ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
आचरण नहीं--बोध से क्रांति-(प्रवचन-नौवां)
नौवां प्रवचन; दिनांक १९ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
जमाना हो गया घायल
तेरी सीधी निगाहों से
खुदा ना खासता तिरछी
नजर होती तो क्या होता?
मुहम्मद हुसैन!
सीधी
नजर काफी हो,
तो तिरछी नजर की जरूरत क्या! और सीधे-सीधे जो काम हो जाए, वह तिरछे होने से नहीं होता। तिरछा होना तो मन की आदत है; सीधा होना हृदय का स्वभाव।
मैं
जो कह रहा हूं,
वह दो और दो चार जैसा सीधा-साफ है। जिसकी समझ में न आए, उसकी समझ तिरछी होगी, उसके भीतर विकृतियों का जाल
होगा। अगर तुम्हारे पास भी सीधा-सादा हृदय हो, तो मेरी बात
का तीर ठीक निशाने पर पहुंच ही जाएगा, पहुंच ही जाना चाहिए।
प्रेम से सुनोगे तो सुनते-सुनते ही क्रांति घट जाएगी।
मेरे
सकूने-दिल को तो होना ही था तबाह
उनकी
भी एक निगाह का नुकसान हो गया
ऐसा
नुकसान मैं नहीं करता। जिसको बदलना है, जिसके भीतर आतुरता है, अभीप्सा है बदलने की, वह तो जरा से इशारे में बदल
जाता है।
मेरे
सकूने-दिल को तो होना ही था तबाह
उनकी
भी एक निगाह का नुकसान हो गया
जो
तैयार ही हो कर आया है मिटने को, उस पर एक नजर का भी नुकसान क्यों करना! और जो
तैयार हो कर ही आया है मिटने को, वही मिटेगा; शेष तो व्यर्थ की बातों में ही उलझे रह जाएंगे। शेष तो ऐसी बातों में उलझे
रह जाएंगे, जिनसे उनका कोई प्रयोजन न था।
आदमी
की मूढ़ता ऐसी है कि कांटों को चुन लेता है, फूलों को छोड़ देता है। रातों को
गिन लेता है, दिनों को छोड़ देता है। दुखों को पकड़ लेता है,
आनंद का जाम भी लिए उसके सामने बैठे रहो--देखेगा ही नहीं। ऐसे
व्यक्ति के जीवन में प्रार्थना नहीं उठ सकती। ऐसे व्यक्ति के जीवन में तो शिकायतें
ही शिकायतें होंगी।
सोजे-गम
दे के मुझे उसने ये इर्शाद किया।
जा
तुझे कश्मकशे-दहर से आजाद किया।।
वो
करें भी तो किन अलफाज में तेरा शिकवा।
जिनको
तेरी निगहे-लुत्फ ने बर्बाद किया।।
इतना
मानूस हूं फितरत से कली जब चटकी।
झुक
के मैंने ये कहा,
मुझसे कुछ इर्शाद किया?
मुझको
तो होश नहीं,
तुमको खबर हो शायद।
लोग
कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया।।
वे
जो प्यासे हैं परमात्मा के,
उनको तो इतनी भी खबर नहीं होती--
मुझको
तो होश नहीं,
तुमको खबर हो शायद
लोग
कहते हैं तुमने मुझे बर्बाद किया।
उन्हें
तो पता भी नहीं चलता। और यह बर्बादी बर्बादी नहीं है। यह तीर का चुभ जाना मृत्यु
नहीं है--अमृत की घटना है।
वो
करें भी तो किन अलहाज में तेरा शिकवा।
जिनको
तेरे निगहे-लुत्फ ने बर्बाद किया।।
उसकी
निगाह बर्बाद करे,
तो आबादी है। उसकी निगाह मिटा दे, तो नया जन्म
है।
और
मेरी तो अपनी कोई निगाह नहीं। जो शांत और मौन होकर मेरे पास बैठेगा, उसको उसकी
निगाह ही दिखाई पड़ेगी। और उसकी निगाह तो सीधी-साफ है। मैं तो बांस की पोंगरी समझो।
गीत उसका है। सुनने वाला चाहिए। मुहम्मद हुसैन! तुमने ठीक देखा, ठीक सुना, ठीक पहचाना।
ये
दौरे-मसर्रत,
ये तेवर तुम्हारे।
उभरने
से पहले, न डूबें सितारे।।
भंवर
से लड़ो, तुंद लहरों से उलझो।
कहां
तक चलोगे किनारे-किनारे।।
मुहम्मद
हुसैन! अगर लग गई बात,
तो अब किनारे-किनारे न चलो। अब डूबो इस गैरिक सरिता में। अगर हो गए
घायल, तो अब भागना मत। अब जागो।
ये
दौरे-मसर्रत,
ये तेवर तुम्हारे।
उभरने
से पहले, न डूबें सितारे।।
भंवर
से लड़ो, तुंद लहरों से उलझो।
कहां
तक चलोगे किनारे-किनारे।।
अजब
चीज है ये मोहब्बत की बाजी।
जो
हारे वो जीते,
जो जीते वो हारे।।
सियाह
नागिनें बन के डसती है किरणें।
कहां
कोई ये रोजे-रोशन गुजारे।।
सफीने
वहां डूब कर ही रहे हैं।
जहां
हौसले नाखुदाओं ने हारे।।
कई
इन्किलाबात आए जहां में।
मगर
आज तक दिन न बदले हमारे।।
रजा
सैले-नौ की खबर दे रहे हैं।
उफुक
को ये छूते हुए तेज धारे।।
ये
दौरे-मसर्रत,
ये तेवर तुम्हारे।
उभरने
से पहले, न डूबें सितारे।।
भंवर
से लड़ो तुंद लहरों से उलझो।
कहां
तक चलोगे किनारे-किनारे।।
अगर
घायल हुए हो,
तो अब और तरह के विचारों को बीच में मत आने देना। लाख विचार आएंगे,
क्योंकि हमारा अतीत एकदम से नहीं छोड़ देता। जकड़ता है, पकड़ता है। जंजीरें भी छोड़ने को एकदम से राजी नहीं होतीं। उनकी मालकियत
जाती है।
कारागृह
की दीवालें भी रुकावट डालेंगी कि कहां जाते हो! हमें छोड़ कर जाते हो! यह गद्दारी, यह धोखा!
हम ही तुम्हारी सुरक्षा हैं। बाहर खुले आकाश में बहुत तड़फोगे, बहुत परेशान होओगे। रुक जाओ। मान जाओ। अतीत सब तरह के जाल फेंकेगा। सुंदर
सुंदर जाल। सुनहरे जाल--शब्दों के, शास्त्रों के, सिद्धांतों के, हिंदू होने के, मुसलमान होने के, ईसाई होने के, जैन होने के। और लटका लेता है आदमी को। छोटी-छोटी बातें में अटका लेता है।
और आदमी सोचता है, बड़ी होशियारी की बातें कर रहा है।
स्वामी
शांतिस्वरूप भारती ने पूछा है कि आपकी अध्यात्म और धर्म पर बातें तो हमें बहुत
प्यारी लगती हैं। मगर राजनीति या समाज पर जब आप कुछ कह देते हैं, तो मैं
राजी नहीं हो पाता। इससे अपराधभाव पैदा होता है। मैं क्या करूं?
अपराधभाव
दो ही ढंग से मिट सकता है। या तो संन्यास छोड़ दो। अगर तुम्हें राजनैतिक और सामाजिक
विचारों को पकड़ने का इतना आग्रह है; तुम्हें अपने विचार इतने पकड़ने का
आग्रह है, तो छोड़ दो वे मधुर बातें। अपराधभाव से मुक्त हो
जाओगे। संन्यास से मुक्त हो जाओ। और या फिर अगर सच में ही अध्यात्म और धर्म की
बातें तुम्हें इतनी प्यारी लगती हैं, तो इतनी भी कीमत नहीं
चुका सकते कि दो कौड़ी के अपने राजनैतिक विचार और सामाजिक धारणाओं को छोड़ दो!
और
क्या तुम्हारे राजनैतिक विचार और क्या तुम्हारी सामाजिक धारणाएं! अपना बोध नहीं
है--समाज का तुम्हें क्या खाक बोध होगा? अपनी पहचान नहीं है और सोचते तुम
यह हो कि राजनीति पर तुम्हारी कोई दृष्टि हो सकती है! सिर्फ बुद्धों के सिवाय समाज
और राजनीति के संबंध में भी जो लोग कुछ कहते हैं, वह उनकी
मूढ़ता से ही निकलेगा।
और
मजा यह है कि हम नहीं चाहते कि बुद्धपुरुष कुछ भी राजनीति और समाज के संबंध में
कहें, क्योंकि कम से कम हम यह तो मानते ही हैं कि उस दिशा में तो हमारी ही
दृष्टि ठीक है। बुद्धपुरुषों को बोलने की जरूरत ही क्या है! वे तो अपना अध्यात्म
सम्हालें।
मेरे
साथ होना है,
तो पूरे-पूरे। अधूरे-अधूरे--अपने को धोखा मत दो। मैं तुम्हें छुट्टी
देने को तत्क्षण राजी हूं। छोड़ दो संन्यास; अपराधभाव से
मुक्त हो जाओ। बचा लो अपनी राजनीति। बचा लो अपनी सामाजिक धारणाएं! अगर उनकी कोई
कीमत है--तो ठीक है। कीमती चीज को बचा लेना चाहिए। और अगर उनकी कोई कीमत नहीं है;
दो कौड़ी की हैं--और दो कौड़ी की ही हैं--तो फिर तुम्हें जो प्यारा लग
रहा है उसके लिए कुर्बान कर दो। कैसा अपराधभाव!
मैं
कुछ बातें जरूर ऐसी कहता हूं, जो तुम्हारी परीक्षाएं हैं। मेरे अपने ढंग हैं
आदमियों को तौलने के, परखने के, बदलने
के। मैं कुछ ऐसी बातें जरूर कहूंगा, जो तुम्हारी धारणाओं के
विपरीत जाती रहें। अध्यात्म तो हवाई बात है। उसमें तो तुम बड़े जल्दी राजी हो जाते
हो। अब मोक्ष में तुम्हें झगड़ा भी क्या! ध्यान से तुम्हें विरोध भी क्या! सब
मीठा-मीठा है। और सब सुंदर ही होगा। कुछ तुम्हारी तो वहां तो गति नहीं है। आकाश
में तुम्हारी कोई गति नहीं है। इसलिए वहां तो तुम बड़े जल्दी राजी हो जाते हो।
शायद
उन बातों से भी तुम्हारे अहंकार की तृप्ति हो रही हो--कि देखो, मैं
संन्यासी हो गया। अब देखो, मैं अध्यात्म का पथिक हो गया। अब मेरी
यात्रा परमात्मा की तरफ चल रही है। अब मैं मोक्ष पाने के लिए अग्रणी हो रहा हूं।
अब दूर नहीं है मंजिल।
लेकिन
तुम्हारी दो कौड़ी की धारणाएं हैं कि कोई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सदस्य है।
उसको मैंने कुछ कह दिया--चोट लग गई। कि कोई जनता पार्टी का सदस्य है, उसको
मैंने कुछ कह दिया और चोट लग गई।
मैं
कुछ ऐसी बातें कहता ही रहूंगा। वे मेरे छांटने के ढंग हैं। जिनको नाव से उतर जाना
है, उनको मैं उतार ही देना चाहता हूं। मैं ऐसे लोगों को नाव में रखना ही नहीं
चाहता, जो अपराधभाव से भरे हों। जिनके भीतर किसी तरह का
द्वंद्व हो--इसके पहले कि वे जगह रोकें, मैं उनको मुक्त कर
देना चाहता हूं।
मगर
लोग बड़े समझदार हैं!
लुधियाना
से आए हुए एक जैन मित्र ने पूछा है कि किसी बुद्धपुरुष ने कभी भी अपने प्रवचन के
लिए फीस नहीं लगाई?
वह
बुद्धपुरुषों की गलती थी,
इसमें मैं क्या करूं! इसलिए तुम जैसे नालायक उनके साथ जुड़ गए। मैं
वह गलती नहीं करूंगा। मेरे अपने जीने का ढंग है। किसी बुद्धपुरुष से मुझसे क्या
लेना-देना। वे अपने ढंग से जीए; मुझसे तो पूछा नहीं! मैं
उनसे क्यों पूछूं!
महावीर
को नग्न रहना था,
वे नग्न रहे। बुद्ध तो नग्न नहीं रहे। कृष्ण तो नग्न नहीं रहे। ये
सज्जन उनके पास पहुंच गए होते। और जरूर लुधियाना से लोग उनके पास पहुंचते रहे
होंगे! पंजाब में तो एक से एक अदभुत लोग पैदा होते हैं।
बुद्ध
से लोग जा कर पूछते थे कि महावीर ने तो वस्त्र छोड़ दिए। आपने वस्त्र क्यों नहीं
छोड़े? और महावीर से लोग पूछते थे कि बुद्ध ने वस्त्र नहीं छोड़े; आपने वस्त्र क्यों छोड़े? कृष्ण तो बांसुरी बजा रहे
हैं! आपकी बांसुरी कहां है? और राम तो धनुष-बाण लिए खड़े हैं।
और आप नंग-धड़ंग खड़े हैं!
