पहली प्रश्नोत्तर चर्चा:
ताओ—मूल स्वभाव:
प्रश्न:
ओशो ताओ को आज तक सही तौर से समझाया नहीं गया है। या तो विनोबा भावे ने ट्राई किया या फारेनर्स ने ट्राई किया या हमारे एक बहुत बड़े विद्वान मनोहरलाल जी ने ट्राई किया लेकिन ताओ को या तो वे समझा नहीं पाए या मैं नहीं समझ पाया। क्योंकि यह एक बहुत बड़ा गंभीर विषय है।
ताओ का पहले तो अर्थ समझ लेना चाहिए। ताओ का मूल रूप से यही अर्थ होता है, जो धर्म का होता है। धर्म का मतलब है स्वभाव। जैसे आग जलाती है, यह उसका धर्म हुआ। हवा दिखाई नहीं पड़ती है, अदृश्य है, यह उसका स्वभाव है, यह उसका धर्म है। मनुष्य को छोड्कर सारा जगत धर्म के भीतर है। अपने स्वभाव के बाहर नहीं जाता। मनुष्य को छोड्कर जगत में, सभी कुछ स्वभाव के भीतर गति करता है। स्वभाव के बाहर कुछ भी गति नहीं करता। अगर हम मनुष्य को हटा दें तो स्वभाव ही शेष रह जाता है। पानी बरसेगा, धूप पड़ेगी, पानी भाप बनेगा, बादल बनेंगे, ठंडक होगी, गिरेंगे। आग जलाती रहेगी, हवाएं उड़ती रहेंगी, बीज टूटेंगे, वृक्ष बनेंगे। पक्षी अंडे देते रहेंगे। सब स्वभाव से होता रहेगा। स्वभाव में कहीं कोई विपरीतता पैदा न होगी।
स्वतंत्रता—मनुष्य की गरिमा भी, दुर्भाग्य भी:
मनुष्य के आने के साथ ही एक अदभुत घटना जीवन में घटी। सबसे बड़ी घटना है जो इस जगत में घटी। और वह यह है कि मनुष्य के पास शक्ति और क्षमता है कि वह स्वभाव के प्रतिकूल जा सके, स्वभाव से उलटा जा सके। यह मनुष्य की गरिमा भी है और दुर्भाग्य भी। यह उसका गौरव भी है, इसीलिए वह श्रेष्ठतम प्राणी भी है। इसीलिए कि वह चाहे तो स्वभाव में जीए और चाहे तो स्वभाव के प्रतिकूल चला जाए। यानी स्वभाव की जो अनिवार्य परतंत्रता थी, वह मनुष्य पर नहीं है। मनुष्य स्वतंत्र प्राणी है।
इस ज्ञात जगत में मनुष्य अकेला स्वतंत्र है। स्वतंत्र का मतलब यह कि वह वह भी कर सकता है जो कि प्रकृति में नहीं होता। वह आग को ठंडी कर सकता है। हवा को दृश्य बना सकता है। वह पानी को नीचे न बहाकर ऊपर की तरफ बहाए। और इस सबका कारण यह है कि मनुष्य सोच सकता है। उसके पास बुद्धि है। तो बुद्धि निर्णायक है उसकी—क्या करें, क्या न करें! ऐसा करें या वैसा करें! यह करना ठीक होगा कि नहीं ठीक होगा! तो बुद्धि जो है वह मनुष्य के भीतर स्वतंत्रता का सूत्र है। और प्रकृति के ऊपर उठने की संभावना है। वह ट्रांसेनडेंस है उसमें।
स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं है:
लेकिन मनुष्य स्वभाव के प्रतिकूल तो जा सकता है, लेकिन स्वभाव के प्रतिकूल जाने से जो दुख होते हैं वे उसे झेलने ही पडेंगे।
प्रश्न: झेलने ही पड़ते हैं?
वे झेलने ही पड़ते हैं। तो उसकी स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं है। उस पर एक गहरी रुकावट है। स्वतंत्र है वह कि वह प्रकृति से प्रतिकूल काम करे। लेकिन प्रतिकूल काम करने से जो भी परिणाम होंगे दुखद, वे उसे झेलने ही पड़ेंगे।
अधर्म का मतलब इतना ही है। अधर्म का मतलब यह है कि जो स्वभाव में नहीं है वैसा करना। जो नहीं करना चाहिए था वैसा करना। जिसे करने से दुख उत्पन्न होता है ऐसा करना। यह सब एक ही बात हुई। जिसे भी करने से दुखद परिणाम आते हैं वह अधर्म है। क्योंकि स्वभाव में दुख की गुंजाइश ही नहीं है। इसलिए मनुष्य को छोड्कर इस जगत में और कोई दुखी भी नहीं है, चिंतित भी नहीं है, तनावग्रस्त भी नहीं है। मनुष्य को छोड्कर और कोई प्राणी पागल होने की क्षमता नहीं रखता, विक्षिप्त नहीं हो सकता, क्योंकि वह अपने स्वभाव में ही जीता है। स्वभाव में सुख है, स्वभाव के प्रतिकूल जाने में दुख है।
लेकिन और कोई प्राणी जा ही नहीं सकता। स्वभाव में जीना उसका चुनाव नहीं है। स्वभाव में जीना उसकी मजबूरी है। इसलिए गौरवपूर्ण नहीं है वह बात। मनुष्य स्वभाव के प्रतिकूल जा सकता है। यह गौरवपूर्ण है। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि इससे सौभाग्य आए, इससे दुर्भाग्य आ सकता है। अगर वह प्रतिकूल जाएगा तो दुख उठाएगा।
सुख + स्वतंत्रता = आनंद:
यहीं एक बात और समझ लेनी जरूरी है स्वभाव में रहने की अगर मजबूरी हो तो सुख तो होता है, लेकिन आनंद कभी नहीं होता। मनुष्य के जीवन में एक नया सूत्र खुलता है आनंद का। आनंद का मतलब यह है : स्वभाव के प्रतिकूल जा सकता था और नहीं गया। जाता तो दुख उठाता; अगर जा ही न सकता और स्वभाव में रहता तो सुख पाता; लेकिन जा सकता था, नहीं गया, तब जो सुख उपलब्ध होता है वह आनंद है। सुख के साथ स्वतंत्रता जब जुड़ जाती है तो आनंद बन जाता है। सुख फ़ स्वतंत्रता आनंद बन जाता है।
ताओ का अर्थ है जैसा सारा जगत जीता है मजबूरी में, वैसे हम अपनी स्वतंत्रता में जीएं। स्वतंत्रतापूर्वक हम अपने स्वभाव में जीएं, तो ताओ उपलब्ध हो जाता है। तो ताओ के लिए या तो धर्म शब्द बहुत अदभुत है। लेकिन धर्म चूकि हमारे बीच बहुत पिट गया, इसलिए हमारे खयाल में नहीं पड़ता। और धर्म के हमने बड़े गलत उपयोग किए, इसलिए भी कहीं हिंदू और मुसलमान को धर्म बना दिया इससे भी कठिनाई हो गई। नहीं तो एक दूसरा वैदिक शब्द है : ऋत। ऋत का अर्थ होता है दि ली। नियम। तो ताओ का भी मतलब ऋत है जो नियम है।
लेकिन नियम दो तरह से हो सकता है, जैसा मैंने कहा। मजबूरी! तब फिर प्रकृति रह जाती है। जहां सब सुखद है, लेकिन जहां चुनाव नहीं है। और नियम को तोड्ने की संभावना मनुष्य के साथ शुरू होती है। यानी मनुष्य जो है वह प्रकृति को पार कर गया और परमात्मा में प्रविष्ट नहीं हुआ ऐसा प्राणी है। वह द्वार पर खड़ा है परमात्मा के, चाहे तो प्रवेश करे, चाहे तो लौट जाए। इस पर कोई मजबूरी नहीं है। लौटने से जो दुख होगा वह झेलना पड़ेगा। प्रवेश से जो आनंद होगा वह मिलेगा। चुनावपूर्वक, स्वतंत्रतापूर्वक जो व्यक्ति स्वभाव में जीने को राजी हो जाता है, वह ताओ को उपलब्ध होता है।
प्रकृति में न कुछ शुभ है, न कुछ अशुभ:
इसलिए अब ताओ में और भी कुछ बातें इस आधार पर समझनी जरूरी हैं। जैसे स्वभाव में कुछ अच्छा और बुरा नहीं होता। जो होता है होता है। हम यह नहीं कह सकते कि पानी नीचे की तरफ बहता है तो पाप करता है। हम ऐसा नहीं कह सकते। पानी नीचे की तरफ बहता ही है, उसका स्वभाव है। इसमें पाप—पुण्य कुछ भी नहीं है। अच्छा—बुरा भी कुछ नहीं है। आग जलाती है तो हम यह नहीं कह सकते कि आग बहुत पाप करती है। जलने से कोई कितना ही दुख पाता हो, लेकिन आग की तरफ से कोई पाप नहीं है, यह उसका स्वभाव है। यह उसकी मजबूरी है। वह आग है इसलिए जलाती है। इसमें कोई....... आग होना और जलाना, एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं। इसलिए प्रकृति में कोई पाप—पुण्य नहीं हैं।
आदमी थोपने की कोशिश करता है। जैसे कि हम शेर को पापी समझते हैं, क्योंकि वह गाय को खा जाता है। इसलिए पुण्यात्मा लोग ऐसी तस्वीरें बनाते हैं कि गाय और शेर एक ही साथ पानी पी रहे हैं। इसमें गाय के साथ तो बहुत भला हो गया, लेकिन शेर का क्या होगा? इन पुण्यात्माओं ने भी कभी गाय को और घास को एक साथ खड़े नहीं बताया। नहीं तो गाय के साथ भी वही हो जाएगा जो शेर के साथ हो रहा है। क्योंकि घास भी तो मरा जा रहा है गाय के हाथ में। गाय मजे से घास चर रही है और शेर को गाय के बगल में बिठा दिया और वह गाय को नहीं चर रहा है।
हम अपनी धारणाएं थोपते हैं। प्रकृति में न कुछ शुभ है, न कुछ अशुभ है। कोई अच्छे और बुरे की बात प्रकृति में नहीं है, क्योंकि वहां विकल्प नहीं है, वहां चुनाव ही नहीं है। ऐसा शेर कोई जानकर गाय को नहीं खाता और गाय कोई जानकर घास को नहीं खाती। किसी का किसी को दुख पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है। बस ऐसा होता है।
आदमी के साथ अनंत संभावनाएं:
आदमी के साथ पहली दफा सवाल उठता है—क्या अच्छा और क्या बुरा। क्योंकि आदमी चुन सकता है। ऐसा कुछ भी नहीं है आदमी के साथ जो होता ही है। कुछ भी हो सकता है, अनंत संभावनाएं हैं। आदमी गाय भी खा सकता है, घास भी खा सकता है। गाय को भी छोड़ सकता है, घास को भी छोड़ सकता है। बिना खाए उपवासा भी मर सकता है। आदमी के साथ अनंत संभावनाएं खुल जाती हैं। इसलिए सवाल उठता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है।
कहानी है कि कनफ्यूशियस लाओत्से के पास गया। और लाओत्से से उसने कहा कि लोगों को बताना पड़ेगा क्या ठीक है, क्या गलत है। तो लाओत्से ने कहा कि यह तभी बताना पड़ता है जब ठीक खो जाता है। जब ठीक खो जाता है तभी बताना पड़ता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है। जब ठीक खो जाता है, तभी बताना पड़ता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है। तो कनफ्यूशियस ने कहा, लोगों को धर्म तो समझाना ही पड़ेगा। तो लाओत्से ने कहा, तभी समझाना पड़ता है जब धर्म का कुछ पता नहीं चलता कि क्या धर्म है। जब धर्म खो जाता है।
आदमी के साथ खो ही गया है। उसके पास कोई साफ सूत्र जन्म के साथ नहीं हैं जिन पर वह चले। उसे अपने चलने के सूत्र भी खोजने पड़ते हैं—जीने के साथ ही साथ।
इससे स्वतंत्रता तो बहुत है, लेकिन स्वभाव के प्रतिकूल चले जाने की भी संभावना उतनी ही है। तो हम ऐसा भी कर सकते हैं जो करना हमें दुख में ले जाए। और ऐसा हम रोज कर रहे हैं।
ताओ का मतलब है कि फिर उस जगह खड़े हो जाना, उस बिंदु पर, जहां से चीजें साफ दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं। जहां हमें तय नहीं करना पड़ता कि क्या ठीक है और क्या गलत है, बल्कि जहां से हमें दिखाई ही पड़ता है कि यह ठीक है और वह गलत है। जहां हमें विचार नहीं करना पड़ता, बल्कि दिखाई पड़ता है।
ताओ की साधना—निर्विचार दृष्टि:
तो पहली तो मैंने ताओ की परिभाषा की कि ताओ का मतलब क्या है। अब दूसरी बात मैं कह रहा हूं कि ताओ की साधना क्या है। ताओ की साधना, यह ऐसे बिंदु पर खड़े हो जाने का उपाय है जहां से हमें दिखाई पड़े कि क्या ठीक है और क्या गलत है। जहां हमें सोचना न पड़े कि क्या ठीक है और क्या गलत है।
क्योंकि सोचेगा कौन? सोचूंगा मैं। और अगर मैं सोच ही सकता, तब तो कहना ही क्या था। मुझे पता नहीं है इसलिए तो मैं सोच रहा हूं। और जो मुझे पता नहीं है उसे मैं सोचकर पता लगा नहीं सकता हूं। यानी सोच हम उसी को सकते हैं जो हम जानते ही हों। अनजान को, अननोन को हम सोच नहीं सकते।
इतना तो साफ है कि मुझे पता नहीं कि क्या ठीक है और क्या गलत है। क्या स्वभाव है, क्या विभाव है, मुझे कुछ पता नहीं। अब हम कहते हैं हम सोचेंगे। जहां से सोचना शुरू होता है वहां से फिलॉसफी शुरू होती है। और इसलिए कहूंगा कि ताओ की कोई फिलॉसफी नहीं है। ताओ कोई फिलॉसफी नहीं है। जहां से सोचना शुरू होता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है; क्या करें, क्या न करें, क्या करना पुण्य है, क्या करना पाप है, क्या करेंगे तो सुख होगा, क्या करेंगे तो दुख होगा—जहां यह सोचना है वहां फिलॉसफी है। न, ताओ बिलकुल एंटी—फिलॉसफी है। वह बिलकुल अदर्शन है। ताओ यह कह रहा है, सोचकर तुम पाओगे कैसे? अगर तुम्हें पता ही होता तो तुम सोचते ही न। और अगर तुम्हें पता नहीं है तो तुम सोचोगे कैसे? सोचकर तुम वही जुगाली कर लोगे जो तुम जानते हो। सोचने से नया कभी उपलब्ध नहीं होता। न कभी उपलब्ध हुआ है, न हो सकता है। सोचने से सिर्फ पुराने के नये संयोग बनते हैं। कभी कोई नया उपलब्ध नहीं होता।
चाहे विज्ञान की कोई नई प्रतीति हो, चाहे धर्म की कोई नई अनुभूति हो, सब सोचने के बाहर घटती है, सोचने के भीतर नहीं घटती। वितान की भी नहीं घटती। जब भी कुछ नया आता है, वह तब आता है जब आप सोचने के बाहर होते हैं। भला यह हो सकता है कि आप सोच—सोचकर थककर बाहर हो गए हों। यह हो सकता है कि एक आदमी अपनी प्रयोगशाला में सोच— सोचकर थक गया है दिन भर। और दिन भर सब तरह के प्रयोग किए हैं और कोई फल नहीं पाया। थक गया, थक गया, थक गया। वह रात सो गया है। और अचानक उसे सपने में खयाल आ गया या सुबह उठा है और उसे खयाल आया। तो वह यही कहेगा कि मैंने जो सोचा था उससे ही यह आया।
यह उससे नहीं आया। यह तो जब सोचना थक गया, ठहर गया, तब वह ताओ में पहुंच गया। जब कोई सोचने से छूट जाता है, तत्काल स्वभाव में आ जाता है। क्योंकि और कहीं जाने का उपाय नहीं है। विचार एकमात्र व्यवस्था है जिसमें हम स्वभाव के बाहर चले जाते हैं।
जैसे मैं इस कमरे में सोऊ और रात सपना देखूं तो मैं इस कमरे के बाहर जा सकता हूं सपने में। लेकिन सपना टूट जाए तो मैं इसी कमरे में खड़ा हो जाऊं। फिर मैं यह नहीं पूछूंगा कि मैं इस कमरे में आया कैसे? क्योंकि मैं तो सपने में बाहर चला गया था! तब मैं तत्काल जानूंगा कि सपने में बाहर गया था अर्थात मैं बाहर गया नहीं था सिर्फ खयाल था मुझे कि मैं बाहर गया हूं। था मैं यहीं, जब मैं बाहर गया था ऐसा देख रहा था तब भी मैं यहीं था।
तो ताओ यह कहता है कि तुम कितना ही सोच रहे हो कि यहां चले गए, वहां चले गए, तुम ताओ से जा नहीं सकते। रहोगे तो तुम वहीं, क्योंकि स्वभाव के बाहर जाओगे कैसे? स्वभाव का मतलब ही यह है कि जिसके बाहर न जा सकोगे। जो तुम्हारा होना है, जो तुम्हारी बीइंग है, उससे बाहर जाओगे कैसे? लेकिन सोच सकते हो बाहर जाने की बात।
इसलिए यह दूसरी बात खयाल में ले लेने जैसी है कि मनुष्य की जो स्वतंत्रता है वह भी सोचने की स्वतंत्रता है। सोचने में वह बाहर चला गया है। विचार में वह भटक रहा है। अगर सारा विचार ठहर जाए तो वह ताओ पर खड़ा हो जाएगा। जिसको हम ध्यान कहते हैं, या जिसको जापान में वे झेन कहते हैं, उसको लाओत्से ताओ कहता है। उस जगह खड़े हो जाना है जहां कोई विचार नहीं है। वहां से तुम्हें वह दिखाई पड़ेगा जो है। जैसा होना चाहिए, जैसा होना सुख देगा, आनंद देगा, वह दिखाई पड़ेगा। और यह अब चुनना नहीं पड़ेगा कि इसको मैं करूं। बस यह होना शुरू हो जाएगा।
तो ताओ की स्थिति को जहां कि पशु है ही, जहां पौधे हैं ही, जहां हम भी हैं, लेकिन हम विचार में भटक गए हैं। और ताओ हमारी वास्तविक स्थिति का हमें पता नहीं, और सब कुछ हमें पता होता है।
विचार है स्वभाव के बाहर छलांग:
तो ताओ की जो मौलिक प्रक्रिया है साधना, वह तो ध्यान ही है। वहां आ जाना है जहां कोई सोच—विचार नहीं है। और लाओत्से कहता है, तुमने सोचा, रत्ती भर विचार, और स्वर्ग और नरक अलग, इतना बड़ा फासला हो जाएगा।
लाओत्से के पास कोई आया है और उससे कुछ पूछता है और लाओत्से उसे जवाब देता है। और जब वह जवाब देता है तो वह आदमी सोचने लगता है। अब लाओत्से कहता है कि बस, बस! सोचना मत। क्योंकि सोचा, कि जो मैंने कहा उसे तुम कभी न समझ पाओगे। सोचना ही मत। जो मैंने कहा उसे सुनो। सोचो मत। अगर सुन सके तो बात हो जाएगी और अगर सोचे तो गए। सोचना ही था तो मुझसे पूछा क्यों? तुम्हीं सोच लेते! तुम सोच ही लेते, कौन तुम्हें मना करता है!
