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मंगलवार, 16 मई 2017

पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05



पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक: 15 जनवरी, सन् 1981
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-पांचवां-(बुद्धत्व आकाश-कुसुम है)

पहला प्रश्न: भगवान,
श्रुतिः विभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना,
न एको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्
महाजनो येन गतः स पंथाः।।
"अर्थात श्रुतियां विभिन्न हैं, स्मृतियां भी भिन्न हैं और एक भी मुनि के वचन प्रमाण नहीं हैं। धर्म का तत्व तो गहन है। इसलिए उसे जानने के लिए तो महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं, वही केवल मार्ग है।'
भगवान, महाजन की पहचान क्या है? उनके मार्ग पर चलने का अर्थ क्या है? समझाने की अनुकंपा करें।
आनंद किरण,
यह सूत्र अत्यंत सारगर्भित है। श्रुतिः विभिन्ना...। शास्त्र दो प्रकार के हैं--एक श्रुति और एक स्मृति। श्रुति का अर्थ होता है प्रबुद्ध पुरुष से सीधा-सीधा सुना गया। जिन्होंने गौतम बुद्ध के पास बैठकर सुना और उसे संकलित किया, वह श्रुति। जो महावीर के पास उठे-बैठे, जिन्होंने कबीर का सत्संग किया; जीवंत गुरु के पास जिन्होंने प्रेम के सेतु बनाए; जिन्होंने समर्पण किया--और सुना; जिन्होंने अपने को बाद दी--और सुना; जिन्होंने अपनी बुद्धि को एक तरफ रख दिया हटाकर--और सुना; जिन्होंने स्वयं के तर्क को बाधा न देने दी, स्वयं की जानकारियों को बीच में न आने दिया--और सुना; इस तरह जो शास्त्र संकलित हुए, वे हैं श्रुतियां।
लेकिन फिर श्रुतियों को सुनकर जिन्होंने समझा, जैसे बुद्ध को आनंद ने सुना और बुद्ध के वचन संकलित किए...इसलिए सारे बुद्ध-शास्त्र इस वचन से शुरू होते हैं: मैंने ऐसा सुना है। आनंद यह नहीं कहता कि मैं ऐसा जानता हूं; इतना ही कहता है कि मैंने ऐसा सुना है। पता नहीं ठीक भी हो, ठीक न भी हो। पता नहीं मैंने कुछ बाधा दे दी हो। मेरे विचार की कोई तरंग आड़े आ गई हो। पता नहीं मेरा मन धुंधवा गया हो। मेरी आंखों में जमी धूल कुछ का कुछ दिखा गई हो। मैंने कोई और अर्थ निकाल लिए हों, कि अर्थ का अनर्थ हो गया हो। इसलिए पता नहीं बुद्ध ने क्या कहा था; इतना ही मुझे पता है कि ऐसा मैंने सुना था।
यह बड़े ईमानदारी का वचन है कि मैंने ऐसा सुना है। नहीं कि बुद्ध ने ऐसा कहा है। बुद्ध ने क्या कहा था, यह तो बुद्ध जानें, या कभी कोई बुद्ध होगा तो जानेगा। लेकिन फिर आनंद ने जो संकलित किया, आज उसे भी ढाई हजार वर्ष हो गए। उसको लोग पढ़ रहे हैं, गुन रहे हैं, मनन कर रहे हैं, चिंतन कर रहे हैं, उस पर व्याख्याएं कर रहे हैं। ये जो शास्त्र निर्मित होते हैं, ये स्मृतियां।
ये तो जैसे कि कोई आकाश का चांद झील में अपना प्रतिबिंब बनाए और तुम झील को भी दर्पण में देखो तो तुम्हारे दर्पण में भी चांद का प्रतिबिंब बने--प्रतिबिंब का प्रतिबिंब। श्रुति तो ऐसे है जैसे चांद झील में छा गया और स्मृति ऐसे है जैसे झील की तस्वीर उतारी, कि झील को दर्पण में बांधा। स्मृति दूर की ध्वनि है, और दूर हो गई। श्रुति भी दूर है, पर बहुत दूर नहीं; कम से कम गुरु और शिष्य के बीच सीधा-सीधा संबंध है। कुछ तो बात पते की कान में पड़ ही गई होगी। सौ बातों में एक बात तो सार की पकड़ में आ ही गई होगी। किसी संधि से, किसी द्वार से, किसी झरोखे से कोई किरण तो उतर ही गई होगी। लेकिन स्मृति तो बहुत दूर है--प्रतिध्वनि की प्रतिध्वनि है।
यह सूत्र कहता है: श्रुतिः विभिन्ना...।
यूं तो सुनने में ही बात बड़ी भिन्न-भिन्न हो जाती है। अब जैसे तुम मुझे यहां सुन रहे, जितने लोग सुन रहे, उतनी श्रुतियां हो गईं। मैं तो जो कह रहा हूं, एक ही बात कह रहा हूं। लेकिन तुम सुनने वाले तो अनेक हो, तुम्हारी अलग पृष्ठभूमि है, तुम्हारी अलग धारणा हैं, अलग विचार हैं। तुम अपने-अपने ढंग से सुनोगे। तुम्हारा ढंग, तुम्हारी शैली निश्चित रूप से जो तुम सुनोगे उसे प्रभावित करेगी। हिंदू एक ढंग से सुनेगा, जैन दूसरे ढंग से, बौद्ध तीसरे ढंग से। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन सौ धर्मों के कोई तीन हजार संप्रदाय हैं और तीन हजार संप्रदायों के कोई तीस हजार उपसंप्रदाय हैं। तुम अपनी-अपनी धारणाओं के जाल में बंधे हो। मेरी बात तुम तक पहुंचेगी, पहुंचते-पहुंचते कुछ की कुछ हो जाएगी। आस्तिक सुनेगा एक ढंग से, नास्तिक सुनेगा और ढंग से; दोनों के पास कान एक जैसे हैं, मगर कानों के भीतर बैठा हुआ मन और मन के संस्कार तो भिन्न-भिन्न हैं।
बुद्ध ने एक दिन कहा कि तुम जितने लोग हो उतने ही ढंग से मुझे सुन रहे हो, उतने ही ढंग से मेरी व्याख्या कर रहे हो। आनंद ने रात्रि उनसे पूछा कि मैं समझा नहीं। आप अकेले हैं, जो आप बोलते हैं हम वही तो सुनते हैं। अन्य कैसे हो जाएगा, भिन्न कैसे हो जाएगा?
बुद्ध ने तीन नाम दिए आनंद को और कहा: कल इन तीनों से पूछना कि क्या सुना था। मैंने जब प्रवचन पूरा किया था और अंतिम बात कही थी। रोज अपने प्रवचन के अंत पर बुद्ध कहते थे--अब रात बहुत हो गई, अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य करो। यह केवल एक संकेत था भिक्षुओं को कि अब जाओ, सोने के पहले ध्यान में उतरो और ध्यान में उतरते-उतरते ही निद्रा में लीन हो जाओ। क्योंकि सुषुप्ति में और समाधि में बहुत भेद नहीं है। सुषुप्ति मूर्च्छित समाधि है। समाधि जाग्रत सुषुप्ति है। इसलिए नींद को समाधि में बदल लेना सबसे सुगम उपाय है आत्मसाक्षात्कार का। जरा सी बात जोड़नी है।
सुषुप्ति का अर्थ है जब स्वप्न भी नहीं रह जाते, ऐसी गहन निद्रा। जब सारे स्वप्न भी तिरोहित हो गए, जहां स्वप्न भी न बचे, विचार भी न बचे, वासना भी न बची, वहां मन भी न बचा, तो अ-मनी दशा हो गई। लेकिन बेहोशी है, होश नहीं है। सन्नाटा है, गहन शांति है, प्रगाढ़ मौन है। लेकिन काश, एक दीया और जल जाता, जरा सा होश और होता! काश, हम इस प्रगाढ़ शांति को देख भी लेते, पहचान भी लेते! काश, हम जागे-जागे इसका अनुभव भी कर लेते! इसलिए नींद के पहले का ध्यान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उसमें जो गहरा उतर जाए तो रातभर एक अखंडित धारा शून्य की भीतर बहती चली जाती है, ज्योति जलती रहती है। उस ज्योति में पहले सपने दिखाई पड़ते हैं, फिर सपने खो जाते हैं, फिर सुषुप्ति दिखाई पड़ती है। और जब सुषुप्ति दिखाई पड़ती है तो वही समाधि है। देखने वाला मौजूद हो तो सुषुप्ति समाधि है।
इसलिए बुद्ध ने--रोज-रोज क्या कहना कि अब ध्यान करो, इतना ही कह देते थे प्रतीक कि अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य--अब दिवस पूरा हुआ, अब आखिरी काम कर लो और सो जाओ। उसको करते-करते ही सो जाओ।
बुद्ध ने आनंद से कहा: कल तू, तीन व्यक्ति हैं, इनसे पूछ लेना कि उन्होंने क्या समझा जब मैंने यह वचन कहा था। वे मेरे तीनों सामने ही बैठे हुए थे और तीनों को देखकर ही मैंने समझा कि उन्होंने अलग-अलग समझा है।
आनंद ने कल उन तीनों को पकड़ा और पूछा, और कहा कि बुद्ध ने ही ये नाम दिए हैं, इसलिए सच-सच कहना। मैं नहीं पूछ रहा हूं, जैसे उन्होंने ही पुछवाया है।
थोड़ा तो संकोच हुआ उन तीनों को, लेकिन फिर जब बुद्ध ने ही पुछवाया था तो अपना हृदय उघाड़ दिया। उनमें एक था भिक्षु--गहन साधना में लीन। उसने कहा, और क्या समझूंगा! यही समझा कि अब जाऊं, ध्यान में डूबूं और ध्यान में डूबा-डूबा ही निद्रा में उतर जाऊं। यही समझा। यही बुद्ध ने कहा था।
दूसरे से पूछा; वह एक चोर था। उसने कहा, छिपाना क्या, छिपाऊं कैसे? बुद्ध स्वयं पूछते हैं तो सत्य कहना ही होगा। जब बुद्ध ने यह वचन कहा तो मुझे याद आया कि अरे, रात गहरी होने लगी, मेरे काम का समय हुआ, अब जाऊं, चोरी वगैरह करके जल्दी घर लौटूं और सोऊं।
