि समुराई योद्धाओं का अनुभव है यह कि दूसरा
व्यक्ति, दुश्मन जब हमला करता है, तो वह
कहां हमला करेगा, पूरे प्राण अपने आप वहां तलवार को उठा देते
हैं बचाव के लिए। विचार में तो देर लग जाएगी। विचार में तो थोड़ी देर लग जाएगी।
विचार में टाइम गैप होगा ही।
अगर आप मुझ पर तलवार से हमला कर रहे हैं और मैंने सोचा कि पता नहीं, यह हमला कहां करेंगे--गर्दन पर, कि कमर में, कि छाती में! मैंने इतनी देर विचार किया, तलवार की
गति तेज है, इतनी देर में तलवार गर्दन काट गई होगी। विचार का
मौका नहीं है। यहां तो मुझे बिना विचार के तलवार चलाने की सुविधा है, बस। तलवार वहां पहुंच जानी चाहिए, जहां तलवार पहुंच
रही है दुश्मन की। इसमें विचार की बाधा, इसमें विचार का
व्यवधान नहीं होना चाहिए।
तो अर्जुन तो समुराई है। उसकी तो सारी प्रक्रिया पूरे प्राणों से लड़ने
की है। वासनाएं उसके जीवन में हैं, विचार का बहुत सवाल
नहीं है। इसलिए कृष्ण उससे कह रहे हैं कि तू दो वासनाओं के बीच में सम हो जा। दो
वासनाओं के बीच में सम हो जाए अर्जुन, तो योगारूढ़ हो जाए।
आइंस्टीन को योगारूढ़ होना हो, तो वासनाओं में सम
होने का कोई सवाल नहीं। आइंस्टीन कहेगा, वासनाएं हैं कहां?
होश भी नहीं है उसे वासना का।
एक मित्र के घर एक रात भोजन के लिए गया था। ग्यारह बजे भोजन समाप्त हो
गया। फिर बाहर बरांडे में बैठकर मित्र के साथ गपशप चलती रही। आइंस्टीन अनेक बार
अपनी घड़ी देखता है, फिर वह सिर खुजलाकर फिर बातचीत में लग जाता है। मित्र
बड़ा परेशान है। बारह बज गए, एक बज गए। अब मित्र की हिम्मत भी
नहीं है कहने की कि आइंस्टीन जैसे व्यक्ति को कहे कि अब आप जाइए; अब मैं सोऊं! फिर दो बज गए। और हैरानी इससे और बढ़ जाती है कि आइंस्टीन कई
दफा अपनी घड़ी देखता है। फिर घड़ी देखकर सिर खुजलाकर फिर बैठा रह जाता है। वह मित्र
बड़ा परेशान है कि घड़ी भी देख लेते हैं! उनको पता भी है कि दो बज गए।
फिर आखिर में मित्र ने कहा कि क्या आज सोइएगा नहीं? आइंस्टीन ने कहा, यही तो मैं सोच रहा हूं बार-बार
घड़ी देखकर कि आप जाएंगे कब! उसने कहा कि आप हद कर रहे हैं! यह घर मेरा है।
आइंस्टीन ने कहा, माफ करो; मुझे बहुत
पक्का नहीं रह जाता कि घर किसका है। मैं जाता हूं। मैं बार-बार घड़ी इसीलिए देख रहा
हूं कि अब जाओ! आप जाएंगे कब?
अब जिस आदमी को यह खयाल न रह जाता हो कि कौन-सा घर मेरा है, वह घर बनाने की वासनाओं में नहीं पड़ सकता। वह कोई सवाल नहीं है; वह प्रश्न नहीं है; वह उसके चित्त का हिस्सा नहीं
है।
मोटे दो विभाजन हम कर सकते हैं। एक वे, जो विचार में जीते
हैं, बुद्धि में। एक वे, जो वृत्ति में
जीते हैं, वासना में। उन दोनों के बीच भी एक पतला विभाजन है;
वे, जो भाव में जीते हैं, भावना में। ये तीन मोटे विभाजन हैं। इन तीनों के लिए अलग-अलग प्रक्रियाएं
हैं।
वृत्ति में जो जीता है, वासना में--और अधिकतम
लोग वृत्ति में जीते हैं, सौ में से निन्यानबे लोग; इससे कम नहीं। अधिकतम लोग वृत्ति में जीते हैं। उनके लिए सूत्र है कि वे
दो वृत्तियों, दो वासनाओं के बीच में सम हों।
बहुत थोड़े-से लोग, आधा परसेंट सौ में से, विचार में जीते हैं। उनके लिए सूत्र है कि वे विचार के प्रति सजग हों। और
आधा प्रतिशत लोग, बहुत कम लोग, भावना में
जीते हैं। उनके लिए भी सूत्र है कि वे भाव के प्रति स्मरण से भरें। इन तीनों में
थोड़े-थोड़े फर्क हैं।
विचार से जिसको निर्विचार की तरफ जाना है, उसे अवेयरनेस, विचार के प्रति जागरूकता। भाव से जिसे
निर्भाव में जाना है, उसे भाव के प्रति माइंडफुलनेस, स्मृति, होश। थोड़ा फर्क है। जागरूकता में और स्मृति
में थोड़ा फर्क है। और जिन्हें वृत्तियों से जाना है, उन्हें
समत्व, समबुद्धि, दो के द्वंद्व के बीच
ठहर जाना।
एक दो शब्द बीच के सूत्र के लिए और कह दूं। वे जो भावना में जीते हैं; न तो वासना में जीते, न विचार में जीते, भावना में जीते हैं। जिनके लिए न तो बहुत किसी प्रयोगशाला से अर्थ है,
न किसी गणित की खोज करनी है, न कोई
दर्शनशास्त्र की पहेली हल करनी है। सिद्धांतों से जिन्हें लेना-देना नहीं। न
