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शनिवार, 12 मई 2018

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-23

शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-तेईसवां
नारी की मुक्ति और शांति

मेरे प्रिय आत्मन्!
नारी और शांति के संबंध में कुछ थोड़े से सूत्र समझना उपयोगी हैं। 
एक तो सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि नारी का अब तक कोई व्यक्तित्व नहीं रहा है और पुरुष ने उसके व्यक्तित्व को मिटाने की भरसक चेष्टा भी की है। नारी या तो किसी की बेटी होती है, या किसी की बहन होती है और या किसी की पत्नी होती है। नारी का अपना होना नहीं है। विवाह हो तो उसका नाम भी पुरुष बदल डालते हैं, नया नाम रख लेते हैं। विवाह हो जाने के बाद उसका सीधा कोई तादात्म्य, कोई सीधी आइडेंटिटी अपने साथ नहीं होती है। वह किसी की श्रीमती हो जाती है। उसके परिचय में भी हम कहते हैं, श्रीमती खन्ना या श्रीमती गूजर या कुछ। सीधा उसका कोई व्यक्तित्व समाज के समक्ष नहीं होता। बीच में पुरुष को लेकर ही उसका कोई अर्थ बनता है। पुराने शास्त्र कहते हैं कि जब वह कुंआरी हो तो पिता उसकी रक्षा करे; जब वह युवा हो तो पति उसकी रक्षा करे; जब वह वृद्ध हो जाए तो उसके बेटे उसकी रक्षा करें; लेकिन किसी भी स्थिति में उसका अपना कोई अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है।
नारी को समझने के लिए पहली बात ही समझनी जरूरी है कि उसके पास व्यक्तित्व नहीं है, और जिसके पास व्यक्तित्व न हो, वह शांति का आधार कभी भी नहीं बन सकती। जिसके पास व्यक्तित्व नहीं है, वह स्वयं इतना अशांत होगा कि वह शांति का आधार नहीं बनता। जीवन की बड़ी से बड़ी शांति की उपलब्धि अपने व्यक्तित्व को पाने से शुरू होती है। और जिस दिन जो हम बनने को पैदा हुए हैं, वही बन जाते हैं; उसी दिन मन प्रफुल्लता से भर जाता है।
एक गुलाब का पौधा है। उसकी खुशी कब पूरी होती है! उसका आनंद कब प्रकट होता है? जब उसके फूल पूरी तरह खिल जाते हैं, जब आकाश में हवाओं को वह अपनी सुगंध को लुटा देता है और जब सूरज की किरणों में उसके खिले हुए फूल नाच लेते हैं। और जब राह से गुजरने वाले अपरिचित राहगीर उसकी सुगंध के संगीत से भर जाते हैं तब वह पौधा तृप्त हो जाता है। लेकिन जब तक किसी पौधे में फूल न आएं, तब तक उस पौधे में एक बेचैनी, एक अशांति, एक परेशानी बनी रहती है। नारी फूल को उपलब्ध ही नहीं हो पाती है क्योंकि उसका व्यक्तित्व ही अस्वीकृत है। उसके व्यक्तित्व को ही जगह नहीं है। अपनी हैसियत जब तक नारी को उपलब्ध नहीं है तब तक नारी शांत नहीं हो सकती। 
और नारी की अशांति इतनी महंगी है जिसका हिसाब नहीं। यद्यपि पुरुष ने ही नारी का व्यक्तित्व छीना है और पुरुष ही नारी के अशांत होने से हजार गुना अशांत हो गया है। लेकिन उसे पता नहीं चलता कि उसने व्यक्तित्व छीना है इसलिए इतनी अशांति है। बल्कि शायद तर्क यही कहता है, सभी मूढ़ तर्क इसी भांति चलते हैं कि वह सोचता है कि नारी का व्यक्तित्व थोड़ा बहुत और बचा हो, वह भी छीन लेना जरूरी है ताकि शांति पूरी हो जाए। शांति होगी व्यक्तित्व के प्रकट होने से, व्यक्तित्व छीन लेने से नहीं, क्योंकि नारी कभी तृप्ति अनुभव कर ही नहीं पाती।
चूंकि व्यक्तित्व छीना गया है इसलिए वह कभी अॅाथेंटिक, प्रामाणिक रूप में अपने पैरों पर खड़ी ही नहीं हो पाती और हमने सारी व्यवस्था ऐसी की है कि वह खड़ी न हो पाए। हजारों वर्षों तक नारी को शिक्षा नहीं दी, सिर्फ इसलिए कि शिक्षित होते से ही वह अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास शुरू करेगी। पैर के नीचे से जमीन खींचनी हो तो शिक्षा मत दो। अगर शिक्षा न दी जाए तो पंगु हो जाता है व्यक्ति, और उस समाज में, जहां शिक्षित की गति होगी, नारी कोई गति न कर पाएगी। इसलिए नारी को वर्जित रखा, हजारों वर्षों तक शिक्षा नहीं दी।
लेकिन अशिक्षित नारी का मतलब? --अशिक्षित मां, अशिक्षित पत्नी, अशिक्षित बेटी, अशिक्षित बहन, अशिक्षित प्रेमिका। नारी को अशिक्षित रखने का अर्थ क्या होगा? कि जीवन के सब तलों पर अशिक्षित नारी खड़ी हो जाएगी। और शिक्षित पुरुष और अशिक्षित नारी के बीच इतना बड़ा फासला हो जाएगा कि उसके बीच तालमेल बिठालना मुश्किल है। इसलिए धीरे-धीरे नारी की स्थिति एक दासी की हो गई और पुरुष मालिक बन गया। पति का मतलब ही मालिक होता है। स्वामी का मतलब भी मालिक होता है। और हजारों साल से स्त्री पति को स्वामी कह रही है और अपने पत्रों में आपकी दासी लिख कर दस्तखत कर रही है।
पुरुष बहुत प्रसन्न हो रहा है। पुरुष की प्रसन्नता समझी जा सकती है, लेकिन नारी की नासमझी समझनी बहुत मुश्किल है। और दासी और मालिक के बीच कभी भी अच्छे संबंध नहीं हो सकते। दो मित्रों के बीच अच्छे संबंध हो सकते हैं, शांतिपूर्ण, आनंदपूर्ण, प्रेम से भरे। लेकिन एक गुलाम और एक मालिक के बीच कैसे अच्छा संबंध हो सकता है। गुलाम और मालिक के बीच हमेशा तनाव होगा, अशांति होगी, बेचैनी होगी, संघर्ष होगा।
और इसलिए हजारों-हजारों साल से स्त्री और पुरुष के बीच एक भीतरी संघर्ष है, जो दिन-रात चल रहा है। नारी की बगावत दिखाई नहीं पड़ती, क्योंकि वह रोज चल रही है, प्रतिपल चल रही है। एक-एक दांपत्य दुखद है, कलह से भरा हुआ है। पति-पत्नी के बीच के संबंध अत्यंत अप्रीतिपूर्ण हैं, अत्यंत तने हुए हैं, खिंचे हुए हैं। लेकिन धीरे-धीरे ऐसा समझ लिया गया है कि यही स्वाभाविक है। हजारों-हजारों साल तक कोई बात चले तो स्वाभाविक मालूम पड़ने लगती है। अब ऐसा समझ लिया गया है कि यह स्वाभाविक है। बल्कि इसको इतना स्वाभाविक समझ लिया है कि जो लोग शांति की खोज में जाते हैं वे पत्नी से मुक्त हुए बिना नहीं जाते। वह पहले पत्नी से मुक्त होते हैं, फिर शांति की खोज में जाते हैं। ख्याल यह बन गया है कि पत्नी के साथ तो शांति संभव ही नहीं है। तो अगर पत्नी से भाग सके कोई, संन्यासी हो सके तभी शांत हो सकता है।
नहीं, यह सवाल पत्नी के साथ का नहीं है, स्त्री और पुरुष के बीच अब तक हमने जो व्यवस्था की है, वह गलत है। वह अशांति का आधार है। अगर स्त्री और पुरुष के बीच कभी भी शांतिपूर्ण, प्रेमपूर्ण, आनंदपूर्ण, मैत्रीपूर्ण व्यवस्था लानी हो तो पहली तो बात, जरूरत है कि स्त्री ठीक पुरुष के समकक्ष आ जाए, इंच भर भी नीचे नहीं। स्त्रियां कोशिश करती हैं पुरुष के समकक्ष आने की, लेकिन वे कोशिश सब बेहूदी हैं। या तो वे लंबी एड़ी का जूता पहन कर पुरुष के समकक्ष आना चाहती हैं, ऊंचाई बराबर करना चाहती हैं। लेकिन उस भांति कोई पुरुष के समकक्ष होने का अर्थ नहीं है। लंबी एड़ी का जूता पहन कर सिर्फ चलने में तकलीफ हो जाती है, कोई और फर्क नहीं पड़ता। पुरुष के चलने और स्त्री के चलने में भी कमजोरी का फर्क पड़ जाता है, और कोई फर्क नहीं पड़ता। और जितनी लंबी एड़ी होती जाती है उतनी स्त्री की थोड़ी ऊंचाई तो बढ़ती है लेकिन शरीर की ऊंचाई बढ़ने से पुरुष के समकक्ष आने का मार्ग नहीं है। यह समकक्ष होने की बड़ी बचकानी तरकीब हुई, सब्स्टीट्यूट बहुत ही साधारण हुआ। इस तरह कुछ हो नहीं सकता।
दूसरा उपाय यह है कि पुरुष जिस ढंग से रहता है, उसी ढंग से स्त्री रहने लगे तो शायद समकक्ष आ जाए। वह जैसे कपड़े पहनता है, वह पहनने लगे। पश्चिम में वैसी दौड़ शुरू हुई, आज नहीं कल, यहां भी दौड़ शुरू होगी। वह इस तरह के ढंग जो पुरुष अख्तियार करता है, वह भी करे। पुरुष शराब पीता है क्लब में, तो वह भी पीए; और पुरुष सिगरेट पीता है, तो वह भी पीए और जो-जो पुरुष करता है, वह-वह, स्वयं भी करे। तो वह सोचती है कि शायद पुरुष के समकक्ष आ जाएगी। यह भी बड़ी बचकानी बात है। छोटे बच्चे इसलिए सिगरेट पीना शुरू करते हैं कि सिगरेट पीने के साथ उन्हें लगता है कि एक प्रेस्टीज, एक शक्ति, एक पॅावर जुड़ा हुआ है। जब वे लोगों को, अपने पिता को सिगरेट पीते देखते हैं तो वे समझते हैं कि सिगरेट पीने से कुछ बड़े होने का संबंध है। छोटे बच्चे भी अकड़ कर सड़क पर सिगरेट पीते हैं, वह सिर्फ इसलिए ताकि वे बड़े होने का मजा ले सकें, वे कोई छोटे नहीं हैं।
