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सोमवार, 7 मई 2018

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-07

शिक्षा में क्रांति-ओशो

प्रवचन-सातवां
नारी और क्रांति

मेरी प्यारी बहनो!
मनुष्य के इतिहास में नारी-
मेरी प्यारी बहनो!
मनुष्य के इतिहास में नारी-जाति के साथ जो अत्याचार और अनाचार हुआ है, उस संबंध में थोड़ी सी बात प्रारंभ में ही कहना चाहूंगा और नारी के साथ जो हुआ है, उसके परिणाम में पूरी मनुष्य-जाति के जो अहित हुए हैं, उस संबंध में थोड़ी बात कहना चाहूंगा।
मनुष्य की पूरी जाति, मनुष्य का पूरा समाज, मनुष्य की पूरी सभ्यता और संस्कृति अधूरी है क्योंकि नारी ने उस संस्कृति के निर्माण में कोई भी दान, कोई भी कंट्रिब्यूशन नहीं किया। नारी कर भी नहीं सकती थी। पुरुष ने उसे करने का कोई मौका ही नहीं दिया। हजारों वर्षों तक स्त्री पुरुष से नीची और छोटी और हीन समझी जाती रही है। कुछ तो देश ऐसे थे जैसे चीन, चीन में हजारों वर्षों तक यह भी माना जाता रहा कि स्त्रियों के भीतर कोई आत्मा नहीं होती। हीन ही नहीं, स्त्रियों की गिनती जड़ पदार्थों के साथ ही की जाती रही। आज से सौ बरस पहले तक चीन में अपनी पत्नी की हत्या पर किसी पुरुष को, किसी पति को कोई भी दंड नहीं दिया जा सकता था क्योंकि पत्नी उसकी संपदा थी। वह उसे जीवित रखे या मार डाले, इससे कानून को और राज्य को कोई संबंध नहीं था।
भारत में भी स्त्री को पुरुष के समान, पुरुष की समानता में कोई अवसर और जीने का कोई मौका नहीं मिला। पश्चिम में भी वही बात थी। चूंकि सारे शास्त्र और सारी सभ्यता और सारी शिक्षा पुरुषों ने निर्मित की है इसलिए पुरुषों ने अपने आप को बिना किसी से पूछे श्रेष्ठ मान लिया है, स्त्री के लिए श्रेष्ठता देने का कोई कारण नहीं समझा है। स्वभावतः इसके परिणाम हुए, घातक परिणाम हुए।
सबसे बड़ा घातक परिणाम तो यह हुआ कि स्त्रियों के जो भी गुण थे वे सभ्यता के विकास में सहयोगी नहीं बन सके। सभ्यता अकेले पुरुषों ने विकसित की। अकेले पुरुषों के हाथ से जो सभ्यता विकसित होगी उसका अंतिम परिणाम युद्ध के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता है। अकेले पुरुष के गुणों पर जो जीवन निर्मित होगा वह जीवन हिंसा के अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जा सकता है। पुरुष की प्रवृत्ति में, पुरुष के चित्त में ही हिंसा का, क्रोध का, युद्ध का कोई अनिवार्य हिस्सा है।
नीत्शे ने पीछे, आज से कुछ ही बीसी पहले यह घोषणा की कि बुद्ध और क्राइस्ट स्त्रैण रहे होंगे, क्योंकि उन्होंने करुणा और प्रेम की इतनी बातें कही हैं, वे बातें पुरुषों के गुण नहीं हैं। नीत्शे ने क्राइस्ट को और बुद्ध को स्त्रैण, स्त्रियों जैसा कहा है। एक अर्थ में शायद उसने ठीक ही बात कही है। वह इस अर्थ में कि जीवन के जो भी कोमल गुण हैं, जीवन के जो भी माधुर्य से भरे संबंध हैं, जीवन की जो भी सुंदर और शिव की कल्पना और भावना है वह स्त्री का अनिवार्य स्वभाव है। मनुष्य की सभ्यता माधुर्य और प्रेम और सौंदर्य से नहीं भर सकी, क्रूर और परुष हो गई, कठोर और हिंसक हो गई और अंतिम परिणामों में केवल युद्ध लाती रही।
