गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-043
अध्याय ४
चौदहवां प्रवचन
चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।। ३३।।
हे अर्जुन, सांसारिक वस्तुओं से
सिद्ध होने वाले यज्ञ से ज्ञानरूप यज्ञ सब प्रकार श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ, संपूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान
में शेष होते हैं, अर्थात ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।
मन मांगता रहता है संसार को; वासनाएं दौड़ती रहती
हैं वस्तुओं की तरफ; शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए;
आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए--ऐसे एक यज्ञ तो जीवन
में चलता ही रहता है। यह यज्ञ चिता जैसा है। आग तो जलती है, लपटें
तो वही होती हैं। जो हवन की वेदी से उठती हैं लपटें, वे वे
ही होती हैं, जो लपटें चिता की अग्नि में उठती हैं। लपटों
में भेद नहीं होता। लेकिन चिता और हवन में तो जमीन-आसमान का भेद है।
हमारा जीवन भी आग की लपट है। लेकिन वासनाएं जलती हैं उसमें; उन लपटों में आकांक्षाएं, इच्छाएं जलती हैं। गीला
ईंधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं-धुआं हो जाता है। ऐसे आग
में जलते हुए जीवन को भी यज्ञ कहा जा सकता है, लेकिन अज्ञान
का, अज्ञान की लपटों में जलता हुआ।
इस अज्ञान की लपटों में जलते हुए, कभी-कभी मन थकता भी
है, बेचैन भी होता है, निराश भी,
हताश भी। हताशा में, बेचैनी में कभी-कभी प्रभु
की तरफ भी मुड़ता है। दौड़ते-दौड़ते इच्छाओं के साथ, कभी-कभी
प्रार्थना करने का मन भी हो आता है। दौड़ते-दौड़ते वासनाओं के साथ, कभी-कभी प्रभु की सन्निधि में आंख बंद कर ध्यान में डूब जाने की कामना भी
जन्म लेती है। बाजार की भीड़-भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के एकांत कोने में भी डूब जाने का खयाल उठता है।
लेकिन वासनाओं से थका हुआ आदमी मंदिर में बैठकर पुनः वासनाओं की मांग
शुरू कर देता है। बाजार से थका आदमी मंदिर में बैठकर पुनः बाजार का विचार शुरू कर
देता है। क्योंकि बाजार से वह थका है, जागा नहीं; वासना से थका है, जागा नहीं। इच्छाओं से मुक्त नहीं
हुआ, रिक्त नहीं हुआ; केवल इच्छाओं से
विश्राम के लिए मंदिर चला आया है। उस विश्राम में फिर इच्छाएं ताजी हो जाती हैं।
प्रार्थना में जुड़े हुए हाथ भी संसार की ही मांग करते हैं! यज्ञ की
वेदी के आस-पास घूमता हुआ साधक भी, याचक भी पत्नी मांगता
है, पुत्र मांगता है, गौएं मांगता है,
धन मांगता है; यश, राज्य,
साम्राज्य मांगता है!
असल में जिसके चित्त में संसार है, उसकी प्रार्थना में
संसार ही होगा। जिसके चित्त में वासनाओं का जाल है, उसके
प्रार्थना के स्वर भी उन्हीं वासनाओं के धुएं को पकड़कर कुरूप हो जाते हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, असली यज्ञ तो ज्ञान
यज्ञ है। श्रेष्ठतम तो ज्ञान यज्ञ है। और ज्ञान यज्ञ का अर्थ हुआ, जिसमें कोई सांसारिक मांग नहीं है, जिसमें कोई
सांसारिक आकांक्षा नहीं है।
यहां एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि जब कहते हैं, सांसारिक मांग नहीं, तो अनेक बार मन में खयाल उठता
है, तो गैर-सांसारिक मांग तो हो सकती है न! जब कहते हैं,
संसार की वस्तुओं की कोई चाह नहीं, तो खयाल उठ
सकता है कि मोक्ष की वस्तुओं की चाह तो हो सकती है न! नहीं मांगते संसार को,
नहीं मांगते धन को, नहीं मांगते वस्तुओं को;
मांगते हैं शांति को, आनंद को। छोड़ें, इन्हें भी नहीं मांगते। मांगते हैं प्रभु के दर्शन को, मुक्ति को, ज्ञान को।
तो एक बात और समझ लेनी जरूरी है। सांसारिक मांग तो सांसारिक होती ही
है; मांग ही सांसारिक होती है। वासनाएं सांसारिक हैं, यह
तो ठीक है। लेकिन वासना मात्र सांसारिक है, यह भी स्मरण रख
लें।
शांति की कोई मांग नहीं होती; अशांति से मुक्ति
होती है और शांति परिणाम होती है। शांति के लिए मांगा नहीं जा सकता; सिर्फ अशांति को छोड़ा जा सकता है, और शांति मिलती
है। और जो शांति को मांगता है, वह कभी शांत नहीं होता,
क्योंकि उसकी शांति की मांग सिर्फ एक और अशांति का जन्म होती है।
इसलिए साधारणतया अशांत आदमी इतना अशांत नहीं होता, जितना शांति की चेष्टा में लगा हुआ आदमी अशांत हो जाता है! अशांत तो होता
ही है और यह शांति की चेष्टा और अशांत करती है। यह भी मांग है। यह भी इच्छा है। यह
भी वासना है।
मोक्ष मांगा नहीं जा सकता। क्योंकि जब तक मोक्ष की मांग है, जब तक मांग है, तब तक बंधन है। और बंधन और मोक्ष का
मिलन कैसे! मोक्ष मांगा नहीं जा सकता; क्योंकि मांग ही बंधन
है। हां, बंधन न रहे, तो जो रह जाता है,
वह मोक्ष है।
हम परमात्मा को चाह नहीं सकते; क्योंकि चाह ही तो
परमात्मा और हमारे बीच बाधा है। ऐसा नहीं कि धन की चाह बाधा है; चाह ही--डिजायर एज सच। ऐसा नहीं कि इस चीज की चाह बाधा है और उस चीज की
चाह बाधा नहीं है; चाह ही बाधा है। क्योंकि चाह ही तनाव है,
चाह ही असंतोष है। चाह ही, जो नहीं है,
उसकी कामना है। जो है, उसमें तृप्ति नहीं। चाह
मात्र बाधा है।
अगर ठीक से कहें, तो सांसारिक चाह कहना ठीक नहीं,
चाह का नाम संसार है। वासना संसार है; सांसारिक
वासना कहना ठीक नहीं।
लेकिन हम भाषा में भूलें करते हैं। सामान्य करते हैं, तब तो कठिनाई नहीं आती; चल जाता है। लेकिन जब इतने
सूक्ष्म और नाजुक मसलों में भूलें होती हैं, तो कठिनाई हो
जाती है। भूलें भाषा में हैं। भूलें भाषा में हैं, क्योंकि
अज्ञानी भाषा निर्मित करता है। और ज्ञानी की अब तक कोई भाषा नहीं है। उसको भी
अज्ञानी की भाषा का ही उपयोग करना पड़ता है।
ज्ञानी की भाषा हो भी नहीं सकती, क्योंकि ज्ञान मौन है;
मुखर नहीं, मूक है। ज्ञान के पास जबान नहीं है;
ज्ञान साइलेंस है, शून्य है। ज्ञान के पास
शब्द नहीं हैं। शब्द उठने तक की भी तो अशांति ज्ञान में नहीं है। इसलिए अज्ञानी की
भाषा ही ज्ञानी को उपयोग करनी पड़ती है। और फिर भूलें होती हैं।
अब जैसे यह भूल निरंतर हो जाती है। हम कहते हैं, संसार की चीजों को मत चाहो। कहना चाहिए, चाहो ही मत,
क्योंकि चाह का नाम ही संसार है। हम कहते हैं, मन को शांत करो। ठीक नहीं है कहना। क्योंकि शांत मन जैसी कोई चीज होती
नहीं। अशांति का नाम मन है। जब तक अशांति है, तब तक मन है;
जब अशांति नहीं, तो मन भी नहीं।
शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं; साइलेंट माइंड जैसी
कोई चीज होती नहीं। जहां शांति हुई, वहां मन तिरोहित हुआ।
अशांत मन है, ऐसा कहना ठीक नहीं; अशांति
का नाम मन है।
ऐसा समझें, तूफान आया है लहरों में सागर की। फिर हम कहते हैं,
तूफान शांत हो गया। जब तूफान शांत हो जाता है, तो क्या सागर के तट पर खोजने से शांत तूफान मिल सकेगा? हम कहते हैं, तूफान शांत हो गया। तो पूछा जा सकता है,
शांत तूफान कहां है? शांत तूफान होता ही नहीं।
तूफान का नाम ही अशांति है। शांत तूफान! मतलब, तूफान मर गया;