और तीसरी एक वेश्या थी। और जब आनंद ने उससे पूछा तो वह बहुत सकुचाई, बहुत लजाई। बड़ी प्रसिद्ध वेश्या थी--आम्रपाली, जो बाद में बुद्ध की भिक्षुणी बनी। बुद्ध की भिक्षुणी बनी, इससे ही जाहिर होता है कि एक प्रामाणिक स्त्री थी। सकुचाई जरूर, लेकिन फिर भी सत्य उसने कहा। उसने कहा कि छिपाना कैसे, छिपाना नहीं हो सकता। उन्होंने पूछा है तो वही कहना होगा जो मेरे भीतर हुआ था। यही हुआ कि अब जाऊं, अपने व्यवसाय में लगूं। मेरा व्यवसाय तो वेश्या का व्यवसाय है।
तो एक ध्यान में लगा, एक चोरी करने निकल गया, एक अपनी वेश्यागिरी में संलग्न हो गई। और बुद्ध ने तो एक ही बात कही थी।
श्रुतिः विभिन्ना।
जितने सुनने वाले लोग हैं उतने ही अर्थ हो जाएंगे।
स्मृतयश्च भिन्ना।
और स्मृतियों का तो कहना ही क्या! वह तो मूलस्रोत से और भी बहुत दूर की बात हो गई। मैंने तुमसे कही, तुमने किसी और से कही, उसने किसी और से कही; फिर बात का बतंगड़ हो जाता है। बात न भी हो तो बतंगड़ हो जाता है। चिंदी का सांप हो जाता है, कुछ का कुछ होने लगता है। और सदियां बीत जाती हैं और लोग स्मृतियों को पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे को देते चले जाते हैं और हर पीढ़ी उसमें कुछ जोड़ती चली जाती है। हर पीढ़ी उसको वैसा ही थोड़े ही लेती है।
एक स्त्री अपनी पड़ोसिन को, झगड़ा हो गया था दो महिलाओं का, उसकी बात बता रही थी। पड़ोसिन रस से सुन रही थी। फिर उस स्त्री ने कहा, अब मैं जाऊं, पति के घर आने का समय हुआ।
लेकिन पड़ोसिन ने कहा, कुछ और तो बताओ।
वह स्त्री बोली कि सच तो यह है कि जितना मैंने सुना उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी। अब और क्या बताना। जितना मैंने सुना उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी।
तुम जब कुछ बात किसी से कहते हो तो कुछ तो जोड़ ही देते हो, कुछ काट देते हो, कुछ संवार देते हो, कुछ रंग भर देते हो अपने। तो स्मृतियां तो फिर और बहुत हो जाएंगी।
यह सूत्र अदभुत है: श्रुतिः विभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना।
श्रुतियां विभिन्न हैं, स्मृतियां भी भिन्न हैं। इसलिए श्रुतियों और स्मृतियों में अगर तुमने धर्म खोजा, कभी न पा सकोगे। सत्य खोजा, कभी न पा सकोगे। सावधान! यह सूत्र सावचेत कर रहा है। सजग रहना। शब्दों में मत उलझ जाना। शब्दों के बड़े जंगल हैं, सिद्धांतों के बड़े मरुस्थल हैं। उनमें खो गए तो लौटना मुश्किल हो जाता है। अपने ही घर लौटना मुश्किल हो जाता है।
और एक भी मुनि के वचन भी प्रमाण नहीं है। लेकिन कोई कहे कि चलो, नहीं शब्दों में खोएंगे, नहीं शास्त्रों में, न स्मृतियों में, न श्रुतियों में; लेकिन किसी महात्मा के, किसी मुनि के वचन पर तो भरोसा कर सकते हैं; किसी जानने वाले की बात पर तो विश्वास कर सकते हैं। सूत्र कह रहा है: यह भी नहीं, यह भी नहीं। क्योंकि विश्वास अनुभव नहीं है। तुम जिसको मान लोगे, पहले तो तुमने उसे माना क्यों? तुम्हारी धारणाएं, तुम्हारी धारणाओं में अनुकूलता आ गई होगी, उस व्यक्ति के और तुम्हारी धारणाओं के बीच कुछ अनुकूल पड़ गया होगा। जैसे कि कोई जैन रामकृष्ण को परमहंस नहीं मान सकता; मछली खाते देखे और परमहंस माने, असंभव है। एक जैन भी रामकृष्ण के पास नहीं पहुंचा। कैसे पहुंचता!
कल ही मुझे एक जैन महिला का बड़ा लंबा पत्र मिला है। बड़ी ज्ञानी महिला होगी। सारे जैन शास्त्रों का सार निचोड़ कर रख दिया है। लिखा है कि आपकी बातें बहुत प्यारी लगती हैं, लेकिन आप महावीर जैसे वीतराग पुरुष के साथ कृष्ण का, क्राइस्ट का, मोहम्मद का, बुद्ध का, इनका नाम क्यों ले देते हैं। वीतराग ही केवल भगवान है। वीतरागता ही एकमात्र कसौटी है। वीतरागता की कसौटी पर राम तो न उतरेंगे, कृष्ण तो न उतरेंगे। कृष्ण और राम की तो बात ही छोड़ दो, बुद्ध भी नहीं उतरते, क्योंकि बुद्ध भी कम से कम वस्त्रों का तो उपयोग करते हैं, भिक्षापात्र तो रखते हैं--इतना राग तो है, इतना परिग्रह तो है। महावीर दिगंबर हैं, करपात्री हैं, हाथ से ही भोजन लेते हैं; लंगोटी भी नहीं। दिगंबरत्व वीतरागता का प्रमाण है।
तो इस स्त्री को अड़चन हो रही कि कैसे मोहम्मद का नाम लेते हो--मोहम्मद, जो कि तलवार लिए हैं। कृष्ण जो कि सभी तरह के राजनैतिक दांव-पेंचों में उलझे हैं। राम, जो कि युद्ध पर निकले हैं। यह सब माया-मोह है। यह तो राग का ही जाल है।
उस बेचारी को मेरी बातें प्रीतिकर लगती हैं लेकिन अड़चन सिर्फ एक आ जाती है कि मैं महावीर के साथ कभी बुद्ध का, कभी महावीर का, कभी जरथुस्त्र का, कभी लाओत्सु का, कभी मोहम्मद का साथ-साथ उल्लेख कर देता हूं, उससे ही कष्ट हो जाता है।
अब अपनी धारणा के अनुकूल जो होगा, तुम उसी को तो मुनि कहोगे। तुम्हारी धारणा के जरा अनुकूल न हुआ कि मुनि न हुआ। तुम ही निर्णायक हो। तुम्हारे पास कसौटी है। फिर किसको मुनि कहो? और अड़चन इसलिए भी आ जाएगी कि प्रत्येक मुनि के वचन भिन्न हैं, प्रत्येक ने अपने ढंग से कहा, अपने रंग से कहा। प्रत्येक की अपनी अद्वितीयता है, अपनी मौलिकता है और तुम्हारे सड़े-गले ढांचों में कोई जिंदा, कोई जीवंत बुद्ध, कोई जीवंत जिन नहीं बैठ सकता। तुम्हारे ढांचे मुर्दों के आधार पर बनते हैं और तुम जिंदा लोगों को उन ढांचों पर बिठाना चाहो, यह संभव नहीं है।
फिर यह भी तो हो सकता है कि कोई कहता हो कि मैंने जाना, लेकिन विक्षिप्त हो या बेईमान हो। क्या प्रमाण कि उसने जाना? क्योंकि जानने वालों की बातें इतनी भिन्न हैं कि प्रमाण कैसे मानो? कृष्ण तो मानते हैं परमात्मा में भी, आत्मा में भी। महावीर परमात्मा में नहीं मानते, सिर्फ आत्मा में मानते हैं। और बुद्ध तो न परमात्मा में मानते, न आत्मा में मानते। फिर क्या करोगे? किस मुनि का वचन प्रमाण होगा? और एक भी मुनि का वचन प्रमाण नहीं।
न एको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
फिर वचन प्रमाण हो भी कैसे सकता है? क्योंकि सत्य विराट है और शब्द बहुत छोटे हैं। सत्य शब्दों में समाता नहीं। कहो, लाख कहो, फिर भी अनकहा रह जाता है। सत्य है आकाश जैसा और शब्द तो छोटे-छोटे घरघूले हैं। सत्य है सागर जैसा और शब्द तो छोटी-छोटी बूंदें भी नहीं। तो वचन कैसे प्रमाण होंगे? वचन प्रमाण नहीं हो सकते। सच तो यह है सत्य का सिवाय अनुभव के और कोई प्रमाण नहीं होता। और अनुभव अपना हो तो ही प्रमाण होता है। पर-अनुभव कैसे प्रमाण हो सकता है? लाख कोई सिर पटके और कहे कि मैंने परमात्मा देखा है। लेकिन तुम्हें कैसे भरोसा आए? या आदमी आत्मवंचना में हो सकता है या दूसरों को वंचना में डाल रहा हो सकता है। खुद सम्मोहित हो गया हो किसी धारणा से।
और इस तरह के लोग हैं जो कृष्ण को भजते हैं, निरंतर भजते रहते हैं, उनको कृष्ण दिखाई पड़ने लगते हैं। उनका ही प्रक्षेपण है। उनकी ही कल्पना है। कहां कौन कृष्ण हैं? क्राइस्ट को भजने वाले को कृष्ण कभी प्रकट नहीं होते, उसे क्राइस्ट दिखाई पड़ते हैं। और कृष्ण के भजने वाले को क्राइस्ट कभी दिखाई नहीं पड़ते। कभी भूल-चूक से अगर ये आ भी जाएं बीच में तो कहेगा--धत तेरे की, हटो! कहां बीच में आ रहे हो? नहाएगा, धोएगा, गंगा-जल से अपने को स्वच्छ करेगा।
जैन विचार-सरणी के अनुसार तीर्थंकर को कांटा भी नहीं चुभ सकता है, क्योंकि उनके सारे पाप समाप्त हो गए, उनके सारे कर्म समाप्त हो गए। इसलिए तो वे तीर्थंकर हैं--कांटा भी नहीं चुभ सकता। अगर तीर्थंकर निकलते हों और रास्ते पर कांटा पड़ा हो सीधा, तो उलटा हो जाता है। तो फिर जीसस को वे कैसे मानें कि ये तीर्थंकर की कोटि के हैं, क्योंकि इनको तो सूली लग जाती; कांटा चुभना तो दूर, सूली लग जाती। जरूर पिछले जन्मों के किसी महापाप का फल भोग रहे हैं!