हर
बुद्धपुरुष का अपना ढंग होगा। बुद्धुओं को छांटने का मेरा अपना ढंग है। मैं
बुद्धुओं पर मेहनत नहीं करना चाहता।
और
जैन हैं, तो गरीब तो नहीं होंगे। पांच-दस रुपए बचाने के लिए ऐसे दीवाने हो रहे हैं!
यह नहीं दिखाई पड़ेगा उन्हें कि हम पांच-दस रुपए बचाने की बात कर रहे हैं। मगर बात
को यूं छिपाएंगे कि किसी बुद्धपुरुष ने तो फीस लगाई नहीं! पांच-दस रुपये बचाने हैं
कुल जमा। और बुद्धपुरुषों ने तुम्हें क्या समझाया--कि परिग्रह मत रखना। तुमसे कम
से कम पांच-दस रुपए का परिग्रह छुटवा रहा हूं--और क्या! इतना भी नहीं छूटता! और
क्या खाक छोड़ोगे!
और
मैं कोई भिखारी नहीं हूं,
इसलिए दान मांगता नहीं; फीस लेता हूं। भीख
क्यों मैं मांगूं? मैं कोई भिखारी हूं! तुम्हें भीख देने का
मजा है। तुम चाहते होओगे कि कोई भीख मांगे। तो तुम्हें मजा तो रहे--कि हमने दान
दिया! वह अकड़ भी तुम्हारी यहां नहीं टिकने वाली। वह अहंकार भी तुम्हारा मैं यहां
सुरक्षित नहीं रखता।
यहां
तो भीतर आना है,
तो तुम्हें अपनी उत्सुकता जाहिर करनी पड़ेगी। और तुम आ रहे हो।
तुम्हें कोई जबर्दस्ती बुला नहीं रहा है। तुम्हारी आकांक्षा हो--आओ। और तुम्हें
पैसा बचाना हो, तो मत आओ। लेकिन मुझे सलाह मत दो। मैं किसी
की सलाह कभी माना नहीं। और मुझे जो सलाह देने की हिम्मत करता है, वह क्या खाक मुझसे कुछ सीख कर जा सकेगा!
जो
यहां सलाह देने आया है,
वह सलाह कैसे ले सकेगा? एक ही काम कर लो,
तो बहुत! इतनी बुद्धिमानी न दिखाओ! मुझे अपने ढंग से जीना है। अपने
ढंग से ही जीऊंगा। इस तरह के कूड़ा-करकट को मैं यहां पसंद भी नहीं करता।
उन्होंने
लिखा है, अब तो आपका आश्रम आत्मनिर्भर हो गया है। अब फीस क्यों? जैसे कि इनके द्वारा आत्मनिर्भर हो गया हो! जैसे कि तुम्हारी फीस से
आत्मनिर्भर हो गया हो!
और
तुम्हें क्या पता इस आश्रम को कितना बड़ा होना है। यह आश्रम कभी भी इतना आत्मनिर्भर
नहीं हो जाएगा कि इसको फीस की जरूरत न रहे। क्योंकि यह विकासमान है। यह तो बढ़ता ही
चला जाएगा। यह फैलता ही चला जाएगा। इस आश्रम में कम से कम एक लाख संन्यासी तो होने
ही चाहिए। इससे कम क्या चलेगा! और तुम पांच-दस रुपए के लिए मरे जा रहे हो। मगर तुम
यह सोच रहे हो कि तुमने बड़ी कीमत की बात कही है।
जरा
मुझसे कुछ बातें कहने के पहले सोच लिया करे। यहां सलाह नहीं चलेगी। मुझे पता है, मैं क्या
कर रहा हूं, क्यों कर रहा हूं।
गुरजिएफ
ने अपनी पहली किताब छापी;
तो उसके दाम रखे उसने--एक हजार रुपए। उस जमाने में, आज से पचास साल पहले, एक हजार रुपया बहुत कीमती चीज
थी। आज से डेढ़ सौ साल पहले ब्रिटिश गवर्नमेंट ने पूरा का पूरा कश्मीर गुलाब सिंह
को, कर्णसिंह के दादा-परदादा को, सिर्फ
तीस लाख रुपए में बेच दिया था। पूरा कश्मीर! और आज से तीन सौ साल पहले पूरा
न्यूयार्क वहां के आदिवासियों ने परदेश से आए हुए लोगों के लिए सिर्फ तीस रुपए में
बेच दिया था--पूरा न्यूयार्क!
आज
से पचास साल पहले हजार रुपए की बड़ी कीमत थी। जो भी लेने की सोचता किताब, उसकी
हिम्मत न होती। हजार रुपए! लोग गुरजिएफ से पूछते कि किसी बुद्धपुरुष ने कभी अपनी
किताबों के ऐसे दाम नहीं रखे? गुरजिएफ कहता, उनकी वे जानें। मेरी मैं जानता हूं।
जो
आदमी हजार रुपए नहीं चुका सकता, उसकी कोई अभीप्सा नहीं है। उसकी कोई आकांक्षा
नहीं है। सत्य मुफ्त नहीं मिलता। और तुम भाषा समझते हो धन की। धन की ही एकमात्र
भाषा तुम समझते हो। उसको ही छोड़ने में तुम्हारी आत्मा एकदम कष्ट पाने लगती है।
तो
गुरजिएफ ने अपनी किताब...एक हजार पन्नों की किताब है। उसमें सो पन्ने भूमिका के
कटवा रखे थे। और बाकी नौ सौ पन्ने जुड़े हुए थे; काटे नहीं थे। तो वह कहता कि तुम
ले जाओ। सौ पन्ने पढ़ लेना। अगर न जंचें, तो अपने हजार रुपए
वापस ले जाना और किताब वापस कर देना। अगर जंचें तो ही आगे के पन्ने काटना। नहीं तो
काटना मत। काट लिए, तो फिर किताब वापस नहीं लूंगा।
लेकिन
वे सौ पन्ने इतने अदभुत थे कि मुश्किल था कि आदमी बिना काटे बच जाए। मगर उसने तो
बात साफ कर दी थी कि सौ पन्ने पढ़ लो। मुफ्त पढ़ लो। फिर आगे मत काटना। अपने पैसे
वापस ले जाना। किताब लौटा देना।
तुमने
एक दिन सुन लिया। अगर बात न जमती हो, अगर तुम्हें दस रुपए, पांच रुपए बहुत प्यारे लगते हों--अपने पैसे बचाओ और लुधियाना भागो वापस।
यहां क्या कर रहे हो? क्यों समय खराब कर रहे हो?
लेकिन
ये छोटी-छोटी बातें,
ये टुच्ची बातें तुम्हें भारी मूल्य की मालूम पड़ती हैं दस रुपए देने
में घबड़ाते हो और परमात्मा को खोजने निकले हो! और जब मैं तुम्हारा अहंकार मांगूंगा,
तो क्या करोगे! जेब खाली कर नहीं सकते और जब मैं तुमसे कहूंगा कि
अपने प्राण ही खाली कर दो--कैसे कर सकोगे?
ये
मेरी अपनी विधियां हैं;
मेरे अपने उपाय हैं। और मैं किसी बुद्धपुरुष का अनुकरण नहीं हूं।
मैं अपने ढंग का आदमी हूं। और अपने ढंग से ही जीऊंगा।
मुहम्मद
हुसैन, तुमने कहा--
जमाना
हो गया घायल
तेरी
सीधी निगाहों से
खुदा
न खासता तिरछी
नजर
होती तो क्या होता?
पूछता
हूं कि तुम घायल हुए कि नहीं? जमाने को जाने दो। जमाने से क्या लेना-देना।
मुहम्मद हुसैन घायल हुए कि नहीं? अगर घायल हुए हो, तो फिर रंग जाओ इस रंग में। और अगर घायल नहीं हुए हो, तो फिर इंतजाम करूं तिरछी निगाहों का!
दूसरा प्रश्न: भगवान, मेरे गुरु स्वामी लटपटानंद
ब्रह्मचारी कहा करते थे: दुग्धाहार और फलाहार का सात्विक आहार किया करो। सुबह
ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर ओम का जाप किया करो। अपने पास वस्त्र केवल तीन ही रखो। और
कुछ संग्रह न करो। हर स्त्री को अपनी मां-बहन-बेटी की तरह देखो। और मन में बुरे
विचार न आने दो। और लंगोट के पक्के रहो। लेकिन मेरे गुरु लटपटानंद जल्दी ही
स्वर्गवासी हो गए और मैं अभी तक सत्य के मार्ग पर उनकी शिक्षा के अनुसार नहीं चल
पाया। और अब आपकी बातें मुझे आकर्षित करती हैं। और विचित्र भी लगती हैं और एक तरह
का संदेह भी मन में पैदा करती हैं कि सत्य की खोज के लिए अनुशासन चाहिए या
उन्मुक्त जीवन? मेरी उम्र अभी छब्बीस वर्ष की है और
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का समय भी आ गया है। मैं दुविधा में हूं कि संन्यास
लूं अथवा विवाह करूं? कृपया मार्गदर्शन दें।
कन्हैयालाल द्विवेदी,
मथुरा
निवासी हैं। सो तुम समझ सकते हो!...ये तुम्हारे गुरु लटपटानंद ब्रह्मचारी
स्वर्गवासी नहीं हो सकते;
नर्कवासी हुए होंगे। ऐसे लटपटानंदों के लिए स्वर्ग में स्थान नहीं
है।
और
क्या-क्या मूढ़ता की बातें तुमसे कही हैं! दुग्धाहार--सात्विक आहार! शास्त्रों में
लिखा है, सो दोहरा रहे होंगे तोतों की तरह। लेकिन दुग्धाहार सात्विक आहार नहीं है।
क्योंकि दूध शरीर से निकलता है, जैसे खून शरीर से निकलता है।
इसीलिए तो दूध पीने से खून जल्दी बढ़ जाता है। क्योंकि दूध में खून को बढ़ाने वाली
शक्ति है, क्षमता है। दूध मां का खून ही है। और अपनी मां का
पीओ--तो ठीक! गौ-माता का पी रहे हो!
गौ-माता
का दूध तुम्हारे लिए नहीं है। ये लटपटानंद किसका दूध पीते रहे? गौ-माता
का? यह गौ-माता का दूध गौ-पुत्रों के लिए है। यह
बछड़ा-बछेड़ियों के लिए है। यह लटपटानंदों के लिए है नहीं। कोई गाय नहीं कहती कि आओ
बेटा लटपटानंद, दूध पीओ! यह गऊ के साथ अनाचार है, बलात्कार है। जबर्दस्ती उसका दूध छीना जा रहा है। उसके बच्चे का दूध छीना
जा रहा है!
और
यह भी ध्यान रखा कि गौ का दूध पीओगे, तो सांड हो जाओगे। क्योंकि वह
सांडों के लिए है; आदमियों के लिए नहीं। जितना ज्यादा दूध
पीओगे, उतनी ही कामवासना सताएगी। सात्विक कैसे हो जाएगा!
क्योंकि जितना दूध पीओगे, उतनी ही शरीर में ऊर्जा होगी। और
ऊर्जा भी सांडों जैसी होगी। क्योंकि वह दूध बना सांडों के लिए था; तुम्हारे लिए बना नहीं था।
फिर
लंगोट कस कर बांधो! लंगोट के पक्के रहो! पहले दूध पीओ--फिर लंगोट के पक्के रहो!
दुग्धाहार
आहार सात्विक कतई नहीं है। मैं नहीं कहता कि मत पीओ। मगर यह जान कर पीना कि यह
सात्विक आहार नहीं है। इस भ्रांति में मत रहना कि दुग्धाहार सात्विक आहार है।
ईसाइयों
का एक संप्रदाय है--क्वेकर--वे दूध नहीं पीते। चाय भी बिना दूध के पीते हैं। काफी
भी बिना दूध की पीते हैं। वे दूध को मांसाहार ही मानते हैं। और मैं उनसे राजी हूं।
वे ठीक कहते हैं। तुम्हारे सारे ऋषि-मुनि गलत बकवास करते रहे हैं। क्वेकर ठीक कहते
हैं। क्योंकि दूध प्राणी-आहार है--एनीमल फुड है। चाहे मांस खाओ, चाहे खून
पीओ--चाहे दूध पीओ! सात्विक क्या है दूध में?
और
यह भी तुमने देखा कि आदमी को छोड़ कर कोई जानवर एक उम्र के बाद दूध नहीं पीता। और
तुम छब्बीस साल के हो गए और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अवसर आ गया, और अभी भी
दूध पी रहे हो?
बछेड़े, बछियां एक
समय तक दूध पीते हैं, इसके बाद घास चरते हैं। तुम घास कब
चरोगे? गृहस्थाश्रम में प्रवेश होने का अवसर आ गया--अब घास
चरो! अब गौ-माता का दूध काफी पी लिए। काफी सता लिए गौ-माता को। अब घास खाने का समय
आ गया! और अभी मौसम अच्छा। हरा घास उपलब्ध है! जी भर कर चरो!