अब तूफान नहीं है। शांत मन का अर्थ, मन मर गया;
अब मन नहीं है।
चाह के छूटने का अर्थ, संसार गया; अब नहीं है। जहां चाह नहीं, वहां परमात्मा है। जहां
चाह है, वहां संसार है। इसलिए परमात्मा की चाह नहीं हो सकती।
और अनचाहा संसार नहीं हो सकता। ये दो बातें नहीं हो सकतीं।
कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ...।
अज्ञान का यज्ञ चल रहा है। पूरा जीवन अज्ञान यज्ञ है। फिर इस अज्ञान
से ऊबे, थके, घबड़ाए हुए लोग विश्राम के
लिए, विराम के लिए, धर्म, पूजा, प्रार्थना, ध्यान,
उपासना में आते हैं। लेकिन मांगें उनकी साथ चली आती हैं। चित्त उनका
साथ चला आता है।
एक आदमी दूकान से उठा और मंदिर में गया। जूते बाहर छोड़ देता, मन को भीतर ले जाता। जूते भीतर ले जाए, तो बहुत हर्ज
नहीं, मन को बाहर छोड़ जाए। जूते से मंदिर अपवित्र नहीं होगा।
जूते में ऐसा कुछ भी अपवित्र नहीं है। मन? मगर जूते बाहर छोड़
जाता है और मन भीतर ले जाता है। घर से चलता है, तो स्नान कर
लेता है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जूते आप ले जाना! घर से चलता है, स्नान कर लेता है, शरीर धो लेता है। मन? मन वैसे का वैसा बासा, पसीने की बदबू से भरा,
दिनभर की वासनाओं की गंध से पूरी तरह लबालब, दिनभर
के धूल कणों से बुरी तरह आच्छादित! उसी गंदे मन को लेकर मंदिर में प्रवेश कर जाता
है।
फिर जब हाथ जोड़ता है, तो हाथ तो धुले होते हैं,
लेकिन जुड़े हुए हाथों के पीछे मन गैर-धुला होता है। आंखें तो
परमात्मा को देखने के लिए उठती हैं, लेकिन भीतर से मन
परमात्मा को देखने के लिए नहीं उठता। वह फिर वस्तुओं की कामना और वासना लौट आती
है। हाथ जुड़ते हैं परमात्मा से कुछ मांगने के लिए। और जब भी हाथ कुछ मांगने के लिए
जुड़ते हैं, तभी प्रार्थना का अंत हो जाता है। मांग और
प्रार्थना का कोई मेल नहीं है।
फिर प्रार्थना क्या है? प्रार्थना सिर्फ
धन्यवाद है, मांग नहीं; डिमांड नहीं,
थैंक्स गिविंग; सिर्फ धन्यवाद। जो मिला है,
वह इतना काफी है; उसके लिए मंदिर धन्यवाद देने
जाना चाहिए।
धार्मिक आदमी वही है, जो मंदिर धन्यवाद देने जाता है।
अधार्मिक? अधार्मिक वह नहीं, जो मंदिर
नहीं जाता; वह तो अधार्मिक है ही। अधार्मिक असली वह है,
जो मंदिर मांगने जाता है।
कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठतम है,
अर्जुन!
ज्ञान यज्ञ का अर्थ है, वासना के धुएं से मुक्त;
जहां चेतना निर्धूम ज्योति की तरह जलती है। निर्धूम ज्योति। धुआं
बिलकुल नहीं; सिर्फ चेतना की ज्योति रह जाती। ऐसी ज्ञान की
ज्योति जब जलती है व्यक्ति में, तो वासना का कोई भी धुआं
कहीं नहीं होता; कोई मांग नहीं होती। परम तृप्ति होती है,
वही होने में, जो हैं। वही, जो है, उसके साथ पूरा तालमेल, सामंजस्य
होता है। इस ज्ञान यज्ञ के लिए कृष्ण ने बहुत-सी विधियां कही हैं।
अंत में वे कहते हैं, यह सर्वश्रेष्ठ है अर्जुन! छोड़
वासनाओं को, छोड़ भविष्य को, छोड़ सपनों
को, छोड़ अंततः अपने को। ऐसे जी, जैसे
प्रभु तेरे भीतर से जीता। ऐसे जी, जैसे चारों ओर प्रभु ही
जीता। ऐसे कर, जैसे प्रभु ही करवाता। ऐसे कर, जैसे प्रत्येक करने के पीछे प्रभु ही फल को लेने हाथ फैलाकर खड़ा है। तब
ज्ञान यज्ञ घटित होता है। और ज्ञान यज्ञ परम मुक्ति है, दि
अल्टिमेट फ्रीडम।
अज्ञान बंधन है, ज्ञान मुक्ति है। अज्ञान रुग्णता
है, ज्ञान स्वास्थ्य है।
यह स्वास्थ्य शब्द बहुत अदभुत है। दुनिया की किसी भाषा में उसका
ठीक-ठीक अनुवाद नहीं है। अंग्रेजी में हेल्थ है; और-और पश्चिम की सभी
भाषाओं में हेल्थ से मिलते-जुलते शब्द हैं। हेल्थ का मतलब होता है, हीलिंग, घाव का भरना। शारीरिक शब्द है; गहरे नहीं जाता। स्वास्थ्य बहुत गहरा शब्द है। उसका अर्थ हेल्थ ही नहीं
होता; हेल्थ तो होता ही है, घाव का
भरना तो होता ही है। स्वास्थ्य का अर्थ है, स्वयं में स्थित
हो जाना, टु बी इन वनसेल्फ। आध्यात्मिक बीमारी से संबंधित है
स्वास्थ्य।
स्वास्थ्य का अर्थ है, स्वयं में ठहर जाना।
इंचभर भी न हिलना, पलकभर भी न कंपना। जरा-सा भी कंपन न रह
जाए भीतर। कंपन, वेवरिंग, जरा भी न रह
जाए। बस, तब स्वास्थ्य फलित होता है! वेवरिंग क्यों है,
कंपन क्यों है, कभी आपने खयाल किया?
जितनी तेज इच्छा होती है, उतना कंपन हो जाता है
भीतर। इच्छा नहीं होती, कंपन खो जाता है। इच्छा ही कंपन है।
आप कंपते कब हैं? दीया जलता है। कंपता कब है? जब हवा का झोंका लगता है। हवा का झोंका न लगे, तो
दीया निष्कंप हो जाता, ठहर जाता, स्वस्थ
हो जाता। अपनी जगह हो जाता। जहां होना चाहिए, वहां हो जाता।
हवा के धक्के लगते हैं, तो ज्योति वहां हट जाती, जहां नहीं होना चाहिए। जगह से च्युत हो जाती; रुग्ण
हो जाती; कंपित हो जाती। और जब कंपित होती है, तो बुझने का, मौत का डर पैदा हो जाता है। जोर की हवा
आती, तो ज्योति बुझने-बुझने को, मरने-मरने
को होने लगती है।
ठीक ऐसे ही इच्छाओं की तीव्र हवाओं में, वासना के तीव्र ज्वर
में कंपती है चेतना, कंपित होती है। और जब वासना बहुत जोर से
कंपाती है, तो मौत का डर पैदा होता है।
इसलिए यह भी खयाल में ले लें, जो वासना से मुक्त
हुआ, वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। जो दीए की लौ हवा
के धक्कों से मुक्त हुई, उसे क्या मौत का डर? मौत का डर खो गया।
लेकिन जब तूफान की हवा बहती है, तो दीया कंपता और
डरता है कि मरा, मरा। लौट-लौटकर आता है अपनी जगह पर; हवा धक्के दे-देकर अपनी जगह से च्युत कर देती है। ठीक ऐसा हमारी अज्ञान की
अवस्था में चित्त होता है। दीए की ज्योति वासना की वायुओं में जोर से कंपती है।
कंपती ही रहती है; कभी ठहर नहीं पाती। एक कंपन छूटता,
तो दूसरा कंपन शुरू होता है। एक वासना हटती, तो
दूसरा झोंका वासना का आता है। कहीं कोई विराम नहीं, कहीं कोई
विश्राम नहीं। बस, यह दीए का कंपन, और
पूरे वक्त मौत का डर।
जितना वासनाग्रस्त आदमी, उतना मौत से भयभीत।
जितना वासनामुक्त आदमी, उतना मौत से निर्भय, अभय। वासना ही भय है मृत्यु में। जितनी वासना का कंपन, उतना आत्मिक रोग, उतना स्प्रिचुअल डिसीज, उतनी ही आध्यात्मिक रुग्णता। क्योंकि कंपन रोग है। कंपने का अर्थ ही है,
स्थिति में नहीं है; कोई भी धका जाता।
कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ परम मुक्ति है;
क्योंकि ज्ञान परम स्वास्थ्य है। कैसे होगा उपलब्ध? वासना से जो मुक्त जो जाता-- मांग से, चाह से--वह
ज्ञान की अग्नि में से गुजरकर खालिस सोना हो जाता है। यह परम यज्ञ कृष्ण ने अर्जुन
को इस सूत्र में कहा।
प्रश्न: भगवान श्री, बत्तीसवें श्लोक में कहा गया है
कि बहुत प्रकार के यज्ञ ब्रह्मणो मुखे, ब्राह्मण मुख से
विस्तार किए गए हैं। गीता प्रेस ने ब्रह्मणो मुखे का हिंदी अनुवाद किया है,
वेद की वाणी में। कृपया बताएं कि ब्रह्मणो मुखे, ब्राह्मण मुख से यज्ञों के विस्तार होने का आप क्या अर्थ लेते हैं?
