प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
मुझको रंगों से मोह—(छठवां- प्रवचन)
दिनांक १६ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—आसक्ति क्या है? हम चीजों, विचारों और व्यक्तियों से इतने आसक्त
क्यों हो जाते हैं? और क्या आसक्ति से छुटकारा भी है?
2—मैं प्रार्थना करना चाहती हूं। क्या प्रार्थना करूं,
कैसे प्रार्थना करूं, इसका मार्गदर्शन दें।
3—आप दल-बदलुओं के संबंध में क्यों कुछ नहीं कहते?
इनके कारण ही तो देश की बरबादी हो रही है।
पहला प्रश्न: भगवान,
आसक्ति क्या है? हम चीजों, विचारों और व्यक्तियों से इतने आसक्त
क्यों हो जाते हैं? और क्या आसक्ति से छुटकारा भी है?
आनंद मैत्रेय,
आसक्ति केवल इस बात का लक्षण है कि हमें स्वयं की संपदा का कोई पता
नहीं। आसक्ति आत्म-साक्षात्कार का अभाव है--जैसे अंधकार प्रकाश का अभाव है। अंधकार
की अपनी कोई सता नहीं है, इसलिए अंधकार के साथ सीधा कुछ भी करने का कोई उपाय
नहीं है। अंधकार को हटाओ, हटा न सकोगे; भीतर लाना चाहो, भीतर न ला सको। अंधकार के साथ कुछ
किया ही नहीं जा सकता। कुछ करना हो अंधकार के साथ, तो प्रकाश
के साथ कुछ करना होगा। अंधकार चाहिए, प्रकाश बुझाओ। अंधकार
नहीं चाहिए, प्रकाश जलाओ, क्योंकि
अंधकार केवल प्रकाश की अनुपस्थिति है। ऐसी ही आसक्ति है।
जो व्यक्ति अपने भीतर नहीं झांकता, उसके जीवन में आसक्ति
होगी। जो व्यक्ति अपने भीतर झांक लेगा, उसके जीवन से आसक्ति
समाप्त हो जाएगी। क्योंकि जिसने भीतर झांका, उसने
पाया--संपदाओं की संपदा, साम्राज्यों का साम्राज्य! न उससे
बड़ा कोई आनंद है, न उससे महत्वपूर्ण कोई अनुभूति है, न उससे बड़ा कोई आशीष। चूंकि हम भीतर नहीं झांकते, इसलिए
लगता है कि भीतर तो हम खाली-खाली हैं। भ्रांति है। भीतर लगा है हम रिक्त हैं। और
इस रिक्तता से घबराहट होती है। इस रिक्तता को कैसे भरें, इसी
आकांक्षा से आसक्ति पैदा होती है। वस्तुओं से, व्यक्तियों से,
विचारों से, ज्ञान से, त्याग
से, भोग से, तप से--किसी भी तरह इस
खालीपन को भर लें! खालीपन खलता है। खालीपन काटता है। खालीपन में दीनता मालूम पड़ती
है, हीनता मालूम पड़ती है--मैं और खाली, खोखा, जिसके भीतर कुछ भी नहीं! हीरे-जवाहरात तो दूर,
कंकड़-पत्थर भी नहीं! तो हम अपने को भरने में
लग जाते हैं। हालांकि हम कभी भर नहीं पाते। इस तरह भरने का कोई उपाय नहीं है। और
भर हम कभी पाएंगे भी नहीं, क्योंकि भीतर तो हम भरे ही हुए
हैं, वहां जगह भी नहीं है। लेकिन बाहर हम चीजें इकट्ठी कर ले
सकते हैं, अंबार लगा ले सकते हैं। और फिर डर लगता है कि कोई
छीन न ले, कोई चुरा न ले, कोई झपट न
ले। तो छाती से लगा कर बैठते हैं।
सोचते तो हैं लोग कि धन पास होगा तो चैन होगा, विश्राम होगा। लेकिन जितना धन पास होता है, उतनी ही
बेचैनी बढ़ती है, घटती नहीं। एक नई बेचैनी शुरू होती है कि
कहीं छिन न जाए! कम से कम गरीब को छिनने की बेचैनी तो न थी! कम से कम गरीब कोई लूट
तो सकता न था!
पाम्पेई का प्रसिद्ध नगर ज्वालामुखी में जला। आधी रात ज्वालामुखी
फूटा। लोग भागे। जिसको जो बन सका, ले सका अपने साथ, लेकर भागा। जिसके पास सोना था, चांदी थी, धन था, हीरे-जवाहरात थे, जो
जिसके पास था। जिनके पास कुछ ज्यादा नहीं था--कोई अपना बिस्तर ही लिए है, कोई अपना फर्नीचर ही लिए है। लोग ढो रहे और भाग रहे! सिर्फ एक आदमी,
एक गांव का मस्त फकीर बस अपने हाथ की छड़ी घुमाते हुए, जैसे सुबह टहलने निकला हो--ऐसे ही वह रोज टहलने निकलता था--ऐसे ही चल पड़ा।
जिसने देखा उसी को हैरानी हुई; उसने कहा, कुछ भी बचा नहीं पाए? फकीर ने कहा, मजे की बात यह है कि बचाने को अपने पास कुछ था नहीं। हम से ज्यादा सुखी इस
गांव में कोई भी नहीं है। सभी रो रहे हैं--उस सब के लिए जो छूट गया। अपने पास कुछ
था ही नहीं, पहले से ही नहीं था। हम पहले से ही होशियार रहे।
ज्वालामुखी कभी न कभी फूटेगा ही; आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कितनी देर टालोगे! मौत तो आएगी न!
हम निश्चिंत थे कि ज्वालामुखी आएगा ही, सो हमने कुछ इकट्ठा न
किया था। इसलिए हम मस्त हैं। तुम दुखी हो, हालांकि तुम बड़ा बोझ
भी ढो रहे हो। बोझ से भी दुखी हो और जो पीछे छूट गया उससे भी दुखी हो। और जब
तुम्हारे पास था, तब भी मैंने तुम्हें कभी सुखी नहीं देखा।
है तो लोग सुखी नहीं हैं। छिन जाए तो लोग दुखी हैं। जैसे दुख को लोगों
ने जीवन की शैली बना लिया है!
आसक्ति--दुखी आदमी का लक्षण है। अनासक्ति--आनंदित व्यक्ति की आभा है।
इसीलिए मैं तुमसे यह नहीं कहता कि आसक्ति छोड़ो, तुम कैसे छोड़ोगे,
जब तक कि तुम अंतर की संपदा को न पहचान लो! इसलिए मेरी शिक्षा भिन्न
है। तुम्हें सदियों से कहा गया है: आसक्ति छोड़ो। मैं तुमसे आसक्ति छोड़ने को नहीं
कहता, क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम छोड़ोगे भी तो कैसे
छोड़ोगे! अगर छोड़ोगे भी तो तुम किसी नई आसक्ति की आशा में छोड़ोगे--स्वर्ग मिले,
स्वर्ग के सुख मिलें। और शास्त्र कहते हैं: यहां एक रुपया दान करो
तो वहां करोड़ रुपये मिलेंगे। देखते हो, धर्मशास्त्र न हुआ
लाटरी हुई! एक रुपया--और करोड़ रुपये! लाटरी में भी इतने नहीं मिलते। और लाटरी में
भी निश्चित नहीं होता; करोड़ों लोग लगाएंगे तब एक को मिलेगी।
यहां तो जो लगाए, उसी को मिलता है। सभी के नाम लाटरी खुलती
है। तो जो लोग यहां दान करते हैं--इस आशा में कि करोड़ गुना होकर मिलेगा परलोक में--वे
दान नहीं कर रहे हैं, सिर्फ सौदा कर रहे हैं, सिर्फ व्यवसाय कर रहे हैं। वे उस लोक में भी अभी से अपने पैर जमा लेना
चाहते हैं। मौत के पार भी वे अपनी धन-संपदा अभी से संगृहीत करने में लग गए हैं।
यहीं नहीं, वहां भी उन्होंने पैर फैला दिए हैं। उनकी आसक्ति
कम नहीं है।
इसलिए तुम्हारे महात्माओं की स्थिति को मैं अनासक्त नहीं कहता। हां, उनकी आसक्ति जरा सूक्ष्म है, तुम्हारी आसक्ति स्थूल
है। तुम धन को पकड़ते, पद को पकड़ते; वे
परलोक को पकड़ते हैं। तुम इसी लोक में पकड़े हो; तुमको वे
नासमझ समझे हैं, क्योंकि तुम क्षणभंगुर को पकड़ते हो। और वे
ऐसी चीज को पकड़ते हैं, जो सदा-सदा रहेगी। वे ज्यादा होशियार
हैं, ज्यादा चालबाज हैं, ज्यादा चतुर
हैं। वे भीतर ही भीतर तुम पर हंसते हैं कि कर लो तुम दो दिन गुलछर्रे, फिर पीछे पछताओ; जब हम मजा करेंगे, तब तुम पछताओगे; तब नरक में सड़ोगे, जब हम स्वर्ग में अप्सराओं के साथ बैठेंगे शराब के झरनों के किनारे। आखिर
यहां छोड़ा है तो वहां मिलेगा!
जो यहां शराब नहीं पीता, वह खयाल रखे, उसको स्वर्ग में शराब के झरने मिलने वाले हैं। थोड़ा सा छोड़ोगे, यहां तो कुल्हड़ में पीओगे; वहां झरनों में डूबोगे।
अगर झरनों से बचना हो तो कुल्हड़ में पी ही लेना; नहीं तो
झरनों से बचने का उपाय नहीं है। यहां स्त्रियों को छोड़ोगे और वहां अप्सराओं को
पाओगे। अप्सराओं की देह स्वर्ण की देह है, उसमें पसीना नहीं
आता। सोने में पसीना कहीं आता है! दुर्गंध नहीं होती। अप्सराएं बूढ?ी नहीं होतीं। उर्वशी अभी भी सोलह ही साल की है। हजारों साल हो गए,
उम्र जो ठहरी है सो ठहरी है! सोलह तक भी कैसे वहां पहुंची, यह सवाल है। सोलह तक बढ़ती रही उम्र, फिर सोलह पर
एकदम ठहरी! जैसे घड़ी बंद हो जाती है! जैसे बैटरी चुक गई!...सदा युवा!
जरा सावधान रहना!
जो तुम्हारे महात्मागण यहां छोड़ रहे हैं, वे भीतर-भीतर बड़ा गणित बिठा रहे हैं; भीतर-भीतर सोच
रहे हैं कि कौन मिलेगी, उर्वशी मिलेगी कि मेनका मिलेगी,
कि कौन मिलेगी!
एक महात्मा मरे। संयोग की बात, उनका प्रमुख चेला भी
मरा। उसी दिन, कुछ ही घंटों बाद। नहीं जी सका बिना अपने गुरु
के। चेला भी मस्ती में पहुंचा एकदम स्वर्ग। सोचा कि मेरे गुरु के आस-पास तो उर्वशी
होगी, मेनका होगी। कैसा आनंद नहीं लूट रहे होंगे! जब मुझ तक
को स्वर्ग मिल रहा है--जो कि मैं नाकुछ था, अपात्र उनके
चरणों की धूल! बस उनकी सेवा की, इतना ही मेरा पुण्य था। और
उन्होंने तो कैसी-कैसी साधनाएं कीं, कैसे-कैसे योग, तप, यम-नियम, व्रत साधे! और
वहां जाकर देखा कि हां, एक बहुत सुंदर स्त्री, ऐसी सुंदर स्त्री उसने देखी नहीं थी, उनकी गोद में
बैठी--महात्मा जी की! महात्मा जी नंग-धड़ंग बैठे हैं। वह तो एकदम उनके पैरों पर गिर
पड़ा और कहा कि धन्य हो गुरुदेव, मुझे तो पहले ही से पता था।
बाई कौन है--मेनका कि उर्वशी?
महात्मा ने कहा कि अब उल्लू के पट्ठे, चुप रह! उसने कहा,
अभी नहीं चुप रह सकूंगा। एक जिज्ञासा तो आपको जवाब देनी ही पड़ेगी कि
यह किस पुण्य का फल हैं। सभी यह पुण्य कैसे करूं कि ऐसे ही सुख को उपलब्ध होऊं?
यह राज आपने मुझे कभी बताया नहीं।
महात्मा ने कहा, तू समझता ही नहीं, तू बुद्धू रहा। पहले भी तू बुद्धू था, अब भी बुद्धू
है। यह सुंदर स्त्री मेरे पुण्यों के कारण मुझे नहीं मिली है; इसके पापों के कारण मैं इसे मिला हूं। यह दंड भोग रही है।
महात्माओं का भी उपयोग है! एकदम गैर-उपयोगी नहीं हैं। उर्वशी, मेनका इत्यादि को अगर दंड देना हो तो दोगे भी कैसे! भेज दिया कोई
मुक्तानंद, अखंडानंद, कि दलो मूंग छाती
पर मेनका की!