आदमी
को छोड़ कर कोई पशु पृथ्वी पर बचपन की एक उम्र के बाद दूध नहीं पीता। जब भोजन करने
के योग्य हो गए,
तो अब दूध पीने की क्या जरूरत? दूध तो छोटे
बच्चे के लिए है। वह जो कि भोजन नहीं पचा सकता, उसके लिए है।
लटपटानंद--इनके लिए दूध है? इनसे भोजन नहीं पचता था?
लेकिन
मूर्खतापूर्ण बातें अगर पुरानी हों, तो हमें लगता है कि सही होनी ही
चाहिए। और तब तुम्हें मेरी बातें विचित्र भी मालूम होंगी। क्योंकि तुम गलत सत्संग
में रहे हो। तुम नासमझी के वातावरण में पले हो। मथुरा की हवा तुम्हें खराब कर गई।
यह सदियों से दूषित हवा है। और ये लटपटानंद तुम को मिल गए! और क्या-क्या बातें
तुम्हें सिखा गए--कि सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर ओम का जाप किया करो!
जरा
वैज्ञानिक विश्लेषण समझो,
वैज्ञानिक अन्वेषण समझो। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग समय में
उठना उचित है। शास्त्र अकसर बूढ़े लोगों ने लिखे हैं। स्वभावतः। उन दिनों बुढ़ापे का
बड़ा आदर था। बूढ़े होने में बड़ी कीमत थी। हालांकि बूढ़े होने में कोई कीमत नहीं। गधे
भी बूढ़े होते हैं। घोड़े भी बूढ़े होते हैं। बूढ़े होने में कोई कीमत नहीं है। और गधा
बूढ़ा होकर और भी बड़ा गधा हो जाता है। और कुछ भी नहीं होता।
बूढ़े
होने से क्या होगा! मूर्ख आदमी बूढ़ा होकर महामूर्ख हो जाता है। कोई बूढ़े होने से
बुद्धिमत्ता नहीं आती। उम्र का बुद्धिमत्ता से कोई संबंध नहीं है। लेकिन शास्त्र
बूढ़ों ने लिखे हैं।
बूढ़े
ज्यादा देर नहीं सो पाते। और उन दिनों न बिजली थी, न रोशनी थी--जब शास्त्र
लिखे गए--सूरज डूबा--कि रात हो गई! सूरज डूबा, कि सोने का
समय आ गया। जब जल्दी सो जाओगे, तो दो बजे, तीन बजे नींद खुल जाएगी। बूढ़े आदमी की तो खुल ही जाएगी।
बच्चा
मां के पेट में चौबीस घंटे सोता है। उसको ब्रह्ममुहूर्त में मत जगा देना, नहीं तो
उसकी जिंदगी ही खराब हो जाएगी; वह अपंग हो कर पैदा होगा।
छोटे
बच्चे तेईस घंटे सोएंगे। फिर बाईस घंटे। फिर इक्कीस घंटे। फिर बीस घंटे। फिर अठारह
घंटे। जवान होते हुए आदमी आठ घंटे, सात घंटे के करीब आ जाएगा। यह भी
प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग होगा।
बुढ़ापे
में आदमी चार घंटे,
तीन घंटे, दो घंटे--बहुत हो जाएगा। क्यों?
क्योंकि नींद का संबंध शरीर के विकास पर निर्भर है।
जब
बच्चे का शरीर निर्मित होता है मां के पेट में, तो उसको चौबीस घंटे सोना पड़ता है।
शरीर में इतना काम चल रहा है कि अगर उसकी नींद टूटेगी, तो
शरीर के विकास में बाधा पड़ेगी। वह सोया रहता है; शरीर में
विकास होता रहता है।
जो
विकास मां के पेट में नौ महीने होता है, फिर पूरी जिंदगी में भी उस गति से
विकास नहीं होता। इसलिए नींद जरूरी है।
चिकित्सक
के पास जाओ; पूछो उससे; अगर कोई बीमारी हो गई है, तो पहला काम है--नींद जरूरी है। क्योंकि नींद नहीं होगी ठीक से, तो बीमारी को पूरा करने का शरीर को अवसर नहीं मिलेगा।
सोने
का अर्थ है: सब कार्यक्रम बंद हो गया; सब क्रियाकलाप बंद हो गया। अब शरीर
को मौका है कि अपनी स्वास्थ्यदायी शक्तियों का उपयोग कर ले। अब कोई उलझन नहीं,
दुकानदारी नहीं; बाजार नहीं; कीर्तन-भजन नहीं। अब शरीर को बिलकुल अवसर है कि अपनी ऊर्जा को फिर से
जीवंत कर ले। इसलिए जवान आदमी को सात-आठ घंटे सोना ही चाहिए। इससे कम सोएगा,
तो नुकसान पहुंचेगा उसको।
फिर
प्रत्येक व्यक्ति के सोने का अलग-अलग काल गहरा होता है। वैज्ञानिक खोज से यह पता
चला है कि बाईस घंटे तो शरीर का एक तापमान रहता है। और दो घंटे के लिए रात में
शरीर का तापमान कम से कम दो डिग्री नीचे गिर जाता है। वे दो घंटे सर्वाधिक गहरी
नींद के घंटे हैं। किसी का दो बजे से चार बजे के बीच गिरता है। किसी का तीन बजे से
पांच बजे के बीच गिरता है। किसी का चार से छह के बीच गिरता है। किसी का पांच से
सात के बीच गिरता है। उन दो घंटों को अगर तुम ठीक से नहीं सोए, तो तुम
दिन भर उदास रहोगे, खिन्न रहोगे, बेचान
रहोगे, परेशान रहोगे। वे दो घंटे तो गहरी नींद में जाने ही
चाहिए।
और
वे चूंकि प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग हैं, इसलिए कोई नियम नहीं बना सकता कि
ब्रह्ममुहूर्त में ही उठ आना। हो सकता है तुम्हारे लिए वे ही दो घंटे सर्वाधिक
मूल्यवान हों। इसलिए तुम्हें अपना ही निरीक्षण करना होगा कि मेरी नींद सबसे ज्यादा
गहरी कब होती है। जब तुम्हारी नींद सर्वाधिक गहरी होती है, उसको
तोड़ना ही मत अन्यथा तुम अपने शरीर की दुश्मनी कर रहे हो। और फिर शरीर उसके बदले
लेगा। शरीर तुम्हें फिर छोड़ेगा नहीं।
शरीर
की प्रकृति के विपरीत जाओगे, तो घातक बीमारियां होंगी। शरीर जल्दी ही क्षीण
हो जाएगा, रुग्ण हो जाएगा, वृद्ध हो
जाएगा।
इसलिए
मैं कुछ नहीं कह सकता कि ब्रह्ममुहूर्त में जगना या नहीं। तुम जांच कर लेना। अकसर
तो यह होता है कि ब्रह्ममुहूर्त में तुम जबर्दस्ती उठते हो, क्योंकि
शास्त्रों में कहा गया है। खींचतान कर अपने को उठा लेते हो। नींद आ रही है और उठ
गए हो। ठंडे पानी में नहा कर नींद को भगा रहे हो। फिर किसी तरह बैठ कर झपकी खा रहे
हो और ओंकार का मंत्र जप रहे हो!
और
ओंकार का मंत्र जपोगे,
तो और झपकी आएगी, क्योंकि मंत्र जपने से नींद
आने का संबंध है।
किसी
भी चीज को बार-बार दोहराओगे, तो नींद पैदा होती है। इसलिए मां अपने बच्चे के
पास लोरी गाती है। लोरी का अर्थ इतना ही होता है कि एक ही शब्द को दोहराए जाती है
कि सो जा बेटा--मुन्ना बेटा, राजा बेटा! कुछ एकाध दो शब्दों
को दोहराए चली जाती। थोड़ी देर में बेटा सो जाता है। मां सोचती है कि शायद मेरे
सुमधुर संगीत के कारण सो रहा है! चाहे ये देवी कर्कशा हों! बेटा इसलिए सो गया है
कि वह जो बकवास लगा रही थी--कि राजा बेटा! मुन्ना बेटा! राजा बेटा--मुन्ना बेटा!
उसको कब तक सुने! घबड़ा कर भीतर सरक गया; नींद में डूब गया--कि
हे माताराम! छुट्टी दो! तुम्हारी भी छुट्टी, मेरी भी छुट्टी!
तुम
क्या करोगे ओंकार का जाप?
बैठ कर दोहराओगे--ओम ओम ओम। दोहराने से सिर्फ तंद्रा आएगी।
और
अगर ब्रह्ममुहूर्त में जबर्दस्ती उठ आए हो--और अभी जवान हो, तो
जबर्दस्ती ही उठोगे--तब तो और भी नींद आएगी। इससे अपराधभाव पैदा होगा। तुम्हारी
तथाकथित धार्मिक धारणाएं तुम्हें अपराधभाव से भर देती हैं। फिर तुम्हें यह बेचैनी
होगी कि ब्रह्ममुहूर्त में मैं सजग क्यों नहीं हो पाता! नींद क्यों नहीं आती है?
और
लटपटानंद जैसे लोगों से जा कर पूछोगे, तो वे कहेंगे, तामसी वृत्ति! सात्विक आहार करो। बुरे विचारों को मन में मत आने दो। जैसे
कि बुरे विचारों को मन में आने देना या न आने देना तुम्हारे वश की बात है! बुरे
विचार आएंगे, तो तुम क्या करोगे?
और
मजा तुम देखते हो एक तरफ कहते हैं, तुम्हारे स्वामी लटपटानंद
ब्रह्मचारी--मन में बुरे विचार न आने दो, और लंगोट के पक्के
रहो! जब बुरे विचार नहीं आते, तो लंगोट के पक्के रहने की
क्या जरूरत! यह तो बड़ी उलटी बात हो गई। जब बुरे विचार आते ही नहीं, तो अब लंगोट ढीला भी रखो, तो क्या हर्जा है! लंगोट न
भी पहनो, तो चलेगा। जब बुरे विचार आते ही नहीं, तो बात ही खतम हो गई; जड़ ही टूट गई। अब यह लंगोट के
पक्के रहने में क्या मतलब है! लेकिन इस तरह की गधापच्चीसी की बातों को धर्म समझा
जाता है।
और
बुरे विचार न आएं,
इसके लिए क्या रास्ता बताया तुम्हारे लटपटानंद ने? उनके खुद भी अभी मिटे नहीं होंगे। बुरे विचार न आना सिवाय साक्षी-भाव के
और किसी भी तरह से समाप्त नहीं होता।
ओंकार
का पाठ करोगे;
राम-राम जपोगे--इससे बुरे विचार बंद नहीं होंगे। क्योंकि इससे
साक्षी-भाव पैदा नहीं होता। यह तो सब बकवास है। यह व्यर्थ बकवास है। यह खुद ही
बुरा विचार है। साक्षी-भाव का तो अर्थ यह है कि जो भी विचार आते हों--बुरे कि
अच्छे--जाग कर सिर्फ देखते रहो। यह विचार आया। यह उठा। यह सामने खड़ा हो गया। यह
विदा होने लगा। यह गया! यह गया। यह गया। दूसरा आ गया। जैसे रास्ते के किनारे कोई
राह को चलते हुए देखे। कार गुजरी। बस गुजरी। बैलगाड़ी आई। लोग गुजर रहे हैं। इधर-उधर
जा रहे हैं। तुम्हें फिक्र नहीं यह कहने की कि कौन अच्छा है, कौन बुरा है; कौन साधु, कौन
असाधु। तुम सिर्फ देख रहे हो। सिर्फ द्रष्टा मात्र। बस, इतना
ही होश रखना कि मैं द्रष्टा हूं।
लंगोट
वगैरह बांधने की कोई जरूरत नहीं है। यह तो द्रष्टा होने से नीचे गिर जाना है। यह
तो कर्ता हो जाना है। लंगोट कस कर बांध रहा है--कौन बांध रहा है? तुम कर्ता
हो गए। यह तुमने अपने साथ जबर्दस्ती कर ली। और जबर्दस्ती के परिणाम बुरे होने वाले
हैं। जबर्दस्ती यानी दमन।
लंगोट
के पक्के रहो--इसका मतलब होता है: जबर्दस्ती करते रहो अपने साथ। अपने को कस-कस कर
बांधते रहो। अपने चारों तरफ जंजीरें खड़ी कर लो। इससे दमन के बुरे परिणाम होने वाले
हैं। और हुए हैं।
यह
देश जितना पाखंडी हो गया है, दुनिया में कोई देश नहीं है। ये तुम्हारे इसी
तरह के गुरु, स्वामियों, तथाकथित
संतों-महंतों की कृपा है कि देश पाखंड-शिरोमणि हो गया है। पृथ्वी पर कोई देश इतना
पाखंडी नहीं है। क्योंकि पृथ्वी पर किसी देश में इस तरह की मूर्खताओं का इतना
पुराना जाल नहीं है।
चंदूलाल
की अपनी पत्नी गुलाबो से एक दिन नोक-झोंक हो गई और वे गुलाबो से बोले, देखो,
इस तरह अंटशंट न बको अन्यथा मैं सभी मित्रों को बता दूंगा कि शादी
के पहले भी तुम्हारे साथ मेरे संबंध थे!