जिन्हें कोई बड़ा राज्य बनाना है, न कोई बड़े भवन बनाने हैं।
लेकिन जो भाव में जीते हैं, प्रेम में, क्रोध में, जो भाव में जीते हैं।
जैसे कि उमर खय्याम ने अपनी रुबाइयात में कहा है कि वृक्ष हो छायादार, साथ में सुराही हो सुरा की, और प्रिय तुम निकट हो,
काव्य की कोई पुस्तक पास हो, तो मैंने सब जगत
जीत लिया है; फिर कुछ और चाहिए नहीं। गीत को कभी हम काव्य की
पुस्तक से पढ़ लेंगे; सुरा को कभी हम पी लेंगे; और फिर तारों से भरे आकाश के नीचे आलिंगन में निमग्न होकर सो जाएंगे।
छायादार वृक्ष हो, इतना काफी है। किसी बड़े मकान की कोई
आकांक्षा नहीं है।
अब यह उमर खय्याम जिस टाइप की बात कर रहा है, वह भावनाशील। जिंदगी में प्रेम हो, गीत हो, छायादार वृक्ष हो, तो पर्याप्त। न बहुत विचार का
सवाल है, न वह इस विचार में पड़ेगा कि शराब पीना चाहिए कि
नहीं पीना चाहिए; न वह इस वृत्ति और वासना में पड़ेगा कि
वृक्ष के नीचे कहीं कोई प्रेम हो सकता है, महल होना चाहिए।
नहीं; प्रेम है, तो वृक्ष महल हो गया।
और ऐसे व्यक्ति को अगर प्रेम नहीं मिला, तो बड़ा महल भी वीरान
हो जाएगा। यह भाव के तल पर जीने वाला व्यक्ति है। यह भी बहुत कम है। यह भी बहुत कम
है! एक काव्य की पुस्तक पास में हो, उमर खय्याम कहता है,
तो बस काफी है। कभी गीत गा लेंगे उससे निकालकर।
ऐसे व्यक्ति को जो प्रक्रिया है, बुद्ध ने उस
प्रक्रिया को नाम दिया है, राइट माइंडफुलनेस, सम्यक स्मृति। इस बात का होश, इस बात की स्मृति कि
यह प्रेम है, यह घृणा है, यह क्रोध है,
यह राग है। इस बात की पूरी स्मृति, इसका पूरा
एकाग्र बोध। यह क्या है? यह जो मैं कर रहा हूं, यह क्या है?
अगर भाव के प्रति कोई एकाग्र स्मृति को उपलब्ध हो जाए और जान पाए कि
यह प्रेम है, तो वह बहुत चकित हो जाएगा। क्योंकि वह पाएगा कि जैसे
ही वह होश से भरा कि यह प्रेम है, वैसे ही उसे दिखाई पड़ा कि
यही घृणा भी है। ट्रांसपैरेंट हो जाएगा, पारदर्शी हो जाएगा
प्रेम, और उसके पार घृणा खड़ी दिखाई पड़ेगी। जैसे ही उसे दिखाई
पड़ा, यह क्रोध है, अगर उसने गौर से
देखा, तो फौरन पीछे पश्चात्ताप, क्षमा
भी खड़ी हुई दिखाई पड़ जाएगी। ट्रांसपैरेंट हो जाएंगे भाव।
भाव बहुत ट्रांसपैरेंट हैं, बहुत पारदर्शी हैं,
कांच की तरह हैं। वासनाएं पत्थर की तरह हैं, नान-ट्रांसपैरेंट
हैं, उनके आर-पार कुछ नहीं दिखाई पड़ता। वृत्तियां बहुत ठोस
हैं। भाव बहुत तरल, भाव बहुत झीने हैं, उनके आर-पार दिखाई पड़ सकता है। वृत्तियों के आर-पार कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
वृत्तियों के तो, दो वृत्तियों के बीच में आप खड़े हों,
तो द्वार मिलेगा। दो पत्थर हैं वे। लेकिन भाव में अगर आप सजग हो
जाएं, तो भाव में से ही आप को पार दिखाई पड़ने लगेगा। भाव
कांच की तरह झीने हैं, दिखाई पड़ सकता है उनके पार; पारदर्शी हैं।
विचार के प्रति सजगता, भाव के प्रति स्मृति,
वासना के प्रति समत्व। परिणाम एक होगा। ये भेद, तीन तरह के लोग हैं पृथ्वी पर, इसलिए हैं। परिणाम एक
होगा।
निर्विचार हो जाएं, कि निर्भाव, कि निःसंकल्प। जो बचेगा, वह निराकार है। आप एक ही
गंगा में कूदेंगे, लेकिन घाट अलग-अलग होंगे। घाट आपका अपना
होगा। जब तक घाट पर खड़े हैं, तब तक फर्क होगा। गंगा में कूद
गए, फिर कोई फर्क नहीं होगा। फिर आप क्या फर्क करेंगे कि मैं
अलग घाट से कूदा था, इसलिए मेरी गंगा अलग है! कि तुम अलग घाट
से कूदे थे, इसलिए तुम्हारी गंगा अलग है! घाट तो उसी क्षण
छूट गया, जब आप गंगा में कूदे। लेकिन घाट के फर्क हैं। अगर
हम ठीक से समझें, तो सारी दुनिया के धर्म, घाट के फर्क हैं।
जैन बहुत ठीक शब्द उपयोग करते हैं अपने उपदेष्टाओं के लिए, जिन्होंने ज्ञान दिया। उनको वे कहते हैं, तीर्थंकर।
तीर्थंकर का अर्थ होता है, घाट बनाने वाला, तीर्थ बनाने वाला। उसका इतना ही मतलब होता है कि इस आदमी ने एक घाट और
बनाया, जिससे लोग कूद सकते हैं। दावा गंगा का नहीं है,
दावा सिर्फ घाट का है। इसलिए दावा बिलकुल ठीक है। दावा यह नहीं है
कि इस आदमी ने गंगा बनाई। दावा इतना ही है कि इस आदमी ने एक घाट और बनाया, जहां से नाव छोड़ी जा सकती है। और भी घाट हैं, उनका
