शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-बीसवां
जीवन-विरोधों में लयवद्धता का बिंदु
आचार्य जी, टुडे आई शैल आस्क अबाउट कंट्राडिक्शन। टु मी सर दिस इस्यू हैज बीन वेरी मच कनफ्यूजिंग। साक्रेटीज क्लीन्स दि सिस्टम बाई प्रोनाउंसिंग दि डेमोक्रेसी, व्हेयर इन ड्यूरेशन ऑफ टाइम चेंज्ड द एटिट्यूड ऑफ अरिस्टोटल टु चेंज दि सिस्टम। आई एग्री विद योर व्यू.ज दैट अवर फ्यूचर आर्गनाइजेशंस विल बी दि आर्गनाइजेशंस ऑफ ओवर लव नाॅट ऑफ डामिनेशंस। बट आई हैव टु एडमिट सर दैट टु रन ए गवर्नमेंट व्हेदर ऑफ स्माल यूनिट आर ऑफ वर्क आर्गनाइजेशंस, वी शैल हैव टु फ्रेम ए कोड ऑफ कंडक्ट व्हिच शैल चेक दि माल-प्रेक्टिसस ऑफ दि बैड एलिमेंट्स एण्ड कीप दि साउंड सिस्टम। शुड आई हैव फ्राॅम यू सर दि डिटेल्स ऑफ अकाउंट?
जीवन निश्चित ही विरोधों से भरा है, कंट्राडिक्शंस से भरा है। विरोध जीवन के लिए जरूरी भी है। जैसे कोई भवन निर्माण करने वाला द्वार के ऊपर विरोधी ईंटों को लगा कर आर्च निर्मित करता है। दो तरफ से विरोधी ईंटों का दबाव द्वार बन जाता है। जीवन की सारी व्यवस्था विरोध और उनके दबाव पर निर्भर है।
जीवन में यदि विरोध न हो तो जीवन ही असंभव है। कंट्राडिक्ट्री पोल्स, विरोधी छोर, उनका तनाव और दबाव ही जीवन को निर्मित करते हैं। तो विरोध जीवन-विरोधी नहीं है। विरोध के ही मध्य और बीच जीवन की सारी लीला और खेल है। अंधेरा और प्रकाश से मिल कर, धूप और छाया से मिल कर, जन्म और मृत्यु से मिल कर, स्त्री और पुरुष से मिल कर, निगेटिव और पाजिटिव से मिल कर सारे जीवन की व्यवस्था है। इसलिए ऐसा तो कभी नहीं होगा कि विरोध समाप्त हो जाए। विरोध समाप्त हुए कि जीवन समाप्त हुआ। विरोध तो रहेंगे ही।
तब करना क्या है? करना ऐसा है कि विरोध हों और विरोधों के बीच एक हार्मनी हो, एक संगति हो। यानी विरोध ऐसे हों कि दोनों मिल कर जीवन को गति देते हों, रोकते न हों। विरोध ऐसे भी हो सकते हैं कि जीवन रुके, बाधा पड़े। विरोध ऐसे भी हो सकते हैं कि जीवन को गति मिले, यात्रा हो। विरोध समाप्त नहीं हो सकते हैं। विरोध को समाप्त करने की बात ही गलत है। हां, विरोध ऐसे हो सकते हैं कि जीवन के लिए मित्र, सहयोगी और साथी बनें, और ऐसे भी हो सकते हैं कि जीवन नष्ट हो जाए। तो कैसे विरोध हों, यह चुनाव की बात है।
तो मैं विरोधों का विरोधी नहीं हूं, सिर्फ उन विरोधों को इनकार करता हूं, जिनसे जीवन नष्ट होता है। और जीवन का सम्यक संगीत विरोध के बीच ही एक लयबद्धता, एक रिदिम को खोजने से होता है। जब एक संगीतज्ञ, एक सितारवादक सितार बजाता है तो वह बहुत से स्वर पैदा कर रहा है। उन सब स्वरों के बीच एक सामंजस्य है, तो संगीत पैदा हो गया। पांच-दस पागल मिल करके भी एक कमरे में बहुत से स्वर पैदा कर सकते हैं, लेकिन उससे संगीत पैदा नहीं हो जाएगा। स्वर तो हो जाएंगे बहुत पैदा, लेकिन वे स्वर विसंगीत पैदा करेंगे, संगीत नहीं; डिस्कार्डेंट होंगे, हारमोनियस नहीं। ऐसे ही जीवन की स्थिति है। ऐसे स्वर जीवन में पैदा हो सकते हैं, जो विरोधी हों, लेकिन संगीतपूर्ण हों। और ऐसा भी हो सकता है कि स्वर सिर्फ विरोधी हो और उनके बीच कोई अंतर संबंध न हो।
आज जो समाज है वह ऐसा ही समाज है, जो एक विसंगीत है। विरोध की वजह से यह विसंगीत नहीं है, विरोधों के बीच संगीत न खोजने की वजह से है। इसलिए बहुत लोगों को यह उपद्रवपूर्ण स्थिति देख कर लग सकता है कि हम सब विरोध समाप्त कर दें। लेकिन जिस दिन विरोध समाप्त होंगे, उस दिन जीवन ही समाप्त हो जाता है। जीवन को खड़ा ही नहीं किया जा सकता।
वह जो जीवन की गति है वह निरंतर विरोध के बीच है। जब आप सड़क पर चल रहे हैं, तब भी आपको खयाल नहीं है कि दो विरोधों के कारण आप चल पा रहे हैं। जब आप सड़क पर चल रहे हैं, तब आप गति कर रहे हैं और जमीन का गुरुत्वाकर्षण आपकी गति को पूरे वक्त रोक रहा है। जमीन कह रही है रोकने के लिए, रुकने के लिए, ठहर जाने के लिए और आप चल रहे हैं। इन दोनों के बीच एक तालमेल निर्धारित हो जाता है, इसलिए आप चल पाते हैं।
अगर जमीन में गुरुत्वाकर्षण न हो तो आप चल ही नहीं पाएंगे। या आप में चलने की इच्छा न हो तो भी आप नहीं चल पाएंगे। जमीन का गुरुत्वाकर्षण और चलने की इच्छा--और इन दोनों के बीच एक तालमेल, एक हार्मनी आपको गति देती है और चलाती है। अगर जमीन में गुरुत्वाकर्षण न हो तो आप जमीन से ही छूट जाएंगे, चलने का सवाल ही नहीं है। और आप में चलने की इच्छा न हो तो आप बैठ जाएंगे। ये दो विरोधियों के बीच हम चल रहे हैं, हम जी रहे हैं। जीने के प्रतिपल में मृत्यु का विरोध खड़ा हुआ है। जीने का सारा रस ही इसीलिए है कि मृत्यु भी है। अगर यह निश्चित हो जाए कि मृत्यु नहीं है, तो जीवन का रस तत्क्षण विलीन हो जाएगा। वह जो जीवन में आनंद और पुलक है, वह प्रतिपल मृत्यु के साथ खड़े होने से है।
किसी भी दिन अगर आदमी ने ऐसा कर लिया कि मृत्यु को इनकार कर दिया, और ऐसी व्यवस्था कर ली कि कोई नहीं मरेगा, तो उसी दिन से फिर कोई जीएगा भी नहीं। क्योंकि जीवन का सारा अर्थ ही खो जाएगा। ऐसे ही, जैसे एक चित्रकार चित्र बनाता है तो बहुत रंगों से बनाता है। और अक्सर ऐसा होता है कि उसे अगर सफेद रंग उभारना हो तो पीछे काले रंग का बैकग्राउंड बनाता है। काले रंग की पृष्ठभूमि में सफेद रंग उभरता है, दिखाई पड़ता है। वह उतना सफेद दिखाई पड़ता है, जितना वह सफेद होता भी नहीं। वह काले की वजह से उतना सफेद दिखाई पड़ता है। काले और सफेद के बीच एक संगीत खोजता है तो चित्र बन जाता है।
तो जीवन की बहुत गहरी व्याख्या में विरोध स्वीकृत होगा। उसको इनकार नहीं करना है। लेकिन, इसका यह अर्थ नहीं है कि विरोध अराजक हो जाए, कि विरोध के बीच का कोई संबंध ही न रह जाए। दो व्यक्ति बात कर रहे हैं। दोनों विरोधी हैं लेकिन बात करने में एक संगीत हो सकता है, क्योंकि दोनों विरोधी होते हुए भी एक दूसरे को समझने के लिए आतुर, उत्सुक हैं। तब उनकी बातचीत एक संवाद है, एक डाॅयलाग है। और उन दोनों की बातचीत से सत्य के करीब वे दोनों पहुंचेंगे। वे विरोधी हैं, वे बिलकुल विरोधी हैं। शायद वे इसी बात के लिए सहमत हैं कि दोनों असहमत होंगे। बाकी इतना ही एग्रीमेंट है उनके बीच--डिसएग्री होने का। लेकिन फिर भी एक दूसरे को समझने का एक भाव है, तो वह संगीत बना देगा। तब उनका विरोध भी मैत्रीपूर्ण हो जाएगा, और तब उस विरोध से भी वे सत्य के करीब पहुंचेंगे।
दो व्यक्ति ऐसे विरोधी हो सकते हैं, जो एक दूसरे को सुनने को राजी नहीं हैं। अपना-अपना बोल रहे हैं, दूसरे का सुन नहीं रहे हैं। दूसरे से कोई संबंध नहीं है। तब वह स्थान पागलखाने का हो जाएगा। तब वे अपना बोल रहे हैं, लेकिन दूसरे से कोई जोड़ नहीं है। तब वे सत्य के करीब नहीं, पागल होने के करीब पहुंचेंगे। विरोध कैसा हो, कंट्राडिक्शन कैसा हो, यह सवाल है। और इसलिए मेरा मानना है कि हमें इसकी भी शिक्षा देनी चाहिए कि जीवन में विरोध कैसा हो।
