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बुधवार, 17 मई 2017

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02



पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 02 जून सन् 1980,
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-दूसरा

प्रश्न-सार

01-आह कितना आनंद! आह कितनी पीड़ा!
02-आप कहते हैं कि दुखी व्यक्ति ज्यादा भोजन करते हैं, इसलिए मोटे हो जाते हैं। फिर महात्मागण मोटे क्यों होते हैं?
03-मैं आपका संन्यास लेने से बहुत ही डरता हूं। कृपया अपनी शराब कुछ ऐसी पिलाएं कि मैं साहस कर सकूं!
04-क्या धर्मगुरु सच ही बुद्धू होते हैं?

पहला प्रश्न: भगवान!
आह कितना आनंद! आह कितनी पीड़ा!

विनोद भारती!
जीवन की झाड़ी में जहां गुलाब के फूल खिलते हैं, वहां कांटे भी खिलते हैं। लेकिन फूल खिलें तो कांटे भी प्रीतिकर हैं, पीड़ा भी मधुर है। कांटे दुखदायी हो जाते हैं जब फूल नहीं खिलते, कांटे ही कांटे बचते हैं। कांटों में दुख नहीं है, फूलों के अभाव में दुख है। फूलों के साथ खिलें--जी भर कर खिलें--तो फूलों के सौंदर्य को बढ़ाते हैं, फूलों को पृष्ठभूमि देते हैं।