कोई इनकार नहीं है।
इसलिए महावीर ने किसी घाट का इनकार नहीं किया। कहा, और भी घाट हैं। उनसे भी कोई जा सकता है। इसलिए महावीर को बहुत कम समझ सके
लोग, क्योंकि महावीर किसी को गलत ही न कहेंगे। वे कहेंगे कि
वह भी ठीक है; वह भी एक घाट है।
ठीक विपरीत कहने वाले को, जो कहता है कि मैं
तुम्हारे तो बिलकुल विपरीत खड़ा हूं; तुम इस तरफ घाट बनाए हो,
मैंने उस तरफ घाट बनाया है, हम दोनों एक कैसे
हो सकते हैं? महावीर उससे भी कहते हैं कि नाव छोड़ो, तो हम एक ही गंगा में पहुंच जाएंगे। तुम जो ठीक अपोजिट, विपरीत खड़े हो। उस तरफ घाट बनाया तुमने। ठीक है। उस तरफ के उतरने वालों के
लिए वही उपयोगी होगा। इस तरफ वाले उस तरफ के घाट से कैसे उतरेंगे? और उस तरफ के लोग इस तरफ के घाट से कैसे उतरेंगे?
तो महावीर कहते हैं, कहीं से भी घाट हो, गंगा में, सत्य की गंगा में, अस्तित्व
की गंगा में उतर जाएं। तो कहते हैं, सभी ठीक हैं। एक ही बात
को महावीर गलत कहते हैं। वे कहते हैं, जब भी कोई घाट वाला
कहता है कि बस, यही घाट है, तब गलत
कहता है। बस, एक बात गलत है। जब कोई कहता है, यही घाट ठीक है, और सब घाटों को गलत कहता है,
तभी गलत कहता है। बाकी कोई गलती नहीं है। घाट बिलकुल ठीक है,
दावा गलत है। उस घाट से भी उतर सकते हैं। लेकिन बस दावा यह गलत है
कि इसी घाट से उतर सकते हैं। महावीर कहते हैं, इतना ही कहो,
इससे भी उतर सकते हैं। यह मत कहो, इसी से उतर
सकते हैं। बस इसी में हिंसा आ जाएगी। दूसरे घाटों को इनकार हो जाएगा।
और सब घाट बड़े छोटे हैं, गंगा बहुत बड़ी है।
पूरी गंगा पर घाट बनाना भी मुश्किल है। हालांकि सभी धर्म कोशिश करते हैं कि पूरी
गंगा पर मेरा ही घाट बन जाए! बन नहीं पाता। जब तक घाट बनता है, तब तक अक्सर गंगा अपनी धारा बदल देती है। कभी बन नहीं पाता है।
गंगा बड़ी है। अस्तित्व की गंगा विराट है। हम एक छोटे-से कोने में घाट
बनाने में सफल हो जाएं, वह भी बहुत है। उससे भी हम छलांग लगा सकें, वह भी बहुत है।
तीन प्रकार के घाट मूल रूप से भिन्न हैं--भाव वाला, विचार वाला, वासना वाला। कृष्ण ने जो यह सूत्र कहा
है, यह वासना वाले के लिए है। समत्व के घाट से वह योगारूढ़ हो
सकता है।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्प संन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।। ४।।
और जिस काल में न तो इंद्रियों के भोगों में आसक्त होता है तथा न
कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का
त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।
न इंद्रियों में आसक्ति है जिसकी, न कर्मों में;
ऐसे क्षण में, जहां ये दो आसक्तियां शेष नहीं
हैं--ऐसे क्षण में ऐसा पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।
दो बातों को थोड़ा-सा समझ लेना उपयोगी है, इंद्रियों में आसक्ति नहीं है जिसकी और न कर्मों में। दोनों संयुक्त हैं।
इंद्रियों में आसक्ति हो, तो ही कर्मों में आसक्ति होती है।
इंद्रियों में आसक्ति न हो, तो कर्मों में आसक्ति का कोई
उपाय नहीं है। इसलिए कृष्ण जब भी कुछ कहते हैं, तो उसमें एक
वैज्ञानिक प्रक्रिया की सीढ़ी होती है। पहले कहते हैं, इंद्रियों
में आसक्ति नहीं जिसकी। इंद्रियों में आसक्ति नहीं, तो कर्म
में आसक्ति हो ही नहीं सकती। कर्म की सारी आसक्ति, इंद्रिय
की आसक्ति का फैलाव है।
आप अगर धन इकट्ठा कर रहे हैं और धन को इकट्ठा करने में जो कर्म करना
पड़ता है, उसमें बड़े आसक्त हैं, तो ऐसा
आदमी खोजना मुश्किल है जो सिर्फ कर्म करने के लिए आसक्त हो। धन इंद्रियों के लिए
जो दे सकता है, उसका आश्वासन ही आसक्ति का कारण है। धन
इंद्रियों के लिए जो दे सकता है, उसका आश्वासन ही कर्म का
आकर्षण है।
अगर कल पता चल जाए कि धन अब कुछ भी नहीं खरीद सकता, तो सारा आकर्षण क्षीण हो जाएगा। तब दुकान पर बैठकर आप दो पैसे ज्यादा छीन
लें ग्राहक से, इसकी उत्सुकता में न रह जाएंगे। कभी भी न थे।
दो पैसे छीनने को कोई भी उत्सुक न था। दो पैसे में कुछ मूल्य है! मूल्य क्या है?