इसके पीछे दो बातों का ही हाथ है। एक तो स्त्री के गुणों को कोई सम्मान नहीं दिया गया और दूसरा स्त्री ने कभी अपने गुणों को विकसित करने की कोई चेष्टा और कोई सक्रिय उपाय नहीं किया। यह जान कर आपको हैरानी होगी, अगर कोई स्त्री पुरुषों के गुणों में आगे हो जाए जैसे जोन आॅफ आर्क या रानी लक्ष्मी बाई...तो सारे जगत में इस बात की प्रशंसा होती है कि रानी लक्ष्मी बाई बहुत बहादुर, बहुत सम्मान योग्य स्त्री है। लेकिन क्या कभी आपने यह सुना है कि कोई पुरुष स्त्रियों के गुणों में विकसित हो जाए तो उसका कहीं भी कोई सम्मान होता हो? अगर कोई पुरुष स्त्रियों जैसा प्रतीत हो तो उसका अपमान होगा और कोई स्त्री पुरुष जैसी प्रतीत हो तो उसका सम्मान होगा और चैरस्तों के ऊपर उसकी मूर्तियां खड़ी की जाएंगी।
पुरुष ने अपने गुणों को अनिवार्य रूप से श्रेष्ठ स्वीकार कर लिया है और स्त्रियों ने भी इस पर स्वीकृति दे दी, यह बहुत आश्चर्य की बात है! स्त्रियों ने कभी सोचा भी नहीं कि उनके व्यक्तित्व की भी अपनी कोई गरिमा, अपना कोई स्थान, अपनी कोई प्रतिष्ठा है। इस तीन-चार हजार बरस की गुलामी के बाद एक विद्रोह, एक प्रतिक्रिया, एक रिएक्शन पैदा होना शुरू हुआ और स्त्रियों ने यह घोषणा करनी शुरू की कि हम पुरुषों के समान हैं और हम बराबर हैसियत, बराबर अधिकार मांगती हैं लेकिन फिर दोबारा भूल हुई जा रही है, जिसका आपको शायद पता हो। उस भूल के संबंध में भी समझ लेना जरूरी है।
मैं कहना चाहता हूं कि स्त्रियां तो पुरुषों से हीन हैं और समान हैं। स्त्रियां पुरुषों से भिन्न हैं, वे बिलकुल भिन्न हैं। उनके नीचे होने का सवाल है, उनके समान होने का सवाल है, स्त्रियां पुरुषों से बिलकुल भिन्न हैं और जब तक स्त्रियां अपनी भिन्नता की भाषा में, अपने अलग व्यक्तित्व की भाषा में सोचना शुरू नहीं करेंगी तब तक या तो वे पुरुष की दास होंगी या पुरुष की अनुयायी होंगी, और दोनों स्थितियां खतरनाक हैं।
पश्चिम में स्त्रियों ने एक बगावत की है, एक विद्रोह किया है और परिणाम यह हुआ है कि स्त्रियां पुरुषों जैसे होने की दौड़ में, होड़ में पड़ गईं। जो पुरुष करते हैं और जैसे पुरुष हैं वैसे ही स्त्रियों को भी हो जाना चाहिए। जो शिक्षा पुरुष को मिलती है वही स्त्री को भी मिलनी चाहिए। अगर पुरुष युद्ध के मैदान पर लड़ने जाते हैं तो स्त्रियों को भी युद्ध के मैदान पर सैनिक बन कर उपस्थित होना चाहिए।
इस बात की कल्पना भी नहीं है आपको कि पुरुषों की नकल में स्त्रियां हमेशा द्वितीय कोटी की होंगी, प्रथम कोटि की कभी भी नहीं हो सकतीं। क्योंकि जिन गुणों में वे प्रतिस्पर्धा करने जा रही हैं वे पुरुष के लिए सहज गुण हैं और स्त्रियों के लिए असहज धर्म है। वैसी स्थिति में स्त्रियां एकदम कुरूप, अपने स्वभाव से च्युत, जो हो सकती थीं उससे वंचित हो जाएंगी और परिणाम, परिणाम बड़े घातक होंगे, जिनकी हमें कोई धारणा नहीं, कोई सपना भी नहीं।
