गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-075
अध्याय ६
सत्रहवां प्रवचन
वैराग्य और अभ्यास
प्रश्न: भगवान श्री, सुबह के श्लोक में चंचल मन को शांत
करने के लिए अभ्यास और वैराग्य पर गहन चर्चा चल रही थी, लेकिन
समय आखिरी हो गया था, इसलिए पूरी बात नहीं हो सकी। तो कृपया
अभ्यास और वैराग्य से कृष्ण क्या गहन अर्थ लेते हैं, इसकी
व्याख्या करने की कृपा करें।
राग
है संसार की यात्रा का मार्ग, संसार में यात्रा का मार्ग। वैराग्य है संसार
की तरफ पीठ करके स्वयं के घर की ओर वापसी। राग यदि सुबह है, जब
पक्षी घोंसलों को छोड़कर बाहर की यात्रा पर निकल जाते हैं, तो
वैराग्य सांझ है, जब पक्षी अपने नीड़ में वापस लौट आते हैं।
वैराग्य
को पहले समझ लें,
क्योंकि जिसे वैराग्य नहीं, वह अभ्यास में
नहीं जाएगा। वैराग्य होगा, तो ही अभ्यास होगा। वैराग्य होगा,
तो हम विधि खोजेंगे--मार्ग, पद्धति, राह, टेक्नीक--कि कैसे हम स्वयं के घर वापस पहुंच
जाएं? कैसे हम लौट सकें? जिससे हम
बिछुड़ गए, उससे हम कैसे मिल सकें?
जिसके
बिछुड़ जाने से हमारे जीवन का सब संगीत छिन गया, जिसके बिछुड़
जाने से जीवन की सारी शांति खो गई, जिसके बिछुड़ जाने से,
खोजते हैं बहुत, लेकिन उसे पाते नहीं; उस आनंद को किस विधि से, किस मेथड से हम पाएं?
यह तो तभी सवाल उठेगा, जब वैराग्य की तरफ
दृष्टि उठनी शुरू हो जाए। तो पहली तो बात, वैराग्य को समझें,
फिर हम अभ्यास को समझेंगे।
वैराग्य
का अर्थ है, राग के जगत से वितृष्णा, फ्रस्ट्रेशन। जहां-जहां राग
है, जहां-जहां आकर्षण है, वहां-वहां
विकर्षण पैदा हो जाए। जो चीज खींचती है, वह खींचे नहीं,
बल्कि विपरीत हटाने लगे। जो चीज बुलाती है, बुलाए
नहीं, बल्कि द्वार बंद कर ले। मालूम पड़े कि द्वार बंद कर
लिया, और द्वार में प्रवेश से इनकार कर दिया।
विकर्षण
हम सभी को होता है। अगर ऐसा मैं कहूं, तो आप थोड़े हैरान होंगे कि हम सभी
रोज वैराग्य को उपलब्ध होते हैं। लेकिन वैराग्य को उपलब्ध होकर हम अभ्यास की तरफ
नहीं जाते। वैराग्य को उपलब्ध होकर, पुराने राग तो गिर जाते
हैं, हम नए राग के निर्माण में लग जाते हैं।
हम
सभी वैराग्य को उपलब्ध होते हैं, रोज, प्रतिदिन। ऐसा कोई
राग नहीं है, जिसके प्रति हम रोज विकर्षण से नहीं भर जाते।
प्रत्येक राग के पीछे खाई छूट जाती है विषाद की; प्रत्येक
राग के पीछे पश्चात्ताप गहन हो जाता है। लेकिन तब ऐसा नहीं कि हम विराग की तरफ चले
जाते हों, तब सिर्फ इतना ही होता है कि हम नए राग की खोज में
निकल जाते हैं।
वैराग्य
कोई नई घटना नहीं है। एक स्त्री से विरक्त हो जाना सामान्य घटना है। लेकिन स्त्री
से विरक्त हो जाना बहुत असामान्य घटना है। एक सुख की व्यर्थता को जान लेना सामान्य
घटना है, लेकिन सुख मात्र की व्यर्थता को जान लेना बहुत असामान्य घटना है। और
असामान्य इसीलिए है कि हमारे हाथ में एक ही सुख होता है एक बार में। एक सुख व्यर्थ
हो जाता है, तो तत्काल मन कहता है कि नए सुख का निर्माण कर
लो; दूसरे सुख की खोज में निकल जाओ। ठहरो मत; यात्रा जारी रखो। यह सुख व्यर्थ हुआ, तो जरूरी नहीं
कि सभी सुख व्यर्थ हों!
ययाति
की बहुत पुरानी कथा है,
जिसमें ययाति सौ वर्ष का हो गया। बहुत मीठी, बहुत
मधुर कथा है। तथ्य न भी हो, तो भी सच है। और बहुत बार जो
तथ्य नहीं होते, वे भी सत्य होते हैं। और बहुत बार जो तथ्य
होते हैं, वे भी सत्य नहीं होते।
यह
ययाति की कथा तथ्य नहीं है,
लेकिन सत्य है। सत्य इसलिए कहता हूं कि उसका इंगित सत्य की ओर है।
तथ्य नहीं है इसलिए कहता हूं कि ऐसा कभी हुआ नहीं होगा। यद्यपि आदमी का मन ऐसा है
कि ऐसा रोज ही होना चाहिए।
ययाति
सौ वर्ष का हो गया,
उसकी मृत्यु आ गई। सम्राट था। सुंदर पत्नियां थीं, धन था, यश था, कीर्ति थी,
शक्ति थी, प्रतिष्ठा थी। मौत द्वार पर आकर
दस्तक दी। ययाति ने कहा, अभी आ गई? अभी
तो मैं कुछ भोग नहीं पाया। अभी तो कुछ शुरू भी नहीं हुआ था! यह तो थोड़ी जल्दी हो
गई। सौ वर्ष मुझे और चाहिए। मृत्यु ने कहा, मैं मजबूर हूं।
मुझे तो ले जाना ही पड़ेगा। ययाति ने कहा, कोई भी मार्ग खोज।
मुझे सौ वर्ष और दे। क्योंकि मैंने तो अभी तक कोई सुख जाना ही नहीं।
मृत्यु
ने कहा, सौ वर्ष आप क्या करते थे? ययाति ने कहा, जिस सुख को जानता था, वही व्यर्थ हो जाता था। तब
दूसरे सुख की खोज करता था। खोजा बहुत, पाया अब तक नहीं।
सोचता था, कल की योजना बना रहा था। तेरे आगमन से तो कल का
द्वार बंद हो जाएगा। अभी मुझे आशा है। मृत्यु ने कहा, सौ
वर्ष में समझ नहीं आई। आशा अभी कायम है? अनुभव नहीं आया?
ययाति ने कहा, कौन कह सकता है कि ऐसा कोई सुख
न हो, जिससे मैं अपरिचित होऊं, जिसे पा
लूं तो सुखी हो जाऊं! कौन कह सकता है?
मृत्यु
ने कहा, तो फिर एक उपाय है कि तुम्हारे बेटे हैं दस। एक बेटा अपना जीवन दे दे
तुम्हारी जगह, तो उसकी उम्र तुम ले लो। मैं लौट जाऊं। पर
मुझे एक को ले जाना ही पड़ेगा।
बाप
थोड़ा डरा। डर स्वाभाविक था। क्योंकि बाप सौ वर्ष का होकर मरने को राजी न हो, तो कोई
बेटा अभी बीस का था, कोई अभी पंद्रह का था, कोई अभी दस का था। अभी तो उन्होंने और भी कुछ भी नहीं जाना था। लेकिन बाप
ने सोचा, शायद कोई उनमें राजी हो जाए। शायद कोई राजी हो जाए।
पूछा, बड़े बेटे तो राजी न हुए। उन्होंने कहा, आप कैसी बात करते हैं! आप सौ वर्ष के होकर जाने को तैयार नहीं। मेरी उम्र
तो अभी चालीस ही वर्ष है। अभी तो मैंने जिंदगी कुछ भी नहीं देखी। आप किस मुंह से
मुझसे कहते हैं?
सबसे
छोटा बेटा राजी हो गया। राजी इसलिए हो गया--जब बाप से उसने कहा कि मैं राजी हूं, तो बाप भी
हैरान हुआ। ययाति ने कहा, सब नौ बेटों ने इनकार कर दिया,
तू राजी होता है। क्या तुझे यह खयाल नहीं आता कि मैं सौ वर्ष का
होकर भी मरने को राजी नहीं, तेरी उम्र तो अभी बारह ही वर्ष
है!
उस
बेटे ने कहा,
यह सोचकर राजी होता हूं कि जब सौ वर्ष में भी तुमने कुछ न पाया,
तो व्यर्थ की दौड़ में मैं क्यों पडूं! जब मरना ही है और सौ वर्ष के
समय में भी मरकर ऐसी पीड़ा होती है, जैसी तुमको हो रही है,
तो मैं बारह वर्ष में ही मर जाऊं। अभी कम से कम विषाद से तो बचा
हूं। अभी मैंने दुख तो नहीं जाना। सुख नहीं जाना, दुख भी
नहीं जाना। मैं जाता हूं।
फिर
भी ययाति को बुद्धि न आई। मन का रस ऐसा है कि उसने कल की योजनाएं बना रखी थीं।
बेटे को जाने दिया। ययाति और सौ वर्ष जीया। फिर मौत आ गई। ये सौ वर्ष कब बीत गए, पता नहीं।
ययाति फिर भूल गया कि मौत आ रही है। कितनी ही बार मौत आ जाए, हम सदा भूल जाते हैं कि मौत आ रही है। हम सब बहुत बार मर चुके हैं। हम सब
के द्वारों पर बहुत बार मौत दस्तक दे गई है।
ययाति
के द्वार पर दस्तक हुई। ययाति ने कहा, अभी! इतने जल्दी! क्या सौ वर्ष बीत
गए? मौत ने कहा, इसे भी जल्दी कहते हैं
आप! अब तो आपकी योजनाएं पूरी हो गई होंगी?
ययाति
ने कहा, मैं वहीं का वहीं खड़ा हूं। मौत ने कहा, कहते थे कि
कल और मिल जाए, तो मैं सुख पा लूं! ययाति ने कहा, मिला कल भी, लेकिन जिन सुखों को खोजा उनसे दुख ही
पाया। और अभी फिर योजनाएं मन में हैं। क्षमा कर, एक और मौका!