मूल्य इंद्रियों की तृप्ति है। धन का ठीक-ठीक जो मूल्य है, वैल्यू है, वह इकॉनामिक नहीं है, वह आर्थिक नहीं है। धन की गहरी मूल्यवत्ता मानसिक है। धन का वास्तविक
मूल्य अर्थशास्त्री तय नहीं करते राजधानियों में बैठकर। धन का वास्तविक मूल्य मन
की वासनाएं तय करती हैं, इंद्रियां तय करती हैं।
इसलिए महावीर जैसा व्यक्ति अगर धन नहीं साथ रखता, तो उसका कारण धन का त्याग नहीं है। उसका गहरा कारण इंद्रियों के लिए
तृप्ति के आयोजन की जो आकांक्षा है, उसका विसर्जन है। फिर धन
को रखने का कोई कारण नहीं रह जाता। फिर वह सिर्फ बोझ हो जाएगा। उसको ढोने की
नासमझी महावीर नहीं करेंगे।
धन के लिए आदमी इतना आकुल-व्याकुल श्रम करता है। इतना दौड़ता है। वह
इंद्रियों के लिए दौड़ रहा है। धन में भरोसा है, विश्वास है। धन खरीद
सकता है सब कुछ। धन सेक्स खरीद सकता है। धन भोजन खरीद सकता है। धन वस्त्र खरीद
सकता है। धन मकान खरीद सकता है। धन सुविधा खरीद सकता है। धन जो खरीद सकता है,
उसमें ही धन का मूल्य है। धन सब कुछ खरीद सकता है। सिर्फ सुख को
छोड़कर, धन सब कुछ खरीद सकता है।
लेकिन अगर यह आपको पता चल जाए कि धन सुख नहीं खरीद सकता, तो धन की दौड़ बंद हो जाए। इसलिए धन आश्वासन देता है कि मैं सुख खरीद सकता
हूं। मैं ही सुख खरीद सकता हूं! खरीदता है दुख, लेकिन
आश्वासन सुख का है।
सभी नर्कों के द्वार पर जो तख्ती लगी है, वह स्वर्गों की लगी है। इसलिए जरा सम्हलकर भीतर प्रवेश करना। तख्ती तो
स्वर्ग की लगी है। नर्क वाले लोग इतने तो होशियार हैं ही कि बाहर जो दरवाजे पर
नेम-प्लेट लगाएं, वह स्वर्ग की लगाएं। नहीं तो कौन प्रवेश
करेगा? लिखा हो साफ कि यहां नर्क है, कोई
प्रवेश नहीं करेगा।
तो आप इस भ्रम में मत रहना कि नर्क के द्वार पर दो हड्डियों का क्रास
बनाकर और एक मुर्दे का चेहरा लगा होगा और लिखा होगा, डेंजर, इनफिनिट वोल्टेज! ऐसा कुछ नहीं लिखा होगा। लिखा है, स्वर्ग।
आओ, कल्पवृक्ष यहीं है! तभी तो कोई नर्क के द्वार में प्रवेश
करेगा। द्वार तो सब स्वर्ग के ही प्रवेश करते हैं लोग, पहुंच
जाते हैं नर्क में, यह बात दूसरी है। द्वार तो सभी स्वर्ग के
मालूम होते हैं।
इंद्रियां तृप्ति चाहती हैं। धन तृप्ति को दिलाने का आश्वासन दिलाता है।
जीवन कर्म में रत हो जाता है। कर्म की आसक्ति, मूल में इंद्रियों की
ही तृप्ति के लिए दौड़ है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों में जिसकी
आसक्ति न रही।
किसकी न रहेगी इंद्रियों में आसक्ति? हम तो जानते ही नहीं
कि इंद्रियों के जोड़ के अलावा भी हममें कुछ और है। है कुछ और? अगर आंख फूट जाए मेरी--आपकी नहीं कह रहा--अगर मेरी आंख फूट जाए, मेरे कान टूट जाएं, मेरे हाथ कट जाएं, मेरी जीभ न हो, मेरी नाक न हो, तो मैं क्या हूं? कुछ भी न रहा। इन पांच इंद्रियों
के जोड़ से अगर मेरी एक-एक इंद्रिय निकाल ली जाए, तो पीछे
क्या बचेगा? कुछ भी बचता हुआ मालूम नहीं पड़ता।
आदमी की आंख चली जाती है, तो आधा आदमी चला जाता
है। कान चले जाते हैं, तो और गया। हाथ चले जाते हैं, तो और गया। अगर हमारी पांचों इंद्रियां छीनी जा सकें और हमें किसी तरह
जिंदा रखा जा सके, तो हममें क्या बचेगा? कुछ भी नहीं बचेगा। क्योंकि हमारा सारा अनुभव इंद्रियों के अनुभव का जोड़
है। अगर हमें लगता है कि मैं कुछ हूं, तो वह मेरी इंद्रियों
का जोड़ है।
तो जिसको ऐसा लगता है कि मैं इंद्रियों का जोड़ हूं, वह पुरुष कहीं इंद्रियों की आसक्ति से मुक्त हो सकेगा? अगर मैं इंद्रियों का जोड़ हूं, तो इंद्रियों की
आसक्ति से मुक्त होना तो सिर्फ आत्मघात है; और कुछ भी नहीं।
मैं मर जाऊंगा, और क्या होगा!