एक आदमी एक तीर को चला रहा है। तीर को भेजना है आगे और कमान को खींचता है वह पीछे। अब यह बिलकुल विरोधी बात है। तीर को आगे भेजना है तो कमान को पीछे क्यों खींचते हो? लेकिन कमान को पीछे खींच कर वह विरोध पैदा किया जा रहा है जिससे तीर आगे जाएगा। जिसे लंबी छलांग लेनी हो उसे दो कदम पीछे लौटना पड़ता है। कोई कहेगा, तुम पागल हो गए हो? लंबी छलांग लेनी है तो पीछे क्यों लौटते हो? दो कदम और कम हो जाएंगे। लेकिन लंबी छलांग लेने के लिए पीछे लौटने का विरोध गति लाएगा, मोमेंटम पैदा करेगा। और जो जितने पीछे लौट कर गति दे पाएगा, उतनी तीव्र छलांग ले पाएगा। इसलिए पीछे लौटने वाला हमेशा हारने वाला नहीं होता है। पीछे लौटने वाला जीतने वाला भी हो सकता है--अगर वह पीछे इसलिए लौटा हो कि और लंबी छलांग ले सके। तो हमें प्रत्येक व्यक्ति को विरोधों के बीच में कैसे जीना, यह सिखाना होगा। हम क्या सिखाते हैं? हम सिखाते हैं, दो में से एक को चुन लो और जीओ! एक आदमी गृहस्थ है। वह कहता है, घर-गृहस्थी में मैं कैसे शांत होऊं? यहां तो बड़ी उलटी स्थिति है, प्रतिकूल है सब दृष्टियों से।
विचार और चित्त के विकास में भी विरोध सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जिन देशों में जितनी वैचारिक विरोध की हवा रही है उन देशों में तर्क ने, विचार ने उतनी गति की है। जिन देशों में श्रद्धा की, आस्था की, स्वीकार करने की, अविरोध की धारणा रही है उन देशों में मस्तिष्क उतना ही कम विकसित हुआ है क्योंकि चुनौती ही खत्म हो गई है। जैसे हमारा ही देश है। हमारे देश ने मस्तिष्क में वह विकास नहीं किया है जो वह कर सकता था क्योंकि इधर हमारी पूरी व्यवस्था यह है कि कोई विरोध न करे, कोई नास्तिक न हो, कोई इनकार न करे, सब हां कहने वाले लोग हों; ना कहने की बात ही नहीं करनी चाहिए। तो जब सब हां कहने वाले लोग होंगे तो वह तनाव पैदा नहीं होता जो ना कहे तो हां में बल डालता है। हां निर्बल हो जाता है धीरे-धीरे, हां बिलकुल औपचारिक हो जाता है। अंततः हां का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। क्योंकि उसमें मतलब ही तब था, जब कोई ना कह सकता था। अब हां यानी बेमानी बात हो जाती है, वह सिर्फ शिष्टाचार का हिस्सा हो जाता है।
और अंततः, शरीर, मन और आत्मा तक--हमें सब तरह के विरोधों का उपयोग करके और जीवन को हम कितना ऊंचा ले जा सकते हैं--दोनों विरोधों को मिला कर, थीसिस और एंटी-थीसिस को वाद और प्रतिवाद को मिला कर हम सिंथिसिस में कैसे ले जा सकते हैं, यही संपूर्ण शिक्षा का आधार होना चाहिए सब दिशाओं में। फिर सिंथिसिस जो है, संवाद जो है, वह फिर थिसिस बन जाना चाहिए, ताकि फिर उसकी एंटी-थीसिस पैदा हो। और इसलिए प्रतिपल विरोध हो, मिलन हो। मिलन फिर नये विरोध के लिए शुरुआत हो जाए। तब मनुष्य डायलेक्टिकल है, मनुष्य का विकास जो है द्वंद्वात्मक है, दो द्वंद्व के बीच से सारा विकास है।
तो मैं कहूंगा कि कंट्राडिक्शंस न हों--ऐसा नहीं! कंट्राडिक्शंस जरूर हों--स्वस्थ हों, शानदार हों, अर्थपूर्ण हों! और फिर भी दोनों के बीच में एक तालमेल हो, एक गहरे में एक मिलन भी हो। गहरे से मिलन न टूट जाए।
तो आने वाले समाज में हम ऐसी कल्पना करते हैं, नियमों की। बहुत डेलिकेट, बहुत सूक्ष्म यह बात हुई। क्योंकि सीधी-सीधी एक बात समझ लेनी बहुत आसान है। एक बात आसान है समझने की कि समाज कहे कि नियमों हो कि बच्चे आज्ञा पालन करें, बूढ़ों की श्रद्धा करें, यह बहुत सरल है। बूढ़ों के लिए विवाद खत्म हो गया। विरोध टूट गया। और मेरा मानना है, इससे बच्चे तो मरेंगे ही, नष्ट होंगे, बूढ़े भी नष्ट होंगे क्योंकि बच्चों के विरोध में बूढ़े अंत तक बच्चे रहेंगे, अंत तक उनको सीखने की तैयारी दिखानी पड़ेगी, अंत तक उनको युवा होना पड़ेगा। अंत तक उनको खोज जारी रखनी पड़ेगी, अगर बच्चे विरोध करते हों तो। और बच्चे अगर विरोध करेंगे तो ही उनके भीतर ऊर्जा पैदा होगी। उस विरोध से ही ऊर्जा पैदा होगी, शक्ति पैदा होगी और वह शक्ति उनके जीवन को आगे ले जाएगी।
तो मेरा मानना ऐसा हुआ कि बच्चे आज्ञा पालन करें, उनके विवेक को ठीक लगे वहां तक, और जहां उनके विवेक को ठीक न लगे वहां वह उतनी ही अवज्ञा करें; और उतने ही समर्थ हों आज्ञा तोड़ने में भी जितना आज्ञा पालन करने में समर्थ हों। अर्थात यह हुआ मतलब कि बच्चा पूर्ण स्वतंत्र हो--आज्ञा पालन करने में भी, और आज्ञा तोड़ने में भी। उसके विवेक की स्वतंत्रता कायम रखी जाए। ये दोनों विरोध उसमें मौजूद रहने चाहिए कि वह चाहे तो माने और चाहे तो न माने। इस मानने और न मानने का अगर संतुलन ठीक से हो पाए तो इस बच्चे का विकास होगा; तो इस समाज का विकास होगा।
और इसी भांति मैं सारे नियमों को मानता हूं कि वहां हमें विरोधी नियम को नष्ट नहीं कर देना चाहिए, विरोधी नियम को भी उतना ही सम्मान होना चाहिए। आस्तिक को भी उतना ही, नास्तिक को भी उतना ही। उतना ही सम्मान नास्तिक को तो आस्तिकता में भी प्राण आएगा और नास्तिकता भी प्राणवान होगी। और ये दोनों तो द्वंद्व हैं, पूर्ण कोई भी नहीं है। इन दोनों के तालमेल से जब किसी व्यक्ति में तीसरी चीज पैदा होती है तो फिर वह न आस्तिक होता है, न नास्तिक होता है; वह धार्मिक हो जाता है। वह सिंथिसिस हैं। ये दोनों विरोधी ईंटें मिल कर उसमें एक आर्च बनाती हैं और वह धार्मिक हो जाता है।
लेकिन जिस व्यक्ति के भीतर नास्तिकता बिलकुल नहीं है उसके भीतर की आस्तिकता एकदम इंपोटेंट होगी, उसमें कोई बल ही नहीं होता क्योंकि विरोधी हिस्से नहीं होते। वह ऐसा दरवाजा है जिसमें एक सी ईंटें लगी हैं, जो गिर ही जाएगा, खड़ा नहीं हो सकता। क्योंकि विरोध के दबाव से दरवाजा खड़ा हो पाता है।
और फिर यह भी पूछा आपने कि जो एक अंतर्राष्ट्रीय समाज बने, उसमें भी कुछ नियम, कोई व्यवस्था रहे। असल में अंतर्राष्ट्रीय सरकार बन ही तब सकती है जब बड़ी राष्ट्रीय सरकारें टूट जाएं। बड़ी राष्ट्रीय सरकारें अंतर्राष्ट्रीय सरकार के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हैं। बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सरकार सारे जगत की तभी हो सकती है, जब बड़ी राष्ट्रीय सरकारें विसर्जित हो जाएं और इनकी जगह छोटे, लोकल यूनिट्स आ जाएं। वे लोकल यूनिट इतने छोटे होंगे कि वे अंतर्राष्ट्रीय सरकार के विरोधी नहीं हो सकते, विरोध करके जी नहीं सकते। बड़े-बड़े राष्ट्र जैसे चीन या रूस या अमरीका या भारत, अगर खड़े रहें तो अंतर्राष्ट्रीय सरकार के निर्माण की बड़ी असंभावना है। बड़े राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय भाव के पैदा होने में सबसे बड़ी बाधा हैं। छोटे राष्ट्र--जैसे स्विटजरलैंड है, अंतर्राष्ट्रीय भाव के लिए बड़े अनुकूल हैं। क्योंकि वे इतने छोटे हैं कि वे कोई अंतर्राष्ट्रीय शासन के खिलाफ तो खड़े नहीं हो सकते हैं और वे इतने छोटे हैं कि वे दूसरे किसी राष्ट्र के खिलाफ भी सीधे खड़े नहीं हो सकते।
