शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-पांचवां
प्रेम-विवाह ओर बच्चे
(प्रश्न
का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।
जो
अनुभव है परमात्मा का अनुभव है। सारे मनुष्य का अनुभव शरीर का अनुभव है। सारे योगी
का अनुभव सूक्ष्म शरीर का अनुभव है। परम योगी का अनुभव परमात्मा का अनुभव है। परमात्मा
एक है, सूक्ष्म शरीर अनंत है। स्थूल शरीर अनंत है। जो
सूक्ष्म शरीर है, वह है--काॅ.जल बाडी। वह
जो सूक्ष्म है, वह नये स्थूल शरीर
ग्रहण करता है। हम यहां देख रहे हैं कि बहुत से बल्ब जले हुए हैं। विद्युत तो एक
है, विद्युत बहुत नहीं हैं। वह ऊर्जा, वह शक्ति, वह
इनर्जी एक है लेकिन दो अलग बल्बों से वह प्रकट हो रही है। बल्ब का शरीर अलग-अलग है,
उसकी आत्मा एक है। हमारे भीतर से जो चेतना झांक रही
है, वह चेतना एक है, लेकिन है एक सूक्ष्म उपकरण ही, सूक्ष्म
देह है! दूसरा उपकरण है--स्थूल देह। हमारा अनुभव स्थूल देह तक ही रुक जाता है। यह
जो स्थूल देह तक रुक गया अनुभव है, यही मनुष्य के जीवन का
सारा अंधकार और दुख है। लेकिन कुछ लोग सूक्ष्म शरीर पर भी रुक सकते हैं। जो लोग
सूक्ष्म शरीर पर रुक जाते हैं, वे ऐसा कहेंगे कि
आत्माएं अनंत हैं, लेकिन जो सूक्ष्म शरीर
के भी आगे चले जाते हैं, वे कहेंगे परमात्मा एक
है, आत्मा एक है, ब्रह्म एक है।
मेरी
इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। मैंने जो आत्मा के प्रवेश के लिए कहा,
उसका अर्थ है--वह आत्मा जिसका अभी सूक्ष्म शरीर गिर
नहीं गया है। इसलिए हम कहते हैं कि जो आत्मा परम मुक्ति को उपलब्ध हो जाती है उसका
जन्म-मरण बंद हो जाता है। आत्मा का तो कोई जन्म-मरण है ही नहीं, वह न तो कभी जन्मी है और न कभी मरेगी। वह जो सूक्ष्म
शरीर है वह भी समाप्त हो जाने पर कोई जन्म-मरण नहीं रह जाता है, क्योंकि सूक्ष्म शरीर ही कारण बनता है नये जन्मों
का। सूक्ष्म शरीर का अर्थ है--हमारे विचार, हमारी कामनाएं, हमारी वासनाएं, हमारी इच्छाएं, हमारे अनुभव, हमारे ज्ञान--इन सबका
जो संग्रहीभूत, जो इंटिग्रेटेड सीड है।
इन सबका जो बीज है वह हमारा सूक्ष्म शरीर है, वही हमें आगे की यात्रा पर ले जाता है। लेकिन जिस मनुष्य के सारे विचार
नष्ट हो गए, जिस मनुष्य की सारी
वासनाएं क्षीण हो गईं, जिस मनुष्य की सारी
इच्छाएं विलीन हो गईं, जिसके भीतर अब कोई भी
इच्छा शेष न रही उस मनुष्य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, जाने का कोई कारण नहीं रह जाता। जन्म की कोई वजह
नहीं रह जाती।
रामकृष्ण
के जीवन में एक अदभुत घटना है। रामकृष्ण को जो लोग बहुत निकट से परमहंस जानते थे,
उन सबको यह बात जान कर अत्यंत कठिनाई होती थी कि
रामकृष्ण जैसा परमहंस, रामकृष्ण जैसा समाधिस्थ
व्यक्ति भोजन के संबंध में बहुत लोलुप था। रामकृष्ण भोजन के लिए बहुत आतुर होते थे
और भोजन के लिए इतनी प्रतीक्षा करते थे कि कई बार उठ कर चैका में पहुंच जाते और
पूछते शारदा को, बहुत देर हो गई,
क्या बन रहा है आज? ब्रह्म की चर्चा चलती और बीच में ब्रह्म-चर्चा छोड़ कर पहुंच जाते किचन में
और पूछने लगते, क्या बना है आज और
खोजने लगते। शारदा ने भी उन्हें कहा, आप
क्या करते हैं? लोग क्या सोचते होंगे
कि ब्रह्म की चर्चा छोड़ कर एकदम अन्न की चर्चा पर आप उतर आते हैं। रामकृष्ण हंसते
और चुप रह जाते। उनके शिष्यों ने भी उनको बहुत बार कहा कि इससे बहुत बदनामी होती
है। लोग कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति क्या ज्ञान को उपलब्ध हुआ होगा, जिसकी अभी रसना, जिसकी अभी जीभ इतनी लालायित होती है भोजन के लिए।
एक
दिन शारदा ने बहुत कुछ भला बुरा कहा, रामकृष्ण
की पत्नी ने। तो रामकृष्ण ने कहा कि तुझे पागल, पता नहीं, जिस दिन मैं भोजन के
प्रति अरुचि प्रकट करूं, तू समझ लेना कि अब मेरे
जीवन की यात्रा केवल तीन दिन और शेष रह गई। बस तीन दिन से ज्यादा फिर मैं जिऊंगा
नहीं। जिस दिन भोजन के प्रति मेरी उपेक्षा हो, तू समझ लेना कि तीन दिन बाद मेरी मौत आ गई है। शारदा कहने लगी, इसका अर्थ? रामकृष्ण
कहने लगे, मेरी सारी वासनाएं क्षीण हो गईं, मेरी सारी इच्छाएं विलीन हो गईं, मेरे सारे विचार नष्ट हो गए हैं, लेकिन जगत के हित के लिए मैं रुका रहना चाहता हूं।
मैं एक वासना को जबरदस्ती पकड़े हुए हूं, जैसे
किसी नाव की सारी जंजीरें खुल गई हों और एक जंजीर से नाव अटकी रह गई हो और एक
जंजीर और टूट जाए तो नाव अपनी अनंत यात्रा पर निकल जाएगी। मैं चेष्टा करके रुका
हुआ हूं।
किसी
की समझ में शायद यह बात नहीं आई लेकिन रामकृष्ण की मृत्यु के तीन दिन पहले शारदा
थाली लगा कर रामकृष्ण के कमरे में गई। वे बैठे हुए देख रहे थे। उन्होंने थाली देख
कर आंखें बंद कर लीं, लेट गए और पीठ कर ली
शारदा की तरफ। उसे एकदम से खयाल आया कि उन्होंने कहा था कि तीन दिन बाद मौत हो
जाएगी जिस दिन जीवन के प्रति अरुचि करूं। उसके हाथ से थाली झन्ना कर गिर गई,
वह सिर पीट कर रोने लगी। रामकृष्ण ने कहा, रोओ मत, तुम
जो कहती थी वह बात भी अब पूरी हो गई। ठीक तीन दिन बाद रामकृष्ण की मृत्यु हो गई।
एक छोटी सी वासना को प्रयास करके वे रोके हुए थे। उतनी छोटी सी वासना जीवन यात्रा
का आधार बनी थी, वह वासना भी चली गई तो
जीवन यात्रा का सारा आधार समाप्त हो गया।
जिसे
तीर्थंकर कहते हैं, जिसे हम ईश्वर के पुत्र
कहते हैं, जिसे हम अवतार कहते हैं, उनकी भी एक ही वासना शेष रह गई होती है। और उस वासना
को वे शेष रखना चाहते हैं करुणा के हित, मंगल
के हित, सर्वमंगल के हित, सर्व लोक के हित। जिस दिन वह वासना भी क्षीण हो जाती है उसी दिन जीवन की
यात्रा समाप्त और अनंत की अंतहीन यात्रा शुरू होती है। उसके बाद जन्म नहीं है,
उसके बाद मरण नहीं है, उसके बाद न एक है, न अनेक है। उसके बाद तो
जो शेष रह जाता है, उसे संख्या में गिनने
का कोई उपाय नहीं।
इसलिए
जो जानते हैं वे यह भी देखते हैं कि ब्रह्म एक है, परमात्मा एक है। क्योंकि एक कहना व्यर्थ है जब कि दो की गिनती न बनती हो।
एक कहने का कोई अर्थ नहीं जब कि दो और तीन नहीं कहे जा सकते हों। एक कहना तभी तक
सार्थक है जब तक कि दो-तीन-चार भी सार्थक होते हैं। संख्याओं के बीच की एक
सार्थकता है, इसलिए जो जानते हैं वे
यह भी नहीं कहते कि ब्रह्म एक है। वे कहते हैं, ब्रह्म अद्वैत है, दो नहीं है, बहुत अदभुत बात कहते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा दो नहीं है, वे यह कहते हैं कि परमात्मा को संख्या में गिनने का उपाय नहीं है। एक कह
करके भी हम संख्या में गिनने की कोशिश करते हैं, वह गलत है। लेकिन उस तक पहुंचना दूर, अभी तो हम स्थूल पर खड़े हैं--उस शरीर पर जो अनंत है, अनेक है। उस शरीर के भीतर हम प्रवेश करेंगे तो एक और शरीर उपलब्ध
होगा--सूक्ष्म शरीर। उस शरीर को भी पार करेंगे तो वह उपलब्ध होगा जो शरीर नहीं है,
अशरीर है, जो
आत्मा है।
मैंने
जो कल कहा उसमें जरा भी विरोध नहीं है, उसमें
कोई विरोधाभास नहीं है।
एक और
मित्र ने पूछा हैः आत्मा शरीर के बाहर चली जाए तो क्या दूसरे मृत शरीर में भी
प्रवेश कर सकती है?