आसक्ति ऐसे नहीं छूटेगी। ऐसे तो तुम छोड़ोगे भी तो नई आसक्ति निर्मित
करोगे। मैं तुमसे कहता ही नहीं आसक्ति छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं: आत्मा को जानो।
आत्मवान बनो। आत्मवान बनते ही आसक्ति छूट जाती है--बिना किसी हेतु के छूट जाती है; बिना किसी लक्ष्य के छूट जाती है। ऐसे ही जैसे रोशनी होती है, अंधेरा चला जाता है, बचता ही नहीं।
पहली बात खयाल करो: आसक्ति इसलिए है कि हम रिक्त अनुभव हो रहे हैं।
इसलिए किसी तरह अपने को भरते हैं। जितना खालीपन लगता है, उसको किसी भी तरह भरते हैं। भर नहीं पाते, यह बात
और। धन से, पद से, प्रतिष्ठा से--करते
रहते हैं दौड़-धूप, दांव-पेंच। हालांकि कभी कोई सफल नहीं हुआ
है, लेकिन आशा बनी रहती है कि शायद हम सफल हो जाएं, शायद हम अपवाद हों। प्रत्येक व्यक्ति का अहंकार उसे यह समझा रखता है कि तू
अपवाद है; जो नियम सब पर लागू होते हैं, तुझ पर लागू नहीं होते।
गूंजती है विजन-वीणा,
गूंजती है सघन वन की सायं-सायं
निपट एकाकी विजन में,
हम किसे अपनी कहानी कह सुनाएं?
दीप आंचल में छिपाए
दूज की संध्या गई पश्चिम दिशा को,
सौंप सुधि का दीप मुझको
और तम का बोझ इस धूमिल निशा को!
गीत हम कब तलक गाएं?
बुझे से जल रहे तारे,
रात-दिन के बीच की अंतिम घड़ी है!
सौंप अपना शून्य मुझको
रात भी, मुंह फेर, जाने को खड़ी है!
हम यहां से कहां जाएं?
प्रत्येक व्यक्ति दिग्भ्रमित है, किंकर्तव्यविमूढ़ है।
हर व्यक्ति चौराहे पर खड़ा है; समझ नहीं पड़ता कहां जाएं! कोई
लक्ष्य सूझता नहीं। क्या पाने योग्य है, इसकी भी कोई सुधि
नहीं, कुछ बोध नहीं। तो एक ही उपाय है कि जो दूसरे कर रहे
हैं वही हम भी करें; भीड़ जो कर रही है वही हम भी करें। भीड़
इन्हीं कामों में लगी है--रेत के घर बना रही है, कागज की
नावें चला रही है। तो हम भी भीड़ के साथ भेड़चाल हो जाते हैं। हम भी उसी चाल से चलने
लगते हैं। हम भी अपने चारों तरफ के लोगों से सीख लेते हैं--क्या करना! लोग धन के
पीछे दौड़ते हैं, तो हम सोचते हैं: धन में कोई मूल्य होगा,
तभी तो दौड़ते हैं। इतने लोग पागल नहीं हो सकते। तो दौड़ो। सोचने का
समय किसको है, क्योंकि तुमने खड़े होकर सोचा, इतनी देर में पिछड़ जाओगे, इतनी देर में तो आगे निकल
जाते। न मालूम कौन आगे निकल जाए! इसलिए सोच-विचार कर लेंगे पीछे, पहले दौड़ो, पहले पा लो, फिर पा
लेने के बाद सोच-विचार कर लेंगे।
लेकिन वह शुभ दिन कभी आता नहीं, क्योंकि जिंदगी छोटी
है और आकांक्षाएं अनंत हैं। और वह शुभ दिन इसलिए भी नहीं आता कि तुम जितना पा लो
उतनी ही पाने की प्यास और प्रबल हो जाती है। जैसे कोई घी को डालता हो आग में--आग
बुझाने को! ऐसे ही हम जितनी आसक्ति को गहराते हैं उतने ही ज्यादा बाहर उलझ जाते
हैं। बाहर उलझ जाते हैं तो भीतर जाना मुश्किल हो जाता है। और भीतर बिना जाए कोई
उपाय नहीं है--न कभी था, न कभी होगा।
लेकिन बाहर की असफलता देखने योग्य बुद्धिमत्ता भी हमारी नहीं है।
हमारी बुद्धि भी बुरी तरह मारी गई है। हमारी बुद्धि मारने के लिए सारा आयोजन किया
गया है। समाज है, राजनीति है, चर्च है, धर्म-संप्रदाय हैं--सब मिल कर यह कोशिश करते हैं हमारी बुद्धि नष्ट हो
जाए। क्योंकि जहां बुद्धि है वहां विद्रोह है। जहां बुद्धि है वहां बगावत है। जहां
बुद्धि है वहां तुम लोगों की जबरदस्ती आज्ञाकारी नहीं बना सकते; तुम उनसे मूढ़तापूर्ण आज्ञाएं नहीं सकते। अगर लोगों में बुद्धि की प्रखरता
होगी तो कौन तुम्हारे बुद्धू राजनेताओं के पीछे चलेगा और कौन तुम्हारे दो कौड़ी के
पंडित-पुरोहितों से धर्मज्ञान लेगा! तोते हैं तुम्हारे पंडित-पुरोहित। यंत्रवत
दोहराए चले जाते हैं।
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक तोता खरीदने बाजार गया। बहुत
तोते देखे, एक तोता बहुत सुंदर लगा--स्वस्थ, सुंदर, रंगीन। पूछा दाम देकर मुल्ला एकदम चौंक गया।
दुकानदार ने कहा, हजार रुपये। नसरुद्दीन ने कहा, तोते के दाम हजार रुपये! दस-पांच रुपये तक बात ठीक, अरे
पचास तक सौ तक बात ठीक, लेकिन हजार रुपये जैसा इसमें क्या है?
उस दुकानदार ने कहा, तोते से ही पूछ लो कि
इसकी कीमत कितनी है। तो मुल्ला ने उससे पूछा कि तोते मियां, आपके
दाम हजार रुपये हैं? उस तोते ने कहा, इसमें
क्या शक है! उसने इतने बल से कहा इसमें क्या शक कि मुल्ला को मानना ही पड़ा। अब और
तोते से क्या विवाद करना। और लोग हंसने लगे, दुकान पर जो लोग
खड़े थे, और ग्राहक भी थे, दुकानदार भी
था। कहा, देखा! हजार रुपये चुकाए और तोते को घर ले आया। घर
आकर तोते से पूछा, तोते मियां, तुम्हारा
नाम? उसने कहा, इसमें क्या शक! मुल्ला
ने कहा, अरे, मैं तुम्हारा नाम पूछ रहा
हूं! उसने कहा, इसमें क्या शक! मुल्ला ने जो भी पूछा,
उसने कहा, इसमें क्या शक। उसे उतना ही कहना
आता था। मुल्ला ने सिर पीट लिया और उसने कहा कि मैं तुझे खरीद लाया, मैं भी महाबुद्धू हूं। उसने कहा, इसमें क्या शक!
पंडित हैं तुम्हारे--तोतों की तरह। कौन इन पंडितों से ज्ञान की आशा
रखेगा! इनके पास खुद क्या है? हां, शास्त्रों
का उद्धरण दे सकते हैं, लेकिन स्वानुभूति कहां है? स्वयं की ज्योति कहां है? कहां सुना है आत्मा के
संगीत को? कहां अनुभव किया है विश्व में व्याप्त चैतन्य को?
ये गवाह हैं परमात्मा के? और परमात्मा के गवाह
भी हिंदू होंगे, मुसलमान होंगे, ईसाई
होंगे, जैन होंगे? मुनि होकर भी आदमी
जैन बना रहता है। मौन होकर भी जैन! मुनि कहते हैं उसको जो मौन हो गया। जब मौन ही
हो गया तो अब क्या जैन! जब मौन हो गया तो शब्द गए। वह सब जैन इत्यादि होना तो
शब्दों की बात थी। शास्त्र गए, लेकिन मुनि हो गए, तो भी जैन। जैन ही नहीं, उसमें भी श्वेतांबर और
दिगंबर! उसमें भी तेरापंथी और बीस पंथी--और पंथ पर पंथ हैं! मौन हो जाने के बाद भी
यह सब बकवास जारी है! मौन वगैरह कुछ भी नहीं हुए हैं। मुनि बस ऊपर का थोथापन है,
भीतर सब वही कोलाहल, वही दुकानदारी, वही सब उपद्रव, वही चालबाजियां, वही बेईमानियां--कहीं भी नहीं गई हैं, सिर्फ अब भीतर
सरक गईं हैं। बाहर थीं तो कम से कम दिखाई पड़ती थीं; अब दिखाई
भी नहीं पड़तीं। औरों को भी दिखाई नहीं पड़तीं और खतरा यह है कि शायद खुद को भी
दिखाई न पड़ें--इतने भीतर अचेतन में सरक जा सकती हैं। लेकिन तुम्हारे व्यक्तित्व को
वहीं से प्रभावित करेंगी, वहीं से आंदोलित करेंगी।
नहीं, अगर लोगों में बुद्धिमत्ता हो तो लोग पंडितों-पुरोहितों
के पीछे न जाएंगे--न हिंदू मुसलमानों की मस्जिदें जलाएंगे और न मुसलमान हिंदुओं की
मूर्तियां तोड़ेंगे। यह मूढ़ता और धार्मिक व्यक्ति कर सकते हैं! जिनमें थोड़ी भी समझ
है...तुममें भी जब कभी थोड़ी सी समझ का झरोखा खुलता है तो तुमको भी लगता है कि यह
बात मूढ़तापूर्ण है कि हिंदू मुसलमानों को काटें, कि मुसलमान
हिंदुओं को काटें। लेकिन वह समझ का झरोखा ज्यादा देर खुला नहीं रह सकता, क्योंकि सारे समाज के न्यस्त स्वार्थ तुम्हें बुद्धू रखना चाहते हैं। उन
सबकी प्रतिष्ठा इसमें है कि तुम बुद्धू रहो, तो तुम
आज्ञाकारी रहोगे, तुम गुलाम रहोगे, तुम
दास रहोगे। तुम कहोगे: जी हुजूर, जो आज्ञा!
जी हुजूरों का एक समाज बनाया गया है सारी दुनिया में। इससे बड़ा कोई और
दूसरा षडयंत्र नहीं है। यह पूरी मनुष्य-जाति की चेतना को अवरुद्ध किए है। और इसलिए
जीसस को सूली देनी पड़ी, क्योंकि यह आदमी बगावती था और सुकरात को जहर पिलाना
पड़ा, क्योंकि इस आदमी ने लोगों से सत्य-सत्य कहना शुरू कर
दिया।
सत्य खतरनाक है। खतरनाक है उनके लिए, जिनके न्यस्त स्वार्थ
झूठ से जुड़े हैं।
तो तुम्हारे पास बुद्धिमत्ता बचने नहीं दी जाती। हर बच्चा बुद्धिमान
पैदा होता है। तुम हर बच्चे की आंख में झांक कर देखो और तुम वहां बुद्धिमत्ता के
लक्षण पाओगे--अपूर्व लक्षण पाओगे! हर बच्चे में प्रतिभा होती है। प्रतिभाहीन बच्चे
पैदा ही नहीं होते। परमात्मा के घर से तो सभी लोग प्रतिभा लेकर आते हैं। लेकिन
जैसे ही समाज उन्हें दीक्षित करता है--हिंदू बनाता, मुसलमान बनाता,
ईसाई बनाता...बस...भारतीय बनाता, पाकिस्तानी
बनाता, चीनी बनाता, ब्राह्मण-शूद्र...फिर
उनको बनाए जाता है। घेरों पर घेरे। इतने कारागृहों की दीवारें खड़ी कर देता है कि
छोटी सी चेतना कहां खो जाती है, पता नहीं चलता। वह निर्दोष
बालक कहां खो जाता है, पता नहीं चलता। उसकी जगह पैदा होता है
एक बिलकुल मूढ़ किस्म का व्यक्ति, बिलकुल परवश।
बुद्धिमत्ता अगर हो तो तुम अपने भीतर ही लौटोगे। बुद्धिमत्ता अगर हो
तो पहले तुम अपने भीतर खोजोगे; इसके पहले कि बहिर्यात्रा पर
निकलो। इसके पहले कि तुम अपनी रिक्तता को भरने जाओ, तुम पहले
जानना चाहोगे: यह रिक्तता क्या है? यह मेरे भीतर का खालीपन
क्या है? और जिन्होंने भी भीतर के खालीपन में उतर कर झांका,
वे चकित हो गए। वह खालीपन नहीं है, वहां
परमात्मा विराजमान है।
बाहर तुम जब तक भटके हो तब तक भीतर खालीपन लगता है। हां, वहां धन नहीं है और मकान नहीं है और पद नहीं है। लेकिन वहां परमपद है और
परम धन है। वहां ध्यान है, समाधि है--जीवन की सारी समस्याओं
का समाधान है। वहां शांति है, मौन है। वहां दिव्य शाश्वत
जीवन का अनुभव है, जिसका न कोई जन्म है न कोई मृत्यु है। जब
तुम उससे परिचित हो जाओगे तो आसक्ति गिर जाएगी।
आसक्ति लक्षण है। और लक्षणों का इलाज सिर्फ मूढ़ करते हैं और मूढ़
करवाते हैं। जैसे किसी को बुखार चढ़ा, शरीर गर्म है--यह
लक्षण है शरीर का गर्म होना। इसका यह मतलब नहीं कि इसको डुबाओ ठंडे पानी में कि दो
डुबकी पर डुबकी गंगा मैया में! बीमारी तो शायद ही जाए, बीमार
चला जाएगा। शरीर गर्म है, यह बीमारी नहीं है, यह केवल लक्षण है। यह लक्षण है कि भीतर उत्पात मचा है, भीतर देह में कोई संघर्ष पैदा हुआ है। उस संघर्ष के कारण शरीर उत्तप्त है।
यह उत्तप्त होना खबर दे रहा है कि भीतर चिकित्सा की जरूरत है, कहीं जड़ में बीमारी है। चिकित्सा भीतर करनी होगी।
मनुष्य की आसक्ति भी सिर्फ बुखार है--बस शरीर की गर्मी है। और
तुम्हारे सारे तथाकथित धर्मगुरु कहते हैं: आसक्ति छोड़ो। यह ऐसे ही है जैसे किसी
बुखार से भरे हुए आदमी से कहो कि देख, बुखार छोड़। वह बेचारा
क्या करेगा? तुम कहोगे तो मान तो लेगा और अगर सभी कहेंगे तो
इनकार भी नहीं कर सकेगा। शायद अपराधी भी अनुभव करे कि मैं भी कैसा दीनऱ्हीन हूं कि