तो अंततः उनके हित में यह है कि जगत से राष्ट्र विसर्जित हो जाएं और एक अंतर्राष्ट्रीय भावना खड़ी हो। तो उसके लिए छोटे यूनिट, ये दोनो विरोधी बातें नहीं हैं। छोटी पंचायतें सारे जगत में हों और उन सबका तालमेल एक बड़े अंतर्राष्ट्रीय सरकार में हो जाए। ये लोकल यूनिट्स ही होंगे। यानी मेरी नजर में, जैसे म्युनिसिपल काॅरपोरेशन ऐसे छोटे यूनिट्स बिलकुल स्वतंत्र होने चाहिए। इनका तालमेल अंतर्राष्ट्रीय सरकार से सीधा होना चाहिए। इनके बीच में राष्ट्रों के यूनिट की कोई आवश्यकता नहीं है। और तब हम एक व्यक्तित्व देंगे नगरों को, छोटे जिलों को, छोटे गांवों का भी अपना एक व्यक्तित्व होगा। और इन सारे अनंत व्यक्तित्व के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय संगीत पैदा होगा इस व्यक्तित्व से।
बड़े राष्ट्र उसमें विरोधी हैं, बाधा डालते हैं। बड़े राष्ट्र भी अंतर्राष्ट्रीय सरकार चाहते हैं लेकिन उसका मतलब यह होता है कि वे हावी हो जाएं और वे अंतर्राष्ट्रीय सरकार बन जाएं। अंतर्राष्ट्रीयता की पुकार बहुत पुरानी है, वह दो तरह की है। दुनिया में सिकंदर ने और चंगीज ने भी अंतर्राष्ट्रीय सरकार चाही है। पर वह सरकार उनकी हो। वे छा जाएं, एक राष्ट्र हो जाए सारी दुनिया। लेकिन वह नहीं हो सका। वह भावना ही गलत थी। उस भांति कभी कोई अंतर्राष्ट्रीय सरकार नहीं बन सकती। अंतर्राष्ट्रीय सरकार बनेगी इस आधार पर कि छोटे यूनिट, इतने छोटे यूनिट कि उनका कोई अर्थ नहीं है शक्ति के मूल्यों में, वे ही संयुक्त हो सकते हैं और इकट्ठे हो सकते हैं।
इसलिए राष्ट्र जाना चाहिए। राष्ट्रों की कोई जगह नहीं हो सकती है भविष्य में। होंगे छोटे-छोटे नगर, होंगे छोटे-छोटे जिले, होंगे छोटे-छोटे टुकड़े, जो आपस में इकट्ठे होना चाहते हैं। वे छोटे टुकड़े इकट्ठे होंगे और जो अपने को छोटी सीमा में मैनेज और व्यवस्थित कर सकते हैं, ये इकट्ठे होंगे। इनके पास कोई बड़ी ताकत नहीं होगी। इनकी जो व्यवस्था का सूत्र होगा, वह छोटी पुलिस होगी जो इनका अपना भीतर का इंतजाम करती है, छोटी अदालत होगी। लेकिन उनके सारे संबंध सीधे अंतर्राष्ट्रीय सरकार से होंगे। तभी दुनिया में युद्ध बंद हो सकता है।
यानी छोटे पैमाने पर पंचायत राज्य और बड़े पैमाने पर अंतर्राष्ट्रीय शासन ये दो चीजें हमको खड़ी करनी पड़ेंगी। बीच से राष्ट्र बिलकुल हटा देने पड़ेंगे। बीच का राष्ट्र ही बाधा है। न वह पंचायत बनने देता है, क्योंकि पंचायत अगर पूरी स्वतंत्र हो तो उसे खतरा है। तो वह पंचायत को इस भांति से रखता है कि उस पर उसका पूरा कब्जा बना रहे। वह नाम मात्र के लिए लोकल सेल्फ गवर्नमेंट की बातें करता है। उसमें कोई गवर्नमेंट नहीं होती, न कोई सेल्फ गवर्नमेंट होती है। वह कुछ बात ही नहीं होती, वह सिर्फ तरकीबें हैं लोगों को तृप्त करने की, बाकी उससे कहीं कोई, कोई शासन का हक मिलता नहीं। क्योंकि शासन का हक तभी है, जब कोई अलग होने का हक रखता हो, नहीं तो हक नहीं है कोई भी।
सेल्फ गवर्नमेंट का क्या मतलब हो सकता है? स्वायत्त शासन का मतलब यह हो सकता है कि मैं चाहूं तो अलग हो जाऊं। तो वह तो हो नहीं सकते आप। तो राष्ट्र नीचे की पंचायत के भी विरोध में है और अंतर्राष्ट्रीय सरकार के भी विरोध में है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय सरकार जितनी बलवान होगी राष्ट्र की सरकार उतनी ही क्षीण और व्यर्थ हो जाएगी। तो वह दोनों तलों पर लड़ाई कर रहा है। वह नीचे छोटे टुकड़ों को मुक्त नहीं होने देता और एक अंतर्राष्ट्रीय विशाल पैमाने को इकट्ठा नहीं होने देता। तो राष्ट्र को विदा करना होगा और राष्ट्र-भाव को विदा करना होगा!
आने वाले बच्चे की शिक्षा में राष्ट्र का भाव ही नहीं होना चाहिए, उसे भाव होना चाहिए मनुष्यता का, विश्व का, और वे छोटे-छोटे टुकड़े एडमिनिस्ट्रेटिव होंगे तब। गवर्नमेंट का और क्या मतलब होने वाला है? छोटे टुकड़े की सरकार का मतलब होगा प्रशासन, कि वे अपनी व्यवस्था कर ले।
दूसरी बात जो आप कहते हैं, क्या व्यवस्था, क्या नियम हो? इसमें बहुत सोचने जैसी बात है। पहली बात तो यह कि हमें अब तक इतनी व्यवस्था करनी पड़ी है कि उसका कारण मनुष्य का स्वभाव नहीं है और न जीवन की वास्तविक समस्याएं हैं। उसका कारण मनुष्य के सामान्य स्वभाव पर की गई जबरदस्ती है। उसका कारण समाज का ऐसा तंत्र है जो अनिवार्य रूप से रोग पैदा करता है। जैसे, उदाहरण के लिए--चोर है। चोर को रोकने के लिए हमें कितनी व्यवस्था करनी पड़ी है, कितने कानून, कितनी अदालतें, कितनी पुलिस, कितने जेल-घर चोर को रोकने के लिए हैं। और ऐसा लगता है कि जैसे चोरी आदमी में कहीं है।
यह भी बात बिलकुल झूठी है। चोरी है व्यक्तिगत संपत्ति के साथ जुड़ी। और जब तक दुनिया में व्यक्तिगत संपत्ति है, तब तक चोरी नहीं मिटेगी।
तो अगर चोरी मिटाना हो तो चोरसे लड़ने की जरूरत नहीं है, व्यक्तिगत संपत्ति को विदा करने की जरूरत है। संपत्ति सामूहिक होनी चाहिए। जब संपत्ति सामूहिक होगी तो चोर सौ में से निन्यानबे प्रतिशत विदा हो जाएगा। निन्यानबे चोर तो विदा हो जाएंगे। एक तरफ अमीर है और दूसरी तरफ गरीब है तो चोरी है। जिस दिन समाज में अर्थ की संपन्नता समान होगी, समाज मालिक होगा और व्यक्ति मालिक नहीं होंगे, उस दिन चोरी का कोई आर्थिक कारण नहीं रह जाता। तो निन्यानवे प्रतिशत तो चोर विदा हो जाएगा। इसलिए चोर के साथ निन्यानबे प्रतिशत नियम, कानून, अदालत, जज विदा हो जाएंगे।
असल में चोर और जज और पुलिस साथ ही जुड़े हैं। ये एक ही चीज के हिस्से हैं। ये अलग-अलग नहीं हैं। जज अकड़ कर बैठा हुआ है, लेकिन वह चोर का ही दूसरा हिस्सा है। जब तक चोर है, तब तक जज भी बैठा हुआ है, तब तक वह भी शान बनाए हुए है। जिस दिन चोर गया उस दिन वह भी गया। इसलिए जज के हित में भी है कि चोर जारी रहे, वकील के भी हित में है कि चोर जारी रहे। चोर नहीं तो वकील नहीं, जज नहीं, पुलिस नहीं, कानून नहीं, वे सब विदा होंगे। निन्यानवे प्रतिशत चोर तो ऐसे विदा हो जाएगा। एक प्रतिशत चोर पैथालाॅजिकल होता है, जिसकी चोरी का कोई आर्थिक कारण नहीं होता है, मानसिक कारण होता है।
और बड़े मजे की बात है कि जिस चोरी का कारण क्लेप्टोमेनिया है! मानसिक है कारण, उसको सजा देना मूर्खता है। इससे ज्यादा मूर्खता की कोई बात नहीं हो सकती। यह ऐसे ही है जैसे एक टी. बी. वाले आदमी को सजा देना है कि तुमने टी. बी. क्यों किया? तो जो चोर शेष रह जाएगा उसके लिए अदालत की जरूरत नहीं है, उसके लिए तो इलाज, उपचार, अस्पताल और मनोचिकित्सा की जरूरत है। तो यह मैंने उदाहरण के लिए लिया कि हमारा बहुत बड़ा नियमन तो इस चोरी को व्यवस्थित करने के लिए होता है और वह पैदा हो रही है व्यक्तिगत संपत्ति से। और व्यक्तिगत संपत्ति विदा की जानी चाहिए। तो आने वाले बच्चों को हमें व्यक्तिगत संपत्ति के विरोध में तैयार करना चाहिए कि वह किसी संपत्ति को अपनी नहीं मानेंगे। वह संपत्ति सबकी है। जब संपत्ति सबकी है तो चोर विदा हो गया।
टु बिं्रग दिस इनार्मस चेंज आचार्य जी, डु वुड सजेस्ट दि ओल्ड एजुकेशन दैट वन शुड रिनांउस दि वल्र्ड आर वन शुड हैव दि एजुकेशन ऑफ अंडरस्टैंडिंग सो दैट ऑटोमेटिकली समथिंग शुड...