कर
सकती है। लेकिन दूसरे मृत शरीर में प्रवेश करने का कोई अर्थ और प्रयोजन नहीं रह
जाता। क्योंकि दूसरा शरीर इसीलिए मृत हुआ है कि उस शरीर में रहने वाली आत्मा अब उस
शरीर में रहने में असमर्थ हो गई थी। वह शरीर व्यर्थ हो गया था इसीलिए छोड़ा गया है,
कोई प्रयोजन नहीं है उस शरीर में प्रवेश का। लेकिन
इस बात की संभावना है कि दूसरे शरीर में प्रवेश किया जा सके। लेकिन यह प्रश्न
पूछना मूल्यवान नहीं है कि हम दूसरे के शरीर में कैसे प्रवेश करें, अपने ही शरीर में हम कैसे बैठे हुए हैं इसका भी हमें
कोई पता नहीं। हम दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की व्यर्थ की बातों पर विचार करने
से क्या फायदा उठा सकते हैं! हम अपने ही शरीर में कैसे प्रविष्ट हो गए हैं इसका भी
हमें कोई पता नहीं। हम अपने शरीर में कैसे जी रहे हैं इसका भी कोई पता नहीं,
हम अपने ही शरीर से पृथक होकर अपने को देख सकें इसका
भी कोई अनुभव नहीं। दूसरे के शरीर में प्रवेश का प्रयोजन भी नहीं है, लेकिन वैज्ञानिक रूप से यह कहा जा सकता है कि दूसरे
के शरीर में प्रवेश संभव है, क्योंकि शरीर न ही
दूसरे का है, न अपना है। सब शरीर
दूसरे हैं।
जब
मां के पेट में एक आत्मा प्रविष्ट होती है तब भी वह शरीर में प्रवेश हो रही है,
बहुत छोटे शरीर में प्रवेश हो रही है, एटामिक बाॅडी में प्रवेश हो रही है, लेकिन शरीर तो है! वह जो पहले दिन अणु बनता है मां
के पेट में वह अणु आपके शरीर की रूपाकृति अपने में छिपाए हुए है। पचास साल बाद
आपके बाल सफेद हो जाएंगे, यह संभावना भी उस छोटे
से बीज में छिपी हुई है। आपकी आंख का रंग कैसा होगा, यह संभावना भी उस बीज में छिपी हुई है। आपके हाथ कितने लंबे होंगे, आप स्वस्थ होंगे कि बीमार, आप गोरे होंगे कि काले, कि बाल घुंघराले होंगे,
ये सारी बातें उस छोटे बीज में पोटेंशियली छिपी हुई
हैं। वह छोटी देह है, वह एटामिक बाॅडी है,
अणु शरीर है, उस अणु शरीर में आत्मा प्रविष्ट होती है। उस अणु शरीर की जो संरचना है,
उस अणु शरीर की जो स्थिति है, जो सिचुएशन है, उसके अनुकूल आत्मा
उसमें प्रविष्ट होती है।
और
दुनिया में जो मनुष्य-जाति का जीवन और चेतना रोज नीचे गिरती जा रही है उसका
एकमात्र कारण है कि दुनिया के दंपति श्रेष्ठ आत्माओं के जन्म लेने की सुविधा पैदा
नहीं कर रहे हैं। जो सुविधा पैदा की जा रही है, वह अति निकृष्ट आत्माओं के पैदा होने की सुविधा है। आदमी के मर जाने के बाद
जरूरी नहीं है कि उस आत्मा को जल्दी जन्म लेने का अवसर मिल जाए। साधारणतया आत्माएं,
जो न बहुत श्रेष्ठ होती हैं, न बहुत निकृष्ट होती हैं तेरह दिन के भीतर नये शरीर की खोज कर लेती हैं;
लेकिन निकृष्ट आत्माएं भी रुक जाती हैं, क्योंकि उतना निकृष्ट अवसर मिलना मुश्किल होता है।
उन निकृष्ट आत्माओं को ही हम प्रेत और भूत कहते हैं। बहुत श्रेष्ठ आत्माएं भी रुक
जाती हैं, क्योंकि उतने श्रेष्ठ अवसर का उपलब्ध होना
मुश्किल होता है। उन श्रेष्ठात्माओं को ही हम देवता कहते हैं। पहली पुरानी दुनिया
में भूत-प्रेत की संख्या बहुत कम थी और देवताओं की संख्या बहुत ज्यादा। आज की
दुनिया में भूत-प्रेतों की संख्या बहुत ज्यादा हो गई है और देवताओं की संख्या कम,
क्योंकि देवता-पुरुषों का अवसर पैदा होने का कम हो
गया है, भूत-प्रेत पैदा होने का अवसर बहुत तीव्रता से
उपलब्ध हुआ है।
तो जो
भूत-प्रेत रुके रह जाते हैं मनुष्य के भीतर प्रवेश करने से वे सारे मनुष्य-जाति
में प्रविष्ट हो गए। इसलिए आज भूत-प्रेतों का दर्शन मुश्किल हो गया है क्योंकि
उसके दर्शन की कोई जरूरत नहीं। आप आदमी को ही देख लें और उसके दर्शन हो जाते हैं।
और देवता पर हमारा विश्वास कम हो गया, क्योंकि
देव-पुरुष ही जब दिखाई नहीं पड़ते हों, तो
देवता पर विश्वास करना बहुत कठिन है। एक जमाना था कि देवता उतनी ही वास्तविकता थी,
उतनी ही एक्चुअलिटी थी जितना कि हमारे और जीवन के
दूसरे सत्य हैं। अगर हम वेद के ऋषियों को पढ़ें तो ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि वे
देवताओं के संबंध में जो बात कह रहे हैं वह किसी कल्पना के देवता के संबंध में बात
कह रहे हैं। नहीं, वे ऐसे देवता की बात कर
रहे हैं जो उनके साथ गीत गाता है, हंसता है, बात करता है। वे एक ऐसे देवता की बात कर रहे हैं,
जो पृथ्वी पर चलता है, उनके अत्यंत निकट।
हमारा
देवता से सारा संबंध विनष्ट हुआ है क्योंकि हमारे बीच ऐसे पुरुष नहीं जो सेतु बन
सकें, जो ब्रिज बन सकें, जो देवताओं और मनुष्यों के बीच में खड़े होकर घोषणा कर सकें कि देवता कैसे
होते हैं और इनका सारा जिम्मा मनुष्य जाति के दांपत्य की जो व्यवस्था है उस पर
निर्भर है। मनुष्य-जाति की दांपत्य की सारी की सारी व्यवस्था कुरूप, अग्ली और परवर्टेड है।
पहली
तो बात यह है कि हमने हजारों साल से प्रेमपूर्ण विवाह बंद कर दिए हैं और विवाह हम
बिना प्रेम के कर रहे हैं। जो विवाह प्रेम के बिना होगा उस दंपति के बीच कभी भी वह
आध्यात्मिक संबंध उत्पन्न नहीं होता जो प्रेम से संभव था। उन दोनों के बीच कभी भी
वह हार्मनी, कभी भी वह एकरूपता और
संगीत पैदा नहीं हो सकता जो एक श्रेष्ठ आत्मा के जन्म के लिए जरूरी है। उनका प्रेम
केवल था, रहने की वजह से पैदा हो गया, एक साहचर्य होता है। उनके प्रेम में वह आत्मा का
आंदोलन नहीं होता जो दो प्राणों को एक कर देता है। प्रेम के बिना जो बच्चे पैदा
होते हैं पृथ्वी पर, वे बच्चे प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकते, वे देवता जैसे नहीं हो
सकते, उनकी स्थिति भूत-प्रेत जैसी होगी, उनका जीवन घृणा भर देगा और हिंसा का ही जीवन होगा।
जरा सी बात फर्क पैदा करती है, अगर व्यक्तित्व की
बुनियादी हार्मनी, अगर व्यक्तित्व की
बुनियादी लयबद्धता नहीं है...तो अदभुत परिवर्तन होते हैं!