बुखार तक नहीं छोड़ सकता, जब कि सब कह रहे हैं समझदार कि
बुखार छोड़। तो वह कहेगा: मैं अपात्र हूं। जन्मों-जन्मों के कर्मों का दुष्फल है कि
नहीं छोड़ पाता। छोड़ना है मुझे भी। छोड़ना मैं भी चाहता हूं, मगर
नहीं छोड़ पा रहा हूं। आएगा शुभ दिन जब होगी परमात्मा की कृपा। भाग्य में लिखा होगा
तो छोडूंगा। ये सारे बहाने खोज लेता है--सिर्फ एक बात से बचने के लिए कि यह
मूढ़तापूर्ण बात कि बुखार छोड़ गलत है। बुनियादी रूप से गलत है। बुखार छोड़ा नहीं
जाता। बुखार की चिकित्सा करनी होती है।
बुखार केवल लक्षण है। लक्षण का इलाज नहीं होता, उपचार नहीं होता। लक्षण तो मित्र है। उसके कारण ही तो पता चलता है कि भीतर
कहीं छिपी बीमारी है। वह तो बाहर खबर लाता है। लेकिन अक्सर लोग लक्षणों में ही उलझ
जाते हैं। कोई क्रोध से लड़ रहा है; वह भी लक्षण है। कोई काम
से लड़ रहा है; वह भी लक्षण है। कोई आसक्ति से लड़ रहा है,
मोह से, लोभ से--लोग लड़े जा रहे हैं! सब लक्षण
हैं ये। और बीमारी एक है कि हमें आत्मज्ञान नहीं है। और जब तक आत्मज्ञान नहीं होगा
तब तक ये कोई भी बीमारियां जाने वाली नहीं हैं। तुम जितना दबाओगे उतनी ही उभर-उभर
कर वापस लौट आएंगी।
तुम्हारी पूरी जिंदगी इसी असफलता की कहानी है। मगर तुम्हें फुरसत भी
तो नहीं कि तुम लौट कर देखो। अपनी असफलता कोई देखना भी नहीं चाहता। आदमी असफल भी
हो जाता है तो दूसरों को जिम्मेवार ठहराता है। अगर तुम्हारे जीवन से कामवासना नहीं
जाती तो तुम अपनी पत्नी को जिम्मेवार ठहराते हो, कि क्या करें,
कह ही गए हैं महात्मागण कि स्त्री-जाति नरक का द्वार है! और जब तक
यह स्त्री-जाति बंधी है, पीछे पड़ी है, तब
तक तो कैसे कामवासना छूटेगी! महात्मा कह ही गए हैं।
तुम्हारे लिए शास्त्रों में सुरक्षा मिल जाती है। तुम इनकी आड़ में
अपने को बचा लेते हो। स्त्रियां तुम्हें नरक ले जा रही हैं, स्त्रियों को कौन नरक ले जा रहा है? तुम सोचते हो
स्त्रियां कुछ स्वर्ग में हैं? स्त्रियां तुम से ज्यादा दुखी
हैं, तुम से ज्यादा परेशान हैं। तुमने तो उनकी हालत और भी
खराब कर दी है। उनको तो तुमने विकास का कोई भी अवसर नहीं दिया है, कोई स्वातंत्र्य नहीं दिया है। उनसे तो तुमने चेतना बिलकुल छीन ली है।
उनको तो आत्मज्ञान का अधिकार तक नहीं दिया है। ऐसे धर्म हैं जिनमें वे मंदिरों में
प्रवेश तक नहीं कर सकतीं।
यहूदी सिनागाग में स्त्रियों के बैठने के लिए एक अलग ही ऊपर बालकनी
होती है। स्त्रियां प्रधान-कक्ष में नहीं बैठ सकतीं, प्रधान-कक्ष में
प्रवेश नहीं कर सकतीं। उससे मंदिर अपवित्र हो जाएगा। यह तो खूब अदभुत बात हुई! यह
तो ऐसे हुई कि अगर बीमार को दवा दोगे तो दवा बीमार हो जाएगी! मंदिर अपवित्र हो
जाता है, यह क्या खाक लोगों को पवित्र करेगा! मस्जिद में
स्त्रियों के प्रवेश का हक नहीं है। जैन शास्त्र कहते हैं कि स्त्रियों को मोक्ष
का कोई अधिकार नहीं; पुरुष-पर्याय से ही मोक्ष मिलेगा।
तुमने देखा, हिंदुओं ने मछली को मान लिया अवतार, कछुए को मान लिया अवतार, मगर एक स्त्री को अवतार
नहीं माना। जानवर भी बेहतर, कछुआ भी चलेगा, मगर स्त्री! स्त्री नहीं। स्त्री एक भी अवतार नहीं मानी गई। नरसिंह अवतार
हैं--आधे आदमी, आधे जानवर--चलेगा। लेकिन कोई स्त्री अवतार की
तरह स्वीकृत नहीं हो सकी।
जैनों में चौबीस तीर्थंकर हुए, उनमें एक स्त्री
थी--मल्लीबाई। मगर जैनों ने उसका नाम बदल कर मल्लीनाथ कर दिया, क्योंकि स्त्री--और तीर्थंकर! रही होगी अदभुत हिम्मत की स्त्री। रही होगी
अदभुत प्रतिभा की स्त्री। रहा होगा उसका गौरव और गरिमामंडित व्यक्तित्व, कि उसकी मौजूदगी में इनकार भी नहीं कर सके, मानना भी
पड़ा। मगर उसके मरते ही नाम बदल दिया। इतना तो कम से कम कर ही सकते हो, मल्लीबाई क्या करेगी! पीछे तुम मल्लीनाथ कहने लगे। मैं तो जैन घर में पैदा
हुआ, तो बचपन से ही मुझे पढ़ाया गया कि चौबीस तीर्थंकर। मुझे
पता ही नहीं था कि इसमें एक स्त्री है, क्योंकि मल्लीनाथ
कैसे स्त्री! मैं तो यही जानता था कि सभी पुरुष हैं। यह तो बहुत बाद में मुझे पता
चला, इसमें एक स्त्री थी।
चालबाजी की भी सीमा होती है! एक स्त्री अगर हो भी गई तीर्थंकर तो
स्वीकार न करे पुरुष। उसको तत्क्षण मल्लीनाथ कर दिया। उसको इनकार कर दिया कि
स्त्री वह थी ही नहीं।
स्त्रियों को कौन नरक ले जाता है, अगर स्त्रियां
तुम्हें नरक ले जाती हैं? लेकिन अपनी जिम्मेवारी दूसरे पर
टाल देने की हमारी इच्छा होती है। यह मनुष्य के मन का बुनियादी दोष है, हमेशा दूसरों पर टाल देता है। पुरुष कहेगा: स्त्रियों की वजह से परेशान हो
रहा हूं। स्त्रियों से पूछो, तो स्त्रियां कहेंगी: ये पुरुष
हैं, जिनकी वजह से परेशान हो रही हूं। स्त्रियों से पूछो,
तो स्त्रियां कहेंगी: ये पुरुष हैं, जिनकी वजह
से बरबादी हो रही है। जिससे पूछो वही दूसरे पर टाल देगा। और जीवन में धर्म की
शुरुआत तभी होती है जब तुम दूसरों पर टालना बंद कर देते हो; जब
तुम कहते हो: जो भी मैं हूं, उसका कारण मेरे भीतर ही होना
चाहिए। इस उत्तरदायित्व के अंगीकार से ही जीवन में क्रांति का प्रारंभ होता है।
अपनी असफलता को दूसरे पर मत टालो।
सो गई है ज्योति, जागा है अहं का अंधकार!
बिंध गया है तीर तम का चेतना के आर-पार!
मौन मेरी बीन, नीरव मृत्यु के विश्वास-सी,
क्यों न जाए टूट मन की मूर्च्छना का तारत्तार?
क्षुद्रता मेरी दमकती जुगुनुओं के दीप-सी,
फले मुक्ताफलन न जिसमें, उस निरर्थक सीप-सी!
हाय रे, निस्सारता का शून्यता का बोझ भी--
हो गया सुस्सह कि जीवन बन गया है भीम भार!
सांझ का अंगार-सूरज डूब जाता सिंधु में,
प्यास आंखों की न डूबी पर नयनजल-बिंदु में!
शेष होते हैं दिवस नित, कुछ न शेष विशेष हैं;
बह रही धारा समय की टूटते जाते कगार!
यंत्रवत जड़वत जिओ, पर यंत्र जड़ होता नहीं;
आज फिर भी मार खाकर रिक्त मन रोता नहीं
स्नेह सूखा, दृष्टि-दीपक किंतु जलता जा रहा--
भूख कैसी है, निगलती जो विफलता बार-बार!
हम विफल होते हैं रोज-रोज, फिर भी निगल जाते हैं,
फिर भी अपनी विफलता को स्वीकार नहीं करते। फिर भी दौड़े चले जाते
हैं! क्षितिज कभी मिलता नहीं; पास ही दिखाई पड़ता है कि यह
रहा, और घड़ी दो घड़ी की बात है, और दौड़े
चले जाते हैं। मगर जितना तुम दौड़ते हो, क्षितिज उतना ही दूर
होता चला जाता है। तुम्हारे और क्षितिज के बीच की दूरी हमेशा उतनी की उतनी ही रहती
है, क्योंकि क्षितिज कहीं है ही नहीं। तुम्हारे पास दस रुपये
हैं तो तुम चाहते हो सौ हो जाएं; सौ होते हैं तो चाहते हो
हजार हो जाएं; हजार हैं तो चाहते हो दस हजार हो जाएं;
दस हजार हैं तो सोचते हो कि लाख हो जाएं। यह दौड़ बंद होती ही नहीं।
यह दौड़ कभी किसी की बंद नहीं हुई। क्षितिज दूर का दूर ही बना रहता है।
इस विफलता को जो देखता है, स्वीकार करता है,
उसकी अंतर्यात्रा शुरू होती है। जिसके बाहर का जीवन विफल हो गया है,
ऐसा जिसे स्पष्ट बोध हो जाता है, जिसके मन में
कहीं कोई शंका नहीं रह जाती कि बाहर का जीवन पूरा का पूरा विफल हो गया है--वही
व्यक्ति अंतर्यात्रा पर निकलता है।
आसक्ति बाहर की दौड़ है और अनासक्ति अंतर्यात्रा है। आसक्ति के त्याग
से अनासक्ति नहीं फलती; लेकिन जैसे ही तुम भीतर उतरते हो, जैसे ही तुम शांत होते हो, जैसे ही तुम मौन होते हो,
जैसे ही तुम अपने विचारों के साक्षी बनते हो, जैसे
ही तुम थोड़े से ध्यान में डूबते हो--वैसे ही वैसे अनासक्ति की सुगंध उठनी शुरू हो
जाती है। आसक्ति कहां खो जाती है, पता ही नहीं चलता।
और इससे यह अर्थ नहीं है कि जब आसक्ति खो जाती है तो तुम्हें घर छोड़ना
पड़ेगा, पत्नी छोड़नी पड़ेगी, बच्चे छोड़ने
पड़ेंगे। अरे आसक्ति ही खो गई तो अब किसको छोड़ना किसको पकड़ना! तुम जहां हो वहीं
रहोगे। हां, बिलकुल अन्य होकर रहोगे, बिलकुल
भिन्न होकर रहोगे। सब कुछ वैसा ही रहेगा, सिर्फ तुम्हारे
भीतर का भाव-बोध नया हो जाएगा। अब तुम्हीं कुछ भी न छुएगा। तुम जल में कमलवत
होओगे। यही मेरे संन्यास की परिभाषा है: ध्यान और ध्यान से उठती अनासक्ति की
सुगंध।
लेकिन अनासक्ति का अर्थ विरक्ति नहीं है। विरक्ति का अर्थ तो है
आसक्ति से उलटी। तुम्हारे साधु-संन्यासी, तथाकथित महात्मा
विरक्त हैं। विरक्त का अर्थ है, वे आसक्ति से घबड़ा गए,
तो आसक्ति छोड़ कर भाग गए हैं। आसक्त व्यक्ति और विरक्त व्यक्ति में
भेद नहीं होता। उनकी भाषा एक होती है। एक पैर के बल खड़ा है, एक
सिर के बल खड़ा है; मगर दोनों एक ही जैसे आदमी हैं। सिर के बल
खड़े होने से कुछ परिवर्तन होता है? विरक्त उलटे ढंग से आसक्त
हो गया है। वह घबड़ाया रहता है, डरा रहता है।
चीन की बड़ी प्रसिद्ध कहानी है। एक महिला ने एक फकीर की जीवन भर सेवा
की, तीस वर्षों तक। जब वह मरने को थी तो उसने एक बड़ी अजीब बात की। उसने गांव
की सुंदरतम वेश्या को बुलाया और कहा कि मैंने इस फकीर की सेवा करते-करते तीस वर्ष
व्यतीत किए हैं, अब मैं मरने के करीब हूं, मैं यह जानना चाहती हूं कि यह सच में ही अनासक्त हुआ है या अभी भी विरक्त
ही है? वेश्या ने भी पूछा कि अनासक्ति और विरक्ति में भेद
है। उस स्त्री ने कहा, विरक्ति का अर्थ यह है कि अभी भी
आसक्ति है और आसक्ति का डर है और आसक्ति से बचने की चेष्टा है। और अनासक्ति का अर्थ
होता है--न आसक्ति रही, न विरक्ति रही, न डर रहा, न लोभ रहा; दोनों का
अतिक्रमण; द्वंद्व का अतिक्रमण।
तो तू एक काम कर--उसने वेश्या को कहा--कि जो तुझे लेना हो उतने पैसे
मैं दूंगी। तू आधी रात आज चली जा। वह फकीर आधी रात को ध्यान करता है। तीस साल से
कर रहा है, अभी तक हुआ ध्यान या नहीं, यह
मैं जानना चाहती हूं। मरने के पहले यह पक्का कर लेना चाहती हूं कि जिसकी सेवा की,
व्यर्थ ही तो नहीं की। तो तू चली जाना भीतर। उसकी झोपड़ी का द्वार
अटका ही रहता है, क्योंकि कोई कभी जाता नहीं। तू द्वार खोल
लेना और वह कुछ भी कहे, एक-एक बात का खयाल रखना, मुझे तुझे बताना पड़ेगा। और जाकर उसका आलिंगन कर लेना। वह क्या कहता है,
क्या करता है, बस तू लौट कर मुझे बता देना।
मरने के पहले मैं यह जान लेना चाहती हूं।
वह वेश्या गई। उसने दरवाजा खोला। दरवाजा खोला तो साधु एकदम घबड़ाया।
आंख खोल कर देखा साधु ने। ध्यान करने बैठा था, एकदम चिल्लाया कि अरी
दुष्ट स्त्री! तू यहां क्यों? बाहर निकल! आधी रात को तुझे
यहां आने की क्या जरूरत?