पर मौत ने कहा, फिर वही करना पड़ेगा।
इन
सौ वर्षों में ययाति के नए बेटे पैदा हो गए; पुराने बेटे तो मर चुके थे। फिर
छोटा बेटा राजी हो गया। ऐसे दस बार घटना घटती है। मौत आती है, लौटती है। एक हजार साल ययाति जिंदा रहता है।
मैं
कहता हूं, यह तथ्य नहीं है, लेकिन सत्य है। अगर हमको भी यह
मौका मिले, तो हम इससे भिन्न न करेंगे। सोचें थोड़ा मन में कि
मौत दरवाजे पर आए और कहे कि सौ वर्ष का मौका देते हैं, घर
में कोई राजी है? तो आप किसी को राजी करने की कोशिश करेंगे
कि नहीं करेंगे! जरूर करेंगे। क्या दुबारा मौत आए, तो आप तब
तक समझदार हो चुके होंगे? नहीं, जल्दी
से मत कह लेना कि हम समझदार हैं। क्योंकि ययाति कम समझदार नहीं था।
हजार
वर्ष के बाद भी जब मौत ने दस्तक दी, तो ययाति वहीं था, जहां पहले सौ वर्ष के बाद था। मौत ने कहा, अब क्षमा
करो! किसी चीज की सीमा भी होती है। अब मुझसे मत कहना। बहुत हो गया! ययाति ने कहा,
कितना ही हुआ हो, लेकिन मन मेरा वहीं है। कल
अभी बाकी है, और सोचता हूं कि कोई सुख शायद अनजाना बचा हो,
जिसे पा लूं तो सुखी हो जाऊं!
अनंत
काल तक भी ऐसा ही होता रहता है। तो फिर वैराग्य पैदा नहीं होगा। अगर एक राग व्यर्थ
होता है और आप तत्काल दूसरे राग की कामना करने लगते हैं, तो राग की
धारा जारी रहेगी। एक राग का विषय टूटेगा, दूसरा राग का
निर्मित हो जाएगा। दूसरा टूटेगा, तीसरा निर्मित हो जाएगा।
ऐसा अनंत तक चल सकता है। ऐसा अनंत तक चलता है। वैराग्य कब होगा?
वैराग्य
उसे होता है,
जो एक राग की व्यर्थता में समस्त रागों की व्यर्थता को देखने में
समर्थ हो जाता है। जो एक सुख के गिरने में समस्त सुखों के गिरने को देख पाता है।
जिसके लिए कोई भी फ्रस्ट्रेशन, कोई भी विषाद अल्टिमेट,
आत्यंतिक हो जाता है। जो मन के इस राज को पकड़ लेता है जल्दी ही कि
यह धोखा है। क्यों? क्योंकि कल मैंने जिसे सुख कहा था,
वह आज दुख हो गया। आज जिसे सुख कह रहा हूं, वह
कल दुख हो जाएगा। कल जिसे सुख कहूंगा, वह परसों दुख हो
जाएगा। जो इस सत्य को पहचानने में समर्थ हो जाता है, जो इतना
इंटेंस देखने में समर्थ है, जो इतना गहरा देख पाता है जीवन
में...।
अब
दुबारा जब मन कोई राग का विषय बनाए, तो मन से पूछना कि तेरा अतीत अनुभव
क्या है! और मन से पूछना कि फिर तू एक नया उपद्रव निर्मित कर रहा है!
एक
मनोवैज्ञानिक के पास एक व्यक्ति गया था। ऐसे ही एक मित्र, यहां मैं
आया, उस पहले दिन ही मुझसे मिलने आ गए। उस मनोवैज्ञानिक के
पास जो व्यक्ति गया था, उसने कहा कि मेरी पहली पत्नी मर गई।
मनोवैज्ञानिक भलीभांति जानता था कि पहली पत्नी और उसके बीच क्या घटा था। लेकिन पति
भूल चुका था मरते ही। तो मैं दूसरा विवाह कर लूं या न कर लूं?
उस
मनोवैज्ञानिक ने कहा,
क्या तेरे मन में दूसरे विवाह का खयाल आता है? उसने कहा, आता है। आप इससे क्या नतीजा लेते हैं?
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, इससे मैं नतीजा लेता
हूं, अनुभव के ऊपर आशा की विजय।
अनुभव
के ऊपर आशा की विजय! एक पत्नी की कलह और उपद्रव और संघर्ष और दुख और पीड़ा से बाहर
नहीं हुआ है कि वह नई पत्नी की तलाश में चित्त निकल गया। लेकिन मन कहता है कि इस स्त्री
के साथ सुख नहीं बन सका,
तो जरूरी तो नहीं है कि किसी स्त्री के साथ न बन सके। पृथ्वी पर
बहुत स्त्रियां हैं। कोई दूसरी स्त्री सुख दे पाएगी; कोई
दूसरा पुरुष सुख दे पाएगा। कोई दूसरी कार, कोई दूसरा बंगला,
कोई दूसरा पद, कोई दूसरा गांव, कोई कहीं और जगह सुख होगा। यहां नहीं, कोई बात नहीं।
यद्यपि इस जगह आने के पहले भी यही सोचा था। और जिस गांव में आप जाने की सोच रहे
हैं, उस गांव के लोग भी यही सोच रहे हैं कि कहीं चले जाएं,
तो उन्हें सुख मिल जाए!
सुना
है मैंने कि एक दिन सुबह-सुबह एक आदमी भागा हुआ पागलखाने पहुंचा। जोर से दरवाजा
खटखटाया। पागलखाने के प्रधान ने दरवाजा खोला। उस आदमी ने पूछा कि मैं यह पूछने आया
हूं कि आपके पागलखाने से कोई निकलकर तो नहीं भाग गया? नहीं;
कोई निकलकर भागा नहीं। आपको इसका शक क्यों पैदा हुआ? उसने कहा, और कोई कारण नहीं है। मेरी पत्नी को कोई
लेकर भाग गया है! तो मैं अपने होश में नहीं मान सकता कि जिसमें थोड़ी भी बुद्धि
होगी, वह मेरी पत्नी को लेकर भाग जाएगा! तो मैंने सोचा,
पागलखाने में जाकर देख लूं कि कोई निकल तो नहीं गया।
पर
उस प्रधान ने कहा कि माफ कर मेरे भाई। तेरी पत्नी के साथ मैंने तुझे कई बार रास्ते
पर घूमते देखा है। मेरा तक मन बहुत बार हुआ कि तेरी पत्नी को लेकर भाग जाऊं। वह
देखने में बहुत सुंदर है। उस आदमी ने कहा, उसी देखने की सुंदरता के पीछे तो
मैं फंसा। फिर पीछे नरक ही निकला है!
जीवन
के जो चेहरे हमें दिखाई पड़ते हैं, वे असलियत नहीं हैं। इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं
से कहते थे, जब तुम्हें कोई चेहरा सुंदर दिखाई पड़े, तो आंख बंद करके स्मरण करना, ध्यान करना, चमड़ी के नीचे क्या है? मांस। मांस के नीचे क्या है?
हड्डियां। हड्डियों के नीचे क्या है? उस सब को
तुम जरा गौर से देख लेना। एक्सरे मेडिटेशन, कहना चाहिए उसका
नाम। बुद्ध ने ऐसा नाम नहीं दिया। मैं कहता हूं, एक्सरे
मेडिटेशन! एक्सरे कर लेना, जब मन में कोई चमड़ी बहुत प्रीतिकर
लगे, तो दूर भीतर तक। तो भीतर जो दिखाई पड़ेगा, वह बहुत घबड़ाने वाला है।
मैं
एक गांव में ठहरा हुआ था। वहां गोली चली। चार लोगों को गोली लग गई, तो उनका
पोस्टमार्टम होता था। मेरे एक मित्र, जो चमड़ी के बड़े प्रेमी
हैं...।
अधिक
लोग होते हैं। उपनिषद कहते हैं इस तरह के लोगों को चमार--चमड़ी के प्रेमियों को।
चमड़े के जूते बनाने वाले को नहीं; जरूरी नहीं कि वह चमार हो। लेकिन चमड़ी के
प्रेमी को!
तो
एक चमड़ी के प्रेमी मेरे मित्र थे। मुझे मौका मिला, मैंने उनसे कहा कि चलो,
डाक्टर परिचित है, मैं तुम्हें पोस्टमार्टम
दिखा दूं। उन्होंने कहा, उससे क्या होगा? मैंने कहा, थोड़ा देखो भी, आदमी
के भीतर क्या है, उसे थोड़ा देखो।
पोस्टमार्टम
के गृह में भीतर प्रवेश किए, तो भयंकर बदबू थी, क्योंकि
लाशें तीन दिन से रुकी थीं। वे नाक पर रूमाल रखने लगे। मैंने कहा, मत घबड़ाओ। जिन चमड़ियों को तुम प्रेम करते हो, उनकी
यही गति है। थोड़ा और भीतर चलो। उन्होंने कहा, बहुत उबकाई आती
है। वॉमिट न हो जाए! मैंने कहा, हो जाए तो कुछ हर्जा नहीं
है। और भीतर आओ।
जब
हम गए, तो डाक्टर ने एक आदमी, जिसके पेट में गोली लगी थी,
उसके पूरे पेट को फाड़ा हुआ था। तो सारी मल की ग्रंथियां ऊपर फूटकर
फैल गई थीं। वे मेरे मित्र भागने लगे। मैं उन्हें पकड़ रहा हूं, खींच रहा हूं; वे भागते हैं! कहते हैं, मुझे मत दिखाओ! उन्होंने आंखें बंद कर लीं। मैंने कहा, आंखें खोलो। ठीक से देख लो। उन्होंने कहा, मुझे मत
दिखाओ, नहीं तो मेरी जिंदगी खराब हो जाएगी! तुम्हारी जिंदगी
क्यों खराब हो जाएगी? उन्होंने कहा, फिर
मैं किसी शरीर को प्रेम न कर पाऊंगा। जब भी शरीर को देखूंगा, तो यह सब दिखाई पड़ेगा।
बुद्ध
कहते थे, जब शरीर आकर्षक मालूम पड़े, तो थोड़ा भीतर गौर करना कि
है क्या वहां? तो शायद शरीर का जो राग है, वह टूट जाए और वैराग्य उत्पन्न हो।
बुद्ध
को वैराग्य उत्पन्न होने की जो बड़ी कीमती घटना है, वह मैं आपसे कहूं।
बुद्ध
के पिता ने बुद्ध के महल में उस राज्य की सब सुंदर स्त्रियां इकट्ठी कर दी थीं।
रात देर तक गीत चलता,
गान चलता, मदिरा बहती, संगीत
होता और बुद्ध को सुलाकर ही वे सुंदरियां नाचते-नाचते सो जातीं। एक रात बुद्ध की
नींद चार बजे टूट गई। एर्नाल्ड ने अपने लाइट आफ एशिया में बड़ा प्रीतिकर, पूरा वर्णन किया है।
चार
बजे नींद खुल गई। पूरे चांद की रात थी। कमरे में चांद की किरणें भरी थीं। जिन
स्त्रियों को बुद्ध प्रेम करते थे, जो उनके आस-पास नाचती थीं और
स्वर्ग का दृश्य बना देती थीं, उनमें से कोई अर्धनग्न पड़ी थी;
किसी का वस्त्र उलट गया था; किसी के मुंह से
घुर्राटे की आवाज आ रही थी; किसी की नाक बह रही थी; किसी की आंख से आंसू टपक रहे थे; किसी की आंख पर
कीचड़ इकट्ठा हो गया था।
बुद्ध
एक-एक चेहरे के पास गए और वही रात बुद्ध के लिए घर से भागने की रात हो गई। क्योंकि
इन चेहरों को उन्होंने देखा था; ऐसा नहीं देखा था। लेकिन ये चेहरे असलियत के
ज्यादा करीब थे। जिन चेहरों को देखा था, वे मेकअप से तैयार
किए गए चेहरे थे, तैयार चेहरे थे। ये चेहरे असलियत के ज्यादा
करीब थे। यह शरीर की असलियत है।
लेकिन
जैसी शरीर की असलियत है,
वैसे ही सभी सुखों की असलियत है। और एक-एक सुख को जो एक्सरे
मेडिटेशन करे, एक-एक सुख पर एक्सरे की किरणें लगा दे,
ध्यान की, और एक-एक सुख को गौर से देखे,
तो आखिर में पाएगा कि हाथ में सिवाय दुख के कुछ बच नहीं रहता। और जब
आपको एक सुख की व्यर्थता में समस्त सुखों की व्यर्थता दिखाई पड़ जाए, और जब एक सुख के डिसइलूजनमेंट में आपके लिए समस्त सुखों की कामना क्षीण हो
