शिक्षा
में क्रांति-ओशो
प्रवचन-तेरहवां
संदेह
की ज्योति
मेरे प्रिय आत्मन्!
जैसे व्यक्ति बूढ़ा हो जाता है, वैसे
ही समाज भी बूढ़े हो जाते हैं। और जैसे एक व्यक्ति मरता है, वैसे
ही समाज और संस्कृतियां भी मरती हैं। लेकिन कोई व्यक्ति न बूढ़े होने से इनकार कर
सकता है और न मरने से। लेकिन कोई समाज, कोई संस्कृति, कोई
सभ्यता यदि चाहे तो बूढ़े होने और मरने से इनकार कर सकती है। लेकिन जो समाज मरने से
इनकार कर देगा,
उसका नया जीवन पैदा होना बंद हो जाता है।
मरने से इनकार करना
आसान है, लेकिन अगर नया जीवन मिलना बंद हो जाए, तो फिर एक तरह का मरा हुआ
जीवन शुरू होता है। ऐसा इस देश में हो गया है। इस देश की संस्कृति और सभ्यता बहुत
दिनों से जन्म लेना बंद कर दी है। हजारों साल से हम वैसे ही हैं, जैसे
थे! और यदि हममें कोई परिवर्तन भी हुए हैं, तो वे परिवर्तन बाहर से आए
हैं, हमारे भीतर से नहीं। यदि हम आगे भी बढ़े हैं, तो वह आगे बढ़ना दूसरों
के धक्कों से हुआ है, हमारी अंतरात्मा से नहीं। हम मजबूरी में आगे बढ़े हैं, हमारे
प्राण पीछे से ही जकड़े हुए हैं।
यह हमारा समाज
करीब-करीब मरा हुआ समाज है और इसमें नये जीवन के अंकुर आने बहुत जमाने हुए, तब
से बंद हो गए हैं। लेकिन हम इस बात से न दुखी हैं, न परेशान हैं, बल्कि
हम इस बात से बहुत खुश हैं और बहुत सौभाग्यशाली अपने को मानते हैं! हम निरंतर यह
कहे चले जाते हैं कि हमसे पुरानी कोई सभ्यता नहीं है! हम यह भी कहे चले जाते हैं
कि हमारी किताबों से ज्यादा पुरानी कोई किताबें नहीं हैं! हमारे मंदिरों से ज्यादा
पुराने कोई मंदिर नहीं हैं। और हमें कभी यह खयाल नहीं आता कि पुरानेपन का यह
शोरगुल इस बात का सबूत है कि हमने नया होना बंद कर दिया है, तभी
हम पुराने की इतनी बातें करते हैं।
जो नया होने की क्षमता
रखता है, वह पुराने को विसर्जित कर देता है और रोज नया हो जाता है। जो नया होने की
क्षमता खो देता है, वह पुराने गीत ही गाए चले जाता है और पुरानी
कहानियां ही पढ़े चले जाता है--पुराने नाम, पुराने ग्रंथों को ही सिर पर
लिए चला जाता है! लेकिन इन सब का बोझ मृत बोझ होता है, डेड
वेट होता है,
उसके पीछे देश की प्रतिभा और आत्मा दबती है और नष्ट होती है, विकसित
नहीं होती। इसलिए हमसे ज्यादा उदास कौम इस समय पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। हमारी
उदासी ऐसे हो गई है, जैसे किसी पुराने खंडहर की हालत हो जाती है। जैसे
कोई मकान बहुत दिनों खंडहर पड़ा हो, धूल जम गई हो, कचरा
इकट्ठा हो गया हो--ऐसे ही हमारा मन हो गया है।
नये जीवन की धाराएं
जहां बंद हो जाती हैं, वहां जीवन उदास हो ही जाता है। और जहां नये जीवन की
धाराएं रुक जाती हैं, वहां सड़ांध और गंदगी भी पैदा हो जाती है। जैसे हम
किसी नदी को रोक दें तो फिर नदी सड़ेगी, गंदी होगी। ऐसे ही भारत की
चेतना की धारा रुक गई है--सड़ती है, गंदी होती है। इसलिए चारों
तरफ, सब तरह से सड़ांध है।
आपके गांव के रास्तों
पर ही कूड़ा-करकट और गंदगी भरी है, ऐसा नहीं है। पूरे मुल्क के
मन की हालत आपके गांव के रास्तों जैसी हो गई है। लेकिन गांव के रास्ते तो दिखाई
पड़ते हैं, मन के रास्ते दिखाई भी नहीं पड़ते। और गांव के रास्ते तो हम आज नहीं कल बदल ही
लेंगे, दुनिया इन रास्तों को बरदाश्त नहीं करेगी। लेकिन मन के रास्ते चूंकि दिखाई
नहीं पड़ते,
कौन बदलेगा, कौन खयाल देगा? और
खतरा यह है कि बाहर के रास्ते ठीक हो जाएंगे, और भीतर के रास्ते गंदे ही
रहेंगे। तो बाहर के रास्तों के ठीक होने से भी फिर बहुत कुछ नहीं हो सकता है। नई
चीजें तो हमारे देश में भी आ गई हैं, मकान नये बन रहे हैं। बच्चे
रोज नये पैदा होते हैं, लेकिन दिमाग हमारा पुराना का पुराना ही रहा चला जाता
है! और वह पुराना, इतना पुराना हो गया है कि वह साधारण पुराना नहीं है
वह, बीता हुआ कल नहीं है, हजारों साल पुराना हो गया है!
अगर हम समाज के नियम
उठा कर देखें तो मनु महाराज के बाद हम कहीं आगे नहीं बढ़े! मनु महाराज को हुए कम से
कम साढ़े तीन हजार वर्ष तो हो ही गए होंगे। मनु ने जिस शूद्र को जन्म दिया था, वह
आज भी जिंदा है! और आज भी शूद्र को मिटाने की बातें क्रांतिकारी समझी जाती हैं!
शूद्र को मिटाने की बातें, जब क्रांतिकारी समझी जाती हों तो समझना चाहिए कि
शूद्र बहुत मजबूत है। साढ़े तीन हजार वर्ष पहले किसी आदमी ने एक नियम बनाया था, वह
अब तक जिंदा है; मिटता नहीं! खत्म नहीं होता!
न मालूम किस अतीत
इतिहास में हमने भाग्य का तय किया था कि मनुष्य भाग्य से जीता है! सारी पृथ्वी बदल
डाली आदमी ने। सब कुछ बदल डाला। जो-जो चीजें भाग्य से निर्धारित होती थीं, वे
सब बदल डालीं। आदमी की उम्र बदल दी, बीमारियां बदल दीं, आदमी
का सब बदल डाला, लेकिन हिंदुस्तान अब भी भाग्य के साथ जीए चला जाता
है! अब भी भाग्य की वृत्ति में हमारा कोई फर्क नहीं पड़ा! आज भी यह देखने को मिल
जाती है घटना कि युनिवर्सिटी में पढ़ने वाला लड़का सड़क के किनारे बैठे हुए किसी
ज्योतिषी से चार आने देकर हाथ की रेखाएं दिखवा रहा है! युनिवर्सिटी में पढ़ने वाला
विद्यार्थी भी हाथ की रेखाएं दिखवाएगा, तो फिर इस भारत का क्या होगा? नहीं, वह
कभी-कभी इनकार भी करता है। वह इन सब बातों को मानने से इनकार करता है, लेकिन
परीक्षा के समय विद्यार्थी भी हनुमान जी के मंदिर के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता
है!