शायद
आपको पता नहीं होगा, स्त्री पुरुषों से
ज्यादा सुंदर क्यों दिखाई पड़ती है? शायद आपको खयाल न होगा,
स्त्री के व्यक्तित्व में एक राउंडनेस, एक सुडौलता क्यों दिखाई पड़ती है? वह पुरुष के व्यक्तित्व में क्यों नहीं दिखाई पड़ती?
शायद आपको खयाल में न होगा कि स्त्री के व्यक्तित्व
में एक संगीत, एक नृत्य, एक इनर डांस, एक भीतरी नृत्य क्यों दिखाई पड़ता है जो पुरुष में दिखाई नहीं पड़ता है। एक
छोटा सा कारण, बहुत बड़ा कारण नहीं है।
एक छोटा सा, इतना छोटा है कि आप
कल्पना भी नहीं कर सकते। इतने छोटे से कारण पर व्यक्तित्व का इतना भेद पैदा हो
जाता है। मां के पेट में जो बच्चा निर्मित हो जाता है, उस पहले अणु में चैबीस जीवाणु पुरुष के होते हैं और चैबीस जीवाणु स्त्री के
होते हैं। अगर चैबीस-चैबीस के दोनों जीवाणु मिलते हैं तो अड़तालीस जीवाणुओं का पहला
सेल निर्मित होता है। अड़तालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है वह स्त्री का शरीर बन
जाता है। उसके दोनों बाजू चैबीस-चैबीस सेल के होते हैं, बैलेंस, संतुलित। पुरुष का जो
जीवाणु होता है वह सैंतालीस जीवाणुओं का होता है। एक तरफ चैबीस होते हैं, एक तरफ तेईस। बस यह बैलेंस टूट गया, वहीं से व्यक्तित्व का। संतुलन टूट गया वहीं से
व्यक्तित्व का--हार्मनी टूट गई।
स्त्री
के दोनों पलड़े व्यक्तित्व के बराबर संतुलन के हैं। उससे सारा स्त्री का सौंदर्य,
उसकी सुडौलता, उसकी कला, उसके व्यक्तित्व का रस,
उसके व्यक्तित्व का काव्य पैदा होता है। और पुरुष के
व्यक्तित्व में जरा सी कमी है, तो उसका एक तराजू चैबीस
जीवाणुओं से बना हुआ है। मां से जो जीवाणु मिलता है वह चैबीस का बना हुआ है और
पुरुष से जो मिलता है वह तेईस का बना हुआ है।
पुरुष
के जीवाणुओं में दो तरह के जीवाणु होते हैं, चैबीस कोष्ठधारी और तेईस कोष्ठधारी। तेईस कोष्ठधारी जीवाणु अगर मां के
चैबीस कोष्ठधारी जीवाणु से मिलता है तो पुरुष का जन्म होता है। इसलिए पुरुष में एक
बेचैनी जीवन भर बनी रहती है, एक इंटेंस डिसकंटेंट
बना रहता है। क्या करूं...क्या करूं, एक
चिंता, एक बेचैनी, यह कर लूं, यह कर लूं, वह कर लूं। पुरुष की जो बेचैनी है वह एक छोटी सी
घटना से शुरू होती है और वह घटना है कि उसके एक पलड़े पर एक अणु कम है। उसका बैलेंस,
व्यक्तित्व कम है। स्त्री का बैलेंस है, स्त्री की हार्मनी पूरी है, उसकी लयबद्धता पूरी है।
इतनी
सी घटना इतना फर्क लाती है। हालांकि इससे स्त्री सुंदर तो हो सकी लेकिन स्त्री
विकासमान नहीं हो सकी, क्योंकि जिस व्यक्तित्व
में समता है वह विकास नहीं करता, वह ठहर जाता है। पुरुष
का व्यक्तित्व विषम है। विषम होने के कारण वह दौड़ता है, विकास करता है, एवरेस्ट चढ़ता है,
पहाड़ पार करता है, चांद पर जाएगा, तारों पर जाएगा,
खोज बीन करेगा, सोचेगा, ग्रंथ लिखेगा, धर्म निर्माण करेगा। स्त्री यह कुछ भी नहीं करेगी। न
वह एवरेस्ट जाएगी, न वह चांद-तारों पर
जाएगी, न वह धर्मों की खोज करेगी, न ग्रंथ लिखेगी, न विज्ञान की शोध करेगी। वह कुछ भी नहीं करेगी। उसके व्यक्तित्व में एक
संतुलन उसे पार होने के लिए तीव्रता से नहीं भरता है। पुरुष ने सारी सभ्यता विकसित
की, एक छोटी सी बात के कारण, उसमें एक अणु कम है। और स्त्री ने सारी सभ्यताएं
विकसित नहीं की, उसमें एक अणु पूरा है।
उतनी सी घटना व्यक्तित्व का भेद ला सकती है। मैं इसीलिए यह कह रहा हूं कि यह तो
बायोलाॅजिकली है, यह तो जीव शास्त्र
कहेगा, इतना सा फर्क, इतने भिन्न व्यक्तित्वों को जन्म दे देता है और गहरे फर्क हैं और इतने
डिफरेंस हैं।
तो
पुरुष और स्त्री के मिलने पर जिस बच्चे का जन्म होता है वह उन दोनों व्यक्तियों
में कितना गहरा प्रेम है, कितनी आध्यात्मिकता,
कितनी पवित्रता है, कितने प्रेयरफुल, कितने प्रार्थनापूर्ण
हृदय से वे एक दूसरे के पास आए हैं इस पर निर्भर करेगा कि कितनी ऊंची आत्मा उनकी
तरफ आकर्षित होती है, कितनी विराट आत्मा उनकी
तरफ आकर्षित होती है, कितनी महान दिव्य चेतना
उस घर में अपना आवास बनाती है, यह इस पर निर्भर करेगा।
मनुष्य-जाति
क्षीण और दीन, दरिद्र और दुखी होती
चली जा रही है। उसके बहुत गहरे में कारण मनुष्य-दांपत्य का विकृत होना है और जब तक
हम मनुष्य के दांपत्य जीवन को स्वीकृत नहीं कर लेते, जब तक उसे हम स्प्रिचुअलाइज नहीं कर लेते तब तक हम मनुष्य के भविष्य में
सुधार नहीं कर सकते। और इस दुर्भाग्य में उन लोगों का भी हाथ है जिन लोगों ने
गृहस्थ जीवन की निंदा की है और संन्यास जीवन का बहुत ज्यादा शोरगुल मचाया है,
उनका हाथ है। क्योंकि एक बार जब गृहस्थ जीवन कंडेम्ड
हो गया, निंदित हो गया तो उस तरफ हमने विचार करना छोड़
दिया। नहीं, मैं आपसे कहना चाहता
हूं, संन्यास के रास्ते से बहुत थोड़े लोग ही
परमात्मा तक पहुंच सकते हैं। बहुत थोड़े से लोग, कुछ विशिष्ट तरह के लोग, कुछ अत्यंत भिन्न तरह
के लोग संन्यास के रास्ते से परमात्मा तक पहुंचते हैं। अधिकतम लोग गृहस्थ के
रास्ते से और दांपत्य के रास्ते से ही परमात्मा तक पहुंचते हैं। और आश्चर्य की बात
यह कि गृहस्थ के मार्ग से पहुंच अत्यंत सरल और सुलभ है, लेकिन उस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया।
आज तक
सारा धर्म संन्यासियों के अति प्रभाव से पीड़ित है। आज तक का पूरा धर्म गृहस्थ के