हां, बता दो।
डर किसे है। और मैं भी लोगों को बता दूंगी कि तुम कोई पहले व्यक्ति नहीं हो,
जिसके साथ मैं सोई थी!
सचाइयां
कुछ और हैं, छिपावटें कुछ और हैं!
चंदूलाल
ने अपनी पत्नी से कहा,
आज पड़ोस वाली दुकान से कोई चीज भूल कर मत खरीदना।
क्यों? पत्नी ने
पूछा।
इसलिए
कि वह उल्लू का पट्ठा हमारा तराजू ही एक दिन के लिए मांग कर ले गया है!
यहां
दुकानदार दो तरह के तराजू रखते हैं: खरीदने के लिए एक तरह का तराजू, बेचने के
लिए और तरह का तराजू।
ट्रेन
से उतरते हुए स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी--(रहे होंगे तुम्हारे लटपटानंद ब्रह्मचारी
जैसे ही)--ने एक छाता उठाया और बगल में दबा कर आगे बढ़ने लगे कि अचानक उन्हें एक
आदमी ने पकड़ा और कहा,
स्वामी जी, क्या आपका नाम नंदलाल है?
जी
नहीं। लेकिन क्यों?
बात
यह है स्वामी जी कि यह जो छाता आप ले जा रहे हैं, यह नंदलाल का है। और वह मैं
हूं!
अब
स्वामी जी से एकदम सीधा-सीधा कैसे कहो कि छाता चुराओ मत! तो बेचारे नंदलाल को यह
रास्ता निकालना पड़ा,
यूं उलटा कान पकड़ना पड़ा--कि आपका नाम नंदलाल तो नहीं है! यहां ऊपर
कुछ है, भीतर कुछ है।
चंदूलाल
कलकत्ता गए। दोत्तीन महीने लग जाने वाले थे; धंधे के काम से गए थे। बड़ी चिंता
थी गुलाबो की। अभी-अभी शादी हुई थी चंदूलाल की। जवान स्त्री को कैसे अकेला छोड़
जाएं?
भारतीय
शास्त्र कहते हैं,
जब स्त्री मां-बाप के पास हो, तो पिता उसकी
रक्षा करे। और जब विवाहित हो जाए, तो पति उसकी रक्षा करे। और
जब बूढ़ी हो जाए, तो बेटे उसकी रक्षा करें। क्या गजब का देश
है! यहां रक्षा ही रक्षा की जरूरत है, जैसे चारों तरफ भक्षक
बैठे हुए हैं! छोटी बच्ची हो, तो बाप रक्षा करे। जवान हो,
तो पति रक्षा करे। बूढ़ी हो जाए, फिर भी रक्षा
की जरूरत है। क्योंकि ये जो ब्रह्मचारी घूम रहे हैं; लंगोटी
कस कर बांधे हुए हैं; इनसे खतरा है ही।
यह
जो तथाकथित धार्मिक जाल फैला हुआ है, यह जो पाखंड फैला हुआ है--जहां
मुखौटे लगाए हुए लोग बैठे हैं, इनसे डर तो है ही। यह
संत-महात्माओं का देश! यह ऋषि-मुनियों का देश! यहां देवता पैदा होने को तड़पते हैं!
शायद इसीलिए तड़पते हों!
तो
चंदूलाल चिंतित थे कि किसकी रक्षा में छोड़ जाएं पत्नी को! आखिर उन्होंने सोचा कि
ब्रह्मचारी मटकानाथ,
उनके गुरु, इससे योग्य और कौन आदमी होगा! यही
उनकी शिक्षा कि लंगोट के पक्के रहो! इतनी शिक्षा देते हैं लंगोट के पक्के रहने की;
खुद तो लंगोट के पक्के होंगे ही। और अकसर जो लंगोट के पक्के नहीं
हैं, वे ही लंगोट के पक्के होने की शिक्षा देते हैं। वे
जोर-जोर से चिल्ला कर तुमको ही नहीं समझा रहे हैं; अपने को
भी समझा रहे हैं।
यह
दुनिया बहुत अजीब है!
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा है कि अगर कहीं चोरी हो जाए, तो जो आदमी बहुत शोरगुल मचा रहा हो
कि पकड़ो चोर को। मारो चोर को। कहां गया! कौन है! उसको पहले पकड़ लेना। क्योंकि बहुत
संभावना यह है कि इसी ने चोरी की हो।
यह
तो मैंने बहुत बाद में पढ़ा।
जब
मैं छोटा बच्चा था,
तो मेरे गांव में तरबूज-खरबूज बड़े सुंदर होते हैं। दूर-दूर तक उनकी
ख्याति है। मेरे गांव में जो नदी बहती है, तरबूजों-खरबूजों
के स्वादिष्ट होने के कारण उस नदी का नाम भी शक्कर हो गया है। नदी का नाम ही
शक्कर! इतनी मिठास तरबूजों-खरबूजों में होती है। और एक ककड़ी तो खास होती है--शक्कर
ककड़ी, जो हिंदुस्तान में कहीं होती ही नहीं। लाजबाव है वह!
मैंने सारे देश में घूम कर तरबूज-खरबूज चखे हैं, लेकिन बात
सच है कि शक्कर में जो, उस नदी के किनारे जो तरबूज-खरबूज
होते हैं, उनका कोई मुकाबला नहीं।
तो
बचपन से ही मैं तरबूज-खरबूज चुराने जाता था। बर्ट्रेंड रसेल को तो बहुत बाद में
मैंने पढ़ा। मगर यह तरकीब मैं पहले ही से उपयोग करता था।
दो-चार
लड़कों को लेकर घुस जाना तरबूज-खरबूज चुराने। और कभी पकड़ने की नौबत आ जाए, कि मालिक
आ जाए, तो मालिक के साथ हो जाना। इतने जोर से शोरगुल मचाना
कि पकड़ो। छोड़ो मत। यह आदमी हमेशा घुसता है! और मैं वहीं खड़ा हूं, बाकी तो भाग खड़े हों।
स्वभावतः
वह मालिक समझे कि यह आदमी तो चुरा सकता ही नहीं। यह तो यहीं खड़ा हुआ है। और साथ
उसका दूं मैं,
मालिक का--कि पकड़ो। पुलिस में ले जाओ!
एक
तरबूज-खरबूज के खेत में बार-बार यह हुआ। आखिर उसने कहा कि हर बार जब भी मैं आता हूं, तब यह
छोकरा हमेशा ही यहां होता है! और हमेशा ही चिल्लाता है कि पकड़ो!
उसने
मुझसे पूछा, लेकिन यह माजरा क्या है--कि जब भी मेरे खेत में चोरी होती है, तुम हमेशा ही यहीं होते हो! और तुम हमेशा ही मेरा साथ देते हो। एकाध बार
हो, तो संयोगवश। हो सकता है, तुम यहां रहे
हो! मगर हमेशा! और आधी रात को!
तो
मैंने कहा कि मैं यहीं घूमता रहता हूं कि कहीं किसी की चोरी वगैरह न हो जाए!
उसने
कहा कि तुम्हारा भी अजीब हिसाब है! तुम चोरी किसी की न हो जाए...!
मैंने
कहा, इसीलिए कि गांव में कोई बच्चा चोरी न कर पाए, मैं
यहीं घूमता हूं। आधी रात तक चक्कर लगाता रहता हूं। किसी के खेत में चोरी नहीं होनी
चाहिए।
उसने
मुझे दो तरबूज भेंट किए। उसने कहा, बेटा, ऐसे
ही--इसी तरह जीवन होना चाहिए! सात्विक जीवन!
बेचारे
चंदूलाल ने सोचा कि स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी की ही रक्षा में छोड़ जाएं पत्नी को।
सो छोड़ गए।
जब
तीन महीने बाद वापस लौटे,
तो तार वगैरह देने में चंदूलाल मानते नहीं। कौन खर्चा करे! एकदम चले
आए धड़ल्ले से। भीतर पहुंच गए। देखा तो ब्रह्मचारी मटकानाथ पत्नी से प्रेम कर रहे
हैं!
आग-बबूला
हो गए चंदूलाल। पत्नी की गर्दन पकड़ ली और कहा कि बस, नाता-रिश्ता खतम। गोली मार
दूंगा। यह सीता-सावित्री का देश--और यह तेरा व्यवहार! यह धोखेबाजी! और कसम खाई थी
तूने, जब गया था मैं कलकत्ता, कि धोखा
नहीं देगी!
पत्नी
तो घबड़ा गई। कुछ बोल न निकला! घिग्घी बंध गई।
और
तभी चंदूलाल स्वामी जी की तरफ मुड़ा और कहा कि स्वामी जी, हे
भूतपूर्व गुरुदेव! कम से कम इतना शिष्टाचार तो बरतो कि जब मैं अपनी पत्नी से बात
कर रहा हूं, तब तो तुम कम से कम यह डंड-बैठक लगाना बंद कर
दो! तुम प्रेम ही किए जा रहे हो! मैं उसकी गर्दन दबा रहा हूं! तुम यह भी नहीं
फिक्र कर रहे कि मैं मौजूद हूं। कम से कम अभी तो रुक जाओ!
मगर
दमित लोग। मौका पा जाएं,
तो रुक नहीं सकते। लंगोट के पक्के लोग--खतरनाक। इनसे जरा सावधान
रहना।
और
सदियों से यह होता रहा है। तुम्हारे सारे पुराण इन कथाओं से भरे हैं। तुम्हारे
ऋषि-मुनि इसी तरह के जीवन जीए हैं। तुम्हारे देवता भी आकाश से उतर आते हैं! उनके पास
सुंदर उर्वशियां हैं,
मेनकाएं हैं, उनसे भी ऊब जाते हैं; जमीन पर आ जाते हैं। किसी ऋषि-मुनि की पत्नी को धोखा दे जाते हैं। किसी
ऋषि-मुनि की पत्नी के साथ व्यभिचार कर जाते हैं। यह तुम्हारी सनातन परंपरा है! यह
तुम्हारा सनातन धर्म है!
यह
धोखाधड़ी इसलिए पैदा होती है कि मौलिक रूप से हम किसी आत्मिक क्रांति से तो गुजरते
नहीं; बस, ऊपर से आरोपण कर लेते हैं।
अब
तुम्हारे स्वामी तुम से कह गए हैं कि अपने पास केवल तीन ही वस्त्र रखो और कुछ
संग्रह न करो। संग्रह का संबंध कितनी चीजें तुम रखते हो, इससे नहीं
है। तुम्हारा तीन से इतना मोह हो सकता है, जितना किसी का
अपने पूरे साम्राज्य से न हों।
जनक
के जीवन में यह प्यारी कथा है। एक संन्यासी उसके गुरु के द्वार भेजा गया कि जा, अंतिम
शिक्षा तू जनक से ग्रहण कर। उसे तो बहुत दुख हुआ। गुरु ने कहा था, इसलिए बेमन से आया। दुख इसलिए हुआ कि मैं संन्यासी, और
इस भोगी सम्राट से, जो धन, यश, पद-प्रतिष्ठा की दौड़ में लगा है--इससे शिक्षा लेने जाऊं! मगर गुरु ने कहा,
तो मजबूरी थी, तो गया। और जब पहुंचा जनक के
दरबार में, तो और दंग रह गया। वहां महफिल जमी थी। शराब चल
रही थी। नृत्य हो रहा था। जनक बीच में बैठे थे। दरबारी मस्त हो कर डाले रहे थे।
जाम पर जाम चल रहे थे।
जाम
चलने लगे दिल मचलने लगे
बाद
मुद्दत वो महफिल में क्या आ गए!
जैसे
गुलशन में बहार आ गई। बज्म लहरा गई!
वहां
तो शराबघर का वातावरण था। संन्यासी तो बहुत बेचैन हुआ। लेकिन जनक ने कहा, अब आ गए
हो, तो कम से कम रात रुको, विश्राम
करो। सुबह चले जाना।
सुबह
संन्यासी को लेकर पीछे ही बहती हुई नदी में स्नान करने जनक गया। कपड़े दोनों ने
उतार कर रखे। स्वामी के पास तीन ही कपड़े रहे होंगे। कपड़े बाहर रखे तट पर और दोनों
नदी में उतरे। और जब दोनों नदी में उतरे, तो स्वामी एकदम चिल्लाया कि देखो,
क्या हो गया! तुम्हारे महल में आग लगी है!
सम्राट
ने कहा, लगी रहने दो। इस संसार में तो सभी चीजों को नष्ट हो जाना है। हम अपना
स्नान जारी रखें!
स्वामी
ने तो एकदम दौड़ लगा दी किनारे की तरफ। वह बोला कि तुम जानो तुम्हारा महल जाने।
मेरे तीन कपड़े! वे बिलकुल दीवाल के पास रखे हैं। कहीं जल न जाएं!
