सन्यास का फूल-
सन्यास की यात्रा से पहले जीवन में कुछ पडाव कुछ घटनाये
घटित होती है, जो इतनी मंद्र ओर अनछुई सी होती है कि उन्हें उस समय समझने के
लिए एक लयवदिता चाहिए। क्योंकि जन्मों की यात्रा का बीज बिना मेध या अषाढ के
अंकुरण होना कठिन है। ये कार्य गुरू के प्रेम की वर्षा ही कर सकती है। इसी लिए
हिंदुओ ने सन्यास या गुरू को एक विशेष महत्व दिया है। मैं रोज पैडो में पानी डालता
था किसी क्यारी में पूरानें पोधो के बीज गिर जाते है जो आंखों से दिखाई नहीं देते।
परंतु मैं अकसर देखता की जैसे ही बरसात का मौसम होता अषाढ के बादल मंडराते ओर
बरसात की चार बूंदे गिरी नहीं की वह पडे बीज अंकुरित हो उठते तब मैंने सोचा साल के
365 दिन मैं पानी डालता हूं परंतु ये बीज पहले क्यों नहीं अकुंरित हुए। पानी-पानी
में भी भेद है बीज की भी मर्जी है की उस के उचित महोल नहीं उत्तपन हुआ था।
वराना तो मैं रोज पानी डालता तो उन्हें उग जाना चाहिए। नहीं
बीज में जीवन है उसके पास कलेवा भी है, तब उसे उचित महोल चहिए वह जानता
है, ये पानी उधार का है आज मिलेगे ओर कल बंद हो सकता है।
उसके पूर्वजों ने जन्मों जो संचित किया था उसके अंदर सब फीड था। इस लिए वह पानी
पानी के भेद को जानता है। परंतु गुरू की वर्षा के बिना सन्यास का अंकुरण असंभव ही नहीं
अति कठिन है। एक तरफा है, गुरू का साक्षा होना अति महत्वपूर्ण
है। क्योंकि बीज जानता है, अब मेध घीरे है ओर चार माह ताक मुझे
पानी मिलेगा तब में जड पकड चुका होंगा वह वह अंकुरित हो उठता है। आप जंगल या कहीं
भी ये नजारा देख सकते है की पानी की चार बुंदे गिरी नहीं की सोई प्रकृति लहरा उठती
है। यहीं हाल चेतना के तल का भी है गुरू के बिना सन्यास में प्रदापण करणा कठिन है।
हम सोचते है हमने लिया, ओर कुछ लोग मन के कारण या किसी को
देख कर सन्यास में कूद भी जाते है परंतु वह आगे चल नहीं पात। इन में उनकी गलती नहीं
है, एक छुअन ने उनहें उत्साहित किया जो उन्होंने सहास के रूप
में परिर्वतित कर दिया जो उनके लिए एक श्रोतापत्ती बन गया। एक लकिर बन गई वह जन्मों
जन्मों चलने एक एक मार्ग बन जायेगा।
1990 से पहले ओशो ने कई बार जगाने की कोशिश की परंतु मैं
बहुत ही अहंकारी था, बिना
जाने समझे अपने को बहुत ज्ञानी समझता था। चलों उस की सजा मुझे मिली की गुरू चरणों
तक नहीं पहूंच पाये, गुरू के शरिर छोडने के कुछ दिन बाद हम दोनों
को गुरू ने पकड़ लिया। आपने से जोड लिया अपने में समा लिया। ओर जीवन में ध्यान शुरू हो गया, जिस
तरह से मैं ओर मोहनी जीवन की नाव में एक साथ चले, उसी तरह से
सन्यास के मार्ग पर ही हम दोनों एक ही दिन एक साथ हो लिए। कितना विचित्र है,
उसी झेलम ऐक्सप्रेस से शादी के बाद हम जम्मु की ओर जाते है ओर ठीक
14 साल बाद सन्यास की यात्रा भी उसी झेलन ऐक्सप्रेस से शुरू होती हे अब पश्चिम की
ओर नहीं पूर्व की ओर पूना की ओर की यात्रा भी उसी रेल से शरू होती है।
ध्यान करते 4 साल होने पर लगा की अब तो सन्यास ले लेना ही
होगा। हमारे से जूडे लोगो के गले में जब ओशो की माला देखते तो बडा अजिब लगता की यह
तो चार महीने पहले पहली बार हमारे पास ध्यान के लिए आया ओर कितना भाग्यशाली है की सन्यास
की माला पहन कर हमसे मिलने आ गया है। प्याल भर गया था अब उसमें ओर गुंजाईस नहीं थी
तब दिसम्बर माह में 1994 में जब बच्चों के स्कुल की छूटिया हुई तो अम्मा जो घर पर
काम करती थी ओर पिता के भरोसे बच्चो को छोड़ कर हम अपना काम धंधा बंध कर हम पूना
के लिए चल दिये।
इतने साल ध्यान करने के बाद, जमींन की कुछ गुडाई नलाई हो गई