गुलाब की झाड़ी अधूरी होगी बिना कांटों के। दिन अधूरा होगा बिना रात के। लेकिन रात ही रात रह जाए तो नरक हो जाएगा। अधिक लोगों के जीवन में यही हुआ है। बस रात ही रात रह गई है। कंकड़-पत्थर ही कंकड़-पत्थर। व्यर्थ के बोझ से दबे हैं। अर्थ की कोई गरिमा नहीं है।
यह अनूठा अनुभव होता है। जब आनंद के फूल खिलते हैं तब पहली बार यह पता चलता है कि आनंद अपने से विपरीत को भी नये अर्थ दे देता है; अपने से विपरीत को भी नया रस दे देता है। आनंद घटता है तो हीरे-मोती ही नहीं बरसते, अचानक कंकड़-पत्थर भी हीरे-मोती हो जाते हैं। यही आनंद का जादू है। यही उसकी दिव्यता है। यही उसकी भगवत्ता है।
रिंझाई ने कहा है कि जब से जाना है, तब से जीवन में कुछ भी साधारण नहीं बचा। जब नहीं जानता था, तब जीवन में कुछ भी असाधारण नहीं था। जीवन वही का वही है, कहीं कुछ बदला नहीं है--वे ही वृक्ष हैं, वे ही लोग हैं, वे ही रास्ते हैं, वही काम है--सब वही है, वैसा का वैसा। लेकिन जब नहीं जानता था, तो सब साधारण मालूम होता था; और जब से जाना है, जब से जागा हूं, तो साधारण कहीं दिखाई नहीं पड़ता। सभी कुछ आभामंडित हो गया असाधारण से।
लेकिन सामान्यतया सोच-विचार करने वाले लोग, जो अनुभव से वंचित हैं, उनकी यह धारणा होती है कि जब आनंद होगा तो फिर वहां कैसी पीड़ा!
यह सिर्फ सोचने-विचारने वालों की बात हुई। जिनका अनुभव है, उनकी बात और है। वे कहेंगे कि जहां आनंद है, वहां पीड़ा भी है। लेकिन पीड़ा भी मधुर है, मीठी है, स्वादिष्ट है। विपरीत विलीन नहीं हो जाता, लेकिन नयी भाव-भंगिमा में प्रकट होता है। रात खो नहीं जाती, लेकिन सुंदर हो आती है। अंधेरा नष्ट नहीं हो जाता, लेकिन अंधेरा भी अब मखमली हो जाता है; अब अंधेरे को भी आलिंगन कर लेने की क्षमता आ जाती है।
जीवन का द्वंद्व तभी तक द्वंद्व मालूम होता है, जब तक हम आत्म-अज्ञान में जीते हैं; जैसे ही आत्म-ज्ञान की किरणें उतरनी शुरू हुईं कि जीवन में जो-जो द्वंद्वात्मक है, जो-जो विपरीत है, वह विपरीत नहीं मालूम पड़ता, परिपूरक हो जाता है। तब यह बोध होता है कि बिना विपरीत के इस जगत में कुछ हो ही नहीं सकता। पदार्थ मिट नहीं जाता, परमात्ममय हो जाता है। माया समाप्त नहीं हो जाती, ब्रह्म से आविष्ट हो जाती है। संसार तिरोहित नहीं हो जाता, कि ज्ञानी के लिए संसार नहीं बचता, लेकिन संसार की तरह नहीं बचता। सारी अर्थवत्ता बदल जाती है। क्योंकि ज्ञानी के देखने की दृष्टि, उसकी आंख बदल जाती है। दृष्टि बदली कि सृष्टि बदली। नजर बदली कि सब बदला। सब खेल नजर का है। वही काम फिर भी तुम करोगे।
यहां संन्यासियों से लोग आकर पूछते हैं कि तुम दूर देश से आए हो, सब छोड़ कर आ गए हो, लेकिन वहां काम करते थे, यहां भी काम कर रहे हो, तो फर्क कहां है?
और संन्यासी उत्तर भी दें तो क्या दें! कुछ बातें हैं जिनके उत्तर उन्हीं को दिए जा सकते हैं जिन्हें उत्तर पता हों। मगर तब उत्तर देने की जरूरत नहीं रह जाती, क्योंकि प्रश्न ही नहीं पूछा जाता। और जिन्हें उत्तर पता नहीं हैं उन्हें उत्तर दिए नहीं जा सकते, मुस्कुरा कर चुप रह जाते हैं।
काम तो वही होगा। काम तो कहीं भी वही होगा।
एक मित्र इंग्लैंड से आए हैं। वहां उनका बड़ा बगीचा था। लाखों रुपये का विस्तार था बगीचे का। यहां भी आकर बगीचे का ही काम कर रहे हैं। स्वभावतः इंग्लैंड से आए एक पत्रकार ने पूछा कि तुम्हें हुआ क्या है? बड़ा बगीचा था, नौकर-चाकर थे, सारी सुविधाएं थीं, उस सबको छोड़ कर... आखिर यहां भी तो तुम बगीचे के ही काम में लगे हुए हो!
संन्यासी ने कहा, फर्क नहीं भी है और फर्क है भी। वहां काम एक बोझ था, यहां काम एक आनंद है। वहां काम करना पड़ रहा था, यहां कर रहा हूं। वहां मजबूरी थी, यहां सहज-स्फूर्त है। वहां धन के लिए था, यहां स्वांतः सुखाय। इससे कुछ मिलने वाला नहीं--न धन मिलने वाला है, न पद मिलने वाला है। स्वांतः सुखाय। कृत्य ही अपने में अपना साध्य हो गया है।
विनोद भारती, पहले तो चौंकना होता है, जब ऐसा लगता है: कितना आनंद, कितनी पीड़ा, साथ-साथ!
साथ-साथ ही घटते हैं। साथ-साथ ही घट सकते हैं। बराबर अनुपात में घटते हैं। लेकिन आनंद की महिमा यही है, उसकी जादुई छड़ी यही है कि वह पीड़ा को भी एक नये माधुर्य से भर देता है। पीड़ा भी पीड़ा नहीं रह जाती।
एक संन्यासी वर्षों तक पश्चिम की यात्रा करके भारत वापस आया। प्रसिद्ध संन्यासी था, भवानी दयाल। उसने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं हिमालय की यात्रा पर गया। पहाड़ की चढ़ाई, बड़ी चढ़ाई, भरी दोपहर, सूरज जैसे आग उगलता, सीधा पहाड़, एक-एक कदम चढ़ना मुश्किल, पसीने से लथपथ। और मेरे सामने ही एक पहाड़ी लड़की, नहीं थी ज्यादा उम्र उसकी, होगी कोई ग्यारह-बारह साल की, अपने भाई को कंधे पर बिठाए चढ़ रही थी पहाड़। और भाई यूं तो छोटा था, होगा ज्यादा से ज्यादा तीन-चार साल का, लेकिन काफी मोटा और तगड़ा। पहाड़ी बच्चा, वजनी। लड़की लथपथ थी। भवानी दयाल ने लड़की के पास जाकर कहा, बेटी, बहुत बोझ लगता होगा।
उस लड़की ने संन्यासी की तरफ गौर से देखा, चौंक कर देखा, विश्वास न आए ऐसी आंखों से देखा और कहा, स्वामी जी, बोझ आप लिए हुए हैं।...हालांकि संन्यासी के पास कोई खास बोझ न था। बस एक छोटी सी पोटली थी। ज्यादा कपड़े-लत्ते भी संन्यासी के पास नहीं थे। उसी पोटली में भिक्षापात्र था, एक-दो वस्त्र थे, कुछ भोजन की सामग्री थी।...उस लड़की ने कहा, बोझ आप लिए हुए हैं। यह मेरा छोटा भाई है, बोझ नहीं।
और भवानी दयाल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मुझे शर्म से आंखें नीचे झुका लेनी पड़ीं। उसकी बात सच थी। मैं बोझ लिए था। वह मेरे लिए बोझ था। मैं ढो रहा था। कई बार सोच चुका था रास्ते में कि ये भी कपड़े न लाता तो अच्छा था। यहां तो लंगोटी से ही काम चल जाता। इतनी धूप, वस्त्रों की जरूरत क्या थी! कोई रास्ते पर मिलता भी तो नहीं है। नंगा भी चढ़ता तो भी चल जाता। यह भिक्षापात्र की भी जरूरत न थी; हाथ में ही लेकर भोजन कर लेता। आखिर करपात्री भी तो होते ही हैं। हाथ में ही पानी लेकर पी लेता। यह मैं काहे को बोझ ले आया! फेंक भी नहीं सकता था; आसक्ति भी बहुत थी।
छोटे से भी बहुत, छोटी सी चीजों से भी, थोड़ी सी चीजों से भी बहुत आसक्ति हो सकती है। आसक्ति होने के लिए कोई बहुत बड़ा साम्राज्य नहीं चाहिए। एक भिक्षापात्र भी पर्याप्त है आसक्ति के लिए। मगर आसक्ति होगी तो बोझ हो जाएगा और प्रेम होगा तो सब निर्भार हो जाएगा।
उस लड़की ने ठीक कहा, यह मेरा छोटा भाई है।
तराजू पर तौलोगे तो छोटे भाई में भी वजन निकलेगा। तराजू को क्या लेना-देना--कौन छोटा भाई है या कौन बिस्तर है या कौन पत्थर है! तराजू तो तौल देगा वजन को। लेकिन हृदय के तराजू पर फर्क पड़ जाता है। हृदय का तराजू गणित को नहीं मानता। किसी और लोक में हृदय के तराजू की प्रतिष्ठा है। वहां के मापदंड और, वहां की कसौटियां और।
विनोद भारती, आनंद भी होगा, आनंद भी बढ़ेगा और साथ ही साथ पीड़ा भी गहन होगी। दिन भी प्रखर होगा और रात भी गहरी होगी। दोनों साथ-साथ चलेंगे। ये दोनों पैर हैं जीवन के, ये दोनों पंख हैं। मगर इतना फर्क हो जाएगा--और वह फर्क थोड़ा नहीं है, फर्क बड़ा है, फर्क अपूर्व है--अब पीड़ा भी पीड़ा जैसी नहीं होगी।
अभी तो साधारणतः तुम जिसे सुख समझते हो, वह भी सुख जैसा नहीं है। उस पर भी दुख छाया हुआ है। उसको भी दुख दबोचे हुए है। अभी तो तुम जिनको समझदारियां समझते हो, वे भी समझदारियां नहीं हैं। वे भी नासमझियां ही सिद्ध होती हैं। अभी तो तुम्हारा ज्ञान भी सिर्फ अज्ञान को भुला रखने का एक ढांचा है, एक ढंग है। फिर बात उलटी हो जाती है। सब उलट-पुलट हो जाता है। फिर सारा ज्ञान छूट जाता है। चित्त ऐसे हो जाता है, ऐसा निर्मल, ऐसा निर्दोष, ऐसा निर्भार जैसे छोटे बच्चे का। ज्ञान तो उसे नहीं कहा जा सकता; ज्ञान-मुक्ति जरूर कही जा सकती है। मगर उस न जानने की अवस्था में जानने की घटना घटती है। ऐसा जीवन का अदभुत, विस्मयजनक, रहस्यपूर्ण विस्तार है। जो ऊपर ही ऊपर तैरते रहते हैं सागर पर, लहरों ही लहरों में, उन्हें कभी इन मोतियों का पता नहीं चलता; इनके लिए तो डुबकियां मारनी होंगी।
अभी तो सुख भी बस दुख को भुलाने से ज्यादा नहीं है। किन चीजों को हम सुख कहते हैं? बस किसी तरह दुख को भुला रखने को। और फिर दुख भी दुख नहीं होते, सुख ही होकर आते हैं।
यह शुभ हो रहा है। अगर कोई कहे कि बस आनंद ही आनंद हो रहा है, कहीं कोई पीड़ा नहीं है, तो समझना कि आनंद काल्पनिक है। मनोवैज्ञानिक रूप से वह आदमी अपने को सिर्फ सम्मोहित कर रहा है। यह आनंद का सपना टूट जाएगा। यह टिकने वाला नहीं है। उसे भ्रांति हो रही है। वह कुछ देख रहा है जो वहां नहीं है। और यह मत समझना कि तुम्हीं इस भ्रांति में होते हो, तुम्हारे तथाकथित मनोवैज्ञानिक, जो कि मन के विज्ञान को समझते हैं, वे भी ऐसी ही भ्रांतियों में होते हैं।
एक आदमी एक मनोवैज्ञानिक के पास गया। उसकी मुसीबत यह थी कि उसे हर चीजें दो दिखाई पड़ती थीं। मुश्किल पड़ गई थी, अड़चन होने लगी थी। और एक दिन तो अड़चन बहुत बढ़ गई, क्योंकि जब उसने अपनी पत्नी से यह कहा...यूं तो छिपाए रहा, छिपाए रहा, मगर कब तक छिपाता! पत्नी भी पूछने लगी कि बात क्या है? तुम्हारा चलना, उठना, बैठना कुछ बेढंगा हो गया है!