जाए, तो आपकी जो स्थिति बनती है, उसका
नाम वैराग्य है।
वैराग्य
का अर्थ है, अब मुझे कुछ भी आकर्षित नहीं करता। वैराग्य का अर्थ है, अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके लिए मैं कल जीना
चाहूं। वैराग्य का अर्थ है, ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके लिए मैं कल जीना चाहूं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे
पाए बिना मेरा जीवन व्यर्थ है।
वैराग्य
का अर्थ है, वस्तुओं के लिए नहीं, पर के लिए नहीं, दूसरे के लिए नहीं, अब मेरा आकर्षण अगर है, तो स्वयं के लिए है। अब मैं उसे जान लेना चाहता हूं, जो सुख पाना चाहता है। क्योंकि जिन-जिन से सुख पाना चाहा, उनसे तो दुख ही मिला। अब एक दिशा और बाकी रह गई कि मैं उसको ही खोज लूं,
जो सुख पाना चाहता है। पता नहीं, वहां शायद
सुख मिल जाए। मैंने बहुत खोजा, कहीं नहीं मिला; अब मैं उसे खोज लूं, जो खोजता था। उसे और पहचान लूं,
उसे और देख लूं।
वैराग्य
का अर्थ है, विषय से मुक्ति और स्वयं की तरफ यात्रा।
चित्त
दो यात्राएं कर सकता है। या तो आपसे पदार्थ की तरफ, और या फिर पदार्थ से आपकी
तरफ। आपसे पदार्थ की तरफ जाती हुई जो चित्त की धारा है, उसका
नाम राग है। पदार्थ से आपकी तरफ लौटती हुई जो चेतना है, उसका
नाम वैराग्य है।
कभी
आपने ऐसा अनुभव किया,
जब पदार्थ से आपकी चेतना आपकी तरफ लौटती हो? सबको
छोटा-छोटा अनुभव आता है वैराग्य का। लेकिन थिर नहीं हो पाता। थिर इसलिए नहीं हो
पाता कि वैराग्य का हम कोई अभ्यास नहीं करते हैं। राग का तो अभ्यास करते हैं।
वैराग्य का क्षण भी आता है, तो चूंकि अभ्यास नहीं होता,
इसलिए खो जाता है।
करीब-करीब
ऐसे जैसे आपने कबूतर पालने वाले लोगों को देखा होगा, अपने घर पर एक छतरी लगाकर
रखते हैं। कबूतर आता है, तो छतरी पर बैठ पाता है। हमारे ऊपर
भी वैराग्य का कबूतर कई बार आता है, लेकिन कोई छतरी नहीं
होती, जिस पर बैठ पाए। फिर उड़ जाता है। अभ्यास, छतरी का बनाना है कि जब वैराग्य का कबूतर आए, जब
वैराग्य का पक्षी आए अपनी तरफ उड़कर, तो हमारे पास उसके बैठने
की, बिठाने की, निवास की जगह हो।
अभ्यास
वैराग्य को थिर करने का उपाय है। वैराग्य तो सबके भीतर पैदा होता है, अभ्यास
थिर करने का उपाय है। वैराग्य तो सबके ऊपर आता है, अभ्यास
उसे रोक लेने का उपाय है, उसे प्राणों में आत्मसात कर लेने
का उपाय है।
अभी
हमारी जैसी स्थिति है,
वह ऐसी है कि राग का तो हम अभ्यास करते हैं। राग का हम अभ्यास करते
है। हर राग व्यर्थ होता है, लेकिन अभ्यास जारी रहता है। और
वैराग्य कभी-कभी आता है राग की असफलता में से, लेकिन उसका
कोई अभ्यास न होने से वह कहीं भी ठहर नहीं पाता; हमारे ऊपर
रुक नहीं पाता; वह बह जाता है।
इसलिए
कृष्ण कहते हैं,
वैराग्य और अभ्यास।
अभ्यास
क्या है? वैराग्य तो इस प्रतीति का नाम है कि इस जगत में बाहर कोई भी सुख संभव नहीं
है। सुख असंभावना है। दूसरे से किसी तरह की शांति संभव नहीं है। दूसरे से सब
अपेक्षाएं व्यर्थ हैं। इस प्रतीति को उपलब्ध हो जाना वैराग्य है।
लेकिन
इस प्रतीति को हम सब उपलब्ध होते हैं, मैं आपसे कह रहा हूं। इससे आपको
थोड़ी हैरानी होती होगी। हम सभी वैराग्य को उपलब्ध होते हैं रोज।
कामवासना
मन को पकड़ती है। लेकिन आपने देखा है कि कामवासना के बाद आदमी क्या करता है? सिर्फ
करवट लेकर निढाल पड़ जाता है। वैराग्य पकड़ता है।
हर
कामवासना के बाद एक विषाद मन को पकड़ लेता है, एक फ्रस्ट्रेशन। फिर वही! कुछ भी
नहीं, फिर वही। कुछ भी नहीं, फिर वही।
और चित्त ग्लानि अनुभव करता है। चित्त को लगता है, यह मैं
क्या कर रहा हूं! लेकिन तब आप चुपचाप करवट लेकर सो जाते हैं। चौबीस घंटे में फिर
राग पैदा हो जाता है।
वैराग्य
को स्थिर करने का आपने कोई उपाय नहीं किया। जब कामवासना व्यर्थ होती है, तब आपने
उठकर ध्यान किया कुछ? तब आपने उठकर कोई अभ्यास किया कि यह
वैराग्य का क्षण गहरा हो जाए! नहीं; तब आप चुपचाप सो गए।
लेकिन
कामवासना के लिए आप बहुत अभ्यास करते हैं। राह चलते अभ्यास चलता है। फिल्म देखते
अभ्यास चलता है। रेडियो सुनते अभ्यास चलता है। किताब पढ़ते अभ्यास चलता है। मित्रों
से बात करते अभ्यास चलता है। मजाक करते अभ्यास चलता है। अगर कोई आदमी ठीक से जांच
करे अपने चौबीस घंटे की,
तो चौबीस घंटे में कितने समय वह कामवासना का अभ्यास कर रहा है,
देखकर दंग हो जाएगा। अगर मजाक भी करता है किसी से, तो भीतर कामवासना का कोई रूप छिपा रहता है।
दुनिया
की सब मजाकें सेक्सुअल हैं,
निन्यानबे परसेंट। निन्यानबे प्रतिशत मजाक सेक्स से संबंधित हैं,
कामवासना से संबंधित हैं। हंसता है, घूरकर
देखता है, रास्ते पर चलता है; चलने का
ढंग, कपड़े पहनने का ढंग, उठने का ढंग,
बोलने का ढंग, अगर थोड़ा गौर करेंगे तो
कामवासना से संबंधित पाएंगे।
कभी
आपने खयाल किया,
अगर एक कमरे में दस पुरुष बैठकर बात कर रहे हों और एक स्त्री आ जाए,
तो उनके बोलने की सबकी टोन फौरन बदल जाती है; वही
नहीं रह जाती। बड़े मृदुभाषी, मधुर, शिष्ट,
सज्जन हो जाते हैं! क्या हो गया? क्या,
हो क्या गया एक स्त्री के प्रवेश से? उनको भी
खयाल नहीं आएगा कि यह अभ्यास चल रहा है। यह अभ्यास है, बहुत
अनकांशस हो गया, अचेतन हो गया। इतना कर डाला है कि अब हमें
पता ही नहीं चलता।
इसकी
हालत करीब-करीब ऐसी हो गई है, जैसे साइकिल पर आदमी चलता है, तो उसको घर की तरफ मोड़ना नहीं पड़ता हैंडिल, मुड़ जाता
है। चलता रहता है, साइकिल चलती रहती है, जहां-जहां से मुड़ना है, हैंडिल मुड़ता रहता है। अपने
घर के सामने आकर गाड़ी खड़ी हो जाती है। उसे सोचना नहीं पड़ता कि अब बाएं मुड़ें कि अब
दाएं। अभ्यास इतना गहरा है कि अचेतन हो गया है। साइकिल होश से नहीं चलानी पड़ती।
बिलकुल मजे से वह गाना गाते, पच्चीस बातें सोचते, दफ्तर का हिसाब लगाते...चलता रहता है। पैर पैडिल मारते रहते हैं, हाथ साइकिल मोड़ता रहता है। यह बिलकुल अचेतन हो गया है। इतना अभ्यास हो गया
कि अचेतन हो गया।
कामवासना
का अभ्यास इतना अचेतन है कि हमें पता ही नहीं होता कि जब हम कपड़ा पहनते हैं, तब भी
कामवासना का अभ्यास चल रहा है। जब आप आईने के सामने खड़े होकर कपड़े पहनकर देखते हैं,
तो सच में आप यह देखते हैं कि आपको आप कैसे लग रहे हैं? या आप यह देखते हैं कि दूसरों को आप कैसे लगेंगे? और
अगर दूसरों का थोड़ा खयाल करेंगे, तो अगर पुरुष देख रहा है
आईने में, तो दूसरे हमेशा स्त्रियां होंगी। अगर स्त्रियां
देख रही हैं, तो दोनों हो सकते हैं, पुरुष
और स्त्रियां भी। क्योंकि स्त्रियों की कामवासनार् ईष्या से इतनी संयुक्त हो गई है,
जिसका कोई हिसाब नहीं है। पुरुष होंगे कि कोई देखकर प्रसन्न हो जाए,
इसलिए; और स्त्रियों की याद आएगी कि कोई
स्त्री जल जाए, राख हो जाए, इसलिए। मगर
दोनों कामवासना के ही रूप हैं। दोनों के भीतर गहरे में तो वासना ही चल रही है।
यह
अभ्यास चौबीस घंटे चल रहा है। तो फिर वैराग्य का जो पक्षी आता है आपके पास, कोई जगह
नहीं पाता जहां बैठ सके; व्यर्थ हो जाता है। आपने जो मकान
बनाया है, वह वासना के पक्षी के लिए बनाया है। इसलिए सब तरफ
से उसको निमंत्रण है, निवास के लिए मौका है।
जीवन
दोनों देता है आपको,
वैराग्य भी और राग भी। लेकिन राग का अभ्यास है, इसलिए राग टिक जाता है। वैराग्य का अभ्यास नहीं है, इसलिए
वैराग्य नहीं टिकता है। जीवन में अंधेरा भी है, उजेला भी।
राग भी, विराग भी। यहां क्रोध भी आता है, पश्चात्ताप भी। लेकिन क्रोध के लिए पूरा इंतजाम है, पूरी
मशीनरी है आपके पास। पश्चात्ताप की कोई मशीनरी नहीं है। आ जाता है, चला जाता है। उसकी कोई गहरी आप पर पकड़ नहीं छूट जाती।
जीवन
आपको पूरे अवसर देता है। लेकिन जिस चीज का अभ्यास है, आप उसी का
उपयोग कर सकते हैं। करीब-करीब ऐसा समझिए कि आप पैदल चल रहे हैं और रास्ते में आपको
पड़ी हुई कार मिल जाए, बिलकुल ठीक। जरा स्विच आन करना है कि
कार चल पड़े। लेकिन अगर आपका कोई अभ्यास नहीं है, तो आप पैदल
ही चलते रहेंगे। और खतरा एक है कि कहीं कार का मोह पकड़ जाए, तो
गले में रस्सी बांधकर, कार से बांधकर उसको खींचने की कोशिश
करेंगे, उसमें और झंझट में पड़ेंगे। उससे तो पैदल ही तेजी से
चल लेते।
अभ्यास
जो है, वही आप कर पाएंगे। जिसका अभ्यास नहीं है, वह आप नहीं
कर पाएंगे। इसलिए कृष्ण ने वैराग्य को नंबर दो पर कहा। मैंने जानकर नंबर एक पर
वैराग्य आपको समझाया। कृष्ण के सूत्र में अभ्यास पहले और वैराग्य बाद में उन्होंने
कहा है। उन्होंने कहा, जिसे अभ्यास और वैराग्य...।
वैराग्य
को नंबर दो पर कृष्ण ने क्यों रखा? वैराग्य है तो प्रथम। क्योंकि
वैराग्य न हो, तो अभ्यास नहीं हो सकता। लेकिन नंबर दो पर
रखने का कारण है। और वह कारण यह है कि वैराग्य तो रोज आता है, लेकिन अभ्यास न हो तो टिक नहीं सकता। अभ्यास क्या हो वैराग्य का?