लिए विकसित नहीं हो सका और अगर गृहस्थ के लिए धर्म विकसित होता तो हमने जन्म के
पहले चरण में विचार किया होता कि कैसी आत्मा को आमंत्रित करना है, कैसी आत्मा को पकड़ना है, कैसी आत्मा को प्रवेश देना है जीवन में। अगर धर्म की ठीक-ठीक शिक्षा हो सके
और एक-एक व्यक्ति को धर्म का विचार, कल्पना
और भावना दी जा सके तो बीस वर्षों में आने वाले मनुष्य की पीढ़ी को बिलकुल नया
बनाया जा सकता है।
वह
आदमी पापी है जो आने वाली आत्मा के लिए प्रेमपूर्ण आमंत्रण भेजे बिना भोग में
उतरता है। वह आदमी अपराधी है, उसके बच्चे नाजायज हैं,
चाहे उसने बच्चे विवाह के द्वारा पैदा किए हों। जिन
बच्चों के लिए उसने अत्यंत प्रार्थना और पूजा से और परमात्मा को स्मरण करके नहीं
बुलाया है, वह आदमी अपराधी है, वह अपराधी रहेगा। कौन हमारे भीतर प्रविष्ट होता है इस पर निर्भर करता है
सारा भविष्य। हम शिक्षा की फिकर करते हैं, हम
वस्त्रों की फिकर करते हैं, हम बच्चों के स्वास्थ्य
की फिकर करते हैं, लेकिन बच्चे की आत्मा
की फिकर हम बिलकुल ही छोड़ दिए हैं। इससे कभी भी कोई अच्छी मनुष्य-जाति पैदा नहीं
हो सकती। इसलिए यह बहुत फिकर न करें कि दूसरे के शरीर में कैसे प्रवेश करें। इस
बात की फिकर करें कि आप इस शरीर में ही कैसे प्रवेश कर गए।
इस
संबंध में भी एक मित्र ने पूछा है कि क्या हम अपने अतीत जन्मों को जान सकते हैं?
निश्चित
ही जान सकते हैं। लेकिन अभी तो आप इस जन्म को भी नहीं जानते, अतीत के जन्मों को जानना तो फिर बहुत कठिन है।
निश्चित ही मनुष्य जान सकता है अपने पिछले जन्मों को, क्योंकि जो भी एक बार चित्त पर स्मृति बन गई है वह नष्ट नहीं होती। वह
हमारे चित्त के गहरे तलों में, अनकांशस हिस्सों में
सदा मौजूद रहती है। हम जो भी जानते हैं उसे कभी नहीं भूलते हैं। अगर मैं आपसे
पूछूं कि उन्नीस सौ पचास में एक जनवरी को आपने क्या किया था तो शायद आप कुछ भी
नहीं बता सकेंगे। आप कहेंगे, मुझे क्या याद
है!...मुझे कुछ भी याद नहीं है। एक जनवरी उन्नीस सौ पचास कुछ भी खयाल नहीं आता कि
मैंने कुछ किया, लेकिन अगर आपको
सम्मोहित किया जा सके, हिप्नोटाइज किया जा सके
और सरलता से किया जा सकता है और आपको बेहोश करके पूछा जाए कि एक जनवरी उन्नीस सौ
पचास को आपने क्या किया तो आप सुबह से सांझ तक का ब्योरा इस तरह बता देंगे जैसे
अभी वह एक जनवरी आपके सामने गुजर रही है। आप यह भी बता देंगे कि एक जनवरी को सुबह
जो मैंने चाय पी थी उसमें शक्कर थोड़ी कम थी। आप यह भी बता देंगे कि इस आदमी ने
मुझे चाय दी थी। उस आदमी के शरीर से पसीने की बदबू आ रही थी। आप इतनी छोटी बातें
बता देंगे कि जो जूता मैं पहने हुए था वह मुझे पैर में काट रहा था। सम्मोहित
अवस्था में आपके भीतर की स्मृति को बाहर लाया जा सकता है। मैंने उस दिशा में बहुत
से प्रयोग किए हैं, इसलिए आपसे कहता हूं और
जिस मित्र को भी इच्छा हो अपने पिछले जन्मों में जाने की उसे ले जाया जा सकता है।
लेकिन पहले उसे इसी जन्म में पीछे लौटना पड़ेगा। इस जन्म की ही स्मृतियों में पीछे
लौटना पड़ेगा। वहां तक पीछे लौटना पड़ेगा जहां वह मां के पेट में कंसीव हुआ, गर्भ धारण हुआ और उसके बाद फिर दूसरे जन्म की
स्मृतियों में प्रवेश किया जा सकता है।
लेकिन
ध्यान रहे, प्रकृति ने पिछले जन्मों को भुलाने की
व्यवस्था अकारण नहीं की है। कारण बहुत महत्वपूर्ण है। और पिछले जन्म तो दूर हैं,
अगर आप को एक महीने की ही सारी बातें याद रह जाएं तो
आप पागल हो जाएंगे। एक दिन की नींद में अगर सुबह से शाम तक की सारी बातें याद रह
जाएं तो आप जिंदा नहीं रह सकेंगे। तो प्रकृति की सारी व्यवस्था यह है कि आपका मन
जितना तनाव झेल सकता है उतनी ही स्मृति आपके भीतर शेष रहने दी जाती है। शेष सब
अंधेरे गर्त में डाल दी जाती हैं। जैसे घर में एक कबाड़ होता है। बेकार चीजें आप
कबाड़ घर में डाल कर दरवाजा बंद कर देते हैं, वैसे ही स्मृति का एक कलेक्टिव हाउस, एक अनकांशस घर है, एक अचेतन घर है,
जहां स्मृति में जो बेकार होता चला जाता है, जिसे चित्त में रखने की जरूरत नहीं है वह संगृहीत
होता रहता है। वहां जन्म-जन्मों की स्मृतियां संगृहीत हैं। लेकिन अगर कोई आदमी
अनजाने, बिना समझे हुए उस घर में प्रविष्ट हो जाए तो
तत्क्षण पागल हो जाएगा। इतनी ज्यादा हैं वे संस्मृतियां।
एक
महिला मेरे पास प्रयोग करती थीं। उनको बहुत इच्छा थी कि वे पिछले जन्मों को जानें।
मैंने उनको कहा कि यह हो सकता है लेकिन आगे की जिम्मेवारी समझ लेनी चाहिए, क्योंकि हो सकता है पिछले जन्म को जानने से आप बहुत
चिंतित और परेशान हो जाएं। उन्होंने कहा कि नहीं, मैं क्यों परेशान होऊंगी। पिछला जन्म तो हो चुका है अब। क्या फिकर की बात
है। उन्होंने प्रयोग शुरू किया। वे एक कालेज में प्रोफेसर थीं। बुद्धिमान थीं,
समझदार थीं, हिम्मतवर
थीं...प्रयोग शुरू किया और जिस भांति मैंने कहा, उन्होंने गहरे से गहरे मेडिटेशन किए, गहरे से गहरा ध्यान किया। धीरे-धीरे स्मृति के नीचे पर्तों को उघाड़ना शुरू
किया। और एक दिन जिस पहली बार उन्हें पिछले जन्म में प्रवेश मिला वह भागती हुई आई।
उनके हाथ-पैर कंप रहे थे। आंखों से आंसू बह रहे थे। एकदम छाती पीट-पीट कर रोने
लगीं और कहने लगीं कि मैं भूलना चाहती हूं उस बात को जो मुझे याद आ गई। मैं उस