अब जिस आदमी को दो कुर्सी दिखाई पड़ रही हों, वह पहले टटोल कर देखे कि कौन सी असली है। बिना टटोले उसको पता न चले। फिर तो धीरे-धीरे उसे अपने हाथ भी दो दिखाई पड़ने लगे। फिर तो वह टटोले तो भी उसको अनुभव हो कि वह दो को टटोल रहा है। बात बिगड़ती चली गई। वह अपनी पत्नी को भी गले लगाए तो पहले टटोले, देखे कि कौन असली है।
आखिर एक दिन उसने पत्नी से कहा कि अब तू मानती नहीं, पूछती है, तो मैं बताए देता हूं--मुझे तू दो दिखाई पड़ने लगी है। तो उसने कहा, फिर ठीक है, एक को तुम रखो और मैं चली तुम्हारे मित्र के साथ। अब जब दो ही दिखाई पड़ रही हूं, तो एक को तुम सम्हालो, तुम्हारी तुम सम्हालो, मैं चली, क्योंकि मैंने बहुत सह लिया। उसने कहा, तू ठहर। अब बात बिगड़ी जाती है। मैं जाता हूं चिकित्सक के पास।
वह मनोवैज्ञानिक के पास गया। उसने जाकर मनोवैज्ञानिक को कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं और मामला अब जरा झंझट का है। मेरी पत्नी धमकी दे रही है छोड़ कर जाने की। अब कुछ करना ही होगा। मुझे हर चीजें दो दिखाई पड़ती हैं। मनोवैज्ञानिक ने उसे देखा। उसे क्या देखा, ऐसे पूरे कमरे पर नजर डाली, फिर पूछा कि तुम चारों को ही दो दिखाई पड़ते हैं?
उस आदमी ने अपनी खोपड़ी पीट ली। इस मनोवैज्ञानिक को चार दिखाई पड़ते हैं!
तुम रुग्ण हो और तुम जिससे पूछने जाते हो वह शायद और भी महारुग्ण है। तुम्हारे महात्मा, तुम्हारे साधु, तुम्हारे संत--न उन्होंने आनंद जाना है, न तुमने जाना है। तुम दुख में जी रहे हो। तुमने अपने दुख को भुलाने के लिए सुख की ओट बना रखी है, परदे डाल रखे हैं, बुरके ओढ़ा रखे हैं।
बुरके की यह खूबी है कि उसके भीतर कुरूप से कुरूप स्त्री भी सुंदर हो जाती है। तुमने देखा, बुरका ओढ़ कर कोई स्त्री निकल जाए, स्त्री की फिक्र छोड़ो आदमी निकल जाए, पुरुष निकल जाए, तो भी लोग काम बंद कर देंगे, झांक-झांक कर देखने लगेंगे। पता नहीं बुरके के भीतर कौन छिपी है! नूरजहां कि मुमताजमहल कि पता नहीं कौन! बुरका भ्रांति दे देता है।
ऐसे ही बुरके हमने ओढ़ रखे हैं। साधारणतः सुख हमारा बुरका है। दूसरों को धोखा हो जाता है, मगर तुमको कैसे धोखा होगा? तुम तो जानते ही रहोगे कि हालत क्या है। तुम्हारी मुस्कुराहट औरों को धोखा दे दे, मगर तुम्हें कैसे धोखा देगी? और तुमने जो लाली चेहरे पर लगा रखी है, वह दूसरों को धोखा दे दे, मगर तुम्हें कैसे धोखा देगी?
एक व्यक्ति एक स्त्री के प्रेम में पड़ गया। चौपाटी पर हुआ होगा यह प्रेम। चौपाटी पर जो चौपट न हो...मुश्किल है। पता नहीं किन ऋषि-मुनियों ने इस स्थान का नाम चौपाटी रखा! बिलकुल चौपट कर देती है। चारों खाने चौपट कर देती है। विवाह कर लिया। सुहागरात के लिए महाबलेश्वर पहुंच गए। मगर एक बात उसे पत्नी को कहनी थी। उसने कहा कि छिपाने में कोई सार नहीं। स्त्रियों से ज्यादा देर छिपाया भी नहीं जा सकता। और इसके पहले कि खुद खोजे, खुद ही कह देना अच्छा है। उसने कहा कि एक बात तुझे बता दूं, पहले ही बता दूं ताकि आगे इस पर कभी झंझट न हो, मेरे दांत नकली हैं। और इसलिए और भी कह देना जरूरी है कि तू बार-बार कहती थी कि बलिहारी तुम्हारे मोती जैसे दांतों पर। सो तुझे साफ-साफ कह दूं कि ये दांत नकली हैं। ये मोती जैसे इसलिए लगते हैं।
असली दांत तो मोती जैसे नहीं होते। कुछ इरछे-तिरछे भी होते हैं, कुछ छोटे-बड़े भी होते हैं। मगर नकली दांतों को तो क्यों छोटे-बड़े होना, क्यों इरछे-तिरछे होना! जब नकली ही हैं तो वे तो बिलकुल पंक्तिबद्ध होते हैं, एक जैसे होते हैं, समान आकार के होते हैं, चमकदार होते हैं। अब जो नकली ही हैं तो चमक में क्यों कमी होगी!
तो इतनी बात तुझे कह देना है।
स्त्री ने कहा, तुमने अच्छा किया कि यह कह दिया, क्योंकि कुछ बातें मैं भी तुमसे छिपाए हुए हूं, अब वे भी मैं तुमसे कह दूं। क्योंकि जब तुम सत्य बोले तो मुझे भी साहस दिया कि अब मैं सत्य बोलूं। और अब सचाई हो ही जानी चाहिए साफ, क्योंकि बात खुलेगी ही।
पुरुष थोड़ा घबड़ाया। उसने कहा कि क्या मामला है?
तो उसने कहा, तुम देख ही रहे हो, देखो। उसने बाल उतार कर रख दिए। बड़ी अद्वितीय स्त्री थी। गंजी स्त्रियां खोजना बहुत मुश्किल है। वह गंजी स्त्री थी। कभी लाखों में एकाध स्त्री गंजी होती है। मैं लाखों स्त्रियों को जानता हूं, सिर्फ एक स्त्री मेरी पहचान में है जो गंजी है। सबको भूल जाऊं, मगर उसको नहीं भूल सकता। गंजी स्त्री को कैसे भूलोगे?
आदमी की तो छाती पर सांप लोट गए। और उसने कहा, और क्या है बाई, आगे भी कुछ?
उसने एक टांग भी निकाल कर रख दी। वह भी नकली थी। और जब उसने अपने स्तन भी उतार कर रख दिए तो उसने पूछा, बाई, तू बाई है कि भैया? यह तो और बता दे। अब जो है बात सच्ची ही हो जाए।
दूसरों को धोखा दे लोगे, लेकिन अपने को? और दूसरों को भी कितनी देर? जब तक दूरी होगी। जैसे ही करीब आते हो, धोखे टूट जाते हैं। इसलिए पति-पत्नी के बीच इतनी कलह है। धोखे टूट जाते हैं, बुरके उठ जाते हैं, हंसियां उखड़ जाती हैं। सब नकली दिखाई पड़ने लगता है। सब थोथा जाहिर हो जाता है। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। दूरी सुहावनापन पैदा करती है।
तो हमारा तो सुख क्या है? बस दुख को छिपा रखने का उपाय है। और आदमी बेचारा करे भी क्या! और तुम्हारे महात्मा आनंद की सिर्फ बातें कर रहे हैं। और बातों की इतनी गुहार मचा रहे हैं वे आनंद की, वह भी एक बुरका है। वह एक नये तरह का बुरका है। वह शब्दों का बुरका है। तुम कम से कम घटनाओं के बुरके ओढ़ते हो। तुम्हारे बुरकों में कुछ थोड़ा-बहुत सच भी होता है, यथार्थ भी होता है, ताने-बाने भी होते हैं। कम से कम कपड़े के तो बने होते हैं तुम्हारे बुरके, उतना तथ्य तो होता है। महात्माओं के बुरके तो सिर्फ शब्दों के हैं--उपनिषद, वेद, बाइबिल, कुरान। वे आनंद की बातें कर रहे हैं, सच्चिदानंद की बातें कर रहे हैं। बस बातों का इतना शोरगुल मचाते हैं, इतना धुआं उठाते हैं बातों का, इतनी धूल उड़ाते हैं बातों की, कि उन बातों की धूल में न केवल वे तुम्हारी आंखों को धोखा दे जाते हैं बल्कि खुद को भी धोखा दे लेते हैं। वे तुमसे भी बड़े धोखे में पड़ जाते हैं।
मैं तुम्हारे बहुत से महात्माओं को जानता हूं। करीब-करीब सारे तुम्हारे खास महात्माओं को जानता हूं। और जब भी निकट से उनसे मेरा मिलना हुआ है, तो मैं चकित ही हुआ हूं। पहले तो बहुत चकित होता था, फिर धीरे-धीरे चकित होना बंद हो गया, क्योंकि मैंने पाया कि वह तो करीब-करीब सभी की स्थिति थी।
एक जैन मुनि प्रवचन दे रहे थे। प्रसिद्ध मुनि हैं। नग्न हैं, दिगंबर मुनि हैं--देशभूषण जी महाराज। आनंद की बात कर रहे थे, परमानंद की बात कर रहे थे। न तो चेहरे पर कोई आनंद है, न कोई परमानंद है, न जीवन में कहीं कोई आनंद की बांसुरी बजती दिखाई पड़ती है। कहीं कुछ नहीं है। सब थोथा है। फिर जब मुझे एकांत में मिले तो पूछने लगे, आनंद की प्राप्ति कैसे हो? तो मैंने कहा कि आप तो आनंद की इतनी बातें कर रहे थे, इतने उद्धरण दे रहे थे, उमास्वाति और कुंदकुंद, कैसे-कैसे प्यारे उद्धरण आप दे रहे थे। उन्होंने कहा, हटाओ उद्धरणों को। मैं पूछता हूं कि ध्यान कैसे करूं? कैसे मुझे आनंद उपलब्ध हो? वे तो आनंद की बातें हैं। वे तो मैं करता हूं क्योंकि लोग सुनने आते हैं। लोग समझने आते हैं तो लोगों को मार्गदर्शन देता हूं।
मार्गदर्शन कैसे दोगे? अभी खुद की दृष्टि नहीं है, खुद की आंख नहीं खुली है, किसको मार्गदर्शन दे रहे हो? और तुम जो भी मार्गदर्शन दोगे, वह भटकावा होगा, भूलभुलैया होगा। वह लोगों को और उलझाएगा। वे ऐसे ही उलझनों में पड़े हैं, और शब्दों के जाल उन्हें पकड़ लेंगे। किसी दिन अगर वे संसार की झंझटों से अपने को बचाए, तो तुम्हारे शब्दों की झंझटों में पड़ जाएंगे। मगर झंझटें जारी रहेंगी।
मैं यहां एक तीर्थ निर्मित कर रहा हूं विनोद भारती, जहां आनंद शब्द नहीं है, जहां आनंद अनुभव है; जहां आनंद के लिए परिस्थिति पैदा की जा रही है, जहां आनंद का वातावरण पैदा किया जा रहा है, जहां आनंद की भूमि पैदा की जा रही है। और इसलिए मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं: तुम्हें जो प्रतीति हो रही है, वह बिलकुल सम्यक है। सिर्फ आनंद-आनंद की बात करो तो समझना कि उपनिषद कंठस्थ हो गए हैं। लेकिन जब आनंद के साथ पीड़ा भी आए और जैसा आनंद बढ़े वैसे ही पीड़ा भी बढ़े, तो समझना कि तुम अब शब्द के पार जा रहे हो, अनुभव में उतर रहे हो। द्वार खुला मंदिर का। तुमने डुबकी मारनी शुरू की।
हां, पीड़ा भिन्न होगी, बिलकुल भिन्न होगी, क्योंकि इसका स्वाद और होगा। यह तिक्त और कड़वी नहीं होगी, यह मीठी होगी, अति मधुर होगी। यह पीड़ा भी आनंद का ही रूप होगी। इस पीड़ा में भी आनंद ही नर्तन करता हुआ मालूम होगा। यह पीड़ा भी आनंद की सहयोगी होगी। यह पीड़ा आनंद का विनाश नहीं करेगी, विध्वंस नहीं करेगी--उसे सहारा देगी, उसे बल देगी, उसे मजबूती देगी।
और तब तुम इस पीड़ा से भी मुक्त नहीं होना चाहोगे। यह पीड़ा प्रेम की पीड़ा है। यह पीड़ा प्रसव की पीड़ा है। यह पीड़ा केवल कुछ धन्यभागियों को मिलती है।