लेकिन उसकी जबान लड़खड़ा गई। उसके शरीर में कंपन हो गया। लेकिन वह
स्त्री तो पैसा लेकर आई थी, वह तो चलती ही आई। वह चिल्लाया कि दूर रह, पास क्यों आ रही है? वह इतने जोर से चिल्लाया कि
पास-पड़ोस के लोग सुन लें। लेकिन उस स्त्री को तो अपना काम पूरा करना था, वह तो आकर उसको गले लगाने लगी। तो वह भागा, उछल कर
एकदम दरवाजे के बाहर हो गया और चिल्लाया कि मुहल्ले के लोगो, इस वेश्या को पकड़ो! यह मुझे भ्रष्ट करने आई है।
वह वेश्या लौट कर आई। उसने बुढ़िया को सारी बात कही। बुढ़िया ने कहा, तो मैंने तीस साल व्यर्थ ही गंवाए। मैं इस मूढ़ की सेवा करती रही। यह
विरक्त ही है अभी, अनासक्त नहीं।
अनासक्त का अर्थ होता है: आसक्ति भी गई, विरक्ति भी गई।
आसक्ति-विरक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, उनमें कुछ भेद
नहीं है। एक धन के पीछे दौड़ता है, एक धन से भागता है;
मगर दोनों की नजर धन पर लगी होती है। एक स्त्रियों के पीछे भागता है,
एक स्त्रियों से भागता है; मगर दोनों की नजर
स्त्रियों पर लगी होती है। दोनों भगोड़े हैं! दिशाएं अलग-अलग हैं, मगर दोनों भाग रहे हैं। अभी दौड़ दोनों की जारी है।
और ध्यान तो उसका है, जो थिर हो जाता है, ठहर जाता है। दौड़ गई तो ध्यान। चित्त न अब इधर जाता न उधर, न पक्ष में न विपक्ष में। जैसे-जैसे व्यक्ति भीतर ठहरता है, थिर होता है, स्थिर होता है--वैसे-वैसे अनासक्त होता
है।
अनासक्ति अपूर्व है! उसका सौंदर्य अदभुत है, अनूठा है। विरक्ति तो कुरूप है। इसलिए तुम्हारे महात्मा एक तरह की कुरूपता
में डूबे हैं। वे गाली ही देते रहते हैं चौबीस घंटे। कामिनी-कांचन को गाली देने
में ही उनका काम बीतता है। वे गाली इसलिए नहीं देते कि कामिनी और कांचन का कोई
कसूर है। सोने को गाली देने से क्या फायदा? सोने ने तुम्हारा
क्या बिगाड़ा? सोने को तुम्हारा पता भी नहीं है। सोना
तुम्हारे पीछे दौड़ता भी नहीं है। सच तो यह है कि स्त्रियां भी तुम्हारे पीछे नहीं
दौड़तीं।
मुल्ला नसरुद्दीन सुबह ही सुबह चाय पी रहा था, पत्नी केतली से चाय डाल रही थी, तभी कुछ बात पर
विवाद हो गया। पति-पत्नी जहां हों वहां विवाद न हो, यह असंभव
है। बात करो तो विवाद; बात न करो तो विवाद। मुल्ला से कोई कह
रहा था, उसका मित्र, कि मेरी पत्नी
अदभुत है, बस एक शब्द बोल दो कि फिर वह घंटों बोलती है।
मुल्ला बोला, यह कुछ भी नहीं। अरे मेरी पत्नी ऐसी है कि बोलो
ही मत और वह घंटों बोलती है। इसी पर बोलती है कि बोलते क्यों नहीं!
तो विवाद हो गया। पत्नी एकदम गुस्से में आ गई और कहा कि मैं मायके
चली। एकदम चाबियों का गुच्छा फेंक दिया। और बोली कि तुम्हीं मेरे पीछे पड़े थे, तुम्हीं चक्कर काटते थे, मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी
थी।
मुल्ला ने कहा, यह बात सच है, कि चूहादानी चूहे
के पीछे नहीं पड़ती, चूहा खुद ही मूरख चूहेदानी में जाता है।
यह बात बिलकुल सच है। तू मेरे पीछे कभी नहीं पड़ी, यह बात सच
है। तू तो चूहादानी है, मैं चूहा हूं। मैं ही फंसा हूं। और
अब फंस कर पछता रहा हूं।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी संयोगवशात मर गई। पत्नियां बहुत मुश्किल से
मरती हैं! तुम्हें मालूम होना चाहिए कि पत्नियां पतियों से पांच वर्ष ज्यादा जीती
हैं। स्त्रियां मजबूत होती हैं। खयाल लोगों के गलत हैं। लोग सोचते हैं स्त्रियां
कमजोर होती हैं, बिलकुल गलत खयाल है। पुरुषों से उनकी उम्र पांच वर्ष
ज्यादा होती है, औसत उम्र। अगर पुरुष जीए सत्तर साल तो
स्त्री जीती है पचहत्तर साल। और ये पांच साल और भी ज्यादा हो जाते हैं, क्योंकि विवाह करते वक्त हम चार-पांच साल का फासला रखते हैं। पुरुष होना
चाहिए बीस-इक्कीस का तो लड़की होनी चाहिए सोलह की। या लड़की अठारह की हो तो पुरुष
होना चाहिए बाईसत्तेईस का। वे पांच साल और जोड़ लो तो स्त्रियां दस साल ज्यादा जीती
हैं। इसलिए पुरुष सिर पीटते रहते हैं और प्रार्थनाएं करते रहते हैं परमात्मा से कि
हे प्रभु उठाओ अब इसको! मगर प्रभु भी क्या करें, वह दस साल
का फासला! ये प्रार्थना करते-करते खुद ही उठ जाते हैं पहले इसलिए दुनिया में
तुम्हें विधवाएं तो मिलेंगी, विधुर शायद ही मिलें।
मुल्ला की पत्नी लेकिन मर गई। कभी-कभी सौभाग्य की घटनाएं भी घटती हैं!
तो मैंने उसको कहा कि अब तो तू प्रसन्न हो, प्रसाद बांट, आनंदित हो। और अब देर क्या है, संन्यास ले ले! अब तो
कोई अड़चन भी न रही। अब तक तो तू पत्नी का बहाना लेता था कि वह नहीं लेने देती,
वह बहुत उपद्रव मचाएगी, वह बहुत शोरगुल करेगी,
वह गांव भर में बदनामी करवा देगी, वह मेरे
पीछे पड़ जाएगी, मेरा जीना दूभर हो जाएगा। अब तो कुछ अड़चन न
रही।
वह एकदम सिर नीचा करके बैठ गया। मैंने कहा, बात क्या है? उसने कहा, अब
आपसे क्या छिपाना! मैं दूसरा विवाह कर रहा हूं। मैंने कहा, अरे
पागल, तुझे पक्का पता चल चुका कि पत्नी चूहादानी साबित हुई
और तू चूहा, अब फिर दूसरी चूहादानी!
मुल्ला ने कहा, क्या करूं, अनुभव पर आशा की
विजय हुई जा रही है!
अनुभव पर सदा आशा की विजय हो जाती है। देर नहीं लगती। यहां पत्नी को
मरे देर नहीं हुई कि बस...। कहते तो यह हैं कि जब वह लौट रहा था मरघट से तो बहुत
रो रहा था, छाती पीट-पीट कर रो रहा था। तो उसके मित्रों ने कहा
कि भई इतने मत रोओ, अरे पत्नी ही थी, मर
गई तो मर गई! मर्द बच्चा हो! अभी जवान हो। दूसरी शादी हो जाएगी। अच्छी से अच्छी
लड़कियां बैठी हुई हैं, जिनको वर नहीं मिल रहे हैं। घबड़ाते
क्यों हो? और चार-छह महीने दुख रहता है, समय सब घाव भर देता है।
ज्ञान की बातें, जो लोग करते हैं, कीं...कि समय सब घाव भर देता है। एक चार-छह महीने की बात है। मुल्ला ने
कहा कि बकवास बंद करो! अरे चार-छह महीने! आज रात क्या करूंगा? मैं कोई वह जो मर गई उसके लिए रो रहा हूं; जो आने
वाली है, वह कब आएगी, उसके लिए रो रहा
हूं।
मरघट पर ही लोग नये विवाह का इंतजाम रचाने लगते हैं।
न तो धन तुम्हारे पीछे दौड़ रहा है, न स्त्रियां इतनी
अभद्र हैं कि तुम्हारे पीछे दौड़ रही हैं। तुम ही उनके पीछे दौड़ रहे हो। और फिर एक
दिन जीवन में जब तुम बहुत ज्यादा घबड़ा जाते हो, बहुत ज्यादा
दुखी हो जाते हो, विषादग्रस्त हो जाते हो, तो तुम दूसरी अति पकड़ लेते हो। फिर तुम धन छोड़ कर भागने लगते हो। फिर
तुमने स्त्री देखी कि तुम ऐसे भागते हो जैसे कि किसी ने सांड को लाल झंडी दिखा दी
हो। एकदम भागे! फिर तुम रुकते ही नहीं। फिर तुम पीछे लौट कर देखते ही नहीं। मगर यह
भागना भी बताता है कि तुम डर रहे हो, तुम भयभीत हो। नहीं तो
ऐसे भागने की क्या जरूरत थी? स्त्री कुछ खा न जाती।
विरक्ति केवल आसक्ति की विपरीत दशा है। इसलिए मैं विरक्ति की शिक्षा
नहीं देता हूं। मैं चाहता हूं: तुम्हारे जीवन में आसक्ति जाए, विरक्ति जाए। और इनका जाना तभी संभव है, जब तुम्हारे
जीने में आत्मानुभव हो और अनासक्ति की सुगंध उठे। आत्मज्ञान का दीया जलता है तो
अनासक्ति का प्रकाश फैलता है। और अंधकार--क्रोध का, मोह का,
लोभ का, काम का--सब तिरोहित हो जाता है। वे सब
अंधकार के वासी हैं--अंधकार के ही अलग-अलग खंड हैं।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
मैं प्रार्थना करना चाहती हूं। क्या प्रार्थना
करूं, कैसे प्रार्थना करूं--इसका मार्गदर्शन दें।
कुणा,
प्रार्थना कृत्य नहीं है। इसलिए करना चाहोगी तो जो भी करोगी वह गलत
होगा। प्रार्थना की नहीं जाती। प्रार्थना भाव-दशा है। प्रार्थना में हुआ जाता है, डूबा जाता है। प्रार्थना उन शब्दों में नहीं है, जो
तुम दोहराती हो--गायत्री, कि नमोकार मंत्र, कि कुरान की आयतें। उन शब्दों में प्रार्थना नहीं है। वे तो कितने लोग
दोहरा रहे हैं! सारी पृथ्वी दोहरा रही है और पृथ्वी पर कहीं तुम्हें प्रार्थना का
उत्सव दिखाई पड़ता है, कहीं प्रार्थना की कोई छाप दिखाई पड़ती
है, प्रार्थना का रस कहीं झरता हुआ मालूम होता है? शब्द दोहरा रहे हैं लोग; कंठस्थ कर लिए हैं। लेकिन
हृदय में कुछ भी नहीं है।
प्रार्थना भाव-दशा है। यह मैं पहली बात जितनी गहराई से तुम्हारे भीतर
अंकित कर सकूं, करना चाहूंगा। प्रार्थना भाव-दशा है। शब्दों की बात
नहीं है, हृदय की बात है। प्रार्थना कृतज्ञता का बोध है।
प्रार्थना शब्द में थोड़ी भूल है। हमने कर दी भूल खड़ी। प्रार्थना शब्द
में ही ऐसा लगता है कि जैसे हम कुछ मांग रहे हैं। प्रार्थी--मांगने वाला। हम
प्रार्थना ही तब करते हैं जब हमें कुछ मांगना होता है। जब हमें कुछ नहीं मांगना
होता, हम प्रार्थना करते ही नहीं।
एक छोटे बच्चे से उसकी शिक्षिका ने पूछा कि बेटे, तुम रात सोते समय प्रार्थना करते हो? उसने कहा,
बिलकुल, रोज करता हूं, नियम
से करता हूं।
और सुबह उठ कर सुबह की प्रार्थना करते हो?