लेकिन कृष्ण तो कहते हैं कि इंद्रियों की आसक्ति से जो पार हो गया, वह योगारूढ़ हो गया। वे कहते हैं, मर नहीं जाएगा,
बल्कि वही पूरे अर्थों में जीवन को पाएगा।
पर हमें उस जीवन का कोई भी पता नहीं है। हमें तो इंद्रियों का जोड़ ही
हमारा जीवन है। अगर हमारी इंद्रियों के अनुभव एक-एक करके हटा दिए जाएं, तो पीछे जीरो, शून्य बचेगा, कुछ
भी नहीं बचेगा। हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। सब जोड़ कट जाएगा। तो हम कैसे इंद्रियों से,
इंद्रियों की आसक्ति से मुक्त हो जाएं? इंद्रियों
की आसक्ति से मुक्त होने के लिए पहला सूत्र खयाल में रखें, तभी
हो सकेंगे।
जब कोई इंद्रिय मांग करे, जब कोई इंद्रिय चुनाव
करे, जब कोई इंद्रिय भोग करे, जब कोई
इंद्रिय तृप्ति के लिए आतुर होकर दौड़े, तब आपको कुछ करना
पड़ेगा इस सत्य को पहचानने के लिए कि मैं इंद्रिय नहीं हूं।
जब आप भोजन करते हैं, तो आप भोजन की इंद्रिय ही हो
जाते हैं। उस समय थोड़ा स्मरण रखना जरूरी है, सच में मैं भोजन
कर रहा हूं? भोजन करते वक्त चौंककर एक बार देखना जरूरी है,
मैं भोजन कर रहा हूं? कहीं भी भीतर खोजें,
मैं भोजन कर रहा हूं?
तो आपको एक फर्क दिखाई पड़ेगा। आप भोजन कर ही नहीं रहे हैं; आप तो भोजन से बहुत दूर हैं। शरीर भोजन कर रहा है। भोजन आपको छूता भी नहीं
कहीं। आपकी कांशसनेस को, आपकी चेतना को कहीं स्पर्श भी नहीं
करता है। कर भी नहीं सकता है।
चेतना को कोई पदार्थ कैसे स्पर्श करेगा! लेकिन चेतना चाहे, तो पदार्थ के प्रति आसक्त हो सकती है। पदार्थ स्पर्श नहीं करता; लेकिन चेतना चाहे, तो आकर्षित हो सकती है। चेतना
चाहे, तो पदार्थ के साथ अपने को बंधन में अनुभव कर सकती है,
बंधा हुआ मान सकती है।
जब आप भोजन करते हैं, तो कहते हैं, मैं भोजन कर रहा हूं। भूल जरा और गहरी है; जब आपको
भूख लगती है, तभी से शुरू हो जाती है। तब आप कहते हैं,
मुझे भूख लगी है। थोड़ा गौर से देखें, आपको कभी
भी भूख लगी है? आप कहेंगे, निश्चित ही,
रोज लगती है। फिर भी मैं आपसे कहता हूं, आपको
भूख कभी भी नहीं लगी; भ्रांति हुई है। भूख तो शरीर को ही
लगती है। आपको सिर्फ पता चलता है कि शरीर को भूख लगी है। लेकिन इतनी लंबी
प्रक्रिया में आप नहीं जाते। सीधी छलांग लगा देते हैं कि मुझे भूख लगी है। भूख
शरीर को लगती है, आप सिर्फ कांशस होते हैं कि शरीर को भूख
लगी है। आप सिर्फ होश से भरते हैं कि शरीर को भूख लगी है। लेकिन चूंकि शरीर को
आपने माना मैं, इसलिए आप कहते हैं कि मुझे भूख लगी है।
अब जब भूख लगे, तो आप गौर से देखें कि आपकी चेतना, जिसे पता चलता है कि भूख लगी है और आपका शरीर जहां भूख लगती है, ये एक चीजें नहीं हैं; दो चीजें हैं। जब पैर में चोट
लगती है, तो आपको चोट नहीं लगती। आपको पता चलता है कि शरीर
को चोट लगी है। लेकिन भाषा ने बड़ी भ्रांतियां खड़ी कर दी हैं। भाषा में संक्षिप्त,
हम कहते हैं, मुझे चोट लगी है। अगर सिर्फ भाषा
की भूल हो, तब तो ठीक है। लेकिन गहरे में चेतना की भूल हो जाती
है।
जब आप जवान होते हैं, तो कहते हैं, मैं जवान हो गया। जब आप बूढ़े होते हैं, तो कहते हैं,
मैं बूढ़ा हो गया। वही भूल है। वह जो भूख वाली भूल है, वह फैलती चली जाती है। आप जरा भी बूढ़े नहीं हुए। आंख बंद करके पता लगाएं
कि चेतना बूढ़ी हो गई? चेतना पर कहीं भी बुढ़ापे की झुर्रियां
न दिखाई पड़ेंगी। और चेतना पर कहीं भी बुढ़ापे का कोई झुकाव नहीं आया होगा। चेतना