नहीं, संपत्ति को त्याग करने की बात मैं नहीं करता हूं, क्योंकि संपत्ति के त्याग में भी वह व्यक्तिगत की यह भावना मौजूद है। हम त्याग उसी का कर सकते हैं, जो हमारा हो। एक आदमी के पास करोड़ रुपये हैं, तब भी वह कह रहा है कि मेरे हैं। कल वह कहता है, मैं इनका त्याग करता हूं। और तब वह त्यागी हो जाता है करोड़ रुपयों का, लेकिन मालकियत उसकी अब भी जारी है। असल में त्याग भी मालकियत का एक रूप है। मैं छोड़ उसी को सकता हूं, जो मेरा है। इसलिए आने वाले बच्चों को रिनाउंस करने के लिए तैयार नहीं करना है। रिनाउंस करने के लिए तो बहुत तैयार किए गए थे बच्चे। सारी दुनिया के धर्म यही सिखाते हैं कि त्याग करो। लेकिन उस त्याग से कोई संपत्ति नहीं गई, क्योंकि वह त्याग भी संपत्ति की मालकियत को स्वीकार करता था।
आने वाले बच्चों को यह समझ पैदा करवानी है कि संपत्ति किसी की भी नहीं है--न त्याग के लिए, न मालकियत के लिए। संपत्ति है तो सबकी है। सबकी होने का मतलब कि किसी की नहीं है। संपत्ति उपयोग के लिए है, मालकियत के लिए नहीं। और उपयोग हम कर सकते हैं सब मिल कर। वह सबका साझा है, वह हमारे सबके सहयोग, साथ होने में उसका उपयोग है। जैसे सड़क सबकी है, मालकियत किसी की भी नहीं है। ऐसा मैं नहीं कहता कि मैंने सड़क की मालकियत का त्याग किया। मैं जानता हूं, सड़क मेरी है ही नहीं। सड़क सबकी है, सबके चलने के लिए है, जिस भांति सड़क सबकी है, नदी सबकी है। और मैं नहीं कहता कि नदी के पानी का मैंने त्याग किया। अब जिसको जो भोग करना हो करे। और मैं त्यागी हो गया नदी का, ऐसा कोई कहेगा तो हम उसको पागल कहेंगे। जैसे नदी सबकी है, सड़क सबकी है। हवा सबकी है, सूरज सबका है। ऐसे ही बाकी सब भी सबका है।
तो हमें व्यवस्था के लिए जो पहला काम करना है, वह अंडरस्टैंडिंग पैदा करनी है कि संपत्ति पर किसी की मालकियत नहीं है। त्याग में मालकियत मौजूद थी, इसलिए त्यागी मालकियत के बाहर नहीं जाता। मालकियत छोड़ देता है, फिर भी छोड़ने का मामला मालकियत का है। और छोड़ने के बाद भी लोग उसको कहते हैं कि वह करोड़ों रुपये का त्यागी है! तो वह मालकियत जारी रहती है। त्याग ने मालकियत को खत्म नहीं किया। तो त्याग के लिए नहीं, समझ को विकसित करना है। समझ में न भोग रह जाएगा, न त्याग रह जाएगा। जो मेरा नहीं है उसके छोड़ने का प्रश्न भी नहीं है। और यह जो, जो मैंने संपत्ति के लिए कहा, उसके साथ चोरी जुड़ी है।
दुनिया में अव्यवस्था के जो मूल कारण हैं, उनको आज तक अंगीकार नहीं किया गया है, स्वीकार नहीं किया गया है। मूल कारण अपनी जगह बने हुए हैं, और हम सब ऊपर से, सिम्टम्स से लड़ाई लड़ते रहे हैं। तो लड़ाई यह हमें मूल कारण से शुरू करनी चाहिए। कहां मूल में बुनियाद है। जैसे मनुष्य में इतनी ईष्र्या, इतनी महत्वाकांक्षा, इतना द्वेष वस्तुतः नहीं है। है एक मात्रा उसकी, लेकिन वह बहुत कम है। जितना कि हमारी व्यवस्था, सोचने के ढंग ने उसको बढ़ाया हुआ है।
डु यू फील आचार्य जी, दैट आल दिस आउटकम मे बी ऑफ पैथालाॅजिकल ऑर सोशियोलाॅजिकल इ.ज दि आउटकम ऑफ अवर एजुकेशन, मे बी ऑफ रिलीजन ऑर सोशल ऑर एडमिनिस्ट्रेटिव?
बहुत से कारण हैं। शिक्षा खुद ही समाज की व्यवस्था से निकली हुई चीज है। अब तक जो शिक्षा है वह शिक्षा समाज के ढांचे को मजबूत करने के लिए ही व्यवस्थित की गई है, उसे तोड़ने के लिए नहीं। तो हम स्कूल में भी बच्चों को सिखा रहे हैं कि चोरी करना पाप है लेकिन यह नहीं सिखा रहे हैं कि शोषण करना पाप है; जब कि शोषण जारी रहेगा तो चोरी जारी रहेगी।
तो हम यह तो सिखा रहे हैं कि गरीब अमीर की संपत्ति छीने तो पाप है, अर्थात चोरी पाप है। तो भी कोई अमीर गरीब के घर चोरी करने नहीं जाता, गरीब अमीर के घर चोरी करने जाता है। चोरी पाप है, यह बच्चों को सिखा रहे हैं। शोषण, एक्सप्लायटेशन पाप है, यह नहीं सिखा रहे हैं, क्योंकि एक्सप्लायटेशन उलटे ढंग की चोरी है। वहां अमीर गरीब के घर में घुसता है। यानी मेरी दृष्टि में शोषण अमीर की चोरी करने की तरकीब है गरीब के घर से। और चोरी गरीब की तरकीब है शोषण करने की।
तो गरीब की तरकीब को तो हम इनकार कर रहे हैं शिक्षा में और अमीर की तरकीब को स्वीकार कर रहे हैं! तो अब तक जो शिक्षा है, वह समाज का जो ढांचा है, वह उस ढांचे से ही पैदा हुई है और उसमें ढांचे के सारे स्वार्थ स्वीकृत कर लिए गए हैं। फिर उसी ढांचे के अनुकूल हम शिक्षा दे रहे हैं। बच्चों को हम महत्वाकांक्षा की शिक्षा दे रहे हैं। उनको सिखा रहे हैं कि तुम आगे बढ़ो, यह पाओ, वह पाओ--बड़ा मकान, बड़ा पद, बड़ा धन; यह सब संपत्ति का जो जगत है उसकी ही दौड़ हम उसमें पैदा कर रहे हैं। फिर जो जीत जाएगा वह सफल है, जो हार गया, वह असफल है। यह शिक्षा मनुष्य की शांति, मनुष्य के आनंद, मनुष्य के स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर निर्धारित नहीं हुई है। यह शिक्षा समाज का जो मौजूदा ढांचा है उस ढांचे को कैसे चलाया जाए, उसको ध्यान में रख कर निर्धारित की गई है।
समझ लें कि एक गांव हो और जिसमें सब पागल हों और उस गांव में शिक्षा का एक स्कूल भी हो, तो वह पागल अपने बच्चों को अपने जैसा बनाने के लिए जो-जो पागलपन के होने के रास्ते हैं, उस सबकी शिक्षा दे, ताकि वे बच्चे भी अपने मां-बाप के समाज में सम्मिलित हो जाएं। तो उस गांव के पागल शिक्षक और पागल समाज मिल कर बच्चों को इसके पहले कि उनमें बुद्धि, समझ आए, उनको पागल बना देने का सारा उपाय करेंगे। वह शिक्षा उन बच्चों को ध्यान में रख कर नहीं है। वह शिक्षा समाज के ढांचे को ध्यान में रख कर है।
तो अब तक की सारी शिक्षा समाज के ढांचे की बाई-प्राॅडक्ट है। और निश्चित ही जीवन बहुत जुड़ा हुआ है। समाज शिक्षा को बनाता है, फिर शिक्षा समाज को बनाने लगती है। फिर समाज शिक्षा को बनाता है, फिर शिक्षा समाज को बनाने लगती है। आज हम एक बच्चे को शिक्षित करते हैं, कल वह शिक्षक हो जाता है। मैं जिस शिक्षा की बात कर रहा हूं, उसमें पहली दफा व्यक्ति हमारा केंद्र होगा, समाज नहीं। समाज का हम केंद्र ही नहीं रखना चाहते। व्यक्ति के सुख, शांति, आनंद, स्वास्थ्य, व्यक्ति की परम संगीतपूर्ण उपलब्धि के लिए क्या किया जाना जरूरी है, वह हमारे ध्यान में होगा।
चाहे इसको ध्यान में रखने से समाज टूट जाए--टूटेगा समाज, यह समाज तो टूटेगा ही। पुरानी शिक्षा का आधार यह था कि समाज का ढांचा बचे, चाहे व्यक्ति टूट जाए। इसलिए वह व्यक्तियों को तोड़ने पर लगी थी। उसने सब व्यक्ति तोड़ डाले थे। कभी चूक कर कोई व्यक्ति बच जाता था, वह बात दूसरी है। लेकिन तब समाज उसे विद्रोही, बगावती, दुश्मन मानता था। वह व्यवस्था समाज को बचाती थी, व्यक्ति को मारती थी। और मजा यह है कि समाज को बचा कर क्या करिएगा, अगर व्यक्ति मर जाते हैं तो? क्योंकि अंततः इन्हीं व्यक्तियों का जोड़ समाज है। समाज तो सिर्फ एक ढांचा है मुर्दा। व्यक्ति जीवित शक्ति है। तो हमने उलटा काम किया हुआ था। यानी हमने कुछ ऐसा किया हुआ था कि एक रेलगाड़ी में कुछ यात्री बैठे हुए हैं, तो रेलगाड़ी को हम प्रमुख समझे हुए थे कि चाहे सारे यात्री मर जाएं, लेकिन रेलगाड़ी बचनी चाहिए। और यह हम भूल ही गए थे कि रेलगाड़ी हम किसके लिए बचाते हैं!