उसने कहा, कभी नहीं करता। उसने कहा, यह
मेरी समझ में कुछ नहीं आया। रात जब तुम नियम से करते हो तो सुबह की प्रार्थना
क्यों नहीं करते? उसने कहा, रात मुझे
डर लगता है, सुबह मुझे डर लगता ही नहीं।
रात के अंधेरे में बच्चे को डर लग रहा होगा। स्वाभाविक। परमात्मा को
याद करता है कि हे प्रभु, बचाओ! लेकिन दिन के उजाले में क्यों करे प्रार्थना?
बच्चे कभी-कभी ठीक बात कह देते हैं, बिलकुल
ठीक बात, जो तुम्हारे संबंध में सूचना देती है। क्योंकि
तुम्हारे भीतर भी बचकानापन है। तुम्हारी प्रार्थना क्या है? बस
कुछ मांग। यह मिल जाए, वह मिल जाए। हे प्रभु, यह दो। हे प्रभु, वह दो। कि तुम दाता हो, मैं याचक हूं। कि तुम दानी हो और मैं दीन हूं। और तुम करुणा के सागर हो।
तुम्हारी सारी स्तुति एक तरह की खुशामद है। स्तुति का मतलब ही खुशामद
होता है। इसीलिए तो इस देश में, जो कि सदियों से स्तुति करता रहा
परमात्मा की, खुशामद और रिश्वतखोरी सहजता से चल पड़ी। रिश्वत
इस देश में अशोभन नहीं मालूम होती, बिलकुल धार्मिक कृत्य
मालूम होती है। जब परमात्मा तक के साथ तुम रिश्वत का नाता रखते हो, कि हे हनुमान जी, एक नारियल चढ़ा देंगे! और जब हनुमान
जी तक एक नारियल चढ़ा दिया! तो चपरासी से लेकर और राष्ट्रपति तक सबकी कीमतें हैं।
और तुम्हें देने में कोई संकोच नहीं होता, क्योंकि तुम
सदियों से इस बात के आदी रहे हो कि बस परमात्मा तक लेता है, तो
औरों की बात क्या! आदमी आखिरी आदमी है! और जब परमात्मा तक को लेने में शर्म नहीं
है तो आदमी क्यों शरमाए! कोई आदमी परमात्मा से ऊपर थोड़े ही है!
स्तुति हमारा सहज जीवन का क्रम रहा है। इसलिए हम खुशामद में भी बहुत
कुशल हैं। जैसे चमचे हम इस देश में पैदा करते हैं, दुनिया में कहीं कोई
पैदा नहीं करता। इतने कुशल और इस तरह की स्तुति करते हैं, जिसमें
सत्य का अंश भी नहीं हो, झूठ ही झूठ! मगर हम झूठ बोलने के
आदी रहे हैं। तुम्हें परमात्मा का पता नहीं है, पहली बात। और
फिर भी तुम परमात्मा को प्रार्थना कर रहे हो। यहीं झूठ की शुरुआत हो गई। तुम्हें
परमात्मा का कोई अनुभव नहीं है और हाथ जोड़े बैठे हो, घंटी
बजा रहे हो। किसके लिए घंटी बजा रहे हो? फूल लगा रहे हो,
किसके लिए? जिसका कोई पता नहीं तुम्हें,
जिसका कोई अनुभव नहीं, उसे घंटी पसंद भी आती
है कि नहीं, यह भी सवाल है। मैं तो नहीं सोचता कि पसंद आती
होगी। और इतनी घंटियां सारे देश में लोग बजा रहे हैं, उसकी
खोपड़ी फटी जाती होगी। अगर कहीं कोई परमात्मा है तो या तो मर गया होगा या ऐसा भागा
होगा कि वह पीछे लौट कर नहीं देखता होगा, भागता ही जा रहा
होगा। क्योंकि इतने भक्त क्या-क्या अंट-शंट कर रहे हैं! यह सब उसको झेलना पड़ता
होगा।
एक ऐसे ही भक्त मरे तो उनको नरक ले जाया जाने लगा, तो वे बहुत नाराज हुए। और उन्होंने कहा, मैं भक्त
हूं, जिंदगी भर भक्ति की है और मेरे साथ यह अनाचार! हमने तो
सुना था देर है अंधेर नहीं। देर भी है और अंधेर भी है। जनम भर प्रतीक्षा हो गई,
देर भी लगी इतनी और अब यह अंधेर दिखाई पड़ रहा है हम चौबीस घंटे
राम-राम राम-राम जप-जप कर मर गए और हमें नरक ले जाया जा रहा है! इसके पहले कि नरक
ले जाओ, मुझे परमात्मा से मिलना है।
बहुत उपद्रव मचाया। भक्त थे। उछलकूद मचाई, शोरगुल किया। एकदम धरना ही देकर बैठ गए। तो आखिर उनको परमात्मा ने
बुलवाया। बहुत नाराजगी में बोले परमात्मा से, कि हद हो गई,
जिंदगी भर राम-राम राम-राम, तुम्हारा ही नाम
जप-जप कर मैं...ओंठ सूख गए, कंठ सूख गया, प्राण सूख गए, सब जीवन कुर्बान कर दिया तुम्हारे
लिए--और अब मुझे नरक भेजा जा रहा है!
परमात्मा ने कहा, अगर तुम सच पूछो तो उसी कारण
भेजा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरी जान खा गए। मेरी खोपड़ी पक
गई! और अब अगर तुम्हें स्वर्ग में रहना है तो मैं नरक चला। मैं तुम्हारे पड़ोस में
नहीं रह सकता। या तुम यहां रहो, या मैं यहां रहूंगा। जब
तुमने उतनी दूर से मुझे इतना सताया तो तुम यहां क्या मेरी दुर्गति करोगे!
भक्तों का कुछ न पूछो--लाउडस्पीकर लगा लेते हैं! खुद ही नहीं करते
भक्ति-भजन, गांव भर को करवा देते हैं। अखंड पाठ करवा देते हैं।
रात में भी चलता रहता है! और सोचते हैं बड़ी कृपा कर रहे हैं, गांव पर बड़ी कृपा कर रहे हैं। किसी को सोने नहीं दे रहे हैं; गांव भर गाली दे रहा है। उनको ही गाली नहीं दे रहा है, उनके भगवान को भी गाली दे रहा है। मगर वे अपनी भक्ति में तल्लीन हैं। वे
नास्तिकों तक को पार करने का इंतजाम कर रहे हैं, जाना हो कि
न जाना हो!
एक मस्तत्तड़ंग आदमी एक बूढ़ी स्त्री को धक्के मार रहा था। आखिर भीड़
इकट्ठी हो गई। किसी ने पूछा हिम्मत करके कि भई, बात क्या है? क्यों उस बुढ़िया को सता रहे हो?
उसने कहा, सता नहीं रहे, इसको रास्ता पार
करवा रहे हैं। मगर यह जाना ही नहीं चाहती। और हमें चर्च में पादरी ने कहा कि कुछ न
कुछ अच्छे काम करने चाहिए। तो मैंने पूछा, कैसे अच्छे काम?
तो उसने कहा, जैसे किसी बुढ़िया को रास्ता पार
करना हो तो करवा देना। अब मैं सुबह से खड़ा हूं, कोई बुढ़िया
रास्ता पार नहीं करना चाहती। और अच्छा काम मुझे करना ही है! इस बुढ़िया को मैं नहीं
छोडूंगा।
उसने जब तक उसे पार न करवा दिया, तब तक उसने नहीं
छोड़ा। वह चिल्लाती रही बुढ़िया, चिल्लाते रहो। अरे जिसको सेवा
करनी, धर्म करना, पुण्य कमाना, वह कोई ऐसे चिल्लाने वगैरह से रुकने वाला है! ऐसी बाधाएं तो सत्संग में
आती हैं! सत्कर्मों में इस तरह के उपद्रव आते ही हैं। उसने पार करवा दिया। जब पार
करवा दिया, तब निश्चिंत गया कि अब मैं दूसरे काम करूं,
कि अब इसी में उलझा रहूं! जिस बुढ़िया को पूछा, वह कहती कि हमें जाना ही नहीं है उस तरफ। आज बुढ़ियाओं को न मालूम क्या हो
गया है! किसी को नहीं जाना है। आज मैंने शुभ कार्य करने का क्या निर्णय किया,
किसी बुढ़िया को पार नहीं होना है!
तुम्हारे धार्मिक लोग पुण्य करने पर उतारू हैं--इसकी बिना फिक्र किए
कि क्या पुण्य है। प्रार्थना-पूजा करने में लगे हैं। घंटे बजा रहे हैं, शोरगुल मचा रहे हैं। झूठे शब्द, जिनका उनके प्राणों
से कोई नाद नहीं है, दोहरा रहे हैं। सदियों पुरानी लकीरें
पीट रहे हैं। मुर्दा शास्त्रों को सिर पर ढो रहे हैं।
नहीं करुणा, प्रार्थना की नहीं जाती। करोगे, चूक हो जाएगी। प्रार्थना एक भाव-दशा है--मौन की भाव-दशा है। शब्द होते ही
नहीं प्रार्थना में। मौन-भाव में झुक जाना--अकारण, अहेतुक,
बिना कुछ मांगे। क्योंकि इतना तो मिला है, इसका
अनुग्रह तो कर लो! जीवन दिया है। नहीं हो परमात्मा का पता, कोई
फिक्र नहीं। लेकिन किसी अज्ञात ऊर्जा ने जीवन दिया है, इतना
तो तय है। यह धड़कन छाती की कुछ कहती है। यह चलती श्वास कुछ कहती है। कोई अज्ञात
हाथ, कोई अज्ञात शक्ति प्रतिपल तुम्हें जीवन दे रही है। उसके
प्रति धन्यवाद तो कर लो! लेकिन धन्यवाद शब्दों में नहीं हो सकता। शब्द छोटे हैं,
बहुत छोटे हैं। अनुग्रह बहुत बड़ा है। इसलिए निःशब्द ही हो सकती है
प्रार्थना।
निःशब्द भाव से झुक जाओ। परमात्मा की फिक्र छोड़ो। यह अस्तित्व, जो तुम्हारे चारों तरफ फैला है, यह उसका प्रत्यक्ष
रूप है। ये वृक्ष, ये तारे, ये
पक्षियों के गीत, ये झरने, ये पहाड़,
ये लोग--यह सब कुछ जो तुम्हें घेरे है, इसके
प्रति अनुग्रह के भाव से झुक जाओ। मौन, शून्य, शांत। और उस शांति में वह जो तुम्हारे हृदय की धड़कन है, वही प्रार्थना है। वह जो श्वासों का आना-जाना है, वही
माला का फेरना है। इससे बेहतर और क्या माला होगी। यह श्वास का आना और जाना,
यही तो गुरिए का आवर्तन है। यह धक-धक हृदय की, और इससे प्यारा क्या गीत होगा! इससे और सुमधुर क्या संगीत होगा!
और वह तुम्हारे भीतर शून्य में बैठा हुआ साक्षी! अनुग्रह के भाव में
ओत-प्रोत! भरा-पूरा, लबालब!
प्रार्थना शब्द नहीं है--निःशब्द मौन है, निःशब्द साक्षी-भाव है। मेरे लिए प्रार्थना और ध्यान दो शब्द हैं--एक ही
अवस्था को इंगित करने वाले। तो चाहे ध्यान कहो, चाहो
प्रार्थना कहो।
मुझको रंगों से मोह, नहीं फूलों से।
जब उषा सुनहली जीवन-श्री बिखराती,
जब रात रुपहली गीत प्रणय के गाती,
जब नील गगन में आंदोलित तन्मयता,
जब हरित प्रकृति में नव सुषमा मुसकाती,
तब जग पड़ते हैं इन नयनों में सपने;
मुझको रंगों से मोह, नहीं फूलों से।
जब भरे-भरे से बादल हैं घिर आते,
गति की हलचल से जब सागर लहराते
विद्युत के उर में रह-रह तड़पन होती,
उच्छवास भरे तूफान कि जब टकराते,
तब बढ़ जाती है मेरे उर की धड़कन,
मुझको धारा से प्रीति, नहीं फूलों से।
जब मुग्ध भावना मलय भार से कंपित,
जब विसुध चेतना सौरभ से अनुरंजित,
जब अलस लास्य से हंस पड़ता है मधुबन,
तब हो उठता है मेरा मन आशंकित--
चुभ जाएं न मेरे बज्र सदृश चरणों में,
मैं कलियों से भयभीत, नहीं शूलों से।
जब मैं सुनता हूं कठिन सत्य की बात,
जब रो पड़ती हैं अपवादों की रातें,
निर्बंध मुक्त मानव के आगे सहसा
जब अड़ जाती हैं मर्यादा की पांतें
जो सीमा से संकुचित और लांछित हैं,
मैं उसी ज्ञान से त्रस्त, नहीं भूलों से।
ज्ञान से निर्भार हो जाओ। शास्त्र से निर्भार हो जाओ। शब्द से निर्भार
हो जाओ। और तुम्हारे भीतर प्रार्थना का फूल खिलेगा, निश्चित खिलेगा!
प्रतीक्षा करो। और भरोसा रखो। आएगा वसंत--सदा आया है। जिसने प्रतीक्षा की है उसने
ही पाया है।
लेकिन जल्दबाजी से कुछ न होगा। तुम्हारे करने की बात नहीं है, क्या करोगे? बीज बो दिए, अब
प्रतीक्षा करो। समय पर अंकुर फूटेंगे। फिर वसंत आएगा, कलियां
लगेंगी, फूल खिलेंगे, सुगंध आकाश में
उड़ेगी।
प्रार्थना ऐसा ही आयाम है, जहां मौन के बीज बोकर
चुपचाप प्रतीक्षा करनी होती है।
लेकिन अपने ज्ञान से सावधान रहना। मत अपने ज्ञान को प्रार्थना बना
लेना।
तू ही कह, मैं तेरे संग-संग कब तक भटकूं मन!