ब्रह्म के मुख से का बिलकुल ठीक-ठीक अनुवाद नहीं है, वेद के मुख से। या फिर वेद का अर्थ बहुत विस्तीर्ण करना पड़े।
ब्रह्म के मुख से बहुत-बहुत योगों का आविर्भाव हुआ है।
ब्रह्म का मुख कौन है? खुद ब्रह्म का मुख तो
हो नहीं सकता। ब्रह्म को सदा ही किसी और के मुख का उपयोग करना पड़ता है। जिनके
मुखों का ब्रह्म उपयोग करता है, वे वे ही लोग हैं, जो अपने को पूरी तरह ब्रह्म को समर्पित करते हैं, उपकरण
बन जाते हैं, मीडियम। बांसुरी की तरह रख जाते हैं ब्रह्म के
निराकार पर और निराकार उनकी बांसुरी से गूंजकर आकार की दुनिया में बसे हुए लोगों
तक स्वर बनकर पहुंच जाता है।
जो व्यक्ति भी अपने को समग्ररूपेण प्रभु को समर्पित कर देता, वह ब्रह्म का मुख बन जाता है।
जैनों के तीर्थंकर ब्रह्म के मुख हैं। बुद्ध ब्रह्म के मुख हैं। जीसस, मोहम्मद ब्रह्म के मुख हैं। लाओत्से, जरथुस्त्र
ब्रह्म के मुख हैं। मोजिज, इजेकिएल ब्रह्म के मुख हैं। सारी
पृथ्वी पर अनंत-अनंत मुखों से ब्रह्म ने कहे हैं बहुत-बहुत मार्ग।
अगर वेद का अर्थ ऐसा हो कि इस हमारे मुल्क में पैदा हुआ जो शास्त्र
वेद कहा जाता, उससे ही निकला हुआ जो है, वह
ब्रह्म का कहा हुआ है। तो फिर जीसस के मुख से निकला हुआ ब्रह्म का कहा हुआ नहीं
होगा। फिर महावीर के मुख से निकला हुआ ब्रह्म का कहा हुआ नहीं है। फिर लाओत्से के
मुख से निकला हुआ ब्रह्म का कहा हुआ नहीं है।
वेद में जो कहा है, वह तो ब्रह्म के मुख से निकला ही
है; लेकिन वेद का अर्थ अगर हम चार संहिताएं करें, तो हम ब्रह्म को बहुत सीमित करते हैं, अन्याय करते
हैं।
वेद का ठीक-ठीक अर्थ करें, तो वेद का अर्थ होता
है, नालेज, ज्ञान। वेद उसी शब्द से
निर्मित होता है, जिससे विद्वान, विद्वता।
वेद का अर्थ होता है, ज्ञान। विद का अर्थ होता है, टु नो, जानना। अगर ठीक-ठीक जो कि मौलिक अर्थ है,
वेद का जो ठीक-ठीक अर्थ है, वह है, जानना। जहां भी जानने की घटना घटी है, वहीं वेद की
संहिता निर्मित हो गई है।
अगर कोई मुझसे पूछे, तो मैं कहूंगा, बाइबिल वेद की एक संहिता है, कुरान वेद की एक संहिता
है। पृथ्वी पर जहां-जहां ज्ञान उदघोषित हुआ है, ब्रह्म ने ही
कहा है। किसी के मुख को माध्यम बनाया है। मुख अलग-अलग हैं, भाषाएं
अलग-अलग हैं। मुख अलग-अलग हैं, परंपराएं अलग-अलग हैं। मुख
अलग-अलग हैं, प्रतीक अलग-अलग हैं। लेकिन जो जानता है,
वह सब भाषाओं, सब प्रतीकों के पार, उस एक वाणी को पहचानता है।
वेद की अनंत संहिताएं हैं। जो चार हमारे पास हैं, वे हमारे पास हैं। लेकिन पृथ्वी पर मनुष्य-जाति का कोई कोना ऐसा नहीं,
जहां ब्रह्म ने किसी मुख का उपयोग न किया हो। अनंत मुखों से उसकी
धारा बही है।
वेद का अर्थ है, जो भी जानने वाले लोगों के
द्वारा कहा गया है--कहीं भी और कभी भी, किसी काल में और किसी
समय में।
लेकिन सांप्रदायिक मन ऐसी बात मानने को तैयार नहीं होता है। गीता
प्रेस, गोरखपुर के लोग ऐसी बात मानने को तैयार नहीं होंगे।
वे कहेंगे, वेद तो हमारा है। उतने में सीमा है। हमारा भी
इतना नहीं कि महावीर को भी समा सके। हमारा भी इतना नहीं कि बुद्ध को भी समा सके।
हमारा भी इतना नहीं कि वह सतत प्रवाहमान और ग्रोइंग हो--कि जो भी आए, उसे समा सके। सभी जातियों को ऐसी भ्रांति पैदा होती है।
लेकिन शब्द देखने जैसे हैं। जैसे कि बाइबिल के लिए शब्द जो है, बाइबिल। बाइबिल का मतलब होता है, दि बुक; सिर्फ किताब। कोई नाम नहीं है। जिन्होंने जाना, उनका
संग्रह कर दिया। सिक्खों की किताब का नाम है, गुरुग्रंथ।
जिन्होंने जाना, जो इस योग्य हुए कि दूसरों को जना सकें,
उनके शब्द इकट्ठे कर दिए; नाम दिया, गुरुग्रंथ। वेद, जिन्होंने जाना, उनकी वाणी संगृहीत कर दी; नाम दिया, वेद। ये सारी किताबें साधारण किताबें नहीं हैं। इनकी कोई सीमा का, इनका कोई संप्रदाय का आग्रह खतरनाक है, मनुष्य को
तोड़ने वाला है।
तो कृष्ण जब कहते हैं, ब्रह्म के मुख से,
तो उनका प्रयोजन साफ है। वे भी कह सकते थे, वेद
के मुख से। वह उन्होंने नहीं कहा। नहीं कहा है, स्पष्ट जानकर
ही। कहते हैं, ब्रह्म के मुख से। प्रयोजन यह है कि कहीं भी
ब्रह्म का मुख खुल सकता है। जहां भी किसी व्यक्ति का अपना मुख बंद हो जाएगा,
वहीं ब्रह्म का मुख खुल सकता है। जहां भी कोई व्यक्ति अपनी तरफ से
बोलना बंद कर देगा, वहीं से प्रभु उससे बोलने लगता है। जहां
भी कोई व्यक्ति अपने को पूरा सरेंडर कर देता है, वहीं से...।
इसलिए वेद को हम कहते हैं, अपौरुषेय; मनुष्य
के द्वारा निर्मित नहीं।
लेकिन सांप्रदायिक मन अजीब-अजीब अर्थ निकालता है। अज्ञान अर्थ निकालने
में बहुत कुशल है; अज्ञान व्याख्या करने में भी बहुत कुशल है। अज्ञान
अर्थ निकाल लेता है; वेद अपौरुषेय हैं, तो निकाल लेता है अर्थ कि वेद परमात्मा के द्वारा रचित हैं। फिर इतने से
भी कोई खतरा नहीं है। फिर यह भी अर्थ संगृहीत होता चला जाता है कि सिर्फ वेद ही
परमात्मा के द्वारा रचित हैं; फिर कोई और किताब परमात्मा के
द्वारा रचित नहीं हो सकती। फिर उपद्रव शुरू होते हैं। फिर आदमी बीच में आ गया।
जानने वालों की वाणी पर भी उसने कब्जा कर लिया।
वेद अपौरुषेय हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा
के द्वारा रचित हैं; क्योंकि परमात्मा के द्वारा तो सभी कुछ
रचित है। अलग से वेद को रचा हुआ कहने का कोई कारण नहीं। वेद अपौरुषेय हैं इस अर्थ
में कि जिन्होंने उन्हें रचा, उनके भीतर अपना कोई अहंकार
नहीं था, उनके भीतर अपना कोई भाव नहीं था कि मैं। पुरुष विदा
हो गया था; अपुरुष भीतर आ गया था। पर्सन जा चुका था, नान-पर्सनल भीतर आ गया था। हट गए थे वे; और जगह दे
दी थी प्रभु की अनंत सत्ता को। उसके द्वारा ही इनके हाथों ने रचे। रचे तो आदमी ने
ही हैं। हाथ तो आदमी का ही उपयोग में आया है। कलम तो आदमी ने ही पकड़ी है। शब्द तो
आदमी ने बनाए हैं। लेकिन उस आदमी ने, जिसने अपने हाथ को
प्रभु के हाथ में दे दिया; जो एक मीडियम बन गया; और कहा कि लिख डालो। फिर उसने नहीं लिखा।
ऐसा एक बार हुआ। रवींद्रनाथ ने गीतांजलि लिखी, फिर अंग्रेजी में अनुवाद की। अनुवाद करके सी.एफ.एण्ड्रूज को दिखाई। सोचा,
अंग्रेजी भाषा है, पराई, कोई भूल-चूक न हो जाए। एण्ड्रूज ने चार जगह भूलें निकालीं। कहा, यहां-यहां गलत है। ठीक-ठीक ग्रैमेटिकल, ठीक-ठीक
व्याकरण के अनुकूल नहीं है। इन्हें ठीक कर लो। रवींद्रनाथ मान गए। एण्ड्रूज
अंग्रेज, बुद्धिमान, विचारशील, ज्ञाता! बदलाहट कर ली। तत्काल काटकर, जो एण्ड्रूज ने
कहा, वह लिख लिया।
फिर रवींद्रनाथ लंदन गए और वहां कवियों की एक छोटी-सी गोष्ठी में
उन्होंने पहली दफा गीतांजलि सुनाई, जिस पर बाद में नोबल
पुरस्कार मिलने को था। तब तक मिला नहीं था। छोटे-से, बीस
कवियों के बीच में। एक कवि, अंग्रेज कवि यीट्स बीच में उठकर
खड़ा हो गया और उसने कहा कि दो-चार जगह ऐसा लगता है कि शब्द किसी और के हैं!
