गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-036
अध्याय ४
सातवां प्रवचन
कामना-शून्य चेतना
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।
१९।।
और हे अर्जुन, जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे
उस ज्ञान-अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।
कामना और संकल्प
से क्षीण हुए, कामना और संकल्प की मुक्तिरूपी अग्नि से भस्म हुए...।
चेतना की ऐसी दशा में जो ज्ञान उपलब्ध होता है, ऐसे व्यक्ति
को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं। इसमें दोत्तीन बातें गहरे से देख लेने की हैं।
एक तो, ज्ञानीजन भी उसे पंडित कहते हैं।
अज्ञानीजन तो पंडित किसी को भी कहते हैं। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते
हैं, जो ज्यादा सूचनाएं संगृहीत किए हुए है। अज्ञानीजन तो
पंडित उसे कहते हैं, जो शास्त्र का जानकार है। अज्ञानीजन तो
पंडित उसे कहते हैं, जो तर्कयुक्त विचार करने में कुशल है।
ज्ञानीजन उसे पंडित नहीं कहते। ज्ञानीजन तो उसे पंडित कहते हैं, जो कामना और संकल्प को छोड़कर चेतना की उस शुद्ध अवस्था को उपलब्ध होता है,
जहां ज्ञान का सीधा साक्षात्कार है, इमीजिएट
रिअलाइजेशन है। अज्ञानीजन पंडित उसे कहते हैं, जो कि
ज्ञानीजनों ने जो कहा है, उसका संग्रह रखकर बैठा है।
ज्ञानीजन उसे पंडित कहते हैं, जो उधार नहीं है; जिसका सत्य से सीधा, बिना मध्यस्थ के, संपर्क है, संस्पर्श है। यह संस्पर्श उसका ही हो
सकता है, जिसकी चेतना से कामना और संकल्प क्षीण हुए हों।
इसलिए दूसरी बात खयाल में ले लेनी जरूरी है कि कामना और संकल्प के क्षीण होने का
क्या अर्थ है?
कामना का क्षीण होना तो हमारी समझ में आ सकता है--जहां वासनाएं गिर
गईं, इच्छाएं गिर गईं; जहां कुछ पाने
का खयाल गिर गया। कामना के विरोध में तो बहुत वक्तव्य हैं; पर
थोड़ा उसे भी ठीक से समझ लें। फिर संकल्प भी क्षीण हो जाए! उसे समझना थोड़ा कठिन
पड़ेगा।
कामना का अर्थ है, जो नहीं है, उसकी चाह। कामना के क्षीण होने का अर्थ है, जो है,
उस पर पूर्णताः। जो नहीं है, उसकी चाह कामना
है। जो है, उसके साथ पूरी तृप्ति, कामना
से मुक्ति है।
कामना का अर्थ है, दौड़। जहां मैं खड़ा हूं, वहां नहीं है आनंद। जहां कोई और खड़ा है, वहां है
आनंद। वहां मुझे पहुंचना है। और मजे की बात यह है कि जहां कोई और खड़ा है, और जहां मुझे आनंद मालूम पड़ता है, वह भी कहीं और
पहुंचना चाहता है! वह भी वहां होने को राजी नहीं है। उसे भी वहां आनंद नहीं है।
उसे भी कहीं और आनंद है।
कामना का अर्थ है, आनंद कहीं और है, समव्हेयर एल्स। उस जगह को छोड़कर जहां आप खड़े हैं, और
कहीं भी हो सकता है आनंद। उस जगह नहीं है, जहां आप हैं। जो
आप हैं, वहां आनंद नहीं है। कहीं भी हो सकता है पृथ्वी पर;
पृथ्वी के बाहर, चांदत्तारों पर; लेकिन वहां नहीं है, जिस जगह को आप घेरते हैं। जिस
होने की स्थिति में आप हैं, वह जगह आनंदरिक्त है--कामना का
अर्थ है।
कामना से मुक्ति का अर्थ है, कहीं हो या न हो आनंद,
जहां आप हैं, वहां पूरा है; जो आप हैं, वहां पूरा है। संतृप्ति की पराकाष्ठा
कामना से मुक्ति है। इंचभर भी कहीं और जाने का मन नहीं है, तो
कामना से मुक्त हो जाएंगे।
कामना के बीज, कामना के अंकुर, कामना के तूफान
क्यों उठते हैं? क्या इसलिए कि सच में ही आनंद कहीं और है?
या इसलिए कि जहां आप खड़े हैं, उस जगह से
अपरिचित हैं?
अज्ञानी से पूछिएगा, तो वह कहेगा, कामना इसलिए उठती है कि सुख कहीं और है। और अगर वहां तक जाना है, तो बिना कामना के मार्ग से जाइएगा कैसे? ज्ञानी से
पूछिएगा, तो वह कहेगा, कामना के अंधड़
इसलिए उठते हैं कि जहां आप हैं, जो आप हैं, उसका आपको कोई पता ही नहीं है। काश, आपको पता चल जाए
कि आप क्या हैं, तो कामना ऐसे ही तिरोहित हो जाती है,
जैसे सुबह सूरज के उगने पर ओस-कण तिरोहित हो जाते हैं।
जोसुआ लिएबमेन ने एक छोटी-सी कहानी लिखी है। लिखा है, एक यहूदी फकीर बहुत परेशान है, बहुत कष्ट में है।
जैसे कि सभी लोग हैं। आदमी खोजना मुश्किल है, जो परेशान न
हो। अब तक मैंने तो ऐसा आदमी नहीं देखा, जो परेशान न हो।
गृहस्थ भी परेशान हैं, संन्यस्त भी परेशान हैं। गृहस्थ भी
कहीं और पहुंचना चाहते हैं, कहीं और--धन की यात्रा में,
यश की यात्रा में। संन्यस्त भी कहीं और पहुंचना चाहते हैं--आत्मा की
यात्रा में, परमात्मा की यात्रा में, मोक्ष
की यात्रा में। लेकिन कहीं और पहुंचने की दौड़ जारी है।
और जो कहीं और पहुंचना चाहता है, वह तनाव में होगा,
परेशान होगा। वह शांत नहीं हो सकता। अगर मोक्ष भी पाना है, तो वासना काम कर रही है, कामना काम कर रही है। अगर
परमात्मा को भी पाना है, तो फिर वासना काम कर रही है। फिर
कामना काम कर रही है। फिर कामना दग्ध नहीं हुई।
और मजा तो यह है कि परमात्मा उसे ही मिलता है, जिसकी कामना दग्ध हो। उसे ही मिलता है कि जिसके द्वार पर परमात्मा भी
दस्तक दे, तो वह कहे, विश्राम करो;
जल्दी न करो; ऐसी कोई जल्दी नहीं है। हम यहां
भी काफी मजे में हैं! मोक्ष भी दरवाजे खोले और वह आदमी कह सके कि हम यहीं मोक्ष
में हैं, दरवाजे खोलने की कोई भी जरूरत नहीं है। ऐसे ही
व्यक्ति के लिए मोक्ष उपलब्ध होता है। ऐसे ही व्यक्ति की तरफ परमात्मा आता है,
जो परमात्मा से भी कह दे कि ठहरो।
संन्यासी भी परेशान और पीड़ित है। कामना ने रूप बदला, कामना नहीं बदली। कामना ने आब्जेक्ट बदला, विषय बदला,
कामना नहीं बदली। धन की जगह धर्म हुआ; सुख की
जगह स्वर्ग हुआ; पदार्थ की जगह परमात्मा हुआ; मकान की जगह मंदिर हुआ। विषय बदला, आब्जेक्ट बदला,
रूप बदला, ढंग बदला; कामना
नहीं बदली। कामना फिर नए रूपों पर, नए विषयों पर दौड़ने लगी।
कामना अपनी जगह है।
जब तक कोई आदमी कहीं पहुंचना चाहता है, जब तक किसी आदमी का
कोई लक्ष्य है, तब तक वह कामना के बाहर नहीं है। जब तक
उद्देश्य है, तब तक कामना के बाहर नहीं है।
लिएबमेन ने यह जो फकीर की कहानी लिखी, फकीर भी परेशान है!
मैंने कहा, संन्यासी भी परेशान है; बहुत
दुखी है, बहुत पीड़ित है। जीवन बीत गया प्रार्थना करते,
अब तक स्वर्ग से कोई खबर नहीं मिली! जीवन बीत गया प्रभु के द्वार पर
हाथ जोड़े, अब भी हाथ खाली हैं!
एक रात सोते समय उस बूढ़े फकीर ने परमात्मा से कहा, बहुत हो चुका! कितनी प्रार्थना करूं? और कितनी पूजा
करूं? और कब तक तुम्हें पुकारूं? अब थक
गया। अब तक तुम से सुख मांगे, अब तुमसे सुख नहीं मांगता। अब
तुम से इतना ही मांगता हूं कि कम से कम मेरे दुख किसी और को दे दो और किसी दूसरे
के दुख मुझे दे दो, तो भी चलेगा। मुझसे ज्यादा दुखी आदमी
पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।
सभी को ऐसा खयाल है कि उससे ज्यादा दुखी आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं
है। क्यों? खयाल के कारण हैं। क्योंकि हमें अपने भीतर के,
हृदय के दुख के कांटे दिखाई पड़ते हैं। दूसरों के हृदय के तो दुख के
कांटे दिखाई नहीं पड़ते। दूसरों के हृदय तक पहुंचने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है।
दूसरों के चेहरे दिखाई पड़ते हैं।
और चेहरे से ज्यादा धोखे की और कोई चीज नहीं है। चेहरा फसाड है, धोखा है। चेहरा बनाया हुआ है। ओरिजिनल फेस तो कम लोगों के पास होते हैं,
पेंटेड फेस होते हैं। मौलिक चेहरा तो बहुत कम लोगों के पास होता है।
कभी किसी कृष्ण, कभी किसी बुद्ध के पास मौलिक चेहरा होता है;
वही जो चेहरा उनका है। अन्यथा चेहरे तैयार किए होते हैं। दिखाने के
लिए तैयार किए होते हैं। मास्क, मुखौटे होते हैं। और एक-एक
आदमी बहुत-से चेहरे अपने पास रखता है। जब जैसी जरूरत पड़ी, चेहरा
लगा लेता है।
दूसरे का चेहरा दिखाई पड़ता है, मुस्कुराहटें दिखाई
पड़ती हैं दुनिया में। दूसरों के हृदय तो दिखाई नहीं पड़ते, नहीं
तो आंसुओं के ढेर लग जाएं। सच तो यह है कि लोग मुस्कुराते ही इसलिए हैं, ताकि भीतर के आंसुओं को छिपा सकें।
चेहरे बड़े प्रसन्न मालूम होते हैं, बड़े ताजे! हृदय
बिलकुल बासे। चेहरों पर जो दिखाई पड़ता है, उससे धोखे में मत
आ जाना। वे ड्राइंगरूम की तरह हैं, घरों में बैठकखाने की तरह
हैं। जो बाहर से आते हैं, उनको दिखाने के लिए बैठकखाना होता
है। रहने के लिए नहीं होता है बैठकखाना। घर के लोग उसमें रहते नहीं हैं। सिर्फ
दिखाई पड़ते हैं। जब बाहर से कोई आता है, तो बैठकखाने में
दिखाई पड़ते हैं। रहते घर के दूसरे हिस्सों में हैं, दिखाई
पड़ते हैं बैठकखानों में! चेहरे बैठकखाने हैं।
वह फकीर भी धोखे में आ गया। लोगों के चेहरे देखे। उसने देखा, लोग हंसते हैं, मुस्कुराते हैं। और मैं अपने भीतर
देखता हूं, तो सिवाय दुख के कुछ और नहीं है। तो उसने
परमात्मा से कहा, छोड़ो यह फिक्र सुख देने की। अब तो मैं इसके
लिए भी राजी हूं कि किसी दूसरे का दुख मुझे दे दो। मेरा दुख किसी और को दे दो। फिर
वह सो गया।
रात उसने एक स्वप्न देखा कि कोई आकाश से आवाज गूंजती है कि सब लोग
अपने दुखों को गठरियों में बांधकर नगर के केंद्रीय हाल में पहुंच जाएं। फकीर समझा
कि सुन ली गई मेरी प्रार्थना। बांधे अपने दुख; बांधी गठरी; भागा। रास्ते पर देखा कि सारा गांव अपनी-अपनी गठरी लेकर भागा जा रहा है।
लोगों की गठरियों की तरफ देखा, तो थोड़ा घबड़ाया। क्योंकि कोई
गठरी अपने से छोटी नहीं दिखाई पड़ती थी। लेकिन फिर भी गठरियां बंद थीं और दुख भीतर
थे। हो सकता है, दुख ज्यादा सहने योग्य हों।
अपरिचित का भी तो आकर्षण होता है। जिसे नहीं जानते, उसका भी तो आकर्षण होता है। अपने सुख से भी आदमी ऊब जाता है; दूसरे के दुख में भी आकर्षण होता है। साथ रहते-रहते अपने सुख से भी ऊब
जाता है। सच तो यह है कि सुख जितना उबाने वाला, बोर्डम पैदा
करने वाला होता है, उतना दुख नहीं होता। दुखी आदमी ऊबे हुए
नहीं दिखाई पड़ते; सुखी आदमी ऊबे हुए दिखाई पड़ते हैं--बोर्ड!