तो एक दौड़, जहां पुरुष के समकक्ष होने की इस तरह की कोशिशें की जा रही हैं कि कपड़े बदल लो, सिगरेट पी लो, शराब पी लो, क्लबों में जो पुरुष कह रहा है, वही कहो, जिन अश्लील ढंग से पुरुष गालियां बकते हैं, वैसी गालियां बको, जिस बेहूदे ढंग से वे बातें करते हैं उसी बेहूदे ढंग से स्त्रियां भी बातें करती हैं। अगर वे सड़कों पर धक्का देकर चलते हैं तो स्त्रियां भी धक्का दें। इस भांति समकक्ष होने की कोशिश चल रही है। यह कोशिश समकक्ष होने की कोशिश नहीं है, बड़ी पागलपन की कोशिश है। समकक्ष होने का कुछ और मतलब है।
पुरुष के समान खड़े होने का यह मतलब नहीं है कि स्त्रियां पुरुषों जैसी हो जाएं। पुरुषों के समान होने का यह अर्थ है कि पुरुषों ने पुरुष होने में जितना विकास किया है, स्त्रियां स्त्रियां होने में उतना विकास करें। यह बहुत अलग बात है। पुरुषों की नकल से स्त्रियां पुरुषों के समान नहीं हो सकती हैं--और जब तक स्त्रियां पुरुषों के समान नहीं हो जाती हैं, समान का मेरा मतलब, पुरुषों जैसी नहीं; पुरुषों के समान होने का मतलब, पुरुष ने जितना विकास किया है, उतना ही विकास; पुरुष के रास्तों पर नहीं, स्त्री के अपने रास्ते हैं--उन पर और यदि स्त्री और पुरुष समकक्ष नहीं हो जाते हैं तो उन दोनों के बीच कभी भी प्रेम और शांति स्थापित नहीं हो सकती। फासला इतना ज्यादा है कि उसे पार करना मुश्किल है।
लेकिन पुरुषों के समकक्ष होने की जो मैंने दौड़ कही वह जूते की एड़ी से लेकर कपड़ों, वस्त्रों तक, शिक्षा तक भी चल रही है। जब मैं कहता हूं, स्त्रियां भी शिक्षित होनी चाहिए, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि वे ठीक पुरुषों जैसी शिक्षा से शिक्षित हो जाए। तब उपद्रव होगा, वैसा उपद्रव भी हो रहा है। अगर स्त्रियों को गणित में, तर्क में, व्यायाम में, फिजिक्स में, केमिस्ट्री में, विज्ञान में, ठीक पुरुषों जैसा शिक्षित कर दिया जाए, तो इस सारी शिक्षा में उनके भीतर स्त्रैण-तत्व का कोई अनिवार्य हिस्सा मर जाता है। असल में कुछ चीजों का को-एक्झिस्टेंस नहीं होता, कुछ चीजों का सह-अस्तित्व नहीं होता है। जैसे अगर कोई आदमी बहुत तर्कनिष्ठ हो तो उसके भीतर काव्य का अस्तित्व नहीं होगा। अगर कोई व्यक्ति बहुत तर्कयुक्त हो तो उसके भीतर कविता मर जाएगी। और अगर किसी के भीतर कविता विकसित हो तो उसके भीतर तर्क नहीं रह जाएगा। इन दोनों का सह-अस्तित्व नहीं होता। हो ही नहीं सकता है। क्योंकि काव्य के सोचने का ढंग बड़ा तर्कमुक्त है और तर्क के सोचने का ढंग काव्य के बिल्कुल उलटा है।
आइंस्टीन तो बड़ा गणितज्ञ था। उसने जिस युवती से विवाह किया था, फ्रा आइंस्टीन से, वह एक जर्मन भाषा की कवयित्री थी। एक गणितज्ञ था, एक कवयित्री थी। और फ्रा ने सोचा था कि आइंस्टीन को पहली ही रात अपनी कुछ कविताएं बताए। बड़ी प्रशंसा हुई थी उसकी कविताओं की। उसने पहली ही रात अपनी कुछ कविताएं आइंस्टीन को सुनाईं। वह बड़े आश्चर्य से सुनता रहा, और जब पूरा सुन चुका, तब फ्रा घबड़ा गई, क्योंकि वह ऐसे सुन रहा था जैसे कोई बच्चे की परीक्षा लेते वक्त उसको देखता है। या कोई पुलिस का इंस्पेक्टर किसी चोर की छान-बीन करता है, उसके खीसे की छान-बीन करता है, ऐसे देख रहा था। जब वह पूरा बोल चुकी, तो वह डरी कि पूछूं भी कि नहीं कि कैसा लगा।
फिर उसने पूछा डरते-डरते, कैसा लगा? आइंस्टीन ने कहा: क्या एब्सर्ड, यह क्या बेहूदी और फिजूल की बातें? इनका कोई मतलब? मैं तो दंग हूं कि इतनी बुद्धिहीन बातें भी तू सोच सकती है। अपने प्रेमी को उसने सोचा है, जैसा कि कवि हजारों वर्षों से सोचते रहे हैं, प्रेमी अपनी प्रेयसी को चांद के चेहरे से तुलना देते रहे हैं, प्रेमी प्रेयसियों को, प्रेयसियां प्रेमियों को चांद में देखते रहे हैं। तो उसने भी गीत में गाया है कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी के लिए चांद की उपमा देता है कि तेरा चेहरा चांद की भांति है।
आइंस्टीन कहता है, पागल हो गई हो? चांद कितना बड़ा है, चेहरा कितना छोटा है, गणित का हिसाब तो बहुत अलग है। कहां चांद, कहां चेहरा, कोई संबंध नहीं दोनों का। और चांद पर इतने-इतने बड़े गड्ढे हैं, इतनी-इतनी बड़ी खाइयां हैं, इतने-इतने बड़े पहाड़ हैं कि अगर किसी स्त्री के चेहरे पर हों तो कोई पसंद ही न कर सके। वह फ्रा तो बहुत घबड़ा गई, वह आइंस्टीन को नहीं समझा पाती है। बहुत कोशिश करती है कि नहीं, यह तो उपमा है। लेकिन आइंस्टीन कहता है जो उपमा सीधी ही गलत है, वह ठीक कैसे हो सकती है। नहीं-नहीं, कभी यह नहीं हो सकता। आइंस्टीन कहता है कि अगर किसी स्त्री के सिर की जगह चांद रख दिया जाए तो उसका पता भी नहीं चलेगा। इतना वजनी है चांद कि वह कहां दब कर खो जाएगी, कुछ पता नहीं चलेगा। एकदम गलत है, एकदम ठीक नहीं है। फिर फ्रा ने कसम खा ली है कि उसे कविता नहीं बताएगी क्योंकि कविता वह पकड़ ही नहीं सकता।
मेरी अपनी दृष्टि ऐसी है कि स्त्री और पुरुष के व्यक्तित्व में एक बुनियादी भेद है। और है, यह शुभ है। परमात्मा की बड़ी कृपा है। वही आकर्षण है स्त्री और पुरुष के बीच। वह जो भेद है, वह भेद बहुत गहरा है। अगर वह भेद टूटता है तो या तो पुरुष स्त्रैण हो जाएगा और या स्त्री जो है वह पुरुष हो जाएगी--दोनों हालत में नुकसान होगा। स्त्री की शिक्षा तो होनी ही चाहिए पुरुष के ही बराबर, लेकिन उसके अपने आयाम में, उसकी अपनी दिशा में। उसकी अपनी ही दिशा है। उस दिशा में उसकी शिक्षा अगर होगी तो ही सार्थक है। आज हम शिक्षा भी दे रहे हैं तो वह सारी की सारी शिक्षा पुरुष के लिए ईजाद की गई है। और उसी पुरुष के लिए ईजाद की गई, स्त्री को भी उसी शिक्षा के ढांचे में ढाला जा रहा है। उसके परिणाम घातक हो रहे हैं। युनिवर्सिटी से पढ़-लिख कर जो लड़की निकलती है, उसमें स्त्रैण तत्व थोड़ा अनिवार्यरूपेण कम हो जाता है। कम हो ही जाएगा। कम हो जाना अनिवार्य है। क्योंकि शिक्षा पुरुष के लिए ईजाद की गई थी।
थोड़ा उलटा सोचें तो समझ में आ जाएगी बात। कोई नगर ऐसा हो, जहां की सारी शिक्षा स्त्रियों के लिए ईजाद की गई हो। संगीत की शिक्षा वहां दी जाती हो, नृत्य की शिक्षा दी जाती हो, काव्य की शिक्षा दी जाती हो, भोजन बनाने की, कपड़े सीने की, मकान सजाने की, बच्चों को पालने और बड़ा करने की--यह सारी शिक्षा दी जाती हो। किसी नगर में स्त्रियों के लिए शिक्षा दी जाती हो और उस नगर में पुरुष बहुत दिन तक अशिक्षित रखे गए हों। फिर पुरुषों में बगावत फैले और वे कहें कि हमें शिक्षा की जरूरत है, हम भी शिक्षा लेंगे। और स्त्रियां कहें कि ठीक है, हमारे कॅाले.जस में आकर तुम शिक्षा ले डालो। तो वे पुरुष भी नाचें, गाएं, गीत बनाएं, कविता करें, घर सजाएं, बच्चों को पालने की शिक्षा लें, तो क्या परिणाम होगा उस गांव में? उस गांव के पुरुष किसी गहरे अर्थ में स्त्रैण हो जाएंगे। उस गांव के पुरुषों में, जो पुरुष होना है वह कम हो जाएगा। वह जो पुरुष की तीव्रता है, वह जो पुरुष की प्रखरता है, वह क्षीण हो जाएगी। वह जो पुरुष के कोने हैं व्यक्तित्व में, वह गोल हो जाएंगे, वह राउंड हो जाएंगे, उनको झाड़ दिया जाएगा।