लेकिन ईसाई को महावीर बिलकुल नहीं जंचते। क्या सार है कि नंग-धड़ंग खड़े हो गए? और आंखें बंद कर लीं और अपने मोक्ष की तलाश भी करने लगे, यह तो निपट स्वार्थ है। माना कि शांत हो गए होओगे, और माना कि प्रफुल्लित भी हुए, आनंदित भी हुए, लेकिन सेवा कहां? न अस्पताल खोला, न स्कूल चलाए, न अनाथों की सेवा की, न लूले-लंगड़ों के पैर दबाए, न कोढ़ियों का कोई इंतजाम किया। यह कैसा धर्म है? जीसस ने अंधों को आंखें दीं, बहरों को कान दिए, लंगड़ों को पैर दिए, बीमारों को चंगा किया, मुर्दों को जिलाया। ये लक्षण हैं। इन लक्षणों के अतिरिक्त कोई कैसे भगवत्ता को उपलब्ध माना जा सकता है?
तो ईसाइयों के हिसाब से महावीर और बुद्ध स्वार्थी हैं, निपट स्वार्थी हैं। अपने सुख की तलाश, यह तो वही की वही बात हुई, कोई अपना धन खोज रहा है, कोई अपना धर्म खोज रहा है। मगर अपना! कोई संसार में जीत जाना चाहता है, कोई मोक्ष में--मगर अपनी जीत! अपनी विजय-पताका फहरानी है। कोई यहां जीतकर कहना चाहता है कि मैं महावीर हूं, कोई वहां जीतकर कहना चाहता है कि मैं महावीर हूं। कोई यहां विजेता बनना चाहता, कोई वहां। और जो वहां विजेता हो जाते हैं, उनको हम जिन कहते हैं, जिन्होंने जीत लिया। मगर वही जीत की भाषा हुई। ईसाइयों को नहीं जमती।
मुसलमानों से पूछो; न महावीर जमेंगे, न ईसा जमेंगे, न बुद्ध जमेंगे। मुसलमानों के हिसाब से तो मोहम्मद ही सच्चे पैगंबर हैं, असली पैगंबर! क्यों? क्योंकि जीवनभर जूझे, अज्ञानियों को रूपांतरित करने के लिए तलवार उठाई, जान जोखिम में डाली। लेकिन कस्त किया था, संकल्प किया था कि जो-जो भटके हुए हैं उन्हें रास्ते पर लाएंगे। मुसलमान बनाना यानी रास्ते पर लाना। जो-जो गुमराह हैं, मार्गच्युत हो गए हैं, अगर अपनी मर्जी से आ जाएं तो ठीक, लेकिन न आएं तो जबर्दस्ती भी लाना पड़े तो लाएंगे।
यूं समझो न, जैसे तुम्हारा छोटा सा बच्चा आग में हाथ डालना चाहे। मान जाए समझाने से तो ठीक, नहीं तो थप्पड़ भी मारोगे, झपटकर उसे खींच भी लोगे। मोहम्मद की महाकरुणा है--मुसलमान के हिसाब से--कि वे तलवार लेकर तुम्हारे पीछे पड़े, कि गर्दन उतार दूंगा, चलते हो मस्जिद कि नहीं, पढ़ते हो कुरान या नहीं? लो अल्लाह का नाम, क्योंकि जो अल्लाह को याद करेगा और कुरान के मार्ग पर चलेगा, वही मोक्ष पाएगा, वही स्वर्ग पाएगा। शेष सब तो नर्क की अग्नि में गिर जाएंगे। तुम्हें नर्क की अग्नि से बचाने के लिए कैसा अथक श्रम किया मोहम्मद ने! तुम्हारे विपरीत भी। तुम्हारी ही फिकर न की। यह भी फिकर न की कि तुम जाना भी चाहते हो स्वर्ग या नहीं। ये इसे कहते हैं महाकरुणा! न तो जीसस ने ऐसी करुणा दिखाई। अंधों को आंखें देने से क्या हो जाएगा? इतने लोगों को तो आंखें वैसे ही हैं, उनको क्या हो गया है? और बहरों को कान मिल गए तो क्या फायदा? वही फिल्मी गाने सुनेंगे जो तुम सुन रहे हो। और लंगड़े चलने भी लगे तो क्या करेंगे, जाएंगे कहां? वही शराब-घर, वही वेश्या के मुहल्ले में। और मुर्दों को जिला भी दिया, तो पहले ही जिंदा थे, पहले ही कौन सा बड़ा काम कर लिया था, अब क्या कर लेंगे? लजारस को जिंदा कर दिया जीसस ने, फिर क्या किया, इसका तो कोई बताए? लजारस ने फिर किया क्या? फिर कुछ पता ही नहीं चलता कि लजारस का हुआ क्या? चलो जिंदा ही हो गए तो फिर वही गोरखधंधा किया होगा, जो पहले करते थे।
सूफियों के पास तो एक कहानी भी है कि जीसस एक गांव में आए और उन्होंने देखा एक आदमी नाली में पड़ा हुआ गालियां बक रहा है। उसके पास गए समझाने कि भाई, क्यों गालियां बकता है? परमात्मा ने यह वाणी दी है, भजन गाओ, कीर्तन करो, प्रभु का नाम लो। जब पास गए तो देखा यह तो शकल पहचानी हुई मालूम पड़ती है। याद किया तो पता चला--अरे, यह आदमी तो गूंगा था! उस आदमी को हिलाया और कहा कि भई याद कर, मुझे भूल गया?
तो उसने कहा, भूलूं? सात जन्म नहीं भूलूंगा। मैं तो गूंगा था, भला था। यह तुमने ही मुझे जबान दी, अब इस जबान का क्या करूं? गालियां न दूं तो और क्या करूं, इस संसार में है क्या? सब तरह के दुष्ट हैं। पहले तो गूंगा था तो पी जाता था भीतर ही भीतर, अब जबान है तो कह देता हूं। इससे और अड़चन हो गई है। इससे और मुश्किल हो गई है। इससे रोज झगड़ा-फसाद खड़ा हो जाता है। यह तुमने जबान क्या दे दी, जिंदगी में झगड़े-फसाद दे दिए। और झगड़े-फसाद और चिंता और उपद्रव के कारण शराब पीने लगा हूं। यह सबका जुम्मा तुम्हारा है।
जीसस तो बहुत हैरान हुए। थोड़े आगे बढ़े तो उन्होंने देखा एक जवान आदमी एक वेश्या के पीछे चला जा रहा है--सीटी बजाता हुआ, एकदम मस्ती में गुनगुनाता हुआ! शकल पहचानी हुई मालूम पड़ी। रोका और कहा कि जवान आदमी हो और अभी से गलत रास्ते पर चले हो। अरे, इस जिंदगी को परमात्मा ने किसलिए दिया है?