कलि कुसुमों पर अलि-तितली बन कब तक अटकूं मन?
रागमयी माया को कब तक अपनी प्रिया कहूं?
अपने शव को नाव बना कर धारोधार बहूं?
तेरे कारण मरा सांप बन कब तक लटकूं, मन?
अब न रही माया से माया, मन मुझको पहली,
अभ्यर्थना-भर्त्सन उसके अभिनय की शैली;
पात्री के पांवों पर कब तक यों सिर पटकूं, मन?
तेरी नहीं, राम की चेरी वह मोहन-माया!
बन तेरा पर्यंक, रंक, पंकिल
मेरी काया!
जग की आंखों में, तुझ में मैं कब तक खटकूं मन?
गजरा बना न मुझको गणिका, हरि की दासी का!
शूलपाणि का शूल, नहीं मैं फूल विलासी का!
मैं ब्रह्मा का अहम, न तुझसे कब तक छटकूं मन?
नाच नर्तकी की अंगुली पर थका न तू अब तक?
प्रेरक मायावर के पद पर धरा नहीं मस्तक!
मैं माया के आवर्तन पर कब तक मटकूं मन?
अपने मन से पूछो कि कब तक भटकना है, कब तक शब्दों में
अटकना है? कब तक वासना में भटकना है? क्योंकि
तुम्हारी प्रार्थना भी वासना है, मांग है; उसमें तो वासना है। और जहां वासना है वहां प्रार्थना कैसी! इतने तो मन के
साथ जी लिए, अब बेमन के भी होकर जी कर देखो! कम से कम घड़ी भर
को तो बिना मन के हो जाओ, अमन हो जाओ!
कबीर ने, नानक ने, फरीद ने, प्रार्थना को अमनी-अवस्था कहा है, जहां मन नहीं
होता। जहां ज्ञान नहीं, शब्द नहीं, वहां
मन नहीं। जहां वासना नहीं, कामना नहीं, वहां मन नहीं। और जहां मन गया वहां कुछ अनिर्वचनीय घटित होता है। उस
अनिर्वचनीय का नाम ही प्रार्थना है।
और तुम्हारा हृदय जब प्रार्थना से भरा है, तब परमात्मा निकट है--निकट से भी निकटतम है। जब तुम्हारा हृदय प्रार्थना
से आपूरित है तो परमात्मा का प्रत्यक्ष प्रमाण है। उसके अतिरिक्त और कोई प्रमाण
नहीं है। उसके अतिरिक्त सब तर्कजाल हैं।
जो लोग परमात्मा को सिद्ध करते हैं तर्कों से, वे उतने ही नासमझ हैं जितने वे लोग जो परमात्मा को असिद्ध करते हैं तर्कों
से। तर्कों से परमात्मा न सिद्ध होता, न असिद्ध होता। आस्तिक
और नास्तिक व्यर्थ के विवादों में उलझे हैं। जो प्रार्थना को जानता है वही
परमात्मा को जानता है।
आखिरी प्रश्न: भगवान
आप दल-बदलुओं के संबंध में क्यों कुछ नहीं कहते
हैं? इनके कारण ही तो देश की बर्बादी हो रही है।
नारायणदास,
एक जगह कुछ कुत्ते
बड़ी शांति के साथ
जूठन खा रहे थे,
न भौंक रहे थे
न गुर्रा रहे थे।
आश्चर्यचकित होकर मैंने पूछा,
आप लोग
आपस में लड़ते क्यों नहीं,
एक-दूसरे पर झपटते क्यों नहीं?
उनका नेता बोला,
अब हम आपस में नहीं लड़ते,
शर्म के मारे हैं,
इस कला में हम
आदमी से बुरी तरह हारे हैं।
कुत्ते भी शर्माते हैं! गधे भी सिर नीचा कर लेते हैं! आदमी राजनीति
में अपना सबसे ज्यादा उथलापन, ओछापन, थोथापन
जाहिर करता है। राजनीति आदमी की नग्न अवस्था है। जैसा आदमी भीतर है, वैसा राजनीति में सब ऊपर आ जाता है--सब कूड़ा-करकट!
जो लोग राजनीति में नहीं हैं वे कुछ उनसे बेहतर हैं, ऐसा मत सोच लेना। उनका कूड़ा-करकट भीतर है। उनकी छोटी-छोटी राजनीतियां हैं।
पति पत्नी को दबा रहा है, पत्नी पति को दबा रही है; वह उनकी राजनीति है। उनका बड़ा हिसाब नहीं है। बाप बेटे को दबा रहा है,
बेटा भी अपनी तरकीबें निकालता है बाप को, दबाने
की।
छोटे-छोटे बच्चे भी राजनीति में कुशल हो जाते हैं! छोटा बच्चा भी
जानता है कि शोरगुल मचाओ, उपद्रव करो, तो फिल्म में जाने
के लिए पैसे मिलने वाले हैं। बाप पहले तो मना करता ही है। और अगर उसकी मना मान ली,
तो गए काम से। और मचाओ शोरगुल! हर बेटा जानता है कि कितनी सीमा है
बाप के सामर्थ्य की। जब तक बाप का सामर्थ्य न टूट जाए, तब तक
वह शोरगुल मचाए चला जाता है। आखिर एक बरदाश्त होती है, आखिर
बाप घबड़ा जाता है और कहता है कि ये ले पैसे, छुटकारा कर,
जा! भाड़ में जा! जहां जाना हो जा। मगर मेरे सामने से टल। वह लड़के ने
राजनीति की। उसने बाप के ऊपर दबाव डाला। पैर पटका, उछला,
कूदा किताब फाड़ दी स्लेट तोड़ दी। आखिर बाप ने देखा कि यह उपद्रव
शांत होने वाला नहीं है।
पत्नियां उपद्रव मचा देती हैं। जिस दिन उनको साड़ी चाहिए उस दिन ज्यादा
बर्तन टूटते हैं घर में, प्लेटें गिर जाती हैं, बच्चों
की पिटाई होती है। आखिर पति को समझ में आ जाता है कि साड़ी के बिना काम नहीं चलेगा।
जिस दिन पति साड़ी लेकर घर जाता है, आइसक्रीम लेकर घर जाता है,
उस दिन पत्नी समझ जाती है: कुछ गड़बड़ है, कुछ
दाल में काला है। दिखता है टाइपिस्ट के साथ कुछ गड़बड़ चल रही है, नहीं तो एकदम साड़ी लेकर आना घर! मतलब? वैसे हम सिर
पटक-पटक कर मर जाते हैं और साड़ी का पता नहीं चलता। और जब भी साड़ी का नाम लो,
तभी झगड़ा-झांसा। आज अपने आप साड़ी लेकर चले आ रहे हैं!
मुल्ला नसरुद्दीन हमेशा अपनी पत्नी के संबंध में कहता रहता था कि दुखी
ही दुखी बनी रहती है। और दुखी रहती है तो मेरी जान खाती है। रात देर तक मैं
शराबखाने में इसीलिए बैठा रहता हूं, इसीलिए पीता रहता
हूं। मैंने उससे कहा, ऐसा कर...तूने कभी पत्नी को प्रेम भी
दिया कि नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सिर्फ तेरे प्रेम के
अभाव में इस तरह परेशान हो रही है? एक दिन ऐसा कर, साड़ी खरीद, फूल ले जा, आइसक्रीम
ले जा, मिठाई ले जा और एकदम जाकर गले लगा लेना और एकदम उसके
सौंदर्य की प्रशंसा करना। कब से तूने उसके सौंदर्य की प्रशंसा नहीं की?
उसने कहा कि आपने भी याद दिलाई! जमाने हो गए। यह तो शुरू-शुरू में जब
बंबई में चौपाटी पर मिला करते थे, तब भेल-पूड़ी के साथ-साथ यह बात
भी कुछ...। अब तो याद भी नहीं रहा कि क्या-क्या उन जमानों में कह गए! जो कह गए,
उसका फल अब तक भोग रहे हैं। अब आप क्या चाहते हो, फिर से कहें?
मैंने कहा, तुम एक दफा करके तो देखो। प्रेम दोगे तो शायद यह
उपद्रव शांत हो जाए। उसने कहा, आज ही करके देखता हूं। लिया
उसने...साड़ी खरीदी, मिठाई खरीदी, फूल,
गुलदस्ते, आइसक्रीम और लेकर घर पहुंचा
भारी...। दरवाजा खोला, पत्नी देख कर एकदम दंग रह गई, ऐसा तो कभी हुआ नहीं था! और मुल्ला ने एकदम से उसे गले लगा लिया और कहा कि
तू क्या है, चांद का टुकड़ा है! पत्नी ने एकदम भौचक्का होकर
देखा और एकदम जीवन पर बैठ कर एकदम छाती पीटने लगी। अरे, मुल्ला
ने कहा, यह तू क्या करती है? उसने कहा
कि क्या करती हूं...नौकरानी सुबह से आई नहीं। बेटा गिर पड़ा है, उसके तीन दांत टूट गए हैं। लड़की घर लौटी है युनिवर्सिटी से, कहती है गर्भवती है। अब तुम आए हो! कितनी पीकर आए हो? मेरी जिंदगी तो नरक है!
कोई पति ऐसी साड़ी और फूलमालाएं एकदम से लेकर आ जाए तो पत्नी को शक ही
होगा कि पीकर आ गए, कि कुछ गड़बड़ है, कि अपने होश
में नहीं है, मामला क्या है!
छोटी-छोटी राजनीतियां सबकी चल रही हैं। अब दफ्तर में मालिक है तो वह
अपने नौकरों को दबा रहा है। चपरासी छोटे चपरासी को दबा रहा है, बड़ा क्लर्क छोटे क्लर्क को दबा रहा है, हेड मास्टर
मास्टरों को दबा रहे हैं, मास्टर लड़कों को दबा रहे हैं,
लड़के अपने से छोटे लड़कों को दबा रहे हैं। सब तरह राजनीति है। अगर
तुम गौर से देखो तो सिर्फ राजनीतिज्ञ ही राजनीतिज्ञ नहीं हैं। फिर इन्हीं
छोटे-छोटे राजनीतिज्ञों में से बड़े राजनीतिज्ञ पैदा होते हैं। यह अभ्यास होता है
यहां। यह जिंदगी पूरा का पूरा अभ्यास है। फिर इस अभ्यास में जो बहुत कुशल हो जाते
हैं, वे फिर ऊंचे खेल खेलने लगते हैं; फिर
वे प्रदेशों की राजधानी में ऊधम मचाते हैं। फिर घिराव करते हैं, धरने देते हैं, अनशन करते हैं, हड़तालें करवाते हैं। फिर जो जितना ज्यादा बड़ा उपद्रवी होता है वह उतने
जल्दी दिल्ली पहुंच जाता है। फिर कोई पार्टी अगर सत्ता में आ जाती है तो उसमें
सबसे ज्यादा जो उपद्रवी लोग होते हैं, वे सब केबिनेट के
मंत्री हो जाते हैं। उनको बनाना ही पड़ता है; न बनाओ तो वे
उपद्रव खड़ा करेंगे; न बनाओ तो तोड़-फोड़ खड़ी करेंगे।
दल-बदल तोड़-फोड़ है, नाराज लोगों की--जिनको आशा थी कि
मिलेगा पद और नहीं मिला।
और इस देश में किसी तरह की निष्ठा नहीं है। इस देश में किसी तरह की
वैचारिक निष्ठा न कभी थी, न आज है। इस देश में विचार के प्रति कोई सम्मान ही
नहीं है। हम कहते तो अपने को बड़े आध्यात्मिक लोग हैं, मगर हम
से ज्यादा भौतिकवादी लोग पृथ्वी पर खोजने मुश्किल हैं। हम निरे भौतिकवादी हैं।
हमारे सारे सोचने-समझने की प्रक्रिया भौतिकवादी है। हम बातें बड़ी ऊंची करते हैं।
हम बातों में बड़े कुशल हो गए हैं। वह भी सिर्फ हमारी कुशलता ही है। उन ऊंची-ऊंची
बातों के नीचे जो हम चलाते हैं, वह बिलकुल और है।
तुम जिनको नेता मान लेते हो और उन से तुम आशा रखते हो कि वे कोई विचार
की निष्ठा बताएंगे, तुम्हारी आशा गलत है। वे नेता किसी विचार की निष्ठा
के लिए नहीं हैं, वे नेता हुकूमत करने के लिए हैं, वे तुम पर मालकियत करने के लिए हैं। विचार इत्यादि के तो बहाने हैं;
वे तो नारे हैं। अगर समाजवाद हवा में है तो समाजवाद का नारा दो,
क्योंकि समाजवाद को मत मिलेंगे। अगर कोई और चीज हवा में है तो जल्दी
से हवा के साथ हो जाओ। जो हवा का रुख पहचानता है, उसको ही
होशियार राजनीतिज्ञ कहते हैं।
मगर मैं समझता हूं नारायणदास, बरबादी तो उनसे हो
रही है और होती रहेगी, क्योंकि तुम्हारी भी कोई वैचारिक
निष्ठा नहीं है। विचार ही नहीं है बुद्धिमत्ता ही नहीं है, तो
विचार कहां से होगा! इस देश में कोई सोचता-समझता है? कोई सोच
कर जी रहा है?