रवींद्रनाथ ने कहा, किस जगह? उस आदमी
ने दो जगह तो बिलकुल पकड़कर बता दी--इस जगह शब्द किसी और के हैं।
रवींद्रनाथ ने कहा, लेकिन समझ में कैसे पड़ा तुम्हें?
सच ही ये शब्द किसी और के हैं। मैंने इन्हें बदला है। तो यीट्स ने
कहा कि जब तुम गा रहे थे, तब एक धारा थी, एक बहाव था, एक फ्लो था। अचानक लगा कि कोई पत्थर आ
गया बीच में, धारा टूट गई। कोई और आ गया बीच में। हटाओ इन
शब्दों को।
रवींद्रनाथ ने कहा, मैं अपने शब्द बताऊं, जो मैंने पहले रखे थे! यीट्स ने कहा कि ये शब्द भाषा की दृष्टि से गलत हैं,
लेकिन भाव की दृष्टि से सही हैं। इन्हें जाने दो। भाषा की गलती
चलेगी। अटका हुआ पत्थर तो सब नष्ट कर देता; वह नहीं चलेगा।
ये चलेंगे; इन्हें चलने दो। ये सीधे आए हैं।
जब कोई व्यक्ति परमात्मा की वाणी से भरता है, तो उसे एक ही ध्यान रखना पड़ता है कि वह बीच में न आ जाए खुद। जैसे यहां
एण्ड्रूज बीच में आए रवींद्रनाथ के; ऐसे अगर परमात्मा की
वाणी भर जाए किसी में, तो उसे एक ही ध्यान रखना पड़ता है कि
वह खुद बीच में न आ जाए।
इसलिए अगर धर्मशास्त्रों में कहीं भूलें हैं, तो वे भूलें उन आदमियों की वजह से हैं, जो कहीं बीच
में आ गए हैं। आदमी को माध्यम बनाएंगे, तो कई डर हैं।
कूलरिज मरा, अंग्रेजी का एक बहुत बड़ा महाकवि जब मरा, तो उसके घर में चालीस हजार कविताएं अधूरी मिलीं। मरने के पहले कई बार
मित्रों ने कहा कि तुम यह करते क्या हो! यह ढेर कब पूरा होगा? कहीं तीन पंक्तियां लिखीं, चौथी पंक्ति नहीं है। तो
कूलरिज ने कहा, तीन ही आईं; चौथी मैं
मिला सकता था, लेकिन फिर मैं बीच में आ जाता। तो मैंने रख
दी। जब चौथी आएगी, तो जोड़ दूंगा; नहीं
आएगी, तो बात खतम हो गई।
कूलरिज ने अपनी जिंदगी में केवल सात कविताएं पूरी की हैं। सात कविताएं
लिखने वाला आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं है, जो महाकवि कहा जा
सके! कूलरिज महाकवि है। सात हजार लिखने वाले भी महाकवि नहीं हैं। कूलरिज सात लिखकर
भी महाकवि है! क्या बात है?
बात है। बात यह है कि कूलरिज बिलकुल ही एब्सेंट है। जब भी वह लिखता है, तब अपने को बिलकुल ही हटा देता है। जो आता है अनंत से, उसी को उतर जाने देता है। चालीस हजार मौकों पर टेंपटेशन तो रहा ही होगा।
होता ही है। एक कविता बन गई पूरी; एक पंक्ति अटक गई है;
जोड़ दो, पूरी हो जाए। मन कहता है, जोड़ दो। लेकिन कूलरिज हिम्मत का आदमी है। नहीं जोड़ता। रख देता है एक तरफ।
मर गया चालीस हजार कविताओं को अधूरा छोड़कर।
वेद जिन्होंने रचे हैं, उनकी भी कठिनाई वही
है। उपनिषद जिन्होंने कहे हैं, उनकी भी कठिनाई वही है।
महावीर के वचन, बुद्ध के वचन--कठिनाई वही है। कुरान, बाइबिल--कठिनाई वही है।
जब कोई व्यक्ति अपने को पूरा छोड़ता है, तब एक ही कठिनाई है
कि वह कहीं भी, रत्तीभर भी बाकी न रह जाए। जब वह बाकी नहीं
रहता, तो वाणी वेद हो जाती है।
वेद कोई ऐसी चीज नहीं कि समाप्त हो गई। वेद कभी समाप्त नहीं होगा। वेद
सदा ग्रोइंग है, बढ़ता रहेगा। नए-नए लोग समर्पित होकर प्रभु को जब उसके
माध्यम बनेंगे, तो फिर वेद, फिर वेद
पैदा होता रहेगा। वेद निरंतर जन्म रहा है। वेद जन्मता ही रहेगा।
इस अर्थ में अगर वेद लें, तो फिर अनुवाद ठीक है;
अन्यथा कृष्ण का शब्द ही ठीक है, ब्रह्म मुख
से। उसमें झगड़ा नहीं है; उसमें उपद्रव नहीं है। प्रयोजन इतना
ही है कि परमात्मा की निरंतर ही, निरंतर ही अस्तित्व के गहरे
से, जगह-जगह अभिव्यक्तियां हुई हैं। फूट पड़ी है वाणी। जैसे
कोई झरना दबा हो, पत्थर हट जाए और फूट पड़े फव्वारे की तरह।
ऐसा जब भी कभी अहंकार का पत्थर किसी के हृदय से हटा है, तो
झरने फूट पड़े हैं।
सबके भीतर छिपा है वेद; पत्थर अहंकार का रखा
है ऊपर। हटा दें पत्थर, फूट पड़ेगा झरना। आपके भीतर ही वेद का
जन्म हो जाएगा। आप जो कहेंगे, वही वेद हो जाएगा।
इस अर्थ में तो ठीक। लेकिन कोई कहता हो, ऋग्वेद, अथर्ववेद, सामवेद, इन संहिताओं
का नाम वेद है, तो वह भ्रांति की और अज्ञान की बात कह रहा
है। ये वेद हैं जरूर, लेकिन और भी वेद हैं। और ब्रह्म मुख से
सभी निकला है।
बहुत कुछ संगृहीत नहीं हुआ। बहुत कुछ संगृहीत नहीं हो सका। बहुत कुछ
पहचाना नहीं गया। बहुत कुछ आया और खो गया। अनंत-अनंत ऋषियों की वाणी पृथ्वी पर रही
और विलीन हो गई है। टूटा-फूटा संगृहीत है। जो संगृहीत है, वह भी पूरा नहीं है। उसमें भी संग्रह करने वालों के हाथों की छाप स्पष्ट
है। जो संगृहीत है, उसमें भी जोड़त्तोड़ है। स्वभावतः, आदमी की सीमा है, कमजोरी है।
इसलिए किताबों को मैं वेद नहीं कहता। मैं तो वेद ज्ञान को कहता हूं।
जहां भी ज्ञान है, वहीं वेद है, वहीं ब्रह्म बोल
रहा है।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।। ३४।।
इसलिए तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दंडवत प्रणाम
तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा, उस ज्ञान को जान। वे
मर्म को जानने वाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।
कीमती है यह सूत्र। कृष्ण कहते हैं, दंडवत कर प्रश्न पूछ,
तो वे ज्ञानीजन जो जानते, उसे प्रकट कर देते
हैं।
प्रश्न बहुत तरह से पूछे जा सकते हैं। इसलिए शर्त लगाते हैं, दंडवत कर। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि आज दंडवत कर प्रश्न पूछने
वाला आदमी मुश्किल से कहीं मिलता है।
प्रश्न बहुत तरह से पूछे जाते हैं। सौ में से नब्बे प्रतिशत प्रश्न
सिर्फ कुतूहल, क्यूरिआसिटी होते हैं। बच्चे पूछें, माफ किए जा सकते हैं। बूढ़े पूछें, माफ नहीं किए जा
सकते। कुतूहल!