उस आदमी ने कहा कि चुप, यह तू ही है। मैं तो बीमार था, मैं तो खाट से लगा था, खराब काम करना भी चाहता तो नहीं कर सकता था। तूने ही मुझे स्वस्थ किया। अब मुझे बता, इस स्वास्थ्य का क्या करूं? तूने मुझे जवानी दी, अब इस जवानी का क्या करूं? और अब बाधा डालने आया है? मैं तो इस झंझट से मुक्त ही था। हड्डी-हड्डी हो रहा था, उठ नहीं सकता था, बैठ नहीं सकता था, खांसता-खंखारता बिस्तर से लगा था। तूने मुझे जवान किया, स्वस्थ किया, चंगा किया, अब क्या करूं? सीटी न बजाऊं तो और क्या करूं? और सुंदर स्त्रियों के पीछे न जाऊं तो कहां जाऊं?
जीसस तो इतने उदास हो गए कि गांव छोड़कर बाहर निकले। वहां देखा कि एक आदमी इंतजाम कर रहा है मरने का। हो सकता है लजारस ही हो। फंदा लगाकर झाड़ में लटकने के करीब ही है कि जीसस ने जाकर रोका कि रुक भाई, यह तू क्या कर रहा है?
उस आदमी ने कहा कि पहचानो कि मैं कौन हूं। मैं तो मर गया था, उस वक्त भी तू आ गया और मुझे जिंदा कर दिया। और जिंदगी में मुझे कुछ सार मालूम होता नहीं। सिवाय दुख, सिवाय संताप के, चिंताओं के कुछ भी नहीं। अब तू जा, राह से लग अपनी। मुझे मरने दे। मुझे नहीं चाहिए यह जिंदगी। मुझे माफ कर। अब और चमत्कार न दिखा, देख चुका बहुत चमत्कार। अपने चमत्कार अपने पास रख।
सूफियों की यह कहानी बड़ी अदभुत है। इसमें बात तो कुछ पते की है। क्या होगा आदमी को जिंदगी भी देने से? आंख दे दिए, पैर दे दिए, जबान दे दी, क्या होगा? आदमी वही करेगा जो सारे दुनिया के लोग कर रहे हैं। तो मुसलमान नहीं कहता कि यह कोई चमत्कार है। चमत्कार तो सिर्फ एक है कि लोगों को अगर मर्जी से हो तो मर्जी से, और अगर न मर्जी से हो तो न मर्जी से। लेकिन अल्लाह की याद दिलाओ, उनको मुसलमान बनाओ।
तुम्हें लगेगा कि यह बात बड़ी जबर्दस्ती की है, स्वतंत्रता छिन रही है। यह तो बच्चे को भी लगेगा कि वह आग की तरफ जा रहा है और मां उसकी खींच रही है, स्वतंत्रता छिन रही है। लेकिन ये सारे लोग इतनी विभिन्न भाषा में बोलते हैं; इतने अलग-अलग ढंग और अलग-अलग लहजे हैं इनके। इनकी शैलियां और व्यवस्थाएं ऐसी हैं कि तुम किसको प्रमाण मानोगे?
न एको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
किसी भी एक मुनि का कोई वचन प्रमाण नहीं है। फिर क्या रास्ता है?
सूत्र कहता है: धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्।
आनंद किरण, तुमने इसका अनुवाद किया कि धर्म का तत्व तो गहन है। उस अनुवाद में यूं तो कुछ भूल नहीं, भाषा के लिहाज से अनुवाद बिलकुल ठीक है; मगर अनुभव के लिहाज से भूल है।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्।
सिर्फ भाषांतर, शुद्ध भाषा का ही रूपांतरण करना हो, तो तुम्हारा अनुवाद ठीक है कि धर्म का तत्व तो गहन है। लेकिन अगर इसके भाव में उतरना हो, भाषा को ही न पकड़ना हो, तो इसका अर्थ बहुत और है। इसका अर्थ है धर्म का तत्व तो स्वयं के भीतर की गुहा में छिपा हुआ है। गुहायाम्! वह जो अंतर-गुहा है, वह जो हृदय की गुफा है, वहां छिपा हुआ है। न तो मुनि के वचनों में मिलेगा, न श्रुतियों में, न स्मृतियों में। अंतर-गुहा में। हिमालय की गुफाओं में नहीं, भीतर की गुफा में। अपनी ही चेतना में डुबकी लगाओगे तो पाओगे।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्।
क्योंकि श्रुतियां भी बाहर हैं, स्मृतियां भी बाहर हैं, मुनियों के वचन भी बाहर हैं और धर्म तो तुम्हारे भीतर है। धर्म तो तुम्हारा स्वभाव है, स्वरूप है।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्।
खोजो उसे अपनी ही गुहा में। धर्म का तत्व तो मिलेगा समाधि से, क्योंकि समाधि है अपने में डुबकी।
महाजनो येन गतः स पंथाः।
और महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं वही केवल मार्ग है।
तुम पूछते हो, "महाजन की पहचान क्या है?'
बुद्धि के लिए तो महाजन की कोई पहचान नहीं हो सकती, क्योंकि महाजन की प्रतीति ही बुद्धि की प्रतीति नहीं। और पहचान की भाषा बुद्धि की भाषा है।
तुम पूछ रहे हो, "कौन से लक्षण?'
फिर उपद्रव शुरू हो जाएगा--वही उपद्रव जो मुनियों के लिए है, वही महाजन के लिए हो जाएगा। किस बात को लक्षण मानोगे? दिगंबरत्व लक्षण है महापुरुष का? तो फिर नग्न दिगंबर जैन मुनि ही केवल महाजन रह जाएंगे। फिर ईसा और जरथुस्त्र और बुद्ध और लाओत्सु और च्वांगत्सु जैसे अदभुत पुरुष महापुरुष न रह जाएंगे, महाजन न रह जाएंगे। किस बात को लक्षण मानोगे? अगर लोगों की सेवा करना ही लक्षण है तो महावीर ने कभी किसी की कोई सेवा नहीं की।
मेरे पास पत्र आ जाते हैं लोगों के। जैन भी मुझे पत्र लिख देते हैं कि आप गरीबों की सेवा क्यों नहीं करते? अगर ये महावीर को मिल जाएं, महावीर से भी कहेंगे कि गरीबों की सेवा क्यों नहीं करते! क्या तुम सोचते हो महावीर के समय में गरीब नहीं थे, कोढ़ी नहीं थे, अंधे नहीं थे, लंगड़े नहीं थे, लूले नहीं थे? सब थे। महावीर ने किसी की सेवा नहीं की, न बुद्ध ने किसी की सेवा की। लक्षण क्या है? अगर सेवा लक्षण है तो फिर ईसाई मिशनरी--महाजन। वे सेवा में ही लगे रहते हैं। उनका काम ही सेवा करना है। उनका धर्म ही सेवा है।
अगर समाधि लक्षण है तो समाधि बड़ी भीतर की बात है। किसको मिली, किसको नहीं मिली--कौन तय करे? कैसे तय करे? रामकृष्ण मूर्च्छित हो जाते थे समाधि में। बुद्ध कभी मूर्च्छित नहीं हुए। अगर बौद्धों से पूछो तो रामकृष्ण की समाधि--जड़ समाधि, असली समाधि नहीं। यह कोई समाधि हुई? समाधि में तो चैतन्य प्रगाढ़ होना चाहिए। यह तो चेतना और खो गई। और बौद्धों से मनोचिकित्सक भी राजी हैं। मनोचिकित्सक भी रामकृष्ण के संबंध में यही कहते हैं कि यह एक तरह का मिर्गी का फिट है। और लक्षण मिलते हैं कि मिर्गी में भी जो घटना घटती है वही रामकृष्ण को घटती थी। मुंह से फसूकर बहता था, आंखें ऊपर चढ़ जाती थीं, हाथ-पैर अकड़ जाते थे। अब बहुत मुश्किल है कि महाजन का लक्षण क्या? यह मिर्गी आ रही है कि समाधि लग रही है? बुद्ध को तो ऐसी कभी समाधि लगी नहीं। लेकिन अगर रामकृष्ण को मनाने वाला इसको समाधि मानता हो तो उसको बुद्ध की समाधि में शक होगा कि न तो हाथ-पैर अकड़ते हैं, न आंखें ऊपर चढ़ती हैं। दोनों आंखें ऊपर चढ़नी चाहिए, तब तो तृतीय नेत्र का अनुभव होगा। दांत भिंच जाने चाहिए, उस बात का लक्षण है कि ऊर्जा ऊपर जा रही है। रामकृष्ण की जीभ कट जाती थी कभी-कभी दांतों के बीच पड़ जाती थी। फसूकर तो निकलना ही चाहिए? वह इस बात का लक्षण है कि देह और आत्मा का तादात्म छूट गया। अब किसको लक्षण मानोगे?
तो महाजन कौन है, बुद्धि के द्वारा कोई निर्णय नहीं हो सकता। फिर निर्णय होता है--हृदय से। जिससे तुम्हारी प्रीति लग जाए, जिससे तुम्हारे हृदय का छंद मिल जाए, जिसके पास बैठकर तुम्हारा आनंद-कमल खिले--वही महाजन है। बाकी ऊपरी बातें छोड़ दो। जिसको कार्ल गुस्ताव जुंग ने सिंक्रानिसिटी कहा है। जिसके पास बैठकर तुम्हारे भीतर संगीत बज उठे। जिसके भीतर जीवन अपनी परिपूर्णता में जागा हो, निश्चित ही उसके पास अगर कोई मौन समर्पित भाव से बैठे तो उस जीवन की छाप, उस जीवन का धक्का तुम्हारी सोई हुई चेतना को भी लगेगा। वे किरणें तुम्हारे भीतर भी प्रवेश करेंगी और तुम्हारे भीतर भी एक नई शृंखला का सूत्रपात होगा। तो जिसका जहां तालमेल बैठ जाए। सिंक्रानिसिटी का अर्थ है: तालमेल, छंदबद्धता, लयबद्धता। जिसकी बांसुरी सुनकर तुम्हारे भीतर कोई नाच उठे, तुम्हारे पैरों में अचानक घूंघर बजने लगें--वही महाजन है।
महाजन की परीक्षा बौद्धिक नहीं है, हार्दिक है; तार्किक नहीं है, प्रीतिगत है। और प्रेम तो पागल होता है। प्रेम कोई हिसाब-किताब मानता है? जहां तुम्हारा मन-मयूर नाचे, वह महाजन है। फिर तुम किसी की न सुनना, दुनिया कुछ भी कहे। अगर तुम्हारा मन-मयूर मोहम्मद के पास नाचे तो तुम फिर फिक्र मत करना कि कौन क्या कहता है, कि वीतराग हैं या नहीं? तुम्हारा मन-मयूर नाचा तो मोहम्मद तुम्हारे लिए महाजन तो हैं ही और दुनिया में बहुत तरह के लोग हैं। किसी को बांसुरी प्यारी लगती है और किसी को न भी लगे। और किसी को सितार प्यारा लगता है और किसी को न भी लगे।
तुम्हारा रुझान इतना भिन्न-भिन्न है कि कोई बुद्ध के साथ नाच उठेगा, कोई महावीर के साथ नाच उठेगा, कोई मोहम्मद के साथ, कोई जीसस के साथ, कोई कबीर के साथ। कहां तुम्हारी गुनगुन पैदा हो जाए--जहां तुम्हारे भीतर गुंजन आ जाए, जिसके माध्यम से तुम्हारे भीतर का पक्षी पर फड़फड़ा दे, आकाश में उड़ने को आतुर हो जाए--वही महाजन है।
महाजनो येन गतः स पंथाः।
फिर महाजन क्या कहता है, इसकी बहुत फिक्र मत करना। कैसे जीता है, इसकी चिंता करना। कहने में मत उलझना। उसके जीवन को, उसके जीवन के सौंदर्य को, उसके जीवन के प्रसाद को पीना। कैसे उठता, कैसे बैठता। गीता में कृष्ण ने स्थितिधी की परिभाषा की है--कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसे चलता। हर हाल में, दुख हो कि सुख, सम रहता। जीत हो कि हार, उसे अंतर नहीं पड़ता।
तुम महापुरुष के या महाजन के शब्दों की बहुत चिंता मत करना। तुम उसके जीवन की पहचान में उतरना। उसकी आंखों में झांकना। उसके प्राणों के साथ अपना तालमेल जोड़ना। उसकी जीवन-चर्या को ही तुम उसका संदेश समझना।
महाजनो येन गतः स पंथाः।
जैसे महाजन चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, जीते हैं--बस वैसे ही जीना। और ध्यान रहे, इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम उनका अनुकरण करना, कि नकल करना। इसका कुल इतना अर्थ है कि तुम उनके साथ अपने छंद को जोड़ना। तुम इतने शून्य हो जाना कि तुम्हारे भीतर अहंकार न बचे, ताकि जिस महापुरुष से, जिस महाजन से तुम्हारी प्रीति लग गई हो, उसका जीवन तुम्हें पूरा का पूरा आच्छादित कर ले, उसकी वर्षा तुम पर पूरी-पूरी हो जाए। अपने पात्र को खुला कर देना, ढांक कर मत बैठे रहना। अपने सब पर्दे गिरा देना, ताकि उसकी किरणें तुम्हारे भीतर आ जाएं। अपने सब द्वार-दरवाजे खोल देना, ताकि उसकी हवाएं आएं और तुम्हारी धूल-धवांस को झाड़ ले जाएं।
महाजनो येन गतः स पंथाः।
इसलिए न तो श्रुतियों में भटकना, न स्मृतियों में, न मुनियों के वचनों में। क्योंकि सत्य तो तुम्हारे भीतर छिपा है। लेकिन तुम्हें अपने सत्य का अभी पता नहीं है; इसलिए जिसे पता हो...और किसे पता है? जिसके पास बैठकर तुम्हारे भीतर का सत्य अंगड़ाई लेने लगे, उसे पता है बस; इसके सिवाय और कोई प्रमाण नहीं है। जिसके पास बैठकर तुम्हें खुमारी छाने लगे, मस्ती आने लगे, समझ लेना इशारा, कि यही है वह जगह, कि यही है वह मंजिल, जिसकी मैं तलाश करता था; कि यही है वह मंदिर जिसकी चौखट पर मेरे सिर को झुका देना है, फिर उठाना नहीं। तो वह जो धर्म का अत्यंत गहराइयों में छुपा हुआ तत्व है, उसका साक्षात्कार हो सकता है।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्
महाजनो येन गतः स पंथाः।।
योग प्रीतम का यह गीत--
बहो मेरी नदिया, बहो धीरे-धीरे
बहो    भाव-निर्झर,    बहो    धीरे-धीरे
महाजन की पहचान भाव-निर्झर से होगी। जिसके पास तुम्हारे भाव का झरना बहने लगे--वह झरना जो सदियों से अवरुद्ध पड़ा है।
बहो मेरी नदिया, बहो धीरे-धीरे
बहो भाव-निर्झर, बहो धीरे-धीरे
बहो यों, जमाना बहे साथ तेरे
बनो इक तराना कि सब गुनगुनाएं
हृदय के वनों में--गहन घाटियों में
कहो मौन-मुखरित स्वयं की कथाएं
उड़ो मेरी मैना, उड़ो हौलेऱ्हौले
उड़ो मेरे सुगना, उड़ो धीरे-धीरे
उड़ो इस तरह चित्त-आकाश में तुम
तुम्हें देखकर पंख सब फड़फड़ाएं
उड़ो यों, उन्हें याद आ जाए खुद की
जुड़ो यों कि सबके हृदय भी जुड़ाएं
खिलो मेरी कलियां, हृदय-वृन्त पर तुम
खिलो मेरे फुलवा, खिलो धीरे-धीरे
खिलो, देख तुमको खिलें चित्त सारे
कोई गीत गाओ, गजल गुनगुनाओ
डुबा दो सभी को सुरभि-सिंधु में तुम
कि सौंदर्य का राज सबको सुनाओ
झरो मेरी बदली--सुधा-वर्षिणी बन
झरो मेरे मेहा, झरो धीरे-धीरे
झरो यों, बहारों के मेले जुड़ें नित
कहीं मोर नाचे, पपीहा पुकारे
धरा लहलहाए, हृदय झूम गाए
बहे सुख-सरित तोड़कर सब किनारे
कहो मेरी मस्ती, बहकते हुए कुछ
कहो मेरे मनवा, कहो धीरे-धीरे
मदिर सा कहो कुछ, मधुर सा कहो कुछ
कि ज्यों कोकिला की कुहू आम्रवन से
कि जैसे चटक कर कली कह उठे कुछ
छिड़े तान, जोड़े धरा को गगन से
रहो मेरे मितवा, रहो साथ मेरे
हृदय की कहानी, कहो धीरे-धीरे
बहो मेरी नदिया, बहो धीरे-धीरे
बहो    भाव-निर्झर,    बहो    धीरे-धीरे
महाजन की पहचान भावों से होती है, तर्कों से नहीं, सिद्धांतों से नहीं। इसलिए महाजन की पहचान केवल दीवाने कर पाते हैं। शमा जलती है तो परवाने खिंचे चले आते हैं। बस परवाने ही पहचान पाते हैं। परवाने मरने चले आते हैं।
धर्म का तत्व तो अत्यंत गहरी गुफाओं में छिपा पड़ा है--उन गुफाओं में जो तुम्हारे भीतर हैं, लेकिन जिनका तुम्हें कोई पता नहीं, कोई पहचान नहीं। लेकिन जिसके भीतर धर्म का अनुभव प्रगाढ़ हो गया हो, उसकी मौजूदगी में तुम्हारे भीतर भी टंकार पड़ सकती है, तुम्हारे वीणा के तार भी उसकी बजती वीणा के कारण झंकृत हो सकते हैं। जो जाग गया है उसकी मौजूदगी तुम्हारी नींद को भी तोड़ने का कारण हो सकती है।
इसलिए महाजन की पहचान, आनंद किरण, बुद्धि की बात नहीं। बुद्धि के लक्षणों से कुछ भी न होगा। भाव की बात है, दीवानगी की बात है, मस्ती की बात है, खुमारी की बात है। यह मामला पियक्कड़ों का है, रिन्दों का है; मंदिरों का कम, मयकदों का ज्यादा है। शराबियों का ज्यादा, जुआरियों का ज्यादा, दुकानदारों का कम।
यह पूरी प्रक्रिया प्रेम की प्रक्रिया है। कैसे तुम पहचान लेते हो कि किसी स्त्री से तुम्हारा प्रेम हो गया, कि किसी पुरुष से तुम्हारा प्रेम हो गया? कैसे? क्या प्रमाण होता है? कौन सी श्रुति, कौन सी स्मृति? होता है तो हो जाता है, नहीं होता तो नहीं होता। लाख उपाय करो तो नहीं होता। और हो जाए तो लाख उपाय करो, तो मिटा नहीं पाते। ठीक ऐसी ही घटना, प्रेम की ही घटना एक बहुत ऊंचे तल पर गुरु और शिष्य के बीच भी घटती है। मगर वह घटना प्रेम की है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
जड़ों के बिना फूलों की संभावना नहीं और अतीत के बिना वर्तमान संभव नहीं।
ऐसे ही हमारी जड़ें भारतीय संस्कृति के चिरंतन गौरव से जुड़ी हैं।
यह जो आप संन्यास का फूल खिला रहे हैं, इसकी जड़ें भी भारतीय संस्कृति में हैं,
इससे आप इनकार नहीं कर सकते।
ध्यान, जो कि आप सिखा रहे हैं, यह भी आपका मौलिक नहीं है।
फिर क्यों नहीं आप भारतीय संस्कृति की अक्षुण्ण सनातन धारा को स्वीकार करते हैं?
क्या यह भी एक सत्य नहीं है कि आप भी भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में खिले एक श्रेष्ठतम फूल हैं?
भगवान, आशा है कि आप इसे स्वीकार करेंगे।

भारत भूषण,
आशा तो प्यारी है, पर क्षमा करना, निराश करूंगा। नहीं स्वीकार कर सकता हूं। तुम्हारी बातें ऊपर से तो बिलकुल ठीक लगती हैं, भीतर से बिलकुल भी ठीक नहीं।
पहली बात: "जड़ों के बिना फूलों की संभावना नहीं...।'
यह सच है, जहां तक भौतिक फूलों का संबंध है, जड़ों के बिना फूलों की कोई संभावना नहीं। लेकिन बुद्धत्व तो आकाश कुसुम है। यह कोई साधारण फूल नहीं। यह कोई पौदगलिक, पदार्थगत फूल नहीं है। यह तो फूल ही अदृश्य है। और यह अदृश्य फूल जड़ों से नहीं जुड़ा होता। लेकिन जैसा हम सोचते हैं कि अतीत के बिना वर्तमान कैसे संभव होगा?
वही तुमने कहा कि "अतीत के बिना वर्तमान संभव नहीं...।'
और मैं तुमसे कहना चाहूंगा: अतीत के कारण ही वर्तमान संभव नहीं हो पाता है। तुम कहते हो, अतीत के बिना वर्तमान संभव नहीं। और मैं भी तुम्हारी बात समझा। यही बात कोई भी कहेगा। लेकिन तुम भी कोशिश करो मेरी बात समझने की। अतीत के कारण ही वर्तमान संभव नहीं। जब अतीत गिर जाता है तभी वर्तमान संभव होता है।
साधारण लोकोपचार में अतीत, वर्तमान और भविष्य, समय के तीन खंड हैं। लेकिन जिन्होंने समाधि को जाना है, उनके लिए समय के दो खंड हैं--अतीत और भविष्य। वर्तमान समय का खंड ही नहीं। वर्तमान शाश्वत का हिस्सा है, समय का नहीं। समय तो प्रवाहमान है और शाश्वत थिर है। वर्तमान तो शाश्वत का प्रवेश है समय की धारा में। जैसे अंधेरे में कोई किरण उतर आए। माना कि अंधेरे में है किरण, लेकिन अंधेरे का हिस्सा नहीं है; हिस्सा तो किसी सूरज का है। जैसे अंधेरे में उतरती हुई किरण। जैसे तुम्हारे घर में अंधेरा छाया है और सिर्फ खप्पड़ की जरा सी संध से, सूरज की एक किरण उतर आई है। यूं तो तुम्हारे अंधेरे कमरे का ही हिस्सा है, ऊपर से देखने पर, क्योंकि तुम्हारे अंधेरे कमरे में मौजूद है; लेकिन तुम्हारे अंधेरे कमरे का हिस्सा नहीं। अंधेरे का प्रकाश कैसे हिस्सा हो सकता है? है तो किरण सूरज की।
ऐसे ही वर्तमान शाश्वत का हिस्सा है, समय का नहीं। समय का तो दो खंड़ों में विभाजन हो सकता है--अतीत और भविष्य। और जो वर्तमान में ठहर जाता है, उसकी न तो अतीत में कोई जड़ें होती हैं और न भविष्य में कोई शाखाएं होती हैं। वह तो पूर्णतया वर्तमान में ही होता है। और वर्तमान इतना विराट है कि अब क्या जरूरत अतीत की और क्या जरूरत भविष्य की? भविष्य में होती है कामना, वासना; अतीत में होती है स्मृति। और समाधि में न स्मृति होती है, न वासना होती है। और जहां न स्मृति है न वासना, वहां शाश्वतता का अनुभव होता है। वह अनुभव वर्तमान है।
इसलिए भारत भूषण, क्षमा करना तुम्हें निराश कर रहा हूं। यह फूल जो बुद्धत्व का है, जड़ों के बिना खिलता है। और यह जो वर्तमान है, जिसकी मैं बात कर रहा हूं, इसका अतीत से कोई भी लेना-देना नहीं। यह अतीत की शृंखला का हिस्सा नहीं है, उसकी कड़ी नहीं है। यह अतीत से बिलकुल ही भिन्न है--अतीत का अतिक्रमण करता है, अतीत के पार है।
तुम तो एक बात को मान लिए, फिर उसमें से और तर्क निकालते गए--"ऐसे ही हमारी जड़ें भारतीय संस्कृति के चिरंतन गौरव से जुड़ी हैं।'
तुम्हारी जुड़ी होंगी, मुझे उससे कुछ लेना-देना नहीं। कभी मेरी भी जुड़ी थीं, लेकिन जब से मैं जागा तब से नहीं जुड़ी हैं। तब से भारतीय संस्कृति से नहीं, किसी संस्कृति से नहीं जुड़ी हैं। तब से मेरे ही अतीत से नहीं जुड़ी हैं तो किसी और के अतीत से क्या जुड़ेंगी?
जागरण क्रांति है, परंपरा नहीं। छलांग है।
और किस चिरंतन गौरव की तुम बातें कर रहे हो? धर्म का इतिहास से कोई संबंध नहीं। कहां का चिरंतन गौरव? क्यों मुर्दों को ढोते हो? क्यों सड़ी लाशों को घसीटते हो? इतना बोझ हो गया है तुम्हारे ऊपर कि तुम चल भी नहीं पाते, नाचना तो बहुत दूर। मगर बोझ को उतारें कैसे, वह तो गौरवपूर्ण है!
मैं जो तुम्हारे अतीत का खंडन करता हूं निरंतर, उसका कारण यह है कि चाहता हूं कि तुम अतीत का सारा बोझ उतार दो। सोने का ही सही तुम्हारा अतीत, मगर उतारो। सोने को भी छाती पर अगर रखे बैठे रहे तो मार डालेगा। और क्या है गौरव उसमें? अगर तुम्हारे देश में बुद्ध हुए, महावीर हुए, तो यह केवल संयोग की ही बात है तुम्हारा देश। तुम्हारे देश के कारण नहीं हो गए। क्योंकि चीन में लाओत्सु हुआ, च्वांगत्सु हुआ, लीहत्सु हुआ; कोई अड़चन न आई। यूनान में सुकरात हुआ, पाइथागोरस हुआ, प्लाटीनस हुआ; कोई अड़चन न आई। जेरूसलम में जीसस हुए; कोई अड़चन न आई।
सारी दुनिया में जाग्रत पुरुष हुए हैं। जाग्रत पुरुष के होने का कोई संबंध न तो भूगोल से है, न इतिहास से है, न भूमि से है, न मौसम से है, न ठंड से है न गर्मी से है। इस पागलपन में न पड़ो। और अगर इस तरह का पागलपन करोगे तो फिर मुश्किलें बहुत बढ़ती जाएंगी। फिर तो बुद्ध और महावीर दोनों बिहार में हुए, फिर महाराष्ट्र का क्या होगा? फिर पंजाब का क्या होगा और गुजरात का क्या होगा? और फिर बुद्ध और महावीर कोई पूरे बिहार में थोड़े ही पैदा हुए, कि एकदम पैदा हुए, पूरे बिहार में पैदा हो गए! बुद्ध तो कपिलवस्तु में पैदा हुए--एक छोटा सा नगर, जिसका नाम-निशान भी नहीं बचा अब। तो कपिलवस्तु का गौरव है। और कपिलवस्तु में भी पूरे कपिलवस्तु में ही थोड़े पैदा हो गए होंगे। अरे, किसी मुहल्ले में पैदा हुए होंगे, किसी घर में पैदा हुए होंगे। घर में भी पूरे घर में नहीं, क्योंकि महल बड़ा था जहां बुद्ध पैदा हुए, किसी कमरे में पैदा हुए होंगे। कमरे में भी क्या खाक पैदा होंगे, किसी बिस्तर पर पैदा हुए होंगे! तो उस खाट का ही गौरव समझो। हो गई खाट खड़ी! ऐसे कहीं गौरव होता है? और उस खाट की क्या कोई खास खूबी थी तुम समझते हो? अरे, कोई भी खाट काम दे देती। और खाट न भी होती तो भी पैदा होते। आखिर जीसस को खाट नहीं मिली। मां-बाप गए थे मेले में, सारी धर्मशालाएं भरीं, होटलें भरीं, कहीं जगह न मिली, एक घुड़साल में जगह मिली तो घुड़साल में ही पैदा हो गए। कुछ आदमी सोचता भी है पैदा होने के पहले कि यह भी कोई ढंग है! घुड़साल में जहां पुआल थी, उस पुआल में जीसस का जन्म हुआ।
न तो मिट्टी से कुछ लेना है, न आकाश से कुछ लेना है, न देश से कुछ लेना है, न परंपराओं से कुछ लेना है। बुद्धत्व का फूल तो कहीं भी खिल सकता है, कहीं भी खिला है। सब जगह खिला है। यह पागलपन छोड़ना चाहिए। मगर यह पागलपन हम छोड़ते नहीं, भारत भूषण। हमारे अहंकार को अड़चन आती है। और अहंकार को ही मैं चाहता हूं कि छूटे। तुम्हारे अहंकार पर ही चोटें कर रहा हूं सब तरीके से। अगर कभी मैं चोट भी करता हूं तुम्हारे अतीत पर, तो अतीत से मुझे क्या लेना-देना है? तुम्हारे अहंकार पर चोट कर रहा हूं। तुमसे मेरा प्रयोजन है।
मेरे पास जो आए हैं, मैं उनका अहंकार बिलकुल ही खंडित कर देना चाहता हूं, ताकि वे आगे इसको ढो न सकें। मगर तुम बचा लेना चाहते हो।
तुम कहते हो, "जड़ों के बिना फूलों की संभावना नहीं...।'
खूब तर्क तुमने खोजा!
"और अतीत के बिना वर्तमान संभव नहीं।'
अब चली बात में से बात।
"ऐसे ही हमारी जड़ें भारतीय संस्कृति के चिरंतन गौरव से जुड़ी हैं। यह जो आप संन्यास का फूल खिला रहे हैं, इसकी जड़ें भी भारतीय संस्कृति में हैं।'
नहीं, जरा भी नहीं हैं, बिलकुल नहीं! अगर मेरे संन्यास की जड़ें भारतीय संस्कृति में होतीं तो मुझे इतनी गालियां पड़तीं? शंकराचार्य और आचार्य तुलसी और तरहत्तरह के महंत, संत, महात्मा, सब मेरे विरोध में होते? जिस संन्यास की मैं बात कर रहा हूं वैसा संन्यास पृथ्वी पर कभी भी नहीं था। मैं उस संन्यास की बात कर रहा हूं जो संसार के प्रति पलायन से भरा हुआ नहीं। तुम्हारे अतीत का सारा संन्यास पलायनवादी था। तुम्हारे बुद्ध भी और तुम्हारे महावीर भी पलायनवादी थे।
मैं जिस संन्यास की बात कर रहा हूं वह जीवन को जीने की कला है, जीवन को त्यागने की नहीं। वह जीवन को इस परिपूर्णता से, समग्रता से जीने का ढंग है कि जैसे जीवन ही परमात्मा है, कहीं और कोई परमात्मा नहीं। कुछ त्यागना नहीं है, कहीं भागना नहीं है। यहीं जीना है। मगर जीने की शैली सीखनी है। ध्यानपूर्वक जीना है। समाधिपूर्वक जीना है।
निश्चित ही, भूलकर भी तुम यह मत सोचना कि इसकी जड़ें तुम्हारी संस्कृति में हैं। रामकृष्ण चौबीस घंटे दो चीजों को गालियां देते थे--कामिनी और कांचन, बस इनसे बचो! अगर इनसे बच गए तो सब ठीक हो जाएगा। ये दो का ही प्राण लिए ले रहे हैं। अब तुम अगर मेरे संन्यास का संबंध रामकृष्ण से जोड़ो, तो कैसे जुड़ेगा? रामकृष्ण बिलकुल भारतीय संस्कृति से जुड़े थे, इसलिए किसी ने भी यह न कहा कि रामकृष्ण भारतीय संस्कृति का नुकसान कर रहे हैं या अहित कर रहे हैं। सबने ही गौरव-गरिमा गाई। कहा कि रामकृष्ण ने तो बड़ा भारी काम किया, ये तो अवतारी पुरुष हैं, ये तो अवतार हैं! राम और कृष्ण दोनों के जैसे इकट्ठे अवतार हैं! मगर गाली दे रहे थे वे कामिनी-कांचन को।
मैं न तो कामिनी को गाली देता हूं, न कांचन को। मैं तो कहता हूं दोनों प्यारे हैं। मुझे तो कोई अड़चन नहीं है। मैं तो कहता हूं, कांचन बढ़े! खूब बढ़े! और मैं तो चाहता हूं, कामिनियां और कामिनियां होती जाएं, और सुंदर होती जाएं! जीवन में सौंदर्य बढ़ना चाहिए, संपदा बढ़नी चाहिए--बाहर की भी, भीतर की भी। मैं बाहर का विरोधी नहीं हूं।
तुम्हारा अतीत का सारा संन्यास बाहर का विरोधी था। तुम्हारा अतीत का सारा संन्यास रुग्ण था, आत्मघाती था, स्वयं को सताने पर आधारित था। सताने को कहते थे तपश्चर्या; त्याग। मैं त्यागवादी नहीं हूं, तपश्चर्यावादी नहीं हूं। मेरे संन्यास की तो अलग ही साज-सज्जा है, अलग ही शृंगार है। तो मत इसे अपने अतीत से जोड़ो।
तुम कह रहे हो कि "यह जो आप संन्यास का फूल खिला रहे हैं, इसकी जड़ें भी भारतीय संस्कृति में हैं।'
जरा भी नहीं हैं। इसलिए तो इतना मेरा विरोध हो रहा है। वह विरोध काफी प्रमाण है इस बात का। रामकृष्ण का विरोध नहीं हुआ, विवेकानंद का विरोध नहीं हुआ, रामतीर्थ का विरोध नहीं हुआ, महात्मा गांधी का विरोध नहीं हुआ; ये सब भारतीय संस्कृति के परिपोषक थे। मैं जो कह रहा हूं वह इतना नया है, इतना भिन्न है, आयाम इतना नया है कि मेरा विरोध होना बिलकुल स्वाभाविक है।
तुम कहते हो, "इससे आप इनकार नहीं कर सकते।'
इससे मैं बिलकुल इनकार करता हूं, सौ प्रतिशत इनकार करता हूं।
तुम कहते हो, "ध्यान जो कि आप सिखा रहे हैं, यह भी आपका मौलिक नहीं है।'
तुम गलती में हो। सिर्फ शब्द पुराना है। तो शब्द तो मजबूरी है। शब्द तो पुराने ही उपयोग करने पड़ेंगे, क्योंकि भाषा तो वही बोलनी होगी जो तुम समझ सको। इसलिए ध्यान शब्द का उपयोग कर रहा हूं, इससे भ्रांति में मत पड़ना। मेरा ध्यान पतंजलि के ध्यान से कोई संबंध नहीं रखता। और मैंने पतंजलि पर जो कहा है, उसको पढ़कर मत सोच लेना कि मेरा ध्यान पतंजलि के ध्यान से संबंध रखता है। वह तो पतंजलि के कंधे पर भी रखकर मैंने बंदूक अपनी ही चलाई है। कंधे तो मैं कोई भी उपयोग कर लेता हूं। कंधे से क्या फर्क पड़ता है? कंधा तो मैं महावीर का उपयोग किया, बुद्ध का उपयोग किया, पतंजलि का उपयोग किया। जिसका कंधा जब मिल गया, उसी पर बंदूक रख ली। अब अपने ही कंधे पर बंदूक रखने से तो रहा। बंदूक तो किसी और के ही कंधे पर रखनी पड़ेगी, तभी निशाना ठीक लगता है।
लेकिन मेरा ध्यान पतंजलि का ध्यान नहीं है। पतंजलि का ध्यान है--धारणा में उसका प्रारंभ है। धारणा, ध्यान, समाधि--ये उसके तीन पहलू हैं। मेरा ध्यान धारणा से मुक्ति है। धारणा से मुक्ति हो, तो ही ध्यान शुरू होता है। और पतंजलि का ध्यान शुरू होता है धारणा की प्रगाढ़ता में। पतंजलि जिसको ध्यान कहते हैं, वह एकाग्रता है। और मैं जिसको ध्यान कहता हूं, वह विश्राम है, एकाग्रता नहीं। पतंजलि जिसे ध्यान कहते हैं, वह चित्त का ही काम है। और मैं जिसे ध्यान कहता हूं, वह चित्त का अभाव है। पतंजलि जिसको समाधि कहते हैं, वह ध्यान की पराकाष्ठा है--उनके ध्यान की पराकाष्ठा। मैं जिसको समाधि कहता हूं, वह मेरे ध्यान की पराकाष्ठा है। मगर मेरा और उनका ध्यान बुनियादी रूप से भिन्न है। और वही बात महावीर और मेरे ध्यान में है और वही बात बुद्ध के और मेरे ध्यान में है।
हालांकि जिन लोगों ने बुद्ध को मेरे माध्यम से पढ़ा है उनको लगेगा कि मैं वही कह रहा हूं जो बुद्ध ने कहा है। वह तुम गलती में हो। मेरे माध्यम से बुद्ध को पढ़ोगे तो तुम मुझको ही पढ़ रहे हो। बुद्ध तो केवल निमित्त मात्र हैं, खूंटी हैं; मगर कोट मैं हमेशा अपना टांगता हूं। मैं टांगूं भी किसी और का कोट क्यों? और कैसे टांगूं किसी और का कोट? टांगूंगा तो अपना ही कोट, खूंटी कोई भी हो। और खूंटी न मिलेगी तो खीली पर टांग दूंगा, और खीली नहीं मिलेगी तो दरवाजे पर टांग दूंगा। कहीं न कहीं कोट तो टांगना ही होगा।
मैं सब पर बोला हूं। और इसलिए जो लोग मेरे माध्यम से जीसस को समझेंगे वे ठीक से समझ लें, वे मुझे ही समझ रहे हैं। जो मेरे माध्यम से कबीर को समझेंगे, वे मुझे ही समझ रहे हैं। ये सब मेरे ढंग थे तुम तक अपनी बात पहुंचाने के। लेकिन मैं जिसे ध्यान कहता हूं वह बात अलग ही है, भिन्न ही है, मौलिक ही है।
तुम कहते हो, "फिर क्यों नहीं आप भारतीय संस्कृति की अक्षुण्ण सनातन धारा को स्वीकार करते हैं?'