जो शिक्षा पुरुषों को मिलती है वही शिक्षा स्त्रियों को देना अत्यंत भ्रांत है, एकदम गलत है। उचित है कि पुरुष गणित सीखें, उचित है कि पुरुष विज्ञान सीखें। लेकिन बहुत उचित होगा कि स्त्री कुछ और सीखे जो पुरुष नहीं सीखते। उसे जीवन में कुछ और करना है। उसके ऊपर जीवन ने कोई और दायित्व दिया है, कोई दूसरी रिस्पांसिबिलिटी है उसके ऊपर। उसके ऊपर प्रेम का, सृजन का कोई दूसरा भार है।
गणित से, गणित सीख लेने से दुकानें चल सकती होंगी, बच्चे नहीं बड़े किए जा सकते। साइंस से फैक्ट्रियां चलती होंगी लेकिन परिवार नहीं चल सकते और परिणाम यह हुआ है, स्त्री को पुरुष जैसी दीक्षा और शिक्षा और समानता के भाव ने स्त्रियों से जो भी उनका महत्वपूर्ण मातृत्व था वह सब छीन लिया है। उनके जीवन में जो भी गौरवपूर्ण पत्नीत्व था वह सब छीन लिया है। उनके भीतर जो भी स्त्रैण था वह सब नष्ट किया जा रहा है। वे करीब-करीब पुरुष की नकल में निर्मित की जा रही हैं और वे बहुत प्रसन्न भी मालूम हो रही हैं। इस प्रसन्नता के लिए बहुत हजार-हजार आंसू आज नहीं कल स्त्रियों को तो रोने ही पड़ेंगे, पुरुषों को भी रोने पड़ेंगे।
शायद हमें इस बात का खयाल नहीं कि स्त्री और पुरुष के चित्त में बुनियादी भेद है, भिन्नता है और यह भिन्नता अर्थपूर्ण है। पुरुष और स्त्री का सारा आकर्षण उसी भिन्नता पर निर्भर है। वे जितनी भिन्न हों, वे जितने दूर हों, उनके भीतर पोलेरिटी हो, उत्तर और दक्षिण धु्रवों की तरह उनमें भिन्नता हो, उतना ही उनके बीच कशिश, आकर्षण, ग्रेविटेशन होगा। उतना ही उनके बीच प्रेम का जन्म होगा--जितना उनका फासला हो, उनकी भिन्नता हो, जितने उनके व्यक्तित्व अनूठे और अलग हों, जितने वे एक-दूसरे जैसे नहीं बल्कि एक-दूसरे के परिपूरक, कांप्लिमेंटरी हों।
अगर पुरुष गणित जानता हो और स्त्री भी गणित जानती हो तो ये दोनों बातें उन्हें निकट नहीं लातीं। ये दोनो बातें उन्हें दूर ले जाएंगी। अगर पुरुष गणित जानता हो और स्त्री काव्य जानती हो, संगीत जानती हो, नृत्य जानती हो तो वे ज्यादा निकट आएंगे। वे जीवन में ज्यादा साथी, गहरे साथी बन सकेंगे और जब एक स्त्री पुरुषों जैसी दीक्षित हो जाती है तो ज्यादा से ज्यादा वह पुरुष को स्त्री होने का साथ भर दे सकती है लेकिन उसके हृदय के उस अभाव को जो स्त्री के लिए प्यासा और प्रेम से भरा होता है, उस अभाव को पूरा नहीं कर सकती।
पश्चिम में परिवार टूट रहा है, भारत में भी परिवार टूटेगा और परिवार टूटने के पीछे आर्थिक कारण उतने नहीं हैं जितना स्त्रियों का पुरुषों के जैसा शिक्षित किया जाना है। पुरुष की भांति शिक्षित होकर स्त्री एक नकली पुरुष बन जाती है, असली स्त्री नहीं बन पाती। भिन्नता का लेकिन हमें कोई खयाल नहीं है और भिन्न शिक्षा और दीक्षा का हमें कोई विचार नहीं है।
यह बात सारे जगत की स्त्रियों को कह देने जैसी हैं कि उन्हें अपनी स्त्री होने को बचाना है। कल तक पुरुष ने उन्हें हीन समझा था, नीचा समझा था और इसलिए नुकसान पहुंचाया, आज पुरुष अगर राजी हो जाएगा कि तुम हमारे समान हो, तुम हमारी दौड़ में सम्मिलित हो जाओ--इस दौड़ में स्त्रियां कहां पहुंचेंगी और सवाल यही नहीं है कि स्त्रियों को नुकसान होगा, सवाल यह है कि पूरा जीवन नष्ट होगा।