वैसी की वैसी है, जैसे बच्चे में थी। जन्म के वक्त जितनी
ताजी थी, मरते वक्त भी उतनी ही ताजी होती है।
चेतना बासी होती ही नहीं। लेकिन शरीर बासा होता चला जाता है। शरीर
जीर्ण-जर्जर होता चला जाता है। और हम चौबीस घंटे की पुरानी भ्रांति को दोहराए चले
जाते हैं कि मैं शरीर हूं, इसलिए आदमी रोता है कि मैं बूढ़ा हो गया।
चेतना कभी बूढ़ी नहीं होती। और इसीलिए, अगर आपकी आंख बंद रखी
जाएं, और आपको आपके शरीर का पता न चलने दिया जाए, और सालभर बीत जाए, दस साल बीत जाएं; आपको भोजन दे दिया जाए, लेकिन कभी दर्पण न देखने
दिया जाए, तो क्या दस साल बाद आप सिर्फ भीतर चेतना के अनुभव
से कह सकेंगे कि मैं दस साल बूढ़ा हो गया? आप न कह सकेंगे।
आपको पता ही नहीं चलेगा।
इसीलिए कई दफे बड़ी भूलें हो जाती हैं। कई दफे भूलें हो जाती हैं। कई
दफे किन्हीं गहरे क्षणों में बूढ़े भी बच्चों के जैसा व्यवहार कर जाते हैं। वह
इसीलिए कर जाते हैं, और कोई कारण नहीं है। भीतर चेतना तो कभी बूढ़ी होती
नहीं, ऊपर की खोल ही बूढ़ी होती है। इसलिए कभी-कभी बूढ़े भी
जवानों जैसा व्यवहार कर जाते हैं, उसका कारण वही है। भीतर
चेतना कभी बूढ़ी नहीं होती।
और वैज्ञानिक हार्मोन्स खोज ही लिए हैं, आज नहीं कल वे
इंजेक्शन तैयार कर ही लेंगे कि एक बूढ़े आदमी को इंजेक्शन दे दिया, उसकी दस साल उम्र कम हो गई! एक इंजेक्शन दिया, उसकी
बीस साल उम्र कम हो गई! शरीर के हार्मोन बदले जाएं, तो साठ
साल का आदमी अपने को तीस साल का अनुभव जिस दिन करने लगेगा, उस
दिन बड़ी मुश्किल होगी उसको। शरीर तो साठ साल का ही मालूम पड़ेगा। लेकिन हार्मोन के
बदल जाने से उसकी आइडेंटिटी फिर बदलेगी। वह तीस साल जैसा व्यवहार करना शुरू कर
देगा।
चेतना की कोई उम्र नहीं है। शरीर की जैसी उम्र हो जाए, चेतना अपने को वैसा ही मान लेती है। चेतना को सिर्फ होश है। और होश का हम
दुरुपयोग कर रहे हैं। होश से हम दो काम कर सकते हैं। होश से हम चाहें तो शरीर के
साथ अपने को एक मान सकते हैं; यह अज्ञान है। होश से हम चाहें
तो शरीर से अपने को भिन्न मान सकते हैं; यही ज्ञान है।
इंद्रियों की आसक्ति से वही मुक्त होगा, जो शरीर से अपने को
भिन्न मानने में समर्थ हो जाए।
तो उपाय करें, जिनसे आपके और शरीर के भिन्नता का बोध तीखा और प्रखर
होता चला जाए। जब भूख लगे, तो कहें जोर से कि मेरे शरीर को
भूख लगी है। और जब भोजन से तृप्ति हो जाए, तो कहें जोर से कि
मेरा शरीर तृप्त हुआ। जब नींद आए, तो कहें कि मेरे शरीर को
नींद आती है। और जब बीमार पड़ जाएं, तो कहें कि मेरा शरीर
बीमार पड़ा। इसे जोर से कहें, ताकि आप भी इसे गौर से सुन सकें
और इस अनुभव को गहरा करते चले जाएं। ज्यादा देर नहीं होगी कि आपको यह प्रतीति सघन
होने लगेगी।
ये सारी प्रतीतियां सजेशंस हैं हमारे। हम कहते हैं, मैं शरीर हूं बार-बार, तो यह सजेशन बन जाता है,
यह मंत्र बन जाता है। हम हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं। मानने लगते हैं,
शरीर हो गए। कहें जोर से, तो हिप्नोटिज्म टूट
जाएगा, सम्मोहन टूट जाएगा; डिहिप्नोटाइज्ड
हो जाएंगे। और जान पाएंगे कि मैं शरीर नहीं हूं।
जिस दिन जान पाएंगे, मैं शरीर नहीं हूं, उसी दिन इंद्रियों की आसक्ति विदा हो जाएगी। और जिस दिन इंद्रियों की
आसक्ति विदा होती है, उसी दिन कर्म में कोई आसक्ति नहीं रह
जाती। क्या इसका यह मतलब है कि फिर भूख लगेगी, तो आप भोजन
नहीं करेंगे? नहीं।