बच्चा चल रहा है बाप के साथ, कुछ भी पूछता चलता
है। कुछ भी पूछता चलता है, कि घोड़े के दो कान क्यों हैं?
और बाप बुद्धिमान हुआ, तो कुछ भी जवाब देता
चलता है। नासमझ हुआ तो डांटता है; बुद्धिमान हुआ तो कुछ भी
जवाब देता चलता है।
कुतूहल से जो प्रश्न पूछे गए होते हैं, वे किसी भी जवाब की
फिक्र नहीं करते। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। क्योंकि तब तक
कुतूहल आगे बढ़ गया होता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ब्रह्म के संबंध में
कुछ बताइए। मैं मिनट दो मिनट और कुछ बात करता हूं, जानकर ही।
फिर वे घंटेभर बैठे रहते हैं, फिर दुबारा ब्रह्म की बात ही
नहीं पूछते! कुतूहल था। घोड़े के कितने कान होते हैं, उससे
ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल नहीं था। सवाल महत्वपूर्ण दिखता था, ब्रह्म-जिज्ञासा
का था। लेकिन कुतूहल था; बस, पूछ लिया
था।
एक गांव में मैं ठहरा था। दो बूढ़े मेरे पास आए। एक जैन थे, एक हिंदू ब्राह्मण थे। दोनों पड़ोसी थे, बचपन के साथी
थे। और निरंतर का विवाद था दोनों के बीच। क्योंकि हिंदू ब्राह्मण कहता था, ईश्वर ने सृष्टि बनाई; क्योंकि बिना बनाए कोई चीज
कैसे हो सकती है! जैन कहता था, कोई बनाने वाला नहीं है;
क्योंकि अगर कोई बनाने वाला है, तो फिर तो
बनाने वाले का भी बनाने वाला होना चाहिए! और अगर ईश्वर बिना बनाए हो सकता है,
तो सृष्टि ही को बनाने वाले की क्या जरूरत है? वह भी बिना बनाए हो सकती है।
तो सृष्टि अनादि है, जैन कहता। और हिंदू कहता कि उसका
भी प्रारंभ है परमात्मा से। विवाद उनका लंबा था। कोई साठ के करीब दोनों की उम्र
थी। उन्होंने मुझसे आकर कहा, हमारा लंबा विवाद है। अब तक हल
नहीं हो पाया। अब तो हम मरने के करीब आ गए, यह विवाद हल होता
भी नहीं। न मैं इनकी मानता, न ये मेरी मानते। आपको हम
निर्णायक बनाते हैं। हम दोनों का विवाद हल करें।
मैंने कहा कि निर्णायक मैं बन जाऊं, लेकिन पहले मेरे
दोत्तीन सवालों का जवाब दे दें। उन्होंने कहा, क्या? मैंने कहा कि अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई, तो मैंने ब्राह्मण बूढ़े से पूछा कि फिर तुम क्या करोगे? उसने कहा, नहीं; करना क्या है!
मैंने कहा कि अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई नहीं, वह है भी नहीं। और सृष्टि सदा से है, तो मैंने जैन
बूढ़े से पूछा कि फिर तुम्हारे इरादे क्या हैं? उसने कहा,
कोई और इरादे नहीं हैं, बस यह तय हो जाना
चाहिए। मैंने कहा, तुम कितने दिन से इस पर विवाद करते हो?
जिस विवाद के तय हो जाने का कोई जीवंत परिणाम होने वाला नहीं है,
वह कुतूहल है। जिस विवाद के कनक्लूसिव हो जाने पर तुम कहते हो,
कोई और बात नहीं है, बस यह तय हो जाना चाहिए।
प्रयोजन क्या है? होगा क्या? करोगे
क्या?
मैंने उस ब्राह्मण बूढ़े को कहा कि जितना तुमने इनसे विवाद करने में
समय गंवाया, उतनी देर तुमने उस ईश्वर को खोजा जिसने सृष्टि बनाई
है? उसने कहा कि नहीं; अभी तो इस दिशा
में कुछ किया नहीं। मैंने कहा, जितने दिन तुम इनसे विवाद कर
रहे थे, उतने दिन अगर खोजते, तो शायद
वह मिल ही जाता। लेकिन शायद उसे खोजने का कोई सवाल नहीं है।
मैंने उस जैन बूढ़े को कहा कि तुम्हें पक्का हो गया है कि प्रभु ने
प्रकृति नहीं बनाई; अनादि है सृष्टि; तो इस अनादि
सृष्टि के रहस्य को जानने के लिए तुमने क्या किया है? या इस
आदमी से विवाद कर रहे हो, इतना जानकर; बस
इतना ही उपयोग है इस जानने का? कुतूहल!
इसलिए कृष्ण पहले ही कहते हैं, दंडवत करके; कुतूहल से नहीं। क्योंकि जो कुतूहल से पूछेगा, उसे
कभी गहरे उत्तर नहीं मिल सकते हैं। आपकी आंखों में दिखा कुतूहल, और उत्तर देने वाला बचाव कर जाएगा। क्योंकि जो जानता है, वह हीरे उन्हीं के सामने रख सकता है, जो हीरों को
पहचान सकते हों। हर किसी के सामने हीरे रख देना नासमझी है। अर्थ भी नहीं है,
प्रयोजन भी नहीं है। तो जो जानता है, वह
कुतूहल का उत्तर नहीं दे सकता है।
दूसरी बात, कुतूहल न हो, जिज्ञासा हो,
इंक्वायरी हो; क्यूरिआसिटी न हो, जिज्ञासा हो। कुतूहल नहीं है; सच में ही जानना चाहता
है एक आदमी। ऐसा नहीं कि ऐसे ही पूछ लिया, बाई दि वे! ऐसा
नहीं, चलते थे रास्ते से, पूछ लिया,
ऐसा नहीं। सच में ही जानना चाहता है; जानने को
बड़ा आतुर है। लेकिन आतुर तो जानने को है, बहुत आतुर है,
लेकिन जिससे जानना चाहता है, उसे इतना भी आदर
नहीं देना चाहता कि मैं तुमसे जानना चाहता हूं; तो जानने की
आतुरता भी सार्थक जिज्ञासा नहीं बन सकती है।
वह ऐसा ही है कि एक आदमी बहुत प्यासा है। हाथ चुल्लू बांधकर खड़ा है
नदी के किनारे; लेकिन झुकना नहीं चाहता है कि झुके और पानी भर ले;
तो नदी अपने नीचे बहती रहेगी। कोई नदी छलांग लगाकर और किन्हीं की
चुल्लुओं में नहीं आती। चुल्लुओं को ही नदी तक झुकना पड़ता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके।
ज्ञान की भी एक नदी है, धारा है। उसे कोई
अहंकार में अकड़कर खड़ा होकर चाहे कि ज्ञान पा ले, कि किसी
प्रश्न का सार्थक उत्तर पा ले, तो असंभव है। क्योंकि वह
अहंकार ही बताता है कि जो झुकने को राजी नहीं, उसका चुल्लू
भरा नहीं जा सकता। झुके!
झुकने में राज क्या है? झुकने का इतना आग्रह
क्या है?
दंडवत करके प्रतीकात्मक है। दंडवत का मतलब यह नहीं है कि सच में ही
कोई आदमी सिर जमीन पर रख दे, तो कुछ हल हो जाए। नहीं; भाव चाहिए दंडवत का। अहंकार झुका हुआ चाहिए; क्योंकि
जहां अहंकार झुकता है, वहां हृदय का द्वार खुलता है। उस खुले
द्वार में ही रिसेप्टिविटी, ग्राहकता पैदा होती है।
जहां हृदय का द्वार बंद है, अहंकार अकड़कर खड़ा है,
द्वार बंद है, वहां उत्तर प्रवेश भी नहीं कर
सकता। इसलिए अहंकार से पूछी गई जिज्ञासा को ज्ञानीजन उत्तर नहीं देते हैं। वे कहते
हैं, जाओ, अभी समय नहीं आया।
शिष्य और गुरु के बीच जो संबंध है, वह जैसा प्रचलित है,
वैसा नहीं है। शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है।
शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है। तैयार है, सीखने को! शिष्य का बिगड़ा हुआ एक रूप आप देखते हैं, सुनते
हैं, सिक्ख। सिक्ख का मतलब है, सीखने
को जो तैयार है। हालांकि सिक्ख सीखने को तैयार मिलेगा नहीं। सिक्ख होना बहुत
मुश्किल है। शिष्य होना बहुत मुश्किल है।
शिष्य होने का मतलब है, जो कि सीखने को,
झुकने को, विनम्र होने को राजी है। क्योंकि
ह्युमिलिटी में, विनम्रता में ही द्वार खुलता है। जब हम
झुकते हैं, तभी द्वार खुलता है। अकड़कर खड़े हुए आदमी के द्वार
बंद होते हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके जो प्रश्न
पूछता है!
दंडवत करके कौन प्रश्न पूछता है? और दंडवत करके कौन
प्रश्न नहीं पूछता है?