सोचा कि ठीक है, कोई हर्जा नहीं। गठरियों में,
पता नहीं, किस-किस तरह के नए दुख तो होंगे कम
से कम। दुख की बदलाहट भी बड़ी राहत देती है।
अक्सर हम यही करते रहते हैं, खुद बदलते रहते हैं।
एक दुख को छोड़ते हैं, दूसरे को पकड़ लेते हैं। एक को डायवोर्स
दिया, दूसरे से मैरिज की। एक दुख को छोड़ा, दूसरे से विवाह किया। पर दुख के बदलने के बीच में जो थोड़ा-सा खाली वक्त
मिलता है, वह काफी सुख देता है। एक दुख उतारने में, दूसरा चढ़ाने में बीच में जो ट्रांजीशन का पीरियड है, वह जो थोड़ी-सी राहत का वक्त है, वह भी काफी सुख देता
है।
सोचा कि चलो, बदल ही लें।
भवन में पहुंच गए। फिर दूसरी आवाज गूंजी कि सब अपनी गठरियों को भवन की
खूंटियों पर टांग दें। सभी ने दौड़कर खूंटियों पर अपनी गठरियां टांग दीं। सभी तेजी
से दौड़े कि कहीं ऐसा न हो कि खूंटियां समाप्त हो जाएं; कहीं ऐसा न हो कि अपनी गठरी अपने हाथ में ही रह जाए। बड़ी तेजी थी। लेकिन
खूंटियां काफी थीं और सबके दुख टंग गए।
और फिर आवाज गूंजी कि अब जिसे जो गठरी चुननी हो, वह चुन ले। फकीर भागा तेजी से। लेकिन आप हैरान होंगे, फकीर दूसरे की गठरी उठाने नहीं भागा; अपनी गठरी ही
उठाने भागा। क्योंकि जब सिरों से गठरियां उतरीं और खूंटियों से लटकीं और उनके दुख
उनके बाहर भी झांकते हुए दिखाई पड़ने लगे, तब वह घबड़ाया कि
कोई मेरी गठरी न उठा ले। वह भागा। और उसने जल्दी से अपनी गठरी उठाई कि कहीं ऐसा न
हो कि कोई अपनी गठरी उठा ले और झंझट में पड़ जाएं।
जब खूंटियों पर गठरी टांगी उसने, तब उसे पता चला कि
दुख हैं, तो भी अपने हैं, परिचित हैं।
इतने दिन से परिचित रहने की वजह से आदी भी हो गए हैं। पता नहीं, अपरिचित दुख कौन-सा दुख ले आएं। और गठरियां काफी लंबी और बड़ी थीं। अपनी ही
गठरी उस भवन में सबसे छोटी मालूम पड़ती थी।
अपनी गठरी उठाकर फकीर थोड़ा संतृप्त हुआ, उसने चारों तरफ देखा,
लेकिन बड़ा हैरान हुआ, सभी ने अपनी गठरियां
वापस उठा ली थीं! पूछा भी लोगों से उसने कि बदल क्यों नहीं लेते? दौड़े तो बहुत तेजी से थे। उन्होंने कहा, अपनी ही
गठरी छोटी दिखाई पड़ी!
चेहरे उखड़ गए। हृदय दिखाई पड़ते हैं, तो ऐसा ही हो जाता
है।
दूसरे की तरफ हम दौड़ते हैं, क्योंकि लगता है,
दूसरा सुखी है, हम दुखी हैं। कामना का बीज यही
है। दूसरे जैसे होना चाहते हैं, क्योंकि लगता है, दूसरा सुखी है, हम दुखी हैं। कामना का बीज यही है।
अज्ञानी से पूछें, तो वह कहेगा, नहीं; दूसरी जगह सुख है, इसलिए
दौड़ते हैं। ज्ञानी से पूछें, तो वह कहेगा, इसलिए दौड़ते हैं, क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हम
अपनी जगह कौन हैं? क्या हैं?
तो जो अपने भीतर डूबे, जो थोड़ा-सा आत्मा को
जान ले, वही कामना से मुक्त हो सकता है। अन्यथा नहीं मुक्त
हो सकता है। आत्मा को जाना कि कामना तिरोहित हो जाती है; या
कामना तिरोहित हो जाए, तो आत्मा जान ली जाती है। ये एक ही
सिक्के के दो पहलू हैं।
दूसरी बात और भी कठिन है। कृष्ण कहते हैं, संकल्प भी...।
संकल्प का अर्थ है, विल पावर। संकल्प भी छोड़ दो।
साधारणतः, अगर कार्लाइल जैसे विचारकों से पूछें, तो वे कहेंगे, संकल्प तो प्राण है। विल चली जाएगी,
विललेस हो जाओगे, संकल्पहीन हो जाओगे, तो इंपोटेंट हो जाओगे, क्लीव हो जाओगे। कुछ बचेगा ही
नहीं तुम्हारे पास।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, संकल्प से भी...।
संकल्प का उपयोग ही क्या है? जब तक कामना है,
तब तक उपयोग है। जब कामना नहीं, तो संकल्प का
कोई उपयोग नहीं। जब तक इच्छा पूरी करनी है, तब तक इच्छाशक्ति
की जरूरत है। और जब इच्छा ही नहीं है, तो इच्छाशक्ति का क्या
करिएगा? वह बोझ हो जाएगी। उसे भी छोड़ दो।
हमें इच्छाशक्ति की जरूरत है, क्योंकि इच्छाएं पूरी
करनी हैं, तो पैरों में ताकत चाहिए दौड़ने की। कामना पूरी
करनी है, तो शक्ति चाहिए, मंजिल तक
पहुंचने की। वही संकल्प है।
संकल्पहीन की हम निंदा करते हैं, कि तुम कुछ डिसीजन
नहीं ले पाते, संकल्पहीन हो; तुम कुछ
निर्णय नहीं कर पाते, तुम कुछ पक्का नहीं कर पाते, मजबूत नहीं कर पाते। कुछ कर नहीं पाते, हम उसकी
निंदा करते हैं। निंदा हम इसीलिए करते हैं कि कामनाएं तो उसके भीतर बहुत हैं और
संकल्प नहीं है।
अगर कामनाएं बहुत हों और संकल्प न हो, तो आदमी पागल हो
जाएगा। क्योंकि पहुंचने की इच्छा बहुत है और चलने की ताकत बिलकुल नहीं है, तो वह आदमी बड़ी कठिनाई में पड़ जाएगा। वह वैसी ही कठिनाई में पड़ जाएगा,
जैसे वृद्धजन कामवासना से तकलीफ में पड़ जाते हैं। वृद्ध हैं;
शरीर ने साथ छोड़ दिया; अब कोई शक्ति नहीं है
कामवासना को पूरी करने की; लेकिन मन अभी कामवासना के विचार
उठाए चला जाता है!
ध्यान रहे, युवा अवस्था में कामवासना उतनी पीड़ा नहीं देती,
क्योंकि वासना भी होती है, शक्ति भी होती है।
वृद्धावस्था में कामवासना बुरी तरह पीड़ा देती है। क्योंकि शक्ति खो गई होती है;
वासना नहीं खोती। वासना अपनी जगह खड़ी रहती है।
संकल्प की हम बात करते हैं कि संकल्प बढ़ाओ, विल पावर बढ़ाओ। क्योंकि वासनाएं अगर पूरी करनी हैं, तो
बिना संकल्प के पूरी न होंगी। लेकिन अगर वासनाएं छोड़ देनी हैं, तब संकल्प की कोई भी जरूरत नहीं है; तब तो समर्पित
हो जाओ। तब नाहक की शक्ति बोझ बन जाएगी।
ध्यान रहे, शक्ति अगर प्रयोग न की जाए, तो
आत्मघाती हो जाती है, स्युसाइडल हो जाती है। इसे मैं फिर
दोहराता हूं, शक्ति अगर प्रयुक्त न हो, तो स्वयं का ही विनाश करने लगती है।
इसलिए कृष्ण बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य कह रहे हैं। लेकिन क्रम से कह रहे
हैं। वे कह रहे हैं, पहले वासना-कामना से क्षीण, संकल्प
से क्षीण।
अगर कोई वासनाओं के पहले संकल्प छोड़ दे, तो बहुत कठिनाई में
पड़ जाएगा। बहुत-बहुत कठिनाई में पड़ जाएगा, बड़ा दीन और हीन हो
जाएगा। पहले वासना चली जाए, तो फिर संकल्प का बचना खतरनाक।
क्योंकि फिर शक्ति करेगी क्या? और जब शक्ति बाहर नहीं जा
पाती, दौड़ नहीं पाती, जब शक्ति सक्रिय
नहीं हो पाती, तो फिर भीतर सक्रिय हो जाती है। और फिर भीतर
ही दौड़ने लगती है। शक्ति जब भीतर दौड़ती है, तो आदमी पागल हो
जाता है।
शक्ति जब बाहर दौड़ती है, तब भी पागल होता है।
लेकिन तब नार्मल पागल होता है, जैसे सभी पागल हैं। इसलिए
बहुत दिक्कत नहीं आती। लेकिन जब शक्ति भीतर दौड़ने लगती है, तब
एबनार्मली पागल हो जाता है; असाधारण रूप से पागल हो जाता है।
क्योंकि सब लोग बाहर की तरफ दौड़ते हैं, वह भीतर ही भीतर
दौड़ता है। फिर भीतर दौड़ने से कहीं पहुंच तो सकते नहीं; कोल्हू
के बैल बन जाते हैं। वहीं-वहीं वर्तुल की तरह घूमते रहते हैं। फिर जिंदगी बड़ी
कठिनाई में हो जाती है।
और यह भी स्मरणीय है कि शक्ति के दो रूप हैं। अगर वह वासनाओं की तरफ
दौड़े, तो क्रिएटिव होती है। वह कुछ सृजन करती है; कामनाओं का, वासनाओं का, सपनों
का, आकांक्षाओं का सृजन करती है। अगर आकांक्षाएं, वासनाएं, कामनाएं छूट जाएं, तो
शक्ति सृजन नहीं करती। संकल्प की शक्ति फिर स्वयं को ही विनाश करने लगती है,
डिस्ट्रक्टिव हो जाती है।
इसलिए कृष्ण का दूसरा सूत्र पहले सूत्र से भी बहुमूल्य और स्मरणीय है, संकल्प भी छोड़ देता है जो व्यक्ति...।
वासनाएं छोड़ देता है, संकल्प छोड़ देता है। यह भी छोड़
देता है कि मुझे कहीं पहुंचना है; यह भी छोड़ देता है कि मैं
कहीं पहुंच सकता हूं। यह भी छोड़ देता है कि कोई मंजिल है; और
यह भी छोड़ देता है कि मैं कोई यात्री हूं! यह भी छोड़ देता है कि मुझे कोई दूर के
फल तोड़ लाने हैं; और यह भी छोड़ देता है कि मैं तोड़कर ला सकता
हूं।
ऐसा कामना-शून्य, संकल्परिक्त हुआ व्यक्ति ज्ञान
को उपलब्ध होता है। क्यों? ऐसा व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध
क्यों हो जाता है कि जिसको ज्ञानी भी पंडित कहते हैं?