अब मेरा मानना है कि समाज को हमें यंत्र मानना चाहिए, व्यक्ति को प्राण। और व्यक्ति को बचाने के लिए चाहे समाज चला जाए, कोई फिकर नहीं! जाएगा नहीं, यह समाज चला जाएगा, नया समाज इसकी जगह आएगा। तो व्यक्ति केंद्र होगा शिक्षा का और जैसे ही व्यक्ति केंद्र हो जाएगा, तो अब तक जो हजार तरह की पैथालाॅजी, मानसिक बीमारी पैदा होती है, वह बहुत कम पैदा होगी। अब तक जो सामाजिक रोग, चोरी, हत्याएं, आत्महत्याएं पैदा होती हैं, वे बहुत कम पैदा होंगी। होता क्या है? हमें दिखाई नहीं पड़ता। अब जैसे कि सारी दुनिया में स्त्रियां बहुत आत्महत्याएं करती हैं। उसका कारण, स्त्रियों का स्वभाव नहीं है, उसका कारण स्त्रियों के ऊपर थोपी गई गुलामी है। गुलामी इस सीमा पर पहुंचा देती है जहां कि जीने से मरना बेहतर हो जाता है।
अब जैसे हिंदुस्तान में विधवाएं सती होती रही हैं, वह आत्महत्या को धार्मिक शक्ल देनी थी, और कुछ भी नहीं। आत्महत्या को सामाजिक सैंक्शन देना था, और कुछ भी नहीं। तो विधवा की हमने इतनी कष्टपूर्ण स्थिति बना रखी है कि उससे तो उसे मर जाना ही बेहतर मालूम पड़ा हमेशा। अगर विधवाएं आत्महत्याएं कर लें, या आत्महत्याएं न करें और चरित्रहीन हो जाएं, या चरित्रहीन हों और पाखंड को अंगीकार करके ऊपर से पाखंड जारी रखें, तो हम व्यक्ति को ही जिम्मेवार ठहराएंगे कि इस स्त्री ने आत्महत्या की, यह गलत थी। यह स्त्री व्यभिचारिणी हुई, यह गलत है। यह स्त्री पाखंडिनी है, यह ऊपर से कुछ दिखाती है, भीतर से कुछ है। जब कि सारा मामला यह है कि समाज इसको यही विकल्प दे रहा है। समाज इसको फिर से बस जाने का स्वस्थ विकल्प नहीं दे रहा है और समाज इसको समादृत रूप से अपने जीवन की आवश्यकताएं पूरे करने का विकल्प नहीं दे रहा है।
तो मेरा मानना यह है कि व्यक्ति पापी नहीं है, व्यक्ति अपराधी नहीं है, व्यक्ति व्यभिचारी नहीं है, अनाचारी नहीं है। मूलतः गहरे में समाज व्यभिचारी है, समाज पापी है, समाज अपराधी है। और समाज की इतनी बड़ी ताकत है कि एक-एक व्यक्ति को दबा कर उसकी जान ले लेता है और एक-एक व्यक्ति में इतनी ताकत होनी बहुत मुश्किल है कि उस बड़े समाज के ढांचे का वह विद्रोह करके और संघर्ष ले सके।
तो अगर एक अच्छी समाज व्यवस्था बनती है एक अच्छी शिक्षा आती है तो मेरा मानना है कि जो हमें व्यवस्था का बहुत डर है, वह तो रह नहीं जाएगा। जैसे एक पागलखाने में हम पूछ सकते हैं, पागलखाने के सुपरिन्टेंडेंट से हम कहें कि स्वतंत्रता होनी चाहिए, दरवाजे पर ताले नहीं होने चाहिए। तो वह कहेगा, आपको पता नहीं, सब व्यवस्था गड़बड़ हो जाएगी, पागल सब निकल भागेंगे। और कहां जाएंगे पता नहीं और क्या करेंगे, पता नहीं। तो हम उससे कहें कि हम पहले पागल को स्वस्थ करेंगे, फिर दरवाजा खोलेंगे। वह फिर भी पूछता है कि स्वस्थ हो जाएगा, वह ठीक है, लेकिन दरवाजा खुला रखने में हमेशा खतरा है पर उसे पता नहीं है कि खतरा उसके पागलपन में है, दरवाजा खुले होने में नहीं है।
समाज को इतने नियम में बांधने की जरूरत इसलिए है, कि हमने एक-एक व्यक्ति को उस हालत में खड़ा कर दिया है कि अगर इतने नियम न हों तो वह अभी गड़बड़ हो जाने वाला है। और इतने नियम होते हुए भी वह गड़बड़ होता है। अब यह इतनी अजीब स्थिति पैदा हो गई है और हमें दिखाई भी नहीं पड़ती। तो हमें हमेशा डर लगता है कि अगर कुछ नया किया और सब व्यवस्था टूट गई! व्यवस्था तो तोड़ ही दी जाएगी, व्यवस्था की कोई जरूरत नहीं है। व्यवस्था है इसलिए कि आदमी को हम ठीक पैदा नहीं कर पा रहे हैं, जैसा वह होना चाहिए। न हम उसे भोजन की, न कपड़ों की, न सेक्स की, जीवन की किसी बुनियादी जरूरत की परिपूर्ण स्वतंत्रता, सुविधा, शांति और आनंद नहीं जुटा पा रहे हैं। तो सब तरफ से उसे बीमार और परेशान कर रहे हैं। और ऐसा इंतजाम किया हुआ है पूरा का पूरा कि उस इंतजाम में या तो वह पागल हो जाए या पाखंडी हो जाए। यही, दो ही ऑल्टरनेटिव हैं। तो इतनी खतरनाक स्थिति अगर पैदा की गई हो तो उससे हमें बहुत बड़ा जाल नियम का बनाना पड़ा है।
आने वाली दुनिया में व्यवस्थित मनुष्य को ध्यान में रखा जाए और उसकी मनोवैज्ञानिक जरूरतें पूरी की जाएं, अब जैसे मेरा मानना है कि यह बात गलत ही है कि कोई आदमी जीवन भर एक पत्नी के साथ रहे। कोई रहना चाहे तो रहे, यह उसकी मौज होनी चाहिए। और आदमी इतना शांत और स्वस्थ होना चाहिए कि अगर एक के साथ रहने में आनंदित है तो रहे, लेकिन इसको थोपना खतरनाक है। आदमी परिपूर्ण स्वस्थ होगा तो शायद वह एक के साथ ही रहना आनंदपूर्ण पाएगा।
डु यू फील इट दैट बायोलाॅजिकल ऑर फिजिकल डिसी.जस ऑर आलसो दि रिएक्शन ऑफ दि सोशियोलाॅजिकल ऑर साइकोलाॅजिकल बैकग्राउंड्स?
बहुत गहरे में तो ऐसा ही है। बहुत गहरे में तो सारा रोग मनुष्य की चेतना और चित्त का रोग है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसे रोग नहीं हैं जो बाहर से न आते हों। बाहर से कीटाणुओं के हमले हो सकते हैं, बाहर से चोट और घाव पहुंच सकता है। लेकिन ऐसे रोगों में भी, भीतर अगर चित्त रोग को लेने को तैयार हो तो शीघ्रता से लेता है। रेसिस्टेंस नहीं होता है भीतर, बल्कि एक एक्सेप्टेंस होता है कि आ जाऊं, बीमार पड़ जाओ। बाहर से लगा घाव भी, अगर भीतर चित्त रुग्ण होने की तैयारी कर रहा हो तो देर से भरता है। और भीतर अगर स्वस्थ चित्त हो तो बाहर से लगा घाव भी जल्दी भर जाता है। बहुत गहरे में, अस्सी प्रतिशत बीमारी तो चित्त की बीमारी है, मन की बीमारी है।
तो अगर हम मनुष्य के मन को स्वस्थ कर लेते हैं तो बहुत दूर तक बीमारियों के स्वस्थ होने की, बीमारियों के मिट जाने की संभावना पैदा होगी। और मन जब तक स्वस्थ नहीं होता, तब तक मनुष्य को हम स्वस्थ कर ही नहीं सकते। बहुत थोड़ी बीमारियां रह जाएंगी, जो बाहर से आ सकती हैं, आती हैं और उनसे लड़ना बहुत आसान हो जाएगा, उनसे लड़ना कठिन नहीं हो जाएगा। इतना मानसिक प्रेशर है, इतना दबाव है कि इस दबाव में आदमी इतना कम बीमार है, यही हैरानी की बात है। इस दबाव में सब कुछ बीमार हो ही जाएगा और दबाव इस तरह के हैं कि हमारी पहचान के बाहर हैं।
एक मनोवैज्ञानिक कुछ चूहों पर प्रयोग कर रहा था। साधारणतः चूहे पागल नहीं होते हैं, लेकिन उसने एक काम किया कि उसने मादा चूहों को अलग बंद किया और नर चूहों को अलग बंद किया। जैसे ही बच्चे पैदा हुए तो नर चूहे अलग रखे और मादा चूहे अलग रखे। नर और मादा के मिलने का उपाय बंद कर दिया। जवान होते-होते मादा चूहे भी पागल होने लगे और नर चूहे भी पागल होने लगे। और एक ऐसा पागलपन फैल गया जैसा कि चूहों में कभी नहीं देखा गया था। अब यह बड़ी अजीब बात है।
इसका मतलब यह हुआ कि लड़के और लड़कियों को जब तक समाज अलग-अलग पालता है, तब तक वह पागलपन के बीजारोपण कर रहा है। वे साथ ही पाले जाने चाहिए। वे इतने साथ पाले जाने चाहिए कि उन्हें पता भी नहीं चलना चाहिए कि वे दो अलग-अलग तरह के व्यक्ति हैं। तो समाज में पागलपन एकदम कम होगा, चित्त ज्यादा स्वस्थ, विकसित होंगे।
असल में हमारी भीतरी बहुत सी जरूरतें हैं जो हमने बाहर से सब तरफ से रोकी हुई हैं। उन रुकावटों के परिणाम होने वाले हैं और भयंकर परिणाम होने वाले हैं। लेकिन रुकावटें इतनी पुरानी हैं कि हम भूल ही जाते हैं उन रुकावटों को। अब हमारे खयाल में भी यह नहीं आ सकता कि लड़के और लड़कियों को अलग पालना पागलपन के बीजारोपण करना है और हजार तरह की बीमारियों को जगह देना है और हजार तरह के परवरशंस पैदा करने हैं। और जिन परवरशंस के लिए, विकृतियों के लिए हम व्यक्ति को ही जिम्मेवार ठहराएंगे कि यह व्यक्ति ही जिम्मेवार है। बहुत ठीक से समझे जाने पर अगर हम समाज की तरफ से सारी सुव्यवस्था कर दें व्यक्ति के लिए तो न्यूनतम संभावनाएं रह जाती हैं। संभावनाएं रह जाती हैं, क्योंकि जीवन बड़ा जटिल प्रश्न है, लेकिन उन संभावनाओं को दूर करना बहुत कठिन नहीं होगा। ये बहुत सरल चिकित्साओं से बहुत वैज्ञानिक विकास से दूर की जा सकेंगी। आदमी परिपूर्ण स्वस्थ जी सकता है--मन से भी, शरीर से भी। और मन और शरीर स्वस्थ हों, तो ही आत्मिक स्वास्थ्य में प्रवेश किया जा सकता है। नहीं तो प्रवेश करना भी बहुत कठिन है।