हमारा चित्त पुराना
है। हम ऊपर से नये भी हो जाते हैं। कपड़े हमारे नये हो गए हैं। कपड़े हमारे वैसे हो
गए हैं, जैसे सारी दुनिया में होने चाहिए। लेकिन भीतर हमारा आदमी पुराना है। हमारे पास
साधन नये हो गए हैं, लेकिन आदमी पुराना है! सब नया होता जा रहा है--वह हम
नया नहीं कर रहे हैं, यह खयाल रहे। वह मजबूरी में, दुनिया
के धक्के हमको नया होने के लिए मजबूर कर रहे हैं, तो हमें नया होना पड़
रहा है। लेकिन भीतर, जहां दुनिया हमें धक्के नहीं देती, कोई
हमें समझाने नहीं आता, कोई हमें तोड़ने नहीं आता, भीतर
हम पुराने ही रहे चले जाते हैं।
मैं कलकत्ते में एक
डाक्टर के घर रुका हुआ था। बड़े डाक्टर हैं, एफ.आर.सी.एस. हैं, यूरोप
में पढ़े हैं,
और कलकत्ते में बड़ी प्रतिष्ठा है। सांझ को मुझे लेकर एक सभा
में जा रहे हैं। मैं निकला हूं बाहर, पोर्च में आए हैं, उनकी
लड़की को छींक आ गई। उस डाक्टर ने मुझसे कहाः एक मिनट रुक जाएं, लड़की
को छींक आ गई है! मैंने उनसे कहाः तुम्हारी लड़की को छींक आए, इससे
मेरे रुकने का क्या संबंध है? और तुम्हारी लड़की को छींक आई है, तुम
डाक्टर हो,
भलीभांति जानते हो कि छींक के आने के कारण क्या हैं। तुम भी
मुझे रोकते हो?
उन्होंने कहा, वह तो मैं जानता हूं कि छींक
आने के कारण क्या हैं, फिर भी रुकने में हर्ज क्या है, एक
मिनट बाद चले चलते हैं। मैंने कहा, हर्ज बहुत बड़ा है, तुम्हारी
लड़की को छींक आने पर एक मिनट मेरे रुकने का सवाल नहीं है, तुम्हारी
लड़की को छींक आने पर रोकने की धारणा, पूरे मुल्क की आत्मा को रोकने
का सवाल है। धारणा रोकने की है। धारणा खतरनाक है। एक मिनट नहीं, एक
घंटे रुका जा सकता है, वह कोई सवाल नहीं है बड़ा। बड़ा सवाल यह है कि हम अब
भी इस भाषा में सोचते हैं इस दुनिया में, बीसवीं सदी में! तो फिर हम
रुक जाएंगे,
हम आगे नहीं जा सकते। और डाक्टर भी ऐसा सोचता हो, तब
बहुत मुश्किल हो जाती है। तब बहुत कठिन हो जाता है।
लेकिन ये हमारे सोचने
के ढंग इतने मजबूत हो गए हैं, लोहे के हो गए हैं कि इन्हें हिलाना भी मुश्किल हो
गया है। सच तो यह है कि इनके कारण हमने सोचना ही बंद कर दिया है, हम
सोचते ही नहीं। और हमारे देश में हजारों साल से यह भी समझाया जाता है, सोचना
मत। सोचने के संबंध में बड़ी खिलाफत है! सोचने वाला आदमी अच्छा आदमी नहीं है!
क्योंकि सोचने वाला आदमी किसी न किसी तरह का विद्रोह पैदा करता है। जो नहीं सोचते, वे
आदमी कम, भेड़ें ज्यादा हो जाते हैं। वे एक-दूसरे के पीछे चलते चले जाते हैं। आगे वाला
चल रहा है,
इतना भर मेरे चलने के लिए काफी कारण होता है! आगे वाले को
भी यही कारण होता है कि उसके आगे वाला चल रहा है! और पूरी भीड़ ऐसे ही चलती जाती
है!
अगर कोई हिंदुस्तानी
मस्तिष्क के भीतर घुस कर पूछे कि ऐसा तुम क्यों कर रहे हो? तो
एक ही जवाब मिलेगा कि मेरे पिता ने भी ऐसा ही किया था! यह कोई जवाब है! यह हमारा
तो अपमान है ही, हमारे पिता का भी अपमान है। और अगर हम पिता के भीतर
भी घुस सकें तो यही जवाब मिलेगा! हजारों साल पीछे लौट जाएं तो जवाब यही है!
क्योंकि ऐसा होता रहा है, इसलिए हम ऐसा कर रहे हैं!
अब दुनिया भलीभांति
जानती है कि पानी कैसे गिरता है। यज्ञों से न कभी पानी गिरा है, न
गिर सकता है। लेकिन हम यज्ञों से पानी गिराने की कोशिश जारी रखे हुए हैं! सारी
दुनिया भलीभांति जानती है कि एक नल में भी पानी नहीं आ रहा हो, तो
कितना भी यज्ञ करो, नल की टोंटी से पानी नहीं निकाल सकते--आकाश से पानी
गिराना तो बहुत दूर की बात है। एक कुआं सूख गया हो तो यज्ञ करने से कुएं में भी
पानी नहीं आ सकता--आकाश के बादलों से पानी गिरा लेना तो बहुत दूर है! लेकिन जमीन
पर आकाश से पानी गिराया जा रहा है! और जमीन पर ऐसे मुल्क हैं, जहां
पानी नहीं गिराना चाहते हैं, वहां से बादलों को भी हटा रहे हैं। और जहां पानी
लाना चाहते हैं, वहां भी बादल लाए जा रहे हैं।
लेकिन यह तभी होगा, जब
पुराना खयाल हमारा टूट जाए। हम तो सोचते हैं, बादल वगैरह हटाने की जरूरत
नहीं है। हम तो सोचते हैं, आग जला कर कुछ मंत्र पढ़ने की जरूरत है। हम तो सोचते
हैं, आग जला कर गेहूं और घी फेंकने की जरूरत है! गेहूं और घी की कमी है--उसी को
लाने के लिए यज्ञ किया जा रहा है, उसमें हम गेहूं और घी ही जला
रहे हैं! और वह कभी आया नहीं, आज तक तो पता नहीं चला--नहीं तो हमने इतने यज्ञ किए
हैं कि हमसे ज्यादा समृद्ध समाज पृथ्वी पर दूसरा नहीं होना चाहिए था।
अमरीका में सुना नहीं
कि कभी कोई यज्ञ हुआ हो, लेकिन धन आकाश से बरस गया है। रूस में तो सुना नहीं
कि यज्ञ करने वाले को वे पागलखाने भेजेंगे कि क्या करेंगे, लेकिन
रूस की गरीबी मिट गई है। और हम? हम पांच हजार वर्षों से यज्ञ पर यज्ञ किए चले जाते
हैं! लेकिन कोई पूछने को राजी नहीं है कि यह क्या पागलपन हो रहा है! अब अगर सरकार
कहती भी है गुजरात की कि हम यज्ञ नहीं होने देंगे, तो वह भी जो कारण
बताती है, वह यह नहीं कि यज्ञ गलत है और पाप है और अधर्म है--वह भी कारण यह कि गेहूं
हमारे पास ज्यादा नहीं है, वह हम खर्चा नहीं करने देंगे? इतनी
हिम्मत उनकी भी नहीं होती कि सीधी बात कहें कि यज्ञ नहीं होने देंगे। गेहूं का कोई
सवाल नहीं है। गेहूं ज्यादा हो तो भी नहीं होने देंगे। गेहूं कितना ही हो हमारे
पास जलाने को,
तो भी नहीं होने देंगे। यह हिम्मत उनकी भी नहीं है! वे कहते
हैं, राशन की कमी है, इसलिए गेहूं मत जलाइए!