जैसा दुर्भाग्य उस गांव में पुरुषों के साथ होगा, वैसा दुर्भाग्य पूरी पृथ्वी पर आज स्त्रियों के साथ हो रहा है। उनके व्यक्तित्व का बुनियादी भेद छोड़ा जा रहा है। उस बुनियादी भेद को समझ लेना बहुत ही उचित है, क्योंकि वह बुनियादी भेद ठीक से समझ कर अगर दोनों को अपनी दिशाओं में सम-शिक्षित किया जाए, सम-विकास दिया जाए और समकक्ष लाया जाए तो ही दांपत्य शांतिपूर्ण हो सकता है। और यह पृथ्वी पूरी शांत हो जाए, अगर दंपति शांत हो जाएं। क्योंकि हमारा सारा वैमनस्य, सारा दुख, सारी पीड़ा हमारे छोटे-छोटे घरों के उपद्रवों में पैदा होती है।
जैसे एक गांव में घर-घर से धुआं निकलता है, अपने-अपने चैके से और फिर गांव के पूरे आकाश पर धुआं छा जाता है। छोटा-छोटा, एक-एक चैके से निकला हुआ धुआं धीरे-धीरे पूरे गांव के आकाश को भर देता है। सारी पृथ्वी अशांति से भर जाती है, क्योंकि जो व्यक्तियों के मिलन का मूल-बिंदु है, मूल इकाई है स्त्री और पुरुष, वह मिलन दुखद है, वहां अशांति है। वह अशांति फैलते-फैलते सारे जगत को घेर लेती है। फिर बहुत रूपों में प्रकट होती है। यह रूप इतने भिन्न हो जाते हैं कि कहना मुश्किल है।
अगर गांव के घर-घर से निकला हुआ धुआं गांव की छाती पर एक धुएं का बादल बनकर आ जाए तो कोई भी विश्वास न करेगा कि मेरे चूल्हे ने इस बादल को बनाया। कहेगा कि छोटा सा चूल्हा, हमारा चूल्हा इतना बड़ा अंधेरा बादल कैसे बना सकता है। नहीं, नहीं, यह नहीं हो सकता। लेकिन उसे पता नहीं कि करोड़-करोड़ चूल्हे इसी तरह छोटे-छोटे जल कर, इतना थोड़ा-थोड़ा धुआं फेंक कर एक बड़ा बादल बना देते हैं। और वे बादल बड़े खतरनाक हो सकते हैं। वे बादल सूरज को छिपा ले सकते हैं। उन बादल के पॅाकेट्स बन जाते हैं, एक हवाई जहाज को गिरा सकते हैं। अब यह कोई सोच भी नहीं सकता है कि एक घर के चूल्हे में से उठा हुआ धुआं किसी हवाई जहाज को गिरा सकता है। अगर वह बहुत सघन हो जाए तो उसका पाकेट बन जाता है, एक मजबूत पर्त बन जाती है। वह पर्त इतनी मजबूत है कि तेज हवाई जहाज जब उसके भीतर से गुजरता है, उस तेजी के कारण वह हवाई जहाज को डगमगा दे सकता है। लेकिन हमारी कल्पना में नहीं आ सकता कि चूल्हे से उठा हुआ धुआं और ऐसा कुछ कर सकेगा।
एक-एक घर से उठी हुई अशांति धीरे-धीरे विश्व-अशांति बन जाती है। और सारी दुनिया में चेष्टा चलती है, शांति, शांति, शांति! --वह शांति नहीं आती, क्योंकि मूल इकाई अशांत है। पुरुष और स्त्री का मिलन मूल इकाई है समाज की। फिर बाकी समाज उसका फैलाव है। अकेला पुरुष समाज नहीं है। अकेली स्त्री समाज नहीं है। अकेला पुरुष आधा है, अकेली स्त्री आधी है। जब वे दोनों एक मूल इकाई में मिलते हैं, तब समाज शुरू होता है। कम से कम समाज के लिए दो तो चाहिए। और फिर वही इकाई अगर ज्वरग्रस्त हो, बीमार हो, परेशान हो, कष्ट में हो--लेकिन हम उसके कष्ट को प्रकट भी नहीं होने देते!
मैं हजारों घरों में ठहरता हूं। लाखों लोगों से व्यक्तिगत मिलने, उनकी व्यक्तिगत तकलीफ में उतरने का मुझे मौका मिला है। मैं इतना हैरान हो गया हूं कि वे चेहरे जो बाहर हंसते हुए मालूम पड़ते हैं, वे भीतर हंसते हुए नहीं हैं। वे पति और पत्नियां क्लब में, और बाजार में, और सिनेमा-गृह में, जैसे चमक-दमक से हंसते हुए, बात करते हुए मालूम पड़ते हैं, वह उनके घर की असली शक्ल नहीं है। घर इससे बिल्कुल उलटी शक्ल है। यह बाहर जो दिखाई पड़ रहा है, यह बिल्कुल उलटा है। यह बिल्कुल धोखे का है। सच्चाइयां बहुत और हैं, बहुत गंदी और बेहद बेहूदी और बहुत कुरूप। और वहां एकदम गहरी अशांति है। और पति और पत्नी की जो अशांति है, वह उनके बच्चों में भी प्रवेश कर जाती है। वह घर के कोने-कोने, हवा-हवा में छा जाती है।
अब मैं एक युनिवर्सिटी में था, तो मैं बड़ा हैरान था। कोई सौ प्रोफेसर मेरे साथ थे। युनिवर्सिटी की क्लास तो बारह बजे शुरू होती, लेकिन प्रोफेसर थे कि स्टॅाफ रूम में साढ़े दस बजे ही हाजिर हो जाते। युनिवर्सिटी की क्लास किसी की एक बजे शुरू होती, किसी की दो बजे शुरू होती, किसी की तीन बजे खत्म हो जाती, किसी की दो बजे खतम हो जाती और मैं देखता साढ़े चार बजे तब तक कि जब तक चपरासी बंद न करता, तब तक वे वहां बैठ कर गपशप करते रहते।
मैंने उनसे कई बार पूछा कि जब यहां काम खतम हो गया, आप चले क्यों नहीं जाते? उन्होंने कहा: घर की झंझट से यहीं बेहतर। जितना समय शांति से बीत जाए वही अच्छा। यह बहुत हैरानी की बात है कि पति घर से भागा रहे शांति के लिए। शांति के लिए घर लौटना चाहिए, लेकिन घर कुरूप हो गया है। पति घर से भागा हुआ है। उसके घर से भागे होने का कारण तो घर एक शांति का, छाया का, विश्राम का एक स्थान नहीं रह गया। इसलिए घर का चैका टूटता चला जा रहा है। होटलें बढ़ती चली जाती हैं, क्योंकि घर वह ठीक से खा भी नहीं पाता। वह भागा हुआ है होटल की तरफ। इसलिए घर में कितनी देर कम से कम रुक सके, उसकी चेष्टा में रत रहता है और पत्नी घर अकेली पड़ गई है। वह बच्चों को पाल रही है, बर्तन धो रही है, खाना बना रही है, कपड़े सी रही है। इस काम में कितनी देर तक वह रस ले, यह काम उबा देता है। यह काम घबड़ा देता है। घर की दीवारों में बंद वह परेशान हो जाती है। वह वहां तैयार होती रहती है कि पति वापस लौटे तो गुस्सा किस पर निकाले, उसका सारा गुस्सा वहां तैयार होता है, भरता है, गहरा होता है, वह पति के आते ही टूट पड़ता है। और पति उसी से भागा हुआ था कि किसी तरह डरा हुआ कदम सम्हाल कर घर की सीढ़ियां चढ़ा है और वह बात, फिर टूट पड़ी और वह कल के लिए फिर भागा हुआ हो गया। और वह जितना भागेगा उतना क्रोध बढ़ेगा और जितना क्रोध बढ़ेगा, वह उतना भागता रहेगा।
घर का बुनियादी यूनिट, पहली इकाई ही विकृत और कुरूप हो गई है। इसलिए मेरी दृष्टि में किन्हीं यज्ञों से शांति नहीं हो सकती। लेकिन वह पति पत्नी के बीच जो कलह का यज्ञ चल रहा है, अगर वह शांत हो जाए। अगर वहां एक सौमनस्यपूर्ण, एक मैत्रीपूर्ण घटना घट जाए तो कुछ हो सकता है। लेकिन वह कैसे घटे? उस घटने की पहली शर्त मैं मानता हूं कि स्त्री को व्यक्तित्व मिल जाए। क्योंकि मित्रता छायाओं से नहीं हो सकती। मित्रता व्यक्तियों से होती है, ठोस, जीवंत। और पुरुषों ने स्त्रियों को पोंछ कर बिल्कुल शैडो, छाया बना दिया है। उनके पास व्यक्तित्व ही नहीं रहा। पुरुषों ने कहा, उठो तो उठो, बैठो तो बैठो। पुरुषों ने कहा, पूरब तो पूरब, पश्चिम कहा तो पश्चिम। उन्होंने उनका सारा व्यक्तित्व पोंछ डाला है।
वह व्यक्तित्व नहीं रह गया। उस व्यक्तित्व को पोंछने का परिणाम एक ही हो सकता था, और वह परिणाम फलित हो गया है। मैत्री असंभव हो गई है। दो व्यक्तियों के बीच मैत्री हो सकती है, छाया और व्यक्ति के बीच मैत्री नहीं हो सकती। इस व्यक्तित्व को लाने के लिए स्त्रियां बहुत अथक चेष्टा करती हैं, लेकिन उनकी चेष्टा बड़ी गलत है। वे या तो दूसरे-दूसरे सब्स्टीट्यूट खोज रही हैं, या पुरुषों जैसे होने की चेष्टा में संलग्न हैं। उन सबसे कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। स्त्री को तय करना पड़ेगा, नारी को तय करना पड़ेगा कि वह नारी होने के ठीक अर्थ को समझे और नारी होने के ठीक अर्थ को उपलब्ध हो जाए।
नारी होने का ठीक अर्थ पुरुष से बहुत भिन्न है और दोनों के व्यक्तित्व के भेद को भी थोड़ा समझना उपयोगी है। पुरुष एक्टिव है, पुरुष का सारा व्यक्तित्व क्रियात्मक है, विधायक है। स्त्री का सारा व्यक्तित्व पैसिव है, निषेधात्मक है। इस फर्क को समझ लेना जरूरी है, तो हम उनकी दोनों की शिक्षाएं, उन दोनों के जीवन का ढंग अलग तरह से सोचेंगे।