दूसरा प्रश्न: भगवान!
आप कहते हैं कि दुखी व्यक्ति ज्यादा भोजन करते हैं, इसलिए मोटे हो जाते हैं। फिर महात्मागण मोटे क्यों होते हैं?

सागर!
महात्मागण भी बेचारे बहुत दुखी व्यक्ति हैं। कोई आनंद की बात करने से थोड़े ही आनंदित हो जाता है। आनंद की लफ्फाजी में मत खो जाना।
सच तो यह है कि तुम्हारे महात्मागण जितने मोटे, जितने भद्दे और बेहूदे हो जाते हैं, उतने सांसारिक भी नहीं होते दिखाई पड़ते। और कारण साफ है। सांसारिक को और भी काम हैं, महात्मा को तो कुछ काम बचता ही नहीं, उसको तो दो ही काम बचते हैं--लोगों को मार्गदर्शन दे और भोजन करे। वह भोजनभट्ट हो जाता है। और उसके जीवन में बिलकुल खालीपन होता है। पत्नी छोड़ आया, जगह खाली हुई।
तुम जरा खयाल करना, तुम्हारी पत्नी मर जाए, तुम्हें पीड़ा इस बात की थोड़े ही होती है कि पत्नी मर गई। शायद इस बात का तो थोड़ा तुम्हें आनंद ही आ रहा होगा कि चलो अच्छा हुआ मर गई, झंझट मिटी। मगर फिर भी एक पीड़ा होगी, एक दुख होगा। और वह दुख इस बात का होगा कि पत्नी ने तुम्हारे जीवन में एक जगह बना रखी थी, उसने तुम्हारे भीतर स्थान भर रखा था, वह स्थान खाली हो गया। तुम्हारे भीतर एक रिक्तता अनुभव होगी। पति मर जाए तो और भी ज्यादा रिक्तता अनुभव होगी। क्योंकि हमने स्त्रियों को बिलकुल अपाहिज कर दिया है। पतियों के ऊपर इतना निर्भर कर दिया है कि पति मर जाए तो पत्नी मरने तक को राजी हो जाती है। सतियां इसीलिए तो हुईं। सता नहीं हुए। पुरुष नहीं मरे स्त्रियों के साथ। वे क्यों मरें? थोड़ी सी जगह खाली होती है। निन्यानबे प्रतिशत तो भरी रहती है, एक प्रतिशत खाली होती है, सो किसी और स्त्री को बिठा लेंगे। कोई खास अड़चन नहीं हो जाने वाली।
इधर पत्नी मरती नहीं, मरघट से लोग घर आते नहीं, कि विवाह की चर्चा शुरू हो जाती है। मरघट पर ही शुरू हो जाती है। मैंने मरघट पर ही चर्चा सुनी है। अभी पत्नी जल रही है और लोग सोच रहे हैं कि अब इस बेचारे का विवाह कहां करवा दिया जाए। अभी तो जवान है। अभी तो उम्र ज्यादा नहीं। अभी तो अच्छी लड़की मिल जाएगी। अभी पत्नी जल ही रही है और विवाह की चर्चा शुरू हो गई!
पुरुष के जीवन में पत्नी का स्थान थोड़ा सा है; उसके पास और हजार काम हैं। उसको चुनाव भी लड़ना है, धन भी कमाना है, पद भी, प्रतिष्ठा भी, यश भी, और-और हजार काम उसकी दुनिया में हैं, उन सबसे वह अपने को भरे हुए है। पत्नी भी एक उन हजार कामों में काम है। मगर स्त्री के लिए तो पुरुष पूरी जगह भर लेता है। करीब-करीब उसकी पूरी आत्मा बन जाता है!
यह अच्छा नहीं है, क्योंकि इसका परिणाम यह होता है कि पुरुष अगर मर जाए तो स्त्री अपने को इतने खालीपन में पाती है कि बजाय जीने के मरना ही पसंद करेगी। जीना मरने से बदतर मालूम होगा। और जो जगह खाली हो गई, उसको भरने भी हम नहीं देते। पुरुष तो दोबारा विवाह कर ले, लेकिन स्त्री को हम कहते हैं कि वह विधवा हो गई, अब उसका विवाह नहीं हो सकता। अब विधवा से कौन विवाह करेगा? लोग कहते हैं, एक पुरुष को खा गई, इससे कौन विवाह करेगा? यह दूसरी को खा जाए। पुरुष के बाबत कोई ऐसा नहीं सोचता।
मुल्ला नसरुद्दीन ने चौथी शादी की। मैंने पूछा कि तेरी पत्नियां इतनी जल्दी-जल्दी कैसे मर जाती हैं? उसने कहा, क्या करूं, मेरे घर में बगीचे में एक जहरीली घास पैदा होती है, उसको खाने से मर जाती हैं। मैंने कहा, पहली भी उसी से मरी? उसने कहा, पहली भी उसी से मरी, दूसरी भी और तीसरी भी। मैंने कहा, चौथी? उसने कहा कि चौथी घास खाने को राजी नहीं थी, मैंने उसकी खोपड़ी खोल दी। वह ऐसे मरी। अब वह पांचवीं की तलाश में है।
पुरुष से कोई नहीं कहता कि अगर उसकी पत्नियां मर गईं तो इसमें कुछ पुरुष का भाग्य कलुषित है, अभागा है। नहीं, लेकिन स्त्री का पति मर जाए तो वह खा गई। स्त्रियों के साथ हमने इस तरह के अमानवीय व्यवहार किए हैं जिसका जिस दिन भी हिसाब लगाया जाएगा, जिस दिन भी पुरुष को अदालत के कटघरे में खड़ा किया जाएगा, उस दिन कोई भी सजा कम पड़ेगी। उसके अपराध बहुत भयंकर हैं। फिर उसने स्त्री को इतना ज्यादा दीनऱ्हीन कर दिया है--न उसे पैसा कमाने देता, न उसे कोई दूसरा काम करने देता, न उसे बाजार में जाने देता--तो स्वभावतः सब कुछ सिकुड़ कर पति पर ही टिक जाता है।
अब इसमें एक विरोधाभास है। पुरुष ही अपने हाथ से स्त्री को पंगु कर देता है ताकि वह उस पर निर्भर हो जाए; और जब वह उस पर निर्भर हो जाती है तो वह उसे सताती है। वह सताएगी ही, क्योंकि उसके पास कुछ और बचा नहीं, जो कुछ है वही है। तो वह बैठी है, रास्ता देख रही है कि तुम घंटा भर लेट पहुंचे, क्यों लेट पहुंचे? कहां रहे? क्योंकि तुम्हें अंदाज नहीं कि घंटे भर...तुम्हारे लिए घंटा है। शायद घंटा भी न हो। तुम गपशप में मित्रों के साथ बैठे होओ कि ताश खेल रहे होओ। लेकिन तुम्हारी पत्नी के लिए तो जीवन में कुछ भी नहीं है। तुम ही हो एकमात्र। तुम्हीं उसके भराव हो। तुम नहीं हो तो वह खाली है। उसके लिए घंटा यूं बीतता है जैसे कि वर्षों बीत गए। उसकी पीड़ा का तुम्हें अंदाज नहीं। तो तुम कहते हो, एक घंटे में क्या बिगड़ गया तेरा?
तुम्हें घंटा है, लेकिन तुम सापेक्षता को नहीं समझते। उसे घंटा नहीं है। तुम दोनों की स्थिति बिलकुल भिन्न है।
तो वह फिर तुम्हें परेशान करती है। तुमने उसे सब तरफ से पंगु कर दिया, सब तरफ से तुमने उसे दीवालें बंद कर दीं, एक ही दरवाजा छोड़ा। वह दरवाजा तुम हो। तो फिर वह दरवाजे को पकड़ कर रहती है कि दरवाजे को कोई ले न जाए, कोई उड़ा न ले जाए, कोई दूसरा इसको न कब्जा कर ले। तो वह ध्यान रखती है। घर आते हो तो सब कपड़े-लत्ते देखती है कि कहीं कोई बड़ा बाल वगैरह तो नहीं कपड़े पर पड़ा हुआ है।
चंदूलाल की पत्नी रोज पहला काम यह करती है कि उनके कपड़े की जांच-पड़ताल करती है। और झगड़ा शुरू, क्योंकि बाल मिल ही जाते हैं। चंदूलाल गंजे हैं तो यह भी नहीं कह सकते कि ये मेरे बाल हैं। तो ये इतने बड़े बाल कहां से आए? अब स्त्रियों के गले मिलते होंगे तो बाल वगैरह छूट ही जाते होंगे। झूम-झटक होती होगी, बाल छूट जाते होंगे।
एक दिन वह एकदम छाती पीट कर रोने लगी। चंदूलाल ने पूछा, आज क्या हुआ? क्योंकि चंदूलाल उस दिन घर पहुंचने के पहले ही लांड्री में गए और लांड्री वाले से कहा कि निकाल ब्रश, सब कपड़े बिलकुल ब्रश से साफ कर दे। एक दफे तो घर ऐसा पहुंचूं कि ये बालों के पीछे झगड़ा न हो। सो उस दिन एक-एक बाल सफा करवा कर आए थे। कोई भूल-चूक न छोड़ी थी। अब यह किसलिए छाती पीट रही है? चंदूलाल बोले, हद हो गई। अब किसलिए छाती पीट रही है? अब किसलिए रो रही है? वह कहने लगी, तुमने हद कर दी! तो अब तुम गंजी स्त्रियों के साथ भी जाने लगे! जाहिर है। एक सीमा होती है। बाल वाली स्त्रियों के साथ जाते थे, यह भी ठीक था। मतलब मैं गंजी स्त्रियों से भी गई-बीती हो गई! मेरे साथ तो घड़ी भर बैठने में तुम्हें बेचैनी होती है और यहां-वहां हर कहीं तुम पता नहीं कहां-कहां मुंह मारते फिरते हो।
तो स्त्रियां फिर इतनी ज्यादा जासूसी में लग जाती हैं। पूरे वक्त जांच रखती हैं। स्वभावतः। कसूर पुरुष का है। तुमने उनकी जिंदगी को सब तरफ से पंगु कर दिया। अब तुम्हीं उनके सब कुछ हो। तुम पर से नजर नहीं हटाई जा सकती। तुम गए कि सब गया। अगर उनके जीवन में कुछ और भी होता तो तुम पर इतनी नजर नहीं टिकती। तुम घंटे भर देर से आते तो कौन फिक्र करता था। शायद तुम घर आते तो पत्नी खुद ही वहां नहीं होती। उसके भी क्लब हैं, उसके भी मित्र हैं।
पश्चिम में हालत बदल गई है।
एक आदमी युद्ध के मैदान से लौटा। डेढ़ साल बाद घर आया। देख कर हैरान हुआ कि पत्नी एक दो महीने के बच्चे को गोद में लिए बैठी है। उसने पूछा, यह मामला क्या है? डेढ़ साल से मैं घर में नहीं था, यह बच्चा कैसे पैदा हुआ? जरूर यह रोनाल्ड का बच्चा होना चाहिए। पत्नी ने कहा कि नहीं, रोनाल्ड का नहीं है। तो उसने कहा, फिर जॉनसन का होना चाहिए। पत्नी ने कहा, नहीं, यह जॉनसन का भी नहीं है। तो उसने कहा, यह मरफी का तो होना ही चाहिए! पत्नी ने कहा, तुम्हारा होश ठिकाने है कि नहीं? अपने-अपने ही दोस्तों के नाम गिना रहे हो, जैसे मेरे कोई दोस्त ही न हों!
पश्चिम में हालत बदल गई है। तुमने कोई ठेका ले रखा है? तुम्हारे ही तुम्हारे दोस्त--रोनाल्ड, जॉनसन, मरफी। अरे मेरे भी दोस्त हैं!
पश्चिम में अब पति देर से आता है, पत्नी उससे भी देर से आती है। अक्सर तो पति बैठा राह देखता है। अब उसको समझ में आता है कि सदियों से जो पत्नी कलह कर रही थी, वह किसलिए कर रही थी। अब जब उसको राह देखनी पड़ती है घर बैठ कर, चिंतित होना पड़ता है कि पता नहीं कहां गई, किसके साथ गई, क्या कर रही होगी, क्या नहीं कर रही होगी--हजार कल्पनाओं में डूब जाता है--कहीं भाग ही तो नहीं गई, भाग गई तो ये बच्चों का क्या होगा!