ऐसा व्यक्ति इसलिए ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है कि ऐसा व्यक्ति दर्पण
की भांति निर्मल और ठहरा हुआ हो जाता है। कभी देखी है झील आपने? जब लहरें चलती होती हैं, तो झील दर्पण नहीं बन पाती।
लेकिन झील पर लहरें न चलें, झील शांत हो जाए--दौड़े न,
चले न, रुक जाए; ठहर जाए;
मौन हो जाए, विश्राम में चली जाए--तो झील
दर्पण बन जाती है। फिर झील की सतह मिरर का काम करती है, दर्पण
का काम करती है। फिर चांदत्तारे उसमें नीचे झलक आते हैं। फिर आकाश का सूरज उसमें
प्रतिबिंबित होता है। पूरा आकाश छोटी-सी झील पकड़ लेती है। अनंत आकाश, विराट आकाश, जिसकी कोई सीमा नहीं, एक छोटी-सी झील की छाती में प्रतिबिंबित हो जाता है।
ठीक ऐसा ही होता है। जब चित्त पर कोई वासना की लहर नहीं होती, और जब चित पर कामना का कोई झंझावात नहीं होता, और जब
चित्त अपने ही भीतर घूमती शक्ति से आंदोलित नहीं होता, तब
चित्त भी एक झील की भांति मौन, ठहर गया होता है। उस ठहराव
में दर्पण बन जाता है। उस दर्पण में विराट परमात्मा इस छोटे-से आदमी के हृदय में
भी प्रतिफलित होता है; आमने-सामने हो जाता है। विराट है
परमात्मा, हम बड़े छोटे हैं। छोटी है झील, बड़ा है आकाश!
कल एक मुसलमान बहन मुझसे कह रही थी कि कुरान में जब मैंने पढ़ा, अल्ला हू अकबर, बड़ा है परमात्मा, तो कुछ समझ में नहीं आया कि मतलब क्या है!
सच ही बड़ा है परमात्मा। बहुत बड़ा है। जितना हम कंसीव कर सकें, जितना हम सोच सकें, उससे सदा बड़ा है। बड़े का मतलब यह
नहीं कि हमने नाप लिया है कि इतना बड़ा है। बड़े का इतना ही मतलब कि हमारे सब नाप
बेकार हो गए हैं।
ध्यान रहे, बड़े का मतलब यह नहीं कि हम नाप चुके, मेजर्ड। ऐसा नहीं कि हमने नापा और पाया कि बड़ा है। ऐसा कि हमने नापा और
पाया कि कोई मेजरमेंट, कोई नाप काम नहीं आता, बहुत बड़ा है! अल्ला हू अकबर, बहुत बड़ा है! हमारे सब
माप बेकार हैं। वह जो इतना बड़ा है, वह इस आदमी के छोटे-से
हृदय के साथ कैसे साक्षात्कार हो सकेगा?
कभी आपने देखा कि एक छोटे-से दर्पण में भी बहुत बड़ा साक्षात्कार हो
जाता है। छोटे-से दर्पण में विराट सूर्य का प्रतिफलन हो जाता है। दर्पण फिर भी बड़ा
है। छोटी-सी आंख गौरीशंकर को भी पकड़ लेती है। विराट एवरेस्ट को छोटी-सी आंख पकड़
लेती है। माना कि होगे विराट, माना कि आंख बड़ी छोटी है,
लेकिन प्रतिफलन की क्षमता अनंत है, दि
कैपेसिटी टु रिफ्लेक्ट। छोटी है आंख, लेकिन प्रतिफलन की
क्षमता अनंत है। इसलिए आंख एकदम छोटी नहीं है। एक अर्थ में एवरेस्ट छोटा पड़ जाता
है। एक अर्थ में एवरेस्ट छोटा पड़ जाता है!
एक अर्थ में भक्त के हृदय के सामने भगवान छोटा पड़ जाता है। इस अर्थ
में, अनंत है विराट, लेकिन भक्त के
छोटे-से हृदय में भी पूरा प्रतिफलित हो जाता है। असीम पूरा पकड़ लिया जाता है।
लेकिन यह हृदय होना चाहिए मौन, शांत, वासना-संकल्प से रिक्त और खाली। और तब ज्ञानी भी--ज्ञानी अर्थात जो जानते
हैं, वे भी--ऐसे व्यक्ति को पंडित कहते हैं। और ध्यान रहे,
कृष्ण की यह शर्त बड़ी कीमती है। क्योंकि जो नहीं जानते, वे किसी को पंडित कहें, इसका कोई भी मूल्य नहीं है।
इसका कोई भी मूल्य नहीं है।
जो नहीं जानते हैं, वे किसी को पंडित कहें, इसका क्या मूल्य हो सकता है? वे उसी को पंडित कहते
हैं, जो उनसे ज्यादा जानता हुआ मालूम पड़ता है। क्वांटिटेटिव
अंतर है। न जानने वाले और ज्यादा जानने वाले में क्वांटिटी का अंतर है। आपने दो
किताबें पढ़ी हैं, उसने दस पढ़ी हैं। आप दो क्लास पढ़े हैं,
उसने दस क्लास पढ़ी हैं। आपके पास प्राइमरी का सर्टिफिकेट है,
उसके पास यूनिवर्सिटी का। लेकिन अंतर क्वांटिटी का है, क्वालिटी का नहीं। अंतर परिमाण का, मात्रा का है,
गुण का नहीं।
लेकिन जब कोई व्यक्ति परमात्मा को जान लेता है, तो यह कोई बड़ा सर्टिफिकेट नहीं है छोटे सर्टिफिकेट के मुकाबले। यह कोई
प्राइमरी की डिग्री के मुकाबले पीएच.डी. की डिग्री नहीं है। यह कोई डिग्री ही नहीं
है।
हमारे पास जो शब्द है डिग्री के लिए, वह बहुत बढ़िया है--
उपाधि। उपाधि का मतलब बीमारी भी होता है। असल में उपाधिग्रस्त आदमी, डिग्रीधारी, बीमार ही होता है। क्योंकि सब उपाधियां,
सब डिग्रियां अहंकार को और भारी करती चली जाती हैं। और सब उपाधियां,
और सब डिग्रियां कामना और वासना को और गतिमान करती हैं। सब उपाधियां
संकल्प को और दौड़ाती हैं।
नहीं, जिसे ज्ञानी भी पंडित कहते हैं, यह उपाधिमुक्त है। यह डिग्रीलेस है। इसकी कोई उपाधि नहीं है। इसके पास कोई
प्रमाणपत्र नहीं है जानने का। यह स्वयं ही प्रमाणपत्र है जानने का। इसकी स्वयं की
आंखें गवाही हैं। इसके हृदय से उठते हुए स्वर गवाही हैं। इसका रोआं-रोआं, इसका उठना-बैठना गवाही है।
एक फकीर रिंझाई के पास जापान का सम्राट गया और उसने कहा कि मैं कैसे
जानूं कि तुमने जान लिया? तो उस फकीर ने कहा कि मुझे देखो--मेरे उठने को,
मेरे बैठने को, मेरे बोलने को, मेरे चुप होने को, मेरी आंखों को, मेरे जागने को, मेरे सोने को--मुझे देखो। उस सम्राट
ने कहा, तुम्हें देखने से क्या होगा? कोई
और प्रमाण नहीं है? उस फकीर ने कहा, और
कोई भी प्रमाण नहीं है। मैं ही प्रमाण हूं। मैंने अगर उसे जाना है, तो तुम मेरे उठने में उसका उठना जानोगे। मैंने अगर उसे जाना है, तो तुम मेरे देखने में उसकी आंख को देखता हुआ पाओगे। अगर मैंने जाना है,
तो जब मैं तुम्हें हृदय से लगाऊंगा, तो तुम
मेरे हृदय में उसकी धड़कन सुन पाओगे। और कोई प्रमाण नहीं है। और अगर यह तुम न पहचान
सको, तो और कोई उपाय नहीं है। मैं कोई गवाह खड़े नहीं कर सकता
हूं। मैं ही गवाह हूं। और अगर मैं गवाह नहीं बन पाता हूं, तो
फिर कोई उपाय नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन भी उसे पंडित कहते हैं।
अज्ञानीजन तो किसी को भी पंडित कहते हैं। अंधों में काना भी राजा हो
जाता है! नहीं, उसका कोई मूल्य नहीं है।
यह स्मरण में रखना कि इस आखिरी वक्तव्य ने पंडितों की दो कोटियां कर
दीं। एक वे पंडित, जिनके पास परिमाण में ज्ञान है; मात्रा है ज्ञान की एक। लेकिन वे कंप्यूटर से ज्यादा नहीं हैं। उनके पास बंधे
हुए उत्तर हैं, रटे हुए। उनके अपने उत्तर नहीं हैं। उत्तर
किसी और के हैं; वे केवल दोहराने का काम कर रहे हैं। वे केवल
दलाल हैं, उससे ज्यादा नहीं हैं। उत्तर उपनिषद के होंगे,
कि बुद्ध के होंगे, कि कृष्ण के होंगे,
कि महावीर के होंगे। उनके अपने नहीं हैं, इसलिए
आथेंटिक नहीं हैं, इसलिए प्रामाणिक नहीं हैं। जब कोई व्यक्ति
कहता है अपने से--तब! जानकर--तब!