एक स्त्री किसी पुरुष को कितना ही प्रेम करती हो तो भी कभी कोई स्त्री ने पुरुष के प्रति निवेदन नहीं किया है कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। स्त्री कितना ही प्रेम करती हो तो भी वह प्रतीक्षा करती है कि पुरुष निवेदन करे। स्त्री पैसिव है, पैसिव का मतलब है, वह प्रतीक्षा कर सकती है--आक्रामक नहीं है, आक्रमण नहीं करेगी, पहल नहीं करेगी। पुरुष को ही आक्रमण करना होगा, पुरुष को ही पहल करनी होगी। पुरुष को ही पहला कदम उठाना होगा। स्त्री प्रतीक्षा करेगी। और बड़ी हैरानी की बात है, अगर स्त्री पहल करे और आक्रमण करे तो पुरुष के लिए कभी प्रीतिकर न हो पाएगी। क्योंकि आक्रमण करने वाली और पहल करने वाली स्त्री में पुरुष को पुरुष के ही दर्शन दिखाई देंगे। उसे स्त्री नहीं मिल सकेगी फिर वहां, स्त्री अनंत प्रतीक्षा है--मौन प्रतीक्षा, आक्रामक नहीं, अनाक्रामक। पुरुष आक्रमण है, एग्रेशन है। वह जाएगा, पहल करेगा। लेकिन अगर कोई पुरुष प्रतीक्षा करे तो कोई स्त्री उसे पसंद नहीं करेगी, कभी प्रेम नहीं कर पाएगी। इसलिए कोई स्त्री ऐसे पुरुष को प्रेम नहीं कर पाती जो उसके पीछे छाया बन कर चलने लगे, उससे कभी प्रेम नहीं कर पाएगी क्योंकि उसमें उसे एक स्त्री ही दिखाई पड़ेगी।
स्त्री उसी पुरुष के प्रति आकर्षित होती है जो अगम्य मालूम पड़ता हो, अलंघ्य मालूम पड़ता हो, गौरीशंकर का शिखर मालूम पड़ता हो, दूर बहुत दूर, जिसे पाना मुश्किल है। जो बुलाता है, लेकिन बहुत दूर है। जो पुकारता है, लेकिन बहुत फासले पर है। जिसे पाना, जिसे छूना बहुत मुश्किल है। स्त्री का मन उसके लिए पागल आकांक्षा से भर जाएगा।
मैं यह कह रहा हूं कि पॅाजिटिव, निगेटिव के; एक्टिव और पैसिव के, सक्रिय और निष्क्रिय के भेद को समझ लेना बहुत जरूरी है। हम एक पत्थर को पानी में फेंकते हैं, तो पत्थर पानी में गिरता है, फौरन गड्ढा बना लेता है। पत्थर एक्टिव है, सक्रिय है और पानी पैसिव है, वह फौरन गड्ढा बन जाता है। लेकिन बड़ा मजा यह है कि पत्थर नीचे गया कि पानी फिर अपनी जगह पर वापस लौट आता है। पैसिविटी, निष्क्रियता शक्तिहीनता नहीं है। अगर एक पहाड़ से पानी का झरना गिरता हो और नीचे पहाड़ पर पत्थर की चट्टानें पड़ी हों तो आज पत्थर की चट्टानें बहुत शक्तिशाली मालूम पड़ेंगी, क्योंकि झरना उन पर बिखर-बिखर जाएगा, टूटेगा और बिखर जाएगा और चट्टानें अकड़ी खड़ी रहेंगी; लेकिन सौ साल बाद झरना बह रहा होगा, चट्टानें रेत हो चुकी होंगी, उनका कोई पता न रह जाएगा। वह जो पहले दिन बहुत एग्रेसिव मालूम पड़ी थी चट्टानें, टूटने को बिल्कुल राजी नहीं, और पानी जो बिल्कुल ही विनम्र मालूम पड़ा था, कि पत्थर ने जैसा कहा वैसा हो गया था, वह सौ साल में जीत गया है।
पुरुष की जीत प्राथमिक हो सकती है, अंतिम जीत स्त्री की हो जाती है। वह पैसिव, प्रतीक्षा है, वह अनंत प्रतीक्षा है। वह चुप, चुप पानी की तरह जगह दे देगी, प्रतीक्षा करेगी, धैर्य रखेगी। लेकिन पुरुष जो शिक्षा दे रहा है स्त्री को, वह उसे पुरुष बनाए दे रही है, वह भी अधीर हुई चली जा रही है। वह भी आक्रामक हुई चली जा रही है, वह भी हमलावर हो रही है; वह भी एक्टिव हो रही है। वह उसके परिणाम घातक हो रहे हैं। उससे स्त्रियों का मन अपने मूल स्वभाव से ही विच्युत हुआ चला जा रहा है। इसलिए पश्चिम में एक दुर्घटना घटी, जो यहां भी घट जाएगी। वहां स्त्री करीब-करीब पुरुष के पास आ गई है, पुरुष जैसी होकर। लेकिन उसने अर्थ खो दिया है। उसने व्यक्तित्व की गरिमा, और गौरव, और संगीत और काव्य सब खो दिया है। उसने वह विनम्रता भी खो दी है, जो उसका गुण थी।
स्त्री को एक और तरह की शिक्षा चाहिए जो उसे संगीतपूर्ण व्यक्तित्व दे, जो उसे नृत्यपूर्ण लयबद्ध व्यक्तित्व दे; जो उसे प्रतीक्षा की अनंत क्षमता दे; जो उसे मौन की, चुप होने की, अनाक्रामक होने की, प्रेम की और करुणा की गहरी शिक्षा दे। सामान्यतया सभी स्त्रियां सोचती हैं कि उन्हें प्रेम उपलब्ध है, लेकिन, प्रेम भी कला है जो उपलब्ध नहीं है। कोई पैदा होते से ही प्रेम करने में सक्षम नहीं है।
और मनुष्य एक बहुत अदभुत प्राणी है। अगर हम अपने बच्चों को पैदा होने के बाद चलना न सिखाएं तो बहुत संभव है, वह चलना सीखें ही न। ऐसे बच्चे हैं, कलकत्ते के दो बच्चों को कुछ भेड़िए उठा कर ले गए थे रात, फिर जंगल से उनको दो-चार साल बाद पकड़ा जा सका, कोई बीस साल, तीस साल पहले। तब उनकी उम्र हो गई थी, कभी का उनको चलना शुरू कर देना चाहिए था। लेकिन भेड़ियों के पास रहने की वजह से वे दो हाथ-पैर से नहीं, चारों हाथ-पैर से चलते थे। अभी लखनऊ के पास अभी चार-पांच वर्ष पहले एक लड़का पकड़ा गया, जिसकी उम्र चैदह साल थी। उसको भी भेड़ियों ने अपनी मांद में पाल लिया था। वह भेड़ियों के बच्चों के पास पला था। चैदह साल का था, लेकिन चलता चारों हाथ-पैर से था! उसे पता ही नहीं चला था कि दो से चलना है। और जब उसे पकड़ लिया गया तब बड़ी मुसीबत हुई। छह महीने लग गए उसको सीधा खड़ा करने में, क्योंकि उसकी हड्डी सब सख्त हो गई थी। वह मुड़ती नहीं थी। चैदह साल का होकर भी वह एक शब्द नहीं बोल सकता था आदमी का, सिर्फ भेड़ियों जैसी आवाज करता था। छह महीने लग गए उसको सिर्फ राम शब्द बुलवाना सिखाने में। राम उसका नाम रख दिया। यही बड़ी भारी घटना थी कि छह महीने में वह राम कहना सीख गया। लेकिन इससे वह इतना परेशान हो गया यह भाषा का सिखाना, एक शब्द का सिखाना और दो पैर पर खड़े होना कि वह नौ महीने बाद मर गया। डाक्टरों का कहना है कि मरने का कुल कारण इतना है कि उसे यह आदमी का होना सीखना इतना परेशानी लाए हुए था कि वह एकदम परेशान हो गया, उसकी नींद खत्म हो गई। वह एकदम स्वस्थ था, वह जंगली जानवर की तरह स्वस्थ था, वह कभी बीमार ही नहीं पड़ा था जंगल में। बड़ा शक्तिशाली था, लेकिन वह नौ महीने में आदमी के इंतजाम में समाप्त हो गया।
हम अपने बच्चों को चलना सिखाते हैं तो ही वे चलना सीख पाते हैं। असल में आदमी के भीतर अनंत संभावना है, आदमी बहुत लिक्विडिटी है, वह बहुत तरल है। उसे हम जो सिखाते हैं, वह वही होना शुरू हो जाता है। लेकिन प्रेम के संबंध में बड़ा दुर्भाग्य है। आदमी को ऐसा ख्याल है कि प्रेम हम जानते ही हैं। वह एकदम सरासर झूठी बात है। और इसलिए उस प्रेम के किनारे ही हमारी नाव टकरा कर नष्ट हो जाती है। न तो पुरुष प्रेम जानते हैं, और न स्त्रियां प्रेम जानती हैं। प्रेम की भी बहुत बड़ी व्यवस्था और सुविधा होनी चाहिए, जहां प्रेम सीखा जा सके। जैसे, उदाहरण के लिए, जो आदमी प्रेम सीखेगा, उस आदमी से ईष्र्या विदा हो जानी चाहिए क्योंकि ईष्र्या और प्रेम का एक साथ अस्तित्व नहीं हो सकता। लेकिन सभी स्त्रियां प्रेम करती हैं, सभी पुरुष प्रेम करते हैं, लेकिन साथ में ईष्र्या का जहर पूरी तरह खड़ा रहता है। यह ऐसा ही है जैसे कि हमने फल तो बहुत अच्छा बोया, लेकिन रोज उसमें जहर भी पानी में सींचते गए। तो वह मीठा फल जो था, वह जहरीला होकर खतरनाक हो जाता है। ईष्र्या जहां है, वहां प्रेम संभव नहीं है।
ईष्र्या और प्रेम का कोई संबंध ही नहीं है। लेकिन जैसा मैंने कहा कि स्त्री और पुरुष के मनस में एक फर्क है--पुरुषों का मन एक्टिव है, सक्रिय है, इसलिए पुरुषों का मूल दुर्गुण अहंकार है। और स्त्रियों का मन पैसिव है, निष्क्रिय है, इसलिए स्त्रियों का मूल दुर्गुण ईष्र्या है।
ईष्र्या निष्क्रिय हुआ अहंकार है और अहंकार सक्रिय हो गई ईष्र्या है।