जो आदमी दंडवत करके प्रश्न नहीं पूछता है, वह वह आदमी है, जो भीतर तो यह मानकर ही चलता है कि
मुझे तो खुद ही पता है। ऐसे ही पूछे ले रहे हैं एक विटनेस के बतौर कि अगर इनको भी
पता हो, तो गवाही मिल जाए कि जो हम जानते थे, वह ठीक है। दंडवत करके वही पूछता है, जिसे बोध है
अपने अज्ञान का।
मैंने सुबह आपसे कहा, अज्ञान का बोध ज्ञान यज्ञ का
पहला चरण है। उसको कृष्ण फिर दोहराते हैं। अब वे एक नए रूप से कहते हैं कि दंडवत
करके जो पूछता, झुककर जो पूछता!
एक बहुत मीठी कहानी है। मैंने सुना है, एक सम्राट ने अपने
दरबार के बुद्धिमानों को कहा कि मैं जानना चाहता हूं कि ब्रह्म इस जगत में,
कहते हैं लोग, इस भांति समाया है कि जैसे नमक
सागर के जल में। दिखाओ मुझे, यह समाया हुआ ब्रह्म कहां है?
विद्वान थे दरबार में लोग। लेकिन दरबार में जैसे विद्वान हो सकते हैं, वैसे ही थे। दरबार में कोई ज्ञानी होगा, इसकी आशा तो
मुश्किल है। दरबारी विद्वान थे। सब जगह मिलते हैं। अगर दिल्ली में जाइए तो बहुत
हैं। तो दरबारी विद्वान! उनका काम दरबार की शोभा बढ़ाना। शृंगारिक उपयोग है उनका,
डेकोरेटिव। तो सभी सम्राट अपने दरबार में विद्वान रखते थे, नहीं तो सम्राट मूढ़ समझा जाए। लेकिन मूढ़ के दरबार में जो विद्वान हों,
वे कितने विद्वान होंगे, यह समझा जा सकता है।
विद्वान मुश्किल में पड़े। बहुत समझाने की कोशिश की। बड़े उद्धरण दिए।
लेकिन सम्राट ने कहा, नहीं, मुझे दिखाओ निकालकर। जो
सभी जगह छिपा हुआ है, थोड़ा-बहुत तो निकालकर कहीं से दिखाओ!
हवा से निकाल दो, दीवाल से निकाल दो, मुझसे
निकाल दो, खुद से निकाल दो! कहीं से तो निकालकर थोड़ी तो झलक
दिखाओ! मुश्किल में पड़ गए। पर सम्राट ने कहा, नहीं बता सकोगे
कल सुबह तक, तो छुट्टी! फिर लौटकर मत आना। बड़ी कठिनाई हो गई।
बड़ी कठिनाई हो गई!
द्वारपाल भी खड़ा हुआ सुनता था। दूसरे दिन सुबह जब विद्वान नहीं आए, तो उस द्वारपाल ने कहा, महाराज! विद्वान तो आए नहीं;
समय हो गया। और जहां तक मैं समझता हूं, वे अब
आएंगे भी नहीं; क्योंकि उत्तर होता, तो
कल सांझ को ही दे देते। रातभर में उत्तर खोजेंगे कैसे? कहीं
उत्तर रखा हुआ थोड़े ही है कि वे उठाकर ले आएंगे, ढूंढ़ लेंगे,
कि तैयार कर लेंगे। अगर अनुभव होता उन्हें, तो
कल ही कह दिए होते। तो अगर हो इरादा, तो मैं उत्तर दूं।
राजा ने कहा, हद हो गई! तू द्वारपाल; सदा
दरवाजे पर खड़ा रहा। विद्वान हार गए; तू उत्तर देगा! उसने कहा,
मैं उत्तर दूंगा। राजा ने कहा, भीतर आ;
उत्तर दे। उसने कहा, पहले नीचे उतरो सिंहासन
से। मैं सिंहासन पर बैठता हूं। दंडवत करो नीचे। राजा ने कहा, पागल, किस तरह की बातें करता है! उसने कहा, तो फिर, फिर तुम्हें उत्तर कभी नहीं मिलेगा। जो
तुम्हारे चरणों में बैठते हैं, उनसे तुम्हें उत्तर कभी भी
नहीं मिलेगा। क्योंकि वे उत्तर देने योग्य होते, तो तुम्हें
चरणों में बिठा लिया होता उन्होंने। उतरो नीचे, उस द्वारपाल
ने कहा।
राजा एकदम घबड़ा गया! कोई था भी नहीं। दरबार में कोई था नहीं। कहा, उतर नीचे! जब प्रश्न पूछा है, तो उत्तर देकर रहेंगे।
राजा घबड़ाकर नीचे बैठ गया। द्वारपाल सिंहासन पर बैठ गया। द्वारपाल ने कहा, दंडवत कर! सिर झुका! राजा ने सिर झुकाया। और जीवन में पहली बार उसे सिर
झुकाने के आनंद का अनुभव हुआ--पहली बार!
सिर अकड़ाए रखने की बड़ी पीड़ा है। लेकिन जिंदगीभर अकड़ाए रखने से
पैरालिसिस हो जाती है। अकड़ ही जाता है। फिर उसको झुकाना हो, तो बड़ी कठिनाई होती है।
बड़ी मुश्किल से तो झुकाया। लेकिन सिर झुकाकर जब उसके पैरों में पड़ रहा, तो उस द्वारपाल ने थोड़ी देर बाद कहा कि अब ऊपर भी उठा! पर सम्राट ने कहा,
थोड़ी देर रुक। मैंने तो यह सुख कभी लिया नहीं। थोड़ा रुक। जल्दी नहीं
है उत्तर की।
आधी घड़ी, घड़ी बीतने लगी। द्वारपाल ने कहा, अब सिर उठाओ। जवाब नहीं लेना है? उस सम्राट ने ऊपर
देखा और उसने कहा, जवाब मुझे मिल गया। अकड़ा था, इसीलिए मुझे पता नहीं चला उस ब्रह्म का; आज झुका तो
मुझे पता लगा कि कहां खोजता हूं बाहर! जब सब जगह है, तो भीतर
भी तो होगा ही। झुके-झुके मैं उसी में खो गया। उत्तर मुझे मिल गया। तुम मेरे गुरु
हो।
बिना कहे उत्तर मिल गया! बिना उत्तर दिए उत्तर मिल गया! हुआ क्या? हंबलनेस, ह्युमिलिटी, विनम्रता
गहरे में उतार देती है और वहां से जो अंतर-ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं, वे उत्तर बन जाती हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके प्रश्न
पूछना ऐसे पुरुष से।
लेकिन प्रश्न पूछने वाले आते हैं; मेरे पास ही आ जाते
हैं, तो चारों तरफ देखते हैं कि कहां बैठें? प्रश्न क्या पूछना है! शायद प्रश्न के बहाने कुछ बताने ही चले आए हों।
आज पृथ्वी पर पूछने की कला ही खो गई है। हाउ टु बी ए डिसाइपल, कैसे सीखने वाले बनना, वह बात ही खो गई है। इसलिए
मैं निरंतर कहता हूं, गुरु की कोई जरूरत नहीं। मूढ़जन बहुत
प्रसन्न होते हैं। इसलिए नहीं कि वे समझ जाते हैं मेरा मतलब कि गुरु की जरूरत नहीं;
वे समझ जाते हैं कि शिष्य होने की कोई जरूरत नहीं। बड़े प्रसन्न होते
हैं! उनकी प्रसन्नता देखकर मैं हैरान होता हूं।
गुरु की कोई जरूरत नहीं, जब मैं यह कहता हूं,
तो मेरा मतलब होता है कि गुरु को पता ही नहीं होता कि वह गुरु है।
लेकिन शिष्य को पूरा पता होना चाहिए कि वह शिष्य है। क्योंकि शिष्य को अभी सीखना
है; गुरु को अब सीखना नहीं है। गुरु वहां पहुंच गया है,
जहां कुछ भी याद रखने की जरूरत नहीं है। शिष्य को अभी बहुत कुछ याद
रखना है; क्योंकि अभी यात्रा पूरी नहीं हो गई है।
मुझसे लोग कहते हैं कि आप पहले तो कहते थे, गुरु की कोई जरूरत नहीं है। और अब आप कहने लगे कि जरूरत है!
तो मैंने कभी नहीं कहा कि गुरु की कोई जरूरत नहीं, इस अर्थ में कि शिष्य की कोई जरूरत नहीं। लेकिन दंभी प्रकृति के व्यक्ति
इस बात को सुनकर बड़े प्रसन्न होते हैं। गुरु की कोई जरूरत नहीं, उसका मतलब यह कि अब किसी से सीखने की कोई जरूरत नहीं। अब तो हम खुद ही
गुरु हो गए! गुरु की कोई जरूरत नहीं, मतलब हम खुद ही गुरु
हैं! तो उन्हें लगता है कि मैं कंट्राडिक्शन करता हूं। कह देता हूं कभी कि गुरु की
जरूरत है!