सम्राट
ने कहा, थोड़ा सोचो। मेरा महल जल रहा है और तुम सिर्फ तीन कपड़ों के पीछे भागे जा
रहे हो! किसी आसक्ति ज्यादा है? किसका मोह ज्यादा है?
आसक्ति
और मोह का संबंध मात्रा से नहीं होता। आसक्ति और मोह का संबंध बोध से होता है। तुम
तीन कपड़ों से बंध सकते हो। एक लंगोटी से बंध सकते हो। उस एक लंगोटी को ऐसे पकड़
सकते हो, जैसे कि कोई साम्राज्य हो। और कोई व्यक्ति पूरे साम्राज्य के रहते अलिप्त
रह सकता है। अलिप्त होने में अपरिग्रह है; लिप्त होने में
परिग्रह है।
मात्राओं
में मत उलझो। मात्राओं से क्रांति नहीं होती।
गरीब
आदमी, भिखमंगा, अपनी रूखी-सूखी रोटी को भी ऐसे कस कर पकड़े
रखता है, उतना ही काफी है; उसमें ही
उसका सारा मोह लग जाता है। लेकिन हम गणित से जी रहे हैं। हम मात्रा की भाषा में
सोचते हैं। और जीवन की क्रांति गुणात्मक होती है--मात्रात्मक नहीं, परिमाणात्मक नहीं।
ये
क्या पागलपन की बातें हैं कि अपने पास केवल तीन ही वस्त्र रखो। अरे, तीन रखो
कि तेरह रखो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। सवाल यह है कि तुम
वस्त्र नहीं हो--यह स्मरण रखो। वस्त्र ही नहीं; तुम शरीर भी
नहीं हो--यह स्मरण रखो। शरीर ही नहीं;
तुम मन भी नहीं हो--यह स्मरण रखो। फिर जितने वस्त्र रखना हो,
रखे रहो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। पहनोगे तो एक ही
वस्त्र। कोई अंतर नहीं पड़ता।
लेकिन
बड़ा अजीब हिसाब है इस देश का। हम उलझ गए हैं बाहरी बातों में। और हमारे सब मापदंड
बाहरी हो गए। तो हम पूछते हैं कि झोपड़े में है, तो महात्मा है। और महल में
है...तुम जनक से चूक जाते। जनक तुम्हें महात्मा नहीं मालूम होते। जनक सच में ही
महात्मा थे। तुम्हारे बहुत से महात्माओं से कई गुने ज्यादा, गुणात्मक
रूप से भिन्न थे।
कृष्ण
तो साम्राज्य के बीच रहे। तीन कपड़े थे कृष्ण के पास--तुम सोचते हो? लेकिन
मुक्त--परिपूर्ण मुक्त। और जिनके पास तीन कपड़े हैं, वे मुक्त
हैं? तब तो ये सारे देश में जो बिलकुल नंगे-भूखे हैं,
इन सब को स्वर्ग मिलने वाला है! फिर तो पशु-पक्षी जिनके पास एक भी
वस्त्र नहीं हैं, ये तो तुम से आगे रहेंगे। लटपटानंद पीछे
छूट जाएंगे! गधे-घोड़े आगे निकल जाएंगे! स्वर्ग में पहले गधे-घोड़े प्रवेश करेंगे;
फिर कहीं लग जाए मौका लटपटानंद को, तो लग जाए;
क्योंकि वे तीन कपड़े तो पकड़े ही होंगे! और लंगोट तो कस कर बांधा ही
होगा उन्होंने!
तुम्हें
मेरी बातें विचित्र लग सकती हैं, क्योंकि मेरी बातें सत्य हैं और सत्य सदा
विचित्र लगता है।
अब
क्या पागलपन की बात है कि वे तुम से कहते थे कि हर स्त्री को अपनी मां-बहन-बेटी की
तरह देखो! मां का क्या मतलब होता है? मां का मतलब होता है--तुम्हारे
पिता की पत्नी! हर स्त्री को अपने पिता की पत्नी समझोगे, कुछ
पिता का भी विचार करो! पिता को नर्क भिजवाना है!
बेटी
का क्या मतलब होता है?
बिना पत्नी के बेटी कहां से लाओगे? और जब सभी
स्त्रियां तुम्हारी बेटियां होंगी, तो कोई चमत्कार करना
पड़ेगा, तब बेटी पैदा होगी।
बेटी, कि मां,
कि बहन--सब कामवासना के ही रिश्ते हैं। मां भी कामवासना का ही
रिश्ता है; तुम्हारे पिता की पत्नी है वह। तुमसे उससे पैदा
हुए हो। कामवासना से ही पैदा हुए हो। और बहन से भी कामवासना का ही रिश्ता है। तुम
एक ही गर्भ से आए हो; एक ही कामवासना के स्रोत से आए हो। और
क्या रिश्ता है?
और
बेटी का क्या मतलब?--कि तुम्हारी कामवासना से जो पैदा होगी।
सिर्फ
पत्नी को छोड़कर बाकी सबको बचा लिया। और बिना पत्नी के तीनों नहीं हो सकते। यह मजा
देखो! यह जरा मूढ़ता देखो! पत्नी से ही मां होती सकती है; और पत्नी
से ही बेटी हो सकती है। उसी और पत्नी के ही होने से बहन हो सकती है। उसी पत्नी को
छोड़ दिया और बाकी तीनों बचा लिए! वृक्ष तो काट दिया, पत्ते
बचा लिए, फूल बचा लिए, फल बचा लिए!
इनमें प्राण न रह जाएंगे।
और
जिस व्यक्ति को साक्षी-भाव है, वह क्यों ऐसा सोचे कि कोई बहन है, कोई मां है, कोई बेटी है; स्त्री
स्त्री है; न पत्नी, न बहन, न मां, न बेटी। ये नो ही क्यों बांधने? इन नातों से मुक्त होना है--कि ये नाते बनाने हैं!
सिर्फ
पत्नी भर से भय है इन तथाकथित ब्रह्मचारियों को। और किसी से भय नहीं है। उस पत्नी
से बचने के लिए क्या-क्या तरकीबें निकालते हैं!
मैंने
सुना है: चंदूलाल...रास्ते पर भीड़भाड़ थी। सरकस की तरफ लोग जा रहे थे। सरकस का पहला
शो छूटा था। दूसरा शुरू होने का था। तो बड़ी भीड़मभक्का थी। एक सुंदर स्त्री को देख
कर संयम न साध सके। लंगोट ढीला हो गया! कुछ ज्यादा नहीं किया, एक
च्यूंटी ले दी। अब च्यूंटी ऐसा कोई बहुत बड़ा पाप नहीं है। मगर स्त्री ने चीख-पुकार
मचा दी एकदम; हालांकि स्त्री भी वहां गई ही इसलिए होगी कि
कोई च्यूंटी ले दे। क्योंकि सजी-बजी...ऐसी सजी-बजी कि कोई च्यूंटी न ले, तो दुखी लौटे घर। कोई धक्का न मारे, तो सोचे कि अब
मैं सुंदर नहीं दिखाई पड़ती! तो मेरा सारा साज-सिंगार व्यर्थ गया!
तो
चंदूलाल ने उसकी आकांक्षा पूरी कर दी। च्यूंटी ले दी। मगर एक पुलिस वाले ने पकड़
लिया और ऐसी कुटाई की चंदूलाल की कि चीं बुलवा दी! जमीन पर गिरा कर छाती पर बैठ
गया! उसने भी मौका नहीं छोड़ा। उसको पिटाई करने में मजा आ रहा होगा! उसने यह मौका
देख कर पिटाई कर दी। धर्म की रक्षा के लिए तो पिटाई की जा सकती है! और भीड़ ने भी
उसका साथ दिया। और भीड़ ने भी रसीद किए कुछ हाथ। क्योंकि ऐसा मौका कौन छोड़े!
जिन-जिन के दिल में गुबार था, जिन-जिन को क्रोध था--किसी पर भी रहा
हो--उन्होंने चंदूलाल की पिटाई कर दी। कपड़े फट गए। लहूलुहान हो गया मुंह। खरोंचें
आ गईं।
और
वह पुलिस वाला छाती पर बैठा है और दे रहा धमाधम और कह रहा कि देख, अब आज से
हर एक स्त्री को अपनी मां-बहन-बेटी समझ।
और
तभी गुलाबो वहां आई। और चंदूलाल से बोली कि ऐ पप्पू के पिता, ज्यादा
चोट वगैरह तो नहीं आई?
चंदूलाल
ने पुलिस वाले की तरफ देखा और कहा कि नहीं बहनजी, बिलकुल चोट नहीं आई!
जब
सभी स्त्रियों को अपनी बहनजी मानना है, और पुलिस वाला यहीं बैठा है! अभी
फिर चढ़ बैठेगा छाती पर कि फिर तुमने हरकत की! तो वह गुलाबो, अपनी
पत्नी तक को बहनजी कह रहा है!
यह
क्या पागलपन है! यह जबर्दस्ती के आरोपण, जबर्दस्ती का आचरण! कोई आवश्यकता
नहीं है किसी स्त्री को मां मानने की, या बहन मानने की,
या बेटी मानने की, या पत्नी मानने की। कोई
आवश्यकता नहीं है। वह वह है; तुम तुम हो।
पुरुषों
के बाबत नहीं कहते तुम से तुम्हारे ब्रह्मचारीजी कि हर एक पुरुष को अपना पिता मानो, बेटा मानो,
भाई मानो! क्यों? जब स्त्रियों के पीछे इतने
दीवाने हैं, तो पुरुषों का भी तो कुछ इंतजाम कर दो! लेकिन
पुरुषों के संबंध में कुछ नहीं कहते। क्यों? क्योंकि आरोपण
करने की कोई जरूरत नहीं। नैसर्गिक वासना को दबाना है।
साक्षी
बनो, कन्हैयालाल द्विवेदी! इन व्यर्थ की बातों से कुछ भी न होगा। लटपटानंद नर्क
में पड़े होंगे, अगर कहीं कोई नर्क है।
अब
तुम पूछते हो कि आपकी बातें मुझे आकर्षित करती हैं।
सौभाग्यशाली
हो कि बुद्धि बिलकुल भ्रष्ट नहीं हो गई; कि थोड़ा बहुत बोध बाकी है; कि थोड़ी बहुत समझ शेष है। कि लटपटानंद बिलकुल बर्बाद नहीं कर गए तुम्हें।
और
तुम कहते हो,
विचित्र भी लगती हैं! विचित्र इसलिए लगती हैं कि वे लटपटानंद...!
लटपटानंद विचित्र नहीं लगे, तो मेरी बातें विचित्र लगेंगी
ही। जरा नाम तो देखो--लटपटानंद! और विचित्र न लगा! और मेरी बातें विचित्र लगेंगी
फिर। क्योंकि चुनाव करना पड़ेगा अब। तय करना होगा।
और
तुम निश्चित भाग्यशाली हो कि तुम कहते हो कि उनकी शिक्षा के अनुसार चल नहीं पाया।
अच्छा हुआ कि नहीं चल पाए। चल पाते, तो पागलखाने में होते। चल पाते,
तो बस लटपटानंद जैसे ही कुछ उपद्रव में फंस जाते। बच गए--जान बची और
लाखों पाए, लौट कर बुद्धू घर को आए!