पिछले जन्म में अब आगे नहीं जाना चाहती। मैंने कहाः अब मुश्किल है--जो याद आ गई
उसे भूलने में फिर बहुत वक्त लग जाएगा। लेकिन इतनी घबड़ाहट क्या है! उन्होंने कहाः
नहीं-नहीं, पूछिए ही मत! मैं तो सोचती थी कि मैं बहुत
पतिव्रता हूं, बहुत सच्चरित्र हूं,
लेकिन पिछले जन्म में एक मंदिर में वेश्या थी,
दक्षिण की। मैं देवदासी थी और मैंने हजारों पुरुषों
के साथ संभोग किया और मैंने अपने शरीर को बेचा। नहीं, मैं उसे भुलाना चाहती हूं। मैं उसे एक क्षण भी याद नहीं रखना चाहती। मैंने
कहाः अब इतना आसान नहीं है! याद करना बहुत आसान है, भूल जाना बहुत मुश्किल है।
पिछले
जन्म में जाया जा सकता है और जिसकी मर्जी हो उसके रास्ते हैं, मैथडोलाॅजी है! महावीर और बुद्ध दोनों मनुष्यों ने
मनुष्य-जाति को बड़े से बड़ा दान दिया है, वह
उनकी अहिंसा-वहिंसा का सिद्धांत नहीं है। वह सबसे बड़ा दान है--जाति-स्मरण का
सिद्धांत, वह है पिछले जन्मों की स्मृति में उतरने की
कला। महावीर और बुद्ध दोनों पहले आदमी हैं पृथ्वी पर, जिन्होंने प्रत्येक साधक के लिए यह कहा कि तब तक तुम आत्मा से परिचित नहीं
हो सकोगे जब तक तुम पिछले जन्मों में नहीं उतरते हो। और उन्होंने प्रत्येक साधक को
पिछले जन्म में ले जाने की फिकर की। और एक बार कोई आदमी अपने पिछले जन्मों की
स्मृतियों में जाने की हिम्मत जुटा ले, वह
दूसरा आदमी हो जाएगा। क्योंकि उसे पता चलेगा कि जिन बातों को मैं हजारों बार कर
चुका हूं, उन्हीं को फिर कर रहा हूं! कैसा पागल हूं,
कितनी बार मैंने संपत्ति इकट्ठी की है; कितनी बार मैंने करोड़ों के अंबार लगा दिए; कितनी बार मैंने महल खड़े किए, कितनी बार इज्जत, ज्ञान और पद और कितनी
बार दिल्ली के सिंहासनों की यात्रा कर ली है, कितनी बार, कितनी अनंत बार,
और फिर मैं वही कर रहा हूं! और हर वह यात्रा असफल हो
गई है। वह यात्रा इस बार भी असफल हो जाएगी। तत्क्षण उसकी संपत्ति की दौड़ बंद हो
जाएगी, तत्क्षण उसके पदों का मोह नष्ट हो जाएगा। वह
आदमी जानेगा, मैंने हजारों-हजारों
वर्षों में कितनी स्त्रियां भोगी, स्त्रियां जानेंगी कि
मैंने हजारों-हजारों वर्षों में कितने पुरुष भोगे और न किसी पुरुष से तृप्ति मिली
और न किसी स्त्री से तृप्ति मिली, और अब भी मैं यही सोच
रहा हूं कि इस स्त्री को भोगूं, उस स्त्री को भोगूं,
इस पुरुष को भोगूं, उस पुरुष को भोगूं, यह करोड़ बार हो चुका
है।
एक
बार स्मरण आ जाए इसका तो फिर यह दुबारा नहीं हो सकता। क्योंकि इतने बार जब हम कर
चुके हों और कोई फल न पाया हो तो फिर आगे उसे दोहराए जाने का उपाय नहीं है,
कोई अर्थ नहीं है। बुद्ध और महावीर दोनों ने
जाति-स्मरण के गहरे प्रयोग किए अतीत जन्मों की स्मृति के। और जो साधक एक बार उस
स्मृति से गुजर गया, वह आदमी दूसरा हो गया,
ट्रांसफार्म हो गया, बदल गया। जिन मित्र ने पूछा है, उनको
जरूर कहूंगा कि अगर उनकी इच्छा हो तो उन्हें पिछली स्मृति में ले जाया जा सकता है।
लेकिन सोच-समझ कर ही उस प्रयोग में जाया जा सकता है। इस जिंदगी की चिंताएं ही काफी
हैं, इस जिंदगी की परेशानियां ही बहुत हैं। इस
जिंदगी को भुलाने के लिए आदमी शराब पीता है, सिनेमा देखता है, ताश खेलता है, जुआ खेलता है। इस जिंदगी को भी भूलने के लिए,
दिन भर को भूलने के लिए रात शराब पी लेता है।
जो
आदमी आज के दिन भर को याद नहीं रख सकता, इतना
साहस नहीं है कि जिंदगी को हंस कर ले, वह
आदमी कैसे पिछले जन्मों को याद करने की हिम्मत जुटा पाएगा। यह जान कर आपको हैरानी
होगी कि सारे धर्मों ने शराब का विरोध किया है और यह सारे बिलकुल न समझने वाले
नेतागण जो दुनिया को समझाते हैं कि शराब का इसलिए विरोध किया है कि उससे चरित्र
नष्ट हो जाता है, कि उससे घर की संपत्ति
नष्ट हो जाती है, कि आदमी लड़ने-झगड़ने
लगता है--ये सब बेवकूफी की बातें हैं।
धर्मों
ने शराब का विरोध सिर्फ इसलिए किया है कि जो आदमी शराब पीता है, वह अपने को भुलाने का उपाय कर रहा है और जो आदमी
अपने को भुलाने का उपाय कर रहा है, वह अपनी आत्मा से कभी
भी परिचित नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा से परिचित होने के लिए तो अपने को जानने का
उपाय करना है। इसलिए शराब और समाधि दो विरोधी चीजें बन गईं। उनका इससे कोई मतलब
नहीं है, क्योंकि सच तो यह है...और यह बात बहुत समझ
लेने जैसी हैः आमतौर से लोग समझते हैं कि शराबी आदमी बुरा होता है। मैं शराबियों
को भी जानता हूं और उनको भी जो शराब नहीं पीते हैं! मैंने आज तक हजारों अनुभव में
यह पाया है कि शराब पीने वाला न पीने वाले से कई अर्थों में अच्छा होता है। मैंने
शराब पीने वालों में जितनी दया और करुणा देखी, उतनी मैंने शराब न पीने वालों में नहीं देखी। मैंने शराब पीने वालों में
जितनी विनम्रता देखी--जितनी ह्युमिलिटी, उतनी
मैंने शराब नहीं पीने वालों में नहीं देखी। जितनी अकड़ मैंने देखी शराब न पीने
वालों में उतनी अकड़ शराब पीने वालों में दिखाई नहीं पड़ी। लेकिन इन सारी बातों से
नहीं किया है विरोध धर्म ने और यह जो सारे नेतागण समझाते फिरते हैं कि इसलिए विरोध
किया है--इसलिए विरोध नहीं किया है, विरोध
किया है इसलिए कि जो आदमी अपने को भुलाने का उपाय करता है वह अपने साहस को छोड़ रहा
है, याद करने के, रिमेंबरिंग के, स्मृति के!