सी.एम. जोड ने, पश्चिम के एक विचारक ने एक बड़ी अदभुत बात लिखी। उसने लिखा कि जब में पैदा हुआ था तो मेरे देश में घर थे, होम्स थे, लेकिन अब जब मैं बूढ़ा होकर मर रहा हूं तो मेरे देश में होम जैसी कोई चीज नहीं है, घर जैसी कोई चीज नहीं है, केवल मकान, केवल हाउसेस रह गए हैं। होम और हाउस में कुछ फर्क है? घर में और मकान में कोई भेद है? होटल में और घर में कोई फर्क है? अगर कोई भी फर्क है तो वह सारा फर्क स्त्री के ऊपर निर्भर है और किसी के ऊपर निर्भर नहीं है।
एक हाउस होम बन सकता है, एक मकान घर बन जाता है अगर उसके बीच में केंद्र पर कोई स्त्री हो। लेकिन स्त्री अगर पुरुष जैसी हो जाती है तो घर में मकान रह जाता है, घर निर्मित नहीं हो पाता। दो साथ रहने वाले लोग होते हैं लेकिन पति और पत्नी नहीं होते। बच्चे पैदा होते हैं लेकिन नर्स और बच्चों का संबंध होता है, मां का और बेटे का और बेटियों का कोई संबंध नहीं होता। क्योंकि वह जो स्त्री थी, जो मां बन सकती थी उसके विकास के लिए हमने कुछ भी नहीं किया है।
हमारे स्कूल और कालेज क्या सिखा रहे हैं? स्त्रियों के लिए क्या दे रहे हैं? वे, वे ही उपाधियां दे रहे हैं जो पुरुषों को दी जा रही हैं। वे उन्हीं परीक्षाओं में से उन्हें निकाल रहे हैं जिनमें से पुरुषों को निकाला जा रहा है। वे उसी भांति की कवायद, उसी भांति के खेल खिला रहे हैं स्त्रियों को जो पुरुष खेल रहे हैं।
और बड़े आश्चर्य की बात है कि इस सदी में जब कि हम मनुष्य के शरीर और फिजियोलाॅजी के संबंध में बहुत कुछ जानते हैं, हमें इतना भी पता नहीं है कि वही कवायद, वही एक्सरसाइज पुरुष और स्त्री को नहीं करवाई जा सकती है। स्त्री के शरीर के नियम, स्त्री के शरीर की बनावट बहुत भिन्न है। उसे अगर वही कवायद करवाई जाती है और उसे भी एन.सी.सी. में वही लेफ्ट-राइट करवाया जाता है जो पुरुष सैनिक सीख रहे हैं तो हम स्त्री के भीतर किसी बुनियादी तत्व को तोड़ देंगे जिसका हमें कोई पता ही नहीं, जिसका हमें खयाल ही नहीं है।
अतीत के लोग नासमझ नहीं थे। पुरुषों के लिए उन्होंने व्यायाम खोजे, स्त्रियों के लिए नृत्य खोजा। कोई अर्थ था, कोई कारण था। नृत्य में एक रिदम है, नृत्य में एक लययुक्तता है जो स्त्री के शरीर के हार्मोंस को, उसके शरीर के रासायनिक तत्वों को एक और तरह की गतिमयता और संगीत से भरती है। कवायद बात दूसरी है। कवायद के अर्थ और प्रयोजन भिन्न हैं। कवायद मनुष्य के भीतर जो क्रोध है उसे सजग करती है, मनुष्य के भीतर जो लड़ने की प्रवृत्ति है उसे तीव्र करती है। मनुष्य के भीतर जो दूसरे के साथ हिंसक होने का भाव है उसे मजबूत करती है, उसे बलवान करती है।
कवायद अगर स्त्रियों को सिखाई गई तो घर नष्ट हो जाने वाले हैं, इसका हमें कोई खयाल ही नहीं। हम उनके पूरे शरीर को नुकसान पहुंचा रहे हैं। यहां तक आप हैरान होंगी, जिन मुल्कों में स्त्रियों को पुरुषों जैसी सैन्य-शिक्षा दी जा रही है वहां जवान लड़कियों को भी ओंठों पर मूंछ आनी शुरू हो जाती है। यह बहुत आसान है, कठिन नहीं है।