अब
तुम पूछ रहे हो कि सत्य की खोज के लिए अनुशासन चाहिए या उन्मुक्त जीवन? आत्मानुशासित
उन्मुक्त जीवन। अनुशासन और उन्मुक्त जीवन में तो विरोध है। अनुशासन दूसरों का--और
उन्मुक्त जीवन अपना--इसलिए विरोध होने वाला है। लेकिन मेरा शब्द समझो:
आत्मानुशासित उन्मुक्त जीवन। स्वयं के विवेक के प्रकाश में जीया गया स्वतंत्र
जीवन। कोई विरोध नहीं है।
अनुशासन
और उन्मुक्त जीवन में विरोध है। अनुशासन का अर्थ: दूसरे जो कह रहे हैं--ऐसा करो।
और तुम्हारे प्राण कुछ और करना चाहते हैं, तो संघर्ष है। और जिस चीज से भी
तुम्हारे भीतर संघर्ष पैदा होता है, वही चीज तुम्हें कमजोर
करती है, नष्ट करती है, भ्रष्ट करती
है।
मैं
कहता हूं: आत्मानुशासित उन्मुक्त जीवन। तुम्हारा अनुशासन तुम्हारे अपने ध्यान से
आना चाहिए, तुम्हारे बोध से आना चाहिए। फिर उन्मुक्त जीवन में और अनुशासन में कोई
विरोध न रह जाएगा। क्योंकि जहां से उन्मुक्त जीवन आता है, वहीं
से तुम्हारा अनुशासन भी आएगा। तब क्रांति घटित होती है। तब तुम्हारे भीतर एक संगीत
बजने लगता है; एक तालमेल बैठ जाता है। सब विरोध गिर जाते
हैं। सब द्वंद्व गिर जाते हैं।
उसी
विरोध के कारण तुम्हें अब यह सवाल उठा है कि मैं दुविधा में हूं कि संन्यास लूं
अथवा विवाह करूं! यह अथवा की बात ही नहीं। संन्यास भी लो--और विवाह भी करो।
क्योंकि संन्यास का विवाह से कुछ विरोध नहीं। असल में संन्यास लेकर अगर विवाह न
किया, तो लटपटानंद हो जाओगे।
संन्यास
लो और विवाह भी करो। संन्यस्त हो कर संसार में रहो। जैसे कमल जल में रहता है। यही
संन्यास की ठीक-ठीक परिभाषा है। भगोड़ापन नहीं। संसार से भागना नहीं है। संसार को
बोधपूर्वक जीओ। संसार परमात्मा की अनुकंपा है; उसके द्वारा दिया गया एक विराट
अवसर है। इसके सब रंग-रूप पहचानो। इसकी सब गतिविधियों को जीओ। इतना ही खयाल रहे कि
बेहोशी में नहीं। बस। होश में जीओ। होशपूर्वक जीओ।
होशपूर्वक
जो भी किया जाएगा,
उससे बंधन पैदा नहीं होता; उससे मुक्ति आती
है। और बेहोशी में जो भी किया जाएगा, उससे बंधन आता है,
मुक्ति नहीं आती। बेहोशी में तुम संन्यास भी ले लो; घर से भी भाग जाओ, तो भी तुम बंधे ही रहोगे--मुक्त
नहीं हो सकते। क्योंकि बेहोशी बंधन है।
संसार
नहीं बांधे हुए है तुम्हें,
तुम्हारी मूर्च्छा बांधे हुए है। इसलिए मेरे पास तो एक ही शिक्षा
है--एकमात्र--और वह है कि बेहोशी तोड़ो, मूर्च्छा तोड़ो,
जागरण का सूत्र पकड़ो। फिर जागरण का सूत्र अगर तुमसे कहे कि विवाह की
कोई जरूरत नहीं, तो मत करना। और जागरण का सूत्र तुमसे कहे कि
नहीं, अभी कुछ वासना भीतर शेष है, जिसे
जी कर ही मैं पार कर सकूंगा, तो विवाह करना--बिना किसी
अपराध-भाव के। फिर तुम्हारे जागरण से जो भी तुम्हें ठीक-ठीक लगे, वह करना। लेकिन तुम अपनी मालकियत से करना, मेरे कहने
से नहीं।
इसलिए
मैं अपने संन्यासी को कोई आचरण नहीं देता हूं, कोई अनुशासन नहीं देता हूं,
क्योंकि मैं कौन हूं--किसी के ऊपर अपने को थोपूं! मैं तो सिर्फ
बोधमात्र देता हूं--इशारा। इसलिए मेरा संन्यास सिर्फ उनके लिए है, जिनके पास बुद्धिमत्ता है, जिनके पास बोध को जगाने
का साहस और क्षमता है। यह कायरों के लिए नहीं है।
और
कायरों को रोकने के लिए मैंने सारा इंतजाम कर रखा है, कि उनको
दरवाजे के बाहर ही रोक दिया जाए।
जो
सज्जन लुधियाना से आए हैं जैन मित्र, उन्होंने यह भी कहा है कि आपसे
मिलने की सब को सुविधा होनी चाहिए। क्यों? क्योंकि सुविधा
होनी चाहिए? सिर्फ उसको मिलने की सुविधा होगी, जो इतनी बुद्धिमत्ता प्रदर्शित करे, जो इतना ध्यान
प्रदर्शित करे कि मेरे साथ चल सके।
हर
किसी को क्यों मिलने की सुविधा होनी चाहिए! मेरा समय नष्ट करने की हर किसी को
क्यों सुविधा होनी चाहिए! आखिर मैं भी स्वतंत्र हूं। अगर तुम मुझसे मिलने को
स्वतंत्र हो,
तो मैं भी तो स्वतंत्र हूं कि तुमसे मिलूं या न मिलूं। आखिर मैं
अपने जीवन का मालिक हूं। मैं अपनी चेतना का मालिक हूं।
मैं
उनसे मिलना चाहता हूं,
जिनके जीवन में कुछ दिखता है कि हो सकता है। मैं सिर्फ संन्यासियों
से मिलना चाहता हूं। हर किसी से नहीं मिलना चाहता। इसलिए तुम यह मत सोचना कि कोई
और तुम्हें रोक रहा है मुझसे मिलने से।
इस
आश्रम में जो भी हो रहा है,
वह मेरे इशारे पर हो रहा है। इसलिए इस आश्रम में किसी भी चीज पर तुम
यह सोच कर मत बैठ रहना कि कोई दूसरा रोक रहा है तुम्हें मेरे पास आने से। कोई
रोकने वाला नहीं है। जिस दिन मैं मिलना चाहूं, उस दिन कोई
नहीं रोकेगा।
मैं
नहीं मिलना चाहता हर किसी से। भीड़भाड़ से मुझे क्या लेना-देना है! मैं कोई राजनेता
नहीं हूं कि भीड़भाड़ इकट्ठी करूं। राजनेता तो पैसा खर्च कर के भीड़भाड़ इकट्ठी करते
हैं। यहां तो तुम्हें आने के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है।
मैं
भी बीस वर्षों तक हर किसी को आने दे रहा था। फिर मैंने देखा कि यह तो मूढ़ों की
जमात है! इस भीड़भाड़ में सिर्फ मेरा समय खराब हो रहा है। मैं उनके काम आ सकता हूं, जिनमें
साहस हो। और यह कायरों की जमात इकट्ठी हो जाती है; और इनकी
भीड़ में वे मुझ तक पहुंच ही नहीं पाते, जिनको पहुंचना चाहिए
था। तो मुझे भीड़ को छांटना पड़ा।
और
मेरी अपनी तरकीबें हैं छांटने की। मैं एक सेकेंड में छांट देता हूं। जरा-सी बात से
छांट देता हूं। मुझे कोई बहुत उपाय नहीं करना पड़ता।
जैनों
की मेरे पास भीड़ थी। दो दिन में छांट दी! बस, जैन-धर्म के संबंध में कुछ कह दिया
कि वे भाग खड़े हुए! गांधीवादियों की भीड़ थी मेरे पास। बस, गांधी
के संबंध में कुछ कह दिया कि वे भाग खड़े हुए! मुझे जिसको छांटना हो, कुछ करना नहीं पड़ता। एक बात कह दूंगा, और वे अपने आप
भाग जाएंगे।
मैं
तो उनको ही अपने पास चाहता हूं, जो इस अग्निपथ पर चलने को राजी हैं; उन थोड़े से लोगों के लिए। हर किसी के लिए कोई उपाय नहीं है मुझसे मिलने
का। न कोई जरूरत है। न मुझे कोई आकांक्षा है। मैं कुछ नेता नहीं हूं। मुझे
तुम्हारे मत नहीं चाहिए; न वोट चाहिए। मैं क्यों फिक्र करूं
भीड़भाड़ की!
इसलिए
मुझे जो कहना है,
जैसा कहना है, वैसा ही कहूंगा। रत्ती भर
समझौता नहीं करूंगा। समझौता करे राजनेता। और तुम्हारे जो धर्मगुरु समझौता करते हैं,
वे सब राजनेता हैं। समझौते की भाषा ही राजनीति की भाषा है।
मैं
बिलकुल गैर-समझौतावादी हूं। मुझे जो कहना है, जैसा कहना है, उसको धार दे कर कहूंगा। गर्दन कटती हो--कटती हो, कट
जाए। मेरी कटे--मेरी कट जाए। तुम्हारी कटे--तुम्हारी कट जाए! कोई फिक्र नहीं।
मैं
अपने संन्यासियों को कोई अनुशासन नहीं देता हूं। हां, उनको
आत्मा को जानने की कुंजी जरूर देता हूं। वही ध्यान है। और जो व्यक्ति अपने को
पहचानने लगता है, उसके आचरण में अपने आप क्रांति हो जाती है।
फिर उसे दूध पीना हो--दूध पीए। फल खाने हों--फल खाए। मांसाहार करना हो--मांसाहार
करे। मैं कुछ नहीं कहता।
लेकिन
तुम यहां देखो। मेरे पास लाखों मांसाहारी आए हैं और चुपचाप शाकाहारी हो गए हैं। और
मैंने एक दिन नहीं कहा किसी को कि शाकाहारी हो जाओ। इसको मैं क्रांति कहता हूं।
मैंने किसी से कहा नहीं कि तुम शाकाहारी हो जाओ।
यहां
तो मेरे पास मांसाहारियों की सारी दुनिया से...क्योंकि सारी दुनिया मांसाहारी है।
जैन
अपने बच्चों को पढ़ने पश्चिम भेजते हैं। वे सब जा कर मांसाहारी हो जाते हैं! क्या
खाक अहिंसा सिखाई थी उनको! मैं उन डाक्टरों को जानता हूं, परिचित
हूं, वे मेरे मित्र हैं, जो पश्चिम
पढ़ने गए। वहां से मांसाहार करना सीख कर आ गए। अब चोरी-छिपे मांसाहार करते हैं।
अंडे खाते हैं और जैन मंदिर भी जाते हैं! ऊपर-ऊपर अहिंसा परमोधर्मः भी चलता है।
ये
न गए होते पश्चिम,
तो अभी भी शाकाहारी होते। मगर वह शाकाहार होना झूठ होता। पश्चिम ने
इनका झूठ उखाड़ दिया। इनकी झीनी-सी पर्त पाखंड की फाड़ दी। पश्चिम में जाकर इनको समझ
में आ गया कि मांसाहार करना शरीर के लिए शक्तिशाली है। बस, वहां
से मांसाहार करना सीख कर आ गए! गई सब शिक्षा। गया सब अनुशासन। मगर अभी भी बाहर से
छिपाना पड़ता है। अभी भी बाहर तो वही मुखौटा लगाए रहते हैं।
मैं
एक डाक्टर के घर मेहमान था। जब मैंने उनके फ्रिज में अंडे देखे, तो मैंने
कहा कि तुम जैन हो और अंडे कैसे! उन्होंने कहा, अब आपसे क्या
छिपाना। कम से कम आपसे तो मैं सच कह सकता हूं कि मैं अंडे खाता हूं। मगर और किसी
को नहीं बता सकता। चोरी-छिपे खाता हूं। लेकिन अंडा बिना मैं नहीं चल सकता। पश्चिम
गया। पांच साल पश्चिम में रहा। अंडे खाना सीख गया। और बहुत कुछ भी खाया। और सब तो
छोड़ना पड़ा। क्योंकि यहां चोरी से और चलाना बहुत मुश्किल है। मगर अंडे चला लेता
हूं। यह मेरा जो कंपाउंडर है, चुपचाप ले आता है।
मगर
बाहर अभी भी वे दिगंबर जैन मंदिर में पूजा करते भी देखे जाते हैं। और अहिंसा
परमोधर्म की तख्ती लगा रखी है उन्होंने अपने बैठकखाने में!
इतना
पाखंड सजा कर चलना पड़ता है।
यहां
मेरे पास सारी दुनिया से लोग आए हुए हैं। मैंने किसी को कहा नहीं कि मांसाहार
छोड़ना। कभी कहूंगा भी नहीं। लेकिन जो व्यक्ति भी ध्यान में उतरता है, उसे एक
बात साफ होनी शुरू हो जाती है कि अपने जीभ के थोड़े से सुख के लिए किसी का जीवन
लेना? बात ही मूर्खतापूर्ण मालूम पड़ने लगती है। गिर जाती है
अपने से।
मेरे
पास जो लोग आए हैं,
उनमें से अधिकतम लोग शराब पीने वाले लोग रहे हैं। क्योंकि पश्चिम
में शराब ऐसी पी जाती है, जैसे यहां पानी पीया जाता है।
शराब
कोई पाप नहीं है दुनिया में। होनी भी नहीं चाहिए। शाकाहारी है। दूध से ज्यादा
शाकाहारी है। अंगूर का ही रस है। फलाहार कहो! थोड़े सड़े हुए फलों का आहार है। मगर
अपनी-अपनी मौज। किसी को सड़े फल अच्छे लगते हैं; तो क्या करोगे! ताजे अंगूर नहीं
खाएंगे; सड़ा कर खाएंगे, तो शराब बन
जाएगी। मगर दूध से तो ज्यादा सात्विक है।
फिर
यहां आ कर उनकी शराब अपने आप छूटने लगती है; अपने आप गिरने लगती है। क्योंकि
ध्यान में जैसे-जैसे जाते हैं, एक बात समझ में आती है कि हम
शराब क्यों पीते थे। पीते थे कि दुख भूल जाए। अब दुख ही नहीं बचा, तो भुलाना क्या है! और एक बात समझ में भी आती है कि अब आनंदित हो रहा है
जीवन; प्रफुल्लित हो रहा है। शराब पीते हैं, तो आनंद भूल जाता है। आनंद को कौन भुलाना चाहता है!