जैसे
आपने कामवासना का अभ्यास किया है, वैसे ही वैराग्य का भी अभ्यास करना पड़े। जैसे
आपने राग का अभ्यास किया है, वैसे ही वैराग्य का अभ्यास करना
पड़े। जिस तरह आप काम का चिंतन करते हैं, उसी तरह निष्काम का
चिंतन करना पड़े। ठीक वही करना पड़े, उलटे मार्ग पर। जैसे कि
आप यहां तक आए अपने घर से, तो जिस रास्ते से आए हैं, उसी से वापस लौटिएगा न! और तो कोई उपाय नहीं है। मुझ तक जिस रास्ते से आप
आए हैं, लौटते वक्त उसी रास्ते से वापस लौटिएगा। एक ही फर्क
होगा, रास्ता वही होगा, आप वही होंगे,
एक ही फर्क होगा कि आपका चेहरा उलटी तरफ होगा। और तो कोई फर्क होने
वाला नहीं है।
राग
का रास्ता वही है,
जो वैराग्य का। सिर्फ आपका चेहरा उलटी तरफ होगा। जिन-जिन चीजों में
आपने रस लिया था, उन-उन चीजों में विरस। जिन-जिन चीजों के
लिए दीवाने हुए थे, उन-उन चीजों की व्यर्थता। जैसे-जैसे दौड़े
थे, वैसे-वैसे विपरीत यात्रा।
किस-किस
चीज में रस लिया है?
किस-किस चीज में रस लिया है? उस-उस चीज के
यथार्थ को देखना जरूरी है। क्योंकि यथार्थ उसके विरस को भी उत्पन्न कर देता है।
किस चीज का आकर्षण है? किसी प्रियजन का हाथ बहुत प्रीतिकर
लगता है, हाथ में लेने जैसा लगता है। तो लेकर बैठ जाएं,
लेकिन लेकर भूलें न। हाथ हाथ में ले लें और अब थोड़ा ध्यान करें कि
क्या रस मिल रहा है? सिवाय पसीने के कुछ भी मिलता नहीं है।
थोड़ी ही देर में मन होगा कि अब यह हाथ छोड़ना चाहिए। वैराग्य अपने आप ही आता है!
लेकिन
खुद के ही राग में किए गए वायदे दिक्कत देते हैं। राग में हम कहते हैं कि तेरा हाथ
हाथ में आ जाए,
तो दुनिया की कोई ताकत छुड़ा नहीं सकती। दुनिया की ताकत की बात दूर
है, पांच-सात मिनट के बाद दुनिया की कोई ताकत दोनों के हाथ
साथ नहीं रख सकती, इकट्ठा नहीं रख सकती। पांच-सात मिनट के बाद
पसीना-पसीना ही रह जाता है! बदबू-बदबू ही छूट जाती है। पांच-सात मिनट के बाद कोई
बहाना खोजकर हाथ अलग करना पड़ता है।
जरा
गौर से देखना कि जब हाथ अलग करते हैं, तब मन में वैराग्य का एक क्षण है।
उस क्षण को थोड़ा गहरा करने की जरूरत है, पहचानने की जरूरत
है। क्योंकि नहीं तो कल फिर हाथ हाथ में लेने की आकांक्षा पैदा होगी। अभी वैराग्य
का क्षण है, अभ्यास कर लें। थोड़ा गौर से देखें। और दो मिनट
ज्यादा लिए रहें हाथ को, और थोड़ा गौर से सोचें कि क्या
दुबारा फिर हाथ को हाथ में लेने की आकांक्षा पैदा करेगा मन? अगर
करता हो, तो अब इस हाथ को जिंदगीभर हाथ में ही लिए रहें! अब
जल्दी क्या है? हाथ हाथ में है, हम रुक
जाएं। मन को थोड़ा मौका दें कि वह वैराग्य को भी पहचाने। जल्दी न करें। क्योंकि
जल्दी खतरनाक है। जल्दी के बाद वैराग्य थिर न हो पाएगा।
भोजन
बहुत अच्छा लग रहा है,
तो खा लें जरा; खाते चले जाएं। फिर रुकें मत,
जब तक कि प्राण संकट में न पड़ जाएं। रुकें मत। और जरा देख लें कि इस
सब स्वाद का क्या फल हो सकता है! और जब स्वाद पूरा ले चुकें, तो जब मुंह में किसी चीज को, जिसकी लोग कल्पना करते
हैं...। खाने वाले प्रेमी हैं...।
टाइप
हैं लोगों के अलग-अलग। कुछ हैं, जिनको सब चीज छूट जाए, लेकिन
भोजन का रस कठिनाई दे जाए। कुछ हैं, जिन्हें सब छूट जाए,
लेकिन काम का रस कठिनाई दे जाए। कुछ हैं, जिन्हें
काम, भोजन किसी चीज की चिंता नहीं। सिर्फ अहंकार का रस है,
यश का। वे भूखे रह सकते हैं, जेल जा सकते हैं,
लेकिन कोई पद पर बिठा दो! तो वे सब कर सकते हैं। पत्नी छोड़ सकते हैं,
बच्चे छोड़ सकते हैं। सब जीवन भारी तपश्चर्या में गुजार सकते हैं। बस
इतना ही पक्का कर दो कि कोई कुर्सी पर...। और ऐसा भी जरूरी नहीं है कि वे पहले ही
से कहें, कुर्सी पर बिठा दो। हो सकता है, उनको भी पक्का पता न हो कि कुर्सी पर बैठने के लिए जेल जा रहे हैं। चित्त
बड़ा अचेतन काम करता है। लेकिन जब जेल से छूटेंगे, तब सबको
पता चल जाएगा कि वे जेल किसलिए गए थे।
जो
त्यागी दिखाई पड़ते हैं,
उनमें भी सौ में से मुश्किल से एकाध आदमी होता है, जो वैराग्य को उपलब्ध होता है। त्याग भी इनवेस्टमेंट की तरह काम करता है।
इधर त्याग करते हैं, उधर कुछ उनकी भोग की इच्छा है। लेकिन हम
पहचान नहीं पाते। यह हो सकता है कि मैं गोली खाने को राजी हो जाऊं, अगर फूलमाला मेरे ऊपर पड़ने को हो। यह हमें दिखाई नहीं पड़ेगा, कि कौन फूलमाला पड़ने के लिए गोली अपने ऊपर डलवाएगा! यह वह आदमी कह रहा है,
जिसको यश की आकांक्षा और पकड़ नहीं है। जिसको है, वह पूरा जीवन इस पर दांव पर लगा सकता है।
लेकिन
यह जो चित्त की व्यवस्था है, इसमें जब वैराग्य का क्षण आता है, उस वक्त ठहरने की जरूरत है। उस अंतराल में रुकने की जरूरत है। तो अभ्यास
की शुरुआत हो जाएगी। जैसे समुद्र में पानी बढ़ता है, फिर
गिरता है, ठीक वैसे ही चित्त में राग आता है, फिर गिरता है। जब राग आता है, तब आप बड़ा इंतजाम करते
हैं। और जब वैराग्य आता है, जब गिरता है राग, तब आप कुछ नहीं करते। तब आप कोई व्यवस्था नहीं करते कि वह विराग थिर हो
जाए। उस विराग को थिर करने के लिए वैराग्य के क्षणों का उपयोग करिए।
और
जिंदगी में जितने क्षण राग के हैं, उतने ही विराग के हैं। जितने दिन
हैं, उतनी ही रातें हैं। उसमें कोई अंतर नहीं है। वह अनुपात
बराबर है। हर राग के साथ विराग आएगा ही, इसलिए अनुपात बराबर
है। पर उस उतरते हुए क्षण का आप उपयोग नहीं करते हैं। उसका कैसे उपयोग करें?
जैसा आपने चढ़ते हुए क्षण का उपयोग किया था। कितना रस लिया था!