पुरुष अहंकार से मरे जाते हैं और स्त्रियां ईष्र्या से मरी जाती हैं। उनका सारा चैबीस घंटे का जीवन, जन्म से लेकर मरने तक ईष्र्या के केंद्र की परिधि पर घूमता है, इसलिए जब एक स्त्री दूसरी स्त्री से मिलती है तो जो बात उसे सबसे पहले दिखाई पड़ती है, गहने क्या हैं, कपड़े क्या हैं, घड़ी कैसी है, घड़ी का पट्टा कैसा है, चप्पल कैसी है--सबसे पहले एकदम दिखाई पड़ जाता है! व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता, यह सब दिखाई पड़ जाता है। ये उसकी ईष्र्या के बिंदु हैं। आश्चर्यजनक है, लेकिन सत्य है। दो स्त्रियों को साथ रखना बहुत कठिन मामला है। उनको घंटे भर भी साथ रखना बहुत कठिन मामला है। हां, एक ही रास्ता हो सकता है कि वे तीसरी स्त्री की ईष्र्या में निंदा कर रही हों, तो घंटे भर बैठ सकती हैं।
ईष्र्या जिनका जीवन आधार बन गया हो उनसे प्रेम की संभावना कम हो जाएगी। लेकिन ईष्र्या ही उसका सारा व्यक्तित्व हो गया है। अगर घर भी सजाया जा रहा है तो घर सजाने का रस नहीं है कारण, पड़ोस के घर से हो गई ईष्र्या है। अगर कार की गद्दियां बदली जा रही हैं तो कार की गद्दियां बदली जाएं, स्वच्छ हों, ताजी हों, नई हों, अच्छी हों, यह कारण नहीं है, कलात्मक हों, यह कारण नहीं है, पड़ोस के घर की गाड़ी की गद्दियां बदल गई हैं! सारा व्यक्तित्व जैसे ईष्र्या से चल रहा है। इसलिए स्त्रियों के फैशन का कोई भरोसा नहीं कि तीन महीने चलेगी, छह महीने चलेगी, कितनी देर चलेगी। उसका कुल कारण इतना है कि एक स्त्री भी सारी स्त्रियों को ईष्र्या से भर सकती है और फैशन फौरन बदल जाएगा।
पश्चिम में तो कपड़ों के दुकानदार सुंदर स्त्रियों को पाल कर रखे हुए हैं। जिनके कपड़े वे छह महीने में बदल देते हैं। उनके कपड़े बदले कि बाकी सभी स्त्रियों के पुराने कपड़े बेकार हो जाते हैं। फिल्म अभिनेत्रियां सारी दुनिया के कपड़े वाले और फैशन के सामान वाले खरीद कर रखे हुए हैं।
अभी मैं एक घटना पढ़ रहा था, अमरीका की एक बड़ी फिल्म अभिनेत्री ग्रेटा गार्बो, उससे कोई पूछने गया था कि तुम्हारे चेहरे पर जो इतना लावण्य है, इतना सौंदर्य है, इसका कारण क्या है? उसने कहा कि पंद्रह दिन बाद बता सकूंगी। उसने कहा: क्यों, अभी पता नहीं? उसने कहा: अभी मेरी दो साबुन की कंपनियों से बातचीत चलती है, जिससे ज्यादा तय हो जाए, वही साबुन मेरे सौंदर्य का कारण है। पंद्रह दिन बाद यह तय होगा! अभी बातचीत चलती है, निगोसिएशंस चल रहे हैं। कौन कंपनी ज्यादा पैसा दे सकती है, वही साबुन मेरे सौंदर्य का कारण बन जाएगा।
इसलिए साबुन की फोटो अकेली नहीं छापनी पड़ती है। अकेली साबुन की फोटो से कोई प्रभावित न होगा। साथ में एक सुंदर स्त्री छापनी पड़ती है, बस, फिर वह साबुन और स्त्रियों के मन को पकड़ लेता है। क्या आपको पता है, आज दुनिया की सारी उद्योग की व्यवस्था का पचहत्तर प्रतिशत स्त्रियों के साज सामान, पाउडर, साबुन, कपड़े इत्यादि में नष्ट हो रहा है। पहले पाउडर खरीदना पड़ता है, फिर उस पाउडर को धोने के लिए साबुन खरीदनी पड़ती है। फिर साबुन पाउडर को धो डालती है तो फिर पाउडर खरीदना पड़ता है और वह सिलसिला चलता रहता है। पचहत्तर प्रतिशत सारे मनुष्यों की शक्ति स्त्रियों की इस व्यवस्था में व्यय हो रही है और वह रोज बदल जाती है, क्योंकि अगर एक ही साबुन चलती रहे तो कितने उद्योगपति उससे लाभ उठा सकते हैं? और अगर एक ही पाउडर चलता रहे तो कितने उद्योगपति उससे लाभ उठा सकते हैं? और अगर एक ही फैशन रहे तो फिर कपड़ों की कितनी जाति पैदा की जा सकती हैं? फिर बहुत मुश्किल हो जाए। और इस सबके बुनियाद में स्त्री की ईष्र्या को समझ लिया गया है। आज धंधेबाज, विज्ञापनदाता सब स्त्री की ईष्र्या को समझ लिए हैं। यह तो मजे की बात है।
मैं अभी आंकड़े पढ़ रहा था, आंकड़े मैं देख रहा था। मैंने किसी मित्र को लिखा था, स्त्रियों की पसंद, जो वह खरीदती हैं, उसमें पुरुषों का कोई हाथ नहीं होता सौ में से सौ मौकों पर। लेकिन मैंने एक मित्र को पूछा कि मैं यह जानना चाहता हूं कि पुरुष जो खरीद-फरोख्त करते हैं, उसमें स्त्रियों का कितना हाथ होता है? उसने मुझे सब आंकड़े भेजे, अमरीका के एक नगर के आंकड़े थे। आंकड़े बड़े दंग करने वाले हैं। स्त्रियां अपनी जो चीजें खरीदती हैं, वे तो सौ प्रतिशत अपनी पसंद से खरीदती हैं, और पुरुष भी जो चीजें खरीदता है उसमें भी सत्तर प्रतिशत स्त्रियों की पसंद होती है। अगर गाड़ी किस रंग की खरीदनी है उसमें सत्तर मौके पत्नी के रंग के चुनाव के होते हैं, तीस मौके पुरुष के चुनाव के होते हैं। पुरुष भी कौन से कपड़े पहने इसमें भी सत्तर परसेंट स्त्रियां तय करती हैं, तीस परसेंट पुरुष। इसलिए पश्चिम के विज्ञापन-दाताओं ने पुरुष की फिकर ही छोड़ दी। वे कहते हैं, एक सौ सत्तर दो सौ चीजों में से एक सौ सत्तर चीजें स्त्री को खरीदनी हैं; स्त्री की फिकर कर लो, पुरुष की चिंता मत करो, उसे जाने दो। इसलिए सारा का सारा विज्ञापन का, पूरा का पूरा धंधा स्त्री पर केंद्रित होकर चल रहा है कि स्त्री को किसी भांति--वे दुकानें, इसकी रिसर्च करती हैं।
अमरीका में एक दुकान ने रिसर्च की है, तो उसने इस बात का पता लगवाने की कोशिश की है कि स्त्रियां सर्वाधिक किस रंग से प्रभावित होती हैं। तो अपने डिब्बों पर वही रंग होना चाहिए। इसकी उन्होंने फिकर की और पता लगा लिया। उन्होंने सब रंगों के बाबत जांच-पड़ताल की। तो अब जिस चीज का डिब्बा बनाना हो, मनोवैज्ञानिक सलाह देता है कि अगर इसको ज्यादा बेचना हो तो इस पर यह रंग डालना। स्त्री इस रंग से प्रभावित होती है। यह भी मनोवैज्ञानिक बताता है कि जब दुकान में चीजों को सजाओ तो अलमारी में किस ऊंचाई पर रखना, क्योंकि स्त्री की आंख किस कोण से सर्वाधिक प्रभावित होती है, इसकी भी रिसर्च चलती है और उन्होंने उसका भी अंदाज लगा लिया! अगर कोई चीज कम बेचनी हो तो इतनी ऊंचाई पर रखना है। और ज्यादा बेचनी हों तो इतनी ऊंचाई पर रखना और बिल्कुल न बेचना हो तो इतनी निचाई पर रखना है, वहां नजर ही न जाएगी। तो दुकानदार को जिस चीज में ज्यादा फायदा है, वह स्त्री की आंख के बराबर ऊंचाई पर रखेगा अलमारी में।
अभी एक नई उन्होंने फिकर की। एक दुकान बहुत दिनों से उत्सुक थी, आज तो अमरीका में उद्योग बिल्कुल वैज्ञानिक होता चला जाता है, तो सारे बड़े उद्योग बड़े वैज्ञानिकों को अपने पीछे लगाए हुए हैं, कि जांच-पड़ताल वे करते रहें। एक दुकान ने इस बात की जांच-पड़ताल की कि दुकान के काउंटर पर जो लोग खड़े होते हैं अगर स्त्रियां खरीदने आतीं--अब तो सारी खरीद-फरोख्त स्त्रियां करती हैं--तो स्त्रियों से पूछना, क्या लेना है आपको? इससे दुकान को नुकसान होगा। क्योंकि अगर स्त्रियों से पूछा जाए कि क्या लेना है आपको तो उन्हें घर से तय करके आना पड़ता है कि क्या लेना है। उनको अगर दो चीजें खरीदनी हैं तो वे दो ही चीजें बता सकती हैं।
इसलिए मनोवैज्ञानिकों ने उन दुकानदारों को सलाह दी कि काउंटर पर से आदमियों को हटा दो। दरवाजे पर स्त्री को एक छोटा ठेला दे दिया जाता है, ठेलागाड़ी, और उसे दुकान में भेज दिया जाता है कि तुम्हें जो पसंद हो वह निकाल कर ठेलागाड़ी में रख लाओ। तो वह जो चीजें खरीदने आई थीं उनकी तो फिकर ही भूल जाती है। जो चीजें उसने कभी न खरीदी होतीं वह दुकान में एकांत पाकर और चुन कर अपनी गाड़ी में डाल कर बाहर आ जाती हैं। इसका हिसाब लगाया तो पता चला कि दस चीजें जो स्त्रियां इस तरह खरीदती हैं, अगर उनसे पूछा गया होता कि तुम्हें क्या चाहिए और नौकर ने लाकर चीज दी होती तो वे केवल तीन चीजें खरीदतीं। इस हालत में उन्होंने दस चीजें खरीदीं। तीस चीजों की बिक्री होती अब सौ चीजों की बिक्री होगी। सत्तर चीजें वे व्यर्थ ही खरीद कर लौट गई।
लेकिन वह व्यर्थ खरीदने का कारण क्या है? कपड़े बदलने का इतना कारण क्या है? सौंदर्य के प्रसाधनों की इतनी बिक्री का कारण क्या है?