शराब
का काम भुलाना है। दुखी हो,
तो दुख को भुला देगी। आनंदित हो--आनंद को भुला देगी। मगर आनंद को
कौन भूलना चाहता है! जो आनंद को नहीं भूलना चाहता, वह शराब
पीना अपने आप बंद कर देगा।
मैं
किसी को कहता नहीं कि शराब पीना बंद करो। मैं किसी को कहता नहीं कि मांसाहार मत
करो। इस तरह की टुच्ची और छोटी बातें मैं करता नहीं।
मैं
तो मूल बात दे देता हूं। फिर तुम्हारा जीवन है। दीया तुम्हें दे दिया, अब इसकी
रोशनी में तुम्हें जहां जाना हो। दीवाल से टकराना हो--तो टकराओ। दरवाजे से निकालना
हो--तो निकल जाओ। इतना मेरा जानना है कि जिसके हाथ में दीया है, वह दरवाजे से निकलता है--दीवालों से नहीं टकराता। और जिसके हाथ में दीया
नहीं है, उससे तुम लाख कहो कि दीवालों से मत टकराना। वह
टकराएगा।
संन्यास
भी लो--ध्यान भी करो। और विवाह से कुछ विरोध नहीं है। विवाह में कुछ बुरा नहीं है।
और ध्यानी अगर विवाह करे,
तो उसके विवाह में भी एक सुगंध होती है। क्योंकि उसके विवाह में भी
बंधन नहीं होता; स्वतंत्रता होती है। उसके प्रेम से
प्रार्थना पैदा होने लगती है। उसके संभोग से भी समाधि की गंध आने लगती है, सुगंध आने लगती है।
और
दमित चित्त का व्यक्ति आंख बंद कर के योगासन मार कर बैठ जाए, तो भी
क्या करेगा! भीतर वही कामवासना की आंधियां और तूफान चलते रहते हैं।
असली
क्रांति भीतर है--बाहर नहीं। बाहर धोखा है, भीतर क्रांति है। कन्हैयालाल
द्विवेदी, अगर जीवन को क्रांति से गुजारना है, अगर है साहस--तो संन्यास।
और
मैं नहीं कहता कि विवाह मत करना। इसलिए घबड़ाओ मत कि संन्यास लेने से फिर विवाह
नहीं कर पाऊंगा। यही तो मेरे संन्यास की विशिष्टता है कि तुम्हें संसार से तोड़ता
ही नहीं। मैं जोड़ने को हूं--तोड़ने को नहीं। परमात्मा से जोड़ना है। और यह संसार भी
परमात्मा का है;
क्यों इससे टूटना! अहोभाव से जुड़ो। धन्यवाद से जुड़ो। अनुग्रह से
जुड़ो।
अगर
तुम्हें परमात्मा की इस कृति में रस नहीं है, तो क्या खाक परमात्मा में रस होगा!
जब तुम संगीत को प्रेम नहीं करते, तो संगीतज्ञ को कैसे प्रेम
करोगे? और नृत्य को प्रेम न नहीं करते, तो नर्तक को कैसे प्रेम करोगे?
यह
परमात्मा का नृत्य है। ये पक्षियों के कंठ से फूटते हुए गीत, ये
वृक्षों पर खिले हुए फूल--ये सब परमात्मा के रंग हैं; ये सब
परमात्मा के ढंग है। इनको प्रेम करो। यह व्यक्तियों का सौंदर्य--स्त्रियों का,
पुरुषों का सौंदर्य--यह सब परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। इससे
भागना नहीं है। हां, इसे जाग कर जीना है। और जागने से सब हो
जाता है।
चौथा प्रश्न: भगवान, मैं एक युवती के प्रेम में था। वह
मुझे धोखा दे गई और किसी और की हो गई। अब मैं जी तो रहा हूं, किंतु जीने का कोई रस न रहा। मैं क्या करूं?
नगेंद्र!
प्रेम
में थे या स्त्री पर कब्जा करने की आकांक्षा में थे? क्योंकि तुम्हारी भाषा कहती
है कि वह मुझे धोखा दे गई और किसी और की हो गई! प्रेम को इससे क्या फर्क पड़ता है!
अगर वह युवती किसी और के साथ ज्यादा सुखी है, तो तुम्हें
प्रसन्न होना चाहिए। क्योंकि प्रेम तो यही चाहता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं,
वह ज्यादा सुखी हो, वह आनंदित हो। अगर वह
युवती तुम्हारे बजाय किसी और के पास ज्यादा आनंदित है, तो
इसमें रस खो देने का कहां कारण है!
मगर
हम प्रेम वगैरह नहीं करते। प्रेम के नाम पर हम कुछ और करते हैं--कब्जा--मालकियत।
तुम पति होना चाहते थे। पति यानी स्वामी। और वह किसी और की हो गई!
और
मजा यह है कि तुम्हें उससे प्रेम था। तुमने अपने प्रश्न में यह तो बताया ही नहीं
कि उसे भी तुमसे प्रेम था या नहीं। तुम से होता, तो तुम्हारे साथ होती।
तुम्हें प्रेम था, इससे जरूरी तो नहीं कि उसे भी प्रेम हो।
प्रेम कोई जबर्दस्ती तो नहीं। तुम्हें था, यह तुम्हारी
मर्जी। और उसे नहीं था, तो उसकी भी तो आत्मा है, उसकी भी तो स्वतंत्रता है। अब किसी को किसी से प्रेम हो जाए और दूसरे को
प्रत्युत्तर देना न हो, तो कोई जबर्दस्ती तो नहीं है।
तुम
प्रेम करने को स्वतंत्र हो,
लेकिन किसी के मालिक होने को स्वतंत्र नहीं हो। तुम किसी के जीवन पर
छा जाना चाहो, हावी होना चाहो, यह तो
अहंकार है--प्रेम नहीं है। प्रेम जानता है--स्वतंत्रता देना।
खुश
होओ कि अगर वह कहीं भी है और प्रसन्न है।...यही तो तुम चाहते थे कि वह प्रसन्न हो
जाए। लेकिन नहीं। शायद तुम यह नहीं चाहते थे। तुम चाहते थे कि वह तुम्हारी छाया बन
कर चले। तुम्हारे अहंकार की तृप्ति हो। वह तुम्हारा आभूषण बने। तुम दुनिया को कह
सको कि देखो,
मैंने इस युवती को जीत लिया! वह तुम्हारी विजय का प्रतीक बने,
पताका बने। यह तुम्हारे अहंकार का ही आयोजन था। और अहंकार जहां है,
वहां प्रेम नहीं है।
और
शायद इसी अहंकार के कारण वह किसी और की हो गई हो। समझदार रही होगी। अच्छा
किया--किसी और की हो गई। तुम्हारी होती, तुम सताते। तुम्हारा अहंकार बता
रहा है कि तुम उसकी छाती पर पत्थर बन कर बैठ जाते।
अब
तुम कह रहे हो,
अब मैं जी तो रहा हूं, किंतु जीने का कोई रस न
रहा। युवती को देखा था, उसके पहले जीते थे कि नहीं? तब रस था कि नहीं? तो अब क्या बिगड़ गया! जैसे पहले
जीते थे बिना युवती के; युवती को जाना नहीं था, तब भी तो जीते थे न!
मेरे
पास लोग आ कर पूछते हैं कि हमें बड़ा डर लगता है कि मरने के बाद क्या होगा? मैं उनसे
कहता हूं कि जन्म से पहले का तुम्हें कुछ डर लगता है? तुम थे
या नहीं--कुछ पता है? वे कहते हैं, कुछ
पता नहीं।
कुछ
हर्जा है नहीं थे तो?
उन्होंने कहा, क्या हर्जा है! जब पता ही नहीं,
तो रहे हों या न रहे हों। मैंने कहा, तो बस
यही मौत के बाद होगा, जो जन्म के पहले था। इसलिए घबड़ाहट क्या
है!
जन्म
के पहले का तुम्हें कुछ पता नहीं है; मौत के बाद का भी तुम्हें कुछ पता
नहीं होगा। तो चिंता क्या कर रहे हो!
युवती
नहीं मिली थी,
उसके पहले भी तुम जिंदा थे--और बड़ा रस था। और युवती को देखकर सारा
रस खो गया! ऐसे गुलाम हो? और कल का तो भरोसा रखो--कल कहीं
फिर कोई दूसरी युवती मिल जाए--उससे भी सुंदर, उससे भी
आकर्षक--तो तुम परमात्मा को धन्यवाद दोगे कि अच्छा हुआ कि उस बाई से छुटकारा हो
गया!
मुल्ला
नसरुद्दीन अपनी पत्नी के साथ जा रहा था। एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी। खटक गई; आंख में
अटक गई। पत्नी तो ऐसी चीजें एकदम से पहचान लेती हैं।
पत्नी
ने फौरन मुल्ला से कहा कि ऐसी सुंदर स्त्री को देखकर तुम्हें जरूर भूल ही जाता
होगा कि तुम विवाहित हो!
मुल्ला
ने कहा कि नहीं;
नहीं फजूल की मां! ऐसी स्त्रियों को देखकर ही मुझे याद आता है कि
अरे, मैं विवाहित हूं! हाय राम, मैं
विवाहित हूं! ऐसी स्त्रियों को देखकर ही याद आता है।
कल
का भरोसा रखो। अगर बीते कल में धोखा खा गए थे, तो आने वाले कल में भी धोखा फिर
खाओगे। ऐसी क्या जल्दी पड़ी है!
और
पूछते हो, जीवन में कोई रस नहीं रहा। अब मैं क्या करूं? अगर इस
तरह ही रस आता हो, तो फिर कोई तलाश कर लो। युवतियों की कोई
कमी है! पृथ्वी भरी पड़ी है। लेकिन अगर कुछ समझ की बात करनी हो, तो थोड़ा सोचो।
तुमने
बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी। बच्चों की कहानियों में यूं कहानियां आती हैं कि
कोई राजा है उसके प्राण उसने तोते में रख दिए। इससे उसको कोई मार नहीं सकता। जब तक
तोते को न मारे,
राजा को नहीं मार सकता। राजा को कितना ही मारो, मरता ही नहीं। उसने प्राण अपने तोते में छिपा रखे हैं। जब तोते को पकड़ कर
मार डालोगे, तो राजा मर जाएगा।
ये
कहानियां बड़ी ठीक हैं। अब यह तो यूं हुआ कि तुमने अपने प्राण उस लड़की में रख दिए।
इतने जल्दी गिरवी रख दिए! हर किसी के हाथ में दे देते हो प्राण!
जीवन
का रस ही चला गया। ज्यादा कुछ रहा नहीं होगा रस। भ्रांति में हो तुम कि रस था। ऐसे
कहीं रस जाता है?
रस को तुम जानते ही नहीं कि रस क्या है। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है--रसो वै सः। उन्होंने तो परमात्मा की परिभाषा को है कि वह
रस है। उन्होंने तो सिर्फ परमात्मा को ही रस माना है; और
किसी चीज का कोई रस नहीं है।
मिल
जाती स्त्री,
तो भी रस खो जाता। और स्त्री गले से बंध जाती--सो अलग! फिर उससे
छूटना मुश्किल हो जाता। जरा तुम उससे भी तो पूछो, जिसके गले
बंध गई है! उसकी क्या हालत है! उसका भी तो बेचारे का दुख-दर्द जानो। उसका दुख-दर्द
जान कर तुमको बड़ी सांत्वना मिलेगी, बड़ा आश्वासन मिलेगा।
एक
पागलखाने में एक राजनेता देखने गया था पागलखाने को। एक आदमी अपने बाल लोंच रहा था।
छाती पीट रहा था। और हाथ में एक तस्वीर लिए था। आंखों से आंसू बह रहे थे--झर-झर!
छाती से लगाता था तस्वीर को। सींखचों में बंद था। पूछा उसने सुपरिंटेंडेंट को, इस आदमी
को क्या हो गया! यह क्या कर रहा है? यह तस्वीर किसकी है?
उसने
कहा, यह तस्वीर एक स्त्री की है, जिसको यह पाना चाहता था
और नहीं पा सका। जब से नहीं पाया, पागल हो गया है। (रहा होगा
नगेंद्र जैसा!) बस, अब तब से यह बस बाल लोंचता है। रोता है।
छाती से फोटो लगाता है। चीख-पुकार मचाता है। इसको पागलखाने में रखना पड़ा है। इसके
घर के लोग परेशान हो गए। इसने सब का चैन हराम कर दिया है।
राजनेता
ने कहा, बेचारा!
आगे
बढ़े। दूसरे कटघरे में एक आदमी सींखचों को पकड़-पकड़ कर हिला रहा था। सींखचों से सिर
मार रहा था। लहूलुहान हो रहा था उसका सिर। पूछा, इसको क्या हो गया? इस बेचारे को क्या हो गया?
उस
सुपरिंटेंडेंट ने कहा कि अब आप न पूछो, तो अच्छा। इसने उस लड़की से शादी कर
ली, जिस लड़की की याद में पहला मरा जा रहा है। जब से इसने
शादी की है, तब से इसकी यह हालत हो गई! तब से यह सींखचों से
सिर मारता है! दीवालों से सिर फोड़ता है। यह आत्महत्या करने को उतारू है। यह
आत्महत्या न कर ले, इसलिए इसको पागलखाने में रखना पड़ा है।
किसको
बेचारा कहोगे?