अगर ठीक पुरुषों जैसी कवायद करवाई जाए बच्चियों को तो उनके ओंठों पर मूंछों के बाल आने शुरू हो जाएंगे। शरीर के हार्मोंस अलग तरह से काम करना शुरू करते हैं। शरीर की जो व्यवस्था है वह अलग तरह से काम करती है। छोटी-छोटी बात से फर्क पड़ता है। शरीर को भी हम पुरुषों के जैसे स्त्रियों का ढालने की कोशिश कर रहे हैं और अब तो हम पुरुषों जैसे कपड़े पहनाने की भी सारी दुनिया में व्यवस्था कर रहे हैं। शायद हमें इस बात का कोई भी विचार नहीं है कि जीवन की छोटी-छोटी बात सारे जीवन को प्रभावित करती है।
पूरब के लोग ढीले कपड़े पहनते रहे हैं। पश्चिम के लोग चुस्त कपड़े पहनते रहे हैं। चुस्त कपड़े आदमी को लड़ने के लिए तत्पर बनाते हैं, ढीले कपड़े आदमी को शांत करते हैं, मौन करते हैं। आज तक दुनिया में किन्हीं साधुओं की किसी भी परंपरा ने चुस्त कपड़े नहीं पहने। यह ऐसे ही व्यर्थ नहीं था। ढीला कपड़ा व्यक्तित्व को एक शिथिलिता और शांति देता है, कसे हुए कपड़े व्यक्तित्व को एक तेजी और चुस्ती देते हैं इसलिए हम सैनिकों को और नौकरों को चुस्त कपड़े पहनाते हैं, लेकिन मालिक दुनिया में कभी चुस्त कपड़े नहीं पहनते रहे हैं। अगर आप चुस्त कपड़े पहने हुए सीढ़ियां चढ़ती हों तो आप दो सीढ़ियां एक साथ छलांग लगा जाएंगी। आपको पता भी नहीं चलेगा कि कपड़े आपको दो सीढ़ियां इकट्ठी चढ़वा रहे हैं और अगर आप ढीले और कपड़े पहने हुए हैं तो आप एक गरिमा से, एक डिग्निटी से सीढ़ियों को पार करेंगी और चढ़ेंगी।
 स्त्रियों के कपड़े पुरुषों जैसे कभी भी नहीं होने चाहिए। स्त्रियों के जीवन में हम कुछ और अपेक्षा किए हुए हैं। उनसे घर में किसी एक शांत वातावरण की अपेक्षा है। उनसे घर में एक प्रेमपूर्ण झरने की, एक शांत झील बन जाने की अपेक्षा है। उन्हें चुस्त कपड़े नहीं पहनाए जा सकते हैं और अगर वे पहनती हों तो वे भूल में पड़ रही हैं और इस भूल के लिए बहुत महंगी कीमत चुकानी पड़ेगी।
कपड़े तक प्रभावित करते हैं तो शिक्षा तो प्रभावित करेगी ही। मन की ट्रेनिंग हम जो सीखते हैं वह हमारे सारे व्यक्तित्व को निर्मित करता है। हम जो सोचते हैं वह हमारे पूरे जीवन को प्रभावित करता है, हम जो विचारते हैं, हम वैसे ही हो जाते हैं। हमें क्या सिखाया जा रहा है और क्या विचार करने के लिए हमें सामग्री दी जा रही है? स्त्रियों को कौन सी बातें सिखाई जा रही हैं--वे सारी बातें, गणित में जो आदमी दीक्षित होता है, विज्ञान में जो आदमी दीक्षित होता है उसकी जीवन के प्रति पकड़ दूसरी होती है। संगीत में और काव्य में जो दीक्षित होता है उसकी जीवन के प्रति पकड़ दूसरी होती है। और छोटी सी पकड़ से सब कुछ भिन्न हो जाता है।