अगर
कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलने जा रहा है, या कोई धनी कोई सौदा करने जा रहा
है जिसमें लाभ होने वाला है, या कोई नेता वोटर से वोट मांगने
जा रहा है, तब उनकी टपकती हुई लार देखें! तब उनके चेहरे से
जो झलक रहा है, वह देखें! वह हम सबके ऊपर उतरता है वैसा ही।
लेकिन जब विरक्ति का क्षण पीछे आता है, तब? तब हम विरक्ति के क्षण को जल्दी से गुजारने की कोशिश करते हैं।
अभी
एक महिला मुझे मिलने आईं;
उनके पति चल बसे। तो मुझसे वे कहने लगीं, हमने
बहुत सुख पाया। साथ रहे। बहुत सुख पाया। अब मुझे बहुत पीड़ा है, बहुत दुख है। मुझे कुछ सांत्वना चाहिए। मैंने कहा, तुम
गलत जगह आ गई हो। मैं सांत्वना नहीं दूंगा। सुख तुमने पाया, सांत्वना
मैं दूं? मेरा क्या कसूर है? मेरा
इसमें कोई हाथ ही नहीं है। उसने कहा, नहीं-नहीं; आपका तो कोई हाथ नहीं है। लेकिन कई संतों-महात्माओं के पास इसीलिए जा रही
हूं कि सांत्वना मिल जाए। मैंने कहा, किन्हीं ने दी? उन्होंने कहा, बहुतों ने दी। तो मैंने कहा, फिर मेरे पास किसलिए आईं? अगर मिल गई, तो खतम करो अब यह बात! उसने कहा, नहीं, मिलती नहीं। मैंने कहा, मिलेगी भी नहीं। सुख तुम
पाओगी, तो जब दुख का क्षण आएगा, उसे
कौन पाएगा? राग तुम भोगोगी, जब विराग
का क्षण आएगा, उसे कौन भोगेगा? अब तुम
इस तरकीब में लगी हो कि तुमने राग तो भोग लिया, अब यह जो
विराग की उतरती धारा है, इसको कोई भुलाने की तरकीब दे दे। यह
नहीं होगा।
मैंने
कहा, मैं तो तुमसे प्रार्थना करूंगा कि तुम एक काम करो; यह
कीमती होगा। जितना पति का साथ रहना कीमती नहीं हुआ, उससे
ज्यादा पति की मृत्यु कीमती हो सकती है। क्योंकि पति के साथ से कुछ मिल गया हो,
ऐसा मैं नहीं मानता। तुम फिर ईमानदारी से मुझसे कहो कि सच में सुख
था?
वह
महिला थोड़ी बेचैन हुई। उसने कहा कि नहीं; कहने को कहते हैं। सुख तो क्या था;
ठीक था, सो-सो; ऐसा ही
ऐसा था! मैंने कहा, और थोड़ा गौर से सोचो। क्योंकि पहले तो
तुम बिलकुल आश्वस्त थीं कि बहुत सुख पाया। अब तुम कहती हो, सो-सो,
ऐसा-ऐसा। थोड़ा और जरा भीतर जाओ। उसने कहा, लेकिन
आप क्यों दबे हुए घाव उघाड़ना चाहते हैं? मैं नहीं उघाड़ना
चाहता। मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं कि स्थिति सच में क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं
कि अब तुम कल्पना कर रही हो कि तुमने सुख भोगा। यह कल्पना, अतीत
में सुख भोगने की, वैराग्य के क्षण को गंवा दोगी। ठीक से
देखो कि तुमने सुख भोगा?
वह
स्त्री थोड़ी डर गई। उसने आंख बंद कर ली। फिर उसने कहा कि नहीं, सुख तो
नहीं भोगा। मैंने कहा, कभी तुम्हारे मन में ऐसा खयाल आया था
कि इस पति के साथ विवाह न होता, तो अच्छा था? क्योंकि ऐसी पत्नी जरा खोजना मुश्किल है। उसने कहा, आप
भी कैसी बात करते हैं! मैंने कहा, मैं तुम्हें एक कहानी कहता
हूं।
एक
चर्च में एक पादरी ने एक सांझ कहा कि जिन दंपतियों में कभी झगड़ा न हुआ हो, वे आगे आ
जाएं। कोई पांच सौ लोग थे। पांच-सात जोड़े आगे आए। उस पादरी ने भगवान से कहा,
हे परमात्मा, इन पक्के झूठों को आशीर्वाद दे,
ब्लेस दीज डैम लायर्स! उन्होंने कहा, आप हमें
झूठा कह रहे हैं?
कहने
की कोई जरूरत नहीं है। मैंने यही जानने के लिए तुम्हें बाहर बुलाया था कि कितने
झूठे आज यहां इकट्ठे हैं। उनमें से एक ने पूछा, लेकिन आपको पता कैसे चला? उसने कहा कि मैं भी दंपति हूं। मुझे भी बहुत कुछ पता है। और तुम सब
अलग-अलग आकर मुझसे चर्चा कर गए हो। तुम भूल गए हो।
वे
पति भी आकर चर्चा कर चुके हैं। वे उसी के सुनने वाले हैं। और ईसाइयों में कन्फेशन
होता है। पादरी के पास जाकर पति भी बता आता है, किस मुसीबत में गुजर रहा है;
पत्नी भी बता आती है। तुम अलग-अलग सब बता गए हो मुझे। और अब तुम
जोड़े की तरह खड़े हो कि हममें कोई कलह नहीं है!
मैंने
उस महिला को कहा कि ठीक से देख ले। कहीं अब यह सुख का खयाल झूठा न हो।
हम
भविष्य में भी झूठे सुख निर्मित करते हैं और अतीत में भी। हम अदभुत हैं। जो सुख
हमने कभी नहीं पाए,
हम सोचते हैं, हमने अतीत में पाए। यह तरकीब है
मन की। क्योंकि अतीत में सुख निर्मित करें, तो ही भविष्य में
आशा करना आसान है। अन्यथा भविष्य में आशा करना दुरूह हो जाएगा। यह अभ्यास है काम
का।
वैराग्य
का अभ्यास करना है,
तो अतीत के सुखों को ठीक से देखना, ताकि साफ
हो जाए कि वे दुख थे। अगर पूरा अतीत दुख सिद्ध हो जाए, तो
भविष्य में सुख की आशा क्षीण हो जाएगी, गिर जाएगी; क्योंकि भविष्य अतीत के प्रोजेक्शन, अतीत के फैलाव
के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। कल्पनाएं हमारी स्मृतियों के ही नए रूप हैं।
भविष्य की योजनाएं, हमारे अतीत की ही विफल योजनाओं को फिर से
सम्हालना है।
काम
का अभ्यास चलता है। तो अतीत में हम सोचते हैं, कैसा सुख मिला! उस दिन भोजन किया
था उस होटल में, कैसा सुख पाया था! हालांकि उस दिन बिलकुल
नहीं पाया था; लेकिन आज सोच रहे हैं। आज सोच रहे हैं,
ताकि कल फिर उस होटल की तरफ पैर जा सकें।
तो
मैं आपसे कहूंगा कि अतीत का भी सत्य साफ है। उस महिला को मैंने कहा, ठीक से
देखो। उसने हिम्मत जुटाकर कहा कि नहीं, कोई सुख तो नहीं
पाया। मैंने कहा, जिसके जीवन से तुमने सुख नहीं पाया,
और जिसको तुम कहती हो खुद कि मैंने कई बार सोचा कि इस आदमी से मिलना
न होता, तो अच्छा; विवाह न किया होता,
तो अच्छा...। क्या कभी तुम्हारे मन में ऐसा भी खयाल आया था कि यह
आदमी मर जाए या मैं मर जाऊं?
उस
स्त्री ने कहा,
अब आप जरा ज्यादा बात कर रहे हैं! मैं धीरे-धीरे आपसे कुछ बातों पर
राजी होती जाती हूं, तो आप ज्यादा बात कर रहे हैं! मैंने कहा
कि मैं कुछ ज्यादा नहीं कर रहा। ऐसा मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बहुत मुश्किल है कि
जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उनकी हत्या का या उनके मर जाने
का खयाल हमें न आता हो। स्वीकार करना कठिन पड़ता है। खुद भी स्वीकार करना कठिन पड़ता
है कि ऐसा कैसे! कई दफे जब मन में आता है, तो हम कहते हैं,
नहीं-नहीं, यह ठीक नहीं है। इस तरह की बात बड़ी
गलत है। यह मन बड़ा खराब है। जैसे कि मन दोषी है और हम निर्दोष, अलग खड़े हैं!
वह
महिला ईमानदार थी और उसने कहा कि ऐसा खयाल आया। लेकिन जैसे ही उसने कहा कि ऐसा
खयाल आया, जैसे उसके ऊपर से एक भार उतर गया। और उसने कहा, सच
में ही मैं हैरान हूं। जिस व्यक्ति के साथ रहकर मैं सुख न पा सकी, जिस व्यक्ति के साथ रहकर मैंने कई बार सोचा कि दो में से एक समाप्त ही हो
जाए तो अच्छा, आज उसकी मृत्यु पर मैं दुख क्यों पा रही हूं?
और
मैंने कहा कि जो दुख पा रही हो, उससे बचने की भी कोशिश चल रही है। इस दुख को
पूरा पाओ। छाती पीटो, रोओ, चिल्लाओ।
जिस तरह नाची थीं शादी के वक्त, उसी तरह अब मृत्यु के वक्त
छाती पीटो, तड़पो, जमीन पर लोटो। दुख
भोगो। और देखो इस दुख को गौर से, ताकि यह वैराग्य का क्षण
ठहर जाए, और कल फिर पुरानी आशाएं और फिर पुराने जाल फिर खड़े
न हों।
लाओत्से
ने लिखा है कि एक आदमी मरने के करीब था। लाओत्से गांव का बूढ़ा आदमी था, फकीर था।
तो उसकी पत्नी उसे कई बार कहने आई कि मेरे पति को बचा लो। उसके बिना मैं बिलकुल न
रह सकूंगी। लाओत्से ने कहा, बचाना तो मेरे हाथ में नहीं है।
लेकिन तुम बिलकुल बिना उसके न रह सकोगी, इस पर भरोसा मत
करना। क्योंकि मैंने कई लोगों को--मैं बूढ़ा आदमी हूं--मैंने कई लोगों को मरते और
कई लोगों को यही बात करते सुना। और सब बिना उसके रह लेते हैं।
नहीं; वह नहीं
मानी। उसने कहा, वे और और होंगे; मैं
और हूं। हर आदमी को यही खयाल है कि मैं एक्सेप्शन हूं। वे और और होंगे, मैं और हूं। मैं मर जाऊंगी, एक क्षण न जी सकूंगी।
लाओत्से ने कहा, अब तक किसी को मरते नहीं देखा। इस गांव में
मैं बहुत दिन से हूं। हालांकि यही बात बहुतों को कहते सुना। और जितने जोर से तुम
कहती हो, इतने ही जोर से कहते सुना। लेकिन उस स्त्री ने कहा,
आप औरों की बात कर रहे हैं। मेरी बात करिए। लाओत्से ने कहा, वक्त आएगा; तो तुझसे मुलाकात करूंगा।
पति
मर गया। तो उन दिनों चीन में एक प्रथा थी कि पति की कब्र पर गीली मिट्टी लगाते थे
और उस पर थोड़ी दूब उगाते थे। और रिवाज यह था कि जब तक पति की कब्र की गीली मिट्टी
सूखकर कड़ी न हो जाए और उस पर दूब पूरी छा न जाए, तब तक उस स्त्री को दूसरा
विवाह--कम से कम तब तक--नहीं करना चाहिए।
लाओत्से
ने देखा कि वह मर गया आदमी। पांच-सात दिन के बाद वह कब्रिस्तान के पास से गुजरता
था, तो देखा कि वह औरत कब्र पर पंखा कर रही है! उसने सोचा कि यह औरत ठीक ही
कहती थी कि यह एक्सेप्शनल है, यह विशेष। हद! मरे हुए पति को
हवा कर रही है! आश्चर्य! लाओत्से ने कहा, मुझसे गलती हो गई।
निश्चित गलती हो गई। जिंदा आदमियों को पत्नियां हवा नहीं करतीं, मरे हुए आदमी को पत्नी हवा कर रही है! मुझसे गलती हो गई। यह औरत निश्चित
ही विशेष है।
लाओत्से
पास गया और कहा कि देवी,
मैं प्रणाम करता हूं। मुझे भरोसा नहीं आया कि कोई मुर्दा पति को हवा
करेगा।
उसने
कहा कि भरोसे की जरूरत नहीं है। हवा पति को नहीं कर रही हूं, कब्र
जल्दी सूख जाए! वह एक आदमी मेरे पीछे पड़ा है, उसके मैं प्रेम
में पड़ गई हूं। और यह कब्र सूखने में देर ले रही है। आकाश में बादल घिरे हैं;
कहीं बरसा न हो जाए!