यज्ञ करने वाले बहुत
होशियार हैं,
वे कहेंगे, हम बिना गेहूं के भी यज्ञ कर
लेते हैं! फिर,
यज्ञ चलेगा, यज्ञ नहीं रुकेगा। जड़ी बूटी
डाल देंगे,
मंत्र पढ़ लेंगे, और तरह से काम कर लेंगे--यज्ञ
चलेगा! लेकिन जो लोग इनकार करते हैं, उनके भी इनकार करने के कारण
में बहुत जान नहीं है भीतर। वे भी सीधी और साफ बात नहीं कहते कि तुम आकर
प्रयोगशाला में सिद्ध करके बताओ कि यज्ञ से क्या हो सकता है। तुम कहते हो विश्व
शांति हो सकती है यज्ञ से? एक आदमी अशांत हो, उसको शांत करके बता दो, तो
भी काफी है। एक पागलखाने में जाकर यज्ञ करके दिखाओ, कितने पागल शांत हो
जाते हैं, फिर हम मान लेंगे। और जहां पूरी दुनिया पागल हो गई है, तुम्हारे
यज्ञों से शांत हो जाएगी? नहीं, लेकिन फाॅल्स, झूठा
उपाय। सबसे बड़ा नुकसान यह नहीं करता है कि गेहूं खराब होता है, यह
सवाल नहीं है बड़ा। झूठे उपाय में हम जब तक उलझे रहते हैं, तब
तक सही उपाय नहीं खोजा जा सकता। जो सबसे बड़ी कठिनाई है, वह
यह हो जाती है।
अगर कोई आदमी सोचता है, ताबीज
बांधने से बीमारियां ठीक हो सकती हैं, तो फिर दवाई का शास्त्र
विकसित नहीं होगा। उतना नुकसान ताबीज से नहीं है, क्योंकि ताबीज से एक
आदमी मरेगा,
दस आदमी मरेंगे। बड़ा नुकसान जो है--मेडिकल साइंस विकसित
नहीं होगी उस मुल्क में, जो कि भारी नुकसान है। मेडिकल साइंस तो तभी विकसित
होगी, जब हम खोजें--कि ताबीजों से नहीं, ओझा से नहीं, पंडित
से नहीं, मंत्र से नहीं। इनसे भी कुछ नहीं होता। कुछ और खोजें कि बीमारी का कारण क्या
है, बीमारी कहां से आती है। वहां हम बीमारी को तोड़ने की कोशिश करें, बीमारी
के कारण को मिटाएं, तो शायद बीमारी मिट सकती है।
आज रूस में, या
अमरीका में,
या स्वीडन में या स्विटजरलैंड में बीमारियों का प्रतिशत
इतना कम हो गया है कि दुनिया में इतना स्वस्थ आदमी कभी भी नहीं था। उम्र इतनी बढ़
गई है, जिसका कोई हिसाब नहीं। रूस में क्रांति हुई उन्नीस सौ सत्रह में, तो
उम्र केवल तेईस वर्ष थी, औसत उम्र। आज रूस की औसत उम्र बहत्तर वर्ष है! कहना
चाहिए, हर वर्ष,
एक वर्ष औसत उम्र भी बढ़ती चली गई है। स्वीडन और स्विटजरलैंड
के मुल्कों में औसत उम्र बयासी वर्ष है! और वहां का वैज्ञानिक, विचारक
कहता है कि अगर हम चाहें तो कोई कठिनाई नहीं है कि आदमी को हम सौ वर्ष की आम औसत
उम्र दे दें। और जिस दिन सौ वर्ष औसत उम्र होगी, उस दिन ढाई सौ वर्ष तक
का बूढ़ा मिल सकेगा। क्योंकि अभी हमारे इस मुल्क में समझ लें तीस वर्ष, उनतीस
वर्ष औसत उम्र है, तो अस्सी वर्ष का बूढ़ा मिल जाता है। तीस वर्ष की
उम्र में अगर नब्बे वर्ष का बूढ़ा मिल सकता है, तीन गुना, तो
सौ वर्ष की उम्र में तीन सौ वर्ष का बूढ़ा आसानी से मिल जाएगा। आज भी रूस में कोई
एक हजार से ऊपर लोग डेढ़ सौ वर्ष से ऊपर की उम्र के हैं।
सारी दुनिया सब बदलती
चली जा रही है,
लेकिन हमारे ढांचे तय हैं! हम कहते हैं कि यहां गेहूं की
कमी है, खाने की कमी है, कपड़े की कमी है! और कुछ हम इस ढंग से कहते हैं कि
जैसे हमारे वश में कुछ भी नहीं है! पांच हजार साल से हम भूखे और नंगे हैं! हमारे
ढंग ऐसे हैं कि हम भूखे और नंगे आगे भी पांच हजार सालों तक रहेंगे। इसमें गलती न
जमीन की है,
न आकाश की है। गलती है तो हमारी है और हमारे सोचने के ढंगों
की है। हमारे सोचने के ढंगों की गलती है।
उन्नीस सौ चालीस के
बाद रूस ने अपनी ट्रेनों में कोयले की जगह गेहूं जलाया। क्योंकि कोयला ज्यादा
कीमती मालूम पड़ा, गेहूं सस्ता मालूम पड़ा। गेहूं जलाना आसान मालूम पड़ा, क्योंकि
गेहूं हर साल पैदा हो सकता है। और कोयले को पैदा होने में लाखों साल लग जाते हैं।
कोयला बनने में लाखों साल लग जाते हैं, तो कोयला बहुत कीमती चीज है, कोयले
को मत जलाओ। एक ही साथ जमीन पर एक मुल्क अपने ट्रेन के इंजनों में गेहूं जलाएगा और
दूसरे मुल्क को पेट में जलाने के लिए भी गेहूं नहीं है! तो थोड़ा सोचना पड़ेगा कि
बात क्या है?
और ऐसा नहीं है कि रूस
या अमरीका हमेशा से धनवान थे। इधर पचास-साठ वर्षों में धन पैदा हुआ है। नहीं तो वे
भी हमारे ही जैसे गरीब थे। और यह भी ध्यान रहे, अमरीका के जो मूल
निवासी हैं,
वे आज भी गरीब हैं। तो अमरीका की जमीन की खूबी नहीं है।
काउंट कैसरलिंग नाम का
एक जर्मन विचारक हिंदुस्तान से वापस लौटा। उसने अपनी किताब में एक अजीब बात लिखी
है। मैं पढ़ रहा था, तो बहुत हैरान हुआ। उसने लिखा है कि इंडिया इ.ज ए
रिच कंट्री व्हेअर पुअर पिपल लिव! हिंदुस्तान एक अमीर देश है, जहां
गरीब आदमी रहते हैं! मैं पूछने लगा अपने मन में कि इस आदमी को क्या हो गया है? अगर
देश अमीर है तो गरीब आदमी कैसे रह सकते हैं वहां? और अगर गरीब आदमी रहते
हैं तो अमीर देश कहने का मतलब क्या है? लेकिन फिर मुझे लगा कि वह
मजाक कर रहा है। वह यह कह रहा है कि देश तो अभी अमीर हो सकता है, लेकिन
रहने वाले लोगों की बुद्धि, रहने वालों लोगों का मन, रहने
वाले लोगों के सोचने के ढंग, सब गरीबी के हैं। वे अमीर कभी भी नहीं हो सकते हैं।
अगर इस देश को अमरीका जैसे लोग रहने को मिल जाएं तो अमरीका गरीब देश हो जाए इस
मुल्क के मुकाबले।
सब हमारे पास है, सिर्फ
एक हमारे पास सोचने वाला मस्तिष्क नहीं है। और हमारी हजारों साल की आदतें सोचने की
नहीं हैं, सोचने से बचने की हैं। जहां सोचने का सवाल आए, वहीं हम बच जाना चाहते
हैं! बचने की कोई भी तरकीब मिल जाए, तो हम फौरन हाथ जोड़ कर मंदिर
में बचने को निकल जाएंगे। हम सोचेंगे नहीं, विचार नहीं करेंगे कि क्या
किया जाए।
मैं अभी बिहार था।
बिहार में हजारों अकाल पड़ चुके हैं। बुद्ध के जमाने से लेकर अब तक निरंतर अकाल
पड़ता रहा है। लेकिन बिहार के आदमी ने कुछ भी नहीं किया! बिहार की जमीन के नीचे
बहुत पानी है,
लेकिन उसने कुएं नहीं खोदे। वह हर बार अकाल की प्रतीक्षा
करता है, फिर भीख की प्रतीक्षा करता है--और चलता चला जाता है! वह कुछ नहीं करता! जब
अकाल आता है,
तब स्वीकार कर लेता है कि भीख दो! जब अकाल चला जाता है, तब
अपना फिर जैसा काम चलता था, करने लगता है! अकाल जब आ जाता है तो देश भर के नेता
दान मांगने निकल पड़ते हैं। लेकिन जब अकाल चला जाता है, तब
कोई फिकर नहीं करता है कि फिर हालत वही है, कल फिर अकाल आ जाएगा। उसमें
कोई बदलाहट नहीं होती है।
एक बहुत बड़े
अर्थशास्त्री ने एक किताब लिखी है, उन्नीस सौ पचहत्तर किताब का
नाम है। और उस किताब में यह घोषणा की है और यह घोषणा सही हो सकती है। उसने लिखा है
कि उन्नीस सौ पचहत्तर और उन्नीस सौ अस्सी के बीच हिंदुस्तान में इतने बड़े अकाल के
पड़ने की संभावना है, जिसमें दस करोड़ लोगों से लेकर बीस करोड़ लोगों तक की
मृत्यु हो सकती है। और उसका कहना है, इतना बड़ा अकाल दुनिया के
इतिहास में कभी भी नहीं पड़ा जितना हिंदुस्तान में जल्दी पड़ेगा।
लेकिन हम यह सुन लेंगे
और हम जो कर रहे थे, वह करते चले जाएंगे! कि जब उन्नीस सौ अठहत्तर आएगा
तब देखेंगे! फिर भगवान तो सदा साथ है--फिर भगवान से प्रार्थना करेंगे, फिर
और यज्ञ करेंगे, और बड़े यज्ञ करेंगे! भगवान साथ नहीं है, तो
कम से कम साधु-संन्यासी तो भगवान के एजेंट तो साथ हैं ही--उनसे फिर प्रार्थना
करेंगे! और हम उन्हीं से प्रार्थना कर रहे हैं! और वे ही हमें गलत बातें सुझा रहे
हैं। वे हमें,
वही बातें फिर सुझा देते हैं, जो हजार बार हमें
सुझाई गई हैं। और जिनका कोई फल नहीं हुआ है। लेकिन हम सोचने को तैयार भी नहीं हैं!