स्त्री को कुछ और नहीं है, सिर्फ पुरुष बचा। और जब सिर्फ पुरुष बचा और जीवन में कोई और आयाम न रहा...न तुम उसे संगीत सीखने दो, क्योंकि तुम्हें डर कि संगीत मास्टर से ही कहीं प्रेम बन जाए! और संगीत मास्टर कोई ढंग के आदमी तो होते नहीं। बेढंगे आदमी खोजने हों, संगीत मास्टर खोज लो। जमाने भर के लफंगे, नहीं तो वे संगीत मास्टर किसलिए होते! जब कुछ नहीं हो सके तो संगीत मास्टर हो गए। नहीं तो कोई तबला-पेटी बजाता है! जिनमें अकल है वे कोई तबला-पेटी बजाते हैं! कुछ और काम करते। यह क्या रा-रूं, रा-रूं! मतलब खुद तो बिगड़े हैं, अब पत्नी को बिगाड़ेंगे। और ये आदमी कुछ ढंग के हो ही नहीं सकते--शराब पीएंगे, सिगरेट पीएंगे, सब तरह की हरकतें इनमें पाई जाएंगी और गाना फिल्मी गाएंगे। और फिल्मी गाने गाओगे तो पत्नी पर भी जोश चढ़ेगा।
तो संगीत सीखने नहीं दे सकते। पेंटिंग करने नहीं दे सकते, क्योंकि पेंटिंग करने कहीं सीखने जाना पड़ेगा। और पेंटर्स भी भरोसे के आदमी नहीं। एक तो पहली बात, ये कोई विवाहित नहीं होते। विवाहित आदमी भरोसे का होता है, क्योंकि पत्नी उसके चरित्र की रक्षा करती है। अविवाहित आदमी का कोई रक्षक नहीं। न घर है, न कोई ठिकाना है--इनका क्या भरोसा! कहीं कोई लंगर ही नहीं है। जहां दिल आया चल पड़े--आज यहां, कल वहां।
चित्रकारी तुम सीखने नहीं दोगे। कविता तुम सीखने नहीं दोगे, क्योंकि कवि तो सबसे गए-बीते। ये जो न करें सो थोड़ा--गांजा पीएं, अफीम खाएं, शराब पीएं। असल में जब तक ये शराब न पीएं तब तक ये कहते हैं कविता ही नहीं उठती।
तो तुम पत्नी को कोई आयाम दूसरा तो दे नहीं सकते। तुम पत्नी को नौकरी भी नहीं करने दे सकते कहीं। क्योंकि तुम्हें खुद का अनुभव है कि तुम दफ्तर में जहां मालिक हो, वहां जो-जो स्त्रियां नौकरी करती हैं उनके साथ तुम क्या करते हो। तो आदमी अपने अनुभव से ही चलता है। एक टाइपिस्ट हो तो पूरा दफ्तर उसके पीछे पड़ा है। टाइपिस्ट को टाइपिंग करने का मौका ही नहीं मिलता, अवसर ही नहीं मिलता, फुरसत कहां उसको!
तो तुम जानते हो कि पत्नी टाइपिस्ट कहीं हो जाए वह भी ठीक नहीं। स्कूल में मास्टरनी नहीं होने दे सकते उसको तुम, क्योंकि मास्टर हैं और हेड मास्टर हैं और एजूकेशन बोर्ड के डायरेक्टर हैं, और एक से एक पहुंचे हुए पुरुष वहां मौजूद हैं। तुम अपने अनुभव से जानते हो कि तुम जहां मौजूद हो, तुम जो कर रहे हो, वही दूसरे पुरुष भी करेंगे। सो पत्नी को सब तरफ से बंद करके घर में रखो। ताला डाल कर कुंजी अपने पास रखो।
तो पत्नी करे क्या? उसके पास कुछ नहीं बचता। इसलिए अक्सर यह होता है कि विवाह के बाद स्त्रियां मोटी होनी शुरू होती हैं, विवाह के पहले नहीं। तुम जरा गौर करना इस बात पर। विवाह के पहले जो स्त्रियां बिलकुल छरहरे बदन की थीं, सुंदर थीं, अनुपात में जिनका शरीर था, विवाह के बाद एकदम बेडौल और बेढंगी होने लगती हैं। अब कोई काम बचा ही नहीं उनको। फिर चलीं फ्रिज खोला। चौका है, फ्रिज है, घर के भीतर ही भीतर यहां से वहां होना है, कोई और दूसरा काम है नहीं। अब फ्रिज बार-बार खोलोगे, तो आखिर आदमी आदमी है, आदमी का मन आदमी का मन है, और वहां एक से एक चीजें सजी हुई रखी हैं, तो वे दिन भर खा-पी रही हैं। और जीवन उनका दुख से भरा हुआ है। तो जिस व्यक्ति का जीवन दुख से भरा हुआ होता है, उसके भीतर एक इतनी रिक्तता है कि उसको भर लेने की चेष्टा चलती है, तो वह भोजन से अपने जीवन को भरता रहता है।
यहां मेरा अनुभव है। यहां दीक्षा है। दीक्षा जब पहली दफा आई थी तो यहां कोई संन्यासी उसका मुकाबला नहीं कर सकता था। वह आई ही मेरे पास इसीलिए थी इटली से कि दुबला उसे होना था। क्योंकि इतनी मोटी लड़की को कोई प्रेमी न मिले, कोई दोस्त न बने। उसने जो पहली समस्या मेरे सामने रखी थी वह यही थी कि जिससे भी दोस्ती बनती है, वही मुझको बहन मानने लगता है। यही मेरे जीवन का दुख है। जो देखो वही भाई हो जाता है। तो मैं क्या करूं? जब तक मेरे शरीर की यह हालत है...।
शरीर सच में उसका गजब का था। लेकिन अब शरीर उसका एक चौथाई हो गया। और कुछ करना नहीं पड़ा। कुछ न व्यायाम करवाना पड़ा है...वह तो सब कर चुकी थी इटली में, वह जो-जो चिकित्सक सलाह दिए थे। दवाइयां ले चुकी थी, व्यायाम कर चुकी थी, डाइटिंग कर चुकी थी--कोई परिणाम नहीं हुआ था। यहां कुछ भी नहीं करना पड़ा। लेकिन यहां वह आनंदित है, प्रफुल्लित है। प्रफुल्लित है इसलिए अब अपने को भरने की कोई जरूरत नहीं रह गई।
यहां आकर सारे संन्यासी धीरे-धीरे जो उनका व्यर्थ वजन है वह खो देते हैं, अपने आप खो देते हैं।
दुख आदमियों को मोटा बना देता है। सुख में एक सौंदर्य है, दुख में एक कुरूपता है। क्यों ऐसा होता है कि दुख आदमी को मोटा बना देता है? बचपन से ही उसका मनोविज्ञान समझना जरूरी है। जिस बच्चे को मां हर समय दूध देने को तैयार है, वह ज्यादा दूध नहीं पीता। पीएगा ही नहीं। कोई कारण नहीं है। भविष्य सुरक्षित है। जब भूख लगेगी, तब मां दूध देने को राजी है। लेकिन जो मां दूध देने में कृपण है, और लाख ना-नुच करती है, इनकार करती है, बचने की कोशिश करती है, जहां तक बने बच्चे को हटाने की कोशिश करती है, वहां तक बच्चे को जब भी स्तन मिल जाएगा मां का तो वह छोड़ेगा नहीं। जितना दूध पी सकता है पी लेगा, क्योंकि भविष्य असुरक्षित है।
तुमने अगर देखा हो, गरीब बच्चों के पेट एकदम बड़े हो जाएंगे! सारा शरीर सूख जाएगा और पेट बड़े हो जाएंगे। तुमने तस्वीरें देखी होंगी, अखबारों में छपती हैं। जहां अकाल पड़ जाता है, वहां लोगों की तस्वीरें देखो--सारा शरीर दुबला हो जाता है और पेट एकदम बड़े हो जाते हैं। यह बड़ी अजीब बात है। पेट दुबले होने चाहिए, क्योंकि अकाल पड़ा हुआ है। लेकिन पेट बड़े हो गए हैं, क्योंकि जो मिल जाता है उसको भर लो, कल का क्या पता!
कल असुरक्षित हो तो आदमी अपने शरीर में भोजन इकट्ठा कर लेना चाहता है। शरीर में एक व्यवस्था है भोजन को सुरक्षित करने की, उससे ही आदमी मोटा होता है। प्रत्येक आदमी के भीतर शारीरिक व्यवस्था है कि तीन महीने के लिए भोजन इकट्ठा किया जा सकता है। इसलिए कोई भी व्यक्ति अगर ठीक स्वस्थ हो तो तीन महीने तक उपवास कर सकता है। मरेगा नहीं, दुबला होता जाएगा, हड्डी-हड्डी हो जाएगा, लेकिन मरेगा नहीं। तीन महीने तक, नब्बे दिन तक कोई मौत नहीं होने वाली। सामान्य स्वस्थ आदमी तीन महीने तक मजे से जी सकता है बिना कुछ खाए। क्योंकि तीन महीने लायक तक चर्बी आदमी इकट्ठी कर लेता है।
स्त्रियां और भी ज्यादा चर्बी इकट्ठी कर लेती हैं। वह इस कारण कि उनको गर्भ धारण करना है। और जब बच्चा पेट में होगा तो वे ज्यादा भोजन नहीं कर सकेंगी, क्योंकि बच्चा स्थान ले लेगा, भोजन मुश्किल हो जाएगा। गर्भवती स्त्रियों को वमन हो जाएगा, भोजन करना मुश्किल हो जाएगा, भूख मर जाएगी, खाना भी चाहेंगी तो खा नहीं सकेंगी। तो उस तैयारी के लिए उनके शरीर का इंतजाम अलग है। इसलिए स्त्रियों को मसल नहीं होतीं, चर्बी होती है। इसलिए स्त्रियों के शरीर में एक गोलाई होती है जो पुरुषों के शरीर में नहीं होती। चर्बी गोलाई देती है।
इसलिए तुमने यह बात देखी होगी मजे की कि स्त्रियां सर्दी से सर्दी के दिन हों तो भी बिना बांह के ब्लाउज पहने हुए मजे से चल सकती हैं, कोई अड़चन नहीं उनको। जरा पुरुष को बिना बांह की कमीज पहना कर सर्दी में चलाओ--उनके दांत किटकिटाने लगेंगे। माजरा क्या है? पुरुष तो बलशाली है। इसको दांत नहीं किटकिटाने चाहिए। शर्म नहीं आती! पुरुष होकर, मर्द बच्चा होकर दांत किटकिटा रहा है! और स्त्रियां मजे से चली जा रही हैं।
स्त्रियों के कपड़े कम से कम होते जाते हैं। जैसे सभ्यता विकसित होती है किसी देश में, कपड़े कम होते जाते हैं। कपड़े के कम होने से तुम समझ लो कि सभ्यता विकसित हो रही है। स्त्रियां बिना कपड़े के मजे से रह सकती हैं, कोई अड़चन नहीं मालूम होती। उसका कुल कारण इतना है कि सारे शरीर पर चर्बी की पर्त जम जाती है। चर्बी की पर्त ऐसा काम करती है जैसे ऊन के मोटे वस्त्र। उस चर्बी की पर्त को पार करके सर्दी भीतर प्रवेश नहीं कर सकती।
इसलिए ठंडे मुल्कों में भी, गर्म मुल्कों की तो बात छोड़ दो...और गर्म मुल्कों की स्त्रियों में अभी इतनी अकल भी नहीं आई है। गरम मुल्कों की स्त्रियां तो कपड़े पहने रहती हैं, ब्लाउज पहने रहती हैं, जम्पर पहने रहती हैं, कसे हुए, बांहों वाले! ठंडे मुल्कों की स्त्रियां, जहां कि बर्फ पड़ रही है, मगर उनके हाथ उघाड़े हैं। और होटलों में तो सेवा करने वाली जो परिचारिकाएं हैं, वे टॉपलेस। ऊपर का कपड़ा ही नहीं पहनतीं। सर्द मुल्कों में, जहां बर्फ पड़ रही है, ऊपर का कपड़ा नदारद है! और नीचे का कपड़ा भी कुछ खास नहीं है, साधु-संन्यासियों जैसा है--लंगोटी इत्यादि; पुरानी भाषा में कहो तो लंगोटी।
कारण है चर्बी का काफी मात्रा में इकट्ठा हो जाना। इसलिए स्त्रियां जितनी मोटी हो सकती हैं उतने पुरुष नहीं हो सकते। उनके पास काफी सुविधा है। बच्चे के लिए नौ महीने उनको भोजन से करीब-करीब वंचित रहना पड़ेगा या कम से कम भोजन करना पड़ेगा, तो नौ महीने के लिए उनको शरीर में चर्बी इकट्ठी करनी पड़ती है।
इसलिए स्त्रियां उपवास आसानी से कर सकती हैं। यह जिनके परिवारों में उपवास होता है, वे लोग भलीभांति जानते हैं। पुरुष की जान निकलती है, स्त्रियां मजे से कर लेती हैं।
मैं सोहन के घर जब पहली दफा ठहरा तो सोहन दस-दस दिन के उपवास कर लेती थी। पर्युषण के दिन दस दिन उपवास। माणिक बाबू से कोई करवाए दस दिन के उपवास। होश-हवास खो देंगे। दस दिन में तो आत्मा परमात्मा से मिलने लगेगी। मगर सोहन दस दिन के मजे से उपवास करती थी, कोई अड़चन नहीं।