ऐसा
है आदमी का मन! मत सोचना किसी और का! अगर किसी और का सोचा, तो राग का
अभ्यास होगा। अगर जाना कि मेरा भी, तो विराग का अभ्यास होगा।
फिर से दोहरा दूं। अगर सोचा कि और का होगा ऐसा, तो राग का
अभ्यास कर रहे हैं आप। अगर सोचा कि मेरा भी ऐसा ही है, तो
वैराग्य का अभ्यास होता है।
अभ्यास
के संबंध में कुछ दोत्तीन बातें और आपसे कहूं।
एक
तो यह कि कुछ लोगों का खयाल है कि परमात्मा को पाने के लिए किसी अभ्यास की कोई भी
जरूरत नहीं है। जैसा कि जापान में कुछ झेन फकीर कहते हैं कि परमात्मा को पाने के
लिए कोई भी अभ्यास की जरूरत नहीं। यद्यपि वे ऐसा कहते ही हैं, अभ्यास
पूरी तरह करते हैं। पर वे उसको नाम देते हैं, अभ्यासरहित
अभ्यास, एफर्टलेस एफर्ट, प्रयत्नरहित
प्रयत्न।
ठीक
है। उनके कहने में कुछ अर्थ है। अगर गीता का यह वचन उन्हें बताया जाए, तो वे
कहेंगे, अभ्यास से नहीं मिलेगा परमात्मा। क्योंकि स्वभाव अभ्यास
से नहीं मिलता। अभ्यास से आदतें मिलती हैं।
इसको
थोड़ा समझना पड़ेगा। स्वभाव अभ्यास से नहीं मिलता; अभ्यास से आदतें मिलती हैं।
स्वभाव तो मिला ही हुआ है। और परमात्मा को पाना कोई आदत नहीं है कि आप अभ्यास कर
लें।
जैसे
किसी को धनुर्विद्या सीखनी हो, तो अभ्यास करना पड़ेगा। क्योंकि धनुर्विद्या एक
आदत है, स्वभाव नहीं। अगर न सिखाया जाए, तो आदमी कभी भी धनुर्विद न हो सकेगा। जैसा मैंने सुबह कहा, किसी को भाषा सीखनी हो, तो अभ्यास करना पड़ेगा।
क्योंकि भाषा एक आदत है, एक हैबिट है, स्वभाव
नहीं है। लेकिन श्वास तो चलेगी आदमी की बिना अभ्यास के, कि
उसका भी अभ्यास करना पड़ेगा! खून तो बहेगा बिना अभ्यास के, कि
उसका भी अभ्यास करना पड़ेगा! हड्डियां तो बड़ी होती रहेंगी बिना अभ्यास के, कि उनका भी अभ्यास करना पड़ेगा!
तो
झेन फकीर कहते हैं,
परमात्मा को पाना तो स्वभाव को पाना है, इसलिए
अभ्यास की कोई भी जरूरत नहीं। तो हम कह सकते हैं, हम तो कोई
अभ्यास कर ही नहीं रहे, तो फिर हमको परमात्मा क्यों नहीं
मिलता? झेन फकीर कहेंगे, आप नहीं कर
रहे, ऐसा मत कहिए। आप परमात्मा को खोने का अभ्यास कर रहे
हैं। अभ्यास आप कर रहे हैं परमात्मा को खोने का। तो झेन फकीर कहते हैं, सिर्फ परमात्मा को खोने का अभ्यास मत करिए, और आप
परमात्मा को पा लेंगे।
मगर
परमात्मा को खोने का अभ्यास न करना, बहुत बड़ा अभ्यास है। उसमें सारा
वैराग्य साधना पड़ेगा। और सारी विधियां साधनी पड़ेंगी।
लेकिन
झेन फकीर संगत हैं। उनकी बात का अर्थ है। वे यह जोर देना चाहते हैं कि जब परमात्मा
आपको मिल जाए,
तो आप ऐसा मत समझना कि आपके अभ्यास से मिल गया। कोई नहीं समझता ऐसा।
जब परमात्मा मिलता है, तो ऐसा ही पता चलता है कि वह तो मिला
ही हुआ था। मेरे गलत अभ्यासों के कारण बाधा पड़ती थी। ऐसा समझ लें कि एक झरना है,
उसके ऊपर एक पत्थर रखा है। पत्थर को हटा दें, तो
झरना फूट पड़ता है। झरने को फूटने के लिए कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता। लेकिन पत्थर
अगर अटा रहे ऊपर, तो बाधा बनी रहती है।
तो
झेन फकीर कहते हैं,
आदमी की आदतें बाधाओं का काम कर रही हैं, रुकावटों
का।
ऐसा
समझें कि आप मकान के भीतर बैठे हैं, दरवाजा बंद करके। अगर मैं आपसे
कहूं कि अगर आपको सूरज चाहिए, तो सूरज को भीतर लाने का
अभ्यास करना पड़ेगा! तो आप कहेंगे, यह कहीं हो सकता है?
सूरज को हम भीतर लाने का अभ्यास कैसे करेंगे?
झेन
फकीर कहते हैं,
भीतर लाने का कोई अभ्यास नहीं करने की जरूरत है; सिर्फ दरवाजा बंद करने का जो अभ्यास किया हुआ है, उसको
छोड़िए। दरवाजा खुला करिए, सूरज भीतर आ जाएगा। सूरज भीतर लाना
नहीं पड़ेगा, सूरज आ जाएगा। आप सिर्फ दरवाजा बंद मत करिए।
इसका
यह मतलब हुआ कि हम चाहें तो अभ्यास से परमात्मा से वंचित हो सकते हैं। और चाहें तो
अनभ्यास से, नो एफर्ट से, अभ्यास छोड़ देकर परमात्मा को पा सकते
हैं। लेकिन अभ्यास को छोड़ना अभ्यास करने से कम कठिन बात नहीं है। इसलिए झेन फकीर
अभ्यास की विधियां उपयोग करते हैं।
लेकिन
कृष्णमूर्ति ने एक कदम और हटकर बात कही है। वे कहते हैं, अभ्यास
छोड़ने के भी अभ्यास की जरूरत नहीं है। अगर गीता के इस वक्तव्य के खिलाफ इस सदी में
कोई वक्तव्य है, तो वह कृष्णमूर्ति का है। कृष्णमूर्ति कहते
हैं, इतने भी अभ्यास की जरूरत नहीं है--अभ्यास छोड़ने के लिए
भी। कोई मेथड, किसी विधि की जरूरत नहीं है।
लेकिन
जो कृष्णमूर्ति को थोड़ा भी समझेंगे, वे पाएंगे, वे
जिंदगीभर से एक विधि की बात कर रहे हैं। उस विधि का नाम है, अवेयरनेस।
उस विधि का नाम है, जागरूकता। वह मेथड है। सिर्फ इतना ही है
कि वे उसको मेथड नहीं कहते हैं। कोई हर्जा नहीं, उसको
नो-मेथड कहिए। कहिए कि यह अविधि है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर जागरूकता का
अभ्यास करना ही पड़ेगा। जागना पड़ेगा ही। और अगर जागरूकता का कोई अभ्यास नहीं करना
है, तो कहना ही फिजूल है किसी से कि जागो।
अगर
मैं आपसे कहता हूं,
जागो, तो इसका मतलब यह हुआ कि मैं आपसे कह रहा
हूं कि कुछ करो। वह करना कितना ही सूक्ष्म हो, लेकिन करना ही
पड़ेगा। अगर मैं यह भी कहता हूं, नींद तोड़ो, तो क्या फर्क पड़ता है। गीता कहती है, राग तोड़ो। कोई
कहता है, नींद तोड़ो। कोई कहता है, मूर्च्छा
तोड़ो। कोई कहता है, होश लाओ। कोई कहता है, जागो। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बात तय है कि कुछ करना पड़ेगा, समथिंग इज़ टु बी डन। या यह भी अगर हम कहना चाहें, तो
हम कह सकते हैं, समथिंग इज़ टु बी अनडन। लेकिन वह भी एक काम
है। अगर हम यह कहें कि कुछ करना ही पड़ेगा, या अगर हम यह कहें
कि कुछ नहीं ही करना पड़ेगा, तो भी कुछ करने की जरूरत है।
जैसे हम हैं, वैसे ही हम स्वीकृत नहीं हो सकते।
अभ्यास
का इतना ही अर्थ है कि आदमी जैसा है, ठीक वैसा परमात्मा में प्रवेश नहीं
कर सकता; उसे रूपांतरित होकर ही प्रवेश होना पड़ेगा। वह
रूपांतरण कैसे करता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। हजार
विधियां हो सकती हैं। हजार विधियां हो सकती हैं। हजार विधियां हैं।
जैसे
पर्वत पर चढ़ने के लिए हजार मार्ग हो सकते हैं। और जरूरी नहीं कि आप बने-बनाए मार्ग
से ही चढ़ें। आप चाहें,
थोड़ी तकलीफ ज्यादा लेनी हो, तो बिना मार्ग के
चढ़ें। जहां पगडंडी नहीं है, वहां से चढ़ें। पगडंडी बचाकर
चढ़ें। आपकी मर्जी। लेकिन पगडंडी बचाकर भी आप जब चढ़ रहे हैं, तब
फिर एक पगडंडी का ही उपयोग कर रहे हैं; सिर्फ आप पहले आदमी
हैं उसका उपयोग करने वाले; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। कहीं
से भी चढ़ें, पहाड़ पर हजार तरफ से चढ़ा जा सकता है, लेकिन चढ़कर एक ही पर्वत पर पहुंच जाना हो जाता है।
हजार
विधियां हैं,
अनंत विधियां हैं। दुनिया के सब धर्मों ने अलग-अलग विधियों का उपयोग
किया है। और इन विधियों के कारण बहुत वैमनस्य पैदा हुआ है--बहुत वैमनस्य पैदा हुआ
है। क्योंकि प्रत्येक विधि की एक शर्त है; वह मैं आपसे कहूं,
तो बहुत उपयोगी होगी।
प्रत्येक
विधि की यह शर्त है कि जिस आदमी को उस विधि का उपयोग करना हो, उसे उस
विधि को एब्सोल्यूट मानना चाहिए। प्रत्येक विधि की यह शर्त है कि जिस आदमी को उस
विधि पर जाना हो, उसे इस भाव से जाना चाहिए कि यही विधि सत्य
है।
क्यों? क्योंकि
हम इतने कमजोर लोग हैं कि अगर हमें जरा भी पता चल जाए कि बगल का रास्ता भी जाता है,
उससे बगल का भी रास्ता जाता है, तो बहुत
संभावना यह है कि दो कदम हम इस रास्ते पर चलें, दो कदम बगल
के रास्ते पर चलें, दो कदम तीसरे रास्ते पर चलें। और
जिंदगीभर रास्ते बदलते रहें, और मंजिल पर कभी न पहुंचें!