तो जिस दुनिया की मैं बात कर रहा हूं, उसमें भी नियम और व्यवस्था जरूरी होगी, लेकिन बहुत कम जरूरी होगी। अगर हम यह सारा जाल, जो आदमी को अव्यवस्थित और नियम तोड़ने को मजबूर करता है इसको हम तोड़ सकें तो व्यवस्था, नियम की बहुत कम जरूरत रह जाएगी।
यह सुखद नहीं है, और न शोभा योग्य है कि हर चैराहे पर पुलिस वाला खड़ा हो। यह भी सुसंस्कृत होने का लक्षण नहीं है कि हर गांव में अदालत हो। यह इतना अपमानजनक है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन हम इसके आदी हो गए हैं। यह इतना अपमानजनक है कि इतने कानून हों, इतने वकील हों, इतने न्यायाधीश हों। यह सब इस बात का सबूत है कि समाज भीतर से, मानसिक रूप से बहुत बीमार है। तब इतने हमें इंतजाम की जरूरत पड़ रही है। यह इंतजाम बिलकुल नहीं होना चाहिए।
और दुनिया अच्छी बनेगी तो इन सबके विदा होने की जरूरत है, ये सब विदा हो जाने चाहिए। जरूर अदालत होगी, कभी-कभार खुलेगी, साल-दो साल बंद भी रह सकती है। कभी कोई मौका भी आ सकता है कि वह खुले, और कुछ बातें हमें विचार करनी पड़ें। पुलिस भी होगी, लेकिन इतनी पुलिस की जरूरत नहीं है। कभी उसकी भी हमें जरूरत पड़ सकती है।
सर, वन मोर कंट्राडिक्शन आई एम कमिंग अक्रास दैट इ.ज दि फ्री विल एण्ड डेस्टिनी। पिपुल से दैट दे आर सफरिंंग बिकाज ऑफ दि ओल्ड कर्मास एण्ड अदर्स, दे कंप्लीटली गो अपोजिट टु दैट। इट इ.ज ए वेरी कनफ्यूजिंग स्टेट दैट व्हेदर देयर इ.ज एनीथिंग लाइक डेस्टिनी ऑर फ्री विल आर देयर आर कर्माज ऑफ पास्ट ऑर देयर विल बी समथिंग इन फ्यूचर। दिस कंट्राडिक्शन इ.ज, आई थिंक वाइटल वन इन दि सोसायटी टुडे।
दोनों ही बातें सच हैं और दोनों में कोई विरोध भी नहीं है। विरोध दिखाई पड़ता है। ऊपर से है भी, लेकिन भीतर कोई विरोध नहीं है।
मुझे याद आता है कि एक खलीफा अली के पास एक आदमी गया। और उसने जाकर यही सवाल पूछा कि मनुष्य अपने कर्मों में स्वतंत्र है या कि बंधा हुआ है? भाग्य है कि स्वतंत्रता है? हम जो कर रहे हैं, वह हमें करना पड़ रहा है या हम कर रहे हैं? अली ने उस आदमी को थोड़ी देर देखा और कहा कि तुम एक काम करो, एक पैर ऊपर उठा कर खड़े हो जाओ। तो उस आदमी ने अपना बायां पैर ऊपर उठा लिया। अली ने कहा, अब तुम अपना दूसरा पैर भी ऊपर उठा लो। उस आदमी ने कहा, आप क्या पागलपन की बातें कर रहे हैं? दूसरा पैर अब मैं कैसे ऊपर उठा सकता हूं? तो अली ने कहा कि मैं तुमसे पूछता हूं कि पहला पैर तो तुम उठा सके, दूसरा नहीं उठा सकते हो, क्योंकि पहला उठा चुके हो। पहला तुमने उठाया, तुम स्वतंत्र थे बिलकुल उठाने के लिए। तुमने जरा भी नहीं पूछा कि मैं कैसे उठाऊं? कौन सा उठाना, इसमें भी तुम स्वतंत्र थे। चाहे दायां उठाते, चाहे बायां उठाते, कोई भी उठा सकते थे। लेकिन एक पैर उठाते से ही तुम बंध गए, अब दूसरा पैर नहीं उठा पा रहे हो। यह बंधन भी तुम्हारी पहली स्वतंत्रता का ही फल है।
स्वतंत्रता का जब हम उपयोग करते हैं तो हम बंधते हैं, क्योंकि सब उपयोग सीमा बना देगा। आप मेरे पास आए, चाहूं तो मैं आपको गाली दे सकता हूं और चाहूं तो प्रेम से स्वागत कर सकता हूं--स्वतंत्र हूं! लेकिन गाली देते से ही बंध जाऊंगा, क्योंकि तब एक विकल्प बंध गया। स्वागत करते से भी बंध जाऊंगा। तब एक दूसरा विकल्प बंध गया। गाली देने का अंतिम परिणाम यही हो सकता है कि आप भी गाली दें, और फिर गाली का सिलसिला जारी हो जाए। और तब स्वागत करना उतना ही कठिन हो जाए, जितना बायां पैर उठा लेने के बाद दायां पैर उठाना कठिन था। शायद आते से आपका स्वागत करूं तो आप भी गाली लेकर भी आए हों भीतर तो भी आपको एकदम गाली देने की मुश्किल हो जाए। और स्वागत और प्रेम के बाद कठिन हो जाए गाली देना--उतना ही कठिन, जितना कि बायां पैर के बाद दायां पैर उठाना हो जाता है। मेरी दृष्टि में दोनों में गहरे में विरोध नहीं है। विरोध दिखाई पड़ता है।
मनुष्य परिपूर्ण स्वतंत्र है, लेकिन स्वतंत्रता उसकी भूमिका है। फिर जैसे ही वह कर्म में उतरता है, वह बंधना शुरू हो जाता है। और जितना वह बंध जाता है, उतनी स्वतंत्रता कम हो जाती है। लेकिन फिर भी स्वतंत्रता नष्ट नहीं हो जाती, समाप्त नहीं हो जाती। जो वह बंध गया है, उसके विपरीत व्यवस्था करके वह आज उससे भी छूट सकता है। जैसे उस आदमी ने बायां उठा लिया था और दायां नीचे रह गया था। वह आदमी बायां पैर नीचे रख सकता है और दायां ऊपर उठा सकता है। यानी अभी भी दायां ऊपर उठाया जा सकता है, लेकिन तब बायां नीचा रखना पड़ेगा। हमने जो किया है, वह अनकिया किया जा सकता है। तब हम फिर स्वतंत्र विकल्प के साथ खड़े हो गए।
मनुष्य परिपूर्ण स्वतंत्र है, उसकी आत्मा स्वतंत्र है, लेकिन उसका व्यक्तित्व परतंत्र है। आत्मा और व्यक्तित्व में मैं यही फर्क करता हूं। आत्मा संभावना है, जो आप कर सकते हैं। और व्यक्तित्व कृत्य है, जो आप कर चुके। आप कुछ कर चुके हैं। अगर हम इसी जन्म को लें, तो एक आदमी तीस साल का है वह बहुत कर चुका है। और जो उसने किया है, उससे उसका एक बंधन शुरू हो गया है। उसने कुछ लोगों से मित्रता बनाई है, कुछ लोगों से शत्रुता बनाई है। उसने कुछ काम किए हैं, कुछ नहीं किए हैं। वह एक दिशा में गया है, दूसरी दिशा में नहीं गया है। समझ लें कि उसने जो भी किया है तो उसने एक ढांचा बना दिया है उसके व्यक्तित्व का। वह उसमें बंध गया है। अगर इस जन्म को हम लें और जैसा कि मेरी समझ है--और जन्म भी हैं, तो उन जन्मों में भी जो हमने किया है उसने भी एक ढांचा बना दिया है।
एक लंबी कंडीशनिंग है एक संस्कारों की, वह हमारा बंधन है। लेकिन हर बंधन के बाद भी हमारी स्वतंत्र होने की क्षमता सदा शेष है। वह खंडित, खत्म नहीं हो गई। यानी ऐसा नहीं हो गया है कि आज मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं। आज भी मैं बदल सकता हूं। मैं दस मील चला गया हूं पश्चिम की तरफ, तो भी उसका यह मतलब नहीं है कि अब मैं लौट नहीं सकता और पूरब नहीं जा सकता। हालांकि लौटूंगा तो दस मील जो मैं चला हूं वह मुझे, उसे फिर से अनडन करना पड़ेगा, वापस कदम उठाने पड़ेंगे। तो यह दस मील के लिए किया गया श्रम और समय व्यर्थ जाएगा। और उसको मिटाने में भी इतना ही श्रम और समय व्यर्थ जाएगा। दस मील मुझे वापस लौटना पड़ेगा उस चैराहे पर, जहां से फिर पूरब की यात्रा शुरू होती है। और इसलिए आमतौर से यही सरल होता है। लीस्ट रेसिस्टेंस इसी में होता है कि जहां हम चलें हैं वहीं चलते चलें जाएंगे।
तो जो आदमी सोचता नहीं, जागता नहीं, विचारता नहीं, वह आदमी धीरे-धीरे स्वतंत्रता बिलकुल ही खो देता है क्योंकि वह वहीं चलता चला जाता है, जहां वह जा रहा है। क्योंकि वह सोचता है कि अब लौटना बहुत मुश्किल है। लेकिन लौटना मुश्किल कितना ही हो, असंभव नहीं है। इसलिए हमारे कितने ही जन्म हुए हों, और हमने कितने ही कर्म किए हों, अंततः भीतरी हिस्से पर, एक हिस्से पर हम अभी भी स्वतंत्र हैं। और आज भी हम चाहें, और संकल्प और शक्ति इकट्ठी करें, समझ इकट्ठी करें, तो जो हमने किया है वह सब पोंछा जा सकता है। उससे उलटा भी जाया जा सकता है, भिन्न भी जाया जा सकता है।