ईष्र्या उसके बहुत गहरे में कारण है। चारों तरफ ईष्र्या पकड़े हुए है। स्त्री के मन से ईष्र्या नष्ट न हो तो स्त्री कभी भी ठीक अर्थों में प्रेमपूर्ण नहीं हो सकती। क्योंकि ईष्र्या का जहर उसके सारे जीवन को खा जाता है। ईष्र्या भय दे देती है, ईष्र्या डरा देती है। तो स्त्री की समझ के बाहर ही हो जाता है, अगर उसका पति किसी दूसरी स्त्री को गौर से भी देख ले तो जहर की लहर फैल जाती है। इसलिए अगर कोई पति सड़क पर बिल्कुल सम्हला हुआ चल रहा हो और इधर-उधर न देखता हो तो समझ लेना कि उसकी पत्नी आस-पास है। और अगर कोई पुरुष सड़क पर बिल्कुल मौज से चल रहा हो और कोई स्त्री साथ में हो, सब तरफ देख रहा हो, प्रसन्न हो तो समझ लेना कि साथ में पत्नी नहीं है, किसी और की पत्नी हो सकती है।
ईष्र्या ने भय भी पैदा कर दिया है। पुरुष स्त्री से डरा हुआ है, घबड़ाया हुआ है, एक मुक्त और सहज संबंध नहीं रह गया। सब स्ट्रेंज हो गया है, सब तन गया है। तो घर शांत कैसे हो सकता है। शांति के फूल तो बहुत सहजता में खिलते हैं। जहां ईष्र्या नहीं है, जहां समझ है। जहां ईष्र्या नहीं है, जहां प्रेम है। जहां ईष्र्या नहीं है, जहां भय नहीं है, जहां अभय है और जहां एक दूसरे को समझने की चेष्टा है। एक-दूसरे की कमजोरी को भी, एक-दूसरे के दुख और पीड़ा को भी, एक-दूसरे से सहानुभूति रखने की भी क्षमता है।
और ध्यान रहे, पुरानी शिक्षा ने इस तरह की बातें सिखाई हैं कि हम एक दूसरे को कभी समझ ही नहीं पाते। पुरानी शिक्षा ने ऐसे आदर्श दिए हैं कि उनकी वजह से हम बिल्कुल विक्षिप्त हुए चले जाते हैं। यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं है कि अगर रास्ते पर निकले हैं और कोई सुंदर पुरुष किसी स्त्री को दिखाई पड़े तो उसे अच्छा न लगे। कुछ आश्चर्यजनक नहीं है। सुंदर जो है वह अच्छा लग सकता है। जरूरी नहीं कि वह पति हो, और जरूरी नहीं है कि अच्छा लगने से कोई पाप हो गया। और अगर एक सुंदर स्त्री दिखाई पड़े तो किसी पुरुष को अच्छी लग सकती है, वह दो क्षण देख सकता है। इसमें न कुछ पाप है। लेकिन इसको भी पाप बना दिया है, अपराध बना दिया है। वह हमारी ईष्र्या ने जो जाल बुना है सिद्धांतों का, उसने बहुत उपद्रव खड़ा कर दिया है। उसकी वजह से कोई भी सहज नहीं हो पातो। और जब हम सहज नहीं हो पाते हैं तो उसका परिणाम होता है, एक दूसरे पर क्रोध से भर जाते हैं। पति और पत्नियां एक-दूसरे पर क्रोध से भरे हुए हैं, बजाय एक-दूसरे के प्रति कृतज्ञता के। बजाय इसके कि पत्नी ने समझा हो कि पति ने उसके जीवन को धन्य किया; पत्नियां समझ रही हैं कि पति ने जीवन को नष्ट किया। बजाय इसके कि पति समझे कि पत्नी ने उसके जीवन को सौरभ दिया, सुगंध दी; पति समझ रहा है, कहां से इस स्त्री के उपद्रव में पड़ गए, यह सब नष्ट हो गया।
मैंने सुना है कि एक आदमी की पत्नी मर गई तो वह बहुत रो रहा है। फिर अरथी उठाई गई। फिर अरथी उठा कर लोग बाहर आए। सामने एक नीम का दरख्त था, उससे अरथी टकरा गई भूल से। वह स्त्री मरी नहीं थी, वह सिर्फ बेहोश थी। वह एकदम चैंक कर उठ आई। घर में बड़ी हैरानी हो गई। सब लोग विदा करने आए थे, वे सब हैरान हो गए। फिर तीन साल बीत गए, फिर वह पत्नी दुबारा मरी। फिर अरथी निकलने लगी। वह पति रो रहा था। लोग अरथी निकाल रहे थे। उसने कहा: भाइयो जरा सम्हाल कर निकालना। कहीं नीम से फिर न टकरा जाए, क्योंकि पिछली बार यह भूल हो गई थी। अब ऐसे वह रो भी रहा है पत्नी के मर जाने पर, ऐसे, लेकिन भीतर उसका कोई कोना प्रसन्न भी हो रहा है।
इतनी ही दुविधा हो गई है हमारे संबंधों में--स्त्री और पुरुष के बीच इतनी ही दुविधा हो रही है! पत्नी रोएगी पति के मर जाने पर। कितनी बार उसने नहीं सोचा है कि इससे छुटकारा ही हो जाए, इससे समाप्त ही हो जाए तो अच्छा है। पति रोएगा पत्नी के मरने पर। और कितनी बार उसने नहीं सोचा है कि इससे न मिलना होता तो ही अच्छा होता, यह मर ही जाए तो अच्छा है। यह भी साथ में चल रहा है। ये दोनों बात साथ चलेंगी तो हमारे संबंध आनंदपूर्ण, शांतिपूर्ण कैसे हो सकते हैं? और अगर परिवार ही शांतिपूर्ण न हो तो यह पृथ्वी शांतिपूर्ण नहीं हो सकती है।
इसलिए दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि स्त्री को थोड़ा सोच-विचार, खोज-बीन करनी जरूरी है, बड़े सामूहिक तल से कि ईष्र्या कैसे नष्ट की जाए। ईष्र्या के रहते स्त्री का व्यक्तित्व कभी प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता। और प्रेम ही स्त्री का प्राण है, उसकी आत्मा है। अगर वह प्रेमपूर्ण न हो पाए तो बस वह अधूरी रह जाएगी। उसके भीतर कुछ हमेशा बढ़ने को रुका रह जाएगा--पीड़ा और दुख और परेशानी उसको घेर लेगी। अगर कोई स्त्री ठीक से प्रेम न कर पाए तो हजार बीमारियां उसे पकड़ लेंगी।
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि स्त्रियों के सारे हिस्टीरिया, और बीमारियों में अस्सी परसेंट बीमारियां, उनके प्रेम की उपलब्धि नहीं हो पाई, उसके ही कारण हैं। अगर किसी स्त्री को जीवन में प्रेम पूरी तरह मिल जाए तो वह अचानक स्वस्थ हो जाती है। उसके जीवन का फूल ऐसा खिल जाता है, जैसा कभी भी न खिला था। उसकी सब बीमारियां विदा हो जाती हैं। उसके सारे व्यक्तित्व में एक तरंग शांति की छा जाती है। उसके सारे व्यक्तित्व में एक सुगंध आ जाती है, जो कभी भी नहीं थी। उसका व्यक्तित्व ही बदल जाता है। उसको एक नया व्यक्तित्व ही मिल जाता है, एक नई आत्मा ही उपलब्ध हो जाती है। लेकिन वह तो उपलब्ध नहीं हो पा रही है। उसको उपलब्ध करने के लिए हम बड़े गलत उपाय कर रहे हैं।
एक तो मैंने कहा कि हम यह उपाय कर रहे हैं कि कपड़े-लत्ते बदलें, यह करें, वह करें। उससे कोई वह रौनक न आएगी जो प्रेम से आनी है। कोई पाउडर, कोई व्यवस्था उस रौनक को न ला सकेगी, आंखों में वह चमक न ला सकेगी जो प्रेम ले आता है। चमड़ी पर कोई चमक न ला सकेगी जो प्रेम ले आता है।
अब तो इस पर सोचना शुरू हो गया है कि प्रेम के पास भी अपने तरह की वाइटेलिटी है, अपने तरह की विटामिन्स हैं और हो सकता है, भविष्य में हमें कभी यह समझना पड़े कि प्रेम के पास जैसे विटामिन्स हैं, शायद वैसे विटामिन्स किसी विटामिन में नहीं हैं। एक भूखा आदमी भी प्रेम मिल जाए, उससे तो ऐसा प्रफुल्लित हो जाता है, जैसे उसके जीवन में सब तरफ नई शक्ति के स्रोत दौड़ गए। जैसे झरने आ गए उसकी जिंदगी में, सब हरा हो जाता है। लेकिन वह सब तरफ कुम्हला गया है। सब कुम्हला गया है और उस कुम्हलाने की जड़ में नारी है।
और उस नारी को उस स्थिति में लाने में पुरुष का हाथ है। पुरुष ने उसका व्यक्तित्व छीन लिया है, उसको दबा कर रख दिया है, उसको पजेस कर लिया है, उसका मालिक बन गया है। उसको गुलाम बना डाला है। और स्त्री गुलाम बनने को राजी हो गई है। दोनों का हाथ है। स्त्री मिटने को राजी हो गई है। स्त्री अपने को छाया बनाने को राजी हो गई है। दोनों का हाथ है। और दोनों के इस हाथ ने बहुत अशांति पैदा कर दी है। इतना तनाव है कि अगर हम एक-दूसरे की खोपड़ी खोल सकें और खोपड़ी के भीतर से सारा तनाव बाहर निकाल सकें तो हम बहुत दंग रह जाएंगे। इतने छोटे सिर और इतना तनाव और इतनी परेशानी! इतनी बेचैनी, इतनी चिंता! इतना दुख! घबड़ाने वाला है, इसलिए कभी हम अपने भीतर भी नहीं झांकते। स्त्रियां तो बिल्कुल नहीं झांकती, वे तो बाहर ही लगी रहती हैं पूरे समय। वह कभी भीतर नहीं झांकती। न झांकने का कारण है। भीतर, भीतर बहुत विरस हो गया है। भीतर कुछ रस नहीं है। चूंकि इतना विरस हो गया है भीतर, इसलिए स्त्रियां क्रिएटिव नहीं हो पातीं, सृजनात्मक नहीं हो पातीं।