और जो
आदमी इसी जन्म को भुलाने की फिकर में लगा है वह पिछले जन्मों को याद कैसे कर
सकेगा। और जो पिछले जन्मों को याद नहीं कर सकता वह इस जन्म को बदलेगा कैसे! फिर एक
अंधा रिपिटिशन चलता रहेगा। जो हमने बार-बार किया है, वही हम बार-बार करते चले जाएंगे। अंतहीन है यह प्रक्रिया और जब तक हमें
स्मरण नहीं होगा, हम बार-बार जन्मेंगे और
उन्हीं बेवकूफियों को बार-बार करेंगे जिन्हें हमने बार-बार किया है...और इसका कोई
अंत नहीं! इस बोर्डम का, इस शृंखला का कोई अर्थ
नहीं है क्योंकि बार-बार हम फिर मर जाएंगे, फिर भूल जाएंगे, फिर वही शुरू हो जाएगा।
एक सर्किल की तरह, कोल्हू के बैल की तरह
हम घूमते रहेंगे। जिन लोगों ने इस जीवन को संसार कहा--संसार का आप मतलब समझते हैं?
संसार का मतलबः व्हील, एक घूमता हुआ चाक, जिसमें स्पोक जो हैं वे
फिर ऊपर चले जाते हैं, फिर नीचे, फिर ऊपर चले जाते हैं, फिर नीचे चले आते हैं।
वह जो
हिंदुस्तान के राष्ट्रीय ध्वज पर व्हील बना हुआ है, वह पता नहीं हिंदुस्तान के सोचने-समझने वालों ने किस वजह से वहां रख दिया।
शायद उन को पता नहीं, वे न मालूम क्या सोचते
होंगे! अशोक ने उस चक्र को इसीलिए खुदवाया था अपने स्तूपों पर ताकि आदमी को पता
रहे कि जिंदगी एक घूमता हुआ चाक है, कोल्हू
का बैल है। उसमें हर चीज घूमकर फिर वहीं आ जाती है। फिर घूमनी शुरू हो जाती है। वह
जो व्हील है, संसार का प्रतीक है। वह
व्हील किसी विजय यात्रा का प्रतीक नहीं है। वह जिंदगी के रोज हार जाने का प्रतीक
है। वह इस बात का प्रतीक है कि जिंदगी जो है वह एक रिपीटीटिव बोर्डम है, वह बार-बार दोहराया जाने वाला चाक है। लेकिन हर बार
हम भूल जाते हैं, इसलिए दुबारा फिर बड़े
रसलीन होकर दोहराने लगते हैं।
एक
युवक एक युवती की तरफ बढ़ रहा हो प्रेम करने को, उसे पता नहीं कि वह कितनी बार बढ़ चुका है, कितनी युवतियों के पीछे दौड़ चुका है, लेकिन अब फिर बढ़ रहा है और सोचता है कि जिंदगी में पहली दफा यह घटना घट रही
है। यह अदभुत घटना है, यह अदभुत घटना बहुत दफे
घट चुकी है। और अगर उसे ही पता चल जाए तो उसकी हालत वैसी हो जाएगी, जैसे किसी आदमी की एक फिल्म को दस-पच्चीस दफा देख कर
हो जाती है। अगर आप आज फिल्म देखने गए हैं तो बात और है, कल भी आपको ले जाया जाए तो आप बरदाश्त कर लेंगे। तीसरे दिन आप कहने लगेंगे,
क्षमा करिए, अब
मैं नहीं जाना चाहता हूं। लेकिन आपको मजबूर किया जाए, कोई पुलिसवाले पीछे लगे हैं, ये
आपको ले ही जाएंगे और पंद्रह दिन वही फिल्म, तो सोलहवें दिन आप गर्दन दबा कर मरने की कोशिश करेंगे कि अब इस फिल्म को
मैं नहीं देखना चाहता हूं...यह हद हो गई! पंद्रह दिन देख चुका हूं और अब कब तक
देखता रहूंगा लेकिन वह पुलिस वाला पीछे लगना चाहता है कि नहीं, यह तो देखनी ही पड़ेगी। लेकिन अगर रोज फिल्म देखने के
बाद अफीम खिला दी जाए और भूल जाएं आप कि मैंने फिल्म देखी थी तो दूसरे दिन फिर आप
टिकट लेकर उसी फिल्म में मौजूद हो सकते हैं और बड़े मजे से देख सकते हैं।
आदमी
हर बार जब शरीर को बदलता है तब उस शरीर में संजोई गई स्मृतियों का द्वार क्लोज हो
जाता है, बंद हो जाता है। फिर नया खेल शुरू हो जाता है,
फिर वही खेल, फिर वही बात, फिर सब वही जो बहुत बार
हो चुका है। जाति स्मरण से यह स्मरण आता है कि यह तो बहुत बार हो चुका है। यह
कहानी तो बहुत बार देखी जा चुकी है। यह गीत तो बहुत बार गाए जा चुके हैं। यह तो
बरदाश्त के बाहर हो गई है बात। जाति-स्मरण से पैदा होती है विरक्ति, जाति-स्मरण से पैदा होता है वैराग्य, और किसी तरह वैराग्य उत्पन्न नहीं होता। वैराग्य
उत्पन्न होता है जाति स्मरण से, रिमेंबरिंग आॅफ दि
पास्ट, वह जो बीत गए जन्म हैं उनकी स्मृति से। और
इसलिए दुनिया में वैराग्य कम हो गया है क्योंकि पिछले जन्मों का कोई स्मरण नहीं,
कोई उपाय नहीं।
जिन
मित्रों ने कहा है, उन्हें मैं कहूंगा कि
मेरी तैयारी पूरी है। मैं जो भी कह रहा हूं उसे सिर्फ इसलिए नहीं कह रहा हूं कि
मेरे लिए वह कोई सिद्धांत है। मैं जो भी कह रहा हूं एक-एक शब्द पर जिद्द के साथ
प्रयोग करने की मेरी तैयारी है। और कोई भी आदमी की तैयारी हो तो मुझे बहुत खुशी
होगी। कल मैंने आमंत्रण दिया था कि जो लोग संकल्प करने की हिम्मत रखते हैं,
दो-चार मित्रों के पत्र आए और मुझे बहुत खुशी हुई।
उन्होंने खबर दी है कि हम बहुत उत्सुक हैं और हम प्रतीक्षा में थे कि कोई हमें
बुलाए और आपने पुकार दी तो हम राजी हैं। वे राजी हैं तो मुझे बहुत खुशी है। और
मेरा द्वार उनके लिए खुला है, मैं उन्हें जितनी दूर
ले चलना चाहूं, वे जितना चलना चाहें,
उतनी दूर उन्हें ले जाया जा सकता है। इस बार जरूरत
पड़ गई दुनिया को कि कम से कम थोड़े से लोग प्रबुद्ध हो सकें, अगर थोड़े से लोग भी प्रबुद्ध हो सके, तो हम मनुष्य-जाति के सारे के सारे अंधकार को तोड़ सकते हैं।
हिंदुस्तान
में दो प्रयोग चलते थे पिछले पचास सालों में, शायद आपको खयाल में भी नहीं होगा कि हिंदुस्तान में दो विपरीत ढंग के
प्रयोग पचास सालों में चले। एक प्रयोग गांधी ने किया, एक प्रयोग श्री अरविंद करते थे। गांधी ने एक-एक मनुष्य के चरित्र को ऊपर
उठाने का प्रयोग किया। उसमें गांधी सफल होते हुए दिखाई पड़े। लेकिन बिलकुल असफल हो
गए और गांधी के पीछे जिन लोगों को गांधी ने सोचा था कि इनका चरित्र मैंने उठा लिया
वे बिलकुल मिट्टी के पुतले साबित हुए। जरा पानी गिरा और सब रंग-रोगन बह गया। बीस
साल में रंग-रोगन बह गया, वह हम सब देख रहे थे।
दिल्ली में उसके नंगे शरीर खड़े हुए हैं, उनका
सब रंग-रोगन बह गया। कहीं कोई रंग-रोगन नहीं है अब। वह जो गांधी ने पोतपात कर
तैयार किया था वह वर्षा में बह गया। जब तक पद की वर्षा नहीं हुई थी तब तक उनकी
शक्लें बहुत शानदार मालूम पड़ती थीं और उनके खादी के कपड़े बहुत धुले हुए दिखाई पड़ते
थे और उनकी टोपियां ऐसी लगती थीं कि मुल्क को ऊपर उठा लेंगी। लेकिन आज वे ही
टोपियां इस योग्य हो गई हैं कि गांव-गांव में उनकी होली जलाई जाए क्योंकि वह
बुर्जुआ...क्योंकि वह मुल्क के भ्रष्टाचार की प्रतीक बन गई हैं। गांधी ने एक
प्रयोग किया था जिसमें मालूम हुआ कि वे सफल हो रहे हैं लेकिन बिलकुल असफल हो गए!