एक महिला एक जीप में सवार हुई। पिकनिक को जा रही थी, कोई सत्रह-अठारह बच्चे ले कर। ड्राइवर कुछ पीए हुए था। एक तो पीए हुए--और
फिर भारतीय ड्राइवर! तो भारतीय ड्राइवर तो बिलकुल स्वतंत्रता में विश्वास करते
हैं। जहां जगह मिले वहीं से निकल जाते हैं। न बाएं में मानते न दाएं में
मानते--मध्यमार्गी होते हैं। रास्ते के बिलकुल बीच में चलते हैं। कहा ही है भगवान
बुद्ध ने--मज्झिम निकाय--बीच में चलो! सो वे बीच में ही चलते हैं।...और वह कहीं से
भी जा रहा था। महिला एकदम घबड़ा रही थी, बच्चे गिर जा रहे थे।
सिर बच्चों के फूटे जा रहे थे। आखिर उसने कहा कि भैया, जरा
होश से चल। तो उस ड्राइवर ने पीछे की तरफ देखा और कहा कि बाई, ये सब बच्चे तेरे हैं? उसने कहा, हां। तो उसने कहा, जब तू होश नहीं रख सकी, तो मैं क्यों होश रखूं! पहले खुद ही होश रखो। फिर दूसरों को शिक्षा देना।
तुम कितने बच्चे पैदा करते जाते हो, कुछ होश है? और कहते हो कि देश बरबाद हो रहा है। इतनी भीड़।
बुद्ध के जमाने में भारत की आबादी दो करोड़ थी, तो स्वभावतः लोग प्रसन्न थे। दो करोड़ के लिए यह भूमि बहुत थी। तो स्वभावतः
लोगों के लिए भोजन था, दूध था, खाने-पीने
का समान था, कोई अड़चन न थी। आज सत्तर करोड़ के करीब पहुंची जा
रही है आबादी। और देश उतना का उतना। उतना का उतना भी नहीं है, देश में से बहुत सा हिस्सा कट गया है। अगर पाकिस्तान की आबादी भी और बंगला
देश की आबादी भी इस में जोड़ लें, तो नब्बे करोड़ के करीब
आबादी पहुंच रही है। करीब-करीब पचास गुनी आबादी हो गई और जमीन उतनी ही। और जमीन की
उपजाऊ शक्ति क्षीण होती चली गई क्योंकि तुम ने फिक्र ही नहीं की। तुम तो समझते रहे
बस, गऊ माता का गोबर डाल दिया कि सब ठीक हो गया। तुम्हारा
गोबर में ऐसा भरोसा है! ऐसी श्रद्धा है कि अगर देश गोबर-गणेशों से भर गया है तो
कुछ आश्चर्य नहीं है। सब गऊ-पुत्र, गऊ माता के वंशज!
तुमने जमीन पर कभी ध्यान नहीं दिया कि इस को जितना हम इससे ले रहे हैं, इतना वापस देने की जरूरत है। पच्चीस सौ साल में तुम ने जमीन को चूस लिया।
उसमें कुछ बचा नहीं, जमीन बांझ हो गई है और संख्या बढ़ती चली
जाती है।
अब इस उपद्रव की हालत में, तुम जिनको राजनेता
बना कर भेजते हो वे आश्वासन तो देते हैं; वे भी जानते हैं कि
पूरे नहीं कर सकेंगे। और तुम भी अगर होश में हो तो तुम भी जानते हो कि पूरा नहीं
कर सकेंगे। इस में किसी का कसूर भी नहीं है। पूरी हो नहीं सकती, तुम्हारी समस्याएं इतनी बड़ी हैं। तो तुम जिसको भी सत्ता में भेजोगे वह
आश्वासन देगा और चार-छह महीने में तुम को लगेगा कि यह तो गड़बड़ हो गई। लेकिन पांच
साल फिर प्रतीक्षा करो। लेकिन पांच साल में तुम दस करोड़ की आबादी और बढ़ा लोगे।
पांच साल बाद जो राजनेता आश्वासन देगा, वह और भी मुश्किल में
दे रहा है। मगर उसको सत्ता करनी है। उसको सत्ता का मजा लेना है। उसको भी फिक्र
नहीं तुम्हारी समस्या की। तुमको भी फिक्र नहीं तुम्हारी समस्या की। किसी को समस्या
की फिक्र नहीं है। उसको आश्वासन देना पड़ता है, क्योंकि तुम
मत न दोगे। तुम जो कहो वह कहता है हां। तुम जैसा कहो वह कहता है हां, यही करेंगे, ऐसा ही करेंगे। लेकिन जैसे ही वह सत्ता
में पहुंचता है, उसको दिखाई पड़ता है कि मामला तो इतना बड़ा है,
यह हो कैसे सकता है? इसकी संभावना कहां है?
और अगर कोई राजनेता करने की कोशिश करे तो तुम उसको खूब फल चखाते हो।
तुमने इंदिरा को जो कष्ट दिया तीन साल तक, उसका कुल कारण इतना
था कि उसने कुछ करने की कोशिश की थी। उसने चेष्टा की थी कि तुम्हारी जनसंख्या रुक
जाए, तो तुम नाराज हो गए, कि हमारे साथ
जबरदस्ती हो रही है, कि हमें बांझ किया जा रहा है, कि हमें पकड़-पकड़ कर नसबंदी की जा रही है। नसबंदी इंदिरा को ले डूबी। अब
इंदिरा को भी सोचना पड़ेगा कि नसबंदी करनी कि नहीं। और अगर नसबंदी नहीं होती है तो
तुम्हारी समस्याएं रोज बढ़ती जाएंगी। तुम बरबादी के कगार पर खड़े हो। तुम आत्महत्या
करने की कगार पर खड़े हो। और अगर वह नसबंदी की कोशिश करेगी तो तुम फिर उसे दिक्कत
दोगे।
इसलिए मोरारजी ने तीन साल में कुछ भी नहीं किया, संख्या को बढ़ने दिया मजे से। अरे, मजा करो, बाल-गोपाल बढ़ाओ! यह तो बाल-गोपालों का देश ही है। बाल-गोपाल तो बढ़ते जा
रहे हैं, न कहीं दूध है, न कोई मटकी
है। कंकड़-पत्थर फेंकने का भी सवाल नहीं है। मोरारजी तो चुपचाप...कुछ किए नहीं तीन
साल। मोरारजी लोगों के ठीक जमे कि कुछ गड़बड़ तो नहीं करते। भले आदमी हैं। इंदिरा
अखरी, क्योंकि उसने कुछ करने की कोशिश की।
मैं तो इंदिरा को कहूंगा कि फिर करने की कोशिश करो, और जोर से कोशिश करो, क्योंकि इस देश को सीधे-सीधे
रास्ते पर लाया जा सकता नहीं; इसकी समस्याएं काफी तिरछी हो
गई हैं। अमेरिका जैसे देश प्रसन्न हैं, क्योंकि बीस करोड़ की
आबादी है और जमीन हम से बहुत ज्यादा है। रूस प्रसन्न है, क्योंकि
बीस करोड़ की आबादी है और जमीन हम से बहुत ज्यादा है। हम कैसे प्रसन्न हो सकते हैं।
मगर अमेरिका में फिक्र है कि कोई दो बच्चे से ज्यादा न पैदा करे। कोई करता नहीं है,
इसलिए कोई जबरदस्ती की जरूरत नहीं है।
हम अभी लोकतंत्र के योग्य भी नहीं हैं। लोकतंत्र के योग्य होने योग्य
प्रतिभा नहीं है हमारी। लोकतंत्र का अर्थ होता है--लोग इतने बुद्धिमान हैं, सोच-विचारशील हैं कि उनको छोड़ा जा सकता है, वे खुद
ही इस तरह के काम नहीं करेंगे। लेकिन नहीं; तुम समस्याएं खड़ी
करते जाओ, फिर ऊपर जो हैं उनको दिखाई पड़ता है कि कुछ हल तो
हो सकता नहीं, किसी का तो हल हो सकता नहीं, तो कम से कम अपनी मुसीबत तो हल कर लो। चार दिन की जिंदगी है, अब यहां तो कुछ हल होने वाला नहीं है, यहां तो
मुसीबत बढ़ती जाने वाली है, तो चार दिन खुद तो कम से कम बंगले
में रह लो। चार दिन खुद तो सुख के बिता लो। और कोई हम ठेका लेकर आए हैं।
राजनेता तुम को आश्वासन देता है, क्योंकि तुम से वोट
चाहिए। वोट मिल जाने के बाद तुम्हारी उसे कोई चिंता नहीं है। और तुम्हारी अगर वह
चिंता करे तो तुम उसे टिकने नहीं दोगे। इस देश की मूढ़ता का अंत नहीं है। इस देश को
अगर बदलना हो तो केवल वे ही लोग बदल सकते हैं, जो सूली पर
चढ़ने को राजी हों, जो गोली खाने को राजी हों। यह देश उनको
मारेगा। मुझको इतनी गालियां पड़ती हैं, सारे मुल्क में
गालियां पड़ती हैं; उसका सिर्फ कारण इतना है कि मैं सीधी-सीधी
वही बात कह रहा हूं जो कही जानी चाहिए। लेकिन तुम चाहते हो तुम्हारी खुशामद हो।
तुमसे कहा जाए कि तुम महान हो, बहुत धार्मिक हो, बड़े बुद्धिमान हो, तुम जैसा बुद्धिमान पृथ्वी पर कोई
नहीं। तब तुम बिलकुल प्रसन्न होते हो। मगर तुम जैसा बुद्धू कोई नहीं है आज जमीन
पर। और मुझे तुमसे कोई वोट नहीं चाहिए, इसलिए कोई फिक्र नहीं
है।
तुम पूछते हो नारायणदास कि आप दल-बदलुओं के संबंध में कुछ क्यों नहीं
कहते? क्या कहने को है! सब तो तुम्हें पता है।
निरादरणीय दलबदलू जी!
बार-बार धिक्कार!
सुना है आपने दूसरा दल भी छोड़ दिया
अपना भाग्य फोड़ा या उनका फोड़ दिया
लोग व्यर्थ ही
संशय करते हैं कि आप कैसे हैं
किंतु आप क्या करें!
आपके संस्कार ही ऐसे हैं
अस्पताल में पैदा होते ही आप उछल कर
बगल की चारपाई पर जा चढ़े थे
वह तो वहां नर्स और डाक्टर खड़े थे
नहीं तो आप जड़ से ही स्वयं को बदलते
एक के यहां जन्में दूसरे के यहां पलते
हे परिवर्तन प्रेमी!
कल तक आप अडिग चट्टान थे
आज पथ के रोड़ों में जा मिले
अपनी पार्टी के गरीब गधों को छोड़कर
तेज दौड़ने वाले घोड़ों मैं जा मिले
आपका क्या भरोसा
घोड़ों को छोड़ कर कल आप खच्चरों में जा मिलेंगे
आप तो सच्चे पद-प्रेमी हैं
मच्छर यह कहें कि आओ यह रही कुर्सी
तो आप मच्छरों में जा मिलेंगे
धर्मात्मा जी!
गीता का यह वासांसि जीर्णानि श्लोक
आपने कब पढ़ डाला
संपूर्ण जीवन में एक काम की चीज पढ़ी
उसके ही अर्थ का यह सार निकाला
शरीर और वस्त्र बदलने के स्थान पर
दल बदल गए
कुर्सी की भूख में
कृष्ण जी की गीता को ही निगल गए
हे बहुरूपिए!
कभी एकांत में आपको शर्म तो अवश्य आती होगी
पर क्या करे, बेचारी!
कुर्सी पर सर पटक कर चली जाती होगी
सोते समय आप उधर थे
उठते समय इधर हैं
आप तो एक घूमते हुए लट्टू हैं
कोई बता नहीं सकता कि आपका मुंह किधर है
हे परम देश-भक्त!
आप देश की भलाई के लिए
कितना कष्ट उठा रहे हैं
चैन से बैठ कर न पी रहे हैं, न खा रहे हैं
जब देखो भागे जा रहे हैं
आप एक सच्चे राष्ट्रनेता का दायित्व निभा रहे हैं
आपने देश के लिए बहुत कुछ किया है
अपना सर्वस्व ही देश को दे दिया है
मेरा विनम्र निवेदन है कि आप
देश की जनता के लिए इतना और कर जाइए
शीघ्र ही किसी गंदे नाले में डूब जाइए।
और दल-बदलुओं के संबंध में क्या कहो! कहने योग्य क्या है! खुद ही गिर
रहे हैं नालियों में। रोज उनकी प्रतिष्ठा कम होती जा रही है। तीन साल में भारत में
दो चीजों के दाम गिरे--एक तो रुपये का दाम गिरा और एक नेता का दाम गिरा। रुपये का
भी इतना नहीं गिरा जितना नेता का गिरा। रुपये का तो फिर भी कुछ कौड़ी मूल्य रहा, नेता का कौड़ी भी मूल्य नहीं रहा। तीस साल में उन्होंने अपनी मटियामेट कर
ली है। मगर तुम उनकी बातों में आ जाते हो। भूल तुम्हारी है, कसूर
तुम्हारा है।
एक नेता जी व्याख्यान दे रहे थे, बड़े जोश-खरोश में थे।
सो बिना आगे देखे बोलते गए और जोश में थे सो चलते भी गए। कह रहे थे: तुम अमर बढ़े
चलो! तुम अजर बढ़े चलो। आन पर चढ़े चलो। और गड़ाप से मंच के नीचे चले गए।
मुल्ला नसरुद्दीन भीड़ में था, खड़ा हो गया और कहा,
खड्ड में गिरे चलो! और क्या करोगे, वे गड़ाप से
गिर ही रहे हैं। अब कुछ कहने को ज्यादा उनके लिए है नहीं।
मैंने सुना है कि मोरारजी देसाई अभी हाल के चुनाव के बाद उदासी में एक
दिन जरा ज्यादा पी गए। क्या पी गए, सो तुम जानते ही हो!