थी कुछ खरपतवार निकल गई थी अब उस में बीज बोया जा सकता था। सच ही सन्यास के वे पल
वो अनुभुति जो उस पल मिली थी उसकी झलके मात्र 15 साल बाद शुरू हुई आज 28 साल बाद
भी वो झलके स्थाई नहीं हो पाई है कुछ-कुछ दिखाई देने लगा है। सन्यास के समय गुरू
की उपस्थिती का अब कोई महत्व नहीं रहा। उसके लिए भावुकत-संवेदना चाहिए। जो पूना में
तो खत्म ही होगया है सन्या को एक खेल बना दिया न समय न स्थान, न भाव। तब वो माहोल कैसे बन सकता है। सन्यास के समय की अनुभुति आप किसी भी
सन्यासी से पूछोगे तो अदभुत होगी। शायद एक उतुंग लहर पर हम कुछ क्षण के लिए चढ़
जाते है। साधक को दूर दराज, एक हरियाली एक शितलता एक सुआस का
अहसास हो जाता है। ओर उसके कदमों में सजीवता आ जाती है एक सहास आ जाती है।
ओर उस साहस उस माधुर्य को बटोर कर वह आगे की यात्रा पर एक
विश्वास के साथ चल ही नहीं पड़ता कुछ तो उस के बाद दौड ही पडते है। मा प्रेम प्रथान
के यहां ठहरे थे। तब उनके पति ने एक पत्र के साथ सन्यास की फोटो भी भेजी थी वह आज
24 साल बाद भी युहीं सुरक्षित है हमारे पास। ओर इस बार जब उसी अंग्रेज फोटो ग्राफर
को देखा जिस ने हमारे सन्यास के फोटो खीचे तो मन कितना प्रसन्न हुआ कह नहीं सकते उसने
अपना पूरा जीवन एक ही कार्य ध्यान के लिए लगा दिया आज भी वह यहीं कार्य करता है।
ओर सध्या सत्संग में इत्फाक से हमारे पास ही बैठता था, जब
वह ध्यान के समय जिबरिस करता तो वह कैसा बाल वत हो जाता। कैसे किलकाई मारता था हम भी
उस लहर पर बैठ जाते ओर जीबरिस में बहने लग जाते साथ-संग का कितना महत्व है हम उसमें
डूबते है तभी जान पाते है। किस तनमयता से डूबे हे ये लोग गुरू में आप देख कर
विष्यमविमुग्ध हो जाओगे। एक दिन की बात है उन फोटोग्राफर स्वामी को जरा सी खांसी
आई वह तुरंत उठा ओर बुद्धा हाल से बहार चला गया।
यहीं नेतिकता है इन लोगों में जिसे हम चलबाजी कर के उस्ताज
समझते है। परंतु छलते हम अपने को ही है। चित की मलिनता को देखना उस के पार जाना ही
सही सफर है। यही समर्पण है, यहीं सन्यास है, प्यारे
गुरू ने जो दिया उसे शब्दों मे नहीं बांधा जा सकता। परंतु यादे है एक छोटी सी
पोटली में समा नहीं पा रही इस लिए उन्हें शब्द दे रहा हूं....गुरू के बिना जीवन को
जब देखते है समझते है, तो कितना सुना रंग-रस हीन लगता है।
गुरू ने हमे जीने की कला सिखा दी। एक उम्र के बाद आदमी ध्यान ने करे तो जीवन बोझल हो जाता है। ओर ध्यान जीवन
में नये अंकुरण ही नही लाता उतुंग उंच्चाई की ओर भी ले जाता है। जहां से जीवन को
जीने को ढंग उसका स्वाद ही बदल जाता है। एक खुला आकाश मिल जाता है, परंतु हम सोचते है की इस उस उम्र में जाकर कर लेंगे तब कठिन है, तैयारी तो पहले ही करते रहनी होगी। तब ही सन्यास का फूल खिलता है। नहीं तो
वह बोझल हो जाता है।
प्यारे गुरू को नमन हम दोनों का...जो उसने हमें उठा कर
मार्ग पर चलना सिखा दिया। चलने में ही तो आनदं है मंजिल की परवाह किसे है। मंजिल
के बाद तो सब खत्म चलने से ही तो नित-नुतन देखने को जीने को मिलता है। नित सफर के नये
रंग...ढंग...कभी हरियाली कहीं गहरे खाई....कहीं उंचे पत्थर ओर कही सूखा रेगिस्थान....बदलना
ही जीवन की अनुभुति है ओर एक अहसास भी की हम चल रहे है। तभी तो स्थाई र्निजिव सा हो
जाता है, जल की
निर्मलता भी उसके चलने से ही है, ठहराव तो उसकी मृत्यु है। यहीं
तो मार्ग का सौंदर्य है।
जय ओशो---सत-सत नमन। हम जैसे हजारों लाखों चलने वालों की ओर
से। प्यारे ओशो...
ओशो आये उत्सव आया,
मन ही मन अब मन मुस्काया।
जीवन ने भी फूल खिलाया।
सावन का यौवन गदराया।
मनसा-मोहनी
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