जब मुसीबत आती है, तब फिर वे ही गुरु मिल जाते हैं। फिर हम उन्हीं से
पूछने चले जाते हैं! हम उन्हीं से पूछते चले गए हैं! हमने कभी कुछ सोचा नहीं कि हम
एक बार अपने से सोचें कि यह क्या स्थिति है।
और अब हमें सोचना ही
पड़ेगा, अन्यथा। आने वाले भविष्य में न केवल हम गरीब होंगे, भूखे
होंगे, बल्कि यह भी हो सकता है कि अंतरिक्ष में जो लोग गति कर गए हैं, उनके
मुकाबले हमारी चेतना और आत्मा भी पिछड़ जाए। यह भी हो सकता है। यह बिलकुल संभावना
पक्की होती चली जाती है कि जैसे हम जी रहे हैं, हमारे पास ही जंगल में
आदिम आदमी भी जी रहा है। करीब-करीब हम आने वाले पचास वर्षों में उस जगह पहुंच
जाएंगे, जो हमारे और आदिम आदमी के बीच में, आदिवासी और हमारे बीच में जो
फासला है, वह फासला हमारे और अमरीका, हमारे और रूस, हमारे और यूरोप के बीच में
पैदा हो जाएगा।
आज भी सारी दुनिया
हमसे बहुत डरी हुई है, क्योंकि वह देखती है कि यह भिखमंगों का भारी जंजाल
इतना बड़ा है कि इसे तृप्त करना मुश्किल है। और यह कुछ करने को राजी नहीं हैं! सोचा
था उन्होंने बीस साल पहले कि कुछ सहायता हम देंगे तो ठीक हो जाएगा सब। लेकिन उनकी
सहायता से सिर्फ हम एक काम करते हैं कि हम और बच्चे पैदा करते हैं! हम अपनी समस्या
और बड़ी कर देते। और इतना खतरा उनको पैदा हो गया है कि अगर ये हालतें बनती चली जाती
हैं पूरब के मुल्कों की, विशेषकर भारत जैसे मुल्कों की--संख्या बढ़ती चली जाती
है, गरीबी बढ़ती चली जाती है, भोजन-कपड़े कम होते चले जाते हैं, सब
मुश्किल होता चला जाता है, तो सारी दुनिया का सुख-चैन खतरे में है। क्योंकि
इतने बड़े दुख को झेलना भी एक ही साथ जमीन पर बहुत कठिन है।
लेकिन हम क्या कर रहे
हैं?
अगर हम अपनी जिंदगी के
सवालों को चारों तरफ देखें, अखबार उठा कर देखें, तो मुझे नहीं लगता है
कि हम जिंदगी के किसी बड़े मसले पर विचार भी कर रहे हैं। हम किस बात पर विचार करते
हैं? हम विचार करते हैं कि नर्मदा का जल मध्यप्रदेश का है कि गुजरात का है! हम जैसे
नासमझ लोग खोजने ही मुश्किल हैं। हमारे अखबार क्या विचार करते हैं कि एक जिला
मैसूर में रहना चाहिए कि महाराष्ट्र में! इसमें गोली चलेगी! एक कारखाना औरंगाबाद
में बने कि अहमदनगर में! गोली चलेगी! हम जिन समस्याओं से बातें करते हैं, वे
समस्याएं नहीं हैं, बीमारियां हैं। और जिंदगी के सामने जो समस्याएं मुंह
बाकर खड़ी हैं,
उनकी तरफ हम विचार ही नहीं करते! उनको हम देखते ही नहीं! जब
वे हमें पकड़ लेती हैं गर्दन से, तब हम चिल्लाते हैं, रोते हैं! और फिर एक
ही उपाय रह जाता है कि हम भगवान से प्रार्थना करें! क्योंकि जब हम कुछ कर सकते थे, वह
समय हम खो देते हैं और जब कुछ भी नहीं किया जा सकता, असहाय हो जाते हैं, हेल्पलेस
हो जाते हैं,
तो फिर भगवान से प्रार्थना करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं
रह जाता।
और ध्यान रहे, भगवान
ने अगर कभी किसी की सुनी भी होगी, तो उन लोगों की तो कभी नहीं
सुनी, जो सिर्फ प्रार्थनाएं करते हैं। अगर कभी सुनी भी होगी, तो
उन लोगों की सुनी होगी, जो भगवान को भी मजबूर कर देते हैं, जो
इतना करते हैं कि भगवान को भी मान ही जाना पड़ता है, कि कुछ करो। अगर कहीं
कोई भगवान है,
तो वह भी उनको ही मानता है, जो कुछ करते हैं।
स्वामी राम जापान गए
थे। रास्ते में जिस जहाज पर सवार थे--एक बूढ़ा जर्मन भी उस जहाज पर था, जिसकी
उम्र कोई नब्बे वर्ष होगी। वह नब्बे वर्ष की उम्र में चीनी भाषा सीख रहा था! चीनी
भाषा सीखना कठिन मामला है। शायद पृथ्वी पर उतनी कठिन कोई दूसरी भाषा नहीं है। उसका
कारण है कि चीनी भाषा के पास कोई वर्णमाला नहीं है, कोई अल्फाबेट नहीं है, कोई
ए बी सी डी,
क ख ग कुछ भी नहीं है। चीनी भाषा पिक्चोरियल है, चित्रों
की भाषा है। एक-एक शब्द के लिए एक-एक चित्र है। अगर झगड़ा लिखना है, लड़ाई
लिखनी है, तो लड़ाई के लिए कोई शब्द नहीं है--सिर्फ एक छप्पर के नीचे दो औरतें बैठी हुई
हैं। एक छप्पर के नीचे दो औरतों के बैठने का मतलब झगड़ा होता है। तो छप्पर बना है, और
प्रतीक में दो औरतें बैठी हैं, यह झगड़ा हो गया। तो इस तरह कम से कम एक लाख शब्द
सीखने पड़ें तब कहीं साधारण चीनी का ज्ञान होता है। नब्बे वर्ष का बूढ़ा चीनी भाषा
सीख रहा है,
पागल हो गया! रामतीर्थ को लगने लगा, इस
बूढ़े को क्या हो गया है? वह सुबह से लेकर जहाज के डेक पर जो चीनी भाषा सीखने
बैठता है, तो कब सूरज डूब जाता है, उसे पता नहीं चलता है। जब अंधेरा घिर आता है, उसकी
बूढ़ी आंखें थक जाती हैं, तब वह अंदर वापस लौटता है!