यह दंग करने वाली बात है। होना तो यह चाहिए था कि स्त्रियों से अच्छी पेंटिंग्स किसी ने भी न बनाई होती। पुरुष को हार जाना चाहिए था। लेकिन अब तक कोई बड़ी स्त्री पेंटर नहीं हुई हैजिसके चित्र प्रथम कोटि में रखे जा सकें। होना तो यह चाहिए था कि काव्य में पुरुषों की कोई गति न हो पाती। लेकिन काव्य की दिशा में भी स्त्री का कोई बड़ा दान नहीं है। आश्चर्यजनक है, यह काव्य और यह संगीत और यह सब छोड़ दें हम। जान कर हैरानी होगी कि पाक शास्त्र में भी जितनी खोजें हैं, सब पुरुष की हैं, स्त्री की कोई खोज नहीं है। और आज भी जमीन पर जो बड़े रसोइए हैं वे पुरुष हैं, वे स्त्रियां नहीं हैं! आज भी कोई बड़ी होटल किसी स्त्री को रसोइया रखने को राजी नहीं है। उसकी क्रिएटिविटी, उसकी सृजनात्मक होने की क्षमता ही उसने खो दी है। वह कुछ निर्माण ही नहीं कर पाती, वह सिर्फ दोहराए चली जाती है। जो खाना कल बनाया था, वह खाना आज भी बना लेती है! जिस भांति से कल सुबह घर साफ किया था, आज भी साफ कर लेती है। क्या कारण है?
यह सृजन का स्रोत जब कि स्त्री में ज्यादा होना चाहिए, क्योंकि वह संतति की जन्मदात्री है, वह नौ महीने तक बच्चों को पेट में रखती है, फिर उन्हें बड़ा करती है। वह मनुष्यों को भी पैदा करती है और निर्माण करती है। और दूसरा निर्माण उससे क्यों नहीं हो पाता? जरूर कुछ कारण हैं।
सच तो यह है कि वह बच्चों की मां भी करीब-करीब मजबूरी में बनती है। वह भी उसकी प्रसन्नता नहीं रह गई है। अगर उसका वश चले, और जिन देशों में उसका वश चल रहा है, उसने बच्चों से इनकार कर दिया है। हम इधर हिंदुस्तान जैसे देश में जनसंख्या से परेशान हैं। फ्रांस जैसे देश में जहां कि स्त्रियां सर्वाधिक शिक्षित हो गई हैं, वहां फ्रांस की सरकार चिंतित है कि कहीं ऐसा न हो कि जनसंख्या गिरती जा रही है, तो कहीं ऐसा न हो कि मुल्क सिकुड़ता जाए। पास-पड़ोस के लोग ज्यादा हो जाएं, हम कल मुसीबत में पड़ जाएं। फ्रांस की जनसंख्या तीस साल से थिर है और इधर पांच साल से नीचे गिर रही है। तो फ्रांस की सरकार घबड़ा गई है कि क्या होगा? स्त्रियों ने बच्चे पैदा करने से इनकार कर दिया, क्योंकि स्त्रियां यह कहती हैं कि नहीं।
क्या कारण है? सृजनात्मकता से इतना विरोध? उन्होंने पहले चित्र नहीं बनाए, कविता नहीं की, ठीक था। अब वे कहती हैं कि बच्चे भी नहीं बनाएंगी। क्यों? उनके भीतर इतना दुख और पीड़ा है कि बनाने का ख्याल ही उन्हें नहीं आता। सृजन पैदा होता है आनंद से। सृजन की धारा फूट पड़ती है, जब कोई आनंदित होता है तो सृजन करना चाहता है। और जब कोई दुखी होता है तो विध्वंस करना चाहता है। कभी पता होगा, अगर घर में पति से झगड़ा हो जाए तो उस दिन प्लेट ज्यादा टूट जाती हैं, जैसे कभी न टूटी थी! उस दिन कांच के गिलास अचानक हाथ से छूट जाते हैं और जमीन पर .जार-.जार हो जाते हैं। अगर इनका आंकड़ा इकट्ठा किया जाए तो जिस दिन कांच टूटा हो घर में, प्लेट ज्यादा टूटी हों, उनके अगर आंकड़े रखे जाएं और हिसाब लगाया जाए, तो वे वे ही दिन होंगे जिस दिन घर में कलह हुई है, संघर्ष हुआ है, उपद्रव हुआ है। हां, कभी-कभी छूट भी जाते होंगे, वह दूसरी बात है। लेकिन अगर हिसाब रखा जाए तो पक्का पता चल जाता है कि जिस दिन मन क्रोध में है, उस दिन चीजें तोड़ने का मन हो जाता है।
क्रोध, दुख, चीजों का विध्वंस करना चाहता है। आनंद चीजों का निर्माण करना चाहता है। स्त्रियां दुखी हैं, अशांत हैं, इसलिए सृजन नहीं कर पातीं। क्या किया जा सकता है?
अंतिम इस बात पर विचार करें कि किया क्या जा सकता है। पुरुष का हाथ है स्त्रियों को उस दिशा में लाने में। लेकिन स्त्रियों की सहमति है। और जब कोई किसी को गुलाम बनाता है तो गुलाम बनाने वाला ही जिम्मेवार नहीं होता, बन जाने वाला भी उतना ही जिम्मेवार होता है। इस दुनिया में किसी की सहमति के बिना किसी को गुलाम नहीं बनाया जा सकता। पुरुषों को समझना होगा कि स्त्रियों को व्यक्तित्व दे दें, प्रेम के नाम पर व्यक्ति की हत्या न करें। स्त्रियों को मुक्त करें। उन्हें अपने अस्तित्व में खड़ा होने दें। वे किसी की पत्नियों की भांति न पहचानी जाएं, अपने ही नाम से पहचानी जाएं, सीधी और स्पष्ट।
अभी परसों मुझसे कोई मिलने आया था, कोई फिल्म-कथा लेखक थे। तो उनका तो परिचय हुआ तो उनका नाम बताया गया कि फलां-फलां हैं और उनकी पत्नी है, उनका बताया गया कि वह फलां-फलां की पत्नी हैं। तो मैंने कहा कि तुम्हारा पत्नी होने के अतिरिक्त और कोई होना नहीं है। छोड़ो, तुम पत्नी होओगी अपने पति के घर में। मुझे तुम्हारे पति से क्या मतलब? मुझे सीधी बात करो, तुम कौन हो। उसने कहा: नहीं-नहीं, मैं मिसेज फलां-फलां। मैंने कहा: वह अपने पति से तुम्हारा संबंध है। मुझसे क्या लेना-देना है! होओगी तुम किसी की श्रीमती, लेकिन मुझसे क्या मतलब है, मुझसे सीधी बात करो। तुम्हारे पति नहीं कहते कि मैं श्रीमान फलां-फलां, मैं फलां-फलां का पति हूं, वह कभी भी नहीं कहते। वह कहते, मैं मैं हूं और तुम पत्नी हो सदा!
पत्नी होना तुम्हारे व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। मां होना तुम्हारे व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। रसोई में खाना बनाना तुम्हारे व्यक्तित्व का एक हिस्सा है, तुम रसोइयन नहीं हो गई हो। और साफ करती हो घर तो तुम बुहारी लगाने वाली नहीं हो गई हो, और बच्चे का पाखाना फेंकती हो तो भंगिन नहीं हो गई हो। तो पति के साथ प्रेम करती हो तो पत्नी कैसे हो गई? तुम्हारे काम हैं बहुत, उनमें एक काम वह भी होगा। लेकिन फिर भी तुम तुम हो। तुम्हारा होना अलग से तुम्हारे कामों से प्रकट होना चाहिए।
पुरुष को मुक्ति देनी चाहिए कि स्त्री अपने पैरों पर खड़ी हो सके। लेकिन ध्यान रहे, अगर स्त्री ने यह प्रतीक्षा की कि जब पुरुष हमें मुक्त करेगा, तभी हम मुक्त होंगी; तो वह मुक्ति भी एक गुलामी होगी। क्योंकि जब दूसरा हमें मुक्त करेगा तभी हम मुक्त होंगे, तो उस मुक्ति का कोई मतलब नहीं। स्त्रियों को मुक्त होने की दिशा में कदम उठाना चाहिए। उन्हें अपने व्यक्तित्व को अलग से निर्मित करने का विचार करना चाहिए। इतना नहीं है कि पत्नी होने पर सब समाप्त हो गया। उन्हें कवि भी होना चाहिए, संगीतज्ञ भी होना चाहिए, नृत्यकार भी होना चाहिए, चित्रकार भी होना चाहिए। उनकी अपनी जिंदगी की अपनी दिशा होनी चाहिए।
पत्नी होना उनकी जिंदगी की सब कुछ पूर्णता नहीं है। पत्नी होना इति नहीं है। वह अंत नहीं है। लेकिन पत्नी हो जाने के बाद दि एंड आ जाता है, एकदम से इति आ जाती है। फिर उसके बाद फिर कुछ नहीं होना है। पत्नी होना होने की शुरुआत होनी चाहिए, लेकिन वह होने का अंत हो जाता है! उसके बाद फिर कुछ भी नहीं होना है, सब काम हो गया! जैसे किसी स्त्री ने पति खोज लिया, उसकी जिंदगी पूरी हो गई, मौत आ गई, खत्म हुआ मामला! इसके बाद उसको कुछ भी नहीं करना है! बस जब तक पति खोजना था, तब तक वह कुछ करती थी। लेकिन जब पति खोज लिया तब सब समाप्त हो गया!