सोचते ही हम तत्काल स्वभाव के बाहर हो जाते हैं। तो विचार जो है वह स्वभाव के बाहर छलांग है— लेकिन विचार में ही! इसलिए मूलत: हम कहीं नहीं गए होते, गए हुए मालूम पड़ते हैं।
तो ताओ की साधना का अर्थ हुआ सोच—विचार छोड्कर खड़े हो जाना। जहां कोई विचार न हो, सिर्फ चेतना रह जाए, सिर्फ होश रह जाए। तो वहां से जो ठीक है वह न केवल दिखाई पड़ेगा बल्कि होना शुरू हो जाएगा।
इसलिए ताओ को जीनेवाला आदमी न नैतिक होता, न अनैतिक होता; न पापी होता, न पुण्यात्मा होता। क्योंकि वह कहता है कि जो हो सकता है वही हो रहा है। मैं कुछ करता नहीं।
एक ताओ फकीर से कोई जाकर पूछता है कि आपकी साधना क्या है? तो वह कहता है, जब मेरी नींद टूटती है तब मैं उठ जाता हूं; और जब नींद आ जाती है तो मैं सो जाता हूं; और जब भूख लगती है तो खाना खा लेता हूं।
तो वह कहता है, यह तो हम सभी करते हैं।
तो वह कहता है, यह तुम सब नहीं करते। जब नींद आई तब तुम कब सोए? तुमने और हजार काम किए। और जब नींद नहीं आ रही थी तब तुमने नींद लाने की कोशिश भी की। और तुम कब उठे जब नींद टूटी हो? तुमने सदा नींद तोड़कर तुम उठ आए हो। या नींद टूट गई है और तुम नहीं उठे हो। तुमने कब खाना खाया जब भूख लगी हो?
एक एस्कीमो साइबेरिया का पहली दफा इंग्लैंड आया। तो वह बहुत हैरान हुआ। और सबसे बड़ी हैरानी उसे यह हुई कि लोग घड़ी देखकर कैसे सो जाते हैं! और लोग घड़ी देखकर खाना कैसे खा लेते हैं! और जिस घर में वह मेहमान था वह इतना परेशान हुआ कि सारे लोग एक साथ खाना कैसे खा लेते हैं घर भर के! क्योंकि उसने कहा यह हो ही नहीं सकता कि सबको एक साथ भूख लगती हो। क्योंकि हमें तो....... जब हमारे यहां जिसको भूख लगती है वह खाता है। किसी को कभी लगती है, किसी को कभी लगती है, किसी को कभी लगती है। यह बड़ा मिरेकल है कि घर भर के लोग एक साथ टेबल पर बैठकर खाना खाते हैं! क्योंकि सबको एक साथ भूख लगना बड़ी असंभव घटना है। और लोग कहते हैं कि बारह बज गए और सो जाते हैं। उसने कहा कि.. .उसकी यह बिलकुल समझ के बाहर पड़ा उसे। स्वाभाविक, क्योंकि साइबेरिया से आनेवाला आदमी अभी भी ताओ के ज्यादा करीब है। अभी भी जब भूख लगती है तब खाता है, जब नहीं लगती तो नहीं खाता है। जब नींद आती है तो सोता है, जब नींद टूटती है तो उठता है।
ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए, ऐसा ताओ नहीं कहेगा। ताओ कहेगा कि जब तुम उठ जाते हो वही ब्रह्ममुहूर्त है। ऐसा नहीं कहेगा ताओ......। वह फकीर ठीक कह रहा है कि जो होता है हम वह होने देते हैं। हम कुछ भी नहीं करते, जो होता है हम होने देते हैं। तो मनुष्य एकबारगी फिर से अगर प्रकृति की तरह जीने लगे तो ताओ को उपलब्ध होता है। जब उसे जो होता है होने देता है। और यह बहुत गहरे तल तक! यह खाने और पीने की बात ही नहीं है। अगर उसे क्रोध आता है तो वह क्रोध को भी आने देता है। अगर उसे काम उठता है तो वह काम को भी उठने देता है। क्योंकि वह कहता है, मैं कौन हूं जो बीच में आऊं? असल में जो होता है, ताओ कहता है, उसे होने देना है। तुम कौन हो जो तुम बीच में आते हो? हर चीज पर तुम कौन हो जो बीच में आते हो?
ताओ की अंतिम घटना—साक्षी:
और अगर कोई व्यक्ति सब होने दे जो होता है, तो साक्षी ही रह जाएगा, और तो कुछ बचेगा नहीं उसके भीतर। देखेगा कि क्रोध आया। देखेगा कि भूख आई। देखेगा कि नींद आई। वह साक्षी हो जाएगा। तो ताओ की जो गहरी से गहरी पकड़ है वह साक्षी में है। वह साक्षी रह जाएगा। वह देखता रहेगा, देखता रहेगा, एक दिन वह यह भी देखेगा कि मौत आई और देखता रहेगा। क्योंकि जिसने सब देखा हो जीवन, वह फिर मौत को भी देख पाता है। क्योंकि हम जीवन को ही नहीं देख पाते, हम सदा बीच में आ जाते हैं, तो मौत के वक्त भी हम बीच में आ जाते हैं और नहीं देख पाते कि क्या हो रहा है।
वह मौत को भी देखेगा। जिसने नींद को आते देखा और जाते देखा, जिसने बीमारी को आते देखा और जाते देखा, क्रोध को आते देखा जाते देखा, वह एक दिन मौत को भी आते देखेगा। वह जन्म को भी आते देखेगा। वह सब का देखनेवाला हो जाएगा। और जिस दिन हम सबके देखनेवाले हो जाते हैं उसी क्षण हम पर कोई भी कर्म का कोई बंधन नहीं रह जाता। क्योंकि कर्म का सारा बंधन हमारे कर्ता होने में है कि मैं कर रहा हूं। चाहे क्रोध कर रहे हों और चाहे ब्रह्मचर्य साध रहे हों, लेकिन मैं करनेवाला हूं मौजूद है। चाहे पूजा कर रहे हों और चाहे भोजन कर रहे हों, मैं करनेवाला मौजूद है।
तो ताओ की जो अंतिम घटना है उसमें मैं तो खो जाएगा, कर्ता खो जाएगा, साक्षी रह जाएगा। अब जो होता है होता है। अब इसमें कुछ भी करनेवाला नहीं है। डुअर जो है वह अब नहीं है। तो ऐसी जो चेतना की अवस्था है—जहां न कोई शुभ है, न कोई अशुभ है; न अच्छा है, न बुरा है; जहां सिर्फ स्वभाव है; और स्वभाव के साथ पूरे भाव से रहने का राजीपन है; जहां कोई संघर्ष नहीं, कोई झगड़ा नहीं; ऐसा हो, वैसा हो, ऐसा कोई विकल्प नहीं; जो होता है उसे होने देने की तैयारी है—तो विस्फोट, एक्सप्लोज़न जिसको मैं कहता हूं वह तत्काल घटित हो जाएगा।
ताओ में समस्त अध्यात्म समाहित है:
और इसलिए ताओ जैसे छोटे शब्द में सब आ गया है। सब जो भी श्रेष्ठतम है साधना में। और जो भी महानतम है मनुष्य की अध्यात्म की खोज में। ध्यान में, समाधि में जो भी पाया गया है, वह सब इस छोटे से शब्द में सब समाया हुआ है। यह शब्द बहुत कीमती है। और इसीलिए अनट्रांसलेटेबल है। इसलिए ताओ का अनुवाद नहीं हो सकता। धर्म से हो सकता था। लेकिन धर्म विकृत हुआ, उसके एसोसिएशस गलत हो गए। ऋत से हो सकता था। लेकिन वह अव्यवहत है, उसका कभी प्रयोग नहीं हुआ। व्यापक मन तक गया नहीं। लेकिन अर्थ वही है। अर्थ वही है। मूल स्वभाव में जीने की सामर्थ्य सबसे बड़ी सामर्थ्य है। क्योंकि तब न निंदा का उपाय है, न प्रशंसा का उपाय है। तब कोई उपाय ही नहीं है।
लाओत्से ने कुछ भी होना बंद कर दिया है:
लाओत्से एक नदी के किनारे बैठा हुआ है। सम्राट ने किसी को भेजा है कि लाओत्से को खोज लाओ! सुनते हैं बहुत बुद्धिमान आदमी है। तो हम उसे अपना वजीर बना लें। वह आदमी गया है। बामुश्किल तो लाओत्से को खोज पाया। क्योंकि जहां—जहां लोगों से पूछा, उन्होंने कहा कि लाओत्से को खुद ही पता नहीं होता कि कहां जा रहा है। जहां पैर ले जाते हैं चला जाता है। तो पहले से तो वह खुद भी नहीं बता सकता कि कहां जाएगा। इसलिए बताना मुश्किल है। लेकिन फिर भी खोजो, कहीं न कहीं होगा। क्योंकि सुबह यहां दिखाई पड़ा है। इस गांव में वह था। कहीं बहुत दूर नहीं निकल गया होगा। दूर इसलिए भी नहीं निकल गया होगा, क्योंकि तेजी से वह चलता ही नहीं है। क्योंकि जाना ही नहीं है कहीं, पहुंचना ही नहीं है कहीं। तो कहीं दूर नहीं गया होगा, मिलेगा आसपास।
खोजा है तो वह नदी के किनारे बैठा हुआ है। तो उन्होंने जाकर उसको कहा कि मिल गए, हम बडी मुश्किल गांव—गांव खोजते फिर रहे हैं। सम्राट ने बुलाया है। कहा है कि वजीर का पद लाओत्से सम्हाल ले। तो लाओत्से चुपचाप बैठा रहा। फिर उसने कहा, देखते हो उस कछुए को! एक कछुआ वहां कीचड़ में मजा कर रहा है। उन्होंने कहा, देखते हैं। तो लाओत्से ने कहा, हमने सुना है कि तुम्हारे सम्राट के घर एक सोने का कछुआ है। उसकी पूजा होती है। कभी कोई कछुआ कई पीढ़ियों पहले किसी कारणवश उस परिवार में पूज्य हो गया था। उस पर सोने की खोल चढ़ाकर उसको बड़े उससे रखा गया है। क्या यह सच है? तो उन्होंने कहा, यह सच है। सोने की खोल मढ़ा हुआ वह कछुआ परम आदरणीय है। सम्राट स्वयं उसके सामने सिर झुकाते हैं। तो लाओत्से ने कहा, बस मैं यह तुमसे पूछता हूं— अगर तुम इस कछुए से कहो कि हम तुझे सोने से मढ़कर और सुंदर बहुमूल्य पेटी में बंद करके पूजा करेंगे, तो यह कछुआ सोने से मढ़ा जाना पसंद करेगा कि यहीं कीचड़ में लोटना पसंद करेगा? उन्होंने कहा, कछुआ तो कीचड में लोटना ही पसंद करेगा। तो लाओत्से ने कहा, हम भी पसंद करेंगे। नमस्कार! तुम जाओ। जब कछुआ तक इतना बुद्धिमान है, तो तुम लाओत्से को ज्यादा बुद्धिहीन समझे हो कछुए से! तुम जाओ। तुम्हारा वजीर होना हमारे काम का नहीं है। असल में, लाओत्से ने कुछ भी होना बंद कर दिया अब। लाओत्से जो है वह है।
यह जो आदमी है, यह साधारणत: जिनको हम साधक कहते हैं, वैसा आदमी नहीं है। हम जिसे साधक कहते हैं वह आमतौर से, हम जिसे साधारण आदमी कहते हैं, उससे विपरीत होता है। अगर यह आदमी दुकान करता है तो वह आदमी दुकान नहीं करता। अगर यह आदमी धन कमाता है तो वह आदमी धन छोड़ देता है। अगर यह आदमी विवाह करता है तो वह आदमी विवाह नहीं करता। लेकिन उसके करने का जितना भी नियम है वह इसी गृहस्थ से मिलता है। वह सिर्फ इसका रिएक्शन होता है।
लाओत्से कहता है कि हम किसी के रिएक्शन नहीं हैं, हम किसी की प्रतिक्रिया नहीं हैं। कौन क्या करता है, इससे प्रयोजन नहीं है। न हम किसी के पीछे जाते कि वैसा करें जैसा वह करता है, न हम किसी के प्रतिकूल जाते हैं कि वैसा करें जैसा वह नहीं करता है। हम तो वही होने देते हैं जो हमारे भीतर से होता है।
स्वभाव को होने देने का मतलब यह है कि हम किसी का अनुकरण न करें, किसी की नकल न करें, किसी के विरोध में आयोजन न करें अपने व्यक्तित्व का। जो हो सकता है भीतर से, जो होना चाहता है, वह हम होने दें। उस पर कहीं कोई रुकावट न हो, कोई निंदा न हो, कोई विरोध न हो, कोई संघर्ष न हो, कोई द्वंद्व न हो, जो होता है उसे होने दें। तब उसका मतलब यह कि बुरे—भले का खयाल तत्काल छोड़ देना पड़ेगा। क्योंकि बुरा—भला ही हमें निंदा करवाता है, रुकवाता है—यह करो और यह मत करो। यह सारे बुरे— भले का, शुभ—अशुभ का खयाल छोड्कर और उस बिंदु पर हमें खड़े होकर देखना पड़े कि जीवन अब कहां जाए, जिस बिंदु पर कोई विचार नहीं है।
सोच—विचार से श्वास में फर्क:
अगर आपके मस्तिष्क से सोचने की सारी शक्ति छीन ली जाए, फिर भी आप श्वास लोगे। अभी भी श्वास ले रहे हो। लेकिन श्वास तक के लेने में फर्क पड़ जाएगा। रात को आप दूसरी तरह से श्वास लेते हो दिन की बजाय। श्वास पर हम आमतौर से कोई खयाल नहीं दिए हैं। लेकिन फिर भी हमारी विचार की प्रक्रिया श्वास पर कोई तरह की बाधा डालती रहती है। रात में हम दूसरी तरह की श्वास लेते हैं। अगर कोई बीमार रात सोना बंद कर दे तो उसकी बीमारी ठीक होना मुश्किल हो जाती है; क्योंकि जागते में बीमारी का खयाल बीमारी को बढ़ावा देने लगता है। तो पहले जरूरी होता है कि कोई बीमार हो तो पहले उसको नींद आए। इलाज नंबर दो बाद है, पहले तो नींद आए। क्योंकि नींद में वह बीमारी का खयाल छोड़ पाए और उसका स्वभाव जो कर सकता है वह कर सके। यह आदमी बाधा न दे।
ताओ का सौंदर्य:
इसलिए बच्चे हमें इतने प्रीतिकर लगते हैं। बहुत मजे की बात है! आमतौर से कुरूप बच्चा खोजना बहुत मुश्किल है। सभी बच्चे सुंदर होते हैं असल में, बच्चा कुरूप होता ही नहीं। यानी कभी खयाल में नहीं आया होगा किसी बच्चे को देखकर कि यह कुरूप है। लेकिन यही बच्चे बड़े होकर इनमें बहुत से लोग कुरूप हो जाते हैं अधिक लोग कुरूप हो जाते हैं, सुंदर आदमी खोजना मुश्किल हो जाता है। बात क्या हो जाती है? यह बच्चे का सौंदर्य कहां से आता है?