जब मैं कहता हूं, गुरु की जरूरत है, तो मैं शिष्यों से कह रहा हूं। और जब मैं कहता हूं, गुरु
की कोई जरूरत नहीं, तो गुरुडम चलाने वाले गुरुओं से कह रहा
हूं। क्योंकि गुरुडम जो चलाता है, वह तो गुरु होता नहीं।
जिसे गुरु होने की धारणा भी पकड़ जाती है, वह तो गुरु के
योग्य नहीं रह जाता है।
ध्यान रहे, गुरु का जिसे खुद खयाल पकड़ जाए कि मैं गुरु हूं,
वह गुरु नहीं रह जाता। और जिस शिष्य को यह खयाल न पकड़े कि मैं शिष्य
हूं, वह शिष्य नहीं रह जाता। और ऐसा शिष्य चाहिए, जिसे पता हो कि वह शिष्य है। और ऐसा गुरु चाहिए, जिसे
पता न हो कि वह गुरु है। तब गुरु-शिष्य का मिलन होता है।
तब सीखने वाला चाहिए झुका हुआ, खुला द्वार, वलनरेबल, ताकि कोई चीज उसमें प्रवेश कर सके। कुछ
डाला जा सके, तो झेला जा सके। उलटा पात्र नहीं चाहिए शिष्य
का, कि कुछ गिरे, तो सब बाहर गिर जाए।
सीधा पात्र चाहिए।
बुद्ध कहा करते थे कि कई पात्र ठीक हैं बिलकुल, लेकिन उलटे रखे हैं। उन पर हम डालते हैं, बेकार चला
जाता है। कई पात्र सीधे रखे हैं, लेकिन बिलकुल फूटे हैं। उन
पर डालते हैं, बह जाता है। पात्र ऐसा चाहिए कि फूटा न हो। और
पात्र ऐसा चाहिए कि फूटा न हो और सीधा हो।
जब कोई दंडवत करता, तो फूटा पात्र नहीं होता;
क्योंकि झुकने के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। इसे जरा कठिन लगेगा सोचना
कि झुकने के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। झुका तो कमजोर भी सकते हैं, झुकना सिर्फ महाशक्तिशालियों का काम है। झुका लेना तो किसी को बड़ा आसान है;
झुक जाना बड़ा कठिन है। और तब झुक जाना तो आसान है, जब कोई झुकाता हो। तब झुक जाना महान कार्य है, जब
कोई झुकाता न हो।
कोई गुरु कहे, झुक! डंडे से झुका दे; चार आदमी
लगाकर झुका दे; तो झुक जाएंगे। लेकिन तब झुकना बहुत आसान है।
लेकिन गर्दन ही झुकाई जा सकेगी, और कुछ भी नहीं झुकेगा।
लेकिन जब कोई कहता ही नहीं झुकने की कोई बात; कोई आतुर ही
नहीं; तब झुकना, तब सहज, स्पांटेनियस--दंडवत का वही अर्थ है, अपनी ओर से सब
छोड़कर पड़ जाना, सरेंडर्ड, समर्पित।
उस क्षण में ही प्रश्न पूछा जा सकता है। उस क्षण में प्रश्न न तो
कुतूहल होता, न जिज्ञासा होता; बल्कि उस क्षण
में प्रश्न मुमुक्षा बन जाता है। उस क्षण में प्रश्न प्यास हो जाता है। उस क्षण
में प्रश्न ऐसा नहीं है कि चलते हुए पूछ लिया; प्रश्न ऐसा
नहीं है कि जानना चाहते थे, इसलिए पूछ लिया। प्रश्न ऐसा है
कि रूपांतरित होना चाहते हैं, इसलिए पूछा। बदलना चाहते हैं,
क्रांति से गुजरना चाहते हैं, म्यूटेशन से
जाना चाहते हैं, और हो जाना चाहते हैं।
प्रश्न ऐसा नहीं था, जैसे बच्चे पूछ लेते। प्रश्न ऐसा
नहीं था, जैसा वैज्ञानिक पूछता। प्रश्न ऐसा था, जैसा साधक पूछता है। ऐसा प्रश्न पूछा जाए, तो ही
ज्ञान जिसके जीवन में घटित हुआ, उससे धारा बहनी शुरू होती
है।
दंडवत का एक और अर्थ आपको स्पष्ट करना चाहूंगा। क्योंकि बड़ी
भ्रांतियां हैं। मैं निरंतर कहता रहा हूं कि किसी के पैर मत छुओ। लोग मेरे पैर छू
लेते हैं। तो लोग मेरे पास आ जाते हैं कि आपने कहा कि किसी के पैर मत छुओ और फलां
आदमी आपका पैर छू रहा था! आपने रोका क्यों नहीं?
किसी के पैर मत छुओ का मतलब, औपचारिक मत छुओ,
फार्मल मत छुओ, जानकर मत छुओ, कोशिश करके मत छुओ, चेष्टा करके मत छुओ, एफर्ट से मत छुओ, प्रयत्न-यत्न से मत छुओ; और दूसरे छू रहे हैं, इसलिए मत छुओ; कोई क्या कहेगा, इसलिए मत छुओ।
पैर छूना उस क्षण दंडवत बन जाता है, जिस क्षण आपको पता ही
नहीं चलता कि आप पैर छू रहे हैं। एफर्टलेस! पता ही तब चलता है, जब पैर छूने की घटना घट गई होती है, जब कहीं सिर रख
जाता है किसी चरण पर। तब ध्यान रहे, जब ऐसी मनोदशा में सिर
रख जाता है किसी चरण पर, तो प्रार्थना घटित हो जाती है,
ध्यान घटित हो जाता है। तो ऐसे क्षण में वह विनम्रता घटित हो जाती
है, जो शिष्यत्व है, डिसाइपलशिप है।
और ये पैर एकदम ही व्यर्थ नहीं हैं, इनका आकल्ट उपयोग भी
है। कभी आपने खयाल किया, किसी पर क्रोध आता है, तो उसका सिर खोल देना चाहते हैं। बहुत क्रोध आ जाता है किसी को...।
अभी मैं बड़ौदा में था। एक आदमी को बहुत क्रोध आ गया मुझ पर, तो उसने एक जूता फेंककर मेरी तरफ मार दिया। फिर भी मैंने उससे कहा कि तेरा
क्रोध पूरा नहीं है; नहीं तो दूसरा जूता क्यों रोका है?
उसको भी फेंक। और फिर एक जूते का मैं क्या करूंगा? दो जूते होंगे, तो कुछ उपयोग में आ सकते हैं!
क्रोध तेजी से आ जाए, तो जूता फेंकने का मन होता है।
क्या बात है? सिंबालिक है। क्रोध जोर से आ जाए, तो दूसरे के सिर में पैर मारने की तबियत होती है। अब पैर तो मार नहीं
सकते। इतनी छलांग लगाना, कुछ थोड़े से हाई जंप करने वालों को
संभव हो! बाकी किसी के सिर में पैर मारने जाओ, तो हाथ-पैर
अपने टूट जाएं! उतनी मेहनत मुश्किल मालूम पड़ती है। इसलिए जूते को सिंबालिक एक्ट की
तरह, प्रतीक-चिह्न की तरह उसके सिर पर फेंक देते हैं,
कि यह ले!
जब क्रोध में ऐसा घटित होता है, तो क्या इससे विपरीत
घटित नहीं हो सकता कि किसी के चरणों में सिर रखने का क्षण आ जाए? जब क्रोध से पीड़ित, विक्षिप्त चित्त दूसरे के सिर पर
पैर रखना चाहता है, तो मौन से, प्रेम
से, प्रार्थना से, शांत हुआ चित्त,
अगर दूसरे के पैरों में सिर रखना चाहे, तो
आश्चर्य क्या है?