दो-तीन दिन में
रामतीर्थ ने उससे पूछा कि आपको पता है, कि मैंने सुना है कि चीनी
भाषा सीखने में कम से कम दस साल लग जाते हैं। आप कब सीख पाओगे? आपकी
कितनी उम्र हो गई है? उस बूढ़े आदमी ने कहा कि उम्र! उम्र का हिसाब भगवान
रखता होगा,
इस फिजूल काम में मैं नहीं पड़ता। यहां काम से फुरसत कहां है? रामतीर्थ
ने कहाः वह तो ठीक है, लेकिन फिर भी दस साल लग जाएंगे सीखने में--और आपके
बचने की उम्मीद कम है। उस बूढ़े आदमी ने कहा कि नब्बे साल का मेरा अनुभव कहता है कि
नब्बे साल तो मैं बचा। मरने की संभावना रोज थी, कभी भी मर सकता था।
जिस दिन से पैदा हुआ, उस दिन के बाद हर रोज मर सकता था। नब्बे साल तो
मैंने मरने को धोखा दे दिया। नब्बे साल का अनुभव यह कहता है, अभी
तक नहीं मरा--तो जरा विश्वास बढ़ता है कि जी सकता हूं और भी जी सकता हूं। लेकिन
तुम्हारी उम्र कितनी है?
रामतीर्थ बहुत मुश्किल
में पड़ गए,
उनकी उम्र उस समय तीस ही वर्ष थी। तुम्हारी उम्र कितनी है? रामतीर्थ
ने कहाः मेरी उम्र तो तीस ही वर्ष है। उस बूढ़े आदमी ने कहा कि बेटे मैं तुमसे यह
कहना चाहता हूं कि तुम्हारा देश क्यों बूढ़ा हो गया है। तुम कुछ भी नहीं करते, तुम
सिर्फ मौत की प्रतीक्षा करते हो, तो बूढ़े तो हो ही जाओगे।
फिर उस बूढ़े ने कहा कि
मेरा तो खयाल यह है कि अगर भगवान कहीं भी है, तो इस बूढ़े को देखेगा कि इतना
श्रम करता है तो कुछ तो दया करता होगा। और अगर नहीं है, तब
उसकी फिकर ही छोड़ देनी चाहिए। और अगर कहीं है, तो इस बूढ़े को बच्चे
की तरह मेहनत करते देख कर यह तो सोचता होगा कि अभी इसे और, और, और
उम्र दे। और यह हैरानी की मैंने घटना सुनी है कि वह बूढ़ा पंद्रह साल जिंदा रहा।
उसने न केवल चीनी भाषा सीखी, बल्कि न केवल चीनी किताबें पढ़ीं, एक
चीनी भाषा में किताब भी लिख कर छोड़ गया है! और रामतीर्थ तो दो साल बाद समाप्त हो
गए। वह आदमी एक सौ पांच साल जीया।
मैं मानता हूं कि उसके
जीने में उसकी जो जीवंत धारणा है, वह बहुत कीमती रूप से हाथ
बंटाई होगी। और इतनी जद्दोजहद जो जिंदगी के लिए कर रहा हो, उसके
लिए भगवान भी अगर कहीं हो, तो थोड़ा खयाल रखना जरूरी पड़ेगा।
और रूस में उन्होंने
सारे रेगिस्तानों को बदल कर खेत बना दिया है, और हमारे सब खेत धीरे-धीरे
रेगिस्तान बने जाते हैं! उन्होंने जहां कभी कुछ पैदा नहीं हुआ था, वहां
सब पैदा करके बता दिया! जहां कभी पानी की बूंद नहीं गई थी, वहां
नदियां पहुंचा दीं उन्होंने! जहां कुछ भी नहीं होता था, वहां
बहुत कुछ करके दिखा दिया! जहां कल बिलकुल रेगिस्तान था, आदमी
जिन जगहों में प्रविष्ट नहीं हुआ था, वहां सुंदर गांव बना दिए! तो
भगवान अगर कहीं भी है, तो उनके श्रम की प्रार्थना को सुनता होगा।
हमारी श्रमहीन
प्रार्थना कहीं भी नहीं सुनी गई है--आज तक तो नहीं सुनी गई है। अभी भी हम श्रमहीन
प्रार्थना ही किए चले जाते हैं। नहीं, ऐसी इंपोटेंट प्रेयरस, ऐसी
नपुंसक प्रार्थनाएं न सुनी गई हैं, न सुनी जा सकती हैं। लेकिन हम
सोचने को राजी नहीं हैं! हमने सोचना ही छोड़ दिया है। हमारे बच्चे भी नहीं सोच रहे
हैं। हम सिर्फ अंधों की भीड़ की तरह चलते चले जाते हैं।
क्या यह उचित है?
यही सवाल पूरे मुल्क
में जगह-जगह मैं लोगों से पूछता हूं, क्या यह उचित है? क्या
यह हितकर है कि हम इस तरह अंधों की भांति चलते चले जाएं, या
कि हम जिंदगी के संबंध में कोई निर्णय लें, जिंदगी को अच्छा बनाने की कोई
कोशिश करें?
नहीं, हमने
ऐसी व्याख्याएं तय कर ली हैं, जिनसे जिंदगी को अच्छा बनाने का सवाल ही खत्म कर
दिया है। हमने जिंदगी में इस तरह की तरकीबें खोज ली हैं, जिससे
न सोचने की जरूरत है, न काम करने की जरूरत है, न
कुछ बदलने की जरूरत है। अगर एक आदमी गरीब है तो हम कहते हैं, वह
अपने भाग्य के कारण गरीब है। एक आदमी अमीर है तो हम कहते हैं, अपने
भाग्य के कारण अमीर है! तो फिर मानना चाहिए कि हिंदुस्तान में सब भाग्यहीन पैदा
होते हैं। और अमरीका पर भगवान की कुछ ज्यादा कृपा है, सब
भाग्यवान वहीं पैदा हो जाते हैं। और कोई आदमी गरीब है तो हम कहते हैं, पिछले
जन्मों में पाप किए होंगे इसलिए गरीब है। कोई आदमी अमीर है तो पिछले जन्मों में
पुण्य किए होंगे। तो फिर भगवान इस मुल्क को क्या कोई नरक समझ रहा है कि सब पापियों
को यहीं भेजता चला जा रहा है? एक ही मतलब होगा इसका कि सब पापी यहीं पैदा हो जाते
हैं। सब पुण्यात्मा कहीं और पैदा हो जाते हैं। सब पापी यहीं पैदा हो जाते
हैं--क्या यह ठीक मालूम पड़ता है?