इसलिए
दुनिया के प्रत्येक धर्म को डाग्मेटिक असर्सन्स करने पड़े। कुरान को कहना पड़ा, यही सही
है; और मोहम्मद के सिवाय उस परमात्मा का रसूल कोई और नहीं
है। एक ही परमात्मा और एक ही उसका पैगंबर है। इसका कारण यह नहीं है कि मोहम्मद
डाग्मेटिक हैं। इसका यह कारण नहीं है कि मोहम्मद पागल हैं और कहते हैं कि मेरा ही
मत ठीक है।
लेकिन
असलियत यह है कि यह मोहम्मद उन लोगों के लिए कहते हैं, जो सुन
रहे हैं। क्योंकि उनको अगर यह कहा जाए, सब मत ठीक हैं,
मुझसे विपरीत कहने वाले भी ठीक हैं, उलटा जाने
वाले भी ठीक हैं; इस तरफ जाने वाले, उस
तरफ जाने वाले भी ठीक हैं; तो वह जो कनफ्यूज्ड आदमी है,
जो भ्रमित आदमी है, जो वैसे ही भ्रमित खड़ा है,
वह कहेगा, जब सभी ठीक हैं, तो शक होता है कि कोई भी ठीक नहीं है। बहुत संभावना यह है कि जब हम कहें,
सभी ठीक हैं, तो आदमी को शक हो।
महावीर
के साथ ऐसा ही हुआ! इसलिए दुनिया में महावीर के मानने वालों की संख्या बढ़ नहीं सकी; और कभी
नहीं बढ़ सकेगी। उसका कारण है। उसके कारण महावीर हैं। आज भी महावीर के मानने वालों
की संख्या--मानने वालों की, सच में जानने वालों की नहीं;
मानने वालों की संख्या--पैदाइशी मानने वालों की संख्या; अब पैदाइश से मानने का कोई भी संबंध नहीं है, लेकिन
पैदाइशी मानने वालों की संख्या तीस लाख से ज्यादा नहीं है। महावीर को हुए पच्चीस
सौ वर्ष हो गए हैं। अगर महावीर तीस दंपतियों को कनवर्ट कर लेते, तो तीस लाख आदमी पैदा हो जाते पच्चीस सौ साल में।
महावीर
की बात कीमती है बहुत,
लेकिन फैल नहीं सकी, क्योंकि महावीर ने नान-डाग्मेटिक
असर्सन किया। महावीर ने कहा, यह भी ठीक, वह भी ठीक; उसके विपरीत जो है, वह भी ठीक। महावीर ने सप्तभंगी का उपयोग किया। अगर महावीर से आप एक वाक्य
का उत्तर पूछें, तो वे सात वाक्यों में जवाब देते।
आप
पूछें, यह घड़ा है? तो महावीर कहते हैं, हां, यह घड़ा है। कहते हैं, रुको,
दूसरी भी बात सुन लो। यह घड़ा नहीं भी है; क्योंकि
मिट्टी है। रुको, चले मत जाना, तीसरी
बात भी सुन लो। यह घड़ा भी है, घड़ा नहीं भी है। आप भागने लगे,
तो महावीर कहेंगे कि जरा रुको, चौथी बात और
सुन लो। यह घड़ा है भी, यह घड़ा नहीं भी है, और यह घड़ा ऐसा है कि वक्तव्य में कहा नहीं जा सकता, रहस्य
है। आप कहने लगे कि बस, अब मैं जाऊं! तो वे कहेंगे, एक वक्तव्य और सुन लो, यह घड़ा है; अवक्तव्य है। नहीं है; अवक्तव्य है। है भी, नहीं भी है; अवक्तव्य है।
अब
आप घड़ा को थोड़ा-बहुत समझते भी रहे होंगे, वह भी गया! अब आप घड़े में पानी भी
मुश्किल से भर पाएंगे। क्योंकि सोचेंगे, घड़ा है भी, घड़ा नहीं भी है। पानी भरना कि नहीं भरना! पानी बचेगा कि निकल जाएगा! आप
दिक्कत में पड़ेंगे।
यद्यपि
महावीर ने सत्य को जितनी पूर्णता से कहा जा सकता है, कहने की कोशिश की है। इतनी
पूर्णता से कहने की कोशिश किसी की भी नहीं है, जितनी महावीर
की है। लेकिन इतनी पूर्णता से कहकर वह किसी के काम का नहीं रह जाता। किसी के काम
नहीं रह जाता। अगर वे चुप रह जाते, तो भी बेहतर था; शायद आप कुछ समझ जाते। उनकी इतनी बातों से, जो समझते
थे, वह भी गड़बड़ हो गया। इसलिए महावीर को अनुगमन नहीं मिल
सका।
कोई
भी विधि, अगर चाहते हैं कि आपके काम पड़ जाए, तो उसे कहना
पड़ेगा कि यही विधि ठीक है; कोई और विधि ठीक नहीं है। जानते
हुए कि और विधियां भी ठीक हैं। इसलिए दुनिया का प्रत्येक धर्म अपनी विधि को
आग्रहपूर्वक कहता है कि यह ठीक है। वह आग्रह आपके ऊपर करुणा है। आपके ऊपर करुणा है,
इसलिए।
वह
करीब-करीब हालत वैसी है कि डाक्टर आपके पास आए। आप उसका प्रिस्क्रिप्शन लेकर कहें
कि डाक्टर साहब,
यही दवा ठीक है कि और दवाएं भी ठीक हैं? वह
कहे कि और भी दवाएं ठीक हैं। हकीम के पास जाओ, तो भी ठीक हो
जाओगे। एलोपैथ के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। आयुर्वेद के
पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। किसी के पास न जाओ, साईं बाबा के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। कहीं भी
जाओ, ठीक हो जाओगे। तो आप उस डाक्टर से कहेंगे, फीस के बाबत क्या खयाल है! आपको दूं कि न दूं? नहीं,
आपको देने का कोई कारण नहीं है।
और
ध्यान रखना, वह डाक्टर कितनी ही महत्वपूर्ण दवा दे जाए, वह कचरे
की टोकरी में गिर जाएगी; आपके पेट में जाने वाली नहीं है।
क्योंकि यह डाक्टर भरोसे का नहीं रहा। यह डाक्टर आपके भीतर वह जो एक कनविक्शन,
वह जो एक आस्था, एक निष्ठा जन्माता, इसने नहीं जन्मायी। हालांकि बेचारा ठीक कह रहा था। लेकिन निष्ठा आपके भीतर
नहीं आई। यह डाक्टर की दवा कितनी ही ठीक हो, यह डाक्टर
थोड़ा-सा गलत साबित हुआ। यह डाक्टर डाक्टर जैसा लगा ही नहीं। यह भरोसा पैदा नहीं
करवा पाया। तब फिर दवा काम नहीं करेगी। दवा को लिया भी न जा सकेगा। उपयोग भी
संदिग्ध होगा। संदिग्ध उपयोग खतरों में ले जाएगा।
इसलिए
प्रत्येक धर्म अपनी विधि के बाबत आग्रहपूर्ण है। वह कहता है, यही विधि
ठीक है। और जो इस आग्रहपूर्ण विधि का उपयोग करेगा, वह एक दिन
जरूर उस जगह पहुंच जाता है, जहां वह जानता है, और विधियों के लोग भी पहुंच गए। लेकिन यह अंतिम अनुभव है; यह अंतिम अनुभव है।
तो
मैं पसंद नहीं करता कि कोई पढ़े, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम। यह बहुत कनफ्यूजिंग है।
कोई ऐसा बैठकर याद करे, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, तो गलत है। अल्लाह का अपना उपयोग है, राम का अपना
उपयोग है। राम का करना हो, तो राम का करना। अल्लाह का करना
हो, तो अल्लाह का करना। क्योंकि दोनों के स्वर विज्ञान हैं,
और दोनों की अपनी गहरी चोट है। राम की चोट अलग है, अल्लाह की चोट अलग है।
जो
आदमी कह रहा है,
अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, वह पालिटिक्स में कह
रहा हो, तो ठीक है। धर्म की दुनिया में बात न करे, क्योंकि राम का पूरा का पूरा वैज्ञानिक रूप भिन्न है; राम की चोट भिन्न है। अलग केंद्र पर, अलग चक्रों पर
उसकी चोट है। और अगर इन दोनों का एक साथ उपयोग किया, तो खतरा
है कि आप पागल हो जाएं। लेकिन वे जो लोग उपयोग करते हैं, वे
ऊपर-ऊपर उपयोग करते हैं। पागल भी नहीं होते, चर्खा चलाते
रहते हैं, अल्लाह-ईश्वर तेरा नाम कहते रहते हैं!