लेकिन जो लोग जूते मारने में कोई आश्चर्य न देखेंगे, वे लोग पैर पर सिर रखने देने से बड़े आश्चर्यचकित हो जाते हैं! असल में
उन्हें रहस्य का कोई पता नहीं।
फिर यह भी ध्यान रहे कि दंडवत इस मुल्क में एक बहुत साइंटिफिक प्रोसेस
का हिस्सा थी, एक वैज्ञानिक प्रक्रिया थी। प्रत्येक व्यक्ति का शरीर
विद्युत-ऊर्जा से भरा है। और यह विद्युत-ऊर्जा कोणों से, कोनिकल
जगह से बहती है--अंगुलियों से और पैर की अंगुलियों से, हाथ
की अंगुलियों से और पैर की अंगुलियों से। जब भी कोई व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच
जाता है, समर्पित परमात्मा पर, तो उसकी
ऊर्जा परमात्मा से संबंधित हो जाती है। उसके पैरों पर अगर सिर रख दिया है, तो विद्युत-संचरण, तरंगों का प्रवाह भीतर तक दौड़
जाता है। उसके हाथों से भी यह होता है। इसलिए पैर पर सिर रखने का रिवाज था। और हाथ
सिर पर रखकर आशीष देने का रिवाज था।
अगर किसी व्यक्ति के पैरों पर आपने सिर रखा और उसने भी आपके सिर पर
हाथ रख दिया, तो आपके दोनों के शरीर इलेक्ट्रिक सर्किट बन जाते हैं
और विद्युत-धारा दोनों तरफ से दौड़ जाती है। इस विद्युत-धारा के दौड़ जाने के गहरे
परिणाम हैं।
लेकिन जीवन के बहुत-से सत्य समय की धूल से जमकर व्यर्थ हो जाते हैं।
जीवन के बहुत-से सत्य गलत लोगों के हाथ में पड़कर खतरनाक भी हो जाते हैं।
दंडवत करके पूछना, प्रश्न करना, जिज्ञासा, तो जिसने जाना है, उससे
ज्ञान का अमृत तेरी तरफ बह सकता है अर्जुन, ऐसा कृष्ण कहते
हैं।
प्रश्न: भगवान श्री, इस श्लोक में यह भी कहा गया है
कि सेवा और निष्कपट भाव से किए गए प्रश्न पर ज्ञानीजन उपदेश करते हैं। कृपया सेवा
और निष्कपट भाव से किए गए प्रश्न का अर्थ स्पष्ट करें।
अकेला प्रश्न, कुछ लेने की आकांक्षा है। लेकिन जिसने कुछ दिया नहीं,
वह लेने का अधिकारी नहीं है। पूछने चल पड़े, तो
मांगने तो चल पड़े, लेकिन प्रत्युत्तर देने की सामर्थ्य भी
चाहिए। और सच तो यह है कि मांगने का हक मिलता है तब, जब देने
का काम पूरा हो चुका हो।
इसलिए पुरानी भारतीय आध्यात्मिक धारणा थी कि जब कोई पूछने जाए, तो सीधा पूछने न चला जाए। क्योंकि कितने विराट की मांग कर रहे हो तुम! तुम
कह रहे हो, सत्य की खबर दो मुझे! कह रहे हो, परमात्मा का इशारा बताओ मुझे! कह रहे हो कि आखिरी मंजिल का द्वार कहां?
मार्ग कहां? विधि कहां? पूछते
हो परम को--सीधा पूछते हो! बिना कुछ दिए पूछते हो! अशोभन है। सेवा से और निष्कपट
भाव से की गई सेवा से पूछो।
इसलिए इस मुल्क की व्यवस्था थी। और इस मुल्क की व्यवस्था इस पृथ्वी पर
की गई मनुष्य की व्यवस्थाओं में सर्वाधिक गहरी थी। हजार-हजार वर्षों में हजार-हजार
प्रयोगों के बाद नियत की गई थी। हजारों-लाखों अनुभवों के बाद सार-निचोड़ था।
तो गुरु के पास शिष्य जाता, तो वर्षों तो सेवा
करता। कभी पैर दबा देता। कभी उसका पानी भर लाता। कभी उसकी लकड़ी चीर देता। कभी उसकी
आग जला देता। और प्रतीक्षा करता कि गुरु किसी दिन कहे, पूछो।
अपनी तरफ से पूछता भी नहीं। क्योंकि अनधिकार होगा। पता नहीं, मैं पात्र भी हूं या नहीं। पता नहीं, मेरी योग्यता
भी है या नहीं। पता नहीं, मैं इस जगह भी हूं या नहीं कि
पूछूं। और अगर मैं पूछ लूं, अपात्र होऊं, तो गुरु को उत्तर देने के व्यर्थ के कष्ट में डालने वाला न बन जाऊं!
रुकूं। जिस दिन गुरु कहेगा, पूछ! पूछ लूंगा। प्रतीक्षा करता।
कभी-कभी वर्ष बीत जाते। धैर्य, अवेटिंग, धीरज से राह देखता। करता रहता काम।
फिर किसी दिन गुरु कहता, ठीक। अब तू आ। अब तू
पूछ। तुझे देखा। तुझे जाना। तुझे परखा। तुझे निकट से समझा। पात्र है तू। उठा ला
समिधा। प्रश्न जगा। पूछ ले।
जिस दिन गुरु कहता, पूछ ले, उस
दिन गुरु उस प्रसन्नता में, उस पात्र को पहचान लेने की
प्रसन्नता में, लबालब भरा होता। जैसे बादल भर जाते हैं वर्षा
के पहले; आतुर धरती कहीं भी पुकारे, बरस
पड़ते हैं। ऐसे ही भरा होता है उस प्रसन्नता में। उस क्षण प्रसाद बहने को तत्पर
होता। उस क्षण दंडवत करके, उस दिन चरणों में सिर रखकर वह
अपना प्रश्न उपस्थित करता।
अदभुत लोग रहे होंगे। एकाध प्रश्न पूछने के लिए दो-चार वर्ष प्रतीक्षा
करना! अदभुत लोग रहे होंगे। जिज्ञासा नहीं रही होगी, कुतूहल नहीं रहा होगा,
मुमुक्षा रही होगी प्राणों की; दांव रहा होगा
सारी जिंदगी को लगाने का। सवाल सवाल नहीं था, जिंदगी का सवाल
था। उसके तय होने पर सब कुछ निर्भर था। तो दो वर्ष प्रतीक्षा भी की थी।
आज तो हालतें बड़ी मजेदार हैं। मैं अभी बिहार में था कुछ समय पहले। रात
दस बजे बोलकर लौटा। कलेक्टर उस गांव के आए। पढ़े-लिखे आदमी हैं। दस बजे आए। मैंने
कहा, अब तो मेरे सोने का समय हुआ। आप सुबह आ जाएं, आठ बजे। उन्होंने कहा, आठ बजे तो मैं न आ पाऊंगा;
क्योंकि आठ बजे तो मेरे नाश्ते का समय है।
लाए थे ब्रह्म-जिज्ञासा; कहने लगे, आठ बजे नाश्ते का समय है! मैंने कहा, तो फिर दस बजे
आ जाएं, क्योंकि आठ से दस शिविरार्थियों के लिए दिया है। दस
बजे आ जाएं।
दस बजे तो नहीं आ सकता। दफ्तर जाऊंगा।
ब्रह्म-जिज्ञासा! एक दिन की छुट्टी नहीं ली जा सकती! तो मैंने कहा, परसों आ जाएं। उन्होंने कहा, परसों! सुबह तो नहीं आ
सकूंगा। कुछ मेहमान आते हैं। ब्रह्म-जिज्ञासा! मेहमान आ रहे हैं! मैंने कहा,
सांझ आ जाएं। कहा कि थियेटर के टिकट ले रखे हैं! ब्रह्म-जिज्ञासा!
थियेटर के टिकट ले रखे हैं!
तो फिर मैंने कहा कि हाथ जोड़कर दंडवत करूं आपके और पूछूं कि कब आज्ञा
है कि आपके दरवाजे उपस्थित हो जाऊं! थोड़े घबड़ाए। विचलित हुए।
क्या, चाहते क्या हैं हम? चाहते भी
हैं कुछ?
स्वभावतः, अगर ब्रह्म हमारे अनुभव से खो गया है, तो आश्चर्य नहीं है। पूछने वाले ही खो गए। सम्यकरूपेण जानने की आतुरता
वाले ही खो गए। इतना-सा छोड़ने का मन नहीं है!
इसलिए कहते हैं कृष्ण, सेवापूर्वक, निष्कपट भाव से...।
निष्कपट भाव क्यों जोड़ दिया? क्योंकि सेवा में भी
कपट हो सकता है। सेवा में भी सिर्फ इतना ही मतलब हो सकता है कि कर रहे हैं सेवा,
ऐज ए बार्गेन, एक सौदे की तरह कि हम कर देंगे
सेवा, तुम बता देना ब्रह्म!
जहां सौदा है, वहां सेवा नहीं रह गई, वहां कपट
आ गया। निष्कपट! सेवा को और भी कठिन बना दिया। करना सेवा निष्कपट कि अगर चार साल
सेवा करने के बाद गुरु कहे, जाओ। मत पूछो। तो यह न कह पाओ कि
मैंने चार साल सेवा की! क्या इसलिए? यह भी न कह पाओ। गुरु
कहे, नहीं; जाओ। तो चले जाना कि सेवा
का अवसर दिया, यही धन्यभाग है। निष्कपट इसलिए है।
निष्कपट सेवा हो, झुका हुआ सिर हो, खुला हुआ मन हो, तो ज्ञान की गंगा कहीं भी, कहीं से भी उतर आने को सदा तत्पर है।
शेष कल सुबह।
अब संन्यासी कीर्तन करेंगे, डूबेंगे इस भाव में।
आप अपनी जगह बैठे रहें। उठें न! कल जैसी भीड़ न कर लें, अपनी
जगह बैठे रहें। बैठकर ही देखेंगे, ज्यादा आनंद आएगा। आगे न
बढ़ें। जिनको कीर्तन करना है, वे आगे आ जाएंगे। बाकी अपनी जगह
बैठे रहें। दस मिनट डूबें। ताली बजाएं साथ में। गाएं साथ में। भाव में एक साथ हों।
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