नहीं, यह
व्याख्या ही गलत है। सच बात यह है कि गरीबी मिटाने के संबंध में हमें चिंतन करना
पड़े, इससे हम बच गए। हमने एक एक्सप्लेनेशन खोज लिया है कि गरीब आदमी पिछले जन्मों
के कारण होता है। अब सोचने की कोई जरूरत न रही, बात खत्म हो गई। अब
अपना अगला जन्म सुधारो, इस जन्म में तो कुछ हो नहीं सकता है, यह
तो पिछले जन्म से हुआ है। तो हमने बात टाल दी पीछे। और बात टाल दी आगे। और आज? आज
हम कुछ भी करने से बच गए--न सोचने की जरूरत है, न कुछ करने की जरूरत
है।
इस तरह की आत्मघाती
धारणाएं छोड़नी पड़ेंगी। मैं नहीं कहता हूं कि जो मैं कहूं, वह
सही है। मैं कहता यह हूं कि कोई भी कुछ कहे, किसी के कहने से कुछ सही नहीं
होता है। हम सबको सामूहिक चिंतन के लिए तैयारी दिखानी चाहिए। और एक-एक सवाल को
वापस जगा लेना चाहिए, मुल्क के सामने सारे सवाल खड़े कर देने चाहिए। और
मुल्क की आने वाली पीढ़ियों को विश्वास में नहीं ढालना चाहिए। बहुत हो चुका
विश्वास। उन्हें विचार की प्रक्रिया में गति देनी चाहिए।
स्कूल और कालेज में भी
जो बच्चे पढ़ रहे हैं, उनको भी सिखाने का हमारा ढंग ऐसा ही है कि वे भी
वहां से विचारवान होकर वापस नहीं लौटते। वे वहां से विज्ञान सीख कर लौटते हैं
लेकिन उनके दिमाग का ढांचा वही है, जो पुराना था। वे विज्ञान को
भी पकड़ लेते हैं अंधे की तरह। उनको यह पता नहीं है कि विज्ञान को अंधे की तरह
पकड़ना खतरनाक है। क्योंकि विज्ञान रोज बदल जाता है। जब हम विश्वविद्यालय से पढ़ कर
आते हैं, जब हम विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं, तब तक सच में विज्ञान बदल गया
होता है। पकड़ने की कोई जरूरत नहीं है अंधे की तरह, सोचने की जरूरत है, विचारने
की जरूरत है,
ताकि मैं जिंदगी को सीधा-सीधा हल करने के लिए कुछ कर सकूं।
और अगर एक बड़ा मुल्क
सोचने लगे--इतना बड़ा मुल्क है हमारा, अगर यहां विचार की प्रक्रिया
मुक्त हो जाए तो शायद हम जीवन को सब तरफ से बदलने में समर्थ हो सकते हैं। अब गरीब
रहने की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ अज्ञान गरीब बनाए हुए है। अब इतनी बीमारियां
झेलने की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ अज्ञान बीमारियां बनाए हुए है। अब पृथ्वी को
नरक और दुख बनाने की कोई जरूरत नहीं है, विज्ञान ने इतनी शक्तियां
मुक्त कर दी हैं कि अगर हमारे मन विचारपूर्ण हों तो हम उन सारी शक्तियों से जमीन
को स्वर्ग बना सकते हैं।
लेकिन यह नहीं हो पा
रहा है, क्योंकि हमारे मन पुराने हैं और उनका ढांचा बिलकुल बंद है, क्लोज्ड
है। सब दिमाग बंद हैं, जैसे कोई आदमी सब द्वार-दरवाजे बंद करके भीतर अपने
मकान में छिप गया हो। वह न द्वार खोलता है, न दरवाजा खोलता है--न सूरज की
रोशनी आती है,
न हवाएं आती हैं। वह भीतर ही सड़ता और मरता है। ऐसे हम बंद
हैं।
नहीं, खुला
हुआ मस्तिष्क चाहिए--सब तरफ से खुला हुआ। गीता पर संदेह चाहिए, रामायण
पर संदेह चाहिए, कृष्ण पर, गांधी पर, बुद्ध
पर, महावीर पर संदेह चाहिए तो मन खुलेगा, तो मन मुक्त होगा। तो हम
सोचना शुरू करेंगे। लेकिन हम कहते हैं, महावीर! महावीर सर्वज्ञ थे।
उन्होंने जो जान लिया वह हमेशा के लिए सत्य है! और हमारी किताब में जो लिखा है
चांद के बाबत,
वह सही है। शंकराचार्य भी यह कह रहे हैं! वह यह कह रहे हैं
कि पहली तो बात यह है कि चांद पर गए ही नहीं लोग, यह सब झूठी अफवाह है!
दूसरा, अगर वे चले भी गए हों, तो यह वह चांद नहीं है, जो
हमारे शास्त्रों में लिखा हुआ है! वह चांद बहुत आगे है। हम किस तरह अपने दिमाग को
बंद किए हुए बैठे हैं!
एक बूढ़ी औरत ने मुझे
आकर कहा कि सुना आपने, शंकराचार्य ने क्या कहा है? मैंने
कहाः मैंने सुना है, और अगर मुल्क समझदार होगा तो ऐसे लोगों के मस्तिष्क
का इलाज करवाना चाहिए। उस बूढ़ी औरत ने कहाः आप क्या कहते हैं? हमारे
वह जगतगुरु हैं, वह जो कहते हैं, वह ठीक कहते हैं।
मैंने कहाः वह तुम्हें ठीक लगता है, तुम्हें ठीक लगता रहेगा, क्योंकि
तुम्हारा मस्तिष्क भी उतना ही बंद है, जितना उनका है। लेकिन, दुनिया
में यह चलेगा नहीं। आज नहीं कल, वह तो पागल सिद्ध होंगे, उनके
पीछे चलने वाली पूरी जमातें भी पागल सिद्ध हो जाएंगी। लेकिन हम चले चले जाएंगे! हम
चलते चले जाएंगे!
मैं अभी पटना था, शंकराचार्य
मेरे साथ थे एक ही मंच पर। उन्होंने वहां से कहा--उन्होंने कहा कि स्त्रियों को
शिक्षा देने की कोई जरूरत नहीं है। क्यों? क्योंकि उन्होंने कहा, हिंदू-धर्म
ने स्त्री जाति को इतना आदर दिया है कि अब और शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती!
और उन्होंने यह भी बड़े मजे की बात कही--और लोग सुन रहे हैं और कोई इनकार नहीं
करता! उन्होंने यह भी कहा कि पश्चिम में अगर किसी स्त्री को डाक्टर होना हो तो
डाक्टरी पढ़नी पड़ेगी। हमारा हिंदू धर्म, इतना महान है हमारा देश कि बस
डाक्टर से शादी कर लो, स्त्री डाक्टरनी हो जाती है! पढ़ने-लिखने की कोई
जरूरत नहीं है! और जो स्त्रियां बैठी थीं, उन्होंने ताली बजाई और
उन्होंने प्रशंसा जाहिर की और वे बड़ी खुश हुई कि इतनी सरलता से हिंदुस्तान में
डाक्टरनी हो जाती हैं। न पढ़ने की कोई जरूरत है--डाक्टर की औरत हो जाना काफी है।
यह अगर इस भांति हम
सोचेंगे तो हम सोच रहे हैं? कि हम सोच ही नहीं रहे हैं?
और इस तरह की बातें हम
सुन रहे हैं,
सुने चले जा रहे हैं! इस तरह के काम किए चले जा रहे हैं कि
सारी दुनिया हम पर हंसती है। सारी दुनिया खयाल करती है कि इस पूरे मुल्क को क्या
हो गया है?
कहीं ऐसा तो नहीं है कि पूरा मुल्क, बहुत
जमाना हुआ,
तब से उसका दिमाग जंग खा गया हो, अब
वह सोचता ही नहीं। और ऐसा हो जाता है। अगर आप पैर का बहुत दिन उपयोग न करें, दो
साल पैर को बांध लें तो फिर पैर नहीं चल सकेगा। इसमें पैर का कोई कसूर नहीं है।
अगर दो साल एक आदमी अंधेरे में रह जाए, आंख बंद कर ले, तो
फिर आंख रोशनी में बाहर नहीं आ सकेगी, आएगा तो आंख बंद हो जाएगी।
आंख देखने की क्षमता खो देगी, ताकत खो देगी। रोशनी घबड़ाने वाली हो जाएगी। और अगर
एक आदमी--हजारों वर्ष से, एक जाति, एक समाज सोचना बंद कर दे, तो
सोचना खत्म हो जाता है।
हम जो करते हैं, वही
जारी रहता है। हम जो करते हैं, उसमें धार आती चली जाती है। हम जो करते हैं, वह
पैना हो जाता है। हम जो करते हैं, वह विकसित होता है। जो हम
नहीं करते हैं,
वह अविकसित हो जाता है। हमने विचार नहीं किया है, विचार
में जंग लग गई है। इसलिए हम किसी चीज में कोई विचार नहीं कर पाते। निहत्थे, असहाय
धारा में खड़े हैं जीवन की, जहां धक्के लग जाएंगे! गुलामी आएगी तो गुलाम हो
जाएंगे, आजादी आएगी तो आजाद हो जाएंगे! यह आजादी भी गुलामी जैसी स्वीकृत हो जाती है!
इसमें कुछ होता नहीं है हमारे भीतर! अगर कल गुलामी आ जाए, तो
हम फिर गुलाम हो सकते हैं! कोई हमें तकलीफ नहीं है! बीमारी आएगी तो राजी हो जाएंगे, गरीबी
आएगी, तो ठीक है! मरेंगे, अकाल पड़ेगा, तो ठीक है! बाढ़ आएगी, तो
ठीक है! जो भी होगा, हम स्वीकार कर लेंगे!