और यह दुनिया बहुत सुलझी हुई हो सकती है, अगर ये नंबर दो के पंडित थोड़े कम हों। या न हों, तो
बड़ा सुखद हो सकता है। जो नहीं जानता, वह जानने वाले की तरह
बोलकर भारी नुकसान पहुंचाता है।
जो जानता है, वह चुप भी रह जाए, तो भी लाभ
पहुंचाता है। जो नहीं जानता है, वह बोले, तो भी नुकसान पहुंचाता है। सौ में निन्यानबे मौके पर लोग जानते नहीं हैं,
सिर्फ जाने हुए की बातों को जानते हैं। सेकेंड हैंड भी नहीं कहना
चाहिए; हजारों हाथों से गुजरी हुई बातों को जानते हैं। सब सड़
गया होता है। अज्ञानीजन उनको पंडित कहते हैं।
लेकिन ज्ञानीजन उसे पंडित कहते हैं, जिसने आमना-सामना
किया, एनकाउंटर किया; जिसके हृदय और
परमात्मा के हृदय के बीच कोई पर्दा न रहा; सब पर्दे गिरे। और
जिसके हृदय ने परमात्मा के हृदय का संस्पर्श किया; जिसने
आंखों में आंखें डालकर परमात्मा में झांका; और जिसने
परमात्मा को आंखें डालकर अपने भीतर झांकने दिया; जो झील की
तरह आकाश से मिला, मौन झील की तरह--उसे पंडित, उसे ही पंडित कहा जा सकता है।
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः।। २०।।
और जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानंद परमात्मा में तृप्त
है, वह कर्मों के फल और संग अर्थात कर्तृत्व-अभिमान को त्यागकर कर्म में अच्छी
प्रकार बर्तता हुआ भी कुछ भी नहीं करता है।
और ऐसा पुरुष, ऐसी चेतना को उपलब्ध पुरुष, ऐसी
चेतना को उपलब्ध व्यक्ति संसार के आसरे आनंदित नहीं होता। ऐसे पुरुष का आनंद
परमात्मा से ही स्रोत पाता है। ऐसा व्यक्ति संसार के कारण सुखी नहीं होता। ऐसा
व्यक्ति सुखी ही होता है--अकारण। जहां तक संसार का संबंध है--अकारण।
अगर कोई रामकृष्ण से पूछे, क्यों नाच रहे हो?
तो रामकृष्ण कोई भी सांसारिक कारण न बता सकेंगे। वे यह न कह सकेंगे
कि लाटरी जीत गया हूं। वे यह न कह सकेंगे, यश हाथ लग गया है।
वे यह न कह सकेंगे कि बहुत लोग मुझे मानने लगे हैं।
अगर कबीर से हम पूछें कि क्यों मस्त हुए जा रहे हो? यह मस्ती कहां से आती है? तो संसार में कारण न बता
सकेंगे।
हमारी मस्ती हमेशा सकारण होती है, कंडीशनल होती है।
शर्त होती है उसकी। घर में बेटा हुआ है, तो बैंड-बाजे बज रहे
हैं। धन-संपत्ति आ गई है, तो फूलमालाएं सजी हैं। हमारा सुख
बाहर, हमसे बाहर कहीं से आता है। इसलिए देर नहीं लगती और
हमारा सुख तत्काल दुख बन जाता है। बहुत देर नहीं लगती। क्योंकि जिसका भी सुख
संसार-आश्रित है, उसका सुख क्षणभर से ज्यादा नहीं हो सकता।
क्योंकि संसार ही क्षणभर से ज्यादा नहीं होता है। संसार पर आश्रित जो भी है,
वह सभी क्षणभर है।
जैसे कि हवाओं के झोंके में वृक्ष का पत्ता हिल रहा है। यह वृक्ष का
पत्ता क्षणभर से ज्यादा एक स्थिति में नहीं हो सकता; क्योंकि जिस हवा में
हिल रहा है, वही क्षणभर से ज्यादा एक स्थिति में नहीं रहती
है। वह हवा ही तब तक और आगे जा चुकी है। नदी में जो लहर उठ रही है, वह जिस पवन के झोंकों से उठ रही है, क्षणभर से
ज्यादा नहीं रह सकती; क्योंकि क्षणभर से ज्यादा वह पवन का
झोंका ही नहीं रह जाता है।
संसार क्षणभंगुरता है। वहां सब कुछ क्षणभर है। उस पर आश्रित सुख क्षण
से ज्यादा नहीं है। आया नहीं, कि गया! आने और जाने में बड़ा कम
फासला है।
मैं अभी एक कवि की दो पंक्तियां देख रहा था, मुझे बहुत प्रीतिकर लगीं। जरा-सा फासला किया है और पंक्तियों का अर्थ बदल
गया है। पहली पंक्ति है: वसंत आ गया। और दूसरी पंक्ति है: वसंत आ, गया। पहली पंक्ति है: वसंत आ गया। आ गया वसंत। और दूसरी पंक्ति है: आ,
गया वसंत। वह आ गया को तोड़ दिया है दूसरी पंक्ति में, दो टुकड़ों में! आ को अलग कर दिया है, गया को अलग कर
दिया है।
इतना ही फासला है, आ गया सुख; आ, गया सुख। पहचान भी नहीं पाते कि आ गया, और दूसरी पंक्ति घटित हो जाती है। सच तो यह है कि जैसे ही हम पहचानते हैं
कि सुख आ गया, सुख जा चुका होता है। इतना ही क्षण, क्षणभर की धुन बजती है और चली जाती है।
कृष्ण कहते हैं, संसार-आश्रित ऐसे पुरुष के सुख
नहीं हैं।
ऐसे पुरुष का आनंद आश्रित आनंद नहीं है। अनाश्रित, अनकंडीशनल, बेशर्त, अकारण है।
ऐसे पुरुष का आनंद कहीं से आता नहीं, इसलिए फिर कहीं जा भी नहीं
सकता। ऐसे पुरुष का आनंद परमात्मा पर, ब्रह्म पर, ब्रह्म से ही स्रोत पाता है। ब्रह्म से अर्थात स्वयं से ही। अपनी ही
गहराइयों से उठते हैं झरने। अपने ही अंतस से आता है आनंद। फिर खोता नहीं, क्योंकि ब्रह्म क्षणभंगुर नहीं है।
संसार क्षणभंगुर है, इसलिए संसार से आया सुख
क्षणभंगुर है। ब्रह्म शाश्वत है, इटरनल है। इसलिए ब्रह्म से
जिसके स्रोत जुड़ गए, उसका आनंद शाश्वत है; लेकिन अकारण। ऐसा व्यक्ति कब हंसने लगेगा, पता नहीं।
ऐसा व्यक्ति कब नाचने लगेगा, पता नहीं। ऐसा व्यक्ति कब आनंद
के आंसुओं को बरसाने लगेगा, पता नहीं। ऐसे व्यक्ति के भीतर
स्रोत हैं, जो अकारण फूटते रहते हैं। और ऐसा व्यक्ति जिसे पा
रहा है भीतर से, उसे कभी भी खोता नहीं है।
दो तरह के आश्रय हैं अस्तित्व में। पर-आश्रय; दूसरे के आश्रय से मिला सुख। दूसरे के आश्रय से मिला हुआ सुख, दुख का ही दूसरा नाम है, दुख का ही चेहरा है।
उघाड़ेंगे घूंघट और पाएंगे कि दुख आया। एक, स्व-आश्रित। उसे
स्व-आश्रित कहें या आश्रयमुक्त कहें। पराश्रित सुख से स्व-आश्रित दुख भी ठीक है;
हालांकि स्व-आश्रित दुख होता नहीं। कहता हूं एंफेसिस के लिए,
पराश्रित सुख से स्व-आश्रित दुख भी बेहतर है। क्योंकि उघाड़ेंगे
घूंघट और पाएंगे सुख।
इस स्व-आश्रित सुख को ही कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं। संसार-आश्रित
जिसके सुख नहीं हैं, आनंद नहीं है; संसार-आश्रित
झंझावातों पर जिसके चित्त की लहरें आंदोलित नहीं होतीं; जो
संसार की बांसुरी पर नाचता नहीं--उस पुरुष को कर्म करते हुए कर्म का अभिमान नहीं
आता है।
आएगा भी कैसे! कर्म का अभिमान कब आता है, खयाल है आपको? कर्म का अभिमान तब आता है, जब आप दूसरों से सुख निचोड़ने में सफल हो जाते हैं। और कर्म का अभिमान तब
आहत हो जाता है, पीड़ित हो जाता है, धूल-धूसरित
हो जाता है, जब आप दूसरों से सुख निचोड़ने में सफल नहीं हो
पाते; निचोड़ते सुख हैं और दुख निचुड़ आता है।
कर्म का अभिमान सफलता का अभिमान है। सफलता अभिमान है। सफलता किस बात
की? दूसरे से सुख निचोड़ लेने की। सारी सफलताएं दूसरों से सुख निचोड़ लेने की
सफलताएं हैं। जब आप सफल हो जाते हैं, तब अभिमान भर जाता है;
तब आप फूलकर कुप्पा हो जाते हैं; जैसे कि रबर
के गुब्बारे में बहुत हवा भर दी गई हो। पर गुब्बारे को बेचारे को पता नहीं कि वह
जो फूल रहा है, वह फूटने के रास्ते पर है। ज्यादा फूलेगा,
तो फूटेगा।
लेकिन फूलते वक्त किसको पता होता है कि फूटने के रास्ते की यात्रा
होती है! फूलते वक्त मन आनंद से भरता जाता है। मन होता है, और हवाएं भर जाएं, और फूल जाऊं; और सफलताएं मिल जाएं, और फूल जाऊं!
लेकिन हमें पता नहीं कि फूलना केवल फूटने का मार्ग है। सफलता अंततः
विफलता का द्वार है। तो जो भी सफल होगा, विफल होगा। जो भी सुखी
होगा, दुखी होगा। जो भी अभिमान को भरेगा, आज नहीं कल फूटेगा और पंक्चर होगा। और जब अभिमान पंक्चर होता है, जैसे नर्क टूट पड़ा सब ओर से! स्वभावतः, जब अभिमान
भरता है, तो ऐसा लगता है, स्वर्ग बरस
रहा है सब ओर से।
ऐसा पुरुष, कृष्ण कहते हैं, कर्म के अभिमान
से नहीं भरता है। भर ही नहीं सकता; क्योंकि ऐसा पुरुष पर से
असंबंधित हो जाता है। यह बड़े मजे की बात है और थोड़ी सोच लेने जैसी।
अक्सर अभिमान को हम स्व से संबंधित समझते हैं, अभिमान सदा पर से संबंधित है। अभिमान को हम अक्सर स्वाभिमान तक कह देते
हैं। हम उसे स्व से संबंधित समझते हैं कि अभिमान जो है, वह
स्वयं की चीज है। अभिमान स्वयं की चीज नहीं है। अभिमान पर की है, पर से संबंधित चीज है। इसलिए अकेले में अभिमान को इकट्ठा करना मुश्किल है।
अकेले में अभिमान नहीं हो सकता। अदर ओरिएंटेड है। दूसरा चाहिए।
इसलिए आपने देखा होगा, रास्ते पर अकेले जा
रहे हों, तो एक तरह से जाते हैं। सुनसान रास्ता हो, तो एक तरह से चलते हैं। फिर कोई रास्ते पर निकल आया कि रीढ़ सीधी हो जाती
है। कोई और आ गया रास्ते पर, तो अकड़ आ जाती है। दूसरे को
देखा कि अकड़े! दूसरा मौजूद हुआ कि भीतर कुछ गड़बड़ हुई। दूसरा वहां आया कि इधर भीतर
भी कोई और आया। वह दूसरे की मौजूदगी तत्काल भीतर मैं को पैदा कर देती है। और फिर
अगर दूसरे ने हाथ जोड़ लिए, तो फिर अभिमान का गुब्बारा फूला!
या दूसरा भी अकड़कर बिना हाथ जोड़े निकल गया, तो अभिमान का
गुब्बारा सिकुड़ा। वह सब दूसरे पर निर्भर है। या दूसरा अगर ऐसा हुआ कि आपको ही हाथ
जोड़ने पड़े, तो बड़ी पीड़ा है, बड़ी पीड़ा
है!