जैन स्त्रियां जिस तरह उपवास करती हैं, पुरुषों को बिलकुल मात कर देती हैं। पुरुषों को सिद्ध कर देती हैं--तुम काहे के धार्मिक हो! जैन साध्वियां जैसी उपवास में कुशल होती हैं, जैन मुनि नहीं होते। जैन मुनि हो नहीं सकते। उसका कारण कुछ और नहीं है, कारण सिर्फ यह है कि स्त्रियां चर्बी इकट्ठी करने में कुशल हैं, पुरुष चर्बी उतनी इकट्ठी कर नहीं सकता। वह उसकी शारीरिक क्षमता नहीं है।
मगर अगर स्त्रियां दुखी हों तो फिर बहुत मोटी हो जाएंगी। पुरुष दुख में भी इतना मोटा नहीं होता। मगर दुख में लोग ज्यादा भोजन करते हैं--यह सुनिश्चित बात है। सुख में लोग कम भोजन करते हैं। मेरी दृष्टि यही है कि महावीर ने उपवास नहीं किए जैसा जैन मुनि करते हैं। वे तो आनंद की अवस्था में ऐसे तल्लीन थे कि भोजन नहीं किया। भोजन करने का खयाल नहीं आया, बात ही नहीं उठी, भूल ही गए। ऐसी मस्ती में थे, ऐसी मदमस्ती! वह अनशन नहीं था, वह उपवास ही था। उपवास का अर्थ होता है: अपने पास होना। अपनी आत्मा के इतने निकट थे, वहां ऐसी रसधार बह रही थी आनंद की, ऐसा अमृत बरस रहा था कि कौन फिक्र करे! कौन जाए भीख मांगने, किसको पड़ी! कब दिन निकला, कब दिन गुजरा, पता ही न चले।
यहां मेरे न मालूम कितने संन्यासी मुझे आकर कहते हैं कि बड़ी हैरानी की बात है कि जब से यहां आए हैं, समय कैसे गुजर जाता है, पता नहीं चलता! दिन निकल जाते हैं, महीने निकल जाते हैं, वर्ष निकल जाता है--यूं जैसे अभी आया, अभी गया।
जब तुम मस्ती में हो तो समय शीघ्रता से भागता है; जब तुम दुख में हो, समय ठिठक-ठिठक कर चलता है, चलता ही नहीं जैसे। जैसे घड़ी जंग खा जाती है, कांटे सरकते ही नहीं। और जब तुम आनंद में होते हो तो कांटे भागते हैं।
दुखी आदमी क्या करे? उसके भीतर एक रिक्तता मालूम होती है, एक गङ्ढा मालूम होता है। इसलिए सागर, मैं कहता हूं कि भोजन ज्यादा करना दुखी आदमी का लक्षण है।
मैं तुमसे नहीं कहता उपवास करो। मेरी तुम बात को समझना। मेरी बात हर जगह पुरानी तथाकथित रूढ़ियों से बिलकुल विपरीत है। मैं उपवास का आनंद समझता हूं, लेकिन मैं यह नहीं कहता कि तुम उपवास करो। मैं कहता हूं, तुम आनंदित हो जाओ; फिर अगर उपवास घट जाए, वह बात और। तब उपवास का मजा और। लेकिन उपवास मत करना। उपवास से आनंद नहीं घटेगा।
तुम्हें समझाया गया है सदियों से कि उपवास करोगे तो आत्मानंद मिलेगा। यह बात झूठ है। हां, इससे उलटी बात सच है--आत्मानंद मिले तो उपवास घट सकता है। मगर अपरिहार्यता नहीं है कि घटना ही चाहिए। अनिवार्यता नहीं है। यह प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग शारीरिक जरूरतों पर निर्भर होगा। और प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक जरूरतें बिलकुल अलग-अलग हैं, बिलकुल भिन्न-भिन्न हैं।
पर तुमने पूछा है कि फिर महात्मागण क्यों मोटे होते हैं?
उसका भी कारण वही है। वे भी दुखी लोग हैं। उनका दुख तुमसे ज्यादा है। तुम्हें तो कम से कम थोड़ी आशा है कि संसार में हो तो आज नहीं कल कुछ न कुछ पा लोगे, कभी न कभी सुख मिल जाएगा; दौड़ रहे हो, लड़ रहे हो, संघर्ष कर रहे हो। महात्मागण ने तो संसार छोड़ दिया, अब उनको एक और दोहरी चिंता हो गई है कि पता नहीं उन्होंने ठीक किया या नहीं।
न मालूम मुझसे कितने महात्माओं ने कहा है कि कई बार यह शंका मन में उठती है, यह संदेह मन को पकड़ लेता है कि हमने ठीक किया! अगर हम ठीक हैं तो संसार के ये करोड़ों-करोड़ों लोग गलत हैं। क्या इतने लोग गलत हो सकते हैं? और फिर सब छोड़ कर भी हमको कोई आनंद तो मिल नहीं रहा है। तो कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि हमने भ्रांति कर ली है अपने साथ, अपने को धोखा दे लिया है।
तो महात्मागण क्या करें? न काम है, न धंधा है, न ताश खेल सकते हैं, न क्लब जा सकते हैं, न सिनेमा देख सकते हैं। कोई और दूसरी तो संभावना बची नहीं, सिर्फ एक ही बचा है सुख उनके लिए--स्वाद का सुख। सो तुम देख सकते हो तुम्हारे अखंडानंद, पाखंडानंद और न मालूम...नाम तो उनके सबके आनंद में हैं, आनंद ही आनंद मालूम होता है नाम से तो--अखंडानंद। मगर अगर उनके ढंग देखो तो साफ जाहिर होता है कि आदमी दुखी है, परेशान है, इनका कुल रस खाने-पीने में है।
मटकानाथ ब्रह्मचारी पंद्रह-बीस आदमियों का भोजन हजम कर चुकने के बाद बोले, यजमान, पानी लाओ। यह सुन कर यजमान के प्राणों में प्राण आए। उसने पानी का लोटा दिया, तब मटकानाथ ने कहा, वत्स, मेरी यह खानदानी आदत है कि जब तक आधा खाना न हो जाए, तब तक पानी न पीया जाए। यजमान पर जो गुजरी वह तो तुम समझ ही गए होओगे। खैर पानी पीने के बाद उन्होंने फिर उतना ही खाना खाया, तब अपनी घड़े जैसी तोंद पर हाथ फेर कर वे बोले, अब इस बस में सवारियां ठसाठस भर चुकी हैं, अब कुछ नहीं खाऊंगा।
यजमान ने औपचारिकतावश कहा, नहीं-नहीं महाराज--अब यजमान को डर भी नहीं था--यह एक रसगुल्ला तो और ले लीजिए। अब यजमान ने सोचा कि अब थोड़ी उदारता ही दिखा दो। जब महात्मा ने इतनी उदारता बरती है तो अब अपनी तरफ से भी क्या कंजूसी दिखानी! अब बरबाद तो कर ही चुका है यह। कहा कि यह तो रसगुल्ला लेना ही होगा। पक्का भरोसा था कि वे नहीं लेंगे। कहा, यह तो खास आपके लिए ही बनाया गया है। नहीं, आपको लेना ही होगा।
ब्रह्मचारी ने झट से उसे लिया और गपक गए। बोले, लाओ-लाओ, अभी बस में कंडक्टर की सीट खाली है। मगर अब बिलकुल भी जगह नहीं बची--पांव रखने की भी नहीं।
रसगुल्ले के बाद यजमान ने एक मिश्री का बड़ा सा लड्डू देते हुए कहा, महाराज, यह और ग्रहण कीजिए। सोचा कि अब तो असंभव है। अब तो कंडक्टर की जगह भी भर चुकी। इतनी कृपा तो--उसने कहा--आपको मुझ पर करनी ही होगी, वरना मेरी आत्मा को बड़ा क्लेश पहुंचेगा। हमारे परिवार में परंपरा है कि मेहमान को अंत में मिश्री का लड्डू अवश्य परोसा जाए।
मटकानाथ के मुंह में फिर पानी आ गया। वे बोले, ठीक है, लाओ उसे भी ठिकाने लगा दूं। ऐसा कह वे उसे भी हजम कर गए।
यजमान ने पूछा, महाराज, एक शंका उठ आई है, समाधान करिए। आपने तो कहा था कि बस में जरा सी भी जगह नहीं है, फिर यह लड्डू कहां समा गया?
ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया, वत्स, यदि बस में तिल रखने की भी जगह नहीं है और देश का प्रधानमंत्री आ जाए, तो उसके लिए जगह मिलेगी कि नहीं? बस यही समझो कि मिश्री का यह लड्डू प्रधानमंत्री है।
फिर यजमान ने हिम्मत भी नहीं की कि अब कुछ और आगे औपचारिकता दिखाए।
तुम अपने महात्माओं पर जरा ध्यान दो। और ये वे ही लोग हैं जो चौबीस घंटे तुम्हें समझा रहे हैं कि यह जगत तो माया है। इस देह में क्या रखा है, यह तो मिट्टी है, यह तो सब सपना है, स्वप्नवत। और इनके शरीर देखो और इनका भोजन देखो, तब तुम समझ जाओगे कि इनकी बातों में कितनी सचाई है, कितना अर्थ है।
तुम्हारे महात्माओं में और तुम्हारी स्त्रियों में बहुत भेद नहीं है। इसलिए दोनों में तालमेल भी बैठता है। तुम्हारे महात्मा तुम्हारी स्त्रियों के सहारे ही जी रहे हैं। और तुम्हारी स्त्रियों के लिए और कहीं कोई जगह नहीं है जाने की, क्योंकि और जगह तो तुम्हें शक-संदेह है, एक महात्माओं पर भर नहीं तुम्हें शक-संदेह होता। महात्मा तो महात्मा हैं। सो वहां तुम स्त्रियों को जाने देते हो। संगीतज्ञों के पास जाने नहीं दोगे, नर्तकों के पास जाने नहीं दोगे, कवियों के पास जाने नहीं दोगे; बस एक जगह तुमने छोड़ रखी है--मंदिर, महात्मा। क्योंकि तुम सोचते हो कि महात्मा तो पहुंचे हुए व्यक्ति हैं, संसार को माया कह रहे हैं। तो तुम्हारी स्त्रियों में और तुम्हारे महात्माओं में एक तालमेल है, एक षडयंत्र है। स्त्रियां ही तुम्हारे तथाकथित महात्माओं को जिलाए हैं, चला रही हैं। और तुम्हारे महात्मा भी दुखी हैं और तुम्हारी स्त्रियां भी दुखी हैं। और दुखियों में सहानुभूति पैदा हो जाती है। दुखी एक-दूसरे के कंधे पर सिर रख कर रोने लगते हैं।
तीन मित्र अपनी-अपनी मोटी पत्नियों के बारे में चर्चा कर रहे थे। एक बोला, मेरी बीबी इतनी मोटी है कि रिक्शे वाले उसे बिठाने से मना कर देते हैं। और तांगे वाले कहते हैं--माफ करिए, एक बार में तो हम नहीं ले जा सकते, यदि दो फेरी में ले जाएं तो क्या आपको कोई एतराज है?
दूसरा मित्र बोला, मेरी बीबी इतनी मोटी है कि पिछली बार जब हम लोग स्टेशन से घर आने के लिए टैक्सी में बैठने लगे, तो टैक्सी ड्राइवर का झगड़ा हो गया पास में ही खड़े एक ट्रक ड्राइवर से। कुछ मामला यह था कि ट्रक ड्राइवर कहता था कि भाई, तू हमारा धंधा चौपट किए दे रहा है। ट्रक की सवारी टैक्सी में ले जा रहा है।
तीसरा मित्र बोला, यह भी कुछ नहीं। तुम मेरी बीबी के किस्से सुनोगे तो सुन कर गश खा जाओगे। परसों शाम की ही बात है, मैं उसका पेटीकोट धुलवाने के लिए धोबी के यहां गया, तो धोबी ने कहा--क्षमा कीजिए श्रीमान जी, हमारे यहां टेंटत्तंबू वगैरह धोने का काम नहीं किया जाता।
दोनों दुखी हैं। स्त्रियां महात्माओं का सत्संग करती हैं, महात्माओं की सेवा करके उनको सांत्वना देती हैं। और महात्मा पौराणिक कथाएं, व्यर्थ की झूठी कपोल-कल्पित कहानियां सुना-सुना कर स्त्रियों को सांत्वना देते हैं।