हां, इसका यह मतलब जरूर है कि फिर भूख लगेगी, तो ही आप भोजन करेंगे। और इसका यह मतलब जरूर है कि जब भूख समाप्त हो जाएगी,
तब आप तत्काल भोजन बंद कर देंगे। इसका यह मतलब भी जरूर है कि तब आप
ज्यादा भोजन न कर सकेंगे। और इसका यह मतलब भी जरूर है कि तब आप गलत भोजन भी न कर
सकेंगे।
गलत, और ज्यादा, और व्यर्थ का भोजन
जो हम लादे चले जाते हैं, वह हमारी इंद्रियों की आसक्ति से
पैदा होता है, शरीर की भूख से नहीं। मांसाहार किए चले जाते
हैं, शराब पीए चले जाते हैं, कुछ भी
खाए चले जाते हैं, उसका कारण भूख नहीं है। उसका कारण
इंद्रियों की आसक्ति है।
हां, इंद्रियों की आसक्ति चली जाए, तो
भूख तो लगेगी; और मैं आपसे कहूं कि और भी शुद्धतर भूख की
प्रतीति होगी। और भी शुद्धतर! लेकिन तब आप भोजन तभी कर सकेंगे, जब भूख लगेगी। अभी तो जब भोजन दिख जाए, तभी भूख लग
जाती है। भोजन न भी दिखे, तो मन में ही भोजन की कल्पना चलती
है और भूख लग जाती है। अभी तो हमारी अधिक भूख फैलेसियस है, धोखे
की है।
जो लोग शरीरशास्त्र का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं कि अधिक
लोग, भूख नहीं लगती है, तब खा लेते हैं;
और उसी की वजह से हजारों बीमारियां पैदा होती हैं। समय से खा लेते
हैं, कि बस हो गया वक्त भोजन का, तो
भोजन कर लेते हैं। फिर स्वाद से खा लेते हैं, क्योंकि अच्छा
लग रहा है, स्वादिष्ट लग रहा है, तो और
डाले चले जाते हैं! और कभी इस बात की फिक्र नहीं करते कि भूख का क्या हाल है!
भूख से कोई संबंध हमारे भोजन का नहीं रह गया है। भोजन एक मानसिक विलास
बन गया है। भूख एक शारीरिक जरूरत है, भूख एक आवश्यकता है।
भोजन एक वासना बन गई है। हमने भूख के अतिरिक्त भी भोजन में रस पैदा कर लिए हैं,
वे जो इंद्रियों की आसक्ति से आते हैं।
सभी तरफ ऐसा हुआ है। कामवासना के संबंध में भी ऐसा हुआ है। पशु भी
हमसे ज्यादा संयत व्यवहार करते हैं कामवासना में। पीरियाडिकल है। एक अवधि होती है, तब पशु कामातुर होता है। लेकिन मनुष्य अकेला पशु है पृथ्वी पर, जो चौबीस घंटे, सालभर कामातुर होता है। चौबीस घंटे!
पशु जब कामातुर होता है, तब मादा नर को या नर मादा को खोजता
है। मनुष्य अलग है। उसको नारी दिख जाए, पुरुष दिख जाए,
कामातुर हो जाता है। उलटा है। कामातुरता पहले आ जाती है पशु में,
तब खोज शुरू होती है। मनुष्य को पहले आब्जेक्ट दिखाई पड़ जाए,
विषय दिखाई पड़ जाए, और कामातुरता पैदा हो जाती
है।
मेरे एक मित्र बड़े शिकारी हैं, बहुत सिंहों और बहुत
शेरों का शिकार किया है। उनके घर मैं मेहमान था। उनसे मैं पूछने लगा कि कभी आपने
किसी शेर को या सिंह को भोजन कर लेने के बाद भोजन में उत्सुक पाया? उन्होंने कहा, कभी नहीं। भोजन पर हम बैठे थे। उनके
भोजन को देखकर ही मैंने उनसे यह पूछा था। मित्र के भोजन को देखकर! वे खाए ही चले
जा रहे थे। उनको देखकर ही मैंने पूछा था। उनको फिर भी खयाल नहीं आया।
उन्होंने कहा, आप यह क्यों पूछते हैं? मैंने
कहा, मैं इसलिए पूछता हूं कि मैं देख रहा हूं कि भोजन की
जरूरत बहुत देर पहले पूरी हो गई है। वैसे भी आपके शरीर में इतना इकट्ठा है कि
महीने दो महीने भोजन न करें, तो कोई भूख नहीं लगेगी। लेकिन
आप खाए चले जा रहे हैं! इसलिए मैं आपसे पूछता हूं कि किसी शेर को आपने भोजन करने
के बाद उत्सुक देखा? उन्होंने कहा कि नहीं देखा। भोजन करने
के बाद तो शेर के पास बकरी भी खड़ी रहे, तो वह देखता भी नहीं।
लेकिन आदमी के पास मिठाई रखी रहे, तो न भी देखे फिर भी देखता
रहता है। न देखे फिर भी देखता रहता है!