गांधी जैसा प्रयोग बहुत बार किया गया और हर बार असफल हो गया।
श्री
अरविंद एक प्रयोग करते थे जिसमें वे सफल होते हुए नहीं मालूम पड़े, नहीं सफल हो सके। लेकिन उनकी दिशा बिलकुल ठीक थी। वे
यह प्रयोग कर रहे थे कि क्या यह संभव है कि थोड़ी सी आत्माएं इतने ऊपर उठ जाएं कि
उनकी मौजूदगी, उनकी प्रेजेंस दूसरी
आत्माओं को ऊपर उठाने लगे और पुकारने लगे और दूसरी आत्माएं ऊपर उठने लगें? क्या यह संभव है कि एक मनुष्य की आत्मा ऊपर उठे और
उसके साथ पूरी मनुष्य की आत्मा का स्तर ऊपर उठ जाए? यह न केवल संभव है बल्कि केवल वही संभव है, दूसरी आज कोई बात सफल नहीं हो सकती।
आज
आदमी तो इतने नीचे गिर चुका है कि अगर हमने यह फिकर की कि हम एक-एक आदमी को
बदलेंगे तो शायद यह बदलाहट कभी नहीं होगी, बल्कि
जो आदमी उनको बदलने जाएगा उनके सत्संग में उसके खुद के बदल जाने की संभावना ज्यादा
है। उसके बदल जाने की संभावना है कि वह भी उनके साथ भ्रष्ट हो जाएगा। आप देखते हैं
जितने जनता के सेवक, जनता की सेवा करने जाते
हैं, थोड़े दिन में पता चलता है कि वे जनता के जेब
काटने वाले सिद्ध होते हैं। वे गए थे सेवा करने, वे गए थे लोगों को सुधारने, थोड़े दिन में पता चलता
है कि वे जनता के जेब काटने वाले सिद्ध होते हैं। वे गए थे सेवा करने, वे गए थे लोगों को सुधारने, थोड़े दिन में पता चलता है कि लोग उनको सुधारने का विचार करते हैं। नहीं,
यह नहीं हो सकता है।
दुनिया
का, मनुष्य-जाति की चेतना का इतिहास यह कहता है कि
दुनिया की चेतना किन्हीं कालों में एकदम ऊपर उठ गई। आपको शायद अंदाज न हो--पच्चीस
सौ वर्ष पहले हिंदुस्तान में बुद्ध पैदा हुए, प्रबुद्ध कात्यायन हुआ, मक्खली गोशालक हुआ,
संजय वेलट्ठी पुत्त हुआ। यूनान में सुकरात हुआ,
प्लेटो हुआ, अरस्तू
हुआ, प्लोटिनस हुआ। चीन में लाओत्सु हुआ, कनफ्यूशियस हुआ, च्वांगत्से हुआ। पच्चीस सौ साल पहले सारी दुनिया में कुल दस पंद्रह लोग
इतनी कीमत के हुए कि उन एक सौ वर्षों में दुनिया की चेतना एकदम आकाश छूने लगी।
सारी दुनिया का स्वर्ण युग आ गया, ऐसा मालूम हुआ। इतनी
प्रखर आत्मा मनुष्य की कभी प्रकट नहीं हुई थी।
महावीर
के साथ पचास हजार लोग दीये की तरह जल गए और गांव-गांव घूमने लगे। बुद्ध के साथ दस
हजार भिक्षु खड़े हो गए और उनकी रोशनी और उनकी ज्योति गांव-गांव को जगाने लगी। जिस
गांव में बुद्ध अपने दस हजार भिक्षुओं को लेकर पहुंच जाते, तीन दिन के भीतर उस गांव की हवा के अणु बदल जाते। जिस गांव में वे दस हजार
भिक्षु बैठ जाते, जिस गांव में वे दस
हजार भिक्षु प्रार्थना करने लगते उस गांव से जैसे अंधकार मिट जाता, जैसे उस गांव में रोशनी छा जाती, जैसे उस गांव के हृदय में कुछ फूल खिलने लगते जो कभी
नहीं खिले थे।
कुछ
थोड़े से लोग उठे ऊपर और उनके साथ ही नीचे के लोगों की आंखें ऊपर उठीं। नीचे के
लोगों की आंखें तभी ऊपर उठती हैं जब ऊपर देखने जैसा कुछ हो। ऊपर देखने जैसा कुछ भी
नहीं है, नीचे देखने जैसा बहुत कुछ है। जो आदमी जितना
नीचे उतर जाता है वह उतनी बड़ी तिजोरी बना लेता है। जो आदमी जितना नीचे उतर जाता है
वह उतनी बढ़िया केडिलक खरीद लाता है। तो नीचे देखने जैसा बहुत कुछ है। दिल्ली
बिलकुल गड्ढे में बस गई है, बिलकुल नीचे। वहां नीचे
देखो, पाताल में दिल्ली है। तो जिसको भी दिल्ली
पहुंचना हो उसको पाताल में उतरना चाहिए, नीचे-नीचे
उतरते जाना चाहिए। ऊपर देखने जैसा कुछ भी नहीं है। किसकी तरफ देखेंगे, कौन है ऊपर! और इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है
कि ऊपर देखने जैसी आत्माएं नहीं हैं जिनकी तरफ देख कर प्राणों में आकर्षण उठता है;
जिनकी तरफ देखकर प्राणों में पुकार उठती है, जिनकी तरफ देख कर प्राण धिक्कारने लगते हैं अपने को
कि यह दीया तो मैं भी हो सकता था, यह फूल तो मेरे भीतर भी
खिल सकते थे, यह गीत तो मैं भी गा
सकता था। यह बुद्ध और यह महावीर और यह कृष्ण और क्राइस्ट मैं भी हो सकता था।
एक
बार यह खयाल आ जाए कि मैं भी हो सकता था। यहां लेकिन कोई हो तो जिसे देख कर यह
खयाल आ जाए तो प्राण ऊपर की यात्रा शुरू कर देते हैं। और स्मरण रहे, प्राण हमेशा यात्रा करते हैं, अगर ऊपर की नहीं करते हैं तो नीचे की करते हैं। प्राण रुकते कभी नहीं हैं,
या तो ऊपर जाएंगे या नीचे, रुकने जैसी कोई चीज नहीं है। ठहराव जैसी कोई चीज नहीं है। स्टेशन जैसी कोई
जगह नहीं है चेतना के जगत में कि जहां आप रुक जाएं और विश्राम कर लें--या ऊपर या
नीचे! जीवन प्रतिक्षण गतिमान है। ऊपर की तरफ चेतनाएं खड़ी करनी हैं।
मैं
सारी दुनिया में एक आंदोलन चाहता हूं--बहुत ज्यादा लोगों का नहीं, थोड़े से हिम्मतवर लोगों का जो प्रयोग करने को राजी
हों। अगर सौ लोग हिंदुस्तान में प्रयोग करने को राजी हों और सौ लोग तय कर लें इस
बात की कि हम अब आत्मा को उन ऊंचाइयों तक ले जाएंगे जहां आदमी का जाना संभव है,
तो बीस वर्ष में हिंदुस्तान की पूरी शक्ल बदल सकती
है। विवेकानंद ने मरते वक्त कहा था कि मैं पुकारता रहा सौ लोगों को, सौ लोग आ जाओ, लेकिन वे सौ लोग नहीं आए और मैं हारा हुआ मर रहा हूं। सिर्फ सौ लोग आ जाते
तो मैं देश को बदल देता, लेकिन विवेकानंद
पुकारते रहे, सौ लोग नहीं आए!