यह जो अभिमान है, यह पराश्रित भाव है; इसका सुख भी, इसका दुख भी।
जो व्यक्ति स्वयं से संबंधित हो जाता है--स्वयं के मूल स्रोतों से, ब्रह्म से, अस्तित्व से--उसका अभिमान खड़ा नहीं होता
फिर। अभिमान खो ही जाता है। जो स्वयं है, उसके पास अभिमान
नहीं होता। और जो स्वयं नहीं है, सिर्फ दूसरों के खयालों का
जोड़ है, और दूसरे क्या कहते हैं, पब्लिक
ओपिनियन ही है जिसका जोड़, अखबार की कटिंग को इकट्ठा करके
जिसने अपने को बनाया है--कि किस अखबार में क्या बात छपी है उसके बाबत, पड़ोसी क्या कहते हैं, गांव के लोग क्या कहते हैं,
दूसरे क्या कहते हैं--दूसरों के ओपिनियन को इकट्ठा करके जो खड़ा है,
वह आदमी अभिमान को बढ़ाए जाता है। बढ़ता है, तो
रस आता है।
रस वैसा ही, जैसा खुजली को खुजलाने से आता है। और कोई रस नहीं है।
खुजली खुजलाने का रस! बड़ा अच्छा लगता है, बड़ा मीठा लगता है।
लेकिन उसे पता नहीं है कि वे सब नाखून जो मिठास ला रहे हैं, थोड़ी
देर में लहू ले आएंगे। और वे नाखून जो मिठास ला रहे हैं, थोड़ी
देर में ही पायजनस हो जाएंगे। उसे पता नहीं कि वे नाखून जो रस ला रहे हैं और मिठास
दे रहे हैं, जल्दी ही सेप्टिक हो जाएंगे। उसे पता नहीं है;
खुजला रहा है। जितना खुजलाता है, उतनी मिठास
मालूम पड़ती है; उतनी खुजली बढ़ती है। खुजली बढ़ती है, तो खुजलाना पड़ता है। खुजली के भी सुख हैं।
अहंकार का सुख, अभिमान का सुख, खुजली का सुख
है। बहुत बीमार, बहुत रुग्ण है, लेकिन
है। अंततः पीड़ा है, लेकिन प्रारंभ में सुख का भाव है।
कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष कर्म के अभिमान से
नहीं भरता। भर नहीं सकता। ऐसे पुरुष के पास अभिमान नहीं बचता, जिसको भर सके। गुब्बारा ही खो जाता है, जिसमें कि
अभिमान को भरा जा सके।
ऐसा पुरुष करते हुए भी अकर्ता होता। ऐसा पुरुष करते हुए भी न करने
जैसा होता। ऐसा पुरुष सब करते हुए भी, करने के बाहर होता।
ऐसे पुरुष के लिए कर्म का जगत अभिनय का जगत हो जाता। एक्शन का जगत, एक्टिंग का जगत हो जाता।
ऐसा पुरुष सब करता है और सांझ जब सोता है, तो ऐसे सो जाता है किए हुए को झाड़कर, जैसे दिनभर की
धूल को वस्त्रों से झाड़कर सांझ सो जाता है। ऐसे किए हुए को झाड़कर सो जाता है। सुबह
जब उठता है, तो फिर ताजा, फ्रेश। ताजा,
कल के कर्मों के भार से बंधा हुआ नहीं; कल जो
किया था, उसकी रेखाओं से दबा हुआ नहीं। कल जो हुआ; उसकी धूल से गंदा नहीं, ताजा, फिर
ताजा।
असल में कल भी दूर है। हर क्षण ऐसा पुरुष, हर क्षण अतीत के बाहर हो जाता है। हर क्षण, गए हुए
क्षण और गए हुए कर्म के बाहर हो जाता है। कुछ उस पर टिकता नहीं है; सब विदा हो जाता है। क्योंकि टिकाने और अटकाने वाला अहंकार नहीं है।
अटकाने वाली चीज उसके ऊपर नहीं है, जहां कर्म अटकते हैं और
कर्ता निर्मित होता है। ऐसा पुरुष करते हुए न करता हुआ है। ऐसा पुरुष न करते हुए
भी करता हुआ है।
ऐसा पुरुष ठीक ऐसा है, जैसा कबीर ने कहा कि
बहुत जतन से ओढ़ी चदरिया, बहुत जतन से ओढ़ी। जतन से! बड़ा
प्यारा शब्द है जतन। बड़ी होशियारी से, बड़ी कुशलता से चादर
ओढ़ी; और ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं।
कबीर ने मरते वक्त कहा है कि बहुत संभालकर ओढ़ी चादर, जीवन की चादर; और फिर ज्यों कि त्यों धरि दीन्हीं।
जैसी मिली थी, वैसी ही रख दी। जरा भी रेखा नहीं छूटी। पूरी
जिंदगी के अनुभव की, कर्म की कोई रेखा, कोई धब्बा, कोई दाग चादर पर नहीं छूटा। ज्यों की
त्यों धरि दीन्हीं चदरिया।
ऐसा पुरुष सब करते हुए भी न करता है। वह चादर को ऐसा का ऐसा ही
परमात्मा को सौंप देता है कि संभालो! जैसी दी थी, वैसी ही वापस लौटाता
हूं।
यह जो कर्म के बीच अकर्म की स्थिति है, बड़ी जतन की है--बड़े
होश की, बड़ी अवेयरनेस की, बड़े
साक्षी-भाव की। जहां सध जाती है, वहां जीवन मिल जाता है।
जहां नहीं सध पाती, वहां जीवन के नाम पर हम सिर्फ धोखे में
होते हैं।
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।। २१।।
और जीत लिया है अंतःकरण और शरीर जिसने, तथा त्याग दी है
संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने, ऐसा आशारहित पुरुष केवल
शरीर संबंधी कर्म को करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता है।
जिसने छोड़ी आशा, आकांक्षा, भविष्य,
फल की स्पृहा; जिसने छोड़ा अभिमान, जिसने छोड़ा दूसरे की आंखों में अपने प्रतिबिंब को इकट्ठा करने का मोह--ऐसा
व्यक्ति कर्म की जो आवश्यकता है, या जो आवश्यक कर्म हैं शरीर
के, उन्हें करता रहता है। भूख लगती है, भोजन कर लेता है। नींद आती है, सो जाता है। सर्दी
लगती है, वस्त्र ओढ़ लेता है। गर्मी लगती है, वस्त्र अलग कर देता है। जो आवश्यक है शरीर के लिए, करता
रहता है, लेकिन फिर कर्मबंध को उपलब्ध नहीं होता।
महावीर भी उठते और चलते हैं, वैसे ही जैसे कोई और
उठता और चलता है। बुद्ध भी भोजन करते हैं, वैसे ही जैसे कोई
और भी भोजन करता है। कृष्ण भी वस्त्र पहनते हैं, वैसे ही
जैसे कोई और पहनता है। लेकिन बिलकुल वैसे ही नहीं; बुनियादी
अंतर भी है। ठीक वैसे ही नहीं, गहरे में भेद है। और बड़ा भेद
है। गहरे में जो भेद है, वह देख लेना चाहिए।
जब साधारणतः कोई आदमी भोजन करता है, तो सिर्फ भोजन नहीं
करता। भोजन करते हुए और बहुत कुछ भी करता है।
आप खयाल करना, जब भोजन करते हों। सिर्फ भोजन नहीं करते, भोजन करते हुए और हजार काम भी आपका मन करता रहता है। हो सकता है, दुकान पर हों, दफ्तर में हों, बाजार
में हों, मंदिर में हों; भोजन की थाली
पर हों और साथ ही दुकान पर हों। होता ही है। फिर इससे उलटा भी होता है, होगा ही, कि दुकान पर होंगे और भोजन की थाली पर
होंगे।
भोजन करते हुए, साधारणतः, हम भोजन ही नहीं करते
और हजार काम भी करते हैं। कृष्ण जैसा या बुद्ध या महावीर जैसा व्यक्ति जब भोजन
करता है, तब भोजन ही करता है! फिर और कुछ नहीं करता। एक तो
यह अंतर स्पष्ट समझ लें। यह अंतर गहरा है! ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता है। भीतर से
खोजेंगे, तो दिखाई पड़ेगा।
क्यों? हम भोजन करते हुए और पच्चीस काम मन में क्यों करते
हैं? क्योंकि वासना है। भोजन का काम शरीर करता रहता है,
वासना अपने जाल बुनती रहती है। भोजन का काम आटोमैटिक होता है,
यंत्रवत होता है, मशीन की तरह होता है।
होशपूर्वक नहीं होता, बेहोशी में होता है। आपकी कोई जरूरत ही
नहीं होती। आप कहीं भी हों, दुकान पर बैठे रहें, दिमाग से, मन से; हाथ भोजन को
मुंह में डालते रहेंगे; जीभ उसको भीतर सरकाती रहेगी; पेट उसको पचाता रहेगा--यंत्रवत। आपकी मौजूदगी नहीं होती।
कृष्ण या बुद्ध जैसे व्यक्ति जो करते हैं, वही करते हैं। पूरे मौजूद होते हैं। उनकी टोटल प्रेजेंस वहां होती है। यह
अंतर गहरा है और इसके गहरे परिणाम हैं। क्या गहरे परिणाम होंगे?
जो व्यक्ति भोजन करते हुए पूरा भोजन करते समय मौजूद है, वह ज्यादा भोजन कभी न कर पाएगा। वह कम भोजन भी न करेगा, ज्यादा भी न करेगा। जो व्यक्ति भोजन करते हुए मौजूद नहीं है, बहुत कम संभावना है कि वह सम्यक आहार कर सके। वह या तो कम करेगा, या ज्यादा करेगा। अगर वासना बहुत तेजी से दौड़ रही है, जल्दी भागने को है, तो कम करेगा। या कम समय में
ज्यादा करेगा, वह भी खतरनाक है। और ज्यादा तो करेगा ही।
क्यों?