हम आदमी हैं--कि हम
यंत्रों की भांति हो गए हैं कि जो भी होता है, हो जाता है, हम
देख लेते हैं?
हमारा जिंदगी से कोई संघर्ष नहीं है! हम जिंदगी को बदलने की
कोई तत्परता नहीं दिखाते हैं! क्या हमारे भीतर सारी आत्मा खो गई है? और
आत्मा की हम निरंतर बात करते हैं! ऐसा लगता है कि आत्मा कोई रेडीमेड चीज है कि आप
बाजार में गए और खरीद ली? या किताब पढ़ ली और आत्मा मिल गई? कि
राम-राम जप लिया और आत्मा मिल गई? आत्मा सिर्फ उनको उपलब्ध होती
है, जो जिंदगी की सारी कुरूपता, सारे दुख, जिंदगी के सारे अज्ञान, अंधकार
से लड़ते हैं। सिर्फ उनको आत्मा उपलब्ध होती है।
आत्मा संघर्ष का फल
है।
जिनके पास सत्य खो
जाते हैं, उनके पास बातें रह जाती हैं। गरीब आदमी से पूछो तो हमेशा धन की बात करता हुआ
मिलेगा। और बीमार आदमी से पूछो तो हमेशा स्वास्थ्य की बात करता मिलेगा। बीमारों के
अलावा स्वास्थ्य की कोई बात ही नहीं करता। स्वस्थ आदमी जीता है, बात
करने की फुरसत कहां है? बीमार आदमी बैठ कर स्वास्थ्य की बात करता है!
नेचरोपैथी की किताब पढ़ता है कि स्वास्थ्य क्या चीज है! स्वस्थ कैसे हुआ जाए, स्वास्थ्य
की परिभाषा क्या है? स्वास्थ्य खो गया तो स्वास्थ्य की परिभाषा और
डेफिनिशन में वक्त लगाता है! स्वस्थ आदमी स्वास्थ्य को जीता है। फुरसत कहां है कि
बैठ कर स्वास्थ्य की किताब पढ़े? आत्मा खो जाए तो मुल्क भर आत्मा की बातें करने लगता
है! परमात्मा खो जाए तो परमात्मा की बात शुरू हो जाती है!
जो खो जाता है, उसकी
बात होती है।
लेकिन ढंग यह होता है
कि हम चूंकि आत्मा की बहुत बातें करते हैं, इसलिए आत्मवादी हैं। नहीं, हम
आत्मवादी बिलकुल भी नहीं हैं। आत्मा पाने का हमने कोई उपाय ही नहीं किया, विचार
ही नहीं किया,
संघर्ष ही नहीं किया, चुनौती ही नहीं ली--कोई
चैलेंज नहीं लिया तो आत्मा कैसे पैदा हो जाएगी। आत्मा पुकारी नहीं गई। सिर्फ बातें
कर रहे हैं!
एक छोटी सी घटना और
अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
एक मित्र ने मुझे
अमरीका से एक पत्रिका भेजी। उस पत्रिका में एक लेख था, मजाक
का लेख था। उस लेख में, किसी ने सारी दुनिया की जातियों के बाबत कुछ मजाक
किए थे। लिखा था कि अगर अंग्रेज को शराब पिला दी जाए तो अंग्रेज बिलकुल चुप हो
जाता है, फिर उससे एक शब्द भी निकलवाना बहुत मुश्किल है। सच में, वैसे
भी अंग्रेज चुप रहता है। अगर अंग्रेज के साथ सफर करने को मिल जाए डिब्बे में, ट्रेन
की, तो वह आपको स्वीकार भी नहीं करेगा कि आप हैं! चैबीस घंटे भी आप साथ होंगे तो
वह ऐसे ही रहेगा, जैसे वह अकेला है अपने में बंद। वह आपसे बातचीत नहीं
करेगा। अगर शराब पिला दी जाए तो उसका गुण और पूरे रूप में निखर आता है, फिर
वह बात करता ही नहीं। अगर फ्रांसीसी आदमी को शराब पिला दी जाए, तो
वह नाचने-गाने लगता है एकदम। वह वैसे ही नाचता-गाता रहता है। और अगर डच को शराब
पिलाई जाए,
तो वह एकदम भोजन पर टूट पड़ता है। वैसे भी डच आदमी भोजन करने
बैठता है, तो उसे टेबल पर से उठाना आसान बात नहीं है।
तो उसमें सारी दुनिया
के लोगों के बाबत यह लिखा था। सिर्फ भारत उसमें छूट गया था। तो मेरे एक मित्र ने
अमरीका से मुझे वह पत्रिका भेजी और पूछा कि इसमें भारत के बाबत कुछ भी नहीं है। आप
मुझे कहें कि अगर भारतीय को शराब पिला दी जाए तो वह क्या करेगा? मैंने
कहाः उत्तर जाहिर है। अगर भारतीय को शराब पिला दी जाए तो वह उपदेश देना शुरू कर
देगा। वह फौरन आत्मा-परमात्मा की बातें शुरू कर देगा। और गरीबी की वजह से शराब तो
मिलती नहीं,
इसलिए बिना ही शराब के बातें करनी पड़ती हैं। और शराब मिलना
भी तो आसान नहीं है, तो आत्मा-परमात्मा की बात बिना उसके करनी पड़ती है।
लेकिन हम सिर्फ बातचीत करने वाली कौम हैं! हमने करना बंद कर दिया है, जीना
भी बंद कर दिया है, क्योंकि हमने सोचना ही बंद कर दिया है।
आदमी की गहरी से गहरी
आत्मा का विचार तत्व है, आधार है, बुनियाद है--थिंकिंग, सोचना
आधार है आदमी के जीवन का। सिर्फ सोचने की वजह से आदमी जानवरों से अलग है। और अगर
आदमी भी सोचना बंद कर दे तो वह जानवरों जैसा हो जाता है। भारत में करीब-करीब हालत
ऐसी हो गई है। अगर किसी छोटे गांव में जाकर देखें तो आदमी भी वहीं सो रहा है, भैंस
भी वहीं बंधी है, गाय भी वहीं खड़ी है, बैल भी वहीं खड़ा
है--वह आदमी भी वहीं सो रहा है! अगर बहुत गौर से देखें तो उनमें बड़ी समानता मालूम
होती है। वह गाय, बैल और वह आदमी में कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं
मालूम पड़ता है। वे सब एक साथ खड़े हुए हैं, वे सब चुपचाप जीए जा रहे हैं।
फिर गऊ को माता मानने वाले लोग निश्चित ही गऊ के बेटे से ज्यादा हो भी नहीं सकते।
सोचना छोड़ कर हमने
मनुष्यता की,
संघर्ष की जो यात्रा है, वह छोड़ दी है--खड़े हो
गए हैं पशुओं की तरह। कोई विकास नहीं, कोई गति नहीं, कहीं
कोई जाना नहीं--चुपचाप खड़े हैं, स्टैटिक और डेड, रुके हुए और मृत! यह
आगे नहीं चलना चाहिए। नहीं चल सकता है, न चलना उचित है। इसे हम
तोड़ें। तोड़ने के लिए कोई भीड़ की जरूरत नहीं है। एक-एक आदमी सोचना शुरू कर दे अपनी
तरफ से तो हजार चीजें टूटना शुरू हो जाएंगी। सोचेगा तो शायद ताबीज खोल कर फेंक
देगा कि यह क्या मैंने नासमझी बांध रखी है। सोचेगा तो शायद पूछेगा--ये पत्थर पर
लाल रंग लगा हुआ है, तो इससे ये हनुमान जी हो गए? सोचेगा
तो पूछेगा--मंदिर और मस्जिद का झगड़ा अच्छे आदमियों का हो सकता है? सोचेगा
तो पूछेगा। सोचेगा तो हजार प्रश्न उठेंगे। और जब प्रश्न उठेंगे तो जवाब खोजने
पड़ेंगे। और अगर जवाब नहीं मिलेंगे तो फिर गलत को पकड़ने की बात छोड़नी पड़ेगी। जवाब
मिलेंगे तो ठीक हमारे हाथ में आएगा।
सोचना एक कठिन
प्रक्रिया है,
तकलीफदेह है, आर्डुअस है, मुश्किल
है--क्योंकि सोचना कनवीनिएंट नहीं है, सुविधापूर्ण नहीं है।
न सोचना बहुत
सुविधापूर्ण है। कोई और हमारे लिए सोच देता है, हम उसको मान लेते हैं, हमें
कुछ भी नहीं करना पड़ता। और हम सब काम दूसरों से लेने के आदी हो गए हैं। और वह भी
हम उनसे ले रहे हैं, जो कभी के हो चुके!