इसलिए मेरी दृष्टि में स्वतंत्रता और परतंत्रता विरोध हैं, लेकिन बहुत गहरे में उन दोनों के समन्वय पर व्यक्तित्व खड़ा हुआ है। और उन दोनों में ऐसा विरोध नहीं है कि यह ठीक है या वह ठीक है, दोनों ही ठीक हैं। और जो लोग एक को ठीक मानते हैं उनको लगता है कि दूसरे को हम कैसे मान सकते हैं? लेकिन जैसा मैंने कहा कि इस जिंदगी में अंधेरा भी है, प्रकाश भी, और दोनों के मेल से जिंदगी है। इस जिंदगी में स्वतंत्रता भी है, परतंत्रता भी; और दोनों के मेल से जिंदगी है। चेष्टा हमारी यह होनी चाहिए कि परतंत्रता हमारी ऐसी न हो कि हमारी स्वतंत्रता में बाधा बनने लगे। परतंत्रता भी हमारी ऐसी होनी चाहिए कि वह भी हमारी स्वतंत्रता में सहयोगी हो। यानी जो मैंने पहले कहा, विरोध हमारे ऐसे होने चाहिए, यानी एक आदमी इस ढंग से भी परतंत्र हो सकता है कि उसकी स्वतंत्रता में उसकी तथाकथित परतंत्रता भी सहयोगी बनती हो।
समझ लें, जैसे कि एक आदमी इस तरह की व्यवस्था करता है जीवन की कि सबको दुश्मन बना लेता है। तो सबको दुश्मन बना लेना एक तरह की परतंत्रता है, एक तरह की बाधा बन गई अब। सब तरफ से सीमा रुक जाएगी। सबको दुश्मन बना लेने वाला आदमी स्वतंत्र होने में बहुत मुश्किल अनुभव करेगा। एक तरह की परतंत्रता बांध ली है उसने जो बहुत महंगी है, बहुत भारी है। इतनी वजनी है कि स्वतंत्रता उसकी टूट ही सकती है। और अगर सब दुश्मन हो जाएं तो ऐसा हो सकता है कि उस आदमी को सिवाय मरने के कुछ भी न सूझे कि अब मैं मर जाऊं। यानी एक ही स्वतंत्रता का विकल्प रह जाए सुसाइड--कि अब मैं क्या करूं, अब मैं कैसे जीऊं? अब मैं मर जाऊं। और आत्महत्या कोई स्वतंत्रता नहीं है। यानी वह तो सब स्वतंत्रता खो देने का आखिरी इंतजाम है।
एक दूसरा आदमी सबको मित्र बनाता है, वह भी एक तरह की परतंत्रता ला रहा है। क्योंकि दुश्मन से भी हम बंधते हैं और मित्र से भी हम बंधते हैं। एक आदमी सबको मित्र बनाता है, सर्व-मैत्री का भाव रखता है। वह भी परतंत्रता ला रहा है; लेकिन उसकी परतंत्रता उसकी स्वतंत्रता में सहयोगी बनेगी। यानी कि जितने उसके मित्र बढ़ते जाते हैं, उतनी उसकी स्वतंत्रता की स्पेस बढ़ती चली जाती है। उतना वह मुक्त होने लगता है। उसके लिए फिर यही घर बांधने का नहीं रह गया, सब घर उसके हो गए। फिर यही दो हाथ उसके काम के नहीं रह गए, सब हाथ उसके हो गए। उसके मित्र जितने बढ़ते जाएं, वह भी परतंत्रता है क्योंकि मित्र भी बांधता है, लेकिन वह बंधन, जैसा मैंने कहा, उस तरह का आर्च है, जहां दोनों चीजें मिल कर द्वार बना देती हैं।
तो ऐसी परतंत्रता खोजनी चाहिए जो हमारी स्वतंत्रता में बुनियादी बाधा न बनती हो तो कोई विरोध नहीं है। और हम ऐसी परतंत्रता खोज लें जो कि हमारी बुनियादी स्वतंत्रता को क्षीण करती जाती हो, और एक ऐसी स्थिति आ जाए कि स्वतंत्र होना ही कठिन मालूम होने लगे।
सर, शुड वी फाॅलो द ओल्ड रेडीमेड फार्मूलाज टु ओवरकम दिस ऑब्सटेकल ऑर वी शुड हैव दि राइट अंडरस्टैंडिंग टु डिजाल्व दि थिंग्स एज यू से अनडू दि थिंग्स?
हां, हमेशा ठीक समझ की ही जरूरत है। हमेशा ठीक समझ की ही जरूरत है। रेडीमेड फार्मूले से कोई काम नहीं होता है। असल में रेडीमेड फार्मूला वही पकड़ता है, जो समझ से बचना चाहता है। यह भी हो सकता है कि समझ के बाद जो रेडीमेड फार्मूला था, वही हमारे खयाल में आए कि ठीक है, लेकिन तब भी बात दूसरी हो गई, तब वह रेडीमेड नहीं रहा। यानी यह हो सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है कि हम पूरी समझ को जगाने पर पाएं कि जो बुद्ध ने कहा था वही समझ में आया, तब भी अब यह बुद्ध का कहा हुआ नहीं रह गया, यह अब हमारी ही समझ हो गई।
तो मेरा मानना है कि सत्य तो पुराने से पुराना है, और नये से नया है। सत्य न पुराना है, न नया है। लेकिन सत्य जब किसी और का होता है तब हमारे लिए पुराना हो जाता है। हो सकता है कि हम भी जब यात्रा करके वहां पहुंचें तो हम पाएं कि वही सच है, लेकिन तब वह हमारा होगा। तो मेरा मानना है कि सत्य पुराना तो होता नहीं, नया भी नहीं होता। जो उसका आविष्कार करता है, उसके लिए वह सत्य होता है और किसी दूसरे के आविष्कार को पकड़ लेता है तो रेडीमेड फार्मूला हो जाता है।
और मजे की बात यह है कि सत्य तो मुक्त करता है, स्वतंत्र करता है, रेडीमेड फार्मूला बांधता है और गुलाम करता है। तो जिस आदमी ने जितने बंधे-बंधाए सूत्र पकड़ लिए हैं, वह उतना गुलाम है। और उसमें पकड़ इसीलिए हैं कि समझ एक संघर्षपूर्ण प्रक्रिया है; अंडरस्टैंडिंग पाना एक घना संघर्ष है, तकलीफ है, कष्ट है, त्याग है, तपश्चर्या है, खोज है, जोखम है--मिले, न मिले, सब हो सकता है। रेडीमेड फार्मूला पकड़ना ज्यादा सिक्योर्ड है, सुरक्षित है।
बुद्ध कहते हैं, बुद्ध भगवान हैं; महावीर कहते हैं, महावीर तीर्थंकर हैं। राम कहते हैं, राम भगवान हैं। तो इस भांति जब वे कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं। मुझे और क्या जरूरत है करने की? लेकिन यह ध्यान रहे कि ऐसा कोई भी सत्य नहीं है जो किसी दूसरे से हमें मिल सके। और जब किसी दूसरे से मिलेगा, तो वह हमारी गुलामी बनाएगा। क्योंकि हमारे लिए वह डेड वेट होगा, मुर्दा भार होगा। हम तो जानते ही नहीं। लेकिन जब हमारी समझ की, संघर्ष की प्रक्रिया से मिलेगा, जब हम खोजेंगे तब वह सत्य होगा।
और जैसे ही कोई सत्य दिख जाए वैसे ही जीवन में इतना विकास होता है और इतनी स्वतंत्रता मिलती है क्योंकि सत्य मिलते ही इतना आकाश मिल जाता है और इतना स्पष्ट हो जाता है सब कि बंधने का, उलझने का कोई कारण नहीं रह जाता। साथ दीया होता है और साथ में हम चल पाते हैं।
यह ऐसा ही है जैसे बुद्ध के पास दीया रहा हो और आप अंधेरे में चल रहे हैं और उस दीये को सिर्फ मन में ही सोच सकते हैं कि दीया हैं। आपके पास तो कोई दीया नहीं है। चलेंगे अंधेरे में, टकराएंगे अंधेरे में, गिरेंगे अंधेरे में। और दीये की खोज भी नहीं करेंगे, क्योंकि आप सोचते हैं कि बुद्ध के पास जो दीया था, वह मुझे मिल गया हुआ है क्योंकि मैं बुद्ध को मानता हूं। लेकिन वह दीया आपको नहीं मिल सकता है। वह बुद्ध की चेतना का ही दीया था, वह उनके साथ ही बुझ जाता है। सिर्फ उसकी खबर हमारे पास रह जाती है। हमें फिर अपनी चेतना को जगाना पड़ेगा।
इसलिए कोई रेडीमेड फार्मूले से कभी कोई मनुष्य स्वतंत्र नहीं होता है। और अब तक मनुष्य के बंधन का सबसे बड़ा कारण यह शास्त्र, संप्रदाय, पके-पकाए सूत्र, यही है। बहुत लोगों को ऐसा लगता है कि लेकिन नई बात क्या हो सकती है? मैं कहता हूं कि नया सत्य कुछ नहीं हो सकता। असल में सत्य नया और पुराना नहीं होता है। जो आदमी आविष्कृत करता है, उसके सामने हो जाता है और जो आदमी आविष्कृत नहीं करता है, किसी और का उधार ले लेता है, उसके साथ होता ही नहीं।
तो सत्य सदा नया है और सदा पुराना भी या ओल्ड से ओल्ड वही है और न्यू से न्यू वही है। उन दोनों में कोई विरोध नहीं है। सत्य तो वही है, जो कभी किसी को मिला हो--वही मुझे मिलेगा, वही आपको मिलेगा। लेकिन मिलने की जो यात्रा है वह मुझे फिर करनी पड़ेगी, आपको फिर करनी पड़ेगी, आने वाले बच्चों को फिर करनी पड़ेगी। उस यात्रा के बिना वह नहीं मिलता है। और जब यात्रा के बिना हम ले लेते हैं तो हमारी चेतना तो वहां तक पहुंची नहीं होती जहां वह दिख जाए, तो हमारे लिए वह कड़ी बन जाता है, बंधन बन जाता है। और वे बंधन समझ को विकसित नहीं करते, समझ को और बुरी तरह मार डालते हैं।
तो यह जो स्वतंत्रता और परतंत्रता का जो भाग्य का और मुक्त चेतना का जो सवाल है--यह बहुत कीमती है। और इसे ठीक से ही समझ लेना चाहिए कि मेरे लिए इसमें कोई विरोध ही नहीं है। विरोध तो है ही, वह दिखाई नहीं पड़ रहा है; लेकिन गहरे में मेरे लिए कोई विरोध नहीं है। और दोनों के तालमेल से व्यक्तित्व को विकसित करना चाहिए। ऐसी परतंत्रता जो स्वतंत्रता के लिए आधार बनती है, और बड़ी स्वतंत्रता के लिए आधार बनती है। और अंततः एक दिन ऐसा आता है, उस क्षण जब चेतना पूरी जाग गई होती है तो फिर कोई कर्म नहीं बांधता।
इसको भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि कौन सा कर्म हमें बांध लेता है और क्यों बांध लेता है?