शरीर अंधा है, शरीर के पास अपनी आंख नहीं है। शरीर पर काम को छोड़ना,
अंधे के हाथ में काम को छोड़ना है। शरीर मैकेनिकल है, हैबीचुअल है। ग्यारह बजे आप रोज खाना खाते हैं। भूख न भी लगी हो, तो भी शरीर कहता है, भूख लगी है। अगर घड़ी किसी ने
आगे-पीछे कर दी हो और अभी दस ही बजे हों, घड़ी में ग्यारह बज
जाएं; घड़ी देखी, शरीर फौरन कहता है,
भूख लगी! अभी ग्यारह बजे नहीं हैं।
ग्यारह बजे भूख लगती है। एक घंटे खाना न खाएं, तो लोग कहते हैं, भूख मर जाती है। अगर भूख आथेंटिक
हो, असली हो, तो बढ़नी चाहिए; मरनी नहीं चाहिए। भूख थी ही नहीं, सिर्फ हैबीचुअल
ट्रिक, शरीर की आदत कि रोज चौबीस घंटेभर बाद पेट में चीजें
डाली जाती हैं। ठीक चौबीस घंटे बाद उसने कहा कि डालो, समय हो
गया। अंधे की तरह, मशीन की तरह, यंत्र
की तरह सूचना कर देता है। फिर कल जितनी डाली थीं, उतनी डालो।
कल की जरूरत और हो सकती थी, आज की जरूरत और। रोज
जरूरत बदलती जाती है। बचपन में जरूरत और होती है, जवानी में
और होती है, बुढ़ापे में और होती है।
जवानी की आदत खाने की, बुढ़ापे में भी नहीं
छूटती। शरीर को जरूरत कम रह जाती है, लेकिन शरीर पुरानी आदत
से उतना ही खाए चला जाता है। तो जवानी में जिस भोजन ने शरीर को फायदा पहुंचाया,
वही भोजन बुढ़ापे में नुकसान पहुंचाने लगता है। क्योंकि भोजन कम होना
चाहिए। उम्र के साथ कम होते जाना चाहिए।
लेकिन यह होश कौन रखे? यह होश रखने वाला तो
मौजूद ही नहीं रहा कभी। वह तो कभी दुकान पर होता है, कभी
बाजार में होता है। कभी दूसरे गांव में होता है। कभी कहीं होता है, कभी कहीं होता है। सिर्फ भोजन की थाली पर नहीं होता है।
कृष्ण जैसे, बुद्ध जैसे व्यक्ति जब भोजन करते हैं, तो सिर्फ भोजन करते हैं। इसलिए असम्यक आहार कभी नहीं हो पाता है। असम्यक
बांधता है, सम्यक मुक्त करता है। जो भी चीज सम्यक है,
वह कभी बंधन नहीं बनती। और जो भी चीज सम्यक से यहां-वहां डोली कि
बंधन बन जाती है।
ऐसा जागा हुआ पुरुष शरीर के कर्मों को आवश्यक मानकर होशपूर्वक करता है; बंधता नहीं।
और भी एक बात, कि जब हम होशपूर्वक करते हैं, तो
हम चीजों का उपयोग करते हैं। और जब हम बेहोशी से करते हैं, तो
चीजें हमारा उपयोग कर लेती हैं।
खयाल करना, चीजों को आप खाते हैं या चीजें अपने आपको आपके भीतर
पहुंचा देती हैं? पेट भर गया है और मिठाइयां सामने आ गई हैं।
तो आप इस भ्रम में होते हैं कि आप चीजों को भीतर डाल रहे हैं। अगर चीजों के पास
जबान हो, तो वे कहें कि हम तुम्हें भीतर डालने के लिए मजबूर
कर रहे हैं। हम तुम्हारे भीतर जा रहे हैं। और चूंकि हम तुम्हारे भीतर जाना चाहते
हैं, इसलिए हम तुम्हारा उपयोग कर रहे हैं तुम्हारे भीतर जाने
के लिए।
वे कर्म हमें बांध लेते हैं, जिनमें हम मजबूर होते
हैं। वे कर्म हमें नहीं बांधते, जिनमें हम स्वेच्छया
स्वतंत्र होते हैं। जिस भोजन को आपने किया है, वह आपको नहीं
बांधता; लेकिन जिस भोजन ने आपको करने के लिए मजबूर किया है,
वह आपको बांधता है। जो नींद आप सोए हैं, वह
आपको नहीं बांधती; लेकिन जिस नींद में आप पड़े रहे हैं,
वह नींद आपको बांध लेती है।
झेन फकीर हुआ, बोकोजू। और बोकोजू के पास किसी ने जाकर पूछा कि
तुम्हारी साधना क्या है? तो बोकोजू ने कहा, मेरी साधना? मेरी कोई साधना नहीं है। जब नींद आती है,
तब मैं सो जाता हूं। जब नींद टूटती है, तब मैं
उठ आता हूं। जब भूख लगती है, तब मैं खा लेता हूं। जब भूख
नहीं लगती है, तब मैं उपवासा रह जाता हूं। उस आदमी ने कहा,
छोड़ो यह बकवास! यह कोई साधना हुई? यह तो हम भी
करते हैं!
बोकोजू ने कहा, जिस दिन तुम यह कर पाओगे, उस
दिन तुम्हें मेरे पास पूछने आने की जरूरत न रहेगी। जिस दिन तुम यह कर पाओगे,
उस दिन मैं ही तुम्हारे पास पूछने चला आऊंगा। उस आदमी ने कहा,
लेकिन नहीं, मानो; हम भी
यही करते हैं।
बोकोजू की बात वह समझ नहीं पाया।
एक और फकीर के बाबत मैंने सुना है। एक दिन बोलता था एक मंदिर में, एक आदमी ने बीच में खड़े होकर पूछा कि बंद करो यह बातचीत! मेरा गुरु था,
वह नदी के एक किनारे खड़ा होता और उसके शिष्य नदी के दूसरे किनारे
खड़े होते। फर्लांग भर का फासला होता। उस तरफ शिष्य हाथ में कैनवस ले लेते, और इस तरफ से गुरु अपनी कलम से लिखता, और उस तरफ
कैनवस पर लिखावट पहुंच जाती थी। ऐसा कोई चमत्कार तुम कर सकते हो? उस फकीर ने कहा कि नहीं; ऐसे छोटे-मोटे चमत्कार हम
नहीं करते। तो उस आदमी ने पूछा, तुम क्या चमत्कार कर सकते हो?
उसने कहा, हम तो एक ही चमत्कार कर सकते हैं कि
जब नींद आती है, तब सो जाते हैं; जब
भूख लगती है, तब खाना खा लेते हैं। उस आदमी ने कहा, यह कोई चमत्कार है?
लेकिन कृष्ण इसी चमत्कार की बात कर रहे हैं। यह चमत्कार है, और बड़ा चमत्कार है। वह तो मदारी भी कर सकते हैं, जो
पहले गुरु की बात बताई। मदारी ही करेंगे। लेकिन दूसरा बहुत बड़ा मिरेकल है।
शरीर के आवश्यक कर्मों को होशपूर्वक, साक्षी-भाव से,
सम्यक रूप से जो निपटा देता है, वह कर्मों के
बंधन में नहीं पड़ता है। वह करते हुए भी मुक्त है। उसे कुछ भी नहीं बांधता है।
ध्यान रहे, अति बांधती है, दि एक्सट्रीम इज़
दि बांडेज। अति बंधन है, मध्य मुक्ति है। लेकिन मध्य में वही
हो सकता है, जो बहुत होश से भरा हुआ है--जतन। वह कबीर के
शब्द जतन से भरा हुआ है। बड़े होश से भरा हुआ है, वही मध्य
में रह सकता है। जरा चूके कि अति शुरू हो जाती है।
या तो आदमी ज्यादा खा लेता है, या उपवास कर देता है।
ज्यादा खाने वाले अक्सर उपवास कर देते हैं। ज्यादा खाने वालों को करना पड़ता है
उपवास। इसलिए जब भी जिस समाज में ज्यादा खाना हो जाता है, उसमें
उपवास का कल्ट पैदा हो जाता है। गरीब समाजों में उपवास का सिद्धांत नहीं चलता।
अमीर समाजों में उपवास का सिद्धांत जारी हो जाता है।
आज अमेरिका में उपवास का कल्ट जोर पर है। सब ओवर फीडिंग चलता है, तो उपवास चलेगा। ज्यादा आदमी खाए जा रहा है, पांच-पांच
बार खा रहा है, तो फिर उपवास करना पड़ता है। फिर जो उपवास
करता है, उपवास तोड़कर फिर जोर से खाने में लगता है।
अति सदा अति पर परिवर्तित हो जाती है। इसलिए जो आदमी उपवास करता है, उपवास में करता क्या है? उपवास तोड़कर क्या खाएगा,
इसका विचार करता है। जितना भोजन का विचार कभी नहीं किया था, उतना उपवास में करता है। उपवास में सभी पाकशास्त्री हो जाते हैं! एकदम
भोजन का चिंतन करते हैं! सारा रस भोजन पर वर्तुल बना लेता है। एक अति से दूसरी
अति! फिर जब ज्यादा भोजन कर लेते हैं, ज्यादा भोजन से परेशान
होते हैं, तो उपवास का खयाल पकड़ता है। लेकिन मध्य में नहीं
ठहरते।
कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह न अति भोजन करता
है, न अल्प भोजन करता है। वह उतना ही करता है, जितना जरूरी है, नेसेसरी है। आवश्यक कभी नहीं बांधता,
अनावश्यक बांध लेता है।
आवश्यक का कौन निर्धारण करे? कोई दूसरा नहीं कर
सकता। मैं नहीं कह सकता, आपके लिए क्या आवश्यक है। एक आदमी
के लिए तीन घंटे की नींद आवश्यक हो सकती है; एक आदमी के लिए
छः घंटे की हो सकती है। तीन घंटे वाला छः घंटे वाले को कहेगा, तामसी हो। छः घंटे वाला अगर कमजोर हुआ, तो अपने को
तामसी समझकर तीन घंटे की नींद शुरू कर देगा। अगर ताकतवर हुआ, तो तीन घंटे वाले को कहेगा, तुमको इन्सोमेनिया है,
अनिद्रा है। तुम इलाज करवाओ। अगर तीन घंटे वाला कमजोर हुआ, तो डाक्टर के पास ट्रैंक्वेलाइजर के लिए पहुंच जाएगा। अगर ताकतवर हुआ,
तो कहेगा कि हम साधक हैं; हम तीन घंटे सोते
हैं। क्योंकि कृष्ण ने कहा है गीता में, या निशा सर्वभूतानां
तस्यां जागर्ति संयमी, कि जब सब सोते हैं, तब संयमी जागते हैं; हम इसलिए जागते हैं रात में।
कोई नियम नहीं हो सकता। एक-एक व्यक्ति की जरूरत अलग-अलग है। इतनी अलग-अलग
है जिसका कोई हिसाब नहीं। उम्र के साथ जरूरत बदलेगी। काम के साथ जरूरत बदलेगी।
विश्राम के साथ जरूरत बदलेगी। भोजन के साथ जरूरत बदलेगी। प्रतिदिन के मन की अवस्था
के साथ जरूरत बदलेगी। एक आदमी भी तय नहीं कर सकता कि मैं आज छः घंटे सोया, तो कल भी छः घंटे ही सोऊं।
कल की जरूरत कल तय होगी; क्योंकि आज जो भोजन
किया, हो सकता है, कल वह भोजन न मिले।
कल अगर भूखे रहे, तो नींद कम हो जाएगी। क्योंकि भोजन पेट में
हो, तो पचाने के लिए नींद को लंबा हो जाना पड़ता है। अगर
ज्यादा देर में पचने वाला भोजन पेट में हो, तो नींद को और लंबा
हो जाना पड़ता है। अगर जल्दी पच जाने वाला भोजन पेट में हो, तो
नींद सिकुड़ जाती है, छोटी हो जाती है। कल अगर दिनभर मजदूरी
की, गङ्ढे खोदे, तो नींद लंबी हो जाती
है। कल अगर दिनभर आरामकुर्सी पर बैठकर विश्राम किया, तो नींद
सिकुड़ जाती है, छोटी हो जाती है।
रोज, प्रतिपल, इसलिए जो होश से जीता
है, वह रोज जो जरूरी है, उसमें जीता
है। गैर-जरूरी को काटता चला जाता है। कट ही जाता है गैर-जरूरी। होशपूर्ण चित्त में
गैर-जरूरी अपने आप गिर जाता है।
गैर-जरूरी बांधता है; आवश्यक कर्म बांधते नहीं। इसलिए
कृष्ण ठीक कहते हैं, आवश्यक कर्म करता है ऐसा व्यक्ति। और
आवश्यक कर्म शरीर के बांधते नहीं हैं। अनावश्यक गिर जाता है। अनावश्यक के साथ
जंजीरें भी गिर जाती हैं।
प्रश्न: भगवान श्री, आपने अभी कहा कि शरीर अंधा है,
यांत्रिक है। लेकिन अन्यत्र आप यह भी कहते हैं कि शरीर की अपनी
प्रज्ञा है, बाडी विजडम है। कृपया इसे स्पष्ट करें। और दूसरी
चीज, इस श्लोक में कहा गया है, जीत
लिया है अंतःकरण जिसने और त्याग दी है संपूर्ण भोगों की सुख-सामग्री। कृपया इसका
भी अर्थ समझाएं।
निश्चय ही, शरीर की अपनी प्रज्ञा है। लेकिन वह प्रज्ञा वैसी है,
जैसे अंधे आदमी की होती है। शरीर प्रज्ञाचक्षु है। शरीर की अपनी
इंटेलिजेंस है, पर मेकेनिकल इंटेलिजेंस है, यांत्रिक प्रज्ञा है।
जैसे, शरीर की प्रज्ञा का, बाडी विजडम
का क्या अर्थ है? शरीर की प्रज्ञा का यह अर्थ है कि आपको
हृदय की धड़कन तो नहीं धड़कानी पड़ती, शरीर धड़काता रहता है। अगर
आपको धड़कानी पड़े, तो सत्तर साल की उम्र तक मुश्किल से कोई
आदमी कभी पहुंचे। जरा चूके, कि गए! एकाध दिन भूल गए, एकाध दिन तो बहुत दूर है, पांच-सात सेकेंड भूल गए,
गए!
शरीर हृदय को चलाता रहता है। खून आप नहीं चलाते, शरीर चलाता है। आपको चलाना पड़े, तो बड़ी मुश्किल हो
जाए। सच तो यह है कि एक छोटे-से आदमी के शरीर में, एक पांच
फीट के शरीर में इतना काम चलता है कि वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर इतना पूरा काम
हमें फैक्टरी में करना पड़े, तो दस वर्गमील की फैक्टरी बनानी
पड़े। इतना काम आप नहीं चला रहे हैं, शरीर चला रहा है। लेकिन
आटोमैटिक, यंत्र की तरह चला रहा है।
उसकी अपनी इंटेलिजेंस है। इंटेलिजेंस का मतलब है कि उसे भी फिक्र करनी
पड़ती है हजार तरह की, लेकिन वह है मेकेनिकल। जैसे आपके हाथ में घाव हो गया।
दूसरे दिन मवाद इकट्ठी हो जाती है। यह आपने इकट्ठी नहीं की; यह
शरीर ने भेजी है। आपको पता है, मवाद क्यों इकट्ठी हो जाती
है! पता भी नहीं होगा कि क्यों इकट्ठी हो जाती है।
जिसे आप मवाद कहते हैं, वह खून के सफेद कण
हैं, व्हाइट पार्टिकल्स हैं। खून में दो तरह के कण हैं,
सफेद और लाल। लाल कण कमजोर कण हैं, डेलीकेट
हैं। सफेद कण शक्तिशाली कण हैं, मजबूत हैं। शरीर में घाव हो
गया; शरीर फौरन सफेद कणों को भेजता है घाव के आस-पास,
सेफ्टी मेजर के लिए।
जैसे कि आपके गांव पर हमला हो जाए, तो आप मिलिट्री के
दस्ते को खड़ा कर देते हैं गांव के बाहर। सैनिक भेज देते हैं। औरत-बच्चों को हटा
लेते हैं फौरन पीछे, कि हटो। हट जाओ। दुकानें अलग कर लो।
मिलिट्री के जवानों को खड़ा कर देते हैं। हमला हो गया!
जब शरीर पर घाव होता है, तो बाहर से हमला हो
गया। शरीर अपने मिलिट्री के जवानों को फौरन वहां भेज देता है। वे सफेद कण जवान हैं
उसके। जिसको आप मवाद कहते हैं, वह मवाद नहीं है; वह शरीर के सफेद कण हैं खून के, जिनकी पर्त को वह
वहां भेज देता है। उनकी पर्त पूरे घाव को घेर लेती है। उस पर्त को पार करके बाहर
के कीटाणु अब शरीर में प्रवेश नहीं कर सकते। उस पर्त में घिरकर भीतर शरीर अपना काम
शुरू कर देता है, नई चमड़ी को निर्माण करने का। जब तक चमड़ी
निर्मित न हो जाए, तब तक मवाद की पतली पर्त बाहर के कीटाणुओं
को शरीर के भीतर प्रवेश नहीं करने देगी। वे फाइटर्स हैं।
लेकिन यह सब है। शरीर की भी अपनी बुद्धिमत्ता है। यह कोई छोटा-मोटा
काम नहीं है। लेकिन यह बुद्धिमत्ता है प्रज्ञाचक्षु वाली, अंधे आदमी वाली।
जिस अर्थ में मैंने कहा है कि शरीर की अपनी प्रज्ञा है, वह और अर्थ है--इस अर्थ में। और अभी जब मैं कह रहा हूं कि शरीर अंधा है,
वह इस अर्थ में कि अगर आप शरीर की क्रियाओं के पास मौजूद नहीं हैं,
तो शरीर आदतों से चलने लगता है।
एक आदमी सिगरेट पी रहा है। अक्सर सिगरेट पीने वाला आदत से पीता है। कब
उसका हाथ भीतर चला जाता है खीसे में, कब पाकेट बाहर निकाल
लेता है, इसका उसे कोई होश नहीं होता। कब उसके मुंह में
सिगरेट लग जाती है, माचिस जल जाती है, सिगरेट
जल जाती है, धुआं बाहर-भीतर होने लगता है, इसका उसे होश नहीं होता। यह बिलकुल यंत्रवत चलता है। होश आ जाए, तो धुआं बाहर-भीतर करने की स्टुपिडिटी करने वाला आदमी जरा मुश्किल से
मिलेगा। क्योंकि कर क्या रहा है? कर इतना ही रहा है कि धुएं
को बाहर ले जा रहा है, भीतर ले जा रहा है।
अब धुएं को बाहर-भीतर करना, पैसा खर्च करके खून
को जहरीला करना, उम्र को कम करना बेहोशी में ही हो सकता है;
होश में नहीं हो सकता। और या फिर आदमी स्युसाइडल हो, आत्मघाती हो, तो हो सकता है। लेकिन आत्मघात भी
बेहोशी में ही हो सकता है; होश में नहीं हो सकता।
जरा कोशिश करें एक दिन सिगरेट होशपूर्वक पीने की। सिगरेट पीएं, आंख बंद करके मेडिटेट करें धुएं पर--कि यह भीतर गया; यह बाहर गया; यह भीतर गया। थोड़ी देर में लगेगा,
कि मैं आदमी हूं कि पागल हूं! यह मैं कर क्या रहा हूं? बहुत मूढ़ता मालूम पड़ेगी, बहुत ईडियाटिक। लेकिन काफी
मूढ़ हैं; इसलिए मूढ़ता पर भी धंधे चलते हैं।
अमेरिका की सीनेट ने पीछे, दोत्तीन वर्ष पहले तय
किया कि सब सिगरेट पर लाल अक्षरों में, बड़े अक्षरों में लिख
दो कि स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। दिस इज़ हार्मफुल टु हेल्थ, बड़े अक्षरों में लिख दो।
पहले सिगरेट के मालिकों ने बहुत विरोध किया कि इससे तो बहुत नुकसान हो
जाएगा। मुकदमे चलाए। अदालत में ले गए मामले को कि इससे तो बहुत नुकसान हो जाएगा।
क्योंकि आदमी अगर हर बार सिगरेट के डब्बे पर पढ़ेगा कि यह स्वास्थ्य के लिए
हानिप्रद है, तो सिगरेट के धंधे का नुकसान हो जाएगा। लेकिन
मनोवैज्ञानिकों ने कहा, घबड़ाओ मत। जो धुएं को बाहर-भीतर कर
लेता है, वह लाल स्याही को भी भूल जाएगा। और यही हुआ।
तीन-चार महीने में करोड़ों रुपए का धंधा कम हो गया सिगरेट का; लेकिन फिर वापस अपनी जगह हो गया! जो आदमी धुएं को बाहर-भीतर करने में होश
नहीं रख पाता, वह लाल स्याही को कितनी देर तक देखेगा?
डब्बे पर लिखा है, लिखा रहे; अब कौन पढ़ता है? उसको कोई नहीं पढ़ता।
आदमी बेहोश है। और जब तक बेहोश है, तब तक शरीर यांत्रिक
आदतें पकड़ लेता है। और यांत्रिक आदतें बंधन का कारण बन जाती हैं।
होशपूर्वक आदमी यांत्रिक आदतें नहीं पकड़ता है; पकड़ता ही नहीं यांत्रिक आदतें। होशपूर्वक आदमी अपना हाथ भी नहीं हिलाता
व्यर्थ। हाथ भी हिलाता है, तो होशपूर्वक हिलाता है।
बुद्ध एक गांव से गुजर रहे हैं। बुद्ध होने के पहले की बात है। एक
मक्खी कंधे पर आकर बैठ गई है। आनंद साथ में था। बुद्ध उससे बात कर रहे थे। बात
जारी रखी और बेहोशी में--जैसा कि हम सब करते हैं--मक्खी को हाथ से उड़ा दिया।
होशपूर्वक नहीं, जतनपूर्वक नहीं, कांशसली नहीं;
बात जारी रही, धक्का मारा हाथ का और उड़ा दिया।
फिर रुक गए, उदास हो गए। आनंद ने पूछा, क्या हुआ? बुद्ध थोड़ी देर खड़े रहे, फिर हाथ ले गए उस जगह, जहां मक्खी बैठी थी कभी,
अब नहीं थी। फिर उड़ाया मक्खी को, जो कि अब थी
ही नहीं। फिर हाथ नीचे लाए। आनंद ने कहा, क्या करते हैं आप?
क्या उड़ाते हैं? कंधे पर कुछ नहीं है।
बुद्ध ने कहा, मैं उड़ाकर देख रहा हूं फिर से, जैसा
कि मुझे उड़ाना चाहिए था--होशपूर्वक। उस बार मैंने बेहोशी में मक्खी को उड़ा दिया।
अपना ही हाथ बेहोशी में काम करे, तो खतरनाक काम भी कर सकता
है। आज मक्खी उड़ाता है, कल किसी की गर्दन दबा सकता है! अगर
आज मक्खी को मैंने बिना जतन के उड़ा दिया, विदाउट
माइंडफुलनेस--बुद्ध का शब्द है, स्मृतिपूर्वक, विद माइंडफुलनेस--अगर मैंने स्मृतिपूर्वक नहीं उड़ाया मक्खी को, तो कल क्या भरोसा है कि मेरे हाथ किसी की गर्दन न दबा दें! दबा सकते हैं।
तो मैं खड़ा होकर उस तरह उड़ा रहा हूं, जैसे कि उड़ाना चाहिए
था। और अगली बार स्मरण रखूंगा कि जतनपूर्वक, स्मृतिपूर्वक
मक्खी को उड़ाऊं, अन्यथा कर्म का बंधन हो सकता है।
बेहोश कर्म बंधन है। होशपूर्वक कर्म बंधन से मुक्ति है।
दूसरी बात पूछी है कि कृष्ण कहते हैं, सुख-सामग्री को
छोड़कर--स्वयं को जीतकर, सुख-सामग्री को छोड़कर--इसका क्या
अर्थ?
सुख-सामग्री को छोड़कर का अर्थ, सामग्री को छोड़कर
नहीं। सुख-सामग्री को छोड़कर! सामग्री और सुख-सामग्री में फर्क है।
वस्तुएं, अगर सिर्फ आवश्यक हैं और उनसे आप सुख नहीं खींचते
अपने भीतर, सिर्फ जरूरत पूरी करते हैं, तो वे सुख-सामग्री नहीं हैं। लेकिन अगर वस्तुएं आवश्यक नहीं हैं, अनावश्यक हैं, और सिर्फ सुख के स्रोत बनाते हैं आप
उनको...।
जैसे कि एक स्त्री है, सेर भर सोना लटकाए
हुए घूम रही है। पागलखाने में होना चाहिए! क्योंकि शरीर पर सेर भर सोना लटकाने की
कोई भी जरूरत नहीं है। शरीर की तो कोई जरूरत नहीं है। नुकसान पहुंच रहा है। लेकिन
सोने से शरीर की कोई जरूरत पूरी नहीं की जा रही है। सोना सुख-सामग्री है।
सुख-सामग्री क्यों है सोना? क्योंकि जिन-जिन की आंखों में वह
सोना चमकेगा, उन-उन की आंखें चौंधिया जाएंगी। वे मानेंगे कि
हां, कोई है, समबडी। और कुछ मतलब नहीं
है। पति भी प्रसन्न है अपनी स्त्री पर सोना लटकवाकर। उसकी पत्नी पर सोना लटका हो,
तो बाजार में उसकी क्रेडिट बढ़ जाती है। उसकी पत्नी पर सोना, उसका चलता-फिरता विज्ञापन है, कि यह आदमी भी कुछ है।
पुरुष होशियार है। सोना खुद नहीं लादते, पत्नियों पर लदवा
दिया है! पहले खुद ही लादते थे; फिर धीरे-धीरे बुद्धिमत्ता
आई। समझे कि यह काम तो औरत से ही लिया जा सकता है। इसके लिए नाहक हम क्यों परेशान
हों! पहले लादते थे।
सुख-सामग्री को छोड़कर! सामग्री को छोड़कर, कृष्ण नहीं कह रहे हैं। सामग्री छोड़ी नहीं जा सकती। जीवन के लिए सामग्री
की जरूरत है। जितनी जरूरत है, उतनी बिलकुल ठीक है। सबकी
जरूरत भी भिन्न है। इसलिए प्रत्येक अपना निर्णय करे कि उसकी क्या जरूरत है। और
निर्णय कठिन नहीं है।
कपड़े आपने शरीर को ढांकने के लिए पहने हैं? सर्दी बचाने के लिए पहने हैं? कि किसी की आंखों को
तिलमिलाने के लिए पहने हैं? आप खुद पक्की तरह जान सकते हैं।
जब आईने के सामने सुबह खड़े हों, तब आपको पक्का पता चल जाएगा
कि यह कोट आप किसलिए पहन रहे हैं। यह सर्दी के लिए पहन रहे हैं? तन ढांकने के लिए पहन रहे हैं? कि किसी की आंखों में
तिलमिलाहट पैदा करनी है? कि किसी को हीन दिखलाना है? कि इस आशा में पहन रहे हैं कि आज कोई जरूर छूकर पूछेगा कि किस भाव से लिया
है!
सुख-सामग्री, तो होशपूर्ण व्यक्ति जो है, वह
छोड़ देता है। सुख छोड़ देता है सामग्री से। ऐसी सामग्री व्यर्थ बोझ है, जो सिर्फ सुख के खयाल से है। और सुख कुछ मिलता नहीं, सिर्फ बोझ ही लगता है। कुछ मिलता नहीं है सुख। कई बार तो इतना बोझ भरता
चला जाता है कि जिसका कोई हिसाब नहीं।
मैं एक बहुत बड़े आदमी के घर में कुछ दिन पहले मेहमान था। तो उनके
बैठकखाने में बैठने की जगह भी नहीं है! चलना-फिरना भी मुश्किल है। इतनी
सुख-सामग्री भर दी है बैठकखाने में कि बैठकखाने के बाहर खड़े होकर ही उसका सुख लिया
जा सकता है, भीतर जाकर नहीं! बेकार हो गया बैठकखाना, बैठकखाना बैठने के लिए है। वह बैठने के लायक नहीं रहा है। वह अजायबघर बना
लिया है उन्होंने! उसमें चलते-फिरते डर भी रखना पड़ता है कि उनकी कोई मूर्ति न गिर
जाए; कहीं कोई धक्का न लग जाए। महंगी चीजें हैं। वह खुद भी
जरा सम्हलकर ही गुजरते हैं वहां से। बैठकखाना आराम के लिए है। लेकिन वह गया!
लेकिन वह बैठकखाना बैठने के लिए बनाया नहीं गया है। वह तो किन्हीं
दूसरों की आंखों में भाव पैदा करने के लिए बनाया गया है। और जब दूसरे की आंख में
भाव पैदा होता है, तो रस आता है, सुख आता है।
सुख दूसरे की आंख से आता है, बड़े मजे की बात है,
भीतर से नहीं आता। कोई आदमी आकर कह देता है कि हां, आपका बंगला तो बहुत सुंदर बना है, तो सुख आता है।
कलकत्ते में मैं एक घर में ठहरता था। जब भी उनके घर जाता था--नया मकान
बनाया था, कलकत्ते में सबसे अच्छा मकान था, स्वीमिंग पूल था, बगीचा था, सब
था, बहुत अच्छा था--उसकी बात करते नहीं थकते थे वे। कहीं से
भी बात शुरू करो, मकान पर पहुंच जाती! दो मिनट से ज्यादा
कहीं न चलती। ब्रह्म से शुरू करो, मकान आ जाए! कहीं से शुरू
करो। मैंने सब तरफ से बातचीत शुरू करके देख ली। लेकिन कोई उपाय नहीं। दो मिनट से
ज्यादा आप चल नहीं सकते, ट्रैक वापस मकान पर आ जाए। मैंने
मोक्ष से, ब्रह्म से बात शुरू करके देखी। मैंने उनसे मोक्ष
की कुछ बातचीत शुरू की। मिनट डेढ़ मिनट में उन्होंने कहा, एक
बात तो बताइए कि मोक्ष में मकान होते हैं कि नहीं? और
उन्होंने कहा कि यह मकान बनाया...। बस, शुरू कर देते थे वे
कहीं से भी!
फिर दो साल बाद उनके घर मेहमान हुआ, तो उन्होंने मकान की
बात न की। मैं जरा चिंतित हुआ। मैंने कई बार मकान की बात छेड़ी, लेकिन कुछ भी करो, कहीं से भी छेड़ो, वे टाल जाते। स्वीमिंग पूल की कितनी ही तारीफ करो, वे
टाल जाते। वे दूसरी बातें उठा लेते। मैंने पूछा, बात क्या है?
गड़बड़ क्या हो गई? पहले मैं नहीं छेड़ता था,
आप छेड़ते थे; अब मैं छेड़ता हूं, आप नहीं छेड़ते! उन्होंने कहा, देखते नहीं हैं बगल
में? बगल में एक बड़ा मकान बन गया, उनसे
भी बड़ा। अब क्या खाक मकान की बात करनी है! जब तक उससे बड़ा न बना लें, तब तक अब ठीक है। निकलता नहीं हूं बगीचे में, उन्होंने
कहा। क्योंकि निकलो बाहर, तो वह मकान दिखाई पड़ता है!
यह जो हमारा चित्त है, कृष्ण कहते हैं,
सुख की सामग्री को छोड़कर...।
सामग्री को छोड़ने की बात जरा भी नहीं है। सामग्री अपनी जगह है। पर
उससे सुख को खींचना पागलपन है। सामान से सुख नहीं मिलता; ज्यादा से ज्यादा सुविधा मिल सकती है। सामग्री ज्यादा से ज्यादा कनवीनियंस
हो सकती है, सुख नहीं। लोग सुविधा को सुख समझकर भूल में पड़ते
हैं। सुविधा बिलकुल ठीक है, ओ के। सुख पागलपन है। सुविधा
जरूरत हो सकती है। सुख? सुख मिलता ही नहीं है बाहर से,
सामग्री से; सुख मिलता है स्वयं से।
इसलिए कृष्ण दूसरी बात कहते हैं, स्वयं को जीतकर!
असल में दो तरह की जीत हैं इस जगत में। एक वे लोग हैं, जो वस्तुओं को जीतते रहते हैं। छोटी कार से बड़ी कार जीतते हैं। छोटे मकान
से बड़ा मकान जीतते हैं। बस, वस्तुओं को जीतते रहते हैं। आखिर
में पाते हैं, वस्तुएं तो जीत लीं, खुद
को हार गए। मरते वक्त पता चलता है, जो जीता था, वह पड़ा रह गया और हम चले। तब कुछ सामान साथ ले जाना मुश्किल हो जाता है।
पंछी जाए अकेला! वह सब जो जीता था, पड़ा रह जाता है।
कुछ वे लोग हैं, जिन्हें बुद्धिमान कहें, जो वस्तुओं को नहीं जीतते। क्योंकि जो जानते हैं, वस्तुएं
हम नहीं थे, तब भी थीं; हम नहीं होंगे,
तब भी होंगी। और वस्तुओं की जीत असली जीत नहीं है, अपनी जीत असली जीत है। स्वयं को जीतते हैं।
जो वस्तुओं को जीतता है, वह स्वयं को हारता
चला जाता है। वस्तुओं पर दांव बढ़ता चला जाता है और स्वयं की हार गहरी होती चली जाती
है। नजर वस्तुओं पर लग जाती है, स्वयं से चूक जाती है। फिर
कोई स्वयं को जीतता है। कृष्ण उसकी बात कर रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति स्वयं को जीत
लेता--आत्म-विजय।
महावीर ने कहा है, तुम सब हार जाओ और स्वयं को जीत
लो, तो तुम विजेता हो। और तुम सब जीत लो और स्वयं को हार जाओ,
तो तुमसे ज्यादा पराजित और कोई भी नहीं है।
आपको पता हो या न हो, महावीर के लिए जिन जो नाम मिला,
वह इसीलिए मिला। जिन का मतलब है, जीत लेने
वाला, जिसने जीत लिया स्वयं को। जिन का अर्थ है, जिसने जीत लिया स्वयं को।
जो जिन बन जाता, जो स्वयं को जीत लेता, फिर इस जगत में उसे पाने योग्य कुछ भी नहीं रह जाता। इस जगत में क्या,
कहीं भी पाने योग्य कुछ नहीं रह जाता। लोक में, अलोक में, कहीं भी उसे पाने योग्य कुछ नहीं रह जाता।
जिसने स्वयं को पाया, उसने सब पा लिया। जिसने स्वयं को खोया,
उसने सब खो दिया। बस, स्वयं के जीते जीत है।
ऐसा पुरुष स्वयं को जीतकर सुख की सामग्री के व्यर्थ बोझ से मुक्त हो
जाता है। अभिमान से भरता नहीं। कर्म करते हुए अकर्म में जीता है। सब जरूरी करते
हुए भी उसके ऊपर कोई रेखा नहीं छूटती। वह जतनपूर्वक चादर को परमात्मा के हाथ में
सौंप देता है। उस पर कोई दाग, कोई धब्बा नहीं होता है।
आज सुबह इतना; फिर सांझ हम बात करेंगे। पांच मिनट आप सब रुकेंगे। और
जिनमें थोड़ी भी हिम्मत हो, वे भी कीर्तन में भाग लें। पांच
मिनट डूबें।
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