तीसरा प्रश्न: भगवान!
मैं आपका संन्यास लेने से बहुत ही डरता हूं। कृपया अपनी शराब कुछ ऐसी पिलाएं कि मैं साहस कर सकूं!

देवराज मेहता!
मेरा संन्यास है तो खतरनाक। डर तो स्वाभाविक है। शराब भी मैं पिला सकता हूं। वही मेरा धंधा है। लेकिन शराब के जोश में तुमने अगर संन्यास ले लिया, तो वह उचित न होगा। वह तुमने अपनी सूझ-बूझ, अपने होश-हवास में न लिया होगा--बेहोशी में लिया होगा।
और शराब जब उतर जाएगी, फिर क्या करोगे? यहां से जब घर जाओगे, गांव के लोग मिलेंगे, पत्नी के दर्शन करोगे, बाल-बच्चे पूछेंगे कि डैडी, तुम्हें क्या हो गया? भले-चंगे घर से गए थे! उन सबको देख कर नशा तिरोहित हो जाएगा।
नशे में लिया गया संन्यास नशे के तिरोहित होते ही गिर भी जाएगा। उसका कोई मूल्य नहीं है। होश-हवास में लो।
फिर एक खतरा और भी है। नशे के साहस का कोई भी मूल्य नहीं है। नशे के साहस में तुम कुछ ऐसा काम भी कर सकते हो जो करके तुम पीछे पछताओ--बहुत पछताओ।
नशा तो मैं पिलाता हूं और ऐसा पिलाता हूं कि जनम-जनम न उतरे। मगर संन्यासी हो जाओ तभी पिलाता हूं, उसके पहले नहीं। संन्यासी होना मेरे मयकदे का प्रवेश-पत्र है। उसके पहले सुनो मेरी बात, समझो मेरी बात, होश-हवास से, सजग होकर, सोए-सोए नहीं।
संन्यास लेने तक तो तुम्हारा होश-हवास मैं चाहता हूं पूरा कायम रहे। क्योंकि तुम कुछ ऐसा काम न कर गुजरो जिसके लिए तुम्हें पछताना पड़े।
एक शराबघर में एक बिल्ली थी। एक दिन वह एक चूहे के पीछे दौड़ी। चूहा भी भागा और भागते हुए एक शराब से भरे हुए बर्तन में जा गिरा। बिल्ली काफी देर इंतजार करती रही, तलाशती रही, मगर चूहा न मिला सो न मिला। दूसरे दिन शराबघर के मालिक ने चूहे को बाहर निकाला। चूहा गरज कर बोला, कहां है वह हरामजादी बिल्ली? क्या समझ रखा है अपने को? लाओ मेरे सामने, कर दूं चारों खाने चित्त।
नशे में कुछ उलटा-सीधा काम न कर बैठना।
फिर नशे का भरोसा क्या? मैं तो पिला दूं, संन्यास ही निकले नशे से, यह कोई जरूरी नहीं है। हिम्मत आ जाए तो पता नहीं हिम्मत का क्या परिणाम हो! हिम्मत आ जाए और तेजी से भाग खड़े होओ। हिम्मत भागने की आ जाए, यह भी तो खतरा है, यह भी डर है। नशे की हिम्मत क्या करवाएगी, इसके लिए कोई पहले से निर्णय कर नहीं सकता।
सज्जन आदमी को नशा करवा दो, गालियां बकने लगता है। कोई सोचा भी नहीं था कि यह गीता-पाठी एकदम गालियां बकने लगेगा। सोचा तो हमने यह था कि नशा करवा देंगे तो गीता का उदघोष होगा, और यह बकने लगा मां-बहन की गालियां। गालियां भीतर भरी थीं, गीता तो ऊपर-ऊपर थी। वह तो होश रहता तो चलती।
होश में हो तब तक तुम्हें खयाल भी आ रहा है संन्यास लेने का, बेहोश होकर क्या खयाल आएगा, पता नहीं। भीतर क्या-क्या पड़ा हो, क्या न पड़ा हो! जन्मों-जन्मों का कचरा इकट्ठा है।
इसलिए जब तक तुम संन्यासी न हो जाओ तब तक मेरी शराब के तुम पात्र नहीं होते। हां, संन्यासी तुम हो जाओ, फिर मैं राजी हूं पिलाने को। फिर कोई मेरी तरफ से कमी नहीं होती। मगर जब तक तुम संन्यासी नहीं हो, तब तक मैं तुम्हें बिलकुल मुक्त छोड़ रखना चाहता हूं।
सुनो, समझो, विचारो, विश्लेषण करो, तर्क की कसौटी पर कसो, जल्दी मत करो, धीरज से, आहिस्ता से। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वह खतरनाक तो है ही। वह सारी परंपराओं का विरोध है, उनका अतिक्रमण है। हां, तुम निर्णय कर लोगे अपनी तरफ से, अपनी बुद्धि से समर्पण का, फिर ठीक है। उसके बाद तुम मेरे हाथ में हो। नहीं तो खतरा है।
मुल्ला नसरुद्दीन के दांत में बहुत पीड़ा थी, लेकिन दांत निकलवाने में नसरुद्दीन को बड़ा डर लगता था। दांत के डाक्टर ने उसे बहुत तरह से समझाया कि नसरुद्दीन, दर्द बिलकुल नहीं होगा। बस दो मिनट की बात है। लेकिन नसरुद्दीन बड़ा घबड़ाए। आखिर नसरुद्दीन जब तैयार न हुआ तो डाक्टर थोड़ी सी व्हिस्की लेकर आया और मुल्ला को देते हुए बोला, लो नसरुद्दीन, शायद इसे पीकर तुम्हें थोड़ी हिम्मत आए।
व्हिस्की पीने के दो-चार मिनट बाद तो नसरुद्दीन एकदम खड़ा हो गया और गरज कर बोला, अब आई साली हिम्मत। अब जरा कोई हाथ तो लगा कर देखे मेरे दांत को। अरे हाथ-पैर तोड़ दूंगा जिसने जरा सा छुआ मेरे दांत को।
अब कैसी हिम्मत आ जाए तुममें पी लेने के बाद कि तुम मुझसे ही कहने लगो कि अब देखूं कौन देता है मुझे संन्यास! या नशे में ऐसे भागो कि फिर कभी लौट कर ही न आओ। अभी कम से कम आ तो जाते हो।
आते रहो, जाते रहो, देवराज मेहता। आते रहे, जाते रहे, बात होने वाली है, देर-अबेर। मगर जब समय पक जाए तभी होनी चाहिए। कच्ची बात नहीं होनी चाहिए। कच्ची बात ठीक भी नहीं। कच्चा फल गिरे वृक्ष से तो सड़ जाएगा, किसी के काम न आएगा। पक जाए तो ही सार्थक है।
दो शराबी एक झाड़ पर बैठे हुए थे। डट कर पीए हुए थे। झूल रहे थे, झूम रहे थे, गीत गुनगुना रहे थे। एक उनमें से झाड़ से टपक पड़ा। उसके गिरने से जो धड़ाम की आवाज हुई तो दूसरा जो अभी भी झाड़ पर बैठा था, उसे जरा होश आया। उसने नीचे झांक कर देखा और कहा, भाई, मुझे बड़ी पीड़ा हो रही है कि तुम झाड़ से नीचे गिर गए। चोट वगैरह तो नहीं आई? उसने कहा, तू फिक्र मत कर। अरे तू गिरता तो हमें दुख होता। तुझे दुख करने की क्या जरूरत है? पहले ने पूछा, तुम्हारा मतलब? उसने कहा कि अरे हम तो पक चुके हैं, तू कच्चा है। अरे मूरख, जो पक जाएगा वह गिरेगा ही। अभी तू कच्चा है, लटका रह। जल्दी मत करना। जब पकेगा तब तू भी गिरेगा।
देवराज मेहता, थोड़े पक जाओ। अभी डंडा मार कर गिराया जा सकता है तुम्हें; मगर कच्चे गिर गए, क्या काम आओगे? किसी उपयोग के नहीं होओगे। आते रहो, जाते रहो, जल्दी न करो।
मामला तो यह खतरनाक है ही। और शराब भी जरूर पिलाऊंगा। यह शराब ऐसी है जो बेहोशी नहीं देती, होश देती है। मगर इस शराब की पहली शर्त है, वह तुम्हें पूरी करनी पड़े! वही संन्यास है। वही शिष्यत्व है। जब तक तुम वह शर्त पूरी नहीं करते, तब तक तुम पात्र ही नहीं हो कि मैं तुम्हारे पात्र को भरूं। तब तक तुम दर्शक हो, तब तक तुम इस तीर्थ के अंग नहीं हो।
मगर भाव उठ रहा है तो लगता है धीरे-धीरे पक रहे हो। गिरोगे, समय आ जाएगा। और जो समय पर बात होती है वही ठीक है। और हर चीज का अपना समय है। जल्दबाजी कभी भी शुभ नहीं है।