असल में, आपने मुझे गाली दी और मैंने आपको गाली दी। तो मैं जो गाली दे रहा हूं वह कर्म नहीं है, वह एक्शन नहीं है, रिएक्शन है; सिर्फ मैं रिएक्ट कर रहा हूं। यानी रिएक्ट करने का मतलब ही यह हुआ कि आप मुझसे कुछ करवा ले रहे हैं। आपने गाली देकर ऐसा इंतजाम कर दिया है कि मैं गाली देने को मजबूर हो गया हूं। इसका अर्थ यह हुआ कि आपने मुझे गुलामी में डाल दिया, आपने जो करवाना चाहा, करवा लिया। आपने गाली दी और ऐसी परिस्थिति बना दी कि मैं गाली दे गया। गाली मैंने नहीं दी, मुझसे दिलवा ली गई। मैं गुलाम हो गया। रिएक्शन गुलामी है--प्रतिकर्म गुलामी है। प्रतिक्रिया, यह कर्म नहीं है मेरा।
आपने मुझे गाली दी और मैं सोचूं, समझूं, और आपकी गाली के कारण गाली न दूं--सोचूं, समझूं, खोजूं कि आपने गाली क्यों दी? ठीक ही तो नहीं दी कहीं? कहीं उचित ही तो नहीं है यह, जो आपने कहा? आपने जो कहा तो कहीं आप पागल तो नहीं हैं? आप कहीं क्रोध में तो नहीं हैं? आप कहीं झगड़ कर तो नहीं आए? अगर मैं सारी बात खोजूं-बीनूं तो इसकी बहुत कम संभावना रह जाती है कि मैं आपको गाली दूं। शायद आप पर दया करूं। लेकिन तब वह दया जो है, एक्शन होगा रिएक्शन नहीं। क्योंकि वह आपने जो परिस्थिति पैदा की थी, उसके प्रभाव में आकर मैंने नहीं कर दिया है कुछ। मैंने परिस्थिति को समझा और बूझा, अपनी चेतना को जगाया और पाया कि यह बेचारा दुखी है। इसकी पत्नी मर गई है, इसका लड़का भाग गया है, इसकी नौकरी छूट गई है, और यह सारी दुनिया को छोड़ कर मुझ ही को गाली देने आया--उसका कारण यह है कि सिर्फ मुझ ही को जानता-पहचानता, मित्र मानता है, मुझको ही निकट पाता है, किसी और को गाली देगा तो सिर खुल जाएगा इसका। मुझको प्रेम करता है इसलिए मुझे गाली देने चला आया है।
तब मुझे इस पर दया भी आएगी, प्रेम भी आएगा। और यह भी हो सकता है कि इसकी गाली ठीक पाऊं मैं कि यह जो कह रहा है, ठीक कह रहा है मेरे बाबत, यही मेरी स्थिति है। तब मुझे इस पर धन्यवाद आएगा, अनुग्रह आएगा कि तूने अच्छा किया कि मुझे बता दिया कि मैं ऐसा आदमी हूं। मैं ऐसा आदमी हूं--लेकिन गाली नहीं होने वाली है!
तो गाली के उत्तर में गाली रिएक्शन है, एक्शन नहीं। और मेरा मानना यह है कि एक्शन मुक्त करता है, रिएक्शन गुलाम बनाता है। तो जितनी व्यक्ति की चेतना जगती चली जाती है उतना उसके जीवन से रिएक्शन खत्म हो जाते हैं, एक्शंस रह जाते हैं। वह एक्ट करता है, रिएक्ट नहीं करता। आप क्या करवाते हैं, वह वह नहीं करता है। जो उसको करना है, जो उसकी चेतना कहती है, करने योग्य है, वह करता है। इसीलिए वह किसी से बंधा हुआ नहीं रह जाता। वह मुक्त हो जाता है।
कर्म मुक्त करता है, और प्रतिकर्म बांधता है। एक्शन इ.ज फ्रीडम, रिएक्शन इ.ज ए स्लेवरी। वह जितना प्रतिकर्म है, उतनी गुलामी है। और हम सिर्फ प्रतिकर्म ही करते हैं, हम कभी कर्म करते ही नहीं इसलिए हमारे ऊपर परतंत्रता ही परतंत्रता इकट्ठी होती चली जाती है। हमें कोई प्रेम की परिस्थिति पैदा कर दे तो प्रेम करते हैं और दुश्मनी की परिस्थिति पैदा कर दे तो दुश्मनी करते हैं। न हमने कभी प्रेम किया, न हमने कभी दुश्मनी की। और मजे की बात यह है कि दुश्मनी तो कोई कर ही नहीं सकता कर्म की तरह। दुश्मनी सिर्फ प्रतिकर्म की तरह हो सकती है। हां, प्रेम कर्म बन सकता है।
तो जैसे-जैसे व्यक्ति चेतन होता है, अवेयर होता है, होश से भरता है वैसे-वैसे कर्म भर शेष रह जाते हैं। और कर्म किसी को बांधता नहीं। और यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि रिएक्शन में चेन होती है एक, और कर्म एटाॅमिक होता है। कर्म में कोई चेन नहीं होती क्योंकि आपसे कोई संबंध ही नहीं होता। कर्म मेरा है न, इसलिए आपसे क्या संबंध है? और रिएक्शन हमेशा बासा होता है, कर्म हमेशा स्पांटेनियस होता है। क्योंकि आपने गाली दी, इसलिए मैं गाली दे रहा हूं तो यह सब बासी कृत्य हो गया। पास्ट से बंधा हुआ कृत्य हो गया। आपने ऐसा किया इसलिए मैं ऐसा कर रहा हूं। वह तो बीत गई घटना जो आपने की थी। अब मैं उसी से बंधा हुआ मरा हूं। आपने दस दिन पहले गाली दी थी और आज मैं आपको गाली देने आया हूं। दस दिन पीछे से मैं बंधा हूं। तो प्रतिकर्म हमेशा बासा है, पुराना है, मर गया है, जिंदा नहीं है। कर्म हमेशा जीवंत है, स्पांटेनियस है, अभी है, इसी वक्त है।
मजे की बात यह है कि प्रतिकर्म बांधता है, बंधता है खुद। और कर्म न बांधता है, न बंधता है; एटामिक है--हुआ और गया! उसके बाद उसका कोई मतलब नहीं है। आप मुझे मिले और मैंने आपको नमस्कार किया। यह नमस्कार प्रतिकर्म भी हो सकता है, क्योंकि कल आपने मुझे नमस्कार किया था, तब यह बांधने वाला है। तब मैं कल फिर प्रतीक्षा करूंगा कि नमस्कार करते हो कि नहीं! अगर नहीं किया तो दुखी हो जाऊंगा, करोगे तो सुखी होऊंगा। लेकिन आप मुझे दिखे--न आपने मुझे नमस्कार कल किया है, नहीं किया है, इससे कोई लेना-देना नहीं है। सहज मैं सुबह आनंद से भरा हूं और नमस्कार करता हूं।
यह नमस्कार वैसे है जैसे सूरज को उगते देख कर भी मैंने कर लिया था, एक फूल को देख कर भी कर लिया था, आप किनारे से गुजरे हैं, आपको देख कर भी कर लिया। आपसे इसका कोई संबंध ही नहीं है। यह मेरे अनुग्रह का भाव है जो प्रकट हो गया है। मैं अपने रास्ते चला गया। यह एटामिक एक्ट था, यह खत्म हो गया। उठा, गया। कल भी करूंगा, यह जरूरी नहीं है। कल करना ही पड़ेगा, ऐसा भी जरूरी नहीं है। कल, कल जानेगा; आज, आज खत्म हो गया। कल सुबह कल सुबह जो करवाएगी वह होगा।
तो कर्म है सहज और प्रतिकर्म है बहुत असहज। कर्म है मुक्त और प्रतिकर्म है बंधा हुआ। तो हमारी सारी परतंत्रता हमारे प्रतिकर्मों का लंबा बोझ है, और हम जीते ही नहीं कभी सहज। सब प्रतिकर्म ही है। कहते हैं, यह मेरी मां है इसलिए इसके पैर छू रहा हूं। सब गड़बड़ हो गया। पैर छूने का कृत्य काफी आनंदपूर्ण है। इसमें मां के साथ बंधा हुआ और बासा होने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि इसको मां...यह तीस साल, चालीस साल पहले इसका मैं बेटा हुआ था, पैदा हुआ। तो चालीस साल पुरानी घटना हो गई। तब से मैं सब कुछ बदल गया हूं। जो इसने पैदा किया था, वह कहीं खो गया है। अब वह नहीं है कहीं भी। उससे बंधा हुआ यह सब बासा है। लेकिन मुझे आनंदपूर्ण लगा और किसी के यह पैर पर हाथ रखना सुखद मालूम पड़ा और मैंने रख दिया और बात खतम हो गई। न इसे बांधता हूं, न इससे बंधता हूं। इतना सहज जब जीवन हो जाता है तो ऐसे जीवन में स्वतंत्रता ही स्वतंत्रता हो जाती है। फिर वहां परतंत्रता नहीं होती। परतंत्रता का कोई सवाल नहीं है। ऐसे व्यक्ति को ही जीवन-मुक्त और ऐसी चेतना को ही मुक्त दशा है।
‘शिक्षाः साध्य और साधन’ विषय पर प्रश्नोत्तर-शृंखला-7
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें