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गुरुवार, 4 मई 2017

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-02



ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

संस्कृति का आधार: ध्यान-(प्रवचन-दूसरा)
दूसरा प्रवचन; दिनांक १२ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न : भगवान, भारतीय संस्कृति संसद अपने पच्चीस वर्ष पूरे कर रही है, उसके उपलक्ष्य में डाक्टर प्रभाकर माचवे ने आपको चिंतक, विचारक और मनीषी का संबोधन देते हुए भारतीय संस्कृति ग्रंथ के लिए आपके विचार आमंत्रित किए हैं, जिसे वे ग्रंथ के प्रारंभ में प्रकाशित करके धन्यता अनुभव करेंगे।
भगवान, निवेदन है कि कुछ कहें!

चैतन्य कीर्ति!
मैं न तो चिंतक हूं, न विचारक, न मनीषी। चिंतन को हम बहुत मूल्य देते हैं; विचारक को हम बड़ा सौभाग्य समझते हैं; मनीषा तो हमारी दृष्टि में जीवन का चरम शिखर है। लेकिन सत्य कुछ और है। न तो बुद्ध विचारक हैं--न महावीर, न कबीर। जिसने भी जाना है, वह विचारक नहीं है। जो नहीं जानता, वह विचारता है। विचार अज्ञान है। अंधा सोचता है: प्रकाश कैसा है, क्या है! आंख वाला जानता है--सोचता नहीं। इसलिए कैसा चिंतन? कैसा विचार?

विचार और चिंतन अंधेरे में टटोलना है--और अंधे आदमी का।
दर्शनशास्त्री की परिभाषा शॉपेनहार ने यूं की है--कि जैसे कोई अंधा आदमी अंधेरे में काली बिल्ली को खोजता हो, जो कि वहां है ही नहीं!
विचारक, चिंतक, मनीषी--सब मन की प्रक्रियाएं हैं। और जहां तक मन है, वहां तक संस्कृति नहीं। मन का जहां अतिक्रमण है, वहीं संस्कृति का प्रारंभ है। मन का अतिक्रमण होता है ध्यान से। इसलिए मेरे देखे, मेरे अनुभव में, ध्यान ही एकमात्र कीमिया है, जो व्यक्ति को सुसंस्कृत करती है।
मनुष्य जैसा पैदा होता है, प्राकृत, वह तो पशु जैसा ही है; उसमें और पशु में बहुत भेद नहीं। कुछ थोड़े भेद हैं भी तो गुणात्मक नहीं--परिमाणात्मक। माना कि पशु में थोड़ी कम बुद्धि है, आदमी में थोड़ी ज्यादा; मगर भेद मात्रा का है; कोई मौलिक भेद नहीं। मौलिक भेद तो ध्यान से ही फलित होता है। पशु को ध्यान का कुछ भी पता नहीं।
और वे मनुष्य जो बिना ध्यान के जीते है और मर जाते हैं--नाहक ही जीते हैं, नाहक ही मर जाते हैं। अवसर यूं ही गया! अपूर्व था अवसर। जीवन सत्य के स्वर्ण-शिखर छू सकता था; खिल सकते थे कमल आनंद के; अमृत की वर्षा हो सकती थी; लेकिन ध्यान के बिना कुछ भी संभव नहीं।
ध्यान का अर्थ है--वह कीमिया जो प्राकृत को संस्कृत करती है। जैसे कोई अनगढ़ पत्थर को गढ़ता है और मूर्ति प्रकट होती है। जैसे कोई खदान से निकले हीरे को निखारता है, साफ करता है, पहलू उभारता है--तब हीरे में चमक आती है, दमक आती है। तब हीरा हीरा होता है।
हम सब पैदा होते हैं अनगढ़ पत्थर की भांति। वह हमारा प्राकृत रूप है। संभावना की तरह हम पैदा होते हैं। फिर उन संभावनाओं को--और वे अनंत हैं--वास्तविकता में रूपांतरित करना, संभावनाओं को सत्य बनाना, उसकी कला ध्यान है।
लेकिन अकसर यह हो जाता है कि हम सभ्यता और संस्कृति को पर्यायवाची बना लेते हैं। सभ्यता बाहर की बात है, संस्कृति भीतर की। सभ्यता शब्द का अर्थ होता है: सभा में बैठने की योग्यता, समाज में जीने की क्षमता। औरों से कैसे संबंध रखना, इसकी व्यावहारिक कुशलता का नाम सभ्यता है--शिष्टाचार। भीतर कूड़ा-कचरा हो, भीतर क्रोध हो, भीतरर् ईष्या हो, भीतर सब रोग हों, मगर कम से कम बाहर मुस्कुराए जाना! भीतर विषाद हो, मगर बाहर न लाना! भीतर घाव हों, घावों को फूलों से छिपाए रखना! दूसरों के साथ यूं मिलना जैसे कि तुम धन्यभागी हो, सब पा लिए हो! मुखौटे लगाए रखना!
सभ्यता मुखौटे लगाना सिखाती है। फिर तरहत्तरह के मुखौटे हैं--हिंदुओं के और, मुसलमानों के और; जैनों के और, बौद्धों के और; भारतीयों के और, चीनियों के और, रूसियों के और! फिर संसार मुखौटों से भरा हुआ है। इसलिए सभ्यताएं अनेक होंगी। भारत की अलग होगी और अरब की अलग होगी और मिश्र की अलग होगी। इतना ही क्यों, भारत में भी बहुत सभ्यताएं होंगी--जैन की अलग होगी, हिंदू की अलग होगी, मुसलमान की अलग होगी, ईसाई की अलग होगी, सिक्ख की अलग होगी; पंजाबी की अलग होगी, गुजराती की अलग होगी, महाराष्ट्रियन की अलग होगी; उत्तर की अलग होगी, दक्षिण की अलग होगी! भेद पर भेद होंगे; खंड पर खंड होंगे। लेकिन संस्कृति एक ही होगी। संस्कृति भारतीय नहीं हो सकती, हिंदू नहीं हो सकती, गुजराती नहीं हो सकती, पंजाबी नहीं हो सकती, बंगाली नहीं हो सकती। क्योंकि संस्कृति तो अंतरात्मा का परिष्कार है।
सभ्यता बाहर की बात है। वह औपचारिक है। स्वभावतः अलग-अलग होगी। अलम मौसम, अलग भूगोल, अलग जरूरतें--निश्चित ही सभ्यता को अलग कर देंगी। वह एक जैसी नहीं हो सकती। पश्चिम में सभ्यता और होगी, वहां के अनुकूल होगी--वहां के भूगोल, वहां के मौसम, वहां की जलवायु के अनुकूल होगी। अब वहां जूते पहने रहना चौबीस घंटे, मोजे पहने रखना, टाई बांध रखना--बिलकुल अनुकूल है। लेकिन मूढ़ हैं वे जो भारत में टाई बांधे घूम रहे हैं! सर्द मुल्कों में, हवा जरा भी भीतर न चली जाए, इसकी चेष्टा चलती है। लेकिन गर्म मुल्कों में, जहां पसीना बह रहा है, वहां लोग टाई कसे हुए बैठे हैं! इनसे ज्यादा मूढ़ और कौन होंगे? भारत में जूते कसे बैठे हैं दिन भर, मोजे भी पहने हुए हैं! पसीने से तरबतर हैं, बदबू छूट रही है। लेकिन उधार। सभ्यता उधार ली कि तुम सिर्फ मूढ़ता जाहिर करते हो।
सभ्यता अलग-अलग होगी। तिब्बत में अलग होगी...। अब तिब्बत में ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करना, सभ्यता नहीं हो सकती। कैसे होगी? मरना है? डबल निमोनिया करना है? लेकिन भारत में तो रोज ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर लेना, सभ्यता होगी, निश्चित सभ्यता होगी। भारत में जमीन पर बैठना पद्मासन में बिलकुल सभ्य होगा। लेकिन पश्चिम में जमीन पर नहीं बैठा जा सकता। इतनी ठंड है, इतनी कठिनाई है। भारत में उघाड़े भी बैठो तो सभ्यता है, लेकिन पश्चिम में उघाड़े नहीं बैठ सकते हो।
लेकिन संस्कृति भिन्न-भिन्न नहीं हो सकती, क्योंकि संस्कृति न तो मौसम से जुड़ी है, न भूगोल से, न राजनीति से, न परंपरा से। संस्कृति की कोई परंपरा नहीं होती। संस्कृति को तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर ही अन्वेषण करना होता है।
संस्कृति पाने की कला ध्यान है, क्योंकि ध्यान से प्राकृत का परिष्कार होता है; क्रोध को करुणा बना दे--ऐसा चमत्कार होता है; वासना को प्रार्थना बना दे--ऐसा जादू; इसका पूरा विज्ञान कि जो-जो हमारे भीतर व्यर्थ है उसको छांट दे, ताकि सार्थक ही बच रहे; जो हमारे भीतर शुभ्रतम है, उसे उभार दे; अंधेरे को काट दे, दीए को जला दे, रोशन कर दे!
अंतर्ज्योति में जगमगाता हुआ व्यक्ति जानता है कि संस्कृति क्या है। केवल बुद्धों ने जाना है कि संस्कृति क्या है। संस्कृति बुद्धुओं की दुनिया का हिस्सा नहीं है। बुद्धू तो संस्कृति को भी बिगाड़ देंगे। वे तो उसको भी भारतीय बना लेंगे, ईसाई बना लेंगे, जैन बना लेंगे, हिंदू बना लेंगे! वे तो उस पर भी राजनीति थोप देंगे। भूगोल, इतिहास--इसके नीचे दब कर संस्कृति मर जाएगी। संस्कृति तो आत्मा है व्यक्ति की। वह तो सेतु है परमात्मा से मिलने का।
मैं तुम्हें यहां संस्कृति दे रहा हूं, सभ्यता नहीं। क्योंकि मेरी धारणा मेरे अनुभव से निकली है। अनुभव मेरा यह है कि सभ्य व्यक्ति जरूरी नहीं कि सुसंस्कृत हो। सभ्य व्यक्ति के तो कई चेहरे होते हैं--बैठकखाने में कुछ और, स्नानगृह में कुछ और; सामने के दरवाजे पर कुछ और, पीछे के दरवाजे पर कुछ और। मुख में राम, बगल में छुरी!
सभ्य व्यक्ति के तो बड़े द्वंद्व होते हैं। क्योंकि भीतर दबाया है उसने। सभ्यता दमन है। कोई भी सभ्यता हो, दमन है। जबर्दस्ती व्यक्ति को समाज के साथ समायोजित करने की चेष्टा है। बिना रूपांतरित किए, उसे सिखाना है शिष्टाचार कि ऐसे जीओ, यह करो यह न करो। ये सब आदेश ऊपर से थोपे जाएंगे। स्वभावतः उसका आचरण एक होगा और अंतस और।
सभ्यता दमन है, लेकिन संस्कृति रूपांतरण है, दमन नहीं। संस्कृति होगी, तो सभ्यता तो होगी; लेकिन सभ्यता हो, तो संस्कृति अनिवार्य नहीं। सभ्यता धोखा हो सकती है।
और यह भी भेद होगा कि जो संस्कृति को उपलब्ध है, उसकी सभ्यता उतने दूर तक ही सभ्यता होगी, जितने दूर तक उसकी अंतरात्मा के विपरीत नहीं जाती। जहां विपरीत जाएगी, वहां वह बगावत करेगा; वहां वह विद्रोही होगा।
सभ्य आदमी कभी विद्रोही नहीं होता, हमेशा आज्ञाकारी होता है। इसलिए समाज को चिंता नहीं है कि तुम्हारे जीवन में संस्कृति हो; समाज को चिंता है कि बस तुम सभ्य रहो, इतना काफी है। सभ्य रहे, तो गुलाम रहे। सभ्य रहे, तो दास रहे। सभ्य रहे, तो शोषण तुम्हारा किया जा सकता है, बस, पर्याप्त है; भीड़ के हिस्से रहो। भीड़ जैसा चले, चलो। भेड़चाल! फिर भीड़ ठीक हो तो ठीक, गलत हो तो गलत--यह तुम्हारी चिंतना नहीं होनी चाहिए।
संस्कृत व्यक्ति मौलिक रूप से विद्रोही होगा। इसलिए मैंने कहा, संस्कृति की परंपरा नहीं होती। संस्कृति बगावत है, प्रतिभा है। निजता है संस्कृति में--उधार नहीं, बासापन नहीं।
संस्कृत व्यक्ति सभ्य होगा--एक सीमा तक; जरूर सबके साथ चलेगा, जब तक कि उसे अंतरात्मा को बेचना न पड़े। जिस क्षण तुमने कहा कि कुछ ऐसा करो जो उसकी अंतरात्मा की आवाज के विपरीत जाता है, वह बगावत करेगा। बुद्ध ने बगावत की। जीसस ने बगावत की। नानक ने बगावत की। कबीर ने बगावत की। ये संस्कृति के शिखर हैं।
बुद्ध परंपरा के साथ नहीं चले। यूं कौन होगा जो बुद्ध से ज्यादा सभ्य होगा? लेकिन बुद्ध के पास आंखें हैं, तो उन्हें दिखाई पड़ा कि वेदों में धर्म कहां! निन्यानबे प्रतिशत तो कूड़ा-कचरा है, तो बगावत की। कूड़ा-कचरा के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता। जरूर जो एक प्रतिशत सत्य है, उसका समग्र स्वागत है; लेकिन जो निन्यानबे प्रतिशत असत्य है, उसका समग्र विरोध भी।
महावीर ने बगावत की। कबीर ने बगावत की।
संस्कृत व्यक्ति--समाज नहीं चाहता। समाज सभ्यता से राजी है; उतना काफी है। बस, मुखौटा लगा लो, नाटक करते रहो कि भले हो, फिर भीतर-भीतर कुछ भी करते रहो।
सभ्य आदमी की राजनीति होती है; संस्कृति की कोई राजनीति नहीं होती। सभ्य आदमी बड़ा कूटनीतिज्ञ होता है--कहता कुछ, करता कुछ; दिखाता कुछ, होता कुछ! उसकी मुस्कुराहट में जहर छिपा हो सकता है। उसके फूलों में कांटे छिपे हो सकते हैं। उसकी हर बात में चालबाजी होगी। उसकी हर बात में बेईमानी होगी। उसके इरादे कुछ और होंगे, वह बताएगा, कुछ और; बताएगा वह जो सबसे मेल खाए; और इरादे कुछ और होंगे, जिन्हें वह छिपा कर पूरा करता रहेगा; और अच्छे-अच्छे बहाने खोजेगा।
कल मैंने देखा, एक पत्रकार ने मोरारजी देसाई का इंटरव्यू लिया है। उसने पूछा कि आप प्रधानमंत्री बने हैं, यह आप अपने कर्म से बने हैं? तो उन्होंने कहा कि नहीं, यह तो मेरे भाग्य से मैं बना। यह मेरी नियति थी। यह परमात्मा ने मुझे बनाया!
जिंदगी भर आपाधापी करते रहे, जोड़त्तोड़ करते रहे, सब तरह की चालबाजियां करते रहे--अब यह आखिरी चालबाजी, कि अब यह मजा भी क्यों न ले लो कि परमात्मा को फिक्र पड़ी है कि मोरारजी देसाई, सत्तर करोड़ लोगों में यह एक आदमी प्रधानमंत्री बने!
और पोल तो वहीं खुल गई, क्योंकि ढोल की पोल ज्यादा दूर नहीं होती। दूसरा ही प्रश्न पत्रकार ने पूछा कि अब परमात्मा ने आपको प्रधानमंत्री बनाया, यह बात समझ में आई कि यह आपके भाग्य में था, लेकिन फिर आपकी सत्ता उखड़ क्यों गई? तो वे भूल गए। झूठ कोई कितनी देर याद रखे? सत्य को याद नहीं रखना होता, झूठ को याद रखना होता है। तब वे तत्क्षण बोले कि यह मेरे कुछ साथियों को महत्वाकांक्षा थी प्रधानमंत्री होने की, चौधरी चरणसिंह को महत्वाकांक्षा थी प्रधानमंत्री होने की, उनके कारण सब बर्बाद हुआ।
अब यह बड़ा मजा है कि चौधरी चरणसिंह को परमात्मा ने नहीं बनाया? चौधरी चरणसिंह को नियति ने नहीं बनाया प्रधानमंत्री! सिर्फ मोरारजी भाई के लिए परमात्मा ने भाग्य में लिखा! चौधरी चरणसिंह की खोपड़ी में बिलकुल नहीं लिखा? ये अपनी कोशिश से बन गए!
और बड़ा मजा यह है, तब तो चौधरी चरणसिंह परमात्मा से भी बड़े हो गए! क्योंकि परमात्मा मोरारजी देसाई को बनाता है प्रधानमंत्री और चौधरी चरणसिंह उनको खिसका देते हैं, और खुद प्रधानमंत्री बन जाते हैं। तो परमात्मा से भी ज्यादा शक्तिशाली हो गए।
ढोल की पोल बहुत ज्यादा दूर नहीं होती। झूठ बोलोगे, अगर जरा आंख होगी पहचानने वाले में, तत्क्षण पकड़ जाओगे। मगर इस पत्रकार की पकड़ में नहीं आया। पत्रकार तो उनको पैर छू कर गया। पैर छूता हुआ चित्र छपा हुआ है साथ में कि पत्रकार न उनके चरण छुए। कि कैसा धन्यभागी व्यक्ति, परमात्मा ने जिसको प्रधानमंत्री बनाया! उस पत्रकार को नहीं दिखाई पड़ा कि यह बड़ा मजा है, चौधरी चरणसिंह को भी परमात्मा ने ही बनाया होगा फिर, फिर इंदिरा को भी परमात्मा ने ही बनाया होगा!
मगर अभी ये ही पुराने उपद्रवी, अब फिर एक मुहिम उठा रहे हैं--इंदिरा हटाओ। परमात्मा ने बनाया है इंदिरा को, तुम किसलिए हटाने की चिंता में लगे हो? क्या परमात्मा से दुश्मनी ले रखी है? नहीं, और किसी को परमात्मा नहीं बनाता, मोरारजी देसाई को भर परमात्मा बनाता है; बाकी सब अपनी कोशिश से बन जाते हैं! यह परमात्मा सिर्फ इनके ही साथ है!
ये तथाकथित मुखौटे लगाए हुए लोग कहेंगे कुछ, करेंगे कुछ। इनके मंतव्यों पर भरोसा मत करना। ये संस्कृति के लक्षण नहीं हैं। हां, सभ्यता यही धोखा सिखाती है, यही पाखंड सिखाती है।
सभ्यता पाखंड है। मैं सभ्यता-विरोधी हूं, संस्कृति का पक्षपाती हूं। लेकिन संस्कृति ध्यान के बिना नहीं मिलती।
संस्कृति शब्द में खतरा है, क्योंकि शब्द बनता है संस्कार से। संस्कार के दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ तो कि दूसरों के द्वारा दिए गए, दूसरों के द्वारा आरोपित, दूसरों के द्वारा सिखाए गए। और दूसरा अर्थ हो सकता है परिष्कार का; ध्यान के द्वारा निखारे गए। जो लोग संस्कृति का संस्कार से ही संबंध जोड़ कर रह जाते हैं, वे शब्द को तो समझ गए, लेकिन शब्द के भीतर छिपी हुई आत्मा से चूक गए। शरीर तो शब्द का समझ में आ गया, लेकिन आत्मा छिटक गई हाथ से।
संस्कृति संस्कार ही नहीं है, क्योंकि संस्कार से सभ्यता बनती है। मां-बाप ने सिखाया--ऐसे उठो, ऐसे बैठो; इस मंदिर में जाओ, इस मस्जिद में जाओ; यह शास्त्र पढ़ो। ये सब संस्कार हैं। तो हर बच्चे को संस्कारित करते हैं हम। जनेऊ पहना देते हैं, तो उसको कहते हैं--यज्ञोपवीत संस्कार! फिर ऐसे संस्कार होते ही रहते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कार करने वाले नहीं छोड़ते; वे मरे-मराए पर भी संस्कार करते चले जाते हैं! जो मर गए बहुत पहले, उन पर भी संस्कार थोपते चले जाते हैं! लाशों को भी रंगते रहते हैं!
संस्कृति संस्कार ही नहीं है, संस्कृति मौलिक रूप से परिष्कार है। लेकिन परिष्कार के लिए ध्यान की कला चाहिए। और ध्यान हिंदू होता, न मुसलमान होता। ध्यान का अर्थ है: साक्षीभाव! ज्यूं था त्यूं ठहराया! तुम्हारे भीतर जो स्वरूप है, जो गहनतम तुम्हारी जीवन की ऊर्जा छिपी पड़ी है, जो तुम्हारा केंद्र है, उसमें ठहर जाना। पूर्ण विराम आ जाए। कोई दौड़ न रहे, कोई आकांक्षा न रहे, कोई महत्वाकांक्षा न रहे! ऐसी शांति घनी हो, ऐसा निर्विचार हो, ऐसा मौन हो कि कोई तरंग न उठे! झील ऐसे शांत हो रहे कि जैसे दर्पण हो गई। तो फिर जो है, वह झलकता है। जो है, उसका झलकना ही परमात्मा का अनुभव है।
महत्वाकांक्षी व्यक्ति के मन में इतनी आपाधापी होती है, इतने विचारों की तरंगें होती हैं, इतनी लहरें होती हैं कि झील पर चांद का नक्श बने तो कैसे बने! टूट-टूट जाता है, बिखर-बिखर जाता है। चांद तो एक है, मगर झील में जब लहरें होती हैं, तो अनेक खंडों में बिखर जाता है। प्रतिबिंब खंडित हो सकता है, चांद खंडित नहीं होता।
उसी भेंटवार्ता में मोरारजी देसाई ने कहा कि मुझे पंचानबे प्रतिशत सत्य मिल चुका है!
पंचानबे प्रतिशत! यह कोई दुकानदारी है? लेकिन गुजराती मन! लाख करो, बनिया होने से छुटकारा नहीं हो सकता। वहां भी प्रतिशत चल रहा है!
मैंने सुना, एक यहूदी को उसके एक मित्र ने पूछा कि सब ठीक-ठाक तो है? अभी-अभी उसने विवाह किया है। उसने कहा कि सब ठीक-ठाक है। बड़े आनंद में हूं। पत्नी क्या मिली, देवी है, अप्सरा है! ऐसी सुंदर शायद पृथ्वी पर दूसरी कोई स्त्री न हो।
मित्र ने कहा, वह तो मुझे भी मालूम है कि स्त्री सुंदर है, मगर क्या मैं यह समझूं कि तुम्हें पूरी कथा स्त्री की मालूम नहीं? तुम्हारे अलावा उसके चार प्रेमी और भी हैं!
यहूदी ने कहा, उसकी चिंता न करो। अच्छे धंधे में बीस प्रतिशत लाभ भी बहुत है! रद्दी धंधे में सौ प्रतिशत लाभ का भी क्या करोगे? मिल जाए कोई डाकिन और उसमें सौ प्रतिशत अपनी हो, इससे यह बीस प्रतिशत अपनी, यह बहुत!
यहूदी का मन बनिया का मन है। यहूदी शुद्ध गणित में सोचता है। मारवाड़ी हो कि गुजराती हो--न यहूदी का होता है।
सत्य के भी खंड, उसमें भी प्रतिशत! यह कोई धन की और ब्याज की दुनिया है? पंचानबे प्रतिशत सत्य मिल चुका है! सत्य जब मिलता है, तो पूरा मिलता है, अखंड मिलता है। उसके खंड होते नहीं। उसके टुकड़े होते नहीं। सत्य के कोई टुकड़े कभी नहीं कर सका। सत्य के टुकड़े करोगे, तो सत्य सत्य ही नहीं है। झूठ के टुकड़े होते हैं। झूठ के खंड होते हैं। सत्य अखंड है, अविभाज्य है, अद्वय है। दो भी नहीं कर सकते, और ये तो सौ टुकड़े किए बैठे हैं! पंचानबे टुकड़े इनको मिल गए हैं, पांच टुकड़े और बचे हैं!
अब यह पागलपन देखते हो?
और उन्होंने कहा कि बस, अब एक महत्वाकांक्षा और बची है--परमात्मा को पाने की। एक महत्वाकांक्षा पूरी हो गई--प्रधानमंत्री होने की! जब तक पूरी नहीं हुई थी, तब तक वही कहते थे कि यह मेरी महत्वाकांक्षा है; अब पूरी हो गई, तो अब कहते हैं--यह मेरी नियति थी। परमात्मा ने लिखा ही हुआ था। यह होने ही वाला था। इसे कोई दुनिया की शक्ति रोक नहीं सकती थी। अब कहते हैं कि परमात्मा को पाना मेरी महत्वाकांक्षा है!
परमात्मा को पाने की कोई महत्वाकांक्षा हो ही नहीं सकती। और जिसके मन में परमात्मा को पाने की महत्वकांक्षा है, वह कभी परमात्मा को पा न सकेगा, क्योंकि महत्वाकांक्षी मन ही तो बाधा है। तब तक महत्वाकांक्षा न गिर जाए, वासना न गिर जाए...फिर वह वासना परमात्मा को ही पाने की क्यों न हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। धन पाना चाहो, पद पाना चाहो, परमात्मा पाना चाहो--चाह तो एक है, चाह का रंग एक है, चाह की भ्रांति एक है।
चाह दौड़ाती है, भगाती है, ठहरने नहीं देती। और जो अचाह हुआ, वह ठहरा--ज्यूं का त्यूं ठहराया! जहां कोई चाह नहीं, वहां कोई दौड़ नहीं, भाग नहीं, आपाधापी नहीं। और जो ठहरा अपने केंद्र पर, उसे मिल गया परमात्मा। परमात्मा वहीं छिपा है, कहीं बाहर नहीं। और जब मिलता है, तो पूरा मिलता है--स्मरण रखना। या तो नहीं मिला है या मिला है। आधा-आधा नहीं होता कि थोड़ा मिला, थोड़ा नहीं मिला! परमात्मा की उपलब्धि क्रांति है--क्रमिक विकास नहीं।
लेकिन जिन्होंने ध्यान नहीं जाना है, उन्होंने संस्कृति भी नहीं जानी; उन्होंने धर्म भी नहीं जाना; उन्होंने सत्य भी नहीं जाना। वे केवल सभ्यता के ही आवरणों में लिपटे हुए हैं; सभ्यता के आभूषणों को ही पहने हुए बैठे हैं। और सभ्यता के आभूषण दिखते आभूषण हैं, वस्तुतः जंजीरें हैं। सोने की सही, हीरे-जवाहरात जड़ी सही, मगर जंजीरें जंजीरें हैं।
सभ्यता तो एक कारागृह बनाती है--सुंदर, सजावट से बना हुआ। लेकिन कारागृह कारागृह है, चाहे दीवारों पर कितने ही बड़े चित्रकारों के चित्र टंगे हों, और चाहे कितना ही सुंदर फर्नीचर हो, और चाहे सींखचे सोने के हों। लेकिन कुछ लोग इन कारागृहों को ही घर समझ लेते हैं। कुछ क्या, अधिकतम!
मैंने सुना, एक यात्री, एक सत्य का खोजी एक धर्मशाला में ठहरा है। धर्मशाला के द्वार पर ही एक तोता टंगा है। सुंदर उसका पिंजरा है और वह तोता चिल्ला रहा है--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता!...यही तो उसके भी प्राणों की पुकार थी--स्वतंत्रता, सारे बंधनों से स्वतंत्रता! इसी खोज में तो वह इस पहाड़ी स्थल पर आया था कि बैठूंगा एकांत में कि सबसे स्वतंत्र हो जाऊं। यही पुकार तोते की भी है!
और तब उसे लगा ऐसे ही पिंजरे में मैं बंद हूं, ऐसे ही पिंजरे में यह बेचारा तोता बंद है। इसके भी पंख काट दिए हैं तोते के। पिंजरे में बंद कर दिया, तो पंख कट गए, इससे आकाश छिन गया। यह आकाश का पक्षी; यह आकाश का मुक्त गगनविहारी, इसे कहां सीखचों में बंद कर दिया! माना कि सींखचे सुंदर हैं। लेकिन सराय का मालिक कहीं नाराज न हो जाए...! दिल तो हुआ इस खोजी का कि पिंजरा खोल दूं और तोते को उड़ा दूं; लेकिन तोता किसी और का है, झंझट खड़ी हो जाए! तो उसने कहा, अभी नहीं, रात देखूंगा।
सांझ जब सूरज डूब रहा था, तब भी तोता चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, क्योंकि वह जो सराय का मालिक था, वह स्वतंत्रता के आंदोलन में जेल जा चुका था और जेल में उसे एक ही आकांक्षा थी--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता...। जब निकला था बाहर तो अपने तोते को भी उसने राम-राम रटना नहीं सिखाया--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता का पाठ सिखा दिया। मगर पाठ पाठ है। और मजा देखते हो, पाठ स्वतंत्रता का सिखा दिया और पिंजरे में तोते को बंद कर दिया! इतना न सूझा कि स्वतंत्रता का पाठ सिखाते हो, तो कम से कम इसे तो स्वतंत्र कर दो!
रात वह सत्य का खोजी उठा, उसने पिंजरे का द्वार खोला, तोता सो रहा था उसे जगाया हिला कर और कहा, उड़ जा!
मगर तोते ने तो अपने सींखचों को जोर से पकड़ लिया। चिल्लाए जाए स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, और पकड़े है सींखचों को! यात्री तो हैरान हुआ, उसने कहा कि इस शोरगुल में कहीं मालिक जग जाए तो कहेगा, मेरे तोते को उड़ाए देते हो, यह क्या बात है! तो उसने जल्दी से हाथ भीतर डाला कि तोते को पकड़ कर बाहर निकाल ले और खोल दे, मुक्त कर दे। लेकिन तोते ने उसके हाथ पर चोंचें मारी, उसके हाथ को लहूलुहान कर दिया अपनी चोंच से, और चिल्लाए जाए--स्वतंत्रता! वह आवाज लगाए जाए क्योंकि एक ही मंत्र सीखा था।
सीखे मंत्रों की यही गति होती है। उधार मंत्रों की यही गति होती है। चिल्लाए जो--स्वतंत्रता! और सींखचे पकड़े हुए है। और जो हाथ स्वतंत्रता देने आ रहा है, उस हाथ पर चोटें कर रहा है, उसे लहूलुहान कर रहा है। मगर वह यात्री भी जिद्दी था। उसने तो किसी तरह खींच कर तोते को बाहर निकाल लिया और मुक्त कर दिया।
निश्चिंत हो कर यात्री सो गया। सुबह जब उठा, तो चकित हुआ। तोता अपने पिंजरे में था! पिंजरे का द्वार अब भी खुला पड़ा था और तोता फिर चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता!
ऐसी हमारी उधार दशा है। महत्वाकांक्षा--और परमात्मा को पाने की! यह तोता है, जो सींखचे को पकड़े हुए है और स्वतंत्रता चिल्ला रहा है। सींखचे छोड़ दो। और मजा यह है कि तोता तो सींखचे छोड़ दे तो भी जरूरी नहीं, क्योंकि हो सकता है पिंजरे का द्वार बंद हो; लेकिन तुम तो अपने ही द्वारा दरवाजा बंद किए बैठे हो! खोलो, तो अभी मुक्त हो जाओ। किसी और ने तुम्हारे दरवाजे को बंद नहीं किया है, तुमने ही अपनी सुरक्षा के लिए दरवाजा बंद कर लिया है। और अब चिल्ला रहे हो--स्वतंत्रता!
मगर सभ्य आदमी ऐसे ही उलझन में है--दूसरों को ही धोखा नहीं देता, खुद भी धोखा खाता है। सभ्यता निपट पाखंड है। संस्कृति सत्य है।
लेकिन ध्यान रहे, संस्कृति बंटी होती नहीं--न पूरब की, न पश्चिम की। जो भीतर गया, वहां कहां पूरब, कहां पश्चिम! वहां कहां भारत, कहां पाकिस्तान! वहां कहां हिंदू, कहां मुसलमान! जो भीतर गया, वहां तो सब विशेषण गिर जाएंगे; वहां तो रह जाती है शुद्ध चेतना। और उस चेतना को ही पा लेना, सब कुछ पा लेना है--सच्चिदानंद को पा लेना है। वह जो ऋषि की पुकार है, वहां पूरी हो जाती है--असतो मा सदगमय! तमसो मा ज्योतिर्गमय! मृत्योर्मा अमृतंगमय! हे प्रभु, मुझे असत से सत की ओर ले चल, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर! ध्यान में एक साथ ये तीनों ही रहस्य तुम पर बरस आते हैं; अनायास यह प्रसाद उपलब्ध हो जाता है।
संस्कृति तुम्हें सत्य बनाती है। संस्कृति तुम्हें आलोकित करती है। और संस्कृति तुम्हें अमृत बनाती है। क्योंकि संस्कृति तुम्हें समय के पार ले जाती है--जहां कोई जन्म नहीं, जहां कोई मृत्यु नहीं। जब तक अमृत न पा लिया जाए, तब तक जानना जीवन व्यर्थ है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
चुप साधन, चुप साध्य, चुप मा चुप्प समाय।
चुप समझारी समझ है, समझे चुप हो जाए।।
भूरिबाई के इस कथन पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।

वेदांत भारती!
भूरिबाई से मेरे निकट के संबंध रहे हैं। मेरे अनुभव में हजारों पुरुष और हजारों स्त्रियां आए, लेकिन भूरिबाई अनूठी स्त्री थी। अभी कुछ समय पहले ही भूरिबाई का महापरिनिर्वाण हुआ, वह परम मोक्ष को उपलब्ध हुई। उसकी गणना मीरा, राबिया, सहजो, दया--उन थोड़ी-सी इनी-गिनी स्त्रियों में करने योग्य है। मगर शायद उसका नाम भी कभी न लिया जाएगा, क्योंकि बेपढ़ी-लिखी थी; ग्रामीण थी; राजस्थान के देहाती वर्ग का हिस्सा थी। लेकिन अनूठी उसकी प्रतिभा थी। शास्त्र जाने नहीं और सत्य जान लिया!
मेरा पहला शिविर हुआ, उसमें भूरिबाई सम्मिलित हुई थी। फिर और शिविरों में भी सम्मिलित हुई। नहीं ध्यान के लिए, क्योंकि ध्यान उसे उपलब्ध था--बस, मेरे पास होने का उसे आनंद आता था। एक प्रश्न उसने पूछा नहीं, एक उत्तर मैंने उसे दिया नहीं। न पूछने को उसके पास कुछ था, न उत्तर देने की कोई जरूरत थीं। मगर आती थी, तो अपने साथ एक हवा लाती थी।
पहले ही शिविर से उससे मेरा आंतरिक नाता हो गया। बात बन गई! कही नहीं गई, सुनी नहीं गई--बात बन गई! पहले प्रवचन में सम्मिलित हुई। उस शिविर की ही घटनाएं और बातों का संकलन साधना-पथ नाम की किताब है, जिसमें भूरिबाई सम्मिलित हुई थी।
पहला शिविर था, पचास व्यक्ति ही सम्मिलित हुए थे। दूर राजस्थान के एक एकांत निर्जन में, मुछाला महावीर में। भूरिबाई के पास हाईकोर्ट के एक एडवोकेट, कालिदास भाटिया, उसकी सेवा में रहते थे। सब छोड़ दिया था--वकालत, अदालत। भूरिबाई के कपड़े धोते, उसके पैर दबाते। भूरिबाई वृद्ध थी, सत्तर साल की होगी। भूरिबाई आई थी। कालिदास भाटिया आए थे, और दस-पंद्रह भूरिबाई के भक्त आए थे। कुछ थोड़े-से लोग उसे पहचानते थे। उसने मेरी बात सुनी। फिर जब ध्यान के लिए बैठने का मौका आया, तो वह अपने कमरे में चली गई। कालिदास भाटिया हैरान हुए कि ध्यान के लिए ही तो हम यहां आए हैं। तो वे गए भागे, भूरिबाई को कहा कि बात तो इतने गौर से सुनी, अब जब करने का समय आया, तो आप उठ क्यों आई? तो भूरिबाई ने कहा, तू जा, तू जा! मैं समझ गई बात।
कालिदास बहुत हैरान हुए कि अगर बात समझ गई, तो ध्यान क्यों नहीं करती! मुझसे पूछा आ कर कि मामला क्या है, माजरा क्या है! भूरिबाई कहती है, बात समझ गई, फिर ध्यान में क्यों नहीं करती? और मैंने उससे पूछा तो कहने लगी तू जा, बाप जी से ही पूछ ले!
भूरिबाई सत्तर साल की थी, मुझसे बाप जी कहती थी...कि तू बाप जी से ही पूछ ले। तो मैं आपके पास आया हूं, कालिदास बोला। वह कुछ बताती भी नहीं; मुस्कुराती है! और जब मैं आने लगा तो कहने लगी--तू कुछ समझा नहीं रे! मैं समझ गई।
तो मैंने कहा, वह ठीक कहती है, क्योंकि ध्यान मैंने समझाया--अक्रिया है। और तूने जा कर उससे कहा कि भूरिबाई, ध्यान करने चलो! तो वह हंसेगी ही, क्योंकि ध्यान करना क्या! जब अक्रिया है, तो करना कैसा! और मैंने समझाया कि ध्यान है चुप हो जाना, सो उसने सोचा होगा भीड़-भाड़ में चुप होने की बजाय अपने कमरे में चुप होना ज्यादा आसान है। इसलिए ठीक समझ गई वह। और सच यह है कि उसे ध्यान करने की जरूरत नहीं है। चुप का उसे पता है, हालांकि वह उसको ध्यान नहीं कहती, क्योंकि ध्यान शास्त्रीय शब्द हो गया। वह सीधी-सादी गांव की स्त्री है।
जब वह वहां से लौट कर गई शिविर के बाद, तो उसने यह सूत्र अपनी झोपड़ी पर किसी से कहा था कि लिख दो!
तुम्हें कहां से इस सूत्र का पता चला, वेदांत भारती!
चुप साधन, चुप साध्या, चुप मा चुप्प समाय।
चुप समझारी समझ है, समझे चुप हो जाय।।
चुप ही साधन है, चुप ही साध्य है। और चुप में चुप ही समा जाता है। चुप समझारी समझ है। अगर समझते हो, समझना चाहते हो तो बस एक ही बात समझने योग्य है--चुप। समझे चुप हो जाए। और समझे कि चुप हुए। कुछ और करना नहीं है। चुप समझारी समझ है।
उसके शिष्यों ने मुझसे कहा कि हमारी तो सुनती नहीं, आप बाई को कह दो, आपकी मानेगी, आपका कभी इनकार न करेगी। आप जो कहोगे, करेगी। आप इससे कहो कि अपने जीवन का अनुभव लिखवा दे। लिख तो सकती नहीं, क्योंकि बेपढ़ी-लिखी है। मगर जो भी इसने जाना हो, लिखवा दे। अब बढ़ी हो गई, वृद्ध हो गई, अब जाने का समय आता है। लिखवा दे। पीछे आएंगे लोग, तो उनके काम पड़ेगा।
मैंने कहा कि बाई लिखवा क्यों नहीं देती? तो उसने कहा, बापजी, आप कहते हैं, तो ठीक है। अगले शिविर में जब आऊंगी, तो आप ही उदघाटन कर देना। लिखवा लाऊंगी।
अगले शिविर में उसके शिष्य बड़ी उत्सुकता से, बड़ी प्रतीक्षा करते रहे। उसने एक पेटी में एक किताब बंद कर के रखवा दी, ताला डलवा दिया, चाबी ले आई। पेटी को उसके शिष्य सिर पर उठा कर लाए और मुझसे कहा कि आप खोल दें। मैंने खोल दिया। कितबिया निकाली। जरा-सी किताब! होंगे दस-पंद्रह पन्ने और छोटी-सी किताब, होगी तीन इंच लंबी, दो इंच चौड़ी। और काले ही पन्ने, सफेद भी नहीं। सब काले! लिखा कुछ भी नहीं।
मैंने कहा, भूरिबाई, खूब लिखा तूने! और लोग लिखते हैं, तो थोड़ा-बहुत पन्ने को काला करते हैं, तूने ऐसा लिखा कि सफेद बचने ही नहीं दिया। लिखती गई, लिखती गई, लिखती गई!
उसने कहा अब आप ही समझ सकते हो, ये तो समझते ही नहीं। इनको मैं कहती हूं कि देखो। और लोग लिखते हैं, थोड़ा-बहुत लिखते हैं। वे पढ़े-लिखे हैं, थोड़ा ही बहुत लिख सकते हैं। मैं तो गैर-पढ़ी-लिखी हूं। सो मैंने लिख मारी, पूरी ही बात लिख दी! छोड़ी ही नहीं जगह। और किसी और से क्या लिखवाना, सो मैं ही लिखती रही; गूदती रही, गूदती रही, गूदती रही--बिलकुल कि बात को काला कर दिया! अब आप उदघाटन कर दो!
मैंने उदघाटन भी कर दिया। उसके शिष्य तो बड़े हैरान हुए। मैंने कहा कि यही शास्त्र है। यह शास्त्रों का शास्त्र है!
सूफियों के पास एक किताब है, वह कोरी किताब है। उसे वे किताबों की किताब कहते हैं। मगर उसके पन्ने सफेद हैं। भूरिबाई की किताब उससे भी आगे गई। इसके पन्ने काले हैं। सूफियों की वह किताब बड़ी प्रसिद्ध है। परंपरा से गुरु उसको शिष्य को देता रहा है और सूफी उस किताब को खोल कर पढ़ते भी हैं। तुम कहोगे, क्या खाक पढ़ते होंगे? कोरे पन्ने भी पढ़े जा सकते हैं। कोरे पन्ने को देखते रहो, देखते रहो, देखते रहो, देखते रहो, तो धीरे-धीरे कोरे हो जाओगे।
बोधिधर्म बुद्ध के परम शिष्यों में से एक--समकालिक नहीं, हजार साल बाद हुआ, मगर परम शिष्यों में से एक--नौ वर्ष तक दीवाल की तरफ देखता हुआ बैठा रहा। दीवाल भी थक गई होगी, मगर बोधिधर्म नहीं थका। देखता ही रहा, देखता ही रहा, देखता ही रहा। कोरी दीवाल! मन भी घबड़ा गया होगा। मन भी भाग खड़ा हुआ होगा कि तू बैठा रह, हम चले! जब मन चला गया, तभी बोधिधर्म दीवाल से हटा और बहुत हंसा। कहते हैं, सात दिन बोधिधर्म हंसता ही रहा। लोगों ने पूछा, हुआ क्या? उसने कहा कि मैं यह देखता था कि कब तक यह मन टिकता है।
अब सफेद दीवाल हो, तो मन कब तक टिके! मन को करने को क्या बचा! न कुछ पढ़ने को है, न कुछ सोचने को है, न विचारने को है। कोरी दीवाल देखते रहे, देखते रहे। नौ साल! अदभुत आदमी था बोधिधर्म! और ऐसे कोरी दीवाल को देखते-देखते परम बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ। यह पढ़ा शास्त्र! यह है वेदों का वेद! यह उपनिषदों का सार!
उपनिषद कहते हैं: अज्ञानी तो अंधकार में गिरता ही है, तथाकथित ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाता है। यह पंडितों के संबंध में कहा हुआ है, महापंडितों के संबंध में। ये जो तोतों की तरह पंडित हैं--पोपटलाल--जो रटे जा रहे हैं, इनकी रटन कैसे बंद हो!
बोधिधर्म हंसा सात दिन तक। उसके संगी-साथियों ने पूछा कि क्यों हंसते हो? उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि मैं देखता था कि कौन जीतता है, मैं जीतता हूं कि मन जीतता है! मैंने भी कहा कि जब तक तुझे उधेड़बुन करना है करता रह, मैं तो देखता हूं दीवाल, तो दीवाल ही देखता रहूंगा। ऊब गया, थक गया मन, घबड़ा गया होगा। घबड़ा ही जाएगा। भाग खड़ा हुआ मन।
बोधिधर्म ने कहा, कहां जाता है? अरे लौट आ! फिर नहीं लौटा।
ध्यान की यही तो प्रक्रिया है: बैठ रहे। आंख बंद कर ली। बोधिधर्म ने सफेद दीवाल के सामने बैठ कर आंख बंद की। सफेद दीवाल को देखना आंख बंद करने जैसा ही है। मगर भूरिबाई की किताब दोनों के पार जाती है--सूफियों की किताब के भी, बोधिधर्म की दीवाल के भी। जब तुम आंख बंद करोगे, तो अंधेरा ही दिखाई पड़ेगा, वह काला होगा।
आंख बंद की और चुप हुए तो पहले तो अंधेरा, अंधेरा ही अंधेरा! घबड़ाना मत। देखे ही चले जाना, देखे ही चले जाना, देखे ही चले जाना। धैर्य रखना। ऊबना मत। तुम मत ऊबना, मन ऊब जाए। और मन जिस दिन ऊब गया, टूट गया। तुमसे नाता टूट गया। और तत्क्षण प्रकाश हो जाता है। सब अंधकार तिरोहित हो जाता है।
मन गया कि जो आवरण पड़ा था प्रकाश पर, वह हट गया। जैसे किसी ने चट्टान रख कर झरने को दबा दिया था; चट्टान हट गई, झरना फूट पड़ा। जैसे किसी ने दीए को बर्तन से ढांक दिया था; बर्तन उठ गया, रोशनी जगमगा उठी। दीवाली हो गई।
भूरिबाई कुछ कहती नहीं थी। कोई उससे पूछने जाता था--क्या करें? तो वह ओठों पर अंगुली रख कर इशारा कर देती थी--चुप हो रहो, बस और कुछ करना नहीं। यही उसने इस सूत्र में कह दिया है--
चुप साधन चुप साध्या, चुप मा चुप्प समाय।
चुप समझारी समझ है, समझे चुप हो जाय।।
अगाध उसका मेरे प्रति प्रेम था--ऐसा कि मुझे भी मुश्किल में डाल देता था। भोजन करने में बैठता, तो भोजन करना मुश्किल, क्योंकि वह मेरे बगल में बैठती। और मेरी थाली की चीजें सरकने लगतीं, उठाने लगती वह। जो चीज भी मैं जरा-सी तोड़ कर चख लेता, वही गई, नदारद! घंटों लग जाते भोजन करने में, क्योंकि फिर लाओ। एक करोड़ तोड़ पात रोटी से कि रोटी गई, वह प्रसाद हो गई! वह खुद लेती उसमें से प्रसाद और फिर उसके भक्त बैठे रहते कतार में, सो वह बंट जाती रोटी। मैंने जरा-सा टुकड़ा सब्जी का लिया कि वह सब्जी की प्लेट गई! दो घंटे, तीन घंटे लग जाते।
एक बार आमों का मौसम था और मैं शिविर लिया, भूरिबाई आ गई। वह दो टोकरियां भर कर आम ले आई। मैंने कहा, इतने आम मैं क्या करूंगा? एक आम, दो आम बहुत होते हैं।
उसने कहा, आपको पता नहीं बाप जी, प्रसाद बनेगा!
मैं घबड़ाया कि यह प्रसाद जरा मुश्किल का होने वाला है। और उसके पच्चीस तीस भक्त भी मौजूद थे, वे सब आ गए और प्रसाद बनना शुरू हो गया! वह एक आम को मेरे मुंह में लगाए, इधर मैं एक घूंट भी ले नहीं पाया आम से कि आम प्रसाद हो गया, वह गया! और इतनी जल्दी पड़ी प्रसाद की, क्योंकि वे पच्चीस लोगों तक पहुंचाने हैं आम, और ज्यादा देर न लग जाए, तो आम में से पिचकारी छूट जाए--मेरे मुंह पर, मेरे कपड़ों पर सब आम ही आम हो गया! मेरे कंठ में तो शायद एक आम भी पूरा नहीं गया होगा। वह दो टोकरियां प्रसाद हो गया! वह खुद चखे और फिर भक्तों में बंटता जाए, बंटता जाए, पहुंचता जाए आम। मैंने उससे कहा, भूरिबाई, आम के मौसम में अब कभी शिविर नहीं लूंगा। यह तो बड़ा उपद्रव है!
मगर उसको फिक्र नहीं, तरोबोर कर दिया उसने आम के रस से मुझे। उसका प्रेम अदभुत था! अपने ढंग का था, अनूठा था। उसे लौटना नहीं पड़ेगा जगत में। वह सदा के लिए गई। चुप मा चुप्प समाय! वह समा गई। सरिता सागर में समा गई। कुछ उसने किया नहीं, बस चुप रही। और उसके घर जो भी चला जाता, उनकी सेवा करती। किसी की भी सेवा करती। और चुपचाप, मौन।
अदभुत महिला थी। यूं कुछ प्रसिद्ध महिलाएं हैं भारत में, जैसे आनंदमयी, मगर भूरिबाई का कोई मुकाबला नहीं। प्रसिद्धि एक बात है, अनुभव दूसरी बात है।
यह सूत्र प्यारा है। इसे खयाल रखना। इस सूत्र को तुम समझ लो, तो समझने को कुछ और शेष नहीं रह जाता है।
योग प्रीतम का गीत, वेदांत भारती, तुम्हारे लिए उपयोगी होगा--
भीतर का राग जगाओ तो कुछ बात बने
ध्यान का चिराग जलाओ तो कुछ बात बने
जल जाए अहंकार दमक उठो कुंदन से
ऐसी इक आग जलाओ तो कुछ बात बने
बाहर की होली के रंग कहां टिकते हैं
शाश्वत के फाग रचाओ तो कुछ बात बने
बोते बबूल अगर बींधेंगे कांटे ही
खुशबू का बाग लगाओ तो कुछ बात बने
टूटें सब जंजीरें अंतर-पट खुल जाएं
भीतर वह राग जगाओ तो कुछ बात बने
गैरों की यारी में खोते हो पतियारा
प्रीतम से लाग लगाओ तो कुछ बात बने
भीतर का राग जगाओ तो कुछ बात बने
ध्यान का चिराग जलाओ तो कुछ बात बने
जल जाए अहंकार दमक उठो कुंदन से
ऐसी इक आग जलाओ तो कुछ बात बने।

तीसरा प्रश्न: भगवान, मैं आपको कब समझूंगा? समझने में बाधाएं क्या हैं; उपाय क्या है?
चंद्रकांत!

समझने की बात ही गलत है। यहां समझने को क्या? ध्यान समझने की बात नहीं है। और मेरा तो शब्द-शब्द ध्यान में डुबोया हुआ है, भिगोया हुआ है। पीयो!
ये समझने इत्यादि की बातें बचकानी हैं। समझ तो मन की होती है, पीना हृदय का होता है। पीओगे तो भर पाओगे। समझ-समझ कर तो कचरा ही जुड़ता जाएगा।
समझने को यहां कुछ भी नहीं, डूबने को है। यह शराब है--खालिस शराब! अंगूर की नहीं, आत्मा की। यह मंदिर नहीं, मयकदा है।
यहां जो मेरे पास आ बैठे हैं, इनको तुम साधारण धार्मिक लोग मत समझो। जिनको तुम मंदिर और मस्जिद में पाते हो, ये वे नहीं हैं। ये रिंद हैं। ये पियक्कड़ हैं। ये पीने को आ जुटे हैं। यहां कुछ और रंग है, कुछ और ढंग है। तुम समझने की बात उठाओगे, तो चूक जाओगे। समझना होता है तर्क से; पीना होता है प्रेम से।
समझ कर कौन समझ पाया है? हां, जिसने प्रेम किया, वह समझ भी गया। समझ अपने-आप चली आती है प्रेम के पीछे, जैसे तुम्हारे पीछे छाया चली आती है।
प्रेम ही समझ सकता है। और जिन लोगों ने कहा है, प्रेम अंधा है, वे पागल हैं। वासना अंधी होती है, मोह अंधा होता है। प्रेम तो आंख है--अंतर्तम की। प्रेम को अंधा मत कहो।
वासना निश्चित अंधी होती है; वह देह की है। राग भी अंधा होता है; वह मन का है। और प्रेम तो आत्मा का होता है। वहां कहां अंधापन! वहां कहां अंधियारा? वहां तो बस आंख ही आंख है। वहां तो दृष्टि ही दृष्टि है। इसलिए जो उसे पा लेता है, उसे हम द्रष्टा कहते हैं, आंख वाला कहते हैं।
तुम पूछते हो; मैं आपको कब समझूंगा?
अरे, अभी समझो! कब? कल का क्या पता है? मैं रहूं, तुम न रहो। तुम रहो, मैं न रहूं। मैं भी रहूं तुम भी रहो, लेकिन साथ छूट जाए। किस मोड़ पर हम बिछुड़ जाएं, कहां राह अलग-अलग हो जाए, किस पल-कौन जाने! भविष्य तो अज्ञात है। कब की मत पूछो, अब की पूछो।
इस देश के समस्त महान सूत्र-ग्रंथ अब से शुरू होते हैं। ब्रह्मसूत्र शुरू होता है: अथातो ब्रह्म जिज्ञासा--अब ब्रह्म की जिज्ञासा। नारद का भक्ति-सूत्र शुरू होता है: अथातो भक्ति जिज्ञासा--अब भक्ति की जिज्ञासा। अब--कब नहीं। अथातो! उस एक शब्द में बड़ा सार है। अब!
यूं ही बहुत समय बीत गया कब-कब करते, कितना गंवाया है! जन्म-जन्म से तो पूछ रहे हो--कब। छोड़ो कब। अब भाषा सीखो अब की।
जीसस ने अपने शिष्यों से कहा है, देखते हो ये लिली के फूल, ये जो राह के किनारे खिले हैं! इनका सौंदर्य देखते हो! सोलोमन भी, सम्राट सोलोमन भी अपनी हीरे-जवाहरातों से जड़ी हुई वेशभूषा में इतना सुंदर न था, जितने ये भोले-भाले नंगे फूल, लिली के फूल, ये गरीब फूल!
एक शिष्य ने पूछा, प्रभु इनका राज क्या है?
तो जीसस ने कहा, ये अभी जीते हैं। इनके लिए न बीता कल है, न आने वाला कल। आज सब कुछ है। यही इनके सौंदर्य का राज है। तुम भी यूं जीयो, जैसे लिली के फूल--और सब रहस्य खुल जाएंगे, सब रहस्य पट उठ जाएंगे।
घूंघट उठ जाए अभी, परमात्मा के चेहरे से, मगर कब की पूछी, तो चूके। मन हमेशा कब की पूछता है। वह कहता है--कल। अभी समझें, और समझें, पीएंगे कल। पहले समझ तो लें, फिर पीएंगे।
अरे पीयो तो समझोगे, समझ के कोई कभी पीएगा? समझेगा कैसे बिना पीए? चखी नहीं तुमने शराब कभी, कहते हो--समझेंगे? कैसे समझोगे? ढालो सुराही से। हो प्याली तो ठीक, नहीं तो हाथों की अंजुली बना लो। प्याली के लिए भी मत रुको, कि पात्र होगा तब पीएंगे, पात्रता होगी तब पीएंगे। प्याली के लिए भी मत रुको, अंजुली बना लो हाथों की। पीओ! शराब को समझने का एक ही ढंग है--पीना। और परमात्मा को समझने का भी एक ही ढंग है--पीना।
चंद्रकांत, तुम पूछ रहे हो: समझने में बाधाएं क्या हैं? यह समझने की इच्छा ही बाधा है। और तो कोई बाधा नहीं देखता मैं। और कोई बाधा कभी रही नहीं। यह बाधा ऐसी है कि इसे तुम कभी हटा न सकोगे।
तुम पूछते हो: उपाय क्या है? मैं बाधा को ही समझा लूं, तो बस उपाय मिल गया। बाधा यही है--समझने की आकांक्षा। यह बाधा ऐसी है, जैसे कोई आदमी कहे, पानी में मैं तब उतरूंगा, जब तैरना सीख लूंगा! बिना तैरे पानी में कैसे उतरूं? बात तर्कयुक्त है। तैरना सीखोगे कहां? अपने बिस्तर पर? गद्दी पर हाथ-पैर मारोगे? तैरना सीखोगे कहां? पानी में उतरना ही होगा। पानी में उतरोगे, तो ही तैरना सीखोगे।
यह खतरा लेना ही होगा। बिना तैरे ही पानी में उतरना सीखना होगा। चलो, किनारे पर ही सही, मगर थोड़े-थोड़े उतरो। उथले में सही, मत जाओ गहरे में अभी, मगर पानी में उतरना तो होगा ही। एक ही घूंट पीओ, मत पी जाओ पूरी सुराही। कोई सागर पीने को नहीं कह रहा हूं, एक ही बूंद पीओ। चलो, इतना काफी है। मगर जिसने एक बूंद पी ली, उसे पूरे सागर का राज समझ में आ जाएगा। जिसने उथले में भी हाथ-पैर तड़फड़ा लिए, उसे तैरने का राज समझ में आ जाएगा।
तैरना कोई ऐसी कला नहीं है, जो सीखनी होती है। ध्यान रखना, तैरने के संबंध में यह बात। इसीलिए तैरना एक दफा जान लिया, तो कोई भूल नहीं सकता; कोई भूल नहीं सकता। पचास साल बाद, साठ साल बाद भी तुम दुबारा पानी में उतरो, तुम पाओगे, तैरना वैसा का वैसा है; जरा भी नहीं भूल। भूल ही नहीं सकते। क्या बात है?
और सब बातें तो साठ साल में भूल जाएगी। भूगोल पढ़ा था स्कूल में, इतिहास पढ़ा था स्कूल में, न मालूम किन-किन गधों के नाम याद किए थे? आज कुछ याद है? तारीखें क्या-क्या याद कर रखी थीं--नादिरशाह कब हुआ, और तैमूरलंग कब हुआ, और चंगेजखान कब हुआ! क्या-क्या पागलपन सीखा था! एक-एक तारीख याद थी। आज कोई भी तारीख याद नहीं। और कितनी मेहनत से सीखी थी, कैसे रटा था। मगर बात कुछ बनी नहीं, क्योंकि बात स्वाभाविक नहीं थी।
तैरना कोई नहीं भूलता। उसका कारण है। तैरना कुछ स्वाभाविक घटना है। बच्चा मां के पेट में पानी में ही तैरता है; नौ महीने पानी में ही तैरता है। जापान के एक मनोवैज्ञानिक ने छह महीने के बच्चों को तैरना सिखाने में सफलता पा ली। और अब वह तीन महीने के बच्चों को तैरना सिखाने में लगा हुआ है। और वह कहता है कि एक दिन का बच्चा भी तैर सकता है। अभी एक ही दिन की उम्र है उसकी, अभी पैदा ही हुआ है, और तैरना सीख सकता है। वह सिखा लेगा। जब छह महीने का बच्चा सीख लेता है, तीन महीने बच्चा सीखने लगा, तो क्या तकलीफ रही? शायद एक दिन का बच्चा और भी जल्दी सीख लेगा, क्योंकि अभी भूला ही नहीं होगा। वह अभी मां के पेट से आया ही है; अभी पानी में तैरता ही रहा है।
फ्रांस का एक दूसरा मनोवैज्ञानिक मां के पेट से बच्चा पैदा होता है तो उसको एकदम से टब में रखता है--गरम पानी में, कुनकुने। और चकित हुआ है यह जान कर कि बच्चा इतना प्रफुल्लित होता है कि जिसका कोई हिसाब नहीं।
तुम यह जान कर हैरान होओगे कि इस मनोवैज्ञानिक ने--उस मनोवैज्ञानिक का सहयोगी मेरा संन्यासी है, उस मनोवैज्ञानिक की बेटी मेरी संन्यासिनी है--पहली बार मनुष्य जाति के इतिहास में बच्चे पैदा किए हैं, जो रोते नहीं पैदा होते से, हंसते हैं। हजारों बच्चे पैदा करवाए हैं उसने। वह दाई का काम करता है। उसने बड़ी नई व्यवस्था की है।
पहला काम कि बच्चे को पैदा होते से ही वह यह करता है कि उसे मां के पेट पर लिटा देता है, उसकी नाल नहीं काटता। साधारणतः पहला काम हम करते हैं कि बच्चे की नाल काटते हैं। वह पहले नाल नहीं काटता, वह पहने बच्चे को मां के पेट पर सुला देता है। क्योंकि वह पेट से ही अभी आया है, इतने जल्दी अभी मत तोड़ो। बाहर से भी मां के पेट पर लिटा देता है और बच्चा रोता नहीं। मां के पेट से उसका ऐसा अंतरंग संबंध है; अभी भीतर से था, अब बाहर से हुआ, मगर अभी मां से जुड़ा है। और नाल एकदम से नहीं काटता। जब तक बच्चा सांस लेना शुरू नहीं कर देता, तब तक वह नाल नहीं काटता।
हमारी अब तक की आदत और व्यवस्था यह रही है कि तत्क्षण नाल काटो, फिर बच्चे को सांस लेनी पड़ती है। सांस उसे इतनी घबड़ाहट में लेनी पड़ती है, क्योंकि नाल से जब तक जुड़ा है, तब तक मां की सांस से जुड़ा है, उसे अलग से सांस लेनी की जरूरत भी नहीं है। और उसके पूरे नासापुट और नासापुट से फेफड़ों तक जुड़ी हुई नालियां सब कफ से भरी होती हैं, क्योंकि उसने सांस तो ली नहीं कभी! तो एकदम से उसकी नाल काट देना, उसे घबड़ा देना है। कुछ क्षण के लिए उसको इतनी बेचैनी में छोड़ देना है। उस बेचैनी में बच्चे रोते हैं, चिल्लाते हैं, चीखते हैं। और हम सोचते हैं वे इसलिए चीख रहे हैं, चिल्ला रहे हैं कि यह सांस लेने की प्रक्रिया है, नहीं तो वे सांस कैसे लेंगे? और अगर नहीं चिल्लाता बच्चा, तो डाक्टर उसको उलटा लटकाता है कि किसी तरह चिल्ला दे। फिर भी नहीं चिल्लाता, तो उसे धौल जमाता है कि चिल्ला दे! चिल्लाना चाहिए ही बच्चे को। चिल्लाए-रोए, तो उसका कफ बह जाए, उसके नासापुट साफ हो जाएं, सांस आ जाए।
मगर यह जबर्दस्ती सांस लिवाना है। यह झूठ शुरू हो गया, शुरू से ही शुरू हो गया! यह प्रारंभ से ही गलती शुरू हो गई। पाखंड शुरू हुआ। सांस तक भी तुमने स्वाभाविक रूप से न लेने दी! सांस तक तुमने कृत्रिम करवा दी, जबर्दस्ती करवा दी। घबड़ा दिया बच्चे को।
यह खूब स्वागत किया! यह खूब सौगात दी! यह खूब सम्मान किया। उलटा लटकाया, धौल जमाई, रोना सिखाया; अब जिंदगी भर धौलें पड़ेंगी, उलटा लटकेगा, शीर्षासन करेगा। यह उलट-खोपड़ी हो ही गया! और जिंदगी भर रोएगा--कभी इस बहाने, कभी उस बहाने। इसकी जिंदगी में मुस्कुराहट मुश्किल हो जाएगी। झूठी होगी, थोपेगा। मगर भीतर आंसू भरे होंगे।
इस मनोवैज्ञानिक ने अलग ही प्रक्रिया खोजी। वह मां के पेट पर बच्चे को लिटा देता है। बच्चा धीरे-धीरे सांस लेना शुरू करता है। जब बच्चा धीरे-धीरे सांस लेने लगता है और मां के पेट की गर्मी उसे अहसास होती रहती है और मां को भी अच्छा लगता है, क्योंकि पेट एकदम खाली हो गया, बच्चा ऊपर लेट जाता है तो पेट फिर भरा मालूम होता है। वह एकदम रिक्त नहीं हो जाती।
फिर सब चीजें आहिस्ता। क्या जल्दी पड़ी है? नहीं तो जिंदगी भर फिर जल्दबाजी रहेगी, भाग-दौड़ रहेगी। जब बच्चा सांस लेने लगता है, तब वह नाल काटता है। फिर बच्चे को टब में लिटा देता है ताकि उसे अभी भी गर्भ का जो रस था वह भूल न जाए; गर्भ की जो भाषा थी वह भूल न जाए। टब में वह ठीक उतने ही रासायनिक द्रव्य मिलाता है, जितने मां के पेट में होते हैं। वे ठीक उतने ही होते हैं, जितने सागर में होते हैं। सागर का पानी और मां के पेट का पानी बिलकुल एक जैसा होता है।
इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने खोजा है कि मनुष्य का पहला जन्म सागर में ही हुआ होगा, मछली की तरह ही हुआ होगा। इसलिए हिंदुओं की यह धारणा कि परमात्मा का एक अवतार मछली का अवतार था, अर्थपूर्ण है। शायद वह पहला अवतार है--मत्स्य अवतार, मछली की तरह। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे नरसिंह अवतार--आधा मनुष्य, आधा पशु। और शायद अभी भी आदमी आधा नर, आधा पशु ही है। अभी भी नरसिंह अवतार ही चल रहा है! अभी भी पूरा मनुष्य नहीं हो पाया। पूरा मनुष्य तो कोई बुद्ध होता है। सभी पूरे मनुष्य नहीं हो पाते।
तो उसे लिटा देता है मनोवैज्ञानिक अभी टब में। और चकित हुआ यह जान कर कि अभी-अभी पैदा हुआ बच्चा टब में लेट कर बड़ा प्रफुल्लित होता है, मुस्कुराता है। एकदम से रोशनी नहीं करता कमरे में। यह सारी प्रक्रिया जन्म की बड़ी धीमी रोशनी में होती है, मोमबत्ती की रोशनी में--कि बच्चे की आंखों को चोट न पहुंचे।
हमारे अस्पतालों में बड़े तेज बल्ब लगे होते हैं, टयूब लाईट लगे होते हैं। जरा सोचो तो, नौ महीने जो मां के पेट में अंधकार में रहा है, उसे एकदम टयूब लाइट...! चश्मे लगवा दोगे। आधी दुनिया चश्मे लगाई हुई है। छोटे-छोटे बच्चों को चश्मे लगाने पड़ रहे हैं। यह डाक्टरों की कृपा है! अंधे करवा दोगे न मालूम कितनों को! आंखों के तंतु अभी बच्चे के बहुत कोमल हैं। पहली बार आंख खोली है। जरा आहिस्ता से पहचान होने दो। क्रमशः पाठ सिखाओ।
मोमबत्ती का दूर धीमा-सा प्रकाश। फिर आहिस्ता-आहिस्ता प्रकाश को बढ़ाता है। धीरे-धीरे, ताकि बच्चे की आंखें राजी होती जाएं।
यह बच्चे को स्वाभाविक जन्म देने की प्रक्रिया है। इस बच्चे की जिंदगी कई अर्थों में और ढंग की होगी। यह कई बीमारियों से बच जाएगा। इसकी आंखें शायद सदा स्वस्थ रहेंगी और इसके जीवन में एक मुस्कुराहट होगी, जो स्वाभाविक होगी। और इस बच्चे को तैरना सिखाना बहुत आसान होगा, एकदम आसान होगा।
तैरना भूली भाषा को याद करना है। हम जानते थे मां के पेट में, फिर भूल गए हैं। इसलिए जल्दी ही आ जाता है तैरना, कोई ज्यादा देर नहीं लगती। और एक बार आ गया, तो फिर कभी नहीं भूलता। फिर हम उसके प्रति सचेतन हो गए। लेकिन पानी में तो उतरना ही होगा।
तर्कशास्त्र कहेगा पहले तैरना सीख लो, फिर पानी में उतरना। शायद कार चलाना भी सिखाया जा सकता है बिना सड़क पर लाए, लेकिन तैरना तो नहीं सिखाया जा सकता।
अमरीका के एक विश्वविद्यालय में उन्होंने कार चलाना सिखाने की व्यवस्था की है बिना सड़क पर लाए, क्योंकि सड़क पर लाने में खतरा तो है वही। कार सीखने वाला आदमी कुछ भी खतरा कर सकता है--किसी की जान ले ले, किसी से टकरा दे; वह न टकराए, तो दूसरे कितने ही बेहोश चले जा रहे हैं भागे, वे उससे टकरा दें। इसलिए सिक्खड़ को एल अक्षर अपनी कार पर लटकाना पड़ता है--लघनग। वह उसके लिए नहीं है, वह उनके लिए है जो चारों तरफ से भागे चले जा रहे हैं कि जरा सावधान रहना! इस बेचारे को बचाना! यह अभी नया-नया है; अभी सीख रहा है, सिक्खड़ है।
तो उन्होंने एक व्यवस्था की है। एक बड़े हाल में दीवालों पर सड़कें होती हैं। मतलब जैसे फिल्म चलती है। दीवालों पर फिल्म चलती है। एक फिल्म इस दीवाल पर चल रही है, एक फिल्म इस दीवाल पर चल रही है। एक फिल्म में कारें भागी जा रही है इस तरफ, दूसरी फिल्म में कारें भागी जा रही हैं उस तरफ। लोग चल रहे हैं, लोग आ रहे हैं, लोग जा रहे हैं। सामने की दीवाल पर रास्ते पर चौरस्ते पर पुलिस वाला खड़ा है। वह भी फिल्म। आदमी गुजर रहे हैं और यह आदमी अपनी कार में बैठा हुआ है, और कार इसकी जमीन से ऊंचाई पर खड़ी हुई है। पहिए चल रहे हैं। ड्राइविंग कर रहा है। सब काम कर रहा है, मगर कहीं जा-आ नहीं रहा है। है कमरे में ही। कार भी खड़ी हुई है। मगर ये चारों तरफ से लोग गुजर रहे हैं और इससे दृश्य पूरा पैदा हो रहा है। कोई बिलकुल सामने आ जाता है, तो उसको कार बचानी पड़ती है। वह फिल्म में ही चल रहा है सब। थ्री डायमेंशनल फिल्में हैं वे, तो बिलकुल लगता है कि कोई आदमी सामने आ कर गुजर गया। यह आया कि टक्कर हुई जाती है! कोई न आ रहा है, न कोई जा रहा है। ड्राइविंग सिखाने का यह उपाय खोजा गया है। यह अच्छा उपाय है।
मगर मैं सोचता हूं कि यह उपाय तैरने के बाबत काम में नहीं आ सकता। कितनी ही तुम लहरें पानी की उठाओ दीवालों पर और यह आदमी कितना ही हाथ मारे कि अब डूबा तब डूबा, क्या तुम उसको धोखा दे पाओगे? थ्री डायमेंशनल ही फिल्म हो, कि बिलकुल डुबकी ही मारने लगे, तो भी इसको पता रहेगा कि अरे, क्या डुबकी! लेटा हूं अपने तकिया-गद्दे पर। हालांकि पानी बहा जा रहा है चारों तरफ से; सागर ही सागर है, लहरें उठ रही हैं, अब डूबा तब डूबा; मगर इसे पता तो रहेगा कि कहां डूबा!
कार में तो सिखाया जा सकता है इस तरह से, क्योंकि कार कृत्रिम है, इसलिए कृत्रिम आयोजन किया जा सकता है। लेकिन तैरना स्वाभाविक है। इसलिए स्वाभाविक प्रक्रिया से ही सीखा जा सकता है।
और मैं तुम्हें जो सिखा रहा हूं, यह भी तैरने जैसा है--कार चलाने जैसा नहीं। यह भवसागर को पार करना है, यह तैरना है।
तुम पूछते हो: मैं आपको कब समझूंगा? समझने चलोगे तो कभी नहीं। पीने की तैयारी हो, तो अभी।
समझने में बाधाएं क्या हैं? बाधाएं नहीं हैं--बाधा है। एक--वह समझने की आकांक्षा, बिना पीए। पीने के लिए जरा हिम्मत चाहिए, साहस चाहिए। और पहली दफा जब शराब पीओगे तो कड़वी भी लगती है। सत्य पीओगे, वह भी कड़वा लगता है। इसलिए सूफियों ने सत्य को और शराब से उपमा दी है, ठीक किया है।
तुम उमर खय्याम की रुबाइयां पढ़ कर यह मत समझना कि वह शराब की बातें कर रहा है। वह सत्य की बातें कर रहा है। सत्य भी जब पहली दफा पीओ, तो कड़वा लगता है। फिर आहिस्ता-आहिस्ता स्वाद सीखने में आता है, मगर पीने से ही सीखने में आता है।

सारा आलम झूम रहा इस मस्ती के पैमाने में
तुम भी पीओ शराब प्रेम की आकर इस मैखाने में

रिंदो की महफिल में बैठे हिला रहे हैं सिर हम भी
लुटने में मिल रहा मजा है, क्या रखा है पाने में

पिला रहा जो--दिलवाला है, पीने में क्या कंजूसी
क्या खूबी है? पी कर देखो, क्या रक्खा बतलाने में

यह बुद्धों के अंगूरों से ढली हुई है मय आला
अगर तबीयत हो तो डुबकी खाओ इस पैमाने में

क्या केसर कस्तूरी भैया, इसमें हंसी-बहार घुली
पीयो जरा सी, पर लग जाएं, गिनती हो परवानों में

ऐसा मिक्सचर प्यारे, तुमने कभी नहीं चक्खा होगा
जाम छलकता देख अगर लो, डोल उठो मयखाने में

प्रेम-ध्यान से बनी हुई मय, पिला रहे भगवान हमें
पीयो, तरन्नुम बन जाओगे, तुम जीवन के गाने में

योग प्रीतम ने यह कविता मुझे लिख कर भेजी है। भेजनी तुम्हें थी, भेज मुझे दी है! मैं तुम्हें दिए देता हूं। मैं तुम्हें अर्पित किए देता हूं।

आखिरी प्रश्न: भगवान,
हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे, मरने वाला कोई जिंदगी चाहता है जैसे।
ये सुरीले शब्द आंखों को गीला कर जाते हैं।
प्रभु, अब तो तेरे चरणों में बिठा दे, तेरी शरण में ही महामृत्यु का स्वाद मिले--यही अभ्यर्थना है।

तथास्तु, चितरंजन! ऐसा ही होगा!
यहीं जीयो, यहीं मरो। इस मस्ती में ही जीयो, इस मस्ती में ही मरो। फिर मृत्यु नहीं है; फिर मृत्यु महासमाधि है, महापरिनिर्वाण है।
यही मैं चाहता हूं कि मेरा एक भी संन्यासी मरे नहीं। मरना तो होगा, फिर भी मरे नहीं। जागता हुआ मरे, नाचता हुआ मरे, होशपूर्वक मरे। तो शरीर मिट जाएगा। मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी। थक जाती है, गिर ही जाना चाहिए, मिट्टी को विश्राम चाहिए। फिर उठेगी, किसी की और देह बनेगी। लेकिन तुम्हारे भीतर जो चैतन्य है, वह न तो कभी जन्मा है, न कभी मरता है।
पहले जीने की कला सीख लो--आनंदपूर्ण, रस भीगी। फिर उसी में से मृत्यु की कला आ जाएगी। क्योंकि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, जीवन का शिखर है। जीवन की आखिरी ऊंचाई है मृत्यु। अंत नहीं है, जीवन की सुगंध है। जिन्होंने जीवन ही नहीं जाना, उनके लिए अंत है। और जिन्होंने जीवन जाना--उनके लिए एक नया प्रारंभ है--महाजीवन का।
चितरंजन, ऐसा ही होगा। ऐसा होना ही चाहिए। तुम्हें ही नहीं, प्रत्येक संन्यासी की यही अभ्यर्थना होनी चाहिए। यही अभ्यर्थना है।
और मेरी पूरी चेष्टा यही है कि तुम्हें पिला दूं; जो मुझे मिला है, वह तुम्हें दे दूं। तुम लेने में कंजूसी न करना। तुम झोली फैलाओ और भर लो। मैं देने में कंजूसी नहीं कर रहा हूं। तुम लेने में मत चूको।
और ध्यान रखना, अकसर हम लेने में भी कंजूस हो गए हैं। हम देने में कंजूस हो गए हैं। हमने कंजूसी की भाषा सीख ली, हम लेने में भी कंजूस हो गए हैं। हम छांट-छांट कर लेते हैं--यह ले लें, यह छोड़ दें। नहीं, ऐसे नहीं चलेगा। यह परवानों का ढंग नहीं।
पूरा ले लो। पूरा ही लिया जा सकता है, क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वह अखंड सत्य है। पंचानबे प्रतिशत से नहीं चलेगा--सौ प्रतिशत।

आज इतना ही।
दूसरा प्रवचन; दिनांक १२ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना


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