आखिरी प्रश्न: भगवान!
क्या धर्मगुरु सच ही बुद्धू होते हैं?

दीपक!
पता नहीं धर्मगुरु से तुम्हारा क्या प्रयोजन है। अगर महावीर, बुद्ध, जरथुस्त्र, लाओत्सु को तुम धर्मगुरु समझते हो, तो वे बुद्ध हैं, बुद्धू नहीं। लेकिन वे धर्मगुरु नहीं हैं। वे स्वयं धर्म हैं। वे धर्म के साकार रूप हैं।
धर्मगुरु तो हैं पंडित, पुरोहित, मौलवी, अयातुल्ला खोमैनी, पोप पाल, पुरी के शंकराचार्य, ये सब धर्मगुरु हैं। और ये धर्मगुरु निश्चित ही बुद्धू हैं। इसमें मैं जरा भी संकोच नहीं करता हूं। मैं सत्य को बिलकुल नग्न ही कह देना पसंद करता हूं। ये अगर बुद्धू न होते तो धर्मगुरु न होते।
आदि शंकराचार्य धर्म हैं, मगर ये नकलची हैं। ये कोई शंकराचार्य हैं? ये कार्बन कापियां हैं। और इस जगत में इससे बड़ा कोई अपमान नहीं है आदमी का कि वह कार्बन कापी हो जाए। प्रत्येक व्यक्ति मौलिक है। और मौलिक होने में ही उसका अपना गौरव है। और अपने गौरव में ही परमात्मा का गौरव है। जो कार्बन कापी होकर रह जाता है, वह दो कौड़ी का हो जाता है।
यहूदी फकीर झुसिया मृत्यु-शय्या पर पड़ा था। विद्रोही था, बगावती था। मैं जिन थोड़े से लोगों को प्रेम करता हूं, उनमें से एक झुसिया भी है। एक वृद्ध यहूदी धर्मगुरु ने आकर झुसिया को कहा, झुसिया, अब आखिरी समय आ गया, अब परमात्मा से सुलह कर लो।
झुसिया ने आंख खोली और कहा, उससे तो कभी झगड़ा ही नहीं हुआ, तो सुलह कैसी करनी? झगड़ा तुमसे था। और तुमसे झगड़ा जारी रहेगा। झूठ से कोई सुलह नहीं हो सकती, सत्य से कोई झगड़ा नहीं है।
धर्मगुरु ने कहा कि देख, मान, जिंदगी भर तू बगावत में गुजार दिया है, अब झुक जा। अब तो तू मूसा का स्मरण कर। क्योंकि वही काम पड़ेंगे। आखिरी क्षणों में भी अगर मूसा के चरण गह ले तो बच जाएगा, नहीं तो डूबेगा, भटकेगा। मान ले मेरी।
झुसिया हंसने लगा। उसने कहा, देखो, मैं तुम्हें फिर कहता हूं, यह मेरी आखिरी सांस है और यह मेरी आखिरी बात भी कि परमात्मा से जब मेरा मिलना होगा, तो मैं भलीभांति जानता हूं कि परमात्मा मुझसे यह नहीं पूछेगा कि तुम मूसा क्यों नहीं हो। वह मुझसे पूछेगा--झुसिया, तुम झुसिया क्यों नहीं हो? अगर उसे मुझे मूसा बनाना था तो मूसा बनाया होता। उसने मुझे झुसिया बनाया तो मैं झुसिया ही बनने की कोशिश में लगा रहा हूं। मैं बिलकुल आश्वस्त हूं कि परमात्मा मुझसे प्रसन्न है। मूसा से मुझे क्या लेना-देना! मूसा प्यारे आदमी थे, सो ठीक है। लेकिन मैं कोई मूसा बनने की चेष्टा में नहीं हूं, न मुझे किसी के चरण गहने हैं। परमात्मा के सामने मुझे अपना झुसिया होना प्रकट करना पड़ेगा--कि उसने मुझे जो बनाया था मैं वही हूं, मैं नकल नहीं हूं।
मगर धर्मगुरु यूं हार जाने वाले नहीं होते। फिर भी उसे बुद्धि न आई कि यह आदमी जो मरते वक्त इस साहस की, गजब की बात कर रहा है, इससे अब और कुछ कहना ठीक नहीं। उसने फिर भी उससे कहा कि देख, तू मेरी सुन, कम से कम प्रार्थना कर ले। क्योंकि मुझे जहां तक याद पड़ता है, तूने जिंदगी में कभी यहूदी धर्म की जो स्वीकृत प्रार्थना है, वह तूने कभी नहीं की।
झुसिया ने कहा कि तुम क्या व्यर्थ की बकवास इस आखिरी समय में ले आए हो। मैं कोई बंधी-बंधाई प्रार्थनाएं नहीं करता, और न करूंगा। प्रार्थना भी कहीं बंधी-बंधाई हो सकती है? सहज स्फूर्त होती है। रही परमात्मा से प्रार्थना करने की बात, तो अब क्या प्रार्थना करनी! अब जा ही रहा हूं, आमना ही सामना हो जाएगा। तैयारी मैंने कर रखी है। और मेरी तैयारी अपने ढंग की है। मैंने कुछ प्यारे चुटकुले चुन रखे हैं जो परमात्मा को सुनाऊंगा। क्योंकि थक गया होगा बेचारा तुम जैसे धर्मगुरुओं की बकवास सुनते-सुनते। कुछ चुटकुले, कुछ लतीफे, कि दिल खोल कर हंस लेगा, तो बस प्रार्थना स्वीकृत हो गई।
धर्मगुरु धर्म का शोषण करते हैं। यह धर्म नहीं है, यह अधर्म है। और ये निश्चित बुद्धू होते हैं। इनके पास अगर प्रतिभा हो तो ये बुद्ध हो जाएं, ये बौद्ध न हों। अगर इनके पास प्रतिभा हो तो ये क्राइस्ट हो जाएं, क्रिश्चियन न हों। अगर इनके पास प्रतिभा हो तो ये जिन हो जाएं, जैन न हों। और यही मेरा तुमसे कहना है कि जिन बनो तो ठीक। जिन यानी जिसने अपने को जीता। जैन मत बनना। जैन का अर्थ होता है: जिन्होंने अपने को जीता उनके पीछे चलना। किसी के पीछे चलने का कोई सवाल नहीं है।
मेरा संन्यासी मेरे पीछे नहीं चलता है, मेरे साथ चल रहा है। साथ चलने में और पीछे चलने में जमीन-आसमान का भेद है। पीछे अनुयायी चलता है, साथ मित्र चलते हैं। यह एक भाईचारा है। यह एक दोस्ती है, एक मैत्री है। मैं तुम्हारा अगुआ नहीं हूं।
एक धर्मगुरु रेल के एक डिब्बे में बैठे हर समय रह-रह कर दो घड़ी निकाल कर देखते। इससे एक दूसरा मुसाफिर बोला, महाराज, आप दो घड़ियां क्यों रखते हैं? धर्मगुरु ने कहा, एक में घंटे की सुई नहीं है और दूसरे में मिनट की सुई नहीं है।
देखी प्रतिभा!
नसरुद्दीन का बैल मस्जिद में घुस गया। मस्जिद के इमाम ने बड़ी लानत-मलामत की। उलटा-सीधा कहा। कहा, शर्म नहीं आती? मुसलमान होकर और तुम्हारा बैल मस्जिद में घुसे! नसरुद्दीन ने उत्तर दिया, मियां, जानवर है, घुस गया। अरे कभी मुझे देखा मस्जिद में!
एक दिन शहर का धर्मगुरु अपने खूबसूरत घोड़े पर बैठ कर नसरुद्दीन के गांव आया था। वह अपने मित्र के घर के बाहर घोड़ा बांध भीतर चला गया।
थोड़ी देर बाद मुल्ला उधर से निकला तो उसने देखा कि प्यारा घोड़ा है। तो जाकर उस पर हाथ फिराने लगा, उसकी पीठ सहलाने लगा। राह से गुजरते एक व्यक्ति ने यह देखा तो बोला कि क्या मियां, घोड़ा बेचोगे?
मुल्ला ने कहा कि अब क्या करना चाहिए! बोला कि बेचना तो है, मगर पूरे पांच हजार लगेंगे। मुल्ला ने सोचा कि शायद कीमत सुन कर घबड़ा जाए, और वैसे भी घोड़ा तो अपना है नहीं।
लेकिन व्यापारी ने फौरन पांच हजार रुपये निकाले और नसरुद्दीन को थमा दिए। और व्यापारी तो घोड़ा लेकर चलता बना। अब नसरुद्दीन घबड़ाया। इतने में धर्मगुरु मकान के बाहर निकला। धर्मगुरु को बाहर निकलते देख नसरुद्दीन जल्दी से घोड़े की रस्सी को अपने गले में पहनने लगा।
धर्मगुरु तो घोड़े की जगह आदमी को देख चौंक गया। उसने कहा, क्या बात है भई, घोड़े की जगह तुम कैसे?
नसरुद्दीन बोला, बात यह है जनाब कि आज से दस साल पहले मुझे स्वामी अखंडानंद ने श्राप दिया और कहा कि जा, घोड़ा हो जा! तब से मैं घोड़े का जीवन बिता रहा था। आज मेरा आखिरी दिन था। आज श्राप पूरा हुआ। और आज मैं पुनः आदमी बन गया।
धर्मगुरु ने कहा, अच्छा जाओ, तुम्हें मैं मुक्त करता हूं।
जब धर्मगुरु गांव से शहर आया, तो देखा कि वही घोड़ा व्यापारी के यहां खड़ा है। धर्मगुरु घोड़े के पास पहुंचा और बोला, मित्र, फिर इतनी जल्दी घोड़े के रूप में! अरे अब क्या हुआ?
जिनको तुम धर्मगुरु समझते हो, पंडित समझते हो, ये सिर्फ तोते हैं। ये रटे-रटाए वचन उद्धरण कर रहे हैं। इनके पास अपना कुछ भी नहीं है। इनके पास न तो प्रतिभा है, न मेधा है, न जीवन के सत्य की कोई अनुभूति है। ये व्यवसायी हैं। ये धंधा कर रहे हैं। और उन्होंने अच्छा धंधा पकड़ रखा है। सस्ता धंधा है। कुछ लगता भी नहीं। अदृश्य का धंधा है। और मूढ़ों से दुनिया भरी है, जिनका शोषण किया जा सकता है। इतने पागलों से दुनिया भरी है कि जरूर यहां कोई न कोई उनका शोषण करेगा। और जब भी कोई व्यक्ति तुम्हें जगाएगा इनके शोषण से, स्वभावतः ये सब नाराज हो जाएंगे।
अगर तुम्हारे सारे धर्मगुरु मुझसे रुष्ट हैं और नाराज हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं। यह बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि मैं उनके मूल पर ही आघात कर रहा हूं, उनकी जड़ें काट रहा हूं। अगर मेरी बात में कुछ भी सत्य है, तो धर्मगुरुओं का भविष्य अंधकारपूर्ण हो सकता है।
कल ही जर्मनी से एक पुस्तिका मेरे पास आई है। जर्मनी के प्रोटेस्टेंट चर्च ने छापी है मेरे खिलाफ। और उसमें यह सूचना दी है सारे चर्चों को जर्मनी के कि जो भी व्यक्ति रजनीशी हो गया है, वह व्यक्ति न तो ईसाई रहा, न प्रोटेस्टेंट रहा, उसे चर्च में प्रवेश न करने दिया जाए। किसी प्रोटेस्टेंट संस्था में उसे नौकरी पर न रखा जाए। नौकरी पर हो तो अलग कर दिया जाए। प्रोटेस्टेंट स्कूल, प्रोटेस्टेंट अस्पताल, प्रोटेस्टेंट कालेज या और भी किसी तरह की प्रोटेस्टेंट संस्थाएं किसी रजनीशी संन्यासी को प्रवेश न दें। और अगर कोई व्यक्ति पहले से वहां है और संन्यासी हो गया है, तो उसे तत्क्षण अलग कर दिया जाए; क्योंकि न अब वह ईसाई है, न अब वह प्रोटेस्टेंट है। उसके बच्चों को कोई चर्च बपतिस्मा न दे।
जिसने लिखी है, वह धर्मगुरु है और प्रोटेस्टेंट चर्च का जर्मनी का बड़ा अधिकारी है। इस तरह की घटनाएं करीब-करीब दुनिया के सारे देशों में घटने वाली हैं। सारे धर्मगुरु मेरे विपरीत तरहत्तरह के उपद्रव खड़े करेंगे। यह सुनिश्चित है। और उसका सीधा कारण यह है कि मैं किसी धर्म की स्थापना नहीं कर रहा हूं। क्योंकि मैं कोई धर्मगुरु नहीं हूं। मैं तुम्हें सारे धर्मों से मुक्त करना चाहता हूं ताकि तुम धार्मिक हो सको। धर्मों ने तुम्हारी धार्मिकता मार डाली है। मैं धर्मशून्य धार्मिकता का पक्षपाती हूं। मैं एक दुनिया देखना चाहता हूं जहां न ईसाई हों, न हिंदू हों, न जैन हों, न बौद्ध हों, न पारसी हों। जहां धार्मिक लोग हों। ऐसे लोग हों जो प्रेम से परिपूर्ण हैं। ऐसे लोग हों जिनके हृदय में प्रार्थना के फूल खिले हैं। ऐसे लोग हों जिनके जीवन में समाधि की सुगंध उठ रही है।
स्वभावतः सभी दिशाओं से मेरा विरोध होगा।
मेरा संन्यासी होना इसीलिए खतरे से खाली नहीं है। मेरे संन्यासी होने का अर्थ है: तुमने सारी परंपराओं, सारी रूढ़ियों से बगावत कर दी। यह दुस्साहस का काम है। मगर इसी दुस्साहस से तुम्हारी आत्मा पैदा होगी, तुम्हारा पुनर्जन्म होगा; तुम्हारे भीतर एक नयी लपट, एक नयी ज्योति पैदा होगी। वही ज्योति तुम्हारे जीवन को अर्थवत्ता देगी, गरिमा देगी, गौरव देगी, महिमा देगी। वही ज्योति तुम्हारे जीवन को चांद-सितारों से भर देगी। उसी ज्योति के साथ तुम्हारे जीवन में सूर्योदय है। नहीं तो अभी तो अमावस की रात है।
इस अमावस की रात को तोड़ना है। और इस अमावस की रात को तोड़ने में चाहे कितनी ही मुसीबत झेलनी पड़े, झेलने योग्य है। क्यों? क्योंकि सत्य के रास्ते पर मुसीबतें भी प्रीतिकर हो जाती हैं, और असत्य के रास्ते पर सुविधाएं भी अप्रीतिकर हैं। सत्य के रास्ते पर जहर भी अमृत हो जाता है, और असत्य के रास्ते पर अमृत भी जहर है।

आज इतना ही।



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