अगर
भीतर उपयोग करें,
तो पागल हो जाएंगे। दोनों शब्दों का एक साथ उपयोग नहीं किया जा
सकता। यह ठीक वैसा ही, जैसे आयुर्वेद की दवा ले लें, ठीक है। एलोपैथी की ले लें, ठीक है। लेकिन कृपा करके
दोनों का मिक्सचर न बनाएं। यह मिक्सचर है। और ये नासमझों के द्वारा प्रचलित बातें
हैं। जिनको धर्म की साइंस का कोई भी बोध नहीं है। तो कुरान भी ठीक, गीता भी ठीक! दोनों में से खिचड़ी इकट्ठी तैयार करो। वह किसी के काम की
नहीं है। वह जहर है।
गीता
अपने में पूरी ठीक है,
कुरान अपने में पूरा ठीक है। गीता के ठीक होने से कुरान गलत नहीं
होता। कुरान के ठीक होने से गीता गलत नहीं होती। सत्य इतना बड़ा है कि अपने विरोधी
सत्य को भी आत्मसात कर लेता है। सत्य इतना महान है कि अपने से विपरीत को भी पी
जाता है। और सत्य के इतने द्वार हैं। लेकिन कृपा करके ऐसा मत कहो कि दोनों द्वार
एक हैं। नहीं तो वह आदमी दिक्कत में पड़ेगा। न इससे निकल पाएगा, न उससे निकल पाएगा। द्वार से तो एक से ही निकलना पड़ेगा।
अगर
मैं किसी मंदिर में प्रवेश करता हूं, उसके हजार द्वार हैं, तो भी दो द्वार से प्रवेश नहीं हो सकता। प्रवेश एक ही द्वार से करना
पड़ेगा। हां, भीतर जाकर मैं जानूंगा कि सब द्वार भीतर ले आते
हैं। लेकिन फिर भी मैं आने वालों से कहूंगा कि तुम किसी एक से ही प्रवेश करना। दो
से प्रवेश करने की कोशिश में डर यह है कि दोनों दरवाजों के बीच में जो दीवाल है,
उससे सिर टकरा जाए, और कुछ न हो। दो नावों पर
यात्रा नहीं होती, दो धर्मों में भी यात्रा नहीं होती,
दो विधियों में भी यात्रा नहीं होती।
लेकिन
विधि का उपयोग अनिवार्य है। क्यों अनिवार्य है? अनिवार्य इसलिए है कि हमने जो कर
रखा है अब तक, उसको काटना जरूरी है। हमने जो कर रखा है अब तक,
उसे काटना जरूरी है।
एक
छोटी-सी कहानी कहूं,
उससे मेरी बात खयाल में आ जाए, फिर हम सुबह
बात करेंगे।
रामकृष्ण
बहुत दिन तक साकार उपासना में थे; सगुण साकार की उपासना में लीन थे। काली के भक्त
थे। मां की उन्होंने पूजा-अर्चना की थी। और मां की साकार प्रतिमा को भीतर अनुभव कर
लिया था। मनुष्य के मन की इतनी सामर्थ्य है कि वह जिस पर भी अपने ध्यान को पूरा
लगा दे, उसकी जीवंत प्रतिमा भीतर उत्पन्न हो जाती है। लेकिन
फिर भी रामकृष्ण को तृप्ति नहीं थी। क्योंकि मन से कभी तृप्ति नहीं मिल सकती। मन
के ऊपर ही संतृप्ति का लोक है। तो बहुत बेचैन थे। अब बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे।
जहां तक साकार प्रतिमा ले जा सकती थी, पहुंच गए थे। लेकिन
कोई तृप्ति न थी, तो तलाश करते थे कि कोई मिल जाए, जो निराकार में धक्का दे दे।
तो
एक संन्यासी गुजरता था। गुजरता था कहना शायद ठीक नहीं है, रामकृष्ण
की पुकार के कारण निकला वहां से। इस जगत में जब आप किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लेते
हैं, जो आपको किसी विधि के जीवन में प्रवेश करा दे, तो आप यह मत सोचना कि आपने उसे खोजा। आप न खोज पाएंगे। वही आपको खोजता है।
तोतापुरी
निकले। तोतापुरी दो दिन से एहसास कर रहे थे कि किसी को मेरी बहुत जरूरत है।
दक्षिणेश्वर के मंदिर के पास से निकलते थे, रुक गए। किसी से पूछा कि मंदिर के
भीतर कौन है? तो उन्होंने कहा कि रामकृष्ण मंदिर के भीतर
साधना करते हैं। तोतापुरी भीतर गए, देखा कि रामकृष्ण को उनकी
जरूरत है; कोई निराकार की यात्रा पर धक्का दे दे।
अदृश्य
का जगत इतना ही बड़ा है। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह बहुत कम है। जो नहीं दिखाई पड़ता
है, वह बहुत बड़ा है। न तो हम आकस्मिक किसी से मिलते हैं,
न मिल सकते हैं। आकस्मिक हम किसी को सुन भी नहीं सकते। आकस्मिक किसी
का शब्द भी हमारे कान में नहीं पड़ सकता। बहुत कार्य-कारणों का जाल है।
तोतापुरी
ने जाकर रामकृष्ण को हिलाया। आंख खोली रामकृष्ण ने। रामकृष्ण को लगा, आ गया वह
आदमी। उन्होंने नमस्कार किया और कहा कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। दो दिन से
चिल्ला रहा हूं कि भेजो किसी को जो मुझे आकार से मुक्त कर दे। आ गए आप! तोतापुरी
ने कहा, आ गया मैं। लेकिन कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि तुमने इतनी मेहनत से जो साकार निर्मित किया है, उसे तोड़ना भी पड़ेगा। रामकृष्ण ने कहा, मेरी काली को
बचने दो। मेरी प्रतिमा को बचने दो, और मुझे निराकार में जाने
दो। तोतापुरी ने कहा, तो मैं लौट जाऊं। यह दोनों बात एक साथ
न हो सकेगी। तुम्हें इस प्रतिमा को भीतर से तोड़ना पड़ेगा, जैसे
तुमने बनाया। रामकृष्ण ने कहा, मैं तोड़ ही नहीं सकता। और
तोडूंगा कैसे! भीतर कोई औजार भी तो नहीं है।
तोतापुरी
ने कहा, आंख बंद करो और तोड़ने की कोशिश करो। रामकृष्ण आंख बंद करते। आनंदमग्न हो
जाते। नाचने लगते। तोतापुरी रोकते और कहते, मैंने इसलिए आंख
बंद करने को नहीं कहा। रामकृष्ण कहते, लेकिन जब प्रतिमा
दिखाई पड़ती है, तोड़ने की बात कहां, मैं
बचता ही नहीं। आनंदमग्न हो जाता हूं। तो तोतापुरी ने कहा, फिर
इस आनंद में तृप्त हो जाओ। तृप्त भी नहीं हो पाता, किसी और
महाआनंद की तलाश है। तो तोतापुरी ने कहा, फिर इस प्रतिमा को
तोड़ो। रामकृष्ण कहने लगे, कैसे तोडूं? न
कोई हथौड़ी, न कोई छेनी, कुछ भी तो नहीं
है! तोतापुरी ने जो कहा, वह मैं आपसे कहता हूं।
उसने
कहा, बनाई कैसे थी? छेनी थी भीतर? किस
छेनी से बनाई थी प्रतिमा? उसी छेनी से तोड़ दो। रामकृष्ण ने
कहा कि किस छेनी से बनाई थी! मन के ही भाव से बनाई थी। तो तोतापुरी ने कहा,
एक काम करो। आंख बंद करो, और मैं एक कांच का
टुकड़ा उठाकर लाता हूं बाहर से, और मैं तुम्हारे माथे पर कांच
के टुकड़े से काटूंगा, और जब तुम्हें भीतर मालूम पड़े कि
लहूलुहान तुम्हारा माथा हो गया तब हिम्मत करके, तलवार उठाकर
दो टुकड़े कर देना प्रतिमा के। रामकृष्ण ने कहा, तलवार!
तोतापुरी
ने कहा, जब प्रतिमा तक तुम अपने मन से बना सके, तो तलवार न
बना सकोगे? बना लेना। रामकृष्ण बड़े रोते हुए, क्षमा मांगते हुए कि बड़ी मुश्किल की बात है, भीतर
गए। फिर तोतापुरी ने माथे पर कांच से काट दिया। काटते वक्त उन्होंने हिम्मत की,
तलवार उठाई, प्रतिमा दो टुकड़े होकर गिर गई।
रामकृष्ण छः दिन के लिए गहन समाधि में खो गए। छः दिन के बाद जब वापस लौटे, तो उन्होंने कहा, अंतिम बाधा गिर गई--दि लास्ट
बैरियर हैज फालेन अवे। आखिरी! वह प्रतिमा भी आखिरी बाधा बन गई थी।
जो
हम निर्मित करते हैं,
उसे मिटाना भी पड़ता है फिर। हमने राग की प्रतिमाएं निर्मित की हैं,
तो हमें विराग की तलवारें उठानी पड़ेंगी। नहीं तो कृष्णमूर्ति ठीक
कहते हैं। अगर राग निर्माण न किया हो, तो विराग की तलवार
उठाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिसने राग निर्माण नहीं किया है, वह कृष्णमूर्ति को सुनने कहां जाता है! पूछने कहां जाता है! वह जाता नहीं।
और जिसने राग निर्माण किया है, वह सुनने-पूछने जाता है। वह
उससे कह रहे हैं कि कुछ न करना। कुछ करने की जरूरत नहीं है। अभ्यास व्यर्थ है।
तो
वह जो रागी है,
अपने अभ्यास को तो जारी रखता है राग के। बड़ा मजा यह है हमारे मन का।
अगर वह यह भी मान ले कि अभ्यास व्यर्थ है, तो राग का अभ्यास
भी बंद कर दे। वह तो बंद नहीं करता। उसको जारी रखता है। सिर्फ वैराग्य का अभ्यास
बंद कर देता है। बंद कर देता है, कहना ठीक नहीं; शुरू नहीं करता। बंद कहां! उसने शुरू ही नहीं किया है।
लेकिन
कृष्ण साधक की दृष्टि से बोल रहे हैं। वे कह रहे हैं, अभ्यास से
तोड़ना पड़ेगा। राग, अभ्यास से तोड़ना पड़ेगा! अभ्यास की विधियों
के संबंध में आगे वे बात करेंगे, तो धीरे-धीरे हम उनको
उघाड़ेंगे और समझने की कोशिश करेंगे। समझ पूरी तो तभी आएगी, जब
कोई एकाध विधि पकड़कर आप प्रयोग में लग जाएंगे। प्रयोग के अतिरिक्त और कोई समझ नहीं
है।
अब
हम एक विधि का उपयोग यहां भी करते हैं, अभी उसको थोड़ा गौर से देखें। यह भी
एक विधि है। अगर कीर्तन में इतने लीन हो जाएं कि आपको पता ही न रहे कि कौन नाच रहा
है, कि कौन देख रहा है, कि ये हाथ
किसके हिल रहे हैं--मेरे या किसी और के! यह वाणी किसकी निकल रही है--मेरी या किसी
और की! अगर इतनी तल्लीनता आ जाए, तो आप वैराग्य की एक स्थिति
को अभी अनुभव कर सकेंगे--यहीं।
तो
हमारे संन्यासी जाएंगे संकीर्तन में। उठकर कोई न जाए। और जिनको उठकर जाना होता हो, उन्हें
आना ही नहीं चाहिए यहां। उन्हें आने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मैं जो मेहनत
कर रहा हूं, वह इसलिए कि आपको कोई विधि खयाल में आ जाए। आप
उन नासमझों में से हैं कि सारी बात सुनकर जब विधि की बात उठती है, तब भागने की कोशिश करते हैं! बैठ जाएं अपनी जगह पर। कोई वहां से उठेगा
नहीं। पांच मिनट कीर्तन चलेगा, फिर आप जाएंगे।
और
कीर्तन सिर्फ सुनें न,
सम्मिलित हों। इतने लोग हैं, अगर कीर्तन जोर
से हो, तो यह पूरा वायुमंडल पवित्र होगा और दूर-दूर तक उसकी
किरणें पहुंच जाएंगी।
ताली
बजाएं। गीत दोहराएं। अपनी जगह पर डोलें भी।
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