अब कृष्ण को हुए कितना
जमाना हुआ?
अब बेचारे कृष्ण ने सोचा होगा--हम उन्हीं के सोचने से काम
चला रहे हैं! हम रोज गीता पढ़ लेते हैं। हमारे बड़े से बड़े महात्मा भी गीता में ही
खोजते रहते हैं कि कहां उत्तर मिल जाए! जिंदगी अभी सवाल उठाती है, वह
गीता खोल लेते हैं! वह पूछते हैं कि कृष्ण कहीं उत्तर दे दें! तो कृष्ण ने सोचना
पूरा कर दिया है? अब हमारा काम यह है कि हम उसी को उधार लेते चले
जाएं--बाॅरोड,
उधार जीते चले जाएं! हम नहीं सोचेंगे तो हमारे भीतर कृष्ण
कभी पैदा नहीं हो सकता।
गीता पढ़ने से कृष्ण
पैदा नहीं होता--कृष्ण की भांति उतनी ही तीव्रता से सोचने वाला आदमी कृष्ण जैसी
चेतना को, आत्मा को उपलब्ध होता है।
यह मैं इसलिए कहता हूं
कि शायद आपके मन पर कहीं चोट पड़ जाए और आप सोचना शुरू कर दें। नहीं कहता, मेरी
बात मान लें। जो आदमी ऐसा कहता है, मेरी बात मान लें, वह
आदमी सोचने को बल नहीं देता, सोचने को जड़ से काटता है। किसी की बात मत मानना।
बहुत दिन हो चुके हमें बहुत लोगों की बातें मानते-मानते। कभी अपनी भी खोजना, और
जिंदगी में एक खयाल ले लेना पक्का कि अगर मेरे पास अपना कोई विचार नहीं तो मैं
बेकार जीआ। मरने के पहले कम से कम कुछ तो मेरे पास अपना विचार हो, कि
मरते वक्त भगवान के सामने खड़ा होऊं तो कह सकूं, यह मैंने भी सोचा था, यह
मैंने भी जीआ था, मैं उधार आदमी नहीं हूं। नहीं तो अभी हम भगवान के
सामने खड़े होंगे, तो सिवाय उधारी के हमारे पास कुछ भी नहीं होगा। भगवान
पूछेगा, तुम्हारा अपना क्या है? तुमने खुद सोचा था कुछ, जीआ
था कुछ, तुमने चेतना कितनी विकसित की? हम कहेंगे, नहीं, हम
तो गीता पढ़ते थे, रामायण याद करते थे। हम तो गुरुओं को मानते थे, महात्माओं
के पीछे चलते थे। हमें सोचने की जरूरत क्या? हमारे मुल्क में बहुत महात्मा
हैं, वे सब काम कर देते हैं। वह भगवान कहेगा, मैंने उन महात्माओं को भी
पूछा, वे किन्हीं और महात्माओं के पीछे चलते थे! तुम पीछे ही चलते रहे, तुमने
खुद कभी नहीं सोचा?
और जो आदमी खुद नहीं
सोचता, वह खुद कभी हो ही नहीं पाता। उसको बीइंग नहीं मिलता, वह
आदमी व्यक्ति नहीं बन पाता। और जो आदमी व्यक्ति बनने से बच गया, वह
कैसे धार्मिक होगा? वह कैसे सत्य को जानेगा? वह
कैसे प्रभु के मंदिर में प्रवेश पा सकता है? उसके मंदिर में प्रवेश पाने
की पहली शर्त है व्यक्ति होना, इंडीवीजुअल होना। अपना कुछ लेकर जाना पड़ेगा वहां चढ़ाने
को। समर्पण भी वह मांगेगा--तो अपना तो कुछ होना चाहिए।
देने को हमारे पास
अपना क्या है?
इसे थोड़ा पूछना, खोजना, सोचना, तो
शायद एक धारा फूट पड़े। और अगर इस देश में थोड़े से लोग भी सोचने लगें, तो
इस देश का पुरानापन मिट जाए, नई आत्मा पैदा हो जाए; इसकी जड़ता टूट जाए, चेतना
विकसित होने लगे। धारा खुल जाए तो शायद पृथ्वी पर हम फिर पैर खड़े करने में समर्थ
हो जाएं। वे दूसरे लोग चांद पर पैर रख रहे हैं। और हम पृथ्वी पर ही डगमगा रहे हैं
कि कब गिर जाएं। वे दूसरे लोग पैर जमा कर चांद पर खड़े हो गए हैं, और
हम? हम उस पृथ्वी पर ही खड़े नहीं रह सकते जहां हम हजारों वर्ष से खड़े हैं, पैर
डगमगा रहे हैं। वहीं से हम गिर सकते हैं! यह शोभा योग्य नहीं है। लेकिन, हम
होशियार लोग हैं। हम यह देखते नहीं, हम तो पुरानी गाथा चिल्लाए
चले जाते हैं कि हम जगतगुरु हैं! हम सारी दुनिया के नेता हैं, सारी
दुनिया हमारी तरफ देख रही है! कोई नहीं देख रहा है किसी की तरफ। सब अपनी तरफ देख
रहे हैं। और इस भ्रम में मत रहना कि सारी दुनिया हमारी तरफ देख रही है। कोई नहीं
देख रहा है। कोई नहीं देख रहा है--किसी को देखने की फुर्सत भी नहीं है, जरूरत
भी नहीं है किसी की तरफ देखने की। और कोई हमारी प्रतीक्षा नहीं कर रहा है कि हम
आएं और उसको बोध दें, और ज्ञान दें।
हमारी हालत बता रही है
कि हम अज्ञान की गहरी से गहरी पर्तों में पड़े हैं--हमसे ज्ञान लेने कौन आएगा? हम
सबूत हैं न?
हमसे कौन पूछेगा? और हमारी देने की सामथ्र्य
क्या है? जिन्हें रोटी मांगनी पड़ रही है, वे और कुछ क्या दे सकते हैं?
नहीं, हम
धोखा न दें,
अपने को झूठी बातों में न डालें। स्थिति को समझें, सोचें।
कम से कम नयेे बच्चों, नई पीढ़ी, नये युवकों, विद्यार्थियों
को मैं कहना चाहता हूं, तुम सोचना। तुम अपने पिता की बात मत मान लेना, तुम
अपने गुरु की बात मत मान लेना, तुम सोचना। अगर ठीक लगे तो मानना, न
ठीक लगे तो लड़ना, मत मानना।
सोरबोन विश्वविद्यालय
पर विद्यार्थियों ने एक बड़ी भारी तख्ती लगा दी है फ्रांस में। अलग करने की कोशिश
की गई, लेकिन उन्होंने कहा तख्ती अलग नहीं होगी। तख्ती बड़ी छोटी है, लेकिन
बड़ी अदभुत है। तख्ती पर लिखा हुआ हैः प्रोफेसर्स, यू आर ओल्ड। लिखा हैः
अध्यापको, आप बूढ़े हो चुके हैं। यह तख्ती सोरबोर्न विश्वविद्यालय की बड़ी बिलिं्डग पर
सामने लगी है। बहुत कोशिश की, बहुत झगड़ा हुआ; विद्यार्थियों ने कहाः इसे हम
अलग नहीं होने देंगे। इसको प्रत्येक प्रोफेसर को पढ़ कर निकलना चाहिए रोज कि आप
बूढ़े हो गए हैं। और कृपा करके ध्यान रखें कि हमको बूढ़े बनाने की कोशिश मत करें। तो
थोड़ा सोचना।
मेरी इन बातों को इतनी
शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे
परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
विद्यार्थियों को
संबोधन
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