जब बहुत नशा चढ़ गया तो अपनी ही टंगी शेरवानी को रात के अंधेरे में समझे कि अरे,
यह कौन खड़े हैं! सो बोले--
श्रीमान चमत्कार जी,
आपको बारंबार नमस्कारजी,
आप इस देश के छंटे हुए बदमाश हैं
पुरुषों को हाथ देते हैं
महिलाओं का साथ देते हैं।
यह सुन कर चमत्कार मुस्कुराया
और बोला--
जब बहुगुणा दल-बदल सकते हैं
चौधरी साहस छल कर सकते हैं
फर्नांडीज बिदक सकते हैं
तो हम भी उधर खिसक सकते है।
हमने कहा--
जवाब नहीं तुम्हारे ठाठ का
हमें घर का छोड़ा न घाट का
ऐसी हालत बनाई है
आगे कुआं है
पीछे खाई है
बीच में आई है।
चमत्कार बोला--
आप तो लड़ रहे हैं
आप बिना बात बिगड़ रहे हैं
जब राजनारायण सरकार तोड़ सकते हैं
हरिजन जग और जीवन को छोड़ सकते हैं
तब हम भी अपनी सुरक्षा के लिए
यह चमत्कारी घड़ा आपके सिर पर फोड़ सकते हैं।
मैंने कहा--बकवास बंद करो।
वह बोला--जेल के फाटक खोलूं।
इससे पहले कि मैं कुछ बोलूं
बोला--तीन साल में आपने किया क्या?
अंधेरे में लाठी मारते रहे।
केवल गड़े मुर्दे उखाड़ते रहे
सत्य से आंख मींचते रहे
एक-दूसरे की टांग खींचते रहे।
मैंने कहा--
अबे चमत्कार
वापस कर मेरा नमस्कार
जानता है टांग खींचना
राजनीति का नहीं
व्यायाम का अंग होता है।
वह बोला--बेटा!
अब सारी जिंदगी व्यायाम करो।
मैंने कहा--
भाई साहब
तैश मत खाइए
कृपा यह बतलाइए
कि यह दो-तिहाई बहुमत कैसे आया है?
बोला--पांच रुपये किलो प्याज ने दिलवाया है।
मैंने कहा--क्या बकता है?
क्या प्याज किसी को प्रधानमंत्री बना सकता है?
यदि यह सत्य है
तो हम राजनारायण को बताएंगे
वह अपने चेहरे पर दाढ़ी नहीं
प्याज उगाएंगे
यदि यह सत्य है तो अब
माताएं मंदिरों में जाकर
पुत्र के स्थान पर प्याज की कामना करेंगी
हमारे भारतीय योगी विदेशों में
अब अध्यात्म का नहीं
प्याजात्म का प्रचार करेंगे
अब कोई क्रांति या संपूर्ण क्रांति नहीं होगी
केवल प्याज की खेती होगी।
यह सुन कर चमत्कार गंभीर हो गया और बोला--
सुनिए जी,
असलियत यह है कि--
इस देश का चिंतन प्याज-प्रधान हो गया है
आदमी के बोलने में भी बदबू आती है
आदमी के सोचने में भी बदबू आती है।
लोग बदबू ही पसंद करने लगे हैं
और सारा परिवेश हो गया है बदबूदार
भाई जी,
जहां का वर्तमान अतीत से सबक नहीं लेता
वहां का भविष्य फूट-फूट कर रोता है
ऐसी स्थितियों में कुछ नहीं
केवल चमत्कार होता है।
बस नेता तुमसे चमत्कार की बातें करते रहते हैं। आशा बाधाएं रखते हैं
कि होगा चमत्कार। चमत्कार न कभी हुआ है, न कभी होता है। मगर
समस्याएं इतनी बड़ी हैं कि सिवाय चमत्कार के और कोई बात तुम्हें समझ में भी नहीं आ
सकती, सूझ में भी नहीं आ सकती।
अभी भी कुछ बिगड़ नहीं गया है। अभी भी बात बदली जा सकती है। अभी भी नया
पृष्ठ उघाड़ा जा सकता है। इस देश को इतने अध्यात्म की आवश्यकता नहीं है जितने
विज्ञान की आवश्यकता है। इस देश को चरखों की आवश्यकता नहीं है और न खादी की। इस
देश को नई टेक्नालाजी की, नये उद्योगों की आवश्यकता है। इस देश को स्वदेशी
इत्यादि की मूढ़तापूर्ण बातें छोड़ देनी चाहिए, सारी दुनिया की
संपत्ति को आमंत्रित करना चाहिए। दुनिया में संपत्ति है और उस संपत्ति के लिए,
लगाने के लिए स्थान नहीं है। भारत के पास संपत्ति नहीं है, लगाने के लिए बहुत अवकाश है। लेकिन हम बाहर की संपत्ति को रोकते हैं। और
तो और, बेचारे गरीब कोकाकोला को रोक दिया! हम ऐसे भयभीत लोग
हो गए हैं कि हम एकदम छुईमुई हो गए हैं, दीवालें बद कर ली
है।
हमें दुनिया को विश्वास दिलाना चाहिए। हमारे पास श्रम है, सुविधा है, विकास को अवसर है। और सारी दुनिया के पास
संपत्ति है। वे संपत्ति इस मुल्क में लगाने को राजी हो सकते हैं अमेरिका ने जितनी
संपत्ति सारी दुनिया में लगाई है, उसका केवल एक प्रतिशत भारत
में है। यह बड़ी हैरानी की बात है। कम से कम पचास प्रतिशत यहां लग सकता है। मगर हम
आश्वस्त नहीं होने देते। और हम टुच्ची बातें करते हैं। और यहां भी हम व्यक्तिगत
उद्योगों को विकसित नहीं होने देते हैं। समाजवाद की थोथी बकवास लगा रखी है।
समाजवाद पूंजीवाद की अंतिम अवस्था है। जब पूंजीवाद इतनी पूंजी पैदा कर
देता है कि सब में बांटी जा सके, तब समाजवाद का कुछ अर्थ होता है।
यहां क्या है बांटने को? और अगर यहां बांट लोगे तो गरीबी ही
बांट सकते हो, और क्या बांटने को तुम्हारे पास है? अभी बांटने की बात ही मत करो, अभी पैदा करने की बात
करो। समाजवाद पैदा नहीं कर सकता, सिर्फ पूंजीवाद पैदा कर
सकता है। पूंजीवाद का अर्थ ही होता है, पूंजी पैदा करने की
प्रक्रिया है वह। जब पूंजी पैदा हो जाए तो बांट लेना। फिर समाजवाद स्वाभाविक
परिणाम है।
रूस साठ साल से समाजवादी है और अभी तक भी अमीर नहीं हो पाया है। अभी
तक भी अमेरिका से हजारों मील पीछे है।
अमेरिका की समृद्धि का राज क्या है? सीधा सा राज है:
व्यक्तिगत उद्योग को अधिक से अधिक मूल्य दिया जा रहा है। और अमेरिका ने सारी
दुनिया से संपत्ति को आमंत्रित कर लिया है।
इस देश की समस्या हल हो सकती है। ऐसी कोई समस्या ही नहीं होती जो हल न
हो सके। एक तीन बातें खयाल रखनी जैसी हैं।
एक--इस देश की जनसंख्या नीचे गिरनी चाहिए। जिनको भी समझ हो थोड़ी, उन्हें संतान से सावधान हो जाना चाहिए। अब हम नारा भी काम नहीं चलेगा कि
दो या तीन बस। जो लोग बिलकुल बिना बच्चों के रह सकें, उनको
सम्मान दिया जाना चाहिए। उनको हर तरह से सुविधाएं दी जानी चाहिए। उनको पहले
नौकरियां दी जानी चाहिए। उनको तनख्वाहें ज्यादा दी जानी चाहिए। उनको इनकमटैक्स में
सुविधा दी जानी चाहिए। अभी उलटा है: जितने ज्यादा बच्चे हों उतनी इनकमटैक्स में
सुविधा मिलती है।
एक तो संख्या कम हो। दूसरे व्यक्तिगत उद्योगों पर बल हो, क्योंकि जो-जो उद्योग राष्ट्रीय हो जाता है वही उद्योग बरबाद हो जाता है।
उसी उद्योग में हानि होने लगती है। जब तक व्यक्तियों के हाथ में होता है, लाभ होता है; और जैसे ही राष्ट्र के हाथ में गया,
वैसे ही हानि शुरू हो जाती है। क्योंकि यहां राष्ट्र की धारणा ही
नहीं है। इस देश में राष्ट्र का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह देश कभी राष्ट्र रहा
नहीं। सदियों से नहीं रहा है। यह पहला मौका है आजादी के बाद, जब हम एक राष्ट्र बने हैं; नहीं तो यह एक खंडित
टुकड़ों में बंटा रहा। और यहां हर आदमी स्वार्थी है। तो जब तक उस का स्वार्थ तब तक
ठीक। जैसे ही उसका स्वार्थ गया कि फिर उनको फिक्र नहीं है।
एक आदमी को मैंने बगीचे में देखा, वह बैठा हुआ चाकू से,
जिस बेंच पर बैठा था उसको खोद रहा, कुरेद रहा।
मैंने कहा कि भई, यह तू क्या करता है? उसने
कहा, यह आप की है? मैंने कहा, नहीं, मेरी तो नहीं है। सार्वजनिक है।
तो सार्वजनिक है तो क्या फिक्र? सार्वजनिक है तो
कुरेदो चाकू से, किसी के बाप की है?
किसी के बाप की नहीं है, यह बात तो सच्ची है।
तो फिर क्या फिक्र है?
सार्वजनिक चीज का तो कोई सम्मान ही नहीं है! हमारे देश में सार्वजनिक
की कोई धारणा नहीं है। इसलिए इस देश में व्यक्तिगत उद्योग को जितना हम मूल्य दे
सकें उतना उपयोगी है।
और तीसरी बात: हम आश्वस्त कर सकें दुनिया को कि तुम्हारी संपत्ति अगर
यहां लगेगी तो नष्ट नहीं होगी। इस तरह की टुच्ची बातें हम नहीं करेंगे कि कोकाकोला
पर कब्जा कर लें या फलाने को बंद कर दें या ढिकाने को बंद कर दें, ये फिजूल की बातें हम नहीं करेंगे। तुम्हारी संपत्ति सुरक्षित रहेगी।
लेकिन हमारी जान इसमें अटकी है कि वे कुछ कमा न लें। हमें इसकी फिक्र
कम है कि हमें कितना लाभ होगा। हमें इसकी चिंता ज्यादा है कि वे कुछ कमा न लें।
ठीक है वे कुछ कमाएंगे। मगर वे कुछ कमाएंगे तो हम बहुत कमाएंगे।
मगर इस देश के सोचने का ढंग गलत हो गया है। यहां इस बात की ज्यादा
फिकर है कि कोई हम से कमा न ले। चाहे हम लंगोटी में ही रह जाएं, मगर कोई हम से कमा न ले! वे कमाएंगे जरूर तो हम भी कमाएंगे।
दुनिया की सारी संपत्ति को आमंत्रित किया जाना चाहिए। और देश में एक
विचार की निष्ठा पैदा होनी चाहिए। सोच-विचार का जन्म होना चाहिए। तुममें सोच-विचार
की निष्ठा होगी तो तुम्हारे नेताओं में होगी। तुम्हारे नेता तो केवल तुम्हारे झंडे
हैं। तुम जो हो वैसे तुम्हारे नेता हैं।
और मजा यह है कि इन दल-बदलुओं को, जिनके लिए तुम पूछते
हो नारायण दास, फिर भी तुम वोट दिए जाते हो! इन दल-बदलुओं की
पिटाई भी नहीं होती! इन दल-बदलुओं को कोई फेंकता भी नहीं उठा कर। ये दल-बदलू यहां
से वहां हो जाते हैं और फिर ये नेता के नेता बने रहते हैं। ये फिर पद पर बने रहते
हैं।
अभी जगजीवन राम कोशिश में लगे हैं कि अब किस तरह से फिर घुस जाएं पद
पर। चालीस साल से पद पर हैं। हरिजनों के नाम से पद पर हैं। किस हरिजन का कौन सा
लाभ हुआ इन चालीस साल में, कुछ कहा नहीं जा सकता। और चालीस साल में बस एक ही
तिकड़मबाजी है: किसी भी तरह पद पर रहना है। इंदिरा हारी, हारने
के लक्षण दिखाई पड़े, भाग गए, जनता
पार्टी के हो गए। अब जनता पार्टी हार गई, जनता पार्टी छोड़
दी। अभी ये जनता पार्टी में सब खराबियां आ गईं। अब कोशिश में लगे हैं कि अब फिर से
कोई दरवाजा खुल जो तो फिर किसी पद पर पहुंच जाएं। फिर सांठ-गांठ बिठा रहे हैं।
इस देश में चमार बहुत हैं, मगर जगजीवन राम जैसा
चमार दूसरा नहीं। ये तो चमारों के चमार हैं। और क्या चमारी होती है? मगर फिर चलेगा। फिर पद पर हो जाएंगे और फिर तुम कहने लगोगे--बाबू जी! ठीक
ही है वैसे, बाबू का मतलब होता है--जिससे बदबू उठे। बू-सहित।
बाबू कोई सम्मानवाचक शब्द नहीं है, गाली है। जिसका सम्मान
करना हो उसको बाबू मत कहना। जिसको गाली देना हो, उसको कहना
कि बाबू। और जी लगा देना, जिसमें वह बुरा न माने।
आज इतना ही।
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