और
मैंने तय किया है कि मैं पुकारूंगा नहीं, गांव-गांव
खोजूंगा, आंख-आंख में झाकूंगा कि वह कौन आदमी है,
जो आदमी अगर पुकारने से नहीं आता है तो खींच कर लाना
पड़ेगा। अगर सौ लोगों को भी लाया जा सके! तो यह मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि सौ
लोगों की उठती हुई आत्माएं एक एवरेस्ट की तरह, एक गौरीशंकर की तरह खड़ी हो जाएंगी। पूरे मुल्क के प्राण उस यात्रा पर आगे
बढ़ सकते हैं।
जिन
मित्रों को मेरी चुनौती ठीक लगती हो और जिनको साहस और बल मालूम पड़ता हो कि जाने की
हिम्मत है उस रास्ते पर जो बहुत अपरिचित है, उस रास्ते पर, उस समुद्र में जिसका
कोई नक्शा नहीं है हमारे पास, तो उसमें जाने की जिसकी
भी हिम्मत हो, जिसका भी साहस हो,
उसे समझ लेना चाहिए कि उसमें इतनी हिम्मत और साहस
सिर्फ इसलिए है कि बहुत गहरे में परमात्मा ने उसको पुकारा होगा, नहीं तो इतना साहस और इतनी हिम्मत नहीं हो सकती थी।
मिस्र
में कहा जाता था कि जब कोई परमात्मा को पुकारता है तो उसे जान लेना चाहिए कि उससे
बहुत पहले परमात्मा ने उसे पुकार लिया होगा अन्यथा पुकार ही पैदा नहीं होती। जिनके
भीतर भी पुकार है उनके ऊपर एक बड़ा दायित्व है आज जगत के लिए। आज तो जगत के
कोने-कोने जाकर कहने की यह बात है कि कुछ थोड़े से लोग बाहर निकल आएं और सारे जीवन
को समर्पित कर दें, ऊंचाइयां अनुभव करने के
लिए।
जीवन
के सारे सत्य, जीवन के आज तक के सारे
अनुभव असत्य हुए जा रहे हैं। जीवन की आज तक की जितनी ऊंचाइयां थीं, जो छुई गईं थीं, वे सब काल्पनिक हुई जा रही हैं। पुराण कथाएं हुई जा रही हैं। सौ दो सौ वर्ष
बाद बच्चे इनकार कर देंगे कि बुद्ध और महावीर और क्राइस्ट जैसे लोग कहीं हुए,
ये सब कहानियां हैं। एक आदमी ने तो पश्चिम में एक
किताब लिखी है और उसने लिखा है कि क्राइस्ट जैसा आदमी कभी नहीं हुआ है। यह सिर्फ
एक पुराना ड्रामा है। जो धीरे-धीरे लोग भूल गए कि ड्रामा है और लोग समझने लगे कि
हिस्ट्री है। अभी हम रामलीला खेलते हैं। हम समझते हैं, राम कभी हुए और इसलिए हम रामलीला खेलते हैं। सौ वर्ष बाद बच्चे कहेंगे कि
रामलीला लिखी जाती रही और लोगों में भ्रम पैदा हो गया कि राम कभी हुए--रामलीला एक
नाटक रहा होगा! बहुत दिनों से चलता रहा, क्योंकि
जब हमारे सामने राम और बुद्ध और क्राइस्ट जैसे आदमी दिखाई पड़ने बंद हो जाएंगे तो
हम कैसे विश्वास कर लें कि ये लोग कभी हुए।
फिर
आदमी का मन कभी यह मानने को राजी नहीं होता कि उससे ऊंचे आदमी भी हो सकते हैं।
आदमी का मन यह मानने को कभी भी राजी नहीं होता कि मुझसे ऊंचा भी कोई है। हमेशा
उसके मन में एक मानने का मन यह होता है कि सबसे ऊंचा आदमी हूं। अपने से ऊंचे आदमी
को तो बहुत मजबूरी में मानता है, नहीं तो कभी मानता नहीं
है। हजार कोशिश करता है खोजने की कि कोई भूल मिल जाए, कोई खामी मिल जाए, तो बता दूं कि यह आदमी
भी नीचा है। तृप्त हो जाऊं कि नहीं, यह
बात गलत थी। कोई पता चल जाए तो जल्दी से घोषणा कर दूं कि पुरानी मूर्ति खंडित हो
गई, वह पुरानी मूर्ति अब मेरे मन में नहीं रही,
वह खंडित हो गई क्योंकि इस आदमी में यह गलती मिल गई।
खोज इसी की चलती थी कि कोई गलती मिल जाए। नहीं मिल जाए तो ईजाद कर लो ताकि तुम
निश्चिंत हो जाओ अपनी मूढ़ता में और तुम्हें लगे कि मैं बिलकुल ठीक हूं।
आदमी
धीरे-धीरे सबको इनकार कर देगा क्योंकि उनके प्रतीक, उनके चिह्न कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते। पत्थर की मूर्तियां कब तक बताएंगी कि
बुद्ध हुए थे, और महावीर हुए थे?
और कागज पर लिखे गए शब्द कब तक समझाएंगे कि क्राइस्ट
हुए थे? और कब तक तुम्हारी गीता बता पाएगी कि कृष्ण थे?
नहीं, ज्यादा
दिन यह नहीं चलेगा। हमें आदमी चाहिए जीसस जैसे, कृष्ण जैसे, बुद्ध जैसे, महावीर जैसे। अगर हम वैसे आदमी आने वाले पचास वर्षों
में पैदा नहीं करते हैं तो मनुष्य-जाति एक अत्यंत अंधकारपूर्ण युग में प्रविष्ट
होने को है। उसका कोई भविष्य नहीं है।
जिन
लोगों को भी लगता हो कि जीवन के लिए वे कुछ कर सकते हैं उनके लिए एक बड़ी चुनौती
है। और मैं तो गांव-गांव यह चुनौती देते हुए घूमूंगा और जहां भी मुझे कोई आंखें
मिल जाएंगी कि लगेगा कि ये दीया बन सकती हैं, इनमें ज्योति जल सकती है तो मैं अपना पूरा श्रम करने को तैयार हूं। मेरी
तरफ से पूरी तैयारी है। देखना है कि मरते वक्त मैं भी कहीं यह न कहूं कि सौ
आदमियों को खोजता था, वे मुझे नहीं मिले।
मेरी
बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके
लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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