मेरा कुछ लेना-देना नहीं है, क्यों स्वीकार करूं? मेरा कोई संबंध नहीं है, क्यों स्वीकार करूं?
और तुम कहते हो, "क्या यह भी एक सत्य नहीं है कि आप भी भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में खिले एक श्रेष्ठतम फूल हैं।'
जरा भी नहीं। मैं किसी पृष्ठभूमि में खिला हुआ फूल नहीं हूं। मैं तो कहीं भी खिल जाता। चीन में भी इसी तरह खिलता और जापान में भी इसी तरह खिलता और अरब में भी इसी तरह खिलता। जब से खिला हूं, तब से मैं यह बात समझा हूं कि पृष्ठभूमि से मेरे खिलने का कोई संबंध नहीं है। और तुम भी जब खिलोगे भारत भूषण, तो न तो तुम भारत रह जाओगे, न भूषण रह जाओगे। यह भारत भूषण होने का खयाल ही मिट जाएगा। जिस दिन खिलोगे उस दिन तुम पाओगे कि अरे, मैं तो शाश्वत से जुड़ा हूं! ये सब छोटे-छोटे दायरे, ये छोटे-छोटे डबरे--भारत के और पाकिस्तान के और चीन के और जापान के--इन छोटे-छोटे डबरों से क्या लेना-देना है? विराट से जुड़ो। जिस दिन तुम जागोगे उस दिन ही मेरी बात समझ पाओगे। अभी तो तुम्हारी बातें तुम्हें बहुत तर्कयुक्त मालूम पड़ती हैं। तर्कयुक्त हो भी सकती हैं, लेकिन समाधि का अनुभव तर्कातीत है। और यह जो पुराना उपद्रव है, इससे तुम जितनी जल्दी छूट जाओ उतना अच्छा।
दूर बरगद के घने साए में खामोशो-मलूल
जिस जगह रात के तारीक कफन के नीचे
माजी-ओऱ्हाल गुनहगार नमाजी की तरह
अपने एमाल पे रो लेते हों चुपके-चुपके
एक वीरान सी मस्जिद का शिकस्ता सा कलस
पास बहती हुई नद्दी को तका करता है
और टूटी हुई दीवाल पे चंडूल कभी
मर्सिया अज्मते-रफ्ता का पढ़ा करता है
गर्द-आलूद चिरागों को हवा के झोंके
रोज मिट्टी की नई तह में दबा जाते हैं
और जाते हुए सूरज के विदाई अन्फास
रोशनी आ के दरीचों की बुझा जाते हैं
हसरते-शामो-सहर आलमे-बाला से कहीं
इन परीशान दुआओं को सुना करती है
जो तरसती है शफक-रंग असर को अब तक
और टूटा हुआ दिल थाम लिया करती है
या अबाबील कोई आमदे-सरमा के करीब
इसको मस्कन के लिए ढूंढ लिया करती है
और मेहराबे-शिकस्ता में सिमटकर पहरों
दास्तां सर्द मुआलिक की कहा करती है
एक बूढ़ा गधा दीवार के साए में कभी
ऊंघ लेता है जरा बैठ के जाते-जाते
कैसी वीरानी है खुद वहशी बगूले डर कर
लौट जाते हैं वहीं दूर से आते-आते
फर्श जारोबकशी क्या है, समझता ही नहीं
वाकिफे-कतरा-ए-शबनम भी नहीं है हम्माम
ताक में शम्मअ के आंसू हैं अभी तक बाकी
पर मुसल्ला है न मिंबर न मुअज्जिन न इमाम
आ चुके साहबे-अफलाक के पैगामो-सलाम
कोहो-दर अब न सुनेंगे वो सदा-ए-जबरील
अब किसी काबे की शायद न पड़ेगी बुनियाद
खो गई दश्ते-फरामोश में आवाजे-खलील
चांद इक फीकी हंसी हंस के गुजर जाता है
डाल देते हैं सितारे धुली चादर अपनी
उस निगारे-दिलेऱ्यजदां के जनाजे पे बस इक
चश्म नम करती है शबनम यहां रोकर अपनी
एक मैला-सा रकीला-सा फसुर्दा-सा दिया
रोज रेशाजदा हाथों से कहा करता है
तुम जलाते हो कभी आ के बुझाते भी नहीं
एक जलता है मगर एक बुझा करता है
तेज नद्दी की हर-इक मौज तलातुम-बरदोश
चीख उठती है कहीं दूर से फानी-फानी
कल बहा लूंगी तुझे तोड़ के साहिल के कयूद
और  फिर  गुंबद-ओ-मीनार  भी  पानी-पानी
यह पुरानी मस्जिद, यह खंडहर हो गई मस्जिद, न अब यहां कोई प्रार्थना करता है, न कोई पूजा उठती, न कोई दीए जलते। यह गिरती मस्जिद रोज ईंट-ईंट खिसलती जाती है, मगर तुम हो कि इसी को छाती से लगाए बैठे हो। और जब तक तुम इसे छाती से लगाए बैठे हो, तुम भी खंडहर ही रहोगे।
भारत भूषण, मुर्दों को पकड़ोगे तो मुर्दा ही हो जाओगे। जीवन अभी है और यहां। जीवन वर्तमान है। न तो कल में जो बीत गया और न कल में जो आने वाला है। जो बीत गया, बीत गया। जो अभी आया नहीं, आया नहीं। जो अभी है, इसमें जो ठहर जाए, उस ठहरने का नाम समाधि। और उस समाधि में जो रुक गया, उसकी कोई पृष्ठभूमि नहीं, उसकी कोई जड़ नहीं। उसे मैं कहता हूं: आकाश-कुसुम। बुद्धत्व आकाश-कुसुम है। इसलिए बुद्धों को गालियां पड़ेंगी, बुद्धुओं को सम्मान मिलेगा।
न उनकी रीत नई, न अपनी प्रीत नई
न उनकी हार नई, न अपनी जीत नई
बुद्धों को तो गालियां पड़ेंगी, क्योंकि हमेशा वे पृष्ठभूमि से मुक्त होंगे, अतीत से मुक्त होंगे। और बुद्धुओं को सम्मान मिलेगा, क्योंकि वे हमेशा गौरव गुणगान करेंगे अतीत का।
मुझे कोई सम्मान नहीं चाहिए, कोई पद नहीं चाहिए, कोई प्रतिष्ठा नहीं चाहिए। मैं वहां हूं जहां अब कुछ भी नहीं चाहिए। मैं वहां हूं जिसके पार कुछ चाहने को बचता भी नहीं है। और जिस दिन से इस अंतर-आकाश को छुआ है, जिस दिन से धर्म के इस स्वयं की गुफा में छिपे हुए सत्य को अनुभव किया है, उस दिन से न भारत का हूं, न चीन का हूं; न हिंदुओं का हूं, न मुसलमानों का हूं। उस दिन से अस्तित्व का हूं; उससे कम पर राजी नहीं हो सकता हूं। और चाहूंगा कि तुम भी कभी उससे कम पर राजी न होना। उससे कम पर जो राजी हुआ वह भटकता ही रहेगा। उससे कम पर जो राजी हुआ उसने अपने जीवन की चुनौती को पूरा-पूरा स्वीकार नहीं किया। वह कभी जीवन के परम आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता है।

आज इतना ही।


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