नहीं, जिंदगी बहुत ज्यादा है। जिंदगी में और फूल खिल सकते हैं, जिंदगी में और संगीत आ सकते हैं, जिंदगी में बहुत रस हो सकता है, लेकिन पत्नी भर हो जाने से, वह रस कभी भी नहीं होगा। कुछ और भी करना पड़ेगा। और जब वह रस होगा, जब वह आनंद होगा, जब पत्नी अपनी हैसियत से खड़ी होगी, सृजन करेगी, निर्माण करेगी, जिंदगी की दिशाओं में अपनी तरफ से खोज करेगी।
पुरुष ने रोका उसे इस खोज से, क्योंकि पुरुष को डर है कि वह और खोज में जाएगी तो वह और पुरुषों के संपर्क में भी आ सकती है। वही डर आत्मघाती हो गया। उसे डर है कि अगर उसकी पत्नी पेंटर बनेगी तो पुरुष उसकी पेंटिंग की क्लास में कहां उसके पीछे जाकर खड़ा रहेगा। उसका मन है कि वह डंडा लेकर वहां भी खड़ा रहे, वह देखता रहे कि पत्नी किसी से बात तो नहीं करती? किसी से आनंदित होकर हंसती तो नहीं है? इस डर ने पत्नी को घर के भीतर बंद कर दिया, उसे संगीत सीखने जाने में डर हो गया, संगीतज्ञ के पास जाने में डर हो गया, चित्रकार के पास जाने में डर हो गया।
लेकिन वह प्रेम बड़ा कमजोर है जो इतना भयभीत है। ऐसा प्रेम दो कौड़ी का है। अगर मैं अपनी पत्नी को किसी दूसरे पुरुष के पास अकेले में न छोड़ सकूं, बात न कर सके मेरी पत्नी तो मेरा प्रेम बड़ा कमजोर है, बड़ा भयभीत है, है ही नहीं। ऐसे प्रेम को सम्हालने का मतलब भी क्या है जो है ही नहीं। जिस प्रेम के लिए पुलिसवाला बन जाना पड़ता हो उस प्रेम का कोई भी मतलब नहीं, वह है ही नहीं। प्रेम के लिए पुलिसवाले बनने का कोई सवाल ही नहीं है। प्रेम अपनी सुरक्षा है। और अगर प्रेम अपनी सुरक्षा नहीं तो सब सुरक्षा झूठी है, बेमानी है, दो कौड़ी की है। करने की कोई जरूरत नहीं है। तो पुरुष ने इस डर की वजह से स्त्री को घर की चारदीवारी में बंद कर दिया है। पर्दे में डाल दिया है, बुर्का उढ़ा दिया है, घूंघट करवा दिया है, सब तरफ से बंद कर दिया है कि वह किसी के संपर्क में न आ जाए। यह कैसा प्रेम है?
तो मुझे लगता है कि हम प्रेम को विकसित ही नहीं कर पाए, इसलिए इतना भय है, अन्यथा इतना भय न होता। हद्द डरे हुए लोग हैं। वे इतने भयभीत हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। उनका भय बताता है कि उन्होंने न प्रेम किया है और न प्रेम पाया है। पत्नी भी भयभीत है, उसका पति कहीं और स्त्रियों के संपर्क में न आ जाए! वह डरी हुई है। वह रोज सांझ हिसाब-किताब रखती है कि कहां थे, कहां नहीं थे, कहां से आए हो, कहां से आ रहे हो, वह सारा पता रखती है! वह सारी जांच-पड़ताल रखती है। उसका पति किसी और स्त्री के जरा से संपर्क में आ जाए तो भय है। यह कैसा प्रेम है, जो इतना कमजोर है। इतने कमजोर प्रेम का कोई मतलब नहीं है। इतना कमजोर प्रेम है ही नहीं। प्रेम बड़ी शक्ति है और पर्याप्त है।
स्त्री को अपनी मुक्ति के लिए अपने व्यक्तित्व को खड़ा करने की दिशा में सोचना चाहिए, प्रयोग करने चाहिए। लेकिन ज्यादा से ज्यादा वह क्लब बना लेती है, जहां ताश खेल लेती है; कपड़ों की बात कर लेती है, फिल्मों की बात कर लेती है, चाय-कॅाफी पी लेती है, पिकनिक कर लेती है; और समझती है कि बहुत, शिक्षित होना पूरा हो गया। ताश खेल लेती होगी। पुरुषों की नकल में दो पैसे जुए के दांव पर लगा लेती होगी। बाकी इससे उसको कुछ व्यक्तित्व नहीं मिलने वाला है।
स्त्री को भी सृजन के मार्गों पर जाना पड़ेगा। उसे भी निर्माण की दिशाएं खोजनी पड़ेंगी। जीवन को ज्यादा सुंदर और सुखद बनाने के लिए उसे भी अनुदान करना पड़ेगा, तभी स्त्री का मान, स्त्री का सम्मान, उसकी प्रतिष्ठा है, वह समकक्ष आ सकती है। और मेरे देखने में, स्त्री अगर आनंदित हो जाए तो हम जीवन को शांत करने के मार्ग पर बड़े कदम उठा सकते हैं। मैं तो यहां तक कह सकता हूं, यह किसी को अतिशयोक्ति मालूम हो सकती है; लेकिन मेरी अपनी समझ यह है कि अगर दुनिया से युद्ध और हिंसा खत्म करनी हो तो जो बुनियादी इकाई है स्त्री और पुरुष की, उसको शांत कर दें। अगर वह शांत, प्रेमपूर्ण, आनंदपूर्ण बन जाए तो दुनिया में कोई लड़ने को राजी न होगा।
क्या आपको पता है, सैनिकों को अविवाहित रखना पड़ता है, क्योंकि विवाहित सैनिक ठीक से लड़ने को राजी नहीं होता। सैनिकों को अविवाहित रखना पड़ता है ताकि वे लड़ सकें। असल में जिनके जीवन में प्रेम नहीं है, वे ही लड़ सकते हैं। इसलिए सैनिकों को स्त्रियों से दूर रखना पड़ता है कि कहीं उनके जीवन में प्रेम की किरण न आ जाए। अगर प्रेम आ जाए तो न वे मरना चाहते हैं, न किसी को मारना चाहते हैं, वे फिर जीना चाहते हैं। आज वियतनाम में अमरीका के सैनिक ज्यादा ताकत होने पर भी हारते चले जाते हैं। उसका कुल कारण इतना है कि अमरीका का सैनिक स्त्री के निकट आ गया है। दुनिया का कहीं का सैनिक स्त्री के उतने निकट नहीं है। अमरीकन सैनिक अपनी गल्र्स फ्रेंडस को लेकर वियतनाम के युद्ध पर पहुंच गए हैं, उनकी लड़कियां दोस्त, उनकी पत्नियां, उनकी प्रेमिकाएं तंबू में उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं।
अब एक सैनिक लड़ने गया है और उसकी प्रेयसी तंबू में उसकी प्रतीक्षा कर रही है। वह युद्ध पर लड़ सकेगा? वह दिन भर इस प्रतीक्षा में होगा, किस भांति मैं वापस लौट जाऊं। और क्या वह किसी को मार सकेगा? जो आदमी किसी के प्रेम में है, वह किसी को भी मारने में असमर्थ हो जाता है।
तो पिछले कोरिया के युद्ध में कोरिया में जो अमरीकी जनरल था, उसने रिपोर्ट दी है अमरीकी सीनेट को कि हमारे सौ सैनिक लड़ने जाते हैं, उसमें से चालीस प्रतिशत बंदूकों का उपयोग नहीं करते। वे बंदूकें लटकाए हुए घूम-घाम कर वापस आ जाते हैं। और उनसे कहा जाए कि तुम मारते क्यों नहीं, तो वे कहते हैं कि जीवन इतना आनंदपूर्ण है कि दूसरे के लिए भी तो इतना ही आनंदपूर्ण होगा।
इसलिए पुरुषों को स्त्रियों से दूर रखना जरूरी है, अगर लड़ाना हो। क्योंकि जब उनका जीवन प्रेमपूर्ण नहीं होता, तब वे तोड़ने को, मारने को उत्सुक हो जाते हैं। जब अपना ही जीवन इतना दुखपूर्ण है, तो किसी को भी खत्म करो, कोई फर्क नहीं पड़ता। तोड़ो, मिटाओ, नष्ट करो!
मेरी दृष्टि में इस पृथ्वी पर एक स्वर्ग बन सकता है, लेकिन प्रेम का स्वर्ग ही नहीं बन पाया। वह पहली इकाई पर ही सब गड़बड़ हो गया है। मकान की नींव ही डगमगा गई। ऊपर के शिखर सब कंप रहे हैं। इस पर सोचें। जरूरी नहीं कि मेरी सभी बातें ठीक हों। कौन दावा कर सकता है सभी बातों के ठीक होने का। ऐसा मैं सोचता हूं, वह मैंने कहा। उस पर सोचना। हो सकता है कोई बात ठीक लगे, तो ठीक लगते ही बात सक्रिय हो जाती है। न ठीक लगे, बात समाप्त हो जाती है। मैं कोई उपदेशक नहीं हूं। मुझे जो ठीक लगता है, वह कह देता हूं, निवेदन कर देता हूं।

और मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।

 मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

नारी और शांति विषय पर प्रवचन


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