इंद्रियासक्ति शरीर को विकृत व्यवस्था दे जाती है। ऐसा व्यक्ति, जिसकी इंद्रिय की आसक्ति नहीं है, उसको भी भूख
लगेगी। लेकिन भूख शुद्ध होगी। और भूख वहीं तक होगी, जहां तक
आवश्यकता है। और आवश्यकताएं बहुत कम हैं। वासनाएं अनंत हैं; आवश्यकताएं
बड़ी सीमित हैं। स्वाद का कोई अंत नहीं। भोजन तो बहुत थोड़ा काफी है।
और जीवन की समस्त दिशाओं में ऐसा ही परिणाम होगा। सब तरफ शुद्धतम
आवश्यकताएं रह जाएंगी। कुछ आवश्यकताएं ऐसी हैं, जो व्यक्ति की
आवश्यकताएं ही नहीं हैं। उनसे व्यक्ति मुक्त हो जाएगा। जैसे सेक्स। यह बहुत मजे की
बात है कि भोजन आपके शरीर की आवश्यकता है, लेकिन आपने कभी
सोचा न होगा कि कामवासना आपकी आवश्यकता नहीं है। कामवासना समाज की आवश्यकता है।
अगर आप भोजन न करें, तो आप मर जाएंगे। और अगर आप में
कामवासना न रहे, तो संतति मर जाएगी, आगे
समाज की धारा मर जाएगी। सेक्स जो है, बायोलाजिकल है। आपकी
आवश्यकता नहीं है उतनी, जितनी प्रकृति आपसे किसी को पैदा
करवा लेगी, इसके पहले कि आप मरें। वह प्रकृति की जरूरत है।
और जो व्यक्ति यह जान लेता है कि मैं इंद्रियों के पार हूं, वह यह भी जान लेता है कि मैं प्रकृति के पार हूं। वह प्रकृति के चंगुल और
जाल के बाहर हो जाता है।
तो जैसे भोजन तो जारी रहेगा, लेकिन काम तिरोहित हो
जाएगा। यह मैंने फर्क करने को कहा कि हमारी आवश्यकताओं में भी भेद हैं। जिस
व्यक्ति की इंद्रिय-आसक्ति मिट गई, उसकी भूख शुद्ध होकर
सीमित, स्वाभाविक हो जाएगी। उसका काम शुद्ध होकर राम की ओर
गतिमान हो जाएगा। उसकी कामवासना विलीन हो जाएगी। क्योंकि वह व्यक्ति की जरूरत ही
नहीं है, वह प्रकृति की जरूरत है। आप मर जाएं, इसके पहले प्रकृति आपसे इतना काम ले लेना चाहती है कि अपनी जगह किसी को
छोड़ जाएं। बस, उससे आपका कोई प्रयोजन नहीं है। वह आपकी जरूरत
नहीं है गहरे में।
लेकिन इंद्रिय से भरा हुआ मन उलटा सोचेगा। वह सोचेगा, एक बार भूखा रह जाए, राजी हो जाएगा, लेकिन कामवासना से रुकने को राजी नहीं रहेगा। भूख छोड़ देगा, धन छोड़ देगा, स्वास्थ्य छोड़ देगा, लेकिन कामवासना के पीछे पड़ा रहेगा। वे विकृत हो गई इंद्रियां हैं।
जैसे ही इंद्रियां प्रकृतिस्थ होंगी, सुकृत होंगी, सहज होंगी, वैसे ही जो व्यक्ति की आवश्यकता है,
वह सरल हो जाएगी। और जो व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है, वह तिरोहित हो जाएगी।
ऐसे व्यक्ति के कर्म का क्या होगा?
कर्म के प्रति उसकी आसक्ति खो जाएगी, लेकिन कर्म बंद नहीं
होगा। और जब कर्म के प्रति आसक्ति खोती है, तो जो गलत कर्म
हैं, वे विदा हो जाते हैं; और जो सही
कर्म हैं, वे और भी बड़ी ऊर्जा से सक्रिय हो जाते हैं।
धीरे-धीरे व्यक्ति के जीवन में शुभ कर्म रह जाते हैं, अशुभ
कर्म तिरोहित हो जाते हैं।
आज इतना ही।
लेकिन पांच मिनट रुकेंगे। पांच मिनट और। फिर हम रात बात करेंगे आगे
सूत्रों पर। पांच मिनट संन्यासी कीर्तन करेंगे। आपमें से भी जो सम्मिलित होना
चाहें, वे सम्मिलित हो सकते हैं। जो बैठे हैं, वे भी इतना तो साथ दें कि तालियां बजाएं, उनका गीत
दोहराएं। पांच मिनट उनके भजन का प्रसाद ले लें, फिर हम विदा
हो जाएंगे।
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