वह, जिसको नहीं मिली स्त्री--वह। या जिसको मिल
गई--वह? किसके जीवन में रस है?
तुम
जरा उनको तो देखो,
जिसको उनकी प्रेयसियां मिल गई हैं; उनके
प्रेमी मिल गए हैं। उन पर तो जरा नजर डालो। वहां कहां रस है? ऊबे बैठे हैं। जब भी तुम किसी जोड़े को उदास देखो, समझना--विवाहित
हैं। जब भी तुम किसी स्त्री-पुरुष को लड़ते देखो, समझो
विवाहित हैं। एक-दूसरे की गर्दन को दबाते देखो--समझो कि विवाहित हैं!
जरा
देखो तो चारों तरफ आंख खोल कर। तुम मुझसे कुछ रहे हो, अब मैं जी
तो रहा हूं, किंतु जीने का कोई रस न रहा। इतने जल्दी गंवा
दोगे जीवन का रस! जीवन कुछ और बड़े काम के लिए है। जीवन कुछ और विराट आकाश को पाने
के लिए है। अभी और भी मंजिलें हैं। अभी और भी आसमान हैं।
दिल
के सहरा में कोई आस का जुगनू भी नहीं।
इतना
रोया हूं कि अब आंख में आंसू भी नहीं।।
कासाए-दर्द
लिए फिरती है गुलशन की हवा।
मेरे
दामन में तिरे प्यार की खुशबू भी नहीं।।
छिन
गया मेरी निगाहों से भी एहसासे-जमाल।
तेरी
तस्वीर में पहला सा वो जादू भी नहीं।।
मौज-दर-मौज
तेरे गम की शफक खिलती है।
मुझे
इस सिलसिलाए-रंग पे काबू भी नहीं।।
दिल
वो कमबख्त कि धड़के ही चला जाता है।
ये
अलग बात कि तू जीनते पहलू भी नहीं।।
ये
अजब राहगुजर है कि चट्टानें तो बहुत।
और
सहारे को तेरी याद के बाजू भी नहीं।।
जल्दी
ही भूल जाओगे। फिर उलझोगे और भूल जाओगे। अभी लगता है कि
दिल
के सहारा में कोई आस का जुगनू भी नहीं।
इतना
रोया हूं कि अब आंख में आंसू भी नहीं।।
लेकिन
यह सब रोना-धोना,
यह आशाओं का बुझ जाना, यह जुगनुओं का भी खो
जाना, ज्यादा देर नहीं टिकेगा। आदमी भ्रम पालन में बड़ा कुशल
है। जरा रुको। फिर भ्रम पालोगे।
एक
भरम टूटता नहीं कि दूसरा भरम हम पैदा कर लेते हैं! फिर से रस की धार बहने लगेगी!
हालांकि वह रस की धार बिलकुल झूठी है। रसधार तो बहती है सिर्फ उसके जीवन में, जो
परमात्मा के प्रेम से भर जाता है। इन छोटे-मोटे प्रेमों में प्रेम नहीं है;
आसक्तियां हैं। प्रेम के धोखे हैं। प्रेम केवल शब्द है--प्यारा
शब्द। लेकिन शब्द को उघाड़ कर देखो, तो भीतर कुछ भी लहीं। कोई
अर्थ नहीं। कोई गौरव नहीं, कोई गरिमा नहीं। कोई काव्य नहीं,
कोई संगीत नहीं।
अब
तलक मुझ सी किसी पर भी नहीं गुजरी है
मैं
बहारों में जला और किनारों में बहा,
मैंने
हर आंख में ढूंढा है प्यार अपने लिए
दिल
मेरा प्यार भरा प्यारा का भूखा ही रहा।
जिंदगी
मेरी सिसकती रहेगी क्या यूं ही
क्या
मुझे कोई सहारा न मिल सकेगा कभी?
बहारें
देखती हैं मुड़ के मगर रुकती नहीं,
कोई
भी फूल क्या मेरा न खिल सकेगा कभी?
इससे
बढ़ कर के भला और क्या है मजबूरी
अपने
अरमानों की लाशों पर मुझे चलना पड़ा,
छिपाता
आया हूं जिसको मैं बड़ी मुद्दत से
आज
सब के ही सामने वह राज कहना पड़ा।
अब
तलक मुझ सी किसी पर भी नहीं गुजरी है
मैं
बहारों में जला और किनारों में बहा,
मैंने
हर आंख में ढूंढा है प्यार अपने लिए
दिल
मेरा प्यार भरा प्यार का भूखा ही रहा।
इस
जगत में तुम अगर प्रेम को खोज रहे हो, तो यह ऐसा ही है, जैसे कोई रेत से तेल को निचोड़ने की कोशिश कर रहो हो--जो नहीं है वहां।
तुम
किससे प्रेम मांग रहे हो?
यह भी तो देखो कि तुम जिससे प्रेम मांग रहे हो, वह भी तुमसे प्रेम मांग रहा है! न उसके पास है, न
तुम्हारे पास है। यहां हर कोई हर किसी से मांग रहा है। और सब भिखमंगे हैं। तुम भी
चाहते हो, दूसरा प्रेम दे। और दूसरा भी चाहता है कि तुम
प्रेम दो। और दोनों को इसकी फिक्र नहीं है कि है भी किसी के पास, जो दे दे?
पहले
होना तो चाहिए--देने के पहले होना चाहिए। इसलिए तो यहां हर व्यक्ति हारा हुआ है, थका हुआ
है, परेशान है, पीड़ित है। कोई तुम्हीं
नहीं।
समझो।
इस मौके को चूको मत। बड़ी कृपा की उस युवती ने, जो किसी और की हो गई। तुम पर उसकी
दया है, अनुकंपा है। उसने बड़ा प्रेम जतलाया तुम्हारे प्रति।
एक अवसर दिया तुम्हें देखने का।
तुम
मांग रहे थे प्रेम। मगर तुम्हारे पास है? जिसके पास है, वह मांगता नहीं; वह देता है। और जिसके पास नहीं है,
वह मांगता है।
और
किससे मांग रहे हो?
जिसके पास हो, उससे मांगो। और प्रेम का झरना
किसके पास होता है? जिसके पास ध्यान--उसके पास प्रेम। बिना
ध्यान के प्रेम नहीं।
ध्यान
की छाया है प्रेम। ध्यान का फूल है प्रेम। बुद्धों के पास प्रेम होता है। उनसे
मांगो। मत मांगो,
तो भी वे देते हैं। झोली फैलाओ--मत फैलाओ--तो भी बरस जाते हैं।
जहां
रोशनी है, वहां जाओगे, तो रोशनी तुम पर पड़ेगी ही। तुम्हारे
मांगने, न मांगने का सवाल नहीं। फूल खिलेगा, उसके पास से गुजरोगे--गंध मिलेगी। मांगने न मांगने का कोई सवाल ही नहीं
है।
लेकिन
इस जगत में बड़ी अजीब हालत चल रही है। भिखमंगे भिखमंगों के सामने भिक्षापात्र लिए
खड़े हैं कि कुछ दे दो! बाबा, कुछ मिल जाए! और दूसरा भी मांग रहा है। और
दोनों इस भ्रांति में हैं कि दूसरे के पास होगा। किसी के पास नहीं है।
सिर्फ
उन थोड़े-से लोगों के पास प्रेम होता है, जिन्होंने ध्यान की अंतिम गहराइयां
छुई हैं। प्रेम परिणाम है ध्यान का।
और
मजा यह है कि ध्यानी किसी से प्रेम नहीं मांगता; देता है; सिर्फ देता है--मांगता ही नहीं।
और
यह भी तुम समझ लेना--यह जीवन का महागणित--कि जो देता है, उसे बहुत
मिलता है। हालांकि वह मांगता नहीं। वह छांट-छांट कर भी नहीं देता। वह सिर्फ बांटता
ही रहता है। और उस पर बहुत बरसता है। आकाश से बरसता है। बादलों से बरसता है।
चांदत्तारों से बरसता है। परमात्मा उसे चारों तरफ से भर देता है। वह लुटाए चला
जाता है; परमात्मा उसे दिए चला जाता है!
रसो
वै सः। परमात्मा रस-रूप है। लेकिन किसको परमात्मा मिला है? जो भीतर
जागा है; जिसने भीतर सारी तंद्रा और नींद तोड़ दी है; जिसने भीतर बेहोशी की सारी परतें उखाड़ फेंकी हैं; जिसने
मूर्च्छा को जड़ों से उखाड़ दिया है; जिसने भीतर रोशन कर लिया
अपने को; जो प्रकाशित हो गया है--उसके भीतर परमात्मा उतर आता
है। रस की धार बह जाती है।
नगेंद्र!
तुम जिस ढंग से सोच रहे हो,
उसका तो अंतिम परिणाम आत्महत्या है। मैं जो कह रहा हूं, उसका अंतिम परिणाम आत्मरूपांतरण है। और इसको भी तुमसे कह दूं कि आत्महत्या
के क्षण में ही आत्मरूपांतरण की संभावना है, क्योंकि जब आदमी
ऐसी जगह आ जाता है, जहां आगे चलने को कोई जगह नहीं रह जाती,
रास्ता खतम हो जाता है--वहीं क्रांति घटती है। नहीं तो क्रांति नहीं
घटती।
इस
अवसर को चूकना मत। यह अवसर है कि तुम जागो।
और
प्रेम की जगह ध्यान पर दृष्टि जमाओ। प्रेम धोखा दे गया। देने ही वाला था। क्योंकि
था ही नहीं। ध्यान ने कभी किसी को धोखा नहीं दिया है। आज तक नहीं दिया है। जिसने
भी ध्यान की तरफ नजर उठाई--मालामाल हो गया है। सम्राट हो गया है।
और
मजा यह है कि उसकी संपदा में प्रेम की संपदा भी आती है।
भीतर
झांको, वहां प्रभु का राज्य है। अपने पर आओ। प्रेम कहता है--दूसरे को पकड़ो। ध्यान
कहता है--अपने को पकड़ो। इसलिए ऊपर से तो प्रेम और ध्यान के रास्ते बिलकुल विपरीत
मालूम पड़ते हैं। और हैं भी विपरीत।
तुम्हारे
प्रेम से तो ध्यान का रास्ता बिलकुल विपरीत है। अब तुम्हारी नजर उस युवती पर अटकी
है। दूसरे पर अटकी है। यह भी कोई बात हुई! पहले अपने को तो खोज लो। फिर दूसरे की
तलाश में जाना। और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम अपने को खोज लो, तो दूसरे
तुम्हारी तलाश में आएंगे। तुम्हें कहीं किसी की तलाश में जाना न पड़ेगा।
तुम
दैदीप्यमान हो उठो,
तो तुम्हारी किरणें दूसरों को बुला लाएंगी। दूर-दूर से लोग चले
आएंगे--तुम्हारे झरने पर पानी पीने; अपनी प्यास बुझाने।
कुछ
ऐसा करो कि तुम्हें तो रस मिले ही मिले--औरों को भी रस मिल जाए। कुछ ऐसा करो कि
परमात्मा तुमसे बह उठे।
और
जब आदमी ऐसी जगह आ जाता है,
जहां सोचने लगता है कि अब खतम ही कर लूं अपने को...। जरूर तुमने
सोचा होगा बहुत बार कि अब अपने को मिटा ही लूं, क्योंकि अब
जीवन तो है ही नहीं। रस नहीं है। जीए जा रहा हूं। क्या सार है जीने में! खतम ही
क्यों न कर लूं?
जब
खतम करने तक की तैयारी हो,
तो इसके पहले एक काम और कर लो, फिर खतम कर
लेना। इसके पहले एक काम यह तो कर लो--जान तो लो कि मैं कौन हूं। फिर आत्महत्या
करनी हो, तो आत्महत्या कर लेना। हालांकि जिसने अपने को जाना
है, उसने कभी आत्महत्या नहीं की है। क्योंकि वह तो जानता
है--आत्महत्या हो ही नहीं सकती। आत्मा अमर है। मिटाओ तो भी मिट नहीं सकती। जलाओ,
तो भी जल नहीं सकती।
और
इस शाश्वत को पहचानते ही अपूर्व घटनाएं घटती है। चमत्कार घटते हैं। जादू जीवन में
आ जाता है। तुम मिट्टी छुओ और सोना हो जाएगी। तुम कांटा छुओगे और फूल हो जाएगा। यह
सारा अस्तित्व परमात्मा से जगमगा उठता है।
तुम
जगमगा जाओ भीतर,
तो बाहर दीए ही दीए जल जाते हैं। जल ही रहे हैं। सिर्फ तुम अंधे हो,
इसलिए दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। और चारों तरफ से रस तुम्हारी तरफ बहने
लगता है। तुम बहो--फिर देखो।
यह
संकट की घड़ी है,
इसका उपयोग कर लो। मेरे हिसाब से संकट की घड़ियां बड़े सौभाग्य की
घड़ियां होती हैं। समझदार उनको वरदान बना लेते हैं। नासमझ--उनको अभिशाप। सब तुम पर
निर्भर है।
आज इतना ही।
नौवां प्रवचन; दिनांक १९ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
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