गांधी जी के आश्रम में एक आदमी आना शुरू हुआ था। कुछ लोगों ने शिकायत की गांधी को कि यह आदमी अच्छा नहीं है। इस आदमी को आश्रम में आने देना उचित नहीं है, इस आदमी का चरित्र ठीक नहीं है। इसके गलत जीवन के बाबत बहुत खबरें आश्रम में सुनी जाती हैं। गांधी ने कहाः अगर आश्रम में बुरे आदमी नहीं सकेंगे तो आश्रम किसके लिए है, फिर आश्रम किसके लिए निर्मित किया गया है? बुरे आदमी आते हैं, हम उनका स्वागत करेंगे। लेकिन एक दिन तो बात बहुत आगे बढ़ गई और कुछ लोगों ने आकर गांधी को कहा कि अब तो सीमा के बाहर बात चली गई है। जिस व्यक्ति को हम रोकने को कहते थे वह आज शराबघर में बैठा हुआ शराब पी रहा है, हम आंखों से देख कर आए हैं और आप चल कर देख ले सकते हैं। खादी पहने हुए वह आदमी शराबखाने में बैठा हो तो बड़ा अपमानजनक है यह आश्रम के लिए। गांधी की आंखों में खुशी के आंसू गए और गांधी ने कहा, अगर में उस आदमी को वहां शराबखाने में देखता तो मेरा हृदय आनंद से भर जाता। मैं इसलिए आनंदित हो उठता कि अच्छे दिन मालूम होते हैं, आने शुरू हो गए। शराब पीने वाले लोगों ने भी खादी पहननी शुरू कर दी है। वे लोग जो खबर लाए थे, वे खबर लाए थे कि खादी पहने हुए आदमी शराब पी रहा है यह बहुत बुरी खबर है, लेकिन गांधी ने कहाः मेरा हृदय खुशी से भर जाएगा अगर मुझे यह पता चल जाए कि शराब पीने वाले लोगों ने भी खादी पहननी शुरू कर दी है।
यह जीवन को दो तरफ से देखना है। जिन मित्रों ने गांधी को आकर कहा था, उनकी जीवन की देखने की जो दृष्टि है वह एक अदालत की दृष्टि है, वह एक वकील की दृष्टि है। गांधी ने जिस तरफ से देखा, वह एक मां की दृष्टि है, वह एक स्त्री की दृष्टि है--वह एक वकील की, और एक अदालत की, और कानून की दृष्टि नहीं है। क्या फर्क है दोनों दृष्टियों में? पहली दृष्टि में कंडेमनेशन है उस आदमी का, उस आदमी की निंदा है, उस आदमी को छोड़ देने का आग्रह है, उस आदमी से अलग हट जाने की बात है। दूसरी दृष्टि में उस आदमी के भीतर किसी शुभ के दर्शन की कोशिश है, उस आदमी के भीतर भी सुंदर को खोजने का खयाल है, उस आदमी के संबंध में भी आशा है अभी। दूसरे विचार में वह आदमी समाप्त नहीं हो गया है, उसके बदल जाने की अभी गुंजाइश स्वीकृत है। मां का एक बेटा बिगड़ता चला जाए, बिगड़ता चला जाए, बिगड़ता चला जाए, सारी दुनिया आकर उसको कहे कि लड़का छोड़ देने जैसा हो गया है, यह लड़का बिगड़ गया है, यह घर में घुसने जैसा नहीं है। लेकिन मां कहेगी अभी बहुत आशा है।
जाति के साथ जो अत्याचार और अनाचार हुआ है, उस संबंध में थोड़ी सी बात प्रारंभ में ही कहना चाहूंगा और नारी के साथ जो हुआ है, उसके परिणाम में पूरी मनुष्य-जाति के जो अहित हुए हैं, उस संबंध में थोड़ी बात कहना चाहूंगा।
मनुष्य की पूरी जाति, मनुष्य का पूरा समाज, मनुष्य की पूरी सभ्यता और संस्कृति अधूरी है क्योंकि नारी ने उस संस्कृति के निर्माण में कोई भी दान, कोई भी कंट्रिब्यूशन नहीं किया। नारी कर भी नहीं सकती थी। पुरुष ने उसे करने का कोई मौका ही नहीं दिया। हजारों वर्षों तक स्त्री पुरुष से नीची और छोटी और हीन समझी जाती रही है। कुछ तो देश ऐसे थे जैसे चीन, चीन में हजारों वर्षों तक यह भी माना जाता रहा कि स्त्रियों के भीतर कोई आत्मा नहीं होती।

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