ताओ से। वह वैसा ही जी रहा है जैसा है। यानी बड़े से बड़ी जो कुरूपता है, बड़े से बड़ी अग्लीनेस जो है वह सुंदर होने की चेष्टा से पैदा होती है। वह सुंदर होने की चेष्टा से पैदा होती है। तब जो हम हैं वह नहीं रह जाता महत्वपूर्ण। जो हम दिखना चाहिए उसको हम थोपना शुरू कर देते हैं। इसलिए स्त्रियां मुश्किल से ही सुंदर हो पाती हैं। सुंदर होने का जो अति विचार है वह बहुत गहरी और छिपी कुरूपताएं भीतर भरता है। इसलिए बहुत कम स्त्रियां हैं जिनमें कोई गहराई होती है सौंदर्य की। इसलिए एक या दो दिन के बाद अगर एक स्त्री आपके साथ रह जाए, कितनी ही सुंदर हो, दो दिन के बाद उसका सौंदर्य दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। क्योंकि बहुत सफेंस पर था, बहुत ऊपर था, गया। वह गहरे दिखाई नहीं पड़ता।
बच्चे सभी सुंदर मालूम होते हैं, क्योंकि वे जैसे हैं वैसे हैं। कुरूप हैं तो कुरूप होने को भी राजी हैं, उसमें भी कोई बाधा नहीं है। और तब एक और तरह का सौंदर्य उनमें प्रकट होता है जिसको ताओ का सौंदर्य कहेंगे।
ताओ की अपनी एक बुद्धिमत्ता है:
इसी तरह जीवन के सारे पहलुओं पर। एक बहुत बुद्धिमान आदमी है। वह सब प्रश्नों के उत्तर जानता है। लेकिन जरूर ऐसे प्रश्न होंगे जिनके उत्तर उसको पता नहीं हैं। जब तक उसके जाने हुए प्रश्न आप पूछते हैं तब तक वह उत्तर देता है। और एक प्रश्न आप ऐसा खड़ा कर दें जो उसे पता नहीं, वह तत्काल अज्ञानी हो जाता है। क्योंकि जो बुद्धिमत्ता थी वह साधी गई थी। वह साधी गई बुद्धिमत्ता थी। इसलिए बुद्धिमान आदमी नये प्रश्नों को स्वीकार नहीं करना चाहता, नये सवाल नहीं उठाना चाहता। वह कहता है, पुराने सवाल ठीक हैं। इसलिए वह कहता है, पुराने जवाब ठीक हैं। क्योंकि पुराने जवाब तभी तक ठीक हैं जब तक कि नया सवाल नहीं उठता। नया सवाल उठता है तो बुद्धिमान आदमी गया।
नहीं लेकिन, ताओ के पास कोई जवाब नहीं है। इसलिए ताओ की बुद्धिमत्ता जिसको उपलब्ध हो जाए, उसके लिए कोई सवाल न नया है, न कोई पुराना है। इधर सवाल खड़ा होता है, इधर वह उस सवाल से जूझ जाता है। उसके पास कुछ रेडीमेड नहीं है। उसके पास कुछ तैयार नहीं है।
कनफ्यूशियस जब लाओत्से से मिला है.. तो कनफ्यूशियस बहुत से लोगों से मिलने गया था। और जब लौटकर उसके मित्रों ने पूछा कि क्या हुआ? तो उसने कहा, आदमी की जगह तुमने मुझे अजगर के पास भेज दिया। वह आदमी ही नहीं है, वह तो खा जाएगा। मेरी सारी बुद्धिमत्ता चकनाचूर हो गई। बल्कि उस आदमी के सामने मुझे पता चला कि मेरी बुद्धिमत्ता एक तरह की कनिगनेस है, और कुछ भी नहीं, सिर्फ एक चालाकी है, जिसमें मैंने कुछ सवालों के जवाब तय कर रखे हैं जिनके मैं जवाब दे देता हूं। लेकिन उस आदमी ने ऐसे सवाल पूछे जिनके जवाब मुझे पता ही नहीं थे। मुझे यह भी पता नहीं था कि यह भी सवाल है। और तब वह बहुत हंसने लगा। और अब उस आदमी के सामने मैं दुबारा न जा सकूंगा। क्योंकि उस आदमी के पास मेरी सारी बुद्धिमत्ता चालाकी से ज्यादा साबित नहीं हुई जो मैंने तैयार कर रखी थी।
ताओ की अपनी एक बुद्धिमत्ता है। जिस बुद्धिमत्ता में कुछ तैयार नहीं है। चीजें आती हैं और स्वीकार कर ली जाती हैं। पर जो भी होता है उसे होने दिया जाता है।
ताओ का व्यवहार तय करना कठिन है:
इसलिए बहुत, ताओ का व्यवहार तय करना बहुत कठिन है। हो सकता है कि आप किसी ताओ में स्थिर आदमी से कोई सवाल पूछें और वह जवाब न देकर आपको चांटा मार दे। क्योंकि वह यह कहेगा, यही हुआ! वह यह नहीं कहता कि आप न मारें, आप जवाब में मार सकते हैं और जो करना हो कर सकते हैं। लेकिन वह यह कहेगा, जो हो सकता था वह हुआ। और अगर उसके चांटे को समझा जाए तो शायद आपके लिए वही जवाब था।
सभी प्रश्न ऐसे नहीं कि उनके उत्तर दिए जाएं। बहुत प्रश्न ऐसे ही हैं जिनका चांटा ही अच्छा होगा। हमारे खयाल में नहीं आएगा एकदम से कि चांटा कैसे अच्छा हो सकता है।
एक ताओ फकीर के पास एक युवक पूछने गया है। वह उससे पूछता है कि ईश्वर क्या है? धर्म क्या है?
तो वह उसे उठाकर एक चांटा लगाता है और दरवाजा बंद करके बाहर कर देता है। तो वह बहुत परेशान होता है। वह बड़ी दूर से बड़ी पहाड़ी चढ़कर इसके पास आया। तो सामने ही एक दूसरे फकीर का झोपड़ा है, वह उसमें जाता है। और वह कहता है कि किस तरह का आदमी है यह! तो वह डंडा उठाता है वह फकीर। वह कहता है, यह आप क्या कर रहे हैं? तो उसने कहा कि तू बहुत दयालु आदमी के पास गया था। अगर हमारे पास तू आता तो हम डंडा ही मारते। वह आदमी सदा का दयालु है। तू वापस वहीं जा! उसकी बड़ी करुणा है। उसने इतना भी किया, यह कुछ कम नहीं है।
वह आदमी वापस लौटता है। वह कुछ समझ नहीं पाता कि क्या मामला है। दरवाजा खटखटाता है। वह आदमी फिर भीतर बुलाकर बड़े प्रेम से बिठा लेता है। उससे कहता है, पूछ! वह कहता है कि अभी मैं आया था तो आपने मुझे मारा और आप अब इतने प्रेम से बिठा रहे हैं! तो वह उससे कहता है, जो मार न सह सके, वह प्रेम तो सह ही न सकेगा। वह कहता है, जो मार न सह सके, वह प्रेम तो सह ही न सकेगा। क्योंकि प्रेम की मार तो बहुत कठिन है। मगर तू लौट आया, तो अब आगे बात चल सकती है। तो उसने कहा कि मैं तो डरकर भाग भी जा सकता था, वह तो सामनेवाले की करुणा है। तो उसने कहा, वह बड़ा कृपालु है। वह मुझसे ज्यादा कृपालु है। अगर तू उसके पास गया होता तो वह डंडा ही मार देता।
अब यह जो, यह जब बात सारी की सारी सारे जगत में पहुंची तो समझना बहुत मुश्किल हो गया कि यह सारा मामला क्या है! लेकिन चीजों के अपने आंतरिक नियम हैं, आंतरिक ताओ है चीजों का।
अब यह जरूरी नहीं है कि आप जब मुझसे प्रश्न पूछने आए हैं तो सच में प्रश्न ही पूछने आए हों। यह जरूरी नहीं है। और यह भी जरूरी नहीं है कि आपको उत्तर की ही जरूरत है। यह भी जरूरी नहीं है। और यह भी जरूरी नहीं है कि जो आपने पूछा है वही आप पूछने आए थे। यह भी जरूरी नहीं है। और यह भी जरूरी नहीं है कि जो आपने पूछा है यह आप पूछना ही चाहते हैं। यह भी जरूरी नहीं है। क्योंकि आपके पास भी बहुत चेहरे हैं। आप कुछ पूछना तय करके चलते हैं, कुछ रास्ते में हो जाता है, कुछ आप आकर पूछते हैं।
अब मेरे पास कई लोग आते हैं कि अगर मैं उनका दो मिनट प्रश्न छोड़ जाऊं, दूसरी बात करूं, फिर दुबारा वे घंटे भर बैठे रहेंगे, वे कभी वह नहीं पूछेंगे। जो आदमी एक प्रश्न पूछने आया था—मैंने उससे इतना ही पूछा. कैसे हो? ठीक हो? अच्छे हो? फिर मैंने पूछा कि कहो क्या है? वह गया। तो यह प्रश्न कितना गहरा हो सकता है? इसकी कितनी रूट्स हो सकती हैं? इस आदमी के व्यक्तित्व को कितनी इसकी जरूरत हो सकती है? उसको कोई जरूरत नहीं है। लेकिन आया यह ऐसे ही था जैसे कि बहुत जरूरी था इसको पूछना। जैसे इसके बिना पूछे यह जी न सकेगा।
ताओ की बुद्धिमत्ता—दर्पण की तरह:
तो ताओ की अपनी एक बुद्धिमत्ता है जो सीधा डायरेक्ट एक्शन में है। कुछ कहा नहीं जा सकता कि ताओ में थिर आदमी क्या करेगा। हो सकता है चुप रह जाए।
लाओत्से रोज घूमने जाता है। एक मित्र उसके साथ जाता है। वे दो घंटे तक घूमते हैं पहाड़ों पर, फिर लौट आते हैं। फिर एक मेहमान आया हुआ है। तो वह मित्र उसे लाता है और कहता है कि हमारे मेहमान हैं, आज ये भी चलेंगे। वे दोनों चुप हैं। लाओत्से चुप है, साथी चुप है, वह मेहमान भी चुप है। रास्ते में जब सूरज ऊगा तब वह इतना ही कहता है मेहमान कि कितनी अच्छी सुबह है! तब लाओत्से बहुत गुस्से से उस अपने मित्र की तरफ देखता है जो इस मेहमान को ले आया है। वह मित्र भी घबड़ा जाता है, वह मेहमान तो और भी घबड़ा जाता है कि ऐसी भी कोई मैंने बुरी बात भी नहीं कह दी। और घंटा भर हो गया चुप रहते, सिर्फ इतना ही कहा है कि कितनी अच्छी सुबह है।
फिर वे लौट आते हैं, घंटा और बीत जाता है, दरवाजे पर लाओत्से उस मित्र से कहता है, इस आदमी को दुबारा मत लाना। यह बहुत बकवासी मालूम होता है। वह मेहमान कहता है कि मैंने कोई बकवास नहीं की, दो घंटे में सिर्फ इतना कहा कि कितनी अच्छी सुबह है। लाओत्से कहता है, वह हमको भी दिखाई पड़ रही थी। वह निपट बकवास थी। सुबह हमको भी दिखाई पड़ रही थी। जो बात सभी को दिखाई पड़ रही थी, उसको कहने की क्या जरूरत है! और जो बात नहीं कहनी, तुम वह कह सकते हो, तुम आदमी ठीक नहीं हो। तुम कल से मत आना।
अब यह बात जरा सोचने जैसी है। असल में, जब आप सुबह देखकर कहते हैं कि कितनी अच्छी सुबह है, तब सच में आपको सुबह से कोई मतलब नहीं होता। आप सिर्फ एक चर्चा शुरू करना चाहते हैं। सुबह तो हम सबको दिखाई पड़ रही है। सुबह सुंदर है तो चुप रहिए। नहीं, सिर्फ आदमी खूंटी खोजता है। तो वह जो पूरा कासिकेंस है, लाओत्से पूरा पकड़ लेता है। वह कहता है, यह आदमी बकवासी है। इसने शुरुआत की थी, वह तो हम जरा ठीक आदमी नहीं थे, नहीं तो यह शुरू हो गया था। इसने ट्रेन तो चला दी थी। वह तो दो आदमियों ने सहयोग नहीं दिया इसलिए यह बेचारा चुप रह गया। इसने शुरुआत तो कर दी थी, इसने खूंटी गाड़ दी थी, अभी यह और सामान भी गाड़ता उसके ऊपर। यह आदमी बकवासी है।
अब यह इतनी सी बात कि सुबह सुंदर है, एक बकवासी आदमी के चित्त की सबूत हो सकती है। इससे ज्यादा उसने कुछ कहा ही नहीं। हमको भी लगता है कि लाओत्से ज्यादती कर रहा है। लेकिन मुझे नहीं लगता। वह ठीक ही कह रहा है। वह आदमी पकड़ लिया उसने। क्योंकि ताओ जो है उसकी अपनी बुद्धिमत्ता है, वह दर्पण की तरह है। वह चीजें जैसी हैं वैसी दिख जाती हैं। उसने पकड़ ली इस आदमी की तरकीब कि यह आदमी घंटे भर से बेचैन था, इसने कई तरकीबें लगाई होंगी, लेकिन दो आदमी बिलकुल चुप थे, वे कुछ बोल ही नहीं रहे थे! इसने कहा, क्या करें, क्या न करें! इसने कहा सुबह हो गई, अब इसने कहा कि सुबह बहुत सुंदर है। अब इसने चाहा था कि इनमें से कोई कुछ तो कहेगा कि ही, सुंदर है। अब इसमें तो कोई इनकार नहीं करेगा। तो बात शुरू हो जाएगी। फिर जो बात शुरू हो जाती है उसका कोई अंत नहीं है। तो लाओत्से ने कहा, यह है बकवासी, इसको तुम कल से लाना ही मत। इसने बीज तो बो दिया था, फसल तो हमने बचाई।
तो ताओ का एक अपना दर्पण है। जिसमें चीजें कैसी दिखाई पड़ेगी, यह सीधी चीजों को देखकर हम नहीं जानते। और चूंकि उसके पास अपना कोई बंधा हुआ उत्तर नहीं है, इसलिए बड़ी मुक्ति है। चूंकि कोई रेडीमेड बात नहीं है, इसलिए चीजें सरल और सीधी हैं और जाल कुछ भी नहीं है। लेकिन यह स्थिति पर खड़े होने की सारी बात है।
लाओत्से मेरे निकटतम है:
तो जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं उसे ताओ कहें तो कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, ताओ से मेरे बड़े निकट लेन—देन हैं। और अगर किसी भी व्यक्ति के निकट मैं मालूम अपने को करता हूं तो वह लाओत्से के। वह शुद्धतम! उसने कभी जिंदगी में किताब नहीं लिखी। कितने लोगों ने कहा कि लिखें, लिखें, लिखें। फिर आखिरी उम्र में वह देश छोड्कर जा रहा है। और तब उसे चौकी पर, चुंगी चौकी पर पकड़वा लिया है राजा ने। और उसने कहा कि कर्ज चुका जाओ, ऐसे न जाने दूंगा। उसने कहा कि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। चुंगी देने के लिए तो मेरे पास कुछ है ही नहीं। टैक्स मैं किस बात का दूं! तो वह जो टैक्स कलेक्टर है, उसने कहा कि तुम्हारे सिर में जो है वह हम जाने न देंगे। उसे लिख जाओ। तुम भागे जा रहे हो, तुम्हारे पास बहुत संपदा है। तो उसने एक छोटी सी किताब लिखी है। यह ताओ तेह किंग। और यह भी अदभुत किताब है। क्योंकि कम ही ऐसे लोग हैं जो लिखते वक्त यह कहें कि जो मैं कहने जा रहा हूं वह कहा न जा सकेगा; और जो मैं कहूंगा वह सत्य हो ही नहीं सकता, क्योंकि कहते ही असत्य हो जाता है। सत्य न कहा जा सकेगा और जो मैं कहूंगा वह असत्य हो जाएगा, क्योंकि कहते ही चीजें असत्य हो जाती हैं।
तो इस आदमी के पास कुछ है, और इस आदमी ने कुछ जाना है, और यह आदमी कहीं पहुंचा है।
ध्यान + ताओ = झेन:
झेन की जो पैदाइश है, झेन जो है, वह ताओ और बुद्ध, लाओत्से और बुद्ध दोनों की क्रासब्रीड है, झेन जो है। इसलिए झेन का कोई मुकाबला नहीं है। झेन अकेला बुद्धिज्य नहीं है। हिंदुस्तान से बौद्ध भिक्षु लेकर गए ध्यान की प्रक्रिया को। लेकिन हिंदुस्तान के पास ताओ की पूरी दृष्टि न थी, पूरा फैलाव न था। ध्यान की प्रक्रिया थी, जो स्वभाव में घिर कर देती है। लेकिन स्वभाव में थिर होने की पूरी की पूरी व्यापक कल्पना हिंदुस्तान के पास नहीं थी। वह लाओत्से के पास थी। और जब हिंदुस्तान से बौद्ध भिक्षु ध्यान को लेकर चीन गए, और वहां जाकर ताओ की पूरी फिलॉसफी और पूरी दृष्टि उनके खयाल में आई, तो ध्यान और ताओ एक हो गए। इनसे जो पैदाइश हुई वह झेन है। इसलिए झेन न तो बुद्ध है, न झेन लाओत्से है। झेन बहुत ही अलग बात है। और इसलिए आज झेन की जो खूबी है जगत में वह किसी और बात की नहीं है। उसका कारण है कि दुनिया की दो अदभुत कीमती बातें—बुद्ध और लाओत्से—दोनों से पैदा हुई बात है। इतनी बड़ी दो हस्तियों के मिलन से कोई दूसरी बात पैदा नहीं हुई। तो उसमें ताओ का पूरा फैलाव है और ध्यान की पूरी गहराई है।
कठिन तो है जैसा आप कहते हैं, और सरल भी है। कठिन इसीलिए है कि हमारे सोचने के जो ढांचे हैं उनसे बिलकुल प्रतिकूल है। और सरल इसीलिए है कि स्वभाव सरल ही हो सकता है। उसमें कुछ कठिन होने की बात नहीं है।
तीव्र श्वास और कुंडलिनी का संबंध:
प्रश्न : ओशो तीव्र श्वास—प्रश्वास लेना और ' मैं कौन हूं ' पूछना इसका कुंडलिनी जागरण और चक्र— भेदन की प्रक्रिया से किस प्रकार का संबंध है?
संबंध है और बहुत गहरा संबंध है। असल में, श्वास से ही हमारी आत्मा और शरीर का जोड़ है, श्वास सेतु है। इसलिए श्वास गई कि प्राण गए। मस्तिष्क चला जाए तो चलेगा, आंखें चली जाएं तो चलेगा, हाथ—पैर कट जाएं तो चलेगा। श्वास कट गई कि गए; श्वास से जोड़ है हमारी आत्मा और शरीर का। और आत्मा और शरीर के मिलन का जो बिंदु है, वहीं कुंडलिनी है—उसी बिंदु पर! वहीं वह शक्ति है जिसको कुंडलिनी कहते हैं। नाम कुछ भी दिया जा सकता है। वह ऊर्जा वहीं है।
कुंडलिनी ऊर्जा के दो रूप:
और इसलिए उस ऊर्जा के दो रूप हैं। अगर वह कुंडलिनी की ऊर्जा शरीर की तरफ बहे, तो काम—शक्ति बन जाती है, सेक्स बन जाती है, और अगर वह ऊर्जा आत्मा की तरफ बहे, तो वह कुंडलिनी बन जाती है, या कोई और नाम दें। शरीर की तरफ बहने से वह अधोगामी हो जाती है और आत्मा की तरफ बहने से ऊर्ध्वगामी हो जाती है। पर जिस जगह वह है, उस जगह पर चोट श्वास से पड़ती है।
इसलिए तुम हैरान होओगे संभोग करते समय शांत श्वास को नहीं रखा जा सकता, संभोग करते वक्त श्वास की गति में तत्काल अंतर पड़ जाएगा। इसलिए कामातुर होते ही चित्त श्वास को तेज कर लेगा, क्योंकि उस बिंदु पर चोट श्वास करेगी तभी वहां से काम—शक्ति बहनी शुरू होगी। श्वास की चोट के बिना संभोग भी असंभव है और श्वास की चोट के बिना समाधि भी असंभव है। समाधि उसके ऊर्ध्वगामी बिंदु का नाम है और संभोग उसके अधोगामी बिंदु का नाम है। पर श्वास की चोट तो दोनों पर पडेगी।
श्वास और वासना का घनिष्ठ संबंध:
तो अगर चित्त काम से भरा हो, तब श्वास को धीमा करना, श्वास को शिथिल करना। जब चित्त में कामवासना घेरे, या क्रोध घेरे, या और कोई वासना घेरे, तो श्वास को शिथिल करना और कम करना और धीमी लेना। तो काम और क्रोध दोनों विदा हो जाएंगे, टिक नहीं सकते; क्योंकि जो ऊर्जा उनको चाहिए वह श्वास की बिना चोट पड़े नहीं मिल सकती।
इसलिए कोई आदमी क्रोध नहीं कर सकता, श्वास को धीमे लेकर। और करे तो वह चमत्कार है। करे तो बिलकुल चमत्कार है, साधारण घटना नहीं है। हो नहीं सकता, श्वास धीमी हुई कि क्रोध गया। कामोत्तेजित भी नहीं हो सकता श्वास को शांत रखकर, क्योंकि श्वास शांत हुई कि कामोत्तेजना गई।
तो जब कामोत्तेजित हो मन, क्रोध से भरे मन, तब श्वास को धीमी रखना, और जब ध्यान की अभीप्सा से भरे मन, तो श्वास की तीव्र चोट करना। क्योंकि जब ध्यान की अभीप्सा भीतर हो और श्वास की चोट पड़े, तो जो ऊर्जा है वह ध्यान की यात्रा पर निकलनी शुरू हो जाती है।
तीव्र श्वास की चोट से शक्ति जागरण:
तो कुंडलिनी पर गहरी श्वास का बहुत परिणाम है। प्राणायाम अकारण ही नहीं खोज लिया गया था। वह बहुत लंबे प्रयोग और अनुभवों से शात होना शुरू हुआ कि श्वास की चोट से बहुत कुछ किया जा सकता है; श्वास का आघात बहुत कुछ कर सकता है। और यह आघात जितना तीव्र हो, उतनी त्वरित गति होगी। और हम सब साधारणजनों में, जिनकी कुंडलिनी जन्मों—जन्मों से सोई है, उसको बड़े तीव्र आघात की जरूरत है; घने आघात की जरूरत है; सारी शक्ति इकट्ठी करके आघात करने की जरूरत है।
तो श्वास से तो कुंडलिनी पर चोट पड़नी शुरू होती है, मूल केंद्र पर चोट पड़नी शुरू होती है। और जैसे—जैसे तुम्हें अनुभव होना शुरू होगा, तुम बिलकुल आख बंद करके देख पाओगे कि श्वास की चोट कहां पड़ रही है। इसलिए अक्सर ऐसा हो जाएगा कि जब श्वास की तेज चोट पड़ेगी तो बहुत बार कामोत्तेजना भी हो सकती है। वह इसलिए हो सकती है कि तुम्हारे शरीर का एक ही अनुभव है, श्वास तेज पड़ने का और उस ऊर्जा पर चोट पड़ने का एक ही अनुभव है— सेक्स का। तो जो अनुभव है उस लीक पर शरीर फौरन काम करना शुरू कर देता है। इसलिए बहुत साधकों को, साधिकाओं को एकदम तत्काल यौन केंद्र पर चोट पड़नी शुरू हो जाती है।
गुरजिएफ के पास अनेक लोगों को ऐसा खयाल हुआ— और होना बिलकुल स्वाभाविक है— अनेक स्त्रियों को ऐसा खयाल हुआ कि उसके पास जाते ही से उनके यौन केंद्र पर चोट होती है। अब यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसकी वजह से गुरजिएफ को बहुत बदनामी मिली। इसमें उसका कोई कसूर न था। इसमें उसका कोई कसूर न था। असल में, ऐसे व्यक्ति के पास, जिसकी अपनी कुंडलिनी जाग्रत हो, तुम्हारी कुंडलिनी पर चोट होनी शुरू होती है, उसकी चारों तरफ की तरंगों से। लेकिन तुम्हारी कुंडलिनी तो अभी बिलकुल सेक्स सेंटर के पास सोई हुई होती है, इसलिए चोट वहीं पड़ती है, पहली चोट वहीं पडती है।
जागी हुई कुंडलिनी से चक्र सक्रिय:
श्वास तो गहरा परिणाम लानेवाली है, कुंडलिनी के लिए।
और सारे चक्र जिन्हें तुम कहते हो, वे सब कुंडलिनी के यात्रा—पथ के स्टेशन समझो; जहां—जहां से कुंडलिनी होकर गुजरेगी, वे स्थान। ऐसे तो बहुत स्थान हैं, इसलिए कोई कितने ही चक्र गिन सकता है, लेकिन बहुत मोटे विभाजन करें तो जहां कुंडलिनी थोड़ी देर ठहरेगी, विश्राम करेगी, वे स्थान हैं।
तो सब चक्रों पर परिणाम होगा। और जिस व्यक्ति का जो चक्र सर्वाधिक सक्रिय है, उस पर सबसे पहले परिणाम होगा। जैसे कि अगर कोई व्यक्ति मस्तिष्क से ही दिन—रात काम करता है, तो तेज श्वास के बाद उसका सिर एकदम भारी हो जाएगा। क्योंकि उसका जो मस्तिष्क का चक्र है, वह सक्रिय चक्र है। श्वास का पहला आघात सक्रिय चक्र पर पड़ेगा। उसका सिर एकदम भारी हो जाएगा। कामुक व्यक्ति है तो उसकी कामोत्तेजना बढ़ जाएगी; बहुत प्रेमी व्यक्ति है तो उसका प्रेम बढ़ जाएगा; भावुक व्यक्ति है तो भावना बढ़ जाएगी। उसका जो अपने व्यक्तित्व का केंद्र बहुत सक्रिय है, पहले उस पर चोट होनी शुरू हो जाएगी।
लेकिन तत्काल दूसरे केंद्रों पर भी चोट शुरू होगी। और इसलिए व्यक्तित्व में रूपांतरण भी तत्काल अनुभव होना शुरू हो जाएगा कि मैं बदल रहा हूं यह मैं वही आदमी नहीं हूं जो कल तक था। क्योंकि हमें आदमी का पता ही नहीं है कि हम कितने हैं; हमें तो पता है उसी चक्र का जिस पर हम जीते हैं। जब दूसरा चक्र हमारे भीतर खुलता है तो हमें लगता है कि हमारा व्यक्तित्व गया, यह तो हम दूसरे आदमी हुए; यह हम अब वह आदमी नहीं हैं जो कल तक थे। यह ऐसे ही है, जैसे कि इस मकान में हमें इसी कमरे का पता हो, यही कमरे का नक्शा हो हमारे दिमाग में। अचानक एक दरवाजा खुले और एक और कमरा हमें दिखाई पड़े, तो हमारा पूरा नक्शा बदलेगा। अब जिसको हमने अपना मकान समझा था, अब वह दूसरा हो गया। अब एक नई व्यवस्था उसमें हमें देनी पडे।
सक्रिय केंद्रों से नये व्यक्तित्व का आविर्भाव:
तो तुम्हारे जिन—जिन केंद्रों पर चोट होगी, वहां—वहां से व्यक्तित्व का नया आविर्भाव होगा। और जब सारे केंद्र सक्रिय होते हैं एक साथ, उसका मतलब है कि जब सबके भीतर से ऊर्जा एक सी प्रवाहित होती है, तब पहली दफे तुम अपने पूरे व्यक्तित्व में जीते हो। हममें से कोई भी अपने पूर व्यक्तित्व में साधारणत: नहीं जीता। और हमारे ऊपर के केंद्र तो अछूते रह जाते हैं। तो श्वास से इन केंद्रों पर भी चोट पड़ेगी।
और ' मैं कौन हूं' का जो प्रश्न है, वह भी चोट करनेवाला है, वह दूसरी दिशा से चोट करनेवाला है। इसे थोड़ा समझो। श्वास से तो खयाल में आया। अब ' मैं कौन हूं ', इससे कुंडलिनी पर कैसे चोट होगी?
यह कभी हमारे खयाल में नहीं है। तुम आख बंद कर लो, और एक नग्न स्त्री का चित्र सोचो। तुम्हारा सेक्स सेंटर फौरन सक्रिय हो जाएगा। क्यों? तुम सिर्फ एक कल्पना कर रहे हो, तुम्हारा सेक्स सेंटर क्यों सक्रिय हो गया?
असल में, प्रत्येक सेंटर की अपनी कल्पना है। समझे न? प्रत्येक सेंटर की अपनी इमेजिनेशन है। और अगर उसकी इमेजिनेशन के करीब तुमने इमेजिनेशन करनी शुरू की तो वह सेंटर तत्काल सक्रिय हो जाएगा। इसलिए कामवासना का विचार करते ही तुम्हारा सेक्स सेंटर वर्क करना शुरू कर देगा।
और तुम हैरान होओगे नग्न स्त्री हो सकता है इतनी प्रभावी न हो, जितना नग्न स्त्री का विचार प्रभावी होगा। उसका कारण है कि नग्न स्त्री का विचार तो तुम्हें कल्पना में ले जाएगा और कल्पना चोट करेगी। और नग्न स्त्री तुम्हें कल्पना में नहीं ले जाएगी, वह तो प्रत्यक्ष खड़ी है। इसलिए प्रत्यक्ष जितनी चोट कर सकती है, करेगी। कल्पना भीतर से चोट करती है तुम्हारे सेंटर पर, प्रत्यक्ष स्त्री सामने से चोट करती है। सामने की चोट उतनी गहरी नहीं है, जितनी भीतर की चोट गहरी है।
इसलिए बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि स्त्री के सामने तो इंपोटेंट सिद्ध होंगे, लेकिन कल्पना में बहुत पोर्टेट हैं वे। कल्पना में उनकी पोटेंसी का कोई हिसाब नहीं है। क्योंकि कल्पना की जो चोट है वह तुम्हारे भीतर से जाकर सेंटर को छूती है। प्रत्यक्ष की जो चोट है वह भीतर से जाकर नहीं छूती, बाहर से तुम्हें सीधा छूती है। और मनुष्य चूकि मन में जीता है, इसलिए मन से ही गहरी चोटें कर पाता है।
'मैं कौन हूं?' एक अस्तित्वगत सवाल:
तो जब तुम पूछते हो ' मैं कौन हूं?' तो तुम एक जिज्ञासा कर रहे हो, एक जानने की कल्पना कर रहे हो; एक प्रश्न उठा रहे हो। यह प्रश्न तुम्हारे किस सेंटर को छुएगा? यह प्रश्न तुम्हारे किसी सेंटर को छुएगा। जब तुम यह प्रश्न पूछते हो, जब तुम इसकी जिज्ञासा करते हो, इसकी अभीप्सा से भरते हो, और तुम्हारा रोआं—रोआं पूछने लगता है ' मैं कौन हूं?' तब तुम भीतर जा रहे हो, और भीतर किसी केंद्र पर चोट होनी शुरू होगी। ' मैं कौन हूं', ऐसा प्रश्न जो पूछा ही नहीं तुमने कभी। इसलिए तुम्हारे किसी ज्ञात सक्रिय केंद्र पर उसकी चोट नहीं होनेवाली है। समझे न? तुमने कभी पूछा ही नहीं है उसे, उसकी अभीप्सा ही कभी तुमने नहीं की। तुमने अक्सर पूछा है वह कौन है? यह कौन है? तुमने ये सारे प्रश्न पूछे हैं। लेकिन ' मैं कौन हूं', यह अनपूछा प्रश्न है। यह तुम्हारे बिलकुल अज्ञात केंद्र को चोट करेगा, जिस पर तुमने कभी चोट नहीं की है। और वह अज्ञात केंद्र, जहां ' मैं कौन हूं', चोट करेगा, बहुत बेसिक है, क्योंकि यह प्रश्न बहुत बेसिक है, बहुत आधारभूत प्रश्न है कि ' मैं कौन हूं?' बहुत एक्सिस्टेंशियल है यह सवाल। यह पूरे अस्तित्व की गहराई का सवाल है कि मैं हूं कौन?
यह मुझे वहां ले जाएगा जहां मैं जन्मों के पहले था; यह मुझे वहां ले जाएगा जहां जन्मों—जन्मों के पहले था। यह मुझे वहां ले जा सकता है जहां कि मैं आदि में था। इस प्रश्न की गहराई का कोई हिसाब नहीं है। इसकी यात्रा बहुत गहरी है। इसलिए तुम्हारा जो मूल, गहरे से गहरा केंद्र है कुंडलिनी का, वहा इसकी तत्काल चोट होनी शुरू होगी।
चोट करने के विभिन्न उपाय:
श्वास फिजियोलाजिकल चोट है, और ' मैं कौन हूं यह मेंटल चोट है। यह तुम्हारी माइंड एनर्जी से चोट पहुंचाना है, और वह तुम्हारी बॉडी एनर्जी से चोट पहुंचाना है। और अगर ये दोनों चोट पूरे जोर से पड़ जाएं.. तो दो ही रास्ते हैं वहां तक चोट पहुंचाने के तुम्हारे पास सामान्यतया। और तरकीबें भी हैं, लेकिन वे जरा उलझी हुई हैं। दूसरा आदमी तुम्हें सहयोगी हो सकता है। इसलिए तुम अगर मेरे सामने करोगे तो तुम्हें चोट जल्दी पहुंच जाती है, क्योंकि तीसरी दिशा से भी चोट पहुंचनी शुरू होती है, जिसका तुम्हें खयाल नहीं है, वह एस्ट्रल है। यह बॉडिली है, जब तुम श्वास गहरी लेते हो; और जब तुम पूछते हो, ' मैं कौन हूं?' तब यह मेंटल है। और अगर तुम एक ऐसे व्यक्ति के पास बैठे हो, जिससे कि तुम्हारे एस्ट्रल को चोट पहुंच सके, तुम्हारे सूक्ष्म शरीर को चोट पहुंच सके, तो एक तीसरी यात्रा शुरू हो जाती है। इसलिए अगर यहां पचास लोग ध्यान करेंगे तो तीव्रता से होगा बजाय एक के, क्योंकि पचास लोगों की तीव्र आकांक्षाएं और पचास लोगों की तीव्र श्वासों का संवेदन इस कमरे को एस्ट्रल एटमास्फियर से भर देगा; यहां नई तरह की विद्युत किरणें चारों तरफ घूमने लगेंगी। और वे भी तुम्हें चोट पहुंचाने लगेंगी।
पर तुम्हारे पास साधारणत: दो सीधे उपाय हैं शरीर का और मन का। तो ' मैं कौन हूं ' गहरी चोट करेगा, श्वास से भी गहरी करेगा। श्वास से इसलिए हम शुरू करते हैं कि वह शरीर की है; उसे करने में ज्यादा कठिनाई नहीं है। समझे न? 'मैं कौन हूं' थोड़ा कठिन है, क्योंकि मन का है। शरीर से शुरू करते हैं। और जब शरीर पूरी तरह से वाइब्रेट होने लगता है, तब तुम्हारा मन भी इस योग्य हो जाता है कि पूछने लगे। फिर पूछने की एक ठीक सिचुएशन चाहिए।
हर कभी तुम ' मैं कौन हूं, पूछोगे तो नहीं बनेगा काम। सब सवालों के लिए भी ठीक स्थितियां चाहिए, जब वे पूछे जा सकते हैं। जैसे कि जब तुम्हारा पूरा शरीर कंपने लगता है और डोलने लगता है, तब तुम्हें खुद ही सवाल उठता है कि यह हो क्या रहा है? यह मैं कर रहा हूं? यह मैं तो नहीं कर रहा हूं—यह सिर मैं नहीं घुमा रहा हूं; यह पैर मैं नहीं उठा रहा हूं यह नाचना मैं नहीं कर रहा हूं— लेकिन यह हो रहा है। और अगर यह हो रहा है तो तुम्हारी जो आइडेंटिटी है सदा की कि यह शरीर मैं हूं वह ढीली पड़ गई। अब तुम्हारे सामने एक नया सवाल उठ रहा है कि फिर मैं कौन हूं? अगर यह शरीर कर रहा है और मैं नहीं कर रहा, तो अब एक नया सवाल है कि कर कौन रहा है? फिर तुम कौन हो अब?
तो यह ठीक सिचुएशन है जब इस छेद में से तुम्हारा ' मैं कौन हूं' का प्रश्न गहरा उतर सकता है। तो उस ठीक मौके पर उसे पूछना जरूरी है। असल में, हर प्रश्न का भी ठीक वक्त है। और ठीक वक्त खोजना बड़ी कीमती बात है। हर कभी पूछ लेने का सवाल नहीं है उतना बड़ा। तुम अगर अभी बैठकर पूछ लो कि मैं कौन हूं? तो यह हवा में घूम जाएगा, इसकी चोट कहीं नहीं होगी। क्योंकि तुम्हारे भीतर जगह चाहिए न जहां से यह प्रवेश कर जाए! रंध्र चाहिए!
कुंडलिनी जागरण पर अतींद्रिय अनुभव:
इन दोनों की चोट से कुंडलिनी जगेंगी। और उसका जागरण जब होगा तो अनूठे अनुभव शुरू हो जाएंगे। क्योंकि उस कुंडलिनी के साथ तुम्हारे समस्त जन्मों के अनुभव जुड़े हुए हैं— जब तुम वृक्ष थे, तब के भी, और जब तुम मछली थे, तब के भी, और जब तुम पक्षी थे, तब के भी। तुम्हारे अनंत—अनंत योनियों के अनुभव उस पूरे यात्रा—पथ पर पड़े हैं। तुम्हारी उस कुंडल शक्ति ने उन सब को आत्मसात किया है।
इसलिए बहुत तरह की घटनाएं घट सकती हैं। उन अनुभवों के साथ तादात्म्य जुड़ सकता है। और किसी भी तरह की घटना घट सकती है। और इतने सूक्ष्म अनुभव तुममें जुड़े हैं..... .क्योंकि तुम्हें खयाल नहीं है. एक वृक्ष खड़ा हुआ है बाहर। अभी हवा चली जोर से, वर्षा हुई। वृक्ष ने जैसा वर्षा को जाना, वैसा हम कभी न जान सकेंगे। कैसे जान सकेंगे? वृक्ष ने जैसा जाना वर्षा को, वैसा हम कभी न जान सकेंगे! हम वृक्ष के पास भी खड़े हो जाएं तो हम न जान सकेंगे। हम वैसा ही जानेंगे जैसा हम जान सकते हैं। लेकिन कभी तुम वृक्ष भी रहे हो अपनी किसी जीवन—यात्रा में। और अगर कुंडलिनी उस जगह पहुंचेगी, उस अनुभूति के पास जहां वह संगृहीत है वृक्ष की अनुभूति, तो तुम अचानक पाओगे कि वर्षा हो रही है और तुम वह जान रहे हो जो वृक्ष जान रहा है। तब तुम बहुत घबड़ा जाओगे। तब तुम बहुत घबड़ा जाओगे कि यह क्या हो रहा है! तब तुम समझ पाओगे कि जो सागर अनुभव कर रहा है वह तुम अनुभव कर पाओगे, जो हवाएं अनुभव कर रही हैं वह तुम अनुभव कर पाओगे। इसलिए तुम्हारी एस्थेटिक न मालूम कितनी संभावनाएं खुल जाएंगी जो तुम्हें कभी भी नहीं थीं खयाल में।
जैसे कि गोगा का एक चित्र है : एक वृक्ष है और आकाश को छू रहा है! तारे नीचे रह गए हैं और वृक्ष बढ़ता ही चला जा रहा है! चांद नीचे पड़ गया है, सूरज नीचे पड़ गया है, छोटे—छोटे रह गए हैं, और वृक्ष ऊपर चलता जा रहा है। तो किसी ने कहा कि तुम पागल हो गए हो! वृक्ष कहीं ऐसे होते हैं? चांद—तारे नीचे पड़ गए हैं और वृक्ष ऊपर चला जा रहा है! तो गोगा ने कहा कि तुमने कभी वृक्ष को जाना ही नहीं, तुमने कभी वृक्ष के भीतर नहीं देखा। मैं उसको भीतर से जानता हूं। नहीं बढ़ पाता चांद—तारों के पार, यह बात दूसरी है, बढ़ना तो चाहता है। नहीं बढ़ पाता, यह बात दूसरी है, अभीप्सा तो यही है। उसने कहा, मैं तो कभी सोच ही नहीं सकता। मजबूरी है, नहीं बहू पाता, लेकिन भीतर प्राण तो सब चांद—तारे पार करते चले जाते हैं।
तो गोगा कहता था कि वृक्ष जो है वह पृथ्वी की आकांक्षा है आकाश को छूने की; पृथ्वी की डिजायर है, पृथ्वी अपने हाथ—पैर बढ़ा रही है आकाश को छूने के लिए। पर वैसा जब देख पाएंगे। मगर वह वृक्ष.. .फिर भी वृक्ष जैसा देखेगा, वैसा फिर भी हम नहीं देख पाएंगे।
पर ये सब हम रहे हैं, इसलिए कुछ भी होगा। और जो हम हो सकते हैं, उसकी भी संभावनाएं अनुभव में आनी शुरू हो जाएंगी। जो हम रहे हैं, वह तो अनुभव में आएगा; जो हम हो सकते हैं कल, उसकी संभावनाएं भी आनी शुरू हो जाएंगी।
और तब कुंडलिनी के यात्रा—पथ पर प्रवेश करने के बाद हमारी कहानी व्यक्ति की कहानी नहीं है, समस्त चेतना की कहानी हो जाती है। अरविंद इसी भाषा में बोलते थे, इसलिए बहुत साफ नहीं हो पाया मामला। तब फिर एक व्यक्ति की कहानी नहीं है वह, तब फिर कांशसनेस की कहानी है। तब तुम अकेले नहीं हो। तुममें अनंत हैं भीतर जो बीत गए, और तुममें अनंत हैं आगे जो प्रकट होंगे। एक बीज जो खुलता ही जा रहा है और मेनिफेस्ट होता चला जा रहा है, और जिसका कोई अंत नहीं दिखाई पड़ता। और जब इस तरह ओर—छोर हीन तुम अपने विस्तार को देखोगे—पीछे अनंत और आगे अनंत—तब स्थिति और हो जाएगी; तब सब बदल जाता है। और वे सब के सब कुंडलिनी पर छिपे हैं।
बहुत से रंग खुल जाएंगे जो तुमने कभी नहीं देखे। असल में, इतने रंग बाहर नहीं हैं जितने रंग तुम्हारे भीतर तुम्हें अनुभव में आ सकते हैं। क्योंकि वे रंग तुमने कभी जाने हैं, और—और तरह से जाने हैं। जब एक चील आकाश के ऊपर मंडराती है तो रंगों को और ढंग से देखती है; हम और ढंग से देखते हैं। अभी तुम जाओगे वृक्षों के पास से तो तुम्हें सिर्फ हरा रंग दिखाई पड़ता है; लेकिन जब एक चित्रकार जाता है तो उसे हजार तरह के हरे रंग दिखाई पड़ते हैं। हरा रंग एक रंग नहीं है, उसमें हजार शेड हैं; और कोई दो शेड एक से नहीं हैं, उनका अपना—अपना व्यक्तित्व है। हमको तो सिर्फ हरा रंग दिखाई पड़ता है। हरा रंग, बात खतम हो गई। एक मोटी धारणा है हमारी, बात खतम हो गई। हरा रंग एक रंग नहीं है, हरा रंग हजार रंग हैं—हर रंग में हजार रंग हैं। और जितनी उसकी बारीक से.. ....जब तुम भीतर प्रवेश करोगे तो वहां तुमने हजारों बारीक अनुभव किए हैं।
सूक्ष्म अनुभवों का लोक:
मनुष्य जो है, इंद्रियों की दृष्टि से बहुत कमजोर प्राणी है, सारे पशु—पक्षी बहुत शक्तिशाली हैं; उनकी अनुभूति और उनके अनुभव की गहराइयां—ऊंचाइयां बहुत हैं। कमी है कि उनको सबको पकड़कर वे चेतन में विचार नहीं कर पाते। लेकिन उनकी अनुभूतियां बहुत गहरी हैं; उनके संवेदन बहुत गहरे हैं।
अब जापान में एक चिड़िया है— आम चिड़िया— जो भूकंप के चौबीस घंटे पहले गांव छोड़ देगी। बस वह चिड़िया नहीं दिखाई पड़ेगी गांव में, समझो कि चौबीस घंटे के भीतर भूकंप आया। अभी हमारे पास जो यंत्र हैं, वे भी छह घंटे के पहले नहीं खबर दे पाते। और फिर भी बहुत सुनिश्चित नहीं है वह खबर। लेकिन उस चिड़िया का मामला तो सुनिश्चित है। और इतनी आम चिड़िया है कि गांव भर को पता चल जाए कि चिड़िया आज दिखाई नहीं पड़ रही, तो चौबीस घंटे के भीतर भूकंप पड़नेवाला है। उसका मतलब है कि भूकंप से पैदा होनेवाले अतिसूक्ष्म वाइब्रेशंस उस चिड़िया को किसी न किसी तल पर अनुभव होते हैं; वह गांव छोड़ देती है।
अब तुम कभी अगर यह चिड़िया रहे हो, तो तुम्हारी कुंडलिनी के यात्रा—पथ पर तुम्हें ऐसे वाइब्रेशंस होने लगेंगे जो तुम्हें कभी नहीं हुए। मगर तुम्हें कभी हुए हैं, तुम्हें पता नहीं, खयाल में नहीं। तभी हो सकते हैं।
तुम्हें ऐसे रंग दिखाई पड़ने लगेंगे जो तुमने कभी नहीं देखे हैं; तुम्हें ऐसी ध्वनियां सुनाई पड़ने लगेंगी, जिसको कबीर कहते हैं नाद। कबीर कहते हैं, अमृत बरस रहा है, साधुओं, नाचो! तो वे साधु पूछते हैं, कहां अमृत बरस रहा है? और वह अमृत कहीं बाहर नहीं बरस रहा है। और कबीर कहते हैं, सुना? नाद बज रहे हैं, बड़े नगाड़े बज रहे हैं। पर साधु पूछते हैं, कहां बज रहे हैं? और कबीर कहते हैं, तुम्हें सुनाई नहीं पड़ रहे?
अब वह कबीर को जो सुनाई पड़ रहा है, वे नाद तुम्हें सुनाई पड़ेंगे, ध्वनियां सुनाई पड़ेगी। ऐसे स्वाद आने शुरू होंगे जो तुम्हें कभी कल्पना में नहीं कि ये स्वाद हो सकते हैं।
तो सूक्ष्म अनुभूतियों का बड़ा लोक कुंडलिनी के साथ जुड़ा है, वह सब जग जाएगा, और सब तरफ से तुम पर हमला बोल देगा। और इसलिए अक्सर ऐसी स्थिति में आदमी पागल मालूम पड़ने लगता है। क्योंकि जब हम सब बैठे थे गंभीर तब वह हंसने लगता है, क्योंकि उसे कुछ दिखाई पड़ रहा है जो हमें दिखाई नहीं पड़ रहा; कि जब हम सब हंस रहे थे तब वह रोने लगता है, क्योंकि कुछ उसे हो रहा है जो हमें नहीं हो रहा।
शक्तिपात से ऊर्जा का नियंत्रित अवतरण:
इन सबकी सामान्य मनुष्य के पास चोट करने के दो उपाय हैं, और असामान्य रूप से जिसको शक्तिपात कहें, वह तीसरा उपाय है; वह एस्ट्रल है। उसमें कोई माध्यम चाहिए। उसमें दूसरा व्यक्ति सहयोगी हो, तो तुम्हारे भीतर तीव्रता बढ़ जा सकती है। और उस स्थिति में दूसरा व्यक्ति कुछ करता नहीं, सिर्फ उसकी मौजूदगी काफी है। वह सिर्फ एक मीडियम बन जाता है। अनंत शक्ति चारों तरफ पड़ी हुई है। अब जैसे कि हम घर के ऊपर लोहे की सलाख लगाए हुए हैं कि बिजली गिरे तो घर के नीचे चली जाए। सलाख न हो तब भी बिजली गिर सकती है, तब पूरे घर को तोड़ जाएगी। सलाख से पार हो जाएगी। लेकिन सलाख अभी हमको खयाल में आई है, बिजली बहुत पहले से गिरती रही है; बिजली का शक्तिपात बहुत दिनों से हो रहा है, सलाख हमें अब खयाल आई है।
तो अनंत शक्तियां हैं चारों तरफ मनुष्य के, उनका भी उपयोग किया जा सकता है उसके आध्यात्मिक विकास में। उन सबका उपयोग किया जा सकता है। लेकिन कोई माध्यम हो। तुम खुद भी माध्यम बन सकते हो। लेकिन प्राथमिक रूप से माध्यम बनना खतरनाक हो सकता है। क्योंकि इतना बड़ा शक्तिपात हो सकता है कि तुम उसे न झेल पाओ, बल्कि तुम्हारे कुछ तंतु जाम हो जाएं या टूट ही जाएं। क्योंकि शक्ति का एक वोल्टेज है, और वह तुम्हारे सहने की क्षमता के अनुकूल होना चाहिए। तो दूसरे व्यक्ति के माध्यम से तुम्हारे अनुकूल बनाने की सुविधा हो जाती है कि अगर एक दूसरा व्यक्ति उन शक्तियों का तुम्हारे ऊपर अवतरण कराना चाहता है, तो उस पर अवतरण हो चुका है, तभी। तब वह उतनी धारा में तुम तक पहुंचा सकता है जितनी धारा में तुम्हें जरूरत है।
और इसके लिए कुछ भी नहीं करना होता है; इसके लिए सिर्फ मौजूदगी जरूरी है बस। तब वह एक कैटेलेटिक एजेंट की तरह काम करता है। वह कुछ करता नहीं है। इसलिए कोई अगर कहता हो कि मैं शक्तिपात करता हूं तो वह गलत कहता है, कोई शक्तिपात करता नहीं। लेकिन हां, किसी की मौजूदगी में शक्तिपात हो सकता है।
शक्ति जागरण और शक्तिपात में अंतर:
और इधर मैं सोचता हूं जरा इधर साधक थोड़ी गहराई लें, तो वह यहां होने लगेगा बड़े जोर से। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। किसी को करने की कोई जरूरत नहीं है, वह होने लगेगा। बस तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारे भीतर कुछ और तरह की शक्ति प्रवेश कर गई है जो कहीं बाहर से आ गई है, जिसका कि तुम.. .तुम्हारे भीतर से नहीं आई।
तुम्हें कुंडलिनी का जब भी अनुभव होगा, तो तुम्हारे भीतर से उठता हुआ मालूम होगा; और जब तुम्हें शक्तिपात का अनुभव होगा, तो तुम्हारे बाहर से, ऊपर से आता हुआ मालूम होगा। यह इतना ही साफ होगा, जैसा कि ऊपर से आपके पानी गिरे और नीचे से पानी बढ़े—नदी में खड़े हैं और पानी बढ़ता जा रहा है, और नीचे से पानी ऊपर की तरफ आता जा रहा है, और आप डूब रहे हो।
तो कुंडलिनी का अनुभव सदा डूबने का होगा—नीचे से कुछ बढ़ रहा है और तुम उसमें डूबे जा रहे हो, कुछ तुम्हें घेरे ले रहा है। लेकिन शक्तिपात का जब भी तुम्हें अनुभव होगा तो वर्षा का होगा। वह जो कबीर कह रहे हैं कि अमृत बरस रहा है, साधुओ! पर वे साधु पूछते हैं, कहां बरस रहा है? वह ऊपर से गिरने का होगा। और तुम उसमें भीगे जा रहे हो। और ये दोनों अगर एक साथ हो सकें तो गति बहुत तीव्र हो जाती है— ऊपर से वर्षा हो रही है और नीचे से नदी बढ़ी जा रही है। इधर नदी का पूर आता है, इधर वर्षा बढ़ती जा रही है— और दोनों तरफ से तुम डूबे जा रहे हो और मिटे जा रहे हो। यह दोनों तरफ से हो सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है।
शक्तिपात निजी संपदा नहीं है:
प्रश्न: ओशो शक्तिपात का प्रभाव अल्पकालीन होता है या दीर्घकालीन होता है? वह अंतिम यात्रा तक ले जाता है या अनेक बार शक्तिपात की आवश्यकता होती है?
असल बात यह है कि दीर्घकालीन तो तुम्हारे भीतर जो उठ रहा है उसका ही होगा; शक्तिपात जो है, वह सिर्फ सहयोगी हो सकता है, मूल नहीं बन सकता कभी भी। मूल नहीं बन सकता। तुम्हारे भीतर जो रहा है वही मूल बनेगा। संपत्ति तो तुम्हारी वही है। असली संपत्ति तुम्हारी वही है। शक्तिपात से तुम्हारी संपत्ति नहीं बढ़ेगी, शक्तिपात से तुम्हारी संपत्ति के बढ़ने की क्षमता बढ़ेगी। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। शक्तिपात से तुम्हारी संपदा नहीं बढ़ेगी, लेकिन तुम्हारी संपदा के बढ़ने की जो गति है, तुम्हारी संपदा के फैलाव की जो गति है, वह तीव्र हो जाएगी।
इसलिए शक्तिपात तुम्हारी संपदा नहीं है। यानी ऐसे ही जैसे तुम दौड़ रहे हो, और मैं एक बंदूक लेकर तुम्हारे पीछे लग गया। बंदूक लेकर लगने से मेरी बंदूक तुम्हारे दौड़ने की संपत्ति नहीं बननेवाली, लेकिन मेरी बंदूक की वजह से तुम तेजी से दौड़ोगे। दौड़ोगे तुम ही, शक्ति तुम्हारी ही लगेगी, लेकिन जो नहीं लग रही थी तुम्हारे भीतर वह भी अब लग जाएगी। बंदूक का इसमें कोई भी हाथ नहीं है। बंदूक में से इंच भर शक्ति नहीं खोएगी इसमें। बंदूक की नाप—तौल पीछे करोगे तो वह उतनी की उतनी ही रहेगी। उसमें से कुछ जाने— आनेवाला नहीं है। लेकिन तुम उस बंदूक के प्रभाव में तीव्र हो जाओगे, जहां चल रहे थे धीमे, वहां दौडने लगोगे।
शक्तिपात से अंतर्यात्रा में प्रोत्साहन:
तो शक्तिपात से तुम्हारी संपत्ति नहीं बढ़ती, लेकिन तुम्हारी संपत्ति की बढ़ने की क्षमता एकदम गतिमान हो जाती है। क्योंकि एक दफा तुम्हें.. .एक दफा तुम्हें अनुभव हो जाए, बिजली चमक जाए एक.. .बिजली चमकने से तुम्हें कोई रास्ता प्रकाशित नहीं हो जाता; हाथ में दीया नहीं बन जाता है बिजली का चमकना, सिर्फ एक झलक। लेकिन झलक बड़ी कीमत की हो जाती है—तुम्हारे पैर मजबूत हो जाते हैं, इच्छा प्रबल हो जाती है, पहुंचने की कामना तय हो जाती है, रास्ता दिखाई पड़ जाता हैं—रास्ता है, तुम यूं ही अंधेरे में नहीं भटक रहे हो। यह सब साफ एक बिजली की झलक में तुम्हें रास्ता दिख जाता है, दूर तुम्हें मंदिर दिख जाता है तुम्हारी मंजिल का।
फिर बिजली खो गई, फिर घुप्प अंधेरा हो गया, लेकिन अब तुम दूसरे आदमी हो। वहीं खड़े हो जहां थे, लेकिन दौड़ तुम्हारी बढ़ जाएगी। मंजिल पास है, रास्ता साफ है—न भी दिखाई पड़ता हो अंधेरे में, तो भी है। अब तुम आश्वस्त हो। तुम्हारा आश्वासन बढ़ जाता है। और तुम्हारे आश्वासन का बढ़ना तुम्हारे संकल्प को बढ़ा देता है।
तो इनडायरेक्ट परिणाम हैं। और इसलिए बार—बार जरूरत पड़ती है, एक बार से हल नहीं होता। बिजली दुबारा चमक जाए तो और फायदा होगा, तिबारा चमक जाए तो और फायदा होगा। पहली बार कुछ चूक गया होगा, न दिखाई पड़ा होगा, दूसरी बार दिख जाए, तीसरी बार दिख जाए! और इतना तो है कि आश्वासन गहरा होता जाएगा।
तो शक्तिपात से अंतिम परिणाम हल नहीं होता, अंतिम परिणाम तक तुम्हें पहुंचना है। और शक्तिपात के बिना भी पहुंच सकोगे। थोड़ी देर—अबेर होगी, इससे ज्यादा कुछ होना नहीं है। थोड़ी देर—अबेर होगी, अंधेरे में आश्वासन कम होगा, चलने में ज्यादा हिम्मत जुटानी पड़ेगी, ज्यादा बल लगाना पड़ेगा— भय पकड़ेगा, संकल्प—विकल्प पकड़ेंगे; पता नहीं, रास्ता है या नहीं— यह सब होगा, लेकिन फिर भी पहुंच जाओगे।
लेकिन शक्तिपात सहयोगी बन सकता है।
सामूहिक शक्तिपात भी संभव:
तो इधर मैं चाहता ही हूं तुम्हारी जरा गति बढ़े, तो एकाध—दो पर क्या, इकट्ठा, सामूहिक! एक—दो पर क्या करने का काम करना, इकट्ठा दस हजार लोगों को खड़ा करके शक्तिपात हो, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। क्योंकि जितना एक पर होने में वक्त लगता है, उतना ही दस हजार पर। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
शक्तिपात स्थायी नहीं है:
प्रश्न: ओशो यदि संबंध न रहे मीडियम से तो इसका प्रभाव धीरे— धीरे घटते— घटते मिट भी जाता होगा?
कम तो होगा ही। सब प्रभाव क्षीण होनेवाले होते हैं। असल में, प्रभाव का मतलब ही यह है जो बाहर से आया है, वह क्षीण हो जाएगा। जो भीतर से आया, वह क्षीण नहीं होगा; वह तुम्हारा अपना है। प्रभाव तो सब घटनेवाले हैं, वे घट जाते हैं; लेकिन जो तुम्हारे भीतर से आता है वह नहीं घटता। उस प्रभाव में भी जो आ जाता है वह भी नहीं घटता; वह तो बना रह जाता है। तुम्हारी मूल संपत्ति नहीं घटती, प्रभाव तो घट जाता है।
विकास—क्रम में पीछे लौटना असंभव:
प्रश्न: ओशो क्या दूसरों के असर से जो थोड़ा— बहुत ऊपर उठा हो वह नीचे भी गिर सकता है?
नहीं, नीचे की तरफ जाने का उपाय नहीं है। असल में, इस बात को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। यह बड़े मजे की बात है, यह बहुत मजे की बात है कि नीचे की तरफ जाने का उपाय नहीं है। तुम जहां तक गई हो, तुम्हें उससे ऊंचा ले जाने में तो सहायता पहुंचाई जा सकती है; तुम्हें वहीं तक ठहराने में भी बाधा डाली जा सकती है; तुम्हें उससे नीचे नहीं ले जाया जा सकता। उसका कारण है कि उसके ऊंचे जाने में तुम बदल गई हो तत्काल।
(प्रश्न का ध्वनि— मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
न, न, न। कोई सवाल ही नहीं उठता है। एक इंच भी कोई व्यक्तित्व में ऊपर गया, तो पीछे नहीं लौट सकता; पीछे लौटना असंभव है। यह मामला ऐसा ही है कि किसी बच्चे को हम पहली कक्षा से दूसरी में प्रवेश करवा सकते हैं। एक टयूटर रख सकते हैं जो उसको पहली में पढ़ाने में सहायता दे दे और दूसरी में पहुंचा दे। लेकिन ऐसा टयूटर खोजना बहुत मुश्किल है कि उसने पहली में जो पढ़ा है, उसको भुला दे—कि भई अब फिर इसको हमको पहली भुला देना है। और एक बच्चा दूसरी क्लास में जाकर नासमझ लड़कों की सोहबत करे, तो इतना ही हो सकता है कि दूसरी में फेल होता रहे। बाकी पहली में उतार देंगे नासमझ लड़के, ऐसा नहीं है उपाय। मेरा मतलब समझी न तुम? यह हो सकता है कि वह दूसरी ही में रुक जाए, और जनम भर दूसरी में रुका रहे, और तीसरी में न जा सके। लेकिन दूसरी से नीचे उतारने का कोई उपाय नहीं है। वह वहां अटक जाएगा।
तो आध्यात्मिक जीवन में कोई पीछे लौटना नहीं है; सदा आगे जाना है या रुक जाना है। बस रुक जाना ही पीछे लौट जाने का मतलब रखता है। तो रोक तो सकते हैं साथी, हटा नहीं सकते पीछे। हटाने का कोई उपाय नहीं है।
शक्तिपात व प्रसाद में फर्क है:
प्रश्न: ओशो क्या शक्तिपात और ग्रेस में फर्क है?
बहुत फर्क है; बहुत फर्क है। शक्तिपात और प्रसाद में बहुत फर्क है। शक्तिपात जो है वह एक टेक्नीक है, और आयोजित है। उसकी आयोजना करनी पड़ेगी। हर कभी हर कहीं नहीं हो जाएगा। समझे न? साधक इस स्थिति में होना चाहिए कि उस पर हो सके, मीडियम इस स्थिति में होना चाहिए कि वह माध्यम बन सके। जब ये दोनों बातें व्यवस्थित हों, तालमेल खा जाएं, एक क्षण के बिंदु पर दोनों का मेल हो जाए, तो हो जाएगा। यह टेक्नीक की बात है। ग्रेस जो है वह अनकाल्ड फाल है; उसके लिए कभी बुलावा नहीं है, उसके लिए कभी कोई इंतजाम नहीं है। वह कभी होती है।
यानी फर्क उतना ही है जैसा कि हम बटन दबाकर बिजली जलाते हैं और आकाश की बिजली चमकती है, वैसा ही फर्क है। समझे न? यह टेक्नीक है। यह वही बिजली है जो आकाश में चमकती है, लेकिन यह टेक्नीक से बंधी हुई है। हम बटन दबाते हैं, जलती है; बुझाते हैं, बुझती है। आकाश की बिजली हमारे हाथ में नहीं है।
तो ग्रेस जो है वह आकाश की बिजली है, कभी किसी क्षण में चमकती है। और तुम भी अगर उस मौके पर उस हालत में हुए, तो घटना घट जाती है। लेकिन वह शक्तिपात नहीं है फिर। है वही घटना, लेकिन वह ग्रेस है। उसमें मीडियम भी नहीं होता। उसमें कोई मीडिएटर भी नहीं है बीच में; वह सीधी तुम पर होती है। और आकस्मिक है; और सदा सडन है, आयोजना नहीं की जा सकती। शक्तिपात तो आयोजित किया जा सकता है कि कल पांच बजे आ जाओ, इतनी तैयारी करके आना, इतनी व्यवस्था करके आ जाना, हो जाएगा। लेकिन ग्रेस के लिए पांच बजे आकर बैठने से कुछ मतलब नहीं है। हो जाए हो जाए, न हो जाए न हो जाए; उसे कोई हम अपने हाथ में नहीं ले सकते। घटना वही है, लेकिन इतना फर्क है। इतना फर्क है।
अहंशून्य स्थिति में ही शक्तिपात संभव:
प्रश्न : ओशो आपने कहा था कि शक्तिपात ईगोलेस स्थिति में होता है तो आयोजना कैसे हो सकती है?
ईगोलेस स्थिति में आयोजना हो सकती है। ईगो का आयोजना से कोई संबंध नहीं है, उससे कोई संबंध नहीं है।
प्रश्न. ओशो ईगोलेस आयोजना हो सकती है?
हां, बिलकुल हो सकती है, उससे कोई संबंध ही नहीं है। ईगो तो बात ही और है। ईगो तो बात ही और है। जैसे हमने तय किया कि पांच बजे इस—इस तैयारी में बैठेंगे हम सब। इसमें साधक की तरफ ईगोलेस होने का सवाल नहीं है, इसमें सिर्फ मीडियम जो बननेवाला है उसके ईगोलेस होने का सवाल है। और ईगोलेस मामला ऐसा नहीं है कि तुम कभी हो सकते हो और कभी न हो जाओ। हो गए तो हो गए, नहीं हुए तो नहीं हुए—ऐसा मामला नहीं है न! अगर मैं ईगोलेस हूं तो हूं और नहीं हूं तो नहीं हूं। ऐसा नहीं है कि कल सुबह पांच बजे ईगोलेस हो जाऊंगा। मेरी बात समझ रहे हो न तुम? कैसे हो जाऊंगा? कोई उपाय नहीं है। अगर मैं अभी हूं तो पांच बजे भी रहूंगा—चाहे कोई आयोजन करूं और चाहे न करूं; चाहे तुम पांच बजे आओ तो और न आओ तो; मैं जाग तो और सोऊ तो—अगर हूं तो हूं नहीं हूं तो नहीं हूं।
अहंशून्यता क्रमिक नहीं होती:
प्रश्न: ओशो ईगो की जो जनरल भावना है न उससे ऐसा लगता है कि ईगोइस्ट है कि ईगोलेस है। एक क्षण लगता है कि ईगो है: दूसरे क्षण में लगता है कि ईगोलेस है।
हां—हां, ऐसा ही चल रहा है। ऐसा ही चल रहा है। असल में, हमारा तो सारा जो सोचना—विचारना है, वह डिग्रीज का होता है। वह ऐसा होता है : अट्ठानबे डिग्री पर बुखार है तो हम कहते हैं, बिलकुल ठीक है यह आदमी; और निन्यानबे डिग्री पर बुखार होता है तो हम कहते हैं, बुखार है। अट्ठानबे डिग्री भी बुखार है, लेकिन वह नॉर्मल बुखार है। निन्यानबे डिग्री में वह एबनॉर्मल हो जाता है। फिर अट्ठानबे हो जाता है तो हम कहते हैं, बिलकुल ठीक है, नॉर्मल हो गया। अभी भी बुखार है, मतलब उतना बुखार है जितना सबको है। सबसे जरा इधर—उधर होता है तो गड़बड़ हो जाता है। वैसा ही हमारा ईगो को मामला है। वह हमारा बुखार है, उतनी ही डिग्री में जितना हम सबको है, तब तक हम कहते हैं आदमी बिलकुल विनम्र है, अच्छा आदमी है। जरा हमसे डिग्री उसकी निन्यानबे हुई और हमने कहा कि बहुत ईगोइस्ट आदमी मालूम होता है। जरा सत्तानबे हुआ कि हमने कहा कि बिलकुल महात्मा, विनम्र हो गया है। इसके पैर छू लो।
बाकी ईगो और नो—ईगो बिलकुल ही अलग बातें हैं; उनका कोई डिग्री से संबंध नहीं है। बुखार और बुखार का न होना, यह अट्ठानबे और निन्यानबे डिग्री का मामला नहीं है। सिर्फ मरे हुए आदमी को हम कह सकते हैं कि इसको बुखार नहीं है। क्योंकि जब तक भी गर्मी है, बुखार है ही; नॉर्मल और एबनॉर्मल का फर्क है। इसलिए तकलीफ हमें होती है। इसलिए तकलीफ हमें होती है।
और फिर ऐसा है न कि अगर किसी आदमी की ईगो हमारी ईगो को चोट पहुंचाती है तो वह ईगोइस्ट है, अगर किसी की ईगो हमारी ईगो को रस पहुंचाती है तो वह आदमी ईगोलेस है। हम नापे कैसे? पता कैसे चले? एक आदमी मेरे पास आए और वह अकड़ मेरे ऊपर दिखलाए, हम कहते हैं, ईगोइस्ट है। आए और मेरे पैर छुए, हम कहते हैं, बहुत विनम्र है। और क्या, उपाय क्या है जांच का? हमारी ईगो जांच का उपाय है, उससे हम जांचते हैं कि यह आदमी हमारी ईगो को गड़बड़ तो नहीं कर रहा है? गड़बड़ कर रहा है तो ईगोइस्ट है। और अगर फुसला रहा है और कह रहा है, आप बहुत बड़े महात्मा हैं, तो यह आदमी विनम्र है, इसमें अहंकार बिलकुल भी नहीं है। मगर यह सब अहंकार है या नहीं, यह हमारा अहंकार ही इन सबका तौल है। इनके पीछे जो मेजरमेंट है हमारा, वह हमारा अहंकार है।
इसलिए जो नॉन—ईगो की स्थिति है उसको तो हम पहचान ही नहीं पाते। क्योंकि हम उसे कैसे पहचानें? हम डिग्री तक पहचान पाते हैं कि भई कितनी डिग्री है, इतना कहो। वे कहते हैं कि है ही नहीं, तब हमें बहुत कठिनाई हो जाती है। मगर वह जो घटना है शक्तिपात की, वह मीडियम तो ईगोलेस चाहिए ही। ईगोलेस कहना ठीक नहीं है, नो—ईगोवाला मीडियम चाहिए।
अहंशून्य व्यक्ति पर प्रसाद की सतत वर्षा:
और ऐसे आदमी पर चौबीस घंटे ग्रेस बरसती रहती है, यह खयाल में रख लेना। वह तो तुम्हारे लिए आयोजन कर देगा, लेकिन उस पर तो चौबीस घंटा अमृत बरस रहा है। इसीलिए तुम्हारे लिए भी आयोजन कर देगा कि तुम जरा एक क्षण के लिए द्वार खोलकर खड़े रह जाना। उस पर तो बरसता ही है, शायद दो—चार बूंद तुम्हारे द्वार के भीतर भी पड़ जाएं।
प्रश्न : ओशो, यह जो डायरेक्ट ग्रेस मिलता है इसका प्रभाव क्या स्थायी होता है? और क्या उपलब्धि तक ले जाता है?
डायरेक्ट ग्रेस तो मिलता ही उपलब्धि पर है न! इसके पहले तो मिलता नहीं! इसके पहले नहीं मिलता। इसके पहले नहीं मिलता। वह तो जब तुम्हारा अहंकार जाएगा तभी ग्रेस उतर पाएगी। अहंकार ही बाधा है।
प्रश्न: तो उपलब्धि की स्थिति कौन सी है?
जिसके आगे फिर उपलब्ध करने को कुछ शेष न रह जाए।
प्रश्न: ग्रेस अंतिम है?
हां, अंतिम चीज है।
कुंडलिनी है मनोगत ऊर्जा:
प्रश्न: ओशो अच्छा यह कुंडलिनी साधना जो है? वह साइकिक है कि स्प्रिचुअल है?
तुम यह जानते हो कि खाना शारीरिक है, लेकिन न खाने पर आत्मा का बहुत जल्दी विलोप हो जाएगा। यद्यपि खाना शरीर को जाता है, लेकिन शरीर एक स्थिति में हो तो आत्मा उसमें बनी रहती है।
तो कुंडलिनी जो है वह मानसिक है। लेकिन कुंडलिनी एक स्थिति में हो तो आत्मा तक गति होती है, कुंडलिनी एक दूसरी स्थिति में हो तो आत्मा तक गति नहीं होती। तो साइकिक है, लेकिन स्टेप बनती है स्मिचुअल के लिए। स्मिचुअल नहीं है खुद। अगर कोई कहता हो कि कुंडलिनी म्प्रिचुअल है, तो गलत कहता है।
कोई अगर कहे कि खाना स्त्रिचुअल है, तो गलत कहता है। खाना तो फिजिकल ही है। लेकिन फिर भी आधार बनता है आध्यात्मिक के लिए। श्वास भी भौतिक है और विचार भी भौतिक है, सब भौतिक है। इनका जो सूक्ष्मतम रूप है वह साइकिक हम उसे कह रहे हैं। वह भूत का सूक्ष्मतम रूप है। लेकिन ये सब आधार बनते हैं उस अभौतिक में छलांग लगाने के लिए। ये, जिसको कहना चाहिए, जंपिंग बोर्ड्स बनते हैं।
जैसे कोई आदमी नदी में छलांग लगा रहा है, तो किनारे पर एक बोर्ड पर खड़े होकर छलांग लगा रहा है। बोर्ड नदी नहीं है। और कोई तर्क कर सकता है कि क्यों बोर्ड पर खड़े हो? जब बोर्ड तो नदी है ही नहीं, और तुम्हें नदी में छलांग लगानी है, तो बोर्ड पर किसलिए खड़े हो? नदी में छलांग लगानी है तो नदी में खड़े हो जाओ! लेकिन नदी में कहीं कोई खड़ा हुआ है? खड़ा तो बोर्ड पर ही होना पड़ता है, छलांग नदी में लगती है। समझे न? और बोर्ड बिलकुल अलग चीज है, वह नदी नहीं है।
तो तुम्हें जो छलांग लगानी है वह शरीर से लगानी है, मन से लगानी है। लगानी है जिसमें वह आत्मा है। वह तो जब लग जाएगी जब मिलेगी। अभी तो तुम जहां खड़े हो वहीं से तैयारी करनी पड़ेगी। तो शरीर से और मन से ही कूदना पड़ेगा। और इसलिए यहीं काम करना पड़ेगा। हां, जब छलांग लग जाएगी, तब तुम जहां पहुंचोगे, वह होगा स्प्रिचुअल, वह होगा आध्यात्मिक।
प्रश्न: ओशो आपने दो प्रकार की विधि बताई हैं। पहले आप जिस साधना की बातें करते थे उसमें आप साधक को शांत शिथिल मौन सजग और साक्षी होने के लिए कहते थे। अब आप तीव्र श्वास और ' मैं कौन हूं ' पूछने के अंतर्गत साधक को पूरी शक्ति लगाकर प्रयत्न करने के लिए कहते हैं। पहली साधना करनेवाला साधक जब दूसरे ढंग के प्रयोग में जाता है तो थोड़ी देर के बाद उससे प्रयास करना छूट जाता है? कंट्रोल छूट जाता है। तो अच्छी व्यवस्था वह थी कि यह है?
अच्छे और बुरे का सवाल नहीं है यहां।
प्रश्न: ओशो मेरा मतलब कंट्रोल छूट जाता है। तो अच्छी व्यवस्था वह थी कि यह है?
मैं समझ गया, मैं समझ गया। अच्छे—बुरे का सवाल नहीं है। तुम्हें जिससे ज्यादा शांति और गति मिलती हो, उसकी फिकर करो; क्योंकि सबके लिए अलग—अलग होगा। सबके लिए अलग—अलग होगा। कुछ लोग हैं जो दौड़कर गिर जाएं तो ही विश्राम कर सकते हैं। कुछ लोग हैं जो कि अभी विश्राम कर सकते हैं। लेकिन बहुत कम लोग हैं। बहुत कम लोग हैं। एकदम सीधा मौन में जाना, कठिन है मामला, थोड़े से लोगों के लिए संभव है। अधिक लोगों के लिए तो पहले दौड़ जरूरी है, तनाव जरूरी है। मतलब एक ही है अंत में, प्रयोजन एक ही है।
शक्ति साधना से तनाव:
प्रश्न: ओशो आपने यह भी कहा था कि यह अतियों से परिवर्तन की विधि है। तो तनाव की चरम सीमा में ले जाता हूं ताकि विश्राम की चरम सीमा उपलब्ध हो सके। तो क्या कुंडलिनी साधना तनाव की साधना है?
बिलकुल तनाव की साधना है। बिलकुल तनाव की साधना है। असल में, शक्ति की कोई भी साधना तनाव की ही साधना होगी। शक्ति का मतलब ही तनाव है। जहां तनाव है वहीं शक्ति पैदा होती है। जैसे हमने एटम से इतनी बड़ी शक्ति पैदा कर ली, क्योंकि हमने सूक्ष्मतम अणु को भी तनाव में डाल दिया; दो हिस्से तोड़ दिए और दोनों को टेंशन में डाल दिया। तो शक्ति की तो समस्त साधना जो है वह तनाव की है। अगर ठीक से समझो तो तनाव ही शक्ति है; टेंशन जो है वही शक्ति है।
प्रश्न : ओशो साधना की दो पद्धतियां आप कहते हैं: पाजिटिव और निगेटिव तो क्तुंलिनी साधना निगेटिव है कि पाजिटिव?
पाजिटिव है। बिलकुल पाजिटिव है।
प्रश्न: बहुत तनावग्रस्त होते हैं तो जल्दी शांत हो जाता है न।
हां, जल्दी।
प्रश्न: तो मैं जो बोलती थी न आपको कि बिना श्वास—प्रश्वास के भी शांत हो जाती हूं।
नहीं, तू तो डरती है। तू अपनी बात न बता। ये शांत होने से डरती है कि कहीं शांत हो गए तो फिर क्या होगा! यह डर है, इसलिए ये ऐसी तरकीबें निकालती है जिसमें जरा कम ही शांति रहे, ज्यादा शांति न हो जाए। न, तेरा मामला अलग है।
प्रश्न: ओशो बुद्ध ने चक्र और कुंडलिनी की बात क्यों नहीं की?
ये पूछते हैं कि बुद्ध ने चक्र और कुंडलिनी की बात क्यों नहीं की?
असल में, बुद्ध ने जितनी बातें की हैं, वे सब रिकार्डेड नहीं हैं। समझ रहे हो न? बड़ा प्राब्लम जो है वह यह है। और बुद्ध ने जो भी कहा है, उसमें से बहुत सा जानकर रिकार्डेड नहीं है। और बुद्ध ने जो कहा है, उनके मरने के पांच सौ वर्ष बाद रिकार्ड हुआ, उस वक्त तो रिकार्ड नहीं हुआ। पांच सौ वर्ष तक तो जिन भिक्षुओं के पास वह ज्ञान था, उन्होंने उसे रिकार्ड करने से इनकार किया। पांच सौ वर्ष बाद एक ऐसी घड़ी आ गई कि वे भिक्षु लोप होने लगे जिनको बातें पता थीं। और तब एक बड़ा संघ बुलाया गया और उसने यह तय किया कि अब तो यह मुश्किल है, अगर ये दस—पांच भिक्षु हमारे और खो गए, तो वह जान की सारी संपदा खो जाएगी। इसलिए उसे रिकार्ड कर लेना चाहिए। जब तक वह स्मरण रखा जा सकता था तब तक जिद्दपूर्वक उसे नहीं लिखा गया।
ऐसा जीसस के साथ भी हुआ, महावीर के साथ भी हुआ। और जरूरी था। उसके कारण हैं बहुत। क्योंकि ये लोग बोल रहे थे सिर्फ। इस बोलने में बहुत सी बातें थीं, जो बहुत तल के साधकों के लिए कही गई थीं। और पहले तल के साधक के लिए वे सारी बातें जरूरी रूप से सहयोगी नहीं हैं, नुकसान भी पहुंचा दें। अक्सर ऐसा होता है कि जिस सीढ़ी पर हम खड़े नहीं हैं उसकी बातचीत हमें उस सीढ़ी पर भी ठीक से खड़ा नहीं रहने देती जहां हमें खड़े होना है, जहां हम खड़े हैं। आगे की सीढ़ियां अक्सर हमें आगे की सीढ़ियों पर जाने का खयाल दे देती हैं, और हम पहली सीडी पर खड़े ही नहीं हैं।
और भी कठिनाई यह है कि पहली सीडी पर बहुत सी ऐसी बातें हैं जो दूसरी सीढ़ी पर जाकर गलत हो जाती हैं। अगर आपको दूसरी सीढ़ी की बात पहले ही पता चल जाए तो आपको पहली सीढ़ी पर ही वे गलत मालूम होने लगेंगी। तब आप पहली सीढ़ी से कभी पार न हो सकेंगे। पहली सीढ़ी पर तो उनका सही होना जरूरी है, तभी आप पहली सीढी पार कर सकेंगे।
हम छोटे बच्चे को पढ़ाते हैं ग गणेश का। अब इसका कोई मतलब नहीं है। ग गधे का भी होता है। और गधा और गणेश में कोई संबंध नहीं है; कोई भाईचारा नहीं है; कोई जोड़ नहीं है, कुछ भी नहीं है। ग का कोई संबंध ही नहीं है किसी से। लेकिन यह पहली क्लास के लड़के को बताना खतरनाक होगा। जब वह पढ़ रहा है ग गणेश का, तब उससे उसका बाप कहे, नालायक, ग से गणेश का क्या संबंध? कोई संबंध नहीं है। ग तो और हजार चीजों का भी है, गणेश से क्या लेना—देना है? तो यह लड़का ग को ही नहीं पकड़ पाएगा।
अभी इसको ग गणेश का, इतना ही पकड़ लेना उचित है। अभी और हजार चीजें भी ग में सम्मिलित हैं, यह शान रहने ही दो। अभी तो इसको गणेश भी ग में आ जाए तो काफी है। कल और हजार चीजें भी आ जाएंगी। जब हजार आएंगी तब यह खुद भी जान लेगा कि ठीक है, ग की गणेश से कोई अनिवार्यता नहीं थी, वह भी एक संबंध था, और भी बहुत संबंध हैं। और फिर जब यह ग पड़ेगा हमेशा तो ग गणेश का, ऐसा नहीं पड़ेगा; वह गणेश छूट जाएंगे, ग रह जाएगा।
गुह्य साधनों की गोपनीयता:
तो हजार बातें हैं, हजार तल की हैं। और फिर कुछ बातें तो बिलकुल निजी और सीक्रेट हैं। जैसे मैं भी जिस ध्यान की बात कर रहा हूं यह बिलकुल ऐसी बात है जो सग्रिहक की जा सकती है। बहुत बातें हैं जो मैं समूह में नहीं कर सकता हूं नहीं करूंगा। वह तो तभी करूंगा जब मुझे समूह में से कुछ लोग मिल जाएंगे जिनको कि वे बातें कही जा सकती हैं।
तो बुद्ध ने तो कहा है बहुत, वह सब रिकार्डेड नहीं है। मैं भी जो कहूंगा वह सब रिकार्डेड नहीं हो सकता। वह सब रिकार्डेड नहीं हो सकता, क्योंकि मैं वही कहूंगा जो रिकार्ड हो सकता है। सामने तो वही कहूंगा। जो रिकार्ड नहीं हो सकता, वह सामने नहीं कहूंगा; उसे तो स्मृति में ही रखना पड़ेगा।
प्रश्न: ओशो तो क्या कुंडलिनी और चक्रों की बात को रिकार्ड नहीं करना चाहिए? क्या उन्हें गुप्त रखना चाहिए?
नहीं, नहीं, नहीं। न, इसमें और बहुत सी बातें हैं न! जो मैंने कहा है, इसमें तो कोई कठिनाई नहीं है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। पर इसमें और बहुत बातें हैं।
लेकिन कठिनाई यह है न कि बुद्ध और आज में पच्चीस सौ साल का फर्क पड़ा है, मनुष्य की चेतना में बहुत फर्क पड़ा है। जिस चीज को बुद्ध समझते थे कि न बताया जाए; मैं समझता हूं बताया जा सकता है। पच्चीस सौ साल में बहुत बुनियादी फर्क पड़ गए हैं। बुद्ध ने जितनी चीजों को कहा कि नहीं बताया जाए, उनको मैं कहता हूं कि उनमें से बहुत कुछ बताया जा सकता है आज। और जो मैं कहता हूं कि नहीं बताया जाए, पच्चीस सौ साल बाद बताया जा सकेगा। बताया जा सकना चाहिए, विकास अगर होता है तो। समझ रहे हैं न मेरी बात को?
तो बुद्ध भी लौट आएं तो बहुत सी बातें.. .बुद्ध तो बहुत ही समझ का काम किए थे। उन्होंने ग्यारह तो प्रश्न तय कर रखे थे, कोई पूछ न सकेगा। क्योंकि पूछो तो उनको कुछ न कुछ तो उत्तर देना पड़े। गलत दें उत्तर तो उचित नहीं मालूम होता, ठीक उत्तर दें तो देना नहीं चाहिए। तो ग्यारह प्रश्न उन्होंने अव्याख्य करके तय कर रखे थे। वह जाहिर घोषणा थी सारे गांव में कि कोई बुद्ध से ये ग्यारह प्रश्नों में से न पूछे; क्योंकि बुद्ध को अड़चन में नहीं डालना है, क्योंकि वे इनका उत्तर नहीं देंगे। न देने का कारण है : अगर दें तो नुकसान होगा और न दें तो उन्हें ऐसा लगता है कि मैं सत्य को छिपाता हूं। यह पूछना ही मत। इसलिए गांव—गांव में भिक्षु ढिंढोरा पीट देते थे कि बुद्ध आते हैं, ये ग्यारह प्रश्न मत पूछना। उससे उनको बहुत परेशानी होती है। तो वे अव्याख्य मान लिए गए, वे प्रश्न नहीं पूछे जाते थे। वे नहीं पूछे जाते थे।
कभी कोई विरोधी आ जाता और पूछ लेता था, तो बुद्ध उससे कहते कि रुको, कुछ दिन ठहरो। कुछ दिन ठहरो, कुछ दिन साधना करो; जब इस योग्य हो जाओगे, मैं उत्तर दूंगा। लेकिन कभी उनके उत्तर दिए नहीं।
इसलिए उन पर बड़ा आरोप तो यही था—जैनों का, हिंदुओं का यही आरोप था कि उनको पता नहीं है। उन पर बड़ा आरोप यही था कि ये ग्यारह प्रश्नों के उत्तर नहीं देते, हमारे शास्त्रों में तो हम सब उत्तर देते हैं। इनको मालूम होता है पता नहीं है। लेकिन उनके शास्त्रों में जो लिखा हुआ है, उतना उत्तर तो वे भी दे सकते थे! असल में, असली उत्तर शास्त्र में भी नहीं लिखा हुआ है। और असली दिया नहीं जा सकता था।
तो इसलिए, इसलिए नहीं यह सवाल है, यह सवाल नहीं है कि क्या हो जाए।
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